मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

नेह का संबल सहेजा [ गीत ]

 741/2025

     

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जनक ने

निज अंक में ले

नेह का संबल सहेजा।


आत्मा का

रूप संतति

आत्मवत ही पालना है

चाहता 

जैसा पिता जो

रूप में  वह ढालना है

भाव है 

मन में यही कुछ

सौंप दूँ सुत को कलेजा।


मैं उठाऊँ

कष्ट कितने

पुत्र की रक्षार्थ भारी

हो बड़ा

आगे बढ़े वह

कर्म की करता सवारी

कष्ट हो

मुझको भले ही

पुत्र का छीजे  न रेजा ।


निज पुत्र की

ये मुस्कराहट

शांति देती है हृदय को

बल मुझे 

मिलता अकूता

समझता

भावी उदय को

चाहता है

हर पिता यह

पुत्र सूरज -सा उगे जा।


शुभमस्तु !


16.12.2025● 8.15 आ०मा०

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सोमवार, 15 दिसंबर 2025

शब्दों के वे बाज़ीगर [ गीत ]

 740/ 2025


   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


राजीनीति के

अटल  पुरोधा

शब्दों के वे बाजीगर ।


नया एक

अध्याय लिख दिया

सोया देश जगाने को

अटल बिहारी

बाजपेयी ने

सुस्ती सकल भगाने को

वाणी में तव

ओज उमड़ता

दुःखी बड़े बरबादी पर।


देशप्रेम जो

उमड़ा इतना

माना सब को अपना है

नहीं बसाई

निजी गृहस्थी

भारत के हित तपना है

समय नहीं था

समय लगाते

जो अपनी ही शादी पर।


जिसने सुना

एक भी भाषण

अथवा उनकी कविताई

अनुगामी 

हो गया उन्हीं का

जादू की महिमा छाई

रहे सादगी पूर्ण

सदा ही

नेह बरसता खादी पर।


भाव स्वदेशी का

मन में था

भारत हो अपने पर निर्भर

निर्मित करें

देश में अपना

और किसी पर क्यों जाते मर

चिंतित हुए

घटे जनसंख्या

अलख जगा आबादी पर।


शिक्षित हो

घर-घर की नारी

शिक्षित हर परिवार बने

नारी हो

सशक्त भारत की

रहें विश्व में सदा तने

जय जवान

विज्ञान सदा जय

जय किसान उमड़ी घर-घर।


शुभमस्तु !


15.12.2025 ●4.00प०मा०

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नेताहार नहीं है वन में [ गीतिका ]

 739/2025


      



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नेताहार    नहीं     है    वन   में।

सेंधमार   की   जनता-धन   में।।


पकड़   झुनझुना  बैठी   जनता,

छिपा  हुआ क्या   नेता-मन  में!


पौष-माघ की   तुहिन   बरसती,

कान  न सुनते कुछ  सन-सन में।


मिले  कमीशन  हो   विकास तब,

जान  पड़े   तब   ही  इस  तन में।


किरकिट   का   मैदान   देश    ये,

कौन  बढ़े  आगे    नित  रन   में।


नारे    बंद       न     होने     पाएँ,

भरना यही भाव    जन-जन   में।


'शुभम्'  बढ़े  सब नेता सब आगे,

देश  खड़ा    प्रभु    के  वंदन   में।


शुभमस्तु !


15.12.2025●2.00आ०मा०

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पकड़ झुनझुना बैठी जनता [ सजल ]

 738/2025


      

[समांत:अन।पदांत:में। मात्राभार:16. मात्रा पतन:शून्य]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नेताहार    नहीं     है    वन   में।

सेंधमार   की   जनता-धन   में।।


पकड़   झुनझुना  बैठी   जनता।

छिपा  हुआ क्या   नेता-मन  में!!


पौष-माघ की   तुहिन   बरसती।

कान  न सुनते कुछ  सन-सन में।।


मिले  कमीशन  हो   विकास तब।

जान  पड़े   तब   ही  इस  तन में।।


किरकिट   का   मैदान   देश    ये।

कौन  बढ़े  आगे    नित  रन   में।।


नारे    बंद       न     होने     पाएँ।

भरना यही भाव    जन-जन   में।।


'शुभम्'  बढ़े  सब नेता सब आगे।

देश  खड़ा    प्रभु    के  वंदन   में।।


शुभमस्तु !


