बुधवार, 31 जुलाई 2019

तिरंगा [कुण्डलिया ]

लिए     तिरंगा    हाथ   में,
बढ़े         राह      रणधीर।
अलख   जगाने    देश  में,
गही      हाथ     शमशीर।।
गही      हाथ      शमशीर,
देश    आज़ाद     कराया।
जंजीरों        को      तोड़,
वीर   सुरलोक  सिधाया ।।
'शुभम'     संगठित     रहे,
बही     तब  पावन   गंगा।
बढ़े     रात    दिन     वीर,
हाथ  में  लिए  तिरंगा।।1।

तीन      रंग    में   फहरता,
परस    गगन   के     छोर।
अमर   तिरंगा    राष्ट्रध्वज ,
उदय  किरण    शुभ भोर।।
उदय  किरण    शुभ  भोर,
रंग      ऊपर     केसरिया ।
शौर्य      शक्ति      सम्पन्न,
शांति का धवल सु-दरिया।।
 रँग      हरा        संपन्नता ,
शांति  ताकत  के सँग  में।
'शुभम'  चक्र  सित   बीच,
फहरता  तीन  रङ्ग  में।।2।

आन   मान  औ' शान की,
रक्षा     हित      बलिदान।
नहीं   तिरंगा  झुक  सका,
छोड़े      अमर    निशान।।
छोड़े     अमर     निशान,
मोह   ममता   सब  त्यागी।
मात  -    पिता    वे   धन्य,
पुत्र     जिनके  बड़ भागी।।
गति    वीरों      की  प्राप्त,
भारत   वीरों   की    खान।
स्वतंत्रता        के      हेत,
बची जननी की आन।।3।

एक    तिरंगा     एक   हम,
एक     राष्ट्र      की   शान।
विविध   रूप  रँग धर्म  भी,
एक     सभी     का मान।।
एक     सभी     का  मान,
न  झण्डा    झुकने    देंगे।
बलिदानी           पहचान,
न  अपनी     मिटने  देंगे ।।
पावन       करती     धरा,
नर्मदा    यमुना       गंगा।
'शुभम'    देश  का अटल,
रहेगा   एक    तिरंगा।।4।

एक    तिरंगा    देश   का,
बढ़ो    सुपथ   धर   धीर।
सदा    सत्य    वर्षा  करे,
हरसाते      हैं        वीर।।
हरसाते        हैं        वीर,
देश  पर बलि -बलि जाते।
करते       रक्षा        धर्म,
एक  सँग मिलकर  गाते।।
प्रेम-सुधा  शुभ  वृष्टि करे,
नित        यमुना      गंगा।
ऊँचा     जग      में   रहे ,
हमारा   अमर  तिरंगा।।5।

💐 शुभमस्तु! 
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

क्रांतिकारी [छन्द:वीर /आल्हा]

सुमिरूँ प्रथम गणेश को,
दूजे        उमा,      महेश।
मातु   शारदे     ज्ञान  दे,
वीर   छन्द    के    वेश।।

|| वीर||
आज़ादी  की ख़ातिर जिनने,
अपने  शीश  दिए  कटवाय।
उन्हीं क्रांतिवीरों की पदरज,
अपने सिर हम लई चढ़ाय।।

भारत  माँ  के  वीर लाड़ले,
रक्षा   हित    रहते   तैयार।
घर के मोह न बँधे कभी वे,
सदा  साथ  रहते हथियार।।

क्रांतिवीर   नेता सुभाष जी,
शूर     चंद्रशेखर   आज़ाद।
तात्या    टोपे  ,   लक्ष्मीबाई,
रानी   अवन्तिबाई    याद।।

नाना साहेब ,कुँवर सिंह भी,
अमर क्रांतिकारी  विख्यात।
मंगल पांडेय  ,  राजा नाहर,
राज गुरू, सुखदेव कहात।।

गांधी,बिस्मिल अशफाकउल्ला
भगतसिंह   के   नाम महान।
ऊधम सिंह , सावरकर आदि,
वासुदेव   धड़के  की शान।।

लक्ष्य सभी का एक बन गया,
भारत - माता   हो    आज़ाद।
मार   भगाने   अंग्रेजों    को ,
गूँज  उठा घर -  घर में नाद।।

शांतिदूत    या  क्रांतिदूत  हों,
राह  अलग  पर मंज़िल एक।
प्राणों की चिंता न बिल्कुल,
देशभक्ति  का जज़्बा  नेक।।

रग -रग में था खून खौलता,
बलिदानी    वे     कहलाये।
रातों   रात   फिरंगी   भागे, 
मन में   भारी     दहलाये।।

मात- पिता   वे धन्य  हो गए,
जने    जिन्होंने    वीर-सुपूत।
क्रांति-अग्नि के जो संवाहक,
भारत  माँ   करती  आहूत।।

आस्तीन   में  साँप  छिपे थे,
अपनों  को   ही  डंसने को।
ले  उपाधियाँ    अंग्रेजों   से,
अपनों  पर ही हँसने   को।।

वे गद्दार   आज   भी जिंदा,
क्यों  उनका   विश्वास करें।
रूप  बदलकर सरकारों में,
'शुभम' देश का नाश  करें।।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता
🏹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

हर हर बम बम [ व्यंग्य - गीत ]

डंडी    मार  तोलता  कम।
बोलो हर हर बम बम बम।।

लम्बा  तिलक  गले में माला।
सोहे तन  पर  पीत दुशाला।
धनिया में   नित लीद मिलाता।
नित्य शिवालय शीश झुकाता।
पकड़े  अगर   किसी में दम।
बोलो हर हर ....

चम -चम विद्यालय बनवाया।
मोटा शुल्क व्हेल -सी काया ।
रिश्वत से सब काम  निबटते।
सौ फीसद   वेतन  के बचते।
चिकन बीफ औ' रम रम रम।
बोलो हर हर ....

होती   यहाँ   वेश  की पूजा।
खाओ   मेवा  मिस्री   कूजा।
संविधान  खूँटी   पर   टाँगा।
मनमानी   का   नेक  इरादा।
अरबी बंगला कार चमाचम।
बोलो हर हर ....

सब   वर्गों  से  हैं हम ऊपर।
पूजा करो    हमारी   भूपर।
ठेकेदारी    मिली  ज्ञान की।
हक़दारी  भी  हमें दान की।
परदे   में   वेश्या-गृह   हम।
बोलो हर हर ....

बगल   कटारी  मुँह में राम।
इस कर कागज़ उसमें दाम।
बिना  दाम  नौकरी  हराम।
घर दफ़्तर या सुबहो -शाम।
सब कुछ   करने में  सक्षम।
बोलो हर हर ....

अधिकारी औ' पुलिस नचाते।
हम   हैं   नेताजी    कहलाते।
पाँच   वर्ष   में  हुआ कमाल।
सात   पीढ़ियाँ   करें  धमाल।
खड़े  मंच   पर   ठोके  खम।
बोलो हर हर....

नैतिकता   की  चादर ओढ़ी।
खून   चूसते    निर्धन कोढ़ी।
कफनखसोट जौंक के भाई।
जितना पी लें सब निपुनाई।
आँखों में नहीं तनिक शरम।
बोलो हर हर....

