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शनिवार, 16 दिसंबर 2023

इच्छा● [ कुंडलिया ]

 537/2023

     

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●© शब्दकार

●  डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                     -1-

इच्छा -  सागर  देह में,उमड़ रहा दिन -  रात।

मन में उठे   हिलोर -  सी,कही न जाए  बात।।

कही  न   जाए  बात, कहें उतनी कम   होती।

इच्छा उर  के  बीच,बीज  नित अनगिन बोती।।

'शुभम्'  खो गया चैन,हृदय होता न   उजागर।

पूरी   होती   एक , उठे   फिर  इच्छा - सागर।।


                        -2-

मानव - मन में  उग  रहे,  नित इच्छा   के   बीज।

जब  तक   बने  न  पेड़ वे, लगने लगीं  पसीज।।

लगने   लगीं    पसीज,   और  इच्छाएँ    सारी।

मुर्झातीं  कुछ  एक,  बहुत  कुछ जातीं    मारी।।

'शुभम्'  न माना  हार,नहीं  झुकता  है   दानव।

रक्तबीज  -  सी   नित्य,उगाता इच्छा    मानव।।

                        -3-

गागर   में  जब  छेद  हो,रुके न जल   की  बूँद।

मानव - मन  वैसा  बना , कौन सका   है   मूँद।।

कौन सका है  मूँद,अपरिमित इच्छा - जल  से।

घटता - बढ़ता   इंदु, बना मानस की   कल   से।।

'शुभम्' न सीमित बिंदु,रिक्त पल -पल हो सागर।

जीवन   का  हो  अंत,  नहीं भरती यह     गागर।।

                       -4-

सबकी   इच्छा   है यही, रहे  जगत   में    शांति।   

रूस,  चीन   या  पाक हों,नहीं चाहते   क्रांति।। 

नहीं  चाहते   क्रांति,आग फिर कौन   लगाता।

रहे   जमालो  दूर, खड़ी  फिर पास  न   आता।।

'शुभम्'शांति किस ठौर,काँपती दुबकी जग की।

बना  क्रूर   सिरमौर, उचित  इच्छा है    सबकी।।


                         -5-

नेता  की  इच्छा  नहीं, करना  देश - विकास।

नारा  ही   देता   रहे, और  न  कोई    आस।।

और   न   कोई  आस, झुनझुना बजते रहना।

इतना  ही  बस  काम, तिजोरी भरता  गहना।।

'शुभम्'  दाम   का  दास,नहीं  कुछ  नेता  देता।

झोपड़ियों     का  वास, रहे  महलों   में   नेता।।


●शुभमस्तु !


15.12.2023●5.00प०मा०

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बुधवार, 27 जुलाई 2022

दिए ब्रह्म नौ द्वार 🪦 [कुंडलिया]

 

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✍️ शब्दकार©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

जीता   कोई  पेट को,कोई निज   परिवार।

रँगा जाति के रंग में,जुड़े जाति    से  तार।।

जुड़े  जाति  से तार,भेजता बिजली  पानी।

बना  कूप   मंडूक, बनाता   नई   कहानी।।

'शुभम्' यहीं तक देश, उसी में जीवन  बीता।

भेदभाव  में  लीन, नहीं मानव बन   जीता।।


                         -2-

मन की छोटी सोच की,क्षमता ज्यों खुर छाग

रहता बिल में और के,काला विषधर  नाग।।

काला  विषधर  नाग,देश  की भक्ति न जाने।

करे अन्न-आहार,  उचित विष -दंशन  माने।।

जीता  जैसे ढोर,मात्र चिंता निज  तन   की।

'शुभम्'करें पहचान,सोच जानें लघु मन की।


                         -3-

पाहन  को  हम पूजते,मान उसे   भगवान।

ईश्वर  भी साकार है,दे मानव यदि   ध्यान।।

दे मानव  यदि ध्यान,पिता- माता  भी मेरे।

गुरु भी  ब्रह्म स्वरूप,ज्ञान के कोष  घनेरे।।

'शुभम्'न सबसे मूढ़,मिलेगी उसे सु-राह न।

हो मन में  सद्भाव, तुझे  फल देंगे   पाहन।।


                         - 4 -

तेरे   तन  में   दे  दिए,  कर्ता ने  नौ   द्वार।

आनन अपना छोड़कर,क्यों न करेआहार?

क्यों न करे आहार,आँख या जाकर नीचे।

चल  हाथों   से  मूढ़, पैर से नीर    उलीचे।।

'शुभम्' कान से देख,नाक से श्वास न ले रे।

मुख से खुशबू सूँघ, उलट सब कराज तेरे।।


                          -5-

धाता  ने नर को दिए,विधिवत देह - विधान।

पालन  सबका  एक ही,सोहन या सलमान।।

सोहन  या  सलमान, उदर  में मुख से लेना।

चलें  राह  में  पैर, हाथ  से ही कुछ   देना।।

'शुभं'न विधि विपरीत,धरा में नर अपनाता।

फिर क्यों भेद-कुभेद, पालकर छोड़े धाता।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०७. २०२२◆६.३०पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 30 जून 2022

टपका टपके डाल से🥭🌳 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🥭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