15.12.2025●2.00आ०मा०

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फल [ चौपाई ]

 737/2025


          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



मानव    कौन   मनुज   तन धरता।

फल की नहीं    कामना   करता।।

मन  में  एक   भाव    नित    जागे।

रहे       सुफल    पाने    में   आगे।।


योगीश्वर         श्रीकृष्ण        हमारे।

उपदेशक    गीता     के        न्यारे।।

कर्म   करे फल   तुझे     मिलेगा।

छोड़  कामना     सुमन    खिलेगा।।


जिसने   भू  पर   विटप    लगाया।

बढ़ा  विटप  बहु सुमन  खिलाया।।

परिश्रम का  फल खूब    मिलेगा।

सौरभ   महके    सुमन    खिलेगा।।


चाकू  का  फल   बहु  उपयोगी।

काटे    फल    सब्जी   वह भोगी।।

हिंसक   वार     वही    कर  देता।

प्राण    जीव    के    हर वह लेता।।


मात - पिता     हैं      वृक्ष    हमारे।

जिनके  फल हम   संतति   प्यारे।।

कर्मों  में       अधिकार      तुम्हारा।

वहीं     बहे    गङ्गा      की    धारा।।


पका  हुआ  फल    बीज  बनाता।

पादप    नए  जगत     में    लाता।।

सघन   बाग  फिर     से    लहराए।

महके     कुंज       मधुर  मुस्काए।।


'शुभम्'  कर्म    अधिकार   तुम्हारा।

फल  देते    प्रभु    तुमको   प्यारा।।

फल  से ध्यान   हटा    जो    लेता।

व्यक्ति     वही     है   जग में  चेता।।


शुभमस्तु !


14.12.2025● 8.30 प०मा०

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रविवार, 14 दिसंबर 2025

झुनझुना [ व्यंग्य ]

 736/2025 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 झुनझुना पकड़ा के,पल्ला झाड़ लेते हैं।

 देश के नेता ज़मीं में गाड़ देते हैं।। 

 आदमी का झुनझुने से परिचय कोई नया नहीं है।शैशवावस्था से ही जब माता -पिता ने झुनझुना पकड़ाया तो उसे जानने पहचानने में कोई भूल नहीं हुई।समझदारी आने पर जब पहली बार हमें झुनझुना पकड़ाया गया, हमें तुरन्त याद आ गया कि मम्मी हमें रोने से चुप कराने के लिए झट से झुनझुना पकड़ा दिया करती थीं। झुनझुना तो हमारा संस्कार है।इससे हमारा पुराना नाता है,बड़ा प्यार है। यह तो हमारा पुराना लँगोटिया यार है।इसको जानने और पहचानने में भला भूल कैसे हो सकती है ! इसीने तो हमें रोते से चुपाया है, कितनी ही बार माँ ने हमें बहकाया है।जरूरत पड़ी तो बजाया है और हमें भी बजा के दिखाया है। इस झुनझुने ने ही हमारा ध्यान डायवर्ट किया है।इसे तो बचपन से ही हमने बड़ी अच्छी तरह जिया है। 

 अब इस समय यह फिर हमारे सामने मुखौटा लगाकर आ गया। हमारी मन और बुद्धि पर छा गया। चलो खैर ,फिर से इसके नए रूप को आजमाते हैं और बहुरूपियों के इस बहुरूपिया को क्यों सुहाते हैं। वस्तुतः यह झुनझुना कम धोखा ज्यादा है।अब बड़े होने पर भी ये हमें समझ रहा नादाँ है।ये समझता है कि इसकी झनझनाहट से हम अपने अस्तित्व और अस्मिता को भूल पाएँगे और अब भी इसकी भूलभुलैया में भूल जाएँगे। 

 झुनझुना पकड़ाने वालों में किस- किस के नाम गिनाएं। और किस -किस से दें इनकी उपमाएँ। इन पर तो लिखी जा सकती हैं,बड़ी -बड़ी कविताएँ।झुनझुना दाताओं में पूरी बारात की बारात है।इन सबकी एक ही मंशा है कि हमारे ऊपर इन्होंने लगाई हुई घात है।अधिकारी अपने कर्मचारी पर, व्यभिचारी किसी नारी पर,बेईमान ग्राहक ,बिचौलिया और कराधिकारी व्यापारी पर झुनझुने की घात लगा रहा है।नेता जनता को आश्वासन का झुनझुना थमा कर वोट बटोर रहा है।दलाल दोनों हाथों से पैसा टटोल रहा है।ये सभी झुनझुनेबाज हैं। झुनझुनों के सरताज हैं।एक दूसरे को बहका रहा है।अपने महलों को महका रहा है। 

