सोमवार, 29 अप्रैल 2024

चाय की सरगर्मियाँ [ व्यंग्य ]

 193/2024

          


©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


    इधर  वैशाख- जेठ की  गरम - गरम लुओं से थपड़ियाती गर्मी और  उधर चाय के खोखों पर चाय -चाय की निरन्तर बढ़ती जा रही सरगर्मी ! सब अपनी - अपनी चाय की खूबियाँ बखान कर रहे हैं।सच क्या है और झूठ क्या है,इससे एकदम नहीं डर रहे हैं। चाय -सोमेलियर(परिचारक) का काम ही उसे चाय का विशेषज्ञ बनाता है। कोई चाय वाला क्या कभी अपनी चाय की कभी खामियाँ गिनाता है?  चाय बराबर बिक रही है,किन्तु वह खोखेदारों की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है। हर खोखेदार चाहता है कि केवल मेरी ही चाय बिके,उसके सामने और कोई क्यों टिके?जिसके भी हाथ में दिखे, उसी के ब्रांड का प्याला दिखे।

पर किया भी क्या जा सकता है? क्या कोई भी चाय की चुस्की लेने वाला चाय के स्वाद क्या ,उसके विज्ञापन पर मर मिट सकता है? माना कि कुछ जनता भेड़ हो सकती है; किंतु चाय का जादू  क्या सिर चढ़ कर बोल सकता  है? क्या वह ग्राहक के स्वाद में अमृत घोल सकता है?हर चाय के ग्राहक के चाय से अपने - अपने अलग स्वार्थ हो सकते हैं।जो पीकर चाय का चुक्कड़ दीवाने हो सकते हैं।

चाय बराबर खौल रही है।लगता है हर केतली कुछ अलग बोल रही है।आने - जाने वाले ग्राहकों को तोल रही है। पर ग्राहक के मन को कोई नहीं भांप पा रहा है।कभी इधर चखता है और पीने कहीं और जा रहा है।भेड़ों को भला कोई कब रोक पाया है ! वह कोई समझदार दोपाया नहीं,अन्धानुगामी चौपाया है। सब अपना- अपना गणित लगा रहे हैं कि किसके कितने प्याले काम आ रहे हैं।चरण दर चरण आगे बढ़े जा रहे हैं।पर चरणों के रुख नहीं जान पा रहे हैं। किसके चरणों ने किसका कप का वरण किया और तदनुसार अनुसरण  किया;यह एक अनुमानी - सी बात है। अब वे दिन गए 'जब बड़े मियाँ फ़ाख्ता उड़ाया करते थे।'अब तो यही बात सही लगती है कि 'वक्त पड़े बाँका, तो गधे को कहें काका।'

             सुना है चाय बनाने के लिए पानी,दूध,चीनी,लोंग,इलायची,अदरक और चाय की पत्ती की जरूरत होती है। यह अनुपात कैसा -कैसा हो, यह तो निर्माता विशेषज्ञ ही जानता है।थोड़े से अंतर से चाय का काढ़ा बन जाता है। पीने वालों की भी अपनी - अपनी पसंद है।उनकी बढ़ती संख्या से पता लगता है कि खोखेदार कितना हुनरमंद है।किसी खोखे पर एक बार स्वाद लेकर कोई बार -बार जाता है तो किसी को हमेशा के लिए अलविदा कह जाता है।इसी बिंदु पर चाय की क्वालिटी का पता लग पाता है।कोई  - कोई एक लीटर दूध में पूरा दिन निपटाता है तो किसी के लिए दस लीटर भी कम पड़ जाता है।

खोखे से धोखा मत खा जाना। अन्यथा पड़ेगा आपको बुरी तरह पछताना।विज्ञापनों में सब सच ही नहीं होता। जुआ रखा हो गधे के कंधों पर  और कहता है हमने  हाइब्रीड बैल ही जोता।बड़ी -बड़ी बातें सुनने को मिलेंगीं, ध्वनि विस्तारकों से नारों की लड़ियाँ सजेंगी।चाय आप पियेंगे और नशा इनको चढ़ेगा। देह पर बगबगा कुर्ता धोती और शीश पर मुड़ासा इनके फबेगा। चाय का शौक फरमाना है, तो विवेक को गिरवी नहीं रख  आना है।सबको पहले अच्छी तरह टटोलें,उससे पहले कुछ नहीं बोलें,

सत्य की तराजू पर चाय वाले को तोलें। अन्यथा पड़ जायेंगे सारे भविष्य में फफोले।खोखे वाले की नहीं, खोखे की धरती की मजबूती को परखना है। चाय के स्वाद में दीवाना बन इधर -उधर नहीं भटकना है।बिना देखे-भाले किसी सड़े आलू को नहीं गटकना है।ये चाय के खोखे तो उठते-बनते रहेंगे।यदि समझदारी से नहीं लिया काम तो पीने वाले कहीं के भी न रहेंगे।



शुभमस्तु !


29.04.2024●10.45आ०मा०

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चाय वही उत्तम भली [दोहा गीतिका]

 192/2024

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ऋतु  है तप्त निदाघ की,नहीं चाय की चाह।

शीतलता  की कामना, भरती हृदय उछाह।।


चाय-चाय की टेर से, बिगड़ा जिनका स्वाद।

आया   प्याला  चाय  का,नहीं कह रहे वाह।।


स्वाद  सदा  रहते  नहीं, सबके  एक समान।

देती   तब  आनंद  जो, देती   है  अब  दाह।।


सुलग रहे  चूल्हे  बड़े, छोटों की क्या पूछ ?

रंग  न  आया   चाय में,बदली मनुज पनाह।।


नेता   ले-ले   केतली,  दौड़   रहे  हर ओर।

इधर देखते  क्यों  नहीं,क्या हम करें गुनाह ??


हित अनहित अपना सभी,जानें चतुर सुजान।

चाय  वही  उत्तम भली, दिखलाए नव  राह।।


शुभम्' जगा है देश अब,ठगना क्या  आसान?

बासी   ठंडी   चाय    की, भाए नहीं सलाह।।


शुभमस्तु !


29.04.2024●7.15आ०मा०

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चाय की चाह [सजल ]

 191/2024

                 

समांत    : आह

पदांत     : अपदांत

मात्राभार : 24.

मात्रा पतन :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ऋतु  है तप्त निदाघ की,नहीं चाय की चाह।

शीतलता  की कामना, भरती हृदय उछाह।।


चाय-चाय की टेर से, बिगड़ा जिनका स्वाद।

आया   प्याला  चाय  का,नहीं कह रहे वाह।।


स्वाद  सदा  रहते  नहीं, सबके  एक समान।

देती   तब  आनंद  जो, देती   है  अब  दाह।।


सुलग रहे  चूल्हे  बड़े, छोटों की क्या पूछ ?

रंग  न  आया   चाय में,बदली मनुज पनाह।।


नेता   ले-ले   केतली,  दौड़   रहे  हर ओर।

इधर देखते  क्यों  नहीं,क्या हम करें गुनाह ??


हित अनहित अपना सभी,जानें चतुर सुजान।

चाय  वही  उत्तम भली, दिखलाए नव  राह।।


शुभम्' जगा है देश अब,ठगना क्या  आसान?

बासी   ठंडी   चाय    की, भाए नहीं सलाह।।


शुभमस्तु !


29.04.2024●7.15आ०मा०

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चाय खौलने लग गई [ दोहा ]

 190/2024

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चाय  खौलने  लग   गई, इधर  जेठ वैशाख।

सूरज  का  पारा  चढ़ा,कृष्ण चंद्र का पाख।।

चीनी पड़ी  न  चाय में, भरती   चाय उबाल।

बिना दूध   कैसे  पिएँ,  दूषित रूप जमाल।।


नेता   अपनी  केतली, लिए  खड़े हर द्वार।

कोई  तो  आकर  पिए,चाय पुनः इस बार।।

स्वाद  बदलने  की  बड़ी,इच्छा मन में  मीत।

दूध  नहीं  इतना  मिला,मिले चाय को  जीत।।


अलग-अलग खोखे खड़े, बेचें अपनी   चाय।

ग्राहक  मीलों  दूर  से,  करता  है क्यों  बाय??

वर्षों  से  जो   पी  रहे,  राजनीति  की  चाय।

कष्ट   वही  अब  दे  रही, निकले मुख  से हाय।।


चाँय-चाँय  चिल्ला  रहे, जनता सुने न  बात।

मन  में   क्या  उसके  लगी, छाई काली  रात।।

सपने  मीठी  चाय  के,  दिखलाते नित   लोग।

स्वाद  नहीं अब  दे  रही, करती नहीं निरोग।।


ग्राहक चतुर सुजान है,हित अनहित की बात।

जान रहा वह चाय  से,जलता  अंतर   गात।।

भोले  का   मतलब नहीं, समझे कोई मूढ़।

भेड़   नहीं  जनता  यहाँ, बने चाय की रूढ़।।


पिया चाय  के रूप में, मीठा जहर सदैव।

खूबी  खामी  जानते,  ठग न सकोगे नैव।।

रंग चाय का  अब  नहीं,जो था बीते काल।

बदल वेश अब  घूमते, जैसे भैंस- दलाल।।


शुभमस्तु !

28.04.2024●9.15 प०मा०

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शनिवार, 27 अप्रैल 2024

कीचड़-उछाल युग [ व्यंग्य ]

 189/2024 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

               यह 'कीचड़-उछाल संस्कृति' का युग है। यत्र-तत्र-सर्वत्र कीचड़- उछाल उत्सव का वातावरण है। कोई भी कीचड़ उछालने में पीछे नहीं रहना चाहता।इसलिए दूसरे पर कीचड़ उछालने में वह अपने अंतर की हर दुर्गंध,दूषण,कचरा,कपट, कुभाव, कुवृत्ति, कुविचार और कुभाषा को कषाइत करने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।यह वह स्थान है,जहाँ हर मानव अपनी मानवता को तिलांजलि देता हुआ बिना किसी भेदभाव के एक ही आसन पर बैठा हुआ पाता है।वहाँ पद,प्रतिष्ठा,पाप-पुण्य आदि ठीक वैसे ही एकासन पाते हैं,जैसे श्मशान में किसी के अंतिम संस्कार में जाते समय अपने अहं को बिसार निर्वेद भाव पर निसार हो जाते हैं।हाँ, एक विपरीत स्थिति यह भी है कि यहाँ अहं नष्ट नहीं होता,अपितु अपने चरम पर होता है।यदि स्वयं का अहं ही नष्ट हो जाएगा तो पराई कीचड़ भी सुगंधित मिष्ठान्न बन जाएगी।फिर वह बाहर उछाली न जाकर हृदयंगम ही की जाएगी।

           यह भी परम सत्य है कि कभी किसी भी मानव या 'महामानव' अथवा 'महानारी 'ने अपने गले में झाँककर नहीं देखा। यद्यपि वह देख सकता था।यदि देख पाता तो कीचड़ -उछाल का आनंद नहीं ले पाता।अपने और अपनों को छोड़ सर्वत्र कीचड़ ही कीचड़ का दृष्टिगोचर होना उसे देवता नहीं बना देता ; क्योंकि सभी देवता गण दूध के धोए नहीं हैं । अब चाहे वे देवराज इंद्र ही क्यों न हों।अपने को स्थापित करने के उद्देश्य से दूसरे की बुराई देखना और उसे सार्वजनिक करना ही कीचड़- उछाल कहा जाता है।लेकिन क्या इससे कोई कीचड़- उछालू गंगा जल जैसा पवित्र मान लिया जाता है? 

