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रविवार, 7 अप्रैल 2024

जन्मना-मरना [ आलेख ]

 168/2024 


  ©लेखक 

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 जीना - जीना जुदा - जुदा। मरना-मरना और भी जुदा। न जीना आसान ,न मरना आसान।कोई किसी पर खुशी -खुशी मरता है तो किसी के मरने पर जन परिजन दुःखी होते हैं। विलाप करते हैं।सामान्यतः 'मरना' कभी अच्छा नहीं माना गया।किसी के मरने पर घर रोया तो किसी के मरने पर जग रोया। कुछ ऐसे भी बंदे निकले जो देश की रक्षा में मर मिटे।दुश्मन से सीना खोलकर जा डटे और हँसते-हँसते मरण को गले लगा लिया।उधर कुछ ऐसे भी किसी की खूबसूरती पर फूल पर भौंरे की तरह मर गए।न अपनी इज्जत देखी न घर परिवार की ,बस कुछ ऐसा कर बैठे कि मुँह दिखाने के काबिल भी न रहे। 

 वीर बहादुर मरा तो एक ही बार मरा और कायर तो जीवन में कितनी बार मरा ! मरना किसे नहीं ? मरना तो सबको है। जो जन्मा है,वह मरने के लिए ही।परंतु मरना - मरना भी सबका एक समान नहीं।सबका स्थान और समय भी अलग -अलग निर्धारित है। पर सिवाय एक कर्ता के कोई कुछ भी नहीं जानता।जन्म लेना और मरना प्रकृति का एक सुनिश्चित चक्र है।एक रहस्यमय चक्र है। 

  प्रकृति का जन्म और मरण का चक्र अनवरत चल रहा है। किंतु उस चक्र की यही एक खूबी है कि नित्य प्रति लाखों करोड़ों के मरने पर दुनिया खाली नहीं दिखाई देती और लाखों करोड़ों नित्य प्रति जन्म लेने पर भी वह वैसी की वैसी ही दिखलाई देती है।जैसे कुछ हुआ ही न हो।एक सीमित दायरे में कुछ खुश हो लेते हैं और एक सीमित दायरे में दुःख और शोक के आँसू बह जाते हैं। शेष संसार के लिए जैसे कुछ हुआ ही न हो। कोई रिक्ति नहीं,कोई भराव भी नहीं। यही तो संसार है। यही संसार चक्र है।समय का पहिया आगे बढ़ता है और मरना जीना अपने संकीर्ण गोले की गोलाइयों में घूमते रह जाते हैं।अद्भुत है यह सब।न कभी खजाना खाली होने का गम और न कभी सागर में कुछ बूँदें बढ़ जाने की खुशी। समुद्र वैसा का वैसा। गंभीर ,शांत ,निश्चल और लबालब।अपनी उत्ताल तरंगों से उद्वेलित तो कभी आनन्द से विह्वल।

 न जन्म अपने वश में न मरना ही स्व- वश में। सब समय के हाथ की कठपुतली! बस उसके इशारे पर नाचना तुम्हारा काम है।एक ही बीज है तुम्हारे भीतर ,जिससे और जिसके लिए जिए जाते हो। और जीते -जीते ही मर जाते हो। कुछ भी साथ न लाए थे और न कुछ ले जा पाते हो।एक कर्म रूपी बीज की पतवार ही तुम्हें जन्म- जन्मांतर, देश- देशांतर और माता-पितान्तर की यात्रा करवाती है। शेष कुछ भी तुम्हारे हाथों में नहीं है। तुम्हारे जन्म और मरने (मरण) का वास्तविक बीज तुम्हारे कर्म में छिपा हुआ है।बस उस नित्य परमात्मा के संकेत पर चरैवेति -चरैवेति।

 शुभमस्तु !

 07.04.2024● 3.15प०मा० 

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गुरुवार, 25 जनवरी 2024

दो राहे पर देश ! ● [आलेख ]

 029/2024

    

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●© लेखक

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     आज जनतंत्र दोराहे पर खड़ा हुआ नहीं है।उसने यह भलीभाँति तय कर लिया है कि उसे किधर जाना है।अब ऐसे काम चलने वाला नहीं है। जनतंत्र को अपने रास्ते पर चलने के लिए यों तो कई रास्ते हो सकते हैं।उन सभी  रास्तों पर चलकर भी उसने बखूबी देख लिया है।वह जनतंत्र ही क्या जो जन या जनता की नब्ज़ की धड़कन को न पहचाने।आज के  जनतंत्र और उसके  ऊपर   बैठे मठाधीशों ने यह अच्छी तरह जान और समझ लिया है कि नब्ज़ किस ओर धड़क रही है।इसलिए आम जन   और आम जनता की धड़कन को पढ़ना भी बहुत जरूरी है।उसने नब्ज को भी पढ़ लिया है।

   विलासिता से अघाया हुआ आदमी भगवान का सहारा लेना पसंद करता है।भगवान को यदि कहीं पाया जा सकता है तो अपने विश्वास में। उसका सबसे बड़ा विश्वास उसके इष्टदेव का स्थान अर्थात मंदिर है।मंदिर अर्थात धर्म की ओर रुख किया जाए तो हो सकता है ,हमारे इष्टदेव उद्धार कर ही दें। वैसे भी जनता को जनार्दन कहा जाता है। साक्षात भगवान ही माना जाता है। जो जनता भगवान का पर्याय हो ,उसके रुख को पहचानना ही बुद्धिमता कही जाएगी।वह किसमें विश्वास करती है। उसके विश्वास को अपना विश्वास बना लेना ही जनतंत्र की समझदारी है।

सामान्यतः जन और जनता तंत्र का अनुगमन करती है;अनुसरण करती है। जब गंगा उलटी बहने लगे तो समझना चाहिए कि तंत्र को खतरे का आभास हो रहा है।इसलिए वह भयभीत है।गंगा उलटी दिशा में प्रवाहित हो रही है,यह स्पष्ट है और आज तंत्र भी जन - भावना का अनुसरण करते गए पूजा-पाठ,हवन-पूजन,तंत्र-मंत्र-यंत्र,कर्मकांड आदि का  मुरीद (अनुगामी)

हो गया है।यही कारण है कि संभावित ख़तरे को भाँपते हुए उसने अपनी कार्य प्रणाली को बदल लिया है। अब यह तो भविष्य ही जाने कि इसका क्या परिणाम हो।

