गुरुवार, 31 अगस्त 2023

कौवे के पंख ● [ अतुकान्तिका ]

 390/2023

      

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कौवे के पंख

काले हों,

यह ठीक है,

उजला हो मन 

यह भी नीक है,

वह आदमी ही क्या

जो बाहर से बगुला हो,

भीतर से कीच है।


कब तक छिपायेगा

ऐ इंसान !

अपने यथार्थ को,

रँगे हुए चीवर तले

झूठे सिद्धार्थ को,

अपने को ठगता तू

क्या मृग मारीच है?


खुल गई है

कलई तेरी

दुनिया के सामने,

लगा है क्यों

अब तू

थर -थर हो काँपने!

आई है समीप 

देख तेरी अब मीच है।


चिलमन को 

उठा -उठा

झाँक रहीं खामियाँ,

बना रखीं

उर में बहु

साँपों ने बांबियाँ,

तरणी तव कर्मों की

भँवर के बीच है।


गरेबाँ झाँक 'शुभम्'

निगाहें झुकाए,

अपने को पहचान अरे

क्यों गज़ब ढाए ?

मानवता के नाम बना

 दानव के नगीच है।


●शुभमस्तु !


31.08.2023◆7.45प०मा०

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हिंदी ,शिक्षक के दिन आए● [ बाल कविता]

 389/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हिंदी , शिक्षक  के दिन आए।

दोनों  बहुत - बहुत सहमाए।।


हिंदी  को अति प्यारी  बिंदी।

शिक्षक ढूँढ़ रहे    हैं    चिंदी।।


शिक्षक दिवस पाँच को होता।

शिक्षक स्वयं   लगाए  गोता।।


चौदह की तिथि मास सितंबर।

नौ दिन  का  दोनों   में अंतर।।


कहें  मास्टर  हर   घर   वाले।

पैसे   दे   ट्यूशन   के  पाले।।


मान न   कोई    पीछे    देता।

मिलने  पर पदरज ले लेता।।


अंग्रेजी   को    मानें    अम्मा।

कहते  हिंदी  पढ़े   निकम्मा।।


हिंदी   में    ही   रोते  -  गाते।

सोचें  मन    में    ठंडे - ताते।।


आजीवन  हिंदी   कब  आए?

अंग्रेज़ी  से    लाड़    लड़ाए।।


हिंदी,  शिक्षक    के  ये दुर्दिन।

काट रहे वे दिन भी गिन-गिन।।


जिसने  शिक्षक को ठुकराया।

हिंदी माँ को   रुदन  कराया।।


'शुभम्'  उसे भी पड़ता रोना।

आँसू भर- भर मुख को धोना।।


●शुभमस्तु !


31.08.2023◆4.15 प०मा०

हिंदी का नव मास सितंबर ● [ गीत ]

 388/2023

  

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ की भाषा

मेरी प्यारी

हिंदी का नव मास सितम्बर।


बोल तोतले

बोले रसना 

कानों में रस घोल रही तब।

अम्मा को माँ

पू -पू पय को

समझ रही थी मेरी माँ सब।।


झिंगुला कभी

देह पर होता

कभी धूप में पड़ा दिगंबर।


माँ के जैसी

बोली उसकी 

मीठी और सुहानी मोहक।

ब्रज माधुरी

सहज शब्दों से

सजी -धजी बजती-सी ढोलक।।


कटुता शून्य 

कर्ण रस घोले

 नहीं खड़ी-सी करती खर-खर।


जसुदा मैया

लाड़ लड़ाती

आ जा री निंदिया तू प्यारी।

लाला मेरा

सो जा  सो जा

दूँगी वरना  मीठी     गारी।।


लोरी मीठी

मातु सुनाए 

बिजना झुला-झुला अपने कर।


चौदह की वह

तिथि आए जब

गिटपिट आंगल गपियाते हैं।

हिंदी के वे

बड़े भक्त बन

अख़बारों  में  छप  जाते हैं।।


नेताओं की

तो कहना क्या 

हिंदी -मंत्र जपेंगे हर -हर।


बाबू बैंकर

हिंदीदाँ बन

दीवालों पर सजा पट्टिका।

चैक माँगते 

अंग्रेज़ी में

कंप्यूटर की कार्य तूलिका।।


'शुभम्' डरे अब

हिंदी लिखते

नकली हिंदी प्रेमी घर - घर।


● शुभमस्तु !


31.08.2023◆11.45आ०मा०

राखी का नेहिल शुचि बंधन● [ गीत ]

 387/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दो ही धागे 

कच्चे यद्यपि

राखी का नेहिल शुचि बंधन।


साध साल से

उर में बाँधी

रक्षाबंधन कब आएगा।

 भाई मेरा 

हाथों मेरे

राखी कर में बँधवाएगा।।


दहलीज उसी

पर जाकर मैं 

कर पाऊँ भ्राता- अभिनंदन।


हम एक उदर 

से जाए हैं

जननी वह पिता एक अपने।

सँग -सँग खेले

हैं पले -बढ़े

देखे हैं हमने शुभ सपने।।


मेरा छोटा 

वह भाई है

है घर उससे माँ का पावन।


दूँगी उसको 

आशीष शुभद

मिष्ठान्न खिलाकर हरषाऊँ।

परसेगा मम

वह चरण युगल

भाई पर सौ-सौ बलि जाऊँ।।


कानों में मैं

भुजरिया लगा

कर दूँगी हरा-भरा तन-मन।


मेरे मन में 

कामना यही

प्रभु उसकी लंबी आयु रखे।

वह रहे स्वस्थ

समृद्ध सदा 

हर्षित अंतर से सदा दिखे।।


कर्तव्य 'शुभम्'

वह करे पूर्ण 

खिल उठे धरा का हर कन- कन।


भारत माता

गौरवशाली

उत्सव प्रिय मेरा देश सदा।

चेतना नई 

ऊर्जस्वित हो

फल फूल अन्न धन धान्य  मृदा।।


दीवाली शुभ

होली रंगीं

विजयादशमी हैं पर्व प्रमन।


● शुभमस्तु !


30.08.2023◆ 8.15प०मा०

बुधवार, 30 अगस्त 2023

आज श्रावणी पूर्णिमा ● [ दोहा ]

 386/2023

 

[कलाई,भाई,रक्षाबंधन,पूर्णिमा,राखी]

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ●  सब में एक  ●

कलित कलाई कर्म से,करती मनुज महान।

किए बिना  सत्कर्म के,बने नहीं  पहचान।।

सजा  कलावा हाथ में,बनते पंडित    लोग।

करते   हैं   दुष्कर्म  वे,  बँधा कलाई रोग।।


भाई हो तो राम - सा,भरत लखन-सा मीत।

संपति - भागीदार  में,होती हृदय   न  प्रीत।।

भुजा -  सदृश होता नहीं,सोदर यद्यपि   एक।

भाई वह   होता नहीं,जिसमें   नहीं  विवेक।।


रक्षाबंधन   पर्व को,रूढ़ि न  जानें   भ्रात।

रक्षा का दायित्व है,निभा सके जो    तात।।

गुरु, माँ ,पितु रक्षक सभी,पंच तत्त्व,तरु ,बेल।

रक्षाबंधन कीजिए , कर भाई    से   मेल।।


वही पूर्णिमा  चाँद ये,गिरि गर्तों की  भीड़।

तम-आच्छादित  है कहीं,कौन बनाए   नीड़।।

'विक्रम' सह  'प्रज्ञान'  के,करता है  नित शोध।

आज पूर्णिमा श्रावणी,करे नित्य नव बोध।।


राखी की  लज्जा रखें,जानें  मत   ये    सूत।

प्यार भरा है भगिनि का,दुर्लभ मीत अकूत।।

राखी -  पर्व महान है,जहाँ नेह   की   वृष्टि।

होती भगिनी की महा,उर से उर    में   सृष्टि।।


     ●  एक में सब ●

आज श्रावणी पूर्णिमा,

                             रक्षाबंधन- पर्व।

राखी भाई के बँधे,

                       सु- कलाई सह गर्व।।


●शुभमस्तु !


30.08.2023◆7.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

कठिन परीक्षा की घड़ी ● [ दोहा ]

 385/2023


[समय,पल,क्षण,काल,युग]

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ● सब में एक ●

समय-समय की बात है,समय-समय का फेर।

शुभद समय आता कभी,बनते  लगे  न देर।।

समय देख मुख मूँदिए,समय देख मुख खोल।

अक्षर -  अक्षर    बोलिए,हिए तराजू    तोल।।


कठिन परीक्षा की घड़ी,पल-पल का है मोल।

जागरूक  रहना सदा,किंचित रहे  न  झोल।।

पलक झपकते पल बना,आँखों का आचार।

प्रलय पलों का खेल है,रहें धर्म  - अनुसार।।


क्षणदा छाई छाँव -सी,भानु हुए जब   अस्त।

क्षण-क्षण बढ़ती कालिमा,नभ में तारे व्यस्त।

क्षणिक नहीं क्षण क्षरित हो,करले जीव विचार

क्षण न क्षमा करता कभी,श्रम देता उपहार।।


काल सत्य है  नित्य  है,वही  ईश   का रूप।

कवलित करता काल ही,रंक या कि हो भूप।।

पहचाने  जो काल को,चले काल  अनुरूप।

करता उल्लंघन कभी,गिरता है   भव  कूप।।


युग- युग से सब जानते,क्षमा न करता कर्म।

जैसा  जिसका कर्म हो, वैसा उसका   चर्म।।

युग-प्रभाव जाता नहीं,कलयुग का आचार।

दूषित तन ,मन,भावना,जन गण का आधार।।

        ● एक में सब ●

समय,काल,पल -मोल को,

                        भूल रहे  जन आज।

क्षण क्षणदावत  क्षय करे, 

                 कल युग मनुज - समाज।।


● शुभमस्तु !


29.08.2023◆11.00प०मा०


आज कहाँ है मेरी मामी! ● [ बालगीत]

 384/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज  कहाँ   हैं  मेरी  मामी।

छिपी कहाँ शरमाकर मामी।।


द्वार   भानजे   दो - दो आए।

चन्द्रयान पर   चढ़कर  धाए।।

गति की मानो चला  सुनामी।

आज कहाँ   हैं  मेरी  मामी ।।


'विक्रम' सँग   'प्रज्ञान'  पधारे।

हाथ   तिरंगा   लेकर   प्यारे।।

भारतमाता   के    अनुगामी।

आज कहाँ हैं   मेरी    मामी।।


दोनों   दो    सप्ताह    रुकेंगे।

बढ़ते -चलते   नहीं    थकेंगे।।

बतला  दो हे   चंदा   स्वामी।

आज  कहाँ  हैं  मेरी   मामी।।


दक्षिण ध्रुव पर देख   अँधेरा।

कौन    करेगा   यहाँ    बसेरा!