          यों तो कीचड़ उछालना मानव मात्र की चारित्रिक विशेषता है।किंतु साथ ही वह उसकी नकारात्मक वृत्ति ही है। वह उसकी महानता में निम्नता लाने वाली है।कीचड़ उछालने वाला अपने अहंकार में किसी को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। वह अपने को सर्वश्रेष्ठ मानता हुआ मानव - शिरोमणि होने का अवार्ड अपने नाम कर लेता है।'मैं ही हूँ' सब कुछ,सर्वज्ञ, सर्वजेता,सर्वश्रेष्ठ। यह भाव उसके विवेक पर पूर्ण विराम लगाता हुआ उसकी चिन्तना को प्रभावित करता है।यह उसके अधः पतन और विनाश का मूल है।वह नहीं चाहता कि कोई और आगे बढ़े। वह किसी भी व्यक्ति या संस्था में अच्छाई नहीं देखता। उसे सर्वत्र बदबू और प्रदूषण ही दृष्टिगोचर होता है।परिणाम यह होता है कि वह 'एकला चलो रे' की स्थिति में आकर अकेला ही पड़ जाता है। जब तक उसे अपने स्वत्व और दोष का बोध होता है,तब तक गंगा में बहुत ज्यादा पानी बह चुका होता है।एक प्रकार से इसे अज्ञान का मोटा पर्दा ही पड़ा हुआ मानना चाहिए। अब पछताए होत कहा,जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत'। 

           यद्यपि वर्तमान रजनीति में कीचड़-उछाल का विशेष महत्त्व है। किसी के ऊपर कीचड़ उछालने से कुछ अबोध जन द्वारा वैसा ही मान लिया जाता है। कहना यह भी चाहिए कि कीचड़ राजनीति की खाद है,वह उसकी पोषक तत्त्व है।जो जितनी कीचड़ उछालने की दम रखता है,उस नेता का स्तर उतना ही बढ़ जाता है।बस कीचड़ उछालने की सामर्थ्य होना चाहिए।यह सामर्थ्य धन बल ,पद बल और सत्ता बल से आती है।भूखा आदमी भला क्या खाकर कीचड़ इकट्टी करेगा। कीचड़ को भी बटोरना ,समेटना और सहेजना पड़ता है।कीचड़-उछालूं में दूर दृष्टि,पक्का इरादा और सहनशीलता की अपार सामर्थ्य होनी चाहिए।सहनशीलता इस अर्थ में कि उसे भी दूसरे की कीचड़ सहन के लिए दृढ़ता होनी चाहिए।

                कीचड़ -उछाल भी एक प्रकार की होली है, जिसमें कोई किसी के द्वारा कुछ भी डाल देने का बुरा नहीं मानता।अपनी मान,मर्यादा ,पद,प्रतिष्ठा आदि को तिलांजलि देकर ही कीचड़ -उछाल की शक्ति आती है।यह भी नेतागण का परम त्याग है, तपस्या है और है अपने चरित्र और गरिमा को अहं के नाले में विसर्जित करने की अपार क्षमता। इस स्थान पर आकर व्यक्ति 'परम हंस' हो जाता है। फिर तो उसे अपने खाद्य -अखाद्य में भी भेद करने का भाव भी समाप्त हो जाता है।यह उसके चरित्र की पराकाष्ठा है।

                 कीचड़ वर्तमान राजीनीति का शृंगार है। आज की राजनीति में कीचड़-गंध की बहार है।इसे कुछ यों समझिए कि यह जेठ - वैसाख की तपते ग्रीष्म में सावन की मल्हार है।वसंत की बहार है।भेड़ों की तरह हाँकी जा रही जनता का प्यार है।वह भी इसी को पसंद करती है ,क्योंकि ये नेतागण भी तो वही डोज देते हैं,जिससे जन प्रिय बनने में कोई रोड़ा न आए।और फिर ये नेताजी भी तो उसी समाज के उत्पादन हैं,जिन्हें उसकी सारी खरी - खोटियाँ देखने - समझने का सुअवसर पहले से ही मिला हुआ है।

         जहाँ आदमी है,वहाँ कीचड़ भी है। वह हर मानव समाज का अनिवार्य तत्त्व है।यह अलग बात है कि वह सियासत का सत्व है।कीचड़ से नेताजी का बढ़ता नित गुरुत्व है।जब नाक ही न हो ,तो कीचड़ की बदबू भी क्यों आए? इस बिंदु पर बड़े - बड़े तथाकथित 'महान' भी स्थित पाए। दृष्टिकोण बदलने से दृष्टि भी कुछ और ही हो जाती है।इसलिए भले ही कहीं कितनी भी कीचड़ हो ;वहाँ पावनता ही नज़र आती है।एक की खूबी स्थान भेद से कीचड़ बन जाती है ।इसका अर्थ भी स्पष्ट ही है कि जो कुछ है कीचड़मय है। इसीलिए कीचड़ के प्रति प्रियता है, लय है।कीचड़ ही वर्तमान सियासत का तीव्रगामी हय है। कीचड़ में वैचारिक क्रांति का उदय है;क्योंकि जन भावना का निज स्वार्थों में विलय है।

 शुभमस्तु ! 

27.04.2024●10.30आ०मा० 

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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

नहीं रहे वे खेल [ गीत ]

 161/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बीत गए वे

दिन अतीत के

नहीं रहे वे खेल।


नहीं बनावट 

थी जीवन में

और नहीं कुविचार।

सादा जीवन

ऊँचा चिंतन

जीवन ज्यों खिलवार।।


टायर लिए

पुराना कोई

चलती अपनी रेल।


कभी कबड्डी

खेले मिलकर

दौड़े नंगी देह।

नहीं माँगते

पैसे घर से

खूब नहाते मेह।।


लंबी ऊँची

कूद कूदते

सबसे रखते मेल।


गिल्ली डंडा

हरियल डंडा

गेंद खेलते रोज।

नंगे पाँव

न महँगे जूते

रहता मुख पर ओज।।


आँधी पानी

कुछ भी आता

सबको लेते झेल।


शुभमस्तु!


02.04.2024●9.00 आ०मा०

उपकार [कुंडलिया]

 188/2024

                   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                        -1-

करना  हो  उपकार   तो, उर  हो महा उदार।

हित सीमा  वर्द्धन करें, तब हो पर उपकार।।

तब  हो  पर उपकार,सभी को अपना  जानें।

खींचें  उतनी   डोर,  नहीं   सीमाधिक  तानें।।

'शुभम्' यही है धर्म, जीव हित जीना - मरना।

निश्छल हों तव कर्म,सदा  शुभ चिंतन करना।।


                        -2-

मानव - तन दुर्लभ  सदा,रखना उसका मान।

जीवों का उपकार कर,विस्तृत  बना  वितान।।

विस्तृत   बना   वितान,  पेट  भर लेते कूकर।

खाते  सदा  अखाद्य , गली  में भटके सूकर।।

'शुभम्' करे  जो  दान,नहीं  जो मन से दानव।

मानव   वही  महान, कर्म  से  बनता मानव।।


                        -3-

आया    तू  संसार   में, धर   मानव की   देह।

लख  चौरासी  योनियाँ, करके पार स - नेह।।

करके  पार  स-नेह,   बहुत  दुर्लभ नर- देही।

कर ले  पर  उपकार, बने जन-जन का  नेही।।

'शुभम्' न  बार हजार, मिले  तन तू पछताया।

कृमि खग सूकर योनि,अभी नर तन में आया।।


                        -4-

जीना  वह  जीना  नहीं, किया नहीं उपकार।

मुख से  भाषण  भौंकता,जैसे श्वान सियार।।

जैसे  श्वान  सियार,  नहीं  उपकार किया है।।

भरता  अपना  पेट , नहीं  सेवार्थ जिया  है।।

'शुभम्' स्वार्थ के हेतु,जन्म भर परधन छीना।

श्रेष्ठ  अन्य  सब जंतु, जानते परहित जीना।।


                        -5-

पारस  तन तुझको मिला, जाना नहीं महत्त्व।

लोहे  से  सोना  बने,  शोभन सकल गुणत्व।।

शोभन सकल गुणत्व,मनुज उपकार न करता।

भूल कर्म  का  धर्म,प्राण धन जन के हरता।।

'शुभम्'  भेद  पहचान, नहीं तू बगुला सारस।

लगी मत्स्य  पर दृष्टि,  बनाकर भेजा पारस।।


शुभमस्तु !


26.04.2024●8.00आ०मा०

लोकतंत्र की उलझन [अतुकांतिका]

 187/2024

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लोकतंत्र की

परिभाषा में

लोकतंत्र उलझा है,

उल्लू अपना

सीधा  करने में

जन-जन झपटा है।


जनहित से

उसको क्या करना

अपना ही हित पहले,

बड़े -बड़े मिथ्या 

भाषण से

दे नहले पर दहले।


नेता को

सत्तासन चाहे

जनता चाहे रोटी,

किसे देश की

चिंता भारी

गिद्ध झपटते बोटी।


चले कहाँ से

कहाँ पहुँचना

पता नहीं गंतव्य,

दिखे तिजोरी

अपनी भारी

अंधा है भवितव्य।


'शुभम्' जानते

भला - बुरा सब

दिखता केवल स्वार्थ,

देश बचाना

धर्म न समझा

बचा कहाँ परमार्थ।


शुभमस्तु !


