शनिवार, 30 नवंबर 2019

शपथ सुनहरी स्वर्ण -सी [ दोहे ]


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'खा'  'पी'  'ली'  सौगंध  हम,
गई        उदर    की    माँद।
गुड़ गुड़   का   होता   नहीं ,
अब    तो   कोई   नाद।।1।।

सौ गंधों    में      एक   भी ,
गई   न    अपनी      नाक।
कैसे   हो    निर्वाह     फिर,
दी      दामोदर    ढाँक।।2।।

सात   भँवर     के  बीच  में,
फँसी      हुई        है   नाव।
सात   वचन  की शपथ का,
कहाँ     बचेगा     चाव।।3।।

खर्च     करोड़ों    का  हुआ ,
एक    शपथ      के      हेत।
तीन मिनट   की   शपथ का ,
उजड़  रहा  नित  खेत।।4।।

रस्म    अदा    से   पूर्व   तो,
रस     था    घन  -   बौछार।
कसम - रस्म   जब  हो  गई ,
वचन  हुए   सब   छार।।5।।

मात्र      लकीरें        पीटने -
का     होता     क्या   अर्थ !
करना  है  प्रण  पूर्ण  निज ,
पूरा   मन     का   स्वार्थ।।6।

शपथ   सुनहरी  स्वर्ण -  सी,
कठिन     बहुत       निर्वाह।
सस्ती  लगती   लवण -  सी,
वाह ! वाह !!  की चाह।।7।।

भँवर    भाँवरों    के     लगे,
उथले        पहले       सात।
नानी   आई     याद     तब,
चला खेल शह  -  मात।।8।।

शपथों  से    जीवन    चले ,
नहीं       चलेगा        देश।
वसन    धार  लो    बगबगे,
बदलो    कोई     वेश।।9।।

शपथों    का   फैशन  चला ,
यहाँ         वहाँ       सौगंध।
जली   पराली     खेत     में, 
फैल     रही     दुर्गंध।।10।।

आओ           भारतवासियो,
लिए         बिना       सौगंध।
फैला      दें    सर्वत्र       सद,
'शुभम' विमल सौ गंध।11।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

30.11.2019◆12.30 अपराह्न।

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

जीवन का संगीत [ गीत ]


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वह  मेरा   मनमीत  बन  गया।
जीवन     का संगीत बन गया।।

जीवन  की   राहें    पथरीली।
उबड़ -  खाबड़  और कँटीली।।
उनको  दर्द  पुनीत  बन गया।
जीवन     संगीत  बन  गया।।

अपना  जैसा  सबको  माना।
हृदय दे दिया  अपना जाना।।
वह  मेरी   हर जीत  बन गया।
जीवन का संगीत  बन गया।।

मैंने      फूल   महकते     देखे।
पंछी    बाग   चहकते   देखे।।
प्रेम - राग   नवनीत बन  गया।
जीवन     का संगीत बन गया।।

मुझको  ठगने को सब फिरते।
विपदाओं    के  बादल घिरते।।
मेघ   गर्जना   गीत  बन  गया।
जीवन   का  संगीत बन गया।।

पेड़ों    पर    जब फल लद आए।
सबने     अपने   शीश   झुकाए।।
 'शुभम'  मंजु मनमीत बन गया।
जीवन   का    संगीत   बन गया।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦚 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'

28.11.2019★8.45 पूर्वाह्न।

झुनझुने [ अतुकान्तिका ]




एक शाख
और गिरी,
कहते थे 
पहले से ही सब
बुरी -बुरी,
सियासत को
रपटीले पेड़ - सी।

ऐसा भी क्या
तिकड़में छद्म,
बिना सोचे समझे
आगे बढ़ाना
अपने कदम,
सफल होते  नहीं
सब कहीं,
अंधी भूख 
सत्ता की,
खोकर निज विवेक,
कहीं तो 
बन जा नेक,
पर संतोष नहीं।

वैसे भी
सियासत में
सत नहीं
सुगति नहीं,
बात सब 
मन माने की
मनमानी की,
छद्म बयानी की,
जाना पूरब
तो बताना पश्चिम,
फहराना सदा 
झूठ का परचम,
सियासत की
यही असल कहानी रही।

देशसेवा के 
नाम पर,
भर ही लेना है,
अपना घर,
न इधर 
न उधर,
बेटे - बेटियाँ
यहीं पूरा भारत,
भले ही हो
दशा 
देश की गारत,
उद्घाटन
मुहूर्त 
भाषण आश्वासन,
घड़ियाली आँसू,
भाषण  धाँसू,
मात्र स्वार्थ,
आमजन के वास्ते
सब अकारथ !
जनता बिलखती
बिलबिलाती
चीखती चिल्लाती रही।

हो ही गया,
'गर देश का उद्धार,
कौन पूछेगा
जाएगा
राजनेता के द्वार,
सरकती हुई 
शनैः शनैः  सर कार,
लुभाते बहकाते
बहलाते रहो,
देकर झुनझुने,
बजाते  बजवाते रहो,
खोखले   वादों
 नारों  की
सदा  बहार रही,
 'शुभम' यह  बात 
यों  ही  न  कही ।।

💐 शुभमस्तु !.
✍रचयिता ©
⛱ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

28.11.2019 ◆10.30 पूर्वाह्न।

बुधवार, 27 नवंबर 2019

ग़ज़ल


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  काफ़िया - आ
  रदीफ़ - गया।
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मैं   कहाँ    से   था चला कहाँ आ गया।
तूफ़ान  से   रास्ता  मेरा   टकरा  गया।

टुकड़े  -  टुकड़े  जी   रहा  था  ज़िन्दगी
वक़्ते -  आख़िर   ही   ज़माना  भा गया।

रोज      सूरज      कर    रहा   है रौशनी,
ज़िंदगी       में    क्यों   अँधेरा  छा गया।

बेमुरब्बत      है       फ़रिश्ता   मौत का,
जाने   कितने   आसमां   वो  खा गया।

मैंने    समझा   था     जिसे   अपना यहाँ,
वक्त       पड़ने     पे    मुझे   तड़पा गया।

देख दुनियाँ का  चालो- चलन ऐ  'शुभम',
सोचता    हूँ     समय     कैसा आ   गया!