क्यों चिराग-तल में तम बामी।

आज कहाँ  हैं   मेरी   मामी।।


ननदी  के घर   प्रायः   आतीं।

सदा अमावस्या को गुम जातीं

जोड़ी  मामा -  मामी  नामी।

आज कहाँ   हैं  मेरी   मामी।।


ऊपर गरम बहुत  फिर ठंडा।

चंदा   मामा    है    बरबंडा।।

भरे  नहीं मामी   की   हामी।

आज कहाँ हैं    मेरी  मामी।।


'शुभम्' हमें मामी दिखलाएँ।

उनसे मिल बोलें कुछ खाएँ।।

मिलीं न तो होगी   बदनामी।

आज कहाँ   हैं   मेरी  मामी।।


● शुभमस्तु !


29.08.2023◆1.45प०मा०

पढ़ने जाते छात्र ● [ गीत ]

 383/2023

 

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खेल रहे जो

नित खतरों से

पढ़ने जाते छात्र।


बहे सड़क पर

गदला पानी

फिर भी जाते पढ़ने।

ऊँचा कर वे

वेश देह के

लिपि ललाट की गढ़ने।।


बनने को सब

मातृभूमि के 

योग्य मनीषी पात्र।


आँधी वर्षा 

बाढ़ प्रभंजन

कभी न रुकती राहें।

लौट साँझ को

जब घर आते

भरती माँ निज बाँहें।।


देखा भीगा

बस्ता कपड़े

तर पानी से गात्र।


किसको दें हम

दोष व्यवस्था 

ऐसी बुरी हमारी।

चलने को भी

सड़क नहीं है

कुदशा ये सरकारी।।


दोषारोपण 

करें परस्पर 

खुद बचने को मात्र।


नौनिहाल ये 

अपने सारे

रहें खोद क्या माँद?

कहते हो  तुम

पीठ ठोंक निज

पहुँचे हैं हम चाँद।।


चाँद नहीं जब

अपनी बचती

शुभ कैसे नवरात्र?


● शुभमस्तु !


29.08.2023●10.30आ०मा०

सोमवार, 28 अगस्त 2023

स्वयंभू 'प्रतिभाएँ' !! ● [ व्यंग्य ]

 382/2023 

 

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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कहा जाता है कि मानव - शरीर मिट्टी से निर्मित है और मिट्टी में ही मिल जाने वाला है।इसका एक अर्थ यह भी तो हुआ कि यह शरीर किसी सोना-चाँदी,हीरे-जवाहरात से पैदा नहीं हुआ। यह भी मिट्टी से ही पैदा हुआ होगा।उद्भव ,अस्तित्व और समापन:सब कुछ मिट्टी ही मिट्टी।'मिट्टी' : अर्थात : जो पहले से ही मिटा हुआ हो ;वही तो मिट्टी है।'उसी तथाकथित मिट्टी से उत्पन्न,जीवन और विनाश सब कुछ मिटा हुआ। 

  इसी 'मिट्टी' रूपी देह से निकली हुई देह एक 'आत्मा' 'दस प्राण' और 'दस उपप्राण' से जीवंत होकर जब उछलने -कूदने ,चलने-फिरने, इतराने- सतराने ,फिसलने -घिसटने, मचलने- खिलने लगती है;तब तो चमत्कार ही हो जाता है।चमत्कार इस बात का ;कि इन्हीं मृदा(मिट्टी) -मूर्तियों में से कुछ प्रतिभाएँ ऐसी भी उग आती हैं ;जैसे जंगल में घास के बीच में बड़े -बड़े खजूर के दरख़्त, एक से एक सख्त, सशक्त, अलमस्त, स्वयं में व्यस्त।ऐसी स्वयंभू विटपों को साहित्यिक भाषा में 'प्रतिभा' कहा जाता है।ये प्रतिभाएँ कोई जानबूझकर पैदा नहीं करता।खुद -ब -खुद पैदा होती हैं। जिस प्रकृति ने जिन्हें उगाया है , उनका श्रेय भी वे बड़ी होकर प्रायः भूल जाती हैं। 

  प्रत्येक उत्पत्ति का कोई न कोई उद्देश्य होता है।इन 'प्रतिभाओं 'का भी होता होगा। एक जमाना था जब आजकल जैसी 'प्रतिभाएँ' अवतरित नहीं होती थीं। यहाँ तक कि नौटंकी में राजा - रानी, दास-दासी,संतरी - मंत्री ,सब अलग -अलग ही हुआ करते थे और हँसाने भर के लिए एक विदूषक या जोकर या हास्य कर्म पारंगत पात्र अलग ही अपना कर्तव्य निर्वाह करता था ।इसके विपरीत आज की कुदरत कितनी कृपण या बहु उद्देशीय या निपुण होती जा रही है कि सारे गुण तत्त्व एक में ही भर दिये जा रहे हैं। वही नेता है तो विदूषक भी है।नेता और विद्वत्ता परस्पर विरोधी गुण -धर्म हैं।उसी एक ही में नेतृत्वमति, उपदेशक, अर्थशास्त्री, चाणक्यता,राजनीति, धर्मनीति ,धूर्तवृत्ति,गीधवृत्ति,काकदृष्टि,बकध्यानवृत्ति, हिंस्रनीति आदि सब गुण - धर्म एक ही कपाल में कुंडली लगाए बैठे हैं।कहीं - कहीं ढोर वृत्ति और कच्छप प्रकृति का एक साथ दोधारा संगम है।कुछ ' स्वयंभू प्रतिभाएँ' अपने 'गर्दभत्व' में तो कोई अपने 'शूकरत्व',कोई स्व- प्रिय ' चमगादड़त्त्व' में तल्लीन हैं।

 बरसात में घूर पर,छान-छप्पर पर,छतों - दीवाल पर,खुद -ब-खुद उगे हुए कुकुरमुत्ते भी किसी 'प्रतिभा' से कम नहीं हैं।अपने जन्म के लिए वे किसी माँ-बाप को स्वजन्म का श्रेय नहीं देते।इसी प्रकार देश के प्रायः नेता गण स्वयंभू जन्मजात प्रतिभाओं की श्रेणी में गिने जाते हैं।उन्हें कोई बाजरे की फसल का कंडुआ न कहे।वे तो ऐसे बड़े और असामान्य 'दाने' (दानव न कहें) हैं, जो अपने आकार गुणवत्ता और बड़प्पन के सामने किसी 'सेव' 'संतरे' को भी महत्त्व नहीं देते।इन प्रतिभाओं के विशेष 'कार्य' और 'कारनामों' का अतीत उनका इतिहास निर्माण करता है।जिसे आगामी पीढियां रस ले - लेकर अपने अतीत का सिंहावलोकन करती हैं। 

 हर स्वयंभू प्रतिभा में कुछ सर्वनिष्ठ गुण ऐसे भी होते हैं ,जो आम आदमी में होना दुर्लभ है।जैसे मरखोर बैल सब जगह अपने सींग - प्रहार करना अपना कर्तव्य समझता है ,वैसे ही ये भी 'सर्व जन हिताय ?' ,'सर्व जन सुखाय ?' ,'सर्व जन चेतनाय!', 'सर्वजन प्रचाराय!', और 'सर्व जन शोषणाय' अहर्निश कुर्ता धोती डाँटे तैनात रहता है। अपने बाप को भी बाप मानना जो अपनी तौहीन समझता हो, वह कब कितने बाप बना लेगा !,कितने बाप बदल लेगा! कोई नहीं जानता। पूरब को जाए और पश्चिम को बताए, ऐसी विचित्र 'प्रतिभाएँ' भला और कहाँ सुलभ हो सकती हैं? आप सब बहुत समझदार हैं,ये भी क्या बताना आवश्यक है ? स्वतः समझ ही गए होंगे। हमारे शौचालय के बाहर उगा हुआ एक पेड़ भी यही कहता है कि वह भी स्वयंभू है।आप और हम समझें तो समझते रहें कि वह किसी कौवे की अनिवारणीय इच्छा की 'महान उत्पति' है,परंतु वह तो लहरा- लहरा कर अपने 'स्वयंभुत्व' का गीत अलाप रहा है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 28.08.2023◆8.00पतन्म मार्तण्डस्य।

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घोंसले में चील के माँस क्यों? ● [ गीतिका ]

 381/2023

 

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कोयलों  के  वेश में अब काग मिलते।

आस्तीनों  में  छिपे  सब  नाग मिलते।।


जा रहा  है  आदमी  विपरीत ही अब,

ढूँढ़ने  पर    भी नहीं अनुराग मिलते।


घोंसले  में चील  के क्या माँस होता,

कंकरीटों  में  सजे   क्या   बाग मिलते!


आदमी  का   चेहरा   चिकना सुदर्शन,

 हर चरित के  हर वसन पर  दाग मिलते।


शक्ति  होती क्षीण जाती आज जन  की,

हर्ष   के शुभ  काम में अब  झाग मिलते।


शुद्ध   शाकाहार   के  गैरिक प्रचारक,

किंतु  उदराहार  में नित छाग मिलते।


चाँद  के सब भेद  अब खुलने लगे हैं,

झूठ  उपमाएँ   हुईं  तम-भाग मिलते।


खो   रहा   है   आदमी  नेहांश अपना,

रज्जुओं के नाम पर बस ताग मिलते।


यों 'शुभम्' विश्वास मत करना किसी का,

अब अमिय के रूप  में विष-पाग मिलते।


●शुभमस्तु !


28.08.2023◆6.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

कोयलों के वेश में ● [ सजल ]

 380/2023

 

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●समांत : आग ।

●पदांत :मिलते।

●मात्राभार :21.

●मात्रा पतन :शून्य।

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कोयलों  के  वेश में अब काग मिलते।

आस्तीनों  में  छिपे  सब  नाग मिलते।।


जा रहा  है  आदमी  विपरीत ही अब,

ढूँढ़ने  पर    भी नहीं अनुराग मिलते।


घोंसले  में चील  के क्या माँस होता,

कंकरीटों  में  सजे   क्या   बाग मिलते!


आदमी  का   चेहरा   चिकना सुदर्शन,

हर चरित के  हर वसन पर  दाग मिलते।


शक्ति  होती क्षीण जाती आज जन  की,

हर्ष   के शुभ काम में अब  झाग मिलते।


शुद्ध   शाकाहार   के  गैरिक प्रचारक,

किंतु  उदराहार  में नित छाग मिलते।


चाँद  के सब भेद  अब खुलने लगे हैं,

झूठ  उपमाएँ   हुईं  तम-भाग मिलते।


खो   रहा   है   आदमी  नेहांश अपना,

रज्जुओं के नाम पर बस ताग मिलते।


यों 'शुभम्' विश्वास मत करना किसी का,

अब अमिय के रूप  में विष-पाग मिलते।


●शुभमस्तु !


