शुक्रवार, 31 मई 2019

लकीर के फ़कीर [व्यंग्य]

   लकीर के फ़कीर होने के बहुत  सारे  लाभ हैं। बस किसी के अंधे भक्त बन जाओ। वह जिधर चले, उसके पीछे-पीछे चलने लगो। बराबर चलते रहो। ज़रूरत ही नहीं यह सोचने-समझने की कि किधर जाना है? क्यों जाना है? किसलिए जाना है? कहाँ तक जाना है? लौटकर आना भी है  या नहीं, यदि लौटकर आना है तो कब तक? और नहीं भी लौटना है, तो क्यों नहीं लौटना, ये भी सोचने की जरूरत नहीं है। यदि सोचने-समझने में अपना ही दिमाग खपाना पड़ा, तो  पीछे-पीछे चले ही क्यों ? इसीलिए तो कहा है: 'सबते भले   वे    मूढ़ जन, जिन्हें  न व्यापे जगतगति।'
   सुअर को तो हम सभी ने देखा ही है! बस सूअर-सोच से जीवन-यापन करो। न देह पर न दिमाग पर, कोई जिम्मा न बोझा। सब उन्हीं के ऊपर छोड़ दो, जिनके पीछे-पीछे चलने का बीड़ा हमने उठाया  है। सुअर आराम से पंक-पलंगासीन होकर देश और दुनिया से पराँगमुख होकर हिलोर मारता रहता है। न ऊधो के लेने में न माधो के देने में।इच्छा हुई तो अल्पकाल के लिए बाहर आ गए, थोड़ी देर धूप खाई औऱ पुनः पूर्ववत ध्यानावस्था में लीन।   लकीर के फ़कीर के दायित्व भी सीमित होते हैं। कहा गया कि हुक्का भर लाओ। हुक्का भर कर सौंप दिया।बात खत्म। कहा गया कि फलां जगह पर चार आदमी बैठे हैं, उन्हें ये अटैची पहुंचा के आओ। पहुँचा दी। ड्यूटी पूरी। आदेश हुआ कि ये झंडे बैनर आज रात में ही सारे नगर में लगाने, चस्पा करने हैं और विरोधियों के हटाने और नष्ट करने हैं। जो हुकुम मेरे आका, जिन्न की तरह एक रात में काम खत्म। इनको कहते हैं असली भक्त।भक्ति हो तो ऐसी! ये ही लोग असली लकीर के फ़कीर हैं।
   दिमाग़ उनका, देह हमारी। इशारा उनका, हमारी कारगुजारी। वे पॉवर हाउस, हम कम्प्यूटर के माउस। उनका तख्ते ताउस, हम कालीन पे बिछे हुए मानुस। बैल के मूत्र की लकीर पर चलने वाले लोग। यही तो फैलाते हैं, सारे संक्रामक रोग।जातिवाद, वंशवाद, क्षेत्रवाद। इन्हीं के फैलाई हुई समाज में  गाद।लकीर के फकीरों ने रैली-थैली को भारी -भरकम बनाया। चमचों से चंदा उगवाया। अरे! भई उसके बिना उजाला भी तो नहीं होता!ज्यों -ज्यों चंदा बढ़ता है, त्यों-त्यों प्रकाश सुधरता है। अमावस्या की समस्या से दूर भगता है।
   लकीर के फकीरों की निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या का कारण ये है कि नौकरियाँ हैं नहीं, यदि हैं ही तो उनकी पात्रता के लिए चेक,जैक औऱ थोड़ी बहुत योग्यता तो चाहिए ही। ये कोई मंत्री पद तो है नहीं कि हाई स्कूल पास को केंद्रीय शिक्षा मंत्री बना दो। तेल बेचने वाले को पेट्रोलियम मंत्री के राजयोग से सम्मानित कर दो। बिना पैसे बिज़निस हो नहीं सकता। इसलिए सबसे अच्छा है कि लकीर के फ़कीर बनकर रह लिया जाए। हर्रा लगे न फ़िटकरी रंग चोखा ही आए! न दिमाग़ ही पिराये, देह मस्त मोटीआये! सब पूर्ण इच्छाएँ। वी आई पी कहलाएं।मक्खन लगायें, और मक्ख़न ही खाएँ। लक़ीर का फ़कीर बनने के बड़े -बड़े लाभ। मिलते हैं मौके पर बड़े-बड़े स्वाद। घूमो चाहे दिल्ली चाहे प्रयागराज।बस खुजानी है बार-बार  एक ही खाज। सबसे बड़ी बात अपने होने पर नाज़। रखो अपने माथे पर उनके चरणों का ताज।लक़ीर के सब फकीरो! एक हो जाओ। बने रहो अंधानुगामी अपनी सँख्या बढ़ाओ।

💐 शुभमस्तु!
✍लेखक ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 30 मई 2019

जड़ [अतुकान्तिका]

   धरती माँ के गर्भ से
फूटा अँखुआ 
उषा की किरण संग
खोलता आँखें
देखता नए -नए रंग,
उधर नीचे 
 घोर तम  में
साधने के क्रम में,
पोषती जड़
धरती की शरण,
किसने देखा 
जड़ का रूपाकार
वर्ण ,आचरण।
बस बढ़ते हुए 
नन्हे  अँखुये का 
बनते हुए पौधे का
करती अनवरत पोषण।

देती हुई मजबूती
विस्तारित करती निज तंत्र,
भोजन पानी का 
अहर्निश गाती
पावन मौन मंत्र।

जड़ तो जड़ है,
उसकी अपनी ही
 अड़ है,
कर्तव्य -पथ पर 
सुदृढ़ है,
जड़ी है 
भूमिका में अपनी
थामे हुए है 
माँ अवनी
उसकी अँगुली।

पादप ही देखा सबने
जड़ जड़ी है
अड़ी है 
तपने! तपने !! तपने !!!
पर वह 
मात्र नहीं है जड़
वही है असली तप प्रण,
व्यर्थ नहीं है
 उसका कण- कण,
न कभी अपनी ही चिंता
न बद आचरण।

उपेक्षित क्यों रहे
मौन शान्त जड़,
पादप के आभार से
सराबोर जिसका कण-कण,
गा रहे हैं जिसके गुण,
पल्लव ,  तने ,शाखाएँ ,
फूल फलों के गण।

जड़ ही तो मूल
आधार  सशक्त,
आजीवन ऋणी 
पादप है भक्त,
तम ने जिसको पाला,
तप ने साँचे में  ढाला,
वही तो जड़ है, 
स्व भू-साधना में दृढ़ है।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बुधवार, 29 मई 2019

जिया को तड़पाए रे! [लोकगीत]

कोयलिया कूके जिया को तड़पाए रे!
अबहुँ न आए पिया तरसाए रे!!

मोरे   पिया    परदेश   गए हैं,
जियरा में   मोरे   घाव भए हैं,
रात-दिना पिय याद सताए रे!
कोयलिया कूके....

चैत   महीना    कोंपल   फूटीं,
बगियनु  खिली फूल की बूटी,
आवनि औध न कोई बताए रे,
कोयलिया कूके....

कहि कें  गए अबहुँ नहिं आए,
कहत  सखी  सूं  हम शरमाए,
फ़ोन करें नहिं चिठिया आए रे
कोयलिया कूके....

राति न नींद दिवस नहिं चैना,
मुख सों कहि आवै नहिं बैना,
निकरै तौ बैरिनि हाय हाए रे!
कोयलिया कूके ....

सामन को झरु लगि रहौ भारी,
चूनर   चोली    सूखी    सारी,
पिया बिना मोहि कौन भिगाए रे!
कोयलिया कूके ....

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बताइ दै राजा! [लोकगीत]

तोरे मन में का समाई बताइ दै राजा।
मैं जान नहीं पाई जताइ  दै राजा।।

फ़ागुनु महीना रातिअँधियारी,
देखि देखि मोरीअँखियाँ हारी,
पहले कही मैंने  ना  जा सैयाँ,
छोड़ि   गयौ  तू   मोरी   बैयाँ,
चैन को मोरे बजायगौ बाजा।
तोरे मन में ......

