सोमवार, 3 नवंबर 2025

धूप क्यों शरमा रही है [ नवगीत ]

 664/2025


       


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


धूप क्यों

शरमा रही है

आ गया है मीत अगहन।


भोर 

अँगड़ाई लिए

अब उठ गई है

एक

पिड़कुलिया

भजन गाती उठी है

दाल 

अरहर में 

उठा सम्प्रीत  अदहन।


बाजरा मकई

चने की रोटियों में

सोंधता  जाड़ा

साग सरसों का

लुभाता

घृत ओढ़ कर गाढ़ा

पहन 

स्वेटर धूप में

क्रीड़ा करे चुनमुन।


दुल्हनें 

दूल्हे  सभी 

सजने लगे हैं

घोड़ियों के

पाँव 

फिर घुँघरू बजे हैं

कुकड़कूँ की

बांग से

गहरा गया है शीत उन्मन।


शुभमस्तु !


03.11.2025●3.00प०मा०

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लगती हो तुम महानायिका [ नवगीत ]

 663/2025


   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन के 

इस उपन्यास में

लगती हो तुम महानायिका।


एक- एक 

प्रकरण में पाया

खंड नहीं कोई भी खाली

दिखती है  छवि

छंदमई तव

विद्यमान तुम भव्य विशाली

गाती लोकगीत

नर्तित हो

मेरे उर की प्रणय गायिका।


पंक्ति-पंक्ति के

शब्द -शब्द में

उपन्यास करता अभिनंदन

बियावान में

ज्यों महका हो

परम प्रीति का सोना चंदन

टपक रहा

लालित्य लवणता

क्या कुछ की तुम नहीं दायिका।


आदि मध्य 

या अंत सभी में

अनुस्यूत रेशम का धागा

बिंदु-बिंदु में

मनके खनके

मेरा सुप्त-

प्राय मन जागा

शांति दायिनी

प्रेम पिपासा

तापों की उन्मुक्त दाहिका।


शुभमस्तु !


03.11.2025●12.45 प०मा०

                     ●●●

निष्ठा [ चौपाई ]

 662/2025


            

 ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ईश्वर       के     प्रति  निष्ठा   भारी।

भक्ति   पंथ      की    कर   तैयारी।।

सत्य  आचरण      जो    नर  करते।

प्रगति  राह     में  वही      विचरते।।


मात-पिता      में     निष्ठा   रखना।

सेवा का  फल     उसको   चखना।।

निष्ठा-नाश      भक्ति     उर   नाशी।

कृपा करें क्यों    गुरु    अविनाशी।।


निष्ठा-विटप     मधुर    फल  देता।

जो करता वह   फल- रस    लेता।।

निष्ठा   की      बगिया      महकाएं।

स्वाद  भरे  फल नित    प्रति  पाएँ।।


निष्ठा    मय     श्रीराम     सुहाए।

गुरु    वशिष्ठ   उर     से  अपनाए।।

ध्रुव  ने     निष्ठा  से     पद  पाया।

सिंहासन   नृप    का      ठुकराया।।


 कश्यप हिरण्य     असुर  थे  राजा।

निष्ठा      का     बजवाते     बाजा।।

सुत     हरि - निष्ठा   में  रत  ज्ञानी।

माने      नहीं    जनक   अभिमानी।।


निष्ठा  बिना    जगत    कब  चलता।

हो अभाव   मानव     को    छलता।।

गुरु-शिष्यों      की      निष्ठा-क्यारी।

खिले  जगत    में    नव    फुलवारी।।


'शुभम्'     चलो    निष्ठा  अपनाएँ।

जगती में    प्रसिद्धि      नित    पाएँ।।

गुरुजन   मात-पिता      की     निष्ठा।

बढ़ती     जग    में     नित्य प्रतिष्ठा।।


शुभमस्तु !


03.11.2025●11.00 आ०मा०

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करता है जो बिना विचारे [ गीतिका ]

 661/2025


  


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करता   है   जो      बिना     विचारे।

पछताता    निज      हिम्मत   हारे।।


श्रम    से    स्वेद-सिक्त   नर रहता,

उसने  ही    निज    भाग्य   सुधारे।


परजीवी      का    जीवन   क्या  है,

अपने  काज   न    कभी   सँवारे।


अथक  कर्म      विश्वास   जगाता,

जय-जय    का    जयकार  उचारे।


साहस  से      सीमा     पर  लड़ता,

अनगिनती  अरि  जन   को  मारे।


कूप  खोद  नित  पिता   जल  को,

कहता   नहीं     नीर  कण   खारे।


'शुभम्'   काज  मन से   निपटाता,

जय किरीट   वह   सिर  पर धारे।


शुभमस्तु !


