सोमवार, 29 अप्रैल 2019

गरमी आई! गरमी आई!! [बालगीत ]

गरमी आई ! गरमी आई !
विदा हो गई शीतलताई।।

तपते  सूरज दादा भारी।
लम्बी तीखी किरण पसारी
तपता अम्बर तपती धरती।
प्यासी व्याकुल चिड़ियां मरती।
पानी का अभाव दुःखदाई।।
गरमी आई ....

आम रसीले जी भर खाओ।
तरबूजा खरबूजा पाओ।।
प्यास बुझाता खीरा प्यारा।
जामुन फ़ालसेव भी न्यारा।।
कुल्फ़ी आइसक्रीम मनभाई।
गरमी आई ......

स्वेटर कोट नहीं अब भाते।
सूती कपड़े बहुत सुहाते।
लू लपटों से बचके रहना।
तेज धूप की क्या कुछ कहना!
फेंको कम्बल गर्म रजाई।
गरमी आई ...

कोल्ड ड्रिंक बिलकुल मत पीना।
रोग रहित यदि चाहो जीना।
पीना पना आम का रोचक।
लू -लपटों का संकट मोचक।
मधुर सन्तरा आनन्द दायी।
गरमी आई ....

लस्सी मट्ठे का क्या कहना!
धूप -ताप गरमी की सहना।।
सरसों तेल लगाओ तन पर।
नहीं डंसेगा कोई मच्छर।
बिखरे पात चली पछुआई।
गरमी आई ...

नहीं    घूमना    नंगे  पैर ।
जो चाहो पाँवों की खैर।।
ढँकना कान कनपटी अपने।
खुली धूप जो लगते तपने।।
'शुभम'बात इतनी समझाई।
गरमी आई .....

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🌳  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 28 अप्रैल 2019

साजन की पाती [ग़ज़ल]

पाती जब साजन की आती।
मन में नया   नूर भर जाती।।

तन के रोएँ खिल-खिल जाते,
आँखों में न खुशी समाती।

पग  धरती  से   उड़ते   ऊपर,
रग-रग में बिजली भर जाती।

खुलने  से  पहले  पाती  के,
लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाती।

जो  मन   मेरे  सो  मन  तेरे ,
मन के भाव  ताड़ मैं जाती।

पाती से    पा  परस  तुम्हारा,
लाज -शर्म से मर -मर जाती।

पाती के   वे  दिन   सब बीते,
सखियों के संग 'शुभम'  सिहाती।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌹 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

विरह [ग़ज़ल ]

वे   जब   आने   वाले   होते।
तन -मन रिसते रस के सोते।।

टेक  हथेली   पर   मैं   ठोड़ी,
लेती   यादों   के  तल  गोते।।

 छिप-छिप पढ़ती पाती उनकी,
कोई न   देखे   हँसते   रोते।।


लजियाती बलखाती बाला,
चौंक   जागती  सोते -सोते।।

थोड़ी  ऊँची   करके   बाती,
पतियाँ  पढ़ती    रोते -रोते।।

कही  न  जाए   मौन  वेदना ,
बच जाती   बावरिया  होते।।

किस्मत  ऐसी  साथ नहीं वे,
'शुभम' बीज दोनों संग बोते।।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
💖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कहने नहीं देते (ग़ज़ल)

मुझे लोग ग़ज़ल कहने नहीं देते।
सुकूँ से बेवज़ह रहने नहीं देते।।

सवाल-दर-सवालों से उलझता हूँ मैं,
दरीचे से बाहर रहने नहीं देते।

चिन्दियों में बिंदियों का रख़ते ख़याल,
मुझे अपनी रौ में बहने नहीं देते।

ख़ुद तो कहेंगे पर बंदिश यहाँ,
मुझे मेरा रस्ता गहने नहीं देते।

क्या है 'बहर' क्या है 'काफ़िया'
'शेर' के 'मतला'  से बढ़ने नहीं देते।

अनजान हूँ 'रदीफ़' 'शाहे - बैत 'से,
'मिसरा' से उधर बहने नहीं देते।

खोया हुआ 'शुभम' इस तिलस्मगाह में,
गूँगा बहरापन मेरा सहने नहीं देते।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मोहे लागै विन्दाबन सूनौ

  अब क्या है। सब समाप्त हो गया। कितनी रौनक थी। कितनी चहल- पहल थी। रोज -रोज नए -नए आगमन। नए-नए आश्वासन। जोशीले कोशीले भाषण। रंगों की बहार भी। कीचड़ की बौछार भी। लेकिन अपन को क्या ? एक दूसरे की पोल- पट्टी खोल रहे थे। अपने ही मुँह अपनी ही जयकार बोल रहे थे।रस में विष और रिस में शीत चन्दन घिस रहे थे। अपन को क्या ? मज़ा ही मज़ा ! खूब घूमना फिरना , खाना पीना और न जाने क्या क्या ? ऐसे दिन भला बार - बार कहाँ आते हैं! सब कुछ सच - सच बतलाने में तो हम ही शरमा जाते हैं ! कितना भी कहें पर पूरा कहाँ बता पाते हैं।
   देखिए तो सही ! झूठ और सच की पहचान ही मर गई। झूठ, झूठ ही न लगे।लगे तो जैसे मिश्री पर माखन सा सजे। अरे भइये ! आज कल के जमाने में सच की उम्मीद ? वह भी आज के इन नेताओं से ? राम ! राम !!राम!!! चील के घोंसले में माँस की आश ? भला ये भी कैसी फरमाइश ? सच बुलवाकर क्या करोगे सियासत का नाश ?
   अब वे वादे और वादा करने और निभाने का बिगुल बजाने वाले न जाने कहाँ गए? जैसे चले गए हों गदहे के सिर से सींग ? चले गये हों ज्यों मेढक दल गहरी शीत नींद ! कैसी विचित्र शांति का पसारा है। मुँह को लटकाए हुए हर नेता बेचारा है? चिंतन की घनघोर मुद्रा में खोया हुआ । न जागता हुआ ,न सोया हुआ। जैसे वैशाख के महीने में घूर पर नत ग्रीव बैशाख नंदन । वैसे ही ख़्वावों में खोए हुए ये चाहते भारी - भारी मालाओं से अभिनंदन !
  महीना भी वैशाख का ही है मित्रो! देखेंगे आते -जाते हुए नए - नए नेता चरित्रों को ! पर अब वृंदावन सूना - सूना सा है। न रंग है न गुलाल का तड़का है। न कहीं रैली है ।न हमारे वास्ते मधुर - मधुर गुड़ की भेली है। न विकास की बात। न खैरात की बात। न शतरंज की बिसात। न नोटों की बरसात। सब कुछ जैसे ठहर ही गया हो। तालाब के बन्द पानी की तरह। जहाँ मेढक भी जल समाधि में लीन हैं। उछल कूद करती हुई शांत हर मीन है। आम आदमी गर्मियों के आम की तरह पीला हो गया है। वह चूसे जाने के लिए तैयार हो रहा है। आम को तो चुसना ही लिखा है उसकी नियति में।उसे कोई रंक से राव नहीं बनाने जा रहा है। नौकरी करने वाले को नौकरी ही करनी है। चमचों को सदा चिलम ही भरनी है। मक्खन लगाएंगे तो थोड़ा चाट भी लेंगे तो बुरा क्या है! मजदूर को मजदूरी ही करनी है। अपनी मजबूरी की कीमत भरनी है। मरा हुआ हाथी भी लाख का होता है ! सो उनका क्या ? कोई कुम्भ थोड़े ही है , जो बारह साल के बाद आएगा । पाँच बरसों में फ़िर हल्ला मच जाएगा और वृंदावन फ़िर आबाद हो जाएगा।

💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप  'शुभम'

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

दिल [अतुकान्तिका]

दिल ?
जी हाँ दिल!
जो कभी होता था 
वक्ष के वाम पक्ष में
अब नहीं मिलता!
खोंसा हुआ मिलता है
किसी वामा के जूड़े में,
घर के कचरे में 
घूरे में किसी कूड़े में।

सिरहाने लगा तकिया
सोफे की सीटों पर,
बच्चों के खिलौनों में
किसी मेले ठेले पर,
राह चलते हुए 
फुटपाथों पर,
अपनों के सिवाय
किसी अनमेल हाथों पर।

चुराओगे कैसे दिल 
वहाँ होगा ही नहीं,
ढूँढोगे तुम जहाँ
होगा वह और कहीं !