26.04.2024 ●6.15आ०मा०

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आरति पंकपुत्र की गाऊँ [ गीत ]

 186/2024

        

©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आरति    पंकपुत्र     की    गाऊँ।

मतदाता   को    खूब    रिझाऊँ।।


महक   रहे   दलदल   में   भारी।

सत्तासन    की      है     तैयारी।।

देख    रूप      तेरा    ललचाऊँ।

आरति  पंकपुत्र     की     गाऊँ।।


विष्णु-  नाभि  से  तुम   उग आए।

ब्रह्माजी    के     पिता     कहाए।।

रात -दिवस तुमको    बस  ध्याऊँ।

आरति  पंकपुत्र      की      गाऊँ।।


कमलासन   तुम   ही     कहलाते।

मानव  -   देवों     को     बहलाते।।

जलकुंभी  - सा    जग में    छाऊँ।।

आरति    पंकपुत्र     की     गाऊँ।।


झूठ     बोलना      है      मजबूरी।

बढ़े   न  जनता जी      से     दूरी।।

बार  -  बार    कहकर    पछताऊँ।।

आरति    पंकपुत्र    की     गाऊँ।।


सूर्योदय  के  सँग      तुम    आते।

नेताजी   को    तुम     ललचाते।।

कीचड़  जैसा  धन    भर    पाऊँ।

आरति  पंकपुत्र     की      गाऊँ।।


कमलापति  -  सी     शैया   मेरी।

मुझे     सुलाए     नींद     घनेरी।।

कीचड़ पर  तुम -  सा    उतराऊँ।

आरति    पंकपुत्र    की    गाऊँ।।


'शुभम्'   चंचला    हो    घरवाली।

जग  में जिसकी ख्याति  निराली।।

जाए     एक        दूसरी      पाऊँ।

आरति   पंकपुत्र       की    गाऊँ।।


शुभमस्तु !


25.04.2024●11.00 आ०मा०

कीचड़ आशावान है [ दोहा ]

 185/2024

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कीचड़  आशावान है,खिले कमल का फूल।

भक्त  करें  नित  आरती,  ओढ़े  हुए दुकूल।।

कीचड़-गंध  सुहावनी, गई  नासिका बीच।

लगे   मलयवत  पावनी,खुशियाँ  रहे उलीच।।


कीचड़ से मन बुद्धि का, जिनका हर शृंगार।

चिंतन उनका गेह का,करना निज उपकार।।

आशाओं  का  केंद्र है, कीचड़ दलदल  आज।

सूरज  से  पंकज  खिले, करे ताल पर  राज।।


उभय लिंग जननी पिता,कीचड़ जिसका नाम।

कमल  खिलाते   गर्भ  से,आए  पूजा  -  काम।।

धन - देवी  की  चाह  में, होती कीचड़ - भक्ति।

पंकज  पर  आसीन हों,रमा कनक की शक्ति।।


भले   भरा   हो   देह    में, कीचड़   का   अंबार।

मुख से  झरते  फूल  ही,कलुषित कपटी प्यार।।

कीचड़  के  गुण  फूल में, कभी न जाते  साथ।

घृणा  करें  जो  पंक  से,पंकज को नत   माथ।।


कीचड़   में  जो  जा फँसा ,कभी  न हो  उद्धार।

टाँग  पकड़  वह  खींचता, गाढ़ दलदली  धार।।

कीचड़  से  ही  जन्म  हो, कीचड़  में अवसान।

देखे  आँख  न  खोल  कर, और न देता  कान।।


बाहर  - भीतर  ठौर सब, कीचड़  के धन- धाम।

इसीलिए  तो  जानकर,  बढ़ते  भक्त सकाम।।


शुभमस्तु !


24.04.2024●9.00प०मा०

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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

कीचड़ - साधना [व्यंग्य ]

 184/2024

            


© व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कीचड़ मानव - समाज की एक आवश्यक आवश्यकता है।कीचड़ के बिना मानव के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।  इसलिए जहाँ - जहाँ मनुष्य ,वहाँ-वहाँ कीचड़ भी एक अनिवार्य तत्त्व है।क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर नाम के पंच महाभूतों की तरह 'कीचड़' भी उसका अनिवार्य निर्माणक है।कीचड़ का घनिष्ठ संबंध केवल सुअरों से ही नहीं है,मनुष्य मात्र से भी उतना ही आवश्यक भी है।आप सब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि कमल कभी स्वच्छ निर्मल जल में जन्म नहीं लेता। उसके जन्म लेने के लिए कीचड़ का होना या उसे किसी भी प्रकार से पैदा करना आवश्यक होता है। आप यह भी अच्छी तरह से जानते होंगे कि किसी भी वैज्ञानिक ने आज तक प्रयोगशाला में कृत्रिम कीचड़ नहीं बनाया।प्रयास तो अनेक बार किया गया,किन्तु मनुष्य अभी तक सफल नहीं हो पाया।इससे यह भी स्प्ष्ट होता है कि कीचड़ पैदा करना सबके वश की बात नहीं है।

       आपको यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता और देशाभिमान होगा कि हमारे यहाँ कीचड़ -जनकों की कोई कमी नहीं है। यहाँ कीचड़ जन्म से लेकर कीचड़ फैलाने वालों की बड़ी संख्या है।जो कीचड़ निर्माणक अथवा जनक तत्त्व हैं,उन्हें कीचड़ की गंध भी बहुत ही प्रिय है।वे अहर्निश आकंठ कीचड़ाबद्ध रहना चाहते हैं।  यहाँ कुछ ऐसे 'महाजन' भी हैं,जिनकी  बिना कीचड़ में लिपटे हुए साँस घुटने लगती है। उन्हें लगता है कि उनके प्राण अब गए कि तब गए।उनका कीचड़- प्रेम ठीक उसी प्रकार का है ,जैसे जल के बिना मीन ,वैसे ही उन्हें लगता है कि बिना कीचड़ कोई लेगा उनके प्राणों को छीन, इसलिए वे रात - दिन कीचड़ में रहते हैं सदा लवलीन।तथाकथित का यह महा कीचड़ - नेह जगत -प्रसिद्घ है।यह अलग बात है कि उनमें कोई रक्त पिपासु मच्छर- बन्धु है तो कोई नर माँसाहारी गिद्ध है।मानना यह भी पड़ेगा कि कीचड़ के दलदल के वे मान्यता प्राप्त चयनित सिद्ध हैं।

आप भले ही यह कहते रहें कि आपको कीचड़ की महक जरा - सी भी नहीं सुहाती। देखकर कीचड़ का अंबार आपको मितली - सी आती।अरे बंधुवर ! यह तो अपनी-अपनी पसंद की बात है।बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद ! यदि कीचड़ -गंध आपको जरा भी न सुहाए तो उचित है यही की आप दूर ही अपना आशियाँ बनाएँ। ये वे बाईस पंसेरी वाले धान नहीं हैं ,जो हर कोई पचा पाए ! 

कीचड़ के अनेक नाम हैं।जैसे पंक,कीच आदि। यह पुरुष भी है और स्त्री भी ।यों कहिए कि यह उभयलिंगी है ,क्योंकि यह अपनी संतति पंकज का पिता भी है और जननी भी। तारीफ़ कीजिए उन कीचड़ -प्रेमियों की ,उनके महा धैर्य की कि उसकी संतति के जन्म की प्रतीक्षा में वे जीवन लगा देते हैं,किन्तु कभी कभी तो कमल कभी खिलता ही नहीं,उन्हें उनकी साधना का सुफल मिलता ही नहीं।साधना हो तो ऐसी ,जैसी एक कीचड़-प्रेमी करता है।इसीलिए कोई- कोई तो आजीवन चमचा बन अपने वरिष्ठों का हुक्का ही नहीं पानी भी भरता है।पर कमल तो कमल है,जो जब खिलता है तभी खिलता है,हर दलदल में कलम कहाँ खिलता है ! हाँ,इतना अवश्य है कि इंतजार का फल मीठा होता है,तो उनके लिए कीचड़ भी  माधुर्य फलदायक बन जाता है  और उनके परिवेश को महका  -  महका जाता है।अपने सु मौसम के बिना कोई फूल नहीं खिलता है ,तो कमल को ही क्या पड़ी की बेमौसम खिल उठे,गमक उठे और उनके लक्ष्मी - आसन पर प्रतिष्ठित हो सके।

व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा का नाम है कीचड़। जो रंग में भले काला हो, बदबू वाला हो, किन्तु धर्म के दस लक्षणों में उसका स्थान पहला ही है।इस प्रकार अन्य प्रकारेण कीचड़ धर्म का एक लक्षण ही हुआ।जहाँ कीचड़ वहीं पंकज।उदित होता है भोर की किरण के साथ सज -धज। इसलिए हे बंधु ! तू  कीचड़ ,कीचड़, कीचड़ ही भज। कीचड़ को कभी भी मत तज। कीचड़ से ही तो तू होगा पूज्य ज्यों अज।बलि का अज (बकरा) बनने से बच जाएगा,यदि पूर्ण श्रद्धापूर्वक कीचड़-साधना में रम जाएगा।कीचड़ पंथियों के लिए कीचड़ -साधना अनिवार्य है।बस लगे रहें,डटे रहें,सधे रहें।बारह साल बाद तो घूरे के भी दिन बदलते हैं,तो आप किसी घूरे के अपवाद भी नहीं। यदि रखोगे स-धैर्य विश्वास तो तो कीचड़ में भी कमल भी खिलेंगे हर कहीं। कीचड़ -साधना क्यों ? एक उम्मीद की ख़ातिर, एक विश्वास के लिए, एक सु -परिणाम के लिए।बिना कीचड़ -साधना के पन्थी जिए तो क्या जिए?

शुभमस्तु !

