मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

यह वेला ही कुछ ऐसी है! [ नवगीत ]


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यह वेला ही
कुछ ऐसी है!

आँसू भी हैं
खुशियाँ भी हैं,
कुछ  मुरझाए हैं 
विनत   सुमन ,
कुछ खुलती कलियाँ
हैं तनी प्रमन,
इस ओर
विदाई की घड़ियाँ,
उस ओर 
बधाई की  लड़ियाँ,
जान लें 
घड़ी यह कैसी है!
यह वेला ही 
कुछ ऐसी है!

कुछ यादें
खट्टी -मीठी हैं,
कुछ बातें 
सीठी -सीठी हैं,
बातें हैं
कुछ अपनों की,
घातें भी हैं कुछ
कितनों की,
लगता जैसे
सब सपना है ,
कौन यहाँ पर
अपना है ?
यह मानव जीवन
तपना है,
यह कर्मभूमि
स्वदेशी है,
यह वेला ही 
कुछ ऐसी है !

गैरों ने 
मुझको नेह दिया,
सम्मान दिया,
कुछ ज्ञान दिया,
सत्कार किया,
अपनेपन का भी
भान दिया,
मन में समझो
यह वैसी है,
यह वेला ही 
कुछ ऐसी है!

एक जाता है
एक आता है,
आने -जाने का
नाता है!
यह जो जाता है
आज अभी,
वह लौट नहीं
आएगा कभी,
उसकी ही 
विदाई की वेला ,
दो हजार बीस 
जो आना है,
उल्लास प्रगति का
शुभ मेला ,
घड़ी  आज 
 यह  ऐसी है,
यह वेला ही 
कुछ ऐसी है!

खोल दो
खिड़कियाँ द्वार सभी,
अपने उर के
उद्गार सभी,
आओ हम
कर लें इसका
'शुभम' अभिनंदन,
बन जाये 
धरा ये
नंदन वन,
मानवता को हम
प्यार करें,
ममता स्नेह के
भाव धरें,
ये घड़ी न
ऐसी - वैसी है ,
ये वेला ही
कुछ ऐसी है।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

31.12.2019 ●6.30 अपराह्न।

विलायती वर्ष विरोधियों से✝ [ सायली ]


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हैं 
मानते सब 
अंग्रेज़ी कालदर्शक को,
विरोध वास्ते
विरोध !

नौकरी,
शिक्षा ,व्यवसाय,
सभी कुछ है,
अंग्रेज़ी कालदर्शक 
से।

पतलून,
जींस ,शर्ट,
सब कुछ पहनेंगे,
अंग्रेज़ी कलेंडर
 विरोधी।

धोती 
कुर्ता सब
 भूल गए वे,
अंग्रेजी कलैंडर 
विरोधी।

पढ़ाएंगे
कॉन्वेंट में
अपने बच्चे वे,
अंग्रेज़ी कलैंडर 
विरोधी।

अर्थ 
कॉन्वेंट का
लावरिशों का पालक -
केंद्र होता 
है।

गुरुकुलीय 
शिक्षा पद्धति
अच्छी नहीं लगती,
अंग्रेज़ियत ओढ़ी 
हुई!


पंजीकरण 
भ्रूण का 
करवा दिया है,
कॉन्वेंट में
उन्होंने।

ये
काले अँगरेज़,
अंग्रेज़ी के समर्थक,
फिर भी 
विरोध ?

संस्कृति
बदलती नहीं ,
अंग्रेज़ी  कैलेंडर से,
कॉन्वेंट तो
छोड़ो!

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

31.12.2019● 4.00अपराह्न।

साहित्य -सृजन : एक आत्म मूल्यांकन

साहित्य -सृजन : 📒 एक आत्म मूल्यांकन 📒


 🌹ॐ श्रीसरस्वतयै नमः🌹

🌷ॐ☘ॐ🌷ॐ☘ॐ🌷

                वीणा वादिनी विद्या और काव्य की अधिष्ठात्री  माँ  सरस्वती की कृपा है कि मैं आज भी वर्ष 1963 (11 वर्ष) की अवस्था से अद्यतन माँ सरस्वती     की अनवरत साधना में निरत रहते हुए काव्य -साधना  में संलग्न हो रहा हूँ। इस अंतराल में हजारों कविताएँ, लेख, निबंध , एकांकी ,कहानी, लघुकथाएँ,  ,व्यंग्य आदि विविधरूपिणी पद्य और गद्य की रचनाएँ  लिखने के साथ - साथ अभी तक दस पुस्तकों का प्रकाशन भी हो सका है। इस अंतराल में देश और विदेश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया। यह शत प्रतिशत सत्य है कि इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं रहा औऱ मैं स्वयं भी सियासती वेशाखियों पर चढ़कर साहित्य - सेवा की यात्रा नहीं कर रहा हूँ । ये मेरे लिए अत्यंत हर्ष और सौभाग्य का विषय है। यही कारण है कि अमेरिका से भी मेरी जीवनी प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ , जिसमें मेरा अपना कोई प्रयास नहीं रहा ।साथ ही स्वदेश की डेढ़ दर्जन से अधिक डायरेक्टरीज में भी सचित्र जीवनी प्रकाशित हुई।
       
               वर्ष 2018 में मेरा एक महाकाव्य तपस्वी बुद्ध प्रकाशित हुआ , जो  वर्ष 1971 में उस समय  लिखा
गया था , जब मैं कक्षा 11 का विज्ञान का विद्यार्थी था। उस समय सिद्धार्थ  बुद्ध  सम्बन्धी साहित्य का गहन  अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।जिसका परिणाम यह महाकाव्य था। यद्यपि मैं चौथी कक्षा से ही कविताएं लिख रहा था। 05 जून 2019 को  तूलिका बहुविधा मंच से वृंदावन के ' प्रिया पैलेश होटल' में आयोजित एक विशाल साहित्य -समारोह में श्रद्धेय डॉ. राम सेवक शर्मा 'अधीर', श्रद्धेय श्री शिव ओम अम्बर , प्रियवर डॉ.राकेश सक्सेना  तथा  आदरणीया डॉ. सुनीता सक्सेना के  करकमलों और मंच के तत्वावधान में  महाकाव्य  तपस्वी बुद्ध का लोकार्पण सम्पन्न हुआ। मैं हृदय की गहराइयों से उन सभी का आभारी हूँ , जिनसे किसी भी रूप में मुझे यह सौभाग्य हासिल हुआ।

