रविवार, 31 दिसंबर 2023

आओ चलो रेवड़ी बाँटें ● [ व्यंग्य ]

 603/2023


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●© व्यंग्यकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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          मेरे आदर्श प्रिय देश में आदर्श बहुत अधिक पसंद किए जाते हैं। इसी अदर्शप्रियता के कारण यहाँ रेवड़ियाँ बहुत ज्यादा बाँटी जाती हैं।विशेष महत्वपूर्ण बात ये है कि इन रेवड़ियों को बाँटने का पवित्र कार्य अंधों को सौंपा जाता है।इसका भी कोई न कोई कारण तो होता ही होगा। वह यह है कि रेवड़ी बाँटने में अंधे लोग कुछ ज्यादा ही कुशल होते हैं। अंधों की आवंटन - निपुणता सराहनीय मानी गई है। ऐसा क्या विशेष कारण है दो आँख वाले से बिना आँख वाले बाजी मार ले जाते हैं। 

            आप सभी जानते होंगे कि रेवड़ी एक प्रकार का प्रसाद है।जिसमें बाँटने वाले और पाने वाले का हर्र लगे न फिटकरी फिर भी रँग चोखा ही आता है।बाँटने वाले की विशेष योग्यता की चर्चा के अंतर्गत यह बतलाना नहीं भूलूँगा कि उसे अंधे होने के बावजूद उसकी निजत्व अभिज्ञान संवेदन शीलता उसी प्रकार उच्च कोटि की होती है ,जैसे किसी टोही कुत्ते की घ्राण शक्ति चमत्कार पूर्ण होती है।

             जब किसी अंधे को रेवड़ियों का टोकरा थमाया जाएगा और ये कहा जायेगा कि ले भाई इन रेवड़ियों को बाँट दे तो वह बड़ा प्रसन्न हो जाएगा। क्योंकि उसे रेवड़ी बाँटने का ईमानदार सुपात्र समझा गया है। इससे उसे अपने लोगों को खुश करने का मुफ्त मौका भी मिल गया। उसका क्या लगा ?कुछ भी तो नहीं। अब जब रेवड़ियों का टोकरा उसे मिल गया तो वह केवल अपने लोगों अर्थात घर वालों , इष्ट मित्रों, रिश्तेदारों तथा उन लोगों जिनको कृतज्ञ कर सकता है ;की लिस्ट तैयार करता है। सब कुछ उसके दिमाग के आगणक में तैयार कर लिया जाता है। बस फिर क्या ? अब रेवड़ी बाँटने का पवित्र कार्य प्रारंभ कर देता है।

             देखें,अब एक अंधा रेवड़ी बाँट रहा है।मजाल है कि कोई एक भी उसके घर परिवार ,जाति-बिरादरी ,धर्म -मज़हब,गोत्र -फ़िरक़ा का एक बच्चा भी छूट जाए और अन्य घर-परिवार से इतर,जाति,गोत्र, धर्म,मज़हब का ले तो जाए?ऐसा कदापि नहीं हो सकता। वह अंधा घूम फिर कर उन्हीं को रेवड़ियाँ बाँटेगा, जिन्हें वह अपना मानता है। देखने वाले यही तो कहेंगे कि बेचारा अंधा है ,बाँटने में न्याय ही तो करेगा। किन्तु वह कितना न्याय करता है ,यह वही जानता है अथवा पाने वाले।उसकी अदृश्य दूरदृष्टि की दाद देनी पड़ेगी कि बिना देखे हुए उसका लेखा कितना पक्का है !उससे भी अधिक वह बाँटने में पक्का है। तभी तो यह कहावत प्रसिद्ध हो गई कि 'अंधा बाँटे रेबड़ी फिरि -फिरि घरकेंन दे'। 

                   आज के समय में रेवड़ी वितरण में भी राजनीति का विशिष्ट प्रभाव है। यह प्रभाव इस कदर है कि वितरण में आकंठ निमग्न रहते हुए भी राजनीति की महक नहीं आने पाए। वैसे सामान्य रूप से वितरण पूर्णरूपेण अराजनैतिक ही कहलाए,कोशिश यही की जाती है। किन्तु खुशबू और बदबू दोनों में एक विशेषता समान है कि इनको रोकने की ताकत किसी में नहीं है। राजनीतिक बदबू रेवड़ियों में गंध दे ही जाती है।और तब अच्छे -अच्छे अंधों की पोल पट्टी खुल ही जाती है।आज क्या समाज, क्या धर्म,क्या राजनीति, क्या सत्ता सबमें रेवड़ियाँ बाँटी जा रही हैं और खुल्लम खुल्ला बाँटी जा रही हैं ,क्योंकि देश को विकास के शिखर पर नहीं, विनाश के गड्ढे में ले जाने के लिए इन रंगीन विविध रूपिणी रेवड़ियों की विशेष जरूरत है। देश को जितना निकम्मा और काम चोर जब तक नहीं बनाया जाएगा ,तब तक ये देश पुनः गुलाम नहीं होगा। और गुलामीयत यहाँ के डी० एन० ए० में है। यह मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँट- बाँटकर बड़ी आसानी से किया जा सकता है और किया भी जा रहा है।बाँटने वाले भी अंधे और पाने वाले उनसे भी महा- अंधे।

 ●शुभमस्तु !

 31.12.2023● 4.30 पतनम मार्तण्डस्य। 

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मोबाइल का अफ़साना ● [ बाल कविता ]

 602/2023

  

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दरवाजे     पर     कोई  आया।

खट-खट कर कुंडा खटकाया।।


खट-खट सुन सुत बाहर झाँका।

पूछा  किसको  ताको   काका।।


अभ्यागत  कुछ  यों तब बोला।

कुछ कहने को  मुखड़ा खोला।।


'बेटा  हैं    क्या   पापा   अंदर?

बुलवाओ तो  उनको   बाहर।।'


' बिजी   खेल   में  हैं   पापाजी।

लिए  खिलौना  कर   में  ताजी।।'


' लिया  खिलौना है    मोबाइल।

करते रहते क्या-क्या इल बिल।।'


'उसी खेल      में   मेरी    मम्मी।

शायद  खेल     रही  हैं    रम्मी।।


'काका  'शुभम्'   बाद  में आना।

मोबाइल  का  यह   अफ़साना।।'


●शुभमस्तु!


31.12.2023●11.00आ०मा०

मैं और मेरी राम में रम्यता ● [ आत्म-स्मरण ]

 601/2023

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 ● ©लेखक 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम् 

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               आज 31 दिसंबर है, ईसवी वर्ष 2023 का अंतिम दिन।देखा जाए तो जीवन का प्रत्येक दिन महत्त्व पूर्ण होता है।किंतु जीवन की आपाधापी और दौड़भाग में भला किसे इतना समय है कि अपने जीवन के सिंहावलोकन के लिए समय निकाल पाए !मैं भी कुछ वैसा ही कर रहा हूँ। 

            कण - कण कर जल पूर्ण घड़ा और क्षण -क्षण कर जीवन रिक्त हो जाता है।शेष क्या रहता है ?मात्र एक शून्य। समय के शून्य की खोज ही है यह सिंहावलोकन। यों तो अब जीवन ही लेखन और लेखनी मय हो गया है।इस दक्षिण तर्जनी की सक्रियता भी दर्शनीय है,विचारणीय है। 

          वर्ष 2023 में इस तर्जनी से लिखित 08 पुस्तकें प्रकाशित हुईं।और संयोग भी यह रहा कि सभी आठों कृतियाँ छत्तीसगढ़ से मेरे प्रिय शिष्य श्री कौशल महंत जी के कुशल नेतृत्व में शुभदा प्रकाशन मौहाडीह,जांजगीर -चाँपा से ही। यह मेरे लिए गर्व और गौरव की बात है। इस प्रकाशन के बीच सबसे महत्त्वपूर्ण और विशेष बात यह है कि वर्ष के अंत में आकर मैं राम मय हो गया । मेरा कृत्तित्व राम रंग में राम रस से आप्लावित हो गया। 

               हुआ यों कि 22 दिसम्बर से कुछ दिन पूर्व श्री कौशल जी ने कहा कि मेरे पास छपने के लिए दो साझा संकलन आए हैं,जिनमें प्रकाशन हेतु राम विषयक चार -चार रचनाएँ ली जा रही हैं। यद्यपि आप साझा संग्रहों में अब रचनाएँ नहीं छपवाते ,फिर भी यदि दे सकें तो ठीक रहेगा।क्योंकि यह अवसर भी अच्छा है कि 22 जनवरी 2024 को अयोध्या पुरी में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है ,जिसमें किसी न किसी रूप में हर सनातनी हिन्दू की भागीदारी सैभाग्य की बात होगी। 

             मैंने स्वीकृति भी दे दी और 22 दिसम्बर को राम विषयक 06 गीत भी सीधे मोबाइल पर ही लिख दिए। किन्तु एक दिन के बाद ही मेरी मानसिकता में भगवान राम इस प्रकार विराजमान हुए कि सब कुछ छोड़कर राम जी की रचनाएँ लिखने लगा तो देखा कि मात्र पाँच दिन :22 ,24 ,25,26 और 27 दिसम्बर में ही 45 गीत रचनाएँ पूर्ण हो गईं और जैसा कि मैंने अब साझा संग्रहों में लिखना छोड़ दिया है, यह बात भी सत्य प्रमाणित भी हो गई।मैंने श्री कौशल जी को बताया कि 45 रचनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं ,अब आप एकल संग्रह ही प्रकाशित कर दें,तो बेहतर रहेगा। इधर उनकी स्वीकृति मिली, उधर मैंने अपने बेटे भारत से फोन किया कि भगवान राम और राम मंदिर को आधार बनाकर एक सुंदर - सा मुखावरण तैयार कर उसका डिजाइन मुझे भेज दे और बातों ही बातों में राम जी कृपा से यह काम भी पूरा हो गया और मुझे विश्वास है कि यह नव कृति 'शुभम् राम ही साँचा आज 31 दिसम्बर को छप भी जाएगी।और एक दो सप्ताह में वह मेरे पास सुलभ होगी। इस कृति में पैंतालीस गीत रचनाओं तथा इनर,समर्पण ,पूर्वालोक, अनुक्रमणिका आदि सहित 111 पृष्ठों में यह कृति पूर्ण होगी।एतदर्थ मैं सदैव श्री कौशल जी उनकी पत्नी गौरी जी पुत्र श्री योगेश ,श्री देवेश और बेटी चंचल के स्नेह से अभिसिक्त रहूँगा। 

              'शुभम् राम ही साँचा नामक गीतावली लिखते समय और उसके बाद की मानसिक राम मयता निस्संदेह एक ऐसा विषय है ,जिसे शब्दों में कह पाना असंभव हो रहा है। कई रचनाएँ मोबाइल पर लिखते समय मैं भाव विह्वल हुआ कि कुछ पल के लिए तर्जनी रूपी लेखनी रुक गई ,आँखों में जल भर आया और ऐसा लगा कि भगवान राम मेरे समक्ष विराज रहे हैं ।मेरी प्रभु राम जी से प्रार्थना है कि ऐसी राम मयता मुझे आजीवन प्रदान करे ,ताकि अपने इस जीवन को ही अयोध्या बनाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ। 

                     इस राम गीतावली में निबद्ध काव्य ऐसे विरल क्षणों की सृष्टि है,जो सामान्यतः नहीं होते। कतिपय गीत -रचनाओं को राम- भजन के रूप में गाया भी जा सकता है। अधिकांश गीत -रचनाएँ सरसी छंद में निबद्ध सरल भाषा में हैं। इसे मैं अपने इस मानव जीवन का परम सौभाग्य ही मानता हूँ कि यह कृति भगवान राम की ननिहाल कौशल राज्य छत्तीसगढ़ से ही प्रकाशित हो रही है।भगवान राम की माता कौशल्या का नाम अमृतप्रभा था। वह वर्तमान रायपुर जिले के चंदखुरी गाँव की रहने वाली थीं।माता कौशल्या के पिता का नाम सुकौशल था।माता कौशल्या का एकमात्र मंदिर चंदखुरी गाँव में आज भी देखा जा सकता है। 

 ●शुभमस्तु ! 

31.12.2023●7.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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शनिवार, 30 दिसंबर 2023

राम-चरण प्रणिपात ● [ गीत ]

 597/2023

  

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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क्षमा याचना

करता भगवत

राम-चरण प्रणिपात।


मिला मुझे जो

शुभादेश तो 

लिखे 'शुभम्'  ने शब्द।

राम आपकी 

कृपा मिली है

जीवन  का   प्रारब्ध।।


वरना मैं क्या

एक वर्ण भी

लिखता, नहीं बिसात।


पाँच दिवस में

कैसे कोई 

लिखे राम का काव्य।

शब्द सुमन सब

राम नाम के

पाठक को हो भाव्य।।


तुम ही माता 

पिता श्रेष्ठ गुरु

अघी मनुज की जात।


कौशल शिष्य

पुत्र भारत का

बहुत बड़ा है साथ।

प्रेरक वे हैं

मात्र लेखनी

रही राम की साथ।।


'शुभम्' भाव-

विगलित उर मेरा

सीता -सी मम मात।


●शुभमस्तु!


