गुरुवार, 30 जनवरी 2020

मैं आदमी हूँ [ व्यंग्य ]


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               आदमी की भाषा में मुझे आदमी कहा जाता है।पशु, पक्षियों ,कीड़े - मकोड़ों,अन्य जलचरों , नभचरों ,थलचरों की भाषा में चाहे कुछ भी कहा जाता हो ।आदमी को अपने आदमीपन का बड़ा अभिमान है।वह कहता है कि वह सर्वाधिक बुद्धिमान है। इसका उसे बड़ा ही गुमान है। इसलिए वह अपने को कहता है कि वह इंसान है।सबसे महान है। उसका आदमी होना ही उसकी शान है , पहचान है। 

       आदमी या इंसान में कुछ विशेषताएँ पशु -पक्षियों के समान हैं । जैसे आहार , निद्रा ,भय और मैथुन ये चार काम ।यदि आदमी को इन पशु आदि यौनियों से कोई अलग करता है , तो वह धर्म है।अपनी - अपनी देह और यौनि के अनुसार अन्य यौनियों में दिमाग भी होता है। सबसे अधिक बुद्धमता का नतीजा यह है कि उसने सभ्यता का विकास भी कर लिया है ,इसलिए अन्य सभी यौनियों को वह अपना दास या अधीनस्थ ही मानता है। उसकी इसी अति बुद्धिमता का परिणाम है कि वह जितना धर्म से बंधा हुआ है , उतना ही नियम -भंजक भी है।

       आदमी को वफ़ादार नहीं माना जा सकता। यदि वह वफ़ादार हो गया ,तो उसके अदमीपन के स्तर में उतार आ जायेगा। वह आदमी के उच्च आसन से गिरकर पशुओं की श्रेणी में रख दिया जाएगा। चूँकि वफादारी का तमगा उसने कुत्ते के गले में जो डाल दिया है। आदमी के वफ़ादार होने पर वह आदमी नहीं रह जायेगा। कोई कुत्ता नियम तोड़े या न तोड़े , लेकिन जब तक वह नियम नहीं तोड़ लेगा , उसे आदमी कौन कहेगा? वह आदमी ही कैसा जो नियम न तोड़े। आदमी जितना ऊपर के पायदानों पर चढ़ता जाता है, उतना ही अधिक नियम तोड़ने के प्रति उसकी बुद्धि कुलांचें मारने लगती है।अनैतिक कार्य करना , झूठ बोलना, राजमार्गों के नियम तोड़कर कर अदा न करना, मुफ़्त की सुविधाएं हासिल करके अपने को अभिजात सिद्ध करना, दूसरों की संपत्ति , स्त्री , जमीन आदि पर कब्जा कर लेना , अपने बच्चों में गुंडा तत्वों का अधिक से अधिक समावेश करना, कोरी हेकड़ी का रॉब गाँठना , राजनीति के छाते के नीचे वे सब अकर्म, सुकर्म , कुकर्म करना उसकी योग्यता बन जाती है।

              पढ़ -लिखकर उसमें अपराध करके सफ़ाई देने की चातुरी के विशेष गुण का स्वतः समावेश हो जाता है। पढ़ा - लिखा आदमी यदि राजनीति की खाल ओढ़ ले ,तो 'करेला फिर नीम चढ़ा' : वाली कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो जाती है। 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं ' के अनुसार आदमी को फिर तो कुकर्म औऱ सुकर्म में भी अंतर दिखना बन्द हो जाता है। उसके लिए कोई भी कर्म न पाप रह जाता है और न पुण्य ही। वह पाप -पुण्य के स्तर से ऊँचा उठ जाता है। पुण्य में भी पाप की गठरी अपने आप भारी होने लगती है। वह अपने को सर्वाधिक गुणी औऱ सशक्त मानने लगता है।औऱ उधर कुत्ता कुत्ता ही बना रह जाता है । आदमी तो भेड़िया , गिद्ध , चील ,दोमुंहा साँप जैसी विविध उपाधियों से सुसज्जित होता हुआ उस परम हंस गति को पा लेता है कि वह यह भी विस्मृत हो जाता है कि वह कौन था , कौन है औऱ अब क्या हो गया है!

                  सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आदमी अपनी एक मनुष्य यौनि में कई सारी यौनियों के सुख समय -समय पर भोग लेता है। वह माने या नहीं माने , पर कभी वह कुत्ता भी होता है जब बॉस के सामने अपनी अदृश्य पूँछ हिलाता है।सुअर , गधा, गिद्ध , चील आदि सभी के स्वाद लेता है वह। जब काम पिपासा में नीति -अनीति भूल जाता है ,तब उसे सुअर, श्वान कुछ भी कह सकते हैं।जब दूसरों के धन और तन को निर्मम होकर नोंचता - खसोटता है तब वह गिद्ध, मच्छर, चील ,कौवा, जैसी यौनि का प्राणी होता है। संभवतः इसीलिए कुछ मनीषी कह गए हैं :
 पहले पशु है आदमी, और बाद में अन्य।
 तेरी करनी के लिए, तुझे धन्य ही धन्य।।
 💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
🤓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
 30.1.2020●3.55अपराह्न
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माँ की वीणा [ मुक्तक ]


माँ  सरस्वती  का अभिनन्दन,
करता  प्रणाम    देकर  चंदन।
माँ  'शुभम'  करो  रचना मेरी,
शत सहस बार है मातु नमन।

माँ  की वीणा  नित बजती है,
गुंजित सरगम नित सजती है।
साधना   निरत कविगण सारे,
परिश्रम   से कविता सजती है।

तुम     कुंद  पुष्पवत  हो  माते!
नित 'शुभम' तुम्हें मन से ध्याते
उज्ज्वल   कर दो माँ भाव उरज
तुमसे   हम  ज्ञान, भाव  पाते।।

माँ  शुभ्र वसन  धारण करतीं,
अज्ञान तमस  उर  का हरतीं।
तुम श्वेत पुष्प पर विराजमान,
कर में  वीणा  गुंजन  करती।

हिमराशि  ,चंद्रमा , मुक्तासम,
माँ  सरस्वती को सहस नमन।
दो    ज्ञान , दूर    जड़ता  हरके,
वीणा    का स्वर  करके गुंजन।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