आमेर नरेश मिर्जा राजा जय सिंह की दिशा और दशा कविवर बिहारीलाल के एक दोहे ने ही पलट दी थी और वह अपनी नवोढ़ा रानी के मोह पाश से मुक्त होकर अपना राजपाट सही रूप से चलाने के लिए जाग गए थे।जो पुजारी मंदिर आने जाने वाले भक्तों की गतिविधियों और वार्ताओं को सुनता है ,वह भला भक्तों की वास्तविक नब्ज़ की आवाज से कैसे अनभिज्ञ रह सकता है ?इसीलिए गंगा का प्रवाह परिवर्तित हो गया है।

  मिला हुआ अधिकार भला कौन छोड़ना चाहता है।अब चाहे वह सत्ता हो या सिंहासन ;उसके प्रति आसक्ति हो जाना स्वाभाविक ही है।यद्यपि अपने दोष और अपराध स्वयं अपनी आँखों से दिखाई नहीं देते। किन्तु यदि कोई आईना दिखाने का प्रयास करता है,तो सहज स्वीकार करना भी आदमी की फ़ितरत में नहीं है।इसलिए वह अपने गलत कृत्यों की समर्थक - सेना खड़ी करना भी खूब जानता है; जो उसकी भूलों पर मख़मल का पर्दा डालकर गोबर को कलाकंद सिद्ध करने में लगी रहती हैं।ऐसा हर राजतंत्र और जनतंत्र में होता है। प्रत्येक कुर्सीनसीन के साथ होता है। क्योंकि चमचों को भी भगौने चाटने में भरपूर आनंद आता है।इसलिए वे सत्ता या उच्चासन के विपरीत जाएँ तो कैसे जाएँ ! उनका भला इसी में है कि वे दिन को अगर रात कहा जाए तो रात ही कहें। नीम के पेड़ को आम कहलवाया जाए तो आम ही कहें। अरे भई!उन्हें भी तो अपने उल्लू सीधे करने हैं। और यहीं से करने हैं।उन्हीं से करने हैं। विरोधी भला क्या खाकर किसी का कल्याण करेंगे !

                              जब सारे प्रयास    अर्थात    साम,  दाम,  दंड    और    भेद   काम   नहीं  आते ,फिर तो एक भगवान का भरोसा ही बचता है;जिसके सहारे डूबती हुई नैया को पार लगाने की आशा की जा सकती है, की भी जाती है। जन को भरम में डालकर यदि उल्लू सीधा किया जा सके ,तो क्यों न किया जाए!एकमात्र भरोसा भगवान का ही तो है। अब उसी की रस्सी थामकर ,धर्मतंत्र को जन तंत्र का उद्धारक मानकर बेड़ा गर्क होने से बचाने के लिए सोचना ही आज की प्रासंगिकता है।


●शुभमस्तु !


17.01.2024●8.30प०मा०

बुधवार, 17 जनवरी 2024

ओ मेरे मन! ● [आलेख ]

 026/2024

    

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●© लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         ओ मेरे मन ,आओ ! मेरे पास आओ।आज कुछ पल पास-पास बैठें।एक दूसरे को जानें। तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। पहचानते हो।पर मैं तुम्हें कितना जान पाया हूँ। कह नहीं सकता। इसलिए सोचा ,आज ही नहीं वरन दो दिन से सोच ही रहा हूँ कि मैं और तुम ,तुम और मैं पास -पास बैठें और अपनी - अपनी कहें। तुम कैसे कहोगे। मुझे स्वतः ही समझना पड़ेगा।तुम्हें जानना पड़ेगा। तुम तो मूक हो। फिर भी मुझे क्या मेरे सारे तन को चलाते हो।दसों इंद्रियों को चलाते हो। संचालक होने के लिए मुँह और उसमें वाणी होना जरूरी जो नहीं है।

  ओ मेरे  मन ! आज मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।हे मन !तुम तन में रहते हो।'मन'और 'तन' कविता के समतुकांत की तरह  एक ही तरह के दो नाम।एक दूसरे से सर्वथा संपृक्त रहते हुए भी असंपृक्त।एक निराकार तो दूसरा साकार।एक घर तो एक उसका निवासी नागर।जैसे किसी सागर में  अदृष्ट गागर।तुम्हारे बिना इस तन का कोई महत्त्व नहीं,मूल्य नहीं।तन में बसा हुआ मन।

         इस विशाल तन में रहते हुए भी मैं यह नहीं जान पाता कि तुम कहाँ हो।तुम्हारी स्थिति कहाँ है। भले ही तुम निराकार हो,तो भी कहीं न कहीं तो रहते बसते होगे।इस तन की एक- एक छोटी बड़ी गतिविधि के नियामक तुम्हीं तो हो।बिना तुम्हारे इस तन की कोई भी क्रिया सम्पादित नहीं होती।जब तन सो जाता है ,तब भी तुम अनवरत जागते रहते हो।यहाँ तक कि स्वप्न लोक में न जाने कहाँ -कहाँ की सैर कराते हो।इतना व्यस्त रहने के बावजूद तुम्हें थकते नहीं देखा गया।रुकते नहीं देखा गया। तुम्हारी कार्य यात्रा निरंतर चलती ही रहती है।

हे  मेरे मन ! यदि गति की बात की जाए तो तुम्हारी समता में कोई भी नहीं टिक पाता।विद्युत गति से भी लाखों गुना तीव्र गति से दौड़ने वाले हे मेरे मन ! कवियों को तो कुछ और ही तीव्र गति प्रदान की है।वे न जाने किन अज्ञात लोकों की सैर करते और कराते हैं। अपनी कविता के माध्यम से पाठक  और श्रोताओं को जाने कहाँ-कहाँ ले जाते हैं।ये असम्भव सामर्थ्य यदि कहीं है ,तो केवल तुम्हारे पास है, कहीं और नहीं है।

   कहा जाता है कि जब दसों  प्राणों और उपप्राणों द्वारा इस तन को छोड़ दिया जाता है तो दसों इंद्रियों के सूक्ष्म रूप के साथ तुम भी बाहर चले जाते हो।तुम तो अरूप हो ही।बाहर भी अरूप ही रहोगे।परंतु जीव की प्रेत या पितर योनि में जाकर क्या शांत बैठे रहोगे? क्योंकि स्थिरता तो तुम्हारी प्रकृति में है ही नहीं।वहाँ भी कुछ न कुछ गतिमान रहोगे ही ;यह मैं समझता हूँ।उधर ऐसा भी है कि बिना तन के तुम कुछ कर नहीं पाओगे, ये बात अलग है।तुम्हें तो तन के वन में विचरण करना ही भाता है।क्योंकि तन से ही तो तुम्हारा घनिष्ठ नाता है।बिना तन के मन सर्वथा क्रिया शून्य बन जाता है।