24.04.2024●9.45 आ०मा०

                   ●●●

गहराता ग्रीष्म [ दोहा ]

 183/2024

             


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                सब में एक


रविकर धधकें जेठ में,बनकर भीषण ज्वाल।

पकी फसल गोधूम की,करती खड़ी धमाल।।

शब्द - ज्वाल के तेज से,हो जाता उर  खाक।

वाणी शीतल  ही  भली,रसना को रख पाक।।


धधक निदाघी भानु की,सही न जाती मीत।

दिनकर  चलते  जेठ  में,चाल क्रुद्ध विपरीत।।

सुनकर रिपु के कटु वचन, धधक रहा है रक्त।

आग  जले प्रतिशोध की,हृदय हुआ है  तप्त।।


श्वान घुसा ज्यों गेह में,गृहिणी ने ली लूक।

चूल्हे  से  ले  तानकर , मारी  हुई न चूक।।

बरस  रहे  हैं शून्य से,लूक सुलगते  नित्य।

जेठ और वैशाख  में, क्रोधित  हैं आदित्य।।


शीतलता  में   नम्रता,  करती भाव -  निवेश।

धी मन  को शीतल रखें,करें न अनल  प्रवेश।।

बैठे  तरु  की  छाँव में,तन- मन हुआ प्रसन्न।

शीतलता सुख शांति दे,हरती भाव विपन्न।।


दिया  रात - दिन नेह से,फिर भी नदिया नाम।

स्वार्थ भरे  क्यों  लोग  हैं, नहीं जानते  काम।।

तप्त जेठ की आग है, नदिया उधर  अबाध।

जल सेवा  सबकी  करे, सजल साधना  साध।।

    

               एक में सब

लूक धधक रवि- ज्वाल में,शीतलता का नाम।

नदिया को  यदि  छोड़ दें,नहीं लेश   भर  काम।।


शुभमस्तु !


24.04.2024●7.45आ०मा०

कमलम्मा की आरती [गीत ]

 182/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आरति  करूँ  कमल  की अम्मा।

लगा  तुम्हारी   शत    परिकम्मा।।


जिस पर   वास    लक्ष्मी   करतीं।

पंकज  चरण   कमल  पर धरतीं।।

भक्त     नाचते       छम्मा - छम्मा।

आरति  करूँ   कमल   की  अम्मा।


कहते    तुममें   महक   बड़ी    है।

शुभ  पूजन  की  आज   घड़ी  है।।

तुम्हें     चाहता      सारा     उम्मा।

आरति  करूँ कमल   की   अम्मा।।


नाला -  नाली   में     तुम   पाओ।

निज भक्तों   को   खूब   रिझाओ।।

बन भक्तों    का     प्यारा    सुम्मा।

आरति  करूँ  कमल  की   अम्मा।।


कब   तुम     गर्भ    धरोगी    देवी।

पूछ  रहे    तव    पद   रज   सेवी।।

रहती   हो   तुम  क्यों   नित गुम्मा।

आरति  करूँ कमल   की   अम्मा।।


धूप  - दीप    मैं     नित्य   जलाऊँ।

अडिग   भक्त     तेरा     कहलाऊँ।।

बनूँ      एकमात्र        तव      रम्मा।

आरति  करूँ कमल    की   अम्मा।।


लगे  भजन   में कोटि - कोटि जन।

तुमसे  लगा   दिमाग   हृदय   तन।।

बजते  डफ -  ढोलक ध्वनि   धम्मा।

आरति  करूँ   कमल   की  अम्मा।।


'शुभम्'    तुम्हीं   सत्तासन    लातीं।

दलदल    में    दुश्मन     फँसवातीं।।

गड़ते       जाते      बकरे       दुम्मा।

आरति  करूँ  कमल   की   अम्मा।।


*उम्मा=राष्ट्र।

*सुम्मा= किसी विशेष क्षेत्र की कार्य   शृंखला को संश्लेषित करना।

*रम्मा=बरछेबाज।


शुभमस्तु !


23.04.2024●9.45प.मा.

कीचड़ बड़ी चमत्कारी है [गीतिका]

 181/2024 

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कीचड़    बड़ी    चमत्कारी    है।

लगातार   भू    पर    तारी    है।।


महक   रही  तन -  मन   में  ऐसे,

जन -  जन   में   होती  भारी  है।


कहते   लोग कमल  की  जननी,

मान   रही    दुनिया    सारी   है।


'भक्तों'  की   आँखों  में   कीचड़,

भर    देती   नव    उजियारी   है।


कानों    में   भी   कीचड़   काली,

बजा  रही  ध्वनि   नित  न्यारी है।


दिल - दिमाग कीचड़  से  लिथड़े,

दुश्मन    को    पैनी     आरी   है।


कीचड़ -  पूजा   में    रत    चमचे,

पता  नहीं     किसकी    बारी   है।


कीचड़      खाते     सूँघें    कीचड़,

कोटि-  कोटि को  अति प्यारी  है।


पूज  रहे   पंकज     की    जननी,

सत्तासन     की       तैयारी      है।


'शुभम्'  चरण - वंदन   तू   कर ले,

विपदा    कीचड़   ने    टारी     है।


शुभमस्तु !


23.04.2024●8.30प०मा०

मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

मोबाइल ऑफ:शांति ऑन [ व्यंग्य ]

 180/2024

     


©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


        मेरे मित्रों और मोबाइलियों को प्रायः मुझसे यह शिकायत रहती है कि जब भी  फुनफनाते हैं,आपका मोबाइल बन्द पाते हैं।अंततः आप बिना मोबाइल मोबिल्टी के कैसे रह पाते हैं।इस शिकायत पर वे एक ही नपा -  तुला उत्तर पाते हैं,कि हम ज्यादा कहने - सुनने में ज्यादा यक़ीन नहीं लाते हैं।इसलिए आकाशीय महलों में भरपूर घूम -फिर पाते हैं।अब आपकी तरह तो हैं नहीं कि हरदम फुनफुनाते रहें।दो इधर की और चार उधर की सुनें और आपको सुनाते रहें।भला और भी शै हैं बंदे के पास फुनफनाने के सिवा। एक फोन ही नहीं हमारे दर्दों की एकमात्र दवा।अरे भई! ये मोबाइल भले ही एक मशीन है,तो उसे भी तो कुछ आराम की ज़रूरत है ! ये तो नहीं कि घंटों मोबलाते रहो और इसकी उसकी चुगली करके आपको रस दिलाते रहो।

आपकी यह शिकायत भी उचित नहीं लगती कि फोन बंद क्यों, फोन हमारा है इसलिए बंद यों।यदि आपको हमसे ही ज्यादा फुनफुनाना है तो एक मोबाइल भी उधर से  इधर को पहुँचाना है।आप तो ऐसे फ़रमा रहे हैं,जैसे आपकी ही प्रोपर्टी को हम लिए जा रहे हैं।फोन में आपकी कोई साझेदारी तो है नहीं ,जो इतने जेठ वैशाख हुए जा रहे हैं।शायद यह कहावत भी तभी बनी होगी कि उलटा चोर कोतवाल को डाँटे।जो आप उलाहना भरे चलाते हैं चाँटे।बेशक आपके ये बोल हमें लगते हैं काँटे।ये वो मोबाइल नहीं जो वोट बढ़ाने के नाम पर नेताओं ने  जनता में बाँटे।

आज के जमाने को फुनफुनाने का यह एक ऐसा असाध्य रोग लगा है,जिसके समक्ष किसी का कोई नहीं सगा है।आप सभी देखते होंगे,देखते क्या करते भी होंगे तो यह कोई विश्व का आठवाँ अजूबा तो हो नहीं गया।मोटर साइकिल पर दनदनाते हुए चले जा रहे हैं,आँखें, कान और सौ फीसद ध्यान मोबाइल में लगाये हुए कान और कंधे के बीच चाँपे हुए।अब जो होना है ,सो हो ले। किन्तु क्या क्या वे कभी चल सकेंगे हौले - हौले। क्या बताएँ, बेचारे व्यस्त ही इतने हैं ,मानो किसी जनपद के कलक्टर ही हों।नीचे उतर कर या दो मिनट खड़े होकर बात करने की उन्हें फुरसत कहाँ? जिम्मेदारियों का बोझा ही इतना गुरुतर है कि तसल्ली से बात करने का अवकाश कहाँ?

एक बार मैं निजी वाहन से हरिद्वार जा रहा था।  सुबह लगभग सात बजे का समय था । तो क्या देखता हूँ कि एटा के पास अचानक मेरी दृष्टि एक खुले खेत में पड़ गई ,तो क्या देखा कि अवगुंठन आबद्ध एक युवा महिला खेत में दीर्घ शंका निवारण के साथ ही फोन पर फुनफुना रही थी। ऐसे दृश्यों पर अनायास दृष्टि चली ही जाती है। आँखें हैं इसलिए वे सब कुछ देख लेती हैं और अंदर तक दिखवा भी देती हैं।यही नहीं कुछ बेहद भद्र महिलाओं को मोबाइल पर फुर्सत के वक्त घंटों फुनफुनाने का रोग है और भयंकर रूप से है। यही रोग कुछ पुरुषों में भी है। वे भी इस रोग से अछूते नहीं हैं।चौका -चूल्हे से लेकर घर-घूरा और सास की बुराई रस ले लेकर की जाती है ,तो पुरुष आलू और टमाटर के भाव और कोल्ड स्टोर में ठंडाई पाते रहते हैं।

कुल मिलाकर देखा जाए तो जहाँ मोबाइल जीवन की आवश्यकता है ,वहीं वह एक लाइलाज बीमारी के रूप में कैंसर बन कर उभरा है।वह एक ओर वरदान है तो दूसरी ओर महा अभिशाप भी बन चुका है। नई पीढ़ी तो इस रोग से पूरी तरह डूब ही चुकी है।ऑन लाइन क्लास के नाम पर वे कहाँ- कहाँ लाइन मार रहे हैं ,यह कोई नहीं जानता। माँ- बाप के लाड़ले और प्रिय परियाँ  कैसे - कैसे अपने भविष्य को धोखा दे रहे हैं,यह किसी से छिपा नहीं है।कामुकता और अश्लीलता का चलता- फिरता ट्रेनिंग सेंटर बन गया है मोबाइल।अनिद्रा ,प्रेम रोग,देह नाश,स्वप्न दोष, हृदय रोग,ओज नाश,यौवन नाश आदि असाध्य रोगों की शिकार नई पीढ़ी अपने भविष्य को स्वयं पलीता लगा रही है।इसलिए मोबाइल ऑफ होगा तभी आपको सुख शांति और आंनद की प्राप्ति सुलभ होगी ,वरना जो हो रहा है ;उसे रोकने वाला कोई नहीं है।वर्तमान नई पीढ़ी तो अपने सिर को स्वयं कुल्हाड़ी पर दे मार रही है,है कोई जो युवा ,यौवन और युवा शक्ति के पतन को रोक सके?विराम लगा सके?