बीता आधा मास यों,  उमस भरा आषाढ़।

आए बादल झूमकर,झर-झर झरा प्रगाढ़।।

झर-झर  झरा प्रगाढ़, गिरे अंबर से पानी।

प्यासी  धरती मौन, पहनती साड़ी  धानी।।

'शुभम्' न गरजे मेघ,नहीं है जल घट रीता।

सुखी हुए जन जीव,समय सूखे का बीता।।


                         -2-

आए घन सुख शांति ले,हर्षित हुए  किसान।

ताक  रहे  थे  शून्य  में,करते उनका   मान।।

करते   उनका  मान,   श्वेत बादल  गहराए।

रोक  हवा  की  साँस,खोल बाँहें  वे  छाए।।

'शुभम्' न आतप शेष,सिंधु से जल भर लाए

रहा  न खारी  नीर,उतर अवनी पर  आए।।


                         -3-

ऊपर  प्यासी  दृष्टि से,तकता स्वाती - भक्त।

सारन बैठा शाख पर, निज प्रण में  अनुरक्त।

निज  प्रण में अनुरक्त,मेघ स्वाती  के आएँ।।

गिरे  मेघ   से बूँद, चंचु  में  जल  ले   पाएँ।।

'शुभम्' न पीता नीर,बहे जल गंगा  भू  पर।

रखता अपनी टेक,ताकता चातक  ऊपर।।


                         -4-

डाली वृक्ष  रसाल की,कूक रही  दिन- रात।

पिक अब बैठी मौन हो,जब देखी बरसात।।

जब  देखी  बरसात,मग्न झुरमुट   में  ऐसी।

जन्मजात  हो  मूक,साध  चुप बैठी   कैसी।।

'शुभम्' पपीहा पीउ, नाद की रट   मतवाली।

सुनते लेश न  कान,नहीं अब गूँजे   डाली।।


                         -5-

टपके  टपका  डाल से,अमराई की   छाँव।

बालक युवा किशोर भी,चले छोड़कर गाँव।

चले  छोड़कर  गाँव,  लूटते जो  पा  जाएँ।

पीत  महकते आम, चूसकर वे  सब  खाएँ।।

'शुभम्'  न जिनके दाँत,पोपले बाबा लपके।

पके पिलपिले आम,बाग में मिलते   टपके।।


🪴 शुभमस्तु !


३०जून२०२२◆१.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 13 जून 2022

कीले जाने साँप हैं! 🎯 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🎯 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

कीले   जाने  हैं  सभी, आस्तीन  के   साँप।

इस धरती का खा रहे,लिए परख वे  भाँप।।

लिए  परख वे भाँप, गीत औरों    के  गाते।

डंसते पालक हाथ,गैर का साथ     निभाते।।

'शुभम्' देखना  आज,पड़ेंगे ज्यों  वे   ढीले।

पड़े  मंत्र  की घात, त्वरित जाएँगे    कीले।।


                          -2-

तेरी  काली  चाल  में, मिले सदा    आघात।

खेल खेलता तू रहा,सदा किया  शह- मात।।

सदा किया शह -मात, चित्त भी पट भी तेरी।

 नीति नियम को झोंक,आग में चढ़ा मुँडेरी।।

'शुभम्' उठा पाषाण, मीत की ड्यौढ़ी  घेरी।

तोड़ी घर ,दूकान,यही थी क्या शह    तेरी!!


                        -3-

पाया नहीं चरित्र को,उस पर क्या   विश्वास!

मित्र,बहिन,माता नहीं,ज्यों बकरी को घास।।

ज्यों बकरी कोघास,उसे बस चारण  करना।

शूकरवत   संतान,  देह तापानल    हरना।।

'शुभम्'गमन का खेल,नहीं जो कभी अघाया

भरे सड़क मैदान, मनुज तन पशुवत पाया।।


                         -4-

काया से  कुछ काटकर,नाले में  भर  झोंक।

अलग अन्य से मानता,अलग बोल की पोंक।

अलग बोल की पोंक,अलग ही अपनी टोली।

सामिष  का संचार, सरसता थोथी    पोली।।

'शुभम्' भीड़ संतान, भीड़ लेकर वह  धाया।

हिंसा में  नित लीन, काम- रस डूबी  काया।।


                         -5-

बेहड़  में   भी शेर की, चलती है  सरकार।

पशु, पक्षी सब मानते, अपना ही  सरदार।।

अपना ही सरदार ,एक सम संविधान    है।

सब करते सम्मान, न कोई खींच-तान   है।।

'शुभम्'मनुज में हीन,आज भी है जन-रेवड़

हुर्र - हुर्र  के बोल , गुँजाते मानव  -  बेहड़।।


🪴 शुभमस्तु !


१३ जून २०२२ ◆१०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।



सोमवार, 30 मई 2022

गंगा माँ 🏞️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

गंगा  माँ  हरिद्वार  में , पावनता   की   धार।

अघ-ओघों को तारती,करती भव  से   प्यार।

करती भव से प्यार,बुलाती निज भक्तों  को।

आधि-व्याधि से दूर,करे माँ अनुरक़्तों को।।

'शुभम्' शांति का धाम,बनाती तन मन चंगा।

झुका चरण में शीश, किया करता माँ गंगा।।


                        -2-

गंगा  माँ  की  गोद  जा,हरती देह  - थकान।

जैसे  जननी  अंक में, वैसा  गंग  -  नहान।।

वैसा गंग-नहान, ताप  नाशिनि   सुरसरिता।

मानव का कल्याण,किया करती दुख हरिता

'शुभम्'न रुकती धार,हिमाचल से चल बंगा।

लुटा  रही  माँ  प्यार, पावनी शीतल   गंगा।।


                        -3-

गंगा माँ जलरूपिणी,हरतीं जल   दे  प्यास।

फसलों का सिंचन करें,हरे वृक्ष,  वन, घास।।

हरे  वृक्ष, वन, घास, लताएँ नित   लहरातीं।

जल पीते जन, जीव,हवाएँ रहीं  न   तातीं।।

'शुभम्' सुशीतल घाम,पखेरू रंग  -  बिरंगा।

कच्छप जल घड़ियाल,मस्त रमते जल गंगा।


                         -4-

गंगा  माँ  का जल सदा,पावन सद  निर्दोष।

कृमि उसमें पनपें नहीं, औषधियों का कोष।

औषधियों  का  कोष,मिटाता रोग    हमारे।

दुर्गंधों   से  दूर,  पान    कर  बिना  बिचारे।।

'शुभम्' करे यदि वास,किनारे भूखा -  नंगा।

देतीं  अपना  नेह,  तरंगिणि माता     गंगा।।


                        -5-

गंगा माँ  की  आरती , होती नित    हरिद्वार।

पौड़ी  के  हर घाट पर,सजता है    त्यौहार।।

सजता  है  त्यौहार, बजाते घन  - घन   घंटे।

तन्मय  होती  भीड़, भुला जीवन  के  टंटे।।

'शुभम्' महकती गंध,पावनी विरल   तिरंगा।

फहराता  हर ओर,लहरती पावन    गंगा।।


🪴 शुभमस्तु !