हे मेरे मन! अब तक न जाने तुम कितने मनों से मिले हो।कोई तुम्हें भाया ,कोई नहीं भाया।किसी से मिले ,तो मिल कर भी नहीं मिले। और यदि किसी से मिल गए तो ऐसे जैसे दूध में शक्कर।हजारों किलोमीटर की दूरियाँ पार करके भी तुम मिल गए,और यदि नहीं मिले तो एक छत के नीचे  साथ रहने वाले से भी नहीं मिल सके।कहते हैं कि तुम मैले भी होते हो और निर्मल भी होते हो।तुम वह मन नहीं कि गंगा नहाने भर से निर्मल हो जाए।तुम तो यदि हो चंगे !तो घर में ही हर- हर गंगे!!तुम्हारी हर प्रकृति विचित्र है।यही कारण है कि दूर बसा हुआ भी तुम्हारा प्रियवर है ! प्रेय है ! किसी गीत की तरह गेय है! और पड़ौस में रहने वाला भी कोई हेय है।मन ही मन को जाने। मन ही मन को पहचाने। हे मन! तुम्हारे मापने के हमारे पास नहीं हैं पैमाने।तुम्हारी लीला  तुम्हीं जानो।

 ऐ मेरे  प्रिय मन! तुम खट्टे भी हो जाते हो तो मधुर भी होते हो।मधुर होने पर सम्बन्ध भी मधुर हो जाते हैं और तुम्हारे खट्टेपन से रिश्तों में भी खटास घुल जाती है।खट्टे ही नहीं,तुम्हें कड़ुए होते हुए भी पाया गया है।ऐसा भी कुछ जीवन का कटु अनुभव है।

कभी- कभी तो ऐसा भी हुआ है कि तुम भीग - भीग गए हो।इसे सामान्य भाषा में करुणा या दया भाव कहते हैं।जब तुम हर्षित होते हो तो ये तन फूल की तरह हलका हो जाता है।रोम-रोम से हर्ष की फुहार - सी बरसने लगती है।इस तन की सारी दशा और दिशा तुम्हीं तो सुनिश्चित करते हो।दस घोड़ों के इस तन रूपी रथ के चालक तुम्हीं तो हो मेरे मन! भला कोई भी दैहिक हलचल तुम्हारे बिना भी सम्पन्न हो सकती है ? जहाँ तुम ले जाते हो, ये तन-रथ वहीं गतिमान होता है।

हे प्रिय मन!तुम अदम्य हो।यद्यपि यह असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।जिसने तुम्हें अपने वशीभूत कर लिया ,वह तुमसे असम्भव को भी सम्भव करा सकता है। तुम्हारी शक्ति और सामर्थ्य दोनों ही अपार हैं।तुम्हारा कितना भी गुणगान किया जाए,कम है। मेरी शब्द - क्षमता से परे है। हे मन ! तुम तुम ही हो। सर्वथा अतुलनीय !अवर्णनीय!!सर्वथा अकल्पनीय !!! फिर भी तुमसे मिलने का एक छोटा-सा प्रयास किया है।अब यह तो तुम ही जानो कि इस कार्य में कितना सफल हुआ हूँ।


●शुभमस्तु !


15.01.2023●4.00प०मा०

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शनिवार, 13 जनवरी 2024

मेरी प्रिय वर्णाका ! ● [आलेख ]

 022/2024

 

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 ●© लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं, तुम मेरे अधीन नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ,पहचानता हूँ।मेरे मानस में निवास करती हो।पर मैं कभी भी तुम्हें छू भी नहीं पाता। मैं तुम्हारी चाहत का दास हूँ।अपनी इच्छा से एक शब्द भी लिख पाना मेरे अधिकार से बाहर है।सब कुछ तुम्हारी इच्छा के अधीन है।तुम चाहो तो कुछ लिखा जाता है और यदि तुम न चाहो तो पिपीलिका की टाँग के बराबर भी अंकित नहीं हो पाता। हे देवी !हे महादेवी !! तुम्हें क्या नाम दूँ ? लेखनी कहूँ ?वर्णाका  कहूँ या क्या कहूँ ?नहीं जानता। 

 तुम मेरे ही पास हो। यहीं कहीं विद्यमान हो। पर इन दो चर्म-चक्षुओं से देखना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।मेरी प्रज्ञा के किस कोटर में निवास करती हो, यह भी मैं नहीं जानता।तुमने मेरे नाम से मुझे कितने ग्रंथ दिए,अनगिनत रचनाएं दीं। परन्तु आज तक मैं तुम्हें वायु और आकाश की तरह ही समझ पाया। जिस प्रकार आकाश अदृष्ट और व्यापक है,वायु अदृष्ट और जीवनदायिनी है,वैसे ही तुम भी अदृष्ट, व्यापक और इस अकिंचन को जीवन प्रदान करती हो।तुम देखी नहीं जा सकतीं। तुम स्थूल जो नहीं हो। तो भला क्यों और कैसे देख पाऊँगा! तुम्हारी अपनी जो प्रकृति है ,वह विधाता की अनुपम और अलौकिक सृष्टि है।अदृष्ट रहकर भी संसार को चलाने वाली माते! वेद ,पुराण उपनिषद गीता ,रामायण आदि सब तुम्हारी ही देन हैं।न जाने कितने जन को उसके कर्ता होने का श्रेय दिया! मुझे भी दिया है और निरंतर दे रही हो। कैसे करूँ शब्दों में तुम्हारी महिमा का गायन! तुम तुम्हीं हो। किसी से उपमा भी तो नहीं दी जा सकती।अनुपमेय हो। अरूप हो।मेरी साधना की साकारता हो। 

 जिसने जितना जाना ,उतना बखाना। परंतु हे माते! तुम तो विविधरूपिणी हो ,जिसके रूप स्वरूप हैं नाना! तुम हर अक्षर में अक्षर हो, शब्द में, वाक्य में , गीत में ,कविता में ,गद्य में ,संगीत में ,वादन में , वाद्य में वादक में , कवि में ,लेखक में ; कहाँ -कहाँ नहीं हो। मैं एक अकिंचन तुम्हें नमन करता हूँ।परम् पिता परमात्मा से यही प्रार्थना करता हूँ कि जन्म- जन्मान्तर मेरा तुम्हारा अन्तर्सम्बन्ध यों ही इसी प्रकार चलता रहे।मैं तुम्हें जानूँ ,तुम मुझे जानो।निराकार रहकर भी तुम मेरे अस्तित्व का अंग बनकर मेरी आत्मा को सार्थकता प्रदान करो। इससे अधिक और क्या चाह सकता हूँ !मैं एक अकिंचन प्राणी। मेरी प्रिय कल्याणी !