28.08.2023◆6.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।


रविवार, 27 अगस्त 2023

ले लल्ला दूध 'खा' ले● [ संस्मरण ]

 379/2023 

 

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● © लेखक 

 ● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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"ले लल्ला दूध खा ले" : मेरी माँ के ये शब्द कभी भुलाए भी नहीं भूलते।अपने सभी भाई - बहनों में सबसे बड़ी संतान होने के कारण मेरे अम्मा -पिताजी ,दादी - बाबा जी का परम स्नेह का पात्र ही नहीं एकमात्र पात्र मैं ही तो था। एक बड़े- से आँगन के साथ - साथ दक्षिण में एक दालान , उत्तर में दुकानी ,उसके पूर्व में एक बैठक/अतिथि कक्ष कम पुस्तकालय (जिसमें चाचाजी प्रोफ़ेसर डॉ. सी .एल .राजपूत की पुस्तकें दीवाल में बनी हुई दो काष्ठ कपाटित अलमारियों में सजी रहती थीं), उसके पीछे औऱ आँगन के पूर्व में नया घर, पश्चिम में मिट्टी की गोंदी से बना एक एक गज मोटी दीवारों वाला कच्चा भूसा - कक्ष, उसके सामने छप्पर आच्छादित एक बड़ा -सा बरामदा,दालान के बराबर एक छोटी-सी बिना खिड़की वाली कोठरी ; यही सब कुछ तो था हमारे गाँव के उस घर में। दुकानी में पीतल की कीलों से जड़ा हुआ लकड़ी के कपाटों से सुरक्षित मुख्य दरवाजा था।जिसके बाहर बड़े -बड़े नीम के दो पेड़ खड़े हुए थे। जिन पर सावन के महीने में हम झूला झूलते थे। 

 मैंने अपनी बात अपनी स्नेहिल माँ के कुछ शब्दों से प्रारम्भ की थी।वे शब्द नित्य रात को सोते समय सुनाई पड़ते औऱ मैं सोते हुए ही अर्द्ध निद्रावस्था में उठकर दूध 'खा 'लेता और पुनः उसी अवस्था में सो जाता। सवेरा होता और जागने के बाद लगभग रोज़ ही अम्मा से यह शिकायत करना नहीं भूलता कि अम्मा रात को मुझे दूध ही नहीं दिया। अम्मा हँसने लगती , मुस्करा कर कहती : दिया तो था। तू सो रहा था।सोते -सोते तू उठा ,दूध पिया और फिर सो गया था। सोते हुए दूध पिएगा तो याद भी कैसे रहेगा!बात भी सही थी।

 उस समय मेरी अवस्था भी कोई बहुत नहीं थी।यही कोई आठ वर्ष का रहा होऊंगा।सात वर्ष का होने के बाद तो जबर्दस्ती पढ़ने बैठ पाया। बचपन में पढ़ने -लिखने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। 'स्कूल में खाने को लड्डू मिलते हैं।':इन शब्दों में लालच की जो सुगन्ध भरी हुई है ; ने मुझे मेरी अरुचि का वह काम जिसे पढ़ना -लिखना कहा जाता है , करा ही दिया। अंततः गाँव के साथी अन्य बच्चों की प्रेरणा ने मुझे दूसरे गाँव की प्राईमरी पाठशाला में पढ़ने के लिए भिजवा ही दिया। 

 अपने घर की उस 10'×12' फ़ीट की कोठरी में अपनी अम्मा और पिताजी के साथ सोया करता था। जब तक जागते रहते ,तब तक मिट्टी के तेल की एक कुप्पी (लैंप)से उजाला किया जाता। उसी कुप्पी के प्रकाश में रात को पढ़ाई करता। पढ़ाई भी क्या !यही गिनती ,पहाड़े ,कुछ शब्दों के अर्थ :बस यही कुल पढ़ाई थी। शब्दार्थ(मीनिंग)याद करते- करते ही मैं सो जाता। तभी तो अम्मा को मुझे दूध खा लेने के लिए जगाना पड़ता था। ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा ,जिस दिन मैंने जागरण अवस्था में दूध पिया हो।मुझे दूध गुड़ घोलकर पीना अच्छा नहीं लगता था। किंतु पिताजी थे कि बिना गुड़ डाले दूध पीने ही नहीं देते थे। नहीं पीने या हठ करने पर मेरे गाल पर उनकी चपत पड़ना आम बात ही थी। थोड़ा -सा रोता औऱ थोड़ी देर में चुप होकर दूध 'खा' ही लेता। क्या करता? कहावत वही : जबरा मारे और रोने भी न दे।मेरे पिताजी के सामने मेरी यही हालत थी। जब वह जोर से चिल्लाते :"चुप"। तो चुप्प होने में ही खैरियत थी, वरना एक दो औऱ भी पड़ने का आशीर्वाद मिलना ही था।कहते -कहते भावुक हो उठा हूँ।स्मृतियां ही ऐसी हैं। दिल जो है , वह बेबस है!

 मैं कह रहा था कि मीनिंग याद करते -करते मैं सो जाता था। एक दिन जब सोने के बाद उठा तो मेरी अम्मा और पिताजी मुझे सुनाते -बताते हुए यह कहते हुए हँस रहे थे कि आज भगवत स्वरूप रात में सोते हुए मीनिंग याद कर रहा था।बार -बार यही रट लगाए हुए था ': "सिंधु माने समुद्र ! सिंधु माने समुद्र!! सिंधु माने समुद्र!!! " बात सही थी। मुझे ध्यान में आया कि रात को राष्ट्र गान ;पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर छपा हुआ होता था ,उसके मीनिंग भी याद कराए जाते थे।कॉपी में भी लिखे जाते थे। मेरी यह याद करने की सवाक़् स्थिति उन्होंने सुनी और सुबह मुझे बतलाई कि कहाँ तो पढ़ने भी नहीं जाना चाहता था और अब सोने में भी मीनिंग रटता है। उस दिन भी संभवतः रात को सोते समय तंद्रावस्था में ही दूध 'खा' कर ही सोया हूँगा। 

 मेरी अम्मा पढ़ने के लिए कभी विद्यालय नहीं गई। कितुं पिताजी ने उन्हें अपने दस्तखत करना अवश्य सिखा दिया था। कभी-कभी अख़बार बांचने का प्रयास भी करती थीं अम्मा। लिखते -लिखते मुझे एक विशेष बात यह भी याद आ रही है कि कभी- कभी हमारी कोठरी में जलती हुई मिट्टी के तेल की कुप्पी जलती हुई ही रह जाती थी।अम्मा और पिताजी भी उसे 'बढ़ाना' भूल जाते होंगे।इसलिए सुबह जागने पर मेरी नाक के दोनों छिद्रों में काला- काला कार्बन भरा हुआ पाया जाता था ;जिसे अपनी तर्जनी अँगुली की अथक मेहनत से दुरुस्त करना होता था। सुबह पूरी कोठरी काले गंधाते हुए धुँए से छत तक भरी हुई दिखाई देती थी।तब अम्मा अफ़सोस करते हुए कहती: 'हाय! आज ये जलती ही रह गई।काऊनें बंदई ना करी।' 

 ●शुभमस्तु ! 

 27.08.2023◆1.00प०मा०

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शनिवार, 26 अगस्त 2023

महा! महा!! महा अतिझुण्डवाद ● [ व्यंग्य ]


378/2023 

 

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 ● ©व्यंग्यकार 

 ● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           झुंड  तो आप और हम सब बहुत अच्छी तरह से जानते हैं।जैसे गाय-भैंसों,भेड़- बकरियों,गधे-घोड़ों,बंदर- बन्दरियों,कुत्ते-बिल्लियों, मुर्गे-मुर्गियों,गिद्धों-कौवों आदि के झुंड होते हैं।जो हमने आपने बखूबी देखे - सुने भी हैं।जो स्थानों प्रजातियों आदि के आधार पर अलग -अलग संज्ञाओं से अभिहित किए जाते हैं।जैसे भेड़ - बकरियों के झुंड को रेवड़ कहा जाता है।बेतरतीब उगे हुए पेड़ों के झुंड को बेहड़ कहते हैं।उपर्युक्त गिनाए गए जीव - जंतुओं की तरह मनुष्य प्रजाति(नर और नारी :दोनों) भी झुंड प्रेमी जंतु है।जो समय ,स्थान औऱ परिवेश के अनुसार अपने प्रियातिप्रिय झुंड का नाम करण कर लेता है।जैसे :मंच, ग्रुप, पटल, मंडल, समूह, समाज, सम्मेलन आदि सुविधापरक और सम्मानजनक नाम रखता है। 

         मनुष्य प्रजाति एक विशिष्ट प्रकार का प्राणी या जंतु है। उसके हर काम में लेकिन,किन्तु, परंतु है।उसका काम मात्र मनुष्य विशेष के झुंडों से नहीं चलता।वरन यह विभिन्न वर्णों, जातियों,उप जातियों, गोत्रों ,उपगोत्रों सवर्णों, अवर्णों आदि में विभाजित रहता है।यहाँ मनुष्य या मानव मात्र के आधार पर झुंड निर्माण कम होता है, किसी वर्ण ,जाति ,उपजाति के आधार पर प्रायः झुंड निर्माण होता है।इसलिए यहाँ बंदरों ,गधों ,घोड़ों की तरह एकत्रीकरण कम ही होता है,वर्णों (जैसे ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) जातियों (जैसे : ब्राह्मणों: [शर्मा, मिश्रा, त्रिवेदी ,चतुर्वेदी, तिवारी, आदि]; क्षत्रिय[ ठाकुर,सिकरवार, चंदेल, जादौन,] बनिया [गुप्ता, अग्रवाल, बंसल,कंसल,अंसल, महाजन आदि] अहीर, यादव, बघेल,कुर्मी,लोधी,दिवाकर, निषाद,सविता,वाल्मीकि, खटीक,कायस्थ (सक्सेना, श्रीवास्तव, आदि -आदि के आधार पर ही इनके महा झुंड बनते हैं। ये बनते - बनते महा महा औऱ अति महाझुंड की गति को प्राप्त होते हुए अपनी सुगति किंवा अगति किंवा दुर्गति किंवा कुगति को प्राप्त होते रहते हैं। यह बात अभी कुछ क्षणों में ही स्प्ष्ट होगी कि ऐसा क्यों है ? 