30.1.2020 ◆ वसंत पंचमी ◆11.15 पूर्वाह्न।

आया वसंत [मुक्तक ] 〰〰〰〰〰〰〰〰


             
आया     है    ऋतुराज  वसंत,
हुआ    शीत   का  पूरा  अंत।
जड़   - चेतन   में  लाली    है,
सब  ऋतुओं का प्यारा कन्त।।

                
फूल      उठी     क्यारी - क्यारी,
प्रकृति      की   शोभा   न्यारी।
तू        क्यों  है  उदास  प्रियतम,
     कहती     प्यारे    से    प्यारी।।।     
                 
                
खेतों      में      सरसों    फूली ,
विरहिणी     अपना पथ भूली।
प्रिय  -  आगमन   प्रतीक्षा  है,
नर्म     सेज    लगती    शूली।।

               
फूले     हैं      गेंदा      गुलाब,
सरिता  का  सरगमवत बहाव।
नीला अम्बर    छा  गया धरा,
देखती  कामिनी मधुर ख़्वाब।
                
जब  उतरा   प्राणों  में  वसंत,
 उभरा    यादों में  प्रणय कन्त।
बौराये   पीपल, नीम , आम,
आया   वसंत ,  छाया वसंत।।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌻🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम!

30.1.2020 ★वसंत पंचमी◆ 10.45 पूर्वाह्न।

वसंत [ अतुकान्तिका ] 〰〰〰〰〰〰〰


बस अंत
शीत का,
हेमंत शिशिर की
भीति का,
आगमन है
ऋतुराज 
वसंत का।

सुमन  वासन्ती खिले,
गल गए 
शीतमय सब गिले,
भ्रमर 
पुष्प से मिले,
मकरंद के
लोभ में,
रसना के
सुयोग में,
कभी इस 
फूल पर,
कभी उस
फूल पर।

सांध्य में 
दो भ्रमर,
जा रहे थे उधर,
कमल पुष्पों से भरा,
सरोवर था जिधर,
सूर्यास्त जब हुआ ,
कमल भी  मुद गया,
सुखद पंखड़ियों के मध्य,
भ्रमर युगल
रह गया,
स्वाद मकरंद में
बह गया ,
घुटन भी सह गया,
रात भर 
दलों को काटा नहीं,
उसने डाँटा  नहीं,
क्यों भ्रमर के
नव युगल 
कमल सेज 
सो गया!

इधर 
सूरज जब उगा,
अँधियारा भगा,
होश आया
भ्रमर के युगल को,
सवेरा हो गया,
लज्जित- से उठे,
उड़ गए 
वे उधर,
अन्य सुमन -वृन्त पर,
झूलते भूलते 
रात्रि की कैद को
पी रहे थे
पुनः किसी
पुष्प के शहद को।

ये मादकता
नशा
सब वसंत की
भेंट है,
खुमारी अनौखी
'शुभम 'नेक है।

जड़ -चेतन में 
नई उग रही 
चहक है ,
हर युगल देह की
महकती महक है,
आकर्षण की
अदृष्ट चाहत 
चुहल है,
नव सृजन की
प्रकृति प्रदत्त 
परम पहल है।

मादक परस की
आकांक्षा 
प्रियतम की प्रतीक्षा,
वासन्ती अरुण है,
प्रणय रागिनी
बज रही सब कहीं,
सौंदर्य की वृष्टि का
अनुपम चरण है,
'शुभम' संवरण है।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

30.1.2020 ★वसंत पंचमी◆ 10.30पूर्वाह्न।
शीत का,
हेमंत शिशिर की
भीति का,
आगमन है
ऋतुराज 
वसंत का।

सुमन  वासन्ती खिले,
गल गए 
शीतमय सब गिले,
भ्रमर 
पुष्प से मिले,
मकरंद के
लोभ में,
रसना के
सुयोग में,
कभी इस 
फूल पर,
कभी उस
फूल पर।

सांध्य में 
दो भ्रमर,
जा रहे थे उधर,
कमल पुष्पों से भरा,
सरोवर था जिधर,
सूर्यास्त जब हुआ ,
कमल भी  मुद गया,
सुखद पंखड़ियों के मध्य,
भ्रमर युगल
रह गया,
स्वाद मकरंद में
बह गया ,
घुटन भी सह गया,
रात भर 
दलों को काटा नहीं,
उसने डाँटा  नहीं,
क्यों भ्रमर के
नव युगल 
कमल सेज 
सो गया!

इधर 
सूरज जब उगा,
अँधियारा भगा,
होश आया
भ्रमर के युगल को,
सवेरा हो गया,
लज्जित- से उठे,
उड़ गए 
वे उधर,
अन्य सुमन -वृन्त पर,
झूलते भूलते 
रात्रि की कैद को
पी रहे थे
पुनः किसी
पुष्प के शहद को।

ये मादकता
नशा
सब वसंत की
भेंट है,
खुमारी अनौखी
'शुभम 'नेक है।

जड़ -चेतन में 
नई उग रही 
चहक है ,
हर युगल देह की
महकती महक है,
आकर्षण की
अदृष्ट चाहत 
चुहल है,
नव सृजन की
प्रकृति प्रदत्त 
परम पहल है।

मादक परस की
आकांक्षा 
प्रियतम की प्रतीक्षा,
वासन्ती अरुण है,
प्रणय रागिनी
बज रही सब कहीं,
सौंदर्य की वृष्टि का
अनुपम चरण है,
'शुभम' संवरण है।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

30.1.2020 ★वसंत पंचमी◆ 10.30पूर्वाह्न।

मुड़-मुड़कर वह देख रही है [ गीत ]



मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।
लगता है  वह  यहीं कहीं  है।।

लगता  है  वह  विदा हो गई।
कभी  लगा वह फ़िदा हो गई।
शिशिरकाल की चलाचली है।
मुड़- मुड़कर वह देख रही है।।

कोहरा   कभी   मेघ बरसाती।
ओले  गिरते    घाव  बनाती।।
क्या उसका  सन्देश  सही है?
मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।।

धुँधला-धुँधला नभ हो आया।
शीत-लहर  ने हाड़  कँपाया।।
पथरीली  अरु  सर्द  नदी  है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

पतझड़  आया  पल्लव पीले।
गिरते   भू  पर  बड़े  हठीले।।
वृद्धा  की   पहचान  बनी  है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

कभी  धूप  बाहर  चमकाती।
धोखा देती  आँख  दिखाती।।
छाया  में  जा   डाँट  रही  है।
मुड़ - मुड़कर वह देख रही है।।

गिरती  बर्फ  कभी पर्वत पर।
हम  काँपे  नन्हीं आहट पर।।
मौसम के संग बदल  चुकी है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

सर्दी  देवी   कृपा  करो अब।
मन  से  हम  स्नान करें तब।।
तड़पाए  वह  जन्म जली है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

क्वार   मास   में आ जाती है।
फ़ागुन, माघ  गज़ब ढाती है।।
सत्य'शुभम'का कथन यही है।
मुड़-मुड़कर वह देख रही है।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

29.1.2020◆6.50 अप.

भाल पर लटकीं अलकें [ कुण्डलिया ]


काले     -  काले       सोहते ,
सिर     पर   सुंदर       केश।
नर  -   नारी    को   दे   रहे ,
सरस      सुप्त        संदेश।।
सरस       सुप्त       संदेश,
लगन   से    बाल    सँवारें।
कंघी      से     लें      काढ़ ,
सभी   मुख - रूप   सुधारें।।
'शुभम '    और    ही   ओप ,
अगर   हों     खुशबू   वाले।
डालें     सिर     में      तेल,
बाल  हैं    काले  -काले।।1।।

नीचे    से       ऊपर     उगे ,
सजे     श्याम   रंग    बाल।
गंजा  जिसका   शीश    है ,
पूँछें        उससे       हाल।।
पूँछें         उससे       हाल,
कहाँ तक मुख  को   धोए !
फेरे      सिर     पर    हाथ ,
रोज़    किस्मत  को  रोए।।
'शुभम'     न    कंघी    तेल,
कहाँ      सिर -   खेती  सींचे।
देख            लहरते     बाल,
नारि   के   देखे    नीचे।।2।।

लंबे      काले      केश     हैं,
जिस      नारी    के    शीश।
लहराते    बल     खा    रहे,
रक्षक     हों       जगदीश।।
रक्षक     हों        जगदीश,
मधुर  हो   उसकी   वाणी।
गृह  शोभा     वह     नारि,
बने     शुभदा   कल्याणी।।
'शुभम '     कचों  का काम,
आगरा      हो    या    बम्बे।
सुंदरता       की      खान,
चिकुर    हों काले लंबे।।3।।

छोड़      हथेली   हाथ   की,
पगतल      दोनों        पाँव।
रोम   नहीं ,    चिकने   बने ,
नगर      रहो     या   गाँव।।
नगर      रहो     या    गाँव,
प्रकृति  की महिमा  न्यारी।
नख     से     ऊपर   बाल ,
लहरते  तन    की  क्यारी।।
'शुभम ' अधिक   या न्यून,
मनुज  की    देह -  हवेली।
लंबे     -     छोटे     श्याम,
बाल छवि छोड़ हथेली।।4।।

अलकें   शोभित  भाल पर,
पलकें      भौंहें        बाल।
दाढ़ी     मूँछें    कह   रहीं,
अपना     -  अपना  हाल।।
अपना    -   अपना   हाल ,
नारियों  का   क्या कहना !
दाढ़ी   -     मूँछें       हीन,
बनाया     हमको   बहना।।
'शुभम '  भेद    की   भीत,
विधाता  की   यों  झलकें।
लंबी               खुशबूदार,
भाल पर   लटकी अलकें।।5II

💐शुभमस्तु !
 ✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

28.01.2020 ◆9.45अप.

देश हमारा एक [ सायली ]


〰〰〰〰〰〰〰〰
देश
हमारा एक,
भारत प्यारा एक,
यही हमारी 
टेक।

 कहाँ
धतूरा फूल,
कहाँ गुलाब की,
शान निराली
मतवाली!


अम्बर
एक ही
धरती भी एक,
बाँट सकोगे
इनको?

रंग
 तिरंगे के 
एकता के प्रतीक,
सद्भाव की 
आवश्यकता।

गंगा 
यमुना सरस्वती,
जीवन  धारा हमारी,
संगम है
 हृदय।

नमस्कार
शुभ प्रभात 
नमस्ते प्रणाम सलाम,
सब एक
नाम।

जन्म
यहाँ पर,
मरण यहाँ पर,
गीत गैर 
के?

बनना 
आदर्श नागरिक,
भारत   माता    के,
दायित्व   हमारा
सबका।

एक 
देश है
 वेश  हैं अनेक ,
हम सब
एक।

लाल
सबका रक्त,
बनें सब भक्त ,
अपनी जननी
के।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

28.1.2020◆5.00पूर्वाह्न।

चश्मा [ बालगीत ]


आँखों     का चश्मा  कहलाता।
साफ़-साफ़ हर चीज दिखाता।।

धुँधली या कम नज़र किसी की।
उसको  देता  मदद सही - सी।।
जो  आँखों  पर मुझे  लगाता।
आँखों  का   चश्मा कहलाता।।

टिका   नाक औ' दो  कानों पर।
दो  तल  और  क्षीण  बाँहों पर।।
छोटा   - सा   सेवक  बन जाता।
आँखों    का  चश्मा  कहलाता।।

जब  सोओ  तब  नहीं लगाओ।
मुझे  नयन   से   दूर  हटाओ।।
तभी    सुरक्षित  मैं  रह  पाता।
आँखों    का   चश्मा  कहलाता।।

जब वाहन  से  तुम  चलते हो।
आँखों में लप -झप करते हो।।
धूल ,धुएँ   से   सदा  बचाता।
आँखों  का   चश्मा कहलाता।।

पैरों   का  ज्यों  रक्षक   जूता।
नेत्र -  सुरक्षा   का   मैं  बूता।।
'शुभम'   खुशी से मुझे लगाता।
आँखों   का  चश्मा कहलाता।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🤓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

27.1.2020◆7.15अपराह्न

गीतिका



गणतंत्र   -   दिवस    की वेला है।
राष्ट्रीय  - पर्व      का    मेला  है।।

उन  बलिदानों को हम याद करें,
निज   लहू से जिन ने  खेला  है।

समता  , एकत्व ,     बंधुता  भव,
इस    संविधान    में   फैला  है।

संस्कृतियों     के   शुभ    सप्त रंग 
सभ्यता -   सरित   रस     रेला है।

कीचड़   में    खिलता   कमल यहाँ,
उपवन     में     गेंदा ,     बेला    है।

शुभ      संविधान  निर्माण दिवस,
दासता  -  दंश     बहु     झेला है।

है  "शुभम"   बधाई जन - जन को,
भारत   माँ   का   सुत,   चेला   है।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

25 जनवरी 2020●8.15 अप.

ग़ज़ल


  
फिर  छब्बीस   जनवरी  आई है।
 गणतंत्र - दिवस   की  बधाई है।।

एक    ही  अम्बर    एक  ही धरती,
ये     सब   ईश्वर    की   खुदाई है।

चाँद  और    सूरज    उससे रौशन,
जिसने      यह    धरा     बनाई है।

भेद - भाव    की    खड़ी  दीवारें ,
रहबरों      ने    स्वयं    उठाई है।

उसका   गरेबाँ   झाँक   रहा क्यों,
इसमें   तेरी   भी     रुसबाई    है।

खंडन      आसां      है    रस्सी  का,
जोड़ा     तो    गाँठ   भी   आई  है।

सात      स्वरों  की   सरगम  भारत,
इंद्रधनुषी     छटा   उभर  आई है।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

25.1.2020 ★11.50 पूर्वाह्न।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

गणतंत्र की तस्वीर का दूसरा रुख [अतुकान्तिका]




दूरदर्शन वाले 
दूरदर्शन के
कार्यक्रमों का
सर्वेक्षण कराते हैं,
उनकी तस्वीर का
दूसरा रुख कैसा है 
इसकी जाँच भी
कराते हैं,
वहाँ नाटक के 
सच में ही
हकीकत का सच है,
यहाँ पर 
सच के नाटक में
सब सच ही सच है।

मैं भी ऐसा ही करता हूँ,
सत्तर वर्ष तो 
ऐसे ही बीत गए,
इकहत्तरवें में 
तस्वीर का
 दूसरा रुख देखता हूँ।

चल पड़ा वह 
26 जनवरी की अल सुबह
पौने आठ बजे घर से,
सोचता हुआ जा रहा था
एक गली में
कि ठोकर लगी पत्थर से,
आने लगे चक्कर - से।

तभी पड़ी मेरी नज़र उधर,
गणतंत्र चक्कर 
खाया था जिधर,
मैंने  सहज ही कहा-
"भाई साहब ! 
चोट तो नहीं लगी,"
वह बोला -
"सत्तर साल से चोटें ही
तो लग रही हैं,
पर आज तक किसी ने नहीं पूछा 
कि कैसे हो ,
आपका बहुत- बहुत धन्यवाद!
भैया मेरी आत्मा ही
जल रही है।"

मैंने फिर पूछा -
"आपका परिचय ?
शुभ नाम ?"
वह बोला-
"परिचय ?
मेरा नाम ?
क्या करोगे जानकर !
अब तो  निकल ही पड़ा हूँ
मन में कुछ ठानकर।"

×       ×      ×      ×       ×
जब मैं कालेज में पहुँचा,
देखा मैंने  कि  वह 
खड़ा हुआ था ,
वहाँ पर जहाँ 
छात्रों का जमघट था ,
और एकटक 
तिरंगे झंडे को 
निहार रहा था,
भले - से दिखाई देते
कुछ लड़कों से घुलमिल कर
अपनापन दिखाता हुआ,
अपनी आवाज 
उभार रहा था,
कह रहा था -
"साढ़े आठ बजे से
देख रहा हूँ,
सरकारी दफ्तरों की 
इमारतों पर,
जी हाँ,
मात्र सरकारी दफ्तरों की
इमारतों पर ,
रस्म - अदायगी की
तैयारियों के टंटे,
कुछ फूल, 
कुछ डंडे ,
उन पर कुछ झंडे,
मरियल और सहमे - से,
डरते - से वहमे - से,
उनकी सलवटों को
गिन रहा हूँ,
जन गण मन की मरी हुई
भिनभिनाहट सुन रहा हूँ,
लगता है गणतंत्र की 
वर्षगाँठ नहीं ,
मातमपुर्सी  की जा रही है,
घड़ियाली आँसू 
बहा रहा है नेता
और जनता सुगबुगा रही है,
कोई कह रहा था 
एक दफ़्तर में,
यह भी कोई छुट्टी हुई
जब दफ़्तर ही आना पड़ा,
मँहगाई की तरह
फिर आ गई 26 जनवरी,
फिर से तिरंगे को लाकर
कर दिया खड़ा।"

छात्रों से बोला -
"तुम बेकार ही 
पढ़ -लिख रहे हो,
न पढ़े -लिखे होते 
तो विधान सभा का
चुनाव लड़वा देता ,
15 अगस्त 26 जनवरी 
को ही नहीं,
पाँच -पाँच पुश्तों को 
माला पहना देता,
ग्रेजुएट हो जाओगे
तो या तो करोगे मास्टरी,
या क्लर्क बन जाओगे,
तकदीर ने यदि दे दिया साथ,
तो पुलिस बनकर 
भले लोगों को 
चबाओगे  दिन - रात।
देशप्रेम यदि करना है 
तो कालेज को छोड़ो
औऱ खद्दर में घुस जाओ,
लाठी ले लो हाथ में
और
अच्छे - अच्छों को नचाओ,
कहिए  क्या
कुछ ग़लत कहता हूँ?"

एक छात्र बोला -
"आप सोलहों आना
सही फ़रमाते हैं ,
बात कहें मन की 
बुरा न मानो तो,
हम 26 जनवरी मनाने नहीं
किसी और ही 
वजह से आते हैं,
पढ़ने के लिए हम 
पढ़ते कब हैं?
यह तो मजबूरी है
कि हम पढ़ते तब हैं -
जब घर पर कुछ होता नहीं,
बाप बिना कालेज जाए
घर में घुसने देता नहीं,
कक्षा में मन लगता नहीं,
लगे भी तो कैसे ?
मैं जाता ही कब  हूँ?
न कुछ आता है,
न जाता है,
जब अध्यापक कुछ 
पूछता है 
तो मेरा 
भोला - सा मुखमंडल
कैसा  - कैसा शरमाता है !