 हे महादेवी ! कब तुम मानस के किस सँकरे कोने में दुबक जाती हो। इस अकिंचन को ढूंढ़वाती हो, पर ढूंढ़ने खोजने पर भी मिल नहीं पाती हो। और कभी यों ही निकल कर बाहर धूम मचाती हो , बिना खोजे मिल जाती हो। यही तो तुम्हारी विचित्रता है। तुम्हारा लुका- छिपी का खेल है। मैं आज तक तुम्हें जानकर भी नहीं जाना ,पहचान कर भी नहीं पहचाना। कैसा है ये तुम्हारा अनौखा ताना - बाना। कौन समझ पाया है तुम्हारा आना - जाना। तुम्हें पसंद नहीं है अपनी राह में कोई भी बाधा। उधर बाधा भी जानती है कि उसका काम ही है मात्र बाधा। इसलिए वह आती है और अवश्य बिना बुलाए अनाहूत चली ही आती है। पर तुम हो कि टूटे को भी जोड़ना जानती हो। बाधा का कहा भी कब मानती हो। क्योंकि तुम भी जब चलने का ,अपने पथ में अग्रसर होने का प्रण जब ठानती हो ,तो किसी भी बाधा को कब पालती हो।

    हे मेरी प्रिय वर्णाका ! मेरी लेखनी ! माननीया महादेवी ! यदि तुम एक बार भी रूपाकार हो तो मैं क्या न कर लूँ ! तुम्हें अपने स्नेह पूर्ण आलिंगन में भर लूँ अथवा तुम्हारे चरण युगल में इस अनिकंचन शीश को धर उबर लूँ।नहीं जानता कि मुझसे क्या हो जाए! यदि कुछ धृष्टता भी हो तो क्षमा दान मिल जाए ! 

 ●शुभमस्तु ! 

 13.01.2024●12.00मध्याह्न।

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शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

मैं कर्ता हूँ!' ● [आलेख ]

 008/2024

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● © लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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                अपने मन और मान्यता की पुष्टि के लिए मनुष्य विविध उपचार करता है।अपने मन को समझाना, मनाना और प्रसन्न रखना एक दुष्कर कार्य है। मन की इन सभी चाहतों को आकार प्रदान करने के लिए उसे विविध उपचार,उपक्रम, क्रियाएँ और कार्यक्रम करने पड़ते हैं।यदि इन सबसे यह मन मान गया ,तो सब ठीक।अन्यथा कुछ भी ठीक नहीं। इस व्यापक प्रकृति में जो जैसा है ,वह तो है ही।चाह कर भी मनुष्य नकार नहीं सकता। अपने को श्रेय देना उसका अपना मानसिक व्यसन हो सकता है।इसलिए वह अनेक उपक्रमों का भागीदार बनकर अपने को अहो भाग्य मानता हुआ प्रसन्न हो लेता है और स्वयं को कर्ता मानकर संतुष्ट भी हो लेता है कि यह मैंने किया।मैं ही कर्ता हूँ। और अदृश्य इतिहास के पन्ने पर अपना नाम स्वयं ही लिख लेता है। 

             जो सर्वत्र रमता है ,वही राम है।यह अकाट्य मान्यता सर्व विदित भी है। जब यह सर्व विदित है तो जो राम सर्वत्र व्याप्त है , उस राम का आगमन क्या ?जो कहीं गया नहीं है ,वह आएगा कहाँ से ?जो राम तुम में मुझ में सब में प्राण संचार करता है ,उसमें यह मनुष्य प्राण संचार कैसे और क्यों करने चला? परंतु एक क्रिया करनी जो है, दुनिया को अपने कर्तापन का मिथ्या बोध जो कराना है ,इसलिए कुछ करने के लिए कुछ करना भर है। वरना जो कर रहे हैं ,वह पहले से ही अस्तित्व में है और सारी सृष्टि के कण- कण में व्याप्त है, उसे प्राणवंत क्या करना ?

           मानवीय सौन्दर्यप्रियता ने अपने प्रियत्व को साकार करने के लिए अनेक निर्माण कार्य किए। युग युग से करता चला आ रहा है।ये किले, महल,बाबड़ियाँ,सड़कें, बाग - बगीचे मानवीय तुष्टि की पुष्टि के विविध प्रतीक हैं। यदि ये सब नहीं होते तो यह संसार एक माली के उद्यान की तरह सजा सँवरा हुआ नहीं होता।यह सब कुछ उसी प्रकार से है ,जैसे आदमी जीवन का एक वर्ष कम होने पर जन्म दिन मनाता है।अंतर केवल सोच का है , चिंतन का भेद है। किन्तु जीवन का एक वर्ष कम होना नकारात्मक सोच है।जबकि आयु का एक वर्ष अधिक होना सकारात्मक सोच है।कम को ज्यादा मान लेने का चिंतन उसका कुछ बनाता बिगाड़ता नहीं, किन्तु झूठे ही खुश हो लेने से उसकी खुशियों में बढ़ोत्तरी अवश्य हो जाती है। एक ही बात को दूसरे ढंग से मानना ही वर्षगाँठ का आयोजन है।ठीक वैसे ही प्राण प्रतिष्ठा भी एक ऐसा स्वयं तुष्टि का उपक्रम है कि सबमें प्राण प्रतिष्ठा करने वाले राम की प्राण प्रतिष्ठा हम करें।

            पर दृष्टि में अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित करना मानव स्वभाव है। अन्यथा उसके अहं की तुष्टि नहीं हो पाती। इसलिए अपने समस्त दोषों पर नवनीत पॉलिश करते हुए गुण- प्रदर्शन करना उसका स्वभाव ही बन चुका है।इसी क्रम में वह जीवन भर प्रदर्शनों की बारात सजाता रहता है। यद्यपि हमारा समाज और वह व्यक्ति स्वयं भी अपनी औकात को भलीभाँति जानता पहचानता है। इसके बावजूद वह अपनी प्रदर्शन प्रियता से बाज नहीं आता। उसे अपने अस्तित्व को पशु - पक्षियों से अलग जो सिद्ध करना है। भले ही वह उनसे प्रतियोगी बनकर उनसे आगे निकल चुका हो। 

        'मैं कर्ता हूँ' : का बोध मानव की अहं तुष्टि का एक साधन है। जिसका परिणाम दुनिया के सारे उपक्रम हैं। कान को हाथ घुमाकर पकड़ने का नाम ही विविधता है,वरना कान तो कहीं गया नहीं है। उसे चाहे ऐसे पकड़ो या वैसे ;पकड़ना तो कान ही है।बस पकड़ने की विधि और हाथ के घुमाव का अंतर मात्र है। क्रिया एक ही है।यही सब मानवीय संस्कार और सभ्यता है। सभय्ता बाहरी आवरण है तो संस्कृति बाहरी सौंदर्य का एक निदर्शन।आज के युग में सभ्यता और संस्कृति का घालमेल ही नई सभ्यता है। जो क्रमशः अत्याधुनिकता की ओर बढ़ती जा रही है। वास्तविक कर्ता को नकार कर स्वयं को कर्ता बना लेना ही अहं की तुष्टि की साकारता है। जो आज अपने यौवन के चरम पर है। 

 ● शुभमस्तु ! 