बीति गई  अब  आधी रतिया,
फुस- फुस  का तू बोलै बतियाँ,
बैठी -   बैठी    रोइ    रई   हूँ,
अंसुअन   गालनु  धोइ  रई हूँ,
अब का तोहे मोहि सौं काजा।
तोरे मन में.....

तू    रुठै     मैं  रूठी   तोसों,
करै न  मीठी  बतियाँ  मोसों,
नेंक न  समझें  मो रे  मन की,
मोहि जरूरत का समझन की,
उलटे पाँवनु लौटि चला जा।
तोरे मन में ....

तू   नहिं  सोयौ  मैं नहिं  सोई,
निकरै बोल न  मन- मन रोई,
हूक  उठें  परि का करि पाऊँ,
किनसों जिय की बात बताऊँ,
सोनौ होय तो सोय जा आजा
तोरे मन में ....

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 28 मई 2019

गर्मी की सौगातें [बाल गीत]

 सुंदर  गर्मी    की  सौगातें।
आओ  करें उन्हीं की बातें।।

पीले   नरम मधुर ख़रबूज़े।
ठंडे   लाल - लाल तरबूजे।
लगे बेल  पर  बुला रहे हैं।।
पत्ते  अपने   झुला  रहे हैं।।
ले - ले स्वाद मेंड़ पर खाते।
सुंदर गर्मी ....

सारी प्यास  बुझाता खीरा।
संग नमक  के डालो जीरा।।
लंबी हरी - हरी हैं  ककड़ी।
सटकारी दो-दो फुट तगड़ी।।
खट्टे - मीठे   आम    सुहाते।
सुंदर गर्मी...

लदे  ठेल पर  काले - काले।
अंगूरी     अंगूर      निराले।।
रस   से  भरे    हुए हैं  सारे।
आँखों को लगते  हैं  प्यारे।।
लम्बे  दिन  की   छोटी रातें।
सुंदर गर्मी ....

गोल बेल शिव जी के प्यारे।
लटके   पीले  डाल  सहारे।।
पकते महीना जेठ अषाढा।
मीठा गूदा   रस  भी गाढ़ा।।
पीकर   लू   में बाहर  जाते।
सुंदर गर्मी....

मधुर    संतरा     कैसे   भूलें।
लगे   डाल  पर  फूले -फूले।।
महकदार  रस भरा हुआ है।
जिसने खाया हरा  हुआ है।।
कच्चे  आम  पना  बनवाते।
सुन्दर गर्मी ....

बहुत  रसीली  होती लीची।
लाल खाल  दूध  से सींची।।
त्वचा नयन को पोषण देती।
नियंत्रित तापमान कर लेती।।
खाती मात लुओं की घातें।
सुंदर गर्मी .....

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 27 मई 2019

भला करे करतार [दोहे]

मत  की  अंधी  दौड़  है,
क्या     चरित्र   पहचान!
आँखों   से    देखा नहीं ,
उसको कर मतदान।।1।

जनता   के  कर में नहीं ,
दूरबीन -    सा     यन्त्र।
जो  जाने नेता - चरित ,
दे मत 'शुभम'स्वतंत्र।।2।

जिसकाचरित नहीं कहीं,
दे   वह   चरित - प्रमाण।
होता    है    इस   देश  में,
कैसे   हो   कल्याण??3।

थोप दिया ज़बरन जबर,
गुंडा                दावेदार।
भयवश   देते  वोट सब,
भला  करे  करतार।।4।

मात्र तिजोरी  का उदर-
भरना      सेवा - भाव।
घड़ियाली आँसू  भरीं,
आँख दिखाती हाव।।5।

देशभक्ति  की  आड़ में,
खेलें     ख़ूब    शिकार।
ऐसे   जनसेवक   जहाँ,
बार -बार  धिक्कार।।6।

छिनरा     हत्यारे    खड़े,
किसको   दें   हम  वोट।
या  अपहर्ता  ग़बन कर,
बाँट  रहा   है   नोट??7।

खड़-खड़ हड्डी बज रहीं,
नहीं    देह     में    जान।
बटन दबाउसका 'शुभम',
तब करना जलपान।।8।

मतदाता     लाचार    है,
मज़बूरी          मतदान।
प्रजातंत्र    है  क्या यही,
मतदाता  अनजान।।9।

कुम्भकार  जनता  यहाँ,
नेता    चिकना    कुम्भ।
नाम  दिया  ब्रह्मा  तुझे,
फूली   झूठे  दम्भ।।10।

जनता   भोली   बावली,
नेता             सदाबहार।
सेवक   बन जनता ठगे,
पिए  दूध  की धार।।11।

नेता  साधु  स्वभाव का,
मत   की   माँगे   भीख।
वेष बदल   सीता  ठगी,
रावण की पदलीक।12।

भीड़   बढ़ाने   के  लिए ,
जनता     का    सत्कार।
बाहर  जनता  झींकती,
लगा हुआ दरबार।।13।

चमचों    की पहचान है,
लाखन     फरसा   राम।
जनता   तो  बस भेड़ है,
बाँधी  बिना लगाम।।14।

सोने   की   लंका  जले,
भरे  पाप    का  कुम्भ।
माँ  दुर्गा  के    हाथ  ही,
मरते शुम्भ-निशुम्भ।15।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

चुनाव की नाव [दोहे]

बैठे     नाव   चुनाव  की,
कुछ   डूबे   कुछ    पार।
जिसको माला मिल गई,
उसे न  मिलती  हार।।1।

चमचेगीरी     में    बहुत,
गुण  हैं   सुनो    सुजान।
माखन  खाने  को मिले,
नेता     कृपानिधान।।2।

सेवा -  व्रत  की  राह में,
मेवा -  घृत    की   धूम।
नेता  की    सेवा    करें ,
नित    ऊँचाई    चूम।।3।

देशभक्ति की ओढ़ ली,
झीनी    चादर      एक।
उसके   नीचे   कर  रहे,
काले करतब 'नेक'।।4।

धर्म सियासत का सजा ,
सुंदर      बड़ा     बज़ार।
अभिनय में जो पटु रहा,
उसका   बेड़ा   पार।।5।

अभिनेता ,अभिनेत्रियाँ ,
गायक , साध्वी  , सन्त।
राजनीति  में   घुस गए,
बदल-बदलकर पंत।।6।

लगा   मुखौटे   जो खड़े,
क्या  उनका   इतिहास?
देख   रहा   है   देश   ये,
इनसे  कैसी आस??7।

वेश बदलकर चोर कब,
हुआ   देश    का  भक्त?
बिन जाने समझे 'करम'
जनता जी  अनुरक्त।।8।

सेवक कह स्वामी बना,
जनता    डाले     फ़ूल।
तन  घोड़े  की पीठ पर,
बैठा  जनता   झूल।।9।

टोपी  रख  दी  पाँव में,
ये   नाटक   का  अंक।
झाँका परखा आँख में,
मिले वोट नि:शंक।।10

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

हादसों के बाद सँभलने की सूझी।
पहेली ये नहीं समझने की अनबूझी।।

अपनी हिफ़ाजत की परवाह नहीं करता,
उलझे हुए धागों के सुलझने की सूझी।

चल रहा है काम तो चलता ही रहेगा,
न किसी को यहाँ बरजने की सूझी।

सबक लेता नहीं तज़ुर्बे से ये इंसां,
बेकार की बातों में उलझने की सूझी।

सिखाने वाले तो हर गली में हैं 'शुभम',
अपने ही पड़ौसी को खुरचने की सूझी।।

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

चौकी पर बिछी हुई चादर हो।
कोई भी बिछा ले जहींचादर हो।

कोई आया झाड़ गया भाषण,
गुलाबी फूलों से सजी चादर हो।

धो पोंछकर  सजा गया कोई,
फ़िर से महकी रँगी चादर हो।

पोंछकर हाथों को चला गया कोई,
मनमानी से  रखी हुई चादर हो।

चौकी पर 'शुभम 'बदल जाती हो,
कोई भी सो जाए वही चादर हो।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शनिवार, 25 मई 2019

अनिवार्य गंदगी [व्यंग्य]

