मंगलवार, 31 अक्तूबर 2023

व्रत ये करवा चौथ का● [ दोहा ]

 474/2023

 

[करवा चौथ, चाँद,व्रत,सुहाग,दीर्घायु]

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ● सब में एक ● 

व्रत है करवा चौथ का,पत्नी के उर साध।

बढ़े आयु पति की सदा,जीवन हो निर्बाध।।

दिन ये  करवा चौथ का,  आए    बारंबार।

स्वस्थ सुखी नीरोग हो,पति ही प्रभु अवतार।।


उदयाचल  पर चाँद को ,सधवा   रही  निहार।

हिय में पति-सुख कामना,आयु बढ़े निशि वार।

नित पूनम के चाँद-सी,बढ़े कन्त   की आयु।

यश-सूरज अनुदिन चढ़े,ज्यों मलयागिरि वायु।


जीवन को व्रत जानिए,संयम नियम विचार।

चलता जो सत राह में,कभी न होती   हार।।

व्रत में भोग विलास की,राह  नहीं  है ठीक।

चलिए ज्यों वैराग्य में,बने चरित की   लीक।।


एक सुहागिन नारि को,पति ही सुदृढ़ सुहाग।

गिरने   में क्षण  भी नहीं,लगता  फूटे  भाग।।

बाला तरु की पौध  है,पतिगृह मानो   खेत।

वह सुहाग- सिंदूर भी,भरे माँग   प्रिय हेत।।


सधवा करवा चौथ को,रख निर्जल उपवास।

करती मंगल कामना, दीर्घायु  तिय - श्वास।।

नहीं किसी के हाथ में,जीवन का यह खेल।

दीर्घायु उसको मिले,  सत्कर्मों   का  मेल।।

       

          ● एक में सब ●

व्रत ये करवा चौथ का,दर्शन दे अब चाँद।

पति - सुहाग दीर्घायु हो,रहे न बैठा माँद।।


●शुभमस्तु !


31.10.2023◆ 11.15 प०मा०

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दिखलाना निज चाँद शकल ● [ गीत ]

 473/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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तुम्हें देखकर 

हर्षित होता

नर -नारी संसार सकल।


चितवन खग की

चटुल चारुता

चाँद - चाँदनी में भाए।

नित चकोर वह

लगा टकटकी 

तरुवर शाखा पर आए।।


इतना नेहिल

नाता पत्नी

अपने पति बिन रहे विकल।


व्रत करवा का

करती पति हित

दीर्घ आयु आकांक्षा में।

रमणी निर्जल 

रहकर सूखे

मन में विकसी वांछा में।।


करतीं लेश न

थोड़ी  चिंता 

कभी नारियाँ तुच्छ नकल।


चाँद गगन के 

देर न करना

उदयाचल पर आ जाना।

इतना भी मत

नारी को तू

बिन पानी के तड़पाना।।


बार -बार आ

छत पर अपनी

दिखलाना निज चाँद शकल।


●शुभमस्तु !


31.10.2023◆5.15 प०मा०

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घर में दर में बहु दीप जलें ● [ माधवी /सुंदरी सवैया ]

 472/2023

   

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छंद -विधान:

1.08 सगण (112×8)+गुरु(2)=25 वर्ण।

2.समतुकांत चार चरण का वर्णिक छंद

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

घर में दर में बहु दीप जलें,

                   चहुँ ओर प्रकाश हुआ बहुतेरा।     

तम शेष नहीं उजियार बढ़ा,

                  अवनी नभ में बहु तेज बिखेरा।।    

सबके मुख पै शुभ हास नया,

                 लगता निशि में यह आज सवेरा। 

सरिता तल पै बहु दीप बहें,

                 तनिकों महि पै नहिं शेष अँधेरा।।


                        -2-

सब बालक वृद्ध युवा हरसें,

                 नर-नारि मनावत आज दिवाली।

घर स्वच्छ किए छत आदि सजे,

                सब धूल मिटी इठलावति नाली।।

लड़ियाँ लटकें सब द्वारनु पै,

                  फुलझाड़ि सिहाइ रही मतवाली।

अँचरा तर दीपक वारि चली,

               ब्रजनारि सुनावति गीत न गाली।।


                        -3-

शिव -पूत गणेश सुसंग रमा,

               पुजते -सजते सित खील खिलौना।

बहु माल सजीं गल बीच नई,

                   सज वंदनवार सुपुष्प बिछौना।।

नव वस्त्र धरे तन पै किलकें,

                  सब बालक नाचत झूमत छौना।

मधु मोदक बाँट रही घरनी,

               अति तेज प्रकाशित है हर कौना।।


                        -4-

चमकें दिवला छत पै घर में,

                    शरमाइ रहे नभ के सब तारे।

अब चाँद नहीं नभ में चमके,

                 सब जोर लगाइ कहें हम हारे।।

फिर लौट चले प्रिय राम वही,

                   अब चौदह वर्ष भए वनमा रे।

विमला शुभ हर्ष विमोहित है,

                  जयगान करें तम तोम उजारे।।


                        -5-

यह मावस कातिक की शुभता,

                 भरि दीपक हर्ष लिए निखराई।

नभ भूतल सिंधु शुभी सरिता,

               अति दीपित ज्योति नई बिखराई।।

नर -नारि समोद सुछंद नचें,

                  खग ढोरहु मोद भरे अति भाई।

शुभता बरसे धन -धाम महा,

                 शुभ लाभ गणेश रमा घर आई।।

● शुभमस्तु !


31.10.2023◆3.45प.मा.

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आने वाली है दीवाली● [ गीत ]

 471/2023

 

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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घर -घर दर पर

दीप जलेंगे

आने वाली है दीवाली।


निर्धन कैसे

करे उजेरा

दाल- भात का जिसको टोटा।

मोटा खाए

पहने मोटा

फूटे बर्तन   टूटा  लोटा।।


जुटा न पाता

रोटी घर की

होती है दीवाली काली।


वस्त्र नहीं तन

को ढँकने को

टूटी छान मड़ैया झीनी।

मैली कथरी

लगी थेगली

पत्नी की धोती वह पीली।।



सूरज झाँके

छत के ऊपर

गिरती-सी लगती है चाली।


आतिशबाजी

धूम -धड़ाका

उसे न भाता कान फोड़ता।

कैसे दीपक

जला सके वह

धोती निशि में उठा ओढ़ता।।


आता जब भी

पर्व दिवाली

लगती उसको कड़वी गाली।



 बड़े - बड़े ये

नारे सुन -सुन

कोरी सब विकास की बातें।

कान पके हैं

हर गरीब के

लगती हैं ज्यों मारक घातें।।


रिश्वत में ये

घटिया चावल

बँटवाते करते बेहाली।


मौसम आया 

है वोटों का

'चिड़ियों' को दाना खिलवाना।

रीति पुरानी 

नेताओं की

छू -छू चरणों में झुक जाना।।


'शुभम्' सत्य यह

तथ्य आज का

समझें कीड़ा ग़जबज नाली।


●शुभमस्तु !


31.10.2023◆8.00 आ०मा०

बंद आँख से देख न सपना ● [ गीतिका ] ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

 470/2023

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 बंद  आँख से देख न सपना।

पड़ता चक्षु खोलकर तपना।।


जिनके  मन में  आग लगी है।

करते पूरा   सपना   अपना।।


माल  बिना श्रम वे पा  जाएँ।

आता  ऐसी   माला  जपना।।


नाच  न जाने    आँगन   टेढ़ा।

नहीं  चाहता  मानव झुकना।।


चोरी का स्वभाव मत अपना।

पुलिस-दंड  तोड़ेगा  टखना।।


श्रम की रोटी अर्जित करता।

जाने वही स्वाद को चखना।।


'शुभम्' राह टेढ़ी मत चल तू।

लेश न तुझको पड़ना झुकना।।


●शुभमस्तु !


30.10.2023◆6.00आ०मा०

नाच न जाने आँगन टेढ़ा ● [ सजल ]

 469/2023


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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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● समांत :  अना ।

●पदांत :    अपदान्त।

●मात्राभार : 16.

●मात्रा पतन : शून्य।

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 बंद  आँख से देख न सपना।

पड़ता चक्षु खोलकर तपना।।


जिनके  मन में  आग लगी है।

करते पूरा   सपना   अपना।।


माल  बिना श्रम वे पा  जाएँ।

आता  ऐसी   माला  जपना।।


नाच  न जाने    आँगन   टेढ़ा।

नहीं  चाहता  मानव झुकना।।


चोरी का स्वभाव मत अपना।

पुलिस-दंड  तोड़ेगा  टखना।।


श्रम की रोटी अर्जित करता।

जाने वही स्वाद को चखना।।


'शुभम्' राह टेढ़ी मत चल तू।

लेश न तुझको पड़ना झुकना।।


●शुभमस्तु !


30.10.2023◆6.00आ०मा०

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

रामत्व तो उत्पन्न कर लो!● [ अतुकान्तिका ]

 468/2023

  

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रावणों ने घेरकर

पुतला जलाया

कौन था वह  ?

राम या रामवत

कोई न था!


जिधर देखें

रावणों की भीड़ भारी,

जो चरित से पतित

दुराचारी व्यभिचारी!

अधिकतर वे ही यहाँ सब,

फिर किसे देते जला वे

'मलयुगी' काली कला ये ?


कहते असत पर

जीत सत की,

क्या टटोला

हृदय अपना ?

सत्यवादी बने हो,

हर वर्ष तुम 

पुतले जलाते

ऐंठ में झूठे तने हो!


रामजी ने

मात्र जलाया 

एक बार,

असत्य का रावण,

रावणत्त्व से है भरा

आदमी के देह कण- कण,

औकात क्या उसकी

लकीरें पीट फोड़े 

बम पटाखे।


तीर ताने 

आ खड़े हो,

झाँक लो अपना गरेबाँ,

वक्ष में तेरे छिपे हैं

सैकड़ों रावण भयंकर,

रामत्व तेरा है किधर

हम भी तो जानें!

कलयुगी उस राम को

पहचान कर

सिर तो झुका लें।


श्रेष्ठ हो यदि

त्रेतायुगी दसशीष से तो

बढ़ो आगे

और लगा दो आग

पुतले में अभी तुम!



डिग्रियों, मंत्रित्व से

पद , झूठी प्रतिष्ठा से

पूँजीपतित्व से

नेतात्व से

अभिजात्यता से

तुम कभी सच्चे न होगे,

रावण टटोलो

आत्मा में।


लौट जाओ

घोंसले में

मुँह छिपा बैठो,

तुम्हें अधिकार क्या है!