बाज़ार में भी
दिल बिका करते हैं,
अब वे लोग कहाँ
जो चिंता दिल की
किया करते हैं।
दिल उछालने की 
कोई गेंद हो जैसे,
दीवाल में लगा लेने की
कोई सेंध हो जैसे।
अब कहाँ भला
दिल टूट सकता है!
फ़ाइबर से बना है
नहीं रूठ सकता है।

कभी इसको 
कभी उसको 
दिया करते हैं लोग,
अब और ही तरह के
होते हैं दिलों के रोग,
इनमें कहाँ बहता है
मानव का लहू लाल,
मशीनीकरण का 
देखा है  आधुनिक कमाल!
ये काँच प्लास्टिक के
बने होते हैं,
टूट जाने पर 
दूसरे भी सुलभ होते हैं,
आवाज़ भी होती है
अब टूटे दिल की,
सुनाई पड़ती है दूर तक
ध्वनि  टूटते दिल की।

दिल ही का तो खेल था
मानव में ,
मानव - जीवन में,
दिलों का ही तो
मेल था मनुज के 
जीवन -धन में!
 अब क्या 
एक मशीन है 
चलती फिरती,
बटन से बंद चालू
रुकती टिकती,
संवेदनाएं  कृत्रिम वक्रिम,
चरणों से घुटने 
घुटने से पेट तक  आईं,
न आँखें झुकीं
न तनिक शर्म भी आई,
बस हल्की सी 
एक जीभ लहराई,
'  नमस्ते। '
 'नमस्ते !'
शेष औपचारिकता ही,
न दिल 
न दिल की कोई
बात ही भाई!
बनावटी दिलों की
यही सब सुंदरताई!

क्या ये दिल का
मामला है ?
वक़्त का तकाज़ा है,
स्वार्थ की वाह वा है।

रह गया पीछे कहीं 
दिल ,
साँचा दिल,
अब तो बस दाँतों की
दिखावटी खिलखिल।
निकाल डालो 
शब्दकोषों से
शब्द 'रहमदिल'!

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

कैसे होते हैं गीत ! [गीत]

भाषा की  सिंह - दहाड़,
रसभरे  गीत  नहीं  होते।
शब्दों   के    तीखे   शूल ,
हृदय में प्रीत नहीं  बोते।।

शैली जटिल संजाल की,
उलझाती       है      हमें।
सँकरी गली के चौराह सी,
भरमाती      है      हमें।।
विद्वत्ता   की   ये   धाक,
दिखलाते     हैं     किसे।
सीधे सरल सन्मार्ग को,
छितराते    हैं     किसे।।
भ्रामक भ्रमर के जाल में
खाना      नहीं       गोते।
भाषा की सिंह-....

हार   है  न   जीत  यहाँ,
मात्र          प्रीत       है।
लाभ है  न  हानि  कहीं,
बस     नेह - तीत   है।।
प्रणय नवल वात्सल्य है,
न     हृदय     भीत    है।
 अरुणिम   गुलाबी   रंग,
वासंती       पीत     है।।
ताशों के महलों में कभी,
संगीत      नहीं      होते।
भाषा की सिंह-....

लहर   उठती    है   कभी,
गिरती    है      नीर - सी।
ओज  भरती   है   कभी,
तैनात          वीर - सी।।
चुभती नहीं उर में कभी,
ज़हरीले      तीर -   सी।
बजती   है   मंजु   बीन ,
मीरा        कबीर - सी।।
मरुथल  के   वे  पहाड़,
मनमीत   नहीं     होते।।
भाषा की सिंह-....

नृत्य  की   लय  ताल में,
थिरके    हैं   दो    चरण।
शब्द  - सुमन - थाल में,
सदगन्ध  का     वरण।।
वाद्य   बजते    हैं   स्वयं,
वीणा  - पुकार     बन।
नाच  उठते    हैं    हृदय,
सहृदय  सिंगार  -धन।।
बीहड़ शून्य-सा उजाड़,
उष्ण -शीत  नहीं होते।
भाषा की सिंह -....

लास्य  की नव -भंगिमा ,
विस्मृत      नहीं    होती।
प्रकाश   की   परिक्रमा ,
तिरस्कृत  नहीं    होती।।
केवल हृदय की तलहटी,
आबाद     रहती       है।
सुरभि   प्रातःकाल  की, 
क्या कुछ न कहती है!!
सूखे कंकड़ों की बाड़ से
झरते     नहीं       सोते।।
भाषा की सिंह-....

💐 शुभमस्तु!💐
✍  रचयिता ©
💞 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

बस वही गीत है [गीत]

जो  उर में  उतर जाए ,
बस    वही   गीत   है।
जो  तार    झनझनाए,
गीत   की   जीत   है।।

शब्दों    की   जो  पहेली
उलझाती     है       हमें।
ज्यों  मछलियाँ तड़पती,
तड़पाती      हैं       हमें।।
जो खोदता मष्तिष्क को
वह   गीत      है    कहाँ?
जो   खोदता है कोष को,
यह    रीत       है    कहाँ?
बरसाए  नेह -  मेह   जो,
साँची      वह     प्रीत  है।
जो   उर  में ....

भटकाव याअटकाव की,
भाषा       न      जानता।
  ऊहापोह या भ्रमजाल का
लासा     न      मानता।।
रसधार का बहता हुआ ,
निर्झर       ही     गीत है।
कंकड़ या काँटों से भरा,
पथ    भी   न   गीत है।।
मंथन से दधि के जो मिले
मधुर      नवनीत      है।
जो उर में....

गर्मी     नहीं   सर्दी   नहीं,
मोहक       वसंत        है।
सावनमास की बूंदें विरल
आनंद     अनन्त       है।।
रौद्र   या   वीभत्स   नहिं,
 शृंगार       कंत          है।
शैतान   या   दानव  नहीं,
मानव    है      संत   है।।
सीधी सरल सी चाल में,
चलने    की    रीत     है।
जो  उर  में ...

रस  छन्द  लय के   तार,
झनझनाते    हैं      यहाँ।
भौंरे      तितलियाँ    भी,
गुनगुनाते      हैं     यहाँ।।
कोयल की मधुर कूक भी,
मोरों      की      बोलियाँ।
हँसते     हुए    फूलों  की,
महमहाती     झोलियाँ।।
प्रकृति    का   शृंगार  ही,
गीतों     का     मीत    है।
जो उर में ....

फ़ाल्गुन  में होलिका का,
उछला     ये       रंग   है।
कार्तिक की दीपमालिका
श्रावण   -   उमंग   है।।
लहराती   हुई   गंगा  की,
निर्मल        तरंग       है।
तेरे   मेरे  उर मिलन का ,
प्राकृत      सुसंग     है।।
मन 'शुभम 'का रिझवाये,
तेरा   भी      मीत      है।
जो उर में ....