         मई 2018 में मेरे पुत्र  श्री भारत स्वरूप राजपूत ने  मेरा एक साहित्यिक ब्लॉग बनाकर मुझे दिया जिस पर अद्यतन मेरी सभी रचनाएँ प्रेषित और सुरक्षित हो रही हैं। मेरे संदर्भित ब्लॉग का पता है:
www.hinddhanush.blogspot.in
 उक्त ब्लॉग पर प्रेषित की गई रचनाओं का विवरण निम्नवत है:
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माह        2018         2019
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जनवरी     ----            26
फरवरी      ----            27
मार्च          ----            15
अप्रैल        ----            37
मई           27              40
जून          22              25
जुलाई      68              48
अगस्त      27             35
सितंबर     16             33
अक्टूबर    10             32
नवम्बर      20            29
दिसम्बर    35             40
-------------------------------------
  योग        225         387
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 बहुविधा तूलिका मंच के संस्थापक    तथा  पटल  के प्रशासक डॉ. राकेश सक्सेना जी ने  संभवतः 16 अक्टूबर 2018 को मंच की स्थापना की, जो अद्यतन मंच के समस्त रचनाकारों के सहयोग और सेवाभावी योगदान से निरन्तर एक अनुशासन की कोमल रेशमी रज्जू से बंधा हुआ चल रहा है। मैं किसी मंच - प्रतिभागी के महत्व को
कमतर नहीं आँक सकता। मुझे यह ख्याल नहीं आ रहा कि कब मुझे इस मंच से जुड़ने का सौभाग्य प्रियवर डॉ. राकेश सक्सेना के द्वारा प्राप्त हुआ। वैसे  प्रदेश के राजकीय उच्च शिक्षा विभाग में सेवारत होने के कारण हम लोग पहले से ही सुपरिचित थे। देश के विभिन्न  साहित्यिक औऱ सामाजिक मंचों पर मेरी  रचनाओं से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे इस मंच से जोड़ना उचित समझा। तब से आज आज तक मेरी यह साहित्य यात्रा अनवरत प्रवाहित हो रही है।इसके लिए मंच के समस्त सुधी समीक्षकों ,सरंक्षक डॉ. राम सेवक शर्मा 'अधीर 'जी, के साथ - साथ मंच के समस्त श्रध्देय अग्रज और  आदरणीय अनुज /अनुजाओं , समवयस्क मित्रों का कृतज्ञ हूँ कि जिनके निर्देशन मैं आज भी सीख रहा हूँ; अपने को  विद्यार्थी ही मानता हूं। इस मंच को अपना काव्य -गुरु मानने में भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आभार व्यक्त करने के लिए नामों का गिनना उचित नहीं होगा, क्योंकि यह सूची इतनी लंबी होगी कि भूलवश नाम न लिखने पर उन्हें तो अच्छा नहीं लगेगा, मुझे भी अन्याय ही अनुभव होगा।
   
                 इसी स्थान पर मुझे यह कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि यों तो देश में हजारों साहित्यिक मंच होंगे किन्तु इतना अनुशासित , व्यवस्थित और ईमानदार मंच शायद ही कोई हो। फ़ोटो , वीडियो और ओडियो नहीं भेजने का कठोर नियम नारियल की तरह से बाहर से कड़ा और भीतर से दुग्धवत निर्मल औऱ सनीर है। अन्यथा इस पर कितना कूड़ा -कचरा गिराया जाता , इसकी कोई सीमा नहीं है।इसका अर्थ यह नहीं लिया जाए कि मैं चित्र आदि को कूड़ा -कचरा समझता हूँ ।उनका भी अपना महत्व है , लेकिन एक सीमा तक ही वह सुगन्ध
देता है। उसकी अतिशयता दुर्गंध ही छोड़ती है। चित्र तो हमारी  अपनी महत्वाकांक्षी भावना के प्रतिरूप हैं। दूसरा उन्हें कितना महत्व देता है , उसका मूल्यांकन इस पर भी निर्भर करता है । इसलिए  इस मंच का  सौंदर्य  और सुरुचि इसी में निहित है।

       लेख के विस्तार की अतिशयता को दृष्टिगत करते हुए इतना ही कहना चाहता हूं कि साहित्य की सेवा , मातृभाषा , जननी और जन्मभूमि की सेवा ही मेरा कर्म है , धर्म है और इसी में मेरा अपना मर्म भी है।
  वर्ष 2019 की इस सांध्य वेला में माँ सरस्वती से मेरी यही प्रार्थना है कि आजन्म इसी प्रकार माँ भारती की
सेवा में तन मन और धन से लगा रहूँ।
💐💐 जाने वाले वर्ष 2019 को  भावभीनी विदाई।
आने वाले 2020 का हृदय की गहराइयों से स्वागत
और आप सभी को बहुत -बहुत शुभकामनाएं और बधाई .......

💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

31.12.2019
www.hinddhanush.blogspot.in

मुझको कहते गन्ना, ईख [ बालगीत ]


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मुझको   कहते   गन्ना,   ईख।
मीठेपन     की     देता  सीख।।

मुझको कृषक  खेत में बोता।
तब  मैं   मीठा   पैदा   होता।।
नहीं    माँगता   मीठी   भीख।
मुझको  कहते   गन्ना,  ईख।।

गुड़, शक्कर , बूरा या  चीनी।
राब,   खांड़,मिश्री  रसभीनी।।
मुझसे    ही   बनती  ये चीज।
मुझको    कहते   गन्ना, ईख।।

रबड़ी,    पेड़ा,  लस्सी  बनती।
मधुर जलेबी  रस  से सनती।।
अधिक    खुशी से निकले चीख
मुझको   कहते   गन्ना ,  ईख।।

गुड़    मेरा  गुणकारी   होता।
मैं   मिठास का सुंदर  सोता।।
मीठा      बोलो    देता   सीख।
मुझको  कहते   गन्ना, ईख।।

अतिथि    द्वार   पर आए कोई।
मीठे  से घर  स्वागत   होई।।
'शुभम'  ईख  की मीठी लीक।
मुझको   कहते गन्ना  , ईख।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

30.12.2019●7.45अपराह्न।

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

हम सबकी भारत माता है [ गीत ]


 गंगा -   यमुना ,सरयू गातीं,
हिमगिरि    ध्वज फहराता है।
सागर     पाँव पखारे अनुदिन,
हम  सबकी  भारत  माता है।।

ये       हिंदी ,    उर्दू,   पंजाबी,
बहुभाषी        मम     देश   है। 
 धोती ,     साड़ी,  सलवारों का,
न्यारा   -  न्यारा      वेश   है।।
क्यों   कोई इन्सां  के दिल  में,
अंधी       आग    लगाता    है।
सागर  पाँव    पखारे अनुदिन,
हम   सबकी  भारत माता है।।

