328/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
दर्पण देखा
सजे -संवरे
पर सुधरे नहीं,
साहित्य भी क्या करता
दर्पण बना रहा
सुधरना तो
आदमी को ही था,
दर्पण की अपनी भूमिका है
वह करवा नहीं सकता।
दर्पण निर्जीव,
आदमी सजीव
बुद्धिमान भी!
पर वाह री बुद्धिमानी
धरी की धरी रह गई।
साहित्य किस काम आया?
दर्पण की किरचें
उतने ही बिंब,
वे किस काम के?
दर्पण भी उसीका
उसी से दर्पण,
पर किसको अर्पण!
आदमी अपनी मति
दर्पण अपनी गति
कोई तालमेल नहीं
विरोधाभास ही लगा
आदमी नहीं है
किसी का भी सगा,
सर्वत्र दगा ही दगा।
पूरक हैं वे दोनों
दर्पण और आदमी,
पर व्यवहारिकता में
एक पूरब दूसरा पश्चिम,
धूल थी चेहरे पर
दर्पण को तौलियाता रहा।
शुभमस्तु !
03.07.2025●9.00प०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें