शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

पाँच वर्ष का मेला

पाँच   वर्ष   का  मेला   है।
क्या क्या  हमने  झेला  है।।

चतुर   खिलाड़ी   खेला   है।
झूठवाद   का  रेला       है।।

वोटर   दीन    अकेला    है।
मीठा   गुड़   का  भेला  है।।

कैसा   विकट   तमाशा   है!
कोई न   जिनसे   आशा  है।।

तमाशबीन  सब   जनता है।
जिस के बल "वो"तनता  है।।

चरण   चूम  आगे    बढ़ता ।
उसके  ही सिर  पर चढ़ता  ।।

जनता   एक     मदारी   है।
उसकी   सब    किरदारी है।।

भाँप   न  पाते  टोपी  झण्डे।
पलते आश्रय   नित मुस्टंडे ।।

खाते   पीते   मौज    मनाते ।
कहते इसकी    उसे   दुहाते।।

यही आँख और कान यही ।
जो ये    फूंकें   सदा   सही ।।

कच्चे   कान   के  नेता होते ।
इनके   पैरों   चलते    सोते ।।

इनके   ये    जासूस    करीब।
जो ये कहें पाषाण,-लकीर ।।

पाँच वर्ष   का कुम्भ महान ।
नेता नहाए   फिरे   जहांन ।।

जनता तो जैसी   की तैसी ।
सदा रहे   ऐसी    की ऐसी ।।

उनकी   किस्मत  कारें ए सी।
चुसने को बस  जनता  देशी।।

जितने पिछड़े जनता जनार्दन।
उतने  ही     नेता    उत्पादन ।।

जितनी ऊँची जिसकी शिक्षा ।
नेता की नहि   चहिए  भिक्षा ।।

पढ़ें लिखें सब भारतवासी।
मिटे देश की सकल उदासी।।

शुभमस्तु 

-डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

जितने मुँह उतनी बातें

जितने मुँह उतनी बातें।
कहीं कोमल मृदुल कहीं घातें।

कहीं धर्म की सुगंध कहीं साहित्य का संसार।
कहीं राजनीति की आँधी कहीं  सामाजिकता -प्रसार।

कहीं हंसी के फूल कहीं शासन का रूल।
माफ़ी  माँग लीजिए गर हो जाए कोई भूल ।

किसी को 'सुप्रभात'बुरा लगता किसी को फोटो वर्जित हैं।
किसी को कट पेस्ट ही करना उन्हें बस वही शोभित है।

चाशनी धर्म की केवल उनको सुहाती है।
किसी को राजनीती की रबड़ी महकाती है।

कोई अनोखे वीडियो सबको दिखाता है।
कोई निज ऑडियो को भेज कर हमको सुनाता है।

कोई तो  सौगंध दे दे कर अन्ध विश्वास फैलाता है।
शर्तों में अपनी बाँधकर 'धार्मिक' बनाता है।

बड़े रंग हैं इनके व्हाट्सएप्प निराला है।
मर्जी सबकी पूरी हो बड़ा कर्रा कसाला है।

सबको खुश करना बड़ी मुश्किल में होता है।
कोई हँसता गाता है कोई बस रोता होता है।

ये संसार है मित्रो सभी को खुश करना टेढ़ा है।
लकीरों पै वही चलता जो केवल मेष मेढा है।

शुभमस्तु 

-डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

राजनीतिक पिछलग्गू

राजनीति में कोई किसी का स्थाई न तो मित्र होता है और न शत्रु ही होता है।यहां सांप और नेवले की भी दोस्ती होती है ।हो रही है , होती थी और होगी। इसलिए वे अनुयायी, अनुगामी और  आदरणीय पिछलग्गू  कितने बुद्धिमान हैं , जो इनके पीछे अपने प्राणों का बलिदान भी करने में चूकते नहीं । ऐसी कृतज्ञता धन्यवाद के योग्य है। आखिर हम अपने विवेक का इस्तेमाल करना कब सीखेंगे। कब तक अंधे बनकर इनके पीछे झंडा ऊँचा करते रहेंगे । शायद इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हम जरूरत से ज्यादा स्वार्थी हो गए हैं । जिसका यह भी भरोसा नही कि वह शाम से सुबह तक कहाँ होगा। टिकिट मिल जाए तो वही दल भगवान है, और न मिली तो तुरत ही पलायन है। इसलिए आज सभी सम्माननीय नागरिकों का यह दायित्व है कि अन्धे न बनें। सोच -समझ कर ही अनुगामी बनें । राजनीति का अर्थ यह कदापि  नहीं होता कि हम अपने चरित्र भी बेच दें।एक विवेकी नागरिक की भूमिका अदा करें । जाति, क्षेत्र ,धर्म आदि समस्त वादों से ऊपर उठकर मतदान करें । राष्ट्र निर्माण का यह पावन यज्ञ है, मतदान अवश्य करें पर बहुत सोच समझकर ।देश के अच्छे और सच्चे नागरिक ही श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।

शुभमस्तु

- डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सरस्वती वंदन

ज्ञानदायिनि वीणावादिनि सरस्वती माँ शारदे ।
अज्ञान उर का दूर कर माँ  संसार
से हमें तार दे।।
तम से ग्रसित मानव के मन को 
कर प्रकाशित उद्धार कर।
पथभृष्ट मानव हो रहा है उसको
दिखा मारग सुकर।।
सुंदर चरित धारण करें निर्भय 
जियें जीवन सभी।
सत्कर्म में तल्लीन हों ईर्ष्या रहित
हों हम सभी।।
यह विश्व इक परिवार सम
दे सुमति माता शारदे।
कंटकों को पार कर हम आगे बढ़ें
माँ तार दे।।

जय जय माँ सरस्वती की जय हो 

-डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

बुधवार, 29 अगस्त 2018

अपनी गलती स्वीकार नहीं

   जगत के अनेक प्राणियों में मनुष्य भी एक प्राणी है, लेकिन सबसे भिन्न और सबसे विशेष । सभी प्राणी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करते हैं। मनुष्य भी करता है। क्योंकि संघर्ष ही जीवन है और जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। जो संघर्ष नहीं करता , उसका अस्तित्व उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो जाता है।
   सभी प्राणियों में प्रकृति ने ऐसी कुछ विशेषताएँ प्रदान की हैं , जिनसे वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने में जूझता रहता है। जैसे सर्प और बिच्छू को विष और दंशन दिया तो पखेरूओं को उड़ने की शक्ति प्रदान की है। शेर चीते को शक्ति औऱ खूंख्वार स्वभाव दिया है। कुछ प्राणी ऐसे भी हैं जो पकड़े जाने से बचने के लिए अपने शरीर से कुछ जहरीले पदार्थ फेंकते हैं या मूत्र विसर्जन करके अपने शत्रु को भयभीत कर देते हैं।जैसे विष खोपरा, टोड आदि। अस्तित्व की रक्षा औऱ संघर्ष के अनेक साधन सभी प्रकृति प्रदत्त ही हैं।
   इसके विपरीत मानव के पास सबसे बड़ा अस्त्र उसकी बुद्धि है।इसीलिए उसे बुद्धिमान प्राणी कहा जाता है , जिसके बलबूते पर वह  सारी प्रकृति और जड़ चेतन से अपना लोहा मनवाता है। संसार में निरन्तर होती हुई प्रगति और विकास के लिए उत्तरदायी मनुष्य ही है। उसका एक ओर रचनात्मक रूप इतना व्यापक और  विशेष है कि उसने विज्ञान, कला , अध्यात्म , धर्म , संस्कृति, साहित्य, दर्शन आदि विविध क्षेत्रों में विकास के झंडे गाड़ दिए हैं। दूसरी ओर उसने मानसिक , स्थलीय , जलीय , आकाशीय और वायवीय प्रदूषण फैलाकर अपने साथ साथ सारी प्रकृति के लिए भयानक समस्या पैदा कर दी है।
   मनुष्य जब कोई गलत काम या अपराध करता है तो सहज ही उसे स्वीकार नहीं करता। काश यदि ऐसा होता तो देशभर में इतनी अदालतें ,हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी नहीं होते। इतनी मारकाट नहीं होती। आदमी आदमी के खून का प्यासा नहीं होता। और सबसे बड़ी बात कि अपने असत्य , झूठ , चोरी और अपराधों पर्दा डालने या सफाई देने की कला में माहिर नहीं होता। पढ़ लिखकर आदमी बुद्धिमान नहीं हुआ , बल्कि अपने गुनाहों पर पर्दा डालने या सफाई देने की कला में कुशल हो गया। इसीलिए पढ़ा-लिखा आदमी अपने बुद्धि कौशल को धनात्मक न  बनाकर उसका ध्वंशात्मक प्रयोग करने का विशेषज्ञ हो गया। जितना ज्यादा पढ़ा, उतना ही सफाई देने में आगे बढ़ा। वह आजीवन मुकदमा लड़ लेगा , पर ये एक बार भी नहीं कहेगा कि गुनाह मेरा ही है। जब कानूनी शिकंजे में फंस जाता है  या बड़े भाई  डंडानाथ के नीचे आता है तब स्वीकारना उसकी विवशता हो जाती है। ये दिमाग ही उसकी विशेषता है। सहज रूप में गलती स्वीकारने में उसकी नाक कटती है।मनुष्य का दिमाग ही उसका अस्त्र है , ढाल है और है उसके संघर्ष का औजार। इसी दिमाग से वह मानव से दानव भी बन जाता है,और महामानव भी। इस प्रकार आदमी ही आदमी के लिए देवता है , पिशाच है, रक्षक भी है और भक्षक भी। आदमी को जितना भय आदमी से है उतना  शेर , चीते या अन्य जंगली  जीवों से नहीं है। आज आदमी ही आदमी का आहार है।बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा रही हैं।  मनुष्य मनुष्य का, पड़ौसी  पड़ौसी का शत्रु सिद्ध हो रहा है।घरों के ताले कुत्ते , बिल्ली, बाघ, बगहर्रे, चिड़ियाँ , साँप , बिच्छू नहीं चटकाते , ये काम आदमी करता है।इस प्रकार ये बस्तियाँ , ये कस्बे , ये गांव , ये नगर और महानगर जंगल से भी
अधिक  भयोत्पादक बन चुके हैं। ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे, ताकि हम फिर ये गान गा सकें:
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक  भवेत।।

💐शुभमस्तु !

✍🏼©लेखक
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रविवार, 26 अगस्त 2018

ये कैसा रक्षाबंधन है!

दसियों खबरें रोज़ रेप की
बहनें लुटतीं नित्य देश की
गली सड़क मेड़ों खेतों पर
इज्ज़त बची नहीं बेटों पर
ये माटी है   या    चंदन है!
ये   कैसा   रक्षाबंधन  है ?

बड़े - बड़े  कानून  बनाये
काले कोट पहन   वे आये
गरमा गर्म   बहस होती हैं
बहनें    शर्मसार    रोती हैं
फाँसी   का   गलबन्धन है
ये   कैसा   रक्षाबंधन    है ?

पशु से भी बदतर मानव है
उससे   अच्छे  तो दानव हैं
कोरे आदर्शों  की बात करें
मौका मिलते ही   घात करें
मर गया   हृदय - स्पंदन है
ये    कैसा  रक्षाबंधन    है?

ये मंत्री   और विधायक भी
हैं लिप्त पाप में  नायक भी
सब दिखावटी बेटी -    रक्षा
ढीले  चरित्र    ढीले   कच्छा
पापों का   घंटा   घन घन है
ये    कैसा     रक्षाबंधन   है?

बाबा भी कामुक रस लोभी
यौवन - रस प्यासे   हैं ढोंगी
नाम   रखे बढ़ - बढ़   योगी
जनता मूरख   अंधी  लोभी
रहता बाबा नित  बनठन है
ये   कैसा     रक्षाबंधन    है ?

तेज़ाब  कोई फेंकता  वहाँ
सुन्दर युवती का रूप जहाँ
ऐसे  दानव हैं   बहुत   यहाँ
ढूंढो इक मिलते  बीस यहाँ
कैसा  बहनों  का   क्रंदन है
ये   कैसा      रक्षाबंधन   है ?

कामुक कीड़े  वीभत्स हृदय
कितने हैं ऐसे  मनुज  सदय
बाहर कुछ  अंदर  मैल भरा
भारत माँ आँचल   नहीं हरा
क्या यही मातृ अभिनन्दन है
ये    कैसा     रक्षाबंधन   है ?

बिटिया बचाओ  का नारा है
पर     पुरुष बुद्धि से हारा है
सद्बुद्धि का हुआ किनारा है
हृदय    हुआ   बजमारा    है
क्या "शुभम" यही शुभचिन्तन है
ये कैसा रक्षा बंधन है?

 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप" शुभम"

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

ओवरटेकिंग कल्चर

प्रजातंत्र के राजमार्ग पर
दौड़ रहे थे  वाहन घर घर
अपनी गति से बढ़ते चलते 
नहीं किसी को गति से छलते,

पर यह क्या आया सर सर
वाहन चालक करता घर घर
ओवरटेकिंग करने दौड़ा 
जैसे सुरापान कर घोड़ा
सड़क रोंद्ता  उछल-कूदता
अपना डंका रहा पीटता
नई  झपट्टामार  संस्कृति
भले कहो तुम उसको विकृति
पर उसको क्या ?
बस आगे बढ़ना,
अन्यों से भी आगे बढ़ना,
छल -छंदों से कुरसी गहना
अपनाना ओवरटेकिंग कल्चर
एक्सीडेंट भले हो वल्गर,
बड़े बड़ों की विकट उपेक्षा
लफ़्फ़ाजी नारों की शिक्षा
अपमानित कर आगे आया
कीचड़ हाथ सुशोभित पाया
मार -मार कीचड़ वाहन पर
आगे बढ़ा उन्हें आहत कर
चालक वरिष्ठ भौचक्के विस्मित
अटल टाल दिए जैसे थे मृत,
खोई  बड़े -बड़ों की इज्जत
नव चालक ने पाई लज्जत,
उनकी अस्थि - शेष पर करता
राजनीति के कसीदे गढ़ता,
नाम मिटाने का आयोजन
कोरी वाहवाही का वाहन,
ओवरटेकिंग कल्चर ले आया
नाम मिटा अपना लिखवाया,
सभी समझ रहे ये चालें
कितना कब तक मूर्ख बना ले!

है दुर्भाग्य इस प्रजातंत्र का
सड़क कूटता मोह-मंत्र सा,
आगे वाले छोड़ दिए सब
गुरु बेइज्जत होते हैं अब,
रहना है तो चुप ही बैठो
छोड़ वरिष्ठता दो, मत ऐंठो,
वरना क्या हो हस्र तुम्हारा
वक्त आज का सिर्फ हमारा,
नींव के पत्थर नींव में अच्छे
केवल मैं ही ऊपर सजते,
ओवरटेकिंग कल्चर आया
 बाप गुरु को धता बताया,
बने हो संस्कृति के ठेकेदार
पर बेकायदे सब बेकार।

ये आतंकी संस्कृति  तेरी
शीघ्र बजेगी फिर रणभेरी
विकट परीक्षा होगी तेरी,
सभी लड़ेंगे कुरसी मेरी
अब न चलेगी ओवरटेकिंग
चलो सड़क पर करले रेसिंग।

🌷शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

अस्थि शेष पर राजनीति

अस्थि शेष पर राजनीति क्यों करते हो,
ऊपर वाले से नहिं थोड़ा डरते हो।

नौ वर्षों तक भूल रहे थे तुम उनको,
उन्हीं अटल का नाम भुनाए फिरते हो।

उनके काम न देखे पूर्ण उपेक्षा की,
उन्हीं अटल की राख उठाए फिरते हो।

बैनर होर्डिंग में न दिखाए अटल कभी,
अब अस्थि कलश ले वोट माँगते फिरते हो।

ताबड़तोड़ घोषणाएँ तुम करके नित,
अब अटल -स्मृतियों का नाटक करते हो।

जीते जी तुमने मार दिया था पहले ही,
अब उन्हीं अटल से वोट-याचना करते हो।

अब चुनाव की वैतरणी आसान नहीं ,
अपनी पीठ आप ही थप -थप करते हो।

वे जीवन -वैतरणी करके पार गए,
तुम स्मृति-स्थल तक प्रोटोकॉल कुतरते हो।

जिस दिन तुमने भुला अटल को दिया यहाँ,
अब अर्थी संग पैदल चलके दिखावा करते हो।

सौदेबाजी तुमसे सीखे कोई "शुभम",
अब अटल-अस्थि से सौदेबाजी करते हो।

💐शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

असली धर्म

   इस जगत में अनेक धर्म ,मज़हब और मत - मतान्तर हैं, जिनके नाम गिनाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है।विभिन्न भौगोलिक , सामाजिक और भाषा-साहित्य के संस्कारवश जगत में अनेक धर्म पैदा हुए हैं, किन्तु इनमें से कोई भी धर्म पूर्ण नहीं है। मानव की स्वार्थवृत्ति ने धर्म को कलंकित कर प्रदूषित कर दिया है। इसलिए उनमें कट्टरपन , अंधविश्वास औऱ भ्रष्ट्राचार पैदा हो गया है।यहाँ तक कि आज आदमी ने अपने अनुसार उसे अपनी ओर मोड़कर कर गंदगी पैदा की है।
   सभी धर्म अच्छे हो सकते हैं, लेकिन स्वार्थी महंत, पुजारी और पंडे उसे शुद्ध नहीं रहने देना चाहते। सीधे -सादे शब्दों में " जिसे धारण किया जाए , वही धर्म है" ,किन्तु हम धारण करना तो नहीं चाहते , दूसरों को कराना भर चाहते हैं। उसमें अपना आर्थिक लाभ अनुसंधान कर हमने उसे छोटा मोटा नहीं , अच्छा -खासा धन्धा बना लिया है। किस -किस धर्म का नाम लेकर पोल खोली जाए , यह स्वतः समझने योग्य है। जैसे शिक्षा एक बड़े उद्योग के रूप में उभर रही है , वैसे ही धर्म भी उससे बहुत पहले से उद्योग धन्धा बन चुका है। वास्तविकता ये है कि कोई भी धर्म असली नहीं है। असली धर्म है एक मात्र मानव धर्म। जिस धर्म की भी आलोचना कीजिए या उसकी वास्तविकता पर प्रकाश डालिए तो अंधे भक्त आस्था और विश्वास के नाम पर बुरा मानने लगते हैं।और कहने वाले को नास्तिक करार देते हैं। जिसकी रोटी धर्म के गर्म तवे पर सिंकती हो, भला उसके लिए तो धर्म व्यवसाय है , खेती है , कारखाना है, धंधा है, बैंक है, तिजोरी है, क्योंकि उसीसे उसकी आजीविका चल रही है।  संसार में धार्मिकता कम धर्मांधता अधिक है , इसी धर्मांधता के कारण उसके अंध विश्वासों पर उँगली उठाना लोगों को बुरा लगता है , क्योंकि इससे उसकी असलियत की पोल खुलने लगती है, और उधर अंधविश्वास का ही नाम आस्था है। अंधविश्वास की सजी हुई दुकानें, आम आदमी तो बस ग्राहक है, खरीदार है। आस्था और अंधविश्वास में शंका के लिए कोई स्थान नहीं है , क्योंकि इससे उनकी दुकान की कमाई कम होती है। दुकान के बंद रहने का खतरा मंडराने लगता है। जिस देश में अंधेरे में हिलते अकौए की पूजा होने लगे ,तिलक छाप लगाए ढोंगियों को संत माना जाना लगे, चमत्कार या हाथ की सफाई से बेवकूफ बनाकर उसे जादूगर माना जाने लगे, विज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित प्रयोगों से मूर्ख बनाया जा सके, उस देश की आस्था का क्या कहना? पानी में बीटाडीन डालकर यदि गोमूत्र डालकर उसे पारदर्शी औऱ साफ दिखाकर लोगों को चमत्कृत किया जाता है , यही काम मानव मूत्र से  भी होता है , तो क्या मानव मूत्र और गोमूत्र एक की वर्ग के हो जायेंगे? नहीं। चाहे कोई भी मूत्र डाला जाए , पारदर्शी होने पर उसके मिनरल्स उसी के अंदर रहते हैं। फिर उसमें कुछ भी क्यों न डाला जाए, फर्क क्या पड़ता है!  इस प्रकार की बहुत सी  बातें विश्वास जमाने के लिए दिखा दी जाती हैं । पर धर्म एक अलग ही संकल्पना है।
   जितनी मारकाट और हिंसा धर्म के नाम पर आज तक विश्व में हुई है, उतने तो सैनिक भी किसी युद्ध में नहीं मारे गए। क्या धर्म हिंसा सिखाता है? क्या बिना हिंसा के धर्म जिंदा नहीं रह सकता? अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय और छोटा दिखाने की भावना सबसे बड़ी बेहूदगी ,और अज्ञानता है। धर्म मरना मारना नहीं, जीना सिखाता है।  मानव को महामानव बनना सिखाता है। जो दूसरे व्यक्ति या धर्म को छोटा समझता है, वह चाहे कुछ भी हो,धर्म हो ही नहीं सकता। धर्म एक व्यापक संकल्पना है। धर्म एक विज्ञान है। जहाँ अवैज्ञानिकता हो , वह धर्म कैसे हो सकता है? आँखों पर अविवेक की पट्टी बांधने का नाम धर्म नहीं है। इसलिए सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है, जो जीना और जिलाना सिखाता है। मरना और मारना नहीं। समस्त जीवों में एक ही परम आत्मा निवास करता है। कर्मानुसार  शरीर  बदल जाने पर उसका शरीरांतरण होता है। धर्म की गति, नीति और प्रतीति विचत्रतापूर्ण है।वह सबके समझने की नहीं है।सिंहनी का दूध स्वर्णपात्र में ही ठहरता है। वैसे ही धर्म  सबके धारण की वस्तु नहीं है। घोड़े को देखकर मेढकी के नाल ठुकवाने की चीज नहीं है धर्म। लकीर के फकीर होने का नाम धर्म नहीं है। धर्म लकीर पर नहीं चलता , लकीर बनाता है।खुली आँखों से संसार को देखो , पोंगापंथी और ठगविद्या छोड़ो। तभी सच्चे धर्मानुयायी बन सकोगे।

💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

फिर से आ जाओ महामना

फिर से आ जाओ महामना!
भारतमाता    अकुलाती  है।
प्रिय अटल बिहारी कहाँ गए
रो रोकर अश्रु  बहाती  है ।।

ये नियम प्रकृति का शाश्वत है
जो आता   है    वो   जाता है।
सब  जानबूझ   कर मन  मेरा
तव यादों  में   खो जाता है।।

तुम जननायक! तुम महामना!!
तुम महाकवि !    तुम देशरत्न!!
जन -जन के  उर  में   बसे  हुए
निकलें कैसे कर   लाख  यत्न।।

सारा   जग     सूना -  सूना   है 
तुम कहाँ गए ! तुम किधर गए!
किस लोक गए   हो  बतलाओ
आँसू  नयनों    से  रहे    ढहे।।

जन्म - मृत्यु  पर  वश किसका
बीत गई    वह    घड़ी    बड़ी।
जब फहरा राष्ट्रध्वज फर -फर
स्वातंत्रय दिवस की महा घड़ी।।

तजकर तन भी झुकने न दिया
भारत माँ  का    ऊँचा  ललाट।
तुम  देशभक्त   सच्चे    तपसी 
व्यक्तित्व आपका   था विराट।।

 धनि   धन्य   मृत्युदेवी   तू   है 
एक दिन की कठिन प्रतीक्षा थी।
भारत के सपूत   की जननी को
निज कृपा -करों की भिक्षा दी।।

तुम मरे   नहीं    बदला   शरीर 
फिर से इस भू पर आ   जाओ।
पीड़ित कराहती    है    जननी
पुनि धन्य कोख को कर जाओ।।

पहले    अंग्रेजों    का    गुलाम
अब अपने ही  शोषक -चूषक ।
क्षण प्रति क्षण कुतर रहे भारत
ये बिल में छिपे चपल मूषक ।।

इस भारत   माँ की   धरती पर 
जन नायक तुम -सा नहीं बचा।
हे महामना     तेरी    कृति   से
इस भारत का    श्रृंगार   रचा।।

श्र्द्धांजलि मेरी  स -अश्रु नयन
स्वीकार करो    हे    महामना ! 
" शुभम" ये भारत माता  है
जो अटल बिहारी    पूत जना।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼© रचयिता 
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

जब मैंने प्रत्यक्ष अटल जी को सुना

   वर्ष 1980 में मैंने जब राजकीय सेवा में बीसलपुर जिला पीलीभीत के राजकीय महाविद्यालय में प्रथम बार कार्य भार ग्रहण किया तो कालेज में ही आयोजित एक आम सभा में माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी  उनका भाषण सुनने का सुअवसर मिला। इतनी सचाई, ओजस्विता  और प्रभावात्मकता मैंने आज तक किसी भी नेता के भाषण में नहीं सुनी। उनको सुनते ही लगा कि देश का नेता हो तो अटल जी जैसा। एक महान व्यक्तित्व, एक विराट हस्ती का स्वामी । कीचड़ -उछाल और कोरी लफ़्फ़ाजी करने वाले नेताओं से एकदम भिन्न एक तपस्वी की छवि से सम्पन्न श्रीमान अटल जी। मैं उनका भाषण सुनकर अभिभूत हो गया। आज तक जीवन मरण मुझे दो ही नेता जननेता, जन नायक औऱ देशभक्त लगे ,पहले श्री अटल बिहारी वाजपेयी और दूसरे श्री कल्याण सिंह , राज्यपाल राजस्थान औऱ पूर्व मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश। उन दोनों की साहित्यिक छवि औऱ ओजस्वी भाषा शैली वास्तव में अनुकरणीय और श्रव्य है। श्री अटल जी एक जननायक की छवि केवल भारत में ही नहीं विश्व पटल पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उनके विरोधी औऱ विपक्षी भी उनके आचरण , व्यवहार और व्यक्तित्व के प्रशंसक हैं।
   जीना तो इसी का नाम है। देश सेवा के नाम पर जिन्हों ने अपना जीवन ही सौंप दिया । वे धन्य हैं, ऐसे सपूतों को जनकर ही भारत माता की कोख  धन्य हुई है और  होती रहेगी। उनका तप औऱ तेज आज  के भारत के  भविष्य के लीए पाथेय होगा। जातिवाद, क्षेत्रवाद, वंशवाद और  कुरसी के लालची  कितने आए और चले गए , परन्तु महामना , तपस्वी , त्यागी , बिंदास व्यक्तित्व के धनी भारत माता की कोख से कभी कभी ही पैदा होते हैं।
   आज भारत माता ने अपना एक सपूत खो दिया है। उसकी कोख सूनी हो गई है। जो जाति धर्म और समस्त वादों से ऊपर था।उसके खून में केवल और केवल राष्ट्रवाद था , देश भक्ति थी, देश भाव था। औऱ कोई भाव नहीं था। आज उस महामना जन नायक अटल जी का अभाव हमें सदा खलता रहेगा। बटेश्वर और ग्वालियर की वह धरती जहाँ वह जन्मे , पले , पढ़े, बढ़े,  रीत गई है। वे मातापिता धन्य हैं जिन्होंने अटलजी जैसा विश्व विख्यात दैवी
व्यक्तित्व इस भारत भूमि की सेवा के लिए  उतपन्न किया। साथ ही हम भरत भूमि वासी धन्य हैं , जिन्हें ऐसे महापुरोधा के दर्शन औऱ  सान्निध्य का  लाभ मिला। ऐसे उस महाविभूति को अपने से सच्चे मन से स-अश्रु हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
जय हिंद , जय भारत माता की!
जय किसान , जय जवान औऱ जय विज्ञान की