27.12.2023●9.30 प०मा०

राम-कृपा अनमोल ● [ गीत ]

 596/2023

  

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कर्म  कृपा  से

मानव जीवन

राम कृपा अनमोल।


अगजग में बस

एक सत्य है

राम - राम बस राम।

सब कुछ त्याग

राम को जप ले

करे  न कोई काम।।


बिना बीज के

उगे न पौधा

सत्य वचन नित बोल।


भक्ति बीज है

राम कृपा का

शेष सकल सब झूठ।

योनि - योनि में

वही उगेगा

अन्य कर्म  से  रूठ।।


तू तो भीतर

बैठा बंदे

बाहर तन का खोल।


ताकझाँक में

दुश्मन बैठे

माया कामिनि काम।

धन दौलत या

कनक खजाना

ऊँचे - ऊँचे धाम।।


राम धाम ही

केवल साँचा

और चाम के ढोल।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●9.00 प०मा०

अब आते हैं राम ● [ गीत ]

 595/2023

     

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बीती घड़ियाँ

नहीं प्रतीक्षा

अब आते हैं राम।


सीता माता

साथ आ रहीं

विकल हुए सब नैन।

कैसे बीतें

घड़ियाँ  बेकल

काटे कटे न   रैन।।


आज न जाना

करें चाकरी 

और  न  कोई  काम।


विद्यालय को

हमें न जाना

खेतों को प्रस्थान।

स्वागत सभी

करेंगे मिलजुल

अभिनंदन सम्मान।।


जीवन भर तो

करना ही है

लगे  नित्य ही झाम।


बार-बार ऐसे

क्षण आते हैं

कब कितनी ही बार।

ऐसा दिन क्षण

पहला अंतिम

बीतें   वर्ष   हजार।।


'शुभम्' न देखें

वर्षा पानी

शीत चिलचिली घाम।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●8.30प०मा०

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राम के गीत ● [ गीत ]

 594/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम  के  गीत

हृदय के मीत

अयोध्या सारी गाए।


आज वन से

लौटे हैं राम 

पवन करता अभिनंदन।

बिछाए पलक

पाँवड़े पौर

करें कर  जोड़े  वंदन।।


युवा नर - नारि

मग्न मन आज

उल्लसित नहीं समाए।


दूर से आता 

देखा यान

सभी ने पुष्पक बोला।

गर्व से सब

माँओं   ने

उछलता हृदय टटोला।।


किसी ने थामी

माला किसी के

नयन सजल हो आए।


राम के साथ

लखन से वीर

व्रती पुरुषार्थ कमाया।

भक्त श्रेष्ठ

हनुमान खोज

कर सीता को लाया।।


पुरी अयोध्या

शून्य ,नहीं हैं

दरस दशरथ के पाए।


अब हैं राजा

 रामचंद्र जी

नहीं अब कुछ भी कहना!

कलरव करती

सरयू सरि को

 सु-मलयानिल में  बहना।।


बालक बाला

नाच - कूदते

हँस-हँस पुष्पक ओर सिधाए।

●शुभमस्तु!


27.12.2023●7.45प०मा०

राम संदेश ● [ गीत ]

 593/2023

      

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम संदेश

मनुज को नेक

सुलभ जन सेवा के उद्गार।


कभी  वे  राम

कभी वे श्याम

कभी वे महावीर या बुद्ध।

कभी वे वामन

कूर्म वराह

कल्कि अवतरित परशुधर शुद्ध।।


एक ही हरि 

दस - दस अवतार

करें जग का उत्तम उपकार।


राम की द्वादश 

कला सुरम्य

और षोडश गुण के आगार।

विनय आदर्श

वीर अति धीर

सदा मानवता  शुभ साकार।।


संस्कृति संवाहक

नर श्रेष्ठ 

सरलता के  उत्तम आधार।


 धर्म ध्वज वीर

 शिरोमणि उच्च

जगत के रघुकुल तारणहार।

नारियों के पूजक

प्रणवीर

दीन के बंधु महा उपचार।।


'शुभम्' दशरथ

कौशल्या पुत्र 

सत्य के शत-शत रामाचार।


● शुभमस्तु !

27.12.2023●6.45प०मा०

राम का प्रेम ● [ गीत ]

 592/2023

    

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम  का  प्रेम

मनुज का हेम

सदा शुभ हितकारी।


भीलनी  -  बेर

बिना  ही   देर

किए स्वीकार  सभी।

गीध की पीर

राम रणधीर

हरी, की कृपा तभी।।


 राम से बैर

नहीं है खैर

विनाशक व्यभिचारी।


सिया की खोज

न   होती   रोज

काम आए वानर।

वीर हनुमान

धीर जमवान

शत्रु खाते थे डर।।


लखन का कोप

राम   की  ओप

सिया को शुभकारी।


वनों  में  मोद

क्षीर तट शोध

राक्षसी  सुरसा- वध।

लंकिनी नाश

दानव हताश

गया सागर भी सध।।


राम   की  जीत

असुर भयभीत

'शुभम्' हित जयकारी।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●4.00प०मा०

राम सत्यम् -सत्यम् ● [ गीत ]

 591/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम हनुमान

गीत के मान

हुआ बलिहार शुभम्।


शब्द हैं मौन

बताएँ भौन

भाव ही   भाव  अचल।

बहे ज्यों पौन

शब्द का गौन

लेखनी चल अविकल।।


किसे दूँ श्रेय

राम ही प्रेय

शब्द हों सदा शिवम्।


दया के सिंधु

दीन के बंधु

कमल - पद में वंदन।

सरिता सिरसा

है 'शुभम्' बसा

करे  वह अभिनंदन।।


राम  के  गीत

बनें शुभ रीत

जगत में सुंदरतम।


'शुभम्'  बलहीन

भाव से दीन

समर्पित  गीत सभी।

कृपा का हाथ

लेखनी- माथ

न उठने लगे  कभी।।


राम ही सत्य

यही है तथ्य

राम  सत्यम्  - सत्यम्।


●शुभमस्तु !


27.12.2023● 2.15प०मा०

राम की राह ● [ गीता ]

 590/2023

       

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम की राह

बना ले चाह

सफल हो मानव जीवन।


दिखाया वही

कर्म करणीय

मनुज को हितकारी।

चलाई वही

नीति वरणीय

तरण    तारणहारी।।


नहीं था शौक

घूमते कु - पथ

बाँटते  स्वर्णिम कन।


बने सविशेष

चले सन्मार्ग

ग्रहण   साधारण  पथ।

त्यागकर भोग

राजसी योग

कनक मंडित निज रथ।।


गेरुआ   चीर

सिया को धीर

साथ में बंधु लखन।


राम की  नीति

राज की  रीति

कूट कटुता विहीन।

पाप को दंड

बने   उद्दण्ड

नहीं मन कर मलीन।।


साम से साध

राम निर्बाध

बना निज जीवन धन।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●1.00प०मा०

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राम लला की लीला ● [ गीत ]

 589/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम लला की

लीला न्यारी

प्रकटे  दशरथ - गेह।


पाप बढ़ा जब

इस धरती का

बना भयंकर  भार।

संत जनों के

त्राता बनकर

दानव  दल  संहार।।


आए राघव

राम रूप में

कौशल्या- घर देह।


कारण बिना

न  कारज होता

नहीं  मात्र संयोग।

जैसी करनी

वैसी भरनी 

करता है नर भोग। 


रावण जैसे

रहे  न भू पर

मिले अंत में खेह।


हुआ राम वन-

वास जानकी-

हाटक प्रियता मोह।

शूर्पनखा की

नाक कटी थी

रामानुज का कोह।।


भाव प्रतिशोध

हृदय दशकंध

चौर्यगत अति तेह।


●शुभमस्तु !

27.12.2023●12.00मध्याह्न।

रोम- रोम से राम ● [ गीत ]

 588/2023

       

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अनुदिन जप ले

रसना मेरी

रोम-रोम  से राम।


वादा करके

नहीं निभाया

गर्भान्तर  के बीच।

बाहर आया

भूल गया सब

रहा  काम को सीच।।


कनक तिजोरी

रही याद बस

गिनता   पैसा  दाम।


झूठमूठ के

नाटक तेरे

लीलाओं  की  गूँज।

कभी पहनता

रंग गेरुआ

कभी जनेऊ मूँज।।


ध्वनि विस्तारक

यंत्र चीखते

मुख से केवल श्याम।


यश का भूखा

रहा जन्म भर

किया नहीं उपकार।

दुनिया को तू 

दिखलाए नित

दौलत का आगार।।


महल दुमहले

ऊँचे -ऊँचे 

देते कब विश्राम।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●10.30आ०मा०

राम -धूप की ओट ● [ गीत ]

 587/2023

    

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - धूप की

ओट न छोड़ें

बड़ा  भयंकर  शीत।


कोहरा घना

काम  केलि का

कितना  है  कमनीय?

रंग - रंग में

कर आच्छादन

जाना कब दमनीय??


बादल छाया

नर सिर ऊपर

किंतु  नहीं  भयभीत!


राम नाम की

बाँट रेवड़ी

अपना घर है रिक्त।

नाम लूटता

यश का कोरा

सोने  में  संसिक्त।।


भजन राम के

मुख से गाए

शेष न उर में तीत।


 स्वाद जीभ के

रोचक लगते

तरणी  में  हैं  छेद।

धीरे -धीरे

बढ़ता पानी

जान न पाए भेद।।


सँभल न पाया

बेड़ा डूबा

चला चाल विपरीत।


●शुभमस्तु !


27.12.2028●9.00आ०मा०

राम पताका ● [ गीत ]

 586/2023

          

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम पताका 

घर की छत से

हटा हृदय में टाँग।


अभिनय करता

रामभक्ति का

माथे लगा त्रिपुंड।

डाल गले में

कंठी माला

काम करे बरबंड।।


झूठी तेरी

भक्ति उक्ति सब

रहा  सदा  ही माँग।


रामादर्शन

नित्य आचरण

में कर ले रे जीव।

कर्म धर्म का

मात्र दिखावा

अंतर से तू क्लीव।।


साँचा केवल

एक राम का

शेष सभी है स्वांग।


राम सत्य हैं

राम तत्त्व हैं

राम वेद का सार।

राम बिना क्या

और जगत में

राम- राम उच्चार।।


राम तीर्थ हैं

राम कीर्ति हैं

राम प्रीति भर आँग।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●7.45आ०मा०

रामायण पढ़ ● [ गीत ]

 585/2023

     

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 रामायण पढ़

 पाठ कराया

ढोल मँजीरा गान।


प्रीतिभोज भी

भूल न पाया

यश भी लूटा खूब।

गया भिखारी

भूखा दर से

बने   बड़े  मंसूब।।


अहंकार की

रेल चला दी

भर-भर गाड़ी मान।


सुन रामायण

बना न कोई

भारत भर में राम?

भरत लखन की

बनी कहानी

भ्राता भाव न नाम।।


सीता जैसी

नारि एक भी

मिली न एक प्रमान।


जीवन में जब

राम नहीं तो

नाटक से क्या लाभ?

उनसे श्रेष्ठ

खड़ा मेड़ों पर

एक जंगली दाभ।।


सत्य कहा है

जन - जन तोले

बीस  पसेरी  धान।


● शुभमस्तु !


27.12.2023●6.45आ०मा०

राम रस प्रीति ● [ गीत ]

 584/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्

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राम रस प्रीति

जगा जड़ जीव

सुन अनहद ध्वनि नाद।


अलख राम का

घण्टा बजता

गूँजा चेतन गीत।

कब तक यों ही

करे अनसुना

घड़ियाँ जाएँ बीत।।


किस निद्रा में

अविचल सोया

लेता नीरस - स्वाद।


षटरस लेता

निन्दारस रत

खबर न अपनी नेंक।

सोने की तू

कथरी सोया

क्यों न दे रहा फेंक!!


भरी हृदय में

गलित गंदगी

करता नित अनुवाद।


खोट खोजता

इसके उसके

देखा  गला  न झाँक।

लिखा हुआ है

आना जाना

कब तक पक्का आँक।।


कच्छप जैसी

ग्रीवा भींचे

छिपा हुआ किस माद।


●शुभमस्तु !


27.12.2023● 6.00आ०मा०

एक रूप हैं राम ● [ गीत ]

 583/2023

        

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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एक ठौर ही

आदर्शों के

एक रूप हैं राम।


आज्ञाकारी 

पुत्र पिता के

सीता के पति श्रेष्ठ।

लखन भरत के

गौरव मय वे

भ्राताओं में ज्येष्ठ।।


पराक्रमी बल-

शाली योद्धा

वीतराग   निष्काम।


सदाचार सच

के अनुगामी

वे विनम्र धर्मज्ञ।

न्यायशील वे

दृढ़प्रतिज्ञ नर

मानव पूर्ण कृतज्ञ।।


सदा प्रशंसक

गुण के ग्राहक

एक वही बस नाम।


राम राम - से

और न कोई

सकल जगत ब्रह्मांड।

मानव रूपी

अवतारी हैं

 अक्षर अमर अखंड।।


एक -एक पद

अनुगमेय है

वहीं राम का धाम।


● शुभमस्तु!