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

मेरी पायल छनछनाती रही रात भर।
चाँदनी    गुनगुनाती  रही रात भर।।

लाज   के  बोल घूँघट में सिमटे रहे,
तबस्सुम झिलमिलाती  रही रात भर।

नज़रों   से  नज़रें   मिलीं झट झुकीं,
उनकी नज़रें रिझाती रहीं रात भर।

परवाना   जला   जलता  ही गया,
शम्मा  थरथराती   रही रात भर।

पहली - पहली  ही उनसे मुलाक़ात थी,
संगिनी  कसमसाती  रही रात भर।

फ़ूल   महके  तो  दो दिल दहकने लगे,
कलियाँ  गुल खिलाती रहीं रात भर।।

चाहों ने बाहों में लिया जब 'शुभम'
शरमाती    लजाती  रही रात भर।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 28 जुलाई 2019

ग़ज़ल


दिल  का  द्वार  तुम्हारे होठ।
कितने दिलकश प्यारे  होठ।।

बदल जाए  जीवन उसका।
जिसको  मिलें करारे  होठ।।

बिन बोले सब कुछ  कह  दें
उर  - उद्गार     दुलारे   होठ।।

हम तो    समझ  नहीं  पाए,
इनका  वार    इशारे  होठ।।

उमड़ा    सागर   जब  भीतर,
दिखा  प्रहार   किनारे होठ।।

आग  लगे जब तन -मन में,
छूटे   आग    शरारे    होठ।।

और  न    कोई   अपना  है,
तेरे 'शुभम'    सहारे  होठ।।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

जब भी  खुलें हमारे होठ।
चुम्बन कहें  हमारे  होठ।।

दिल की प्यास बुझाने को
मधु में सनें हमारे  होठ।।

दिखे तबस्सुम झूठी सी।
ग़म को कहें हमारे होठ ।।

बोल  न पाये  मौक़े पर,
पत्थर बने हमारे  होठ।।

लाल  बनाया  क़ुदरत ने,
महके फिरें हमारे होठ।।

शहदीले  लब  देखे  तो
पागल बनें हमारे  होठ ।।

'शुभम'  छलकते प्याले - से,
छल-छल रिसें हमारे होठ।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता
💑  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मिलन [छंद: दोहा , चौपाई]

 ||दोहा ||

चकवी  से  पूछो  सखे!
विरह मिलन  की बात।
बिना  मिलन कैसे  कटे,
तेरी      सारी      रात।।

 ||चौपाई ||

मिलन विरह की रीति बनाई।
बाद निदाघ  सु पावस आई।।

मिलन विस्मरण विरहजगाता
मिलते उर उस ओर भगाता।।

युग- सा लगे  विरह  पल भर का।
युग का मिलन सूक्ष्म लघु कण सा।।

विरह - मिलन  का खेल पसारा
विरही   का   संसार  असारा।।

|| दोहा ||

अश्रु विरह के अनल सम,
दाहक   देह   जलाय।
मिलन - अश्रु  बौछार  से,
पावस  में झरि जाय।

|| चौपाई  ||

तपन विरह की जब से लागी।
मिलन कामना   उर अनुरागी।।

जीवन   का  आधार  मिलन है।
बिना मिलन अति शूल चुभन है।।

मिलते युगल अधर जब प्यासे।
बनता  चुम्बन  रुकें न साँसें।।

समय   ठहर  जाता  है ऐसे।
रुक जातीं   दो सुइयाँ  जैसे।।

|| दोहा ||

सुध -बुध तन की क्यों रहे,
एक प्राण दो देह।
ऐसा मिलन सराहिये,
लेश नहीं सन्देह।।

||चौपाई||

सागर  से  मिल जाती सरिता।
कवि की बन जाती है कविता।।

खग चकोर  शाखा पर होता।
रात -रात भर क्या वह सोता?

किरणें    चुगता   चारु चाँद की।
मात्र   चाहना  रश्मि - स्वाद की।

मोर   नाचता  निपट  अकेला।
प्रिया   मोरनी  मिलन दुकेला।।

||दोहा||

पशु -  पंक्षी नर  - नारि सब,
जल थल नभचर जीव।
मिलन हेतु तज लाज दें,
भंग  करें  हर   सींव।।

||चौपाई||

हुआ  अँधेरा चाँद चमकता।
भुजपाशों में बाँध उमगता।।

सलज  चाँदनी  फैल रही  है।
मौन     बनी  संयोग यही  है।।

अम्बर   अवनी से आ मिलता।
रिमझिम से हर तृण तृण खिलता।

बादल गरज -गरज कर छाता।
मिलन धरा को बहुत सुहाता।।

||दोहा||

प्रेयसि प्रियतम का मिलन,
 प्रकृति दत्त उपहार।
सृष्टि सृजन का हेत है,
विकसित यह संसार।।

||चौपाई||

विरहिन   प्यासी   करे प्रतीक्षा।
कब आएँ पिय शमन तितीक्षा।।

आता जब मनभावन सावन।
होता मिलन प्रिया से पावन।।

रातें   जब  सुहाग  की आतीं।
तन -मन की इच्छा पुर जातीं।

अपनी  - अपनी सबकी शैली।
क्रीड़ा    वही प्रेम सँग खेली।।

जड़ -   चेतन  संसार में,
विरह -मिलन का योग।
एक -एक के योग से,
'शुभम '  सृजन संयोग।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
💞 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'


शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

हम नहीं सुधरेंगे [व्यंग्य]