निज देह मन में

उत्पन्न कर लो रामत्व,

हाँ ,रामत्व थोड़ा।

रावणों की भीड़ 

घेरे खड़ी है

कागज़ी पुतला 

बड़ा -  सा।


●शुभमस्तु !


26.10.2023◆ 7.00प०मा०

ग़ज़ल ●

 467/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यों     फ़जीहत    करा  रहीं टाँगें।

राह   चलते     सता     रहीं टाँगें।।


चला   घिसटता   जमीं  पै जब   मैं,

तब   की   यादें    दिला   रहीं टाँगें।


घिसते - घिसते    छिल   गए घुटने,

वो     बचपना      बता   रहीं टाँगें।


थकीं ,हारीं  न    पिराईं    थी कभी,

जरा-ज़रा- सा     जला  रहीं  टाँगें।


दिन   जवानी  के  भी  अजब होते,

जलता    लूका    छुला    रहीं टाँगें।


दुपहरिया   भी   ढल   गई कब   से,

साँझ    वेला      बुला     रहीं  टाँगें।


सीढ़ियाँ   चढ़ी जाती  हैं  नहीं इनसे,

झुकी  खाल   भी   झुला  रहीं टाँगें।


कौन जाने कि   कब   अस्त हो  सूरज,

'शुभम्' यही  तो   समझा   रहीं   टाँगें।


● शुभमस्तु !


26.10.2023◆1.15प०मा०

बुधवार, 25 अक्तूबर 2023

चुहल चंद्रिका-चाँद की ● [ दोहा ]

 466/2023


[चाँद,चकोर,चंद्रिका,चंद्रमुखी,शरद]

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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            ● सब में एक●

चुहल चंद्रिका चाँद की,हुई रात भर आज।

अलग हुए वे भोर में,दिखलाती वह नाज।।

शरद-पूर्णिमा की निशा,चाँद कहे आ पास।

मेरी प्रेमिल चंद्रिका,मत हो तनिक उदास।।


रहा रात भर देखता,शशि को विहग चकोर।

तृप्त हुआ सुख से भरा,आया सुहृद सु-भोर।।

ज्ञान-याचना शिष्य की,ज्यों शशि चटुल चकोर

भरी निशा में जोहता,गुरु-मुख   साधक घोर।।


चाँद बिना नव चन्द्रिका,आती लेश न पास।

लिपटी रहती अंग से,तथ्य न ये   उपहास।।

शशि पति की अर्धांगिनी,विमल चंद्रिका धौत।

रहती नित निर्द्वन्द्व ही,अशुभ नहीं  है   सौत।।


चंद्रमुखी   तुम   दूर से,लगती  सदा   नवीन।

देखा जब मुख पास से,लगा दीन अति छीन।।

चंद्रमुखी तुम रूप से,उर ज्यों शिला  समान।

उपमा ये   झूठी  लगी,निर्जल स्वर्ण-वितान।।


शरद सुनहरी  शान से,सरसाई  चहुँ ओर।

सुखद  चाँदनी रात है,मनभाया  शुभ भोर।।

किसे शरद भाए नहीं,नर, नारी,  खग,ढोर।

लतिकाएँ हैं झूमतीं, मीन  भरें   हिलकोर।।


          ● एक में सब ●

शरद- चाँद नव चंद्रिका,चंद्रमुखी अनुहारि।

खग चकोर मुख जोहता,मानो दिया उबारि।।


●शुभमस्तु !


25.10.2023◆8.45आ०मा०

रामचंद्र मैं एक न पाया ● [ गीत ]

 465/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कदम कदम पर

रावण मिलते

रामचन्द्र मैं एक न पाया।


खँडहर खेतों

में रावण हैं

गली-गली में सड़कें सारी।

चीख रही हैं

'मुझे बचाओ'

अबला ,बहना, माता, नारी।।


कौन बचाए

सीता माँ को

लखन भरत भी है मुरझाया।


त्रेतायुग का

रावण दहने

कलयुग के रावण हैं आए।

मरा आँख का 

पानी जिनका 

पुतले वही जलाते पाए।।


हया नहीं है

शेष नयन में

लगा मुखौटा आगे धाया।


आतिशबाजी

धूम धड़ाका 

को कहते हैं सभी दशहरा।

चढ़ा हुआ है

कालिख का रँग

मानव के मुखड़े पर गहरा।।


घर की सीता

घर में जलती 

हाय! हाय!!का नाटक  छाया।


गीदड़ ओढ़े

खाल शेर की

कहता है वन का मैं राजा।

टाँगों में निज

पूँछ दबाए 

ताल ठोंकता कहता आजा।।


किसका अब हम

करें भरोसा

लगा रहा अपना सुत घाया।


'शुभम्' रावणों 

की माया का 

जाल बिछा है परित:अपने।

रामचंद्र अब 

एक न कोई

जाते हों जो वन में तपने।।


करें विभीषण

ही बरवादी 

जला राम की मनहर काया।


● शुभमस्तु !


24.10.2023 ◆1.00प०मा०

पुतले फूँक रहा है! [ गीत ]

 464/2023

     

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मन का रावण

क्यों न मारता

पुतले फूँक रहा है ।


वर्ष-वर्ष हर 

पुतले फूँके

फिर भी जीवित रावण।

बाहर के ये

कागज जलते

भरा देह का कण -कण।।


एक बार ही

पूर्ण अहं को

तूने  नहीं दहा  है।


त्रेतायुग से

अब तक तन में

रावण पाले काले।

झाँका तूने

गरेबान कब?

जहाँ फफोले पाले।।


तुझसे तो वह

दसकंधर था

बेहतर, नग्न नहा है।


छुआ नहीं था

तन सीता का

त्रेता  के रावण ने।

सबल खींच कर

नहीं ले गया

सत्त्व चरित का हरने।। 


हाँ बदले की

आग जली थी

तू कब चूक रहा है।


तुम लोगों में

चरित कहाँ वह

मरी अस्मिता  सारी।

घर -घर रावण

दर -दर लंका 

पानी  सारा खारी।।


हया न बाकी

चर्म -चक्षु में

चीखे करे हहा है।


तुलना कर ले

अपनी उससे

तू पासंग नहीं है।

कहाँ ज्ञान का

एक निदर्शन

रावण वही जहीं है।।


'शुभम्' जलाते

रावण मिलकर 

रावण मनुज महा है।


●शुभमस्तु!


24.10.2023◆2.15आ०मा०

कोई नहीं किसी से कम● [ गीतिका ]

 463/2023

   

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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छाया जग में निबिड़ अँधेरा।

बना युद्ध का   भीषण घेरा।।


इसराइल हमास   को देखो,

लड़ते  कहते    तेरा -  मेरा।।


सबके  अहं  जहाँ    टकराते,

कष्ट   उठाती   है   यह  टेरा।।


कोई नहीं किसी   से कम है,

मानव ज्यों  कोल्हू  में पेरा।।


मानवता मर रही रात -दिन,

बना दिया  बस्ती का खेरा।।


गुरुओं की  शिक्षा   में रहता,

करता वही  काम वह चेरा।।


अमरीका इस  ओर खड़ा है,

उधर चीन  या   रूस घनेरा।।


क्योंकर राह दिखे मानव को,

कहीं नहीं    है   शेष  उजेरा।।


'शुभम्'  किसे समझाए कैसे,

आँख  मूँदकर चलता   भेरा।।


*टेरा =पृथ्वी।

*भेरा=भेड़।


●शुभमस्तु !


23.10.2023◆6.00आ०मा०

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छाया जग में निबिड़ अँधेरा● [ सजल ]

 462/2023

 

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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● समांत :  एरा ।

●पदांत :    अपदान्त।

●मात्राभार : 16.

●मात्रा पतन : शून्य।

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छाया जग में निबिड़ अँधेरा।

बना युद्ध का   भीषण घेरा।।


इसराइल हमास   को देखो।

लड़ते  कहते    तेरा -  मेरा।।


सबके  अहं  जहाँ  टकराते।

कष्ट   उठाती   है   यह  टेरा।।


कोई नहीं किसी से कम है।

मानव ज्यों  कोल्हू  में पेरा।।


मानवता मर रही रात -दिन।

बना दिया  बस्ती का खेरा।।


गुरुओं की  शिक्षा  में रहता।

करता वही  काम वह चेरा।।


अमरीका इस  ओर खड़ा है।

उधर चीन  या   रूस घनेरा।।


क्योंकर राह दिखे मानव को।

कहीं नहीं    है   शेष  उजेरा।।


'शुभम्'  किसे समझाए कैसे।

आँख  मूँदकर चलता   भेरा।।


*टेरा =पृथ्वी।

*भेरा=भेड़।


●शुभमस्तु !


23.10.2023◆6.00आ०मा०

शनिवार, 21 अक्तूबर 2023

बलम बिकौ चाहे सौत बिकौ ● [ व्यंग्य ]

 461/2023

 

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● ©व्यंग्यकार 

 ● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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युग -युग से चली आ रही प्रथाओं और परंपराओं को यों ही नहीं भुलाया जा सकता।ये प्रथाएँ और परंपराएं आदमी का संस्कार बन जाती हैं। बन भी चुकी हैं।1976 ,1977 में बाबा नागार्जुन के उपन्यासों पर शोध कार्य करते समय मैंने पढा कि उनके 'रतिनाथ की चाची' , 'बाबा बटेसरनाथ' आदि हिंदी - उपन्यासों में 'बिकौवा प्रथा' का गुणगान डंके की चोट पर किया गया है।इसके लिए बिहार के मिथिलांचल में  वहां के मैथिल ब्राह्मणों द्वारा विधिवत मधुबनी जिले में प्रतिवर्ष "सौराठ " के मेले के नाम से  एक बृहत् आयोजन किया जाता है। इस मेले में विवाहार्थी   पुरुष  और वरार्थी  कन्याओं के पिता एकत्र होते हैं। वे अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वहां से लड़कियों को खरीद लाते हैं  ।इसीलिए इसे "बिकौवा प्रथा " कहा जाता है । उनके  द्वारा साठ सत्तर या इससे अधिक आयु में ग्यारह -ग्यारह या इक्कीस - इक्कीस शादियाँ करना स्वाभाविक बात मानी जाती रही है।जब एक - एक पुरुष बहु विवाह करेगा तो यह स्वाभाविक ही है कि बच्चे भी ज्यादा ही उत्पन्न होंगे। और यदि लड़कियों की संख्या अधिक हो गई तो उन लड़कियों को जरूरतमंदों को बेच देना और कुछ धन अर्जित कर लेना उनकी आवश्यकता ही बन जाती है।ऐसे -ऐसे भी ' युवा महापुरुष ? ' हुए हैं ,जिन्होंने अपने जीवन में इक्यावन शादियाँ कीं और एक नए इतिहास की स्थापना की ।यह तथ्य कोई कपोल- कल्पना नहीं है। 

