रविवार, 24 सितंबर 2023

आँख अपनी- अपनी ● [ व्यंग्य ]

 417/2023 


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 ●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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         इस देहांचल में आँख कहें या आँखें, पता नहीं वे कहाँ - कहाँ नहीं झाँकें! कहाँ -कहाँ नहीं ताकें! इन आँखों की कुछ अलग ही हैं शाखें। बिना ही किसी आवाज के ये क्या - क्या नहीं भाखें!कभी -कभी ऐसा भी बहुत होता है, खुली हुई हैं आँखें फिर भी वह अंधा ही होता है।मानो कि वह जागते हुए सोता है। अपने लिए काँटे वह स्वयं ही बोता है। बाद में पछताता रोता है। मानो भेड़ की तरह चलता कोई खोता है।

      एक समान नहीं हैं किन्हीं दो लोगों की आँखें।कुछ मरी सूखी - सी ,कोई उलूक - सी आँखें।कहीं टपकती हुई चालाकी या शैतानी ,किन्हीं -किन्हीं आँखों में दया की निशानी।नेताजी में अलग आँख,तो पुलिस की अलग ही शाख।शिक्षक की अलग तो बाबू की एकदम अलग।जज साहब की अलग तो वकील साहब की कुछ और ही अलग।बनिया-व्यापारी की आँख, सदा हानि - लाभ पैसे से आँक।बच्चे में भोलापन तो बाप में वात्सल्य का जतन। माँ की आँख में ममता तो नारी के नयन की कोई नहीं समता।वह अपनी अलग ही आँख से दुनिया को निहारती मानो सबकी नजरों को ,नजरियों को बुहारती है।कभी झलकती है वहाँ वासना तो कभी किसी देव-देवी या पतिदेव की उपासना।कभी वहाँ करवा चौथ तो आँखों में दहकती हुई सौत। तो कभी देवी, तो कभी रणचंडी मौत। 

     आदमी के चेहरे पर ज्यों अलग - अलग मुखौटे !त्यों आँखों पर चढ़े चश्मों के अलग - अलग झोंके। एक तो अलग आँख!उस पर भी उस पर चढ़ जाए चश्मा!किसी के लिए चेहरे की सुषमा तो किसी के लिए नज़रों का करिश्मा !मुखड़ा कहे बेटी।उसके पीछे नज़र हेटी ! आखेटी।कितनी ही आँखों के कितने रंगीन चश्मे। किसी की आँखें आँखें कम झील बड़ी गहरी,अब चाहे ग्राम्य बाला हो या छरहरी शहरी।किसी की आँख का मर चुका है पानी, किसी की आँख कंजूस तो कोई बड़ी दानी। ऐसी -ऐसी भी हैं आँखें जिनका नहीं कोई सानी। आँखों आँखों में दो से चार हुए नैना, लगने लगी प्रियतमा जिसे जुबाँ से कहता है बहना। आँखों में ही नफरत आँखें ही गहना ।वास्तव में आँखों की महिमा का भी भला क्या कहना! कोई किसी को फूटी आँख न सुहाए ।उधर माँ की ममता भरी आँखों में अपना एकाक्षी औरस सोना हीरा बन जाए।भले ही उसे देख किसी का शगुन बिगड़ जाए। 

              अनेक पर्याय इन आँखों के देखे। व्याख्या करें तो बन जाएँगे बड़े -बड़े लेखे। नयन, चख, नेत्र ,चक्षु,दृग, लोचन ,विलोचन,अक्षि,अम्बक,दृष्टि, नजर,चश्म,नैन ,नैना दीदा आदि।कोई किसी की आँख से गिरता है तो कोई अपनी ही आँख से गिर मरता है।किसी की आँख का सामना हर कोई नहीं करता है।आँख का नक्शा कितनी जल्दी बदलता है।हर आँख की अपनी सफलता है। 

          जिस शक भरी आँख से पुलिस देखती है ,उन आम आदमी की आँख से कितनी भिन्न रहती है! राजनेता की आँख कुछ और ही होती है। वह राजनीति के बीज हर कहीं बोती है।मजबूरी में आदमी नेता के पास जाता है ,वरना किसी बुद्धिमान को नेता फूटी आँख नहीं भाता है।डॉक्टर चिकित्सक देह मन का इलाज करता है। उसकी नजर में सर्वत्र रोग ही उभरता है। शिक्षक सीख देने में जहाँ कुशल होता है ,वहीं कभी -कभी चिराग तले अँधेरा भी रोता है।बाबू कहाँ सहज ही किसी के काबू में आता है।अपने डेढ़ चावल की खीर वह अलग ही पकाता है।जातिवादी आँख से ये देश और समाज बरबाद है,पर उसकी सोच इतनी तुच्छ है कि वह इसी से आबाद है। क्या नेता क्या अधिकारी , क्या कोई पुरुष क्या कोई नारी ! सबकी आँखों में लगी है जातिवादी बीमारी। और तो और जाति के नाम पर मतमंगे सरपट दौड़ रहे हैं।गाँव -गाँव गली - गली, नगर -नगर ,मोहल्ला दर मोहल्ला अपनी जाति का मत ढूंढ रहे हैं। यही सब आँख की हीन भावना की बात है।जिसकी जितनी भी अपनी औकात है। इसी चलता है खेल शह और मात है।

             साहित्यकारों और कविजन की भी अपनी अलग आँखें है। वहाँ भी कहाँ है दूध और पानी अलग -अलग !वहाँ भी ग्रुप हैं ,समूह हैं ,क्षेत्रवाद है ,प्रदेशवाद है ,पूर्व पश्चिम वाद है, भयंकर जातिवाद है।सहित्य चरे घास पर पड़नी उसमें कुछ ऐसी ही जातीय खाद है।जाति पहचान कर ही मिलती वहाँ दाद है। कवियों का सम्मेलन इसी से आबाद है। यदि वहाँ कविता पढ़ रही हो कोई नारी और वह भी सुंदर महाभारी,तब तो श्रोताओं कवियों की बदल जाती आँख सारी।जैसे खिल खिला उठी हो रातरानी की क्यारी। हो जाता कवि गण में नशा एक तारी।वाह !वाहों की गूँज लगने लगती बड़ी प्यारी।ये भी तो मानव - आँख की खुमारी। फिर क्या आँखों ही आँखों में सारी रतिया गुजारी। 

            कुल मिलाकर इतनी-सी बात है। आँख - आँख का अपना अलग इतिहास है।जितनी आँखें उतनी बातें।अनगिनत हावरे या कहावतें।कुछ ठंडी ,नरम , चिकनी या तातीं।सारी की सारी कही भी तो नहीं जातीं।मौसम हो सर्द ,गरम ,वसंत या बरसाती। नेह भरी आँखें देख भर -भर जाती छाती।ज्यों देख अँधेरे में जल जाती बाती।आँखों का ये संसार ही निराला है। किसी की आँख पर लगा न एक ताला है। कहीं झरते हैं फूल तो कहीं तीक्ष्ण भाला है। सादगी से भरपूर कोई कहीं गरम मसाला है। आँखों से घर में अँधेरा है ,आँखों से ही उजाला है।आदमी क्या जंतु मात्र की आँखों का कुछ अलग बोलबाला है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 24.09.2023.9.00प०मा०

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ग़ज़ल ●

 416/2023

        

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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सच पर   आज टिकी है दुनिया।

छल   से   रोज  छकी है दुनिया।।


रूह  और  दिल  की  टक्कर है,

अपनी  बनी  नकी  है  दुनिया।


पढ़ने  गया    न   कभी मदरसा,

ले    मुबाइल   पकी   है दुनिया।


शौहर     चला    रही   हर बीबी,

जीत न  उसे  सकी   है  दुनिया।


नई     चाल     के   बच्चे   जनमे,

अब  अतफ़ाल     ठगी  है दुनिया।


सभी       चाहते     शहसवार  हों,

जहरी   बड़ी     बकी   है  दुनिया।


'शुभम्'  न   रंग   समझ  में आते,

हमने    खूब     तकी    है दुनिया।


●शुभमस्तु !


*नकी =शत्रु।

*अतफ़ाल =बच्चे।

*शहसवार =घुड़सवार।

*बकी=पूतना।

*तकी =देखी।


24.09.2023◆10.45आ०मा०

ग़ज़ल ●

 415/2023

             

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सच को सच कहते कब लोग!

खुदगर्जी में  हों  जब   लोग।।


झूठों   के   संग   भीड़   बड़ी,

उल्लू कर   सीधा  अब  लोग।


चश्मदीद   में    नहीं   ज़ुबान,

जातिवाद  में  रँग  सब  लोग।


कहें  नीम   को आज  बबूल,

कहते  दिन को भी शब लोग।


रीति-नीति   सब  चरतीं घास,

बदल रहे   अपने  ढब  लोग।


लंबी -चौड़ी    हाँकें      रोज,

वक्ती  बंद  करें  लब    लोग।


'शुभम्'  देखता  ऊँट पहाड़,

गुनें हक़ीकत को   तब लोग।


●शुभमस्तु 24.09.2023◆10.00 आ०मा०


कवि लिख ले नवगीत ● [ नवगीत ]

 414/2023


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●©शब्दकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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टाँगमोड़कर

हाथ छोड़कर

कवि लिख ले नवगीत।


गीत नहीं ये

क्रीत नहीं जी

नई उपज का धान।

मौलिक चिंतन

जुड़ कर अंचल

चढ़ा काव्य की सान।।


लय भी गति भी

जन से रति भी

गरम न इतना शीत।


 समझ न दोहा 

 या चौपाई 

कुंडलिया का छंद।

गहराई में

कहाँ गड़ा  था 

बना शतावर -कंद।।

 

जाना- माना

अलग न तुमको

अद्भुत थी ये रीत।


दुल्हन जैसा

मुखड़ा देखा

छोटे -   छोटे   गाल।

लगे मिलाने 

संग तुम्हारे

'शुभम्'  शैशवी चाल।।


मन में मेरे

भय था छाया

अब भी नहीं अभीत।


● शुभमस्तु !