   आख़िर तो हम इंसान ही हैं न ! तो हम क्यों सुधरें? हम कोई देवता देवी तो हैं नहीं ! जो सुधरें। क्या देवी - देवता पूरी तरह सुधरे हुए हैं? जो हम ही सुधर जाएँ। क्या बड़े -बड़े ऋषि मुनि आचार्य साधु संत सुधरे हुए हैं ? सारे देश और समाज का ठेका लेने वाले ही बिना सुधरे जीवन यापन कर रहे हैं , तो फिर हम आदमियों से ही क्यों कहा जाता है कि हम सुधर जाएँ। हमसे पूर्ण अपेक्षा है कि हम हर हालत में सुधरे हुए रहें।
   यदि एक ओर से सबकी पूंछ उठाकर देखा जाए तो तो फिर वही कहावत हमारी आँखों के सामने चरितार्थ होती हुई नज़र आती है कि जिसकी भी दुम उठाई, मादा निकला। कहीं कोई दूध का धुला हुआ दिखाई नहीं देता।पुलिस , प्रशासन, नेता , अधिकारी :सब अपनी -अपनी ड्रेस के नीचे उस पूंछ को भी छिपाए फिर रहे हैं कि कोई उनकी पूंछ ही न देख ले।तो पूंछ भला कैसे उठ पाएगी? इस देश के वासियों के खून में कुछ ऐसे स्थाई डी एन ए रसे -बसे हैं कि जिनको निकाल कर यदि बाहर कर दिया जाय , (जो एक असम्भव कल्पना मात्र है, जैसे चील के घोसलें में माँस एक दुर्लभ वस्तु है , ठीक उसी तरह यहाँ के आदमी में चरित्र और नैतिकता भी चील का माँस ही है।) तो वह आदमी रह ही नहीं जाएगा। वह दिव्य लोक का दुर्लभ प्राणी बन जाएगा। देवता तो मैं इसलिए नहीं कह सकता , क्योंकि इंद्र जैसे महान, जो देवताओं के भी राजा हैं , अहल्या जैसी देवी को भी छूकर अपने देवत्व को कामवासना के रंग में रङ्ग लिया, तो फिर किससे क्या उम्मीद करें?ऋषि विश्वामित्र को भी जब एक अप्सरा अपने आलिंगन पाश में आबद्ध कर सकती है ,तो आम आदमी की तो कोई गिनती ही नहीं। सुअर , गधे, कुत्ते , बिल्ली के चरित्र से यदि मानव -चरित्र को तोला जाय तो भी ये पशु कहलाये जाने वाले पशुता में आदमी से हल्के पड़ जाएंगे।
   चरित्र केवल काम वासना तक ही सीमित नहीं है। जब आदमी सबसे अधिक बुद्धिमान है , तो उसका चरित्र भी अधिक व्यापक होगा। चोरी, डकैती, ग़बन, अपहरण, भ्रष्ट आचरण, रिश्वत , राहजनी, हत्या, कामचोरी, मिलावट, शिक्षा माफ़िया द्वारा अभिभावकों औऱ विद्यार्थियों का शोषण, अधिकारियों द्वारा अपने अधीनस्थों के प्रति दुर्व्यवहार, राजनेताओ द्वारा जनता का शोषण, ठेकेदारों द्वारा 100 में 60 % हज़म करने औऱ अधिकारियों के बन्दर बाँट की नियति,हलवाइयों द्वारा नकली दूध , घी , खोए की खोज करके विष का व्यापार, किसानों द्वारा जहर की सुइयाँ लगाकर ज़हरीला दूध और सब्जियां बेचना आदि हजारों मानवीय खोजें हो चुकी हैं , जो आदमी को आदमी कहने के लिए ज़ुबान पर रोक लगा देती हैं। यह आदमी के कपड़े पहने हुए चिकना चुपड़ा हाड़ -माँस का द्वि टाँगी रूप आदमी की परिभाषा से बाहर हो चुका है। आदमी पर कलियुग पूरी तरह कब्जा किए बैठा है। यह सब उसकी बुद्धि का ही नतीजा है। हर चीज की तरह इस बुद्धि के भी दो रूप हैं: एक सद्बुद्धि और दूसरी दुर्बुद्धि। इस समय जो बुध्दि- दौर चल रहा है , उसमें सदबुद्धि औऱ दुर्बुद्धि में 05:95 का अनुपात ही शेष मिलेगा । अब यह 5%भी दिन में हाथ में सूरज की टॉर्च लेकर ही ढूँढनी पड़ेगी। वरना एकछत्र राज्य दुर्बुद्धि का ही है। 'मैं न कहूँ तेरी , तू न कह मेरी ' का अटल सिद्धान्त हर क्षेत्र औऱ विभागों में छाया हुआ है। तभी तो नकली डिग्रीधारी मास्टर नई पीढ़ी को ठिकाने लगाने का काम कर अपना उद्धार कर रहे हैं। डिग्री देने वाले , नम्बर बढ़ाने वाले , डिग्री लेने वाले ने अपना काम कर लिया। अब ये निकले ज्ञान बाँटने, जिन्हें पूरी वर्णमाला भी नहीं आती।
   कहाँ -कहाँ टॉर्च मारोगे? ज़्यादा टॉर्च मरोगे तो कहेंगे टॉर्चर करता है। फिर वही बात 'जिसकी भी दुम उठाई'.... इसलिए ऐसे ही रहने दीजिए। आख़िर ये पूंछ कभी तो उठेगी .... ऐसे नहीं तो वैसे उठेगी। पर उठेगी जरूर।

💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक©
🎯 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'

मैं पुस्तक कहलाती [बालगीत]

अपनी  सारी  कथा  सुनाती।
कहती 'मैं पुस्तक कहलाती।।'

'मेरे  अन्दर    गीत    कहानी।
मेढक मछली   नाना  नानी।।
रंग - बिरंगे   चित्र    सजे  हैं।
देखो   उनको   बड़े  मजे हैं।।'
सपनों   में  मेरे    आ  जाती।
कहती 'मैं पुस्तक....

 गिनती   और पहाड़े  मुझमें।
जोड़  घटाना  मेरे    वश  में।।
गुणाभाग दशमलव सिखाती।
प्रतिशत ब्याज मुझे बतलाती।
सोते  -  सोते    मुझे  जगाती।
कहती मैं पुस्तक ....

चाँद सूर्य का  ज्ञान जान लो।
इसको तुम भूगोल मान लो।।
वृक्ष  और  बेलों  का   ज्ञान।
सभी तरह का  भी विज्ञान।।
हम क्या थे यह भी बतलाती।
कहती मैं पुस्तक....

ये   देखो  यह  कला तुम्हारी।
फ़ूल बनाओ भर भर क्यारी।।
चूहा बिल्ली   रीछ   बनाओ।
रंग भरो माँ को दिखलाओ।।
सीख मुझेअच्छी सिखलाती।
कहती मैं पुस्तक....

पुस्तक    का सम्मान करो तुम।
पढ़ने से मत कभी डरो तुम।।
जो    करते   मेरा     सम्मान।
वे    बच्चे    बनते    विद्वान।।
बार -बार मुझको समझाती।
कहती मैं पुस्तक ....

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

फ़ुहार [अतुकान्तिका]

पावस है,
नहिं थ्यावस है,
पावस में 
शुभ सावन है,
सावन अति
मनभावन है,
सावन में नित
रिमझिम है,
रिमझिम में है
झर - झर फ़ुहार।

करती कामिनी
पिया गुहार,
आग लगाती देह
गेह में
बुँदियाँ सजी फ़ुहार।
बैठी खिड़की
खोल द्वार,
बहुत सताए
मारक मार,
बुँदियाँ झरतीं
विरल फ़ुहार।

तन की मन की
एक    पुकार,
सकी न तन -मन
पल भर 
तनिक सँभार,
नहीं मानता
मन भी हार,
खोले बैठी
बंद किवार,
बाहर झरतीं
मंद फ़ुहार।

अंकुर हरे -हरे
हरिआये,
कलियों में 
सुगंध भर लाये,
खिले फ़ूल
बगिया महकाए,
मन की मन ही
रह -रह  जाये,
झोंटे  झूले के
इतराए,
भीगे चोली चुनरी
हाए !! 
रुकती नहीं फ़ुहार।

लुएँ न भाएँ,
शीत हवाएँ,
रेत झकोरे,
सावन आ रे!
जल बरसा रे!!
उमड़ -घुमड़
बादल आ जा रे!
छन -छन बरसें,
तन -मन हरसें ,
नन्हीं -नन्हीं
ठंडी पावन
बरसो मेघा
सजल फ़ुहार।

यही है 
नर -नारी की
जल थलचर की
जड़ -चेतन की,
अंतर प्रकट गुहार,
झरे सावन में
शीतल सुघर फ़ुहार।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मैं लेखनी हूँ [अतुकान्तिका]

मैं लेखनी हूँ,
मेरा न कोई धर्म,
लिखे मैंने 
महाभारत रामायण,
गीता पुराण,
बाइबिल कुरआन,
निष्पक्ष करती कर्म,
यही है एक
अविचल धर्म।

जो भी लिखो
जैसा लिखो
जितना लिखो
न मुझको शर्म,
निडर निष्पक्ष
लिखती अक्षर स्वच्छ,
मात्र लिखना कर्म
कहो सत्कर्म,
यही है मेरा
पावन धर्म।

वेद और वेदांग
अमर इतिहास
उपनिषद ज्योतिष
साहित्य विशद विज्ञान,
शस्त्र -शास्त्रों से इतर
मम  ज्ञान,
अनवरत  यात्रा
आदि से आज तक।