सड़कें  जलीं , सुलगतीं गलियाँ,
अंगारों          की      आँधी   है।
चूल्हे   बुझे  बिलखतीं  विधवा ,
क्या     यही  आज  के गांधी हैं!!
मानवता     मर  गई    दिलों से,
सिर    शर्मसार   हो    जाता है।
सागर     पाँव   पखारे अनुदिन,
हम    सबकी  भारत   माता है।

नेताओं      को     वोट चाहिए,
जिनके    घड़ियाली   आँसू  हैं।
कान  भर   रहे  घर -घर जाकर,
भाषण      विषमय    धाँसू हैं।।
भोले    जन -  जनता   में नेता ,
चिनगारी            सुलगाता   है।
सागर     पाँव    पखारे  अनुदिन,
हम     सबकी    भारत  माता है।

जनहित    में   कानून   देश के,
उनसे           कैसा    घबराना।
मानवता       को    भूल विषैले ,
  उद्गारों            पर      इतराना।।
शांति  राह  तज भ्रांति पकड़ना,
नहीं    समझ    में     आता  है।
सागर    पाँव   पखारे  अनुदिन,
हम  सबकी   भारत  माता  है।।

फैलाकर       आतंक       देश में,
देश          नहीं      बढ़ता   कोई।
सुदृढ़       संगठन    और एकता ,
बिना       नहीं      चढ़ता  कोई।।
हिंसा     से    धरती    माता का ,
ये   सिर    झुक -  झुक जाता है।
सागर      पाँव   पखारे  अनुदिन,
हम     सबकी    भारत माता है।

आस्तीन      के    साँपों  से नित,
सावधान            रहना     होगा।
मसल फनों  को  घिस पाहन पर,
तुरत     कुचलना       ही  होगा।।
टुकड़े    की  ख़ातिर  क्यों कूकर,
'शुभम '       आज     गुर्राता  है?
सागर     पाँव   पखारे अनुदिन,
हम       सबकी   भारत माता है।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

29.12.2019●2.30 अपराह्न।

ग़ज़ल


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बहुत  समय  का  फेर है।
कूकर  गली   का शेर है।।

ये     भी   कोई   है मसला,
फूलों   सँग  फलता बेर  है।

जिसे  खून  का यहाँ नशा,
वही   आजकल   शेर   है।

दिखता है  तन से वो इन्सां,
भेड़ों   का    फिरता  ढेर  है।

नेता,   जनता  से  हैं  चिपके,
केर     के  सँग   ज्यों  बेर है।

गदहे     को   दे  रहे  पंजीरी,
कितना       बड़ा    अंधेर है।

'शुभम'   दर्द  में  हँसते  हम,
समय-  समय   का  फेर   है।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
💎  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

29.12.2019 ●1.30 अपराह्न।

स्वागत है नववर्ष का [ कुण्डलिया ] ♾●●♾●●♾●●♾●●


   🔆1🔆
स्वागत     है   नव वर्ष का,
गाएँ        मंगल       गीत।
स्वस्थ    सुखी   सानन्द हों,
जीवन      परम    पुनीत।।
जीवन       परम      पुनीत,
मिटे      दुःखों    की  छाया।
करें         प्रदूषण       दूर ,
रहे    जन -  मन  हरषाया।
'शुभम '    बनें   जलमीत,
करें      अभिनंदन   आगत ।
होगा          सबका    त्राण,
करें सब मिलजुल स्वागत।।

🔆2🔆
नया    हर्ष     उत्कर्ष   ले,
कर         आए     नववर्ष।
सुबह     सुहानी सुखद हो,
संध्या     सह     आदर्श।।
  संध्या        सह      आदर्श,
दिवस निशि बंधुभाव में।
मानव      हो     खुशहाल,
बंधुता  की  सु छाँव में।।
'शुभम'  सदय    संजाल,
साल  उन्नीस  भी  गया।
दो   हजार   सन    बीस ,
सभी  के  लिए  है नया।।


  🔆3🔆
नेता        अपने   अर्थ  की,
रहे        रोटियाँ       सेंक।
जनहित    उन्हें  न  दीखता,
उलटे        काम      अनेक।
उलटे       काम      अनेक,
मतों     के    भूखे  - प्यासे।
नैतिकता         से        दूर ,
दे      रहे       झूठे     झाँसे।।
'शुभम '     देश     बरवाद, 
नहीं      क्यों    नेता  चेता! 
दुष्कर्मों        में         लीन,
देश      के      ओछे   नेता।।

    🔆4🔆
पहले      अपना   देश   है ,
पीछे          अपना     गेह ।
जनता     नेता  के    लिए,
देश        माँगता       नेह।।
देश         माँगता      नेह ,
मिलेगी    तन -   धन रक्षा।
रहे         शांति      सौहार्द्र,
यही      पहली  जनशिक्षा।।
'शुभम '    श्रेष्ठ  यह  ज्ञान,
 खोज      मत नहले -दहले।
तज     मज़हब   की    बान,
देश       है    सबसे  पहले।।


    🔆5🔆
स्वागत   कर   नववर्ष का,
सबके     हित   की  सोच।
हिंसा   अशुभ   अशांति से,
मत   कर   खुद  को  पोच।।
मत    कर  खुद   को पोच,
न   लाया  कुछ   ले पाए!
आया       मुट्ठी        बाँध,
पसारे      कर  तू    जाए।।
'शुभम '      मूढ़ता    त्याग,
विदाकर मत अपना सत।
दो      हज़ार   सन   बीस ,
हृदय   से कर ले स्वागत।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

28.12.2019 ◆11.55 पूर्वाह्न।

शीत-लहर घर -बाहर छाई [ बालगीत ]


शीत - लहर घर - बाहर छाई।
ठंडे     बिस्तर  और   रजाई।।

भीगे  लगते   कपड़े   तन के।
चली हवाएँ स्वर सन-सन के।
पत्ती  -  पत्ती     है    लहराई।
शीत - लहर घर- बाहर छाई।।

ठंडे    पेड़ ,    लताएँ ,   पौधे।
वे   तुषार  में    होते    औंधे।।
आग- लपट  देती   झुलसाई ।
शीत-लहर  घर-बाहर  छाई।।

कोहरा   छाया  बाहर  गाढ़ा।
चादर  श्वेत  धूम - सा बाढ़ा।।
लगती     सुंदरता   मनभाई।
शीत-लहर  घर-बाहर  छाई।।