22.09.2023◆11.00आ०मा०

निर्मल ● [ कुंडलिया ]

 413/2023

                 

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

मानव   के  उर में सदा,बसते हैं   गुण  तीन।

सत, रज,तम कहते जिन्हें,रहता उनमें लीन।।

रहता   उनमें   लीन, कौन कब   बाहर आए।

आधारित    हालात,  कौन-सा रंग   दिखाए।।

निर्मल कर उर धीर ,नहीं बनता   यदि  दानव।

सत का साथ न छोड़,बना रहता नर   मानव।।


                         -2-

मंदिर  है मन  आपका,रखिए  निर्मल    मीत।

पास न आए तम कभी,गा सदगुरु   के  गीत।।

गा सदगुरु  के  गीत,सभी को मानव   जानें।

मन में प्रभु का वास,जीव सब में  यह  मानें।।

'शुभम्' हीन आचार,न जाएँ नजरों  से  गिर।

करनी   शुद्धाधार,  रखें  निर्मल  मन - मंदिर।।


                        -3-

धरती पर सब जीव यों,रखते अलग स्वभाव।

कोई     प्राणों    को हरे,भरता कोई     घाव।।

भरता    कोई  घाव,प्राण निज कोई    देता।

परहित  में दिन - रात,पूर्ण जीवन  कर  लेता।।

'शुभम्' बंद कर आँख,मेष निर्मल कब  रहती!

ढोर - मनुज के बोझ,दबी रोती    ये    धरती।।


                        -4-

भारत  माँ के वक्ष पर, अनगिन  जीव   सवार।

वे सब  निर्मल मन नहीं,चूषक और    लबार।।

चूषक   और   लबार,  देश  को  खाते   नेता।

बेचें   बीमा   रेल,  नहीं   कुछ भू  को    देता।।

'शुभम्' भरा है   खोट,देश को करते    गारत।

कैसे   बने  महान,  देश अपना  ये    भारत।।


                         -5-

नेता  जी  का मन नहीं, निर्मल   शुद्ध  विचार।

छल - बल  के हथियार से, करते अपने कार।।

करते अपने कार ,आम जन भोजन तन का।

कंचन कामिनि कार,लक्ष्य है केवल धन का।।

'शुभम्'  समझते श्रेष्ठ,स्वयं वोटों   को   सेता।

ज्यों  चिड़िया का अंड,चरित का   वैसा नेता।।


●शुभमस्तु !


22.09.2023◆9.15आ०मा०

गिरगिटानन्द ● [अतुकान्तिका]

 412/2023

   

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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इधर गिरगिट

उधर गिरगिट

लगाते दौड़ 

नित सरपट

फटाफट।


गूँगे नहीं हैं

बोलते भी हैं,

मिटाने

 जीभ की खुजली,

मंच सजते 

सजतीं पताका

सामने हैं भेड़ -रेवड़।


किसको 

सताए देश की चिंता,

लगाना ही धर्म है

तेल से भीगा पलीता,

भेड़ का रेवड़

बनाता वीडियो

पढ़ाता उधर 

वह 'गिरगिटी - गीता'।


'रंग बदलो 

समय के साथ अपना,

कोई नहीं संगी

नहीं साथी भी तेरा,

सब छूट जाना है

यहीं ये धन बसेरा,

हम देश -उद्धारक,

सुधारक,

इतिहास निर्माता।'


' सर्वश्रेष्ठ हैं हम,

न आया आज तक

ऐसा कभी कोई,

नहीं आने पाएगा,

हमें समझो

अवतार ,

उतारेंगे हमीं

धरती से पाप-

पापियों का भार,

'शुभम्'  'गिरगिटावतार',

लगाएँ पार।'


 ●शुभमस्तु !


21.09.2023◆5.00आ०मा०

बुधवार, 20 सितंबर 2023

गणपति सदन पधारिए ● [ दोहा ]

 411/2023


[चतुर्थी,गणपति,आवाहन,

इंदुर,नैवेद्य]

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ● सब में एक ●

धन्य चतुर्थी तिथि हुई,जन्मे  'शुभम्' गणेश।

मुदित मातु गौरी बनी,जनक अकंप   महेश।।

तिथि न एक शुभ-अशुभ है,ईश दिवस सब नेक।

भले चतुर्थी  प्रतिपदा, चलें पंथ   सविवेक।।


गणपति  सदन पधारिए, कृपा  करें भगवान।

शुभाशीष की कामना,धी,शुभ,लाभ महान।।

मोदक प्रिय गणपति सदा,आते हैं मम गेह।

कृपा बरसती नित्य ही,ज्यों पावस में  मेह।।


भक्त शरण में आपकी,*आवाहन* कर नित्य।

शुभाशीष ही माँगते,दिनकर हे  आदित्य।।

आवाहन के मंत्र का,करें शुद्ध    उच्चार।

हो अनर्थ ही अन्यथा,मेटें मनस  - विकार।।


इंदुर को कुछ सोचकर, वाहन  बना गणेश।

चले परिक्रमा के लिए,भू-सम मान  महेश।।

यदि हो दृढ़ संकल्प तो,चल इंदुर की चाल।

लक्ष्य मिलेगा शीघ्र ही,बने न काग  मराल।।


गुरुवर का नैवेद्य यों,सहज नहीं   है   मीत।

मिले अंश भी शिष्य को,करे जगत में जीत।।

देवों के   नैवेद्य   का,पावन  है प्रति   अंश।

ग्रहण करें सम्मान से,होगा अघ-तम ध्वंश।।


        ● एक में सब  ●

इंदुर वाहन पर चढ़े,आए गणपति   द्वार।

आवाहन नैवेद्य सँग,करें चतुर्थी   वार।।


●शुभमस्तु !


20.09.2023 ◆7.15आ०मा०

यह झूठ न मान ● [ अरविंद सवैया ]

 410/2023


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छंद विधान:

1.8 सगण (112) +लघु

2.12,13 वर्ण पर यति। कुल 25 वर्ण।

3.चारों चरण समतुकांत।

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                   -1-

अपना-अपना  सब लोग कहें,

                अपना न कहीं यह लें तुम जान।

कुछ लेकर साथ न कोइ चला,

                तिनका न गया यह झूठ न मान।।

सतराइ   चलें  इतरायँ बड़े,

                  धन को दिखलाइ करें गुणगान।

नित माँस भखें खग ढोरन के,

                   नहिं पीवत नीर करें मधु पान।।


                      -2-

घरनी घर की तरनी सब की,

               सरिता जल धार करे भव पार।

समझें  नहिं कोमल है सबला,

               टपका मत जीभ भले नर लार।।

जननी जन की निज दूध पिला,

                नित पालति पोषति मान न हार।

अपमान करे मत नारि भली,

                यश मानस खोलति पावन द्वार।।


                        -3-

छलनी बस नाम, नहीं छलती,

                 कचरा सब छाँट करे सु-सुधार।

बदनाम हुई   बद   नाम रखा,

               नित बाँटति छाँटति अन्न असार।।

बदनाम   बुरा   बद श्रेष्ठ सदा,

                   बरसावत बादल सिंधु न खार।

धरती करती नर को नित ही,

                  सब खोद रहे बरसावति प्यार।।


                       -4-

नदिया-नदिया नर-नारि कहें,

                  निशि -वासर देति सदा जलधार।

करनी न लखे सरि की दुनिया,

                  बस गाल बजाइ चलें सब कार।।

खिंचवाइ जनी-जन झूठ छवी,

                       छपवाइ रहे अपने अखबार।

परदा -परदा बहु काज बुरे,

                     करते ,रहते , मरते नर- नार।।


                        -5-

अपने मन में मत हीन बनें,

                  कर सोच महान, अपुष्ट न सोच।

मत दूषित  भाव भरे मन में,

                  समझें नहिं मानव धी तव पोच।।

लकड़ीवत सख्त नहीं रहना,

               लतिका सम सौम्य रखें मन लोच।

नभ-सी कर व्यापक बुद्धि सदा,

                पथ बाधक जो कड़वा बन गोच।। 


●शुभमस्तु !


19.09.2023◆ 4.00प०मा०

पौध धान की सारी ● [ गीत ]

 409/2023

 

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रोप रही हैं

मिलकर नारी

पौध धान की सारी।


खेत लबालब 

है   पानी  से

नीचे  है  घुटनों के।

उड़सी साड़ी

कटि  में अपनी

अंग ढँके बदनों के।।


कमर झुकाए

रोपें       पौधे

काम निजी हितकारी।


हरी -हरी हैं

सुघर कतारें

मन -  आँखों को भातीं।

रहें देखते 

खड़े -खड़े हम

हमको    हैं   ललचातीं।।


सबके सिर है

निजी मुड़ासा

रंग -   बिरंगा  भारी।


एक पंक्ति में

झुकीं एक सँग

व्यस्त हस्त हैं दोनों।

बाएँ कर में

पौधे थामे

हरा   उगाने   सोनों।।


गातीं मिलजुल

गीत    मनोहर

बालाओं की क्यारी।


पुरुष सहायक

संग एक है

पौधघरों   में  जाता।

जब वे माँगें

'पौधे  लाओ'

दौड़ - दौड़ वह लाता।।


यदि हो देरी

ला पाने में

सुनता   मीठी गारी।


आने   वाली

 है   दीवाली

खील धान की लाते।

नए धान्य से

रमा -सुवन शिव

की पूजा कर पाते।।


संस्कृति 'शुभम्'

रम्य   पावन    है

भारत माँ की प्यारी।


●शुभमस्तु !


19.09.2023●10.00आ.मा.