              मनुष्य प्रजाति के इन महाझुंडों के मूल में उनके कुछ हित - अहित निहित हैं।उनकी दृष्टि में उनके झुंड मात्र उनके और उनके वर्ग के हित लाभ के लिए ही बनते हैं। किंतु हित के साथ - साथ कुछ अहित भी स्वतः जुड़ ही जाते हैं। कोई भी मानव -झुंड नहीं चाहता कि उसका अहित हो ;किन्तु अहित भी साथ -साथ ही चलता है।झुंड निर्माण के प्रत्यक्ष लाभ यही हैं कि उनका वर्ण, जाति,उपजाति , गोत्र ,उपगोत्र का विकास हो,प्रगति हो , वृद्धि हो, समृद्धि हो। और सब भले भाड़ में जाएँ। उन्हें क्या ?उनकी बला से । उन्हें किसी की कोई चिंता - फिक्र नहीं करनी है।इसलिए किसी की जिक्र भी नहीं करनी है।औऱ फिर जैसी जिसकी करनी है,वैसी उसकी भरनी है।मनुष्य के नाम पर इनके झुंड प्रायः तब बनते हैं ,जब कोई मनुष्य जंतु इस संसार को असार घोषित करते हुए अलविदा हो जाता है। अन्यथा जब तक देह में जान औऱ मूँछों में तान रहती है,बाँहों में उठान रहती है ,वह इंसान को कीड़ा मकोड़े से अधिक नहीं जानता - मानता।अपने सींग (यद्यपि उसके सींग दिखाई नहीं देते,पूँछ की तरह) कच्ची क्या पक्की सीमेंटेड दीवाल में में खंगालता रहता है। 

          जब जंगल का राजा साँड़ों के झुंड में फूट डाल कर एक- एक कर खाजा बनाकर खा जाता है ,तब बचे - खुचे साँड़ों को एकता का महत्त्व समझ में आ पाता है। लेकिन अब क्या ? कुछ भी नहीं।इसी प्रकार मनुष्य की यह झुण्डता या महा अति झुण्डता उसे मुंडता की दशा तक पहुंचा देती है। ताकतवर के समक्ष कोई किसी को बचाने नहीं आता।बल्कि खड़ा- खड़ा विडिओ बनाता है,हँसता है, मुँह पर रूमाल रखकर मुस्कराता है औऱ घर की बीबी के सामने ताली या गाल बजाकर गरियाता है और कहता है :ठीक हुआ साले के साथ ;ऐसा ही होना चाहिए था इसके साथ। यह इसी के योग्य तो था।आग नहीं बुझाता ;बल्कि आग के फ़ोटो खींचता है। भोक्ता के समक्ष घड़ियाली आँसू बहाने से कभी नहीं चूकता। यह महा अति झुण्डवाद की दुर्गति किंवा दुर्गति है। अगति तो बस यही है कि खड़ी हुई गाड़ी के पैडल चलाते रहें औऱ समझें कि गाड़ी चल रही है। शेष जो बचा वही झुण्डवाद की सुगति है ;जिसमें वह बैनर,फ्लैक्स बनाबाकर कार्यक्रम करता है। मियां मिट्ठू बनता है। अन्य झुंडों की बुराई करता है और अपनी प्रशंसा के हवाई पुल पर लेंटर डालकर उसे पुख्ता बनाता है। अखबारों ,टीवी, सोशल मीडिया( इंस्टाग्राम, मुखपोथी ,व्हाट्सप्प )आदि पर दंतदर्शन मुस्कान के साथ सुर्खियों में आता है।

          दुनिया के बहुत सारे देशों में लोकतंत्र है। किसी विद्वान राजनीतिज्ञ ने लोकतंत्र को मूर्ख तंत्र की संज्ञा दी है।कुछ देश ऐसे भी हैं ,जहाँ झुण्डवाद के आधार पर लोकतंत्र का निर्माण किया जाता है। नेता ऐसे क्षेत्र से प्रत्याशी होता है ,जहाँ पर उसके जाति या वर्ण के लोगों का झुंड बहुतायत से हो,क्योंकि उसे अपने झुंड के मतों का ही विश्वास होता है।जातीय झुण्डवाद लोकतंत्र को झंड बनाए रखता हुआ अपना झंडा ऊँचा रखता है। झुण्डवाद के आधार पर विवाह, नियुक्तियाँ, तबादले औऱ क्या कुछ नहीं होता! 

         यहाँ मनुष्यता या मानववाद के लिए कोई स्थान नहीं है। मनुष्यवाद या मानवतावाद कभी - कभी बरसात में चपला की तरह कौंध जाता है। पटबीजना की तरह लुपलुपा जाता है।औऱ कालांतर में कुछ क्षण बाद विलुप्त हो जाता है। कहीं कोई देख न ले। इसलिए मनुष्यवाद हमेशा भयभीत ही रहता है।कहना यह चाहिए कि यत्र तत्र सर्वत्र झुण्डवाद का ही बोलबाला है।मनुष्य वाद का मुँह काला है। मनुष्य औऱ मनुष्यवाद के लिए तो सर्वत्र बिना पटा हुआ खुला नाला है। 

           लेख के निष्कर्ष स्वरूप यही कहा जा सकता है कि मनुष्य जंतुओं में 'सर्वश्रेष्ठ' है।उसकी यह 'सर्वश्रेष्ठता' उसके महा अति झुण्डवाद के कारण है।वह कोई गधा -घोड़ा थोड़े ही है कि गधे- गधे ही इकठ्ठे होंगे, घोड़े -घोड़े ही इकट्ठे होंगे। वहाँ मनुष्य कम,मनुष्य जैसे दिखने वाले वर्णवादी, जातिवादी, झुण्डवादी ही होंगे।जो मानव औऱ मानवता की बात तो करेंगे, किन्तु मानव और मानवता वाद के कट्टर दुश्मन ही होंगे।बेचारे चिरई - छांगुर, ढोर- डंगर क्या जानें कि झुण्डवाद क्या होता है ! इसीलिए तो मनुष्य जंतु - जगत का 'महानतम' जंतु है।हाँ,सर्वत्र उसके साथ किन्तु ,परंतु है। 

 ● शुभमस्तु !

 26.08.2023◆2.45 प०मा०ा


ग़ज़ल ●

 377/2023

          

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तुम्हारे   गाल  जैसा  नहीं है चाँद।

पहले    जहाँ   था    नहीं  है  चाँद।।


तुम्हारे गाल चिकने हैं  रपटते हम, 

सोने - सा  चमकता  नहीं  है चाँद।


फलक के  चाँद से उपमा नहीं देंगे,

मुस्कराता फूल - सा  नहीं  है चाँद।


काला-कलूटा और ऊबड़-खाड़ वह,

अब   चकोरों    का  नहीं  है चाँद।


गहन  गड्ढे   हैं  कहीं पर्वत भयंकर,

इश्क     के   जैसा   नहीं   है  चाँद।


शायरों    की  झूठ बातें मानना  मत,

झूठे  तसव्वुर  का सगा नहीं है चाँद।


उठ  गया  है अब  यकीं  इन शायरों से,

अब  'शुभम्'     वैसा   नहीं  है    चाँद।


●शुभमस्तु !


26.08.2023◆6.30आ०मा० 

धन्यवाद प्रज्ञान ● [ दोहा ]

 376/2023

   

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पोल    खोलने   के लिए, धन्यवाद   प्रज्ञान।

महबूबा  के  गाल  को, चाँद नहीं  लें  मान।।

पहले    ही    यदि   जानते, काला  गड्ढेदार।

होगा   अपना  चाँद ये,करते क्यों   इतबार।।


बने  चाँद   पर   गर्त   हैं, ऊँचे कहीं   पहाड़।

गहरे   बारह   मील   के, प्रेमी दिए    पछाड़।।

चंद्रयान  जाता   नहीं,खुलता भेद   न   एक।

लैंडर  विक्रम  ने किया,काम बड़ा  ही नेक।।


कभी - कभी  भ्रम में बड़ी, होती  रहतीं भूल।

दिए बदल  प्रज्ञान  ने,पिछले सभी   उसूल।।

महबूबा   के  गाल  को,अब न कहेंगे   चाँद।

बतलाया  ये   यान  ने, गया गगन को   फाँद।।


चमक रही हर चीज को, कह मत सोना मीत।

निकट पहुँच कर देख ले,गाना  प्रेमिल  गीत।।

किया उजाला चाँद पर,तम से था  जो  पूर्ण।

अरबों -अरबों साल से,वहम हुआ अब चूर्ण।।


ढाई  सहस मीटर किलो, लम्बा  पाया   गर्त।

आठ किलोमीटर गहन,तम आच्छादित पर्त।। 

नहीं   उजाला  नाम  को, ताप सैकड़ों  अंश।

नीचे   पाया   है   गया,  करता  पैदा    शंश।।


नए शोध नित- नित करे, भारत का प्रज्ञान। 

धन्य- धन्य लैंडर तुम्हें, बढ़ा हिन्द का मान।।


●शुभमस्तु !


26.08.2023◆5.00आ० मा०

ज्ञान -विज्ञान जयते ● [ अतुकान्तिका ]

 375/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भू माँ - सुत 

 रोवर 'प्रज्ञान'

भ्रात लैंडर 'विक्रम' के

अंकासीन चला 

यात्रा पर

चन्द्रयान - त्रय पर

सवार हो,

रक्षा - सूत्र बाँधने,

सफलता पाई उसने।


चंद्रांगन में

धीरे -धीरे 

उतर गया वह

कदम बढ़ाकर,

मामा के घर

जा पहुँचा निर्भय।


मामा चाँद

बहुत हर्षित है

देख  भांजा -

द्वय को पाया,

आलिंगन में शीघ्र उठाया

भगिनि धरा का

संदेशा लाया,

सब कुछ पाया।


'ला दे 

मेरी बड़ी बहिन ने

क्या कुछ भेजा?

रखा सहेजा,

एक तिरंगा

जल सरि गंगा,

कर्म ही पूजा।'


जुलाई चौदह

नव अभ्युदय,

सावन की सप्तमी

अगस्त तेईस 

करता अंत्योदय,

समझ न अभिनय,

श्रमेव जयते

सत्यमेव जयते

ज्ञान -विज्ञान जयते।


●शुभमस्तु !


25.08.2023◆ 5.15 आ०मा०


विक्रम' 'प्रज्ञान' :चंद्र अभियान ● [ अतुकान्तिका ]

 374/2023

 

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खड़ा था हमारी 

जो जटिल चाँद पर,

खड़े हो गए

हम उसी चाँद पर,

करके तय

 हम चले थे

 गगन के सफ़र।


तिथि तेईस अगस्त 

दिन बुधवार को,

रख दिए हैं चरण

'विक्रम'  'प्रज्ञान' ने,

करेंगे नए शोध

बड़ी शान से,

आशाएँ हैं महत

हमको विज्ञान से।


'इसरो' का 

जगत में हुआ नाम भी,

एस. सोमनाथ जी का

बड़ा काम ये,

लहराया तिरंगा

नमन देश का।


देश चौथे बने

विश्व में एक हम,

ध्रुव दक्षिण का

विजय करने में प्रथम,

धन्य विज्ञान को

वैज्ञानिकों को नमन।


खोज जल तत्त्व की

खनिज नए जो मिलें,

एलियन अन्य जीव 

पहचान लें,

विश्व लोहा हमारा

आज तो  मान ले,

अरे पाक मति मूढ़

कुछ ज्ञान ले।


चन्द्रयान-3 के

'शुभम् ' अभियान का,

देश भारत के

आधुनिक विज्ञान का,

योगदान नहीं

कदापि  भूलेंगे हम,

आगे बढ़ते रहेंगे

अपने कदम।


विज्ञान की जय!

वैज्ञानिकों  की हो जय!

हिन्द की   हो विजय!

हिन्द जन की सु -जय!

देश हो ये अजय।


●शुभमस्तु !