अच्छे लगते   गरम  पकौड़े।
दाल मूँग  के  नरम  मगौड़े।।
मूँगफली तिल ग़ज़क सुहाई।
शीत-लहर घर-बाहर  छाई।।

साग चने भुजिया सरसों का।
शकरकन्दऔ 'ईख-रसों का।।
स्वाद  बड़ा  ही  आनन्ददायी।
शीत-लहर  घर-बाहर  छाई।।

गरम  बाजरे   की   है   रोटी।
बनी  हाथ   से मोटी - मोटी।।
छाछ और  रायता सँग लाई।
शीत-लहर   घर-बाहर छाई।।

नया  वर्ष  कल   आने  वाला।
संक्रांति   का   पर्व  निराला।।
'शुभम'शिशिर  की शीतलताई
शीत -लहर  घर -बाहर छाई।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🟣 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

27.12.2019◆3.00अपराह्न।

हर आदमी एक इंसान हो [ उद्बोधन - गीत ]



न   हिन्दू  कोई  न  मुसलमान हो।
 पहले हर आदमी एक इंसान  हो।

एक   ही  द्वार  से  दोनों  आए हुए।
एक  ही   राह  पर  दोनों जाते हुए।।
एक   परमात्मा  की   दो  संतान हो।
न   हिन्दू   कोई  न मुसलमान हो।।

ये  चोटी  औ' दाढ़ी हैं नकली सभी।
बाहरी   ऊपरी   हैं   न असली कभी।।
इनसे  भी  कहीं कोई पहचान हो ?
न   हिन्दू   कोई  न मुसलमान हो।।

भेद  भाषा या वसनों से होता नहीं।
दर्द   होता  है  सीने   में  रोता वही।।
हिंदी -उर्दू  दो बहनों का इक मान हो।
न  हिन्दू  कोई  न मुसलमान हो।।

धर्म मज़हब की दीवार क्यों हैं खड़ी?
क्यों वादों -विवादों की लगती झड़ी??
न  निर्बल  कोई  ना हिं बलवान हो।
न   हिन्दू   कोई  न मुसलमान हो।।

धूप,  पानी,  हवा  तो  बँटे ही नहीं।
नील अम्बर  कहीं  भी कटे ही नहीं।।
फिर जमीं के लिए क्यों घमासान हो ?
न   हिन्दू   कोई  न मुसलमान हो।।

ये मंदिर औ' मस्जिद का  किस्सा नहीं।
ईश की  मान्यता का भी हिस्सा नहीं।। 
ईद,  होली,  दिवाली  की शुभ शान हो।
न   हिन्दू   कोई  न मुसलमान हो।।

हरा   है  न  नीला  कोई   रक्त भी।
लाल  ही  बह  रहा शख़्शों में सभी।।
ख़ाक  में  हो  दफ़न  एक श्मशान हो।
न   हिन्दू   कोई  न मुसलमान  हो।।

गले  से गले    मिल के भुजहार हो।
आदमी  का  आदमी  को  ये उपहार हो।।
गंगा-यमुनी सुसंस्कृति का 'शुभम'गान हो।
न   हिन्दू   कोई  न  मुसलमान हो।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

26.12.2019●8.00अपराह्न।

धर्म [ दोहे ]



छोड़ा  जिसने   धर्म   निज ,
गर्दभ      रहा     न    अश्व।
चमगादड़    बन    लटकता ,
शाख      पेड़     की   ह्रस्व।।1।।

घोड़े       से      गर्दभ  हुआ,
त्याग  जन्म     का     धर्म।
जैसा      तेरा      धर्म   हो ,
वैसे        तेरे      कर्म।।2।।

ईश्वर   ने    जिस   धर्म   में ,
हमें         किया      उत्पन्न।
उसके     प्रति     निष्ठा  रखें,
सदा     सुखी    सम्पन्न।।3।।

संस्कार    जिस   धर्म    के,
मिले      देह    के      रक्त।
उसके     ही     अनुरूप   हों,
बनें   उसी   के   भक्त ।।4।।

भूल    गया   पितु  बीज को,
औ'   जननी     का     रक्त।
स्वार्थ    हेतु    पर    धर्म में,
 होता   जड़    अनुरक्त।।5।।

बीज  रक्त   जिस    देह के ,
उनका     है        अपमान।
लादी     निपट   कृतघ्नता ,
मिटी    धर्म की शान।।6।।

किसी   और   के बाप को ,
कहता      अपना     बाप।
पूछा  है    क्या  जनक से,
उसका  उर  -  संताप।।7।।

धर्म     हेतु   बलिदान  हो ,
गया       पूर्ण     परिवार।
धन्य   गुरू     गोविंद जी,
सिंह ,  नहीं थे स्यार।।8।।

अपने  प्यारे     धर्म   हित,
किया  प्राण      बलिदान।
जोरावर औ'   फतह  की,
अमर   रहेगी   शान।।9।।

अपने -    अपने    धर्म  का ,
मिलता     स्वतः     सकार।
फिर  विधर्म  का   क्यों धरें,
तन-मन  बसा नकार।।10।।

पशु -    पच्छी    का  धर्म है ,
भोजन     और      निकास।
पर  मानव  को   धर्म  हित,
करना आत्म -विकास।।11।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

25.12.2019●8.00अपराह्न।

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

चलो,एक हम सब हो जाएँ [ चेतना -गीत ]


चारों         ओर  खड़े  हैं दुश्मन,
चलो,      एक हम सब होजाएँ।
आस्तीन      में  साँप पले  जो,
उनसे      सावधान  हो  जाएँ।।

गंगा -      यमुना  की  धरती पर,
खून -    खराबा   क्यों  होता है?
सबका     प्रहरी उच्च हिमालय,
नौ -   नौ   आँसू  क्यों रोता है??
देश - धर्म     की रक्षा  के  हित,
चलोआज हम बलि बलि जाएँ।
चारों      ओर   खड़े  हैं  दुश्मन,
चलो ,  एक हम सब हो जाएँ।।

जातिवाद       की   दीवारों को ,
तोड़       हमें   आगे  आना  है।
ऊँच -      नीच    या वर्णवाद से,
ऊपर     ही     उठते  जाना  है।।
मैं   बाँभन      तू  पिछड़ा छोटा ,
छोड़     भाव सब घुलमिल जाएँ।
चारों   ओर     खड़े    हैं  दुश्मन,
 चलो,     एक हम सब हो जाएँ।।