💐 शुभमस्तु!💐
✍ रचयिता©
💞 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

चुनाव से पहले :चुनाव के बाद [सवैया]

वोटनु     काज      सिगरे     नेता,
भए  पागल माँगत   वोट   हमारे।
वो  दिन    बीति    गयौ  अब  तौ,
अब सोबहु चैन की नींद पियारे।।
इक  माह  सतावै   वियोग   बड़ौ,
नहिं  राति में नींद न चैन दिना रे।
जीत    कौ    देखि   रहे    सपनों,
कहूँ   वोटरमोय न देहिं दगा रे।।

भाजत -भाजत   छाले   परे  पग,
बोलत -बोलत     थूकहु    सूखौ।
दिन-रेनहु   कौ   नहिं होशु रह्यो,
सब   पीवत खात   रहे मैं भूखौ।।
छूवत -छूवत     कमरि     दुःखी,
बाप    गधाहु   बनाइ न    चूकौ।
फिरि हू फिरि जाइ जौ भाग लिखी,
कैसे दिखराऊँ हों बाहर मूँ  कों।।

वोट   पड़ें हर    साल   ही  ऐसे तौ,
चाँदी है हमारी ख़ूब पी ओ खाओजी।
बोतलवासिनि     अंक     लगीं    नित
मालपुआ खाओ या मस्तमाल पाओजी।।
महीना    भरि    मौज  रही    अपनी,
चमचागिरी    सबको   सिखराओजी।
चेहरा  चमके     बिन    क्रीम   लगे,
माखन उनके  तनकूं लगवाओजी।।

चमचा    कहे      चाहे   कोई हमें,
चमचागिरी    बहुत हमें फलदाई।
खीरि        भगौना   की चाटि रहे,
हम   मालपुआ रबड़ी मनभाई।।
पी    खाइ  के  टुन्न भए हम   तौ,
देह     समेत     सुरग    पहुँचाई।
भगवान     भगौना    बनाए  रखें,
नेतनु की   रहै   ऐसी   प्रभुताई।।

कंचन कामिनि काम की कीचनु,
को   न   सनौ   चमचा   नेताजी।
धर्म      अधर्म    सुकर्म   कुकर्म,
सबकौ   फल  पावते हैं नेताजी।।
पाप      कौ     बोझ   धरे सिर पै,
टसुए       ढरकावते   हैं  नेताजी।
कौन    सौ    कर्म    बचौ    इनसे,
ताहि करि न सकें अपने नेताजी।।

💐शुभमस्तु !💐
✍रचयिता ©
🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

जंगल में चुनाव [बालगीत ]

जंगल में  हलचल  है भारी।
वोट   डालने  की  तैयारी।।

शेर और वानर की टक्कर।
वोट माँगते  दोनों  डटकर।।
दौड़  लगाते  चूहा - चुहिया।
टर -टर  करते  मेढक भैया।।
लंगूरों     से    वानर  यारी।
जंगल में हलचल ......

शेर  ठीक    है   हाथी  बोला।  
भालू दादा   ने मुँह    खोला।।
वानर   उछल -कूद करता  है।
और बाघ   से भी   डरता है।।
करनी क्या जंगल की ख़्वारी!
जंगल में हलचल ......

उधर  लोमड़ी  भी चिल्लाई।
मैं क्या कम वानर से भाई!!
 दाख़िल करना मुझको पर्चा।
हुई   तेज   जंगल   में  चर्चा।।
लोमड़  की आरती   उतारी।
जंगल में हलचल ............।

गीदड़ हिरन शशक दल आया
वानर - मामा को समझाया।।
तुम्हें सियासत में क्या पड़ना!
बैर    शेर से   रखकर लड़ना।
मिले धूल  में  इज्ज़त  सारी।
जंगल में हलचल ....

वानर  ने  पर  बात  न  मानी।
लड़ने  को चुनाव की ठानी।।
ताल ठोंककर खड़ा हो गया।
आम डाल परचढ़ा सो गया।।
कुर्सी दिखी स्वप्न में प्यारी।
जंगल में हलचल .....

तेईस को मतदान दिवस है।
करते कानों में फुस फुस हैं।।
सात बजे पोलिंग पर जाना।
बढ़चढ़ कर वोटिंग करवाना।
छोड़ो सुस्ती   नींद   ख़ुमारी।
जंगल में हलचल ......

गधेराम   पोलिंग   ऑफिसर।
लिए लिस्ट बैठे पोलिंग पर।।
सेक्टर  मजिस्ट्रेट   है  घोड़ा।
उसी  बूथ पर   वाहन मोड़ा।।
ख़च्चर पीठासीं'  अधिकारी।
जंगल में हलचल ......

ई वी एम     ओट   में  लेटी।
ज्यों    दुल्हन   पर्दे  में बैठी।।
वोट    पड़  रहे एक एक कर।
चिन्ह चयन का देख देखकर।
आई   बिल्ली  मौसी   प्यारी।
जंगल में हलचल .....

भालू  दादा    भी  हैं   आए।
 स्वयं साथ  पत्नी को लाए।।
वे हैं वरिष्ठ  नागरिक वन के।
पहला वोट   डालते तन के।।
लगी बीप ध्वनि उनको प्यारी
जंगल में हलचल है ....

कौआ  बोला किसको डाला।
'चुप कर 'बोला कोयल काला
'गोपनीय   है   वोट न बोलो।
आपस में यों बैर न घोलो।।'
'जंगल की जनता हितकारी।'
जंगल में हलचल ...........।।

💐शुभमस्तु!💐
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

फफूँदी अचार [दोहा ]

काने     कुबड़े   बेर  हैं,
चुनना   है   बस   एक।
असमंजस भारी  जगा,
खोजें    कैसे     नेक  ।।

सर्वश्रेष्ठ   निज को बता ,
करते       रहे      प्रचार।
किन्तु  हमें  ऐसा  दिखा,
लगा   फफूँद    अचार।।

झोली  में   कीचड़  भरा,
फेंका      जीभर    रोज़।
ऐसे  याचक     में  कहाँ,
करें  साधु    की  खोज।।

नेता  !नेता!!  जो   जपे,
ताने        ताने       होय।
आम कहाँ   से  खायगा,
जो    बबूल    तू    बोय।।

मत लेकर फिर जायगी,
मति   नेता   की   मित्र।
टीवी   अखबारों  दिखे,
नेताजी     के      चित्र।।

जनता    से   ही  देश है,
नहीं   देश  इक   व्यक्ति।
दें उसको कुछ भी सजा,
जनता  की ही    शक्ति।।

भेड़ें  चलतीं   भीड़    में,
बांध     मूँछ     से   पूँछ।
अपनी      मूँछ  सजाइए,
रहे       मूँछ    की मूँछ।।

सबकी   'मैं' 'मैं देख ली,
आगे   टें   भी       देख।
पीछे  उनके    जो   चले,
समझ   उन्हें   तू   मेख।।

लड़ते    हैं     मैदान    में,
ताल   ठोंक   दस   पाँच।
सेहरा  जिसके शीश पर,
नाच  उसी   का   साँच।।

जनहितकारी    के  गले,
मिले    फ़ूल    का  हार।
लोकतंत्र    फूले     फले,
'शुभम'सुसज्जित  द्वार।।

💐 शुभमस्तु ! 💐
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

धरती -दोहावली

धरती  - माता  के सभी,
हम    बालक     नादान।
उऋण न होंगे जन्म भर,
करें    सदा     सम्मान।।

जब   जननी   के गर्भ से,
बाहर      आया     जीव।
धरती - माँ ने  गोद  भर,
थामे    नव   तन   ग्रीव।।

धरती - माँ   की गोद से,
जननी - आँचल    बीच।
नर -  नारी नवजात को,
स्नेह -  सुधा   से  सींच।।

