मंगलवार, 31 अगस्त 2021

गोल कटोरा 💙 [ बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार ©

💙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गोल   कटोरा   जैसा   ऊपर ।

औंधा   लेटा   है  नभ भूपर।।


नभ  का  नीला  रँग है न्यारा।

लगता  है आँखों को  प्यारा।।


दिन में  चमकें   सूरज  दादा।

करते उजले  दिन का  वादा।।


भरी  रात   में   चंदा   मामा।

उजली करते हैं नित यामा।।


तारे  भी   सँग   में  आते  हैं।

टिम-टिमकर नभ में छाते हैं।


दिन  में   पंक्षी   उड़ते   सारे।

वृक्षों  पर  कुछ नदी किनारे।।


घर, मीनारें   नभ   के   नीचे।

दृष्टि  हमारी   ऊपर   खींचे।।


नदियाँ, पर्वत,  खेत  हज़ारों।

मंदिर  दिखते  गाँव  बजारों।।


सागर  भी  है  नभ   के नीचे।

'शुभम'रात दिन उसको सींचे।


🪴

 शुभमस्तु !


३१.०८.२०२१◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य।

सदा सत्य है तत्त्व 🌈 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सदा  सत्य   है   तत्त्व   शेष सब  घासी   है।

जान  लिया   सत  तत्त्व   सदा आभासी है।।


सुनते     हैं     ईश्वर    भी  कोई  होता  है।

देखा  नहीं    किसी  ने   इंसां रोता    है।।

मंदिर, मस्ज़िद,   चर्च कहाँ का   वासी  है!

जाना लिया  सत तत्त्व   सदा आभासी  है।।


पवन  बहा करता  है   वह  भी दृश्य नहीं।

जहाँ  चाहता  जाता  पर  वह वश्य   नहीं।।

जल,थल, नभ,  रहता   प्रवात स्वशासी है।

जान  लिया  सत  तत्त्व  सदा आभासी  है।।


वाणी   से    निकला  अक्षर साकार  कहाँ?

कागज़  पर  उतरा    लेता आकार   वहाँ।।

मोबाइल    के   परदे   का शुभ वासी  है।

जान  लिया  सत  तत्त्व  सदा आभासी  है।।


गोचर  नहीं   हृदय  में  बसता प्यार   यहाँ।

जब  विरक्ति में गया  बदल तब यार कहाँ!!

घृणा, द्वेष, ममता  सब  कुछ ही  नाशी  है।

जान  लिया  सत  तत्त्व  सदा आभासी  है।।


प्राण ,आत्मा  भी   किसको ये गोचर  हैं ।

कब  आते  - जाते  न जानते जौ भर हैं।।

'शुभम'  पुरुष की प्रकृति सदा ही  दासी  है।

जान   लिया  सत  तत्त्व  सदा आभासी  है।।


🪴 शुभमस्तु !


३१.०८.२०२१◆१०.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

आनन्द उर का ☘️ [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आनंद   उर  का   खो गया है।

जाने  कहाँ  जा सो  गया है।।


नित   छलावा   हो   रहा   है।

शूल  दुख  के   बो  रहा   है।।

कुछ  न कुछ  तो हो  गया है।

आंनद  उर  का  खो गया है।।


क्या  कहें     लंबी    कहानी।

कब  मिलें  घड़ियाँ  सुहानी।।

वस्त्र    जैसा    धो   गया   है।

आंनद  उर  का खो  गया है।।


स्वार्थ  में    नाते    सने     हैं।

अर्थ   के    सारे     बने   हैं ।।

नेह  तो    बस    रो   गया  है।

आंनद  उर  का  खो गया है।।


दीनता    की     ज़िंदगी    है।

बंद  नित    की    वंदगी  है।।

कब मिला   जो   जो  गया है!

आंनद उर  का  खो  गया है।।


घाव   शब्दों   के   लगे     हैं।

दे     रहे   अपने   सगे    हैं।।

'शुभम'  बोझा   ढो   गया है।

आनंद  उर  का खो गया है।।


🪴 शुभमस्तु  !


३०.०८.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।


सोमवार, 30 अगस्त 2021

कान्हा आओ 🪴 [ तिन्ना छंद ]


 विधान: sss  s

★★★★★★★★★★★★★★★

✍ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

★★★★★★★★★★★★★★★


कान्हा    आओ।

गीता     गाओ।।

जौ  लों   साँसा।

तौ  लों  आशा।।


आईं         राधा।

नाशी      बाधा।।

ग्वाले       आए ।

सारे         छाए।।


वंशी         वाला।

ही       गोपाला।।

खातीं       चारा।

गौवें       सारा।।


गोपी         नाची।

लीला       साँची।।

यामा        काली।

बाजी       ताली।।



आजा      आली।

फूली        डाली।

ले  आ      थाली। 

पूजा        वाली।।


  🪴शुभमस्तु !


३०.०८.२०२१◆११.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

ब्रजाधीश आए 🦚 [छंद :सोमराजी/शंखनादी ]


विधान -यमाता  यमाता

            ISS.    ISS  : 06वर्ण।दो चरण तुकांत।

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✍ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चलो       शीश     नाएँ।

शुभाशीष           पाएँ ।।

ब्रजाधीश           आए।

शुभं       गीत      गाए।।


बजैया             सु-वंशी।

वही     अंश,      अंशी!!

पसारा       उसी     का।

सहारा      प्रभू      का।।


वही      ज्योति      सारी।

मही     में        प्रसारी ।।

वही      एक         कर्ता।

सभी      दुःख      हर्ता।।


सदा               सानुरागी।

विमोही            विरागी।।

सदा        दास        तेरा।

करो       जी       उजेरा।।


शुभं        टेरता          है।

लड़ी        फेरता       है।।

चले     नाथ         आओ।

प्रसादी          खिलाओ।।


 🪴शुभमस्तु !


३०.०८.२०२१◆१०.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।


रविवार, 29 अगस्त 2021

दिव्यावतारी श्री कृष्ण🏕️🦚 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ब्रजरज में श्रीकृष्ण का,हुआ दिव्य अवतार।

भाद्र अष्टमी अर्द्ध निशि, कृष्णपक्ष शुभवार।


नखत  रोहिणी शुभ लगा,प्रकटे कारागार।

ज्योति रूप प्रभु आ गए,हर्षानंद  अपार।।


सट-सट ताले खुल पड़े, स्वतः न कोई नाद।

सोये  पहरेदार   सब,  छाया देह     प्रमाद।।


प्रमुदित  थे  वसुदेव जी, भार्या उर  आंनद।

विस्मित भयवश देवकी,बंध मुक्त स्वच्छन्द।।


कारागृह के  ज्यों  खुले, सारे सहज कपाट।

लगा  यही  बाहर   खड़ा,देखे कोई   बाट।।


ओढ़ा कर शिशु सूप में,पहुँचे यमुना  तीर।

देख बाढ़ के  दृश्य को,होने लगे   अधीर।।


यमुना को प्रभुचरण का हुआ जरा सा भान

उतरा जल तब बाढ़ का,चमत्कार अनजान।


सूप  लिए  आगे  बढ़े, पितु वसुदेव  महान।

फ़न  फैला कर  शेष ने,की दोनों  पर छान।।


अर्द्धनिशा की कुछ घड़ी,बीतीं घन अँधियार।

गोकुल  पहुँचे   नंदघर, करते नेह   दुलार।।


सोई   गहरी   नींद   में,मातु यशोदा   आज।

कन्या को ले अंक में,शिशु को दिया सुसाज।


सघन  निशा  में लौटकर,आए जमुना पार।

मथुरा  कारागार  में,करके दशा -  सुधार।।


गोकुल बजी  बधाइयाँ, यशुदा जाया  लाल। 

नंद मुदित माते फिरें, बदले रँग रस  हाल।।


ब्रज  गोपी  आने लगीं,देखें यशुदा  लाल।

मनमोहन  कान्हा  बड़े,रस रंजन रसपाल।।


जब अष्टम अवतार की,मिली सूचना कंस।

गूँजा कारागार  में,नाद सक्रोध  स - संस।।


पैर पकड़ पाहन पटक,रहा कंस जब कूर।

छूट करों से नभ उड़ी,हाथ लगी बस धूर।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०८.२०२१◆३.३० पतनम मार्तण्डस्य।

अंक पधारे प्रभु अवतारी 🦚 [ गीत ]

  

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 ✍️शब्दकार©

🦚 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मातु    देवकी    की   बलिहारी।