24.08.2023◆11.00प०मा०

चंद्रयान-3 :सफल 'विक्रम' 'प्रज्ञान' ● [ दोहा ]

 373/2023

 

●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धरती   माँ  के  पूत ने,खूब मचाई   धूम।

चंद्रयान से  दौड़कर, चाँद लिया  है  चूम।।

'विक्रम' राखी ले गया,बाँधी मामा    हाथ।

जय विज्ञानी देश के,विजय तिरंगा  साथ।।


'विक्रम'  लैंडर  धारकर,रोवर को    'प्रज्ञान'।

'इसरो' के   नेतृत्व   में, करता कार्य  महान।।

 'इसरो' - वैज्ञानिक सभी,धन्य किया यह देश।

बना शुभद इतिहास है,जग में काम  सु -वेश।।


अमर  तिरंगा गाड़कर,किया विश्व में  नाम।

जय- जय हो  विज्ञान की,बना चंद्रमा  धाम।।

तिथि तेईस अगस्त की,दिन शुभ है बुधवार।

भू माँ की राखी बँधी, खुले प्रगति  के  द्वार।।


चंद्रयान-थ्री  के  लिए, हम  हैं बड़े    कृतज्ञ।

चौथा  भारत  देश है, पूर्ण करे जो     यज्ञ।।

धन्य  श्रेष्ठ  विज्ञान   को,नमन विज्ञ    विद्वान।

जिनके हाथों हो सका, सफल पूर्ण अभियान।।


सोमनाथ -  नेतृत्व   से, मिला सोम  को व्योम।

टीम धन्य उनकी सभी, सफल  हुआ  है होम।।

श्रेय मिला इस देश को,श्रम का सुफल अपूर्व।

'शुभम्' गर्व से उच्च सिर, अमर  धरा की दूर्व।।


शोध  नए   'प्रज्ञान'   से ,होंगे सोच  - विचार।

करें विश्व -कल्याण हम,मानव को  उपहार।।


जय विज्ञान! जय वैज्ञानिक!! जय हिंद!!!

●शुभमस्तु !


24.08.2023◆3.45अरोहणम मार्तण्डस्य।

देखा नियरे जाकर● [गीत ]

 372/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अब न तुम्हें हम

चाँद कहेंगे

देखा नियरे जाकर।


अब तक धोखा

खाया हमने 

कहा चाँद-सा मुखड़ा।

जाकर ऊपर

चाँद निहारा

बढ़ा हृदय का दुखड़ा।।


 नहीं लुनाई

गालों जैसी 

भ्रम टूटा अब आकर।


पाए हमने

गहरे गड्ढे 

दो सौ डिग्री नीचे।

शीतलता ही

मिली बर्फ की

अगणित बंद दरीचे।।


चिकनाहट की

राम कहानी 

गिरी पड़ी झुठलाकर।


होती यदि तुम

मौन चाँद -सी

नहीं ब्याह कर पाते।

पत्थर की तुम

होती प्रतिमा

ठगे हुए रह जाते।।


कैसे करते

हम परिरंभण

रह जाते पछताकर।


विक्रम ने ये

हमें बताया 

मामा लगे न वैसा।

कविता में जो

कविगण बोलें

नहीं लेश भर ऐसा।।


कवियों की ये

झूठ कल्पना 

गिरी पड़ी गश खाकर।


बाबा दादी

झूठे हैं सब

चंदा मामा ऐसा?

पूनम का जो

चाँद निहारे

मन को खींचे कैसा!!


असली रंगत

रूप जानकर

चंदा हुआ उजागर।


●शुभमस्तु !


24.08.2023◆3.45आरोहणम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 23 अगस्त 2023

मामा के घर 'विक्रम' आया● [ बालगीत ]

 371/2023

 

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मामा  के  घर 'विक्रम' आया।

राखी  लेकर   मुझे   पठाया।।


चंद्रयान  - थ्री  पहुँचा  ऊपर।

रुका नहीं वह नीचे   भू पर।।

भू - माँ   का    संदेशा लाया।

मामा के घर 'विक्रम' आया।।


माँ ने  तुमको  राखी   भेजी।

बहुत दिनों  से  रखी सहेजी।।

दक्षिण  तम   कोने  में पाया।

मामा के घर 'विक्रम' आया।।


तिथि  तेईस  अगस्त  महीना।

दिन बुध का शुभ चौड़ा सीना।

भारत का ध्वज ला फहराया।

मामा के  घर 'विक्रम' आया।।


चला जुलाई  चौदह  को   मैं।

मामा का घर क्यों  भूलूँ   मैं!!

धीरे - धीरे    कदम    बढ़ाया।

मामा के घर 'विक्रम' आया।।


चन्दा   मामा   सैर  करा  दो।

कैसे  हो तुम राज   बता दो।।

यही  पूछने   को   मैं   धाया।

मामा के घर 'विक्रम' आया।।


नीचे से  दिखते   तुम  सुंदर।

बुरा न मानो लगे  कलन्दर।।

कैसा   तुमने  रूप   बनाया?

मामा के घर 'विक्रम'आया।।


नारी के मुखड़े   की  उपमा।

देते ,लगती   झूठी   सुषमा।।

नहीं एक में   मिलती  छाया।

मामा के घर 'विक्रम' आया।।


'शुभम्'अकेले रहते  हो क्यों?

दुःख न अपने कहते हो क्यों?

जानूँगा    में    सारी     माया।

मामा के घर 'विक्रम' आया।।


●शुभमस्तु !


23.08.2023◆7.45प०मा०

रक्षाबंधन ● [ दोहा ]

 370/2023

  

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज न अबला नारियाँ,तन- मन से बलवान।

रक्षा-बंधन    बाँधकर, बनें न हीन    अजान।।

जल-थल-नभ में छा गई,नारी चतुर    सुधीर।

रक्षाबन्धन    पर्व  पर, थाम चली   शमशीर।।


तन से हैं कोमल भले, साहस की  वे   खान।

रक्षाबंधन  देश  हित,  करें समर्पित   प्रान।।

वायुयान   लेकर  उड़े,चले धरा    पर  ट्रेन।

रक्षाबंधन    पर्व  पर, अबला क्यों   वोमेन।।


डॉक्टर शिक्षक नारियाँ,पा सैनिक अधिकार।

रक्षाबंधन  क्यों  करें , प्रोफ़ेसर    का   भार।।

अपना  ही  हित साधने,नर कहता  है  दीन।

रक्षाबंधन  है   यही,  नहीं नारियाँ     हीन।।


स्वार्थवाद  की   कोख से,  रक्षाबंधन   जन्म।

नर ने नारी को दिया,नहीं उचित क्यों मन्म।।

प्रकृति भले  ही भिन्न है,नारी की   यह   जान।

रक्षाबंधन  स्वार्थ   का, पर्व पुरुष   का मान।।


नर ने नारी  को किया,  मन से कोमल कांत।

रक्षाबंधन दे उन्हें,  किया नारि- उर   भ्रांत।।

जाग   गई   हैं  नारियाँ,ले राखी   की  डोर।

रक्षाबंधन   क्यों  करो, बना उसे    कमजोर।।


कोमल रक्षा -सूत्र का,भ्रातृ भगिनि त्योहार।

रक्षाबंधन श्रावणी,शुचितामय  उर -  प्यार।।


● शुभमस्तु !


23.08.2023◆12.45 प०मा०

आज भारत चाँद पर ● [ गीतिका ]

 369/2023

    

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज    भारत      चाँद     पर है।

उधर    जंबुक        माँद   पर है।।


यान      बढ़ता        जा   रहा  है,

देश      ये      उन्माद     पर   है।


रूस,   अमरीका       व    चीनी,

जा  चुका    उस   खाँद   पर  है।


ओज     गौरव      से     भरे  हम,

गूँजता     शुभ     नाद     पर है।


पूर्णिमा      हर         दूज    उससे ,

देश    ऊँची       फाँद      पर   है।


ज्ञान     के    नव     स्रोत   खुलते,

भारती    सत      शाद    पर    है।


अब      नहीं    जीना    'शुभम्' यों,

 मात्र    वन   के     काँद     पर  है।

२३.०८.२०२३ , ११.४५ प.मा. 

● शुभमस्तु !


मन में हो साँवरे ● [ दोहा ]

 368/2023

    

[झकोर, विभोर, चकोर, चितचोर,हिलोर]

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      ●  सब में एक  ●

झर-झर-झर  बूँदें झरें,पुरवा चले  झकोर।

बल खातीं  तरु  डालियाँ,मोर मचाते  शोर।।

मन में उठी झकोर-सी,चलें गाँव की  ओर।

हरियाली हर ओर है,सुखद सुहाना  भोर।।


दीर्घावधि उपरांत ही,देख पिता को  पूत।

उर विभोर आनंद में,सीमा सुहृद प्रभूत।।

प्रोषितपतिका से मिला,प्रियतम वर्षों बाद।

मन विभोर परिरंभ  में, गूँजा   अंतर्नाद।।


लगन रहे ऐसी सदा,जैसी चाँद - चकोर।

एक  रहे  आकाश में,एक धरा के  छोर।।

चातक चटुल चकोर से,सीखें करके शोध।

भक्ति सुदृढ़ ऐसी करें,तरु भूतल  न्यग्रोध।।


किया हरण चितचोर ने,मेरा मन सखि आज।

मिला आज वन-राह में,भूल गई   मैं  लाज।।

बतियाँ सुन चितचोर की,मैं भूली  गृहकाज।

एक प्राण दो तन हुए,चार नयन  का   साज।।


ज्यों सरिता कलरव करे,उठती वीचि- हिलोर।

त्यों मन में हो साँवरे,निशि-दिन साँझ-सु -भोर।

तुम हिलोर मम देह में, सुरसरिता के  बीच।

मीन  तैरती  रात-दिन, उर के सदा   नगीच।।


         ●  एक में सब ●

देख पास चितचोर को,

                      उर में उठी हिलोर।

मैं चकोर सु- झकोर बन,

                         होती भाव- विभोर।।


●शुभमस्तु !


23.08.2023◆ 7.45आरोहणम मार्तण्डस्य।


मत के भूखे -प्यासे नेता !● [ गीतिका ]

 367/202

    

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नागों   के   मन    काले    क्यों  हैं?

वाणी  पर   ये   भाले     क्यों  हैं ??


भिन्  -  भिन्   कर   भिनगे भन्नाते,

लिए   साथ   में     जाले   क्यों  हैं?


होते       देव      पूजती    दुनिया,

बुरी    नीति    के    घाले  क्यों  हैं?


माले -  मुफ़्त     बेरहम   दिल  है,

नेताओं    ने     पाले      क्यों   हैं?


मत      के      भूखे  - प्यासे  नेता,

कुर्सी    के   पग    छाले   क्यों  हैं?


गीदड़    की   हो   मौत  निकट   ही,

दिखते    नहीं     उजाले   क्यों    हैं?


'शुभम्'  भागता    वन    तज गीदड़ ,

उसे   प्राण    के    लाले    क्यों   हैं?


● शुभमस्तु !