२८ मई २०२२◆५.००

पतनम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 12 मई 2022

पंचरंगी कुंडलिया 🪬 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

करके चोरी 'विज्ञ'जन , बाँट रहे  नित ज्ञान।

स्वयं  नहीं  करते कभी,ऐसे विज्ञ    महान।।

ऐसे  विज्ञ  महान,  ज्ञान की बहती      गंगा।

बनी  हुई   नद - नाल, बाँटने वाला    नंगा।।

'शुभम् सुनामी तेज,पहाड़ों से जल गिरके।

करते स्वर आक्रांत ,ज्ञान की चोरी  करके।।


                        -2-

पढ़ते  थे  पहले कभी,गुटखा ध्यान  लगाय।

अब गुटखा खाने लगे, दाँतों तले   चबाय।।

दाँतों  तले   चबाय ,थूकते खैनी      चुनही।

ज्यों घुन खाता काठ,जुटे वे अपनी धुन ही।

'शुभम्' न डरते लोग , राह कर्कट की चढ़ते।

बूढ़े,बालक ,युवा , नहीं अब गुटखा   पढ़ते।।


                        -3-

पीना  नहीं  पसंद  है, नवजातों  को   दूध।

चुसनी में अब चाय है,भावे तनिक न ऊध।।

भावे तनिक न ऊध,विकृत मति माती माता।

रुकती  नहीं  शराब,पुत्र झोला भर  लाता ।।

'शुभम्' सुरा का दौर,इसी से मरना - जीना।

बोतलवासिनि अंक लगाए, ढंग  से  पीना।।


                        -4-

होती है शुभ भोर की,नई किरण जब लाल।

चार  बाँस सूरज चढ़े,उठता पूत  निहाल।।

उठता पूत निहाल,करे मदिरा से   कुल्ला।

करता है बहु शोर, जगाता सभी  मुहल्ला।।

'शुभम्' देख शुभ रंग, बैठकर  मैया  रोती।

छिद्र हुआ जलयान,भाग्यलिपि उलटी होती।


                        -5-

दारू  पीकर  नाचना ,बहुत जरूरी  आज।

ठुमका  लगे   बरात में,बने हुए  सरताज।।

बने  हुए सरताज,न टुकड़ा मुँह में  जाए।

पहले  पीना  खूब,बाद  भोजन  सरकाए।।

'शुभम्' आज की रीति, खजाना पाया कारू।

हुआ  नशे  में  चूर, मिली अंगूरी      दारू।।


🪴शुभमस्तु !


११.०५.२०२२◆३.००

पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

सर्व तीर्थमयी माता 🪔 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

माता   गंगा   पावनी, सबसे तीर्थ    महान।

माता  चारों  धाम है,माँ  मानव  का   मान।।

माँ मानव का मान,वही शुचि मथुरा काशी।

रामसेतु हरिद्वार, जननि संतति अघनाशी।।

'शुभं' वही सुत श्रेष्ठ,नित्य जननी को ध्याता

सेवा हर दिन-रात,किया करता निज माता।।


                        -2-

माता  की माने नहीं,जो संतति  शुभ  बात।

तीर्थ सभी व्रत व्यर्थ हैं,करता है निज घात।।

करता  है निज घात, धतूरे- सा खिलता  है।

पापों का परिणाम ,सुता -सुत में मिलता है।।

'शुभम' जननि का रूप,धूप वर्षा में  छाता।

घर बनता सुरलोक,जहाँ पूजित  हो माता।।


                        -3-

माता है सब देवमय,पितर बसें   पितु   देह।

सभी तीर्थ उस गेह में,जहाँ प्रेम  निधि मेह।।

जहाँ प्रेम निधि मेह, बरसता झर-झर प्यारा।

नहीं डूबती नाव,सभी को मिले   किनारा।।

'शुभम'वही शुभ धामवही नर जग को भाता

जननि-जनक हैं तीर्थ,शक्ति श्री धी की माता


                             -4-

माता ने  निज  कुक्षि में,रखा तुम्हें  नौ  माह।

तन-मन  की हर भावना,तृप्त अधूरी  चाह।।

तृप्त  अधूरी  चाह, तीर्थ  हर यमुना - गंगा।

नहीं  वसन का  लेश,सर्वथा ही   था  नंगा।।

'शुभम'मान-अपमान,नहीं था उर में  आता।

जीवन की वह शान, श्रेष्ठतम होती  माता।।


                        -5-

माता   के   स्तन्य  में,  पावन गंगा  -  धार।

तीर्थराज की छाँव भी, उज्जयिनी हरिद्वार।।

उज्जयिनी हरिद्वार,अवध मथुरा या काशी।

कण-कण में ब्रजभूमि,वहीं रहते अविनाशी

'शुभम'पिता के साथ, पुत्र जो माँ को ध्याता।

नित उसका उद्धार,किया करते पितु माता।


🪴 शुभमस्तु !


०६.०४.२०२२◆२.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

रविवार, 20 मार्च 2022

फुनगी फागुन की 🎋 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

फुनगी फागुन की फबी,फाग होलिका संग।

चहकीं चिंतित गोरियाँ, हुईं चोलिका  तंग।।

हुईं  चोलिका तंग,हुआ क्या मुझको  ऐसा।

उर में उठे हिलोर, ज्वार तन- मन में कैसा!!