💐शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

26.11.2019●5.15अपराह्न।

ब्रज -बाँसुरी [ सवैया ]


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आजु         चलौ        वृषभान   लली,
जमुना      तट पै मिलें श्याम हमारे।
धेनु          चरावत    बंशी  बजावत,
हँसि       बतरावत   कान्ह   हमारे।।
खात     लुटावत     दधि माखन कूँ,
जौ     मिलि      जावहिं  प्रान हमारे।
धन्य       तौ  होय 'शुभम'  मम जीव,
जिनगी  भई  छार  श्याम बिना रे।।1।।

बंशी        बजी      ब्रजनारि     सजी,
जोहत       बाट       खड़े    नंदलाला।
शाल    दुशाल      हु     धारि   चली,
दौरत    गैल    में    जू     ब्रजबाला।।
सासु          कूँ     बात     बताई  नहीं,
पग     साधि चली मग  में मधुबाला ।
हाँफति     -    हाँफति        जाइ   रही,
 संग  रास  रचावत   है  नंद लाला।।2।।

बासन          माँजत        टेर   सुनी,
धोए      बिनु      हाथनु  दौरि चली।
एक  डोल औ'  डोरि    तजी  कुअटा,
एक    झाड़ु    बुहारति   गोरी चली।।
एक     फेरत   छाछ    चली  तजि कें,
एक      दूध     दुहावति    छोरी चली।
रास     की   आस  में   गोपी 'शुभम',
पग    धूरि   उड़ावति   भोरी चली।।3।।

घनश्याम      खड़े     मग   रोकि रहे,
मति       जाउ    दही    बेचन  गोरी।
अपने         घर में   सिग   खाउ दही,
पय   छाछ   पीऔ   ब्रज  की भोरी।।
तुमकों       समझावत     हैं कितनों,
समझौ      समझौ     बतियाँ   मोरी। 
दधि      खाउ   तौ  अंग   लगै तुम्हरे,
चल     खेलेंगे     बागन     में  होरी।।4।

आजु    जाय      जसोदा   सों बात करें,
पथ           रोकत  है  तुम्हरो  लाला।
गोरस             खात     लुटात     सबै,
अति       रोस   भरी   ब्रज   की बाला।।
झट       पेड़     पे   जाइ   चढ़े कान्हा,
सँग       लेइ    बुलाइ    सबै  ग्वाला।
कर       जोरि     शिकायत   गोपि करें,
बड़ौ   ढीठ   भयौ    जू नन्द  लाला।।5।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

24.11.2019◆8.35 अपराह्न।

कुकड़ कूँ गाता [बाल गीत ]


  ♾★★♾★★♾★★
सुबह    हुई तो  बाँग लगाता।
मुर्गा  गीत  कुकड़ कूँ गाता।।

कहता   हमसे  जागो  प्यारे।
आलस   छोड़ो सुबह सकारे।।
अपने    साथ प्रभाती  लाता।
मुर्गा  गीत  कुकड़ कूँ गाता।।

कलगी लाल  शीश पर डोले।
मस्त चाल चलकर नित बोले।
उसका  गाना   हमें    सुहाता।
मुर्गा गीत  कुकड़  कूँ  गाता।।

मुर्गी कहती  'क्यों उठ जाते ।
इतनी  जल्दी  हमें  जगाते।।'
मन  ही मन  मुर्गा  मुस्काता।
मुर्गा गीत  कुकड़  कूँ गाता।।

'ब्रह्म   मुहूरत   में  जो  जागें।
अपने आप   बुरे दिन भागें।।'
मुर्गी   को  मुर्गा   समझाता।
मुर्गा  गीत कुकड़  कूँ गाता।।

'तुम जाओ  दो  अपने  अंडे।
दिन  हो   कोई   संडे   मंडे।।
मुझे  ज्ञान  नहिं  तेरा  भाता।'
मुर्गा गीत कुकड़  कूँ  गाता।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
⛲ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

23.11.2019◆7.50 अपराह्न।

ग़ज़ल


वायदों      से  वतन  नहीं  चलता।
भाषणों से  सुमन नहीं खिलता।।

कितने     कौवे  बने यहाँ कोयल,
वेश ही   तो  सब   कहीं  छलता।

आँधियाँ   ग़म की हों या तूफान  हों,
सरहदों      से    जवां  नहीं टलता।

देश     के     भक्त  हैं  किसान सभी,
जिन्हें  सेवा  का फल  नहीं  मिलता।

गदहों  को  बंट  रही पंजीरी 'शुभम',
कामगारों       का   वश  नहीं चलता।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.11.2019 ★1.50अप.