20.08.2023◆10.45 प०मा०

नागों के मन काले क्यों?● [ सजल ]

 366/2023

 

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●समांत : आले।

●पदांत  : क्यों हैं?

●मात्राभार :16.

●मात्रा पतन :शून्य।

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नागों   के   मन    काले    क्यों  हैं?

वाणी  पर   ये   भाले     क्यों  हैं ??


भिन्  -  भिन्   कर   भिनगे भन्नाते,

लिए   साथ   में     जाले   क्यों  हैं?


होते       देव      पूजती    दुनिया,

बुरी    नीति    के    घाले  क्यों  हैं?


माले -  मुफ़्त     बेरहम   दिल  है,

नेताओं    ने     पाले      क्यों   हैं?


मत      के      भूखे  - प्यासे  नेता,

कुर्सी    के   पग    छाले   क्यों  हैं?


गीदड़    की   हो   मौत  निकट   ही,

दिखते    नहीं     उजाले   क्यों    हैं?


'शुभम्'  भागता    वन    तज गीदड़ ,

उसे   प्राण    के    लाले    क्यों   हैं?


● शुभमस्तु !


20.08.2023◆10.45 प०मा०

वरदान ● [मनहरण घनाक्षरी]

 365/2023

       

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                           -1-

मातु   शारदा महान, देति नित्य  वरदान,

हरण करें अज्ञान,   शब्द-ज्ञान दे   रही।

मूक गाइ रहे  गीत,जीभ भई है    सतीत,

रहें मानुस अभीत,सत्य बात है    कही।।

सूर कवि कालिदास,'शुभम्' द्वार माँ-दास,

करे जीभ पै निवास,  वीणा वादिनी  वही।

नित्य साधना में लीन,करें काव्य में प्रवीन

भाव   आते हैं नवीन, रस-धार  है   बही।।


                          -2-

आई हरियाली तीज,सखि मेंहदी  तो पीस,

जाए  साजन   पसीज, सावनी  बहार   है।

गौरी   करे  तप  ध्यान,आए शंकर   महान,

दिया  दिव्य  वरदान,दारा   तू स्वीकार  है।।

शिव - शक्ति सम्मिलन,काल खंड का कलन,

झरे  नेह   के   सुमन,  मालती फुहार    है।

गौरी रहीं  ध्यान  लीन,रहीं श्वेत  पुष्प  बीन,

मौन   नांदिया    नवीन, शम्भु समुदार    है।।


                        -3-

रहे ज्ञान  का प्रकाश,कालकूट तम   नाश,

वृद्धि नित्य दीप्ति आश,देश ये महान हो।

शम्भु के अशेष शेष, नष्ट करें ये    कलेश,

चाल   बदलें   ये मेष,  प्राप्त वरदान  हो।

नष्ट   करें  सर्व  पाप, रहे एक नहीं   ताप,

बढ़े भक्ति का प्रताप,ज्ञान का बखान हो।

कर्मशील नर-नारि, निज योनि लें सँवारि,

भवनिधि से सुतारि,सत्यता प्रमाण   हो।।


                        -4-

नीर देव हैं महान, देते पावस का   दान,

मेघ   रूपी   वरदान,  हरे  वृक्ष डालियाँ।

नारि - नर  हैं   प्रसन्न,  खेत उपजाएँ अन्न,

भरें शुभ्र  धन- धान्य,बज रहीं तालियाँ।।

नित्य  दादुर का गान,रहा टेक एक  ठान,

गूँज भरी  नेक कान, नाचें नाच  वालियाँ।

आया परदेशी द्वार,मिले साजन का प्यार,

हर्ष  लीन  परिवार, प्रीति पगी गालियाँ।।


                        -5-

मात -पिता   वे महान ,दत्त पुत्र  अभिधान,

देश  कहे   वरदान  ,  'शुभं' सत्य   मानता।

बाबा- दादी  का सुपौत्र,पाया पथरिया गोत्र,

हर्ष  पूर्ण  गृह -श्रोत्र,  इतना ही    जानता।।

छोटा अच्छा एक गाँव,निम्ब तरुओं की छाँव,

रहा  आगरा   में   ठाँव, शांति सुख   छानता।

आ बसा  सिरसागंज,लेश मात्र  नहीं    रंज,

कर्मभूमि  ये   प्रखंड, शब्द काव्य   भानता।।


●शुभमस्तु !


19.08.2023◆1.30 प०मा०

शनिवार, 19 अगस्त 2023

जलकुम्भी बनाम छलतुम्बी ● [ व्यंग्य ]

 364/2023 

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● ©व्यंग्यकार 

                 ● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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नेता किसी खेत में पैदा नहीं होते। वे क्षेत्र में पैदा होते हैं। किसी क्षेत्र में पैदा हो लेते हैं।देश में क्षेत्रों की कोई कमी नहीं है।जैसे समाज सेवा, शिक्षा सेवा,कर्मचारी संघ सेवा,धर्म सेवा,पशु सेवा, पक्षी सेवा,पशु -पक्षी सेवा, देश सेवा, जन सेवा,विश्व सेवा, साहित्य सेवा और सबसे व्यापक और बृहत क्षेत्र है राजीनीति। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें सब समा जाते हैं।समाते ही हैं। जिस लघु क्षेत्र में ये घुस गई ,वहाँ फिर इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता। 

यह तो तालाब के तल पर छाई हुई वह 'जलकुम्भी' है, कि इसका बीज पड़ने के बाद वह क्षेत्र ही समाप्त हो लेता है। कुछ छोटे- छोटे और महत्वाकांक्षी क्षेत्र स्वतः इसमें समाने लगे हैं। किसी भी बीज को अंकुरित होने ,पनपने ,बढ़ने औऱ सविस्तार पाकर फूलने -फलने के लिए उर्वरा भूमि और सबल बीज की आवश्यकता होती है।जिस राजनीति को सबसे व्यापक और सशक्त समझा जाता है ,वह समाज के ऐसे अनुर्वर और कमजोर क्षेत्र में नेता को उपजा देती है कि जो विकास के लिए नितांत और ऊसर होता है। जिस मनुष्य में उन्नतशील जीवाणु होते हैं , वही व्यक्ति आगे आकर उसके विकास की चिंता में दुबला होने लगता है। बस एक नेता उग लेता है। जो आगे चलकर ठीक वैसे ही समाज या क्षेत्र पर छा जाता है ,जैसे गन्दे पानी के तालाब पर जलकुम्भी। बस खरबूजे को देखकर अन्य खरबूजे रंग बदलने लगते हैं औऱ धीरे -धीरे सम्पूर्ण तालाब ही आच्छादित हो जाता है। यही तो जलकुम्भी का चमत्कार है।

 यदि किसी भी क्षेत्र के नेता की प्रमुख विशेषता तथा विशेषज्ञता की बात करें तो तो सिद्ध होता है कि कोई भी नेता अपने को सबसे दिमागदार मानता है और मनवाता भी है । मनवा भी लेता है।शेष सभी कार्यकर्ताओं को वह मात्र देह मानता है। हाथ - पैर ,आँखें - कान या जो भी कार्य करने वाले अंग हैं ,वही सब उसके कार्यकर्ता होते हैं। यद्यपि वह स्वयं अपने को भी कार्यकर्ता ही बतलाता है।कोई - कोई अपने को सेवक या जनसेवक भी कहता है।और कोई - कोई तो स्वयं को चौकीदार कहने से भी नहीं चूकता।चौकीदार अर्थात वाचमैन ,गेटकीपर या पहरेदार आदि - आदि।यह उस नेता की 'महानता' ही है कि अपना मूल्यांकन कमतर और काम - काज बढ़कर करता है। अवसर पड़ने पर उसका श्रेय लेने से भी वह कब चूकने वाला है?उसी से तो चलता विकास का परनाला है। 

 नेता मानता है कि सब कुछ उसके दिमाग के किये कराए का जमूरा है ,वरना बाकी सब कुछ घास -कूड़ा है। वे लोग तो बस गड्ढे खोदने, बैनर टाँगने , दरी बिछाने, कुर्सियाँ लगाने, मंच औऱ शामियाना सजाने के लिए ,दीवारों पर पैम्फलेट और पोस्टर चस्पा करने ,जनता में प्रचार -प्रसार करने भर के लिए हैं। सब कुछ नेता जी के दिमाग का खेल है । तभी तो चल रही इतनी तेज विकास की रेल है। यदि दिमाग है तो बस एक उन्हीं में है। उनका तो पूरा शरीर ही दिमाग़ में तब्दील हो गया है। वह जीती - जागती सचल कंदील हो गया है।वह यदि शीश है तो कार्यकर्ता धड़ मात्र हैं। उनमें जब दिमाग ही नहीं तो वे इसी के पात्र हैं।

 नेता का दिमाग हर आम से कुछ खास ही हुआ करता है। इसलिए वह समाज से ऊपर अपना स्थान मानता है। वह अपने सामने किसी अधिकारी , कर्मचारी,आई. ए. एस., पी. सी .एस., डॉक्टर, प्रोफ़ेसर, इंजीनियर वकील,न्यायाधिकारी, धर्माधिकारी ,पंडा पुजारी को नहीं गिनता। सबसे निज चरण चुम्बन की लालसा में बगबगे वेश में शोभायमान रहना उसकी दिनचर्या का एक प्रमुख अंग है। पता नहीं कब कौन - सा भक्त आकर उसे फ़ूल - मालाओं से लाद दे ,औऱ वह लुंगी - बनियान में ऐंठा हुआ बैठा हो। तब उसकी पोल नहीं खुल - खुल जाएगी ?उसके भक्तगण जिस रूप में देखने के आदी हैं ,उसी रूप में दिखना ही श्रेयष्कर है। 

  जलकुम्भी बाहर से जितना सुंदर हरा -भरा और अच्छादनकारी है।उतना रूप स्वरूप उसका बेडौल और खोखली रचना तारी है। नेता का सच्चा प्रतीक है जलकुम्भी।गुर्गों की सलाह पर बजती है उसकी 'छलतुंबी' । वे ही तो उसकी आँख नाक हैं। मुस्कराते हुए अधरों की लाल -लाल फाँक हैं।वे ही डाकिया वे ही डाक हैं।उनके बिना दिमाग तो बस दही का दही है।कहने वाले ने ये बात कुछ गलत भी नहीं कही है। नेता नहीं चाहता कि गुर्गा नेता बन पाए।वह तो आजीवन उसके समक्ष मुर्गा बन कुड़कूड़ाये। उसे जुलूस में अपने काँधे पर टाँग लाए । ऊपर ही ऊपर आकाश में उसे सबको दिखा लाए। वह उसका अंधा, गूंगा, बहरा धड़ बनकर धड़धड़ाये। तभी तो उसके कलेजे को चैन आए। 

 ● शुभमस्तु ! 