जागा 'शुभम'वसंत,आग ये कैसी  सुलगी।

दिखता नहीं अनंग,आम की बौरी फुनगी।।


                        -2-

फुनगी  पर  बैठा हुआ, कामदेव  शर  तान।

पंच पुष्प के तीर हैं,सज्जित सुमन  कमान।।

सज्जित सुमन कमान, तान कर तन में मारे।

गोपित  उर के  भाव, फाग के रंग   उघारे।।

'शुभं'अवश नर- नारि,देह में सुलगी चिनगी।

कोकिल बोले बोल,बैठ अमुआ की फुनगी।।


                        -3-

फुनगी फरफर फाग में,फन की है चमकार।

लाल, गुलाबी  या  हरी, बढ़ने लगे   उभार।

 बढ़ने  लगे  उभार,  काम - अंकुर  रतनारे।

कामिनि के शृंगार, दिखाते दिन  में   तारे।।

खिलते 'शुभम'पलाश,मोर की नाचे कलगी।

झूम  रही  है शाख, लिए मतवाली  फुनगी।।


                        -4-

फुनगी -फुनगी फाग है,फागुन संग  वसंत।

विरहिन तरसे सेज पर,लौटे अभी न कन्त।

लौटे अभी न कन्त, सौत ने क्या भरमाए?

वादा निभा,न फोन,किया घर वापस आए।।

मन हो गया मतंग,आग तन -मन में सुलगी।

'शुभं'दुखद बरजोर,सुमन-सी फूली फुनगी।


                        -5-

ब्रज  में  जे होरी मिलै,बड़े भाग नर   जान।

तन पै  लत्ता  बचि  रहें,   ख़ैर इसी में मान।।

खैर  इसी   में  मान,  घुटन्ना ऊ  बचि  जावै।

बिना पिटे  बुद्धू घर, अपने वापिस आवै।।

'शुभम' तरसते देव,लोटिवे जा ब्रज - रज में।

लगै जेठ हू दिवर,फाग के जा शुचि ब्रज में।।


🪴शुभमस्तु !


१९.०३.२०२२◆१२.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

सरकारी संत 🐧 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

हम  सरकारी   संत  हैं, रहना हमसे    दूर।

उपदेशक हम  ज्ञान के,करने को  मजबूर।।

करने को  मजबूर,  मलाई आश्वासन   की।

तुम्हें  चटाते  खूब, मिठाई निज भाषन की।।

'शुभम' न  हमको पाप,झूठ की हम बीमारी।

पहले अपनी जाति, संत हैं हम  सरकारी।।


                        -2-

कोई   भी   जाने नहीं, हम सरकारी    संत।

अवगुण  के भंडार हम,धारण पाप  अनंत।।

धारण पाप अनंत, समझना मत हम भोले।

अभिनेताई    नित्य,  बोलते  हैं   अनतोले।।

'शुभम' भिड़ेगा कौन,बुद्धि जिसकी हो सोई।

शिक्षा  से हम  दूर, नहीं समता  में   कोई।।


                         -3-

सरकारी   तालाब   में, मछली हैं    भरपूर।

हर छोटी को खा रही, मछली बड़ी  अदूर।।

मछली  बड़ी  अदूर,चाहते हम  ही जीना।

पीते रक्त अबाध, तानकर अपना   सीना।।

'शुभम'बहाना स्वेद, आम जन की लाचारी।

चाहें धन,पद, मान,  संत   सारे  सरकारी।।


                         -4-

दिन -दिन  तेरे  कान  में,मंत्र फूँकते    संत।

भेजे चुन तालाब में,बहु घड़ियाल सु - दंत।

बहु घड़ियाल सु-दंत,व्यर्थ है पढ़ना   सारा।

बिना पढ़े हर साज,मिला है हमको   प्यारा।।

'शुभम' त्याग स्कूल,रहो नोटों को गिन- गिन।

निखरे तेरा ओज,मंत्र तू जप ले दिन -दिन।।


                         -5-

धुले -  धुलाये  दूध के,सब सरकारी   संत।

आदर्शों  की  लीक पर,चलना ही  है  पंत।।

चलना ही है  पंत,दिखावट विज्ञापन  - सी।

चमक-दमक है बाह्य,विधाता के सर्जन-सी

'शुभम' न आते पास,कभी वे बिना   बुलाए।

सब  सरकारी  संत,  दूध के धुले - धुलाये।।


🪴 शुभमस्तु !


२५.०२.२०२२◆३.०० पतनम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

कुहू -कुहू की टेर 🌳 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        [1]

फूली -  फूली  हर  कली, आएँगे   ऋतुराज।

डाल-डाल सजने लगी,नव पल्लव का साज।

नव पल्लव का साज,खिली पाटल की डाली

महक रहें हैं  बौर, बाग का प्रमुदित    माली।

'शुभम' सुमन की शाख, भृङ्ग की टोली झूली

आयँगे  प्रिय  कांत,यौवना मन   में    फूली।


                        [2]

खिलती नभ में चाँदनी,फागुन का शुभ मास

सखी,सखी से कह रही,मन में रख  विश्वास

मन में  रख  विश्वास,सजन तुझको   पाएँगे

मिटे विरह का  ताप,लौट शुभ दिन   आएँगे

'शुभं'सुखद परिणाम,सोम से रजनी मिलती

लेता है निज अंक, चंद्रिका हँसती  खिलती


                        [3]

करती कोकिल बाग में,कुहू- कुहू  की टेर।

प्रोषितपतिका  के हिए,विरह करे   अंधेर।।

विरह  करे  अंधेर,रात भर नींद  न  आए।

दिन भर उर बेचैन,सेज नागिन डस  जाए।।

'शुभम' जवानी बैर, कर रही बाला  डरती।

अंग-अंग में आग,दहन कामिनि का करती।


                        [4]

होली  में ऋतुराज ने, ऐसा किया   धमाल।

खिलती कलियाँ देखकर,बुरा हॄदय का हाल

बुरा हृदय का हाल,महकता तन-कुसुमाकर।

प्रमुदित भौंरा आज,फूल का मधुरस पाकर।

'शुभम'बजें ढप-ढोल,कसक उठती है चोली।

रोली,रंग,गुलाल,खेलते हिल- मिल   होली।।


                        [5]

पीले  पल्लव   झर रहे,करती ऋतु   शृंगार।

लाल लाल कोंपल खिलीं,आने लगी बहार।।

आने  लगी  बहार,नीम, पीपल,  वट    सारे।

 बदल रहे तन-वेश, नदी के स्वच्छ  किनारे।।

'शुभं'चले ऋतुराज,सुमन हैं अरुणिम नीले।

कर लें स्वागत आज,पुहुप गेंदा  के  पीले।।


🪴 शूभमस्तु !