अंक   पधारे     प्रभु  अवतारी।।


भादों       मास      अष्टमी   आई।

कृष्ण -  पक्ष    की   तिथि मनभाई।।

नखत     रोहिणी    निशि अँधियारी।

अंक        पधारे       प्रभु  अवतारी।।


कारागृह      में    कैद   पिता - माँ।

पवन  कर    रहा    बाहर साँ - साँ।

प्रकटे      ज्योति  -  रूप गिरिधारी।

अंक        पधारे      प्रभु   अवतारी।।


माँ   भयभीत   पिता   कम्पित  से।

सहमे     विष्णु-  रूप  - स्मित से।।

धर     शिशु    रूप   हुए शुभकारी।

अंक     पधारे     प्रभु    अवतारी।।


एक  - एक     सब  खुलते  ताले।

सोए        पहरेदार          निराले ।

मुक्त   जनक -  माँ  प्रभु भयहारी।

अंक    पधारे      प्रभु   अवतारी।।


उर   में     एक     विचार  सुझाया।

ओढ़ा   कर    शिशु  सूप सुलाया।।

चढ़ी     हुई      थी    यमुना  भारी।

अंक     पधारे       प्रभु  अवतारी।।


घटा   यमुन -  जल   छू  पद - पंकज।

शेषनाग का    सजा     छत्र  -  ध्वज।।

वर्षा       रुकी           निरंतर    जारी।

अंक       पधारे           प्रभु  अवतारी।।


नंद   -   यशोदा     का    घर  आया।

उर    में      अति     आनंद  समाया।।

घर  में    घुसे      उठा    शिशु प्यारी।

अंक        पधारे        प्रभु   अवतारी।।


शिशु    नवजात     लिटाया  माँ  तर।

अनायास            ओढ़ाया  आँचर।।

लौटे       मथुरा         पिता  सुखारी।

अंक      पधारे       प्रभु   अवतारी।।


 भोर    हुई      गोकुल   की गलियाँ।

मह मह    महक   रहीं   थीं कलियाँ।।

बजी    बधाई      घर   -   घर न्यारी।

अंक         पधारे        प्रभु अवतारी।।


कंस         सूचना      पा   घबराया।

श्रीकृष्ण        की     अद्भुत  माया।।

घन  -   घन       घंटे    बेला   थारी।

अंक         पधारे      प्रभु अवतारी।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०८.२०२१◆११.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।


शनिवार, 28 अगस्त 2021

श्री कृष्णावतार 🌳🦚 [ हाइकु ]

 

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जापानी छंद हाइकु का विधान:

1.यह तीन पंक्तियों की कविता है।

2. इसकी पहली ,दूसरी और तीसरी पंक्ति में क्रमशः 5,7 और 5 अक्षर होते हैं।

3.एक अच्छे हाइकु में प्रकृति या ऋतु सूचक शब्द आने चाहिए, किंतु यह सदैव अनिवार्य नहीं है।

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सावन मेघ

हो गए अब विदा

बरसे तेज ।


घटाएँ घनी

अंबर में हैं तनी,

भादों का मास।


मुरलीधर

होंगे अवतरित

अष्टमी तिथि।


झूम उठी है

डाल वन बाग़ की

सौभाग्य घड़ी।


देवकी माता

पिता वसुदेव जी,

आए मुरारि।


कारागार के

ताले गए हैं टूट,

पधारे प्रभु।


यमुना जल

उतर गया स्वतः

शिशु परस।


आधी थी रात,

यमुना में थी बाढ़

गए गोकुल।


यशोदा सोई

शिशु कृष्ण लिटाए

पार्श्व उनके।


नंदबाबा के

घर में है आंनद

 कृष्णागमन।


सुबह हुई

खिलती हैं कलियाँ

गूँजी गलियाँ।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०८.२०२१◆३.४५ पतनम मार्तण्डस्य।


भला जो देखन मैं चला 🦢 [ व्यंग्य ]

 

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✍️ व्यंग्यकार ©

 🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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              कबीर - काव्य -परम्परा में कविता अपने क्रांतिकारी स्वरूप में समाज का हित कर सकी अथवा नहीं, यह तो उस युग का कोई जीवित मनुष्य ही बता सकता है। किंतु ऐसी संभावना शून्य ही है, क्योंकि इतना पहले का कोई भी मानव जीवित रह पाना असंभव ही है।इसलिए उसकी खोज ही व्यर्थ है। बावन से भी अधिक दशाब्दियाँ बीत-रीत जाने के बाद भी उनकी गूँज आज भी हमें सचेत करती हुई कानों में गूँजती है।कबीरदास जी लालटेन लेकर बुरा आदमी ढूँढ़ने के लिए चले(बुरा जो देखन मैं चला) तो उन्हें कोई भी बुरा आदमी ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला,(बुरा न मिलिया कोय)।किन्तु जब अपनी अंतरात्मा में उसे खोजा(जो दिल खोजा आपना) तो उन्होंने पाया कि सबसे बुरे तो वे स्वयं हैं।(मुझसे बुरा न कोय)। \

   

            कबीरदास जी की इसी सामाजिक क्रांति की परंपरा में मैं भला आदमी ढूँढ़ने निकला हूँ।हमारे महापुरुषों ने सही व्यक्ति होने के अनेक मानक निर्धारित किए हैं। महाभारत , वेद ,पुराण, रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में भी बहुत कुछ कहा लिखा गया है, किन्तु अभी तक कोई ऐसा साँचा बनकर नहीं आया ,जिसमें ढालकर एक आदर्श पुरुष या स्त्री का निर्माण कर दिया जाए।कई चोरों से जब मैं मिला तो उन्होंने भी अपने चोरी करने का पवित्र उद्देश्य बता दिया। डकैतों ने भी डकैती डालने के अपने शुद्ध मकसद प्रस्तुत कर दिये।ग़बन- कर्ता अपने ग़बन करने के औचित्य पर डटे रहे। व्यभिचारी ,बेईमान, कम तोलने- नापने वाले, पेट्रोल पम्प में चिप लगाकर ईमानदार बने रहने वाले पूँजी पति,अपहरणकर्ता, बलात्कारी, राहजन, जेबकट, जार,लुटेरे,नेता ,रिश्वतखोर, मिलावटखोर,हत्यारे ,कैदी, सबने अपने को दूध का धुला हुआ बताया। उन सबके प्रवचन सुनकर मैं कुछ निर्णय नहीं कर पाया। ऐसा लगा कि इनमें से किसी को अपना गुरु ही बना लिया जाए। पर अन्ततः किसे ये सौभाग्य प्रदान किया जाए। मुझे वे बेचारे सभी लगे किस्मत के मारे।साँप,बिच्छू, गधे, घोड़े, हाथी, शेर, लोमड़ी, गीदड़, हिरन ,खरगोश आदि सबके स्वभाव और प्रकृतियाँ भिन्न -भिन्न हैं।'जो आया जेहि काज सों, तासे और न होय।' के अनुसार सब अपनी - अपनी जगह ठीक हैं। भले हैं। 


            कबीरदास जी की तरह जब मैं अपने शोध में निष्फल हो गया ,तो सोचा कि मुझसे बड़ी भूल हो गई है, एक जगह तो अभी खोजा ही नहीं गया। बात वही कि,' बगल में छोरा ,नगर में ढिंढोरा।' अर्थात ....... वह कौन सी जगह शेष रह गई ,जहाँ खोजा ही नहीं गया।वह जगह थी मेरी अपनी ही अंतरात्मा। वहाँ जब देखा तो उजाला हो गया। काला स्याह रँग भी दूध वाला हो गया। तब मेरा ध्यान गया वहाँ, पहुँचा ही नहीं था अब तक जहाँ।  सच में मैंने एक सच जान लिया।अपनी ही आत्मा को मैंने अपना गुरु मान लिया।मैंने जो पाया है वह आपको भी जताता हूँ।टूटे -फूटे शब्दों में कहकर बताता हूँ। 