डगमग चलना सीखकर,
बड़ा    हुआ     नवजात।
धरती   माँ  ने   धूल की ,
तन  को   दी    सौगात।।

दौड़ा     भागा    रौंदता,
तू    धरती    को  नित्य।
धारण कर सहती सदा,
रे   नर!     तेरे    कृत्य।।

गड्ढे    खोदे    कूप   भी,
सरिता    सिंधु    महान।
मौन धार  सहती   सदा,
करती   जीवन - दान।।

अन्न दूध फ़ल फ़ूल का ,
स्रोत   धरा   के   गर्भ ।
कोयला  हीरा रत्न का ,
समझो    तो     संदर्भ।।

पर्वत   झरने  झील की,
सुषमा  सुखद  अपार।
धरती की महती -कृपा,
बरस      रही    संसार।।

पौधारोपण     से   जगें,
मुरझाए     तन     प्राण।
पृथ्वी   का  जीवन  बढ़े,
जीव -  जंतु  का त्राण।।

जल दोहन सीमित करें,
व्यर्थ   बहा    मत  नीर।
पृथ्वी   है  तो   आप हैं ,
वरना   शेष   न   कीर।।

लगने    में    वर्षों   लगें,
मिनटों    में   दें     काट।
सींचो सोचो वृक्ष - हित,
हे       पृथ्वी -   सम्राट !!

पौधा    रोपा   मगन हो,
सेल्फ़ी    ली   मुस्काय।
मुड़कर  फिर देखा नहीं, 
खाए    बकरी     गाय।।

ख़बर   छपी  फ़ोटू छपा,
लगा     रहे     हैं    पेड़ ।
सींचा फ़िर मुड़कर नहीं,
हुई    पेड़     की    रेड़।।

सबमर्सिबल   चल रहा,
बहता   सड़क   बज़ार।
भैंसों   का   स्नान -घर,
पर्यावरण       सुधार??

नगर पालिका के खुले,
टोंटी    नल     फव्वार।
देख नागरिक बढ़ गया ,
बंद   सोच   का  द्वार।।

पृथ्वी  - रक्षा  कर  सके,
क्या   आशा - विश्वास ?
'शुभम 'आदमी देश का,
देता   भाषण    ख़ास।।

सच्चा पृथ्वी दिवस तब,
जागे       भू  -   संतान।
मानव   पृथ्वी - पुत्र  तू,
'शुभम'  न  बन शैतान।।

नारे   लिखने   मात्र  से,
होता  'शुभम'   न कार्य।
वचन-बतासे व्यर्थ सब,
  करनी    ही   अनिवार्य।   

      🌳 पृथ्वी-दिवस 🌳     
                🌲 की हार्दिक🌲                
☘शुभकामनाएं☘

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शोर बहुत ज़रूरी है! [व्यंग्य]

   शोर हमारी एक आवश्यकता है। बिना शोर के मानव - जीवन अधूरा है।जीवन में रौनक और जीवन्तता लाने के लिए शोर बहुत जरूरी हो गया है। यही कारण है कि हमारे सामाजिक समारोहों में इसे विशेष महत्व प्रदान करते हुए कुछ ऐसे शोर - उत्पादक यंत्रों , वाद्यों तथा आधुनिक विज्ञान द्वाराखोजे गए साधनों को आवश्यक रूप से व्यवस्थित करना हमारी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। जब तक मैरिज -होम में डी जे न बजे तब तक दूल्हा - दुल्हन की सात भँवरिया पड़ ही नहीं सकतीं। अगर डी जे नहीं लगवाया तो जीजाजी रूठ जायेंगे। फूफा जी को कौन मनाएगा ? चाहे विवाह - स्थल पर दावत और वैवाहिक कार्यक्रम के समय किसी को कुछ भी सुनाई पड़े या न पड़े , पर डी जे तो बजेगा ही। उस पर अति आधुनिक बच्चे से लेकर किशोर युवा और युवतियां जब तक धमाचौकड़ी नहीं मचाएंगे ,तब तक शादी का कोई मतलब नहीं रह जाता। चाहे और कुछ हो या न हो , पर डी जे के बिना शादी का कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार की स्थिति बैंड -बाजों की भी है। क्योंकि उसमें जब तक हल्ला - गुल्ला , भाभियों, देवरों, रिश्तेदारों द्वारा नोट दिखा -दिखाकर डांस नहीं किया जाएगा , तब तक शादी का काम अधूरा ही है। चाहे नाचते -नाचते सवेरा हो जाये, भले ही भाँवरों के भँवर में गोते लगाने से दूल्हा -दुल्हन वंचित हो जाएं। मुहूर्त निकल जाए , पर उन्हें क्या ? नाचने का ऐसा अवसर बार -बार कब मिलने वाला है। शादियाँ तो होती ही रहती हैं।
   इसी प्रकार कथा -भागवत या रामायण पाठ में फिल्मी गानों की सुबह शाम आरती होना भी एक शोर - सभ्यता का एक आवश्यक अंग है। कोई सुने या समझे नहीं पर बजाना ज़रूरी है। यही कारण है कि हमारी आधुनिक शोर - सभ्यता निरंतर विकास के मार्ग पर अग्रसर होती जा रही है। बड़े -बड़े पढ़े -लिखे, नेता , मंत्री , अधिकारी किसी को कोई आपत्ति नहीं होती । वे भी आते हैं और सोफे पर बैठकर शोर - सभ्यता का मौन समर्थन करते हुए कारों में बैठकर पलायन कर जाते हैं। यहाँ कोई नियम नहीं , कोई कानून नहीं चलता ।
   शोर, शोर - सभ्यता की शान है। आख़िर इंसान भी तो इंसान है! उसे भी जीना है। उसके जीने के आवश्यक तत्वों में शोर की विशेष भूमिका है। आख़िर खुशी का मौका है , जब तक कुछ अच्छा - खासा हल्ला- गुल्ला न हो तो समारोह का आनन्द ही क्या ? गाड़ियों में चाहे हार्न भले ही न हो , शादी में बैंड - बाजा और डी जे प्रबंधन एक आवश्यक तत्व है। विवाह -समारोह किसी राष्ट्रीय पर्व से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जब 15 अगस्त और 26 जनवरी या अन्य अवसरों पर को तोपें दागी जा सकती हैं ,तो क्या दूल्हे राजा के रिश्तेदार अपनी दुनाली की शान दिखाते हुए धाड़ - धाड़ नहीं कर सकते।कोई मरे या जिए ,उन्हें क्या ? चिल्लाती रहे सरकार और प्रशासन कि हर्ष -फायरिंग मत करो , मत करो। पर क्या यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी शान को बट्टा नहीं लग जाएगा? यदि जीजा , फूफा , चाचा ,ताऊ की शान को बट्टा लग गया , तो ये तो अच्छी बात नहीं होगी न ! इसलिए वे हर्ष - फायरिंग जरूर करेंगे। सरकार या प्रशासन क्या देखने आ रहे हैं ! इसलिए खूब मनमानी करो। कानून से न डरना हमारी बहादुरी है। जिसे हम कानून तोड़कर दिखाते हैं। नेता जी तो इस मामले में सबसे आगे हैं।अरे भाई! वे कानून के बाप हैं, क़ानून उन्हें तोड़ना ही है। उन्हें क़ानून की हत्या करने में मुँह पर रूमाल बांधने की भी जरूरत महसूस नहीं होती। क्योंकि क़ानून तोड़ने से उन्हें खुशबू के आनन्द का अहसास होता है। गर्व की अनुभूति होती है। सामान्य जन के दर्जे से उच्च दर्जे का इंसान होने का गुरूर होता है।
   समय -समय पर शोर का जलवा और जलसा दिखाने के अवसर आते ही रहते हैं। समझदार को इशारा बहुत होता है, सो आप समझदार तो जरूरत से ज़्यादा ही हैं। गाहे बगाहे ऐसे अनेक मौके ढूँढकर शोर का दौर चला ही देते हैं। समझदारी एक बहुत बड़ा प्रमाण यह भी है कि जिस चीज़ से आपकी सेहत को नुकसान होता है, उसे करना और अपनाना अपना अनिवार्य धर्म समझते हैं। जैसे कहा जाता है कि इतने डेसिबल से अधिक की ध्वनि मानव - स्वाथ्य के लिए अहितकर है। पर आपको इससे क्या ? बनी रहे। क्या फर्क पड़ता है। जब आप प्रत्यक्ष रूप में सिगरेट , तम्बाकू, गुटका आदि के चमकीले पेकिटों पर लिखे हुए संदेशों "तम्बाकू खाने से केंसर होता है।" "धूमपान करने से कैंसर होता है।" : को घोंटकर पी जाने की प्रबल शांकरीय -क्षमता रखते हैं ,तो शोर का डेसिबल कौन नापे? इसीलिए डी जे के दुकानदार भी सारी चिंता त्यागकर धड़ल्ले से फुल वॉल्यूम में बजाते हैं। और तो और ऑटो वाले तो किसी की चिंता नहीं करते, और कानफोड़ू ध्वनि में फ़िल्मी गीतों का आनन्द लेते हुए देखे जाते हैं। इस देश में नियम क़ानून की फ़िक्र तो किसी को है ही नहीं। अरे ! आपको पता नहीं देश 15 अगस्त 1947 से ही आज़ाद है। कोई कुछ भी कर सकता है। आज़ादी के असली मायने तो यही हैं। इसलिए यदि भारतीय स्वतंत्र सम्माननीय आदरणीय नागरिक यदि डी जे पर शोर पसंद करते हैं ,तो किसी का क्या जाता है। यहाँ क़ानून तो केवल किताबों में पढ़ने के लिए और वक्त -ज़रूरत काम आने के लिए तो बनाये जाते हैं, अनुपालन के लिए नहीं।'रसीद लिख दी , ताकि वक़्त-ज़रूरत काम आ सके।
धन्य हैं देशवासी औऱ धन्य शोर - सभ्यता के अनुयायी!
जब होनी ही नहीं है कोई कर्रवाई तो खूब डी जे बजाओ मेरे भाई!!