२२.०२.२०२२◆१०.००

पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

पंजीरी खाते गधे 🍃 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

खाते     पंजीरी   गधे,पाहन चुगते    हंस।

लोकतंत्र  में  काग ही,बने फिरें  अवतंस।।

बने फिरें   अवतंस,आम नित चूसें    सारे।

कोकिल, हंस, मयूर, बिलखते मारे - मारे।।

'शुभम'भौंकते श्वान,क्वार में ज्यों मदमाते।

गधे छोड़कर घास,पँजीरी निशि दिन खाते।।

                        -2-

बातें करते देश  की,करना उन्हें   विकास।

अपना घर सोना करें,और नहीं कुछ आस।

और नहीं कुछ आस,देश को पीछे  छोड़ा।

ले झण्डे की आड़,निजी हित मुख को मोड़ा

'शुभम' देश के नाम,समर्पित हैं दिन- रातें।

लगें सुहाने  ढोल,मधुर स्वर करते    बातें।।

                        -3-

सेवक  कहकर देश के,बन जाते   हैं  ईश।

मतमंगे बन चरण छू,फिर झुकवाते शीश।।

फिर झुकवाते  शीश,नहीं फिर  दर्शन  देते।

कर अपना  उद्धार,नाव अपनी  ही   खेते।।

'शुभम' भक्त का वेश,रखे कहलाते खेवक।

बगले बनते हंस, देश का कहते    सेवक।।

                        -4-

बदली परिभाषा  सभी,बदल रहा  है  देश।

गुण, चरित्र  पीछे गए,बचा देह  का  वेश ।।

बचा देह का वेश, सियासत सच्ची  पूजा।

बस परचम की छाँव,नहीं कुछ उनको दूजा।

' शुभं'हंस की चाल,चल रहा भाषा फिसली।

मानव है भयभीत, छा रही काली  बदली।।

                        -5-

सेवा  कैसी  देश   की,  गहे बिना  पतवार।

मत की पकड़ें नाव वे,बढ़-चढ़ हुए  सवार।।

बढ़-चढ़  हुए सवार, सजाए ऊँचे     झंडे।

सँग चमचों की फौज, मत्त-मदिरा मुस्टंडे।।

'शुभम' नित्य तमचूक,दे रही उन्हें  कलेवा।

खूँटा हो  मजबूत,तभी हो जन की   सेवा।।


अवतंस=महान,श्रेष्ठ व्यक्ति।

तमचूक=मुर्गी।


🪴 शुभमस्तु !


०४.०२.२०२२◆ ११.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।

शनिवार, 29 जनवरी 2022

वृद्ध का आलाप 🧑🏻‍🦯 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

हमको  अब  लगने लगा,बना बुढ़ापा मीत।

 भरा -भरा खाली लगे,गया गात यह  रीत।।

गया  गात   यह  रीत, प्रौढ़ता बीती    सारी।

रहा न  यौवन   शेष,लगीं तन में   बीमारी।।

'शुभम'फूलती साँस,उजाला समझे तम को।

चौथेपन का पाँव,निकल आया  है  हमको।।

                        -2-

पहले तन में शक्ति थी,यौवन जिसका नाम।

तन की ताकत घट रही,जीवन की  है शाम।।

जीवन  की  है  शाम, शेष  हैं अनुभव  सारे।

सुनते  युवा न  बात, सुता या पुत्र    हमारे।।

'शुभम' दे रहे सीख, मार नहले  पर  दहले।

बदला है युग आज,वही अब हमसे   पहले।।

                        -3-

देकर   सौगातें    सहस,  गेह बनाई    देह।

बचपन,यौवन , प्रौढ़ता, नर- जीवन के मेह।।

नर - जीवन  के  मेह,वसंती ऋतु  सरसाई।

जुड़ा  काम  से नेह,करी करनी   मनभाई।।

'शुभम' खिले जब फूल,सुगंधें पावन   लेकर।

दिए नहीं कटु  शूल,जिया अपने को  देकर।।

                        -4-

मेरे  तन   में  वेदना ,सता रही दिन -   रात।

कभी पीर घुटने करें,कभी कमर  में  वात।।

कभी  कमर में  वात,टीसती दिन भर ऐसे।

चुभते   हैं  बहु  शूल,धतूरे के फल    जैसे।।

'शुभम' बुढ़ापा   मीत, दे रहा कष्ट    घनेरे।

भूल  गया  सब  ज्ञान,द्वार पर बैठा     मेरे।।

                        -5-

कविता  माँ की गोद में, विस्मृत  वृद्धालाप।

वही  पिता ,माता वही, वही ईश  का  जाप।।

वही  ईश  का   जाप ,साठ वर्षों    से    मेरा।

उर का वहीं  निवास ,सबल बाँहों   ने  घेरा।।

'शुभं'काव्य मम सोम,काव्य ही  मेरा सविता

प्रसरित भव्य प्रकाश, सँजीवनि हिंदी कविता


🪴 शुभमस्तु !