       आज हमारा महान भारतवर्ष भी उन प्राचीन प्रथाओं और परंपराओं का निर्वाह बखूबी करने में जुटा हुआ है।यहाँ स्व-अस्मिता से लेकर हर भौतिक और अभौतिक वस्तु किंवा तत्त्व की दुकानें खुली हुई हैं। बराबर व्यापार चल रहा है। बेचने-खरीदने के लिए क्या कुछ शेष है ?लोगों के ईमान कब से बिकते चले आ रहे हैं। संतान बिकना सामान्य-सी बात हो गई है। स्वयं माँ -बाप ,हॉस्पिटल की नर्सें ,दलाल किसी की संतान को जरुरतमंद लोगों को बेचकर 'पुण्यार्जन' कर रहे हैं। । वे रात के अँधेरे में निसंतान को सन्तानवती और संतानवान बनाने में जुटे हुए हैं। मानो विधाता का काम उन्होंने भी सँभाल लिया है।बल्कि कहना ये चाहिए कि विधाता का काम हलका कर दिया है। 

           आटा,दाल, सब्जी, मसाले, गुड़,चीनी, फल,फूल ,दवाएँ, आदि की खरीद -फ़रोख़्त अब घिसी -पिटी बात हो चुकी है।अब तो हम और आप इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि ऐसी -ऐसी चीजें भी देश के 'बृहत बाज़ार' बिक रही हैं ,बिक चुकी हैं और रही - बची बिकने के लिए तैयार की जा रही हैं।ये 'बिकौवा प्रथा' निश्चय ही महान है। बैंक,बीमा, स्टेशन,हवाई अड्डे, रेलगाड़ी,सड़कें, पटरियां,पुल, सीमेंट ,सरिया ,स्टील,चारा, पैट्रोलियम पदार्थ आदि - आदि क्या कुछ नहीं बिका या बिक रहा! बस खरीदार चाहिए।जैसा विक्रेता वैसा ही क्रेता भी हो ,तो बात बने।अंग्रेजों ने व्यापार के लिए आकर ही तो देश भर को खरीद लिया ! पुरानी परंपराएं सहज नष्ट नहीं हो पातीं।जैसा युग वैसी खरीद -बिक्री। अब सोचिये भला आलू -गोभी बेचने वाला बेचारा कुंजड़ा क्या खाकर रेलगाड़ी या स्टेशन बेचेगा या खरीदेगा। विक्रेता और क्रेता की औकात भी तो तदनुरूप होनी चाहिए। 

       अपनी आन -बान और शान की रक्षा के लिए आदमी व्यापार करता है अर्थात बेचने - खरीदने का धंधा करता है।आज तो सारा देश ही बनिया हो गया है ,व्यापारी हो गया है।पूँजीपति शिक्षा बेचने का धंधा कर रहा है ! स्व वित्त पोषित समस्त संस्थानों का यही कार्य है।गहराई में जाकर पता चलेगा कि उन्हें किसी को शिक्षा मिलने या न मिलने से कोई मतलब नहीं है।शिक्षालय हथकंडों से चलाए जा रहे हैं।न शिक्षक पढ़ाना चाहता है और न छात्र पढ़ना ही चाहता है। उससे पढ़ने के अलावा कुछ भी करवा लो। बस पढ़ने की मत कहो।नम्बर चाहिए शत- प्रतिशत ।यह कॉलेज का ठेकेदार मालिक जाने कि उसे क्या करना है ! पैसा चाहे जितना ले लो ,पर नम्बरों से पेट भर दो।योग्यता को कौन पूछता है? बस डिग्री का कोरा पट्टा चाहिए।यही मानसिकता आदरणीय पूज्य पिताजी और आदरणीया पूज्या माताजी की भी रहती है। फिर क्या 'पढें फ़ारसी बेचें तेल ,ये देखो कर्ता के खेल।' चार -पाँच दशकों पहले एक लोकगीत बहुत लोकप्रिय हुआ था: --- 

 'चाहे बिक जाय हरौ रुमाल बैठूँगी मोटर कार में। 

चाहे सास बिके चाहे ससुर बिके,

 चाहे बिक जाय ननद छिनार, बैठूँगी मोटर कार में।

 चाहे जेठ बिकौ चाहे जिठनी बिकौ,

 चाहे बिक जाए सब घर -बार, 

बैठूँगी मोटर कार में। 

चाहे दिवर बिकौ दिवरानी बिकौ, 

चाहे बिक जाए सब ससुराल,

 बैठूँगी मोटर कार में।

 चाहे बलम बिकौ चाहे सौत बिकौ, 

चाहे बिक जाय सासु कौ लाल,

 बैठूँगी मोटर कार में।

  नई ब्याहुली मोटर कार में बैठने के लिए सास -ससुर, घर -बार,जेठ -जेठानी, ननद,देवर -देवरानी, बलम ,सौत सब कुछ दाँव पर लगाने के लिए तैयार है। यही स्थिति आज एक जुवारी -शराबी की तरह देश की भी है।सत्तासन के लिए कुछ भी बेच देने की बात देखी और अनुभव की जा रही है। पर कहावत यह भी तो है कि 'जबरा मारे और रोने भी न दे।' ज़ुबान से बोलना तो दूर एक आँसू बहाना भी गुनाह है।कुल मिलाकर देश इन्ही की पनाह है।देश को गुलामी की ओर पुनः ले जाने का जबरदस्त व्यापार !मानों विक्रेताओं के सिर पर चढ़ा हुआ है खुमार। क्या करें साहित्यकार और क्या करें रचनाकार ! निकाल ही सकता है लिख -लिख कर मन का गुबार। बिका हुआ है टी वी और अख़बार।फिर क्या जो दुकानदार चाहें छपते हैं वही समाचार। शायद दुकानदारी से खुलता हो विकास का नवम द्वार! 

 ●शुभमस्तु ! 

21.10.2023◆5.00प०मा० 

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ग़ज़ल ●

 460/2023

  

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●  ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रूप की धूप का कीजिए,गुमान क्या ?

उतर ही जाएगी उसका,उठान क्या??


रंग-रोगन    से  चहकती  चमड़ी   तेरी,

खाक  होनी  है  पल में, निशान   क्या?


तू    कौन  है  किसलिए  आया है    यहाँ,

हुआ  नहीं  है  अभी  तुझे, संज्ञान  क्या ?


माटी   के   बने   पुतले  हस्र भी    माटी,

जान  पाया  न अभी तू ,  जहान    क्या ?


बनाया जिस रब ने उसे भी जान 'शुभम्',

चार  दिन  की   है चाँदनी,उनमान  क्या?


● शुभमस्तु !


21.10.2023◆ 7.45आ०मा०

उचित नहीं ये ● [ अतुकान्तिका]

 459/2023

         

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ दुर्गा की भक्ति नहीं

बस नौ दिन की,

प्रतिदिन मन से

भाव भरें 

माँ की सेवा में

तभी कृपा हो।


ये मौसमी भक्ति का

ज्वर कब तक?

बस नौ दिन का!

शारदीय या वासंतिक

दिवस बस नौ के दूने।


नहीं शोर से

दिखला  अपना जोश

होश खो,

ज्यों बहता

 बरसाती नाला

धरर -धरर कर।


ध्वनि यंत्रों में

भक्ति नहीं है,

शक्ति नहीं है,

कितना ही वॉल्यूम

बढ़ा ले,

शान दिखा ले!

आडम्बर बस।


श्रद्धा -भक्ति समन्वय

मन से ही होना है,

नहीं कृपा- कर

मिल सकता यों

दिखावटों से,

सजावटों से।


'शुभम्' ध्यान में

माँ को लाएं,

 भाव जगाएँ,

तभी कृपा का

कर भी पाएँ,

औरों को

 माँ भक्त जताएं,

धोखा अपने को

दे जाएँ,

उचित नहीं ये।


●शुभमस्तु !


19.10.2023◆9.30प०मा०

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गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

गुड़ -चोर' ● [ व्यंग्य ]

 458/2023

  

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● © व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'चोरी का गुड़ ज्यादा मीठा' कहावत यों ही नहीं बन गई।जिसने भी पहली बार चुरा कर गुड़ खाया होगा ,उसे यह अनुभव हुआ होगा कि चोरी का गुड़ स्व- परिश्रम के गुड़ से ज्यादा ही मीठा होता है।उस गुड़ -चोर द्वारा किया गया यह शोध कार्य अतीत काल से एक प्रसिद्ध कहावत बन गया ।जिसका अनुकरण और अनुसरण दुनिया भर के चोर -गण करते आ रहे हैं।समय की धारा में कुछ कहावतें अपना दम तोड़ देती आ रही हैं। किंतु इस कहावत ने तो केवल गुड़ की मिठास को नहीं बढ़ाया ,वरन सभी प्रकार की चोरियों की मिठास की गुणवत्ता में अभिवृद्धि की है।

                यदि   आप   अन्यथा   ग्रहण   न  करें  तो  एक ऐसी कहावत का नमूना पेश करना चाहूँगा जो किसी समयावधि में भले सत्य रही होगी ,किन्तु आज वह पूर्णरूपेण निष्प्राण हो चुकी है।वह कहावत है :'कूकर बाँभन एक सुभाऊ,अपनी जाति देख गुर्राऊ।' यदि विश्वास न हो तो अनुभव करके देखा जा सकता है। इससे ज्यादा क्या लिखूँ , लाल मिर्च का भाव बहुत ज्यादा हो गया है।व्यंग्य यह नहीं चाहता कि 'यह' किसी को लगे।कष्ट हो। सम्प्रति हमारा लक्ष्य लाल मिर्च है और न "एक सुभाऊ" है। हमारा लक्ष्य मीठे -मीठे गुड़- चोरों की चारु चर्चा है।

             मैं गुड़ - चोरों की बेतहासा वृद्धि की चर्चा कर रहा था। अब चोरी की बात की जाए तो बेचारा गुड़ क्या चोरी कराएगा। अब तो चोरों के लिए कितने ही खजाने खुल गए हैं। वे यों ही खुले नहीं पड़े कि कोई भी भर लाएगा।दिल की चोरी, नैन की चोरी, चैन की चोरी, कामचोरी,नाम -चोरी,काव्य-चोरी,भाव-चोरी, दाँव -चोरी आदि अनेक प्रकार की चोरियाँ हैं ।अब माखन चोरी और दधि-चोरी सुनने को नहीं मिलेगी। वह कृष्ण कन्हैया का अपना लीला-चौर्य था ,जो उनके साथ ही विदा हो गया। अब रिफाइंड और मिलावटी घी- तेल के युग में न वह दूध-दही और न नवनीत का मुख लेपन। इस घासलेटी युग में इन्हें भला चुराएगा भी कौन?अब तो सीधे भैंस समेत खोया खाने का समय है।इसलिए क्या भैंस वाले और क्या टंकीधारी ! सभी पानी में दूध मिलाकर पानी को ही पवित्र करके उसे दूध बनाकर धड़ल्ले से बेच रहे हैं।और तो और अब यूरिया ,रिफाइंड , वाशिंग पावडर तथा रसायनों से दूध का निर्माण कर रहे हैं।