               भला या सही व्यक्ति बनने का मानक क्या है? सही या भला होना सदा सापेक्षिक होता है।जिससे मेरा काम सिद्ध ही जाता है, वह मेरे लिए सर्वोत्तम हो जाता है। और यदि वह मेरा काम नहीं करता है अथवा कर पाता है ,तो वही व्यक्ति मेरे लिए बहुत बुरा हो जाता है।किसी और व्यक्ति के लिए वही उसका उल्लू सीधा नहीं करने के कारण बहुत बुरा हो जाता है। इससे यही धारणा बनाने की बाध्यता आती है कि संसार का कोई भी व्यक्ति सर्वांश में सही नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज तक इसका निर्धारित मानक भी नहीं बन पाया। किसी के 99 काम कर दीजिए , एक मत करिए ,तो उसके लिए आप सबसे बुरे व्यक्ति होंगे। जिसके 99 काम मत कीजिए ,एक काम बहुत अच्छा कर दीजिए ,तो आपके समान कोई अच्छा भी नहीं होगा उसके लिए।मुझे तो लगता है कि अच्छे और बुरे का यही मानक समाज को सर्व स्वीकार्य है। 


               इसलिए संसार में न कुछ सही है, नहीं कुछ ग़लत है।सब कुछ समय, व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर करता है।समय ,व्यक्ति और परिस्थिति की सापेक्षता ही श्रेष्ठ है । वही मानक है। यहाँ सबके मानक अलग -अलग हैं।आज भगवान श्रीराम भी मानव मात्र के आदर्श नहीं हैं।सापेक्षिकता का सर्व स्वीकार्य सिद्धांत है , जो देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है।इसीलिए कहीं झूठ भी पुण्य है ,तो कहीं सत्य भी पाप है। न भला मैं हूँ औऱ न बुरे आप हैं। एक ही महामंत्र सर्वत्र फलीभूत है : वह महामंत्र है "स्वार्थ"।एक मात्र मानक है :"स्वार्थ"।

  🪴 शुभमस्तु ! 


 २८.०८.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

ग़ज़ल 📙

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वे   जमाने   अब    नहीं   हैं।

दिन   नहीं   वे  शब  नहीं हैं।।


कोयलों    में  कूक    तो    है,

पर   वही  वे  ढब    नहीं   हैं।


प्यार   के     नाटक     रँगीले,

प्यार   में  रँग  अब  नहीं   हैं।


मन    नहीं   कपड़े    रँगे    हैं,

साधुता  में     फब    नहीं  हैं।


गाय    खाते      भक्त    अंधे,

मानते   वे    रब    नहीं     हैं।


की     पुताई      चेहरों    की ,

चेहरों    में    छब    नहीं    हैं।


सादगी     सोना    खरा    है,

'शुभम' शोभन  कब  नहीं हैं।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०८.२०२१◆५.४५

 पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🛣️

  

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✍️ शब्दकार©

🛣️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सवाल    ही      सवाल   हैं।

बवाल   ही      बवाल    हैं।।


यहाँ    वहाँ      जहाँ     तहाँ,

धमाल      ही   धमाल     हैं।


फ़िक्र    सिर्फ़     अपनी   ही,

भेजे    भर      उबाल       हैं।


दुरुस्त         नहीं       हाज़मा,

बिखरे        बस     उगाल हैं।


देख     उन्हें       जलते     हैं,

अपने    ही       ज़वाल     हैं।


भाता    नहीं     गैर        भी,

मन  में     विष,     मलाल हैं।


'शुभम'    आज    दुनिया  में,

कमाल   बस     कमाल    हैं।


ज़वाल =अवनति।


🪴 शुभमस्तु !



२७.०८.२०२१◆५.००पतनम मार्तण्डस्य।


ग़ज़ल 📟

 

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✍️  शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बादलों   ने   बिजलियों से,

 मूक   गठबंधन   किया है।

उठ  समंदर  ने लहर  मिस,

 खूब  अभिनंदन  किया है।।


खोल  कर  आँचल  खड़ी है;

प्यास  से      बेहाल    धरती,

शज़र  के  भी  अश्क   सूखे;

पल्लवी   क्रंदन    किया  है।


मसल  देता  पवन   कलियाँ;

आँधियाँ    तूफ़ान      लेकर,

चमन  उजड़ा   जा   रहा  है;

धूप  ने     वंदन   किया   है।


आदमी    भगवान   बन कर;

रह   गया    है   सिर्फ़    शैतां,

मैल   जिसको  वह    बताता; 

शीश  धर   चंदन  किया   है।


चाँद  पर हैं   कदम   जिसके;

चाँद  है     खल्वाट    उसकी,

मनुजता  को   मार कर   भी,

सदन  नंदन   वन   किया है।


आदमी    भी     जीव    वैसा,

कीट ,   पशु,    पक्षी    वनैले;

पेट    भरने      में    लगा   है;

धूल  को  भी   धन   किया है।


'शुभम'  कहता    जा   रहा है;

सातवें    आकाश   में     हम,

मनुज -  दंशन   के  लिए ही;

बहुत  ऊँचा  फ़न  किया   है।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०८.२०२१◆३.१५पतनम मार्तण्डस्य।


ग़ज़ल 🛬

 

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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देश   के  हालात  अब  अच्छे नहीं   हैं।

बरसा  रहे जो फूल सब अच्छे नहीं  हैं।।


क्यों    मरे  जाते     हो   यों दीवानगी   में,

चाँद  के  तव   बाल जब अच्छे  नहीं  हैं।


कान   बहरे,   नयन   अंधे    भी   तुम्हारे,

आ  रहे  कल  के  भी  ढब अच्छे  नहीं  हैं।


इंसानियत  को  ताक पर रख कर चले हो,

उजले  नहीं  हैं दिन व शब अच्छे  नहीं  हैं।


आँधियाँ    तूफ़ान  भी कब तक  टिके  हैं,

बदनाम से  ये  हुए  बद    अच्छे नहीं  हैं।


अर्श   पर    पत्थर  चलाते  हो यहाँ    तुम,

फोड़  लो  ख़ुद  सिर   ग़ज़ब अच्छे  नहीं  हैं।


दूसरों  का   जो  भला  करता 'शुभम'   भी,

ज़िन्दगी  के   सुफ़ल    कब अच्छे   नहीं हैं!


🪴 शुभमस्तु !


२७.०८.२०२१◆९.१५ आरोहणम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 26 अगस्त 2021

हे गिरिधारी!कृष्ण मुरारी! ⛰️🦚 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 हे गिरिधारी ! कृष्ण ! मुरारी!

चरण - वंदना   करें  तुम्हारी।।


अच्युत,अजय,अजन्मा स्वामी

अमृत,अनय,अंनत,  अकामी।

मोहन,   मुरलीधर,    कंसारी।

चरण - वंदना  करें   तुम्हारी।।


अक्षर, अपराजित ,  ज्ञानेश्वर।

हरि, गोपाल, मदन,योगेश्वर।।

मधुसूदन, केशव ,  अघहारी।

चरण - वंदना  करें  तुम्हारी।।


हे     जगदीश !    देवकीनंदन।

पद्महस्त, परब्रह्म ,  सनातन।।

सकल  वेदना    हरें    हमारी।

चरण -  वंदना  करें  तुम्हारी।।


वासुदेव,    सर्वज्ञ ,  जनार्दन।

   नारायण,  निर्गुण,नंदनंदन ।।  

विश्वरूप,  भव -  संकटहारी।

चरण - वंदना  करें  तुम्हारी।।


पद्मनाभ,  साक्षी , रविलोचन।

कमलनयन,सुमेध, मनमोहन।

दानवेन्द्र  ,करुणा -  अवतारी।

चरण -  वंदना   करें तुम्हारी।।


रमाकांत, गोपालक- प्रियवर।

हे ऋषिकेश! सुदर्शन,मनहर।

विश्वमूर्ति, सु-संत,सुखकारी ।

चरण - वंदना   करें  तुम्हारी।।


पुरुषोत्तम,  देवेश,  श्यामघन।

राधाप्रिय,रुक्मिणि के उर धन।

'शुभम' यशोदासुत बलिहारी।

चरण - वंदना   करें  तुम्हारी।।


🪴 शुभमस्तु !