 05.01.2024● 12.45प०मा० 

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शनिवार, 16 दिसंबर 2023

मोती बनाम मुक्ति ● [ आलेख ]

 539/2023 


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 ●© लेखक

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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इस असार अथवा ससार संसार- सागर में ऐसा बहुत कुछ है, जो सबके लिए नहीं है।सबके लिए सब कुछ हो भी नहीं सकता और न ही सब में सब कुछ पाने की क्षमता है न पात्रता।मोती कोई खाने की वस्तु नहीं है,किन्तु किसी के द्वारा मोती का भी भक्षण किया जाता है।सब जीव जंतु उसका भक्षण नहीं कर सकते। उसे पचा नहीं सकते। एकमात्र हंस ही वह प्राणी है,जो मोती -भक्षण की सामर्थ्य रखता है। अर्थात मोती हर साधारण के लिए नहीं है।सागर में सीपी, सीपी में स्वाती बिंदु ,एक नक्षत्र विशेष स्वाती में मेघों में स्वाती जल बिंदु का निर्माण, वह विशेष समय और परिस्थिति जब वह आसमान से गिरे और सागर स्थित सीपी के मुख में सीधे जा गिरे ;बशर्ते उस समय सीपी -मुख खुला हुआ भी हो ,तब कहीं जाकर एक मोती का सृजन होता है। यह भी तो हो सकता है कि स्वाति -बिंदु सीपी के अतिरिक्त अन्यत्र जा गिरे।सर्प के मुख में गिरने पर विष ,केले में कपूर,नीम में चन्दन बन जाए । और यदि सीपी में गिरने का संयोग बने तभी वह मोती बन सकता है। अपनी एक साखी में महात्मा कबीर ने कहा भी है : मूरख संग न कीजिए,लोहा जल न तिराइ। 

कदली,सीप,भुजंग मुख,एक बूँद तिहुँ भाइ।। 

 सीपी में मोती बन पाने का संयोग कब और कितनी बार बन पाता है, नहीं कहा जा सकता। सीपी में बने हुए इस मोती का पात्र वह हंस ही है ,जो इसे प्राप्त कर सके। हंस की वह कठोर साधना ही है,जो इसे प्राप्त करा सकती है।तात्पर्य यह है कि मोती का निर्माण और प्राप्ति दोनों ही कठोर साधनाएं हैं। मोती कौवों,टिटहरियों,बगुलों या अन्य सामान्य के लिए नहीं हैं। वह कठोर नियम संयम केवल हंसों द्वारा ही सम्भव है।

   मोती- निर्माण और प्राप्ति का यह अभिधात्मक अर्थ हुआ।मोती रूपी मुक्ता भी हर सामान्य मनुष्य के लिए नहीं है।वह मनुष्य भी हंस का प्रतीक है ,जो मुक्ता रूपी मोती को प्राप्त करता है। किसी के लिए दो वक्त की रोटी ही मोती के सदृश है। वह उसीके लिए रात- दिन एक किए रहता है। किसी के लिए उच्च पद, ऊँची कुर्सी, धन -दौलत,घर -मकान, प्रतिष्ठा ही मोती है। उनकी प्राप्ति ही उसे बहुमूल्य मुक्ता समान है।ये सभी जन न तो हंस हैं,और न उनके द्वारा प्राप्त भौतिक सुख ही मुक्ता सदृश हो सकते हैं। सुख मुक्ति का पर्याय नहीं है।सुख के जाने पर दुख आता है।किंतु मुक्तावस्था के बाद ऐसा कुछ नहीं होता कि मुक्तावस्था से पतित होना पड़े।मुक्तावस्था में एक अपरिसीम आनन्दानुभूति है ,जो कभी विषाद नहीं लाती ।इसलिए कोई भी भौतिक सुख मुक्तावस्था नहीं ला सकता। सच्चे मोती नहीं प्रदान कर सकता।

   यह संसार भौतिक सुख कामी जन के लिए ससार है तो आध्यात्मिक मुक्ति कामी साधकों के लिए असार है।कूप मंडूक के लिए सांसारिक सुख ही मोती से कम नहीं हैं। क्योंकि उसे तो अपनी उसी साढ़े तीन हाथ की कूप रूपी दुनिया में ही टर्र-टर्र करते हुए सुख सृजित करना है,सुख लूटना है, और 'सब ते भले वे मूढ़ जन, जिन्हें न व्यापै जगत गति ' के अनुसार उतने में ही मस्त रहना है। वे भला मुक्ति रूपी मोती का रसास्वादन किंवा आनंद ग्रहण करना क्या जानें!

        वास्तविक मुक्ति का मार्ग सुसाध्य नहीं है।वह दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान है।जिस पर चलने की सामर्थ्य प्रत्येक में नहीं हैं।जिस पर चलना भी कठिन और उससे गिरना भी और भी घातक सिद्ध होता है। इसलिए एक साधारण और अपात्र व्यक्ति साहस भी नहीं कर सकता।अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होने के लिए एक सतगुरु की आवश्यकता होती है।जिसका मिलना एक दुर्लभ कार्य है।यह तो उस पात्र व्यक्ति का परम सौभाग्य ही होगा कि उसे ऐसे गुरु का निर्देशन प्राप्त हो सके। 

     सत गुरु की खोज और उसके माध्यम से मुक्ति रूपी मुक्ता की प्राप्ति ही मानव जीवन की सार्थकता है।धन्य हैं वे लोग जिन्हें ऐसे सच्चे गुरु मिले हैं और उन गुरुओं ने अपने साथ - साथ अपने साधक शिष्यों का भी उद्धार करते हुए मुक्ति के मोती प्रदान किए हैं। 

 ●शुभमस्तु !