26.12.2023●8.15प०मा०

सिवा तुम्हारे राम ● [ गीत ]

 600/2023

  

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● © शब्दकार।

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुझे समर्थन

नहीं चाहिए 

सिवा तुम्हारे राम।


तुम मेरे हो

और तुम्हारा

मैं हूँ लो प्रभु जान।

'शुभम्' अजामिल

जैसा पापी

मेरी  ये  पहचान।।


रोटी के हित

बनकर चाकर

खूब कमाए दाम।


राम दास मैं 

शरण तुम्हारी

कृपा - हस्त दो नाथ।

जितना जीवन

शेष बचा है

रहे  राम  - पद माथ।।


नहीं चाहिए

ऊँचा पद भी

बना रखें बस आम।


जन्म-जन्म में

राम - चरण में

रहे  सदा  अनुराग।

नहीं विमुख हूँ

मैं प्रभु - रति से

यही 'शुभम्' का भाग।।


नहीं और कुछ

वांछा मन में

नर जीवन की शाम।


● शुभमस्तु !


29.12.2023●3.15प०मा०

राम तरंगों से आवेशित ● [गीत ]

 599/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - तरंगों 

से आवेशित

मेरे तन, मन, भाव।


कहाँ नहीं हैं

राम  देह में 

मिला न कोई ठौर।

पावनता किस 

छोर नहीं है

ऐसा  लगे न और।।


रात- दिवस हो

संध्या - प्रातः

एक  राम  का चाव।


मेरे मन में 

कहाँ नहीं वे

कविता का हर शब्द।

हुआ राममय

निकल न जाएँ 

होता शुभम् निशब्द।।


'शुभम् राम ही

साँचा'  लिखकर

जागा परम् लगाव।


मात शारदे 

'भगवत'  करता

विनती बार हजार।

राम बसें मन-

मंदिर मेरे

तरणी बना सवार।।


आज 'शुभम्' ने

सब कुछ पाया

बतलाते उर - हाव।


● शुभमस्तु !


29.12.2023●2.30प०मा०

राम - से राम ● [ अतुकांतिका ]

 598/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - से  राम 

सिया-सी सिया

न उनसा कोई और

धरा पर जिया।


मानवता के

आदर्श राम

शत -शत प्रणाम

प्रणिपात,

ग्रहण हम करें

मनुजता 

जीवन का प्रभात,

विशिष्ट अवदात।


यह देह देश मम

अयोध्या मानस ,

बसे  हैं  राम  जहाँ

और भी ठौर कहाँ!

खिले हैं कितने उपवन।


अजर अमर 

आदर्श 

राम के युग-युग,

भले आज है

दुनिया में कलयुग

बनाएँ त्रेता ये युग।


मनमानी को नहीं

राम राज कहते हैं,

राम वही हैं

जो सीमा तक 

अति -आचार

सहन करते हैं।


कूटनीति को त्याग

जगाओ रामनीति ही,

राजनीति मत कहो

सत्य को नित अपनाएँ

राम - आदेश नीतिगत

आदर्श बनाएँ।


'शुभम्' असंभव नहीं

कभी कुछ,

काम-कामिनी से 

दूरी का किया न

 तुमने अपना रुख,

तो राम रहेंगे

बस पोथी के

पन्नों में बंद,

उधर जारी ही रहेंगे

नेताओं के छल-छद्म,

बाँटते भारत - रत्न

धातु के पद्म।


●शुभमस्तु !


29.12.2023●11.45आ०मा०

राम - से राम ● [ अतुकांतिका ]

 598/2023

           

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - से  राम 

सिया-सी सिया

न उनसा कोई और

धरा पर जिया।


मानवता के

आदर्श राम

शत -शत प्रणाम

प्रणिपात,

ग्रहण हम करें

मनुजता 

जीवन का प्रभात,

विशिष्ट अवदात।


यह देह देश मम

अयोध्या मानस ,

बसे  हैं  राम  जहाँ

और भी ठौर कहाँ!

खिले हैं कितने उपवन।


अजर अमर 

आदर्श 

राम के युग-युग,

भले आज है

दुनिया में कलयुग

बनाएँ त्रेता ये युग।


मनमानी को नहीं

राम राज कहते हैं,

राम वही हैं

जो सीमा तक 

अति -आचार

सहन करते हैं।


कूटनीति को त्याग

जगाओ रामनीति ही,

राजनीति मत कहो

सत्य को नित अपनाएँ

राम - आदेश नीतिगत

आदर्श बनाएँ।


'शुभम्' असंभव नहीं

कभी कुछ,

काम-कामिनी से 

दूरी का किया न

 तुमने अपना रुख,

तो राम रहेंगे

बस पोथी के

पन्नों में बंद,

उधर जारी ही रहेंगे

नेताओं के छल-छद्म,

बाँटते भारत - रत्न

धातु के पद्म।


●शुभमस्तु !


29.12.2023●11.45आ०मा०

मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

ब्रह्मरंध्र में रामरूप ● [ गीत ]

 582/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ब्रह्मरंध्र में

राम रूप का

रस ले- ले मन मूढ़।


कुंडलिनी सो

रही मूल में

इड़ा पिंगला बंद।

छः - छः तेरे

तंत्रजाल   की

ज्योति हुई है मंद।।


कब तक सोए

मूलबिन्दु में

पथ पर कर आरूढ़।


प्राणायाम न

करता है तू

खोल प्राण षट बंध।

शनैः - शनैः यों

ले जा ऊपर

बने न   कोरा अंध।।


कब तक भटके

राह ज्योति की

बना  रहेगा  कूढ़।


जब तक काम

सर्प का दंशन

अमृत नहीं हलाल।

फिर मत कहना

नहीं बताया

करना नहीं मलाल।।


'शुभम्' द्वार

दसवाँ न खुला तो

नहीं   सकेगा   ढूँढ़।


●शुभमस्तु !

26.12.2023●5.30 प०मा०

रामनीति की गौरव गरिमा ● [ गीत ]

 581/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रामनीति की

गौरव गरिमा

का कर लें सुविचार।


सीता- शांति

हरें नापाकी

 भरत -   वीर बेचैन।

पश्चिम से वे

आग फेंकते

मिला न सकते नैन।।


रावण - नाभि

जलाएँ राघव

खुला ब्रह्म का द्वार।


बिना न्याय के

नहीं जलाना

हमें  शत्रु  का  बाल।

रामनीति ही 

हमें चलानी

समझ शत्रु की चाल।।


बजरंगी हैं

सैनिक अपने

देंगे पल में मार।


जिन्हें पेट के

लाले अपने

माँग रहे जो भीख।

रामनीति से

विमुख सदा जो

कैसे देंगे सीख।।


नैतिकता से

हमें न हटना

करना उचित प्रहार।


●शुभमस्तु!


26.12.2023 ●4.00प०मा०

रामनीति से देश सँभालो ● [ गीत ]

 580/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रामनीति से

देश सँभालो

राजनीति क्या चीज?


झूठे वादे

आश्वासन का

समय नहीं अब आज।

भाषण से

प्रसन्न हों जड़मति

बनें न   नेता   बाज।।


जन -जीवन को

जड़ मत समझो

पेड़ लता के बीज।


रामादर्श 

बना कर दर्पण

बतलाएँ  सत   राह।

सेवक हों सब

पवन पुत्र  - से

समझें जन की चाह।।


सुविधाभोगी

क्या कर पाएँ

मैली हो न कमीज।


सेवक समझो

तुम अपने को

जामवंत   हनुमान।

भाव समर्पण 

हो तन मन का

मात्र कर्म पर ध्यान।।


कैसे जनता

के क़ाबिल हों

सीखें सकल तमीज़।


● शुभमस्तु !


26.12.2023●12.45प०मा०

रामनीति करणीय ● [ गीत ]

 579/2023

  

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नीति युक्त जो

शासन होता

रामनीति करणीय।


पहले जन के

राज जान लें

जनता  की क्या चाह।

कोरी वाह न

लूटे  राजा

समझे हिय की आह।।


किया राम ने

जन के भीतर

जाकर जो वरणीय।


वनवासी सब

अन्त्यज पिछड़े

पशु, पक्षी, जन, ढोर।

देख वेदना 

राम पिघलते

कैसे    रहते    पौर।।


जनसेवा को

गले लगाया

तारा  जो तरणीय।


नर वानर वे

भालू वन के

सबका  लेकर साथ।

सीता जी की

खोज पूर्ण की

करके  उन्हें  सनाथ।।


'शुभम्' धर्म वह

कर्मठता से

सिखलाते धरणीय।


●शुभमस्तु !


26.12.2023● 12.00मध्याह्न।

स्वजन सभी के राम ● [ गीत ]

 578/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सबके त्राता

आश्रयदाता

स्वजन सभी के राम।


जगतारन प्रभु

नाव माँगते 

गंगा  करनी पार।

देते केवट 

को उतराई 

कर मुद्रा उपहार।।


डोले वन-वन

कंटक वीथी

पिछड़े -बिछड़े गाम।


शबरी के फल

जूठे खाते

दे निज पद की धूल।

गले लगाते

जन वनवासी 

भगवा ओढ़ दुकूल।।


हनुमत जैसे

भक्त ढूँढ़कर

वन को किया ललाम।


कपि सुग्रीव मीत

जिनके बन

दिया  गले  का  हार।

खग जटायु भी

हृदय लगाया

करतल का भी प्यार।।।


भेदभाव का

काम न कोई

जन-जन स्वधन सु-धाम।


● शुभमस्तु!


26.12.2023● 11.30आ०मा०

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महिमा राम नाम की ● [ गीत ]

 577/2023

 

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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महिमा राम

नाम की गा ले

भव सागर में नाव।


उलटा नाम

जपा कवि वर ने

मरा-मरा की टेर।

ब्रह्म समान

हो गए जप कर

की न राम ने देर।।


वाल्मीकि के

पावन उर में

मात्र राम का भाव।


पाप कमाए 

बाँध पोटली

सिर पर लादी एक।

धोए धुलें न

बिना जतन के

कर्म  न  तेरे  नेक।।


जन्म -जन्म तक

रिसते हैं वे

अघ  ओघों  के घाव।


राह कठिन है

भटक रहा है

अपनी मंजिल दिव्य।

राम - कनक को

छोड़ा  तूने

किया इकट्ठा  द्रव्य।।


'शुभम्' सँभल जा

अब भी हे नर!

खाली मत कर दाँव।


● शुभमस्तु !


26.12.2023●10.15आ०मा०

नाम मात्र प्रभु राम ● [ गीत ]

 576/2023

   

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शयन सेज को

त्याग प्रथम ले

नाम मात्र प्रभु राम।


बीत गई है

गहन तमिस्रा

तारे   हुए   विलीन।

भोर हुआ है

सूरज निकला

जाग उठे खग पीन।।


एक - एक जन

मिलें परस्पर

कर लें  सभी प्रणाम।


राम - नाम से

श्री गणेश हो

शुभ का कर लें जाप।

अनायास ही

राम उचारें

मिट जाए उर - ताप।।


राम - राम सा

की ध्वनि गूँजे

बने राम - रस धाम।


कुक्कड़ कूँ में

ताम्रचूड़ का

स्वर जपता लय साध।

राम -राम बस

और नहीं कुछ

हरि से   नेह  अगाध।।


श्रुतियों में जो

नाद गूँजता

राम नाम अभिराम।


●शुभमस्तु !


26.12.2023●8.30आ०मा०

दो आखर के राम नाम का ● [ गीत ]

 575/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दो आखर के

राम नाम का

सीधा सरल स्वभाव।


अगजग रमता

राम सुरीला

कण-कण जिसका वास।

कविता की प्रति

पंक्ति परस्पर

जुड़ी   राम -  विश्वास।।


आखर - आखर

शब्द -शब्द में

मात्र  राम  का चाव।


राम छंद है

राम बंध है

 अलंकार भी राम।

यति गति लय भी

राम नाम ही

वहीं राम का धाम।।


पढ़ता रुचि से

जो कविता को

भर देता हर घाव।


कबिरा तुलसी

सूरदास ने 

कविता की अभिराम।

कालिदास ने 

सहित लिखा जो

हुआ जगत में नाम।।


आज 'शुभम्' ने

उसी राम से

डाला काव्य-प्रभाव।


●शुभमस्तु !


26.12.2023●7.15आ०मा०

राम-रूप की सरयू पावन ● [ गीत ]

 574/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - रूप की

सरयू पावन

कर ले  मन अभिषेक।


चौरासी लख

योनि भटक कर

धारी    मानव   देह।

भोग योनि में 

भोग भोगता 

रूप लिया नर खेह।।


राम भजो मन

राम नाम ही

जप सह पूर्ण विवेक।


योनि - योनि की

मैली चादर

धोने   में   क्या  लाज?

जब जागे तू

तभी सवेरा

क्यों न  जागता आज??


कर्म योनि है

मानव देही

लख   चौरासी  एक।


दर पर तेरे

राम विराजे

सजा आरती साज।

अभिनंदन में

क्यों न खड़ा हो

रामचन्द्र  के  आज।।


'शुभम्' बना ले

सिया राम को 

अपनी  सुदृढ़  टेक।


●शुभमस्तु!