सोमवार, 18 सितंबर 2023

आओ शिव -गौरी के नंदन● [ बालगीत ]

 408/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आओ  शिव- गौरी के नंदन।

तुम्हें  पूजने  का करता मन।।


शुभदा  गणेश -चतुर्थी वेला।

जहाँ - तहाँ लगते बहु मेला।।

मोदक तुम्हें खिलाते सब जन।

आओ शिव - गौरी के नंदन।।


धूप,पान,फल ,फूल चढ़ाऊँ।

अर्चन कर तव आरति गाऊँ।।

घुँघरू बाँध नाच लूँ छुम छन।

आओ शिव -गौरी के नंदन।।


तुम धन -धान्य ज्ञान के दाता।

शिवजी पिता शिवा तव माता।।

भोग लगाऊँ करें न    ठनगन।

आओ शिव -गौरी के नंदन।।


भादों मास     चतुर्थी   आई।

शुक्ल पक्ष   उजियारी छाई।।

जन्म दिवस विघ्नेश्वर पावन।

आओ शिव - गौरी के नंदन।।


संकट हरो कृपा  कर स्वामी।

पितु सेवी प्रभु     अंतर्यामी।।

'शुभम्'कृपा के डालें शुभ- कन।

आओ शिव -गौरी के नंदन।।


●शुभमस्तु !


17.09.2023◆7.45 प०मा०

सखा ● [ चौपाई ]

 407/2023

   

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सखा वही जिसके सँग खा लें।

भेदभाव कण भर क्यों पालें??

जहाँ  भेद की बाड़ लगाई।

मर जाती   है  वहीं सखाई।।


'स' से संगम  और 'खा' खाना।

बनता 'सखा' शब्द जो जाना।।

जाति न ऊँच -नीच का अंतर।

वही सखा मिलता  है दूभर।।


दुख - सुख का  होता नित संगी।

रक्षा   करते   ज्यों बजरंगी।।

अंतरंगता      ऐसी    प्यारी।

दुनिया  बन जाती है न्यारी।।


और न कोई    इतना   भाता।

जितना अपना सखा सुहाता।।

अवसर   आए  मौत   बचाए।

कभी -कभी निज प्राण गँवाए।।


सखा श्याम के ब्रज के ग्वाला।

सँग -सँग रहते संग निवाला।।

गाय   चराते    वन   में   सारे।

नाच  -  कूदते    संगी  प्यारे।।


माखन चोरी के नित साथी।

बनते घोड़े    चढ़ते    हाथी।।

मटकी एक सभी सँग खाते।

छूत न किंचित मन में लाते।।


अब के सखा  न ऐसे   कोई।

साथ न खाते  एक    रसोई।।

संग कृष्ण के सखा सुदामा।

राजा के   सँग फटता जामा।।


सखा-आगमन से सुख माना।

धो -धो चरण अमिय प्रभु जाना।।

मिले न ऐसी   कहीं    मिताई।

एक लवण तो   एक मिठाई।।


'शुभम्' सखा-संसार निराला।

बड़भागी को मिले उजाला।।

हितचिंतक   होते     वे अपने।

आज न ऐसे रिश्ते    टिकने।।


सखा मिलें ज्यों  रँग में  पानी।

है अतीत की अलग कहानी।।

परिवारों को    मिले सघनता।

सखा सखा के उर की सुनता।।


●शुभमस्तु !


उत्तम सृजन आदरणीय श्री 🌹🙏


18.09.2023◆5.15प०मा०

मूढ़ सपेरे हो गए! ● [ दोहा - गीतिका ]

 406/2023

   

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आस्तीन के  साँप  ही,   फैलाएँ फण-जाल।

विष फैलाते  नित्य ही,बुरा देश  का   हाल।।


अपने जिनके  बिल नहीं, फैला तंबू    एक,

घुसें   पराए   धाम   में,खम ठोकें   तत्काल।


छोड़  सपोले  हैं दिए,  मनमानी  हो   नित्य,

जता रहे अधिकार वे,बजा-बजा कर गाल।


रक्तपात  आतंक  से,डरे हुए जन   आज,

साँपों का प्रिय खेल है,करना बड़े   बवाल।


मूढ़   सपेरे   हो गए,  बेबस बल   से   हीन,

सड़कों  पर लोहू  बहे,नोंच खा रहे खाल।


बिना  किए  सब चाहिए,जिसे निवाला  भोग,

किंचित उनको तो नहीं,मन में शेष   मलाल।


'शुभम्' पालते  साँप जो,और पिलाते   दूध,

डंसना है उनको उन्हें,शेष न सिर  के  बाल।।


●शुभमस्तु !


18.09.2023◆5.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

आस्तीन के साँप ● [ सजल ]

 405/2023

    ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

● समांत :  आल।

●पदांत: अपदान्त।

●मात्राभार : 24.

मात्रा पतन :शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आस्तीन के  साँप  ही,   फैलाएँ फण-जाल।

विष फैलाते  नित्य ही,बुरा देश  का   हाल।।


अपने जिनके  बिल नहीं, फैला तंबू    एक।

घुसें   पराए   धाम   में,खम ठोकें   तत्काल।।


छोड़  सपोले  हैं दिए,  मनमानी  हो   नित्य।

जता रहे अधिकार वे,बजा-बजा कर गाल।।


रक्तपात  आतंक  से,डरे हुए जन   आज।

साँपों का प्रिय खेल है,करना बड़े   बवाल।।


मूढ़   सपेरे   हो गए,  बेबस बल   से   हीन।

सड़कों  पर लोहू  बहे,नोंच खा रहे खाल।।


बिना  किए  सब चाहिए,जिसे निवाला  भोग।

किंचित उनको तो नहीं,मन में शेष   मलाल।।


'शुभम्' पालते  साँप जो,और पिलाते   दूध।

डंसना है उनको उन्हें,शेष न सिर  के  बाल।।


●शुभमस्तु !


18.09.2023◆5.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 17 सितंबर 2023

आस्तीन के निवासी ● [ व्यंग्य ]

 404/2023



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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           एक बहुत पुरानी और कु-प्रसिद्ध कहावत भला किसने नहीं सुनी होगी। यदि सुनना ही चाहते हैं तो सुन भी लीजिए और पढ़कर वाचन भी कर लीजिए।कहावत कुछ यों है : 'आस्तीन में साँप पालना । 'आस्तीन का साँप होना।' कहावत की पुरातनता वर्तमान में भी उतनी ही प्रासंगिक है ,जितनी अनादि काल में रही होगी।अंततः महाराजा परीक्षत द्वारा कराए गए नागयज्ञ में संसार के सभी नाग भस्म नहीं हो पाए थे कि बचे हुए नागों के जीवनदाता बने ऋषि आस्तीक ने उनके बीज बचा ही डाले; जो आज भी मानव समाज को डंस रहे हैं।निरंतर डंसे चले जा रहे हैं। इतना बड़ा नागयज्ञ होने पर भी इतने साँप बचे रह गए। इसका श्रेय ऋषि वर आस्तीक को जाता है।

            [प्रसंगवश उनका परिचय बताना भी आवश्यक हो जाता है।आस्तीक माता मनसा और पिता जरत्कारु से उत्पन्न संतान थे। गणेश,कार्तिकेय और भगवान अय्यपा उनके मामा ,देवी अशोकसुंदरी और देवी ज्योति उनकी मौसी,राजा नहुष और अश्वनी कुमार नासत्य उनकर मौसा,शिवजी और पार्वती उनके नाना - नानी थे। 

         गर्भावस्था में आस्तीक ऋषि की माँ कैलाश पर्वत पर चली गई। अतः भगवान शंकर द्वारा उन्हें ज्ञानोपदेश दिया गया। गर्भावस्था में ही धर्म और ज्ञान का उपदेश पा लेने के कारण इनका नाम 'आस्तीक' रखा गया।उन्होंने महर्षि भार्गव से सामवेद का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत नाना भगवान शंकर से मृत्युंजय मन्त्र का अनुग्रह प्राप्त किया और माता के साथ अपने आश्रम लौट आए।राजा जनमेजय के पिता राजा परीक्षत की मृत्यु सर्पदंश से होने के कारण उन्होंने समस्त सर्पों का विनाश करने के लिए सर्पसत्र (नागयज्ञ) का आयोजन किया।यज्ञ के अंत में तक्षक की बारी आने पर पिता जरत्कारु ने उसकी प्राणरक्षा के लिए पुत्र आस्तीक को वहाँ भेजा।आस्तीक ऋषि ने अपनी सम्मोहक वाणी के प्रभाव से राजा जनमेजय को मोह लिया।उधर तक्षक घबराकर इंद्र की शरण में जाकर छिप गया।जब ब्राह्मणों के आह्वान पर भी तक्षक वहाँ नहीं आया ,तब 'इन्द्राय तक्षकाय स्वाहा' मंत्रोच्चार करने पर इंद्र ने उसे मुक्त कर दिया और वह यज्ञकुण्ड पर आकर खड़ा हो गया।राजा जनमेजय ऋषि आस्तीक से वचनबद्ध हो चुके थे। उसी वचनबद्धता के कारण उन्होंने तक्षक को भस्म होने से बचा लिया और राजा का सर्पसत्र भी रुकवा दिया।वचनबद्ध जनमेजय ने खिन्न होकर तक्षक को मन्त्र- प्रभाव से मुक्त कर दिया।तब सभी सर्पों ने आस्तीक को वचन दिया कि जो भी तुम्हारा ध्यान करेंगे या आख्यान को पढ़ेंगे ;उन्हें वे कष्ट नहीं देंगे।जिस दिन नागों को प्राणदान मिला ,उस दिन पंचमी थी,इसलिए आज भी उस दिन नागपंचमी मनाई जाती है।] 