 19.08.2023 ◆ 8.30 आ०मा०

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शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

अहंकार ● [ कुंडलिया ]

 363/2023

              

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

शासक नर का उर बसा,अहंकार दिन -रात।

डाली  बेड़ी  बुद्धि -पग,करता रहता   घात।।

करता   रहता  घात, नशा बन ऐसा   छाता।

नहीं समझता बात,स्वयं निजता   भरमाता।।

'शुभम्'पाँव में मार,कुल्हाड़ी अपना  नाशक।

गतिअवरोधक आप,अहं मानव का शासक।।


                        -2-

अपनी  आँखों  पर  पड़ा, परदा  काला  एक।

अहंकार ने ग्रस लिया,मानव-विमल-विवेक।।

मानव-विमल-विवेक,राहु बन शशि पर छाता।

उर को मिले न टेक,धरा पर सहज  गिराता।।

'शुभं' न मिलती शांति,सत्य निज माने कथनी।

भरी भटकती भ्रांति,शेर सब रखता  अपनी।।


                        -3-

रावण -कंस-विनाश का,कारण था बस एक।

अहंकार ही छीनता, नर का विमल विवेक।।

नर का विमल विवेक, हरण कर सीता माता।

रहा न  ज्ञानी   नेक, राम को कैसे   ध्याता।।

'शुभम्'कृष्ण ने मार,कंस का तोड़ा कण -कण।

हुआ असुर  संहार, कंस, महिषासुर, रावण।।


                        -4-

कथनी - करनी में दिखें,मानव के   बहु रूप।

अहंकार  या  ज्ञान  का, है नर कैसा   यूप??

है  नर   कैसा   यूप,सहज ही रंग   दिखाता।

दिखता रूप -  कुरूप, घृणा या नेह रिझाता।।

'शुभम्' चलाकर देख,बुद्धि की अपनी मथनी।

बने नहीं नर मेष, एक कर करनी   -  कथनी।।


                          -5-

फिरते  धनिकों  की गली, अहंकार  में  लोग।

समझें  नहीं   गरीब को,  फैलाते  बहु   रोग।।

फैलाते   बहु   रोग, माँगते घर  - घर    चंदा।

नहीं    देखते   हाल, दान के योग्य  न  बंदा।।

'शुभं'मनुज का रूप,मनुज -हत मानुस घिरते।

नहीं चोर या ढोर,सजा तन शोषक    फिरते।।


●शुभमस्तु !

२८.०८.२०२३


अंतर ● [अतुकान्तिका]

 362/2023

          

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● ©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गरीबों से अधिक

अमीरों को,

नेताओं, अधिकारियों को,

डॉक्टरों ,अभियंताओं को,

अभावों से अधिक

भरावों को,

सोने की चाहत है।


अच्छा है यह

कि खाया नहीं जाता

चमचमाता हुआ सोना,

वरना कितना अधिक

पड़ता इस आदमी को

जीवन में रोना,

फिर भी इस कनक की

चमक से 

पड़ता है उसे अपना

यथार्थ सुख खोना।


चाहत में सुख की

आजीवन ,

सोने की चौंध 

उसकी बुद्धि को

चुँधियाती है,

सोना का साथ

भुला देता है

उसे चैन से सोना।


सोने के सिंहासन पर

सब एक हैं,

कहीं कोई अंतर नहीं,

जैसे मरघट की

माटी में 

सबकी एक ही

दशा रही,

गोल -गोल रोटी से अधिक

यहाँ सदा सोने की

महत्ता जाती कही।


जिसने भी 'शुभम्'

ये अन्तर  समझा-जाना,

बना नहीं वह कभी

सोने का दीवाना,

उसने अपना

 सच्चा सुख

कहीं औऱ ही 

जाना।


● शुभमस्तु !


18.08.2023◆ 6.45 आ०मा० 

आँखों में है चोर ● [ नवगीत ]

 361/2023

 

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुख पर है 

मुस्कान गुलाबी

आँखों में है चोर।


शहद टपकता

लाल जीभ से

उर में काला रंग।

अवसर की है

सघन प्रतीक्षा

करना है रस -भंग।।

दिल की धड़कन

बता रही चुप

भीतर -भीतर शोर।


काले दिल के

लोग दुग्धवत

धर कर तन पर वेश।

तिलक छाप

माला डाले कुछ

बढ़ा सुगंधित केश।।


बैठ तखत 

उपदेश सुनाते

मन में काम -हिलोर।


रँगिया बाबा 

कान फूँकता

होगा  पुत्र जरूर।

खुश करने की

शर्त हमारी

जन्नत की तू हूर।।


कहना नहीं

किसी से कुछ भी

हिले न अक्षर -कोर।


●शुभमस्तु !


17.08.2023 ◆2.00आ०मा०

माटी मेरे देश की ● [ सोरठा ]

 360/2023

   

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चंदन   और  अबीर,  माटी मेरे    देश    की।

जन्मे  सूर ,कबीर, कालिदास, तुलसी   यहाँ।।

करता  गौरव - गान,लगा भाल  अपने 'शुभम्'।

मेरी     है    पहचान ,  माटी मेरे   देश    की।।


देती    गेहूँ,    धान,   माटी  मेरे    देश    की।

कनक रजत की खान,पोषण देती रात -दिन।।

हुआ   देश   आजाद,  वीरों के  बलिदान   से।

आती   पल-पल  याद, माटी मेरे   देश    की।।


अविरल   भरे   सुगंध, माटी मेरे  देश की।

पास  न आती  धुंध,  शुद्ध करे पर्यावरण।।

गेंदा,  चंपा  , फूल,  जूही, पाटल,   मोगरा।

वायु  करे  अनुकूल,  माटी मेरे देश    की।।


जिसमें   लेकर  जन्म,माटी मेरे   देश  की।

मिला  कर्म  से मन्म,धन्य भाग  मेरा   हुआ।।

मिटा पाप  का भार,राम-कृष्ण अवतार  से।

करती  जन - उद्धार, माटी मेरे देश  की।।


लिए   तिरंगा   हाथ,  माटी  मेरे  देश   की।

रक्षा  हित निज  पाथ, बलिदानी  बढ़ते  गए।।

बहुविध  नव  विज्ञान,जन्माती सहित्य   को।

अभिकल्पना  महान, माटी मेरे    देश   की।।


भरती   रंग   विचित्र, माटी  मेरे   देश  की।

बन जाता है मित्र,  आता परदेशी   यहाँ।।


*मन्म = मान।


●शुभमस्तु !


17.08.2023◆12.45प०मा०

मनमीत ● [ दोहा ]

 359/2023

        

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मैं मुरली मनमीत की,बनकर बजूँ   विभोर।

पिक गाए ज्यों बाग में,पावस में ज्यों मोर।।

वंशी  होती  श्याम  की,अधरों की  मनमीत।

गौरव  में  गाती  रहूँ, नित प्रियता  के   गीत।।


मैं   राधा  घनश्याम   की, वे  मेरे  मनमीत।

उर  में   वे मेरे बसें , ज्यों पय में    नवनीत।।

रहा न जाए एक पल,बिना सखी री श्याम।

कण-कण में मनमीत वे,बसते हैं अविराम।। 


ज्यों   राधा  के श्याम हैं,त्यों सीता के राम।

बने  हुए मनमीत वे, जपूँ उन्हीं  का  नाम।।

झर-झर-झर बूँदें झरें,लौटे अभी न  आज।

यादों में   मनमीत की,भूल गई   गृहकाज।।


चातक बन  रटती  रहूँ,प्रियवर तेरा    नाम।

बसा युगल दृग में  सदा,हे मनमीत सकाम।।

वीरों  का  मनमीत  है, अपना भारत   देश।

रक्षक बन नित जूझते, रख सैनिक का वेश।।


शब्दकार   की  लेखनी, है उसकी मनमीत।

बहुविध  छंदों  में करे, रचना गज़लें   गीत।।

कवि ज्ञानी हैं लिख रहे,नित प्रति काव्य अनंत।

वह  उनका मनमीत  है, बारह  मास  वसंत।।


आओ 'शुभम्'स्वदेश को,बना विमल मनमीत।

गाएँ  गौरव  गान  ही, करें मनुज   से  प्रीत।।


● शुभमस्तु !


16.08.2023◆2.45 आ०मा०

मुझे गर्व इस देश पर ● [ दोहा ]

 358/2023


[अजादी, उत्कर्ष,लोकतंत्र,भारत, तिरंगा]

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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              ● सब में एक  ●

आजादी जब  से मिली, लोग हुए स्वच्छ्न्द।

मनमानी   करने   लगे, मना रहे    आनंद।।

आजादी  का  अर्थ  है, करें नियम से काम।

बंधन  में  रहना नहीं, बना देश  सुख धाम।।


परिश्रम करने से सदा, मिलता  है उत्कर्ष ।

आती   है   समृद्धता, उर में आता   हर्ष।।

गिरि पर जो उत्कर्ष के,चढ़ता है नर एक।

प्रेरक वह सबके लिए,जाग्रत करे विवेक।।


लोकतंत्र के  नाम  से, मची देश  में  लूट।

भ्रष्टाचारी   पाँव  से,  खांड़ रहे   हैं   कूट।।

लोकतंत्र-  रक्षक बनें, करके आत्मसुधार।

श्रेष्ठ  नागरिक  हैं  वही, करते पूर्वविचार।।


मुझे गर्व उस देश पर,जिसका भारत  नाम।

सदा विश्वगुरु  वह रहा, जन्म लिया  श्रीराम।।

भारत में   बहती  रहीं, गंगा,  यमुना -  धार।

ब्रह्मपुत्र,  सरयू  सभी ,  मानो सरि  अवतार।।


फहराता  अंबर   तले, शुभद तिरंगा   मीत।

जनगण मन नित गा रहा, गौरव के प्रिय गीत।

राष्ट्र - तिरंगा के लिए,होम गए निज  प्राण।

धन्य वीर बलिदान को,करते भारत- त्राण।।


             ●  एक में सब  ●

लोकतंत्र भारत बड़ा,जन -जन का उत्कर्ष।

'शुभम्' तिरंगा से मिला, आजादी का हर्ष।।


●शुभमस्तु !


16.08.2023◆2.00आ०मा०

भारत माँ का रक्षक● [ गीत ]

 357/2023

 

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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उच्च हिमालय

सजग खड़ा है

भारत माँ का रक्षक।


हम सब संतति

तेरी माता 

तेरे ही गुण गाएँ।

जाग भोर में

तव चरणों में

अपना शीश झुकाएँ।।


निशि-दिन तेरे

प्रहरी बनकर

सैनिक मारें तक्षक।


दक्षिण में निधि 

चरण पखारे 

पावन तेरे माते!

उदित पूर्व में 

होते दिनकर

पश्चिम में छिप जाते।।


जनगण में अब

स्वतंत्रता  का

फहरे ध्वज नित निधड़क।


नहीं दासता

अब गोरों की

याद हमें बलिदानी।

श्रद्धा - सुमन

चढ़ा स्मृति को

समझें इसके मानी।।


मार सपोले

जहर उगलते

आस्तीन में भक्षक।


हम सपूत बन

काम तुम्हारी

रक्षा में आ जाएँ।

सुख समृद्धि

भारत में भर 

माँ को शुभता लाएँ।।


जो भी हमको

आँख दिखाए

बनें अंत के कारक।


जय हो तेरी

 भारत माता

गंग जमुन की धारा।

बहे रहे यों

धराधाम में

नित अहिवात तुम्हारा।।


हम संतति सब

'शुभम्' देख नित

हम पालित तू पालक।


● शुभमस्तु !