   जी हाँ, मैं अनिवार्य गंदगी हूँ।जन मानस और देश की रग - रग में बहती हुई एक ऐसी अदृश्य रागिनी, जो पूरे देश को मथ रही हूँ। आदिकाल से आधुनिक काल तक आते - आते  मैनें  काल -प्रवाह के  न  जाने   कितने -कितने मार्गों पर अपनी यात्रा की है और अनजाने कितने-कितने मोड़ों पर मुड़ी, तुड़ी, जुड़ी , बनी और बिगड़ी हूँ। मैंने  कभी भी अपने सिवाय किसी  दूसरे का भला नहीं सोचा। सोचा तो केवल और केवल अपना ही भला सोचा। मैं बनी ही इसलिए हूँ कि भला केवल मेरा हो। मैं जिसे चाहूँ उसीको सब चाहें। 'लव मी एंड लव माई डॉग' की कहावत को सौ फ़ीसद सिद्ध करना ही तो मेरा मक़सद है।
   मेरे बहुत से रूप हैं। कहीं मैं जातिवाद के नाम पर अपनी ही जाति के लोगों को आगे बढ़ाने, उन्हें नौकरी दिलाने, अयोग्य होने पर भी अधिक से अधिक अंक दिलाने, दूसरों को नीचे गिराने के  काम करती रही हूँ।अपनी जाति के लोगों के अधिकतम मत हासिल करने के हथकंडे मेरे हाथों में ही तो हैं। उन्हें विविध प्रकार के प्रलोभन देकर, आश्वासन देकर अपना बनाना मेरा बायें हाथ का खेल है। सामने वाले को धोबी पाट देकर कैसे पछाड़ कर चित कर देना है , इस कला को कोई मुझसे सीखे! मुझे अनगिनत कलाओं में महारत हासिल है। मेरे मुख्य रूप से चार हथियार हैं : साम, दाम, दंड और भेद। इन्हीं चारों में जिसका जहाँ उपयोग हो जाये, बख़ूबी करती हूँ।अवसर को चूकना मेरा काम नहीं है। यदि चूक ही गए ,तो गए काम से! इसलिए  प्रतिक्षण जाग्रत रहना औऱ सावधानी पूर्वक अपने काम को अंजाम देना मेरी कलाकारी का विशेष  गुण है।
   हाँ, तो मैं अपने विविध रूपों की चर्चा कर रही थी। जातिवाद की ही तरह वंशवाद की चाशनी चाटने का मेरा बड़ा शौक है। यही तो यहाँ अच्छाई है कि रसगुल्ले भी खाओ और इच्छा हो तो रस भी पी जाओ। यहाँ कंचन और कामिनी की  पावस ऋतु  केवल तीन महीने के लिए नहीं आती , बारहों मास , चौबोसों घण्टे  हर क्षण यहाँ वसंत का डेरा लगा रहता है। इसीलिए तो जो आदमी मुझे पसंद करता है, मेरे सिद्धान्तों को मानता है, मेरे मार्ग पर चलने के लिए कमर कस लेता है, वह कभी घाटे में नहीं रहता।यहाँ तेल लगाने से लेकर मक्ख़न लगाने और खाने -खिलाने तक का पूरा ही इंतज़ाम है। जो मेरे मार्ग पर एक बार चल पड़ा , वहाँ कुछ असहज लोगों को छोड़कर कभी मुड़कर पीछे नहीं देखना पड़ा। वह मेरे पथ पर एक बार अग्रसर हो गया तो हो गया ,बस। फिर तो कदम-कदम पर मिलना ही है उसे रस। अगर अकेले चलने का नहीं है वश, तो अनेक साथी रास्ते में कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ाने के लिए मिल ही जायेंगे। जो हर लड़खड़ाते कदम पर आपका मनोबल बढ़ाएंगे। सहारा देंगे
और ऊँचा उठाएंगे।
   क्षेत्रवाद भी मेरा ही एक रूप है। एक क्षेत्र विशेष को ही पूरा देश समझो। बस। सीधा सा फार्मूला है। किसी ने घर परिवार को देश समझा, किसी ने थोड़ा आगे बढ़कर अपने बड़े दिलदारपन का परिचय देते हुए  अपनी पूरी जाति को ही देश मान लिया औऱ बस मैं शुरू हो गई। उससे भी आगे बढ़े तो अपने क्षेत्र अर्थात मंडल, जनपद, तहसील , विकास खंड तक अपना ढोल पीटते रहे। जिसकी जितनी औक़ात, उससे आगे बढ़ें कैसे?
   सुंदर -सुंदर नारे गढ़कर देश सेवा, देश का विकास, गरीबी हटाओ,  शिक्षा दो बेरोजगारी दूर करो, वैज्ञानिक क्रांति के अग्रदूत बनकर भी मुझे औऱ सुंदर रूप में प्रस्तुत करने वाले लोग रष्ट्रीय स्तर पर नाम  कमा लेते हैं। वे लोग देश  के ऊँचे -ऊँचे पदों पर मखमली लाल कालीनों पर कदम रखते हुए देखे जा सकते हैं।
   बाहरी रूप से मुझे दुत्कारा  फटकारा जाता है। पर अंदर से तो कुछ को छोड़कर सभी मेरा आलिंगन ही नहीं करना चाहते, उसमें सदा - सदा को  बंध जाना चाहते हैं।  उधर  मेरी  भी मजबूरी है कि मुझे किसी को अपने दरवाजे पर आ  जाने पर  उसका स्वागत करने के लिए उसे चौबीसों घण्टे के लिए खोले रखना पड़ता है। मेरे यहाँ सबका स्वागत है। अब देखिए मैं कहाँ नहीं हूं। जहां नहीं होना  चाहिए , वहाँ भी भलीभाँति फल फ़ूल रही हूँ।किसी मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारा में भी घुस चुकी हूँ। किसी मंदिर का बनना न बनना मुझे ही बताना है। स्कूल कालेजों आज मैं  ख़ूब फल -फ़ूल रही हूँ।  कहीं -कहीं तो मेरे बिना पत्ता तक नहीं खटकता। शिक्षा का पूरा क्षेत्र मेरी दुर्गंध से  गंधायित है। इसीलिए मेरे ही बलबूते पर शिक्षा आज पवित्र नहीं रह गई। वह एक उद्योग धंधा
बन गई है। अब बिना पढ़े- लिखे  कल्लू ,  नट्टू, कल्लो, बिल्लो  शिक्षा -माफ़िया बनकर लाखों -करोड़ों में खेल रहे हैं। फीस जमा करो, औऱ घर जाओ। बुलाएं , तब फार्म भर देना। परीक्षा न दे सको तो अपने किसी रिश्तेदार को भेज देना। वह भी न हो, तो हमें बताना , इंतज़ाम हो जाएगा। बस दस बीस हज़ार की बात है। 95 से 99 फ़ीसद नम्बरों की गारंटी के साथ हमारी संस्था,  विश्वविद्यालय में पास होने की गारंटी है। जहाँ- जहाँ भी जाओगे। मझें  ही सर्वत्र पाओगे। यदि मुझसे दूरी बनाओगे तो बार-बार पछताओगे। शासन में, प्रशासन में, राशन में, अदालत में , कोर्ट में , कचहरी में सभी जगह मेरा एकक्षत्र राज है।
   कभी महाभारत काल में  विदुर महाराज ने विदुर नीति लिखी थी। लेकिन ऐसी नीतियाँ अब गए जमाने की बातें हो गई हैं। अब कौन पूछता है ऐसी नीतिओं को? कौन चलता है उन नीतियों पर? वे सब अब किताबी ज्ञान की बीते काल की बातें काल के गाल में समा चुकी हैं। अब तो येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने का नाम ही है मेरा। जो मेरे बताये इस मार्ग पर चलता है, वह सदा सुखी रहता है। दूधों नहाता औऱ पूतों फलता है। वरना साँझ के सूरज की तरह ढलता है।
   नए- नए सभी सांसदों को मेरी पावन सलाह है कि वे आयें ,मुझे गले लगाएँ, फ़िर तो वे जो चाहें सो पाएँ, क्योंकि जब पकड़ ली हैं उन्होंने ये बाँहें तो मुझसे दूर क्यों जाएँ?

💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
🎷 डॉ.भगवत स्वरूप ,'शुभम'

शुक्रवार, 24 मई 2019

मेरा एम. ए. में प्रवेश [संस्मरण ]

   वर्ष 1973 में बी .एस सी. उत्तीर्ण करने के बाद मेरी इच्छा थी कि अपने प्रिय विषय वनस्पति -विज्ञान में एम.एस सी. करने के बजाय हिन्दी विषय के साथ एम.ए. करूँ। प्रवेश हेतु सिफारिश के लिए मैंने अपने पूज्य चाचा जी डॉ. सी.एल. राजपूत; जो उस समय आगरा कालेज आगरा में मनोविज्ञान विषय के प्रोफ़ेसर थे, से कहा कि मैं हिंदी में एम.ए. करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि ठीक है, कल चलते हैं।
   अगले दिन मैं चाचाजी के साथ आगरा कालेज के हिंदी विभाग में पहुँचा।हिंदी के किसी भी प्रोफ़ेसर से मेरा कोई परिचय नहीं था, क्योंकि  मैं विज्ञान स्नातक था। उस समय आगरा कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ.भगवत स्वरूप मिश्र जी थे। उनसे जब चाचाजी ने इस सम्बन्ध में बताया कि यह मेरा भतीजा है औऱ इसी वर्ष इसी कॉलेज से बी.एस सी. किया है। इसका आपके यहाँ प्रवेश होना है। इस पर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इनकार करते हुए कहा कि बेटे अभी तक तो इस कॉलेज में विज्ञान के किसी भी छात्र का प्रवेश नहीं हुआ है ।ऐसा कोई नियम भी नहीं है कि विज्ञान से स्नातक
का हिंदी में प्रवेश किया जाए। मैं चाचाजी के साथ निराश भाव मन में लिए हुए अपने 15 किलोमीटर दूर गाँव वापस आ गया।
   अगले दिन चाचाजी डॉ. भगवत स्वरूप मिश्र जी के शिष्य और उन्हीं के निर्देशन में पी.एच. डी.कर रहे प्रो. खुशीराम शर्मा जी से  हिंदी विभाग के हॉल में बने हुए चेम्बर में मिले। मैं भी साथ में था। चाचा जी ने वही बात उन्हें बताई तो उन्होंने भी वही बात दुहराई कि बी. एस. सी. वालों का एम .ए. हिंदी में प्रवेश नहीं होता। यही नियम है और परम्परा भी। फिर भी डॉ. खुशीराम शर्मा जी ने मुझसे एक सवाल किया कि बताओ बेटे कैसे करें तुम्हारा प्रवेश। इस पर मैंने कहा -सर मेरी बहुत इच्छा है कि एम. ए. हिंदी में करूँ। यदि हो सके तो देख लीजिए। इस पर वह बोले -किस आधार पर? तो मैंने उन्हें बताया कि मैं लिखता हूँ। वह बोले -क्या लिखते हो ?और कब से लिख रहे हो ?मैंने कहा - कविता, कहानी , लेख  वगैरह लिखता हूँ और जब चौथी क्लास में  पढ़ता था ,तब से लिख रहा हूँ। वह कहने लगे -ठीक है। कल मुझे विभाग में आकर दिखाओ।
   अगले दिन बड़े ही  उत्साह में मैने 160 पेज की दो मोटी-मोटी कापियां ,जो उस समय चौदह आने की आती थी; उनके सामने सुबह 10 बजे ही ले जाकर प्रस्तुत कर दी। उन्होंने उन्हें उल्टा -पलटा कुछ पढ़ा औऱ चेहरे पर प्रसन्नता लाए हुए बोले -जाओ , हो गया तुम्हारा प्रवेश। फार्म ले जाओ और ऑफिस के काउंटर पर फ़ीस जमा कर देना। मैं बहुत खुश। मुझे मेरी  इच्छित मुराद मिल गई थी और मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

💐 शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

कवि के प्राण [अतुकान्तिका ]

 भावों का वृहद 
व्यापक आकाश असीम,
विचरण करते हुए जिसमें
हम पखेरू प्रणीत,
शब्दों की दैवी शक्ति से,
खग की  मानस -भक्ति से उड़ते, 
उड़ने में प्रवीण,
वाणी की वीणा मधुर
करती मनभावन गुंजार,
ज्यों पावस की फुहार,
शब्द और वाणी का
सुसंस्कृत आचार।

छंदों में बन्धों में
लय ताल का प्रवाह,
ज्यों समतल में
सरिता -जल  का बहाव,
तटबंधों की मर्यादा
न कम न कहीं ज़्यादा,
अनवरत अहर्निश 
कल्पना के सशक्त
 परों से नित,
उड़ना उड़ना और बस उड़ना
हृदय का हृदय से  जुड़ना,
कभी उतरना 
कभी चढ़ना
बदलते हुए कभी दिशा 
कभी मुड़ना,
 धरती क्या !
आकाश में भी 
नई लीक की रचना ।

यही है कविता
जहाँ नहीं है सविता,
फिर भी 
एक द्युलोक का विचरण
धर्म है नित्य कवि का! 
फैलाता हुआ शब्द - प्रकाश,
भावों का दिव्य सुहास,
जागृत करता विशद विश्वास,
करता जगत का कल्याण,
सत्यं शिवम सुंदरम से 
'शुभम' त्राण,
कविता है 
कवि के प्राण,
आत्मा का जीव का,
समाज और देश में नवविहान।
नहीं है जिसमें 
कहीं  तृण भर 
गंदगी सियासत का निशान।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मीत पुराने गीत पुराने [चेतना गीत ]

मीत  पुराने  गीत  पुराने।
काम  करोगे  क्या मनमाने??

तानाशाही     नहीं    चलेगी।
दाल वही  अब नहीं गलेगी।।
इतना भी   मत  बौरा जाओ।
करके अच्छे काम दिखाओ।।
गाओ भी   कुछ नए  तराने।
मीत पुराने....

जनहितकारी   काम करोगे।
दुःखियों के दुःख दर्द हरोगे।।
जनता क्षमा  नहीं  करती है।
सच्चे पर सब कुछ हरती है।।
मत लग जाना तुम इतराने।
मीत पुराने ....

देश     तेरी    जागीर  नहीं है।
देती  अवसर  लगे   सही है।।
अबअतीत से सबक सीख लो
मानव हित की रीत नीत लो।।
सो मत  जाना स्वप्न  सुहाने।
मीत पुराने ....

अहंकार   विनाश   करता है।
अंधा   गड्ढे    में  गिरता  है।।
मत विवेक  पर  पट्टी  बाँधो।
मर्यादाएँ   भी  मत   लाँघो।।
पूरो    सुंदर      ताने - बाने।
मीत पुराने ....

नहीं  समझना गाजर -मूली।
जनता नहीं  दर्द  वे  भूली।।
शूली  भी  हाथों  में उसके।
मारेगी अंदर तक  घुस के।।
गाना 'शुभम' शांति के गाने।
मीत पुराने ....