सबके लिए स्वीकार,
सभी का प्यार,
न थकी
न मानी है
कभी भी हार,
बुद्धजीवी का
सशक्त हथियार,
तोप बंदूक से भी उच्च
मेरा हर वार,
कवि लेखकों की प्राण,
नवरसों की 
बहाती गंगाधार,
अमर उपहार,
करती निरन्तर
मानवों के विशद उपकार।

चूमने के योग्य
होती मैं कभी
बहाती धार
अमृत काव्य की,
आलेख की।

जजों को 
मुझ लेखनी को
तोड़ देने का 
मिला अधिकार,
किसी की प्राण हन्त्री
किसी की मुक्ति
मुझसे लिखी जाती।

बालपन से 
आज तक
मैं मित्र तेरी,
विद्यार्थी की भी
चिर चहेती
पा रही सम्मान
बीते काल कितने
वक़्त के झेले थपेड़े
रूप कितने
बदलते मेरे,
पर कर्म में
नहीं बदलाव कोई।

न हिन्दू हूँ
 न  मुसलमा मैं,
न ईसाई 
न पारसी ही मैं,
सबका मिला है मान,
मानवों की शान,
लेख कविता 
साहित्य विज्ञान
सभी  की जान,
 'शुभम' मैं लेखनी हूँ।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

प्रेम [दोहा, चौपाई ]

प्रेम   सहित   वंदन  करूँ,
प्रेम -  देव    का     आज।
जीव -जगत  में   प्रेम  ही,
जीवन    का     सरताज।।

हम   तुम    बनते  प्रेम  से,
होता       सृष्टि  -  विधान।
ज्यों  पय में घृत  बस रहा,
उर    में   प्रभु  -  संधान।।

वेद ऋचा  सम पावनताई।
प्रेमगीत  बन ऋषिवर गाई।।

परस पुष्पवत महक सुहाई।
चुभन शूल की प्रेम समाई।।

आग  जले विरहिन के उर में।
 स्वांत बूँद सा उर-अम्बर में।।

आपस   का   विश्वास प्रेम है।
जिसका अपना सहज नेम है।

गंगा   की  पावन  जलधारा।
प्रेम सरित का युगल किनारा।

प्रेम विरहगत   रिमझिम सावन।
विरहिन के आँसू -सा पावन।

धूप रूप की खिल  पाती है।
बूँद प्रेम जब मिल जाती है।।

यहाँ   वहाँ  हर  ओर  प्रेम है।
जहाँ  प्रेम सब कुशलक्षेम है।।

गीतों    के    हर    बंध    में,
पावन        प्रेम      प्रकाश।
जहाँ     अँधेरा    जगत   में ,
वांछित      प्रेम  -  उजास।।

बिना    प्रेम    रूठे    तिया,
उसे  पिया     की      आश।
बिना  प्रेम       कुल   टूटते,
दिखे     नाश   ही   नाश।।

ईश्वर   से     सदभक्ति का,
नाम     प्रेम      सद्भभाव।
नाम  जपें      वंदन    करें,
सिमटें    सकल   अभाव।।

फूल  प्रेम  के   जब  खिलें,
नए    सृजन   का      हेत।
जब  पराग  के   राग  कण,
मिलें  फले    हर     खेत।।

दादुर करते निशिभर टर- टर।
प्रेमाधीन  बुलाते       दादुर।।

प्रेमऋतु     पावस    पुरवाई।
विरहिन के उर  आस जगाई।

खग पशु   प्रेम  बँधे नरनारी।
बिना    प्रेमजल  सूखे बारी।।

सरिता कलकल निशिदिन बहती।
सिंधु पिया से मिलकर रहती।

यद्यपि   है  सागर जल खारी।
प्रेम -विवश  सरिता  बेचारी।।

दीप ज्वाल पर बलि परवाना।
प्रेम तत्त्व बस  उसने  जाना।।

अम्बर को धरती अतिप्यारी।
बादल बरसा   गई  खुमारी।।

फ़ूल फ़ूल  को  चूम रहा है।
प्रेम विवश ही झूम रहा है।

वे  सब    सन्यासी      हुए,
त्याग  लोक   के       प्रेम।
ईश्वर से   जब   लौ   लगी,
बदले      केवल      नेम।।

प्रेम  बिना  सब  शून्य है,
प्रेम   रहित   सब   पाप।
'शुभम'प्रेमरत   जो   रहे,
मिलते    उसको  आप।।

💐 शुभमस्तु! 
✍रचयिता ©
📕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

सुमंगलम

  प्रभु  सबका मंगल करें,
सबका     हो   कल्याण।
जन जन हर्षितहो सहज,
सबका   ही   हो   त्राण।।

सभी   रहें   नीरोग  जन,
करें    परस्पर         नेह।
पढ़ें -लिखें शिक्षित बनें,
हो      ख़ुशहाली    गेह।।

प्रेम  नेम    की बेल नित ,
बढ़ती     रहे      अबाध।
बैर भाव  मिट जाय सब,
पूरी  हों     सब     साध।।

देश प्रगति- पथ पर चले,
बढ़े     ज्ञान       विज्ञान।
ललितकला साहित्य का,
बढ़े    विश्व     गुणगान।।

नारी  का    सम्मान  हो,
बुद्धिमान    सब   बाल।
दे सुबुद्धि प्रभु जन जनी,
होवे     देश     निहाल ।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता©
🎀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

वर्षा आई खुशियाँ लाई [ वर्षा गीत ]

घोर  घटा  अम्बर में छाई।
वर्षा  आई  खुशियाँ लाई।।

बादल    गरजे   नाचे  मोर।
टर - टर  करते दादुर शोर।।
भीगी - भीगी  शीतल भोर।
बिजली चमके  तड़पे जोर।।
हवा चली   ठंडी  सुखदाई।
वर्षा आई ....

आम्र -बाग़ में सखियाँ झूलें।
पेंग बढ़ा अम्बर   को  छूलें।।
पानी  में   बन   रहे    बबूले।
नाव  चलाना    कैसे   भूलें!!
कागज़ निर्मित नाव चलाई।
वर्षा आई ....

ज्यों ज्यों गिरता नभ से पानी।
सुलगे विरहिन भरी जवानी।।
साजन की जब याद  सताए।
मन मसोस रह-रह पछताए।।
आँसू   गिरते    नहीं   सहाई।
वर्षा आई ....

कर   सोलह  शृंगार  नवेली।
पिया न घर में नारि अकेली।।
ज्यों स्वाती को चातक तरसे।
बंद सीप में क्यों जल बरसे??
बहुत   सताए    ये  तनहाई।
वर्षा आई ...

कजरी गीत  मल्हारें  गातीं।
महुआ आम जामुनें खातीं।।
पनघट  बगिया राह अटारी।
बतरस की बहती नित धारी।।
 साड़ी चोली   ख़ूब भिगाई।
वर्षा आई....

पावस की सब करें प्रतीक्षा।
नहीं शीत   गर्मी की इच्छा।।
अम्बर में जब  छाते बादल।
मानव उर में होती हलचल।।
सिंधु मिलन को सरिता धाई।
वर्षा आई ....

प्यास   बुझी  धरती की सारी।
हरी  शाटिका  तन पर  धारी।।
अंकुर    नए    उगे   हैं   सुंदर।
वरुण  देवता खुश   हैं  इंदर।।
वृक्ष   लताएँ   भी   मुस्काई।।
वर्षा आई ....