राजनीति        की     रोटी   सेंकें ,
उनसे        सावधान    रहना  है।
उन्हें         चाहिए  ऊँचा  आसन,
नहीं       भावना    में    बहना   है।।
रहना         हमको   संग -साथ ही ,
हम   गुलाब-से खिल - खिल जाएँ।
चारों       ओर       खड़े   हैं  दुश्मन,
चलो,   एक     हम स  ब हो जाएँ।।

उधर       पाक        नापाक खड़ा है ,
उत्तर        में    बेशर्म     चीन है।
लूटपाट          झटके      के  हामी,
जिनका       कोई   नहीं   दीन है।।
बंधु  - बंधु      आपस में लड़कर,
क्यों     निर्बल    अस्तित्व बनाएं?
चारों       ओर     खड़े     हैं  दुश्मन,
चलो,    एक     हम   सब   हो जाएँ।।

बाजों       के     पंजे    में पलकर ,
नहीं          सुरक्षित    पंछी   कोई।
बहकावे         में      आने  वालो!
पीछे     है       नरभक्षी      कोई ।।
शुभम'     शांति   संदेश      प्रसारें,
सबल       बनें      चेतना   जगाएँ।
चारों       ओर        खड़े  हैं  दुश्मन ,
चलो,   एक   हम   सब    हो जाएँ।।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

25.12.2019◆11.45 पूर्वाह्न ।

देश हमारा धर्म है! [ कुण्डलिया ]


 कुत्ता    भौंका     एक  जब ,
हुआ     गली       में    शोर।
भौं भौं   भौं     मचने   लगी,
हुई         भयावह      भोर।।
हुई        भयावह        भोर,
सभी    क्यों  भौंक   रहे हैं।
अनजाने ,        की      राह ,
कुकर    क्यों रोक   रहे  हैं।।
'शुभम '    न  तुलसी -  कुंज,
उग      रहे       कूकरमुत्ता।
भौंके             कुत्ते      खूब,
प्रथम  जब  भौंका कुत्ता।।1।

चाटा      जिसने    रक्त  ही,
उसे     रक्त      की     चाह।
यही       धर्म   की    शान है ,
होकर               बेपरवाह??
होकर                 बेपरवाह,
हृदय   से    दया   बिसारी।
मानवता     का        त्याग,
भले    हो     अपनी   ख्वारी।।
'शुभम'      सुलगती    आग ,
दनुज    ने   मानव   काटा !
लगी        लहू      की   चाट,
साँप    ने     लोहू    चाटा।।2।

देश -   संपदा    दहन   कर,
जो   रहता     इस       देश।
नहीं     नागरिक   देश का,
जन्मा   ज्यों    पशु - वेश।।
जन्मा    ज्यों   पशु  - वेश ,
न    मानव  ही  कहलाता।
रक्त  -    पिपासा      शेष ,
हिंस्र    पशु  ही  बन जाता।।
'शुभम '       देह   नर    रूप,
आम     जन  की वह विपदा।
कीड़ा         क्लीव      कपूत ,
न    जाने   देश - संपदा ।।3।

पले      सपोले    डस  रहे ,
इनसे        रहो        सचेत।
खाते  -   पीते    देश    का,
नहीं     देश      से     हेत।।
नहीं     देश      से      हेत,
छेद     पात्रों    में    करते।
खाते      हैं     जिस    पात्र,
दूसरों     के    हित   मरते।।
'शुभम '   ले     रहे   स्वाद,
सदा   रस में    विष  घोले।
त्याग     मनुज    का   रूप,
बाँह    में  पले    सपोले।।4।

देश       हमारा     धर्म    है ,
देश        हमारा         कर्म।
अन्न   दूध    फल    देश  के,
देश         हमारा        मर्म।।
देश         हमारा       मर्म,
यही     अस्तित्व     हमारा।
पोषक        सदा     सुनीति,
विमल     सुरसरिता   धारा।
'शुभम '      सुदृढ़     क़ानून,
है      नहीं    पक्ष    लवलेश।
राम     कृष्ण     की   भूमि,
यह    प्यारा    भारत देश।।5।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.12.2019■3.30 अपराह्न।

www.hinddhanush.blogspot.in

ग़ज़ल


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        काफ़िया -   'आर
        रदीफ़ -  स्वेच्छिक
♾●●♾●●♾●●♾●●
कलम    है,  कोई   तलवार  नहीं है।
तूलिका है, कोई  हथियार नहीं है।।

अंदाज़   नहीं है, तुझे असर इसका,
शांत   रहती  है,    इज़हार  नहीं है।

जो  कह दिया है ,  अमर   है वाणी,
रद्दी  में बिके , वह अख़बार नहीं है।

अदीब     की आवाज रोक सके कोई,
संगेमरमर  की  वह   दीवार  नहीं है।

अपनी   ही  पतवार  से खेता किश्ती,
'शुभम'की राह में  वह आसार नहीं है।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🛣 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

24.12.2019 ●6.45 अपराह्न।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

भीड़ [ अतुकान्तिका ]



भीड़!
भीड़!!
भीड़!!!
जिसका नहीं है
कोई नीड़,
न चरित्र ,
न व्यक्तित्व,
न दायित्व,
कहलाती है
वह भीड़।

जब व्यक्ति नहीं
भीड़ में!
तो व्यक्तित्व
क्यों हो ?
जब चारुता नहीं
तो चरित्र
क्यों हो ?
देयता नहीं
तो दायित्व 
क्यों हो?

आया भीड़ में से
एक बेतहासा दौड़ता
पत्थर ,
कोई कहेगा 
कि मैंने उछाला है !
कानून के वक्ष से
लोहू 
मैंने निकाला है !
कोई कहेगा ?
ले सकेगा 
कोई दायित्व?
छाती फैलाकर !
हर ओर से
आती है
एक ही आवाज ,।
मैंने नहीं !
मैंने नहीं !!
मैंने भी नहीं !!!
परन्तु एक
 बेजान पत्थर
 तो उछला?
किसी के वक्ष से
रक्त तो निकला?

क्या यही 
चरित्र है?
यहाँ शून्य ही
व्यक्तित्व है,
भीड़ तो
भीड़ है ,
अविवेकी और
मूढ़ है ,
अंधी बहरी 
बरगलावे में
बाँध कर पट्टी 
फेंकती पत्थर,
फिर क्यों हो
किसी का चरित्तर ?

सत्य से
सर्वथा दूर ,
बहुत ही दूर ,
पूर्णतः क्रूर ,
मदान्धता में चूर !
न कहीं शूरता,
न कोई शूर!
'चारुता का इत्र'
'चरित्र ' यहाँ कहाँ?