शुभमस्तु !


23.04.2024●10.15आ०मा०

                      ●●●

कैसे सुधरे देश [ गीतिका ]

 179/2024

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बनें  देश  के भक्त, सहज  पहचान  नहीं।

धन  में  ही  आसक्त, हमें  क्या  ज्ञान नहीं??


बस   कुर्सी  से  मोह, नहीं  जन  की सेवा,

निर्धन   से  है  द्रोह,  करें  कुछ  मान नहीं।


मतमंगे  बन   वोट,  माँगते  घर -  घर   वे,

जन  को   देते  चोट, बात  पर कान नहीं।


नारों   से  बस  प्रेम, लुभाते   जनता को,

कुशल  न  पूछें  क्षेम, जहाँ घर-छान नहीं।


मंदिर  में  जा  आप,   करें  दर्शन  प्रभु  का,

नेताओं   का  ताप,    सह्य    आसान  नहीं।


अपना   ही     उद्धार,    चाहते    सब   नेता,

औरों    को   दुत्कार,  देश   का  गान   नहीं।


कैसे   सुधरे    देश,   होलिका   कीचड़    की,

दूषित   है  परिवेश , 'शुभम्'   अनजान  नहीं।


शुभमस्तु !


22.04.2024●6.45आ०मा०

नारों से बस प्रेम [ सजल ]

 178/2024

               

समांत : आन

पदांत  : नहीं

मात्राभार : 22.

मात्रा पतन: शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बनें  देश  के भक्त, सहज  पहचान  नहीं।

धन  में  ही  आसक्त, हमें  क्या  ज्ञान नहीं??


बस   कुर्सी  से  मोह, नहीं  जन  की सेवा,

निर्धन   से  है  द्रोह,  करें  कुछ  मान नहीं।


मतमंगे  बन   वोट,  माँगते  घर -  घर   वे,

जन  को   देते  चोट, बात  पर कान नहीं।


नारों   से  बस  प्रेम, लुभाते   जनता को,

कुशल  न  पूछें  क्षेम, जहाँ घर-छान नहीं।


मंदिर  में  जा  आप,   करें  दर्शन  प्रभु  का,

नेताओं   का  ताप,    सह्य    आसान  नहीं।


अपना   ही     उद्धार,    चाहते    सब   नेता,

औरों    को   दुत्कार,  देश   का  गान   नहीं।


कैसे   सुधरे    देश,   होलिका   कीचड़    की,

दूषित   है  परिवेश , 'शुभम्'   अनजान  नहीं।


शुभमस्तु !


22.04.2024●6.45आ०मा०

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

निदाघातप [ दोहा ]

 177/2024

           

   [ग्रीष्म,सूरज,अंगार,आतप,अग्नि]


                  सब में एक

वासंतिक वेला  विदा,  लुएँ     छेड़तीं    राग।

बरस  रही चहुँ ओर  है,ग्रीष्म तपन की आग।।

अमराई   की  छाँव  में, महक  रहे  हैं   बौर।

बढ़े  टिकोरे  डाल  पर, बढ़ा ग्रीष्म का  दौर।।


धरती  से अति  क्रुद्ध  क्यों,सूरज देव  महान।

अभी   चैत्र  मधुमास   है, करते  तेज  प्रदान।।

सूरज  सारी  सृष्टि   का,पालक पोषक  एक।

कभी   शीत  मधुमास  है,पावस  धार  अनेक।।


जेठ  मास  में  शून्य से,  बरसें   ज्यों अंगार।

जीव-जंतु पीड़ित सभी, जल  की करें  गुहार।।

कड़वे मानुस - बोल  भी,  लगते  उर अंगार।

प्रिय  विनम्र  हो  बोलिए, सत्य  वचन  उद्गार।।


यौवन - आतप देह का, सहना दुष्कर    कार्य।

कदम  न  भटकें  राह  में, होता यह अनिवार्य।।

आतप  मास निदाघ का,पावस का  शुभ  हेतु।

तीव्र  ताप  ही  मेघ  का,  बनता शोभन   सेतु।।


पंच  भूत  में  अग्नि  का, होता विशद  महत्त्व।

जठर वनज बड़ावाग्नि के,रूप त्रयी शुचि  तत्त्व।।

अग्नि बिना  जीवन  नहीं, पूरक पोषक   नेक।

पंच तत्त्व  शुचि  सार हैं ,सोचें  जन सविवेक।।


                 एक में सब

सूरज -  आतप  ग्रीष्म  में,लाया भर  अंगार।

अग्नि  बरसती  शून्य   से,  त्राहि करे   संसार।।


शुभमस्तु !


17.04.2024●11.30आ०मा०

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

चलें गाँव की ओर [ गीत ]

 176/2024

                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चलो गाँव की

ओर चलें हम

सुखद शांत परिवेश।


आम नीम की

शीतल छाया

कच्ची सड़कें धूल।

बैलगाड़ियाँ 

गल्ला ढोतीं

उन्हें न जाना भूल।।


कहीं घूमते

मुर्गा- मुर्गी

रंग-बिरंगे  वेश।


व्यस्त काज में

सब नर - नारी

सिर पर गोबर लाद।

उपले उन्हें 

थापने नित ही

श्वान कर रहे नाद।।


कच्चे  - पक्के

बने घरों में

करते नेह निवेश।


कहीं नदी का

कलरव गूँजे

शीतल निर्मल धार।

अमराई में

कोकिल कूके

लुटा रही यों प्यार।।


जीते वृद्ध

शांतिमय जीवन

पके आयुवश केश।


शुभमस्तु !


16.04.2024 ●6.30आ०मा०

                     ●●●

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

बहता सुखद समीर [ दोहा गीतिका ]

 175/2024

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शरद  शिशिर  हेमंत  भी, विदा हुईं धर  धीर।

आया अब ऋतुराज है,बहता  सुखद समीर।।


पंच तत्त्व से सृष्टि  का,निर्मित कण-कण नित्य,

क्षिति नभ पावक वायु सह,सबमें शीतल नीर।


अमराई   में  बोलता, कोकिल मधुरिम    बोल,

करे  प्रतीक्षा आम  की, लाल चोंच का   कीर।


गङ्गा - यमुना  में   बहे, अविरल  निर्मल  धार,

नर - नारी   बढ़ने   लगे,  करें  नहान सुतीर।


अवगाहन  जल  में करें, नर - नारी जन  बाल,

नहा  रहीं  वे  लाज  वश,सुरसरि धार  सचीर।


जो  आया  जाता  वही, नियम यही अनिवार्य,

नर - नारी जो भी  यहाँ,निर्धन या कि अमीर।


'शुभम्' धरा पर फूँक कर,कदम रखें सब लोग,

अपने  को   समझें   नहीं,  कोई हलधर   वीर।


शुभमस्तु !


15.04.2024 ●7.00आ०मा०

आया अब ऋतुराज [ सजल ]

 174/2024

        

सामांत : ईर

पदांत  :अपदांत

मात्राभार :24

मात्रा पतन:शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शरद  शिशिर  हेमंत  भी, विदा हुईं धर  धीर।

आया अब ऋतुराज है,बहता  सुखद समीर।।


पंच तत्त्व से सृष्टि  का,निर्मित कण-कण नित्य,

क्षिति नभ पावक वायु सह,सबमें शीतल नीर।


अमराई   में  बोलता, कोकिल मधुरिम    बोल,

करे  प्रतीक्षा आम  की, लाल चोंच का   कीर।


गङ्गा - यमुना  में   बहे, अविरल  निर्मल  धार,

नर - नारी   बढ़ने   लगे,  करें  नहान सुतीर।


अवगाहन  जल  में करें, नर - नारी जन  बाल,

नहा  रहीं  वे  लाज  वश,सुरसरि धार  सचीर।


जो  आया  जाता  वही, नियम यही अनिवार्य,

नर - नारी जो भी  यहाँ,निर्धन या कि अमीर।


'शुभम्' धरा पर फूँक कर,कदम रखें सब लोग,

अपने  को   समझें   नहीं,  कोई हलधर   वीर।


शुभमस्तु !


15.04.2024 ●7.00आ०मा०

वासंतिक नवरात्रि [दोहा]

 173/2024

             

[संवत्सर,नवरात्रि,नववर्ष,देवियाँ,आदिशक्ति]

                   सब में एक

नव  संवत्सर  की  घड़ी, आई  है शुभ  मीत।

आनंदित   हों   हर्ष   में,  गाएँ   मंगल   गीत।।

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा,नव संवत्सर  आज।

सृष्टि-सृजन का आदि है,वासंतिक सुख साज।।


वासंतिक  नवरात्रि  है, दुर्गा  के नव  रूप।

सत्य  सनातन  धर्म में, पूजित  पावन  यूप।।

तन-मन निज पावन करें,हैं नवरात्रि महान।

नारी को  सम्मान  दें,माँ  भगिनी का मान।।


शुभ  हिन्दू नववर्ष  का, वैज्ञानिक आधार।

करण योग  नक्षत्र तिथि,और पाँचवाँ वार।।

वासंतिक  नववर्ष  में, मंगलमय हो   देश।

सकल  देव  रक्षा करें,  ब्रह्मा  विष्णु महेश।।


घर - घर  में  हैं देवियाँ,सकल सृष्टि - आधार।

सदा  उन्हें  सम्मान  दें, मन में कर सुविचार।।

वंदनीय  नारी  सदा,  करता     नर अपमान।

माने   उनको  देवियाँ, करता  नित  गुणगान।।


आदिशक्ति दुर्गा  करे,  भजन तुम्हारा   भक्त।

कृपा 'शुभम्'पर कीजिए,काव्य-कलाअनुरक्त।।

आदिशक्ति आशीष की,वांछा उर   में   धार।

'शुभम्' चला  दरबार  में,माँ  तुम महा   उदार।।


                   एक में सब

संवत्सर   नववर्ष  की, हैं नवरात्रि    पवित्र।

आदिशक्ति नव देवियाँ,पावन शुभद चरित्र।।


शुभमस्तु!