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

दादुर [चौपाई]

सावन  मास चली   पुरवाई।
झर झर   करती वर्षा आई।।

भरे  जलाशय  ताल तलैया।
बालक   नाचें  ता ता थैया।।

टर्र -  टर्र   करते   हैं  दादुर।
हैं  प्रतियोगी  बने   बहादुर।।

बुला रहा   दादुरी   तिया को।
त्याग रात की सुख निंदिया को।

शरमाती     दादुरी    कुमारी।
आख़िर वह भी तो है नारी।।

'जोर -जोर से क्यों  चिल्लाते!
इतनी जल्दी तुम अकुलाते??

'आती  हूँ   प्रिय   दादुर  मेरे।
कौन   सहारा  है  बिन  तेरे!!

'लो  मैं  आई  चुप हो जाओ।
सोने दो भी तुम सो जाओ।।

'लोग कहेंगे क्या -क्या हमसे।
ख़लल नींद में करते कब से?

'टर्र-टर्र क्या  लगा  रखी है!
क्या दादुर ने भाँग चखी है ?'

'छू तो लिया ': दादुरी बोली।
धीरे -  धीरे  हुई    ठठोली।।

'अब तुम टर्र-टर्र मत करना।'
'नहीं दादुरी मत तुम डरना।।'

'एक साल    में  आती वर्षा।
बरसे   बादल दादुर  हरसा।।

'अपना   हम  परिवार बढ़ाते।
हम क्या सितम किसी पर ढाते?

'टर्र- टर्र  कर   खुशी  मनाते।
तुम्हें    बुलाने    टेर  लगाते।।

'जब तक बढ़ता वंश  हमारा।
टर्राने  का   हक   है   सारा।।

'हम   कोई    इंसान  नहीं हैं।
जिनके  कोई  नियम नहीं हैं।।

'बारहमासी   प्रजनन  करते।
नहीं प्रकृति से मानव  डरते।।

'हमें न   उनसे   कोई  बाधा।
वर्षा  आई   हक भी साधा।।

'हम क़ुदरत के नियम पालते।
नहीं किसी के हृदय  सालते।।

'दादुर का  सिद्धान्त 'शुभम' है।
मानव से हम कभी न कम हैं।

'टर्र -  टर्र  की योनि  हमारी।
मेरी  ख़ुशी  इसी  में प्यारी।।'

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🐸 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

नथ का मोती [कुण्डलिया]

नारी    पहने    नाक  में,
नथ    नथनी   कहलाय।
वामा के सँग   नाथ  भी,
नथनी   से   नथ  जाय।।
नथनी    से   नथ   जाय,
चाँद   का  बना  चकोरी।
देख   दृष्टि    थम   जाय,
निहारे     चोरी  - चोरी।।
पति   सौभाग्य   प्रतीक,
नयन  में   भरी  खुमारी।
शुभ   सुहाग  की    रात,
न  बोले मुख  से नारी।।1।

मोती   नथ     में  सोहता,
आभा      गौर    कपोल।
हँस -हँस बोले  सजन से,
मोती     करे    किलोल।।
मोती     करे     किलोल,
सलज सकुचाती  बाला।
बिना   नशे    का   नशा,
न  पी  है   उसने  हाला।।
'शुभम'प्रकृति का सृजन,
गेह   की   नारी   जोती।
मानो      सिरजा    संग-
देह के नथ का मोती।।2।

बिंदी   लसे    ललाट  पर,
कुंडल     सजते      कान।
नाक -  वास   नथनी  करे,
अरुण   अधर     मुस्कान।।
अरुण   अधर      मुस्कान,
चिबुक पर तिल भी काला।
दाड़िम      सजे     सुरम्य,
गाल   का  रूप   निराला।।
'शुभम'     सरल   सानन्द,
बोलती     भाषा    हिन्दी।
नारी       रत्न      महान,
लाल माथे  की  बिंदी।।3।

 बतरस   अपने   आप में,
स्रोत     सुखद    आनन्द।
तन - मन हरसे  आप ही,
बंध    रहित     स्वच्छन्द।।
बंध    रहित      स्वच्छन्द,
तनाव  न  आते   मन  में।
खुलते     सारे         फंद,
चले    जाओ  घन वन में।।
'शुभम'   कपट   छल  दूर,
सभी कुछ मानव के वश।
जीवन        है     आनन्द ,
अगर तुम करलो बतरस।।4।

तन  -  मन  के  शृंगार   हैं,
वाणी    के     मधु    बोल।
माँस   विनिर्मित  जीभ से,
विष  में      अमृत    घोल।।
विष  में       अमृत    घोल,
सभी  के   मन को  जीतो।
सबका       हो     कल्याण ,
सभी  का    अच्छा  चीतो।।
'शुभम ' अमर      हैं  वचन,
धरा      अम्बर     तारागन।
नश्वर       देह        विशाल,
अमर तव होगा तन मन।।5।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
💞 डॉ. भगवत  स्वरूप 'शुभम'

यौवन [दोहा]

यौवन  पुष्प  -  पराग  है,
रूप    रंग     रस    राग।
फ़ूल   खिलाता   नेह  के,
अपना - अपना  भाग।।1।

उफ़न - उफ़न सरिता बहे,
यौवन   की   दिन -  रात।
ज्यों  पावस की सरि चढ़े,
जब  आए    बरसात।।2।

तोड़    कगारें   बह  चली,
यौवन   -  सरि     बेहाल।
खेत   बाग़   वन    डूबते,
हरी फ़सल का काल।।3।

यौवन  खिलता  फ़ूल है,
झड़ना   भी   अनिवार्य।
रूप   रंग   मरते   सभी,
फ़ल ही  अच्छा  कार्य।।4।

मत    गुमान  में   भूलना,
यौवन     पीला       पात।
इक दिन झर गिर जायगा,
दिखे   अँधेरी     रात।।5।

शक्ति मिली तब बुद्धि कम,
जीवन       का    सिद्धांत।
यौवन     चुकता     वृद्धता,
करती   जीवन  -  अंत।।6।

अनुभव   पाया  ज्ञान का,
नहीं     इन्द्रियाँ      साथ।
गत   यौवन  वार्धक्य  में,
 निर्बल   दोनों  हाथ।।7।

बालापन    में      खेलता,
यौवन      में     रस - रंग।
चार   दिनों   की   चाँदनी,
देख   रह  गया   दंग।।8।

कलियाँ  फूटीं अंग - अँग,
महके       फ़ूल    हज़ार।
बौराया    यौवन     मधुर,
छाने     लगी   बहार।।9।

यौवन  में  साजन  बिना ,
नहीं    महकते      फ़ूल।
बाढ़  नदी   की  तोड़ती,
सुदृढ़  कगारें  कूल।।10।

अंगों      में    अँगड़ाइयाँ,
मन    में    उठे     हिलोर।
सावन  में   कामिनि कहे,
मत  तड़पाओ   और।।11।

आनन  से   आहें  निकल ,
करें    पिया     की  चाह।
यौवन -  घाटी  में   उतर,
नाप नेह - रस  थाह।।12।

क्षण - क्षण यौवन बीतता,
रीता     तन - घट    मोर।
चातक  चाहे  स्वांत-जल,
पिय  की उठे हिलोर।।13।

यौवन  पर    पहरा  नहीं ,
बिना नयन  बिन   कान।
उसे   प्रेमरस      चाहिए,
नहीं  वेद का ज्ञान।।14।

प्यासी    धरती    माँगती,
झमझम     बरसे     मेह।
यौवन अँखुआये 'शुभम',
मिले  देह  को  नेह।।15।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'