२९.०१.२०२२◆२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

रविवार, 23 जनवरी 2022

सुन साँचों का साँच ⛵ [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

⛵ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                       -1-

साँचे  में  ढल आदमी, हुआ साँच  से   दूर।

जैसे  मेढक  कूप  का,उछले नित   भरपूर।।

उछले   नित  भरपूर,वही  है दुनिया  सारी।

सजी  चार ही  हाथ,  कूप  में चारदिवारी।।

'शुभम'  कूदता  मूढ़,भरे नर नित्य  कुलाँचे।

समझ स्वयं को ईश, बना माटी  के  साँचे।।

                        -2-

रंगा  जी  ने रँग  लिए, साँचे कितने    आज।

लाल,हरे , पीले  चुने,  बनने को    सरताज।।

बनने  को सरताज ,अलग पहचान दिखाए।

गिरगिट   जैसे   रंग, देह पर बदले    पाए।।

'शुभम'  कहाँ  है  साँच, नहाते गदहे   गंगा।

चमके भाल त्रिपुंड, पैर से सिर  तक  रंगा।।

                        -3-

मानवता  के  नाम का,गढ़ा न साँचा   एक।

पक्षपात  की आग  में, झोंकी करनी  नेक।।

झोंकी  करनी  नेक, वाद  की भट्टी जलती।

शेष नहीं है न्याय,मनुजता निज कर मलती।

'शुभम'   झपट्टामार,  सदा से है   दानवता।

साँचों  का संसार ,मर रही नित  मानवता।।

                         -4-

अपने - अपने  मेख  से, बाँध मेखला  एक।

चमकाता निज नाम को,नहीं कर्म की टेक।।

नहीं  कर्म   की टेक,बदलता सिर की टोपी।

दिखा धर्म की आड़,बाड़ उपवन में रोपी।।

'शुभम' झूठ के गान,दिखाते स्वर्णिम सपने।

कुर्सी से यश मान,जाति के सब जन अपने।

                          -5-

माटी साँचों  की नहीं, होती अति  मजबूत।

सीमा  भी उसकी कभी,होती नहीं  अकूत।।

होती नहीं अकूत, सोच  को रोक  लगाती।

स्वच्छ नहींआकाश,घुटन नित बढ़ती जाती।

'शुभम' जानता साँच, धूल धरती  की चाटी।

सीमाओं को त्याग, फाँक मानव की माटी।।


*मेख =खूँटा।

*मेखला= शृंखला,जंजीर।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०१.२०२२◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 3 जनवरी 2022

शीत-कुंडली पूस की! ❄️ [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

❄️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        - 1-

कंबल में रुकता नहीं, पूस माघ  का  शीत।

दादी पोते  से कहे,कब हो  ठंड   व्यतीत।।

कब हो ठंड व्यतीत,शीत अब सहा न जाता

काँपे थर - थर  देह, हृदय  मेरा   घबराता।।

'शुभं'ताप कर आग,मिले तन मन को संबल।

बरसे तुहिन अपार,रोक क्या पाता  कंबल।।

                        -2-

छाया चहुँ दिशि  कोहरा,चादर  ओढ़े   सेत।

वन - उपवन को  घेरता,घेर लिए  हैं  खेत।।

घेर लिए  हैं खेत, पेड़  से टप- टप  बरसे।

ठिठुर रहे तरु कीर,कुकड़ कूँ बोले घर से।।

'शुभम'काँपते ढोर,शीत की व्यापक माया।

कभी मंद -सी धूप,कभी बादल की छाया।।

                         -3-

फूले  गेंदा  खेत   में,   महके बाग   गुलाब।

रंग-बिरंगी तितलियाँ,शीतल- शीतल आब।

शीतल-शीतल आब,ओस कण पादप भारी

चमकें  मुक्ता - बिंदु,भ्रमर मकरंद   पुजारी।।

'शुभम'शीत के गीत,गा रहे मद    में   भूले।

कुंजों में  गुंजार, सुमन  उपवन   में   फूले।।

                        -4-

सरसों फूली खेत में,ज्यों नव चादर  पीत।

शिशिर, शीत हेमंत में,हिल-मिल गाती गीत।

हिल -मिल गाती गीत,कृषक मन में  हर्षाये।

नाच रहा गोधूम,नयन को अति मन भाए।।

'शुभम'मटर की बेल,आजकल भी या बरसों

झूमे  मस्त  किसान, संग में नाचे    सरसों।।

                          -5-

पहने ऊनी  आवरण, बचा  रहे  निज  गात।

नर,नारी,बालक,युवा, काँप रहे  ज्यों  पात।।

काँप रहे ज्यों पात,नहाना कठिन  बड़ा  है।

पिछले से इस साल, शीत ये बहुत  कड़ा है।।

'शुभम' सँभल जा मीत, ठंड पहले से दूनी।

अगियाने  के  पास ,बैठ नर पहने   ऊनी।।


🪴 शुभमस्तु !