 16.12.2023●4.30 प०मा० 

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कबीर मोति नीपजें शून्य शिखर गढ़ माँहि● [ आलेख ]

 538/2023 


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 ● ©लेखक

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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            सांसारिक कार्यसिद्धि के लिए साधन की परम आवश्यकता होती है।साधनों के द्वारा तो कोई भी कार्य को पूर्णता प्रदान कर सकता है ; किन्तु बिना साधन सामग्री के भी कार्यसिद्धि यदि हो जाए,तो क्या कहना ? संसार का प्रत्येक कार्य इसकी अपेक्षा करता है। इसके विपरीत आध्यात्मिक मार्ग में चलने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि साधन हों ही। वहाँ बिना साधनों के भी कार्यसिद्धि की जा सकती है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अन्ततः वह कौन सी कार्यसिद्धि है ,जिसमें साधन अनिवार्य नहीं हैं।

         ज्ञानमार्गी काव्यधारा के निर्गुण पंथ के संत साधक महात्मा कबीर एक ऐसी ही महान विभूति हैं ,जो कहते हैं कि 

 सायर नाहीं सीप बिनु,स्वाति बूँद भी नाँहिं।

 कबीर मोती नीपजें, शून्य शिखर गढ़ माँहिं।। 

सामान्यतः मोती के निर्मित होने के लिए प्रकृति को तीन चीजों की आवश्यकता होती है।वे तीन चीजें हैं :समुद्र ,सीप और स्वाति बूँद।इन तीनों के होने के बावजूद यह अनिवार्य नहीं है कि मोती का निर्माण हो ही जाए।सम्पूर्ण साधन की पूर्ति के साथ ही यदि वह सुघड़ी,सुसमय,सुअवसर नहीं मिले तो भी सीप में मोती नहीं बन सकता

              इन तीनों वस्तुओं में प्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है :स्वाती बूँद। जिसे कृत्रिम रूप से निर्मित नहीं किया जा सकता।जब स्वाति ही नहीं होगी तो सीप में गिरेगी कैसे? स्वाती बिंदु के निर्माण के लिए भी विशेष मुहूर्त भी परमावश्यक है ; वह नक्षत्र विशेष भी अनिवार्य है ; जब मेघ मंडल के मध्य उसका निर्माण हो!मान लीजिए यह सब परिस्थिति भी पूर्ण हो गई।अब प्रश्न है कि वह आवश्यक स्वाती बूँद जब निकले तो किस स्थान ,वस्तु ,नदी,सागर, सर्प मुख, चन्दन, नींम वृक्ष,कदली वृक्ष आदि में से कहाँ जाकर गिरे कि मोती बन जाए! वह नदी के जल में गिरकर पानी में विलीन हो सकती है।सागर जल में गिर कर अकारथ हो सकती है।सर्प - फन में गिरकर जहर भी बन सकती है। नीम में गिरकर चंदन और कदली वृक्ष में जाकर सुगंधित कर्पूर का रूप धारण कर सकती है।किंतु जब तक सीपी का मुख न खुले और उसी क्षण वह उसमें न गिरे तो मोती कैसे बन सकती है? सारी परिस्थितियाँ अनुकूल होनी चाहिए एक मोती बनने के लिए।इससे यह स्पष्ट हुआ कि साधन की अनिवार्यता के साथ -साथ सही परिस्थिति और सुसमय ही प्रधान है। तब कहीं जाकर एक सीपी में किसी मोती का निर्माण हो सकता है। 

               इस दोहे में महात्मा कबीर का संकेत और संदेश उस मुक्ति या मोक्ष रूपी मोती से है ,जिसे पाकर एक साधक संसार - सागर में रहते हुए मुक्ति प्राप्त कर सकता है। सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण तथ्य की बात यह है कि मुक्ति रूपी मोती भी प्राप्त हो जाए और कोई साधन की उपलब्धता नहीं हो। मोती भी ऐसा जो शून्य शिखर पर उत्पन्न होता हो। शून्य में ? वह भी मोती की उत्पत्ति ? एक विरोधाभास ,एक उलटबासी जैसी स्थिति! एक विचित्रता !एक विलक्षणता ! 

          ज्ञान की साधना ही वह मार्ग है ,जिसके लिए 

 'जप माला छापा तिलक ,सरै न एकौ काम।

मन  काँचे  नाचे   वृथा ,साँचे    राँचे राम।।"

 प्रभु की सच्ची आराधना के लिए किसी जप की आवश्यकता नहीं है। कंठी - माला भी नहीं चाहिए। देह के विभिन्न अंगों पर छापा लगाने अथवा ललाट पर तिलक त्रिपुंड लगाना भी अनावश्यक है। होना तो बस एक ही चाहिए कि मन पक्का हो। वहाँ कच्चापन न हो। वहाँ शक सुबहा न हो। 

           कबीर साहित्य में कबीर का चिंतन आध्यात्मिक होते हुए भी मानवतावादी है।मनुष्य मात्र के हित चिंतन का बोधक है। एक ओर कबीर जहाँ समाज सुधार के लिए मनुष्य के संकीर्ण भेदभाव, छुआछूत ,ऊँच- नीच का विरोध करते हुए हुए उसे डाँटते फटकारते हैं , वहीं वे उसे सन्मार्ग पर लाने के लिए प्रबोधन करते हैं : 

पाथर पूजे हरि मिलें,तौ मैं लूँ पूजि पहार। 

याते तो चाकी भली,पिसा खाय संसार।।

 हिन्दू मुसलमान दोनों को सही मार्ग पर लाने के लिए कबीर ने कोई कमी नहीं छोड़ी है :

  अरे इन दोऊ राह न पाई। 

हिंदुन की हिन्दुआई देखी,तुर्कन की तुरकाई।

 हिन्दू अपनी करें बड़ाई ,गागर छुअन न देई।। 

वेश्या के पामन तर सोवें, यह देखो हिन्दुआई।

 मुसलमान के पीर औलिया,मुर्गा मुर्गी खाई।। 

 जब तक मन पक्का न हो तब तक माला फेरने का भी कोई औचित्य नहीं है । वे कहते हैं : 

माला फेरत जग मुआ,गया न मन का फेर। 

कर का मनका डारि के, मन का मनका फेरि।।

 मुसलमानों को फटकारते हुए कबीर ने कहा:

 कंकर पत्थर जोरि के, मस्जिद लई बनाय। \

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।। 

 जीव हिंसा के विरोध में कबीर वाणी कहती है : 