ये भीड़ है,
मानवता के हृदय की
दारुण पीर है !
कायरता में डूबती
तकदीर है,
स्वदेश की छाती में
घौंपी गई
शमशीर है।

💐शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🛤 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

24.12.2019◆11.00पूर्वाह्न।

कोहरा आया [ बाल गीत ]




अम्बर  से  धरती तक छाया।
कोहरा आया कोहरा आया।।

झक्क  दूधिया  चादर  तानी।
लाया धुआँ -धुआँ-सा पानी।।
बदल  गई  धरती  की काया।
कोहरा आया  कोहरा आया।

ओस  लदी   आलू   गेहूँ  पर।
भाप उठी  नदियों के  ऊपर।।
मुँह से श्वेत धुआँ - सा  आया।
कोहरा आया कोहरा आया।।

पेड़    भीगते     भीगी    बेलें।
कैसे   बाहर   जा हम  खेलें।।
लगता  कोहरा  भी मनभाया।
कोहरा आया कोहरा आया।।

चिड़ियाँ  नीड़  छिपी बैठी हैं।
ठंडक   से   गैया    ऐंठी   हैं।।
कुक्कड़  कूँ ने  हमें  जगाया।।
कोहरा आया कोहरा  आया।

मम्मी  कहतीं   भीतर  बैठो।
ओढ़   रजाई   में  जा लेटो।।
'शुभम' बड़ा  तंबू -सा छाया।
कोहरा आया कोहरा आया।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.12.2019●6.10पूर्वाह्न

ये कैसा कोहराम [ गीत ]

     


ये   कैसा  कोहराम   मचाया!
लोकतंत्र  को  नाच  नचाया!!

कानूनों  की   उड़ा  धज्जियाँ।
मानव को खाया ज्यों भजिया
जन - जीवन में भय बरपाया।
ये   कैसा  कोहराम मचाया!!

ज्ञान   अधूरा  ख़तरनाक  है।
अंधी इनकी   हुईं  आँख  हैं।।
स्वयं  वृथा  गृहयुद्ध  रचाया।
ये   कैसा कोहराम   मचाया।।

हित-अनहित तो सोचा होता।
अपने  पथ में   काँटे   बोता।।
शैतानी   चालों    का   साया।
ये   कैसा  कोहराम  मचाया।।

राजनीति  भारत    की   गंदी।
हुआ आदमीअति स्वच्छन्दी।।
मनमाना    क़ानून    बनाया।
ये  कैसा कोहराम  मचाया ।।

हम स्वदेश  में क्यों लड़ते हैं?
आपस में सब क्यों भिड़ते हैं?
'शुभम' सहज संदेश सुझाया।
ये कैसा  कोहराम   मचाया।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
💎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

21.12.2019●10.45पूर्वाह्न।

सूरज दादा बाहर आओ [ बालगीत ]



सूरज     दादा    बाहर  आओ।
हमको  अपना मुँह दिखलाओ।

तनी  दूधिया  शीतल   चादर।
मेघों से   घिर  आया अम्बर।।
गरम     धूप भू  पर  बिखराओ।
सूरज   दादा    बाहर   आओ।।

बंद     हुआ   स्कूल    हमारा।
स्वेटर ,कम्बल   बने  सहारा।।
बंद    खेल    चालू   करवाओ।
सूरज     दादा  बाहर   आओ।।

घर  में   होती   नहीं   पढ़ाई।
स्वेटर  बुनती  करें   कढ़ाई।।
मम्मी को तो कुछ समझाओ।
सूरज     दादा   बाहर  आओ।।

भजन  कर रही है पिड़कुलिया।
चूँ  - चूँ    करती   है   गौरैया।।
तुम    प्रभात का  राग सुनाओ।
सूरज     दादा    बाहर   आओ।

ओस  लदी    है  पत्ती - पत्ती।
जले रात  में   धुँधली   बत्ती।।
मौसम      को  थोड़ा  गरमाओ।
सूरज       दादा   बाहर   आओ।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌞 डॉ. भगवत स्वरूप ' शुभम'

21.12.2019 ●10.15 पूर्वाह्न।

हाँ, हाँ मैं वामा हूँ [ व्यंग्य ]



            हाँ , हाँ मैं वामा हूँ। तुम पुरुषों ने मुझे "वामा" अर्थात वाम है जो ,वही वामा ही तो मैं हूँ। शब्दकोशकारों ने भी मुझे टेढ़ी, कुटिल, दुष्ट , बुरी, प्रतिकूल ,विरुद्ध के अर्थों में व्याख्यायित किया है।इन विविध नामों से मुझे शृंगारित, सुशोभित किया है। तो इसमें बुरा क्या है। मैं अपनी रचना , प्रकृति , स्वभाव , चाल-चलन , आचार -विचार , व्यवहार, शृंगार, सोच , चिंतन -मनन, चलन-फिरन , तन , मन सभी तरह से सर्वथा कुटिल , वक्र , टेढ़ी या विपरीत ही तो हूँ।

               किसी भी रूप में यदि विश्लेषित करके देखा जाये तो सबसे पहले मेरा बाहरी रूप ,आकार - प्रकार , देह- संगठन ही आता है , क्योंकि सबसे पहले तुम मुझे पाते हो कि प्रकृति ने ऊपर से नीचे तक मुझे टेढ़ा ही बनाया है, जिसे तुम अपने स्वार्थ में सुंदर , कोमल - कांत और कमनीय (कामना के योग्य, चाहने योग्य) कहते हो । जिसकी प्रशंसा करते - करते नहीं अघाते ! फूले नहीं समाते। मुझे रिझाते , मूर्ख बनाते - बनाते,नहीं थकते ।मेरे शरीर का प्रत्येक बाह्य रूप न जाने क्यों प्रकृति की निर्मात्री - देवी को टेढ़ा बनाना ही श्रेयस्कर लगा , मेरी कुटिल और वक्र बुद्धि ही समझदारी से परे है। यदि मैं स्वयं भी दर्पण के समक्ष देखने का प्रयास करती हूँ ,तो मुझे उस निर्माता प्रजापति ब्रह्मा या निर्मात्री देवी की सोच पर आश्चर्य होता है , कि अंततः क्या सोचकर मुझे पुरुष से इतना भिन्न और विपरीत क्यों रच दिया। अब आप सोचें कि मेरे इस सृजन में मेरा अपना तो कोई हाथ नहीं है। फिर भी मैं आप पुरुष वर्ग को बहुत - बहुत धन्यवाद ज्ञापित करना अपना दायित्व समझती हूँ, कि इतनी वाम और टेढ़ी -मेढ़ी होने के बावजूद मुझे काम्या, सौंदर्य की देवी , कामिनी, भार्या , वामांगी, रमणी , आदि सुंदर संज्ञाओं से सुशोभित किया गया है । चाहे आपने अपने स्वार्थ में ही ऐसा कहा हो । पर यह भी सौ फीसद सत्य है कि प्रशंसा किसे प्रिय नहीं होती,भले ही वह झूठी हो। और इसमें भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रायः सराहना और प्रशंसा झूठी ही होती है। एक पक्षीय ही होती है। जिसे सुनकर प्रत्येक वामा और अवाम (जो वाम नहीं है ,टेढ़ा नहीं है) गदगद हो जाता है। मेरे प्रति एक विशेष हाव,भाव और चाव से भर -भर जाता है।