शनिवार, 23 नवंबर 2019

सुनो सजन [ दोहे ]


♾◆◆♾◆◆♾◆◆♾
जली       पराली    खेत    में,
धुआँ  उठा      सब     देश।
सुनो     सजन    धारण  करो,
नेताजी          का    वेश।।1।।

जनता     की    गाली   सुनो ,
या       कर    उचित   उपाय।
बीमारी        तुम     बो     रहे,
मची       हाय  ही    हाय।।2।।

मत    की      ख़ातिर   मंद  हैं,
नेताजी           के        बोल।
अन्य        दलों    पर    लीपते,
जहर    मिला   रस    घोल।।3।।

आरोपों            की      रेवड़ी ,
बंटती          चारों       ओर।
ख़ुद    को     दूध   धुला  कहें,
चोर       मचाए       शोर।।4।।

हर        मुद्दे     पर    कीचड़ें ,
बिखराते          हैं        लोग।
रोग  -   शमन     करते  नहीं,
बढ़ा     रहे      नित    रोग।।5।।

राजनीति         के     रंग   से,
धुआँ       हो    रहा     काक।
दूर      जमालो      जा   खड़ी,
जली      पराली    खाक।।6।।

यहाँ    आग   लपटें    वहाँ,
घुसी      नाक  मूँ    खाक।
टी वी  पर   बहसें    छिड़ीं,
रहे    ढाक  के  ढाक।।7।।

सत्ता       को   मत   दोष  दें,
दोषी        मात्र        किसान।
ना    मानो     तो    देख    लो,
काले    राख  - निशान।।8।।

खिसियानी        बिल्ली    कहे,
चल         कुत्ते     हट      दूर।
दाग       लगा    मत   वेश   में,
  हम      शासन    के     शूर।।9।।

जनता     झेले    रात    दिन,
उसकी      नहीं       बिसात।
कीचड़      वही     उछालते,
दस सिर कर भी सात।।10।।

ले -   ले    अपनी      ढपलियाँ,
बजा     रहे      हैं         लोग।
'शुभम '   लेखनी    घिस रहा,
काव्य -  साधना -   योग।।11।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.11.2019◆9.45अप.

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

सुबह सुरमई [ सायली ]


प्यार 
जल रहा
नफ़रत धुंधिआती आई
अंधी हुई 
दिशाएँ।

अपने
पैरों में 
मार कुल्हाड़ी चुप
हैं सभी 
सुधारक।

जला
पराली खेत 
कृषक खड़ा है
देख लपटें
निश्चिंत।

पूरा
होता स्वार्थ
नहीं कोई परमार्थ
वाह रे !
अन्नदाता।

धुआँ 
फैला टी वी
अखबारों में भारी
देते रहो
गाली।

कहें 
क्या वे
मतलब मत से
हो कितनी
दुर्गति।

फ़ुहारें
सांत्वना की
देना बहुत ज़रूरी
बनाएं क्यों
दूरी !

आय
डॉक्टरों की
बढ़ाना मजबूरी अपनी
माँग सबकी 
पूरी।

रखना
खुश इनको
उनको सबको पूरा
गले  भुकता
छुरा।

सियासत
घुस गई
पराली धूम सघन
वे निश्चिंत
प्रमन।

सुबह 
सुरमई धुंधली
सुनहरी नहीं ताजी
सब कहीं 
धुआँ।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.11.2019★4.00अप.

ग़ज़ल



आश्वासनों   से ये देश नहीं चलता।
भाषणों    से  संन्देश नहीं फलता।।

कितने     कौवे   ये   मरालवेशी  हैं,
ये   वेश     ही तो  हर  कहीं छलता।

आँधियों     में   भी शमा नहीं हिलती,
डटा    सरहद   पे   जवां नहीं टलता।

देश   के  भक्त हैं कृषक जवान सभी,
जिन्हें  करनी का सुफल नहीं मिलता।

गदहों  को पंजीरी बंट  रही है 'शुभम',
कामगारों  का कोई वश नहीं चलता।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.11.2019 ★1.50अप.

ग़ज़ल


अपने   को  दें  ख़ुद  शाबाशी।
हम   हैं   ऐसे   भारतवासी।।

नक़ली  को  असली कर देते,
कला  दिखाएं इतनी  खासी।।

अपनी    पीठ  आप ही  ठोंकें,
नहीं  शिकन है  नहीं उदासी।।

कैसे    भी   हो   हमें  चाहिए,
हम  हैं  दौलत  के अभिलाषी।

पैसा   ही  माँ - बाप   हमारा,
जैसे    भी   पाएँ   धनराशी।।

पैसे   की मख़मल   से ढँकता,
करता    चाहे   जेब  तराशी।।

'शुभम'   आज ऊँची कुर्सी पर,
गली -मुहल्ले जिनकी हाँसी।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.11.2019★1.00अप.

सर्वे भवन्तु सुखिनः [ व्यंग्य ]

                 हम तो चाहते ही यही हैं कि सब सुखी हों, सानन्द ,स्वस्थ और समृद्धिशाली हों। चाहे वे पराली जलाने वाले हों या डॉक्टर हों अथवा जनता - जनार्दन हों। क्योंकि वे सभी अपने ही तो हैं। सबसे हमें काम है। यदि वे नाराज हो गए तो हम कहीं के भी नहीं रहेंगे।

                  हम बहुत ही दूरदर्शी हैं। पारदर्शी हैं। न्यायप्रिय हैं। जनप्रिय हैं। किसी को दुःखी कैसे देख सकते हैं भला। यही तो है हमारी असली कला। यह तो आप अच्छी तरह से जानते ही हैं कि कहीं आँख बचाकर , कहीं कान से बहरा बनकर हमें आगे बढ़ना पड़ता है। पर जानते समझते हम सब हैं। आप हमें इतना बुद्धु भी न समझ लीजिए। इतना तो हमारा यकीन कीजिए कि हम आपके बहुत बड़े शुभचिंतक हैं। क्या करें यही तो हमारा असली फ़र्ज़ है! हम सच्चे देश सेवक हैं। वह भी जनप्रिय देशसेवक!! 

               जब प्यार (पराली) जलता है। तो उसकी तीव्र चिरायंध से हमारा भी कुछ -कुछ जलता है। पर आप तो जानते भी  हैं कि वोटतंत्र में सब चलता है। सब तरह चलता है। भले ही कुछ लोगों को बहुत -बहुत खलता है, पर किया जाए तो क्या ? हमें तो इधर भी देखना है ,उधर भी देखना है। कुछ ऐसे भी हैं ,जिनको हमे देख लेना है। फिर भी हम चाहते हैं कि सब सुखी हों।

                     सुख की चाहना किसको नहीं है। सबको ही है। एक सुअर भी सुख-प्राप्ति की लालसा में कीचड़ में किल्लोल करता है। उस समय वह स्वर्गानन्द का परम् आनन्द का सुखानुभव ही करता है। वह उस वक्त न किसी से डरता है और न ही कोई विघ्न बर्दास्त करता है। इसी प्रकार हर मानव की सुखानुभूति के विविध इन्द्रधनुषी रूप हैं। सब अपने -अपने राग -रंग में अपने साम्रज्य के भूप हैं। दादुर के लिए अखिल ब्रह्मांड पानी भरे गहरे कूप हैं।मच्छरों के वास्ते नालियों के गदले ग़ज़बजाते यूप हैं। अपनी- अपनी सबकी सीमा है। सबके सुख का अलग - अलग बीमा है। कोई तेज है , तो कोई बहुत धीमा है। हम सबको सुख बांटते हैं। यह बात कुछ अलग है कि मलाई भी हमीं चाटते हैं।

             हम अपनी संस्कृति के मूलमंत्र 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' के पावन उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन भी लगाते हैं और बिना ही कोई अवकाश लिए हुए ही झंडे के कफ़न की अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए सुख बांटते रहते हैं। अपने जीवनानुभव का भरपूर उपयोग सर्वजन हिताय सर्व जन सुखाय करते रहते हैं। वास्तव में हम ही तो सच्चे देशभक्त हैं ।स्वघोषित राष्ट्रभक्त हैं। कोई माने या न माने। जो जितना जाने ,उतना माने। जो न जाने , वह भला क्या माने? उसे क्या समझाने? सब अपनी -अपनी खींचे - ताने। पर हम तो समर्पित ही हैं रात-दिन सुख को बंटवाने।हमारा मूलमंत्र है: सर्वे भवन्तु सुखिनः।। 
 💐शुभमस्तु ! 
 ✍लेखक © 🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
 21.11.2019◆8.25 अप.





गुरुवार, 21 नवंबर 2019

ढाक के पत्ते तीन! [ अतुकान्तिका ]


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साँझ सुरमई
भोर सुनहरी 
त ब होती थीं,
अम्बर
 सकल दिशाएँ
सुख पल -पल
 बोती थीं ,
अब तो 
काला धुआँ
घेर ले रहा
दिशाएँ,
किसको दें दोष,
प्रशासन 
या किसान को,
या अपने 
भारत महान को!!

स्वार्थ लिप्तता का
घेरा भी
बड़ा भयंकर,
दम घुटता 
जन -जन का,
बढ़ते रोग प्रलयंकर,
क्या है 
यह कोई पूर्वाभ्यास,
भविष्यत के हमलों का,
मुरझाए 
गमलों के पौधों का
मरते जन -जन का?

घर से बाहर
कर्मक्षेत्र में
जाना दूभर,
घर पर रहना
हुआ कठिनतर,
पानी निकला
सिर के ऊपर,
पहले से ही
'सुखद -सियासत'
फैलाती थी
महक मलयवत,
अब तो 
सब चुप,
मौन साधकर
अखबारी बयान
देते हैं,
मीठी बातों से
जन -जन का
दुःख हर लेते हैं,
आँखों के आँसू में
रस भरते हैं,
भले लोग
बीमारी से
पल -पल मरते हैं।

जब जलता है 
प्यार,
पराली चाहे कह लो,
क्या बचना है?
राष्ट्रभक्ति की
ये कैसी 
संरचना है?
धूम -अश्रु के
विकट प्रदूषण से
मेरे महान 
भारत का 
ये कैसा
 स्वर्णिम सपना है?
बिना विचारे
जो मन आए
सब करना है!
जो बोले 
विपरीत 
सत्य किसी के
खटिया उसकी
पड़ी हुई है,
 खड़ी करना है।

प्यार जला
धुआँ निकला
कड़वा ज़हरीला
गीला नीला
विकट हठीला,
साँसों द्वारा
आँख नाक आनन में
घुसकर
बना गन्दीला,
इधर भी हीला
उधर भी हीला,
समाधान 
वही बस एक
ढाक के पत्ते तीन,
प्रदूषण - संक्रमण
महा मलीन, 
रहा जीव -जन के
प्राणों को 
छिन -छिन छीन,
नहीं मानते तो
निकलो बाहर
कर लो यक़ीन।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

21.11.2019●6.00अप.