"अरे ! वो तो इसी जाड़े में
मेरी शादी तय हो जाएगी,
इसी पढ़ाई के ही बहाने तो,
कुछ मोटी रकम पिताजी को,
मुझे मोटरसाइकिल और
 एक अदद 
बीबी  मिल जाएगी,
फ़िर कौन भकुआ
 कालेज आएगा!
जेठ या आषाढ़ में
सेहरा भी बंध जाएगा!
अरे ! तुम्हीं बताओ,
एक अकेला आदमी
कितने इम्तिहानों की
तैयारी करे?
दिन भर यहाँ आँखें फोड़े,
और रात को लालटेन पर
माथा पच्ची करे?
कुछ कमाने -गँवाने के भी
गुर भी तो होने चाहिए!
यही तो करता हूँ छठे -छवारे,
अँधेरे - उजेरे गली -गलियारे,
जल्दी से मिठाई बँट जाए,
अपना पैकिट पकड़ूँ 
और........."
"और क्या  ......
आगे कहो , कुछ बोलो,"
- गणतंत्र ने कहा।
"कुछ नहीं बड़े भाई  ऐसे ही
ये अपना 'निजू' मामला है,
तुम बस इतना ही समझो,
इन्क़िलाभ - जिन्दाबाघ!
इन्क़िलाभ -जिन्दाबाघ!!"

गणतंत्र ने सोचा-
'यही मेरी तस्वीर का
दूसरा रुख है,
यहाँ सुख में दुःख
और  दुःख का कोई
तीसरा ही रुख है!
हाँडी में 
एक चावल देख लेना था,
कहाँ -कहाँ भटका
तब यहाँ आ अटका,
हिंदुस्तान की है ये नई पीढ़ी,
कल के भारत की कर्णधार,
बुझी हुई अवशेष बीड़ी!
मुँह से इन्क्लाब जिंदाबाद
और  बगल में
जातिवाद , भाषावाद,
प्रांतवाद, मज़हबवाद,
वादों की बदबू ,
वादों का धुआँ,
वादों का नेता 
वादों की दुनिया,
टुकड़े  ही टुकड़े !
किरचें  ही किरचें! 
टूटे हुए शीशों के चर्चे ही चर्चे!
चर्चे  ही चर्चे!!'
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
रचना -तिथि:
25.01. 1986

बुधवार, 22 जनवरी 2020

नन्हीं चींटी [ बाल गीत ]



नन्हीं   चींटी   बिल  में जाती।
श्रम   की सीख हमें सिखलाती

चढ़ती   गिरती गिरकर चढ़ती।
मौन  मंत्र मन ही  मन पढ़ती।।
हार   न  मानो   हमें   बताती।
नन्हीं   चींटी  बिल में  जाती।।

नहीं शिकायत शिकवे करती।
हाथी   से भी कभी  न डरती।।
घुसी सूँ  ड़  अहसास  कराती।
नन्हीं  चींटी  बिल   में जाती।।

बीन-बीन कण भोजन लाती।
अपना    बिल -भंडार बढ़ाती।।
कुल   की रक्षा  में  जुट जाती।
नन्हीं   चींटी  बिल में जाती।।

मुँह  में   लेकर   अंडे   ढोती।
रात -दिवस चींटी कब सोती?
अपने  सब   कर्तव्य  निभाती।
नन्हीं  चींटी  बिल  में जाती।।

कर्मठता    की  चीटीं  शिक्षक।
नहीं  किसी  के दर की भिक्षुक।
स्वाभिमान    के  गीत  सुनाती।
नन्हीं चींटी   बिल  में  जाती।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
👮‍♂ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.01.2020 ★4.00अप.

धरती हरी, गगन केसरिया 🔹 [ गीत ] 🔹



धरती   हरी, गगन  केसरिया,
मध्य   श्वेत     जन - जन   है।
अविरत  समय-चक्र चलता है,
मेरा      सबल     वतन    है।।

पावन   गंगा , यमुना के  सँग,
सरस्वती        का        संगम।
धानी   धान    लहरते    गेहूँ,
प्रमुदित     है   जड़  -  जंगम।।
चना ,    मटर , जौ के खेतों ने,
उगला        नित    कंचन    है।
धरती    हरी,  गगन  केसरिया,
मध्य     श्वेत   जन  - जन  है।।

उत्तर में  प्रहरी   हिमगिरि  है,
दक्षिण   हिन्द      महासागर।
पूर्व  दिशा   खाड़ी   लहराती,
पश्चिम  अतुल  अरब सागर।।
माँ   के   चरणों को पखार कर,
लगा      रहा         चंदन     है।
धरती    हरी , गगन केसरिया,
मध्य   श्वेत     जन -  जन  है।।

हिंदी , बंगला ,  गुजराती  बहु,
भाषा   -   भाषी      देश   है।
उड़िया,कन्नड़,मलयालम जो,
बोलें    सुखद    सँदेश     है।।
पंजाबी ,    उर्दू ,     कश्मीरी ,
सबका        एक    गगन     है।
धरती  हरी ,   गगन केसरिया 
मध्य   श्वेत, जन   -  जन है।।

प्रजातंत्र        का     एक  तिरंगा ,
संसद            पर       फहराता।
जनगणमन अधिनायक जय का,
गीत       एक         ही     गाता।।
संविधान      है    एक  सभी का,
करता        वतन    नमन    है।
धरती   हरी  , गगन  केसरिया,
मध्य     श्वेत    जन  -  जन है।।

मिलजुल  कर   सब रहें देश में,
एकसूत्र          मणि   -  माला।
इक   अखंड   भारत   हो  मेरा,
हटें      पटल     के      जाला।।
तब  होंगे   मजबूत  सभी हम,
भारत      एक    चमन     है।
धरती   हरी , गगन केसरिया,
मध्य    श्वेत   जन  -  जन है।।

बेला ,औ'   गेंदा ,  गुलाब की,
महक      रही     हैं     क्यारी।
हिन्दू, मुस्लिम,सिक्ख,इसाई,
सबकी       पूजा       न्यारी।।
फिर   भी इस भारतमाता का,
सबको        आलिंगन      है।
धरती   हरी, गगन  केसरिया,
मध्य    श्वेत   जन - जन  है।।

रक्तवाद     तज  भक्तवाद में,
सबकी          सदा      सुरक्षा।
एक -  एक      एकादश  होते ,
'शुभम'      सँदेशा     अच्छा।।
स्वस्थ,सबल,सानन्द सभी हों,
शत -    शत    अभिनंदन   है।
धरती हरी,  गगन   केसरिया ,
मध्य   श्वेत   जन  -  जन  है।।


💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🇮🇳  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

22.01.2020 ●10.00पूर्वाह्न।

हाला सब में एक [ कुण्डलिया]