10.04.2024●7.00आ०मा०

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

देवासुर संग्राम [व्यंग्य ]

 171/2024 




 ©व्यंग्यकार


 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 इस देश में कोई कितना ही बड़ा आतताई हो,मानवता का नृशंस हत्यारा हो,मानव देह में साक्षात राक्षस ही क्यों न हो;उसके चाहने वाले ,घावों पर मरहम लगाने वाले और राजनीति की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने वाले अवश्य मिल जाएँगे।इससे यही स्पष्ट होता है कि आदमी आदमी की लाशों पर राजनीति कर रहा है।जिस देश में आतंक के बल पर कारागार में पड़े हुए क्रूरकर्मा कैदी विधायक और सांसद चुन लिए जाएँ,वहाँ की जनता को कौन - सी उचित संज्ञा और विशेषणों से अलंकृत किया जाए; समझ से परे है। 

 जिस देश को हम विश्वगुरु से सम्मानित करते हुए नहीं अघाते;ऐसा लगता है जैसे कोई कंस,दुर्योधन या रावण स्वयं अपनी पीठ आप ही थपथपा रहा हो।आखिर विश्वगुरु के क्या मानक हैं?क्या लूट खसोट और जनता पर अत्याचार करना ही विश्वगुरु की परिभाषा है?जिस देश में आतताइयों के समर्थक नेता मातमपुर्सी के बहाने काजू पिस्ता आदि मेवा की दावतें उड़ा रहे हों,क्या ऐसे लोग सत्ता के ऊँचे सिंहासन के अधिकारी होने के सुपात्र हो सकते हैं? 

  सही बात को भी सही कह पाने का समर्थन न करना नेताओं की ओछी मानसिकता को दर्शाता है।वह दिन देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा ,जिस दिन ऐसे क्रूर जन जन नायक बनने का दम्भ भरते हुए सत्तासीन होंगे।विपक्ष का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि राष्ट्र कल्याण की योजनाओं को भी जन विरोधी कहा जाए ! राष्ट्र भक्त होना कोई सामान्य बात नहीं है।प्रत्येक नेता राष्ट्र भक्ति का तमगा गले में लटकाए घूमता है,किन्तु क्या उसे राष्ट्र भक्ति के अर्थ भी पता हैं? राष्ट्र भक्ति की आड़ में कितने भेड़िये और रंगासियार कारों के रेवड़ में अपने पीछे भेड़ों को हूटराइज़ कर रहे हैं।आओ! आओ!!चले आओ!!! हमारे पीछे चले आओ।हम ही तुम्हारे उद्धारक हैं। और चमचे और गुर्गे हैं कि मोटी -मोटी मालाओं से उनका भाव बढ़ा रहे हैं।सिक्कों से तोलकर यह जतला रहे हैं कि देखो यही है सब कुछ,इसी के लिए हम जीते- मरते हैं,दिन -रात एक करते हैं।हम किसी छापे और कानून से नहीं डरते हैं।पाँच साल के बाद यों ही विचरते हैं। हमें देखो और हमारे जैसे हो जाओ। हमें न किसी जेल का डर है ,न किसी नेता का। हम स्वच्छन्द भ्रमण करते हैं। 

 सपेरे ही साँपों से खेल सकते हैं,उन्हें पाल सकते हैं।साँपों को कितना ही दूध पिला लिया जाए ,किंतु अवसर पाते ही वे अपने पालक को भी डंसने से नहीं बख्शते।यहाँ न सपेरों की कमी है और न साँपों की।अब यह भी जगज़ाहिर हो चुका है कि सपेरा कौन है और साँप कौन हैं?सब कुछ जानते हुए भी सपेरे साँपों को दूध पिलाने में तल्लीन हैं।यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।कब महाकाल भगवान का त्रिशूल चल पड़ेगा कि न साँप रहेंगे और न सपेरे ही बच पाएँगे।कब पाप घट लबालब हो जाएगा तभी तो कोई चमत्कार होगा और सब देखते रह जाएंगे।

 'यथा राजा तथा प्रजा' की कहावत प्रसिद्ध है।किंतु 'यथा पंक तथा महापंक' होना किस बात का द्योतक है।सत्य यह भी है कि पानी में पानी मिले,मिले पंक में पंक। जैसे में तैसो मिले,मिले जहर में डंक।। यह भारत भूमि बड़ी ही समृद्ध है। यहाँ किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं है।जहाँ देव हैं वहीं राक्षस भी हैं। जिनका कार्य ही चलते पथिकों के पथ में काँटे बोना है।पर हाथी तो इसे अनदेखा करते हुए आगे बढ़ते हुए चले ही जा रहे हैं।दानवासुर संग्राम पहले कभी हुआ हो अथवा नहीं ,किन्तु इस समय अपनी भयंकर स्थिति में है। लगता है यह महायुद्ध कभी समाप्त नहीं होता ,पहले देव -दानवों के बीच हुआ था तो आज देशभक्त और सत्ताबुभुक्षु नेताओं के बीच छिड़ा हुआ है। यह भी स्पष्ट ही है कि विजयश्री देशभक्तों का ही वरण करेंगीं और निश्चित रूप से करेंगीं।

 शुभमस्तु ! 

 08.04.2024●2.00पा०मा०

मिले सभी अधिकार [ गीत ]

 172/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लोकतंत्र है

ये मत समझो 

मिले सभी अधिकार।


जड़ लो ताला

निज होठों पर

करो नहीं बकवास।

एक शब्द भी

नहीं बोलना

आए हमें न रास।।


 हाथ हमारे

 सिमटी पूरी

ताकत अपरंपार।


सबसे ज्यादा

हमें ज्ञान है 

शक्ति हमारे पास।

दिन को रात

कहें यदि हम जो

कहो बने ज्यों दास।।


जिसकी लाठी

भैंस उसी की

आज यही संसार।


रहना है तो

पालन करना

सख्त यही आदेश।

हम जो चाहें

करना होगा

धारण सबको वेश।।


चाहो यदि

अस्तित्व देश में

हमसे कर लो प्यार।


शुभमस्तु !


09.04.2024●6.30आ०मा०

सोमवार, 8 अप्रैल 2024

राजनीति का खेल [गीतिका]

 170/2024

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदल   रहा    परिवेश, जगत  हिंसा ने   घेरा।

चढ़ा  देश  पर   देश, कह  रहा   मेरा -मेरा।।


भूले    मानववाद,  प्रेम  करुणा   सब   खोए,

है   काला  घननाद, गगन   में सघन अँधेरा।


राजनीति   का  खेल, मात-शह में रत  दुनिया,

डाले   हुए   नकेल,  मनुज   कोल्हू  में   पेरा।


आस्तीन  के  साँप, रात -दिन डसते जन  को,

मनुज  रहा  है  काँप, नहीं है   निकट सवेरा।


'मैं    ही सबसे  श्रेष्ठ', अहं  में    डूबे शासक,

बनते    सबसे  ज्येष्ठ,   मेष   दल बीच  बघेरा।


नीति  न  कोई  धर्म,  शस्त्र  बल सारी  ताकत,

शेष   न  दृग    में   शर्म,कहाँ से मिले   उजेरा।


'शुभम्'  बाँटना ज्ञान,नहीं चलना सत पथ पर,

चला   रहे  अभियान,  समय का कैसा फेरा!


शुभमस्तु !


08.04.2024●7.30आ०मा०

                   ●●●

बदल रहा परिवेश [सजल ]

 169/2024

               

समांत  :एरा

पदांत :अपदांत

मात्राभार:24.

मात्रा पतन:शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदल   रहा    परिवेश, जगत  हिंसा ने   घेरा।

चढ़ा  देश  पर   देश, कह  रहा   मेरा -मेरा।।


भूले    मानववाद,  प्रेम  करुणा   सब   खोए,

है   काला  घननाद, गगन   में सघन अँधेरा।


राजनीति   का  खेल, मात-शह में रत  दुनिया,

डाले   हुए   नकेल,  मनुज   कोल्हू  में   पेरा।


आस्तीन  के  साँप, रात -दिन डसते जन  को,

मनुज  रहा  है  काँप, नहीं है   निकट सवेरा।


'मैं    ही सबसे  श्रेष्ठ', अहं  में    डूबे शासक,

बनते    सबसे  ज्येष्ठ,   मेष   दल बीच  बघेरा।


नीति  न  कोई  धर्म,  शस्त्र  बल सारी  ताकत,

शेष   न  दृग    में   शर्म,कहाँ से मिले   उजेरा।


'शुभम्'  बाँटना ज्ञान,नहीं चलना सत पथ पर,

चला   रहे  अभियान,  समय का कैसा फेरा!


शुभमस्तु !


08.04.2024●7.30आ०मा०

रविवार, 7 अप्रैल 2024

जन्मना-मरना [ आलेख ]

 168/2024 


  ©लेखक 

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 जीना - जीना जुदा - जुदा। मरना-मरना और भी जुदा। न जीना आसान ,न मरना आसान।कोई किसी पर खुशी -खुशी मरता है तो किसी के मरने पर जन परिजन दुःखी होते हैं। विलाप करते हैं।सामान्यतः 'मरना' कभी अच्छा नहीं माना गया।किसी के मरने पर घर रोया तो किसी के मरने पर जग रोया। कुछ ऐसे भी बंदे निकले जो देश की रक्षा में मर मिटे।दुश्मन से सीना खोलकर जा डटे और हँसते-हँसते मरण को गले लगा लिया।उधर कुछ ऐसे भी किसी की खूबसूरती पर फूल पर भौंरे की तरह मर गए।न अपनी इज्जत देखी न घर परिवार की ,बस कुछ ऐसा कर बैठे कि मुँह दिखाने के काबिल भी न रहे। 

 वीर बहादुर मरा तो एक ही बार मरा और कायर तो जीवन में कितनी बार मरा ! मरना किसे नहीं ? मरना तो सबको है। जो जन्मा है,वह मरने के लिए ही।परंतु मरना - मरना भी सबका एक समान नहीं।सबका स्थान और समय भी अलग -अलग निर्धारित है। पर सिवाय एक कर्ता के कोई कुछ भी नहीं जानता।जन्म लेना और मरना प्रकृति का एक सुनिश्चित चक्र है।एक रहस्यमय चक्र है। 

  प्रकृति का जन्म और मरण का चक्र अनवरत चल रहा है। किंतु उस चक्र की यही एक खूबी है कि नित्य प्रति लाखों करोड़ों के मरने पर दुनिया खाली नहीं दिखाई देती और लाखों करोड़ों नित्य प्रति जन्म लेने पर भी वह वैसी की वैसी ही दिखलाई देती है।जैसे कुछ हुआ ही न हो।एक सीमित दायरे में कुछ खुश हो लेते हैं और एक सीमित दायरे में दुःख और शोक के आँसू बह जाते हैं। शेष संसार के लिए जैसे कुछ हुआ ही न हो। कोई रिक्ति नहीं,कोई भराव भी नहीं। यही तो संसार है। यही संसार चक्र है।समय का पहिया आगे बढ़ता है और मरना जीना अपने संकीर्ण गोले की गोलाइयों में घूमते रह जाते हैं।अद्भुत है यह सब।न कभी खजाना खाली होने का गम और न कभी सागर में कुछ बूँदें बढ़ जाने की खुशी। समुद्र वैसा का वैसा। गंभीर ,शांत ,निश्चल और लबालब।अपनी उत्ताल तरंगों से उद्वेलित तो कभी आनन्द से विह्वल।

 न जन्म अपने वश में न मरना ही स्व- वश में। सब समय के हाथ की कठपुतली! बस उसके इशारे पर नाचना तुम्हारा काम है।एक ही बीज है तुम्हारे भीतर ,जिससे और जिसके लिए जिए जाते हो। और जीते -जीते ही मर जाते हो। कुछ भी साथ न लाए थे और न कुछ ले जा पाते हो।एक कर्म रूपी बीज की पतवार ही तुम्हें जन्म- जन्मांतर, देश- देशांतर और माता-पितान्तर की यात्रा करवाती है। शेष कुछ भी तुम्हारे हाथों में नहीं है। तुम्हारे जन्म और मरने (मरण) का वास्तविक बीज तुम्हारे कर्म में छिपा हुआ है।बस उस नित्य परमात्मा के संकेत पर चरैवेति -चरैवेति।

 शुभमस्तु !