नकचढ़ी नथुनिया [दोहे]

तिय   ललाट  बिंदी लसे,
 नथनी    सजती   नाक।
आभा  बढ़ती   सौ  गुनी,
कहत 'शुभम'सकुचात।।1।

 नथनी   तेरी   नाक  पर,
फैलाती      नव    जोत।
दृष्टि पड़े जब सजन की,
खुलें प्रणय -रस स्रोत।।2।

वाम   नासिका   छिद्र पर,
नथनी     करे      धमाल।
मेरे   हिय      लहरें    उठें,
पल   में   देती    साल।।3।

साजन    तेरे    नेह    की,
नासा -   नथ      पहचान।
तू     मेरा      सौभाग्य   है,
आन  मान औ'  शान।।4।

नासा - नथ  बड़भागिनी,
चूमे      अधर     कपोल।
चुप - चुप  रस  लेती रहे,
अरुण  लाज में घोल।।5।

अधरामृत    के  पान  को,
बढ़े   युगल     नम   होठ।
राह   रोक    आगे   खड़ी,
ढीठ  नथुनिया    ओट।।6।।

नासा - नथ  की   लाज है,
नाथ   पिया    के     हाथ।
आजीवन तिय   संग   रह,
'शुभम' निभाए  साथ।।7।।

नथ  नारी -   सौभाग्य   है,
सुंदर     'शुभम'    प्रतीक।
अंतर्मुखता     वृद्धि    कर,
घटे अहम  तिय  लीक।।8।

नस  गर्भाशय - नाक  की,
आपस     में        संयुक्त।
नथ  दोनों  को    जोड़ती,
प्रसव   वेदना -  मुक्त।।9।

नारी      पावनता     बढ़े,
प्रबल  तेज    में     वृद्धि ।
नथ  से निर्मित हो वलय,
चेतनता  की सिद्धि।।10।

चंद्रा    नाड़ी       कार्यरत-
हो  जब    लो नथ   धारि।
नासा  परित:    वायु   को,
करती शुद्ध सुधारि।।11।


शक्ति -  तरंगें    ईश   की,
ग्रहण   करे    तिय - देह।
सहज  चेतना -शक्ति को,
नासा - नथ  का नेह।।12।

नारि -   सुरक्षा  नित  करे,
नासा  -  नथ     दिनरात।
काली - शक्ति प्रभाव का,
करे  न्यून हर  घात।।13।

गोल  नथनिया   नकचढ़ी,
क्यों     इतनी      इतराय।
निशि पायल रुनझुन बजे,
अधरनु  ही  शरमाय।।14।

माँ  गौरी    के मान   हित,
पहने     नथनी       नारि।
गृहपति   की   रक्षा   करे,
पहनें 'शुभम' सँभारि।।15।

💐 शुभमस्तु!
✍  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 22 जुलाई 2019

मैं प्याला [बाल गीत]

चीनी   मिट्टी  का मैं प्याला।
चिकना सुंदर रूप निराला।।

गर्म  चाय मैं रोज  पिलाता।
नहीं होठ मैं कभी जलाता।।
गर्म दूध   कॉफी  भी  पीना।
चैन तुम्हारा कभी न छीना।।
सुंदर   साँचे   में   मैं  ढाला।
चीनी  मिट्टी का ....

केओलिन   कहलाती मिट्टी।
जिससे   होती  मेरी   सृष्टी।।
चीनी मृदा का असली नाम।
सारी दुनिया   करे  सलाम।।
मैं  मजबूत  टिकाऊ  वाला।
चीनी मिट्टी का ....

केओलिन का जनक चीन है।
बने क्रोकरी  नित  नवीन है।।
भारत में   दिल्ली  या केरल।
कुंडारा बिहार हिल बेंगोल।।
पथरगटा राजस्थान निकाला।
चीनी मिट्टी ....

भंगुर हूँ  सँभाल के  रखना।
गर्म ताप से नहीं पिघलना।।
तरह - तरह  के रंग रूप में।
घर -घर में बदले स्वरूप में।।
रंग -बिरंगा   पीला   काला।
चीनी मिट्टी ....

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🥣 डॉ. भगवत  स्वरूप 'शुभम'

विरहिन [विधा:सायली]

मटकी
मटक - मटक
सिर   पर     धर
पनघट  चली
घरनी।

रात
अँधेरी काली
कुंडी  खटका  रही
मिलन हित
प्रीतम।

 पायल
 बजी छमाछम
सास   जग   पड़ी
कैसे होगा
मिलन।

बोले
पिउ -पिउ
पपीहा  सावन मास
जलाए जियरा
बैरी।

कोयल
काला  कूके
कुंज  लता   द्रुम
याद  सताए
साजन।

सावन
बरसे सरसे
मन वृंदावन पावन
श्याम
न आए।

टपकी
स्वाती बूँद
सीप  मुख  खोले
सृजित मोती
होता।

चातक
प्यासा - प्यासा
स्वाति   बिंदु  कण
तृप्त हुआ
तन।

सावन
आया मनभाया
विरहिन निरत प्रतीक्षा
पिया  आएँगे
कब ?

बीती
लम्बी  अवधि
न  पावस  आया
अपना क्या
वश?

💐 शुभमस्तु!
✍रचियता ©
🦜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शनिवार, 20 जुलाई 2019

तुलसी इक्कीसी [दोहा]

तुलसी    बिरवा   रोपिये,
जो   चाहो  सुख - शांति।
औषधीय  गुण खान यह,
तनिक   नहीं  है भ्रांति।।1।

सर्दी     और   ज़ुकाम  में,
खाँसी     में       उपयोग।
श्वास  - रोग  तुलसी   हरे,
करे      देह      नीरोग।।2।

पूजनीय     तुलसी   सदा,
बिरवा       रोपो       गेह।
वायु  शुद्ध   घर   की करे,
बढ़े      परस्पर     नेह।।3।

तुलसी  माला  कर   गहो,
फेरो         सुबहो - शाम।
ग्रीवा   में    धारण  करो,
शांति मिले उर  धाम।।4।

श्वसन-क्रिया को खोलता,
वाणी      का     अवरोध।
अंत  समय  रस    डालते-
तुलसी  नहीं   विरोध।।5।।

वात   रोग   मूर्छा   वमन ,
कफ   की   औषधि मित्र।
वन तुलसी  हरती  जलन,
औषधि एक  विचित्र।।6।

पथरी में अति  लाभकर,
मूत्र    निस्सारक   होय।
सुख से प्रसव करा सके-
तुलसी सुख से सोय।।7।

यूगेनल   थयमोल   सम,
उड़नशील    बहु    तेल।
वन तुलसी   के घटक हैं,
देते     शांति   सुमेल।।8।


श्यामा  तुलसी  ज्वर हरे,
करे   दूर    पित     रोग।
रक्तदोष  कफ़  कोढ़ भी,
नहीं  करें  तन -भोग।।9।

मलेरिया   क्षयरोग    के,
मरते    सब      कीटाणु।
तुलसी की  सद्गन्ध  ही,
हरती  हर रोगाणु।।10।

हिचकी पसली -दाह में,
तुलसी    का   उपयोग।
नेत्रज्योति   में  वृद्धि  दे,
हरे  पित्त के रोग।।11।

  काया    में   थिरता  भरे,
'कायस्था'  है      नाम।
  तुलसी   तीव्र  प्रभावमय,
' तीव्रा' नाम सुनाम।12।

