शुक्रवार, 2 मई 2025

तवा गरम है! [अतुकांतिका]

 223/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तवा गरम है

चलो सेंक लें

अपनी -अपनी रोटी,

लगते हाथ 

बहुत कम मौके

उन्हें भुनाएँ आओ,

घड़ियाली दो आँसू

भरकर हमदर्दी दिखलाओ

पहले वोट 

देश है पीछे

यही सोच है अपनी,

दल बंदी के

दलदल में जा

कुर्सी की माला जपनी।


नेता हैं हम

नहीं सुधारक

हमें देश से क्या लेना,

पहलगाम के  

घाव उभारें

क्या  शासन क्या सेना,

राजनीति

अपनी चमकाएं

खण्ड- खण्ड में बाँटें,

इतिहासों को गरियाएँ

सरकारों को डाँटे।


हवा और ही 

इधर बह रही

खिचड़ी अलग पकाएँ,

जिनके पति 

परलोक सिधारे

उनको गले लगाएँ,

किसी बुरे में

भला ढूंढ़ना

हमें खूब है आता,

सद्गुण में भी

दाग खोजना

नहीं हमें शर्माता।


शुभमस्तु !


01.05.2025●10.30 आ.मा.

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फिर भी नहीं सुहाए भारत [नवगीत]

 222/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दाना - पानी 

यहीं मिले सब

फिर भी नहीं सुहाए भारत।


पौध यहाँ की

शूल बन गई

जाकर पार देश को धोखा

चुभते शूल

उगे डाली पर

चला यहीं गन फेंके खोखा

हवा दवा 

पानी भी पीते

आँखों में चुभ जाए भारत।


हुक्का - पानी

बन्द हो गया

त्राहि -त्राहि क्यों तू चिल्लाए

जिससे जन्म

लिया है तूने

उसको ही नित आँख दिखाए

क्रूर जिदें 

मन में ठानी हैं

चुटकी में गुम जाए भारत।


जीत यहाँ की

तुझे न भाती

मुख से तू जयहिंद न बोले

लगे पाक 

तुझको जब प्यारा

नारे पाक प्रियलता खोले

मतलब नहीं

यहाँ से कोई

फिर क्योंकर चुभ जाए भारत।


शुभमस्तु!


30.04.2025● 2.15प०मा०

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बुधवार, 30 अप्रैल 2025

भँवर पड़ें तो जूझिये [दोहा]

 221/2025

         

[आँधी, तूफान,ओले, झंझावात,भँवर]

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

प्रबल  वेग आँधी चले, कभी वज्र आघात।

चैत्र  और  वैशाख   में,असमय हो बरसात।।

अमराई   में  बीनते, जन आँधी के  आम।

मध्य  दुपहरी में  झुकी, सघन साँवली शाम।।


पहलगाम  आतंक का, बना विषम तूफान।

रक्त बहा  सुख शांति में, मिटते नहीं निशान।।

पल  भर  के तूफान का, कैसे सहे  विनाश।

अनहोनी  जब   हो  गई, सारा देश निराश।।


मूँड़  मुड़ाये जब गिरें, ओले कृषक  हताश।

विपदा के  आघात  से,मिट जाए उर आश।।

असमय  मेघों से गिरे, ओले हुआ  प्रभात।

आशाओं पर क्यों हुआ, प्रभु का वज्राघात।।


जीवन झंझावात का,विकट जटिल आयाम।

कब आँधी तूफान हो, कब प्रभात से शाम।।

करके  प्रबल प्रयास भी, रुके न झंझावात।

सबको ही  सहना  पड़े, ओला मेघ प्रपात।।


जीवन - नैया  जा पड़े,गहन भँवर के बीच।

तिनका भी पर्याप्त है, मिलता अगर नगीच।।

भँवर भाग्य   का  मापना,सदा असंभव  बात।

पड़े  निपटना  आपको, जीवन का जलजात।।


                    एक में सब

आँधी   झंझावात  हो,ओले या   तूफान।

भँवर  पड़ें  तो  जूझिये,तभी बचेगी  जान।।


शुभमस्तु !


