735/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
काम बंटे सबके यहाँ, सुई -सरौता देख।
सुई फटे को सी रही,करे मीन मत मेख।।
इस चराचर जगत में जो भी जड़- चेतन का सृजन हुआ है ,सब अपने-अपने काम से आए हैं। जैसी जिसकी प्रकृति ,गुण और स्वभाव है;तदनुसार वह अपना काम कर रहा है।मनुष्य को केवल यही जानना और समझना आवश्यक है कि वह इस बात को समझे और किसी के कार्य में बाधक न बने। आप के चाहने या कहने से वह अपने कार्य और प्रकृति को तो बदल नहीं सकता। सर्प की प्रकृति डंसने की है,तो वह डंसेगा ही। बिच्छू डंक मारेगा ही।गधे और घोड़े सींग नहीं चला सकते ,क्योंकि उनके सींग ही नहीं ,उनके अधिकार क्षेत्र में केवल लात-प्रहार हो सकता है,इसलिए उनकी प्रहार सीमा दुलत्तियों पर आकर इतिश्री हो जाती है। भेड़ को दूसरी भेड़ के पीछे चलना ही है,तो चलेगी ही।बकरी मिमियाएगी :भौंकेगी नहीं। कुत्ता भौंकेगा : चिचियायेगा नहीं। शेर दहड़ेगा : रेंकेगा नहीं। हाथी चिंघाड़ेगा : फुफकारेगा नहीं। साँप फुफकारेगा : हिनहिनाएगा नहीं।
इस संसार में संत और असंत सभी विद्यमान है। इसी से धरती का संतुलन बना हुआ है। केवल संतों से भी संसार नहीं चल सकता और न केवल गृहस्थ ही धरती का बोझ सँभाले हुए हैं।सज्जनों के नियंत्रण के लिए ही तो असंत बनाए गए।और उधर दुष्टों का संधान मनुष्य को जागरूक बनाता है।यह संसार इसी प्रकार दो विरोधभासी तत्त्वों से समन्वित और संचालित है।दिन है तो सघन अँधेरी रात भी है।दिन में सूरज है तो रात में चाँद और सितारे हैं। ऊँचे -ऊँचे पर्वत हैं तो कलकल बहती नदियों के किनारे भी हैं।जब तक कैंची कपड़े को काटेगी नहीं, सुई पोशाक की सिलाई कर नहीं सकती।सुइयाँ सिलाई के लिए हैं तो सरौते काटने का काम पूरी जिम्मेदारी से निभा रहे हैं। किसी के काम को कमतर नहीं आँका जा सकता।
अपने-अपने काम को सभी सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हैं और दूसरे के काम का मूल्यांकन हेयता से किया जाता है। यह गलत है। कोई किसी से कम महत्वपूर्ण नहीं है। 'जहाँ काम आवे सुई तहां करे तलवार।' ऐसा नहीं हो सकता।सुई का काम सुई से ही सरेगा और दुश्मन तलवार से ही मरेगा।हर युग में देवासुर संग्राम चलता रहता है। उसके पात्र और रूप बदल जाते हैं।
धरती पर देवता और दानव तब भी थे और आज भी हैं ,भविष्य में भी रहेंगे। आज उनका रूप बदल गया है। देवता आसुरी प्रवृत्तियाँ नहीं अपना सकते और अपनी मर्यादा से नीचे पतित नहीं हो सकते। राक्षसों का काम तो सदा मर्यादा विहीन और हिंसक कार्य करना ही है। सत और तमस की लड़ाई अनिवार्य सत्य है। समय-समय पर राहु चाँद और सूरज को ग्रसेगा ही। जहाँ सत्य है,वहीं जय है।इसलिए सत्य को न कभी भय था ,न अब ही कोई भय है। थोड़ी देर के लिए सत्य पराजित दिखाई देता है,दे सकता है ;किंतु यह सब भ्रम है। झूठों का बहुमत सत्य को अपने पथ से विचलित नहीं कर सकता।
महाभारत का महासंग्राम आज के मानव के लिए एक जलता हुआ दीपक है।जिनके पास आँखें हैं और उनमें ज्योति भी है, वे ही उससे सबक ले सकते हैं। अंधों को तो दिन में भी नहीं दिखाई देता।पाँच पांडव सौ कौरवों पर भारी पड़ गए थे।पांडव ही देव तत्त्व है और कौरव ही असुरत्व है।कभी भी देवता राक्षसों से पराजित नहीं हुए तो अब क्यों होंगे ! यह संसार जड़ चेतन मय है ,उधर वह सत्व और तमस युक्त भी है।यही देव तत्त्व और असुरत्व है। इनमें से एक का कभी भी समूल उच्छेद नहीं किया जा सकता। संतुलन में दोनों पलड़ों में वजन रहना ही चाहिए। एक बात और भी विचारणीय है कि यह युग न सतयुग है , न त्रेता और न द्वापर। यह तो कलों का युग कल युग है। जहाँ आदमी अकल से कम कल से ज्यादा काम लेता है।ये अक्लयुग नहीं है।उसकी अक्ल भी कम्प्यूटर और मोबाइल में घुस गई है, घिस गई है।
गुलाब में फूल हैं तो काँटे भी हैं। एक महकता है ,तो दूसरा चुभता है,रक्षा करता है।केर और बेर का साथ भले न हो , किंतु अपनी-अपनी जगह पर दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। कहीं देह बल है तो कहीं बुद्धि बल कारगर है।यह संसार जड़ चेतन और गुण दोषमय है,हास्य है तो रुदन भी हैं। शृंगार है तो रौद्र और भयानक भी हैं।षटरस और नव रसमयता संसार को वैविध्यपूर्ण बना रही हैं।
फूलो इतने भी मत फूलो, भूल नहीं शूलों को जाओ।
दामन अपना रखो बचा के, अपनी बगिया में मुस्काओ।।
साँप पालने वाले सोचो, खतरनाक हैं बड़े सपोले।
समझ न लेना इतना सीधा, और न इतने हैं ये भोले।।
सुई-सरौते इस दुनिया में, सीते और काटते कपड़े।
कमतर नहीं कैंचियाँ कितनी, फैलातीं चुगली के लफड़े।।
सबक सिखाती है चींटी भी, इतना तुच्छ उसे मत जानें।
हाथी में भी वही प्राण हैं, तोड़ें नहीं शक्ति की तानें।।
सुई सरौते सभी रहेंगे, जब तक दुनिया टिकी रहेगी।
काँव - काँव कौवों की होगी, कोकिल की भी कूक बहेगी।।
शुभमस्तु !
14.12.2025●1.45 प०मा०
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