26.12.2023● 6.45 आ०मा०

राम की सजी अयोध्या ● [ गीत ]

 573/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम की सजी

अयोध्या न्यारी

सरयू भरे हिलोर।


पुर वासी सब

हर्षित उमगे

उर आनंद विभोर।

सज्जित नूतन 

वसन देह पर

मध्यम वायु झकोर।।


प्राण प्रतिष्ठा

राम लला की

नाच उठे वन मोर।


कलियाँ खिलतीं

क्यारी - क्यारी

झुकते तरु फलदार।

चिड़ियाँ चहकें

झुरमुट भीतर

मानो सोच -विचार।।


सरयू - वीचि

खेलतीं मछली

तनिक नहीं है शोर।


खिले कमल दल

अलिदल गूँजें

तितली दल की धूम।

घूम -घूम कर

फूल-फूल पर

लगे रही ज्यों चूम।।


मन की रस्में

मना रहा जन

कर ध्वनियों की रोर।


● शुभमस्तु !

25.12.2023●8.00प०मा०

गाए सरयू राम ● [ गीत ]

 572/2023

       

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तुलसी गाए

कबिरा गाए

गाए सरयू राम।


कहते पापी

राम नहीं थे

कल्पित सब इतिहास।

उनसे पूछो

पिता तुम्हारे

भी  लगते  बक़वास।।


क्या प्रमाण है

पास तुम्हारे

जिनसे करो प्रणाम।


समय-समय पर

हरि आते हैं

धर के भू अवतार।

वही राम हैं

वही श्याम हैं

करने  उपसंहार।।


राम रमे रग-

रग में तेरी

और न कोई नाम।


राम एक है

सब धर्मों का

कितने उसके रूप।

सब में एक

सत्य बसता है

समझें  नहीं अपूप।।


'शुभम्' सहन की

महाशीलता

वहीं राम का धाम।


●शुभमस्तु!


25.12.2023●6.00प०मा०

राम लला का स्वागत ● [ गीत ]

 571/2023

  

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●©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम लला का

स्वागत करने

हम बैठे तैयार।


पलक पाँवड़े

बिछा राह में

अगवानी शुभ काल।

कब आएगी

घड़ी प्रतीक्षित

भानु उगेगा लाल।।


बहने लगी

सुहृद मकरंदी

पावन प्रीति बयार।


बने पालना

मलय काष्ठ का

कोमल  रेशम  डोर।

नर्म गुदगुदा

लाल बिछौना

सुरभित होगी भोर।।


केशर वाला

दुग्ध सुगंधित

ज्यों शशि का उजियार।


लोरी सुन -सुन

सोएँ लालन

माँ कौशल्या अंक।

राम-महल में

विचरें निधड़क

माता रहें निशंक।।


दशरथ जनक

दुलारें गोदी

लुटा हृदय का प्यार।


● शुभमस्तु!


25.12.2023● 2.15प०मा०

राम-सिंधु से विलग ● [ गीत ]

 570/2023

  

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - सिंधु से

विलग जीव का

मानव  रूपाकार।


कारण क्या वह

जीव सृजन का

नहीं  जानता  जीव।

कभी विलगता

कभी एकता

जान रहा वह पीव।।


धरती पर धर

रूप देह का

बनता वह आकार।


कोई कृमि है

कोई पशु है

कोई  जलचर  एक।

पर धर उड़ता

नभ में कोई

अलग सभी की टेक।।


नहीं छोड़ना 

चाहे तन को

कोई  भी  साकार।


कर्म - बीज से

देह सृजन हो

योनि बदलती नित्य।

अवधि सभी की

करें अवधपति

निश्चय सभी सुचिंत्य।।


चलता क्रम यों

सकल सृष्टि का

सबका   रामाधार।


● शुभमस्तु !


25.12.2023●12.15प० मा०

राम सभी में ● [ गीत ]

 569/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 राम सभी में

सभी राम में

अद्भुत अप्रतिम खेल।


तेरी रचना 

में तेरा क्या 

लगा  न  कौड़ी  दाम!

जन्म मृत्यु सब

हैं उसके वश

तू बस वस्तु ललाम।।


जड़ चेतन का

किसी घड़ी में 

मात्र एक शुभ मेल।


कर्ता समझा

तू अपने को

कर्ता  केवल  राम।

साँचा माटी 

का तू मानव

प्राण उसी का नाम।।


कब निकलेंगे

कौन जानता

उसके  हाथ नकेल।


निकला बाहर

मातृ- उदर से

भूला पिछली याद।

अनहद नाद न

पड़े सुनाई

बंद हुए संवाद।।


आडंबर में 

लिप्त जीव तू

रहा नरक को झेल।


●शुभमस्तु !


25.12.2023● 10.45आ०मा०

राम -ध्वनि- गूँज ● [ गीत ]

 568/2023

  

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - ध्वनि - गूँज

हृदय  के  बीच

निरंतर प्रभु- संवाद।


बाहर-भीतर

राम रमे हैं

अगजग  में हैं राम।

कलरव में हैं

खग रव में वे

और न कोई नाम।।


नर -नारी में

राम रूप है

और न कुछ भी याद।


 वही  हिमालय

सुरसरिता वह

वही अमिय जल धार।

वही धरा की

प्यास तृप्ति वह

सुमनों का  उपहार।।


गिरि से सागर

सागर से नभ

मेघों का अनुनाद।


कली सुमन में

नव सुगंध का

वह अदृष्ट आगार।

फल में बीज

बीज में अंकुर

तरुवर का आकार।।


राम रमैया

अमर गूढ़ता

कविता का अनुवाद।


●शुभमस्तु !


25.12.2023●9.00 आ०मा०

हे करुणा अवतार● [ गीत ]

 567/2023

  

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राजीव नयन

भू भार हरो

हे करुणा अवतार।


धारण कर लो

निज कंधों पर

गुरु गांडीव अमोघ।

सीमा पर है

शत्रु हमारा 

बारूदी अघ ओघ।।


घात लगाए

है कुहरे में 

करता  सीमा पार।


रात-रात भर 

पहरा देते

बजरंगी   हनुमान।

मसल सपोलों 

को वह देते

करते हम गुणगान।।


वानर सेना

जागरूक रह

करे देश उद्धार।


शक्ति साधना

करते राघव

कमल नयन श्रीराम।

शक्ति चुराती

एक कमल तो

करते अद्भुत काम।।


माँ की बातें

याद आ गईं

खुला विवेकी द्वार।


● शुभमस्तु !

25.12.2023●6.30आ०मा०

राम लला हैं आए ● [ गीत ]

 566/2023

     

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●© डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अलख जगाओ

शुभ वेला है

राम लला हैं आए।


राम जपो जी

राम जपो जी

घंटे शंख बजाओ।

पंचामृत से

नहला प्रभु को

उर में दीप जलाओ।।


घर-घर बजने

लगे बधावे

उर आनंद समाए।


नृत्य कर रहे

बहु नर - नारी 

पायल झनके  भारी।

सीता माता

मगन मौन हैं

शुचि मर्यादाचारी।।


बालक बूढ़े

सभी निरोगी

दृश्य देखने धाए।


देखो शिशु ने

नेत्र उघारे

बोल पड़ेंगे जैसे।

हाथ पाँव वे

चला रहे हैं

ऊपर नीचे  ऐसे।।


बालाओं ने

हर्षित होकर

मंगल गीत सुनाए।


●शुभमस्तु !


24.12.2023●8.30प०मा०

इसी देह में पुरी अयोध्या ● [ गीत ]

 565/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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इसी देह में

पुरी अयोध्या

लंका सह लंकेश।


राम- शून्य में

प्रसवित अमृत

इड़ा पिंगला श्वास।

जीवन-दाता 

त्रय पथगामिनि

फिर भी नहीं उजास।।


लंक मध्य में

हाटक लंका 

मादक है परिवेश।


सोता रावण

सीता को हर

बदले तन का रूप।

लालच देता

वशीकरण का

लंकापति अघ-कूप।।


यम का फंदा

कसे हुए है

दसकंधर के केश।


जब लगती है

आग लंक में

कपि बजरंगी वीर।

करते सीता 

की तब रक्षा 

बँधा हृदय को धीर।।


अहंकार का

मरता रावण

पावन कर परिवेश।


●शुभमस्तु !


24.12.2023●7.45प०मा०

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राम-भजन की सुरसरिता ● [ गीत ]

 564/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम -भजन की

सुरसरिता में 

गोता ले दिन-रात।


ऐसे खो जा

जैसे कोई 

मधुपाई   की  डूब।

रम जा ऐसे

जैसे जमती 

धरती पर नम दूब।।


तन का मन से

मेल साध ले

यद्यपि हो बरसात।


काया की ज्यों

छाया होती

रमे  राम  में मीत।

अलग नहीं हो

पल भर को भी

लगा राम से प्रीत।।


नहीं पाप का

समय मिलेगा

सत्वपूर्ण हो  गात।


शील विनय तू

सीख राम से

मर्यादा मत छोड़।

हर नारी से

माँ भगिनी का

अपना नाता जोड़।।


'शुभम्' मनुज की

देह मिली है

पंक उगा जलजात।


●शुभमस्तु !


24.12.2023● 6.45प०मा०

कौन राम -सा एक ● [ गीत ]

 563/2023

     

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम राम हैं

राम राम-से

कौन राम-सा एक।


पोथी पढ़ - पढ़

कौन हुआ नर

मर्यादा   प्रभु   राम।

तिलक लगाए

जपते माला

भरे  तिजोरी दाम।।


परउपदेशक

ढोंगी  देखे

किंकर काम अनेक।


सीता माता

जैसी नारी

पति अनुगामिनि धीर।

वैसे देवर

लखन भरत -से

पराक्रमी पति  वीर।।


धर्म धुरंधर

हनुमत सेवी

दिनमणि  संग विवेक।


दशरथ पितुवर

वचन बचाते

कौशल्या - सी मात।

कैकेयी - सा

नेह कहाँ अब

जीवन का अवदात।।


अनुगामी वह

लक्ष्मण जैसा

तजी उर्मिला नेक।


● शुभमस्तु !

24.12.2023●5.00प०मा०

राम नाम का मेह ● [ गीत ]

 562/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पूरा  भारत 

पुरी अयोध्या 

राम नाम का मेह।


राम- रंग की

होती  होली

घर - घर जलते दीप।

स्वाति बूँद की

वर्षा  होती 

मुक्ता  बनते  सीप।।


हंसासन पर

बैठ शारदा

गातीं गीत विदेह।


हनुमत जैसे

भक्त राम के 

जपते अनुदिन राम।

राम - राम से

नमन परस्पर 

सुधरें बिगड़े काम।।


लखन भरत सम

अनुज राम के

बरसाते बस नेह।


विजयादशमी

विजय पर्व है

रक्षक  हैं  प्रभु राम।

विश्व विजय की

सजे पताका

करता 'शुभम्' प्रणाम।


सीता माँ का

शुभाशीष नित

बरसे दर-दर गेह।


●शुभमस्तु !


24.12.2023● 3.45प०मा०

कहाँ नहीं हैं राम ● [ गीत ]

 561/2023

     

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कहाँ नहीं हैं

राम हमारे

अपनी ढूँढ़ो देह।


कहते हो तुम

तुम लाओगे 

मंदिर  में  श्रीराम।

अपनी देखो

योनि मानवो

चाह रहे निज नाम।।


राम यहाँ के

हर कण-कण में

खोजो अपना  गेह। 


इतिहासों के

पन्नों पर तुम

लिखना  चाहो नाम।

दशरथ बनना 

चाहत है क्या

पिया राम का जाम।।


अखबारों में

टी वी पर तुम

फैलाए   अवलेह।


कितने आए

चले गए भी

तेरे   जैसे   लोग।

जिनको भी था

लगा अनौखा

राम -नाम का रोग।।


वक्त सिकंदर

होता  केवल

शेष सभी है खेह।


● शुभमस्तु !


24.12.2023●3.00प०मा०

एक राम ही साँचा ● [ गीत ]

 560/2023

  

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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एक  राम ही

साँचा जग में

और  सभी कुछ क्षार।


औंधा सोया

गर्भान्तर में

जपता  मुझे  निकाल।

अंध कोठरी 

मुझे सताती

शून्य ज्योति का बाल।।


पल - पल बीतें

रौरव  जैसे 

गया बहुत थक हार।


जिस माता का

रक्त पिया है

अदा करूँ ऋण आज।

कैसे अपना

धर्म निभाऊं

झपटा हूँ  बन बाज।।


अंश जनक का

बिना न उनके

जीवन का उद्धार।


 बाहर आया

सब कुछ भूला

भटक गया मैं राह।

सोच रहा जो

भीतर उलटा 

बदल गई  हर चाह।।


काम कामिनी

कंचन काया

बने नरक के द्वार।


● शुभमस्तु !


24.12.2023●11.45आ०मा०

भज ले राम ● [ गीत ]

 559/2023

         

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मैली चादर 

इस काया की

धो ले भज ले राम।


अब तक सोया

गहन नींद में

खोया  अपना रूप।

काम कामिनी

के रँग रँगकर

गिरा पतन के कूप।।


और नहीं कुछ

देख सका तू

दिखे मात्र धन- धाम।


माया - कंबल

तन पर लिपटा

धोई  अपनी देह।

जिसे एक दिन

बन जाना है

इस धरती की खेह।।


कंचन जाना

असली सोना

खूब कमाया नाम।


अब तक भटका

लख चौरासी

कृमि, शूकर, खग, श्वान।

काया मानव 

की पाई तो

अहंकार      अभिमान।।


प्राण ले चला

यम का फंदा 

उलझा जग के झाम।


● ©शुभमस्तु !