                  नकली असली से भी ज्यादा असली हो गया है। ये गुड़ -चोरी से भी ज्यादा मधुरता देने वाली चोरी है। एक और प्रसिद्ध कहावत है कि 'जो खांड खूंदे वही खांड खाए' और कोई तो देख -देख तरसाए! इसी कहावत से प्रेरित होकर कार्यालयों में गबन होने लगे हैं।पूँजीपति बैंकों से लोन लेकर विदेशों में उड़नछू हो रहे हैं। गरीब आदमी इस चीनी के जमाने में गुड़ भी चुराने से रहा ! चीनीखोर और मेवाखोर तो देश को चुरा -चुरा कर खांड खूंद का आनन्द ले रहे हैं। यह युग सीमेंट,बालू,सरिया,रोड़ी यहाँ तक कि सड़कें,पुल, बहुमंजिला इमारतें,नौकरियाँ, बीमा कंपनियां, रेलगाड़ियाँ, पटरियाँ,स्टेशन आदि खाने -पचाने का है। यह तो चोर- चोर की अपनी प्रजाति विशेष पर निर्भर करता है कि उसका हाजमा कितना मजबूत है।जहाँ बल है ,वहीं बरजोरी भी है। यह कृष्ण -गोपियों जैसी बरजोरी नहीं। यह भी प्रकारांतर से गुड़ -चोरी ही है।'अंधा बाँटे रेवड़ी फिर -फिर घरकेन दे।' यही हो रहा है। ऊँट की चोरी निहुरे -निहुरे नहीं होती। सब जानते हैं कि जबरा मारे और रोने भी न दे।

                 आज के युग में तो हमारे चिकित्सक गण भी गुड़ - चीनी से परहेज़ बता रहे हैं।ज्यादा चीनी खाई तो निचले रास्ते से निकल - निकल बाहर आई।वही तो आज डायबिटीज कहलाई। इसलिए इस सफेद जहर से बचना सभी बहन - भाई।गुड़ -चोर आज देश - चोर,चरित्र -चोर और गुप्त -चोर हो गए हैं। 'गुप्त -चोर' अर्थात जिनको सब समझते शाह, ईमानदार और ज्ञानदार। वही निकलते हैं चोरों के सरदार।क्यों ? क्योंकि वे होते ही हैं इतने असरदार! कि कोई समझ ही नहीं पाता कि यहाँ भी हो सकती है कोई दरार।वही तो गाते हैं इमली के पत्ते पर मल्हार ! छोड़ते हुए अपने भाषणों की फुहार।देश में ऐसे ही जनगण की है यत्र - तत्र - सर्वत्र बहार। 

               'गुड़-चोरों' और  कृत्य  'गुड़ -चोरी' से यही सीख मिलती है कि प्रायः आदमी की अपनी नजर में परिश्रम का कोई मूल्य नहीं है। एक गधा ; गधा नहीं सम्पूर्ण 'गधा - वर्ग' ही  अपने  दैनिक  जीवन में   आजीवन कितनी मेहनत करता है ,किन्तु शाम को उसके मालिक द्वारा सिवाय चार डंडों के और क्या ' पारिश्रमिक' मिलता है? और उधर एक नेताजी या कहें अधिकांश नेता-वर्ग बिना पसीना बहाएं क्या- कुछ नहीं पाता ? इसलिए आज का आदमी दूसरों की कमाई पर ऐश करना चाहता है।आज बस वही ईमानदार और सत्यवादी है -जिसे गुड़ -चोरी का 'सुअवसर ' सुलभ नहीं हुआ। सरकारी नौकरी की चाहत का कारण भी यही है कि वहाँ पर 'काम -चोरी 'के अनेक 'सुअवसर' भी हैं।आज तो 'जो रहे लुल्ल, तनख्वाह पाए फुल्ल। ' 'करते जो आराम,खाते बैठकर हराम।' 'काम में करते जो टेंशन, बीबी उनकी पाती है पेंशन।' ये सब गुड़ -चोरों के स्मरणीय सूत्र हैं। दूसरों के हाथों के मैल को आनन्दपूर्वक खाना उनका प्रिय शौक है।यही कारण है कि लोग प्राइवेट नौकरी करने से कतराते हैं ,क्योंकि वहाँ तो अच्छे - अच्छों के तेल निकल जाते हैं। वहाँ तो वे तब जाते हैं ,जब नौकरी की तलाश में जूते के तलवे घिस जाते हैं।

 ● शुभमस्तु ! 

 19.10.2023◆12.15प०मा०

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दीप ● [ सोरठा ]

 457/2023

         

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अलख जगाएँ मीत,शिक्षा का ले दीप कर।

गा  उन्नति  के  गीत,पीढ़ी नई समृद्ध   हो।।


जलते हैं दिन-रात,पिता दीप माँ    वर्तिका।

उज्ज्वल  बने  प्रभात,तेल नेह का  डालते।।


वन  से   लौटे  राम, रावण का   संहार  कर।

भरता हर्ष ललाम, दीप जले साकेत   में।।


माटी  का  ही  दीप, माटी की ये    देह   है।

'शुभम्'  न तथ्य प्रतीप,माटी माटी  में  मिले।।


जला - जला कर दीप,फैलाए उजियार  जो।

शिक्षक धरा-महीप,उसका मार्ग प्रशस्त हो।।


घर - घर जलते दीप, ज्योति-पर्व दीपावली।

निर्धन या कि महीप,गली - गली बाजार में।।


दीप लुकाये एक,निज आँचल की  ओट में।

उर में भाव अनेक,गजगामिनि बाला  चली।।


सरिता तट नर -नारि,दीप विसर्जित कर रहे।

अद्भुत निशि-अनुहारि,बनते जल प्रतिबिंब बहु


बनती नूतन  पंक्ति,जला दीप से  दीप   को।

झिलमिल में अभिव्यक्ति,लगता बातें कर रहे।


करता जो उजियार,संतति ही कुल दीप है।

भरता है तम भार,परिजीवी बन जी  रहा।।


उचित  नहीं ये बात,दीप-तले अँधियार   हो।

पिता भयानक घात,निज संतति से खा रहे।।


● शुभमस्तु !


18.10.2023◆8.00प०मा०

बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

पता नहीं ● [ गीतिका ]

 456/2023

          

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ मुझमें  कितनी धर्मी है, पता   नहीं।

तव चरणों  का भी मर्मी है, पता नहीं।।


क्या  माँगूँ  तुझसे  मैं माता बता  मुझे,

क्या-क्या मुझमें शेष कमी है, पता नहीं।


माँ  दुर्गे ! तू  अन्तर्यामिनि सब जाने,

मम  नयनों में शेष नमी है, पता नहीं।


माँ तेरे चरणों का आश्रय मिल जाए,

छाई मन  में यही  गमी  है, पता नहीं।


परिजन  चूसें  रक्त देह का पिस्सू - से,

बात कहाँ तक सही जमी है, पता नहीं।


आया   हूँ   मैं   जीव अकेला जाना भी,

मादा  एक   चुड़ैल  यमी है, पता नहीं।


अपने   जाने   बुरा   नहीं सोचा   मैंने,

दुनिया मुझको लगे तमी है, पता नहीं।


'शुभम्'  शरण  में आया माते माँ   दुर्गे,

नहीं जानता यहीं शमी है, पता   नहीं।


●शुभमस्तु !


18.10.2023◆3.00प०मा०

देवार्चन के शब्द ● [ दोहा ]

 455/2023

                   [ दोहा  ]

[नैवेद्य,आचमन,नीराजन,शंख,मंत्र]

              

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       ● सब में एक ●

माता   के  नैवेद्य   में,    पूरी, हलवा, खीर।

छोले भी अर्पित करें,धर उर में अति  धीर।।

ले कर में नैवेद्य को,लगा देव का भोग।

पाते हैं प्रिय भक्त भी,रहते सदा निरोग।।


तन-मन को पावन करें,करें आचमन मित्र।

पूजा  से   पहले   सदा,पूजें प्रतिमा  चित्र।।

शुद्ध सलिल का आचमन,करना है अनिवार्य।

मंत्र सहित तब कीजिए,पूजा -अर्चन - कार्य।।


पूजा  की संपन्नता, नीराजन   से    मीत।

क्षमा -  निवेदन  बाद  में,गाएँ सस्वर   गीत।।

अस्त्र-शस्त्र की शुद्धि का,नीराजन त्योहार।

कार्तिक में राजा करें,तब उठते   हथियार।।


होती है जब शंख-ध्वनि,ऊर्जा मिले सकार।

सूक्ष्म रोग अणु नष्ट हों,प्राकृतिक  उपहार।।

वास्तुदोष को दूर कर,हरता विघ्न   अनेक।

पितृदोष भी शांत हों,शंख गुणी   अतिरेक।।


देवी का पूजन करें,  सिद्ध मंत्र   के  साथ।

तन-मन भी पावन बने,मिले कृपा वर हाथ।।

माता जननी जनक का,सेवा ही   है  मन्त्र।

'शुभम्' कहीं भटकें नहीं,वे तेरे   शुभ  तंत्र।।


          ● एक में सब  ●

शंख,आचमन,मंत्र हैं,

                          देवार्चन के सत्त्व।

नीराजन     नैवेद्य  का,

                           भूलें  नहीं महत्त्व।।


●शुभमस्तु !