 07.04.2024● 3.15प०मा० 

 ●●●

आरोपों की सुनामी [ व्यंग्य ]

 167/2024


      

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

आरोप लगाना मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है।यहाँ कोई भी किसी पर कोई भी आरोप लगा सकता है।उसे अन्य प्रकार की स्वतंत्रता की तरह दोषारोपण की भी स्वतंत्रता मिली हुई है।'अच्छी -अच्छी गड़क और कड़वी-कड़वी थू' का पूर्ण अधिकार मिला हुआ है। 

    कोई भी सास अपनी बहू पर निस्संकोच आरोप लगा सकती है।कोई नेता दूसरे नेता पर आरोप लगा कर अपने दामन को गंगाजल की तरह पाक बना सकता है।हमारा कानून भले चिल्ल्ला- चिल्ला कर यह कहता रहे कि जब तक किसी पर लगाया गया आरोप सिद्ध नहीं हो जाता ,तब तक उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। कानून अपनी जगह और ये जन समाज अपनी जगह पर हैं।आम आदमी कानून की भाषा नहीं समझ सकता।वह तो यही मानकर चलता है कि आरोप लग गया ,तो वह व्यक्ति दोषी भी हो गया।क्योंकि जब कहीं आग होती है,धुआँ भी तभी उठता है।बिना आग के धुआँ कैसा? कुछ न कुछ गड़बड़ होगा तभी आरोप भी लगेगा। यही कारण है कि इस देश- दुनिया में आरोप लगा देना एक बिना प्रमाण और बिना किसी साक्ष्य का एक ऐसा सहज कार्य है,जिससे आरोपण कर्ता स्प्ष्ट रूप से बच जाता है। 

     किसी व्यक्ति पर आरोप लगाने का कुछ न कुछ पवित्र उद्देश्य तो अवश्य ही रहता है। पहला यह कि आरोप लगाने वाले का चरित्र आरोपी के चरित्र से उज्ज्वल है।वह पाक दामन है। दूध का धुला हुआ है।दूसरा यह कि सामने वाले व्यक्ति को कलंकित कर देना। क्योंकि आरोपण कर्ता यह बखूबी जानता है कि देश की दीर्घसूत्री न्याय प्रणाली में महीनों नहीं , वर्षों तक भी आरोप को सिद्ध कर पाना असंभव कार्य है।तब तक तो सामान्य जन दृष्टि में वह अपराधी ही रहेगा।इस देश की 'नौ सौ दिन चले अढ़ाई इंच' व्यवस्था में दूध का दूध और पानी का पानी होना विशखपरिया का पेशाब लाने जैसा दुर्लभ कार्य है। 

   यहाँ आरोप लगाकर किसी को भी बिना प्रमाण जेल में ठूँसवाया जा सकता है।और आरोपण कर्ता अपनी मूँछों पर ताव देता हुआ अपना कॉलर ऊँचा करके दिखा सकता है। 'न नौ मन तेल होगा ,न राधा नाचेगी' के अनुसार न साक्ष्य और प्रमाण मिल पाएँगे न आरोप सिद्ध हो पायेगा।तब तक आरोपी जेल की सलाखों के पीछे जेल की रोटियाँ तोड़ता हुआ अपनी गिनी -चुनी बची हुई साँसों को ही तोड़ बैठेगा। 'आँख फूटी पीर गई' ।रोगी खत्म तो रोग जड़ से खत्म।आरोप वहीं का वहीं रह गया।निर्णय समय की विलंबता के प्रवाह में बह गया।और आरोपण कर्ता का कॉलर और भी ऊँचा हो गया। उज्ज्वल हो गया।

    व्यक्ति,समाज,सियासत,देश,धर्म, शिक्षा आदि क्षेत्रों में सर्वत्र आरोपों की अनेक नदियाँ बह रही हैं। सभी के अपने - अपने अदालत- सागर हैं, जहाँ न्याय के 'मीठे पानी' की पिपासा में वे गतिमान हैं।लगता है कि घर से लेकर बाहर,बाजार, मोहल्ला,सड़क,गली-गली,राजनीति,पारस्परिक सम्बन्ध,पक्ष-विपक्ष, यत्र तत्र सर्वत्र आरोपों की सुनामी चल रही है। सब सामने वाले को दोषी और अपने को देवता सिद्ध करने में जुटे हुए हैं।देश की अदालतें, पंचायत घर न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पर सुनामी है कि थमने का नाम नहीं लेती। जूझते -जूझते आरोपी का राम नाम सत्य हो लेता है और दोष वहाँ का वहीं ज़मीदोज़ हो जाता है।आदमी किस कदर पतित हुआ है,इससे देश और समाज का दर्पण स्पष्ट रूप से चिल्लाता है कि इस आदमी की तुलना पशुओं या चौपायों से मत करो,ये दोपाया अब बहुत आगे जा चुका है।दूसरों को नरकगामी बनाने के लिए आदमी किसी न किसी योजना में लगा हुआ है। उद्देश्य केवल इतना है कि उसके सिवाय सब नाली के कीड़े - मकोड़े हैं।यदि कहीं देवता ,देवत्व और दिव्यता है ; वह केवल उसके पास है। 

 शुभमस्तु ! 

 07.04.2024 ●8.30आ०मा० 

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शनिवार, 6 अप्रैल 2024

सजीव अंगारा [ व्यंग्य ]

 166/2024

             

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

   आग की सामान्य प्रकृति है : जलाना।उसके समक्ष जो भी वस्तु आती है या लाई जाती है ;वह उसे जलाकर राख कर देती है।अंगारा ,चाहे उपले का हो ,कोयले का हो ,लकड़ी का अथवा किसी अन्य वस्तु का हो ; वह किसी अन्य वस्तु को जलाता ही है।अंगारे द्वारा किसी वस्तु को जलाने के सम्बंध में एक विशेष बात भी है। वह यह है कि किसी अन्य को जलाने से पहले वह स्वयं जलकर खाक हो जाता है;राख हो जाता है।

अंगारा केवल उपले,लकड़ी,कोयले आदि निर्जीव वस्तु का ही नहीं होता।मनुष्य एक सचेतन, सजीव, साक्षात  और साकार अंगारा है।वह चाहे जिस वस्तु को जलाए,किन्तु सबसे अधिक किसी को जलाता है ,तो भी मनुष्य ही है। दूसरे को अंगारे से जलाने का अकाट्य सिद्धांत सौ में से सौ  टका यहाँ भी काम करता है कि वह जलाने से पहले स्वयं आत्माग्नि में जलकर राख हो लेता है।अब ये अलग बात है कि वह चाहे पड़ौसी हो ,जो अपने पड़ौसी से जलता है ; कोई नेता हो जो अपने प्रतिद्वंद्वी नेता है जलता है ,कोई कर्मचारी या अधिकारी हो जो अपने निकटस्थ कर्मचारी या अधिकारी  से जलता है, कोई दुकानदार हो जो अपने जैसे दुकानदार से जलता है; व्यापारी हो जो अन्य व्यापारी से जलता है; कोई देश हो जो पड़ौसी देश से जलता है ,कोई मित्र हो जो अपने ही मित्र से जलता है; कोई रिश्तेदार हो जो अपने रिश्तेदार से जलता है।जलने का पात्र कोई भी और कहीं भी हो सकता है। जब कोई किसी से जलता है ; तो यही कहा जाता है कि अमुक अमुक से जलता है।

इस जलने के अनेक कारण हो सकते हैं।धन,पद,सत्ता,उन्नति,यश आदि अनेक उत्प्रेरक कारक हैं,जो किसी को जलाने में सहायक सिद्ध होते हैं।कभी - कभी बिना कारण भी लोग दूसरों से जलते हैं।आनन्द की बात ये है कि जलने वाला अपना ही खून जलाकर राख और कोयला बनाता है। वह अपने किसी प्रतिद्वंद्वी का बाल भी बाँका नहीं कर पाता। इसके बावजूद वह जले जा रहा है ,रात-दिन जले जा रहा है। जिसे देखकर या लक्ष्य करके एक 'सुपात्र व्यक्ति'  अपने तन और मन को अंगारा बनाता है,उस तक तो कभी- कभी इस बात की हल्की सी लपट भी स्पर्श नहीं कर पाती कि कोई उससे जल रहा है। इसीलिए यह कहावत बनी है कि ' जलने वाले जला करें ,किस्मत हमारे साथ है।'

   कहावत यह भी है कि 'हाथी अपने रास्ते पर चलते चले जाते हैं और कुत्ते भौंकते रह जाते है।' देश और समाज में ऊपर से नीचे तक 'जलना' एक अनिवार्य  प्रक्रिया है।इससे नेता,मंत्री,अधिकारी,सामान्य जन कोई भी अछूता नहीं है।थोड़ी परिष्कृत हिंदी में इसी 'ज्वलन भाव' को ईर्ष्या भी कहा जाता है। मानव मन में प्रेम,ममता, स्नेह,दया,करुणा जैसे मनोभावों के साथ - साथ कुछ  मनोविकार भी उसका पीछा नहीं छोड़ते। जैसे क्रोध,घृणा,ईर्ष्या आदि।मनुष्य नहीं  चाहता कि कोई उससे ऊपर हो।वह हर क्षेत्र में शीर्ष पर  रहना  चाहता है। किंतु चाहने भर से कोई ऊँचा नहीं बन सकता।