15.08.2023 ◆3.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 14 अगस्त 2023

होमो शेप की जिंस':बनाम भ्रष्टाचार का विरोध ● [ व्यंग्य ]

 356/2023


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 ©व्यंग्यकार ◆ 

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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     जगती की प्रत्येक जिंस की कुछ ऐसी विशेषताएँ होती ही हैं,जिनसे मुँह मोड़कर वह बाहर नहीं जा सकता। 'होमो सेपियंस' अर्थात मनुष्य भी एक ऐसी ही जीती - जागती, दौड़ती-भागती ,चलती -फिरती ,मचलती,इठलती, उछलती,बिदकती, कूदती -फुदकती जिंस है।वह सारे संसार के समक्ष अपने जीवंत,वसंत ,हसंत,कुदन्त रूप में विद्यमान है।उसके रक्त की बूँद -बूँद में अनेक विशेषताओं की तरह एक विशेष तत्त्व भी गतिमान है,जिससे कैसे भी बचना या अपनी संतति को भी बचाना कठिन नहीं दुर्लभ काम है। किंतु विडम्बना की बात यही है कि जिसे वह स्वयं पसंद नहीं करता।नहीं करता तो नहीं करता ,किंतु बेचारा इतना ईमानदार है कि उसकी ईमानदारी को देख सुनकर उसे 'इनामदार' बनाने की तीव्र इच्छा होने लगती है। 

       जिज्ञासा यही होती है कि अंततः वह कौन - सा विशेष 'गुण' है, जिसे सोते ,जागते,सपना देखते, दौड़ते ,भागते, कभी भी वह विस्मृत नहीं कर पाता। 'भ्रष्टाचार' मनुष्य के रक्त की बूँद - बूँद के माइटोकोन्ड्रिया , प्रोटोप्लाज्म और सैल -वाल ही नहीं ; उसके न्यूक्लियस(केन्द्रक) में भी स्थाई रूप से जड़ें जमाए हुए है।अब क्या कीजिए ,जमाए हुए है तो जमाए हुए है ही।आप चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकते। कौन नहीं चाहता कि भ्रष्टाचार न हो, पर वह तो होकर ही रहने वाला है। होता ही है।

       एक बात यह भी है कि कोई अन्य मनुष्य या संस्था भ्रष्टाचार न करे, किन्तु जब स्वयं को अवसर मिलता है ,तो एक पल के लिए चूकना वह अपनी निहायत मूर्खता मानता है। अब आप ही बताएँ कि कोई ऐसा भी है ,जो जान - बूझकर मूर्ख बनना चाहेगा। किसी और के स्थान पर आप अपने को ही बैठाकर देख लीजिए। क्या आपको ऐसा 'सु' - अवसर प्राप्त हो जाए,तो क्या आप उसे लात मार देंगे?और दुत्कारते हुए कहेंगे , चल हट। परे हट। मैं दूध का धुला हुआ हूँ। मैं रिश्वत नहीं लूँगा, गबन नहीं करूँगा, पर - नारी को कुदृष्टि से नहीं देखूँगा,(अपनी की कोई बात नहीं, वहाँ छूट है।) उसके साथ उसकी इच्छा से भी या इच्छा -विरुद्ध कोई असामाजिक और अनैतिक कृत्य नहीं करूँगा, चोरी से बिजली नहीं जलाऊंगा, टॉल टैक्स बिना चुकाए अपनी गाड़ी नहीं ले जाऊंगा। लाइन तोड़कर टिकट ,राशन या अन्य कोई दुराचरण नहीं करूँगा, दूध,घी,तेल, धनियां ,मिर्च, हल्दी आदि में अवांछनीय तत्त्वों की मिलावट नहीं करूँगा। अन्याय न करूँगा न,समर्थन करूँगा न होने ही दूँगा। बड़ी -बड़ी आदर्श लिपटी बातें हैं। जिन्हें हम अन्यत्र देखना पसंद नहीं करते। परंतु जब अपनी बारी आती है ,तो वही काम करने के अवसर तलाशते हैं।इस प्रकार 'भ्रष्टाचार का विरोध ' विशुद्ध आदर्शवाद का नारा भर है। जिसका मुहूर्त से लेकर समापन तक बड़े जोश -ओ - खरोश के साथ महिमा मंडित करते हुए किया जाता है ;किन्तु अंत में परिणाम के नाम पर मात्र नौ दिन चले अढ़ाई कोस की यात्रा ही तय हो पाती है। अर्थात टाँय - टाँय फुस ! कथनी छपी अखबार में और करनी गई चूहे के बिल में घुस!

         यह 'होमो शेप की जिंस' अर्थात आदमी अनेक रूपों में चलता -विचरता है। नेता,मंत्री,अधिकारी, कर्मचारी, व्यापारी, अधिवक्ता, न्यायाधिकारी,युवा, प्रौढ़, वृद्ध, नारी, पति ,शिक्षक, कवि,साहित्यकार,पत्रकार, इंजीनियर ,ठेकेदार,स्वर्णकार, लौहकार आदि -आदि अनेक रूपों में अपने चाल -चरित्र दिखलाता है। त्रिया ही नहीं ,पुरुष भी अपने चरित्र के विविध रंग दिखाए बिना रुकता नहीं, थमता नहीं। कौन किसकी दुम उठाए , जिधर देखो वहाँ सब मादा ही मादा। क्या चोर - डकैत !क्या जाँच अधिकारी का इरादा! एक से एक ज्यादा। एक भी पुरुष नर नहीं ,सब मादा ही मादा।

         यही कारण है कि भ्रष्टाचार के विरोध का कोई भी आंदोलन कहीं भी और कभी भी सफल नहीं होता। हो ही नहीं सकता।राजनीति में तो ये एक खेल की तरह चलते ही रहना है। जिसमें न कभी जीत है न हार है।आन्दोलन बराबर बरकरार है।जब कोठरी ही काजल से काली है ,तो कोई सयाना भला बच भी कैसे सकता है!ये सयाने लोग तो पहले ही अंदर और बाहर से काले हैं। फिर चिंता ही किस बात की है ? बस जाँच चल रही है। चलती रहने वाली प्रक्रिया है। उसे तो चलना ही है क्योंकि उसका काम ही चलना है। तभी तो बाहरियों को मचलने में ठगना है। कुछ दिन की जाँच के बाद वापस घर को पलायन करना है। यह जाँच प्रक्रिया न रुकने वाला झरना है।क्या सच्ची -मुच्ची जाँच करके उन्हें मरना है ?

          भ्रष्टाचार के विरोध रूपी खेल को राजनैतिक दल प्रायः खेलते रहते हैं। कभी विपक्ष सत्ता पक्ष का प्रबल विरोध करता है और उधर सत्ता पक्ष अपने बहुमत से उसे दबाकर खुश हो लेता है।बहरहाल भ्रष्टाचार सबके पसंद की चीज है। विपक्ष इसलिए दुःखी है क्योंकि उसे अवसर नहीं मिला और सत्ता पक्ष आने वाले पाँच वर्षों में सत्ता के जाने की आशंका से भयभीत है कि कल ये मौका उन्हें न मिल जाए जो विपक्ष में बैठे हैं। अंततः यह सबके पसंद की चीज है। सब इसका रस लेने को लालायित हैं। येन केन प्रकारेण सत्ता का हत्था हथियाना ही उनका लक्ष्य है।अब उसमें क्या देखना कि क्या भक्ष्य या क्या अभक्ष्य है। यह संस्कार की तरह खून में रस - बस गया है।जो मनुजाद के मन औऱ तन को कस गया है।इसलिए जो इसे कर रहे हैं ,वे तो खुश हैं ही ।जो नहीं कर पाए हैं ,वे उस सुनहरी घड़ी के लिए बेताब हैं,आशान्वित हैं। इसलिए भर- भर भगौने कीचड़ उछाल महोत्सव मना रहे हैं।

 सबको प्रिय है भ्रष्टता, खुल कर कहे न एक।

 औरों को   दिखला रहे, अपना नेक विवेक।। 

 सिंहासन   वह चाहिए, जिस पर तू आरूढ़।

 सिद्ध    तुझे करना मुझे,तू दिमाग से मूढ़।।

 बूँद-बूँद  में खून   की, व्यापित भ्रष्टाचार।

 नर- नारी  कोई नहीं,न हो  भ्रष्टता - प्यार।। 

 थैली    में    सब   एक  से, चट्टे-बट्टे मीत।

 बुद्धिमान  कहला रहा,चोरी करे अभीत।।


 भ्रष्ट चदरिया ओढ़कर,दिखलाते नव रंग।

 सबको केवल एक ही,चढ़ी अनौखी भंग।।

 ● शुभमस्तु ! 

 14.08.2023◆ 6.00पतन म मार्तण्डस्य। 

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भारत ● [ चौपाई ]

 355/2023

             

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मेरा   भारत   जग  में  न्यारा।

बहे  जहाँ  सुरसरि की धारा।।

गीता  के    संदेश    सुपावन।

हर मानव के हित में भावन।।


माधव , गर्मी,  पावस  आतीं।

शरद,शिशिर तब रँग बरसातीं।।

छठवीं   ऋतु  है   हेमंत सदा।

भारत वासी   भूलें   न कदा।।


उत्तर दिशि में हिमगिरि विशाल।

भारत का करता उच्च भाल।।

दक्षिण में सागर   पद पखार।

भारत माँ की   रक्षा -दिवार।।


तुलसी,   गंगा,  पीपल, गायें।

गायत्री ,  गीता     हैं    माएँ।।

भारत  में  पूजी    जाती    हैं।

उर  की कलिका मुस्काती हैं।।


 बहुभाषी    देश   हमारा  ये।

ब्रजभाषा  की    रसधारा ये।।

हैं खड़ी ,तमिल या गुजराती।

मैथिली, अवध की रसमाती।।


विजयादशमी शुभ दीवाली।

रक्षाबंधन, होली  -   ताली।।

भारत में उत्सव का  खुमार।

भरता जन-जन में नव बहार।।


कुछ   पाले   यहाँ  सपोले हैं।

कहने को   केवल   भोले हैं।।

कम नहीं  नेवले    यहाँ  बसे।

वे जान समझ लें कहाँ फँसे।।


हम शांति अहिंसा के पूजक।

मर्यादा     के   हैं    संपूरक।।

है  राम  कृष्ण की धरा यही।

संतों  से पावन   सदा  मही।।


बनकर भारत  के हम त्राता।

कर त्याग  समर्पण हे भ्राता।।

खंडित   होने   से   इसे बचा।

सब 'शुभम्' बचें इतिहास रचा।।


●शुभमस्तु !


14.08.2023◆11.00आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...