 ✍🏼 डॉ. भगवत स्वरूप

अटल अटल ही रहेंगे

 ऐ ! मृत्यु तू भी धन्य है,
 जो 15 अगस्त को
नहीं  झुकने दिया
मेरे प्यारे देश का राष्ट्र ध्वज,
महाप्रयाण पर चले गए 
इस नश्वर देह को तज
भारत माता के रत्न
जननायक अटल जी 
मिलाने पंच तत्त्वों में 
देह की रज,a
तेरी महासमझ का कद्रदान हूँ,
आने वाले को जाने का विधान है,
परन्तु आने जाने के क्षण का भी
कोई नियम है संविधान है,
मेरे देश का स्वाधीनता दिवस
फहराता तिरंगा राष्ट्र ध्वज 
फहराता रहा है,
फहराता रहेगा, 
तेरे चाहने से ही हुआ है सब कुछ
वरना वक़्त पर , काल पर
किसका वश है,
आना औऱ जाना तो
परवश है,
इसमें नहीं चलता अपना 
कोई वश  है,
उस परम पिता की 
इच्छा के अधीन,
वृद्ध हो प्रौढ़ हो
युवा या शिशु नवीन,
ऐ मृत्यु सिद्ध कर दिया है तूने
की अटलजी मानव नहीं थे,
महामानव थे ,
वे देश के नहीं 
भूमंडल के  पुरोधा थे,
दिलों में वास करते थे वे हमारे,
जो 16 अगस्त की संध्या 
इस नश्वर जगत से सिधारे,
हे परम् पिता परमेश्वर
उनकी दिवंगत महान आत्मा को
परम शांति देना,
उनकी सचाई , कविताई,
सच्ची सियासत ,
उनकी ओजस्वी वाणी ,
उनकी उत्कृष्ट करनी
जनहित और देश सेवा हित मरनी,
को अमर रखना,
हम भारतवासियों के दिलों में
युग-युग  तक यों ही
बनाये रखना,
उनके महा कृतित्व को
अटल बनाये रहना ,
वे अटल थे,
अटल हैं,
औऱ अटल ही रहेंगे।
उनकी  दिव्य  आत्मा
को श्रद्धांजलि  अर्पित 
करता है  "शुभम"...

आप सदा अमर रहें
सदा सदा अटल रहें।

 शुभमस्तु !
✍🏼© रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

सब जानते हैं:2

इस देश में क्या हो रहा सब जानते हैं ,
कौन कांटे बो रहा सब जानते हैं।

आम किससे क्या कहे चुसना है उसको,
नेता चूसे जा रहे हैं सब जानते हैं।

आम का रस भा रहा नेता गणों को,
बदले तरीके जा रहे हैं सब जानते हैं।

सच कहे उसकी जुबाँ कर बंद देते,
वेश से ठग पा रहे हैं सब जानते हैं।

काले अंग्रेजों की गुलामी का जमाना,
पढ़े लिखे पछता रहे हैं सब जानते हैं।

नेता बनने के लिए डिग्री न कोई,
विद्वान भी शर्मा रहे सब जानते हैं।

झूठ ,लफ़्फ़ाजी, खोखले वादे के रस्ते,
देश लूटे जा रहे हैं  सब जानते हैं।

आँकड़े झूठे बनाकर पेश करते,
अखबार छापे जा रहे सब जानते हैं।

टीवी चैनल बिक गए पैसों की खातिर,
झूठ बकते जा रहे सब जानते हैं।

टैक्स की भर मार से कराहा आदमी हर,
गीध नोंचे खा रहे सब जानते हैं।

ऊँट के मुँह में गिराया जीरा चुटकी,
वे काजू पिस्ता खा रहे सब जानते हैं।

मुफ़्त यात्रा , मुफ्त भोजन ,मुफ़्त सब कुछ,
पेंशन भी खाए जा रहे सब जानते हैं।

सात पीढ़ी का अभी इंतज़ाम करते,
हम सताए जा रहे सब जानते हैं।

नौकरीपेशा की खालों के जूते पहनकर वे,
इतराए चलते जा रहे सब जानते हैं।

योग्यता से शून्य हो तो नेता बनो जी,
"शुभम" बताए जा रहे सब जानते हैं।।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सब जानते हैं

क्या कहाँ कब हो रहा सब जानते हैं,
तू आज भी क्यों सो रहा सब जानते हैं।

बंट गए  चूल्हे खिंची दीवार आँगन,
मर रहा है प्रेम ये सब जानते हैं।

भाई भाई का नहीं किसे अपना कहें अब,
औलाद से दुःख पा रहे सब जानते हैं।

ख़ुदपरस्ती बढ़ गई इतनी भयानक,
बाप भी पछता रहे हैं सब जानते हैं।

ब्याह होते ही अलग चूल्हा सुलगता,
मुँह फुलाए जा रहे हैं सब जानते हैं।

ऐश -ओ -आराम में कोई खलल ना हो,
अलग बसते जा रहे हैं सब जानते हैं।

नारियाँ दुश्मन बनी घर सासू ससुर की,
थाने भेजे जा रहे हैं सब जानते हैं।

आरोप झूठे ही लगाए जाते ससुर पर,
दहेज मांगे जा रहे हैं सब जानते हैं।

देवियाँ माता बहन कह पूजते हैं,
उनसे सताए जा रहे हैं सब जानते हैं।

दुर्गा सरस्वति लक्ष्मी  माना जिन्हें हम,
भरम टूटे जा रहे हैं सब जानते हैं।


आरी नारी की बनी हैं नारियाँ ही,
नरक बनते जा रहे हैं सब जानते हैं।

एक आँसू जो गिरा स्त्री-नयन से,
पुरुष नित भरमा रहे हैं सब जानते हैं।

अश्रु - सा कोई अस्त्र कोई भी नहीं हैं,
बाढ़ बहते जा रहे हैं सब जानते हैं।

आदमी की बुद्धि  सम्मोहन में बांधे,
कारनामे नित छा रहे हैं सब जानते हैं।

जो खा रहा लड्डू वही पछता रहा है,
ना भी खाए तो भी क्या? सब जानते हैं।

कैसे पहिए गाड़ियों में लग रहे हैं,
"शुभम" पंचर हो रहे सब जानते हैं।।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सोमवार, 13 अगस्त 2018

काश इस इंसान का

काश इस इंसान का कोई मज़हब नहीं होता,
कोई हिन्दू मुसलमा या क्रिस्तान नहीं होता।


कोई ऊँचा कोई नीचा कोई गोरा काला है,
बहाता खून इंसां का कोई इंसान नहीं होता।


धर्म के नाम पर जितना बहाया रक्त जाता है
इंसान के सीने में कोई पाषाण नहीं होता।


आदमी के कद से ऊँची दीवार फैली है
आदमी का दिल कभी वीरान नहीं होता।


झूठे दिलासे के लिए मानव-शृंखला बनती
ब्राह्मण-दलित का ये फ़र्क फिर फैला नहीं होता।


रेवड़ी बाँटते अंधे बंधी आँखों पे पट्टी है,
धृतराष्ट्र की नजरों में दुर्योधन नहीं होता।


सियासत तोड़ती मानव बांटती जाति में उसको,
एकता हो रही खंडित मुल्क हैवान नहीं होता।


इंसान से बेहतर तो चिड़ियाँ और पखेरू हैं,
वहाँ हिन्दू मुसलमा क्रिस्तान नहीं होता।


"शुभम"मज़हब धर्म की दीवार जब टूट जाएगी,
आदमी को चूसने वाला कोई कोई इंसां नहीं होगा।।


शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

तुम मिल जाती हो

जहाँ भी जाता हूँ तुम मिल जाती हो,
धतूरे के फूल -सी रोज़ खिल जाती हो।

मंदिर में गया था ईश्वर की तलाश में ,
ईश्वर तो मिला नहीं तुम मिल जाती हो।

बच्चों को भेजा जब स्कूल कालिज में,
शिक्षा की कौन कहे तुम मिल जाती हो।

गली मेरी कच्ची है कोई सुनता नहीं,
नेता ना अधिकारी तुम मिल जाती हो।

थाने जब गया था रपट  जो लिखाने तो,
रपट तो लिखी नहीं तुम मिल जाती हो।

तुम्हारे बिना कहते सब तुम पिछड़े हो,
अगड़ा तो बना नहीं तुम मिल जाती हो।

तुम्हारा साथ चाहिए तो व्यर्थ सब पढ़ाई है,
डीएम की टेबुल पर तुम मिल जाती हो।

जनसेवा केंद्र तो केवल एक बहाने हैं ,
रिश्वत के नाम पर तुम मिल जाती हो।

परिवहन दफ़्तर में भटक रहे  लोग बहुत,
दलालों के नाम पर तुम मिल जाती हो।

ग्रामप्रधान नगर प्रमुख सबकी फूलमाला में,
नालियों की सफाई में तुम मिल जाती हो।

पौधे चार रोपकर मुड़कर भी देखा नहीं,
समाज -सेवा बैनर तले तुम मिल जाती हो।

क्यों नहीं तनख्वाह देते हो इनको तुम,
माँगते हैं रिश्वस्त क्योंकि तुम मिल जाती हो।

सरकारी नोकरशाह मर रहे भूखे सब,
ऊपरी कमाई में तुम मिल जाती हो।

धन्य हो सियासत जी "शुभम," जन जिएं कैसे!
सब जगह लहू चूस तुम मिल जाती हो।

💐शुभमस्तु ! 
 ✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

एक लीक काजर की

   बहुत ही प्रसिद्ध लोकोक्ति है : "काजर की कोठरी में कैसौ हू सयानो जाय एक लीक काजर की लागि है पै लागि है। " आज हम सभी उसी काजल की कोठरी में आ जा भी रहे हैं औऱ उसी में रह भी रहे हैं। भला सोचिए क्या काजल की एक लीक  कालॉंच से बच सकते हैं,? कदापि नहीं। ये काजल की कोठरी आख़िर है क्या ? ये काजल की कोठरी है इस देश की सियासत, राजनीति। सियासत में 'सत' के लिए और राजनीति  में 'नीति' के लिए कोई स्थान शेष नहीं है। सियासत, सत अर्थात सत्य से परे है, वहाँ सच्चे औऱ सचाई के लिए कहीं कोई भी स्थान नहीं है। राजनीति में यदि नीति का पालन किया जाता तो अनपढ़ आई ए एस, आई पी एस पर शासन नहीं करते। सारे देश के लिए नीति निर्माताओं की अपने लिए कोई नीति ही नहीं है ।मनचाहे वेतन बढ़ाने के लिए कोई आयोग नहीं, जब कि कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन निर्धारण के लिए हर दस वर्ष बाद वेतन आयोग निर्धारण करता है, वह भी वर्षोँ बीत जाने के बावजूद यथासमय दिया नहीं जाता। यही तो सब काली कोठरियां हैं , जिनमें रहकर उनकी कालोंच हमें काला कर रही है।आम जनता की कोई सुनने वाला नहीं है। उसके शोषण के प्रत्यक्ष और परोक्ष इतने रास्ते हैं , जिनमें उसे चूसा जा रहा है।
   क्या देश और समाज का कोई ऐसा क्षेत्र है, जहाँ सियासत की बदबू न फैली हो। क्या शिक्षा , क्या धर्म , क्या समाज, क्या थाना - पुलिस ,  शासन और प्रशासन :सर्वत्र सियासत विद्यमान है। टी वी वही बोलते दिखाते हैं, जो बुलवाया और दिखवाया जाता है। अखबार वही  छापते हैं जिसके छापने की अनुमति ऊपर से मिलती है।सत्ताधारीयों ने लोकतंत्र के इस स्तम्भ को भी खरीद रखा है। उसकी शाख, पवित्रता और मजबूती को सियासत का घुन निरंतर खोखला कर रहा है। आम का काम ही चुड़वाना है , सो उसे चूसा जा रहा है । इलेक्शन के समय बड़े -बड़े सब्जबाग दिखलाने वाले बगबगे वसन धारी नेता जी पाँच साल बाद ही क्षेत्र में जाते हैं , वह भी वोट माँगने। बड़े बड़े वादे करके जनता को मूर्ख बनाया जाता है, लेकिन सत्ता में आने के बाद सब कुछ भुला दिया
जाता है। तो क्या जनता केवल वोट देने के लिए ही है। न गलियाँ, न सही सड़कें, न समय पर बिजली पानी, ऊपर से करों की मार, न सही उपचार, बनी रहे जनता बीमार । इन्ही सब काली कोठरियों में कोई कब तक प्रभावितब नहीं होगा ! स्कूल कालेज हैं , तो शिक्षा नहीं , योग्य शिक्षक नहीं, 5 साल के नौनिहालों की पीठ पर 7 किलो का भारी बस्ता , टफीन , पानी की बोतल। पानी की बोतल तो इसीलिए है  कि स्कूल में उनके लिए  मोटी मोटी स्कूल फीस और वाहन फीस लेने के बावजूद  पेयजल की भी व्यवस्था नहीं,।इसे कोई शासन औऱ प्रशासन देखने सुनने वाला नहीं। सबकी अपनी अपनी मनमानी चल रही है। बच्चों को पढ़वाना अभिभावक की मजबूरी है। कहीं तो पढवाएँगे ! सब जगह एक हाल है। जैसे सियासत करना देश सेवा के नाम पर एक विराट धंधा है , वैसे ही जनसेवा , स्कूल खोलना , भी सेवा के नाम पर नोट छापने की  टकसालें हैं। इन्ही काली कोठरियों में आमजन काला हो रहा है। सौ रुपये की किताब पर पचास परसेंट कमीशन स्कूल मालिक का । किताबें स्कूल से उठाकर दुकान पर रखवादी गईं, कान को सीधा न पकड़ के घुमाकर पकड़ लिया,  क्या ये शासन -प्रशासन को दिखाई नहीं देता ? देता है, पर थाने की नाक पर डाका और कैसे पड़ता है! रिश्वत लेने वाले रिश्वत देकर दूध के धुले हो जाते हैं। यही तो काली कोठारियां हैं , कोई बचे तो बचे कैसे? शिक्षा और मंदिर जैसे पवित्र स्थल आज सबसे ज्यादा गंदे और कालोंच भरे हुए हैं। मन्दिरों की अकूत कमाई से देश सेवा का कौन सा कार्य किया जा रहा है। धर्म के नाम पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है।इन काली कोठरियों से निजात पाना कोई सहज कार्य नहीं है।
क्योंकि सबके मूल में समाई सियासत ही काली है,अपवित्र है, अस्वच्छ है।

💐शुभमस्तु !

✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम"

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

बहुत ही आसान है

जी हुजूरी हाँ में हाँ कह बहुत ही आसान है,
सच के मुँह जो बंद करता बहुत ही नादान है।

अंधे भक्तों की कतारें कर लिए परचम खड़ीं,
दे के रिश्वत कहलवाना बहुत ही आसान है।

काला धन लाने के वादे सब हवा में उड़ गए,
गिद्ध जो हो फुर्र गए  हैं क्या लौटना आसान है?

साँप बिल में घुस गए वे जो पालतू प्रिय थे सभी,
उनकी लकीरें पीटना अब और भी आसान है।

अपनी करनी देखना क्यों  इतिहास पर कीचड़ मलो,
उँगली करना उस तरफ अब और भी आसान है।

नींव के पत्थर बिना मंज़िल कोई बनती नहीं,
मंजिलों पर ईंट रखना बहुत ही आसान है।

झाँक कर अपना गरेबाँ आज तक देखा नहीं,
छेद में हम्माम के तेरा देखना आसान है।

नादान अंधे भक्तगण पर तरस मुझको आ रहा,
पट्टी बांधे चक्षुओं पर चहकना आसान है।

जाति ,झण्डे , धर्म की कैसी सियासत देश की?
पालतू कुछ अनुगामियों का  बहकना आसान है।

भेड़ के रेवड़ में पीछे कूप में जाती सभी,
भेड़तंत्रों में "शुभम" क्या समझाना भी आसान है?

💐शुभमस्तु !

✍🏼रचियता ©
डॉ. भगवत स्वरूप " शुभम"

शब्दों के सागर से

मैं खोज रहा मोती शब्दों के सागर से,
मैं सँजो रहा मोती शब्दों के सागर से।

कभी तल तक जाता हूँ ऊपर उतराता हूँ,
कभी घोंघे सीप मिले शब्दों के सागर से।

कभी कंकड़ पत्थर ही कभी रत्न जवाहर भी,
ना श्रम से घबराता शब्दों के सागर से।

जनहितकारी मोती मुझे तुम्हें लुटाने हैं,
एक याचक बनकर ही शब्दों के सागर से।

नहिं ऊंच नीच रखना मेरे शब्दों का परचम,
बस सच ही रहता है  शब्दों के सागर से।

नहिं कोई सियासत है किसी कमल न हाथी की,
बस सच के मोती ही शब्दों के सागर से।

नहिं सवर्ण दलित - कीचड़ मेरे सागर में है,
बहुरंग की होली है शब्दों के सागर से।

थोथे झूठे नारे मिलते नहीं सागर में,
उठती नहीं चिंगारी शब्दों के सागर से।

सत बात "शुभम" कहना  अपना उसूल प्यारा,
चाहे मिर्च लगें उनको शब्दों के सागर से।

💐शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

ये सभी नारे हैं

अच्छे दिन की बात ,ये सभी नारे हैं
सबके विकास की बात, ये सभी नारे हैं.