भारतभूमि के नवगीत गाएँ [ गीत ]


♾◆◆♾◆◆♾◆◆♾
आओ  भारतभूमि के नवगीत गाएँ।
प्रीत पाएँ प्रीत की शुभ रीत लाएँ।।

देह  मानव की मिली हित कर्म कर लें।
देह    के    अनुरूप जीवें धर्म धर लें।।
स्वार्थ      की   पगडंडियों से दूर जाएँ।
आओ     भारतभूमि के नवगीत गाएँ।।

सिंह      है    वनराज पर हिंसक बना है।
तू मनुज होकर मृतक सा क्यों  तना है?? 
वृक्ष   पर  जब फल लगें वे सिर झुकाएँ।
आओ       भारतभूमि के नवगीत गाएँ।।

प्रकृति   की   हर   मूकता नवज्ञान देती।
मनुज   की  वाचालता अभिमान सेती।।
निर्बलों     की    मदद में हम पग बढ़ाएं।
आओ    भारतभूमि   के नवगीत गाएँ।।

अपना  पड़ौसी देखकर क्यों जल रहे हो?
आँच उपले की सदृश जल बल रहे हो ।।
उसके  सदृश आगे बढ़ें फिर मुस्कराएं।
आओ   भारतभूमि   के नवगीत गाएँ।।

देश   की    थाती   संभालें    है तुम्हारी।
बह रही    है गंगजल  की अमृत धारी। ।
स्नात कर तन मन सकल निर्मल बनाएं।
आओ     भारतभूमि    के नवगीत गाएँ।।


यौनि   भोगों  की नहीं नर कर्म कर ले।
पुण्य    कर्मों   से घड़ा आकंठ भर ले।।
चर्म        का   ये आवरण पावन बनाएं।
आओ   भारतभूमि के नवगीत    गाएँ।।


प्यार, ममता, दया,   करुणा को बढ़ाकर।
बंधुता   का      शीश   वंदन में चढ़ा कर।।
'शुभम ' सत निज वचन से अपना बनाएं।
आओ      भारतभूमि     के नवगीतगाएँ।।


💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

20.11.2019★8.45 अप.

अच्छी रजाई [ बालगीत ]


♾★★♾★★♾★★♾

अच्छी     लगती  बहुत रजाई।
देती  है    हमको    गरमाई।।

शीतकाल   की ऋतु जब आती
धूप  गुनगुनी   हमें   सुहाती।।
सब     कहते   हैं   सर्दी   आई।
अच्छी     लगती  बहुत रजाई।।

कोहरा  धुआँ -धुआँ सा छाया।
ज्यों  तूफान  रुई  का  आया।।
दिखे  न  गड्ढा   गहरी   खाई।
अच्छी   लगती   बहुत  रजाई।।

हमने  पहने   स्वेटर   जरसी।
ओस    बूँद बन नभ से बरसी।।
घुसीं    रजाई     दादी    ताई।
अच्छी   लगती  बहुत रजाई।।

विद्यालय    में    खेलें   खेल।
छुकछुक  चलती अपनी रेल।।
फिर   भी  ठंड  सताती  भाई।
अच्छी   लगती   बहुत रजाई।।

गज़क     सिंघाड़े  भी  हैं आए।
मूँगफली  भी  मन  ललचाए।।
भाती  मन  को  दूध - मलाई।
अच्छी    लगती  बहुत रजाई।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

19.11.2019 ★ 6.30अप.

आए हम बिना नहाए [ कुण्डलिया ]


♾♾♾♾♾♾♾
झंडा     गाड़ा     शीत    ने ,
थर  -   थर    काँपे     गात।
शब्द  निकलते  तुहिन -  से,
जम      जाती     हर  बात।।
जम      जाती     हर     बात,
कान     तक    कैसे   जाए?
जड़ता            लेती        घेर,
नारि  -     सी  वह   शरमाए।।
कोई         लेता          धूप ,
जलाता       कोई       कंडा।
'शुभम '       फहरता       खूब ,
धरा  पर  शीतल  झंडा।।1।।

गाढ़ा   -    गाढ़ा       कोहरा,
जैसे        उड़े          कपास।
नज़र   न    आए   पास भी ,
सूरज          हुआ      उदास।।
सूरज        हुआ        उदास,
धूप      की      कैसी  आशा !
शीत     -      लहर     उद्दाम ,
फेंकती   अपना       पाशा।।
गौरेया         निज        नीड़,
न     छोड़े    बकरी    बाड़ा।
श्वेत     कुहर      की     धूम ,
उड़  र हा  गाढ़ा - गाढ़ा।।2।।

गेंदा       महका      बाग   में,
क्यारी      खिला     गुलाब।
चमके    मोती     पात     पर,
जो   है     निर्मल      आब।।
जो      है      निर्मल      आब,
शरद    में  डाल  -  डाल पर।
कलरव          करते      कीर,
नाचते  पग   उछाल   कर।।
गुनगुन        करती     धार,
पात्र   का     शीतल    पेंदा।
'शुभम '       झूमता     माल,
महकता   महमह  गेंदा।।3।।

साग    चने    का    शीत  में,
सौंधा           सरसों -   साग।
खा    पाता   है    नर    वही ,
जिसका है   शुभ    भाग।।
जिसका  है    शुभ    भाग ,
बाजरे    की      सद  रोटी।
गरम  -   गरम    भा  जाय,
भले     छोटी   या  मोटी।।
बथुआ      के      बड़  ठाठ ,
भाग   है  'शुभम'  बने  का।
होता         सुधा       समान ,
शीत   में साग  चने का।।4।।

कौन       नहाए    शीत   में ,
साहस    की      है     बात।
कम्बल  शॉल  लिहाफ़ तज,
शीतल जल    न    सुहात।।
शीतल    जल   न   सुहात,
सेज   पर  गरम     परांठा।
गर्म      पेय     के      साथ ,
दूर     जाड़े      का  काँटा।।
कोई      जान     न     पाय,
किसी को  क्यों   बतलाए?
'शुभम '  आ    गए    आज,
मित्र  हम  बिना नहाए।।5।।