03.11.2025● 5.00 आ०मा०

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श्रम से स्वेद-सिक्त नर रहता [ सजल ]

 660/2025


 

समांत          : आरे

पदांत           :अपदांत

मात्राभार      : 16.

मात्रा पतन    : शून्य।


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करता   है   जो      बिना     विचारे।

पछताता    निज      हिम्मत   हारे।।


श्रम    से    स्वेद-सिक्त   नर रहता।

उसने  ही    निज    भाग्य   सुधारे।।


परजीवी      का    जीवन   क्या  है।

अपने  काज   न    कभी   सँवारे।।


अथक  कर्म      विश्वास   जगाता।

जय-जय    का    जयकार  उचारे।।


साहस  से      सीमा     पर  लड़ता।

अनगिनती  अरि  जन   को  मारे।।


कूप  खोद  नित  पिता   जल  को।

कहता   नहीं     नीर  कण   खारे।।


'शुभम्'   काज  मन से   निपटाता।

जय किरीट   वह   सिर  पर धारे।।


शुभमस्तु !


03.11.2025●5.00 आ०मा०

                      ●●●

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

अनजान [ कुंडलिया]

 659/2025


                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

बालक   मैं   अनजान   हूँ,हे प्रभु जी    श्रीराम।

कृपा  करो इस दास पर,भजूँ   आपका  नाम।।

भजूँ    आपका   नाम,  बुद्धि   प्रभु  ऐसी  देना।

करूँ    हितैषी   काम, नाव   मेरी   नित   खेना।।

'शुभम्' शरण   में आज,पिता-माता  हो पालक।

महिमा  से   अनजान, आपका     नन्हा बालक।।


                         -2-

आया   था    संसार    में,   सबसे    मैं    अनजान।

मिले  जनक-जननी  सभी,  गुरुजन  श्रेष्ठ महान।।

गुरुजन    श्रेष्ठ       महान,    मित्र   सम्बंधी   सारे।

प्रिय    पत्नी   संतान, प्रणय  सह  नेह      दुलारे।।

'शुभम्' जगत  का  राग,   रंग  जब  मुझको भाया।

अपनाया      संसार ,  जन्म    ले   जग  में आया।।


                           -3-

लेना    मत   अनजान   से, मित्र  कभी  आहार।

पथ   में   हो   या   गेह   में,  पावन  हो आचार।।

पावन     हो    आचार,  किसी  से क्या है आशा।

भरे     स्वार्थ    से  लोग, न   पाले  कभी दुराशा।।

'शुभम्' आप   निज  नाव,सदा जगती में   खेना।

सगा   न  कोई  बंधु,  किसी  से  कुछ मत  लेना।।


                         -4-

मिलते    राही     राह   में, सत पथ से   अनजान।

पता  नहीं    होता    जिन्हें,  निज गंतव्य   महान।।

निज        गंतव्य     महान,    भटकते भूलभुलैया।

गिरते       हैं      जब     गर्त,   चीखते  दैया-दैया।।

'शुभम्'     वहीं   बहु  फूल,बाग में शोभन खिलते।

जिन्हें    राह    का   ज्ञान, अल्पतम   ऐसे मिलते।।


                         -5-

करता    लालच   आदमी ,  बना  हुआ   अनजान।

खा    जाता    धोखा    वही,  समझे  स्वयं  महान।।

समझे      स्वयं    महान, राह  में  भटका   रहता ।

बिना   लिए   पतवार,   खिवैया   सरि में  बहता।।

'शुभम्'    भरे   कुविचार,   गर्त में  जा गिर मरता।

मन   को      रखे    सुधार, वही   पथ  पूरा  करता।।


शुभमस्तु !


30.10.2025● 8.45प०मा०

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गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

चुँधियाता सोना हमें रहा है [ नवगीत ]

 658/2025


 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


युग- युग से

चुँधियाता 

सोना हमें रहा है।


मरते दम तक

साँपों ने

है स्वर्ण सहेजा

मिथ्या गाड़

प्रतिष्ठा का ध्वज

 रहा तनेजा

अंध बुद्धि के

चपल करों ने

जिसे गहा है।


कितने आए

चले गए

रहा रोना का रोना

ला न सका

मुस्कान

कभी

यह पीला  सोना

जिसने भी

पाया सोना

वह सदा दहा है।


साँपों से 

भयभीत मनुज

पर डरा न सोना

अशुभ हुआ

मानव को

उसका पाना-खोना

प्रतिमा गहनों

ईंटों से चुन

स्वर्ण लहा है।


शुभमस्तु !


30.10.2025●12.15 प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...