पाला     जिनको     नेह   से,
बने            सपोले     साँप।
जहर   उगलने      वे    लगे,
देश      रहा       है     काँप।।
देश     रहा        है     काँप,
पाक    को     बाप    मानते।
मज़हब       की        दीवार ,
उठा     वे    जंग    ठानते।।
खोलो       अपनी      आँख,
नाग       ज़हरीला    काला।
डंसते      हैं        वे      नाग ,
नेह   से  जिनको  पाला ।।1।।

नेता       सोए      देश    के,
सोए                 धर्माधीश।
मठ   में       मट्ठा   पी     रहे,
मठ   के   स्वामी       ईश।।
मठ      के    स्वामी      ईश,
आँख      मूँदे      बैठे     हैं।
ऊँच -  नीच    का      पाठ,
पढ़ा   मन     में     ऐंठे  हैं।।
'शुभम'    वही      है    नेक,
वोट   जो    उनको     देता।
नरक    बन     गया    देश,
आग   में  झोंकें   नेता।।2।।

लोभी    कुर्सी     के   खड़े,
दो      झोली   भर     वोट।
बिजली -  पानी मुफ़्त   है ,
बाँटेंगे           वे         नोट।।
बाँटेंगे            वे        नोट ,
शहद -    सा   मीठा   बोलें।
जाय     भाड़    में       देश ,
सदा    विष  में  रस   घोलें।।
'शुभम'   देश   को     मान,
टमाटर,      आलू ,   गोभी।
कटवाते                 इंसान,
 देश     के    नेता  लोभी ।।3।।

हाला    सब     में  एक  ही,
खोलो        बोतल      चार।
लेबल   सबके     अलग   हैं ,
मतदाता              लाचार।।
मतदाता               लाचार,
 भुलाया    है     बातों    में।
काज   सरे     कुछ    और,
फँसा    घातक   घातों  में।।
'शुभम'     भेद    के   भाव,
जगाता   भेदक       काला।
बिना     पिये      ही    नाच,
रही  है    बोतल  हाला।।4।।

खाते      हैं     इस  देश   का,
गाते          उनके       गीत।
फरामोश       अहसान   के ,
कभी     न     होंगे     मीत।।
कभी      न      होंगे    मीत,
यहीं     जीते   -   मरते    हैं।
जासूसी       में        लीन ,
कर्म    उलटे   करते    हैं।।
'शुभम '   सभी शुभ - लाभ,
भारती        भू   पर    पाते।
मानव     की     धर     देह ,
पाक   की  कसमें खाते।।5।।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

21.01.2020●3.15 अपराह्न।

कवियों के आभारी नेता! [ व्यंग्य ]


                हम नेताओं पर कवि , शायर , लेखकों और साहित्यकारों ने इतना अधिक लिख डाला है कि यदि उसको एकत्र करके एक ग्रंथ बनाया जाए ,तो एक महाभारत ही बन जायेगा। वह महाभारत कितने खंडों का होगा ,इसका पूर्वानुमान लगाना उतना ही कठिन है , जितना हनुमान जी की पूँछ की कुल लम्बाई नाप पाना। हम सभी नेतागण देश के सभी कवियों ,व्यंगयकारों, कार्टूनिस्टों , चित्रकारों , कहानीकारों , उपन्यासकारों आदि के बहुत बड़े ऋणी हैं। लेकिन इतना तो आप जानते ही हैं कि इस ऋण को हम चुकाने वाले नहीं हैं। यदि ऋण ही चुकाना होता तो हम नेता ही क्यों होते ? कुछ और नहीं होते?

            साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से हमें अमर कर दिया है। हमारे गुण , अवगुण सबका बखान इतने विस्तार से किया है कि हम नेता धन्य - धन्य हो गए हैं। यों तो ये सारा संसार गुण -दोषों से भरा हुआ है । किसी कवि ने कहा भी है : जड़ चेतन गुण -दोषमय, विश्व कीन्ह करतार। संत -हंस गुन गहहिं पय, परिहरि वारि विकार।। गुणों के साथ - साथ दोषों (अवगुणों) का होना अनिवार्य भी है। जैसे गुलाब की झाड़ी में जहाँ महकते गुलाबी फूल खिलते हैं , वहाँ काँटे भी तो उसकी शोभा में चार चाँद लगाते हैं। उसी प्रकार यदि हम नेताओं में भी फूल और काँटे साथ ही साथ रहते हैं। ये काँटे ही तो हमारे रक्षक हैं। इन्ही काँटों से हम जनता के हितैषी और शुभचिंतक भी बने रहते हैं।

              लोग हमें झूठ का पुलिंदा बताते हैं। इसमें कोई शक की बात नहीं है। यदि हम सच बोलते रहें तो हमारी अमर नेतागिरी अमर न होकर उसकी कमर ही टूट जाएगी और वह अमर से मरण की ओर चली जायेगी। इसलिए झूठ बोलना हमारा एक संस्कार ही बन जाता है। इसीलिए हमारे भाषण, आश्वासन और दिए गए वचन झूठ की चरम सीमा के चरम शिखर का स्पर्श करते हैं। हमारी हर गतिविधि में झूठ की खुशबू इस प्रकार व्याप्त रहती है , जैसे नाली में दुर्गंध। इससे हमें यह लाभ होता है कि हमारे विरोधी हमारी असलियत को नहीं जान पाते। इसीलिए पूरब को जाते हैं तो पश्चिम को बताना पड़ता है। बहुत ही सावधानी का जीवन है हमारा। अगर इस झूठ रूपी कवच से हम अपनी रक्षा नहीं करें तो हमारा जीवन जीना ही संभव नहीं रह सके। झूठ वस्तुतः हमारा रक्षा - कवच है।हमारे वादे , हमारे दावे - इसी झूठ से प्रभावित रहते हैं।

              आमजन की तरह हम देश के नागरिक हैं। लेकिन हमें उनसे ऊपर दिखाना पड़ता है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम कितने पढ़े -लिखे हैं। नेता के व्यवसाय में शिक्षा का कोई मूल्य हमारी अपनी दृष्टि में नहीं है। यदि हम शिक्षा को महत्व देते तो सभी आई ए एस , पी सी एस, प्रोफेसर , इंजीनियर , डाक्टर ,वकील ही देश के महान नेता होते। लेकिन हमने कभी भी शिक्षा को महत्व प्रदन नहीं किया।हाँ, इतना अवश्य है कि अपनी संतान को कान्वेंट , विदेशी विद्यालयों में पढ़ाना भी जरूरी हो गया है। इसलिए उन्हें अंग्रेज़ी जरूर पढ़ाते हैं, ताकि वे विदेश में जाकर अंग्रेज़ी में भाषण कर सकें। हमें भी अपने बाल-बच्चों को पालने के लिए कुछ करना पड़ता है। साम ,दाम ,दंड और भेद सभी तरीके अपनाने पड़ते हैं। जब घी सीधी अँगुलियों से नहीं निकलता तो उन्हें टेढ़ी करके निकालना ही पड़ता है।