💐शुभमस्तु  !
✍ रचयिता ©
🦚 डॉ .भगवत स्वरूप 'शुभम '

20नव.2019◆4.00पूर्वाह्न।

गदह -पचीसी [ दोहे ]


♾◆◆♾◆◆♾◆◆♾
गदह -    पचीसी   लग   गई,
चलो    सँभल   कर  चाल।
डगमग -  डगमग  जो चले,
हो     जाए     बेहाल ।।1।।

गदह -     पचीसी   कह रही ,
मूरख         सब     संसार।
मैं        ज्ञानी   सबसे   बड़ा ,
चढ़ा  बुद्धि  का  ज्वार।।2।।

सींग  निकलने   जब   लगे,
वृषभ         बड़ा       बेचैन।
दीवारों       से   भिड़    गया,
उठा    मुंड   चल  नैन ।।3।।

गदहा        घोड़े     से   कहे,
तू          मूरख       अज्ञान।
तू    क्या  जाने  जगत   को,
मैं  ही    श्रेष्ठ  महान  ।।4।।

गदह  -   पचीसी   में  करें ,
उलटे  -    सीधे       काम।
नाम    नहीं  तो  क्या  हुआ,
हों     चाहें    बदनाम।।5।।

तीस     बरस    के  बाद में,
गदहा      होता        अश्व।
अकल   ठिकाने   पर  लगे,
दिखे    न कोई   ह्रस्व।।6।।

अब  का बिगड़ा  अटल  है,
सम्भव      नहीं     सुधार।
गदहा   गदहा    ही      रहे,
धोय    गंग की   धार।।7।।

बना    गधे    से  अश्व  जो,
न   हो   यौनि   का   पात।
पड़े   दुलत्ती    अश्व    की,
नहीं  गधे  की   लात।।8।।

बिगड़ें  या   बन  लें  अभी,
यही      सुनहरा      काल।
गदह  - पचीसी  कह  रही,
उठो  गिरो या  ढाल।।9।।

बनने   थे   जो   बन   चुके ,
क्या    बिगड़ेंगे        और।
गदह   -  पचीसी   जा  चुकी,
आया      अगला  दौर।।10।।

अष्टादश     की    आयु   से,
बीत    जाएँ     जब    सात।
'शुभम '   पचीसी  गदह  की,
तब समझें  शुभ  बात।।11।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

18.11.2019 ◆3.00 अपराह्न।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

साधना [ अतुकान्तिका ]


साधना ,
साधना है ,
ईश आराधना है ,
आराध्य की
काव्य की 
निज साध्य की ,
जिसने भी साधा,
अशेष सर्व बाधा।

एकाग्रता 
अटलता
लगनशीलता का नाम-
'साधना',
डूबकर अंतर में
एकपाद स्थैर्य ,
निरन्तर धैर्य,
व्यग्रता -शून्यता,
न लेशभर 
डगमगाहट,
अनसुनी 
सर्वाहट,
वही   है साधना,
सत्साधना।

परहिताय
परसुखाय
आत्मवेदना की
अपरिसीम सह्यता,
निजान्तर की दह्यता,
तथापि अविचलन,
निरन्तर संचलन,
अतुलित संतुलन,
निज पथ पर
अग्रसरण,
निज लक्ष्य का वरण,
जीवन का संवरण,
सर्व बाधा हरण ,
परम आनंद करण,
साधना   की
साध्यता  'शुभम',
सत्यं शिवं सुंदरम।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

15.11.2019●6.25पूर्वाह्न

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

राम -गंगा में सुधा का सार है [ गीत ]



राम   - गंगा  में सुधा  का सार है।
स्नान   करना  पावनी उपहार है।।

सब    जगह    रमता वही तो राम है।
बुद्ध,शिव, शंकर  वही   घन श्याम है।।
भक्तजन    के   हर   गले का हार है।
राम   -   गंगा    में  सुधा का सार है।।

भेद     में   वैषम्य   में  नहिं राम है।
जाति   से भी राम का क्या काम है??
कपट    से   भारी   धरा का भार है।
राम  - गंगा     में  सुधा   का सार है।।

तिलक , माला,  छाप तो सब ढोंग हैं।
सीख     देते     औऱ  को सब पोंग हैं।।
कथन   करनी    के  नहीं अनुसार है।
राम -  गंगा    में     सुधा का सार है।।

आप    को धोखा  दिए नर जा रहा।
आदमी    ही    आदमी  को खा रहा।।
नफ़रतों   का   ही    खुला  भांडार है।
राम  -  गंगा   में  सुधा  का सार है।।

आदमी    की     देह में   खर श्वान  हैं।
काम, भोगों   में  निरत नित जान हैं।।
'शुभम'    मानव -  देह  इक उपहार है।
राम -   गंगा    में   सुधा    का सार है।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦚 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

13.11.2019 ●7.45 अपराह्न।

बुधवार, 13 नवंबर 2019

राम सरूप की छाँह [ सवैया ]



राम          कौ      नामु    जपौ जितनों,
उतनी      मन कों सुख शांति मिलैगी।
राम          कों    भूलि    गयौ  मनवा,
आजमाय     लै  रे  दुख भ्रांति मिलैगी।।
राम           ही      राम ही    राम जपौ,
तन    में   मन में नव कांति  मिलैगी।
इतराय         रहौ       धन  के मद में,
   दुख दारिदजन्य कुक्रान्ति मिलैगी।।1।।