18.10.2023◆7.00 आ०मा०

सोमवार, 16 अक्तूबर 2023

दुर्गा माँ ● [ चौपाई ]

 454/2023

           

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 दुर्गा   माँ   मम  द्वार  पधारें।

बरसे कृपा   भक्त   को  तारें।। 

शारदीय  अति  पावन  वेला।

लगा भक्तगण का जन मेला।


माँ  दुर्गा  की    सिंह  सवारी।

सुमनों से खिलती वन क्यारी।

सद सुगंध की  ले कर माला।

द्वार खड़ा तव भक्त निराला।।


महिषासुर     निशुंभ   संहारे।

शुम्भ आदि दानव   भी मारे।।

देवलोक को निर्भय   करतीं।

दुर्गा माँ किससे कब डरतीं।।


रौद्र रूप तुम  दया मूर्ति माँ।

किससे दूँ माँ  की मैं उपमा।।

पर्वत     पुत्री    ब्रह्मचारिणी।

धन की देवी सौख्यकारिणी।।


मातु    शारदा  ज्ञानदायिनी।

अघ संहारक शम्भु कामिनी।।

कार्तिकेय  की  प्यारी माता।

शुभम् चरण युग शीश नवाता।।


दुर्गा  माँ    के    शुभ  नवराते। 

मंगल गान सभी  मिल गाते।।

नौ रूपों    में   आतीं   माता।

तव हर रूप भक्त को  भाता।।


माता का   दरबार   सजा  है।

कहते बनती  नहीं   धजा है।।

शतशः 'शुभम्'नमन करता है।

सत पथ को ही आचरता है।।


●शुभमस्तु !


16.10.2023◆ 2.45प०मा०

मिट गईं लोरियाँ ● [ गीतिका ]

 453/2023

  

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गीत  गाते  मरीं  गाँव   की गोरियाँ।

गिरीं   खेत  में  ज्यों वे भरीं बोरियाँ।।


हमासी    दानवों   ने   बहाया लहू,

मिट   गईं  लुट  गईं  जंग में लोरियाँ।


आत्मरक्षा  में  रहें  प्राण  जाएँ  भले,

चढ़ाने    लगे   लोग   वृथा त्योरियाँ।


घिरा   आज  इजराइली चारों दिशा,

दौड़ने यों   लगीं   तोप,  गन, लौरियाँ।


युद्ध से कब किसी का भला हो सका,

शिशु, बूढ़े,जवान, कब बचीं छोरियाँ।


महायुद्ध   है  फाड़  दुनिया   दो   हुई,

गिर   गए हैं   महल  ढह गईं पौरियाँ।


'शुभम्'  आग   में हैं हाथ सिंकने   लगे,

लोग   उन्मत्त   से   देते गलबाहियाँ।


 ●शुभमस्तु !


16.10.2023◆11.45 आ०मा०

घिरा आज इज़राइली ● [ सजल ]

 452/2023

  

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● समांत :इयाँ।

●पदांत :अपदान्त।

●मात्राभार : 20.

●मात्रा पतन : शून्य।

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गीत गाते  मरीं  गाँव   की गोरियाँ।

गिरीं खेत  में  ज्यों वे भरीं बोरियाँ।।


हमासी    दानवों  ने   बहाया लहू।

मिट   गईं  लुट  गईं  जंग में लोरियाँ।।


आत्मरक्षा  में  रहें  प्राण  जाएँ भले।

चढ़ाने    लगे   लोग   वृथा त्योरियाँ।।


घिरा   आज  इजराइली चारों दिशा।

दौड़ने यों   लगीं   तोप,  गन, लौरियाँ।।


युद्ध से कब किसी का भला हो सका।

शिशु, बूढ़े,जवान, कब बचीं छोरियाँ।।


महायुद्ध   है  फाड़  दुनिया   दो   हुई।

गिर   गए हैं   महल  ढह गईं पौरियाँ।।


'शुभम्'  आग   में हैं हाथ सिंकने   लगे।

लोग   उन्मत्त   से   देते गलबाहियाँ।।


 ●शुभमस्तु !


16.10.2023◆11.45 आ०मा०

शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

महिमा ● [ कुंडलिया ]

 451/2023

      

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●  ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

मानें   मानव-देह  की, महिमा अमित   अनूप।

मिली  तुम्हें  भूलोक में, बना धरा    का  भूप।।

बना  धरा   का भूप,कर्म मानव   के    करना।

दानवता  को  छोड़ ,  बुरे  कर्मों    से  डरना।।

'शुभम्' सत्य क्या झूठ,यही सब मानव जानें।

महिमा   अपरंपार, देह  मानव    की    मानें।।

        

                        -2-

जानें महिमा  सत्य की,रहें असत   से   दूर।

जो करना कर ले यहीं,तन- मन से भरपूर।।

तन - मन से   भरपूर,सत्य - आधार   बनाएँ। 

सोचें सौ -  सौ बार ,  झूठ से राम    बचाएँ।।

'शुभम्' सत्य ही ईश,जगत में उसको   मानें।

सदा विनत हो शीश,सत्य की महिमा जानें।।


                        -3-

अपने जननी-जनक की, महिमा का गुणगान।

आजीवन   करता   रहे,देकर नित   सम्मान।।

देकर  नित   सम्मान,  पितृमय माता    तेरी।

पिता   देवमय    रूप,  बढ़ाते शान   घनेरी।।

'शुभम्'  न दूजा  और,देख मत झूठे   सपने।

रहना सदा कृतज्ञ,जनक -जननी  ही अपने।।


                        -4-

खाता -पीता अन्न -जल,जिस धरती का नित्य।

महिमा उसकी गान कर,उसका   है औचित्य।।

उसका है औचित्य ,हवा रवि -तेज   दिया है।

अंबर पावक नित्य,उसी ने जीव  किया  है।।

'शुभम्' कर्म का भार,सदा ढो रहे  न   रीता।

पंचतत्त्व का मान,करे नित खाता -  पीता।।


                        -5-

माता धरती पूज्य है,कण -कण  का  है  मान।

महिमा उसकी  जान ले,रहे न बनकर   श्वान।।

रहे न   बनकर  श्वान,  कर्म से जीवन  जीता।

अमर  वही यश काय, प्रेमरस माँ का पीता।।

'शुभम्'एक दिन राख,खाक बन नर मर जाता।

चढ़ा   न   इतनी  नाक,  रुष्ट हो  धरती माता।।


● शुभमस्तु !


13.10.2023◆4.00प०मा० 

              

प्रतीक्षालय से ● [अतुकान्तिका]

 450/2023

        

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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प्रतीक्षालय से

उतर कर 

अपना शुभाशीष देने

आए हैं 

पितृ हमारे।


पितृ लोक 

प्रतीक्षालय है एक,

यम लोक से 

छियासी हजार योजन

ऊपर दक्षिण दिशा में

जहाँ निवास है

अपने पितरों का,

श्राद्ध पक्ष में

आमंत्रण पर

वे हमारे घर 

आ उतरते हैं।


जल तर्पण 

तिल दुग्ध संग

डाभ मूल से

भोजन दान सह,

पितरों का 

स्वागत हम करते,

वे होकर तृप्त

शुभाशीष 

मौन उच्चरते।


नहीं हैं वे

नरक में

नहीं हैं किसी स्वर्ग में,

पितृलोक का

 प्रतीक्षालय,

जब भी मिलें

उचित माता -पिता

उन्हें वहीं जाना है,

पुनः मानव योनि

को पा जाना है।


स-श्रद्धा हम

उनकी संतति

विनम्र भाव से

उनकी आत्मा का

तर्पण करते हैं।

हमसे न हो

ऐसा कोई कृत्य

कि वे क्रोधित हों,

इससे नित डरते हैं।

ईश्वर करे 

उनके कर्मानुसार

उन्हें सद्गति दें,

सद भाग्य दें,

कामना मन की।


● शुभमस्तु !


12.10.2023◆3.00 प०मा०

बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

नव अंकुर है बालिका ● [ दोहा ]

 449/2023

           

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नव अंकुर है बालिका,सृजक सृष्टि का बीज।

विधना की शुभ देन है,मन में देख   पसीज।।


भरे उजाला बालिका,माँ,पति घर   उजियार।

सदा लुटाती अंक से,नित नारी  बन   प्यार।।


शिक्षा का  दीपक  सदा,देता नवल  प्रकाश।

मीत बालिका को पढ़ा,करती तम का नाश।।


फुलवारी है बालिका, महकाती  नित फूल।

देख - रेख  पूरी  रहे, ये  मत जाना   भूल।।


बालक हो या बालिका,सबका उचित महत्त्व।

बढ़ती  सारी सृष्टि ये,बीज रूप    दो   तत्त्व।।


पहली गुरु माँ बालिका,नारी या   नर  एक।

शिक्षित होना चाहिए,सद्गुण भरे   अनेक।।


नहीं बालिका की करें, समुचित जो परिवार।

देख-रेख ज्यों आम की,कीड़े पड़ें   हजार।।


चरितवान नारी बने, कुलदीपक  नर  एक।

पढ़ें  बालिका-बाल  भी,पाएँ ज्ञान   अनेक।।


नर - नारी   से सृष्टि का,चलता है   संसार।

भूल न जाना बालिका,शिक्षालय का द्वार।।


केवल बालक से नहीं,बनता सृष्टि   स्वरूप।

सदा बालिका धारिणी,बीज सृजन का यूप।।


बनें वीर - वीरांगना,बाल -  बालिका   सर्व।

प्रेरक   शिक्षा  चाहिए ,साहस जगे    सगर्व।।


● शुभमस्तु !


11.10.2023◆5.30आ०मा०

शरद सुहानी सौम्य है ● [ दोहा ]

 448/2023


 

[क्वार,निशांत,विजन,हीरक,शरद ]

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      ● सब में एक●

पावस बीती क्वार का,आया पावन मास।

लगे  फूलने  मेंड़  पर, हरे लहरते  कास।।

 वर्जित है   आहार में,हरित करेला  मीत।

घाघ कहें सुन भड्डरी,समझ क्वार की रीत।।


तारे रहे न चाँदनी,होता 'शुभम्'  निशांत।

उषा-रश्मियाँ झाँकतीं,भानु उदय नव कांत।।

संत,मनीषी,कवि बड़े,रहते सदा   निशान्त।

समय पड़े तब बोलती,वाणी निर्मल   कांत।।


विजन गहे  निज हाथ में,झलती माता एक।

लाल न जागे नींद से,भाव हृदय   में   नेक।।

गहरी आधी रात को,जाना विजन न  राह।

अला-बला घूमा करें,देतीं जन को    दाह।।


हीरक सुत संतति सदा,शुभकारी परिवार।

घर में तीर्थ  प्रयाग  है, गंगामय   हरिद्वार।।

देखे वैवाहिक शरद,हीरक जिसने  मीत।

उज्ज्वल ही  भावी रहे,गा प्रसन्नता - गीत।।


शरद सुहानी  सौम्य  है,सर्द चाँदनी  रात।

दे  गलबाँही   प्रेम   से, करते प्रेमी    बात।।

माँ दुर्गा की अर्चना,शरद 'शुभम्'आनंद।

अंबर से बहने लगा, मधुर -मधुर मकरंद।।

   

       ● एक में सब●

शरद क्वार शुभ मास है,

                    सरसिज खिले निशांत।

हीरक विजड़ित चंद्रिका,

                     झलती विजन सुकांत।।


*  निशांत= 1.प्रातः 2.शांति युक्त।

* विजन =1.व्यजन 2.जनहीन।

*  हीरक =1.हीरा 2.जन्म आदि का 60वां वर्ष।



●शुभमस्तु !