 झुनझुना एक छल है,छद्म है।प्रापक के लिए सुमन पद्म है और दाता के लिए एक बलि के शीश पर रखा कदम है। ये मोबाइल कंपनियां कोई कम झुंझुनेबाज नहीं हैं। झुनझुना थमाने में कोई किसी से कम नहीं हैं।एक से एक बड़ी बाजी मार लेना ही इनका मक़सद है। झुनझुने में ही तो एजेंटों की रसद है। उपभोक्ता की किंचित सी मदद है। इसी बात का इनका एलान है अहद है।झुनझुने का एरिया बड़ा ही वृहद है।भले ही उपभोक्ता का नहीं इतना बड़ा कद है।अमीर पर कोई फर्क नहीं पड़ता और झुनझुने के बोझ तले गरीब निपट जाता है।पर इससे उन्हें क्या ? वे झुनझुने बजाकर लुभाए जा रही हैं।अपना -अपना इतिहास बनाये जा रही हैं। 

 आदमी जन्म से झुनाझुना प्रेमी तो था ही, अब उसे झुनझुना जीवी बना दिया गया है।बिना झुनझुना पाए वह बहलता ही नहीं,उसका स्टेटस बदलता ही नहीं। झुनझुना के नाम पर उससे कुछ भी करवा लो, वह अहर्निश तैयार है।झुनझुना उसकी दाढ़ से ही नहीं लगा,उसकी दाढ़ी में भी उलझ गया है।अब झुनझुना आदमी की आवश्यकता ही नहीं,अनिवार्यता है। यह एक जरिया भी उसके सुधार का है।भला कौन है जो सुधरना नहीं चाहता।यदि सुधार इसी से होना हो तो हो ले।फिर क्यों देखेगा वह पैरों में पड़े फफोले।इसके लिए उसे तेज दौड़ना पड़े या चाल रहे हौले -हौले। पर उसे चमकाने हैं विकास के नभ में गोले। टीवी, अखबार ,विज्ञापन, सोशल मीडिया सभी पर झुनझुनों की भरमार है। झुनझुना ही तो आज भगवान का अवतार है। इसीलिए भिखारियों से भी बड़ी लगी झुनाझुनों की कतार है।अब यह अलग बात है कि कोई गाए फाग या सावनी मल्हार है। अब फिर से क्या बताएँ झुनझुने से तो आदमी का बचपन का दुलार है। वह उसका एकमात्र लँगोटिया यार है। 

 शुभमस्तु ! 

 14.12.2025●4.30 प0मा0 

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सुई और सरौता [ व्यंग्य ]

 735/2025 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

  काम बंटे सबके यहाँ, सुई -सरौता देख। 

सुई फटे को सी रही,करे मीन मत मेख।। 

 इस चराचर जगत में जो भी जड़- चेतन का सृजन हुआ है ,सब अपने-अपने काम से आए हैं। जैसी जिसकी प्रकृति ,गुण और स्वभाव है;तदनुसार वह अपना काम कर रहा है।मनुष्य को केवल यही जानना और समझना आवश्यक है कि वह इस बात को समझे और किसी के कार्य में बाधक न बने। आप के चाहने या कहने से वह अपने कार्य और प्रकृति को तो बदल नहीं सकता। सर्प की प्रकृति डंसने की है,तो वह डंसेगा ही। बिच्छू डंक मारेगा ही।गधे और घोड़े सींग नहीं चला सकते ,क्योंकि उनके सींग ही नहीं ,उनके अधिकार क्षेत्र में केवल लात-प्रहार हो सकता है,इसलिए उनकी प्रहार सीमा दुलत्तियों पर आकर इतिश्री हो जाती है। भेड़ को दूसरी भेड़ के पीछे चलना ही है,तो चलेगी ही।बकरी मिमियाएगी :भौंकेगी नहीं। कुत्ता भौंकेगा : चिचियायेगा नहीं। शेर दहड़ेगा : रेंकेगा नहीं। हाथी चिंघाड़ेगा : फुफकारेगा नहीं। साँप फुफकारेगा : हिनहिनाएगा नहीं।

 इस संसार में संत और असंत सभी विद्यमान है। इसी से धरती का संतुलन बना हुआ है। केवल संतों से भी संसार नहीं चल सकता और न केवल गृहस्थ ही धरती का बोझ सँभाले हुए हैं।सज्जनों के नियंत्रण के लिए ही तो असंत बनाए गए।और उधर दुष्टों का संधान मनुष्य को जागरूक बनाता है।यह संसार इसी प्रकार दो विरोधभासी तत्त्वों से समन्वित और संचालित है।दिन है तो सघन अँधेरी रात भी है।दिन में सूरज है तो रात में चाँद और सितारे हैं। ऊँचे -ऊँचे पर्वत हैं तो कलकल बहती नदियों के किनारे भी हैं।जब तक कैंची कपड़े को काटेगी नहीं, सुई पोशाक की सिलाई कर नहीं सकती।सुइयाँ सिलाई के लिए हैं तो सरौते काटने का काम पूरी जिम्मेदारी से निभा रहे हैं। किसी के काम को कमतर नहीं आँका जा सकता। 