यह 'जलन' ही है कि 'माता न कुमाता पुत्र कुपुत्र भले ही' (मैथिलीशरण गुप्त) वाली सौतेली माता ही अपनी सौतेली संतान से जलन के कारण जहर भी दे देती है।उस समय उसका मातृत्व और ममत्व क्यों मर जाता है? पड़ौसी से जलता हुआ एक पड़ौसी उसके घर में आग लगा कर उसे स्वाहा कर देता है। नेता प्रतिपक्षी नेता पर मिथ्या दोषारोपण करके उसे कारागार की हवा खाने को विवश कर देते हैं।राजीनीति की रोटियाँ ही ईर्ष्याग्नि के आवे पर सेंकी जाती रही हैं। कहीं कुछ बदला नहीं है। यह परस्पर जलने की प्रक्रिया दिनोंदिन तेज होती जा रही है।

ईर्ष्या की आग में भले ही लपटें नहीं उठतीं, भले ही प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती ,किन्तु धुँआ तो उठता ही है;जिससे सारा वातावरण विषाक्त हो जाता है।स्वयं जलकर दूसरे को कष्ट देने और हानि पहुंचाने का 'विशेष गुण' भले ही अमानवीय कहा जाए,किन्तु अस्तित्व में तो है ही। इससे नकारा नहीं जा सकता।सम्भव है कि 'जलन' का यह दुर्भाव कीड़े -मकोड़ों, पशु -पक्षियों ,जलचरों, नभचरों आदि में न हो। यदि उनमें भी यह होता तो मनुष्य न बन जाते? इसका अर्थ यह भी हुआ कि 'जलन' किंवा 'ईर्ष्या' मनुष्य का एक दानवीय अनिवार्य तत्त्व है। 

आज दुनिया के मनुष्य समाज में 'जलन' की यह दुर्भाग्यपूर्ण आग निरंतर जंगल की आग की तरह बढ़ रही  है। रूस और यूक्रेन  तथा इसराइल और फिलिस्तीन के युद्ध इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।यह 'जलन' ही वह दावाग्नि है जो मानव को पशुता नहीं, दानवता की ओर ले जा रही है।शांति के समर्थकों को कमजोर,डरपोक और कायर समझा जाता है।बारूद के ढेर पर बैठी हुई मानवता इस 'जलन' की  अग्नि में जलकर कब राख हो जाएगी; कहा नहीं जा सकता। निरंकुश और विपक्ष रहित शासन की मंशा के मूल में भी यही आग है।अपने को सर्वेसर्वा ,सर्वश्रेष्ठ और सबसे बुद्धिमान मानने का अहं उन्हें पतनोन्मुख कर रहा है ,जिससे निस्तारण का कोई उपाय नहीं है।

हम तो यही चाहेंगे और कहेंगे:

सर्वो    भवन्तु     सुखिनः,   सर्वे    संतु  निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दुःख भाक भवेत।


शुभमस्तु !


06.04.2024●10.45आ०मा०

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

चमचा [बाल गीतिका]

 165/2024

              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चमचे  का  भी  बड़ा   काम   है।

सुर्खी    में   नित   छपे  नाम है।।


कोई     आगे        कोई     पीछे,

रहने     देता    नहीं    आम   है।


जिसके  पास  न   चमचा   कोई,

लगती   उसको    सदा  घाम  है।


चमचा     चाटे    नित्य   भगौना,

भरे    तिजोरी    स्वर्ण  दाम   है।


झंडा     लेकर     चलता    आगे,

लेता  एक न   पल    विराम   है।


लोकतंत्र    का    खंभा    चमचा,

पड़ा   धूप   में   चर्म     श्याम  है।


चमचा    बिना   न    नेता   कोई,

नहीं  आज   तक   बना   राम है।


मतमंगों के   साथ     रात - दिन,

खाक   छानता   गाम - गाम   है।


'शुभम्'   छिपा   चमचागीरी   में,

पद  पाने  का   सुलभ   बाम  है।


शुभमस्तु !


05.04.2024● 11.15आ०मा०

एक आदमी [बाल गीतिका]

 164/2024

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 

 हमने  पाला   एक   आदमी।

बड़ा   निराला  एक  आदमी।।


कहता   पूरब   जाता   पश्चिम  ,

भीतर    काला   एक आदमी।


बतलाता  ये   आँखें     दर्पण  ,

चोटी   वाला   एक    आदमी।


कहता  मैं   गंगा  - सा  पावन,

लगता  नाला   एक   आदमी।


बात - बात  में  कसमें  खाता,

माला  वाला    एक   आदमी।


चलता-फिरता एक   लतीफा,

धुत  नित हाला एक आदमी।


'शुभम्' पहेली चलती -फिरती,

अटक निवाला  एक  आदमी।


शुभमस्तु !


05.04.2024●9.00आ०मा०

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पथरीला यथार्थ [अतुकांतिका]

 163/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपने भीतर

छिपाए रखना,

सच न बोलना,

निज जीवन में

विष न घोलना,

जगत ये विषमय पूरा।


झूठों का संसार 

रुपहला,

झूठा ही

नहले पर दहला,

सच पोथी की बात

अलग कुछ,

सच का होता

नित प्रति चूरा।


आदर्शों  से

चले न जीवन,

पथरीला यथार्थ का

उपवन,

मुँह में राम

बगल में छूरा।


खेत धर्म का

नागफनी उगती है

जिसमें,

राजनीति की बाड़ कँटीली,

फूल रही है रंग-बिरंगी

आग -बबूला।


'शुभम्' सत्य से दूर 

रहा जो,

दिखता है वह

 फला-फूलता,

भले हस्र 

जो भी हो उसका,

चिंता किसको 

केवल वर्तमान ही

सब कुछ

वही है धुला दूध का।


शुभमस्तु !


04.04.2024●6.30प०मा०

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बुधवार, 3 अप्रैल 2024

कृषक फसल खलिहान [ दोहा ]

 162/2024

       

[फसल,किसान,चैत,खलिहान,मिट्टी]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

कृषक  उगाता अन्न फल,शाक ईख बहु दाल।

जीवनदाता फसल  से ,कृषि का करे कमाल।।

जीवनदात्री  देश को, फसल सभी   अनमोल।

कृषक नित्य पोषण करे,जय जलधर की बोल।।


स्वेद बहाता रात-दिन,कृषि हित एक किसान।

मिले न  उसको देश में,समुचित नित सम्मान।।

सदा  अभावों  में  रहा, जीता   एक किसान।

श्रम के बदले कब मिला,उसको जग में  मान।।


चैत   मास  में  अन्न   की,छाई  हुई   बहार।

प्रमुदित सभी किसान  हैं, हर्षमग्न परिवार।

चैत मधुर मधुमास है,सुमन खिले चहुँ ओर।

पिक भौंरे तितली सभी, नाच रहे वन   मोर।।


चना मटर  गोधूम  की, पकी  फसल को  देख।

कृषक मुदित खलिहान में,उदित भाग्यलिपि लेख।

कृषि-श्रम का परिणाम है,फसल भरा खलिहान।

जुटे  कृषक निज कर्म में, प्रभु  का शुभ  वरदान।।


मिट्टी   से  सोना  उगे, अन्न दुग्ध फल    शाक।

श्रमकर्ता  फल  पा  रहे,  अन्य  रहे हैं   ताक।।

मिट्टी में  हर  रंग  है ,श्वेत   हरा  या    लाल।

सभी  सुगंधें    मोहतीं,  करती   मृदा कमाल।।


                     एक मे सब

चैत मास अति मोद में,फसल रखी खलिहान।

मिट्टी ने  सोना  दिया, हर्षित  सभी   किसान ।।


शुभमस्तु !


03.04.2024●7.15आ०मा०

                   ●●●

रंग के संग [गीतिका]

 160/2024

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रंग  के  संग  में    खेलतीं   होलियाँ।

नृत्यरत कसमसाती हैं  हमजोलियाँ।


रात  आधी  हुई  बाग  महका  बड़ा,

पेड़  महुआ  करे  खूब  बरजोरियाँ।


टेसू   गुल  की  छाई   हुई  लालिमा,

मोर  के   संग में   नाचती  मोरियाँ।


चैत्र  लगते  तपन  देह  में अति बढ़ी,

भानु की चढ़ गईं भाल की त्यौरियाँ।


रंग   की   मार  की  तीव्र  बौछार है,

अंग आँचल  छिपाए  फिरें  गोरियाँ।


ये  पाटल उठा   सिर  प्रमन   झूमते,

गोप ग्वाले  कसे   झूमते   कोलियाँ।


रंग  उत्सव - समा   सराबोर  रंग से,

'शुभम्'क्यों चुभेंगीं शब्द की गोलियाँ!


शुभमस्तु !


01.04.2024●8.30 आ०मा०

रंगोत्सव होली [सजल]

 159/2024

           

समांत :इयाँ

पदांत : अपदांत

मात्राभार :20

मात्रा पतन: शून्य। 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रंग  के  संग  में    खेलतीं   होलियाँ।

नृत्यरत कसमसाती हैं  हमजोलियाँ।


रात  आधी  हुई  बाग  महका  बड़ा,

पेड़  महुआ  करे  खूब  बरजोरियाँ।


टेसू   गुल  की  छाई   हुई  लालिमा,

मोर  के   संग में   नाचती  मोरियाँ।


चैत्र  लगते  तपन  देह  में अति बढ़ी,

भानु की चढ़ गईं भाल की त्यौरियाँ।


रंग   की   मार  की  तीव्र  बौछार है,

अंग आँचल  छिपाए  फिरें  गोरियाँ।


ये  पाटल उठा   सिर  प्रमन   झूमते,

गोप ग्वाले  कसे   झूमते   कोलियाँ।


रंग  उत्सव - समा   सराबोर  रंग से,

'शुभम्'क्यों चुभेंगीं शब्द की गोलियाँ!


शुभमस्तु !


01.04.2024●8.30 आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...