30.04.2025● 5.00आ०मा० 

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सोमवार, 28 अप्रैल 2025

आकस्मिकता [ व्यंग्य ]

 220/2025 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 'आकस्मिकता' एक सौ एक प्रतिशत आकस्मिक है। वह किसी को भी इस बात के लिए संकेत नहीं देती कि वह आने वाली है। किसी को कोई पूर्वाभास भी नहीं देती ऐसा भी हो सकता है। वह किसी को सावधान भी नहीं करती कि सावधान हो जाइए मैं आने वाली हूँ। किसी मनुष्य, समाज,परिवार, देश ,प्रकृति या ब्रह्मांड के किसी भी क्षेत्र में आने वाली आकस्मिकता सर्वांश में आकस्मिक ही है। 

 प्रत्येक मनुष्य का जीवन आकस्मिकताओं से भरा हुआ है।आदमी शाम को अच्छा- भला खा पीकर सोता है और सुबह जब उठता है तो घर वाले देखने हैं कि वह तो पूरी तरह उठ चुका है।वह यह बताने के लिए भी नहीं उठता कि अपने उठ जाने की कहानी भी बताने लायक रहे! कभी -कभी वह पाता है कि वह बीमार है।उसे बुखार है।उसकी देह में दर्द है। उसे जुकाम है। उसे दस्त हो गए हैं। वह बोल नहीं पा रहा है। और न जाने क्या क्या हो जा सकता है;कहा नहीं जा सकता।यही सब वे अज्ञात अकस्मिकताएँ हैं,जो सदैव रहस्य रही हैं और रहस्य ही बनी रहेंगीं।

         'आकस्मिकता' के अनेक पर्याय हो सकते हैं।जैसे दुर्घटना,मृत्यु,बीमारी,  धी,तूफान,भूकंप,हत्याकांड,बाढ़,सुनामी,वज्राघात,गर्भाधान आदि आदि।इनके अतिरिक्त बहुत सारी अनंत आकस्मिकताएँ हैं,जिनका हिसाब-किताब रखना भी असंभव है।यदि आकस्मिकता का पूर्व में ही ज्ञान हो तो आकस्मिकता कैसी? इसीलिए इसे अनहोनी भी कह दिया जाता है।

  आकस्मिकता का पूर्व घोषित कोई इतिहास है न भूगोल।यह तो अंतरिक्ष की वह पोल है,जो इधर से उधर और उधर से इधर गोल ही गोल है। इसीलिए उसका कोई आदि है न अंत है।जब तक यह सृष्टि है,आकस्मिकता भी अनंत है। अब ढूँढते रहिए आकस्मिकता का कारण और उसके विविध निवारण, पर उसका तो अस्तित्व ही है अनिवारक और बनने लायक उदाहरण।हर आकस्मिकता अपने रूप और स्वरूप में मौलिक है।सृष्टि का ऐसा कोई स्थान नहीं ,जहाँ आकस्मिकता न हो।लगता है यह आकस्मिकता ही ब्रह्म है।आम या हर खास के लिए भ्रम है। आकस्मिकता समय का कर्म है। वह समय का ही क्रम है।वह एक दुरूह पहेली है। च्युंगम की तरह चुभलाते रहिए, पर कहीं कोई रस नहीं। इस पर आदमी का वश नहीं। उस पर किसी का कोई नियंत्रण भी नहीं। आकस्मिकता की नजरों में जो हुआ है ,वही सही। 

  हजारों लाखों अकस्मिकताएँ नित्य निरन्तर घटती हैं। पल -पल घट रही हैं।इसीलिए इसे एक और नाम :'परिवर्तन' से अभिहित किया जा सकता है। कोई आकस्मिकता सदा अशुभ ही हो;यह भी कोई अनिवार्य नहीं है। हाँ,इतना अवश्य है , जब कोई आकस्मिकता घटित होती है,तो चौंकाती अवश्य है।लोग कह देते हैं कि जो होता है;वह अच्छे के लिए ही होता है।यह भी सत्य ही है कि एक का भला सबका भला नहीं हो सकता।इसके रूप ही इतने वैविध्यपूर्ण हैं,कि शुभाशुभ की पहचान ही दुश्कर कार्य है। प्रकृति को कब क्या करना है,कोई नहीं जानता। सबसे बुद्धिमान होने का दावा करने वाले मनुष्य के लिए भी आकस्मिकता का रहस्य जानना असंभव है। बस यहीं आकर मानव की बुद्धि बौनी हो जाती है। वह बहुज्ञ हो सकता है;किंतु सर्वज्ञ नहीं हो सकता। सृष्टि का कर्ता क्या चाहता है; कोई नहीं जानता। यहाँ उसका ज्योतिष ,विज्ञान और गणित पूर्णतः अक्षम हो जाता है। तभी उसे परमात्मा की अनन्त शक्ति का आभास होता है।