24.12.2023●10.30आ०मा०

शनिवार, 23 दिसंबर 2023

नए-पुराने ख़यालात ● [ व्यंग्य ]

 558/2023 

 

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● © व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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            ख़यालात के विषय में सुना है कि मुख्यतः ये दो प्रकार के होते हैं,पुराने और नए।स्वाभाविक ही है कि पुराने लोगों के ख़यालात पुराने होंगे और नए लोगों के ख़यालात नए।जिस प्रकार पुराने लोगों की लात भी कमजोर हो जाती हैं ,इसलिए वे ज्यादा चलने -फिरने या लातों को ज्यादा चलाने में सक्रिय नहीं रहते। ये उनकी विवशता है तथा समय की आवश्यकता भी है।पुराने की बात ही पुरानी है।नए के सामने पुराने टिक भी कहाँ पाते हैं !यद्यपि वे टिकाऊ अधिक होते हैं।पुराने का नए से मुकाबला भी क्या ! बाप बाप ही रहेगा।भले ही बेटा कुछ भी हो जाए ,किन्तु वह बाप नहीं बन सकता।अपने ओहदे या धन दौलत में वह भले ही बढ़ जाए ,परंतु रहेगा बेटा ही। वह बाप का बाप तो नहीं होगा न?

              ख़यालात मनुष्य की अपनी जागतिक परिस्थतियों और समय की माँग होते हैं।पुराने लोग नए ख़यालात तो अख़्तियार कर सकते हैं ,किन्तु नए लोगों में पुराने ख़यालात आना एक प्रतिष्ठा की बात होगी। सम्भव यह भी है कि नए लोगों में पुराने ख़यालात का प्रादुर्भाव हो जाए। परंतु ऐसा प्रायः नहीं होता। नहीं हो सकता।पुराने लोगों की अधिक संगति करने पर ऐसा होना कोई असंभव कार्य नहीं है। 

               नए ख़यालात नए लोगों की तरह कुछ ज्यादा ही लात चलाते हैं। चलाते ही नहीं, अधिक चला पाने की क्षमता से युक्त भी होते हैं।नया तो नया है। उसका सब कुछ नया है। नया खून, नई-नई रगें, नया दिमाग़,नई मसें,नई आँखें, नई दृष्टि ;फिर क्यों न हो नई सृष्टि। ज्यादा लात चलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कभी- कभी अधिक लात -संचालन अपने लिए भी घातक पातक और मातक हो सकता है। इसलिए बिना सोचे -समझे या बिना देखे -भाले लात नहीं चलाने की शिक्षा दी जाती है। और यह शिक्षा भी उन लोगों के द्वारा दी जाती है ,जिनकी लातें पहले ही कमजोर हो चुकी हैं। वे यह सीख इसलिए नहीं देते कि उनकी लातें कमजोर हो चुकी हैं,वरन इसलिए भी देते हैं कि उन्हें अपने नएपन में लातें चलाने का परिपक्व अनुभव भी है। लात -प्रक्षेपण कोई तीर- प्रक्षेपण से कम नहीं है।क्योंकि यदि तीर भी गलत दिशा में चलाया जाए अथवा गलत लक्ष्य पर ही चला दिया जाए, तो ऊर्जा का अनावश्यक अपव्यय ही होता है।पत्थर पर तीर प्रक्षेपण जैसे अकारथ होता है ,ठीक वैसे ही गलत लात - संचलन भी निरर्थक ही होता है। खाँम ख़याली ख़तरनाक ही होती है।इससे दिमाग़ को खुश फहमी नहीं मिलती ।वैसे ही ये आवश्यक नहीं कि जहन में आया हुआ हर ख़्याल ख़ुशनसीब ही हो। 

                 नए ख़यालात के अंदर एक और नए प्रकार के ख़यालात का जन्म होने लगता है। इन ख़यालात को अत्याधुनिक ख़यालात कहा जाता है। अत्याधुनिकता के तंबू के नीचे ख़तरे ही खतरे हैं।जैसे अत्याधुनिकता के वशीभूत होकर देह के सारे कपड़े -लत्ते ही उतार फेंकना।जैसे माघ के कड़े शिशिर की शीत में अत्याधुनिकाओं का सारे गर्म कपड़े स्वेटर कार्डीगन शॉल आदि का उतार फेंकना और एक मकड़ी के जालीनुमा ब्लाउज में सारी रात निकाल देना। अत्याधुनिकता निःसंदेह सराहनीय है। इसके नीचे जाड़े गर्मी बरसात का कोई असर नहीं होता।सामान्य से असामान्य हो जाने का नाम अत्याधुनिकता है।आज अत्याधुनिकता की सूची बहुत लंबी हो चुकी है।खान-पान से लेकर पहनावा ,रहन -सहन, विवाह -शादी,जन्म दिन,विवाहादि की वर्ष गाँठ आदि ऐसा कौन सा क्षेत्र है ,जहाँ अत्याधुनिकता ने अपनी नई - नवेली लात न चलाई हों।अत्याधुनिकता आँखों से अंधी और कर्ण कुहरों से बधिर हो गई है।इसलिए उसे पुराने ख़यालात की लातें तो क्या बातें भी अप्रिय लगती हैं। इसलिए फ़टे हुए जींस और देह दिखाऊ कपड़े उसकी पहचान में शामिल हो गए हैं।अब तो नवाधुनिकाओं को अपना सुघड़ वक्षःस्थल दिखाने में भी कोई आपत्ति नहीं है।इसके लिए दो अंगुल चौड़ी पट्टिका या पीठ दिखाऊ ब्लाउज ही शिष्टाचार की निशानी है। अब जो नारी जितने अधिक कपड़े पहनती है ,वह उतनी ही बैकवर्ड समझी जाती है। ये सब कुछ अति नए ख्यालों की लात का ही परिणाम है।

            एक बात यह भी है कि नया नौ दिन पुराना सौ दिन।किन्तु अत्याधुनिकता के रंग में रंगा हुआ प्राणी नौ दिन नहीं गिनता। वह तो नित्य निरंतर नयापन चाहता है। अपनाता भी है। यही कारण है कि कोई भी नया फैशन ज्यादा दिन नहीं टिकता। यदि टिक ही गया तो कुछ दिन में ओल्ड हो जाएगा।भले हो 'ओल्ड इज गोल्ड' की कहावत कितनी दोहराई जाए ,किन्तु वर्तमान नई पीढ़ी के लिए ओल्ड कदापि गोल्ड नहीं है। उन्हें तो ओल्ड की अहमियत गोल्ड क्या मिट्टी के बराबर भी नहीं है।इसलिए आज है ,वह कल नहीं।और कल वाला परसों तरसौं नहीं। इसी सिद्धांत पर कर्ता द्वारा नारी - मष्तिष्क का निर्माण किया गया है। इसके लिए यह उदाहण पर्याप्त होगा कि अलमारी में भले ही सौ साड़ियाँ ब्लाउज पेटीकोट अथवा अन्य वस्त्राभूषण भरे पड़े हों,किन्तु जब भी कोई भी ऐसा सुअवसर आएगा ,जब उन्हें नई साड़ी आदि धारण करने हों ,तो एक ही जुमला काफ़ी है कि कैसे जाएँ ,मेरे पास तो कोई कपड़ा ही नहीं है। पति या पुरुष के सिर पर इससे बड़ी कौन सी लात होगी।यह मानो उनका दिन रात का रटा हुआ मुहावरा है।जिससे नारी समाज को कभी मुक्ति मिलने वाली नहीं है।यही नए खयालों की नई लात है।इसके सामने सदा ही पुरुष वर्ग की मात है।होती रही है और होती भी रहेगी।जो साड़ी करीना की शादी में पहनी थी ,अब वही नगीना की शादी में कैसे पहनी जा सकती है? एक बार पहनने के बाद वह रिटायर हो गई। अब फिर नई साड़ी ख़रीदवाईये, अन्यथा शादी में ले जाना कैंसिल कराइये।बेचारा पुरुष पति दसियों वर्षों से एक वही पेंट शर्ट सूट पहने जा रहा है। कभी सोचने पर भी अपने लिए एक शर्ट तक नहीं सिलवा पा रहा है। यही पुराने ख्यालातों की लात हैं। जो पुरुष पीठ पर ही करती आघात हैं।इस प्रकार एक ही छत और चार दीवारों के नीचे नए और पुराने ख्यालातों की लातों की बरसात है।आदमी बस आदमी है और सहधर्मिणी नारी जात है।

 ●शुभमस्तु ! 

 23.12.2023● 3.00प०मा०

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षड ऋतुओं की सौगातें ● [ बाल कविता ]

 557/2023

  

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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षड     ऋतुएँ   देतीं    सौगातें।

एक - एक  की सौ -  सौ बातें।।


ऋतु  वसंत   ऋतुओं  का राजा।

खिलते  सुमन  पवन भी ताजा।।


होली  के    रंग   हमें   खिलाता।

मोहक    ऋतु  वसंत  मन भाता।।


फिर  निदाघ  के  चलें    झकोरे।

सूरज  तपता    दर   पर    मोरे।।


तरबूजा     खरबूजा        लाता।

मीठा  आम      संतरा    भाता।।


चुस्की      ठंडी -  ठंडी     आती।

गर्मी    भले    न   हमें   सुहाती।।


अब  आती   ऋतुओं   की रानी।

वर्षा     प्यारी     देती      पानी।।


धरती    पर    हरियाली    छाती।

घर सड़कें  जल   मय  हो जाती।।


वर्षा  विदा  शरद    आ   जाए।

किसे  न समता आज   सुहाए।।


फिर  हेमंत   धरा   पर  आता।

ठंडक का  अनुभव करवाता।।


शरद शिशिर के बीच अनोखा।

मिलता  है इस ऋतु में धोखा।।


पूस  माघ  में  शिशिर  न भाती।

थर -  थर  जन की देह कँपाती।।


गजक  रेवड़ी    चाय   लुभाती।

मूँगफली   हमको    ललचाती।।


कंबल,    शॉल,  रजाई   प्यारे।

स्वेटर ,कोट    लुभाते    न्यारे।।


ऐसे   ही     षड ऋतुएँ   आतीं।

तरह -  तरह के   रंग  दिखातीं।।


'शुभम्'   चलें    आनंद   मनाएँ।

सभी     खूबियों   में   शुभताएँ।।


● शुभमस्तु !


23.12.2023● 11.00आ०मा०

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

राम -रस तुझे न भाया ● [ गीत ]

 556/2023


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●© शब्दकार

●  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - रस तुझे

न  भाया  मीत

कहाँ जा - जा भटका।


लाया कोरी

चादर तन की

रँगी काम  -रस रंग।

चखा न पल को

राम -कटोरा

किया रंग   में भंग।।


नौ - नौ रस का 

लोभी भँवरा

फूल -कामिनी अटका।


खाता खोला

चित्रगुप्त ने

मिला काम बस काम।

कभी भूल में

नहीं ले सका

सीतापति   का  नाम।।


गर्दभ योनि

मिली निर्णय में

धरती पर फिर पटका।


अरे !मूढ़ अब

भी भज ले तू

मिला राम  - रस पात।

बिंदु टपकते

राम -नाम के

दिन को समझ न रात।।


'शुभम्' सुन मूढ़

विचारें मन में

हुआ अब क्या खटका?


● शुभमस्तु !


22.12.2023●2.45प०मा०

राम-रंग में रँग ले मन को ● [ गीत ]

 555/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम - रंग में

रँग ले मन को

तन है नाशी -खेह।


कूकर - शूकर 

कृमि बन भूला

मानव - तन क्या लाभ?

पेड़ -लता का

रूप कभी था

कभी बना वन -डाभ।।


झूमा कुंजर 

बन जंगल का

भीगा पावस - मेह।


अंश राम का

अंशी हैं वे

जल की   नन्हीं  बूँद।

उनसे निकला

उनको भूला

रहा नयन निज मूँद।।


काया अपनी

देख मनोहर

किया  उसी  से नेह।


दस-दस घोड़े 

का रथ लेकर

यात्रा की आरम्भ।

घोड़े भागे इधर -उधर को

भरा द्वेष छल दंभ।।


टूट गया रथ

तब तक तेरा

तन  का   निःसंदेह।


● शुभमस्तु !


22.12.2023●2.00प०मा०

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राम- राम से सुरभित अगजग ● [ गीत ]

 554/2023

 

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम -राम से

सुरभित अगजग

रिक्त न कण भी एक।


अवध हृदय को

बना मूढ़ नर

देह मनुज का देश।

इड़ा -पिंगला

गंगा - यमुना

नाड़ी सुषुमन वेश।।


सरस्वती का

रूप मनोहर

बाँध टकटकी टेक।


माया मन में

नित्य बाँधती

कनक कामिनी काम।

मद मत्सर में 

डूबा तन - मन

याद न आते राम।।


दानव - दल ये

रावण -रिपु बन

देते हैं अविवेक।


मन में माला

राम- नाम की

जप ले प्रातः - शाम।

उड़ जाएगा

जिस दिन पंछी

लेगा तन विश्राम।।


साढ़े तीन 

हाथ का कुअटा

टर्राता   है   भेक।


●शुभमस्तु !