              सांप नष्ट होने से बच गए ,इसलिए कहावत भी बच गई अन्यथा वह भी यज्ञकुण्ड में भस्म हो गई होती।अब प्रश्न ये है कि ये साँप ,शंकर भगवान की तरह पाले जाते हैं अथवा स्वतः पलकर आस्तीन में अपना घर बना लेते हैं?कुछ सपोले औऱ कुछ प्रौढ़ सर्प भी आस्तीनों में पलते हुए देखे गए हैं। सपोले पहले आस्तीन में घुसे -घुसे दूध पीते हैं और वे ही वयस्क होकर जिसका पीते हैं ,उसी को डंसते भी हैं।बस अवसर की तलाश भर रहती है । अन्यथा क्या साँप अपनी प्रकृति को छोड़ सकते हैं? जब साँप पल ही जाता है ,तो पालक को कुछ न कुछ लाभ भी पहुँचाता ही होगा। अन्यथा भला कोई भला मानुष क्यों अपनी ही आस्तीन में पालने लगा?ऐसा भी हो सकता है कि प्रारम्भ में आदमी जिसे केंचुआ समझे बैठा हो ,वही साँप सिद्ध हो जाए! ये तो डंसने के बाद ही पता लगता है कि वह साँप था ! जब तक वह बिल में सीधा चले, तब तक तो कोई अनुमान नहीं, किन्तु जिस पल वह धोखा देकर डंस ले और वक्राकार चलने लगे ,तब होश आए कि जिसे हम केंचुआ माने बैठे थे;वह तो साँप निकला। हाय !धोखा हो गया।

              पता नहीं कि कौन कब किसके लिए आस्तीन का साँप बन जाए? मित्र के लिए मित्र,पड़ौसी के लिए पड़ौसी, सहेली के लिए सहेली, सास के लिए बहू या बहू के लिए सास,डॉक्टर के लिए उसका कंपाउंडर,गुरु के लिए शागिर्द,अधिकारी के लिए कर्मचारी, नेता के लिए गुर्गा, व्यापारी के लिए उसी का नौकर आदि ऐसे हजारों लाखों उदाहरण हैं ,जहाँ अज्ञान के अँधेरे में आस्तीनों में ही पलते हुए साँप या सपोले अपने 'कारनामों' से टी.वी.,अखबार की नित्य की सुर्खियां बनते हैं। आज के युग में तो अपनी ही संतानें भी आस्तीन के साँपों की भूमिका बख़ूबी निभा रही हैं।वे स्व - परिश्रम से नहीं ; बाप और माँ के रक्त की बूँद-बूँद तक चूस लेना चाहती हैं।यही तो उनका सपोले से साँप बन जाना है। सपोलापन है।सबसे गंभीर मामला तो यही है।क्योंकि संतति रूपी साँप से दंशित माँ - बाप पानी भी नहीं माँग सकते । जब अपने उद्धारक का ही रक्त विषाक्त हो जाए! फिर विश्वास कहाँ और कैसे किया जाए? दूध का जला (वह भी अपने दूध का !) छाछ भी फूँक -फूँक कर ही पीता है। 

क्ति ,समाज और राष्ट्रीय स्तर पर असंख्य आस्तीन के साँपों की गणना करना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है।इन साँपों की प्रकृति ये भी है कि वे साँप की शक्ल में न होकर मानुष की शक्ल में ही अपना उल्लू सीधा करते हैं। इन्हें बहुरूपिए भी कहा जा सकता है: कहीं चिलमन में , कहीं चाक चौबंद चमन में। कभी अपनी बगल में,कभी दामन के सहन में।। आस्तीनों के साँप डंसा करते हैं, हमें ही खोखला कर रहे हैं अपने वतन में। 

            सांप की प्रकृति ही जहरीली है।इंसान को कागज़ का साँप भी डरा देता है।जिंदा साँप की तो बात ही क्या है !ये भी असत्य नहीं कि साँप कभी अपने अपना घर ,अपने बिल नहीं बनाते ।वे तो दूसरों के पूर्व निर्मित बिलों में ही रहते हैं।दूसरों का ,मुफ्त का,छीन- झपट कर लिया हुआ हराम का खाना ही वे अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।पराश्रयी जीवन ही उनका संस्कार है।इस बात को हमें और आपको कभी नहीं भूलना है कि आस्तीन वाले साँप कभी साँप - शरीर में नहीं मिलते। उनके अन्य अनेक रूप और देह हो सकते हैं।

            आस्तीनें रहेंगीं। पर उन्हें देखना ,परखना और जाँचना भी होगा कि साँप न पनपने लगें।सावधानी हजार नियामत।स्वस्थ परिवार,व्यवसाय, रोजगार,व्यापार,समाज और देश के लिए आस्तीनों के साँपों के फनों को कुचलते जाना भी अनिवार्य है।उनके लिए ऐसे जनमेजय बनें कि कोई आस्तीक अपने मोहन- मंत्र से उन्हें अपने सत्कर्म - सर्पसत्र से विरत न कर सके। क्योंकि ये अपने स्वभाव को नहीं बदलेंगे।जहर उगलना और समीपस्थ को डंसना इनका संस्कार है। न इन्द्र बनकर उनके रक्षक बनना है और न ही लुभावन - वाणी से कर्तव्य - च्युत होना है।यदि तक्षक न बचता तो नाग -वंश भी शेष नहीं होता। 

 ●शुभमस्तु !

 17.09.2023◆ 2.30 प.मा. 

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खिचड़ी -प्रिय जनता ● [ अतुकान्तिका ]

 403/2023

 

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खिचड़ी - प्रिय

जनता भारत की

खाए चावल -दाल,

'बट' 'शट' सीखे

हैलो ! हाय! हाय!!

गिटपिट हिंगलिश 

करते नित्य कमाल।


आती नहीं

मातृभाषा भी,

अंग्रेज़ी के दास,

बनी प्रतिष्ठा 

आज  'फ़िरंगिनि'

चरती हिंदी घास।


माँ की हुई न

संतति देशी

तोड़ें ए बी सी की टाँग,

मौसी से इतना 

लगाव है,

खा बैठे जैसे भाँग।


नेता अधिकारी

संतति को

भेजें सभी विदेश,

हिंदी के बन

बड़े पक्षधर

प्रेम नहीं है लेश।


'शुभम्' चल रहे

नाटक  नौटंकी

अब भी देश गुलाम।

मिले नौकरी

 अंग्रेज़ी से

समझें हिंदी बेकाम।

देश की हालत ये है,

नारों का है देश,

यही हमारा क्लेश।


●शुभमस्तु !


14.09.2023◆9.45प.मा.

हिंदी से हम ● [ गीत ]

 402/2023

        

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हिंदी से हम

हम से  हिंदी

हम नहीं किसी भाषा से कम।


माता जिसकी

संस्कृत पावन

तन देवनागरी का प्यारा।

जननी ने दी

घोटी निज पय

बहती मुख से गंगा धारा।।


लिखते जैसा

बोलें वैसा

क्यों हीन भाव भरते हैं हम।


प्रति शब्द -शब्द

भारती -ज्ञान

गुंजित करती शारदे मात।

संस्कार युक्त

हिंदी अपनी

वह गूँज रही निशि- दिवस सात।।


हिंदी हिंदू

यह हिंद देश

तीनों का पावन सुर संगम।


रोना गाना

मुस्कान हँसी

सपने देखें हम हिंदी में।

सावन फागुन

पावस वसंत

रहते हिंदी की बिंदी में।।


होली रोली

चंदन वंदन

दीपों से तारे रहे सहम।


तुलसी या कवि

सूर की यही

चरित -काव्य पहचान बनी है।

पंत निराला

मीराबाई

घनानंद रसराज सनी है।।


युग बदला है

बढ़ती हिंदी

चला लेखनी रच गीत 'शुभम्'।


हमें नहीं है

बैर किसी से

किंतु नहीं अपमान सहेंगे।

हिंदी बोलें

हिंदी में लिख

हिंदी को निज मातु कहेंगे।।


जूझेंगे हम

ए बी सी से

आए आगे यदि हो दम।


●शुभमस्तु !


13.09.2023◆9.00प०मा०

मातृभाषा हिंदी ● [ दोहा ]

 401/2023

   

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ की  घुट्टी में घुले,जिस भाषा  के   बोल।

हिंदी  वह  रस में सनी,भाव भरे  अनमोल।।

अमृत-धारा   से  भरे,माँ के पय   के   बिंदु।

वह   हिंदी  भाषा  अहो,नभ में   जैसे   इंदु।।


माता   को  जिसने नहीं,दी जग में पहचान ।

मौसी-भाषा दे नहीं,  सदा शिखर   सम्मान।।

वैज्ञानिक   भाषा   सदा,हिंदी ही   है   मीत।

चले कंठ से होठ तक, वर्णमाल  बन  गीत।।


हिंदी   की कर साधना,हे मानुष   की  जात।

कवि,लेखक,गायक बना,हो जग में विख्यात।

बोल तोतले मधु भरे,निज माँ की   ही   देन।

शैशव से चल आज तक,बने वाक की सेन।।


जगती  में   विख्यात   हैं,हिंदी माँ  के   गीत।

साधिकार   मुख  से कहें, हिंदी   से  है  प्रीत।।

माँ न कभी  दुतकारती,संतति से   कर    प्रेम।

आँचल  में   लेती  छिपा,  वही बनाती   हेम।।


निज माँ से मिलता तुझे,जगती में सम्मान।

और कहीं मिलना नहीं,माँ -भाषा रस- खान।।

रोटी से  अट्टी  कहे,  पय  पू -पू    नवजात।

अँगुली  गह  सिखला रही,मेरी  प्यारी  मात।।


आओ  हम  सम्मान   दें, माँ- भाषा को आज।

स्वाभाविक बँधना सदा,हिंदी के   सिर  ताज।।


●शुभमस्तु !


13.09.2023◆6.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 11 सितंबर 2023

सभ्यता खड़ी हो गई है!● [ व्यंग्य ]

 400/2023 


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● ©व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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हमारी मनुष्य जाति की प्रायः तीन अवस्थाएँ प्रचलन में हैं :1.बैठना 2.लेटना और 3.खड़े रहना। एक और चौथी अवस्था भी कभी - कभी देखी जाती है ;वह है उकड़ू बैठना ,जिसे बैठी हुई अवस्था का ही एक उपभेद कहा जा सकता है। प्राइमरी स्कूल में मुंशी जी इसका प्रयोग हमें आदमी से मुर्गा बनाने में कर लिया करते थे। यह बैठी और खड़ी हुई अवस्था का एक मिश्रित रूप है ।न पूरी तरह बैठे हुए और न पूरी तरह खड़े हुए।मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जंतु है ,जिसे अपनी सभ्यता को दिखाने का शौक है। जिसे विभिन्न रूपों में वह प्रायः दिखाया करता है।

 मानव की सभ्यता एक ऐसा कपड़ा अथवा आवरण है ,जिसे वह कभी भी बदल सकता है। उतार कर फेंक सकता है। इसलिए उसका निर्वसन अथवा नंगा होना या होते चला जाना भी उसकी विकसनशील सभ्यता का एक रूप है। सभ्यता के इस रूप पर यदि विस्तार से विचार किया जाएगा तो उसकी देह पर सूत का एक धागा भी नहीं बचेगा और वह सभ्यता के एवरेस्ट पर ही बैठा हुआ दिखेगा। फिलहाल हम मानवीय सभ्यता के इतने 'उच्चतम स्वरूप' की समीक्षा करने नहीं जा रहे हैं।पहले उसकी उन्हीं साढ़े तीन अवस्थाओं पर विचार विमर्श ही समीचीन होगा।

 मनुष्य की सभी साढ़े तीन अवस्थाएं उसके जीवन भर काम आने वाली हैं।खाते,पीते, चलते -फिरते,सोते, काम करते हुए इन्हें स्व सुविधानुसार वह काम में लेता रहता है।सामान्यतः बैठने की अवस्था उसके जाग्रत जीवन की ऐसी प्रमुख अवस्था है ,जो अधिकांशत: काम आती है।तभी तो किसी के द्वारा कहीं जाने पर लोग उसके स्वागत में यह कहते हुए देखे सुने जाते हैं कि आइए बैठिए, पधारिए ,तशरीफ़ रखिए।इस काम के लिए प्रकृति ने प्रत्येक स्त्री -पुरुष को एक नहीं दो -दो भारी - भरकम विशेष अंग भी पहले से ही उपहार में दे दिए हैं कि शिकायत की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि कोई यह कहकर शिकायत कर सके कि हमारे पास तो थे ही नहीं जो बैठेते या पधार पाते या तशरीफ़ रख पाते। आप अच्छी तरह से समझ ही गए होंगे कि वह बहुमूल्य दो अदद क्या है?जिन्हें हम जैविक विज्ञान की भाषा में 'नितंब' की संज्ञा से अभिहित करते हैं। अगर प्रकृति ने ये दोनों नहीं दिए होते तो शिकायत का पूरा अवसर होता। पर अब आपको वह अवसर नहीं दिया गया है । इसलिए शांतिपूर्वक ढंग से बैठना सीख लीजिए। पर कहाँ ? आपको बैठने की फुरसत ही कहाँ है? आप तो इतनी जल्दी में हैं ज़नाब कि खाना ,पीना क्या ;मल -मूत्र विसर्जन तक का समय नहीं हैं आपके पास !सब कुछ खड़े - खड़े ही निबटा लेना चाहते हैं!बैठने तक की फुरसत नहीं।वाह रे इंसान।इंसानों और गधे -घोड़ों,सुअरों, कुत्ते,बिल्लियों में कोई भेद ही नहीं रह गया! 

 दावतों में शांति से बैठकर भोजन करने के स्थान पर 'बफैलो सिस्टम' ईजाद कर लिया।यहाँ तक कि मूत्र विसर्जन के लिए खड़े -खड़े वाला बड़ा - सा प्याला दीवाल पर लटका लिया और शेष काम के लिए कमोड ने उटका लिया। यह भी सम्भवतः असुविधाजनक होता ,अन्यथा इसे भी गाय- भैंस की तरह 'खड़ासन' में ही निबटाता !इस मामले में वह भूल बैठा की उसकी देह - संरचना की माँग 'बैठासन' की है ,'खड़ासन ' की नहीं।

 लेटकर या बैठकर आप टहल नहीं सकते। यह ठीक है। किंतु जीवन के बहुत से काम ऐसे हैं ,जिन्हें बैठकर किया जाना ही सुविधाजनक है।परंतु कल -कारखानों में जिन मशीनों पर बैठकर काम करना उचित होता ,वहाँ भी 'खड़ासन' में काम करने वाली मशीनें बना डालीं।खड़ी हुई अवस्था में मानव को अपेक्षाकृत अधिक और जल्दी थकान होती है ,इस तथ्य को नजरंदाज कर दिया गया। आज वैज्ञानिक रूप से भी यह प्रमाणित किया जा चुका है कि खड़े -खड़े काम करने की अपेक्षा बैठकर काम करने से व्यक्ति अधिक समय तक जीता है। वह दीर्घायु होता है। माना कि शिक्षण कार्य बैठ या खड़े होकर दोनों तरह से किया जाना संभव है। किंतु लिपिकीय कार्य खड़ी अवस्था में करना न उचित है और न सुविधाजनक ही है। ट्रैक्टर ,बस, कार ,ट्रेन ,हवाई जहाज आदि की ड्राइविंग बैठकर ही की जानी है ,की भी जाती है।हो न हो कि ऐसी भी खोज कर ली जाए कि ये वाहन भी खड़े खड़े चलाने वाले बना दिए जाएँ। हल - बैलों से खेत की जुताई खड़े हुए ही सम्भव है। यही उसकी आवश्यकता भी है। कुम्भकार का चाक, मोची का जूते गाँठना यदि बैठकर ही करना है तो हैंडपंप खड़े होकर ही चलाना होगा।यह कार्य की प्रकृति है। किंतु शरीर -जैविकी की वैज्ञानिकता छोड़कर खड़े होकर कार्य करना सर्वथा अनुचित ही होगा। 

 हम मनुष्य 'खड़ासन' के इतने कुशल विशेषज्ञ हैं कि अपनी बोली -भाषा को भी खड़ी कर दिया और वह खड़ीबोली बना दी गई।हमारी प्राचीन भाषाएँ : जैसे- ब्रजभाषा,अवधी,भोजपुरी, मैथिली,कन्नौजी, हरियाणवी, राजस्थानी आदि बैठा दी गईं या सुला दी गईं। सब कुछ खड़ा-खड़ा, खड़ी -खड़ी,खड़े - खड़े। दूल्हा -दुल्हन भी न भाँवरें लेने लगें कहीं घोड़ी पर चढ़े -चढ़े!

 ●शुभमस्तु!

 11.09.2023◆6.00आ०मा०

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कर्म मनुज का नित्य ● [ गीतिका ]

 399/2023

   

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सभी  पालते  श्वान, खाते यदि   वे    घास।

पीछे    है   इंसान,  मत  समझें  परिहास।।


कर्म  मनुज  का  नित्य,पथ पर  देखें  आप,

अनसुलझा औचित्य,कुक्कर जिनके पास।


होता   नित्य    नहान ,महके साबुन     देह,

बिस्तर  में   भी  श्वान ,नर  से   आती  बास।


फुटपाथों     पर    लोग,  सोते भूखे      पेट,

दूध - ब्रैड  का भोग,शुनक यहाँ  कुछ  खास।


गली - गली   में   घूम, यों तो करें     जुगाड़,

भौं - भौं  की  कर  बूम, करता रोटी  - आस।


कर्मों  का  परिणाम, भोग  रहे सब     जीव,

गिरती  योनि  धड़ाम, जीवन मात्र   प्रवास।


'शुभम्' मनुज की देह,सहज नहीं उपलब्ध,

अस्थि  माँस  का गेह,करना पड़े    प्रयास।


●शुभमस्तु !


10.09.2023◆11.45 प०मा०

सभी पालते श्वान ● [ सजल ]

 398/2023

  

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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● समांत : आस।

●पदांत : अपदान्त।

●मात्राभार : 11+11=22

●मात्रा पतन : शून्य।

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सभी  पालते  श्वान, खाते यदि  वे    घास।

पीछे    है   इंसान,  मत  समझें  परिहास।।


कर्म  मनुज  का  नित्य,पथ पर  देखें  आप।

अनसुलझा औचित्य,कुक्कर जिनके पास।।


होता   नित्य    नहान ,महके साबुन   देह।

बिस्तर  में   भी  श्वान ,नर  से   आती  बास।।


फुटपाथों     पर    लोग,  सोते भूखे      पेट।

दूध - ब्रैड  का भोग,शुनक यहाँ  कुछ  खास।।


गली - गली   में   घूम, यों तो करें     जुगाड़।

भौं - भौं  की  कर  बूम, करता रोटी  - आस।।


कर्मों  का  परिणाम, भोग  रहे सब     जीव।

गिरती  योनि  धड़ाम, जीवन मात्र   प्रवास।।


'शुभम्' मनुज की देह,सहज नहीं उपलब्ध।

अस्थि  माँस  का गेह,करना पड़े    प्रयास।।


●शुभमस्तु !