 दिन में रोजा रखत हैं,रात हनत हैं गाय। 

यह तौ खून वह बंदगी, कैसे खुशी खुदाय।। 

 कबीर का मानवतावादी चिंतन उनके साहित्य में सर्वत्र बिखरा हुआ है। उन्होंने कहा -

 एके बूँद एकै मल मूतर। 

एक चाम एक गूदर।। 

एक जोति से सब जग उपजा, 

को बाँभन को सूदर।। 

               कबीर का चिंतन न केवल कबीर के युग में वरन आज भी उतना ही प्रासंगिक और अनुकरणीय है। आज का समय और प्राचीन कबीर युग के सामाजिक परिवेश में कोई विशेष अंतर नहीं है। इसलिये आज भी कबीर की आवश्यकता उतनी ही है ,जितनी कबीर काल में रही होगी।कबीर की मान्यता आज भी सर्व स्वीकार्य नहीं है ,न तब थी। क्योंकि कबीर का चिंतन पक्षपात पूर्ण नहीं है। उन्होंने गलत को गलत कहा और सही को सही। आम जन किसी बात को तभी सही कहता है ,जब बात उसके पक्ष की कही जाए। कबीर जैसा व्यक्ति क्यों किसी पक्ष की बात करे? उसे आम जन समाज से मत इकट्ठे नहीं करने। उसे वोट लेकर ऊँची कुर्सी नहीं हथियानी ,जो किसी के पक्ष का समर्थन करे! कबीर स्वतंत्र चिंतन के साधक हैं। वह साधना पथ में चल कर बिना सीपी, सागर ,स्वाती के मोक्ष रूपी पैदा करने की योग्यता के वाहक हैं। वह निराकार पर ब्रह्म के सच्चे साधक हैं। वे शून्य में ही मोती उपजाने की कूव्वत रखते हैं। सुप्तावस्था में मूलाधार में पड़ी हुई कुँडलिनी के लिए माला ,तिलक,छाप,आसन,मंदिर, मस्जिद आदि किसी साधन सामग्री की उन्हें आवश्यकता नहीं है।उनका मुक्ति रूपी मोती सुषुम्ना शिखर पर शून्य में ही अमृत प्रसवित करता है। कबीर चिंतन का यही सार है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 16.12.2023● 11.30आ०मा० 

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शनिवार, 9 दिसंबर 2023

उ०प्र०की संस्कृति में लोक उत्सव एवं मानव-मूल्य ● [आलेख ]

 526/2023



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● ©लेखक 

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                  'उत्तर प्रदेश की संस्कृति में लोक उत्सव एवं मानव -मूल्य' विषय पर विचार करने से पूर्व इसमें आए हुए 'संस्कृति' 'लोक उत्सव' एवं तीसरे शब्द 'मानव मूल्य' पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। संसार के मानव मात्र के लिए 'सभ्यता' और 'संस्कृति' ऐसे दो महत्त्वपूर्ण आवरण हैं; जो उसे मानवेतर प्राणियों से भिन्नता प्रदान करते हैं। 'सभ्यता' मानव का वह बाहरी आवरण है,जो उसे रोटी ,कपड़ा और आवास की व्यवस्था करता है तथा उसके जीवन को हर प्रकार से सुरक्षा प्रदान करता है। दूसरी ओर हमारी 'संस्कृति' वह मानवीय सौंदर्य बोधक आवरण है , जिससे उसकी हृदय संबंधी विविध रंगीनियों और भाव सागर का बोध होता है। सभ्यता और संस्कृति दोनों ही मानव मात्र के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी हैं। 

                जब मानव अपनी सभ्यतागत आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता है ,तो जीवन को सौंदर्य और सुषमा पूर्ण बनाने के लिए विभिन्न त्यौहार, पर्व, लोक उत्सव, नाच- गान, नाटक आदि का आयोजन करके अपनी संस्कृति को समृद्ध बनाने में संलग्न हो जाता है। 

                   देश के समस्त राज्यों में उत्तर प्रदेश आबादी,क्षेत्रफल,सभ्यता,संस्कृति ,समृद्धि,प्राकृतिक सौंदर्य, भूगोल आदि अनेक दृष्टियों से उत्तर भारत का विशाल राज्य है। यह राज्य अपनी विविध परंपराओं और समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। इसकी संस्कृति के अंतर्गत उसके पर्व त्यौहार और विभिन्न मेले हैं।इनसे राज्य की विविधता और समृद्ध संस्कृति का बोध होता है। इन मेलों के कारण ही यहाँ मात्र देश के ही नहीं विदेशों के पर्यटकों का आगमन होता है ।इन मेलों के आयोजन से प्रदेश की जीवंत और रंगीन संस्कृति का बोध होता है। जानकारी के लिए कुछ प्रमुख मेलों का विवेचन करना समीचीन प्रतीत होता है। 

 1.कुम्भ मेला- यह मेला प्रत्येक बारह वर्षों में प्रयागराज में गंगा यमुना और सरस्वती के संगम पर आयोजित होता है।यह विश्व के सबसे महान धार्मिक समरोहों में से एक है।इसमें देश और विदेश के लाखों तीर्थयात्री संगम स्नान के लिए आते हैं। 

 2.बटेश्वर मेला- आगरा जनपद में आगरा और फ़िरोज़ाबाद के समीप यमुना नदी के तट पर प्रसिद्ध तीर्थस्थल बटेश्वर है। यहाँ पर भगवान शंकर के 101 मंदिर हैं। यहाँ सावन के महीने में हजारों कावड़ियों द्वारा गङ्गा जी से लाई गई कांवड़ों द्वारा पवित्र गंगा जल चढ़ाया जाता है।नवम्बर में वार्षिक उत्सव का आयोजन होता है।जिसमें पशुओं की खरीद फ़रोख़्त की जाती है। कई सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ इस मेले का मुख्य आकर्षण हैं। यहीं पर श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की माता का वह मंदिर भी हैं ,जहाँ वे नित्य प्रति पूजा अर्चना करने के लिए जाती थीं।कंस की मल्ल कला विद्या की स्थली 'कंस कगार' भी यहीं देखी जा सकती है। 

 3.गढ़ मुक्तेश्वर मेला- प्रति वर्ष कार्तिक मास में मेरठ के समीप हापुड़ में भगवान शिव के सम्मानार्थ यह मेला लगता है।इसका प्रमुख आकर्षण गङ्गा तट पर स्थित एक विशाल शिव लिंग है। 

 4.ढाई घाट मेला- शाहजहाँपुर में कार्तिक मास में ढाई घाट मेले का आयोजन किया जाता है। 