जिनके दिन अच्छे हुए, चैन से भोग रहे
बिगड़े जिनके हालात ये सभी नारे हैं.

सिमटा विकास धनपतियों तक सब जान रहे
यहाँ ढाक के ढाई पात ये सभी नारे हैं.

कभी साथ सभी का मिला जहाँ में मिला किसे!
यहाँ भाई भाई मनभेद ये सभी नारे हैं.

कुतियां सब जाएँ इंग्लैंड कौन भिर चाटे फिर
सबकी शिक्षा की बात ये सभी नारे हैं.

होते गरीब ही खत्म गरीबी मिट जाए
सबकी समता की बात ये सभी नारे हैं.

पढ़ लिख जाएँ सब लोग इन्हें फिर पूँछे कौन
पीछे चलने को कौन ये सभी नारे हैं.

जब सारे मुद्दे खत्म सियासत का क्या हो?
जब सब होंगे समृद्ध ये सभी नारे हैं.

कोई नेता नहीं भगवान समस्या शून्य करे,
"शुभम" हो जाओ सावधान ये सभी नारे हैं.

💐शुभस्मस्तु !

✍🏼रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

रविवार, 5 अगस्त 2018

नकली खुशी!

जब हमारे पास असली खुशी नहीं होती तो नकली खुशी से ही खुश हो लेने की रस्म पूरी कर लेते  हैं।असली खुशी हासिल करने के लिए हमारे संसाधन भी असली ही होने चाहिए। जैसे असली सोना न होने की पूर्ति करने के लिए नकली सुनहरी धातुओं  से देह को सजाना इंसानों, विशेषकर नारियों की मजबूरी हो जाती है। कहीं सुरक्षा कारणों से स्वर्ण -चोरों को धोखा देने के लिए या विवाह, शादियों या समारोहों में मिलने वालों की नज़रों को धोखा देने के लिए नकली  स्वर्णाभूषणों से काम चलाना पड़ता है। वास्तविकता तो ये है कि जब हमारी असली चमक फीकी पड़ जाती है , या हमारे अंदर कोई चमकदार तत्व कम हो जाता है तब नकली साधनों से लीपना -पोतना करके असली की कमी को नकली से पूरा करने का असफ़ल प्रयास करते हैं। नकली खुशी अर्जित करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार की नकली खुशी के हजारों साधन क्रय करने के लिए बाज़ार पटे पड़े हैं। आज का युग नकली खुशी से ही आत्मसंतुष्ट है।  वे युग बीत गए जब आत्मसंयम, तप, त्याग, सदाचार, सुसभ्यता, संसकृति,
सुचरित्र का बल, ओज, कांति और शील हमारे अंदर विद्यमान था। तब हमें ऊपरी ढोंग और आडम्बर करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। ज्यों  - ज्यों हम अशक्त, अबल और तेज हींन होते जा रहे हैं , त्यों - त्यों नकली खुशी संसाधन बढ़ते जा रहे हैं।
   इसी प्रकार जब हमारे देश की प्रतिभाएँ कम खुशी देती हैं, उनके सम्मान, स्वागत और अभिनंदन में हमें कोच होता है या उससे बचते हैं या उनकी उपेक्षा करके उनका अपमान करने से भी नहीं चूकते ।हमें उस नकली खुशी में अधिक् आनंद की अनुभूति होती है, जब इस देश से एक, दो, तीन या चार पीढ़ी पूर्व अमेरिका, इंग्लैंड आदि देशों में पलायन कर चुके लोगों की संतान वहां शिक्षा, राजनीति, अंतरिक्ष, विज्ञान, साहित्य, कला आदि विविध क्षेत्रों  प्रतिभा के रूप में नाम कमाती है, तो हमारी नकली खुशी कई गुना विशाल हो जाती है औऱ हम यह कहते हुए खुशी से फूले नहीं समाते कि वह भारतीय मूल की/के हैं, जबकि वास्तविकता ये है कि उस तथाकथित को तुम्हारे भारत देश की संस्कृति या से सभ्यता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। उसने विदेश में जन्म लिया है, जीना, पलना, पढ़ना, बढ़ना, मरना भी वहीं है, परंतु हम भारतीय भारतीय मूल !भारतीय मूल!!अखबारों की सुर्खियों में छापकर, टी वी पर प्रसार कर ऐसे नकली खुशी में मस्त हो जाते हैं , जैसे इंडिया ने कोई वर्ल्ड मैच ही जीत लिया हो।
   नकली सोना असली सोने से ज्यादा असली दिखता है ,इसी उत्साह के बल बूते  पर वह भारतीय सुंदरियों,  दुल्हिनों और अमीर -गरीब सबको खुशी प्रदान करता है, नकली ही सही। धोखे की टट्टी का जब तक भेद न खुले, तब तक तो असली ही है। औऱ कोई अपना भेद खुद ही क्यों खोलने चला ? वैसे असली नकली सब जानते ही हैं, लेकिन जब तक और जितनों तक ऐसा हो सके, उतना ही अच्छा।
   हम भारतवासी असली खुशी हासिल करने के लिये ही प्रयत्नशील रहें, तभी  सच्चे , अच्छे और सुनहरे भारत का निर्माण होगा। ये भारतीय मूल के निवासी होना, आखिर क्या बला है! ये नक़ली खुशी की ही नकली खुशबू है।औऱ
"सचाई छुप नहीं सकती
बनावट   के    उसूलों से,
खुशबू  आ   नहीं सकती
कभी  कागज़ के फूलों से"

💐शुभमस्तु !

✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 4 अगस्त 2018

कुरसी

कुरसी अर्थात  कु + रसी याने  कु =  बुरी/बुरा , रसी मतलब रस वाली। कुल मिलाकर इसका तात्पर्य हुआ :बुरे रस वाली। जब कुरसी  बुरा रस देने वाली है, तब तो आदमी साम, दाम ,दण्ड और भेद चारों हथियारों का प्रयोग करते हुए इसे हथियाने, दूसरे की लतियाने  के लिए रात दिन एक किए रहता है। अगर इसका नाम होता सुरसी, फिर तो या तो सुरसा की तरह आदमी को निगल जाती या आदमी ही महावीर हनुमान की तरह  उसके मुँह में
प्रवेश करके अंदर बाहर होता रहता।  या सुरसी कितना सुंदर रस देने वाली सिद्ध हो जाती। क्योंकि सु का अर्थ सुंदर औऱ रसी तो रस वाली है ही।
   आज जबकि यह कुरसी है तब ये हाल है कि क्या आदमी क्या औरत :सभी इसके दीवाने हैं।  क्या नेता क्या अधिकारी , क्या राजा क्या रानी, सबको ये कु रस वाली कुरसी इतनी प्यारी कि यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ, देश विदेश , स्वदेश परदेश, सब जगह कुरसी का ही धमाल है। कुरसी के वास्ते नित्य निरंतर बढ़ता जा रहा बवाल है। लेकिन
यह तो कुरसी का ही चमत्कार है, कि इसके लिए न पाप पुण्य की चिंता,  न नैतिकता का खयाल, न कहीं न्याय अन्याय की फ़िक्र, बस जैसे भी हो, कुरसी मुझे ही मिल जाए। चाहे मिथ्याचार कर के, लोगों को किडनैपिंग में धरके,  पिकनिक में घुमाके, या पैसे का प्रलोभन दिलाके, लोगों को खरीदकर भी कुरसी छीनी जाने का कुकाल चल रहा है। कुरसी के लिए पैसे और जाति के आधार पर अविश्वास करके कुरसी ही तो छीनी जाती है। पहले भी छीनी गई और बाद में भी कुरसी अपहरण का नाटक लंबे समय तक चला। इसीलिए यदि ये कहा जाय कुरसी महा ठगिनी हम जानी :तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। 
   जिसने एक बार कुरसी के कुरस का पान कर लिया, वह आजीवन उसका दीवाना हो जाता है। वह उसे कभी भी छोड़ना नहीं चाहता। वह तो सरकार ने एक उम्र विशेष  का पाला पार करने से ठीक पहले ही उसकी सेवा निवृत्ति की व्यवस्था कर दी है, अन्यथा वह आमरण कुरसी छोड़ता ही नहीं। नेता ज्यों ज्यों  बुड्ढा होता, त्यों त्यों यौवन पाता। कभी रिटायर होने की न सोचता, न रिटायर होता है। आमरण कुरसी से चिपके रहना उसकी नियति है। कुरस का ऐसा आनंद जैसे कड़वा होने के बावजूद सुरानंद। कुरसी का नशा, आदमी के जहन में कुछ ऐसा बसा, पर आखिर होना ही पड़ता है बेवशा। या तो सेवा निवृत्ति या  जीवन-निवृत्ति उसे कुरसी के कुरस से वंचित कर ही देती है। अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, नेताजी, सभी कुरसी - च्युत हो जाते हैं।     
     यह कुरसी का अजब ,गज़ब मायाजाल है। जिसके लिए कब्र के इंतज़ार में बैठा नेता भी जवान है। क्योंकि कुरसी के कुरस में कमाल है। शासन, सियासत, समाज, जन सेवा, धन सेवा : सर्वत्र इसी का धमाल है।

💐शुभमस्तु !

✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप " शुभम"

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

मोहि कुरसी अति भावे

-१-
मेरौ मन और कहाँ सुख पावे!  
जैसे कोई तलाब कौ दादुर
पुनि   तलाब    कूं   धावे।
एक बेर पाय ऊँची कुरसी
पुनि  कुरसी  कूं     धावै।
दरी बिछौना आसन में क्यों,
वो   अपनों     चित    लावै।
सुरा   सुंदरी   मेवा   मिसरी
पाईवे       को       तरसावै।
लगी बटेर  हाथ   अंधेनु  के
पुनि       बटेर     खुजवावै।
नैतिकता की श्वेत चदरिया
कौने         में       लटकावै।
जबहीं चढ़े    मंच  ऊँचे पर
पहन      चदरिया     जावे।
दे - दे भाषन    लंबे - चौड़े
चमचनु     तारी    बजवावै।
भाड़े की  करी भीड़ इकट्ठी
रैली         हू         करवावै।
रोटी     और    पराँठे   पूरी
घर -  घर      ते    मगवावै।
थैली  बाँधि   तुले चाँदी सूं
माथे       मुकुट      बंधावै।
"शुभम" देश भगवान भरोसे
भले     भाड़     में    जावै।।

-२-
मैया मोरी मोहि कुरसीअति भावे।
नियमाचार   टंगे खूंटी पर
कैसे       हू        दिलवावै।
तोरई   लौकी   मुर्गा अंडा
कोई     भेद    न      पावै।
बाँभन ठाकुर बनियां बीसी
एस सी    के    घर   जावै।
घड़ियाली   आँसू की धारा
शोक    में     जाय   बहावे ।
सब मेरे भैया   चाचा दादा
मोहि     अपनपौ       पावै।
भाभी चाची   दादी   माता 
सबके      पायनु       लागे।
चाहे हाथी साइकल चढ़ जाऊं 
चाहे      कमल          सुहावै।
मेरौ लक्ष्य आँख चिड़िया की
कैसेहूँ                  बिठवावै।
मैं   तेरौ    सुत     तू मैया मेरी
भारत        मात        कहावै।
"शुभम"भलें कोउ करम करूँ मैं
परि कुरसी    मिलि    जावै।।

💐शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता "©
डॉ .भगवत स्वरूप " शुभम"

नौ महीने की बात है

नौ  महीने   की    बात है,
बिछनी  'वही' बिसात  है।

हाथी   घोड़े   पैदल  ऊँट,
घात  और   प्रतिघात  है।
शतरंज   के    सौ   रंज हैं ,
किसका दिन और रात है।
नौ महीने की....

रथ  रैली    और  थैली की,
 होनी  अब     बरसात   है,
विकट खेल   है  होली का,
पंक    उछाली     जात  है।
नौ महीने की.....

जो   बोया   वही कटना है,
क्या   अनहोनी   बात   है?
क्या   बबूल   के  पेड़ों पर ,
मधुर  आम्र  फल  आत हैं।
नौ महीने की ...

दिल की धड़कन तेज हो रही
औषधि    वोटर  -  हाथ   है।
लोक -  लुभावन    वादे नारे,
अब नहीं    हमें     सुहात  हैं।
नौ महीने की ...

सबको  चोर  रिश्वती समझो,
ये  अच्छी    नहीं    बात    है,
मोटे गिद्ध नौंच कर  उड़ गए
अवश    गौरैया      जात   है।
नौ महीने  की ...

शंकित नज़र तुम्हारी हम पर
चोरों   से   न    बिसात    है,
घने वृक्ष   की   छाँव   वे बैठे
सुरा    सुन्दरी      साथ    हैं।
नौ महीने की...

हम निरस्त्र नखहीन अदंता,
हम पर    विद्युत -    पात है,
विकट बघर्रे   छिपे महल में,
तव संरक्षण    के    पात्र हैं।
नौ महीने की ...

काल - गर्भ  में भ्रूण पनपता,
सब     भावी   के   हाथ    है,
अल्ट्रासाउंड  कराना भी मत
"शुभम" नियम   की  बात है।
नौ महीने की ....

💐शुभमस्तु !

रचियता✍🏼©
डॉ.भगवत स्वरूप " शुभम "

धृतराष्ट्रों की खुल गई पोल

धृतराष्ट्रों की खुल गई पोल
गांधारी   अब   पट्टी   खोल।

जीओ  और जीने दो सबको
पीओ और पीने  दो  सबको।

ना  खाओ  ना  खाने    दोगे
बने बिझुका   क्या कर दोगे।

राजनीति में  त्याग  कहाँ है
जो जहाँ बैठा   लूट वहाँ है।

नारों से कोई   देश  न चलता
कर-कर वादे सबको छलता।

आश्वासन  क्या    चाटें खाएं
इधर सुनें और उधर सिधाएँ।

चढ़े   हुए   थे   सीढ़ी    साठ
तुमने क्या कर  दिया विराट!

मेहनत का सब चला गया है
निम्न मँझोला छला  गया है।

'ऊपर वालों' के हित चिंतक,
नहीं सभी के हो शुभचिंतक।

धृत -गान्धारी  की औलादें,
अंधी   जाई     अंधी   बातें।

अनुगामी   अंधे    अविचारी,
असत प्रचारक मिडियाधारी।

असत आँकड़े   नित फैलाते,
झूठ- पुलिंदे   रंग   न   लाते।

झूठा  श्रेय   धरे   सिर अपने
पीठ   ठोंकते    नेता   अपने।

अंधी  भेड़   कुएँ   में   जावें
सुनें न समझें  अति इतरावें।

"शुभम"वक़्त ही राह दिखावे
पूरी   सबकी   चाह   करावे।

💐शुभमस्तु !

रचयिता ✍🏼©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सबका साथ सबका विकास!