💐शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

भेड़ [अतुकान्तिका]

भेड़
उसके पीछे 
एक और भेड़,
और उसके भी पीछे,
फिर भेड़,
भेड़ों के पीछे 
बस भेड़ ही भेड़,
बन गया रेवड़,
रेवड़ में ही पूर्ण
विश्वास लिए
भेड़ ही भेड़।

न अपना भान,
न कोई ज्ञान,
संधान न अनुसंधान,
चिंतन न मनन,
न अनुचिंतन मंथन,
केवल और केवल
अंधानुकरण,
अन्धानुसरण,
अंधा - वरण,
पड़ते सब चरण।

जगत -गति से विमुख,
सुखी सब मेष,
न किंचित क्लेश,
न म्लानता लेश,
अनुगामी अंधी मेष।

अंध कूप में गमन,
ऊर्ण का तन -मुंडन,
नित -प्रति आचरण
अन्धताप्रिय तन मन
चर्म युगल नयन,
मौन जिह्वा बंधन।

सदा नतग्रीव,
दृष्टि की सुखद सींव,
तितिक्षा ही इच्छा,
मन की वरीक्षा 
न दूर दृष्टि
रेवड़ सीमित सृष्टि।

भेड़ ही भेड़,
आवाज आई 
हु र्र र्र र्र $$$
चल पड़ीं सब
सुर्र र्र र्र र्र ....

💐शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
☘*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

और फिरंगी को भागते ही बना [संस्मरण ]

   देश की आज़ादी के लिए देशभक्त महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी शासन औऱ प्रशासन का विरोध उग्र रूप से कर रहे थे। उस आंदोलन में मेरे पूज्य पितामह (बाबा) स्व.तोताराम निवासी : ग्राम-पुरा लोधी, थाना :खंदौली, तहसील :एत्मादपुर, आगराभी पूर्ण रूप से सक्रिय थे। वे 1932 और 1942 में अनेक बार सत्याग्रह आंदोलन के कारण जेलयात्रा भी कर चुके थे।
   उसी समय की एक घटना मेरी पूजनीया दादी श्रीमती जानकी देवी मुझे सुनाया करती थीं। वे बताती थीं कि एक बार एक अंग्रेज़ अधिकारी  हेट शूट धारी घोड़े पर सवार, बड़ा ही तेज तर्रार, गाँव पुरा लोधी में आया और हमारी ही चौपाल पर खड़े एक नीम के पेड़ पर  अंग्रेज़ी सरकार का झंडा लगाने की कोशिश करने लगा। तभी गाँव की महिलाओं  को पता चला। मेरे बाबा तथा गांव  के ही पाँच अन्य स्वाधीनता सेनानी गांव से बाहर रहकर अंग्रेज़ी प्रशासन के विरुद्ध गतिविधियों में संलग्न थे। घर वालों को भी ये पता नहीं होता था कि कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं। कभी जेल से बाहर तो कभी अंदर। बस यही सब चल रहा था। एक बार बरहन - हाट लूट कांड  के आरोप  में पूरे गाँव पर सामूहिक जुर्माना भी लगाया गया था। फिर क्या था, महिलाएं एकत्र हो गईं और मेरी दादी के नेतृत्व में उन्होंने उसे पकड़ लिया और जबरन लहँगा- चुनरी, चूड़ियाँ पहनाकर उसके हेट को उतार लिया औऱ दूध औटाने वाली हँड़िया को उसके सिर पर औंधा लटका दिया । फिर तो उस फिरंगी ऑफिसर को उल्टे पैर भागते ही बना । इसके साथ ही दादी के साथ की महिलाओं के समूह ने गांव के ही छोटे - लड़कों के सहयोग से तिरंगा।झंडा उसी नीम के पेड़ पर फहरा दिया।

वंदे मातरम!
जय हिंद !!
जय भारत!!!

💐 शुभमस्तु !
✍लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

ये क्या देशबचायेंगे! [गीत]

ये    बेतुक    बड़बोले  नेता,
ये   क्या    देश     बचायेंगे?
जिनकी जुबाँ गाल के बाहर,
जनता    को      गरियाएँगे।।

निज   उल्लू सीधा करने को,
कुछ भी   ये   बकवास करें!
कीचड़ की पिचकारी मुँह में,
इनसे  क्या   हम  आस करें?
घुला ज़हर जिनकी ज़ुबान में,
ज़हर     पिला      मरवाएँगे।
ये बेतुक  .......

कपटी  क्रूर   कुचाली  काले, 
छुरी बग़ल   में  मुँह  में राम।
साँपनाथ  और  नागनाथ के,
दो -दो    जीभें  काले काम।।
अभी पालने   को  लतियाते,
बड़े      गज़ब    ये    ढाएंगे।
ये बेतुक ........

प्यारी   इनको  कुर्सी  सत्ता,
अफ़वाहें       फैलाते     हैं।
झूठ बोलकर प्रतिपक्षी पर
कीचड़   ही    डलवाते  हैं।।
देश  धर्म  से  इन्हें न रिश्ता,
क्या    कर्तव्य     निभाएंगे?
ये बेतुक .....

राष्ट्रधर्म   की   डींग  हाँकते,
मानव -धर्म    नहीं    आता।
बेशर्मी धो -  धो   कर   पीते,
आम    चूसना    ही  भाता।।
चुना अगर ऐसे  नायक को,
बार -  बार        पछतायेंगे।
ये बेतुक .....

शोषक   क्या जानेंगे पोषण,
चोर -  लुटेरों     के    साथी।
कभी हाथ   मज़बूत बनाते,
कभी   थाम   लेते   हाथी।।
गठबंधन   से  जो  जन्मे हैं,
बुरा    उसे        बतलायेंगे।
ये बेतुक .......

थूक -थूक  कर चाट रहे हैं,
भूल गए   इतिहास  सभी।
कल ही जैसे  जन्मा भारत,
ये ही   माता  -पिता  सभी।।
बिना सीढ़ियां चढ़े 'शुभम',
क्या मंज़िल पर चढ़ पाएंगे?
ये बेतुक ...................।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

प्रहेलिका [अतुकान्तिका]

किस   लय    से 
किसलय   बना -
विकसित पल्लव,
शैशव से कैशोर्य-
यौवन का जीवन नव,
विकास -यात्रा का
अन्तः अनुभव।

न   कहीं     कोई    भ्रम,
निरन्तर विकास का क्रम,
तथापि भ्रम में जीना,
भ्रम   में  ही   रखना,
षोडशी के चरणों में
मिथ्या -पाहन  रखना,
माह की तिथि तक रहना
अन्तः अग्नि से अंदर दहना,
सदा मिथ्या लिखना ,
कहना।

सम्भवतः ये कोई
 फैशन है,
यथार्थ को झुठलाने का
थोथा प्रदर्शन है,
परंतु फैशन भी
रूप बदलता है,
किन्तु ये फैशन
उनके आचरण में
ढलता है।

प्रकृति कहती है-
'निरन्तर प्रतिक्षण परिवर्तन,
स्त्री -पुरुष जड़ या चेतन:
परिवर्तन !
परिवर्तन!!
परिवर्तन!!!
अनिवारणीय परिवर्तन!
अपरिहार्य परिवर्तन!!
तिथि माह या वर्ष ,
सभी का अपना उत्कर्ष !'

बोल लो तुम 
चाहे जितना असत्य,
तुम्हारी आँखे चेहरा,
हाल कह देता है
सच का,
न कहीं विश्राम,
न विराम कहीं,
अनवरत एक गति,
जीवन की भी यही नियति,
सरिता के सागर में
मिल    जाने   तक,
फिर क्यों तुम्हारी
मात्र जन्म की तिथि है?
वर्ष है ही नहीं ,
एक असम्भव तथ्य
प्रवंचना प्रकृति के संग,
नहीं हो तुम आदि ब्रह्म भी,
उद्गम अवसान के -
जिसके  तिथि माह वर्ष नहीं,

सम्भवतः तुम एक 
सजीव प्रहेलिका हो,
सत्योदघाटन की जिससे
कोई अपेक्षा भी नहीं।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

किसलय [अतुकान्तिका]

मात्र जन्म की तिथि 
व माह,
न कोई वर्ष 
यह कैसा गोपनीय विमर्श!

एक  सचाई
दुनिया से छिपाई,
झुठलाई,
न जतलाई ,
न बतलाई,
पर सचाई तो है
सचाई,
कैसे जाएगी छिपाई?

समय ,तिथि ,
माह और वर्ष के बिना,
किसने सीखा है जीना!
सचाई छिपाने में ही 
जीती हैं हसीना,
जताने में निज सचाई
छूट जाता है पसीना।

माह , वर्ष छिपाने से
न लिखने न लिखाने से
क्या यौवन ठहर जाता है ?
पर माह वर्ष 
समय  तिथियों का पहिया
  स्वगति  से आगे।
बढ़ ही जाता है !

न वक़्त थमता है 
न उम्र थम पाती है,
चिकनाई ऊपर की
स्वतः खुरदरी 
हो ही जाती है!
बढ़ते हैं कोण 
शनै:शनै:
 समतलता की ओर,
उषा की किरण 
अस्त संध्या की ओर,
पर उन्हें गोपन की
हर बात रुचती है,
अंतःकरण में एक
धुँधली शाम उठती है।

उन्हें प्रकृति की 
सौगात  है  गोपन,
फिर कहीं ठहर 
नहीं पाता यौवन !

भेद खुल ही जाता है
प्रवेश -काल में,
मिलानी पड़ती है लय
तिथि माह साल में!
नहीं बचता दुधमुँहापन
षोडशी कहलवाता यौवन!

पर्वत झरते हैं,
सरिता बन बहते हैं,
सागर से मिलने को
आतुर अति रहते हैं,
लावण्य को सौंप सागर को
निर्मल बादल बन उमड़ते हैं।

क्या बिना तिथि माह वर्ष के,
बिना शैशव , कैशोर्य-यौवन,
 वार्धक्य के उत्कर्ष के!
पूर्णता मिली है उसे?

सबकी है अपनी महत्ता
किसलय भी बनता है पत्ता,
पतित होता है धरा पर 
पीत पत्ता!
पुनः किसलय प्रस्फुटन होता
थमता नहीं है कभी
तिथि माह वर्ष का सोता !
आत्म प्रवंचना है ये
 कृत्रिम गोपन,
शैशव का उच्च शिखर है 
यौवन,
फिर तो उतार ही उतार,
अवतार ही अवतार,
ढलान ही ढलान,
वार्धक्य की ढलान,
नवजीवन का उद्गार ।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप

मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

बाबा कैसे होते गाँव [बाल गीत]

बाबा   कैसे   होते  गाँव।
गाँव देखने  का है चाव।।

घर कुछ छोटे बड़े गाँव में,
बच्चे खेलें सघन छाँव में,
बरगद पीपल नीम खड़े हैं,
कुछ छोटे कुछ बहुत बड़े हैं,
हरे -भरे  पेड़ों  की छाँव।
बाबा  कैसे  होते   गाँव।।

चारों ओर खेत गाँवों के,
कहीं पेड़ सुंदर आमों के,
खेतों में  सरसों  गेहूँ की-
फ़सलें लहराती हैं जौ की,
कोयल कू -कू कौवे काँव।
बाबा  कैसे  होते   गाँव।।

तालाबों में भैंस लोटतीं,
चरके बकरी गाय लौटतीं,
गली-गली में श्वान भौंकते,
चूहे बिल्ली देख चोंकते,
देता   मुर्गा   प्रातः बांग।
बाबा  कैसे   होते  गाँव।।

नदिया में मछलियाँ तैरतीं,
मगरमच्छीयाँ धूप सेंकतीं,
टर्र-टर्र मेढक भी करते।
वर्षा में वहाँ साँप सरकते।
धीरे -धीरे- चलती नाव।
बाबा   कैसे होते गाँव।।

झूले पड़ते हैं मनभावन,
जब आता है प्यारा सावन,
रिमझिम बूँदें मस्त फुहारें,
गाती बहनें गीत मल्हारें,
सघन आम की ठंडी छाँव।
बाबा  कैसे  होते  गाँव।।

सावन   भादों होती वर्षा, 
पौधे लता मनुजमन हर्षा,
नदिया ताल गली गलियारे,
उफ़न-उफ़न कर बहते सारे,
टपके छत छप्पर की छांव।
बाबा कैसे  होते  गाँव।।

जाड़े ने जब झंडा गाड़ा,
दादी पीती खौला काढ़ा,
कोहरे की चादर तन जाती,
हम तुम सबको ठंड सताती,
चला न जाता नंगे पाँव।
बाबा कैसे   होते गाँव।।

मोर नाचते छत अमराई,
प्रातः झेपुल   टेर लगाई,
चें चें करती नित गौरैया,
निकल नीड़ से अपने छैयां,
आता पिड़कुलिया को ताव,
बाबा कैसे   होते गाँव।।

अम्मा दुहती नित पय गाढा,
वर्षा गर्मी या हो जाड़ा,
दही बिलोती छाछ बनातीं,
थोड़ी लोनी भी चटवाती,
रुचिकर लगती वहाँ न चाय।
बाबा  कैसे होते  गाँव।।

जब आता है पर्व दिवाली,
स्वच्छ गाँव घर आँगन नाली,
मिट्टी के सब दिए जलाते,
खील खिलौने मिलकर खाते,
लक्ष्मी गणेश पूजन का चाव।
बाबा  कैसे  होते गाँव।।

होली   रंगों का त्यौहार,
मेल -जोल का हर ब्यौहार,
रंग खेलते भर पिचकारी,
गुझिया पापड़ की भरमारी,
ऊँच नीच का कोई न भाव।
बाबा  कैसे  होते  गाँव।।

आँख मिचौनी गिल्ली डंडा,
झुकी डाल पर हरियल डंडा,
फूल तरैया अटकन बटकन,
खेलें गुड़िया छट्टू छुट्टन,
घर तब जाना पहले दांव।
बाबा   कैसे  होते  गाँव।।

अब वसंत की है अगवाई,
हँसते फूल कली मुस्काई,
सरसों ओढ़े चादर पीली,
बौरे अमुआ गूँज सुरीली,
बदले -बदले देखे हाव।
बाबा  कैसे  होते गाँव।।

लू की लपटें उड़ती  धूल ,
फूले आक करील बबूल,
तपती धरती अवा समान,
छाया  बैठे  हुए  किसान,
सूरज का  बढ़ता नित ताव।
बाबा  कैसे  होते  गाँव।।

सीमित साधन में संतोष,
हराभरा जनमन का कोष
सादा जीवन सरल विचार,
गरिमामय शुचि का संसार।
प्रतिस्पर्धा का बड़ा अभाव।
बाबा  कैसे  होते गाँव।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

आसमान के तारे [बाल गीत]

आसमान के अनगिन तारे।
टिमटिम करते लगते प्यारे।।

चंदामामा    के  संग आते।
रात - रात भर वे बतियाते।।
मधुर मौन   संगीत  सुनाते।
नील गगन की महिमा गाते।।
दिन में  अम्बर  में गुम  सारे।
आसमान के अनगिन तारे।।

मोती  भरा  थाल  है  औंधा।
भू पर मंद ज्योति का कौंधा।।
ध्रुवतारा    सप्तर्षि    महान।
अमर युगों से जिनकी शान।।
चमक-चमक कर कभी न हारे।
आसमान के अनगिन तारे।।

ये  तारे  ईश्वर  की  आँखें।
अम्बर से प्रभु नीचे झाँकें।।
बुरा-भला सब देख रहे हैं।
कथनी करनी एक रहे हैं।।
प्रेरक   मानवता   के सारे।
आसमान के अनगिन तारे।।

उज्ज्वल तन उज्ज्वल मन वाले।
नहीं लगाते  घर पर ताले।।
वहाँ न  चौकीदार  चोर है।
राजनीति का नहीं शोर है।।
पावनता तन - मन में धारे।
आसमान के अनगिन तारे।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

आज भी कल भी [हाइकु]

नेता है नेता
अभिनय करता
नहीं डरता।

रैली थैली है
ललचाऊँ शैली है
मीठी भेली है।

नेताजी आए 
जनता को रिझाए
सभी खुश हैं।

पाँच के बाद
फिर आई है याद
भूलना मत।

नेता गरजे
उन्हें कौन बरजे
चर्म-जिह्वा है।

जीभ फिसली
कीचड़ ही निकली
असंसदीय।

सांसद बने 
जनता पर तने,
वोट लेकर।

बेशरमाई
लादी और कमाई
ये नेताजी हैं।

सीधी जनता
उस पर तनता
वाह  रे! नेता ।

अपात्रों में से
मजबूरी है चुनें
सिर भी धुनें।

इन गधों में 
जो होता एक घोड़ा
उसे चुनता।।

 💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🤓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गधा -तराशी [दोहे]

घोड़े  सब  घुड़साल में,
गदहे   सड़क    बज़ार।
ढेंचू -  ढेंचू     कर    रहे,
डाल    गले    में  हार।।

घोड़े   से   गदहा   कहे,
मैं    गोरा    तू     लाल।
मेरा  कद   बढ़ता  नहीं,
तूने   किया     कमाल।।

गदहा   बैठा    मंच पर,
ओढ़   शेर   की खाल।
देवतुल्य    प्यारे  गधो!,
तुम  सब  मेरी   ढाल।।

दिन के बारह  बज गए, 
गधा      लगाई       टेर।
गधे   रेंकने   सब  लगे,
तनिक  नहीं  की  देर।।

दार्शनिक   मुद्रा   बना ,
गधा    घूर     के    ढेर।
चिंतन में खोया मगन,
ज्यों  जंगल   में  शेर।।

गधा  दुलत्ती  में  मगन,
घूरा     करे      विचार।
मेरा  क्या   अपराध है,
करता   लात   प्रहार।।

सभी  गधों  ने गुट बना ,
चुना  गधा    इक  नेक।
श्वेत वसन गलमाल भी,
केवल  शून्य -विवेक।।

बकरा-बलि के नाम पर,
चुना    गधा    बलवान।
कटना  तो   है   ही उसे,
बचे  अश्व   की  जान।।

तुम ही  सबसे योग्य हो,
सम्यक   श्रेष्ठ    सुपात्र।
सोचसमझ निर्णय हुआ,
उज्ज्वल चरित सुगात्र।।

गधे  उच्च कद के सभी,
ढेंचू  -  ढेंचू         बोल।।
घोड़े  सब  घुड़साल के,
बजा   रहे    हैं   ढोल।।

💐 शुभमस्तु!
✍  रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 14 अप्रैल 2019

ये लोकतंत्र का मेला है [गीत]

मतदान - पर्व   की  वेला है।
ये  लोकतंत्र   का  मेला है।।

अपने मत का  हम दान करें।
नव -भारत  का संधान  करें।।
हम मोल  मतों का  पहचानें।
अपना महत्त्व भी हम जानें।।
यहाँ   कोई  नहीं  अकेला है।
मतदान  - पर्व  की  वेला  है।।

अधिकार  हमारा हमें मिला ।
निर्माण करें जनतंत्र -किला।।
दृढ़  एक  डोर  में   बँधे  हुए।
कर्तव्य    हमारे     सधे  हुए।।
शोषण  भी  हमने  झेला  है।
मतदान- पर्व  की  वेला  है।।

संगठन   हमारी   शक्ति  है।
हमें मातृभूमि की भक्ति है।।
एकता - मंत्र   ही   गाना है।
नर - नारी  को समझाना है।।
नहिं भीड़  भरा   ये रेला है।
मतदान -पर्व  की वेला है।।

आगे ले जाए जो भारत को।
त्यागे अपने हर स्वारथ को।।
उसको सत्पात्र   बनाना  है।
हमने निज मन में ठाना है।।
महका ग़ुलाब और बेला है।
मतदान -पर्व   की वेला है।।

कीचड़ -उछाल  नेताओं से।
बचना  है इन  लेताओं  से।।
जो खाल ओढ़कर आते हैं।
शिक्षक बन हमें सिखाते हैं।।
पीछे  ये   देश   धकेला   है।
मतदान -पर्व   की वेला है।।

करनी पर कथनी  भारी  है।
हर   नेता   की  बीमारी है।।
लम्बे  अरसे   से   जाना  है।
धन-पद लोलुप पहचाना है।।
संसद नहिं गुड़ का भेला है।
मतदान - पर्व  की  वेला है।।