राम             बसें        जड़  -  चेतन   में,
तन     में     मन   में   सब राम बसाऔ।
राम           की    आस  - बिसास   करौ,
मन       राम   सरूप    की छाँ हबसाऔ।।
दूरि         जो          राम     सों    जेते रहौ,
जब       कष्ट   मिलें   तब चों तु रिसाऔ।
मन       के     दर   में    जब     राम  बसें,
 तब    कंचन  - देह    कसौटी   कसाऔ।।2।।


जानकी        नाथ     कों  जानि लै जीव,
न        जानौ    तौ घोर बिपत्ति परैगी।
खर      सूकर    श्वान      समान न जी,
भजि राम तौ भीति की भित्ति गिरैगी।।
भटकौ    -   भटकौ       चौरासी     फिरै,
तिसना   जो   तजै शुभ वित्ति मिलैगी।
नर   -   देह     तू   धारि पसू सौ फिरै,
पसु - कर्म  करै पसु जौनि मिलैगी।।3।।

राम      के      नाम   की   भगति करें,
वाहि        राम    हूँ जाप   करें मन ते।
सुधि         लेत     सदा    श्रीराम प्रभू,
भजि    लै    भजि    लै  नर रे मन ते।।
जाके     नाम    सों    तैरि   उठे पथरा,
जिय     बात      खरी    रामायन ते।
तेरौ       भाग   बड़ौ     है जो तू नर है,
तेरी     देह    भली   खर  श्वानन ते।4।।

नर -  कर्म    कौ फूलु खिलौ जब ते,
खुशबू       बदबू     फैलत  जगमाहीँ।
 सब    स्वर्ग    औ   नर्क   यहीं पे बने, 
सब    भोगनौ  होत  है भोग यहाँ ही।।
बचि     कें  कोउ   जाय  सकौ  न कहूँ,
सब       देखते   रामजी  कर्म सदा ही।
मति         धोखे   रहौ  शुभ  कर्म करौ,
सिग   जीव  चहैं  प्रभु राम की छाहीं।।5।

💐शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

12.11.2019 ◆9.10 अपराह्न।

सोमवार, 11 नवंबर 2019

प्यारा देश [ बालगीत ]

             
प्यारा   देश     हमारा    देश।
भारत  जग   में  न्यारा  देश।।

बहतीं   नदियाँ   यमुना  गंगा।
फहराता  है    सुघर   तिरंगा।।
भाषा    रंग    विविध  हैं  वेश।
प्यारा    देश     हमारा   देश।।

बारी - बारी   छ: ऋतु  आतीं।
जनवांछित सब सुख बरसातीं
देतीं नहीं  किसी   को  क्लेश।
प्यारा   देश      हमारा  देश।।

हर   मौसम  के उत्सव न्यारे।
कोयल  मोर  भ्रमर  गुंजारे।।
नहीं  अभावों  का  लवलेश।
प्यारा    देश    हमारा  देश।।

विद्यालय  पढ़ने  हम जाते।
पूज्य    गुरुजी   पाठ पढ़ाते।।
जिज्ञासाएँ    रहें    न  शेष।
प्यारा  देश    हमारा  देश।।

सभी बड़ों  को  करते वंदन।
लगा नेह का शीतल चंदन।।
मान्य  हमें    उनके   निर्देश।
प्यारा  देश   हमारा    देश।।

मावस  जाती    पूनों  आती।
घर - घर तुलसी पूजी जाती।।
गौ माँ का   सम्मान   विशेष।
प्यारा  देश    हमारा    देश।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

11.11.2019 ◆ 10.30 पूर्वाह्न।

सीताराम अनन्य [ दोहे ]

         
राम    जन्म    लेते    नहीं,
लेते         हैं        अवतार।
राम  - राम   जिसने  जपा,
देते      उसको      तार।।1।

केवट     शबरी    तर  गए,
दिया   गीध      को    तार।
राम -  शरण  में   जो गया,
उसका    बेड़ा      पार।।2।

सरयू  के    तट  पर   बसी,
पुरी      अयोध्या      धाम।
कौशल्या    के    अंक   में,
प्रकटे   प्रभु     श्रीराम।।3।

बढ़ता   है  जब  धरणि पर,
पाप     कर्म    का     भार।
संतों      की     रक्षा   करें ,
ईश्वर   लें       अवतार ।।4।

त्रेता   के     वह    राम   हैं ,
द्वापर     जसुदा   -   लाल।
कलयुग   होंगे   कल्कि  वे,
धारण   कर   करवाल।।5।

शासन    जो     आदर्श   है ,
राम   राज       का     रूप।
मर्यादा      जिसकी     नहीं ,
गिरता    है   भव - कूप।।6।

अर्थ - पतन   कलयुग हुआ ,
मनमानी        का      खेल।
भ्रष्टतंत्र      में      दे     रही ,
लम्बी       सीटी     रेल।।7।

कण - कण  में जो रम रहा,
कहलाता       वह     राम।
कर्मभूमि   भारत  -    धरा,
नमन   अयोध्या  धाम।।8।

मर्यादा      थापित      हुई ,
हुए     अवतरित       राम।
गूँज   उठा     ब्रह्मांड    में ,
एक   राम   का   नाम।।9।

राम -  राम     जपते    रहो,
जो       चाहो      कल्याण।
पाप   - ताप से   जीव  का ,
हो    जाता     है त्राण।।10।

जय     बोलो   श्रीराम  की,
कर   लो      जीवन   धन्य।
'शुभम'  जीव  निस्तार  को,
सीताराम       अनन्य।।11।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