                 अब बात आती है मेरी चाल -ढाल , हाल -चाल आदि पर । तो वहाँ भी मैं अपने भाव, स्वभाव , सद्भाव , दुर्भाव में   भी अपने में एक ही हूँ। पुरुष वर्ग से विपरीत और कुटिल ही। मेरे सोचने का नज़रिया और नज़र भी मौलिक ही है। जब मेरा शरीर ही वाम या टेढ़ा या वक्रिम है तो चाल अर्थात चलन क्यों टेढ़ा नहीं होगा? यदि कोई पुरुष साड़ी -ब्लाउज़ पहनकर सड़क पर जा रहा हो तो उसकी चाल चलने के ढंग से ही दूर औऱ आगे पीछे हर कोण से पता चल जाएगा कि जा नहीं रही , जा रहा है। जबकि एक वामा जब सड़क पर चलती है तो उसके कूल्हे , हाथ , पाँव एक विशेष लय औऱ तरन्नुम में ताल देते हुए लगते हैं। कमर को लचकाती, मटकाती , हाथों को आगे -पीछे झटकारती ,फटकारती एक विशेष वक्रिम लय-ताल की लहरियों में संगीत - सा भरती हुई मार्ग तय करती है। यह मैं नहीं कहती। आप सब कहते हो। मैं कितना भी बदल कर चलने की कोशिश करूँ , पर सब व्यर्थ। सब अकारथ। अपनी प्रकृति के विरुद्ध भी भला कोई गया है? अथवा जा सकता है? कदापि नहीं।यदि मेरी चाल -ढाल में थोड़ा -सा भी सीधा- पन आ जाए तब तो और भी गज़ब हो जाता है। मुझे तीसरे लिंग की संज्ञा दे दी जाती है, फिर तो मैं न वामा रहती हूँ, और न अवाम(पुरुष)ही। इससे तो अच्छा है , मैं वामा ही भली। अपनी सहज प्रकृति से तो नहीं बदली।

                     जब मैं सोच -विचार के विषय में सोचती हूँ तो भी आप पुरुषों से अपने को भिन्न ही पाती हूँ। मेरे सोचने का तरीका भी अपना है। मुझे यों ही वामा करार नहीं दिया गया, मेरी सोच - दानी भी वाम ही है। इतना विपरीत ,वक्र , वाम , टेढ़ा और कुटिल रूप होने के बावजूद मैं तुम पुरुषों की वामांगी हूँ। अर्धांगिनी हूँ। गृहिणी हूँ। गृहलक्ष्मी हूँ। आपके कंधे से कंधे मिलाकर चल पाती हूँ। तुम्हारी पूरक हूँ। टेढ़े औऱ सीधे का यह विचित्रता पूर्ण संग किसी आश्चर्य से कम नहीं है। विपरीतता का यह संगम संसार के संचालन की एक अजूबी धरोहर है।मुझे आप अवाम का आभारी होना चाहिए कि आपने मुझे अपने हृदय के सिंहासन पर विराजमान ही नहीं किया , वरन मानव जीवन की स्वामिनी ही बना दिया है। वैसे मैं वामा थी , वामा हूँ और वामा ही रहूँगी ।मेरा वामपन जब विधाता को स्वीकार है, तो पुरुष को क्यों सहज स्वीकार नहीं होगा?
 💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक© 💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
20.12.2019◆11.40अपराह्न।

समय- सामर्थ्य [ दोहे ]



समय       बदलता   जा  रहा,
कहते       हैं     सब     लोग।
समय     सदा   गतिशील  है ,
करें     यथा    उपभोग।।1।।

रोना     रोते    समय    का ,
पर          करते       बर्वाद।
'समय     नहीं   है  पास में ',
सुने      शिखर   संवाद।।2।।

समय  नष्ट   जिसने  किया,
मिले      वही      परिणाम।
चिड़ियों   ने     खेती  चुगी,
गिरता    धरा   धड़ाम।।3।।

समय - समय  का   फेर  है ,
समय -  समय    की  बात।
समय  बीत  जब   जायगा,
फिर  क्या रहे बिसात??4।।

शशि , सूरज  नित समय से,
फैलाते       निज       कांति।
दिनकर    दिन    करता  रहे,
सोम  निशा  की शांति।।5।।

पवन     बहे   धरती    चले ,
प्रसरित          विशदाकाश।
नहीं    विलंबित   एक   पल ,
सत्य ,   नहीं उपहास।।6।।

अनल  समय  से    ताप  दे,
मेघ     दे       रहे      आप।
समय  नष्ट  जो   कर   रहा,
स्वयं  समय का शाप।।7।।

प्रकृति  मौन  रहकर  सदा,
रखे    समय    का  ध्यान।
बड़बोला    मानव     नहीं,
रखे  समय का  ज्ञान।।8।।

खिलतीं  कलियाँ समय से,
फ़ैलातीं         सद      गंध।
मानव  -  हृदय    मलीनता,
दे     दूषित      दुर्गंध ।।9।।

पल्लव  लता   निकुंज   के ,
हिल -    हिल   दें     संदेश।
जैसे   हम   हिलमिल   रहें,
मनुज  रहें तज द्वेष।।10।।

'शुभम' समय फिर लौटकर,
आता     कभी   न    पास।
क्षण - क्षण के  उपयोग  से,
जीवन   भरे  सुवास।।11।।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🌐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

19.12.2019●7.00अपराह्न।

कविता - कामिनी [ अतुकान्तिका ]

    

साहित्य में
हित भाव है ,
सद भाव है,
सम भाव है,
पर 
साहित्य के
 स्वाध्याय का
कितने जनों को
चाव है ?
यह साहित्य है
जो भरता 
हृदय के घाव है।

साहित्य की वाणी
कल्याणी सदा ,
सदा शुभदा,
प्रकाशनी आभा 
सुप्रभात की प्रतिभा।

वाणी 
माँ  शारदा की,
गूँजती वीणा,
करती निवारित
अहर्निश
मनुज की पीड़ा,
कवि -लेखकों की
शब्द की क्रीड़ा,
तनिक भी
नहीं उमड़े
मनुज मन व्रीड़ा।

पावनी
मनभावनी,
ज्यों बूँद 
पावस -सावनी,
सुहासिनी
सुभाषिणी,
कविता -कामिनी
जन - हृदय की
वाहिनी!