10.10.2023◆11.00प०मा०

कोदों के हरियाले खेत ● [ गीत ]

 447/2023


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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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लहराते हैं

दाने भर - भर

कोदों के हरियाले खेत।


सबकी चिंता

धरती माँ को

चिड़िया का भी भरती पेट।

दाना पाना 

ही है सबको

करता   है   कोई   आखेट।।


पर्वत सागर

धरती का तल

या मरुथल की सूखी रेत।


ये कोदों भी

मिला न करता

कभी सुदामा को भी नित्य।

वैभवशाली 

आज खा रहे

औषधिवत माना औचित्य।।


देख फसल को

नाचें पौधे

मानों गाते हों समवेत।


घेघा रूसी

उदर रोग सह

मधुमेही करते  उपयोग।

डंडोरी में

आदिवास जन

बोते कोद्रव रहें निरोग।।


महिलाओं के

योगदान से

'शुभम्' परिश्रम जन के हेत।


 ●शुभमस्तु !


10.10.2023◆ 10.45 आ०मा०

सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

देश की वही कहानी ● [ गीतिका ]

 446/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खेत खा  रही बाड़,देश की वही   कहानी।

तिनका जिनकी दाढ़,चोर की बात  पुरानी।।


लूटपाट है नित्य,जिसे जब अवसर मिलता,

बात  आज  ये सत्य,चोर ही बनते   दानी।


देशभक्त    का   वेश, बनाकर घूमें     नेता,

प्रेम नहीं   लवलेश,  झूठ   है उनकी  बानी।


मरता सदा गरीब,देश का पालक  नित  ही,

मिलती उसे सलीब,टपकती निशिदिन छानी।


भरे देश का पेट,कृषक की दशा  दीन   है,

सबका वह आखेट,उसे सरकार  बनानी।


आश्वासन से भूख, नहीं जाती है  तन  की,

दुर्बल सभी  रसूख,प्यास में मिले  न  पानी।


जन-जन  है बेहाल,'शुभम्' ने जाना  सारा,

छिना युवा से काम,वृथा ही नष्ट   जवानी।


●शुभमस्तु !


09.10.2023◆4.15आ०मा०

खेत खा रही बाड़ ● [ सजल ]

 445/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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● समांत : आनी.

● पदांत : अपदान्त.

● मात्राभार: 11+13=24.

●मात्रा पतन :शून्य.

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खेत खा  रही बाड़,देश की वही   कहानी।

तिनका जिनकी दाढ़,चोर की बात  पुरानी।।


लूटपाट है नित्य,जिसे जब अवसर मिलता।

बात  आज  ये सत्य,चोर ही बनते   दानी।।


देशभक्त    का   वेश, बनाकर घूमें     नेता।

प्रेम नहीं   लवलेश,  झूठ   है उनकी  बानी।।


मरता सदा गरीब,देश का पालक  नित  ही।

मिलती उसे सलीब,टपकती निशिदिन छानी।।


भरे देश का पेट,कृषक की दशा  दीन   है।

सबका वह आखेट,उसे सरकार  बनानी।।


आश्वासन से भूख, नहीं जाती है  तन  की।

दुर्बल सभी  रसूख,प्यास में मिले  न  पानी।।


जन-जन  है बेहाल,'शुभम्' ने जाना  सारा।

छिना युवा से काम,वृथा ही नष्ट   जवानी।।


●शुभमस्तु !


09.10.2023◆4.15आ०मा०

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रविवार, 8 अक्तूबर 2023

कहता है मैं चाँद हूँ ● [ दोहा गीतिका]

 444/2023

  

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जिया अर्थ-उन्माद में, खोया जीवन-मोल।

अहंकार भीषण बढ़ा,चक्षु ज्ञान  के खोल।।


अपनों  से  ही  शत्रुता,अपनों से   ही   बैर,

लौट  वहीं  पर आ  गया, धरती है  ये  गोल।


कहता   है    मैं  चाँद  हूँ, रौशन मुझसे  रात,

दीपक के तल तिमिर है,क्यों अब तो सच बोल।


पास   गए  जब  चाँद  के,न थी चाँदनी पास,

उपमाएँ   झूठी  हुईं,  रहा  मात्र    बकलोल।


मित्रों से  करता  नहीं, कभी प्रेम   से   बात,

किस घमंड   में  चूर है,करनी में   है   झोल।


तेरे   जैसे    जा   चुके,   बड़े रुस्तमे -  हिंद,

तू   मूली  किस  खेत  की,मन में  तेरे  पोल।


'शुभम्' पथिक यदि भूलता, राहें अपनी भोर,

लौट साँझ को आ सके,कहें बुद्धि   का  छोल।


● शुभमस्तु !


08.10.2023◆4.45आ०मा०

हुक्का,गुटका,चिलम,तँबाकू● [बाल कविता]

 443/2023

       

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हुक्का,गुटका,चिलम, तँबाकू।

नर- जीवन के हैं सब  डाकू।।


हुक्के  में  जो   धुँआ उड़ाता।

नश्तर  तन में  स्वयं चुभाता।।


सट-सट धुँआ चिलम से पीता।

कितने दिन पीकर  वह जीता।।


अंग  भीतरी   दूषित   होते।

पछताते  आँसू   भर  रोते।।


गुटका  खाकर दिन  भर थूके।

मैला  करता  आँचल  भू के।।


दाँत  मसूड़े   सब   रँग  जाते।

दिखलाने  में  मुख  शरमाते।।


असमय दाँत-दाढ़ गिर जातीं।

 नहीं  चबा  भोजन वे पातीं।।


रोग  बहुत    दाँतों   में लगते।

असमय ही वे  नीचे   गिरते।।


पीते - खाते    लोग    तँबाकू।

'शुभम्'  लगें  वे  जैसे  चाकू।।


●शुभमस्तु !


07.10.2023◆8.30 प०मा०

शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

मूर्ति ● [ आलेख ]

 442/2023

            

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●© लेखक

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यह प्रसंग उस समय का है ,जब मेरी अवस्था चौदह -पंद्रह वर्ष की रही होगी।मेरे आगरा के समीप स्थित गाँव में मेरे  अपने ही बगीचे में निर्मित बँगले में साधु - सन्यासी प्रायः आया करते थे।जो एक -एक सप्ताह रुक कर सूर्यास्त के बाद रात नौ दस बजे तक प्रवचन किया करते थे।मेरे पूज्य पितामह , पिताजी तथा मैं स्वयं अपने उस उद्यान की भलीभाँति देखरेख करते थे।जैसे ही गाँव के सत्संग प्रेमी भक्तों को जानकारी होती कि हमारे बँगले पर महात्मा जी आए हुए हैं ,लोग प्रतिदिन स्वयं समय से आ उपस्थित होते और श्रद्धापूर्वक सत्संग श्रवण करते तथा अपनी शंकाओं का समाधान भी पाते।

सत्संग में आने वाले भक्तों के लिए तथा सभी जन के लिए उन संतों के द्वारा एक शब्द मुझे बहुत प्रभावित करता रहा , जो आज तक मेरे मानस में उथल -पुथल मचाता रहा है।वह शब्द है : 'मूर्ति'।मैं केवल मिट्टी ,पाषाण ,धातु या किसी अन्य वस्तु से बनी हुई रचना को ही मूर्ति  मानता था। अन्य लोगों की मान्यता भी यही हो सकती है। लगभग छः दशकों से मन में उथल पुथल मचाते हुए  'मूर्ति ' शब्द पर विचार करने का सु -समय आज आया है।महात्मा जी प्रायः कहा करते अभी कुछ और मूर्तियाँ आ जाएं, तब सत्संग प्रारम्भ करेंगे।उनकी सत्संग - चर्चा में भी मनुष्यों के लिए 'मूर्ति' शब्द  ही उच्चरित होता।मैं यद्यपि छोटा किशोर बालक ही था।शब्द का अर्थ और भाव भी समझता था ;किन्तु कभी उनसे या किसी अन्य से प्रति प्रश्न नहीं किया। आज जब स्वयं समाधान के आसन पर बैठ पाया हूँ ,तो प्रयास कर पा रहा हूँ।

'मूर्ति' शब्द 'मूर्त्त ' से निर्मित हुआ है। अर्थात जो अपने सहज और स्वाभाविक स्वरूप में प्रत्यक्ष है ,वही मूर्त्त है ,वही साक्षात है। वस्तुतः जीवात्मा का मूल स्वरूप यह नश्वर देह नहीं है। किसी जीव की आत्मा का मूल स्वरूप जो मूर्त्त (प्रत्यक्ष) है ;वह हमारे  चर्म- चक्षुओं से अदृष्ट है। इस नश्वर देह को प्राणवान करके उस जो रूप दिया गया है ,वही 'मूर्ति' है।वह उस आत्मा की प्रतिकृति (कॉपी) है , मूलप्रति (ऑरिजिनल) नहीं है।किसी भी  प्रतिबिम्ब को साकार रूप में की गई अभिव्यक्ति 'मूर्ति 'है। ये मानव शरीर किसी आत्मा (प्रतिबिम्ब)का साकार रूप ही तो है ,इसलिए संत जन मनुष्य को 'मूर्ति' संज्ञा  से संबोधित करते थे और आज भी  करते आ रहे हैं।'मूर्ति' शब्द के अनेक पर्याय हो सकते हैं ।यथा : प्रतिमा, अनुरूपक,प्रतिकृति,बुत,अनुकृति, आकृति, अर्चा,ढाँचा, निगार आदि।

आत्मा के ऊपर चढ़ाया गया यह अस्थि, रक्त, माँस और मज्जा का आवरण ही मूर्ति है।मिट्टी, पाषाण ,धातु आदि से निर्मित मूर्तियों और प्रकृति के चतुर चितेरे विधाता की मूर्ति- निर्माण कला में पर्याप्त अंतर है।मनुष्य ने भी कठपुतली तथा विविध प्रकार की मूर्तियों का निर्माण किया है ;किन्तु वह उनमें प्राण संचार नहीं कर सकता ।यही परमात्मा और आत्मा का विशेष  अंतर है। मानव शरीर की क्रियाएँ यांत्रिक या मशीनी नहीं , वे प्राण और आत्म शक्ति से संपादित और संचालित हैं। 

अब आज यह समझ में आया है कि ये मनुष्य देह भी चलती फिरती 'मूर्ति 'ही है।  क्योंकि वह  आत्मा की प्रतिकृति है। यथार्थ नहीं, वास्तविक नहीं। संत जन की वाणी निस्संदेह मिथ्या नहीं है।सत्याभास भी नहीं।सत्य ही सत्य है। सर्व सत्य है।सर्वांश सत्य है।स्वामी जी के सत संबोधन और प्रवचनों की सार्वभौमिकता आज उस सत्य का बोध कराती है ,जो छः दशक पूर्व इस अकिंचन के  इन कानों के  श्रवण - यंत्रों ने अनुभव किया था।धन्य हैं वे संत श्रेष्ठ जिनकी पावन वाणी अद्यतन  आनंदानुभूति कराती है।


●शुभमस्तु !