 
                 हमारे लिए कोई काम न पाप है न पुण्य है। इसलिए तटस्थ भाव से हम कुछ भी कर लेते हैं। पाप पुण्य तो परिस्थिति विशेष के अनुसार ही पाप या पुण्य होता है। कोई भी काम अपने विशुद्ध रूप में न पाप है न ही पुण्य। इसलिए अपने शुद्ध अंतःकरण से कार्य करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। जन मानस और न्याय पालिका की दृष्टि से अलग हमारी अपनी दृष्टि है। यही कारण है कि अपने इन्हीं कर्मों की ख़ातिर हमें श्रीकृष्ण भगवान की जन्मभूमि में भी रहना पड़ता है। जब कारागार में भगवान अवतार ले सकते हैं तो क्या हम वहाँ कुछ वर्षों रह भी नहीं सकते ? कारागार वास्तव में समस्त सुविधाओं से सुसज्जित एक ऐसा पवित्र स्थल है , जहां प्रत्येक नेता को कुछ वर्षों तक रहना उसके चरित्र के एजेंडे में शामिल होना चाहिए।

                अपनी संतान किसे प्रिय नहीं होती ! यदि हम नेताजी अपनी औलाद को यदि विधायक या सांसद चुनवाकर विधान सभा या देश की संसद में भेजते हैं तो ये कौन सा गुनाह है ?वंशवाद का आरोप लगे तो लगता रहे। कौन चिंता करता है ? जिसके कोई आगे नाथ न पीछे पगहा , वह भला किसे मंत्री बनाएगा? किसान का बेटा किसानी कर सकता है, डाक्टर का बेटा डाक्टर बन सकता है तो नेता का बेटा नेता नहीं होगा तो क्या घास छीलेगा ? नेता बनना उसके खून में होना लाजिमी है। अन्यथा वह अपने बाप की संस्कारित संतान नहीं ! इसके लिए उसे परिवार से ही छल , दम्भ , द्वेष , पाखंड और अन्याय से निशि दिन दूर नहीं रहने की घुट्टी जो पिलाई जाती है। यदि नेता की औलाद को नौकरी ढूँढनी पड़े तो वहअपने बाप की असली संतान होने की काबलियत खो सकता है। पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं। ठीक वैसे ही नेता की औलाद के पाँव भी पालने से अपने आप बाहर फड़फड़ाने लगते हैं। वे सारे गुण ,जो भले ही अन्य लोगों के लिए अवगुण हों , उसे सुशोभित करने लगते हैं। उद्घाटनों, मुहूर्तों के अवसर पर उन्हें बढ़ -चढ़कर आगे रहने की ट्रेनिंग दी जाने लगती है। इस प्रकार नेता-पुत्र/पुत्री भी उसी राह के राही बन जाते हैं।

             यदि हम नेता न हों , तो देश का चलना भी मुश्किल हो जाय। हम हैं इसीलिए देश चल रहा है। वरना खड़ा रह जाता। हम चला रहे हैं ,इसलिए चल भी रहा है। चलती का नाम गाड़ी है।वरना वह ठाड़ी की ठाड़ी है। हमारी संस्कृति का मूल स्वर है : चरैवेति ! चरैवेति !! और वह चल रही है। देश चल रहा है क्योंकि हम नेता ही तो चलाने में सक्षम हैं। और जो चलाता है ,वह चालक कहलाता है। हम ही देश के चालक हैं। परिचालन के लिए तो हमारे चमचों की कोई कमी नहीं। गली -गली , मोहल्ले दर मोहल्ले , वार्ड दर वार्ड मिल ही जाते हैं। वे हमारे चालक हैं और हम देश के चालक हैं।

            हम निस्संदेह देश के कवि साहित्यकारों के कृतज्ञ हैं। आभारी हैं। अब ज़्यादा भी बखान मत कीजिए , अन्यथा हमें आप लोग देवताओं की श्रेणी में ही बिठा देंगे। वैसे यदि आज के युग के देवता हम से ज्यादा कौन हैं? देवदर्शन तो पुजारी जी को भेंट देकर जल्दी हो जाता है, लेकिन हमारा दर्शन ही नहीं, एक झलक पाना भी दुर्लभ है।
 💐    शुभमस्तु !
 ✍ लेखक © 🌷 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम
20.01.2020●9.50 अपराह्न।

ग़ज़ल



वक़्त  के साथ इन्सां  बदलता गया।
आदमी, आदमी को ही छलता गया।।

आतिशों  पर कहर बारिशों का हुआ,
आदमी ,आदमी से ही जलता गया।।

इस   क़दर आदमी बेमुरब्बत हुआ,
दायरों  से भी बाहर निकलता गया।

खून    के रिश्ते - नाते मिले धूल में,
राहे- ईमां  से  इन्सां फिसलता गया।

अब   मोहब्बत  की  वो मंजिलें ढह गईं,
औ'  मुसाफिर  यहाँ  हाथ मलता गया।

जिसको समझा था अपना वो अपना नहीं,
बेवफ़ा   दिल  ही दिल में वो छलता गया।

देख   दुनिया    के  सारे नज़ारे   'शुभम',
कुछ मचलता गया कुछ सँभलता  गया।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

20.01.2020 ★5.55अपराह्न।

ग़ज़ल



वक़्त ज्यों- ज्यों जहाँ का बदलता गया।
आदमी,   आदमी को ही छलता गया।।

आतिशों   पर  कहर बारिशों का हुआ,
आदमी , आदमी से ही जलता गया।।

ख़ुदपरस्ती    ने  ऐसा  ढहाया कहर,
दायरों से  भी बाहर निकलता गया।

चौंध में  नाते -रिश्ते  मिले धूल में,
राहे औक़ात  से वह फिसलता गया।

चालो-चलन की सभी मंजिलें ढह गईं,
यकीनन   यकीं   हाथ  मलता गया।

जिसे  समझा था अपना, अपना नहीं,
खाल  में   छिपा दिल ही छलता गया।

'शुभम'     देख दुनिया के नज़ारे अजब,
दिन-ब-दिन गैर इंसां से सँभ लता गया।
💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

