330/2025
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डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
इटावा के भागवत कथा प्रकरण ने एक नए विवाद को जन्म दिया है कि भागवत कथा का पाठ कौन व्यक्ति कर सकता है? इस संदर्भ में अनेक लोगों और विद्वानों के द्वारा अपने - अपने मत दिए जा रहे हैं। इस सम्बंध में मुझे भी कुछ कहना है। भागवत भगवान श्रीकृष्ण का एक पावन महा पुराण है। जिस प्रकार तन और मन की शुद्धता के साथ किसी भी मनुष्य को भगवान का नाम स्मरण करने की पात्रता है,ठीक उसी प्रकार से बिना किसी वर्ण या जाति का विचार किए हुए भागवत कथा वाचन का अधिकार भी प्रत्येक मनुष्य का है। जाति और वर्ण से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।महर्षि वेद व्यास (जो स्वयं एक ब्राह्मण नहीं थे) के मुखारविंद से जब भागवत पुराण लिखा और कहा जा सकता है,तो जो व्यक्ति अपने आचरण, चरित्र और भाषा शैली से शुद्ध है ,उसे भी भागवत कथा वाचन का अधिकार है।
वर्तमान में ऐसे अनेक कथा वाचक हैं,जिन्होंने भागवत कथा को भांडों की नौटंकी बना कर रख दिया है। जो पर्दे के पीछे सुरा और सामिष आहार का सेवन करते हैं,उन्हें इसका अधिकार कदापि नहीं होना चाहिए। देखा यह जा रहा है कि भागवताचार्य स्वयं अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग करते हैं और अन्य लोगों पर दोषारोपण करते हैं। उनके द्वारा महिलाओं से फूहड़ नृत्य कराए जा रहे हैं।वे अपने आचरण ,चरित्र और व्यवहार से शुद्ध नहीं हैं। ऐसे लोगों को भागवताचार्य होने का कोई अधिकार नहीं है। उनका समाज के द्वारा बहिष्कार होना चाहिए।
भागवत कथा पाठन- पठन के लिए कोई जाति विशेष का निर्धारण नहीं है।मन ,वचन, कर्म और आचरण से शुद्धता ही इसका सही मानक है। प्रश्न यह उत्प्रन्न होता है कि भागवताचार्य की परीक्षा कैसे हो। व्यवहारिक रूप में इसकी ऐसी कोई समिति बनाया जाना न तो आसान है और सर्व साधारण द्वारा स्वीकार्य ही।वर्ण और जाति भेद से रहित विद्वत मंडल ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि पात्र कौन है। दूध में पानी मिलाकर बेचने से जिस तरह कोई किसी को रोक नहीं पाया ,वैसे ही भागवत पढ़ने की आजादी कैसे समाप्त की जा सकती हैं। समाज अपने ढंग से चलता है, वह किसी बनी हुई पटरी पर चलने के लिए बाध्य नहीं है।वैसे ही हर उस कथावाचक को भी अपने गले में झाँककर देख लेना अनिवार्य है कि उसमें कितनी पात्रता है।
आज भागवत करवाना और करना एक धंधे का रूप ले चुका है। धंधे को चरित्र से जोड़ने पर चरित्र धंधे का स्पीडब्रेकर बन जाता है। ऐसा भी कोई व्यक्ति है जो अपने को चरित्र हीन कहे !यह किसी से छिपा नहीं है कि सात दिन की अवधि पूरी होने के बाद कथावाचक नोटों की पोटली बांधकर अपनी बड़ी- सी कार में फुर्र हो लेते हैं। मिली हुई भेंटें यजमान और कथावाचक में बंदरबांट कर ली जाती हैं।भागवत का इतना सा ही मंतव्य दिखाई दे रहा है।फिर कोई वाचक क्यों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार कर कथावाचन बन्द करेगा ? क्या वह किसी वैध पात्रता की जाँच को मान्य करेगा ?इसलिए इस दिशा में आत्मसुधार की आवश्यकता है न कि कोई संसद बनाने की बात की जाए।बनाई गई संसद स्वयं में कितनी पवित्र है,इसका क्या मानक है। वहाँ भी ज्ञान से अधिक वर्णवाद और जातिवाद का अतिक्रमण होगा और अवश्य होगा। क्योंकि यह समाज ही इन व्यवस्थाओं का चहेता है।जहां वेदनीति काम नहीं आती, वहाँ लोकनीति ही सफल होती है। इस क्षेत्र में भी वेदनीति एक कोने में रखी रहेगी और लोकनीति ही काम आएगी। जो यजमान जिससे चाहेगा ,उससे भागवत कराएगा ,किसी संसद के मानक का वहाँ कोई मूल्य नही होगा। कोई नियम बनाना जितना आसान ,है उतना उसे व्यावहारिक रूप देना सहज नहीं है।
शुभमस्तु !
05.07.2025●8.45आ०मा०
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