०३.०१.२०२२◆४.१५

पतनम मार्तण्डस्य।

रविवार, 2 जनवरी 2022

पाँच छंद:पाँच रंग 🌻 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

बढ़ता जाता काल का,पहिया नित अविराम।

संग समय के चल रही,सारी सृष्टि  ललाम।।

सारी सृष्टि  ललाम,तत्त्व पाँचों हैं   गति   में।

सदा सृजन  संहार,  जीवधारी रत  रति  में।।

'शुभम' नई प्रति भोर,दृश्य सबके मन भाता।

सकल चराचर लोक,रश्मिवत बढ़ता जाता।।

                        -2-

आगत का स्वागत करें,अभिनंदन शत बार।

विदा हुआ इक्कीस जो,उसका  है आभार।

उसका है आभार,अनुज उसका  है  आया।

वर्ष नवल बाईस,विश्व जनगण को  भाया।।

'शुभं'मिले आशीष,भाल शुचि अपना है नत

मात पिता ही ईश,सुहृद हो अपना आगत।।

                        -3-

मेरे  भारत  देश   की , धरती पूज्य    महान।

फसलों का सोना उगे,कृषि किसान की शान

कृषि किसान की शान,फूल फल अन्न उगाए

दुग्ध ,शाक भंडार,सभी जन जन को भाए।।

'शुभम' इत्र  का  खेल, खेलते लोग    घनेरे।

चमत्कार   का  देश ,  सपेरे   भी   हैं   मेरे।।

                        -4-

आतीं- जातीं वर्ष में ,ऋतुएँ षट- षट  बार।

पावस नव मधुमास की,पावन विरुद बहार।

पावन विरुद बहार,ग्रीष्म हेमंत    उजाला।

शरद शिशिर का शीत, करें तन मन मतवाला

'शुभम' बरसते मेघ, फूल - पत्ती   मदमातीं।

चमकें सूरज चाँद,चाँदनी खिल खिल आतीं।

                        -5-

बीमारी   भेड़ाचरण, करें देश    में    योग।

पीछे  चलना  धर्म  है,यही  देश  का   रोग।।

यही  देश का रोग, बुद्धि का विदा दिवाला।

खाता सूखी घास, सोच का मोख निकाला।।

'शुभम'  देश  की  साख, मारते  भेड़ाचारी।

हुई सियासत रूढ़, बढ़  रही नित बीमारी।।


🪴 शुभमस्तु !


०२.०१.२०२२◆११.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

रस -कामना 🌳 [ दोहा - गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मूँगफली  की नाक पर,जब हो नर्म  प्रहार।

बाहर दाने झाँकते, खुल जाता  है   द्वार।।


नीबू   नारंगी    सदा,  देते   रस    भरपूर,

पड़ता मंजु दबाव जो,वैसी कामिनि  नार।


फूल - फूल  भौंरा  गया,पाने मधु    मकरंद,

जब होती रस-कामना,लगे न श्रम भी भार।


बाहर  आना  चाहता, गर्भान्तर   से   भ्रूण,

सश्रम  निज  संघर्ष  से,  पाता नई    बहार।


बिना कर्म  रस-कामना, करते हैं  नर - मूढ़,

श्रम ही जीवन मूल है,श्रम सुख का आधार।


रुकते कभी न भानु शशि, धरती है गतिवान

अनल व्याप्त हर बिंदु में,चलते व्योम बयार।


सरिता सागर में बहे,ज्यों निर्मल सद  नीर,

'शुभं'मरण गतिहीनता,श्रमजल सदा सकार।


🪴 शुभमस्तु !


२०.१२.२०२१◆३.३० पतनम मार्तण्डस्य।

मतमंगे आने लगे 🚣🏻‍♀️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🚣🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

मतमंगे  आने   लगे, दर-दर निकट   चुनाव।

ले मत  की पतवार को,खेनी अपनी   नाव।।

खेनी  अपनी  नाव, विधाता उनकी  जनता।

टोपी  रखते पाँव,काम  यदि उनसे   बनता।।

'शुभम' गहन मतधार,बोलते हर - हर  गंगे।

छोड़ निजी घर- द्वार, चले दर-दर मतमंगे।।

                        -2-

साधे जो  मत-नाव को,'तू' से बनता  'आप'।

सिर पर  मेरे बैठ  जा, बनकर गदहा  बाप।।

बनकर गदहा बाप,मिले जब मुझको कुरसी।

पाएगा   सुख -धाम,चढ़ेगी तन  में   तुरसी।।

'शुभम'  आज ले बोल,सिया वर राधे - राधे।

करूँ खून सौ माफ, नाव मत की जो साधे।।

                        -3-

वादे की बरसात का , मौसम मधुर चुनाव।

पूरा करना अलग है,चढ़ा आज मुख- ताव।।

चढ़ा  आज मुख- ताव, हाँकना लंबी-चौड़ी।

यही समय की माँग, खिलाते गरम मगौड़ी।।

'शुभम' न कभी अभाव,नेक हैं सभी इरादे।

मदिरा  पी कर  ओक,करूँगा पूरे    वादे।।

                        -4-

बीते  पाँचों   साल भी, नेता  गए  न  गाँव।

देखे निकट  चुनाव तो,टिके न घर में पाँव।

टिके न घर में पाँव, मंच पर चढ़ कर बोले।

शहद भरा आचार, बोल में मधुरस  घोले।।

'शुभम'   बँधाते   आस, नहीं लौटेंगे    रीते।

आएँ हम हर साल,भूल जा जो दिन बीते।।

                        -5-

नेता अभिनेता बना,बदल- बदल कर रूप।

वाणी  में मिश्री घुली,भरे शहद  से   कूप।।

भरे  शहद   से कूप, चुनावी नाव    हमारी।

पार  करो  रे  मीत,  न होवे अपनी  ख्वारी।।

'शुभम'चरण का दास,नहीं कुछ तुमसे लेता।

घुटने तक  ही हाथ, परस मत माँगे   नेता।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.१२.२०२१◆८.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