कोमल भावमय ,
रस , छन्द ,लय,
गति तालमय शृंगार,
सहृदय में 
सुप्रवेश का आधार।

लहराती
महकती
मचलती चलती
गंगा -धार सी,
उद्धार- सी,
स्नात -सी करती,
छन्द के बंध में,
भुजबंध -सी
सुहास -सी झरती,
मौन ही मौन
शब्दों में चहकती 
कविता -कामिनी।

'शुभम ' जीवन का
शुभ -  शृंगार,
सु -आधार,
मेरी आत्मा का
विकसित विस्तार,
मेरी प्रिय
कविता -कामिनी।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
❤ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

18.12.2019●7.00 अपराह्न।

कैसा ये भारत निर्माण! [ गीत ]


कैसा -   कैसा  भारत   बना रहे हैं हम।
अपने    ख्वाबों में बुदबुदा रहे हैं हम।।

नए के नाम पर स्वार्थों का बोलबाला है।
अमृत के प्याले में जहर  घोल डाला है।।
देश     की हर गरीबी  भुना  रहे हैं हम।
कैसा -  कैसा  भारत  बना रहे हैं हम।।

आदमी ,    आदमी के लहू का प्यासा है।
झोपड़ी  में  अँधेरा  है  महल उजासा है।।
देश     किस्तों   में  बँटवा   रहे   हैं  हम।
कैसा -   कैसा  भारत  बना  रहे  हैं हम।।

जाति -   धर्मों  में    बँट   रहा मानव है।
अपना     पंजा  जो  फैला रहा दानव है।।
हिरण  दम्पति  को वंशी सुना रहे हैं हम।
कैसा   -  कैसा   भारत बना रहे हैं हम।।

कहीं     भाषा  तो कहीं  धर्म  खंडित है।
कहीं   नासा  से  देश 'शुभम'  मंडित है।
नाली     में बहता जल पिला रहे हैं हम।
कैसा -  कैसा  भारत  बना रहे हैं हम।।

आँकड़े     आभास   प्रगति  का देते हैं।
झूठे  तथ्यों  को सच मान हम लेते हैं।।
सपनों   के महल, गढ़ सजा रहे हैं हम।
कैसा - कैसा  भारत   बना रहे हैं हम।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🪐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

18.12.2019 ◆3.30 अपराह्न।

ग़ज़ल



खुदगरजों   से   आस  नहीं।
कलिका मुँदी  सुवास  नहीं।।

काले   मन  जिन   लोगों के,
उनमें   कहीं   उजास   नहीं।

नहीं    मयस्सर     दो   रोटी,
उनके   उदर    प्यास   नहीं।

अपना  उल्लू    हो    सीधा ,
उनको  कोई    खास  नहीं।

पेट्रोल      से     चलते     हैं,
घोड़ों  को  जब    घास नहीं।

च्यवनप्राश    कैसे    खा लें,
तन  पर  जिनके माँस नहीं।

'शुभम'    सत्य  ये   कहता है,
करता    कोई     हास    नहीं।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🏕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

18.12.2019◆10.25अपराह्न।

पौष- शीत- सौंदर्य [ कुण्डलिया ]


ठंडा    मौसम    पौष  का,
शीतल      बहे       बयार।
हिम    हेमंती      हुलसता,
हिए       हूल        हुंकार।।
हिए       हूल         हुंकार,
हिमाचल  की    है  माया ।
सूरज        देव      विलीन ,
बादलों     की  है  छाया ।।
'शुभम'     कोहरा     कोप ,
शीत      ने   गाड़ा     झंडा।
थर  -    थर     काँपें    जीव,
पौष  का   मौसम  ठंडा।।1।।

तानी   चादर     दूध -   सी,
दृश्य     नहीं    चहुँ    ओर।
भू      से   अम्बर    छा  रही,
श्वेत      धूम       में   भोर।।
श्वेत      धूम      में     भोर,
निकट  निज    राह  न  सूझे।
सन्नाटा          हर        ओर,
किसी   को     कैसे    बूझे।।
पल्लव      जमा       तुषार ,
न  दिखतीं   फसलें   धानी।
'शुभम'        प्रबलतम    शीत,
दूध   - सी   चादर तानी।।2।।


ओढ़ि   रजाई    नारि -  नर ,
करें      शीत    -    उपचार।
कोई       तापें      आग   को,
अगियाने          दो -  चार।।
अगियाने         दो  -    चार,
तापते        कोई       हीटर।
बिजली  का    बिल    भार,
दौड़ता   सर - सर    मीटर।।
'शुभम '  गरम    ही    खाद्य ,
किसी  को  ग़ज़क     सुहाई।
मूँगफली       का       स्वाद ,
ले  रहे   ओढ़ि    रजाई।।3।।

मुर्गा    -    मुर्गी        खेलते ,
लगा      कुकड़ - कूँ      टेर।
उठो  कहाँ    तुम     सो  रहे ,
जगने     में      क्यों      देर।।
जगने      में      क्यों       देर,
भानु     ऊपर     चढ़  आया।
कलरव        करते       कीर,
समा     कैसा      मनभाया!!
'शुभम'    शांत     वन - मोर ,
अशीषें        देवी        दुर्गा।
तैरें          सर        जलमुर्ग,
कूदते       मुर्गी  -  मुर्गा।।4।।

सरिता     के   तट      जाइए,
होता         कलकल     नाद।
श्वेत     भाप     ऊपर   तनी,
करती        ज्यों       संवाद।।
करती        ज्यों        संवाद,
नहाते        बहु        सन्यासी। 
प्राची       दिशि     में    भानु,
त्यागते      निशा  -  उदासी।।
'शुभम '      सिंधु       संयोग,
बह      रही   है   जलभरिता।
अपने        शुभ         गंतव्य ,
मिलन  को बहती सरिता।।5।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

17.12.2019◆8.00अपराह्न।
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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...