 5.मकर संक्रांति मेला- यह फर्रुखाबाद में जनवरी में आयोजित होने वाला वार्षिक आयोजन है। इसे मकर संक्रांति मेला कहा जाता है और पतंग उड़ाने जैसी गतिविधियों को प्रमुखता दी जाती है। 

 6.गोला गोकर्णनाथ मेला- लखीमपुर खीरी में प्रतिवर्ष इस मेले का आयोजन नवम्बर माह में किया जाता है। इसमें शंकर भगवान की पूजा अर्चना को प्रमुखता दी जाती है। 

 7.बाला सुंदरी मेला- प्रति वर्ष चैत्र मास में यह मेला अनूपशहर में वार्षिक उत्सव के रूप में आयोजित होता है। 8.कालिंजर मेला- यह मेला प्रति वर्ष जनवरी में आयोजित होता है।यह एक वार्षिकोत्सव है ।बाँदा में आयोजित होने वाले इस मेले का प्रेरणा स्रोत कालिंजर का किला है। यह भी प्रदेश की विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रकाशित करता है।

            यों तो उत्तर प्रदेश का कोई कस्बा या नगर अपनी सांस्कृतिक धरोहरों से शून्य नहीं है ,इसलिए इनके अतिरिक्त भी नौचंदी मेला(मेरठ), देव मेला(बाराबंकी), माकनपुर मेला ( फर्रुखाबाद),लखनऊ महोत्सव(लखनऊ) वाराणसी पर्यटन उत्सव(वाराणसी),गङ्गा महोत्सव (वाराणसी), त्रिवेणी महोत्सव(प्रयागराज),कैलाश मेला (अगरा), रामायण मेला(चित्रकूट),बरसाने का होली उत्सव (मथुरा), कबीर मेला (मगहर/संत कबीर नगर), परिक्रमा मेला (अयोध्या), गिरिराज परिक्रमा मेला (गोवर्धन), सोरों मेला (सोरों कासगंज),आयुर्वेद महोत्सव (झाँसी), बिठूर गंगा महोत्सव (कानपुर),कजरी महोत्सव( महोबा), खिचड़ी मेला (गोरखपुर),राम बरात(आगरा), राम नवमी मेला (अयोध्या)आदि हजारों छोटे -बड़ें मेलों का आयोजन पूरे उत्तर प्रदेश में समय -समय पर किया जाता है। 

           उत्तर प्रदेश के लोक उत्सवों के अन्तर्गत मेला आयोजन के साथ -साथ विभिन्न त्यौहारों का भी विशेष महत्त्व है।उत्तर प्रदेश की धरती राम,कृष्ण और बुद्घ की है। यहाँ की जाज्वल्यमान संस्कृति में स्थापत्य कला के सैकड़ों प्रतिदर्श देखने को मिलते हैं। उत्तर प्रदेश ही वह राज्य है ,जिसने रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य संसार के समक्ष प्रस्तुत किये हैं। यहाँ पर होली ,दीवाली,विजय दशमी(दशहरा),मकर संक्रांति, रक्षाबंधन,श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी, राम नवमी, गोवर्धन पूजा, भैया दूज ,देवोत्थान एकादशी आदि अनेक पर्वों और त्यौहारों को उत्साहपूर्वक मनाया जाता है।समय -समय पर श्रीकृष्ण की रास लीला और राम लीला के आयोजन प्रदेश की सांस्कृतिक सौंदर्य की छटा बिखेरते हैं।लोक परंपरा के अंतर्गत शास्त्रीय संगीत, लोक नृत्य और नाटकों के आयोजन भी प्रदेश की संस्कृति में चार चाँद लगाने में कोर कसर नहीं छोड़ते । 

           प्रदेश की व्यापक संस्कृति के अंतर्गत उसके लोक उत्सव ,मेलों और त्यौहारों की चर्चा करने के बाद उसके मूल्यों पर दृष्टिपात करना भी आवश्यक हो जाता है। मानव है तो उसके कुछ मूल्य भी हैं।जिन्हें 'जीवन -मूल्य' की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। समग्र रूप से देखें तो जीवन जीने के लिए धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष ये चार जीवन- मूल्य हैं।जिन्हें हम 1.धार्मिक 2.भौतिक या आर्थिक 3.सामाजिक 4.सांस्कृतिक और 5.आध्यात्मिक जीवन मूल्य के रूप में भी वर्गीकृत कर सकते हैं। जीवन की सुरक्षा और संरक्षा हमारे सभी जीवन मूल्यों का लक्ष्य है। इन सभी में सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है मानवता । यदि मानव जाति में मानवता ही नहीं बचे तो कोई भी मूल्य दो कौड़ी का नहीं है।

        अपने लोक जीवन में हम जितने पर्व, त्यौहार, मेले, गीत, संगीत, साहित्य, लोक कला,प्रथाओं, परंपराओं ,आचार-व्यवहार,रीति-रिवाज,मान्यताओं आदि का अनुशीलन करते हैं ,उन सबमें हमारे जीवन मूल्य इस प्रकार पिरोए हुए रहते हैं ,जैसे से एक बारीक सूत्र में फूलों की माला। जैसे सूत्र के भंग होने पर माला टूट जाती है , वैसे ही जीवन मूल्यों की देहरी लाँघते ही मानव मानव नहीं रह जाता। फिर मनुष्य और पशु में कोई विभेद नहीं रहता।सभी मेले और लोक पर्व मनुष्य को मनुष्य होना सिखाते हैं।वे उनका अवमूल्यन नहीं कर सकते। हिंसा, क्रूरता,अत्याचार, बलात्कर, छीना झपटी जैसी बातों के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है। 

                 संक्षेप में कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश भारतीय संस्कृति का एक ऐसा वृहद प्रांगण है ,जिसमें मानवीय जीवन मूल्यों की परिधि में यहाँ की संस्कृति और सभ्यता पल्लवित और पुष्पित हो रही है।विविध लोक उत्सवों, मेलों,त्यौहारों और मान्यताओं की गोद में यहाँ की संस्कृति सदा से हरी भरी और उल्लसित है। आइए हम सभी उत्तर प्रदेश की गरिमामई संस्कृति का आदर्श स्वरूप जानें और मानवीय मूल्यों की संस्थापना में अपना अमूल्य योगदान करें। धन्य हैं हम सभी जिन्होंने इस राम ,कृष्ण और बुद्ध की पवित्र धरा पर जन्म लिया और इसकी रज में लोटपोट कर बड़े हुए हैं। 

●शुभमस्तु। 

 09.12.2023●3.00प०मा० 


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...