10.09.2023◆11.45 प०मा०

माँ वीणावादिनि - स्तवन ● [ दोहा ]

 397/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्

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वीणावादिनि   शारदे,  करूँ नमन  सौ बार।

दोहा की नव दीप्ति में,भर दे माँ निज प्यार।।


भव   चेतन   में  गूँजती,माँ की वीणा   नित्य।

'शुभम् ' काव्य में दीप्त है,वाणी का आदित्य।।


प्रथम  तोतले बोल दे, देतीं अक्षर बोध।

शनैः-शनैः माँ की कृपा,करती है नव शोध।।


कभी उऋण होना नहीं,माँ करतीं उपकार।

जीवन में बनता वही, भगवत को उपहार।।


मति  की  जड़ता को हरे,वरद कृपा का हस्त।

अंतर के तम को मिटा,करती माँ अघ ध्वस्त।।


जन्म - जन्म  में भारती, माँ देना   वरदान।

शब्द -शब्द में माँ भरें,दस रस का शुचि मान।।


मन वाणी या कर्म से,अहित न हो हे मात।

किसी मनुज या जीव का,चमके ज्ञान प्रभात।।


अहंकार  आए नहीं, यद्यपि हो बहु मान।

बुद्धि शुद्धि सबकी रहे,ऊँचा रहे   वितान।।


सितवसनी कमलासने,चरणों में  अनुरक्त।

सदा रमे भगवत 'शुभम्',माँ वीणा का भक्त।।


हंसवाहिनी   मातु का,अनुपम ये   वरदान।

रक्षा तन -मन की करे,मिले दिव्य तव ज्ञान।।


कृति में  दोहा-सोरठा,जो हैं मात्र निमित्त।

माँ लिखती गह लेखनी,कवि का हर्षित चित्त।।


●शुभनस्तु !


07.09.2023◆11.15प.मा.

कृष्ण नहीं जन्मे कभी ● [ दोहा ]

 396/2023


[कृष्ण,राधिका,घनश्याम, कान्हा,माखनचोर ]

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     ●  सब में एक ●

कृष्ण नहीं जन्मे कभी,ले ब्रज में अवतार।

धन्य  हुई  ब्रजभूमि ये, बंद न कारागार।।

श्री हरि ने नर रूप में,लिया कृष्ण अवतार।

धन्य  देवकी   मातु हैं,  पहुँचे यशुदा - द्वार।।


आदि शक्ति श्री राधिका,पा कान्हा का नेह।

तन -मन में नित ही रमें,एक प्राण  दो   देह।।

कृष्ण - राधिका प्रेम की,चर्चा ब्रज के गाँव।

बरसाने में    हो   रही, नंद-यशोदा     ठाँव।।


जो देखे घनश्याम का,मोहन सहज स्वरूप।

संमोहित  होकर   रहे,कुब्जा हो   या   भूप।।

राधा  गोरी    साँवरे , हैं  प्यारे  घनश्याम।

दीवानी   ब्रज-गोपियाँ,ढूँढ़ रहीं  ब्रज -  ठाम।।


माखनचोरी के लिए,  कान्हा  हैं    बदनाम।

सुन-सुन कर हैरान  हैं,मातु यशोदा -  धाम।।

कान्हा की  वंशी सुनी, गोपी  हुई    अधीर।

पनघट पर घट छोड़कर,दौड़ चली ज्यों तीर।।


मैया   तेरा  लाल  ये, औघड़ माखनचोर।

मटकी फोड़े राह में,ले सँग ग्वाल  किशोर।।

छींके पर  छोड़े  नहीं, टाँगा जो     नवनीत।

तेरे  माखनचोर  ने,खाया बना    अभीत।।

     ● एक में सब ●

कान्हा   माखनचोर ही,

                   कृष्ण  विष्णु घनश्याम।

आदि शक्ति श्री राधिका,

                          बसता  है ब्रजधाम।।


●शुभमस्तु !

06.09.2023◆5.30 आ०मा०

सोमवार, 4 सितंबर 2023

ईश -वास सचराचर कण में● [ गीतिका ]

 395/2023

 


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● © शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ईश -वास  सचराचर  कण में।

गिरि,सागर, धरती के तृण में।।


मनुज निहारे  केवल  मुखड़ा,

देखे  नहीं    कर्म -  दर्पण   में।।


प्रभु की भक्ति    नहीं  पाने में,

भक्ति -वास  देने  के प्रण  में।।


शब्दों का है  जाल न कविता,

कविता होती रस-प्रसवण में।।


सदियों   सोता   रहा  आदमी,

प्रकृति करती लघुतम क्षण में।।


स्वेद-सिक्त  परिणाम न खोना,

लगा स्वयं  को नश्वर पण में।।


'शुभम्'  सहज  गिर जाना नीचे,

कठिन उठाना ध्वज को रण में।।


●शुभमस्तु !


04.09.2023◆6.15आ०मा०

सदियों सोता रहा आदमी● [ सजल ]

 394/2023


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●समांत  : अण।

● पदांत : में।

●मात्राभार :16.

●मात्र पतन :शून्य।

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● © शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ईश -वास  सचराचर  कण में।

गिरि,सागर, धरती के तृण में।।


मनुज निहारे  केवल  मुखड़ा।

देखे  नहीं    कर्म -  दर्पण   में।।


प्रभु की भक्ति    नहीं  पाने में।

भक्ति -वास  देने  के प्रण  में।।


शब्दों का है  जाल न कविता।

कविता होती रस-प्रसवण में।।


सदियों   सोता   रहा  आदमी।

प्रकृति करती लघुतम क्षण में।।


स्वेद-सिक्त  परिणाम न खोना।

लगा स्वयं  को नश्वर पण में।।


'शुभम्'  सहज  गिर जाना नीचे।

कठिन उठाना ध्वज को रण में।।


●शुभमस्तु !


04.09.2023◆6.15आ०मा०

अंक मात्र अब आदमी ● [ दोहा गीतिका ]

 393/2023

 

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अंक मात्र अब आदमी,शेष नहीं है नाम।

पहचानें  बस  अंक से, संज्ञा हुई   तमाम।।


अंकों  के निज  अंक में,आँख लगाए  लोग,

अंकों से  दिन-रात अब,पड़ता सबको काम।


नौ तक  अरबों  अंक हैं,लेकर प्यारा   शून्य,

मोबाइल , सेवा  सभी, या हो कोई    धाम।


नाप ,तौल,दूरी  सभी,  पृथक इकाई -  बंध,

अंकों  से  सरकार  भी, पाती उच्च  मुकाम।


कैदी   कारागार   में,    रोगी  का   उपचार,

शव  पर भी है  अंक ही,गया पास  जो राम।


नौ ग्रह,षटरस,सप्त ऋषि,गुण  हैं केवल तीन,

चंदा -  सूरज   नेत्र   दो,  ईश्वर एक    प्रनाम।


'शुभम्' अंक में जग बँधा, अंकों  का विज्ञान,

याद किया जो अंक को,याद न  आए   चाम।


● शुभमस्तु !


02.09.2023◆9.45 आ०मा०

धीरे -धीरे चाँद पर● [ दोहा गीतिका ]

 392/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धीरे - धीरे   चाँद   पर,  टहल रहा   प्रज्ञान।

शोध निरंतर कर रहा,जिनसे जग अनजान।।


रहने  को   छोटी   पड़ी,धरती अपनी    आज,

नीयत में कुछ   खोट है,गया हुआ  कुछ  ठान।


अंधकार   में   दूर  की, कौड़ी करे    तलाश,

ऑक्सीजन , पानी  मिले, तभी  बचेंगे   प्रान।


दक्षिण  ध्रुव   की  शांति में, फेंके  पत्थर नित्य,

शांति नहीं अब भी मिली,चित्र  खींच अनुमान।


गया पलायन   वेग   से, विक्रम  ले   प्रज्ञान,

चन्द्रयान-त्रय को मिला,महत श्रेय अभियान।


कंप्यूटर  से भी   बड़ी,  बुद्धि  मनुज की मीत,

धाए   इतनी   तीव्र  धी,मन से अग्र    महान।


'शुभम्' न रुकना जानता, मानव   पा  गंतव्य,

शुक्र  भौम  पर खोजने,चलने को   है   यान।


●शुभमस्तु !


02.09.2023◆6.15आ०मा०

शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

हालात ● [ कुंडलिया ]

 391/2023

        

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

राजा   है   हालात ही, मानव तो   बस   दास।

वही बदलता भाल-लिपि,तम या भरे उजास।।

तम या   भरे  उजास,भरे वह रिक्त  तिजोरी।

होता जग -  उपहास,स्लेट कोरी  की  कोरी।।

'शुभम्'कर्म कर मीत,मिले फल ताजा-ताजा।

सत का शुचि परिणाम,बनाता नर को राजा।।


                        -2-

अपना रखें खयाल तुम,रह निज में तल्लीन।

कैसे   भी  हालात हों,समय बहुत   संगीन।।

समय   बहुत  संगीन,व्यसन सद  ऐसे पालें।

अधरों पर मुस्कान,सदा सुमनों -  सी डालें।।

'शुभम्' हृदय में एक, सबलतम देखें  सपना।

 बीड़ा कर में थाम,लक्ष्य दृढ़ रखना अपना।।


                         -3-

पानी हो ज्यों झील का,ठहरा रह   मत मीत।

सरिता बन  बहता  रहे,सुने सिंधु -  संगीत।।

सुने सिंधु - संगीत,लक्ष्य अपना   पा   जाए।

बदले निज हालात,सिंधु से सरि मिल  पाए।।

'शुभम्'न चलता चाल,चले बिन दही मथानी।

मिलता क्यों नवनीत,रुका सड़ता है  पानी।।


                        -4-

बेटा क्या  समझे  कभी,  बापू के   हालात।

कैसे   श्रम  करना  पड़े,  तब बनती है बात।।

तब बनती  है  बात,आप जब बाप   बनेगा।

स्वेदज  होता   अर्थ,नहीं अब और   तनेगा।।

'शुभम्' मौज में मस्त,लगाता नित्य  लपेटा।

ला-ला   ला-ला   राग, नहीं गाएगा    बेटा।।


                        -5-

अपने  निज हालात का,  परिवर्तन आसान।

होता  है    सबको  नहीं, होते धीर   महान।।

होते धीर  महान,  बदलते सरि  की   धारा।

कर अनुकूल प्रवाह,फिरे क्यों मारा - मारा।।

'शुभम्'न चलता काम,देखने भर से सपने।

रखे हाथ पर हाथ,बैठ मत दृढ़ कर अपने।।


●शुभमस्तु !