फैलाते भौकाल 🧡 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

रहता  भारत देश में,भक्ति भाव  सह  प्रेम।

जननी भूमा उर बसीं,सदा धरा पर  क्षेम।।

सदा धरा  पर  क्षेम,बह रही निर्मल   गंगा।

हिमगिरि प्रहरी एक,पखारे निधि  बहुरंगा।।

'शुभं'निरंतर पाद,सिंधु दक्षिण दिशि बहता

हिंदी मेरे बोल ,काव्य लिखता मैं  रहता।।


                        -2-

मेरा  भारतवर्ष    ये, षटऋतुओं   का   देश।

बहुभाषी रहते मनुज,बदल- बदल तन-वेश।

बदल-बदल तन-वेश,शरद ऋतु पावस न्यारी

शिशिर, वसंत,निदाघ,हृदय हेमंत   सुखारी।।

जायद,रबी ,खरीफ,'शुभम' फसलों का घेरा।

फल, सब्जी, पुष्पान्न, उगाए भारत    मेरा।।


                        -3-

पहने   बाना   धर्म   का, जमे अंधविश्वास।

अहित हमारा नित करें,जन के मन में वास।

जन के मन में वास,उबरना ही क्यों   चाहें।

प्रगति  - द्वार हैं बंद, बंद उन्नति  की   राहें।।

'शुभम' बेड़ियाँ  मंजु, बनी नारी  के  गहने।

बंद  पुरुष  के नैन, लुभाते जो वह    पहने।।


                        -4-

पोंगापंथी सिर चढ़ी,नित्य नवलतम   ढोंग।

पढ़े -लिखे  पीछे  चलें,आगे - आगे    पोंग।।

आगे - आगे पोंग, भ्रमित की जनता सारी।

भय का नित आतंक,बढ़ाता जन बीमारी।

'शुभम' निरक्षर नीति,  पढ़ाते  बनते   ग्रंथी।

मानुस  ही   आहार ,   सिखाते  पोंगापंथी।।


                        -5-

चमके तिलक ललाट पर,संमोहन का जाल।

आम जनों को चूसते,फैला कर   भौकाल।।

फैलाकर   भौकाल,  फेरते उलटी    माला।

मूढ़  वासना - दास,   ढूँढ़ते कंचन   बाला।।

'शुभं'काम के कीट,दाम दिखला कर दमके ।

बीच सरित की धार,नाव के अंदर  चमके।।


🪴 शुभमस्तु !


१६.१२.२०२१◆१२.०५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

राधा के प्रिय श्याम 🏕️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

वंशी कटि में खोंसकर,चले जा   रहे  श्याम।

पीली कछनी काछ ली,छवि पावन अभिराम

छवि पावन  अभिराम,गोपियाँ  राधा  आईं।

घेर खड़ीं चहुँ ओर, राधिका जी   मुस्काईं।।

'शुभम'  नैन से नैन, मिले हँसते  हरि अंशी।

वन करील की कुंज, बजाई मधुरिम वंशी।।


                        -2-

बजती  वंशी श्याम की,यमुना जी  के  तीर।

गोप -गोपियाँ नाचतीं,उड़ता लाल  अबीर।।

उड़ता लाल अबीर,खेलते मिलजुल  होली।

मधुर राधिका  बोल,भरे सुमनों की  झोली।।

'शुभम'कुंज की ओट,सहेली ढँग से सजती।

रोक न कोई टोक,श्याम की वंशी  बजती।।


                        -3-

गोरी भोरी राधिका,नटखट नटवर श्याम।

भ्रू -भाषा में बोलते,वाणी  मौन  ललाम।।

वाणी मौन ललाम,समझ कोई क्यों पाए।

योगेश्वर जगदीश,अधर  युग में   मुस्काए।।

'शुभम'मनोहर रूप,देखती ब्रज की छोरी।

देखें  तिरछे   नैन,  राधिका भोरी   गोरी।।

                      

                         -4-

राधा  बरसाने   बसें,  नंदगाँव  में   श्याम।

उर राधा के श्यामघन,श्याम हृदय में वाम।

श्याम हृदय में वाम,वही वृषभानु   कुमारी।

दर्शन बिना उदास, नयन में मंजु   खुमारी।।

'शुभम' लिया जब नाम,गई मिट सारी बाधा।

आधे हैं घनश्याम,बिना  निज प्यारी  राधा।।


                        -5-

राधा - राधा   नित जपें,रहे न बाधा    एक।

छवि उनकी उर में बसे,शेष न हो अविवेक।।

शेष न हो अविवेक, श्याम सँग में  हैं  आते।

करते कृपा अपार,सकल अघ ओघ नसाते।

'शुभम' ईश अवतार,नाम जप जिसने साधा।

पल-पल रहते साथ,श्याम सँग सजनी राधा।


🪴 शुभमस्तु !


०१.१२.२०२१◆८.००पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

कछुआ- खरगोश दौड़ 🐇 [ कुंडलिया]


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✍️ शब्दकार ©

🐢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

आया कछुआ ताल से,वन से सित खरगोश

शर्त लगाने को अड़ा, दिखलाता आक्रोश।।

दिखलाता आक्रोश, कहा रे!कछुए आजा।

कौन दौड़ता तेज,शक्ति अपनी दिखलाजा।।

'शुभं'लगी तब होड़,मिली झाड़ी की छाया।

सोया शशक महान,प्रथम कछुआ ही आया।


                        -2-

तेरे  मन  में जो  उगा, अहंकार  का   बीज।

बढ़ने  मत दे  तू उसे,बहुत बुरी यह  चीज।।

बहुत बुरी यह चीज, शशक-सा शरमा जाए।

यदि  कछुए  के  संग,शर्त से दौड़    लगाए।।

'शुभम' समझ  संदेश, शूल मत  उगा  घनेरे।

सबको  दे सम्मान, मिटेंगे  सब  दुख   तेरे।।


                        -3-

सीमा  बालक  तक नहीं, सुनी  कहानी एक।

होड़ लगी दो जंतु की,कछुआ सीधा  नेक।।

कछुआ सीधा नेक, शशक भी था  गर्वीला।

ऊँचा नहीं  विवेक,उठा ताकत का   टीला।।

'शुभम' हुई तब दौड़,दौड़ता कछुआ धीमा।

सोया तरु की छाँव,शशक क्यों पाता सीमा!


                        -4-

कछुआ एक प्रतीक है,खोना मत निज धीर।

पा  जाएगा   लक्ष्य  को, कहलाए  रणवीर।।

कहलाए   रणवीर, अहं  की ओढ़े    चादर।

होती उसकी  हार,शक्ति से जो है     बाहर।।

'शुभं'न बन खरगोश,चले जब ताजी पछुआ।

सोया  खोता दाँव,प्रथम आता है   कछुआ।।


                        -5-

सबको विधि ने ज्ञान से,किया यहाँ धनवान।

कैसे धी से काम  लें, लगता कब  अनुमान!!

लगता कब अनुमान,अहं में शशक न जीता।

बढ़ी कूर्म की शान,शशक लौटा घर रीता।।

'शुभम' जान ले धीर,बनाता उत्तम  हमको।

धी है सदा महान,बनाती सत नर  सबको।।


🪴 शुभमस्तु !

 

२०.११.२०२१◆४.००पतनम मार्तण्डस्य।


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