20.01.2020 ★5.55अपराह्न

कोहरे का दरबार [ दोहा ]



अभी    रजाई    छोड़  कर ,
क्यों        जाते     सरकार।
बाहर  कुहरे     का    लगा ,
सघन   शान्त  दरबार।।1।।

शी -   शी   करता  शीत से,
थर  -  थर     काँपे      देह।
गरम    रजाई    भा   रही ,
ओलों     के  सँग  मेह।।2।।

बत्ती   टिम - टिम जल रही,
धीमी          वाहन     चाल।
रेंग -   रेंग   कर   बढ़  रहे ,
चालक        हैं    बेहाल।।3।।

चश्मे    में     दिखता   नहीं,
धुँधले        दोनों        ताल।
छा      जाता     है   कोहरा ,
धीमी    पैदल      चाल।।4।।

खेत ,   सड़क ,   मैदान  में ,
फैली         चादर      श्वेत।
पेड़       नहाए -  से    खड़े ,
मौन       झुके    समवेत।।5।।

गौरैया      सहमी     पड़ी ,
द्रुम -  शाखा     के   नीड़।
पंख     समेटे      काँपती,
 नहीं छतों पर भीड़ ।।6।।

दरबे     तज   बाहर   गए,
मुर्गी    -     मुर्गा      रोज।
कुक्कड़  - कूँ   कर  घूमते,
करते   भोजन  खोज।।7।।

नील -   सिलेटी    रंग   के ,
भोले        झुंड        कपोत।
छत     मुँडेर   की   बैठकर ,
देखें    सूरज  -  जोत।।8।।

काँव  -  काँव    कौवे  करें,
पीड़कुलिया       है    मौन।
सुबह भजन  करती  नहीं ,
हमें       बचाए   कौन??9।।

भैंस     रंभाती    रात  में ,
बजे     अभी     हैं     चार।
काकी     कहती   कान में ,
करो  अभी  उपचार।।10।।

खूँटे     से      गैया    बँधी ,
आँसू       बहते       नैन ।
शिशिर शीत तन  काँपता,
कहे  न मुख  से बैन।।11।।

माघ  मास    शीतल  लगे ,
छूने     में      भी      नीर।
जो     नहान   इसमें    करे,
कहलाए     वह  वीर।।12।।

दही     बिलोती   माँ   कहे ,
'जागो       मेरे         लाल।
मुँह धोकर गुड़ - छाछ  पी,
उधर  रजाई  डाल।।'13।।

'विद्यालय     है    बन्द  माँ,
नहीं        नहाना       आज।
ऐसे      ही  गुड़  -  छाछ   दो,
क्या   बिगड़ेगा काज'??14।।

साधु - संत    सब   कर रहे ,
संगम         माघ -    प्रवास।
शीतल      कुहरा    भूलकर ,
प्रभु- चरणों की   आस।।15।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

20.01.2020◆ 2.45अपराह्न

ग़ज़ल



बीत    गई   बातों   का  क्या ।
अब  रिश्ते- नातों  का   क्या।।

जीवन      की    पगडंडी   पर,
बिन बारिश  छातों  का  क्या।

दिन   जब  उजले - उजले हों,
बिना   चाँद   रातों  का क्या ।

दर्द   की   दौलत   पास   मेरे,
बंद   पड़े    खातों   का क्या ।

गम  के   दिन   गम  की  रातें,
सोच     वृथा   बातों  का क्या।

चलते      ही    रहना   मंज़िल,
घातों  - प्रतिघातों   का  क्या।

'शुभम'नियति शह का जीवन,
छोटी -  सी   मातों  का   क्या।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

18.01.2020◆8.45अपराह्न।

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

जूता [ बालगीत ]


♾●●♾●●♾●●♾●●
मुझको   कहते  हैं सब जूता।
मेरे  जैसा   किसका   बूता।।

पैरों    में   मैं     पहना  जाता।
सभी   कष्ट भी  सहना आता।।
मोल न   कोई    मेरा      कूता।
मुझको    कहते    हैं सब जूता।।

पहनें    मानव  नर  या  नारी।
संत    खड़ाऊँ  पहनें  न्यारी।।
जज ,वकील  या इब्नबतूता।
मुझको   कहते   हैं सब जूता।।

कोई   चर्र - मर्र  भी  करता।
नहीं   शूल  कंकड़ से डरता।।
कभी  न आँसू मुझसे चूता।।
मुझको  कहते  हैं सब जूता।।

हर  पल    मैं   रहता   तैयार।
पैर     तुम्हारे      मेरे    यार।।
जिनको   नित्य निरन्तर छूता।
मुझको   कहते   हैं सब जूता।।

मैं   दुश्मन   का  मान घटाता।
उसके सिर पर जब पड़ जाता।।
पाँव   काट    लूँ  आँसू   चूता।
मुझको   कहते    हैं सब जूता।।

कहो   उपानह   या   पदत्राण।
कर्म  एक   मेरा   बस त्राण।।
'शुभम ' जागरण कभी न सूता।
मुझको     कहते  हैं सब जूता।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

15.01.2020 मकर संक्रांति
7.45 अपराह्न।

ताला [ बालगीत ]



मुझको  कहते  हैं सब ताला।
सबके घर का मैं रखवाला।।

लटका   रहता   मैं  चुपचाप।
मुझे न लगते  जाड़ा, ताप।।
सदा    अकेला   रहने  वाला।
मुझको   कहते हैं सब ताला।।

ले    जाते     मेरी   घरवाली।
डाल  जेब  में  नन्हीं   ताली।।
तड़प    विरह में कड़ा कसाला।
मुझको कहते  हैं सब ताला।।

घर ,दुकान हो या विद्यालय।
मधुशाला या  हो  देवालय।।
दर्जी ,पनवाड़ी  या   लाला।
मुझको कहते हैं सब ताला।।

वेतन  कोई    मुझे    न  देता।
भूखा - प्यासा लटका लेता।।
चाहत    मेरी  तैल - निवाला।
मुझको   कहते हैं सब ताला।।

चोरों से   रखवाली    करता।
अपनी   घरवाली    से डरता।।
जीवन -  साथी कुंजी - बाला।
मुझको    कहते हैं सब ताला।।

💐शुभमस्तु! 
🙏 रचयिता ©
🔐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

15.01.2020 मकर संक्रांति
7.00 अपराह्न।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...