01.09.2023◆1.30प०मा०


गुरुवार, 31 अगस्त 2023

कौवे के पंख ● [ अतुकान्तिका ]

 390/2023

      

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कौवे के पंख

काले हों,

यह ठीक है,

उजला हो मन 

यह भी नीक है,

वह आदमी ही क्या

जो बाहर से बगुला हो,

भीतर से कीच है।


कब तक छिपायेगा

ऐ इंसान !

अपने यथार्थ को,

रँगे हुए चीवर तले

झूठे सिद्धार्थ को,

अपने को ठगता तू

क्या मृग मारीच है?


खुल गई है

कलई तेरी

दुनिया के सामने,

लगा है क्यों

अब तू

थर -थर हो काँपने!

आई है समीप 

देख तेरी अब मीच है।


चिलमन को 

उठा -उठा

झाँक रहीं खामियाँ,

बना रखीं

उर में बहु

साँपों ने बांबियाँ,

तरणी तव कर्मों की

भँवर के बीच है।


गरेबाँ झाँक 'शुभम्'

निगाहें झुकाए,

अपने को पहचान अरे

क्यों गज़ब ढाए ?

मानवता के नाम बना

 दानव के नगीच है।


●शुभमस्तु !


31.08.2023◆7.45प०मा०

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हिंदी ,शिक्षक के दिन आए● [ बाल कविता]

 389/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हिंदी , शिक्षक  के दिन आए।

दोनों  बहुत - बहुत सहमाए।।


हिंदी  को अति प्यारी  बिंदी।

शिक्षक ढूँढ़ रहे    हैं    चिंदी।।


शिक्षक दिवस पाँच को होता।

शिक्षक स्वयं   लगाए  गोता।।


चौदह की तिथि मास सितंबर।

नौ दिन  का  दोनों   में अंतर।।


कहें  मास्टर  हर   घर   वाले।

पैसे   दे   ट्यूशन   के  पाले।।


मान न   कोई    पीछे    देता।

मिलने  पर पदरज ले लेता।।


अंग्रेजी   को    मानें    अम्मा।

कहते  हिंदी  पढ़े   निकम्मा।।


हिंदी   में    ही   रोते  -  गाते।

सोचें  मन    में    ठंडे - ताते।।


आजीवन  हिंदी   कब  आए?

अंग्रेज़ी  से    लाड़    लड़ाए।।


हिंदी,  शिक्षक    के  ये दुर्दिन।

काट रहे वे दिन भी गिन-गिन।।


जिसने  शिक्षक को ठुकराया।

हिंदी माँ को   रुदन  कराया।।


'शुभम्'  उसे भी पड़ता रोना।

आँसू भर- भर मुख को धोना।।


●शुभमस्तु !


31.08.2023◆4.15 प०मा०

हिंदी का नव मास सितंबर ● [ गीत ]

 388/2023

  

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ की भाषा

मेरी प्यारी

हिंदी का नव मास सितम्बर।


बोल तोतले

बोले रसना 

कानों में रस घोल रही तब।

अम्मा को माँ

पू -पू पय को

समझ रही थी मेरी माँ सब।।


झिंगुला कभी

देह पर होता

कभी धूप में पड़ा दिगंबर।


माँ के जैसी

बोली उसकी 

मीठी और सुहानी मोहक।

ब्रज माधुरी

सहज शब्दों से

सजी -धजी बजती-सी ढोलक।।


कटुता शून्य 

कर्ण रस घोले

 नहीं खड़ी-सी करती खर-खर।


जसुदा मैया

लाड़ लड़ाती

आ जा री निंदिया तू प्यारी।

लाला मेरा

सो जा  सो जा

दूँगी वरना  मीठी     गारी।।


लोरी मीठी

मातु सुनाए 

बिजना झुला-झुला अपने कर।


चौदह की वह

तिथि आए जब

गिटपिट आंगल गपियाते हैं।

हिंदी के वे

बड़े भक्त बन

अख़बारों  में  छप  जाते हैं।।


नेताओं की

तो कहना क्या 

हिंदी -मंत्र जपेंगे हर -हर।


बाबू बैंकर

हिंदीदाँ बन

दीवालों पर सजा पट्टिका।

चैक माँगते 

अंग्रेज़ी में

कंप्यूटर की कार्य तूलिका।।


'शुभम्' डरे अब

हिंदी लिखते

नकली हिंदी प्रेमी घर - घर।


● शुभमस्तु !


31.08.2023◆11.45आ०मा०

राखी का नेहिल शुचि बंधन● [ गीत ]

 387/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दो ही धागे 

कच्चे यद्यपि

राखी का नेहिल शुचि बंधन।


साध साल से

उर में बाँधी

रक्षाबंधन कब आएगा।

 भाई मेरा 

हाथों मेरे

राखी कर में बँधवाएगा।।


दहलीज उसी

पर जाकर मैं 

कर पाऊँ भ्राता- अभिनंदन।


हम एक उदर 

से जाए हैं

जननी वह पिता एक अपने।

सँग -सँग खेले

हैं पले -बढ़े

देखे हैं हमने शुभ सपने।।


मेरा छोटा 

वह भाई है

है घर उससे माँ का पावन।


दूँगी उसको 

आशीष शुभद

मिष्ठान्न खिलाकर हरषाऊँ।

परसेगा मम

वह चरण युगल

भाई पर सौ-सौ बलि जाऊँ।।


कानों में मैं

भुजरिया लगा

कर दूँगी हरा-भरा तन-मन।


मेरे मन में 

कामना यही

प्रभु उसकी लंबी आयु रखे।

वह रहे स्वस्थ

समृद्ध सदा 

हर्षित अंतर से सदा दिखे।।


कर्तव्य 'शुभम्'

वह करे पूर्ण 

खिल उठे धरा का हर कन- कन।


भारत माता

गौरवशाली

उत्सव प्रिय मेरा देश सदा।

चेतना नई 

ऊर्जस्वित हो

फल फूल अन्न धन धान्य  मृदा।।


दीवाली शुभ

होली रंगीं

विजयादशमी हैं पर्व प्रमन।


● शुभमस्तु !


30.08.2023◆ 8.15प०मा०

बुधवार, 30 अगस्त 2023

आज श्रावणी पूर्णिमा ● [ दोहा ]

 386/2023

 

[कलाई,भाई,रक्षाबंधन,पूर्णिमा,राखी]

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ●  सब में एक  ●

कलित कलाई कर्म से,करती मनुज महान।

किए बिना  सत्कर्म के,बने नहीं  पहचान।।

सजा  कलावा हाथ में,बनते पंडित    लोग।

करते   हैं   दुष्कर्म  वे,  बँधा कलाई रोग।।


भाई हो तो राम - सा,भरत लखन-सा मीत।

संपति - भागीदार  में,होती हृदय   न  प्रीत।।

भुजा -  सदृश होता नहीं,सोदर यद्यपि   एक।

भाई वह   होता नहीं,जिसमें   नहीं  विवेक।।


रक्षाबंधन   पर्व को,रूढ़ि न  जानें   भ्रात।

रक्षा का दायित्व है,निभा सके जो    तात।।

गुरु, माँ ,पितु रक्षक सभी,पंच तत्त्व,तरु ,बेल।

रक्षाबंधन कीजिए , कर भाई    से   मेल।।


वही पूर्णिमा  चाँद ये,गिरि गर्तों की  भीड़।

तम-आच्छादित  है कहीं,कौन बनाए   नीड़।।

'विक्रम' सह  'प्रज्ञान'  के,करता है  नित शोध।

आज पूर्णिमा श्रावणी,करे नित्य नव बोध।।


राखी की  लज्जा रखें,जानें  मत   ये    सूत।

प्यार भरा है भगिनि का,दुर्लभ मीत अकूत।।

राखी -  पर्व महान है,जहाँ नेह   की   वृष्टि।

होती भगिनी की महा,उर से उर    में   सृष्टि।।


     ●  एक में सब ●

आज श्रावणी पूर्णिमा,

                             रक्षाबंधन- पर्व।

राखी भाई के बँधे,

                       सु- कलाई सह गर्व।।


●शुभमस्तु !


30.08.2023◆7.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

कठिन परीक्षा की घड़ी ● [ दोहा ]

 385/2023


[समय,पल,क्षण,काल,युग]

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ● सब में एक ●

समय-समय की बात है,समय-समय का फेर।

शुभद समय आता कभी,बनते  लगे  न देर।।

समय देख मुख मूँदिए,समय देख मुख खोल।

अक्षर -  अक्षर    बोलिए,हिए तराजू    तोल।।


कठिन परीक्षा की घड़ी,पल-पल का है मोल।

जागरूक  रहना सदा,किंचित रहे  न  झोल।।

पलक झपकते पल बना,आँखों का आचार।

प्रलय पलों का खेल है,रहें धर्म  - अनुसार।।


क्षणदा छाई छाँव -सी,भानु हुए जब   अस्त।

क्षण-क्षण बढ़ती कालिमा,नभ में तारे व्यस्त।

क्षणिक नहीं क्षण क्षरित हो,करले जीव विचार

क्षण न क्षमा करता कभी,श्रम देता उपहार।।


काल सत्य है  नित्य  है,वही  ईश   का रूप।

कवलित करता काल ही,रंक या कि हो भूप।।

पहचाने  जो काल को,चले काल  अनुरूप।

करता उल्लंघन कभी,गिरता है   भव  कूप।।


युग- युग से सब जानते,क्षमा न करता कर्म।

जैसा  जिसका कर्म हो, वैसा उसका   चर्म।।

युग-प्रभाव जाता नहीं,कलयुग का आचार।

दूषित तन ,मन,भावना,जन गण का आधार।।

        ● एक में सब ●

समय,काल,पल -मोल को,

                        भूल रहे  जन आज।

क्षण क्षणदावत  क्षय करे, 

                 कल युग मनुज - समाज।।


● शुभमस्तु !