   कितना कर्ण प्रिय और मधुर - मधुर, मादक और मोहक लगता है जब कानों में ये शब्द जाते हैं: सबका साथ सबका विकास कानों में पड़ते ही मानो अमृत घुल जाता है। लगता है कि जैसे भगवान राम का रामराज्य ही आ गया। आ हा ! हा!! कितने प्यारे, कितने रस भरे और दुःख हारे शब्द हैं : सबका साथ सबका विकास। लेकिन जब गम्भीरता पूर्वक विचार करते हैं तो लगता है कि यह एक असम्भव कल्पना है। यदि ऐसा हो जाए तो सियासत के धुरंधर नेताओं की सारी योजनाएं औऱ राजनीति पल भर में समाप्त हो जाएगी। फिर तो देश में बरसाती मेढकों की तरह  अखबारों  और टी वी पर टर्र -टर्र करते हुए सारे दल ही समाप्त हो जाएंगे। क्या आप या कोई ये कभी स्वप्न में भी सोच सकता है कि हाथी कमल को अपने पैरों तले रौंद कर  सत्ता का ऊँचा सिंहासन न प्राप्त करना चाहे। क्या साइकिल नहीं चाहती कि कि वह फूल को मसल-मसल न डाले। एक अनार सौ बीमार। कुर्सी एक दावेदार अनेक। सभी की एक ही चाहत कि कोई मेरा नाम ले दे प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए। ऐसी हालत में क्या देश के दलदल में फंसे राजनेता क्या ये चाहेंगे कि सबका साथ उन्हें मिल जाएगा। ऐसा न कभी हुआ न होगा। और न है।
   इन चार बरसों में सिवाय कीचड़ उछालने की होली के सिवाय कुछ और हुआ? कीचड़ उछालने की जैसे प्रतियोगिता ही चल रही हो ! कौन कितनी ज्यादा बदबूदार कीचड़ उछाल सकता है!  बस यही देखा है सारे देश ने? अन्यथा सभी दलों के राजनेता अपनी टी -शर्ट , कुर्ता ,जाकिट के ऊपर के दो बटन खोलकर ये देख लें, तो सारी कीचड़ वहीं भरी नज़र आएगी। बस उछालने से मतलब। न आसन देखा, न सिंहासन देखा,  न  अपना पद  देखा , न कद देखा,  बस एक सड़कछाप आदमी की तरह कीचड़ फेंकते रहे। न अपनी नाक देखी , न साख देखी! बस कीचड़ उछाल ! कीचड़ उछाल!! चाहे उदघाटन हो, अभिवादन हो, भाषण चुनाव प्रचार का हो, या सम्मेलन पत्रकार का हो , सब जगह कीचड़ होली। न दिवाली पर दीप जले, न दशहरे पर देश -  रक्षा  के  फूल खिले, न रक्षाबंधन पर रक्षा सूत्र  बँधे, बस बारहों मास , सातों दिन , चौबीसों घंटे,  एक ही जुनून कीचड़ ! कीचड़!! और कीचड़ !!! और फिर ये उम्मीद करो कि 'वे' सब तुम्हारा साथ देंगे।
   सब साथ देंगे तो न कोई जातिगत विवाद होगा, न आरक्षण का नाद होगा, न हिन्दू, मुस्लिम , सिख , ईसाई की बात उठेगी। सबके विकास की बात तो कभी सोची ही नहीं गई, न सोची न जाएगी,  न सोची जा सकती है, न सोची जा रही है। यदि मुंह  खुला हुआ है तो कान भी खोल के रखना जरुरी है। आंधी , तूफान और तानाशाही ज्यादा दिन नहीं चलतीं। यदि सबका साथ लेना था , तो  उसके कितने प्रतिदर्श आपने अपने उच्च आदर्श के रूप में प्रस्तुत किए। उसकी  कोई सूची है?  अपने वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर सब साँप -छुछुन्दर एक साथ मेजें थपथपा कर  एक स्वर से समर्थन करते हैं ,लेकिन जब देश का राष्ट्रीय वार्षिक बजट प्रस्तुत किया जाता है तो उसमे पानी पी -पीकर कमियाँ खोजी जाती हैं । ये सब क्या है? क्या इन्हीं चीजों से सबका साथ सबका विकास हो सकता है?देश की रक्षा के बिंदु पर जब सबको एकजुट रहकर सामुहिक रूप से विचार विमर्श करना चाहिए,  क्या कभी ऐसा हुआ? या केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल कभी की ? सभी अन्य दल टांग खिंचाई में लगे रहे। नुक्ताचीनी करते रहे। क्या यही सबका साथ सबका विकास है?  ओबीस, एस सी, एस टी और जनरल को लड़ाने के लिए आरक्षण का चिराग रगड़ कर एक जिन्न खड़ा कर दिया। लड़ो औऱ मरो।  क्या यही सबका साथ सबका  विकास, है?  नित नए मुद्दों को जन्म देकर  देश की शांति को भंग करने का अपराध किसने किया ?
   मित्रों! नारों से देश नहीं चलता। फूट डालो और राज करो की  राजनीति करने वाले फिरंगी अब इतिहास हो गए हैं। सबका इतिहास बनता है। कोई पन्नों में दफ्न हो जाता है औऱ किसी के पन्ने  पलट - पलट देखे जाते हैं। यहाँ कोई अमर नहीं है। सबका इतिहास  (अर्थात ऐसा था)  बनना ही है। इसलिए ऐसा इतिहास बनाओ कि आगामी पीढ़ियाँ प्रेरणा ले सकें। बड़े-बड़े नारे गढ़ लेना, बहुत आसान बात है। ऐसे खोखले और असम्भव हजारों नारे मुझसे ले जाए , जिसको भी ज़रूरत हो। परन्तु कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। आदर्श और यथार्थ में गधे और घोड़े का अंतर होता है। सबका साथ औऱ सबका विकास कोई रस मलाई नहीं है, कि एक अदन्ता भी गप्प से मुँह में रख ले! करो कुछ और, कहो कुछ और ।यही सियासत है। यहाँ सचाई और सच्चों का कोई स्थान  नहीं, मान नहीं, सम्मान नहीं। कहकर कर ही दिया , तो ये राजनीति ही कहाँ रही? जाओ पूरब और बताओ पश्चिम, यही आज की राजनीति है।यहाँ साँच बोलना पाप है।झूठ  बोलना महापुण्य है। वह राजनीति और राजनेता धन्य है!!!

💐शुभमस्तु !

लेखक✍🏼 ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम "

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

बिझुका

   बिझुका का नाम तो हम सभी ने सुन रखा है। महात्मा  कबीर के इस पद में आया है :--
जतन बिनु मिरगनी खेत उजारे।
   ×      ×       ×      ×      ×
बुधि मेरी किरषि गुरु मेरो बिझुका अक्खिर दोऊ  रखवारे।
यहाँ गुरु को बिझुका माना गया है, जो बिझुका बनकर बुद्धि रूपी कृषि की रखवाली करता है। कोई बिझुका किसी खेती की रखवाली के लिए अपने आप खेत में गढ़ने के लिए नहीं पहुँच जाता, वरन उसे किसी दो टांग, दो हाथ, दो आँखें , दो कान , एक मुँह , द्विछिद्रि एक नासिका धारी किसी चलते -फिरते इंसान द्वारा फ़सल को चरने वाले वन्य पशुओं से रखवाली के लिए खेत में गाढ़ दिया जाता है।अर्थात उस बिझुके की अपनी निजी कोई औकात , सामर्थ्य  या शक्ति नहीं है। वह अपने में पूर्णतः निर्जीव , अशक्त औऱ पराधीन है। लेकिन खेत में गाढ़े जाने के बाद वह चौबीस घण्टे , सातों दिन और महीनों महीनों तक खेत में गाढ़ा जाकर भी एक ही स्थान पर ध्यानावस्थित होकर अपनी ड्यूटी को पूरी तरह से अंजाम देता है। उसकी ये ड्यूटी काबिले - तारीफ़ है। क्योंकि पहली बात तो ये कि वह स्वयं फ़सल को खाता नहीं है। दूसरे किसी पशु आदि को खाने भी नहीं देता। वह यह प्रतिज्ञा करके चलता है कि न तो खाऊंगा और न खाने दूँगा। और उसका मालिक किसान चैन की चदरिया तानकर रैन में खैनी खाते हुए सुबह लम्बी सी अँगड़ाई मारकर हरिओम हरिओम कहते हुए उठता है।
   इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि न खाऊंगा न खाने दूँगा एक धोखे का कपटजाल (साजिश) है, जो अपनी कपट योजना में पूरी तरह सफल हो जाता है। इस कपट जाल की खोज आदमी रूपी कपटकारी की काली करतूत का कुपरिणाम ही तो है। इसमें बिझुका का अपना कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान नहीं है।
   ये तो रही खेती औऱ बिझुके की बात। लेकिन क्या बिझुकों से देश चला करते हैं? देश चलाने वाले बिझुके न तो निर्जीव हो सकते हैं औऱ न ही वे किसी किसान की कूटनीति के तहत ज़बरन गढ़े होते हैं। अगर खेत में गाढा गया बिझुका ही खेत की फ़सल को रौंदने लगे,  बुरी तरह नष्ट करने लगे, तब तो उसके मालिक का ये पूरा अधिकार हो जाता है कि वह उसे उखाड़ फेंके और कोई नया ईन्तज़ाम करे।एक बिझुका मौन रहकर खेत की रक्षा नहीं कर पाता औऱ दूसरा गा गाकर, ढोल पीट - पीटकर खाऊंगा न खाने दूँगा, का राग अलापते -अलापते नहीं थकता। और मज़े की बात तो ये देखिए कि जंगली जानवर अपनी असली या नकली मूँछों पर ताव देते हुए सारा दाना -पानी खाते हुए फुर्र हो गए। कौन सा बिझुका उनकी पूंछ उखाड़ पाया! वाह रे ! मेरे देश !! वाह रे अंधे भक्तो! लड़ते रहो : तू कौआ है, मैं हंस हूँ,  तू बगला है, मैं मोर हूँ,  तू गधा है , मैं घोड़ा हूँ। औऱ उधर गिद्ध, बाज औऱ आस्तीन के सांप अपने काम कर गए औऱ बोलने वाले  चपल, चतुर, चालाक, चमत्कारी बिझुके देखते रह गए। उधर भक्त जन आरती उतार रहे हैं:
जय जय  बिझुका  स्वामी
मेरे  जय बिझुका   स्वामी
तुम सम और न कोई इस जग में नामी
अब तो तुमहू ढूंढों इक अच्छी बाँबी,
जय जय बिझुका स्वामी
साठ साल से देख रहे तुम अवतार धरो ,
हम पापी नीच कुचाली , तुम कब उद्धार करो,
हमरी किस्मत खोटी  हमरी तुम  चाबी,
रिस्वतखोर बढ़ रहे  कब सुधरे भावी?
जय जय बिझुका स्वामी।।
जो कोई बिझुका स्वामी की आरती  नित गावे,
स्विट्जरलैंड पधारे लंडन बसि जावे,
सब ही इच्छा पूरी करौ  सफ़ल मेरी,
नौ महीने की देरी  करौ न अब बेरी,
तुम ही मेरे ईश्वर तुम ही गुरु  नामी,
दामोदर से दूरी अब न करो स्वामी।

जय जय बिझुका स्वामी
मेरे जय   बिझुका स्वामी।।
बोल  बिझुका नंद महाराज की जय!
चर्मनेत्रधारी अंध भक्तन की शै,
जिसकी जय जयकार न करी हो ऐसा भी कोई है?

💐 शुभमस्तु  !

लेखक✍🏼©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम "

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...