22.12.2023●1.30प०मा०

जो चाहे भव पार ● [ गीत ]

 553/2023

           

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम -नाम की

जप ले माला

जो चाहे भव -पार।


समझ नहीं तू

नर प्रभु जी को

लिया मनुज का रूप।

त्रेतायुग में

आए भू पर

पुरी  अयोध्या   भूप।।


शबरी केवट 

वानर तारे

रावण का उद्धार।


कण -कण में जो

राम रमा है 

क्षण- क्षण प्रातः -शाम।

भरत शत्रुघ्न

लखन साथ हैं

रूप ललित अभिराम।।


कौशल्या माँ

और सुमित्रा

दशरथ पिता सकार।


सीता -माता

जनक सुता का

मिला राम को साथ।

हनुमत जैसे 

सेवक प्यारे

करते जगत सनाथ।।


मर्यादा का

रूप राम जी

जानें जग उजियार।


●शुभमस्तु !


22.12.2023●1.00प०मा०

सजे राम - दरबार ● [ गीत ]

 552/2023

     

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नाम     राम का 

एक   बार   जो

ले - ले  हो उद्धार।


विरत रहा जो

राम -संग से

कैसे    बोले    राम।

बीत गया ये

जीवन सारा

याद रहा बस काम।।


आशा कैसे

 हो उस नर से

होना कर्म  सुधार।


अंत काल में

अजामील ने

उच्चारा   हरि   - नाम।

हरि ने उसको

दिया धाम निज

मिला सुफल परिणाम।।


कौन राम -सा

दाता जग में 

सर्वश्रेष्ठ    समुदार।


चलो अयोध्या

बुला रही है

प्रभु आएँगे आज

कमल नयन का

स्वागत करने

'शुभम्म' सजेगा साज।।


दानव - दल का

नाश पूर्ण हो

सजे   राम  -  दरबार।


●शुभमस्तु !


22.12.2023● 12.30 प०मा०

रामराज्य की बातें ● [ गीत ]

 551/2023

        

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रामराज्य की

बातें करना

बड़ा सुहाता आज।


पुरी अयोध्या

महिमा -मंडित

आएँगे    प्रभु    राम।

अपने घर में

पग रख शोभें

निखरे सुबहो - शाम।।


रावण सुधरें

यदि भारत के

होगा  हमको नाज।


अपने सिर पर

बाँध सेहरा

दानव    रटते   रोज।

हम हैं दशरथ

हम कौशल्या

हम हनुमत के ओज।।


आज रो रहे

निर्धन भूखे

झपट रहे हैं बाज।


आदर्शों की

मिश्री डाले

रजनीगंधा  फूल।

महक रहे हैं

राजनीति के

पीले उधर बबूल।।


राम नाम की

माला फेरें

चला न जाए ताज।


●शुभमस्तु !


22.12.2023●12.15प०मा०

मानव -धर्म ● [ कुंडलिया ]

 550/2023

                

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

मानव  धर्म  अपार  है, जिसका ओर   न  छोर।

कदम-कदम  पर  माँगता, सत्य कर्म  पुरजोर।।

सत्य   कर्म   पुरजोर, निभाना उसे न    आता।

मात्र  झूठ  का  शोर, जीभ अपनी ललचाता।।

'शुभम्'  जगत में आज, भरे हैं अगणित  दानव।

अँगुली  पर   गणनीय, बचे   हैं  थोड़े    मानव।।


                         -2-

माला    मानव -  धर्म   की,  जपता है     संसार।

हिंसारत    मानव   यहाँ , हिंसा  ही     आचार।।

हिंसा    ही    आचार,  युद्ध  के  बने   अखाड़े।

बहता   रक्त   अपार, मनुज  मानव   के  आड़े।।

रूसी    और    हमास,  अहिंसा  पर    दे   ताला।

छीन   रहे    सुख   चैन,  मुंड की डाले     माला।।


                         -3-

बातें  मानव - धर्म   की,  फैशन वाली   बात।

करता   है  ये  आदमी, तन -मन से अपघात।।

तन -  मन  से अपघात,रहे सुख से क्यों  कोई।

भाव   यही   है मूल,    बाड़  शूलों की    बोई।।

'शुभम्' न दिन को शांति,नहीं हैं सुखमय  रातें।

धूम -  धूसरित कांति,चहकती मुख की बातें।।


                         -4-

मानव   होना   देह   से, एक अलग  ही   तथ्य।

मानव - धर्म   न  हो  जहाँ, मर जाता  है  सत्य।।

मर    जाता   है   सत्य,  ढोर का प्रतियोगी    है।

खाता  भक्ष्य - अभक्ष्य ,  मात्र रसना  भोगी है।।

'शुभम्'  कर्म  का बोध ,नहीं बनता नर   दानव।

हिंसा   जन की शोध, वृथा कहना फिर  मानव।।


                         -5-

आओ   मानव -  धर्म का, कर लें कुछ  उपचार।

दानव   का  पथ  त्यागकर, बना सत्य  आधार।।

बना    सत्य   आधार,  धर्म   मानव का   जानें।

करनी   कर   साकार,  मनुज को मानव   मानें।।

'शुभम्'   पढ़ें सद्ग्रंथ,  राम का पथ   अपनाओ।

मात्र  यही    है    पंथ, मिलें हम उर   से  आओ।।


●शुभमस्तु !


22.12.2023● 10.00आ०मा०

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भिखारी ● [अतुकांतिका ]

 549/2023

              

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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वाणी नहीं

मुख भी नहीं

फिर भी है शीर्ष पर

माँगने में

सर्वोपरि

मानव का मन।


ये भी मिले

वह भी मिले

सब कुछ पा ले ,

माँगने के 

उसके हैं

सब तरीके

निराले।


होता नहीं

पाकर कुछ

तृप्त,

रहता है 

सदा - सदा

ये मन संतप्त।


इसकी 

मृगमरीचिका में

क्या कुछ नहीं

जो न चाहे,

किसी को मिले

या न मिले,

उस पर 

उसकी निगाहें।


सबसे बड़ा

भिखारी बस

एक ही है

आदमी का मन,

न इसकी देह है

न अंगों में

 विभाजन,

तथापि इसके

दस घोड़े

दसों दिशाओं में

दौड़ रहे,

मन की विचित्र 

गतियों को

'शुभम्' भला कौन कहे!


●शुभमस्तु !


22.12.2023●8.15आ०मा०

योजना● [ सोरठा ]

 548/2023

          

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बनी योजना  एक, सफल कसौटी आपकी।

कर्म  करे  सविवेक, लहराती ऊपर  ध्वजा।।

चले नहीं   संसार, बिना   योजना बद्ध  हो।

प्रसरित  जगदाकार, प्रकृति योजनाकार है।।


बना   योजना  नेक,कर्ता सबका एक    है।

करे कर्म सविवेक, ध्वंश  और निर्माण  के।।

जब चाहें  प्रभु राम, पत्र  एक हिलता  तभी।

क्या उत्तर क्या वाम,क्या है उनकी योजना।।


एक   योजना   नेक, मातु  शारदा की  बनी।

भगवत का सविवेक,'शुभम्' नाम प्रख्यात हो।।

करते  जो   सम्पन्न, बना  योजना काम  को।

मन भी रहे न खिन्न,मिले सफलता  शीघ्र  ही।।


करते हैं जो  काम, पहले   सोच - विचार   कर।

मिलता  अति आराम, सफल योजना हो तभी।।

बना   योजना   आप, दिवस ,मास या वर्ष  की।

नहीं  मिले  संताप, तदनुकूल  उस पर  चलें।।


बिगड़ें  उनके  काम, बिना  योजना  के   चलें।

नष्ट समय  सह  दाम,मनमानी अनुचित  सदा।।

चलती   है  सरकार,  बना  योजना देश    की।

बढ़ता    करोबार,   बजट  बनाते  वर्ष   का।।


करें    बुद्धि -उपयोग, बुद्धिमान मानव   सभी।

तन- मन  रहे निरोग, चलें योजना को  बना।।


●शुभमस्तु !

21.12.2023●12.30प०मा०

पूस की रात ● [ दोहा ]

 547/2023

      

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कठिन  पूस  की   रात में, शीतलहर   की  मार।

सता  रही है   देह  को, खग, पशु, जन लाचार।।


सी- सी  कर  चलती  हवा,जमती मुख की बात।

वाणी  भी  अवरुद्ध   हो, जमी पूस   की  रात।।


कुकड़ूकूँ   के  राग  में,  हुआ  शीत का   भोर।

शिशिर  पूस की  रात है, करे पवन भी   शोर।।


भले   रजाई   ओढ़कर,  सोते    हैं सब   लोग।

सजल  पूस   की रात  में,  लगा अनिद्रा    रोग।।


अगियाने   को    घेर   कर,  बैठे  चारों      ओर।

शिशिर पूस की रात का,सुखद सुहाना    भोर।।


रंग  पूस  की  रात  का, किया शीत   ने   सेत।

शीत   लहर  गाने लगी, धुन मादक   समवेत।।


लिया  बया  ने   घोंसला, बना  बेर की   डाल।

कड़ी  पूस की  रात में, जुगनू- ज्योति  जमाल।।


कष्ट  दे  रहा    शीत  में,  विरह  पूस  की  रात।

ज्वाला  बढ़ती   देह  में,  कुहरे  की   बरसात।।


बैठे   ज्वलित   अलाव  पर, होरी गोबर    आज।

सघन  पूस  की  रात  में, मन  है अति  नासाज।।


आओ आलू   भून लें,  रख अलाव की  राख।

प्रखर   पूस की  रात की,बढ़ा रही जो   शाख।।


विरहिन  बैठी  देखती,  कब आए पति     गेह।

बड़ी   पूस   की रात है ,  झर-झर झरता   मेह।।

● शुभमस्तु !


20.12.2023● 12.15प०मा०

धूप गुनगुनी ● [ दोहा ]

 546/2023

      

[ कंबल,रजाई,शीतलहर,शिशिर,गुनगुनी]

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● ©शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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               ● सब में एक  ●

कंबल  मेरा   नाम   है, बल   में हूँ   मजबूत।

मेरे   भय    से   भागते,  जाड़े   के सब   भूत।।

आई   शरद  सुहावनी, कंबल लेकर    आप।

संबल  उसका   लीजिए,हटा शीत का     शाप ।।


विदा शरद ऋतु हो गई,सुखद रजाई  -  मोह।

कौन   भला   छोड़े   यहाँ,शिशिर करे  विद्रोह।।

नरम रजाई   ओढ़कर,मिले सुखद   अहसास।

जाड़े  की  यह  भेंट है, रखना सब जन   पास।।


हिमगिरि  पर होने लगा,हिम का भीषण पात।

शीतलहर के   कोप   का,  मैदानों   में   घात।।

शीतलहर से  काँपते,खग, जन, पौधे,   ढोर।

धूप  देख  हर्षित  सभी, छत  पर नाचे    मोर।।


 किट-किट  बजते  दाँत हैं,शिशिर सताए  देह।

श्वेत कोहरा   छा   गया,  छत पर बरसे   मेह।।

शिशिर काल में  पीजिए,गर्म गुड़ भरी चाय।

शीत  खड़ा  बाहर  रहे, और न  शेष   उपाय।।


धूप   गुनगुनी  सुखद  है,करना सेवन   नित्य।

देखो    प्राची   में   उगे,   मनमोहक  आदित्य।।

मिले गुनगुनी  धूप   में, 'डी'  का   प्रत्यामीन।

मत अवसर को छोड़िए,हे नर कुशल   प्रवीन।।

              ● एक में सब  ●

शीतलहर   कंबल लिए,सुखद रजाई   साथ।

धूप गुनगुनी भी मिली, कहे शिशिर ढँक हाथ।।


● शुभमस्तु !


20.12.2023● 7.15आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

जलता एक अलाव ● [ गीत ]

 545/2023

  

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●© शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सिकुड़ ठंड में

घिरकर बैठे

जलता  एक  अलाव।


लोग आठ- दस

हुए इकट्ठे 

लकड़ी - उपले ढूंढ़।

बैठे घेरा

बना एक वे

बाँधे गमछा मूँढ़।।


आँच लगाई

तेज जल उठी

बढ़ता ताप प्रभाव।


कोई डाले 

कुरसी बैठा

कोई खड़ा जमीन।

सटकर बैठे

सब आपस में 

करते मेख व मीन।।


सुना रहा है

कोई घर की

कोई  आलू  भाव।


छाया कुहरा 

सित चादर-सा

धुँधला दिखता गाँव।

जूते मोजे

पहन सजे हैं

ग्राम्य जनों के पाँव।।


कहने में दो

बात हृदय की

करते नहीं दुराव।


● शुभमस्तु !