२६.०८.२०२१◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।




बुधवार, 25 अगस्त 2021

नामांतरण के महारती ⛱️ [ व्यंग्य ]

 

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 ✍️ व्यंग्यकार©

 ⛱️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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              नवीन नामकरण करने में हम महारती हैं।उससे भी दस कदम आगे बढ़कर हम नाम बदलने में 'महारती' हो गए हैं।'महारती' इसलिए कि हम नए नाम रखने और बदलने में महारत हासिल कर चुके ख़ातिलब्ध महामानव हैं।यदि इस कार्य के लिए कोई उपाधि या सम्मान दिया जाए ,तो पीएच. डी. ;डी. लिट्. और डी.एस सी.भी छोटी पड़ जाएं।हमें आप महारथी कदापि न समझें, क्योंकि अब रथ रहे ,न रथ वाले और न रथ चालक। सियासती रथों की तो बात ही मत कीजिए।वे बैठेंगे करोड़ों की कार में औऱ कहेंगे रथ।उसमें बैठकर वे अपने को महारथी कहलवाकर गौरव की अनुभूति करते हुए भी नहीं अघाते।अरबों खरबों के महलों को झोपड़ी बताकर आयकर के छापे से बचने का नया नायाब तरीका भी उन्होंने खोज लिया है।इसी क्रम में यहाँ यह सिद्धांत भी लागू होता है ,जहाँ नामांतरण किया जा रहा होता है अथवा नामांतरण किया जाना है। 

          हम सब वही लोग हैं ,जो 'विलेज' को 'विला' बना देते हैं।क्योंकि 'विलेज'या 'गाँव' कहने में हमें शर्म आती है। कोई कहेगा कि गाँव में रहते हैं। सुनने कहने में कुछ विचित्र -सा लगे ,तो हमारे भाव बढ़ जाते हैं। छोटी -सी चीज़ अपने पहनावे से बात शुरू करते हैं।

           स्त्री -पुरुषों के अनेक परिधानों ने बड़ी लंबी यात्रा तय की है।नारी वस्त्रों में साड़ी,सलवार, लहँगा, पेटोकोट, कमीज़, ब्लाऊज, चुनरी ,ओढ़नी आदि की लंबी यात्रा के बाद पेंट ,जींस, लैगी और न जाने क्या क्या के बाद आज एक नई भूषा बहुत ही लोकप्रिय हुई है , वह है : ' पिलाज़ो' ।

                     एक दिन पुराने जमाने का अस्सी गज का लहँगा, दुबली पतली सींकिया सलवार, सफ़ेद बुर्राक पायजामा,( महिला मित्रों की कॉकटेल पार्टी की तरह मदद करने के लिए एक अदद पुरुष की कमी पूरी करने की ख़ातिर), नाराज - सा दिखता साड़ी के नीचे से सेवा करने वाला पेटोकोट ने गुपचुप साँठगाँठ करके एक एक ऐसा गठजोड़ तैयार कर लिया कि सारा जमाना उनका मुरीद ही हो गया। (इसे आप सियासती गठजोड़ कदापि न समझें, क्योंकि कि यह विशुद्ध सामाजिक गठजोड़ है।यहाँ जो होता है ,वह सभ्यता बन जाता है।भले ही हमारी महारत हमें गारत क्यों न कर दे,पर उसका इतिहास सोने के अक्षरों में लिख जाता है।) चूँकि पेटोकोट कहीं साड़ी रानी से चुगलखोरी न कर दे ,इसलिए सबने मिलकर उसे पुरोहित चुन डाला औऱ उसके गले में डाल ही दी नामकरण की जयमाला। पायजामा पुरुष की वहाँ खूब दाल गली। उसकी सलाह सबने सहर्ष मान ली कि नारियों के लिए पायजामे का रूपांतरण करते हुए उसका कायाकल्प ही कर डाला । झटपट पलक झपकते ही बिना साड़ी को जताए - बताए उसका नाम 'पिलाज़ो' कर डाला। वरना इस 'पिलाज़ो ' में साड़ी की क्या जरूरत? अथवा साड़ी के सँग पिलपिले 'पिलाज़ो' की कैसी सूरत! 'पिलाज़ो' को रंगीन , छींटदार औऱ बहुत से कलात्मक डिजायन में उसका नारीकरण कर डाला। पायजामे से 'प' (पि) , लहँगे से 'ल'(ला) औऱ जोड़ने का 'जो' ; बन गया 'पिलाज़ो' । 

                  आप जानते ही हैं कि आज फैशन का जमाना है। सो 'पिलाज़ो' तो पायजामे से भी पचास कदम आगे निकल गया । उसके एक -एक पैर का घेर एक मीटर तक पहुँच गया। भले ही एक घेरे में एक - एक बच्चा छिपा लो ,औऱ टी टी की नज़र से टिकट के पैसे भी बचा लो! बहु उद्देशीय बन गया 'पिलाज़ो'।जरूरत पड़े तो दोनों में पचास- पचास किलो गेहूँ खरीद लाओ और लैगी में टाँगें दिखाते हुए घर आ जाओ। घर पर गेहूँ पलटो, पुनः उसी में घुस जाओ। इसी प्रकार नाम बदल-बदल कर हम नया इतिहास बना रहे हैं।सभ्यता की चाँद में औऱ भी नए चाँद गज़ब ढा रहे हैं।बोतलों में मदिरा नहीं बदल पाते , बस लेबिल ही बदल पा रहे हैं। चाहे कपड़े हों या नगर , सड़क हो या डगर, दल हो या दलदल, धतूरा हो या कमल, नाम बदलने का भी बड़ा ही चमत्कार है।हमारी महारत है इस पवित्र कार्य में। गढ़े हुए मुर्दे खोदकर उनको खड़ा कर रहे हैं। यदि प्राण नहीं डाल सके तो क्या , हमारा नाम इतिहास निर्माताओं में तो लिखा जाने से भला कौन रोक सकता है! इतिहास भले ही दफ़न हो जाय ,पर वह अमर रहता है औऱ हम वे महारत लब्ध लुब्धक लोग हैं, जिन्हें इसी में संतोष है। हम बहुत बड़े संतोषी जीव हैं। औऱ 'जब आवे संतोष धन ,सब धन धूरि समान।' 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २५.०८.२०२१ ◆३.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

पलाज़ो की जन्मकथा 🧣 [अतुकान्तिका ]

 

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 ✍️शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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एक  दिन की है बात,

हुई भी न थी अभी रात,

लहँगा और सलवार

करने लगे विचार,

बदल रही दुनिया

बदल रहे हैं आचार,

बदल गया है अब जमाना,

नई पीढ़ी का है

कुछ अलग ही पैमाना!

अपने यहाँ भी 

कुछ नया हो जाए,

साथ -साथ जमाने के 

क्यों न चला जाए?

हमें भी कुछ नया 

सोचना होगा,

अपने चाल-ढाल में

नवीनतम खोजना होगा!


इतने में फड़फड़ाता हुआ

आ  गया  सफ़ेद पाजामा,

जैसे कृष्ण - रुक्मिणी के

महल  में सुदामा,

बोला - 'अनुमति हो तो

 मैं भी कुछ फरमाऊँ,

आप दोनों को 

एक बीच का 

रास्ता भी सुझाऊँ,

लहँगे औऱ सलवार के

मन की हो जाए,

गज - गज  या कुछ

फुट भर के रंगीन 

छींट वाले  

पायजामे सिलवाएं,

उसे एक नया नाम दिलवाएं,

नामकरण जिसका

पेटोकोट जी से करवाएं।'


नाराज़ होता हुआ 

आया पेटोकोट,

आते ही कर दी न!

तीनों पर चोट,

'अकेले  ही अकेले 

पंचायत करते हो,

साड़ी रानी से

बिलकुल नहीं डरते हो?

वे आ गईं तो 

तीनों की खैर नहीं,

वैसे मेरा तुम सबसे 

कोई  बैर भी नहीं,

क्या आदेश है

मुझे भी समझाओ,

नामकरण कराना है

तो जल्दी से करवाओ।'


पाजामा  बोला 

नाराज़ मत हो,

इससे पहले कि

साड़ी देवी से

हम सबकी दुर्गति हो,

जल्दी से एक  नया नाम

 तुम ही  सुझाओ,

पेटीकोट मुस्कराया,

कुछ इधर कुछ उधर

लहराया फहराया,

और छोटा- सा 

 एक नया भी बताया-

इस रंगीन पाजामे  का

'पलाज़ो' नाम सुझाया,

पा जामे और ल हँगे का जो ड़,

वाह!वाह !! कर उठे सब

इसका नहीं कोई तोड़,

पूरी महफ़िल जोरों से

खिलखिला उठी,

नए जमाने की नई भूषा

 'पलाज़ो' के जन्म की

कहानी बनी।


और अब तो 'शुभम'

'पलाज़ो' सरपट 

  दौड़ रहा है,

घर -घर के पुराने पैमाने

मीटर तोड़ रहा है,

बड़ी - बूढ़ियों दादियों  को

अपनी ओर मोड़ रहा है।


🪴 शुभमस्तु !


२५.०८.२०२१◆११.४५

आरोहणम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

नदी रात -दिन चलती रहती 🗾 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🗾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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नदी    रात -  दिन   चलती रहती।

मैदानों    में   कल  -  कल बहती।।


मम्मी   कहाँ    नदी    का   घर  है!

चली  कहाँ   से   चली   किधर  है!

कलकल छलछल कल छल कहती।

नदी      रात - दिन    चलती रहती।।


पर्वत     पिता      वही      है   माता ।

जन्म  -   जन्म     का   उनसे नाता।।

गहरे      बड़े      कष्ट     नित सहती।

नदी    रात   -   दिन   चलती रहती।।


धीमी     कभी       तेज       है   धारा।

वर्षा         में         डूबता    किनारा।।

सरिता    की      महिमा       है महती।

नदी     रात   -    दिन    चलती रहती।।


फसलों      का      सिंचन  करती  है।

प्यास   सभी   की    वह   हरती   है।।

आती        बाढ़       कगारें    ढहती।

नदी  रात    -  दिन     चलती रहती।।


सागर    से        मिलने      वह  जाती।

कभी      चहकती       वह इठलाती।।

'शुभम'    नहीं     सरिता  कुछ दहती।

नदी      रात  -  दिन     चलती रहती।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०८.२०२१◆५.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

लहँगे का भाई: प्लाजो 🧣 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पाजामे   का   नव   अवतार।

प्लाजो  आया तज सलवार।।


नए  रूप   में   बड़ा  निराला।

रंग - बिरंगा    नीला  काला।।

नीचे - ऊपर   सम   आकार।

प्लाजो  आया तज सलवार।।


पहन रहे थे  अब तक पापा।

मम्मी  भी  खो बैठीं  आपा।।

छिड़ी  एक दिन   मीठी रार।

प्लाजो आया तज सलवार।।


सट - सट टाँगें घुस जाती हैं।

पहन  उसे  वे   इतराती  हैं।।

पाजामे  की    करके    हार।

प्लाजो आया  तज सलवार।।


अब न उन्हें साड़ी भी भाती।

प्लाजो पहन नहीं शरमाती।।

गज भर चौड़ा  है   आकार।

प्लाजो आया तज सलवार।।


'शुभम' कहे  लहँगे का भाई।

पहन  रहीं  अब  नई लुगाई।।

होगी अब न   टाँग- तकरार।

प्लाजो आया तज सलवार।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०८.२०२१◆३.१५ 

पतनम मार्तण्डस्य।


तारे और बाल -जिज्ञासा 🎇 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दिखें  रात   में   नभ  में  तारे।

जाते  कहाँ  दिवस  में  सारे।।


टिम-टिम  करके  करते बातें।

अच्छी लगती   हैं   तब रातें।।

लगते  हैं  आँखों   को   प्यारे।

दिखें  रात  में  नभ में   तारे।।


माँ!  तारों  का  घर  अंबर  में।

कैसे लटके   वे  अधवर   में।।

आँखें  ज्यों  मिचकाते   सारे।

दिखें  रात  में  नभ  में  तारे।।


सूरज का क्या उनको है डर!

आग-ताप से कँपते दिन भर!

चंदा  मामा   सँग   उजियारे।

दिखें   रात  में  नभ में तारे।।


'उन्हें   डाँटते    सूरज  दादा।

दिखने का मत करो इरादा।।

तारों   पर   वे    पड़ते  भारे।

दिखें  रात में नभ   में तारे।।'


क्यों न  धरा  पर  वे आते  हैं?

आने  में  क्या  शरमाते  हैं ??

'शुभम'  चमकते   जैसे   पारे।

दिखें  रात   में  नभ  में तारे।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०८.२०२१◆४.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

बंदर के कर नारियल 🐒 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                           -1-

पढ़ना-लिखना छोड़कर, चमचा बनना ठीक

नेता का अनुगमन कर,पकड़ एक ही लीक।

पकड़ एक ही लीक,सियासत में घुस जाना।

चार  बगबगे सूट, शहर  में  जा  सिलवाना।।

'शुभम'न चला दिमाग़,भेड़ बन आगे बढ़ना।

शिक्षा है बेकार,  छोड़ दे लिखना  - पढ़ना।।


                             -2-

नेता  कभी  न  चाहते, पढ़ा- लिखा  हो देश।

चमचा बन पीछे चलें,बदल-बदल कर वेश।।

बदल -बदल कर वेश,देश के अच्छे बालक।

गड़ा  खीर    में शीश,बनें वे अंधे    घालक।।

'शुभम'चले बस काम,नहीं यदि पालक चेता।

हो  जाएँ   बरबाद,  चाहते  हैं सब   नेता।।

 

                         -3-

पालक  अंधे  आज के,भूल गए  हर  नीति।

बिना पढ़े  डिग्री मिले, बस अंकों से  प्रीति।।

बस अंकों  से  प्रीति, ज्ञान  गड्ढे   में  जाए।

देकर  बहु   उत्कोच, नौकरी ऊँची     पाए।।

'शुभम' न भावी ठीक,ज्ञान से खाली बालक।

सबका  बंटाधार,    मूढ़ अज्ञानी     पालक।।


                         -4-

पालक ही अंधे जहाँ, बालक भी  मतिमंद।

ज्ञान कोष खाली पड़े,मति की   पेटी  बंद।।

मति की  पेटी  बंद, खरीदीं डिग्री    जातीं।

गिरते सेतु धड़ाम, प्रसविनी मरकर  आतीं।।

'शुभं'चिकित्सक मूढ़,अज्ञ अभियंता चालक।

देश हुआ बरबाद,भ्रष्ट पितु -  माता पालक।।


                        -5-

बंदर के  हाथों   लगा,गोल नारियल    एक।

लुढ़काता निशि दिन फिरे, टर्राता ज्यों भेक।

टर्राता  ज्यों  भेक,जान मौसम   बरसाती।

मिले  मेढकी   एक, न देखे ठंडी  -  ताती।।

'शुभं'सियासत आज,घुसी कछुआ सी अंदर।

पाकर  अवसर नेक,  कूदती जैसे    बंदर।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०८.२०२१◆२.०पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

राखी बंधन नेह का 🌾❤️ [दोहा -गीतिका]


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✍️ शब्दकार ©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भगिनी-भ्राता नेह का,पावन पर्व महान।

रक्षाबंधन देश में,दिखलाता निज शान।।


नारी अब सबला हुई,नहीं पुरुष-आधीन,

बंधन उसे न चाहिए,करें नारि का  मान।


गई  बहिन  ससुराल को,आते भ्राता  याद,

नेह-मिलन के हित सदा,पीहर करे पयान।


हीन - बोध की  घुट्टियाँ, नहीं पिलाएँ  बंधु,

बदले हैं संस्कार अब,बहिन हुई  बलवान।


नर - नारी पूरक सदा,यही प्रकृति  का  मूल,

पति- पत्नी भाई- बहिन,विविध रूप संज्ञान।


इंद्राणी    ने   इंद्र   को, बाँधी राखी      मंजु,

दे रक्षा  का वचन भी, किया वचन  सम्मान।


बलि को राखी  बाँध कर,रमा बन  गई त्राण,

नारायण की मुक्ति का,मिला सफ़ल वरदान।


कच्चा   धागा  नेह का,केवल एक   प्रतीक,

मन की साँची भावना, बन जाती पहचान।


नहीं  सहोदर ही 'शुभम', केवल  तेरा  बंधु,

कन्त पिता को छोड़ कर,सबको भाई मान।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०८.२०२१◆३.१५पतनम मार्तण्डस्य।