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बुधवार, 22 मई 2019

पहले जो मुमकिन न था [कुंडलिया]

 पहले जो मुमकिन न था
  अब  मुमकिन   सब    यार।
  सच - सच   बोले  'एक' ही,
  कहे   एक      की    चार।।
  कहे     एक      की    चार,
  चार   की   करे   चार  सौ।
  अतिशयोक्ति         अवतार ,
  न मिलना सौ - सौ बरसों।।
 कोई       नहला          चले,
 चलेंगे    उस    पर    दहले।
  नहीं   धरा  पर   'शुभम',
 नहीं था  युग  में  पहले।।1।

पहले जो मुमकिन न था
 अब    तो     देख    कमाल।
अब  तक   तो   झेला बहुत,
आगे      कौन        हवाल!!
आगे      कौन         हवाल,
धार  भी   देख  तेल   की।
जापानी     गति        चलें,
तीव्रता   बुलट     रेल की।।
कहने  को     मुख    दिया,
'शुभम' तू कह ले कह ले।
इतिहासों     पर     चढ़कर ,
मुमकिन  सबसे  पहले।।2।

पहले जो मुमकिन न था
 लाया       वही        मसीह।
काला      जादू       डालकर ,
फेर         रहा      तसबीह।।
फेर        रहा        तसबीह,
मुग्ध    मूर्छित     हैं   दर्शक,
लीप        झूठ    से   सत्य,
बनाता      है     आकर्षक।।
चूसें                लॉलीपॉप ,
एक    दो      में  ही  बहले!
मुमकिन   है    वह    आज,
नहीं था   मुमकिन पहले।।3।

पहले जो मुमकिन न था
  समय - समय    की   बात।
 ज्यों -ज्यों कलयुग बढ़ रहा,
  त्यों - त्यों    बढ़ती   घात।।
  त्यों - त्यों    बढ़ती    घात,
  बढ़ा     घनघोर     अँधेरा।
  हैकर   युग      है      मित्र,
  न  होना    अभी   सवेरा।।
 मिटा    देश     को     चोर,
देखते       स्वप्न     रुपहले,
 होना    ही   है    'शुभम,
हुआ जो कभी न पहले।।4।

पहले जो मुमकिन न था
  लम्बी       चोर  -   जमात।
  लगी    हुई     सर्वत्र     ही,
  उन्हें       दीखती   जात।।
   उन्हें       दीखती    जात,
  जाति   के  मत  ही  दीखें।
  जाय   भाड़     में     देश ,
  मारते     कीचड़ -  पीकें।।
  सहने को मजबूर आदमी,
  कितना              सहले ?
  वही  हो  रहा  'शुभम ',
 हुआ   जो यहाँ न पहले।।5।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🦜  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बारहमासा [कुंडलिया]

बारहमासी    हो    गया ,
राजनीति     का   खेल।
सौ   में   नब्बे  चोर  हों,
दस  की    होगी  जेल।।
दस  की    होगी   जेल,
 गंदगी   कहाँ  नहीं  है !
अवसर  मिला  न 'नेक',
आदमी   वही  सही है।।
कोशिश कर ली 'शुभम'
किन्तु मन बड़ी उदासी।
राजनीति की रेल बैठ,
गा        बारहमासी।।1।

चैत   गया   वैशाख भी,
मास  आ   गया    जेठ।
दिया न जिसने मत तुझे,
उसके     कान   उमेठ।।
उसके    कान     उमेठ,
अषाढ़ी   उमस  बढ़ेगी।
सावन  भादों   मँहगाई -
की      मार       चढ़ेगी।।
पेट   रॉल   करने    लगे,
धार    तेल    की   देख।
कार्तिक और कुआर में,
चिंता   लौटी   चैत।।2।

अगहन में अदहन  चढ़ा,
कर   विदेश    की  सैर ।
पूस मास नौ  लाख का,
सूट   पहन   क्या    देर?
सूट     पहन    क्या  देर ,
ढोंग  का  खोल पिटारा।
फ़ागुन में फिर पिचकारी,
की         मारो      धारा।।
जनता      भेड़     समान,
दिखाता किसको ठनगन
गल     जाएगी      दाल ,
मास जब आए अगहन।3।

मंदिर  के   भगवान भी ,
नहीं    सुरक्षित    आज।
काले   धन   के  चढ़ रहे,
वहाँ    स्वर्ण   के ताज।।
वहाँ    स्वर्ण   के  ताज,
ताज  से   राज  चलेगा।
ईश्वर     का     अवतार ,
स्वर्ण  में  स्वयं  ढलेगा।।
चढ़े      पुजापा    रोज़ ,
गुप्त धन अन्दर-अन्दर।
नेता      ही     भगवान,
भक्त क्यों जाए मंदिर।4।

पट्टी    बाँधी   आँख  पर ,
चले    जा     रहे    लोग।
होता   यही   प्रचार नित ,
'योग      भगाए     रोग'।।
योग       भगाए     रोग ,
दवा क्यों बनी हजारों ?
कर   लो    कायाकल्प ,
रोग  को  गोली   मारो।।
धधक     रही    है भट्टी,
हो    लो  गोरी     चिट्टी।
क्रीम  लिपस्टिक पोत,
आँख पर बाँधे पट्टी।5।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 21 मई 2019

भोली गिलहरी [बाल गीत ]

भोली-भाली सरल गिलहरी।
लम्बी गोरी  चपल  छरहरी।।

झबरी  पूँछ  पीठ   पर  धारी।
दौड़ लगाती आँगन  क्यारी।।
बैठ    टूङ्गती    नन्हें     दाने।
छू लो  तो   लगती  शरमाने।।
खेले    प्रातः   साँझ  दुपहरी।
भोली -भाली ....

रोज़    खेलने  आ  जाती है।
रोटी कुतर - कुतर खाती है।।
अमिया लाल टमाटर  खाती।
साथ  सहेली भी ले  आती।।
खाती दलिया चावल तहरी।
भोली -भाली ....

पेड़ों    पर   घोंसले   बनाती।
लताकुंज  में  दौड़   लगाती।।
छोटे   बच्चे      गिरते   नीचे।
ले जाती   अपने   मुँह भींचे।।
जागरूक   माँ  सच्ची  प्रहरी।
भोली -भाली ....

मेरे    घर   के   चार   झरोखे।
जिनको  कहते हैं हम मोखे।।
सन सुतली रेशे  नित लाकर।
नीड़  बनाती  खूब सजाकर।।
नींद   वहीं   लेती  है  गहरी।
भोली -भाली ....

शिशुओं को वह दूध पिलाती।
पलभर को भी नहीं रुलाती।।
सिखा  रही   टूङ्गों  तुम दाने ।
जल्दी हो  लो   सभी सयाने।।
लाड़ लड़ाती 'शुभम' फुरहरी।
भोली -भाली ....

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 20 मई 2019

चाँद का तप [अतुकान्तिका]

एक दिन की 
पूर्णता के लिए
उन्तीस दिन की तपस्या ?
विचारणीय रहस्य !
इतना धीरज?
प्रतीक्षा इतनी दीर्घ?
प्रेरक हो तुम महान!
नीलाकाश में 
चमकते हुए चाँद ।

न कोई त्वरा 
न भ्रम
न कोई रण,
अहर्निश
चरैवेति चरैवेति की नीति
का वरण,
निज लक्ष्य पर 
अग्रसर तव चरण।

जूझना बस एकाकी,
संतोष और शांति हावी,
न कहीं आपाधापी
व्यग्रता विवशता भी।

उपमा सुमुखी की
निर्दाग नारी की
कवियों के प्रिय
बसते हो हिय-
कमलिनी के 
चन्द्रिकापायी  
चकोर के जीवन 
अनन्य प्रेम रस के
उद्बोधन संबोधन।

नहीं सीखा
मानव तुमसे कुछ,
बेकली व्यग्रता में
कटता जीवन,
पूर्णता के लिए 
तपना और तपना ही
जीवन,
छीजना बढ़ना 
चलना चढ़ना  ढलना
पुनः उगना चलना
यही क्रम बनना ,
यही तेरी प्रेरणा का 
अनुदिन का नियम,
पूर्णता मिलती ही है
एक दिन।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

श्री ईवीएम आरती [दोहा,चौपाई]

सुमिरि नाम गणपति प्रथम,
आरति       करहुँ    गणेश।
मात     शारदे      ज्ञान   दे,
साईं        शेष        महेश।।

बैलट     -    पेपर है   नहीं ,
कैसे     हो          घटतोल।
इवीएम    के    जोड़    में,
बम    बम   भोले   बोल।।

लगीं  मेज सज गईं कतारें।
नेताजी     आरती   उतारें।।

जय जय   ईवीएम    पियारी।
विनती सुन लो आज हमारी।

दीप   धूप   ले   आरति गावें।
मनवांछित सांसद बन जावें।।

तेरे  मन   की  तू   ही  जानें।
अपनी-अपनी सब ही तानें।।

तेरी   कृपा  मूर्ख  जन पावें।
संसद -देहरि शीश झुकावें।।

पड़े  पाँव  में नौ -नौ छाले।
राजनीति के कड़े कसाले।।

बसी सियासत खून हमारे।
सांसद   नाती  बेटा  सारे।।

तेरी  ताकत  पार  न  कोई।
तेरे बिन किस्मत सब सोई।।

हाथ   जोड़    वंदन   करूँ ,
महीयसी       मैं      आज।
क्षमा  करो   अपराध  मम,
बचे        हमारी      लाज।।