 अपने-अपने काम को सभी सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हैं और दूसरे के काम का मूल्यांकन हेयता से किया जाता है। यह गलत है। कोई किसी से कम महत्वपूर्ण नहीं है। 'जहाँ काम आवे सुई तहां करे तलवार।' ऐसा नहीं हो सकता।सुई का काम सुई से ही सरेगा और दुश्मन तलवार से ही मरेगा।हर युग में देवासुर संग्राम चलता रहता है। उसके पात्र और रूप बदल जाते हैं। 

 धरती पर देवता और दानव तब भी थे और आज भी हैं ,भविष्य में भी रहेंगे। आज उनका रूप बदल गया है। देवता आसुरी प्रवृत्तियाँ नहीं अपना सकते और अपनी मर्यादा से नीचे पतित नहीं हो सकते। राक्षसों का काम तो सदा मर्यादा विहीन और हिंसक कार्य करना ही है। सत और तमस की लड़ाई अनिवार्य सत्य है। समय-समय पर राहु चाँद और सूरज को ग्रसेगा ही। जहाँ सत्य है,वहीं जय है।इसलिए सत्य को न कभी भय था ,न अब ही कोई भय है। थोड़ी देर के लिए सत्य पराजित दिखाई देता है,दे सकता है ;किंतु यह सब भ्रम है। झूठों का बहुमत सत्य को अपने पथ से विचलित नहीं कर सकता। 

 महाभारत का महासंग्राम आज के मानव के लिए एक जलता हुआ दीपक है।जिनके पास आँखें हैं और उनमें ज्योति भी है, वे ही उससे सबक ले सकते हैं। अंधों को तो दिन में भी नहीं दिखाई देता।पाँच पांडव सौ कौरवों पर भारी पड़ गए थे।पांडव ही देव तत्त्व है और कौरव ही असुरत्व है।कभी भी देवता राक्षसों से पराजित नहीं हुए तो अब क्यों होंगे ! यह संसार जड़ चेतन मय है ,उधर वह सत्व और तमस युक्त भी है।यही देव तत्त्व और असुरत्व है। इनमें से एक का कभी भी समूल उच्छेद नहीं किया जा सकता। संतुलन में दोनों पलड़ों में वजन रहना ही चाहिए। एक बात और भी विचारणीय है कि यह युग न सतयुग है , न त्रेता और न द्वापर। यह तो कलों का युग कल युग है। जहाँ आदमी अकल से कम कल से ज्यादा काम लेता है।ये अक्लयुग नहीं है।उसकी अक्ल भी कम्प्यूटर और मोबाइल में घुस गई है, घिस गई है। 

 गुलाब में फूल हैं तो काँटे भी हैं। एक महकता है ,तो दूसरा चुभता है,रक्षा करता है।केर और बेर का साथ भले न हो , किंतु अपनी-अपनी जगह पर दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। कहीं देह बल है तो कहीं बुद्धि बल कारगर है।यह संसार जड़ चेतन और गुण दोषमय है,हास्य है तो रुदन भी हैं। शृंगार है तो रौद्र और भयानक भी हैं।षटरस और नव रसमयता संसार को वैविध्यपूर्ण बना रही हैं।

 फूलो इतने भी मत फूलो, भूल नहीं  शूलों   को   जाओ।

 दामन अपना रखो बचा के, अपनी बगिया में मुस्काओ।।


 साँप पालने वाले सोचो, खतरनाक     हैं  बड़े सपोले।

 समझ न लेना इतना सीधा, और न इतने हैं ये भोले।।


 सुई-सरौते इस दुनिया में, सीते      और काटते कपड़े। 

कमतर नहीं कैंचियाँ कितनी, फैलातीं चुगली के लफड़े।। 


 सबक सिखाती है चींटी भी, इतना तुच्छ उसे मत जानें। 

हाथी में भी वही प्राण हैं, तोड़ें नहीं     शक्ति      की तानें।।


 सुई सरौते सभी रहेंगे, जब तक दुनिया   टिकी रहेगी। 

काँव - काँव कौवों की होगी, कोकिल की भी कूक बहेगी।। 

 शुभमस्तु !

 14.12.2025●1.45 प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...