खुजली 👂 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

खुजली  मेरे   कान  की,कर देती     बेचैन।

बार -बार कुछ कह रही, आती नींद न रैन।।

आती नींद न रैन,घिसें जब अँगुली   भीतर।

आता अति आनंद, खुजाएँ जब तक जीभर

'शुभं'मिले तब शांति,कान में करती  चुग़ली।

डालें तिनका एक,मिटे कानों की  खुजली।।


                        -2-

खुजली कवि की जीभ की सहज न जाए मीत

कविता जब कोई सुने,होती कवि की जीत।।

होती कवि की जीत,वाह की ध्वनि जो आती

बढ़ता तन का ख़ून,कली उर की खिल जाती

'शुभं'जीभ का रोग,नदी कविता  की  उजली

बहती श्रोता बीच,मिटे रसना की  खुजली।।


                         -3-

खुजली जब उठती कहीं,करती है आह्वान।

कर देती बेचैन यदि,रखा न उसका  मान।।

रखा न उसका मान, खुजाए जाओ  भाई।

देगी सुख आंनद, रगड़कर अगर खुजाई।।

'शुभम' न सोचें औऱ,चूसते जैसे    गुठली।

पका हुआ हो आम, स्वाद देती है खुजली।।


                        -4-

नेता की लप जीभ की,खुजली बड़ी विचित्र।

भाषण को उकसा रही,ढूँढ़ रही  वह  मित्र।।

ढूँढ़  रही  वह मित्र,झूठ उनका  सह   पाए।

जाने-समझे  खूब, वाह  पर वाह   सजाए।।

'शुभम'खाज का रोग,सताकर ही रस लेता।

चौराहे  पर  एक,  मिटाता खुजली   नेता।।


                            -5-

खुजली मच्छर सिंह की,जग में बड़ी प्रसिद्ध

कौन बचा मानव यहाँ, नहीं हुआ हो बिद्ध।।

नहीं हुआ हो बिद्ध, बाद में रस  पाया  हो।

रगड़-रगड़ कर देह,ग़ज़ब तन पर ढाया हो।

'शुभम'रिस पड़े खून,खाल काली से उजली।

भले हो रहा दाह, खुजाते जाओ  खुजली।।


🪴 शुभमस्तु  !


२१.०८.२०२१◆७.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


नारी -पथ अवरोधिका:राखी 🪆 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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'मैं पुरुष

तुम नारी हो,

बेबस हो 

बेचारी हो,

शादीशुदा हो अथवा

कुँवारी हो,

किन्तु तुम हो

जन्मजात अबला,

पुरुष से हीन

नहीं हो सबला,

आवश्यकता है तुम्हें

एक पुरुष के सहारे की,

तुम्हारे निकट ही हूँ मैं

तुम्हारा अग्रज अथवा अनुज,

तुम्हारी रक्षा मैं करूँगा,

ससुराल जाने के बाद भी।'


 - ये रूढ़ दुर्बलकारी 

भेदकारी मानसिकता

संस्कार की घुट्टी में

पिलाई गई ,

नारी की शक्ति जानकर भी

वह कमज़ोर 

बनाई गई,

कहीं दुर्गा बनकर

पुरुष - सिंह पर 

सवार न हो जाए,

इसलिए नारी को

मन से ही दुर्बलता की

घुट्टी क्यों न पिलाएँ?

इसी पौरुषिक सोच ने

नारी को 

हीनता -बोध कराया,

उसे तन से ही नहीं

मन से भी कमज़ोर बनाया।


नारी सदैव से 

सबला है,

रक्षा - सूत्र राखी

नारी - पथ का 

अवरोधक है,

उसकी हीन 

मानसिकता का

बोधक है।


  राखी

 रक्षा का नहीं,

भगिनी -  भ्राता के

पावन-स्नेह का द्योतक है,

ताकि नहीं देखे 

 पुरुष किसी नारी को

दूषित दृष्टि से,

बने रहें मानवीय मानक,

सम्मान सहित

जो लिखा गया

हमारे नैतिक मूल्य 

संवर्धक  महान ग्रंथों में,

वरना पुरुष तो

स्वभावतः 

नारी - लिप्सा का

मुखौटेधारी कीड़ा है,

मानव जाति के लिए

यही तो एक 

पाशविक  व्रीड़ा है,

विश्वास न हो तो

नित्य के समाचार पढ़ लें,

सुन लें ,

देख लें,

कि पुरुष की 

नारी के प्रति

निरंतर कैसी चल रही

क्रीड़ा है।


नारी सबला है

सशक्त है,

शक्ति है ,

आवश्यक होने पर

रणचण्डी है,

पुरुष ने ही तो

खोल रखी 

'लाल बाजार' में

बड़ी -बड़ी मंडी हैं,

जहाँ क्या होता है,

क्या यह भी 

बताना होगा!


आइए 'शुभम'

हम इन रूढ़िवादी

 सूत्र- बंधनों को तोड़ फेंकें,

यदि मन में  है सद्भाव,

तो इन मिथ्या

 दिखावटी धागों की

आवश्यकता ही क्या है?

दुर्भावी पुरुष तो

धागे के मुखौटे के नीचे

क्या कुछ नहीं करता!

नारी के शील का हनन

कब और कहाँ नहीं करता?

अपने को धोखा देने का

क्या ही उत्तम मार्ग

अपनाया है,

काम का  कीड़ा

बहुरूपिया बन छाया है।


🪴 शुभमस्तु  !

२०.०८.२०२१◆६.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

अभिमान 🦑 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वृक्ष बड़ा अभिमान का,गिरता शीघ्र धड़ाम।

रावण या शिशुपाल का,शेष न रहता नाम।।


अंधा जो अभिमान में,शेष न रहे   विवेक।

अभिमानी जो मनुज हैं,कहें न उनको नेक।।


'अभि'जुड़ते ही 'मान' में,शब्द बदलता रूप।

मीठी  सरिता  से बना,जैसे अंधा   कूप।।


सिर पर अगर सवार है,मदिर मत्त अभिमान

बना भेड़िया घूमता,कर में लिए   कमान।।


सहज भाव रहता नहीं,यदि उर में अभिमान।

दोषों का भंडार वह,अघ अवगुण की खान।


रावण भी अभिमान वश, भूला नीति अनीति

वंश मिटाया आप निज,गई हृदय से प्रीति।।


अभिमानों  में  चूर  हो,रहा न मानव  कंस।

भगिनी  की  संतान ने, सहज उड़ाया  हंस।।


स्वाभिमान रखिये सदा,मार अहं,अभिमान।

प्रगति  सदा  होती  रहे,बनी रहेगी    शान।।


जिसने भी अभिमान से,रखा शृंग पर नाम।

गया रसातल में सदा, चमकाता निज चाम।।


धन बल तन सौंदर्य का,जिसको है अभिमान

अमर नहीं ये तत्त्व सब,आँधी की सब छान।


जिन वृक्षों पर फल लदे,रहता सहज विनीत।

अधजल गगरी छलकती, स्वाभिमान की जीत


🪴 शुभमस्तु !


१९.०८.२०२१◆५.००पत नम मार्तण्डस्य।

सम्मान 🦢🦢 [ मुक्तक ]


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✍️शब्दकार©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                  -1-

पाँचों अँगुली नहीं एक - सी

फिर   भी सम  सम्मान   हैं,

अपनी -अपनी नाप-तौल से,

नहीं    मनुज    अनजान  हैं,

नीचे   स्थित   खड़ा  अँगूठा,

तिलक   लगाता   माथे   पर,

राह   दिखाती   एक  तर्जनी,

पंजा     बन   बलवान    है।।


                  -2-

छोटी -  सी   होती   है  चींटी

उसे  न  हम   कमतर   जानें,

भले  उड़ा   दे फूँक  मार कर

गज  ही  नहीं   सबल    मानें,

दाँव लगेगा   जब चींटी   का

प्राण   बचाना    मुश्किल  है,

सबका है   सम्मान   बराबर,

वृथा    कमानें   मत      तानें।


                       -3-

मत समझें   अबला नारी को

उसका    है    सम्मान   बड़ा,

देह -शक्ति में सबल सिंह भी

माँस -पिंड    के   लिए अड़ा,

पशु -मानव  में भेद  न हो तो

मानव    से    पशु   उत्तम  है,

अबला है तन-मन से कोमल

किंतु   पुरुष है   परुष  कड़ा।


                     - 4 -

अधिकारी   मजदूर  सभी  के

अलग -  अलग  अधिकार  हैं,

हैं कर्तव्य   अलग  ही   उनके

मन   में   बसे     विकार    हैं, 

सम्मानों   की   अलग तराजू

अलग        बटखरे     पैमाने,

'शुभम'न समझें जो इतना भी,

जीवन    वे     धिक्कार    हैं।


                    -5-

सरिता, सर, सागर की तुलना

करना    ही     बेकार       है,

सबका अपना -अपना जीवन

अलग    सभी   की   धार  है,

सरिता सींच रही  धरती को 

सागर   से     उठते    बादल,

सम्मानों के  सब   अधिकारी

व्यंजन,   स्वर ,  अनुस्वार हैं।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०८.२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

रविवार, 15 अगस्त 2021

झूले 👫🏻 [बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

👫🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पिछले  खेल-कूद  सब भूले।

कैसे  अब  हम  झूले   झूलें।।


काटे   बाग    बनाई   सड़कें।

जिन पर मोटर -कारें धड़कें।।


नहीं  झूलतीं  अब   बहिनाएँ।

हमें   कौन   झूले   झुलवाएँ।।


वे  दिन  गए   नहीं  वे   बातें।

दिन   सूने   सूनी   हैं    रातें।।


नहीं  मल्हारें    कजरी   गातीं।

माता  बहिनें नहीं   झुलातीं।।


झूलों  के   बस   नाम बचे हैं।

मोबाइल   के   नाच  नचे हैं।।


पींग     बढ़ाकर     झूला  झूलें।

'शुभम'तभी हम खुश हो फूलें।।

 

🪴 शुभमस्तु !