गदहों में  घोड़ा  कौन  यहाँ।!
इस मुद्दे पर सब मौन यहाँ।।
इस बार न अवसर खोना है।
नहिं पाँच साल को रोना है।।
सब गुरू यहाँ नहिं चेला है।
मतदान -पर्व  की वेला  है।।

ये दूध  धुले  सब  बनते हैं।
सत्ता  पाकर  वे तनते  हैं।।
तुम सावधान उनसे रहना।
दीवारों से भी मत कहना।।
ये  छलिया चंचल छैला हैं।
मतदान -पर्व  की  वेला है।।

ये    सांपनाथ    वे  नागनाथ।
रगड़ेंगे नाक नत आज माथ।।
दोमुँहे   गरम  और  ठंडे  भी।
खाते  हैं   काजू    अंडे  भी।।
नेता   का   बुरा    झमेला है।
मतदान -पर्व    की  वेला है।।

अपनापन   इनका  नाटक है। 
दिखता बस  इनको हाटक है।
मीठी  बातों    में मत   आना।
मत सोच समझकर दे आना।
जानो  मत   लड्डू   केला है।
मतदान -पर्व  की  वेला  है।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
  डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

वोट ही भगवान मेरा [गीतिका ]

1
हाथ   फैलाए   हुए  हम,
वोट    हमको   दीजिए।
दीन  हम  तुम  दानि हो,
मतदानअपना कीजिए।।
ईवीएम का  'वह'  बटन,
ही    दबाना    है    तुम्हें।
पीं  की  ध्वनि  के साथ ,
इक वोट मिल जाना हमें।

2
याचना   करते   तुम्हारी,
अभ्यर्थना  भी  कर रहे।
तुम विजय के  फूल हो,
तव गन्ध से ही तर रहे।।
बाप तुम माँ पूज्य बाबा,
प्रिय   सखा   भाई मिरे।
बहन भाभी  चाची ताई,
घर के परिजन हम तिरे।।

3
पाँच   वर्षों  तक  रखेंगे,
याद  औ' अहसान  हम।
धूल   तेरी    देहरी   की,
चाटकर    करेंगे    कम।।
भगवान के भी नाम पर ,
औ' खुदा  के नाम  पर।
भर दे  झोली मेरी बन्दे,
मेरे हित   मतदान  कर।।

4
वोट   ही   भगवान मेरा,
वोट     चारों    धाम  है।
वोट  से   ही    प्राण मेरे,
वोट  से   हर    काम है।।
क्या करूँ  पर   वोट की,
मदिरा(मुझे) मदमाती है।
  याचना करता 'शुभम'जब,
आत्मा    शरमाती    है।।

5
वोट  गंगा   वोट   यमुना,
गंगासागर    कुंभ    भी।
जो  मिला   मुझको नहीं,
 वहअसुर शुम्भ-निशुम्भ भी।
हार      मुझको   चाहिए,
हार  जब   उनको  मिले।
'शुभम'  पुलिंग  हार  के,
बहु पुष्प माला में खिलें।।

💐 शुभमस्तु!
✍  रचयिता©
📕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

नेतातंत्र बनाम प्रजातंत्र

नाम :प्रजातंत्र,
काम: नेतातंत्र ,
कहने को स्वतंत्र,
पर अभिव्यक्ति के लिए
प्रतिबद्ध परतंत्र,

कैसा विचित्र असामंजस्य
जनता -नेता का ,
जनता कोई जाल नहीं
तंत्र नहीं,
इसलिए जनतंत्र नहीं,
तंत्र केवल नेता का
जिसमें पखेरूओं की तरह
जन गण जाल ग्रस्त
मस्त नहीं
पस्त ही पस्त,
त्रस्त ही त्रस्त,
मिथ्या आश्वस्त ,
प्रयोग की वस्तु,
उसके बाद तिरस्कृत,
बहिष्कृत,
प्रक्षिप्त,
अविश्वस्त ।

क्या यही प्रजातंत्र है,
नहीं ये पूर्णत नेतातंत्र है!
खुश करने के लिए
रख दिए गए नाम,
पर जनतंत्र में एक ही काम
बस मतदान के दिन आ जाए
अपने काम।
क्योंकि उसके मत का ही
तो मूल्य है,
इसलिए नेता तंत्र में
नेता के लिए
कार्यकर्ता , भक्त औऱ 
चमचा देवतुल्य है।
बस पीछे पीछे चलते रहो,
अपनी वेदना भी न कहो,
सब कुछ अन्याय
शोषण सहो,
पानी में  डूबो
या अनल में दहो,
ऋणात्मक तापमान में भी
सेना बनकर रहो,
रोना रोते रहो।
क्या यही प्रजातंत्र है?
ये सब झूठा 
मोहन मारण
उच्चाटन तंत्र है,
सम्मोहन भी जन का,
मारण भी जन का,
उच्चाटन भी जन का,
इसीलिए इसका नाम
प्रजातंत्र है!
हा!   हा !!     हा!!!
हा!    हा!!    हा !!!

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

मंत्री हुए तंत्री [दोहावली]

 लेता  की  फसलें खड़ीं,
कटने      को      तैयार।
हंसिए  पर जनता रखे,
तीखी    पतली    धार।।

जनता के  कर  में दबा,
दंतिया    परदे      पार।
ढेरी   अपनी  जानकर
ढेर     हुए    दो   चार।।

ऊपर    दाता -हाथ   है,
नीचे        लेता -हाथ।
देने    वाला    ही  बड़ा,
लेता  नत सिर -माथ।।

मति से मत का मन बना,
फिर  कर मत  का दान।
यदि   सुपात्र  को दान है,
लोकतंत्र          सम्मान।।

नेता        ऐसा     चाहिए,
जैसा    फूल        ग़ुलाब।
दूर -दूरतक  महक का ,
जन - जन  में   फैलाब।।

घड़ियाली  आँसू  ढुलक,
बहते    जिनके     गाल।
वे   संसद  में    बैठकर ,
भूलें    जन    का  हाल।।

पचपन  फ़ीसद  खा रहा,
'किशमिश' ग्राम- प्रधान।
क्या   सांसद   मंत्री करें,
मेरा       देश     महान।।

सब   कोई   मंत्री  कहें ,
तंत्री    जिसका   काम।
लोकतंत्र    में    तंत्र ही ,
चलता  सुबहो -शाम।।

तंत्र   नाम  है जाल का,
फांसो     अपने   अर्थ।
जो फांसे 'पंछी' अधिक,
'तंत्री '    वही    समर्थ।।

मंत्रों   के   वे  दिन गए,
मन्त्र    हुए    निस्सार।
मंत्री  बैठा   क्या  करे,
खुले    तंत्र   के  द्वार।।

ये   मंत्री    मंत्री   नहीं,
तंत्री     कहिए    मित्र।
इनके  तंत्रों  से सजा ,
प्रजातंत्र    का   चित्र।।

एक  तंत्र     है  वेब का ,
दूजा       नेता  -  तंत्र।।
तंत्र -कुंडली जो फँसा,
काम  न   आवे   मंत्र।।

मंत्रालय  के  नाम सब ,
बदलेगी       सरकार।।
तंत्रालय   होंगे    सभी,
तंत्रों    की   झनकार।।

तंत्रालय  भी   जाएँगे,
यंत्रालय   की    ओर।
यंत्रों   से   सत्ता  चले ,
यंत्री      बैठे     बोर।।

मंत्री    से    तंत्री  बने ,
तंत्र     चलाए     यंत्र।
यंत्री  फिर कहलायेंगे,
नहीं     रहेगा     मंत्र।।

💐 शुभमस्तु!
✍  रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...