10.11.2019 ◆ 5.45 अपराह्न।

गीतिका




सरिता में जो जल  बहता है।
हर  कोई  निर्मल  कहता है।।

मानव   करता   दूषित  गंगा,
फिर भी  गंगा जल कहता है।

नित्य   बनाता    नए   बहाने,
जब पूछो तब कल कहता है।

समझाने  से   नहीं   सुधरता,
खल मानव तो खल रहता है।

'शुभम'वही जाता मंज़िल पर,
चलने का मन - बल रहता है।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

10.11.2019 ◆12.30 अपराह्न।

पायल की रुनझुन [ गीत ]

         

 पायल  की रुनझुन की अपनी बोली है।
कानों  में मधुरस की प्याली घोली है।।

कोयल  की  फिर कूक उठी है  बागों में।
उसकी मोहक तान बिखरती 
रागों में।।
भौंरों के हित सुमनों ने झोली खोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी बोली है।।

प्रकृति पुरुष के आकर्षण में 
बंध जाती।
फैला दोनों बाँह अंक में मदमाती।।
गालों पर मल रही अरुणता
रोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी
बोली है।।

सरिता सागर से मिलने को जाती है।
सजनी सजकर  साजन से इतराती है।।
ये न समझ लेना ये सजनी भोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी
बोली है।।

नाच उठे बागों में मोर शोर करते।
डाली-डाली पर आम्र- बौर मौर धरते।।
किसलय कलियों ने कोमल चोली खोली है।
पायल की रुनझुन की अपनी
बोली है।।

देह - देह को चाह  रही मौनी भाषा।
नर - नारी के मन की  गहरी परिभाषा।।
विनत नयन युग नज़रें कैसी डोली हैं।
पायल की रुनझुन की अपनी 
बोली है।।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

05.11.2019■7.45 अपराह्न।

शिशिरागमन [अतुकान्तिका ]

          

कार्तिक की पूर्णिमा
पूर्णता शरद की,
अगहन का आगमन
शिशिर का
पहला चरण,
आर्द्रतामय वातावरण,
धूपाभिषेक की शरण।

शीत ऋतु का
द्वितीय चरण ,
शनैः शनैः 
उष्णता का हरण,
कर रहे 
दूल्हा -दुल्हन
परस्पर  वरण,
निशा की दीर्घता का
आचरण।

बदल रहे
तन के आवरण
शीत अवरोध में 
व्यस्त जन -जन,
 ऊर्ण के
 कृत्रिम वसन,
ढँकते 
सबका तन,
अमीर गरीब की
सामर्थ्य का क्षण।

कभी कोहरा
बरसता तुहिन,
ओस से लदा
दूब का 
द्रुम लताओं का 
पल्लव -पल्लव।
रबी में
उगते गोधूम 
चणक यव 
विविध अन्न,
आ चुका
 घर में
परिपक्व धान्य।

ठिठुरते 
शीत से
जन -जन
पशु -धन,
पखेरु -गण,
निकल कर 
नीड़ से
करते हैं
धूप -सेवन,
शीत ऋतु में
प्रकृति का 
प्रसन्न कण -कण
'शुभम 'प्रतिक्षण।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

06.11.2019 ◆8.15 अपराह्न।

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

न दिया न दिया सब लोग कहें [ सवैया ]



अपने -   अपने  सिग   लोग कहें,
अपनों न दिखौ सिगरे जग माहीं।
 सिग  स्वारथ   लागि  जुहार करें,
बस पेड़  ही  देत हैं शीतल छाँहीं।।
दीनन        कों   न  दया  मिलती,
रीरिआय         रहे  फैलावत बाँहीं।
बहुतेरे    '  शुभम '    टेरे    परखे,
 सिग हाथ  हिलाय रहे करि नाहीं।।1।

सुख  में  सब प्यार  सों  बात करें,
दुख  में  कोऊ आँखिंन हेरत नाहीं।
भूख     में     बूझै    नहीं  भोजन,
भलें  भूखौ  मरै  कोऊ पथ राही।।
पईसा    ही  खिंचि  रह्यौ पईसा,
पईसा  की  ही   है  रही  है वा'वाही।
कैसें        'शुभम'   परतीति   करें,
   मुख देखि के बोलत लोग सदा ही।।2।

सौर     भलें      फटि   जाय   नई, 
परि     पांय      पसारि    रहे  लंबे।
घर   भाँग   हूँ   भूजी    नाहिं हती,
नित    बोल   बखानि    रहे लंबे।।
शान   कौ    मान    घटै   न  कहूँ,
तम्बुआ      बड़े     तानि   रहे लंबे।
देखी    'शुभम'      जगरीति  सदा,
बड़  बोल    बकें    लंबे - लंबे।।3।

चाहत        मान        सबै   अपनों,
परि     देंन   की   सोच नहीं मन में।
जैसें    बोलत    बोल    कुआँ  प खड़े,
तैसी   लौटेगी   बात  जु  कानन में।।
जो     देहुगे      लौटे    वही  छिन में,
यह       राज  छिपौ  जगती कन में।
बात     'शुभम '       सौने-सी   खरी,
चाहें   गाम  रहौ  या रहौ  वन में।।4।

न   दिया  न  दिया  सब लोग कहें
नदिया    देती   दिन  -  रात   हमें।
सोवै   न    कबहुँ  नित  जागत ही,
बोलै    न     कबहुँ   बड़बोल हमें।।
अपने     ढँग    में   अकड़ो  तू  रहै,
तेरी  ऐंठ  -  उमेठ     न  सोहै  हमें।
देखी       'शुभम'     जगरीति  यही,
स्वारथ    प्रीति    न    भावै  हमें।।5।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

04.11.2019 ■5.00 अपराह्न।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...