07.10.2023◆6.30 आ०मा०

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शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

बातें बना : बात बना ● [ व्यंग्य ]

 441/2023 


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 ● ©व्यंग्यकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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आज तो 'बात' की बात करनी है।बात अपने बहुविध रूपों में हमें और हमारे जीवन को प्रभावित करती है।बात की मधुवात,घात किंवा लात से बच नहीं सकते। बात की जाती है,बात सुनी जाती है, बात गुनी जाती है। और तो और बात चुपड़ी भी जाती है। बात गिरती है। बात उठती है।बात मानी जाती है। कभी - कभी नहीं भी मानी जाती।बात क्या कुछ नहीं करती ! बात चलाई भी जाती है।बात नहीं भी चलाई जाती।बेबात की बात भी होती है।बात की अपनी कीमत भी होती है।बात ऊल - जलूल भी होती है।कभी फ़िजूल भी होती है। कभी अनुकूल भी होती है।बात को तूल दिया जाता है।तूल नहीं भी दिया जाता।बात भूली भी जाती है।बात छूती भी है। कोई - कोई बात लेश मात्र नहीं छूती।बात का आदि भी होता है ,अंत भी होता है। बात की गर्मी भी होती है, वसंत भी होता है। 

 बात करने में और बात बनाने में अंतर होता है।बहुत बड़ा अंतर होता है।बात तो सब करते हैं। दुनिया करती है।किन्तु बातें बनाना सबको नहीं आता है। बातें बनाने वाला बातों का कलाकार होता है। यह तो अभी शोध का विषय है कि बातें बनाना कला है अथवा विज्ञान ?परन्तु जो बातें बनाता है ,वह जन सामान्य से कुछ अलग ही तरह का होता है।कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे देश और समाज में कौन-कौन बातें बनाना जानता है।जैसे : वकील,शिक्षक,प्रोफ़ेसर,धर्म गुरु, कथा वाचक, राजनेता,  राजनेताओं के चमचे ,गुर्गे और अन्धानुगामी, ठग,  मजमेबाज(बंदर - बंदरिया ,भालू ,साँप  या जादूगर के खेल दिखाने वाले), विज्ञापन कर्ता,ट्रेन,बस,रेलवे स्टेशन,बस स्टैंड आदि में सामान बेचने वाले,दलाल, एजेंट आदि कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं ,जिनसे इनके जॉब,व्यवसाय या रोजी-रोटी चलती है।अगर ये सब बातें बनाना न जानें तो उनकी आजीविका खतरे में पड़ जाती है।

 बात में से बात और उसमें से पुनः नई बात निकाल पाना कोई सहज बात नहीं है।इसके लिए भी अक्ल चाहिए कि सामने वाले को अपनी बातों से प्रभावित कर सके।उसे सम्मोहित करके अपनी इच्छानुसार चला सके।वकील अपनी तर्क रूपी बातों की बरसात से अदालत को हिला डालता है। तो शिक्षक या प्रोफेसर अपने विषय - ज्ञान की गहनता से अपने शिष्यों को अभिभूत ही कर लेता है।बात में से नई बात का उद्भव करते हुए ज्ञान - गंगा बहाता है। धर्म गुरु या कथा वाचक रस संचार के लिए नए नए दृष्टांत और कथाओं की विविधता से जनता जनार्दन की बुद्धि का परिमार्जन करता है।उनमें सरसता लाकर हृदयंगम बनाता है।जनता को मन्त्रमुग्ध कर अधिकाधिक दान -दक्षिणा पाता है। 

  राजनेता की तो बात ही निराली है।बातों के बिना उसकी नहीं चलने वाली रेलगाड़ी है।आश्वासन, भाषण, वायदे,नारेबाजी सब कुछ उसकी बातों की ही खूबी है। राजनेता का ही अनुसरण उसके चमचों और गुर्गों के द्वारा किया जाना अटल सिद्धांत है।वहाँ बातों से ही भैंस समेत खोया खाया जाता है। जनता को मिथ्या आश्वासन का जूस पिलाया जाता है।किसी भी प्रकार के ठग के पास बातों के ही बतासे हैं।इन्हीं से तो वह फेंकता अपनी ठगाई के पासे भी। बंदर -बंदरिया ,भालू या हाथ की सफाई के खेल दिखाने वालों के पास भीड़ इकट्ठी करने कर लिए बड़ी -बड़ी बातें हैं। उनकी डुगडुगी या बाँसुरी भी उनकी संगाती हैं।बस स्टैंडों ,रेलवे स्टेशनों,बस,ट्रेन आदि के फेरुए बेची जा रही सामग्री की ऐसी-ऐसी खूबियां गिनाते हैं कि गंजा आदमी भी कंघी खरीद लेता है।किसी भी वस्तु ,बीमा या विक्रीत वस्तु या स्थान का एजेंट या दलाल बातें बनाने का उस्ताद न हो, तो बेचारे की रोजी -रोटी कैसे चले ?

  नहीं जानते हैं क्या आप ! बातों का लबालब सागर।हर उम्र में नौजवां अपना नटनागर।जो भर सकता नहीं, भरता ही है अपनी नन्हीं -सी कुलिया में गागर। किया करता है अपने भाव उजागर।वही कवि,रचनाकार,कथाका र,उपन्यासकार ,व्यंग्यकार कलाकार। जिसकी बातों से पटा पड़ा है क्या गगन,क्या भूमंडल ,क्या सागर! उसे अपने भावों और विचारों को बातों - बातों में व्यक्त करने का माँ सरस्वती ने विविध ज्ञान दिया है। कला दी है।अक्षर,शब्द, वाक्य, रस,छन्द,लय, गति ,रीति, वृत्ति ,ताल दिया है। है कोई इतना बड़ा बातूनी।जो एक- एक की करे दूनी, चौगुनी, आठ गुनी।क्या किसी ने भी साहित्यकार की ऊँचाइयों को छुआ है।ऐसा बात का धनी न कोई था ,न ही हुआ है।अपनी बात बनाने के लिए वही सर्व अग्रणी है ,अगुआ है।ये न समझें कोई कि वह खेलता बातों का जुआ है ! उसके मानस से हर क्षण भावित भावों का अमृत चुआ है।जो एक रचनकार है , वहाँ कोई नहीं पहुँचा हुआ है। 

 बातों की स्वचालित मशीन (दिमाग़) सबके ही पास है।परंतु बात करने और बातें बनाने में बड़ा ही भेद है।कर तो सभी लेते हैं अपने -अपने मतलब की बात ,दिन - रात। किन्तु बना नहीं सकते बातों बातों में बात। बातें करना जितनी महान कला है ,उतना महान विज्ञान भी है। वह मन से समन्वय करके जिह्वा और स्वर के उच्चारण के माध्यम से बातें बाहर लाता है अथवा लेखनी किंवा कुंजी पटल की कुंजियों से लिख कर बतलाता है। बात - बात का मतलब समझाता है। बात के मूल में छिपे रहस्य को जतलाता है। बातों में लुभाकर बातों में आकर गंजा अनावश्यक होने के बावजूद कंघी ले आता है। बाद में विचार करता है तो उसे बातों का राज समझ में आता है। किंतु अब क्या ?कंघी विक्रेता तो अपनी बात बनाकर चला जाता है।बातों का चमत्कार दिखा जाता है। 

 ●शुभमस्तु !

 06.10.2023◆1.30प०मा० 

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दीवाली के दिन मनभाए ● [बालगीत]

 440/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 खील-खिलौनों के छिन आए।

दीवाली  के   दिन    मनभाए।।


वर्षा  गई  शरद   ऋतु  आई।

इधर -उधर  शीतलता  छाई।।

कूकर  पागल -  से बन  धाए।

दीवाली  के  दिन   मनभाए।।


घर  - घर   होने  लगी सफाई।

नाले-नाली   कीचड़ -  काई।।

सबने आँगन-द्वार      सजाए।

दीवाली  के  दिन   मनभाए।।


झालर,दिए,   तेल   लाने   हैं।

पुए    कचौड़ी   पकवाने  हैं।।

माँ ने  नए   वस्त्र    दिलवाए।

दीवाली  के  दिन   मनभाए।।


लक्ष्मी   मातु   शारदा  आतीं।

शुभ गणेश को सँग में लातीं।

पूजा की   सुगंध    नव  छाए।

दीवाली  के   दिन  मनभाए।।


'शुभम्'सभी मिल आरति गाएँ।

पूज्य जनों को शीश झुकाएँ।।

मात -पिता के आशिष पाए।

दीवाली  के दिन    मनभाए।।


●शुभमस्तु !


05.10.2023◆ 2.45प० मा०

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हे जग के घटकार ● [ दोहा गीतिका ]

 439/2023

 

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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साँचा-धारी   एक  तू, तू    ही  साँचाकार।

मूर्ति मृदा से नित्य ही,रचता लाख -हजार।।


एक   मूर्ति   का एक ही ,  साँचा तेरा  नेक,

मूर्ति  गढ़े  जितनी  यहाँ,बदले तू हर  बार।


मूर्ति बनाईं आज तक,पृथक सभी का रूप,

रंग,ढंग,गति   भिन्न हैं,  हे जग के   घटकार।


नाशवान सब मूर्तियाँ,जब तक उनमें  प्राण,

दिखलातीं गतिशीलता,मृत्यु अंत   ही  सार।


कहीं विश्व में एक -से,मुखड़े बने   न     गात,

नर -नारी सब भिन्न हैं,ढोते तन    का   भार।


नहीं मोह घटकार को,करे न प्रतिमा  -  नेह,

मान गए   हैं  अंततः,विधना से   सब   हार।


नर -नारी के बीच में,देकर माया   -    जाल,

संतति या परिवार का,घेर लिया   हर   द्वार।


सन्यासी   कोई   बने,रँग कर भगवा   देह,

मन भगवा   होता नहीं,कैसे हो   भव   पार।


कर्ता के दर - घर सभी,एक सदृश सब जीव,

कर्मों की फसलें फलें,सत कर्मों   से   प्यार।


आवा -  गर्भाशय   बढ़ा,बाहर गया     समूल,

इतराने   ऐसे      लगा,  अपनी     पैदावार।


'शुभम्' कर्म के खेत में,कृषि कर बने किसान,

दाना फल अच्छा उगा,मत टपका मुख -लार।


 ●शुभमस्तु !