भरे     आँकड़े    उदर   में,
मेरे     हित      में     मोड़।
तेरी  इच्छा     हो     अगर,
बदल   सकेगी       जोड़।।

अब अस्सी की आयु हमारी।
सौ-सौ विनती करूँ तुम्हारी।।

एक बार अवसर फिर पाऊँ।
संसद  में  मंत्री  बन  जाऊँ।।

आ सकता  है  अंत  बुलावा।
रह  जाएगा  फिर पछतावा।।

ख़ाली  हुईं     तिजोरी  सारी।
क्या   खाए औलाद  हमारी।।

सात पीढ़ियों तक रख जाऊँ।
ईवीएम    तेरे    गुण   गाऊँ।।

अपनी   सेवा    देश  भलाई।
हम नागरिक  देश के  भाई।।

शौचालय   किसके  बनवावें।
सांसद-निधि घर में लगवावें।।

गंगा-जमुना  साफ़  न होंगीं।
जब तक राजनीति है ढोंगी।।

सच  कहने  में   हानि क्या!
सेवा     -   दास      कहाउँ।
जो   धन   पाऊँ      केंद्र से,
घर   केंद्रित     कर   खांउ।।

मत - साधक    मत - वंदना,
सुन   प्रिय   वोट -  मशीन।
बार -बार आरति 'शुभम,
करूँ    बदल      दे   सीन।।

💐  शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🎖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 19 मई 2019

उलटी गिनती शुरू [ दोहा ]

राजनीति में ध्यान की,
बड़ी   भूमिका    मित्र।
मानस -परदे पर दिखें,
हार-जीत के  चित्र।।1।

मन की आशा क्षीण हो,
तब    जाओ    कैलाश।
बैठ   परीक्षा   में   तभी,
हो   जाओगे  पास।।2।

घुसी   धर्म   में   गंदगी,
राजनीति    की  आज।
तन पर भगवा धारकर,
माँगे सिर पर ताज।।3।

गाली  की पिचकारियां,
निकलीं  हर दिन -रात।
टेका   माथा   चरण में,
करें  धर्म  की  बात।।4।

संस्कार   है    पंक  का,
गाली     के    सरताज़।
बुरे  वचन  की  पीक से,
स्वयं  घिरे हैं  आज।।5।

राजनीति   है   धर्ममय ,
धारण   करे    अनीति?
वाणी   से   हिंसा  करें,
गिरे  धर्म की भीति।।6।

उलटी गिनती अब शुरू,
तीन   और    दो    एक।
दिल की धड़कन बढ़ चली,
वही     पुरानी   टेक ।।7।

टर्र-टर्र    अब   शांत   है,
भरा    हुआ      तालाब।
किसके    हाथों   पंक है,
किसके  हाथों  आब।।8।

गाल   बजे   गाली  बनी,
ताली   बजती      ताल।
आगे -  आगे     देखना ,
क्या  होता है  हाल??9।

धैर्य  नहीं अब रात-दिन,
गया   ज्योतिषी -धाम।।
शुल्क सहित मिष्ठान भी,
गुपचुप पूछा काम।।10।

सबको   कुर्सी   चाहिए,
गले    फ़ूल    का   हार।
हार पुल्लिंगी  ही मिले,
तब  होगा उद्धार।।11।

पहलवान जब दो लड़ें,
जीते    केवल      एक।
कितनी  टाँगें खींच लो,
पर करनी कर नेक।।12।

झूठा   परदा   झूठ  का,
अब    खोलेगा     भेद।
सच तो कहना ही पड़े,
कितने किसके छेद।।13।

कोई    माला - माल  है,
कोई      माला      हीन।
एक   सीट  पर  एक ही,
मुखड़े  शेष मलीन।।14।

नोंकझोंक कुछ दिन चले,
हार -   जीत  की  बात।
राजा  जीता    है  सदा,
जनता की हो मात।।15।

ढर्रे     पर    चलने   लगे,
लोकतंत्र    की      नाव।
किश्ती     तैरे     रेत  में,
जिसका जैसा दाँव।।16।

जनता  ही   हथियार  है,
जनता   ही   है    ढाल  ।
काम निकल जाए 'शुभम',
कौन   पूछता हाल।।17।

अंधे  भक्तों   की  कथा ,
क्या  करना  अब  मित्र!
सभी  बाल गिर जाएँगे,
नीचे जो अपवित्र।।18।

नाड़े   अपने   बाँध लो ,
कसकर  कमर  सँभार।
बड़े   पेट   छोटे   करो,
कहता 'शुभम' विचार।19।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
📕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कुहू -कुहू [बालगीत]

कुहू -कुहू नर कोयल बोला।
कानों में अमृत-रस घोला।।

काले पर तन चोंच निराली।
कूद रहा रसाल की डाली।।
मन भोला वाणी में रस है।
सुनकर मन होता बेवश है।।
फूटा मधु कलरव का गोला।
कुहू -कुहू  नर ....

बुला रहा कोयलिया  आओ।
मेरे सँग -  सँग गाना गाओ।।
बोली :' मैं कैसे  सँग  गाऊँ।
तुम पर रीझी मैं  शरमाऊँ।।
तुमने स्रोत मधुर रस खोला।'
कुहू -कुहू  नर....

पिड़कुलिया   गौरेया  गाती।
झेंपुल  प्रातः  हमें   जगाती।।
सबका कलरव न्यारा-न्यारा।
पर कोकिल का सबसे प्यारा।
सबने  उसे  तुला  पर  तोला।
कुहू -कुहू नर....

कहते    लोग  बोलती  मादा ।
'शुभम'कर रहा इतना वादा।।
बुला रहा  प्यारी  पत्नी  को।
डाल मधुर रस की धारी को।।
ऋतु वसंत   है मौसम भोला।
कुहू-कुहू  नर ....

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌳  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पेड़ -रसोई [बालगीत]

मैं   पत्ती 'पेड़ -रसोई'  हूँ।
दिन में जग निशि में सोई हूँ।।

मुझमें दिन में भोजन बनता,
पौधे को नव पोषण मिलता।
सूरज  से  गर्मी  ले  लेती,
क्लोरोफिल से खाना दे देती।।
ऐसी वैसी नहिं कोई हूँ,
मैं पत्ती .....

दिन में  देती मैं घनी छाँव
कौवे करते हैं कांव-कांव।
चिड़िया गाती कलरव गाना,
घोंसले बनाती मनमाना।।
वर्षा -जल से  मैं धोई हूँ
मैं पत्ती ....

जब हवा चले मैं हिलती हूँ,
पत्ती बहनों  से मिलती हूँ।
जब तक सूरज चमके नभ में,
पकवान बनाती तब तक मैं।।
बालक -सी कभी न रोई हूँ,
मैं पत्ती...

मेरे भोजन से फल बनते,
रसभरे आम डाली लटके।
सब सेब संतरे केला  भी.
सब्जियाँ हरी हर ठेला की।।
जो खेत बाग में  बोई हूँ
मैं पत्ती .....

पीली होकर मैं गिर जाती,
बन खाद पेड़ हित मर जाती।
देती पौधे को हर पोषण,
करती न किसी का मैं शोषण।।
मैं 'शुभम' स्वयं में खोई हूँ,
मैं पत्ती ....