   'आकस्मिकता' का यह लेख भी एक आकस्मिकता का अंग है।यकायक मन में जाग्रत एक उमंग है। भावों के साथ शब्दों का उछलता हुआ कुरंग है। अपनी अभिव्यक्ति का यह भी एक रंग है। आइए हम सभी आकस्मिकता पर विचार करें। किसी भी आकस्मिकता से नहीं डरें। क्योंकि जो होना है,वह तो होना ही है। फिर डरना घबराना कैसा? बस आगे बढ़ते जाएँ समय हमें बढ़ाए जैसा- जैसा।शब्द बहुत छोटा है,किंतु बड़ा खोटा है। कहीं यह नन्हा है सूक्ष्म है,मोटा है। पर सर्वथा अदृष्ट है। आदमी को इसी बात का तो कष्ट है कि आकस्मिकता गूँगी क्यों है?मौन क्यों है? निरजिह्व क्यों है? 

 शुभमस्तु ! 

 28.04.2025●10.00आ०मा० 

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मानव तन में हैं जो गाली [गीतिका ]

 219/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव   तन   में   हैं  जो   गाली।

उन्हें   सोहती     केवल   नाली।।


रंग  हिना का   हुआ  न  हलका,

मिटी   माँग   अधरों की  लाली।


पहलगाम  की     काँपी    वादी,

थर - थर  काँपी   डाली - डाली।


बुझा  दिए  जिनके  कुल दीपक,

बजे न  घर में    शैशव  -  ताली।


तम  से  भरे    हृदय    थे  काले,

दृष्टि   हुई  आँखों    की   काली।


नहीं   खिलेंगे     होली   के   रँग,

नहीं  जलाए    दीप     दिवाली।


'शुभम्'  म्लेच्छ  की रक्त पिपासा,

भरी     उठाती    व्यंजन - थाली।


शुभमस्तु !


28.04.2025●2.00 आ०मा०

म्लेच्छ की रक्त-पिपासा [सजल ]

 218/2025


समांत        :आली

पदांत         :अपदांत

मात्राभार     :16

मात्रा पतन   :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव   तन   में   हैं  जो   गाली।

उन्हें   सोहती     केवल   नाली।।


रंग  हिना का   हुआ  न  हलका।

मिटी   माँग   अधरों की  लाली।।


पहलगाम  की     काँपी    वादी।

थर - थर  काँपी   डाली - डाली।।


बुझा  दिए  जिनके  कुल दीपक।

बजे न  घर में    शैशव  -  ताली।।


तम  से  भरे    हृदय    थे  काले।

दृष्टि   हुई  आँखों    की   काली।।


नहीं   खिलेंगे     होली   के   रँग।

नहीं  जलाए    दीप     दिवाली।।


'शुभम्'  म्लेच्छ  की रक्त पिपासा।

भरी     उठाती    व्यंजन - थाली।।


शुभमस्तु !


28.04.2025●2.00 आ०मा०

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पहलगाम कश्मीर में [ दोहा ]

 217/2025

       

[ पहलगाम,आतंक,हमला,हत्या,सरकार]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक


पहलगाम    कश्मीर   में, निर्दोषों का    खून।

 बहा   रहे    हैं  म्लेच्छ   क्यों, माँगें होतीं  सून।।

पहलगाम  की  वादियाँ, रँगीं  रक्त से  आज।

हमें  आज  आतंक की,सकल मिटानी खाज।।


जान गए आतंक का,क्या मज़हब क्या धर्म।

हत्यारे   कब  जानते,    पाषाणी    है    मर्म।।

आतंकी  आतंक का,  आया अंतिम   काल।

गीदड़ मरने को हुआ, बिल  में पड़ा निढाल।।


मानवता   मरने   लगी,  दानवता का   खेल।

मानव पर  हमला  हुआ,उर का नेह धकेल।।

हमला   है  निर्दोष  पर,नहीं क्षमा का  दान।

मिलना   है  आतंक  को, रहे न छप्पर  छान।।


हत्या  कर  बिल  में  घुसे, कायर क्रूर  कपूत।

सैन्य दलों को मिल रहे,जिनके सबल सबूत।।

जाति  धर्म  को  पूछकर, करते हत्या  नीच।

मानवता  जिनकी मरी,भरी मगज में कीच।।


भाव   भरा  प्रतिशोध  का,जागरूक  सरकार।

खोज-खोज  रिपु  मारती,करके कुलिश प्रहार।।

भौंचक्की    सरकार  है,  भौंचक्के  हैं   लोग।

देश विभाजन जब हुआ, तब  से   है  ये  रोग।।


                   एक में सब

हमला   कर हत्या करें, पहलगाम   में  क्रूर।

जान   गई सरकार   ये, यह आतंक   सुदूर।।


शुभमस्तु!


27.04.2025●7.15आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...