19.12.2023●8.00आ०मा०

सोमवार, 18 दिसंबर 2023

गधे पँजीरी खाँय ● [ व्यंग्य ]

 544/2023 


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●©व्यंग्यकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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         जब सब कुछ युग के अनुरूप चल रहा हो,तो सब कुछ ठीक-ठाक ही मानना पड़ेगा।अब यह तो नहीं कहा जा सकता कि आदमी युग के अनुरूप चल रहा है अथवा युग आदमी के अनुरूप चल रहा है। युग आदमी से है या युग से आदमी है? यह निर्णय करना एक जटिल प्रश्न है ।क्योंकि अभी तो यह भी तय करना है कि ये युग क्या है? कुल मिलाकर यह कहना चाहिए कि सब कुछ अनुकूल ही चल रहा है।'अनुकूल' के बाद 'ही' लगने से मुझे 'अनुकूल' कुछ कमजोर पड़ता प्रतीत होता है।इसलिए यही कहता हूँ कि सब कुछ अनुकूल चल रहा है। 

         इधर 'अंधाधुंध दरबार है' तो उधर 'जिसकी लाठी है ,उसी की भैंस भी है।' 'जबरा मारे और रोने भी न दे। ' ये युग की परिभाषा बन चुकी है। इसलिए आदमी युग के अनुसार ही चले और यदि ' वे नीम को आम कहें तो आम कहने' में ही भलाई है। अन्यथा होती सबके बीच तुम्हारी जग हँसाई है। 'कमजोर की लुगाई सबकी भाभी होती है',इस तथ्य से कौन अवगत नहीं है। इसलिए यदि गधे के गले में माला डाल दी जाय ,तो उसे स्वीकारने में ही तुम्हारी भलाई है।यह भी वर्तमान युग का एक रूप है।यह युग कहाँ से चलता है और कहाँ तक जाता है ,इसकी कोई तय मंजिल नहीं है।जिधर भीड़ जा रही हो ,उधर ही भेड़ बनकर चलते चले जाने में ही भलाई है।जहाँ थोड़ा -सा भी अपने दिमाग़ का प्रयोग किया ,बस वहीं तुम्हारी जान के लिए खतरा है।क्योंकि यहाँ सब जगह अंधा धुंध ही पसरा है।इसलिए अपने विवेक की आँखों पर पट्टी बाँधने में ही खैर है।क्योंकि अंधों को आँख वालों से बैर है।एक अंधे के लिए दूसरा अंधा ही अपना है, कोई भी नेत्रधारी से उसके लिए गैर है। 

         जहाँ भी जाइए,सब जगह एक ही रंग है। देखकर एक रंगीनी कोई भी नहीं दंग है। क्योंकि सबके ही हिए में एक ही चंग है।उसी की उमंग है।आज के युग का ये भी तो एक रंग है।जो भी रंग- विरोधी हुआ,उसका तो मटका होना ही भंग है। जब रंग की बात चली है तो मैं क्यों बताऊँ कि कौन-सा रंग है? जब आप एक ही रंग स्वीकारते हैं,तब तो आपको पता होगा ही आप किस रंग में रँगे हुए हैं? अपना रंग तो एक कागा भी पहचानता है और तोता भी। यदि नहीं रँगे तो अलग क्यों खड़े हुए हैं?जल्दी जल्दी रँग में रंग जाइए, वरना सबके रंग से अलग जब अपने को पाइए ,तो अलग खड़े - खड़े पछताइयए ,तरसाइये।बहुत सारे गधों के बीच एक घोड़ा अच्छा नहीं लगता,शोभित नहीं होता।बगुलों में कागा भी कुछ जमता नहीं।इसलिए युग के रंग में रंग जाइए। आप कहेंगे कि ऐसा क्यों ?क्या कोई जबरदस्ती है कि जिसमें सब रँगे हों उसी में रँग जाएँ?हमारा कोई रंग नहीं है।बताइए क्या करें? क्यों जबरन हमें किसी रंग में डुबाना चाहते हैं ?हम बेरंग ही सही। अरे !आप तो खाँम खां नाराज होने लगे। हम तो आपकी भलाई के लिए कह रहे थे।'महाजनो येन गता स पंथा:'।

         पंजीरी एक प्रसाद है। जिसे कथा के समापन पर वितरित किया जाता है। यही परम्परा है। मानव जाति अनेक परंपराओं से बाँधी हुई है। बंधना पड़ता है।मेरे कहने का यही तात्पर्य है कि पंजीरी बंट रही है, बाँटने वाले अंधे हैं।इसके बावजूद उन्हें प्रापकों की खूब पहचान है कि पंजीरी किसे देनी है किसे नहीं।जैसे एक अंधा जब रेवड़ी बाँटने लगता है तो उसे अपने परिजन के अतिरिक्त कोई अन्य दिखाई ही नहीं देता।कहने भर को वह अंधा है; लेकिन घूम- घूम कर वह रेवड़ियाँ उन्हीं को देगा जो उसके अपने हैं। बस यही हाल दरबार- ए- हाल है कि वह गधों को पंजीरी बाँटे जा रहा है। बाँटे जा रहा है। और उधर गधे भी कोई कम गधे नहीं कि वे दोनों हाथ फैलाए पंजीरी लिए जा रहे हैं। लिए जा रहे हैं।मानो पंजीरी लुटाई जा रही हो।अंधे का दरबार में पंजीरी- वितरण और अंधों द्वारा रेवड़ी -वितरण में कोई ज्यादा अन्तर नहीं है।प्रकारान्तर से एक ही बात है।

 अब सम्भवतः आपकी समझ में आ गया होगा कि युग क्या है?कहाँ है ? युग निर्माता कौन है?आम या खास आदमी क्या है? आज का आदमी कूड़े का एक ढेर मात्र ही तो है। जिधर की हवा चली ,उड़ लेता है। जिस रंग में रंगना चाहो ,रंग जाता है। किसी न किसी रंग से तो उसे बनाना ही है नाता है।उसी रंग के गीत रात - दिन गाता है। बिना रंग के बेचारा शर्माता है। उसे तो झूला झुलाया जा रहा है।उसे आम खाने हैं ,पेड़ नहीं गिनने। इसलिए उसे पता ही नहीं कि उसे चूसा जा रहा है !उसके हाथ में रेवड़ी या पंजीरी पकड़ा दी जा रही है कि लो खाओ और मस्त रहो।कभी कोई झुनझुना दे दिया जाता है कि लो बजाओ और खेलो।टूट जाए तो हमारे पास आओ और दूसरा ले लो। बस एक ही काम मत करो कि ज्यादा अक्लवंदी मत पेलो। नहीं तो समझ लो बहुत बड़ी मुसीबत झेलो। ●शुभमस्तु ! 

 18.12.2023●5.45प.मा. 

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रजाई ● [ चौपाई ]

 543/2023

               

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हुई  शरद   की सुखद  विदाई।

ऊपर    आई   गरम    रजाई।।

रंग - बिरंगे      कंबल     आए।

बढ़ा  शीत  वे     बड़े    सुहाए।।


कंबल तो बस कम बल होता।

तान रजाई जन - जन सोता।।

बालक - बूढ़े सब   नर- नारी।

ओढ़    रजाई     सोते  भारी।।


लाद   रजाई     सोता    कोई।

लगती   जैसे    ऊनी     लोई।।

है कपास   की  महिमा  न्यारी।

बनती  गरम    रजाई    प्यारी।।


धुन - धुन  रुई    तंतुवय भरता।

निर्मित  एक   रजाई    करता।।

बालक    लात   चलाते   भारी।

रुई  तोड़    कर   देते    ख्वारी।।


रुई   खोल   में   सिलवा  लेते।

टूटे    नहीं     बचा   यों    देते।।

एक   आवरण    सुंदर    प्यारा।

चढ़े   रजाई   पर    भी   न्यारा।।


गर्म    चाय    के    संग   रजाई।

लगती   है    सबको   सुखदाई।।

मूँगफली     जाड़े     की    मेवा।

तिल  की गज़क करे अति सेवा।।


छोड़     रजाई      बाहर    जाएँ।

मन  करता  उसका सुख  पाएँ।।

पर   बाहर  जाना    ही   पड़ता।

दैनिक काज   राह   में   अड़ता।।


●शूभमस्तु !


18.12.2023●9.00आ०मा०

राजनीति के रंग ● [ दोहा गीतिका ]

 542/2023

 

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप'शुभम्'

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छाई  चारों   ओर  है,   राजनीति  की   ऊल।

किंतु नहीं होती कभी,सबके हित अनुकूल।।


मुख से  कहते  है बुरी,राजनीति सब   लोग,

फिर भी  गोदी  में भरें,ज्यों गुलाब के  फूल।


राजनीति  के  संग  से, धर्म धूसरित   नित्य,

धर्मवीर  जो  भी  बने,  ओढ़ा   वही   दुकूल।


शिक्षालय  की  सीख  में, राजनीति  का  मैल,

रँगता  अपने  रंग  में,  उड़े    ज्ञान  की    धूल।


राजनीति   का   रंग  है,  जातिवाद भी   एक,

मानवता  के   बाग   में, उगने   लगे   बबूल।


राजनीति   को   चाहिए, नीति   न शिक्षाचार,

खूँटी  पर    टाँगे  हुए,  सत्पथ   श्रेष्ठ   उसूल।


दंभ,द्वेष, छल ,छद्म   का, राजनीति  है  कोष,

उलटे   ही   सब  काम हों,चुभें बाद  में  शूल।


राजनीति  चाहे  नहीं, करना देश -   विकास,

यदि  विकास  ही हो  गया,जाएँगे जन भूल।


'शुभम्'  भुलावे  में रखो,  उलझाकर   अन्यत्र,

राजनीति   का   मंत्र है, उलझें जन   आमूल।


●शुभमस्तु !

18.12.2023●7.45आ०मा०

राजनीति की ऊल ● [ सजल ]

 541/2023

 

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● समांत : ऊल

● पदांत : अपदांत।

●मात्राभार :24.

● मात्रा पतन : शून्य।

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप'शुभम्'

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छाई  चारों   ओर  है,   राजनीति  की   ऊल।

किंतु नहीं होती कभी,सबके हित अनुकूल।।


मुख से  कहते  है बुरी,राजनीति सब   लोग,

फिर भी  गोदी  में भरें,ज्यों गुलाब के  फूल।


राजनीति  के  संग  से, धर्म धूसरित   नित्य,

धर्मवीर  जो  भी  बने,  ओढ़ा   वही   दुकूल।


शिक्षालय  की  सीख  में, राजनीति  का  मैल,

रँगता  अपने  रंग  में,  उड़े    ज्ञान  की    धूल।


राजनीति   का   रंग  है,  जातिवाद भी   एक,

मानवता  के   बाग   में, उगने   लगे   बबूल।


राजनीति   को   चाहिए, नीति   न शिक्षाचार,

खूँटी  पर    टाँगे  हुए,  सत्पथ   श्रेष्ठ   उसूल।


दंभ,द्वेष, छल ,छद्म   का, राजनीति  है  कोष,

उलटे   ही   सब  काम हों,चुभें बाद  में  शूल।


राजनीति  चाहे  नहीं, करना देश -   विकास,

यदि  विकास  ही हो  गया,जाएँगे जन भूल।


'शुभम्'  भुलावे  में रखो,  उलझाकर   अन्यत्र,

राजनीति   का   मंत्र है, उलझें जन   आमूल।


●शुभमस्तु !

18.12.2023●7.45आ०मा०

मोती ● [दोहा गीतिका [

 540/2023

             

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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मुक्तावत  जीवन मिला,सीपी- सी ये   देह।

हे नर क्यों न सहेजता,खोल हृदय का गेह।।


कुंडलिनी   क्यों   सो   रही, तन के मूलाधार,

झूठे  नातों  में   रमा, कहता   जिन्हें   सनेह।


इड़ा  पिंगला   नाड़ियां, बसी सुषुम्ना  मध्य,

अमृत    बरसे  शून्य  में,नहीं  भींगता   मेह।


मोती   तेरे     पास है ,  फिर  भी उससे   दूर,

पता न कब मिल जायगी,देह एक दिन खेह।


माया - ठगिनी   ने ठगा,कौन न मानव जीव,

मुक्ता    को  चाहा  नहीं, भरा जवानी - तेह।


मानस में  मुक्ता  रखा, खोज रहा जग माँहि,

स्वाति - बिंदु खोता  रहा ,संतति के   संदेह।


'शुभम्' साधना लीन हो, जगा मुक्ति का धाम,

अपनी  ये  जगती  नहीं,समझे क्यों  अवलेह।


●शुभमस्तु !


