मंगलवार, 19 नवंबर 2024

क्या कीजिए? [ नवगीत ]

 526/2024

               

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दर्पणों से

लड़ रहा है आदमी

क्या कीजिए ?


इधर दर्पण

उधर दर्पण

चतुर्दिक दर्पण महल है,

दृश्य

 चारों ओर तू ही

कौन जो तुझसे सबल है!

तोड़ता है

हाथ अपने आप ही

क्या कीजिए ?


एक बीहड़

अंदरूनी

एक बीहड़ बाहरी भी,

तू बँधा

बिन शृंखला के

सिर सजी है गागरी भी,

दोष औरों पर

लगाता रात - दिन

क्या कीजिए ?


आँधियाँ

अंतर सुनामी 

नित्य प्रति की बात है,

हारकर भी

चाहता क्या हारना 

पा रहा नित घात है,

दूसरों को दुःख

दे - देकर सताए

क्या कीजिए ?


19.11.2024●2.00प०मा०

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राम न मिलते [ नवगीत ]

 525/2025

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


राम न मिलते

शिला अहल्या

नारी कैसे हो जाए!


पुरुष परुषता 

सिद्ध कर रहे

खोज राम की जारी है,

फ्रिज में

फ्रीज़ नहीं फल सब्जी

खंडित मिलती नारी है,

जिसने छुआ 

नहीं सीता को

रावण दानव कहलाए?


दाँव लगाया

अपना तन - मन

कहलाती घरवाली है,

रार-प्यार होते

न अकेले

बजे न एकल ताली है,

एक - एक मिल

दुनिया बनती

तेरा घर वह बन जाए।


कितने यहाँ

विभीषण बैठे

डाल गले तुलसी माला,

भेद खोलते

देश नाश को

चर्म चक्षु पर है जाला,

'शुभम्' यहाँ

कलयुग पसरा है

राम कहाँ से आ पाए!


शुभमस्तु !


19.11.2024●10.45 आ०मा०

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पूनमी चाँद [ गीत ]

 524/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उपमाएँ अब

वे सब झूठी

लगने लगीं पूनमी चाँद।


जब से

चंद्रयान पहुँचा है

खुली तुम्हारी सारी पोल,

चंद खिलौना

लेने की भी

जिद झूठी थी मात्र किलोल,

लगते हो तुम

अब छूने में

जैसे हो गीदड़ की माँद।


सूरज दादा

धूप न देते

रूप न सुंदर  हो जाता,

प्रेयसि के

गालों की उपमा

कवि न एक भी दे पाता,

तल पर की

चलने की कोशिश

मिले मात्र खर खाबड़ खाँद।


सागर अति

प्रसन्न हो जाता

जब आती है पूनम रात,

ले हिलोर

उठता गिरता है

कभी सुनामी का हो पात,

'शुभम्' दूर के

ढोल सुहाने

लगते हैं जो करते नाँद।


शुभमस्तु !


19.11.2024●6.15आ०मा०

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सोमवार, 18 नवंबर 2024

कहाँ विलुप्त हो गई [ नवगीत ]

 523/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गंध गाँव - गाँव  की

पारिजाती छाँव  की

कहाँ विलुप्त हो गई।


गाँव - गाँव कब रहे

नाले-नालियाँ   बहे

ट्रैफिक  का झाम है,

जींस   टॉप  धारतीं

कटाक्ष  बाण मारतीं

बाला परी  नाम  है,

वीडियो  में  नाचतीं

रोड में    कुलांचतीं

नारि सुप्त   हो  गईं।


कंकरीट     के   उगे

जंगलात   में    भगे

लोग  और  कौन  हैं,

नीति है  न चरित्र  है

महकता  ये   इत्र  है

धर्म  - कर्म   मौन  है,

माटी  के  दीप   नहीं

लड़ी ही   लड़ी   दही

रीति   गुप्त  हो  गई।


सड़कों   का  जाल है

कृषक     बेहाल    है

डेंगुओं का   जोर  खूब,

नीम   नहीं   बेर  आम

आदमी हैं सब निकाम

शेष    कहाँ    दूब   है ,

'शुभम्'  कहाँ मेघ  रहे

वेद वाक्य   कौन  सहे

धरा    मुक्त   हो   गई।


शुभमस्तु !


18.11.2024●1.45 प०मा०

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मौजूदगी तुम्हारी [ नवगीत ]

 522/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मौजूदगी

तुम्हारी पल - पल

बहुत -बहुत मुझको अखरी है।


नहीं ग़वारा

हुआ आज तक

बारम्बार  तुम्हारा आना।

खड़ी हुई हो

थाल सजाकर

दीप जलाए यों मुस्काना।।

ध्यान टिका है

एक बिंदु पर

किंतु बुद्धि चंचल चकरी है।


कालचक्र 

कब रुकता कोई

उसमें भी आगमन तुम्हारा।

चिंतातुर 

कर देता मन को

पीना पड़े सलिल जब खारा।।

ऊँट खड़ा हो

मरुथल में ज्यों

खड़ी  सामने यह बकरी है।


कहते होता

मधुर - मधुर फल

उसकी  भी तो सीमा कोई।

विदा प्रतीक्षा

जब - जब होती

खुशियाँ भरी आँख तब रोई।।

'शुभम्' समय

जब शुभागमित हो

हो आबाद घड़ी सँकरी  है।


शुभमस्तु !


18.11.2024● 12.45 प०मा०

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शब्दों की सरिता [नवगीत]

 521/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शब्दों की

सरिता में चलकर

बड़ी दूर तक मैं बह आया।


टूटे मिले

किनारे कितने

मेढक मछली सीप शिवारें।

कछुओं ने

 हड़काया मुझको 

करके अपनी बंद किवारें।।

फिर भी

रुका नहीं यात्रा पथ

मुझको आज कहाँ पहुँचाया।


अवरोधक

उभरे टीले जो

गतिरोधन  करते ही पाए।

उपदेशक

समझा था जिनको

लगता पथ को रहे भुलाए।।

तिनके का

मिल गया सहारा

काव्य सरित में खूब नहाया।


अपनी आँखें

चलो खोलकर

कौन तुम्हें भरमा पाएगा !

अपने दीपक

आप बनो तो

अँधियारा क्यों कर छाएगा??

दीवाना मैं

शब्द - सुमन का

कविता ने हरदम महकाया।


शुभमस्तु !


18.11.2024●11.45आ०मा०

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जनी -जनी को प्रिय [ गीतिका ]

 520/2024

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जनी- जनी को प्रिय कनबतियाँ।

रस ले- लेकर  सुनतीं  सखियाँ।।


नुक्कड़  पर दो सास  मिल गईं,

चुगली रस से सुरभित जनियाँ।


छींके     पर     टाँगी     मर्यादा,

बही  जा रहीं    गँदली  नदियाँ।


लोकलाज  कुललाज   न   देखें,

अनाघ्रात  मसलीं   नवकलियाँ।


पतित   समाज    गर्त   में  डूबा,

भले बिगड़ती हैं  शुभ छबियाँ।


उपदेशक     उपदेश    दे     रहे,

ग्रीवा   झुका न  देखें   छतियाँ।


'शुभम्'  दिखावे  की  दुनिया है,

गिना  रहे  औरों   की   कमियाँ।


शुभमस्तु !


18.11.2024● 6.45आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...