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शनिवार, 18 मई 2019

माँ सरस्वती- आराधना [दोहा]

सरस्वती     माँ   शारदे,
दो   ऐसी   उर - शक्ति।
शब्द-साधना में  निरत,
मति  की  हो अनुरक्ति।।

विमला, विश्वा,  वैष्णवी,
रमा ,  परा      हे   मात!
शब्द -शब्द में प्राण  हों,
स्वर  गुंजित  हों  सात।।

श्रीप्रदा ,    माँ   भारती,
कर     वीणा     झंकार।
तीन भुवन  में शब्द को,
मिले    रूप     साकार।।

शतरूपा , वाणी , शिवा,
देवपूजिता             देवि।
विद्यादात्री         वरप्रदा,
रहूँ  कमल - पद -सेवि।।

सुवासिनी ,वसुधा ,शुभा,
शुभदा ,   सौम्या  , पीत।
त्रिगुणा ,कांता   ,वैष्णवी,
'शुभम'  न  भूले   नीत।।

संस्कार    के   शील  से,
जीवन    हो      साकार।
सावित्री      सुरपूजिता,
खुले   कृपा   तव  द्वार।।

हंसवाहिनी     हंस -सी,
विमल   बुद्धि  दें  मात।
निर्मल श्वेत  सुहास की,
महिमा जग-विख्यात।।

वंद्या , कामप्रदा   सदा,
उर   में  करो   निवास।
महाफला,ब्राह्मी विरुद-
की  हो   हृदय  सुवास।।

महाभुजा ,    सुरवंदिता ,
सुधामूर्ति      अविराम।
मन की हर शुभकामना-
की    पूरक   अभिराम।।

जन्म-जन्म में भक्ति का,
माता       मिले    प्रसाद।
काव्यसाधना  में 'शुभम',
सदा    निरत  हो  साध।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

तुम डाल-डाल हम पात -पात।
हमको देना है तुम्हें  मात।।

मिट्ठू बन जाओ भले मियाँ,
सहनी तो होगी  तुम्हें लात।।

बहुत  फेंक  ली कीचड़ भी,
हम  समझाते हैं तुम्हें बात।।

गाली और  झूठ तुम्हें प्यारे,
जनता ने जाना तुम्हें तात।।

अंधे  भक्तों  का  क्या कहना!
तुम कहो दिवस को कहें रात।

तुम   हारो  जीतो   सदा मज़े,
मिलना  खाने को हमें भात।।

 अब  राष्ट्र - भावना  दूर  हुई,
दिखती है केवल तुम्हें  जात।।

जिनके  बलबूते   खड़े   हुए,
शोभा न दे रही  तुम्हें  घात।।

भूखी  जनता है 'शुभम'यहाँ,
दिखते  हैं केवल तुम्हें  गात।।

💐शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 17 मई 2019

अहम की कार [अतुकान्तिका]

उनके अहम की भी
अपनी एक कार है,
जिस पर रात-दिन
वह सवार है,
सौ-सौ झूठ बोलने का
उसको अधिकार है।

कहते हैं :झूठ के
पाँव  नहीं होते,
भूत प्रेत शैतान चुड़ैलों  के
पाँव जमीं नहीं छूते,
कहते यह भी हैं:
झूठों के  कहीं 
गाँव नहीं होते,
क्योंकि अधिकांश झूठे
शहर में जा बसे होते,
पाँव न भी हों 
तो क्या है!
 वह तो अहम की 
कार में चलता है।
और सत्य निरंन्तर
पाँव -पाँव चलता है,
फफोले भरा  नग्न पाँव
बिना किसी पद त्राण
हृदय की टीस बनता है।

सच अपने सच को
सिद्ध नहीं कर पाता,
सुबूत चाहिए
साक्षी भी,
सच को सच
जताने के लिए!
अपना पता अभिज्ञान
सच -सच बताने के लिए,!
उसने अपना आधार कार्ड
नहीं बनवाया,
इसलिए आज 
बहुत रिरिआया,
पर उसका सच
काम नहीं आया!

औऱ उधर झूठ और झूठा
जिसने हर आम को लूटा
स्वतः प्रमाण है,
 बिना किसी आधार
उसी का त्राण है।

पड़ गए हैं 
सत्य के  पाँवों में छाले,
जान भी बचाने के
पड़ रहे हैं लाले,
सिल गई है जुबां
पड़ गए हैं ताले!
झूठ के मुस्टंडे 
सदा मुस्कराने वाले!

सत्य बेईमानों का
आहार हो गया,
झूठ सियासतदाओं का
गलहार हो गया ,
इसीलिए इस देश का
बंटाढार हो हो गया!

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

झूठ बोलना :एक कला [व्यंग्य]

   ज्यों -ज्यों आदमी सतयुग से आगे बढ़ा, सतयुग की बुराइयाँ क्रमशः आदमी को प्रिय लगने लगीं। सतयुग से त्रेतायुग , फिर द्वापर युग औऱ अब वर्तमान कलयुग तक आते - आते बुराइयाँ पूरे जोश के साथ फ़ल -फ़ूल रही हैं। लोगों के मन के हिंडोलों में झूल रही हैं। अब ज़्यादा दूर मत जाइए , इस मन को रुचने वाले भोलेभाले , मतवाले , झूठ को ही ले लीजिए।
   द्वापर युग के अंत में होने वाले महाभारत के महायुद्ध में युधिष्ठिर जी के द्वारा नरो वा कुंजरो वा कहने के बाद आज के 'सत्यवादियों' ने उसका क्या - क्या हस्र नहीं कर दिया। साँचाधारी भी बने रहे औऱ 200 फ़ीसद झूठ भी थूक दिया। जिसे चाटुकारों और चमचों ने चटपट चाट लिया। वे सच्चे बच्चे बने रहे। और उधर चापलूस चमचों ने उसमें मक्खन मिस्री मिलाकर उसका रूप ही बदल दिया। झूठ को 200 से 400 फ़ीसद सच्चा सिद्ध करने में रात -दिन एक कर दिया। हज़ारों वीडियो (फ़र्ज़ी ही सही ), ओडियो (नक़ली ही सही) और फ़ोटो ( तकनीकी से निर्मित फ़सली ही सही) बना बना कर मिथ्या तथ्य को सत्य के शिखर पर चढ़ा दिया।
   झूठ बोलना आज के युग की एक कला है। इसके लिए आपको किसी ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षण लेने की भी आवश्यकता नहीं है।किसी भी छुटभैये नेताजी के चरण चुम्बन कीजिए , वह खुशी -खुशी आपको अपना चेला बना ही लेगा। क्योंकि चेला बनाना , चेला पालना, साँचे में चेला ढालना उसकी हॉबी है। उसका प्रिय शौक है। सहित्य में जिसे अतिशयोक्ति अलंकार कहा जाता है, वह प्राचीन राजाओं और आज के चमचों , नेताओं का प्रिय शौक है। यों कहिए कि वे ही इसके जन्मदाता हैं। किसी बात को सैकड़ों हज़ारों गुना बढ़ा चढ़ाकर कहने की कला में निष्णात ये झूठ- स्नातक की उपाधि धारक हैं। जो जितना बड़ा झूठ बोल सकता है , वह आज उतना ही बड़ा राजनेता बन जाता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या, हाथ कंगन को आरसी क्या? हिटलर अपने समय का सबसे बड़ा झूठा तानाशाह हुआ है। तो क्या आप यह समझते हैं कि आज उससे बड़े - बड़े झूठे विद्यमान नहीं हैं? अवश्य हैं। जनता छोटे - छोटे झूठ बोलने और सुनने की पहले से ही अभ्यस्त होती है। इसलिए नेताओं और उन सरीखे लोगों के बड़े झूठ उन्हें शीघ्र हज़म हो जाते हैं। क्योंकि उनका विश्वास है कि इतना बड़ा नेता भला झूठ बोल सकता है ? वह सच ही कहता होगा! बस उसकी इस कमजोर नब्ज़ को थामकर नेताजी उसकी गर्दन तक ऐंठ डालें तो भी यही कहेगा कि नेताजी गुलगुला रहे हैं। जब उसका गला दबा दिया जाता है , तब तो वह कुछ बोलने और करने के योग्य ही नहीं रह जाता। इसलिए नेताजी के सर्वांश असत्य को सत्य मान कर चमचा , चापलूस ,अंधभक्त उसका अनुगामी ही नहीं पक्का प्रचारक और विस्तारक बन जाता है। हिटलर ने अपनी पुस्तक 'मीन काम्फ' में लिखा है कि 'छोटे झूठ की तुलना में बड़े झूठ से जनसमुदाय को आसानी से शिकार बनाया जा सकता है। बड़े झूठ में विश्वसनीयता का जोर होता है।क्योंकि जन समुदाय अपनी भावनाओं की प्रकृति के कारण आसानी से प्रभावित हो जाता है। स्वाभाविक भोलेपन के कारण लोग बड़े झूठ शिकार बनने के लिए ख़ुद ही तैयार बैठे होते हैं।'
   यों तो झूठे महारथियों की गाथा बड़ी लम्बी है। जो जितना बड़ा झूठा होता है, उसे उतना ही भारी आन मान औऱ शान से पेश किया जाता है। यों कहिए कि ये युग ही झूठों का ,झूठों के द्वारा बनाया , झूठों द्वारा संचालित, झूठों द्वारा पालित, औऱ झूठों के हित साधन में साधित शोधित है। सत्यवादियों के लिए इस युग में कोई स्थान नहीं है। रहना है तो पड़े रहिए एक कोने में। अब इस युग में झूठों की ही चाँदी, और सच्चों की अच्छी बरबादी है।झूठों के साथ हाँ में हाँ मिलाते रहिए तो आपको भी खीर पूड़ी की महक से महकायित किया जाता रहेगा। अन्यथा बड़े आदमी , सच्चे आदमी बने पड़े रहिए अपने घरों में बंद नज़रबन्दों की मानिंद।