29.08.2023◆11.00प०मा०


आज कहाँ है मेरी मामी! ● [ बालगीत]

 384/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज  कहाँ   हैं  मेरी  मामी।

छिपी कहाँ शरमाकर मामी।।


द्वार   भानजे   दो - दो आए।

चन्द्रयान पर   चढ़कर  धाए।।

गति की मानो चला  सुनामी।

आज कहाँ   हैं  मेरी  मामी ।।


'विक्रम' सँग   'प्रज्ञान'  पधारे।

हाथ   तिरंगा   लेकर   प्यारे।।

भारतमाता   के    अनुगामी।

आज कहाँ हैं   मेरी    मामी।।


दोनों   दो    सप्ताह    रुकेंगे।

बढ़ते -चलते   नहीं    थकेंगे।।

बतला  दो हे   चंदा   स्वामी।

आज  कहाँ  हैं  मेरी   मामी।।


दक्षिण ध्रुव पर देख   अँधेरा।

कौन    करेगा   यहाँ    बसेरा!

क्यों चिराग-तल में तम बामी।

आज कहाँ  हैं   मेरी   मामी।।


ननदी  के घर   प्रायः   आतीं।

सदा अमावस्या को गुम जातीं

जोड़ी  मामा -  मामी  नामी।

आज कहाँ   हैं  मेरी   मामी।।


ऊपर गरम बहुत  फिर ठंडा।

चंदा   मामा    है    बरबंडा।।

भरे  नहीं मामी   की   हामी।

आज कहाँ हैं    मेरी  मामी।।


'शुभम्' हमें मामी दिखलाएँ।

उनसे मिल बोलें कुछ खाएँ।।

मिलीं न तो होगी   बदनामी।

आज कहाँ   हैं   मेरी  मामी।।


● शुभमस्तु !


29.08.2023◆1.45प०मा०

पढ़ने जाते छात्र ● [ गीत ]

 383/2023

 

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खेल रहे जो

नित खतरों से

पढ़ने जाते छात्र।


बहे सड़क पर

गदला पानी

फिर भी जाते पढ़ने।

ऊँचा कर वे

वेश देह के

लिपि ललाट की गढ़ने।।


बनने को सब

मातृभूमि के 

योग्य मनीषी पात्र।


आँधी वर्षा 

बाढ़ प्रभंजन

कभी न रुकती राहें।

लौट साँझ को

जब घर आते

भरती माँ निज बाँहें।।


देखा भीगा

बस्ता कपड़े

तर पानी से गात्र।


किसको दें हम

दोष व्यवस्था 

ऐसी बुरी हमारी।

चलने को भी

सड़क नहीं है

कुदशा ये सरकारी।।


दोषारोपण 

करें परस्पर 

खुद बचने को मात्र।


नौनिहाल ये 

अपने सारे

रहें खोद क्या माँद?

कहते हो  तुम

पीठ ठोंक निज

पहुँचे हैं हम चाँद।।


चाँद नहीं जब

अपनी बचती

शुभ कैसे नवरात्र?


● शुभमस्तु !


29.08.2023●10.30आ०मा०

सोमवार, 28 अगस्त 2023

स्वयंभू 'प्रतिभाएँ' !! ● [ व्यंग्य ]

 382/2023 

 

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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कहा जाता है कि मानव - शरीर मिट्टी से निर्मित है और मिट्टी में ही मिल जाने वाला है।इसका एक अर्थ यह भी तो हुआ कि यह शरीर किसी सोना-चाँदी,हीरे-जवाहरात से पैदा नहीं हुआ। यह भी मिट्टी से ही पैदा हुआ होगा।उद्भव ,अस्तित्व और समापन:सब कुछ मिट्टी ही मिट्टी।'मिट्टी' : अर्थात : जो पहले से ही मिटा हुआ हो ;वही तो मिट्टी है।'उसी तथाकथित मिट्टी से उत्पन्न,जीवन और विनाश सब कुछ मिटा हुआ। 

  इसी 'मिट्टी' रूपी देह से निकली हुई देह एक 'आत्मा' 'दस प्राण' और 'दस उपप्राण' से जीवंत होकर जब उछलने -कूदने ,चलने-फिरने, इतराने- सतराने ,फिसलने -घिसटने, मचलने- खिलने लगती है;तब तो चमत्कार ही हो जाता है।चमत्कार इस बात का ;कि इन्हीं मृदा(मिट्टी) -मूर्तियों में से कुछ प्रतिभाएँ ऐसी भी उग आती हैं ;जैसे जंगल में घास के बीच में बड़े -बड़े खजूर के दरख़्त, एक से एक सख्त, सशक्त, अलमस्त, स्वयं में व्यस्त।ऐसी स्वयंभू विटपों को साहित्यिक भाषा में 'प्रतिभा' कहा जाता है।ये प्रतिभाएँ कोई जानबूझकर पैदा नहीं करता।खुद -ब -खुद पैदा होती हैं। जिस प्रकृति ने जिन्हें उगाया है , उनका श्रेय भी वे बड़ी होकर प्रायः भूल जाती हैं। 

  प्रत्येक उत्पत्ति का कोई न कोई उद्देश्य होता है।इन 'प्रतिभाओं 'का भी होता होगा। एक जमाना था जब आजकल जैसी 'प्रतिभाएँ' अवतरित नहीं होती थीं। यहाँ तक कि नौटंकी में राजा - रानी, दास-दासी,संतरी - मंत्री ,सब अलग -अलग ही हुआ करते थे और हँसाने भर के लिए एक विदूषक या जोकर या हास्य कर्म पारंगत पात्र अलग ही अपना कर्तव्य निर्वाह करता था ।इसके विपरीत आज की कुदरत कितनी कृपण या बहु उद्देशीय या निपुण होती जा रही है कि सारे गुण तत्त्व एक में ही भर दिये जा रहे हैं। वही नेता है तो विदूषक भी है।नेता और विद्वत्ता परस्पर विरोधी गुण -धर्म हैं।उसी एक ही में नेतृत्वमति, उपदेशक, अर्थशास्त्री, चाणक्यता,राजनीति, धर्मनीति ,धूर्तवृत्ति,गीधवृत्ति,काकदृष्टि,बकध्यानवृत्ति, हिंस्रनीति आदि सब गुण - धर्म एक ही कपाल में कुंडली लगाए बैठे हैं।कहीं - कहीं ढोर वृत्ति और कच्छप प्रकृति का एक साथ दोधारा संगम है।कुछ ' स्वयंभू प्रतिभाएँ' अपने 'गर्दभत्व' में तो कोई अपने 'शूकरत्व',कोई स्व- प्रिय ' चमगादड़त्त्व' में तल्लीन हैं।

 बरसात में घूर पर,छान-छप्पर पर,छतों - दीवाल पर,खुद -ब-खुद उगे हुए कुकुरमुत्ते भी किसी 'प्रतिभा' से कम नहीं हैं।अपने जन्म के लिए वे किसी माँ-बाप को स्वजन्म का श्रेय नहीं देते।इसी प्रकार देश के प्रायः नेता गण स्वयंभू जन्मजात प्रतिभाओं की श्रेणी में गिने जाते हैं।उन्हें कोई बाजरे की फसल का कंडुआ न कहे।वे तो ऐसे बड़े और असामान्य 'दाने' (दानव न कहें) हैं, जो अपने आकार गुणवत्ता और बड़प्पन के सामने किसी 'सेव' 'संतरे' को भी महत्त्व नहीं देते।इन प्रतिभाओं के विशेष 'कार्य' और 'कारनामों' का अतीत उनका इतिहास निर्माण करता है।जिसे आगामी पीढियां रस ले - लेकर अपने अतीत का सिंहावलोकन करती हैं। 

 हर स्वयंभू प्रतिभा में कुछ सर्वनिष्ठ गुण ऐसे भी होते हैं ,जो आम आदमी में होना दुर्लभ है।जैसे मरखोर बैल सब जगह अपने सींग - प्रहार करना अपना कर्तव्य समझता है ,वैसे ही ये भी 'सर्व जन हिताय ?' ,'सर्व जन सुखाय ?' ,'सर्व जन चेतनाय!', 'सर्वजन प्रचाराय!', और 'सर्व जन शोषणाय' अहर्निश कुर्ता धोती डाँटे तैनात रहता है। अपने बाप को भी बाप मानना जो अपनी तौहीन समझता हो, वह कब कितने बाप बना लेगा !,कितने बाप बदल लेगा! कोई नहीं जानता। पूरब को जाए और पश्चिम को बताए, ऐसी विचित्र 'प्रतिभाएँ' भला और कहाँ सुलभ हो सकती हैं? आप सब बहुत समझदार हैं,ये भी क्या बताना आवश्यक है ? स्वतः समझ ही गए होंगे। हमारे शौचालय के बाहर उगा हुआ एक पेड़ भी यही कहता है कि वह भी स्वयंभू है।आप और हम समझें तो समझते रहें कि वह किसी कौवे की अनिवारणीय इच्छा की 'महान उत्पति' है,परंतु वह तो लहरा- लहरा कर अपने 'स्वयंभुत्व' का गीत अलाप रहा है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 28.08.2023◆8.00पतन्म मार्तण्डस्य।

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...