देवगुणों      का    वास  है,
'देव दुंदुभी'         नाम।
दैत्य   -    रोग     संहारती,
'दैत्यघि' 'शुभम' सुनाम।13।

मन     वाणी  औ'  कर्म से,
करती      सदा       पवित्र।
नाम  'पावनी' है शुभम,
'सरला ' भी यह मित्र।।14

 नारी     के    यौनांग   को ,
करती         निर्मल     पुष्ट।
'सुभगा' तुलसी  नाम है,
   है घर - घर  की इष्ट।।15।

निज    लालारस   से   करे,
सारी      ग्रंथि         सचेत।
'सुरसा' कहलाती शुभम,
तुलसी   मानव  हेत।।16।

देह     गेह    पल्लव    करें ,
पावन      जहाँ      निवास।
'पूतपत्री' भी    नाम   है,
तुलसी 'शुभम ' सुवास।।17।

तुलसी  सेवन   जब   करें,
दूध  न       लेना      पान।
चर्म  - रोग    गर्मी     बढ़े,
बात 'शुभम ' की मान।।18।

तुलसी-दल शिवलिंग पर,
नहीं       चढ़ाना     मीत।
ग्रंथों    में   ऐसा    लिखा ,
यही   पुरानी   रीत।।19।

तुलसी  शोभा    गेह  की,
पावन      करती      देह।
सद सुगंध   व्यापित करे,
बढ़े  शांति  उर  गेह।।20।

तुलसी      पौधा    रोपिये,
पावन     दिन      गुरुवार।
विष्णु  -प्रिया   कहते  इसे,
कार्तिक'शुभम'विचार।।21।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

जल -चेतना [विधा:सायली]

पनघट
सूने -  सूने
क्या करती पनिहारिन
कूप  सूखते
सारे।

 भीड़
बढ़  गई
नल  पर भारी
क्या  करती
बेचारी।

दोहन
जल  का
बहा  रहा  तू
वृथा  क्यों
पानी।

लम्बी
लगी कतारें
डिब्बे बर्तन लेकर
नर  - नारी
आए।

समझें
 नीर महत्ता
प्यासा पत्ता -पत्ता
जल - संकट
भीषण।

सुधरो
हे  मानव!
जल -  चेतना  न
आई  तुझको
तरसेगा।

सावन
सूखे - सूखे
बिन पानी  सब
प्यासी - भूखी
जनता।

गौरैया
निज नीड़
न  बरसा  पानी
प्यासी -प्यासी
मरती।

सरसी
सर सारे
बिना सलिल सब
लीन प्रतीक्षा
हारे।

आँख
दिखाए बादल
डाँटें गरज -गरज
बिजली तड़पाए
गुस्साए।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
💦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सायली की सायली [विधा : सायली]

'सायली'
नई विधा
काव्य की लोकप्रिय
विशाल  इंगले
जनक।

शब्द
दो शब्द
तीसरी में तीन
पुनः दो
शब्द।

मात्र
नौ शब्द
शब्द आधारित विधा
काव्य की
मराठी।

पँक्तियाँ
मात्र पाँच
कुल शब्द नौ
अद्भुत विधा
'सायली'।

पंक्क्ति
प्रत्येक पूर्ण
हाइकु की तरह
वाक्य तोड़
मत।

पढ़िए
ऊपर से
नीचे की ओर
अथवा विपरीत
क्रम।

बनाइए
हिंदी समृद्ध
'सायली' लिखें 'शुभम'
प्रयोग नवीन
कीजिए।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

आदर्शों की सुगंध [व्यंग्य]

   आदर्शों की मात्र सुगंध लेना हम चाहते हैं नाक भर। अपनाने की बात होती है बस ढाक के तीन पात भर।साधुओं से लेकर संसद तक, स्कूल से लेकर कॉलेज तक, घर से लेकर बाहर तक, कथावाचकों से लेकर उपदेशकों तक, देश से लेकर विदेशों तक :सर्वत्र एक ही ध्वनि सुनाई पड़ती है-आदर्श, आदर्श और आदर्श। ऐसा करो , ऐसा करना चाहिए। ऐसे रहो , ऐसे रहना चाहिए। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कौन करे? पहले कहने वाले ही करके दिखायें न! -व्यक्ति देख सुनकर , जितना सीखता है, उतना किसी के कहने या उपदेश देने से नहीं सीखता! यह एक ऐसा कटु सत्य है , जिसके विषय में श्री तुलसीदास जी को भी लिखना पड़ा :
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। 
जे आचरहिं ते नर न घनेरे। 
   जितना आसान किसी को यह कहना है कि ऐसा करो, उतना आसान स्वयँ अपने द्वारा किया जाना नहीं है। तभी तो कहा गया है:
कथनी मीठी खांड सी, 
करनी विष की लोय। 
कथनी तजि करनी करे, 
विष ते अमृत होय।।
   लेकिन इस बात की कहीं कोई परवाह नहीं करता कि कि हम कितना करते हैं! जब हम स्वयं नहीं करते तो हमारे कहने का सामने वाले पर क्या असर पड़ सकता है? लेकिन हम हैं कि कहकर अपनी जीभ की खुजली भर मिटा लेते हैं, औऱ कहने के लिए कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री ही कर लेते हैं।परिणाम मात्र शून्य ही रहता है।
   एक शिक्षक महोदय अपनी कक्षा में बच्चों को सिगरेट नहीं पीने की सलाह देते थे, लेकिन कक्षा के बाद स्वयं कोने में जाकर जमकर धुआँ उड़ाते थे। एक दिन किसी छात्र ने उन्हें धुआँ उड़ाते हुए देख लिया , फिर क्या अगले दिन से उपदेश बंद! क्योंकि उसी छात्र के द्वारा टोके जाने का भय जो था। इसी प्रकार यदि हमारे मंत्री , सांसद , विधायक, अधिकारी, उपदेशक , साधु- संत, कथावाचक, भागवत वाचक, अपना सुधार कर लें , तो समाज औऱ देश को सुधारने की भाषणबाजी नहीं करनी पड़ेगी। पर आख़िर वे अपनी भाषणबाजी बंद क्यों करें? क्योंकि यही तो उनकी रोजी - रोटी का मज़बूत आधार - कार्ड है।यदि समाज औऱ देश सुधर ही गया तो एक दिन उनकी आवशयकता ही समाप्त हो जाएगी ! फिर उन्हें भला पूंछेगा कौन? जब मरीज बने रहेंगे , तभी तो डाक्टर के महत्व का पता रहेगा। ये सभी उपदेशक समाज और देश के ऐसे डाक्टर हैं , जो कभी नहीं चाहते कि व्यक्ति ,देश औऱ समाज सुधरे! उनका काम केवल और केवल भाषण करना भर रह गया है। 'ज्यों-ज्यों दवा की, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया।' वाली स्थिति है। रामायण पढ़- सुनकर न तो कोई राम हुआ , न सीता न भरत न लक्ष्मण। पर घर -घर रावण दर - दर लंका, इतने राम कहाँ से लायें। विभीषणों औऱ शूर्पणखाओं की कोई कमी नहीं है। भागवत सुनी , पर कभी नहीं गुनी। इस कान सुनी ,उस कान चली। सबने यही कहा कि ऐसा करना चाहिए। राम , कृष्ण, सीता, लक्ष्मण , भरत स्वामी विवेकानन्द , महात्मा गांधी आदि सबने अपने कृतित्व से करके दिखाया। पर हमने केवल दूसरों को सिखाया कि राम बनो, सीता बनो, स्वयं कभी अपने चरित्र में रामत्व औऱ सीतात्व का उद्भव नहीं होने दिया। स्वयं वही बने रहे , जो थे। औऱ कसम खाली कि हम नहीं सुधरेंगे, चाहे जग सुधरे।
   आदर्श औऱ यथार्थ में बहुत अंतर है, दूरी है।जिस दिन आदर्श ही हमारा यथार्थ बन जाएगा।इन भारी -भरकम ग्रंथों की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। जब आदमी अपने आदमीपन को समझ लेगा, वह आदमी से देवत्व की ओर कई कदम आगे बढ़ जाएगा। पर समस्त उपदेशकों के लिए खुशखबरी है कि ऐसा होगा नहीं , क्योंकि फिर वे कैसे जी सकेंगे! उनका परिपोषण तो इसीसे जिंदा है।

💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
🏵 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

रिमझिम रिमझिम [अतुकान्तिका]

सावन बरसा
तनमन हरसा,
पादप लता
प्राणि जीव जन
जड़ - चेतन का
कण -कण सरसा,
झरती बुँदियाँ
रिमझिम रिमझिम।

बूँद- बूँद कर
भरे  सरोवर
सरिता ताल -
तलैया पोखर
खेत बाग़ वन
झूमे उपवन,
झरती बुँदियाँ
रिमझिम रिमझिम।

भीगी चोली
चुनरी साड़ी,
देह लिपटती
झुके नयन दो
लाज सिमटती
बाला नारी,
बजती पायल
चुपचुप बिछुआ
धुली महावर
घायल करतीं
बुँदियाँ तन मन,
झरती बुँदियाँ
रिमझिम रिमझिम।

नंग -धड़ंग
निकलते घर से
छोटे बालक ,
गली सड़क आँगन
बागों में ,
खुली छतों पर
हँसते खिल खिल करते
दौड़ लगाते,
 नहीं वर्जना
मात-पिता की
वे सुन पाते,
उधर झकोरे
तेज पवन के
शोर मचाते,
चंचलता में
खूब सिहाते
नग्न नहाते,
ढँके गगन से
मेघाडम्बर से
झरती बुँदियाँ
रिमझिम रिमझिम।

आम्रकुंज में
बड़ी और मजबूत
शाख पर
पड़े हिंडोले
ग्राम् वासिनी सखियाँ
सारी झूला झूलें,
पींग बढ़ाकर
झोटे देतीं
बारी-बारी ,
रक्षाबन्धन
हरियाली तीजों की
 करती तैयारी,
गातीं कजरी
गीत मल्हारें,
मस्त बहारें,
आई पीहर
सधवा नारी सारी
लगा हथेली
मेंहदी अरुणिम,
कम रचती है
उसके हाथों
होतीं जो
निज पिया की प्यारी।
दिखलाती हैं
हिना रची क्या
उसके करतल,
सखी परस्पर,
धुली महावर,
मेघ बरसते
दिन रजनी भर
झरती बुँदियाँ,
रिमझिम रिमझिम।

घर - घर बनतीं
श्वेत सिवइयां,
पूजा अर्चन की तैयारी,
बाला-नारी,
सुखा न पाएँ
बरस रहीं नित
झरतीं  बुँदियाँ
रिमझिम रिमझिम।

ससुरालय में
बूरा खाने
को तत्पर
नव युवक विवाहित
उमंगित उत्साहित
साली सलहज की
संगत में
 रंगत करने
चुहलबाजियों की उड़ान में
नवरंग भरने,
जग की चिंताओं से
मन -बगिया को
पुष्पित करने
और उधर
झर रहीं निरन्तर बुँदियाँ
रिमझिम रिमझिम।।

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पावस -छवियाँ [छन्द-सायली]

आया
सावन झूम
झर - झर बरसा
बादल धूसर
गरजा।

विरहिन
करे प्रतीक्षा
कब आएँ प्रिय
शान्ति मिले
तब।

लेती
प्रबल झकोरे
बहती सजल हवा
हर  ओर
सुहानी।

खेत
बाग वन
जल  से  पूरित
बरसे बादल।
रिमझिम।

बोले
मोर पपीहा
कोयल का मादक
स्वर गूँजा
मधुरिम।

सरिता
ताल - तलैया
भर -   भर बहते
तोड़ कगारें
रहते।

झींगुर
झनकारें रात
इशारे करते ऐसे
होता सन्नाटा
अद्भुत

पटबीजना
चमकते बहु
इधर उधर नित
रौशन करते
रजनी।

कहें
मोर से
चार मोरनी आकर
तुम नाचो
प्रियतम।

छवि
पावस की
सतरंगी मनभावन पावन
रंग बदलती
'शुभम'।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

आया सावन झूम के [दोहे]

झर - झर  झरते  मेघ दल,
झूमे        नीम      रसाल।
बरगद  से    पाकड़   कहे,
अब  तो   है खुशहाल।।1।

पवन चले सर -सर  सुखद,
मिटा     देह     का    ताप।
झर - झर बुँदियाँ झर रहीं,
रहा  न  दुःख - संताप।।2।

आया   सावन    झूम  के,
घटा      उठी      घनघोर।
बाग़ - बाग़  मन  हो गया,
मोर    मचाए    शोर।।3।

कोयल   कूके    बाग़  में,
पपीहा     पीता   स्वांत।
मोर    नाचता    झूमकर,
करे    मोरनी    बात।।4।

पी  की  याद  सता  रही,
सुन   कोयल   के  बोल।
डाली  पर   कू - कू  करे,
उर  में   दे विष  घोल।।5।

झींगुर    की  झनकार  है,
घनी        अँधेरी    रात।
जुगनू  से     जुगनी  करे,
ज्योति साथ ले  बात।।6।

प्यासी   धरती    तृप्त  है,
भरे     खेत  सरि - ताल।
हरे -  हरे    अँखुए    उगे,
नदी    रहित शैवाल ।।7।

कच्ची     दीवारें     सजीं,
मख़मल     हरी  अबाध।
सीले  काठ   उगे  सघन,
कठफूले      निर्बाध।।8।

कुकुरमुत्ते    धूसर   उठे,
घूरे    का    उर    फोड़।
गगनधूर  मकिया  वहाँ,
लेती    उनसे    होड़।।9।

उफनाती   सरिता चली,
यौवन     में    मद चाल।
सागर  से  होगा  मिलन,
रही न वसन सँभाल।।10।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

आस्तीनों में  छुपे  साँप  दग़ा देते हैं।
खून अपनों का ज़माने में बहा देते हैं।।

घर बनाने  में बड़ी   उम्र ख़र्च होती है,
लोग उस घर को  बिना बात जला देते हैं।

हरेक लम्हा जो फिरते हैं लेके चिनगारी,
ऐसे  नादान ही  तो घर को जला  देते हैं।

किसी का बनता हुआ घर उन्हें कसकता है,
ईंट से ईंट वो अपनों की बजा  देते हैं।

जिनके सीने में  नफ़रत की आग सुलगी है,
वे मोहब्बत को बेकार बना देते हैं।

दिलजलों की अगन यहाँ तभी बुझती,
आग के शोलों में निज जिस्म जला देते हैं।

कुछ सपोले  यहाँ पीते हैं लहू अक्सर,
'शुभम' माँ -बाप को ख़ुद आप सजा देते हैं।।

💐शुभमस्तु!
✍रचियता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...