१४.०८.२०२१◆१०.१५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

पत्नी बनाम घर की लक्ष्मी 💃🏻 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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  -1-

भारत में गृहलक्ष्मी, का न उचित  परिवेश।

यदि  हो ऐसी कामना, जाओ मीत  विदेश।।

जाओ   मीत विदेश,चंचला वह   होती   है।

आज यहाँ कल वहाँ, प्रेम की निधि बोती है।

'शुभम' नहीं ठहराव, कई घर करती  गारत।

सहधर्मिणि हो एक,नीति यह चलती भारत।


   -2-

नाता पति का सुदृढ़ है, पत्नी से  लें  जान।

आती - जाती  लक्ष्मी,  नहीं करेगी  मान।।

नहीं   करेगी  मान,  छोड़ दूजे घर    जाए।

कल  थे  जो  पतिदेव,पलों  में बने   पराए।।

'शुभं' न उसको एक,कभी भी पति है भाता।

नहीं विष्णु अवतार, जन्म -जन्मांतर नाता।।

    -3-

देवी    पकड़ेगी   गला,  नहीं दबाएँ    पाँव।

गृहलक्ष्मी  जो  मानते, खेलेगी निज   दाँव।।

खेलेगी   निज  दाँव,  दबाओगे  पाँवों   को।

होगा जग उपहास,जताओ यदि गाँवों को।।

'शुभम' अगर स्वीकार,तुम्हें बनना पद सेवी।

तुम्हें    बचाए   ईश,  नहीं बख्शेगी    देवी।।


-4-

अपने को मत जानना,कमलापति भगवान।

सोओ खारी  क्षीरनिधि,बचें न नासा कान।।

बचें  न  नासा  कान,चंचला पाँव    दबावें ।

दबवाएँ  निज  पैर, जहाँ  चाहें वे   जावें।।

'शुभम' भली है एक, देख मत उनके  सपने।

कहलाती  जो  देवि, धाम में रह  तू  अपने।


 -5-

शैया साँपों की मिले, कमला के प्रिय कांत।

सागर में लहरें उठें,मन भी भीत  अशांत।।

मन भी भीत अशांत, लक्ष्मी चली न  जाएँ।

निशि दिन भय का भार, अकेले ही पछताएँ।

'शुभम' रहें पति मात्र, डूब जाए निधि  नैया।

रहें   रमा  से  दूर  ,खाट  की सोवें   शैया।।


देवी,देवि=लक्ष्मी।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०८.२०२१◆५.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

पति और गृहलक्ष्मी😄 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

😄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पत्नी को घर की लक्ष्मी

कहते हैं लोग,

मुझे नहीं लगता 

ऐसा कुछ उचित योग,

पति का रिश्ता 

पत्नी  से हो सकता है,

परन्तु लक्ष्मी से नहीं,

क्योंकि लक्ष्मी जी

आज कहीं

कल औऱ कहीं!

एक जगह डटकर

 रहती ही नहीं,

एक जगह पर

रुकना ठहरना

उनके चरित्र में नहीं,

फिर पति से 

लक्ष्मी जी की

पटरी कैसे

 बैठ सकती है,

ऐसी 'लक्ष्मी'

पति से कभी भी

ऐंठ सकती है।


हाँ, पश्चिमी देशों में

पति औऱ लक्ष्मी का जोड़

सही बैठता है,

आज शादी

कल तलाक़ का

फार्मूला वहाँ खूब चलता है,

वहाँ के ' विष् णू' देव

अपनी 'लक्ष्मी 'के चरण 

दबाते हैं,

'लक्ष्मियों' को गले  

दबाने से ही फ़ुर्सत नहीं,

अब तो अपने देश में

भी ऐसे 'विष् णू' 

मिल जाएंगे 

हज़ारों में 

कहीं न कहीं।


लक्ष्मी के लिए

एक अदद विष्णु भी

तो चाहिए,

भला पति कैसे निबाह

सकता है लक्ष्मी का साथ,

फिर बिस्तर लगाना होगा

शेषनाग के ऊपर

सागर की लहरों पर

करते हुए निर्वाह,

मालूम भी रखनी होगी

सागर की थाह,

कहीं करवट बदलने में

निकल ही गई आह,

तो बचाने भी 

नहीं आएंगे 

पनडुब्बी तैराक।


एतदनुसार 

मेरी नेक सलाह मानिए

औऱ अपने  घर में

 लक्ष्मी मत लाइए,

फिर मत कहना कि 

'शुभम' ने  

पहले क्यों नहीं बताया,

औऱ मैं 

एक अदद हुस्नपरी - सी

घर की लक्ष्मी ही 

ले आया, 

अब वह नहीं,

मुझे ही  उसके

एक जोड़ी कोमल 

  गोरे-गोरे चरण युगल

दबाने होते हैं,

जब मेरे मम्मी पापा

पार्श्व  कक्ष में

 तानकर सोते हैं।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०८.२०२१◆३.३०पतनम मार्तण्डस्य।

झूठानुयायी बनाम सत्यानुयायी 🤍 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🤍 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

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झूठ और सच

सच की चाल मंद-मंद,

झूठ फ़टाफ़ट

सरपट,

सच अंतर्भुक्त

झूठ प्रकट।


डरता हुआ - सा,

संकुचित सहमा -सा,

दबा - दबा - सा,

रुका -झुका - सा,

मगर उज्ज्वल दुग्ध -सा

रूप सबल  सच का।


सच को सिद्ध

करना पड़ता है,

प्रमाण देना -लेना पड़ता है,

परन्तु झूठ बलात्  

पिल पड़ता है,

अपनी हठ पर

बुरी तरह अड़ता है,

नहीं मानें तो 

हत्थे से

उखड़ पड़ता है,

नहीं सुनता किसी की,

सच देखता भी है,

सुनता भी है,

 अपने ताने - बाने को

ध्यान से  बुनता भी है।

सच मात्र सच को ही

चुनता भी है।


जमाना झूठ का,

दिन दहाड़े लूट का,

ईमानदार आदमी 

निरंतर टूटता,

जो जितना बड़ा झूठा

वह उतना ही बड़ा लूटा,

भले ही भरी दोपहर में

सड़क पर चप्पलों ने कूटा,

अख़बार में वही छपता,

बेशर्मी का लबादा

बदलता ,

 इस झूठ को छोड़

दूसरे झूठ में जा घुसता।


कमी ही नहीं

झूठ की ,

झुठानुयायियों की,

भीड़ की भीड़ ,

जैसे टिड्डियों की भीड़,

जहाँ भी बैठती

चौपट कर डालती

पहले गुदगुदाती

फिर बराबर सालती।


दिखाई देती है

तरक्की झूठ की,

चमचमाती है ऊँची

मंजिल लूट की,

सच के छप्पर पर

'शुभम' फूस भी

नहीं है,

उसे संतोष है कि

जो है वही सही है,

नहीं चुना उसने

झूठ का राजमार्ग,

उसने तो बस

अपनी टेढ़ी -मेढ़ी

पगडंडी की यात्रा ही 

चुनी है,

वह किसी विरक्त की

तप्त धूनी है।


🪴 शुभमस्तु !