16.12.2023● 7.15 प०मा०

शनिवार, 16 दिसंबर 2023

मोती बनाम मुक्ति ● [ आलेख ]

 539/2023 


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 ●© लेखक

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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इस असार अथवा ससार संसार- सागर में ऐसा बहुत कुछ है, जो सबके लिए नहीं है।सबके लिए सब कुछ हो भी नहीं सकता और न ही सब में सब कुछ पाने की क्षमता है न पात्रता।मोती कोई खाने की वस्तु नहीं है,किन्तु किसी के द्वारा मोती का भी भक्षण किया जाता है।सब जीव जंतु उसका भक्षण नहीं कर सकते। उसे पचा नहीं सकते। एकमात्र हंस ही वह प्राणी है,जो मोती -भक्षण की सामर्थ्य रखता है। अर्थात मोती हर साधारण के लिए नहीं है।सागर में सीपी, सीपी में स्वाती बिंदु ,एक नक्षत्र विशेष स्वाती में मेघों में स्वाती जल बिंदु का निर्माण, वह विशेष समय और परिस्थिति जब वह आसमान से गिरे और सागर स्थित सीपी के मुख में सीधे जा गिरे ;बशर्ते उस समय सीपी -मुख खुला हुआ भी हो ,तब कहीं जाकर एक मोती का सृजन होता है। यह भी तो हो सकता है कि स्वाति -बिंदु सीपी के अतिरिक्त अन्यत्र जा गिरे।सर्प के मुख में गिरने पर विष ,केले में कपूर,नीम में चन्दन बन जाए । और यदि सीपी में गिरने का संयोग बने तभी वह मोती बन सकता है। अपनी एक साखी में महात्मा कबीर ने कहा भी है : मूरख संग न कीजिए,लोहा जल न तिराइ। 

कदली,सीप,भुजंग मुख,एक बूँद तिहुँ भाइ।। 

 सीपी में मोती बन पाने का संयोग कब और कितनी बार बन पाता है, नहीं कहा जा सकता। सीपी में बने हुए इस मोती का पात्र वह हंस ही है ,जो इसे प्राप्त कर सके। हंस की वह कठोर साधना ही है,जो इसे प्राप्त करा सकती है।तात्पर्य यह है कि मोती का निर्माण और प्राप्ति दोनों ही कठोर साधनाएं हैं। मोती कौवों,टिटहरियों,बगुलों या अन्य सामान्य के लिए नहीं हैं। वह कठोर नियम संयम केवल हंसों द्वारा ही सम्भव है।

   मोती- निर्माण और प्राप्ति का यह अभिधात्मक अर्थ हुआ।मोती रूपी मुक्ता भी हर सामान्य मनुष्य के लिए नहीं है।वह मनुष्य भी हंस का प्रतीक है ,जो मुक्ता रूपी मोती को प्राप्त करता है। किसी के लिए दो वक्त की रोटी ही मोती के सदृश है। वह उसीके लिए रात- दिन एक किए रहता है। किसी के लिए उच्च पद, ऊँची कुर्सी, धन -दौलत,घर -मकान, प्रतिष्ठा ही मोती है। उनकी प्राप्ति ही उसे बहुमूल्य मुक्ता समान है।ये सभी जन न तो हंस हैं,और न उनके द्वारा प्राप्त भौतिक सुख ही मुक्ता सदृश हो सकते हैं। सुख मुक्ति का पर्याय नहीं है।सुख के जाने पर दुख आता है।किंतु मुक्तावस्था के बाद ऐसा कुछ नहीं होता कि मुक्तावस्था से पतित होना पड़े।मुक्तावस्था में एक अपरिसीम आनन्दानुभूति है ,जो कभी विषाद नहीं लाती ।इसलिए कोई भी भौतिक सुख मुक्तावस्था नहीं ला सकता। सच्चे मोती नहीं प्रदान कर सकता।

   यह संसार भौतिक सुख कामी जन के लिए ससार है तो आध्यात्मिक मुक्ति कामी साधकों के लिए असार है।कूप मंडूक के लिए सांसारिक सुख ही मोती से कम नहीं हैं। क्योंकि उसे तो अपनी उसी साढ़े तीन हाथ की कूप रूपी दुनिया में ही टर्र-टर्र करते हुए सुख सृजित करना है,सुख लूटना है, और 'सब ते भले वे मूढ़ जन, जिन्हें न व्यापै जगत गति ' के अनुसार उतने में ही मस्त रहना है। वे भला मुक्ति रूपी मोती का रसास्वादन किंवा आनंद ग्रहण करना क्या जानें!

        वास्तविक मुक्ति का मार्ग सुसाध्य नहीं है।वह दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान है।जिस पर चलने की सामर्थ्य प्रत्येक में नहीं हैं।जिस पर चलना भी कठिन और उससे गिरना भी और भी घातक सिद्ध होता है। इसलिए एक साधारण और अपात्र व्यक्ति साहस भी नहीं कर सकता।अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होने के लिए एक सतगुरु की आवश्यकता होती है।जिसका मिलना एक दुर्लभ कार्य है।यह तो उस पात्र व्यक्ति का परम सौभाग्य ही होगा कि उसे ऐसे गुरु का निर्देशन प्राप्त हो सके। 

     सत गुरु की खोज और उसके माध्यम से मुक्ति रूपी मुक्ता की प्राप्ति ही मानव जीवन की सार्थकता है।धन्य हैं वे लोग जिन्हें ऐसे सच्चे गुरु मिले हैं और उन गुरुओं ने अपने साथ - साथ अपने साधक शिष्यों का भी उद्धार करते हुए मुक्ति के मोती प्रदान किए हैं। 

 ●शुभमस्तु !

 16.12.2023●4.30 प०मा० 

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कबीर मोति नीपजें शून्य शिखर गढ़ माँहि● [ आलेख ]

 538/2023 


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 ● ©लेखक

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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            सांसारिक कार्यसिद्धि के लिए साधन की परम आवश्यकता होती है।साधनों के द्वारा तो कोई भी कार्य को पूर्णता प्रदान कर सकता है ; किन्तु बिना साधन सामग्री के भी कार्यसिद्धि यदि हो जाए,तो क्या कहना ? संसार का प्रत्येक कार्य इसकी अपेक्षा करता है। इसके विपरीत आध्यात्मिक मार्ग में चलने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि साधन हों ही। वहाँ बिना साधनों के भी कार्यसिद्धि की जा सकती है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अन्ततः वह कौन सी कार्यसिद्धि है ,जिसमें साधन अनिवार्य नहीं हैं।

         ज्ञानमार्गी काव्यधारा के निर्गुण पंथ के संत साधक महात्मा कबीर एक ऐसी ही महान विभूति हैं ,जो कहते हैं कि 

 सायर नाहीं सीप बिनु,स्वाति बूँद भी नाँहिं।

 कबीर मोती नीपजें, शून्य शिखर गढ़ माँहिं।। 

सामान्यतः मोती के निर्मित होने के लिए प्रकृति को तीन चीजों की आवश्यकता होती है।वे तीन चीजें हैं :समुद्र ,सीप और स्वाति बूँद।इन तीनों के होने के बावजूद यह अनिवार्य नहीं है कि मोती का निर्माण हो ही जाए।सम्पूर्ण साधन की पूर्ति के साथ ही यदि वह सुघड़ी,सुसमय,सुअवसर नहीं मिले तो भी सीप में मोती नहीं बन सकता

              इन तीनों वस्तुओं में प्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है :स्वाती बूँद। जिसे कृत्रिम रूप से निर्मित नहीं किया जा सकता।जब स्वाति ही नहीं होगी तो सीप में गिरेगी कैसे? स्वाती बिंदु के निर्माण के लिए भी विशेष मुहूर्त भी परमावश्यक है ; वह नक्षत्र विशेष भी अनिवार्य है ; जब मेघ मंडल के मध्य उसका निर्माण हो!मान लीजिए यह सब परिस्थिति भी पूर्ण हो गई।अब प्रश्न है कि वह आवश्यक स्वाती बूँद जब निकले तो किस स्थान ,वस्तु ,नदी,सागर, सर्प मुख, चन्दन, नींम वृक्ष,कदली वृक्ष आदि में से कहाँ जाकर गिरे कि मोती बन जाए! वह नदी के जल में गिरकर पानी में विलीन हो सकती है।सागर जल में गिर कर अकारथ हो सकती है।सर्प - फन में गिरकर जहर भी बन सकती है। नीम में गिरकर चंदन और कदली वृक्ष में जाकर सुगंधित कर्पूर का रूप धारण कर सकती है।किंतु जब तक सीपी का मुख न खुले और उसी क्षण वह उसमें न गिरे तो मोती कैसे बन सकती है? सारी परिस्थितियाँ अनुकूल होनी चाहिए एक मोती बनने के लिए।इससे यह स्पष्ट हुआ कि साधन की अनिवार्यता के साथ -साथ सही परिस्थिति और सुसमय ही प्रधान है। तब कहीं जाकर एक सीपी में किसी मोती का निर्माण हो सकता है। 

               इस दोहे में महात्मा कबीर का संकेत और संदेश उस मुक्ति या मोक्ष रूपी मोती से है ,जिसे पाकर एक साधक संसार - सागर में रहते हुए मुक्ति प्राप्त कर सकता है। सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण तथ्य की बात यह है कि मुक्ति रूपी मोती भी प्राप्त हो जाए और कोई साधन की उपलब्धता नहीं हो। मोती भी ऐसा जो शून्य शिखर पर उत्पन्न होता हो। शून्य में ? वह भी मोती की उत्पत्ति ? एक विरोधाभास ,एक उलटबासी जैसी स्थिति! एक विचित्रता !एक विलक्षणता ! 

          ज्ञान की साधना ही वह मार्ग है ,जिसके लिए 

 'जप माला छापा तिलक ,सरै न एकौ काम।

मन  काँचे  नाचे   वृथा ,साँचे    राँचे राम।।"

 प्रभु की सच्ची आराधना के लिए किसी जप की आवश्यकता नहीं है। कंठी - माला भी नहीं चाहिए। देह के विभिन्न अंगों पर छापा लगाने अथवा ललाट पर तिलक त्रिपुंड लगाना भी अनावश्यक है। होना तो बस एक ही चाहिए कि मन पक्का हो। वहाँ कच्चापन न हो। वहाँ शक सुबहा न हो। 

           कबीर साहित्य में कबीर का चिंतन आध्यात्मिक होते हुए भी मानवतावादी है।मनुष्य मात्र के हित चिंतन का बोधक है। एक ओर कबीर जहाँ समाज सुधार के लिए मनुष्य के संकीर्ण भेदभाव, छुआछूत ,ऊँच- नीच का विरोध करते हुए हुए उसे डाँटते फटकारते हैं , वहीं वे उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए प्रबोधन करते हैं : 

पाथर पूजे हरि मिलें,तौ मैं लूँ पूजि पहार। 

याते तो चाकी भली,पिसा खाय संसार।।

 हिन्दू मुसलमान दोनों को सही मार्ग पर लाने के लिए कबीर ने कोई कमी नहीं छोड़ी है :

  अरे इन दोऊ राह न पाई। 

हिंदुन की हिन्दुआई देखी,तुर्कन की तुरकाई।

 हिन्दू अपनी करें बड़ाई ,गागर छुअन न देई।। 

वेश्या के पामन तर सोवें, यह देखो हिन्दुआई।

 मुसलमान के पीर औलिया,मुर्गा मुर्गी खाई।। 

 जब तक मन पक्का न हो तब तक माला फेरने का भी कोई औचित्य नहीं है । वे कहते हैं : 

माला फेरत जग मुआ,गया न मन का फेर। 

कर का मनका डारि के, मन का मनका फेरि।।

 मुसलमानों को फटकारते हुए कबीर ने कहा:

 कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय। \

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।। 

 जीव हिंसा के विरोध में कबीर वाणी कहती है : 

 दिन में रोजा रखत हैं,रात हनत हैं गाय। 

यह तौ खून वह बंदगी, कैसे खुशी खुदाय।। 

 कबीर का मानवतावादी चिंतन उनके साहित्य में सर्वत्र बिखरा हुआ है। उन्होंने कहा -

 एके बूँद एकै मल मूतर। 

एक चाम एक गूदर।। 

एक जोति से सब जग उपजा, 

को बाँभन को सूदर।। 

               कबीर का चिंतन न केवल कबीर के युग में वरन आज भी उतना ही प्रासंगिक और अनुकरणीय है। आज का समय और प्राचीन कबीर युग के सामाजिक परिवेश में कोई विशेष अंतर नहीं है। इसलिये आज भी कबीर की आवश्यकता उतनी ही है ,जितनी कबीर काल में रही होगी।कबीर की मान्यता आज भी सर्व स्वीकार्य नहीं है ,न तब थी। क्योंकि कबीर का चिंतन पक्षपात पूर्ण नहीं है। उन्होंने गलत को गलत कहा और सही को सही। आम जन किसी बात को तभी सही कहता है ,जब बात उसके पक्ष की कही जाए। कबीर जैसा व्यक्ति क्यों किसी पक्ष की बात करे? उसे आम जन समाज से मत इकट्ठे नहीं करने। उसे वोट लेकर ऊँची कुर्सी नहीं हथियानी ,जो किसी के पक्ष का समर्थन करे! कबीर स्वतंत्र चिंतन के साधक हैं। वह साधना पथ में चल कर बिना सीपी, सागर ,स्वाती के मोक्ष रूपी पैदा करने की योग्यता के वाहक हैं। वह निराकार पर ब्रह्म के सच्चे साधक हैं। वे शून्य में ही मोती उपजाने की कूव्वत रखते हैं। सुप्तावस्था में मूलाधार में पड़ी हुई कुँडलिनी के लिए माला ,तिलक,छाप,आसन,मंदिर, मस्जिद आदि किसी साधन सामग्री की उन्हें आवश्यकता नहीं है।उनका मुक्ति रूपी मोती सुषुम्ना शिखर पर शून्य में ही अमृत प्रसवित करता है। कबीर चिंतन का यही सार है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 16.12.2023● 11.30आ०मा० 

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...