कौन  पूछने वाला है,
जब झूठों का बोलबाला है,
सच्चों की जुबां पर ताला है,
झूठों को ' गरम मसाला' है,
सच न कोई कहने वाला है,
न कोई सच बोलने वाला है,
यहाँ दलाल ही पलते हैं,
झूठ के दलाल मिलते हैं,
वकील भी सभी झूठ के रखवाले,
सच्चों के तो पड़ ही रहे हैं
जीने के लाले!
झूठ की ही जय है,
विजय है,
अब नहीं जीवित
महा भारत का संजय है,
टीवी है जो झूठों का
रखवाला है,
झूठों ने ही उसे
अपने साँचे में ढाला है,
 वही तो कहेगा
जो उसमें झूठा कहेगा,
कहलवाया जाएगा,
क्योंकि  पैसे से खरीदी है
अस्मिता टीवी की,
जनता को झूठ
दिखा ने की  यह भी
आधुनिक विधि भी।
अँधेरे की जय बोली
जाती है,
उजाले की किरण
अब शरमाती है।

शुभमस्तु!
✍लेखक ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गोरे-गोरे पाँव [गीत]

गोरे -  गोरे      पाँव   तुम्हारे ।
थिरकें   अँगना   में  रतनारे।।

चलती   हो   या नाच रही हो।
प्रेम -  पत्रिका  बाँच रही हो।।
थिरकन की किससे तुलना रे।
देख  न  हारे   नयन   हमारे।।
गोरे-गोरे पाँव ....

कटिसंचालन का क्या कहना
प्रातः की सुगंध  का बहना।।
गति लय लास्य ललित रचना रे।
पावन पायल  का बजना रे।।
गोरे-गोरे पाँव ....

सरिता में ज्यों लहर उछलती।
कल कल छल छल रम्य मचलती।।
मंत्र  -  मुग्ध   होते  हैं    सारे।
नील गगन के टिम टिम तारे।।
गोरे -गोरे पाँव ....

अधरों  में   मुस्कान  मनोहर।
चितवन से सारे दुःख खोकर।
झुकीं पलक  देखीं  हम हारे।
विधना ने अंग - अंग सँवारे।।
गोरे -गोरे पाँव ....

लोल कपोल  गुलाबी लज्जा।
कुंतल की सोहित नव सज्जा
'शुभम' सुखद पृष्ठांग कुँवारे।
देते पल - पल सबल  सहारे।।
गोरे-गोरे पाँव.....

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गाली -आचार [कुण्डलिया]

1
गाली   निकली  गाल से,
खटकी    दो -दो   कान।
खट्टी -  मीठी   भी  नहीं ,
तीखी     मिर्च   समान।।
तीखी     मिर्च    समान ,
जीभ  ने  आँखें   खोलीं।
गोली -  सी  लग  जाय,
ऐंठकर  यों  कुछ  बोली।
शुभ-शुभ  बोलो 'शुभम',
फेंक  मत   बालू  थाली।
बहुत   बुरा     हो   जाय,
अगर   फिर  दोगे गाली।।

2
गाली  पीना   सीख  लो,
जो    चाहो     कल्याण।
हेलमेट   रख   कान  पर,
करो   शीश  का  त्राण।।
करो   शीश  का   त्राण,
बोल कड़वे मत  बोलो।
जहाँ     प्रेम  रस     धार ,
कभी विषरस मत घोलो।।
कुर्सी   की   है  भूख जो,
मत   लुढ़काओ    थाली।
खीस न जाएगी 'शुभम',
बहुत   पड़ेंगीं      गाली।।


3
गाली,  जूता  ,  मार  से,
जो    नेता     है    सिद्ध।
जेल-वायु रुचती जिसे,
उसे  न   कहिए  गिद्ध।।
उसे  न  कहिए    गिद्ध,
जीवितों को जो खाता।
मानव     की   औलाद ,
ज़ुल्म मानव पर ढाता।।
एक   जाम     से   पीयें,
एक   ही   खाते  थाली।
आम बात है नेताजी का,
खाना                 गाली।।

4
गाली     देने   की  कला ,
नेताओं       से     सीख।
पहले  बन चमचा चतुर,
जोर -  जोर  से  चीख ।।
जोर - जोर    से  चीख,
प्रशिक्षण  ले -  ले पूरा।
 नेता  के सँग  खाएगा ,
तू     भी      घी -  बूरा।।
दीक्षा    कर   ले    पूर्ण ,
वार नहिं जाए  खाली।
एक साँस में साठ-साठ,
तब       देना     गाली।।

5
गाली      देना    जानते ,
लेने    में     क्या    रोष?
जो दोगे   मिलना  वही ,
कर   मन   में    संतोष।।
कर    मन   में   संतोष,
कौन कम तुमसे कन भर,
दोगे      एक       छटाँक ,
मिलेगा तुमको मन भर।।
'शुभम ' न   जाओ   दूर ,
सिखा    देगी    घरवाली।
रहो   पुलिस   के  साथ ,
मुफ़्त  में  सीखो गाली।।

6
गाली   नेता   को  मिले,
जनता    की      बेभाव।
साले  जी    सबके  लगें,
लगे  न    उर  में   घाव।।
लगे  न    उर   में   घाव,
अरे !    पत्नी  के भैया !,
जीजाओं    की    सोच ,
अन्यथा    डूबे     नैया।।
पाँच   साल   भी दिखे ?
न सड़कें   नाला - नाली।
जूते   के      संग    मिलें ,
ब्याज    में   गंदी  गाली।।

7
गाली   के  आचार  का ,
युग  आया     है  आज।
जो   नेता   गाली   बके,
शोभित  उसके  ताज।।
शोभित  उसके   ताज,
गले  में    माला  भारी।
चमचे         जिन्दाबाद,
हो  गए परम  सुखारी।। 
भोग  लगाओ भर-भर,
किशमिश मेवा -थाली।
ध्वनि   विस्तारक   यंत्र,
प्रसारित करते गाली।।

8
गाली  की डिग्री  प्रथम-
श्रेणी    में     अनिवार्य।
नेताजी   को     चाहिए,
तभी  सफ़ल सब कार्य।
तभी  सफ़ल सब कार्य,
पंक की   खेलें   होली।
जाय    हृदय    के  पार,
आग की जलती गोली।।
'शुभम'नहीं साहस कानों में,
बहती             परनाली।
गिनगिन           अपने, 
विरोधियोंको देते गाली।।

9
गाली  से    ही   हो रहा ,
वाक -  प्रदूषण   तेज़।
वायु   प्रदूषित   हो गई ,
ख़बर    सनसनीखेज।।
ख़बर     सनसनीखेज,
भरे   अख़बारहु  टीवी।
भाषण    सुनकर  लड़े,
घरों  में   घरनी  बीवी।।
गाली  हो   गए   गीत ,
चल रहीं  शहर दुनाली।
भूल      गईं     नारियाँ ,
ब्याह  में गाना गाली।।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
💚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...