१२.०८.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

परम्परा 🌾🌾 [ लेख ]


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 ✍️ लेखक © 🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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            मानव एक सामाजिक प्राणी है।मानवेतर अन्य प्राणियों से भिन्न संस्कृति औऱ सभ्यता उसके जीवन के अभिन्न अंग हैं। अपनी पावन संस्कृति औऱ सभ्यता की अनवरत बहती हुई सरिता में निमज्जन करती हुई मानव जाति आगामी पथ पर अग्रसर होती रहती है। उसकी सभ्यता और संस्कृति उसे पशु, पक्षियों,कीट, पतंगों आदि से भिन्न रूप में मानव बनाती है। 

            सभ्यता मानव मात्र को जीने का एक ऐसा बाहरी आवरण है ,जो उसके भोजन ,पानी, आवास आदि की व्यवस्था करता है।जबकि संस्कृति से उसके जीवन के आंतरिक रंग भरे जाते हैं। सभ्यता निरंतर समय - समय पर परिवर्तित होती रहती है, जबकि संस्कृति युग -युग से चली आ ऐसी प्रवृत्ति है जिसमे परिवर्तन नहीं होते।हमारी सभ्यता औऱ संस्कृति के समन्वय से हमारी विविध परम्पराओं का विकास होता है। हमारे तीज ,त्यौहार,विवाह, शादी, गौना, सोलह संस्कार आदि हमारी प्राचीन पावन संस्कृति के सहस्रों निदर्शन हैं।

                  परम्पराएं अतीत से चली आ रही वे मानवीय विशेष प्रवृतियां हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सरिता की तरह प्रवहमान होती रहती हैं।भौगोलिक वातावरण, स्थान, वर्ण ,धर्म आदि वे विविध कारक हैं, जिनसे परम्पराओं में वैविध्य आता है।बिना सोचे समझे जब हम उन पर चलते रहते हैं, तो यह समाज विशेष के पिछड़ेपन को द्योतित करता है।परंपराओं का यही रूप रूढ़ियाँ बन कर उसके विकास का गतिरोधक बन जाता है।

          प्रत्येक समाज के मुख्यतः दो रूप होते हैं । एक सामान्य वर्ग और दूसरा प्रबुद्ध वर्ग। सामान्य वर्ग इस तथ्य पर विचार किए बिना अंधानुकरण करता रहता है, कि इस प्रथा को अपनाने से उसे कोई लाभ है अथवा हानि हो रही है।बस बिना विचारे चलते रहना है। इसमें वह अपने पूर्वजों का सम्मान निहित मानता है।जब प्रबुद्ध वर्ग की चेतना इस ओर विचार करते हुए उसमें परिवर्तन लाती है ,अथवा उसका रूप बदलती है ,अथवा उसे छोड़ देती है ,तब वहाँ क्रांतिकारी बदलाव आता है। यहीं से परंपरा की धारा ,जो अंधी रूढ़ि बन चुकी है; समाप्त हो जाती है अथवा परिष्कृत कर दी जाती है। 

                  कोई कार्य इसलिए करते रहना कि हमारे बाबा,दादा, परदादा, या उससे भी पहले के पूर्वज करते थे , करते रहना समाज के पिछड़ेपन को प्रदर्शित करता है। युग परिवर्तन के साथ ही हमारी मान्यताएं बदलती हैं, विचार बदलते हैं, कार्य प्रणाली बदलती है, तब बंदरिया के मृत बच्चे की तरह उसे सीने से लगाए फिरना उचित नहीं है। इससे हमारे सामाजिक , आर्थिक ,पारिवारिक और वैयक्तिक विकास में बाधा उत्पन्न होती है।जो पिछड़ेपन की निशानी है। आज भी वे समाज पिछड़े हुए हैं , जो लकीर के फकीर बने अंधी परम्पराओं को गले से चिपकाए हुए हैं।

               अपने समाज ,परिवार औऱ निजी विकास के लिए स्वच्छ परम्पराओं की आवश्यकता है।युग परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए हमें बदल जाने की महती आवश्यकता है। ये परम्परा सम्बन्धी बदलाव इतनी सहजता से भी नहीं आ सकते। इन्हें जबरन थोपा भी नहीं जा सकता। मन और मष्तिष्क की धूल झाड़कर ही कुछ बदलाव किया जा सकता है। एक प्रबुद्ध व्यक्ति औऱ समाज को यह करना भी चाहिए।अन्यथा वह भी।गोबर का गुबरैला बना उतने ही दायरे में घूमता हुआ जीवन समाप्त कर लेता है। युग की बदलती हुई हवा के अनुरूप बदलाव लाना ही बुद्घिमत्ता है। उसका कूप मंडूकता से बाहर की शुद्ध हवा में श्वास लेना है। 

        आइए हम अपनी अंधी रूढ़ियों( सड़ी हुई परम्पराओं) का परित्याग करें और विश्व- पटल पर खड़े होकर देखें कि दुनिया कहाँ से कहाँ जा चुकी है।सभ्यता औऱ संस्कृति का सवेरा हो गया है। हम सब अपने को पहचानें औऱ अपनी सद्बुद्धि के आलोक में नई हवा में श्वास लें।देश औऱ समाज के कल्याण के लिए अपना सक्रिय योगदान करें। देश के सच्चे नागरिक और देशभक्त बनकर इतिहास के पृष्ठों में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कराएँ। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १०.०८.२०२१◆ ५.००पतनम मार्तण्डस्य

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अँगुली की चमकार 👈 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अँगुली की महिमा बड़ी,लोग कर रहे रोज़।

बेमतलब के शौक की,'शुभम'करेगा खोज।।


तनिक न पर-तन को छुए,कर देती चमकार।

मौन शब्द वाणी बिना, ये अँगुली  लाचार।।


सदा  दूसरी   ओर  ही, करती बद -  संकेत।

छेद  ढूँढ़ने  में  कुशल, अँगुली बनती  हेत।।


कभी  राह  अच्छी  बता, देती शुभ   निर्देश।

करती  है  गुमराह भी,अँगुली बदले    वेश।।


नाक रगड़वाती कभी,कभी पकड़ती कान।

अँगुली  घुस पर - पेट में,ले भी लेती जान।।


नोंच - खरोंचे  देह  को, भरवा देती   आह।

खोटी  कर  की  तर्जनी, की अद्भुत है चाह।।


उचका  देने  में कुशल, अँगुली है  हथियार।

सावधान रहना सदा,है शुभ-अशुभ विकार।।


दृष्टि  सदा  रख  सामने,मुड़े न अपनी  ओर।

पर  निंदा  में मगन है, अँगुली सबकी चोर।।


नहीं  गरेबाँ  झाँकती,  अँगुली अपना  एक।

छिद्र  फाड़ चौड़ा करे,फिर भी प्यारी नेक।।


तव सम्मुख जो अँगुलियाँ,उठें एक  भी बार।

उन्हें तोड़ने का रखें,साहस बिना    विचार।।


सावधान  रहना सदा, अँगुली है  बदकार।

'शुभम' बेधती और को,ठनवा देती   रार।।


पटल कुंजिका पर करे,अँगुली नित्य कमाल।

रचना को जीवित करे,करती नित्य धमाल।।


बिना  तर्जनी   हाथ  में, नहीं लेखनी   साथ।

गहती  अपने   अंक में, दिखलाती  है पाथ।।


सकल जगत गुणदोषमय,अँगुली उनमें एक।

बुरे भले  सब कर्म में,करती काम   अनेक।।


'शुभम' बिना टेढ़ी किए,घी आए  कब हाथ।

सदा  सहायक  तर्जनी, देती सबका  साथ।।


🪴 शुभमस्तु !

१०.०८.२०२१◆२.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


सोमवार, 9 अगस्त 2021

राष्ट्र -ध्वज 🇮🇳 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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तीन   रंग   में   लहराता    है।

राष्ट्र - ध्वज वह कहलाता है।।


उदित सूर्य - सा  ऊपर रँग है ।

केसरिया  का अपना ढँग है।।

शौर्य, पराक्रम  दिखलाता  है।

तीन  रंग    में   लहराता   है।।


मध्यम  भाग  दूध -  सा गोरा।

निर्मल शांति   प्रदाता  भोरा।।

हम सबको भी अति भाता है।

तीन  रंग     में  लहराता   है।।


नीचे  हरी   धरा  का  वाचक।

हरा रंग धन -धान्य सुवाहक।।

शीतलता   चित  में  लाता है।

तीन  रंग    में  लहराता   है।।


ध्वज की   शान  न  जाने देंगे।

अरि  के प्राण छीन हम लेंगे।।

आन - बान  को  बतलाता है।

तीन  रंग   में   लहराता   है।।


विश्व विजय करके हम लाएँ।

करके प्रण  कर्तव्य  निभाएँ।।

'शुभम'  देश   उन्नति पाता है।

तीन  रंग   में  लहराता   है।।


🪴 शुभमस्तु !


०९.०८.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...