05.10.2023◆12.15प०मा०

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2023

अद्भुत साँचा-धारी ● [अतुकान्तिका ]

 438/2023

 

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अद्भुत है तू

साँचा - धारी

मूर्ति बनाकर

रहा तोड़ता

अपने साँचे

नए बनाता नित्य,

और फिर

पास न रखता।


तू मौलिक,

तेरी हर रचना 

मौलिक,

नहीं एक -सी

 दो प्रतिमाएँ

इस धरती पर

कभी बनाता,

सृष्टि विधाता।


नर -नारी के

कोई चेहरे

नहीं एक सम,

रूप रंग आकार

भिन्न हैं,

 नहीं कभी

दो हाथों की

रेखा भी मिलतीं

धन्य नियंता!


एक राम हैं

एक कृष्ण हैं

बना न दूजा,

महिषासुर 

रावण कंसासुर

सभी एक थे,

कोई प्रत्यावर्तन

स्वीकार न प्रभु को।


मिथ्या है यह

कभी लौटता है

इतिहास दोबारा,

प्रजापिता ने

नया बनाया

पिछला तोड़ा,

पीछे छोड़ा।


'शुभम्' नित्य कर

रचना अपनी

नई नवेली ,

सुघर हवेली,

कर अठखेली

काव्यमृत से,

तू भी उसकी

रचना मौलिक,

मौलिक ही रच,

तप में तच  - तच।


●शुभमस्तु !


05.10.2023◆6.30आ०मा०

शेष न रहती एक ● [ गीत ]

 437/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जितने साँचे

उतनी प्रतिमा

शेष न रहती एक।


कुंभकार है 

अद्भुत सृष्टा

साँचे   गढ़े   नवीन।

माटी भर -भर

बना रहा है

लघु,पतली या पीन।।


ढाली प्रतिमा

साँचे तोड़े

प्रतिपल बनी अनेक।


मौलिकता में

भिन्न -भिन्न सब

रंग   रूप    आकार।

साँचा केवल 

एक बनाया

राम कृष्ण - अवतार।।


दसकंधर या

कंस ,कृष्ण अरि

गए बने   बस   भेक।


गर्भ -अवा की 

आग तपाया

दे  नर -  नारी   रूप।

उधर तोड़कर

फेंका साँचा

आया तू भव  - कूप।।


जैसा ढाला

बाहर आया

तेरा  वृथा  विवेक।


बना न कोई

सदृश रूप में

एक कहीं प्रतिरूप।

मिला न करतीं

रेखा कर की

प्रत्यावर्तन   भूप।।


जल,थल,नभचर

सभी भिन्न हैं

बाँधी   ऐसी   टेक।


चमत्कार है

 यह कर्ता का

नहीं नकल का काम।

नित नवीनता 

लाया भव में

ब्रह्मा   उसका   नाम।।


'शुभम्'एक ही 

बना धरा पर

काम किया प्रभु नेक।


●शुभमस्तु !


04.10.2023◆4.45 प०मा०

बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

जितने साँचे उतनी मूर्तियाँ!● [ व्यंग्य ]

 436/2023

 

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● © व्यंग्यकार

 ● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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शांत सरोवर के तट पर खड़े आदिम मानव ने जब स्थिर जल के तल पर अपनी प्रतिछाया देखी तो आश्चर्यान्वित होकर चिल्लाया : ओह ! यहाँ भी मैं ! और वहाँ जल में भी मैं ही !!यह भी मैं ! और वह भी मैं !! मैं एक नहीं दो - दो! ऐसा क्यों ? ऐसा कैसे ? क्या ऐसा भी सम्भव है?तभी वह थोड़ा आगे बढ़ा।अचानक उसके पाँव से एक प्रस्तर- खण्ड टकराया बड़ा।जो सीधे सरोवर- जल में जा पड़ा।पर यह क्या ? एक के अनेक प्रतिबिम्ब बनने लगे। ध्यान में तुरन्त यह विचार घुमड़ाया।मैं एक नहीं,बहुत बहुत रूप में आया।थी तो मात्र वह मानव देह रूप की छाया ! किन्तु मानव-कल्पना ने एक नया विचार उपजाया!

 यदि परम् पिता किंवा परम् प्रकृति ने यह चमत्कार नहीं दिखलाया होता कि प्रत्येक मूर्ति की रचना में अलग -अलग साँचा न बनाया होता ।तो अब तक कितने राम,कृष्ण, बुद्ध, महावीर,कंस ,रावण, महिषासुर बन गए होते।जो अपने - अपने युग में अयोध्या,मथुरा,कपिलवस्तु, वैशाली,मथुरा,लंका,स्वर्ग भू लोक में अपने बहु रूपों में घूमते - फिरते   देखे जाते ।किंतु प्रकृति ने बड़ी कुशलतापूर्वक साँचे बनाए ,प्रयोग किए और तोड़कर फेंक दिए। पुनः वैसा ही न बनाने की शर्त पर तोड़ दिए। चूर्ण -विचूर्ण कर दिए।खाक में भूमिसात कर दिए। वैसा रूप आकार,चेहरा,शरीर ,रंग आदि पुनर्निर्मित किया ही नहीं गया।अब ये उसकी इच्छा। अरे भाई ! मनुष्य की जीवंत मूर्ति का सृजन कोई टेसू - झाँझी का निर्माण नहीं है ,जो जमीन से खोदकर साँचे में भरी और एक समान ही अनेक मूर्तियाँ बना डालीं।ये कार्बन कॉपी ,कट पेस्ट का काम आदमी ही कर सकता है।परमात्मा का प्रत्येक सृजन मौलिक ही होता है। इसलिए रानी अवन्तीबाई, लक्ष्मीबाई,  राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, सम्राट अशोक, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद,स्वामी ब्रह्मानंद जैसी महान विभूतियाँ हर युग में नहीं आतीं।एक बार जाकर पुनः प्रत्यावर्तन भी नहीं कर पातीं।

  आज यदि हम संसार की करोड़ों विविध जल, थल और नभचर जन्तुओं और वनस्पतियों की चर्चा न करें और मात्र मानव आकार प्रकार की ही चर्चा करें तो यही पाते हैं कि इस धरती पर प्रकृति ने एक जैसी दो नर या नारियों की रचना नहीं की है। 

  यह बात कही और सुनी जाती अवश्य है कि ईश्वर की इस सृष्टि में 08 व्यक्ति एक ही रंग , रूप और आकार के मिलते हैं।किन्तु अनिवार्य रूप से ऐसा है ;कहा नहीं जा सकता ,क्योंकि इसका कोई सबल प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।यद्यपि आज के विज्ञान ने क्लोन का निर्माण करके यह तथ्य भी सम्भव कर दिखाया है कि एक ही शक्लो-सूरत के कितने भी प्रतिरूप बनाए जा सकते हैं।किंतु प्रकृति की व्यवस्था कुछ इस प्रकार की है कि शक्लो -सूरत की बात तो बहुत दूर है ,किन्हीं दो नर -नारियों के हाथों की लकीरें, मस्तक की रेखाएँ , कद काठी , चाल -ढाल ,रंग -रूप ,मुखोच्चारण,बोलने की शैली आदि सब कुछ एक दूसरे से भिन्न है।कहीं भी किसी भी स्तर पर एक रूपता नहीं है।एक ही नाम के हजारों लाखों लोग मिल सकते हैं ;किन्तु उनके रंग- रूप, आकार - प्रकार भिन्न -भिन्न ही होंगे।यह विचित्रता निश्चय ही सराहनीय है।चूँकि आदमी एक नकलची प्राणी है।इसलिए वह एक ही साँचे की अनेक मूर्तियां गढ़ सकता है।परंतु परमात्मा के पास अनेक विकल्प हैं।अनेक मिट्टियाँ हैं ,जिनसे वह नया आकार निर्मित कर सकने की क्षमता से युक्त रहता है। 

  काश यदि ऐसा होता कि मान लीजिए मेरा या आपका कोई भी दूसरा या दो चार प्रतिरूप बनाए गए होते तो किसी हाट- बाज़ार, मेला ,सड़क, गली ,मोहल्ले ,तहसील, जिला ,प्रदेश ,देश या विदेश में मिल जाता तो यही कहते 'अरे ! क्या तुम मैं हूँ ? मैं और तुम या तुम सभी एक जैसे कैसे ? सब कुछ मिलता है। नाम अलग है तो क्या ?मेरा नाम राम सिंह है ,तुम्हारा श्याम सिंह है ,उनका महावीर सिंह है ! तो क्या ?हैं तो हम सब एक ही।मुझमें तुम !तुममें मैं !!अथवा उनमें में मैं !!! सब कुछ समरूप ,सम आकार, सम वर्ण , सम भाषा, सम शैली । ' है न विचित्र बात!परंतु ऐसा कुछ भी नहीं है।प्रकृति ने जो किया ,वही सही है।क्यों व्यर्थ में बनाएं हम अपने दिमाग का दही है।जो मैं हूँ ,वह विश्व में कहीं नहीं है। 

  प्रत्येक मूर्ति किंवा प्रत्येक व्यक्ति अपने में एक मौलिक सृजन है उस सृष्टिकर्ता का। सबके अलग - अलग गुण -दोष , अलग - अलग विशेषताएँ।कोई भी किसी मौलिक विशेषता से शून्य नहीं है।भले ही वह कोई गुंडा मबाली हो,किसी भी ताले की ताली हो। भेजे से पागल भी खाली नहीं है।जैसे एक बंद पड़ी हुई घड़ी भी चौबीस घंटे में दो बार सही समय बताती है। वैसे ही ये माटी का पुतला मानव भी कभी न कभी सही भी होता है।

  कोई नहीं जानता कि हमारी - तुम्हारी यह मूर्ति कब तोड़ डाली जाए! साँचा तो उस परमात्मा ने उसी समय तोड़कर चूर्ण - विचूर्ण कर डाला था ,जब हमें तुम्हें बनाकर गर्भाशय के अवा में पकने और आकार प्रकार का पूर्ण रूप पाने के लिए दबा दिया था।वह नित्य नए-नए साँचे में नई-नई मूर्तियाँ गढ़ रहा है। स्थायित्व विहीन इस मृत्तिका - मूर्ति का हस्र क्या होगा ,कौन नहीं जानता? ●

 शुभमस्तु !

 04.10.2023 ◆ 12.30प०मा०


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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...