शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

चोरों का चीफ़ [हायकू]

-1-
चोरों का चीफ़
महाचोर ही होगा
गरेबाँ झाँको।

-2-
नेता को दोष
जनता ही सदोष
ख़ुद को आँको।

-3-
रिश्वत दी
उन्होंने भी ले ली
स्वयं को जाँचों।

-4-
मीठा भाषण
थोथा आश्वासन
खुशी में नाचो।

-5-
जैसी जनता
वैसा उसका नेता
रोना ये कैसा?

-6-
पीलिया ईंट 
जनता बड़ी ढीठ
बने हैं शौचालय।

-7-
खेत में जाना 
फ़िर क्यों बनाना
इज्जतघर।

-8-
अवा ख़राब
निज़ाम बेहिसाब
नेता भी वैसा।

-9-
चाहिए पैसा 
मिले ऐसा या वैसा
ईमान कैसा?

-10-
इसी बीच से
सना हुआ कीच से
निर्मल कैसा?

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

देश के 'लेता'[ गीतिका ]

●1●
देश के 'लेता' अगर जो, देश हित की ठान लें।
अपने अहं को छोड़कर, कर्तव्य अपना जान लें।
वादे कभी भूलें नहीं,त्याग दें मिथ्या वचन।
छल-छन्द से दूरी रखें,तो बनें सच्चे सुजन।।

●2●
सत्ता की कुर्सी से उतर, 'लेताजी' नीचे आइए।
मात्र मुद्दों के चनों से,मूर्ख मत बनाइए।
आज तो धोखे से पालो, वोट जनता से सभी।
भूल जाना काष्ठ-हाँडी, फिर नहीं चढ़ती कभी।।

●3●
होता भरोसा आपका,पलकों पर बैठाते।
बेमन गले में फूल के,हार न हम पहनाते।
मजबूरी हमारी है यही,मान झूठा जान लो।
जनता के हित में करो,चेतना में ठान लो।

● 4●
गिद्ध 'लेता ' बन गए हैं, योनि का बदलाव है।
मृतक पशु को छोड़कर, नररक्त का ही चाव है।
रात -दिन मच्छर बने,ये लोहू पीते (हैं) मेरा।
पहचान लो 'लेताओं' को,जाल से लगता घिरा।।

●5●
बगबगे वसनों से बाहर, लेकिन भीतर काले।
वादों की (जो)याद दिलाई,पड़ गए मुँह पर ताले।
पाँच वर्ष के बाद लौटकर,याद आ रहे वादे।
" शुभम" जोड़ कर बोल रहे (हैं),मित्रो ! राधे  राधे!!

💐शुभमस्तु!
✍🏼©रचयिता 
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

गर्दभ-उलूक उवाच

जेठ की तपती दोपहरी थी,
खेतों में वीरानगी पसरी थी,
अर्द्ध विकसित बड़े -से गाँव में,
घने बरगद की ठंडी छाँव में,
धरती तप रही थी ज्यों तवा, 
चल रही थी पशु-पक्षियों की सभा।

गधे -घोड़े  भैंस -भैंसे
कह रहे थे आदमी हैं कैसे-कैसे,
बकरियाँ भेड़ गायें बैल भी थे
जिनके दिलों में  न कहीं मैल ही थे,
शाखाओं  पर बैठी थीं फ़ाख्ता गौरैयाँ
तोते कबूतर गलगल गिलहरीयाँ,
सभी की वार्ता का केंद्र आदमी था
उनका सोचना भी बड़ा लाज़मी था,
उन्हीं के बीच रात -दिन रहना था
उन्हीं के आदेश- संगत को सहना था।

उधर से एक गधा रेंका  औ' सवाल दागा-
"ये इंसान भी है कितना अभागा"
-सुनकर घोड़े के खड़े हो गए दो कान,
हाँ!हाँ!! बताओ कैसा है ये इंसान,
"हमारी तुम्हारी सभी की है 
अलग जाति,
लड़ते नहीं इंसानवत इस भाँति,
ये कहने तो इंसान हैं,
एक - से शरीर हैं बुद्धिमान हैं,
पर जाति के नाम पर ऊँचाई नीचाई,
अभिजात्यता की सभी देते हैं दुहाई,
ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र,
सोच नितांत घटिया बुद्धि क्षुद्र,
एक ही वर्ण में अनेक जतियाँ,
छोटाई -बड़ाई की विषम भ्रांतियां,
आख़िर ये कैसा इंसान है!
हम गधों से कहलाता महान है।"
"बात सच है तुम्हारी कि वह इंसान है,
वह तुम्हारी तरह गधा नहीं
जातिवादिता ही उसकी पहचान है।"
 कथन सुनकर घोड़े का सभी
हँस पड़े,
तोता मैना मयूरों ने लगाए कहकहे,
गौरेया फ़ाख्ता ने स्वर में स्वर मिलाया,
गाय भेड़ बैलों ने भी स्वीकृति
में सिर झुकाया,
आँखे बंद किए उल्लू भी मुस्कराया,
बैठा हुआ ऊँची शाखा पर 
यों बोला, 
अपनी छोटी -सी चोंच को खोला-
"सही कहते हो भाया,
मुझे तो अक्ल नहीं निरा उल्लू हूँ,
काम कुछ करता नहीं पूरा निठल्लू
हूँ,
मतलब के लिए ये गधे को भी बाप बनाता है,
ये इंसान है बाल की भी खाल निकाल लाता है,
खून की बोतल में जाति नहीं दिखती, 
होटल की प्लेट में जाति नहीं
पुछती,
ट्रेन बस की सीट पर नहीं दीखती है  जाति,
पतुरिया के कोठे पर रहता समाजवाद,
गर्ज़ पड़ने पर उल्लू
 भी पूज लेता है,
लक्ष्मीजी के साथ  मुझे भी पूछ
लेता है।"

 सभी ने स्वीकारा इंसान जातिवादी है,
अहंकार के वशीभूत जति हावी है।

"इस इंसान से तो हम सभी अच्छे हैं,
बुद्धि छोटी है पर मन के सच्चे हैं।"
 गर्दभ -उलूक उवाच से सभी खुश थे,
विसर्जित हो गई सभा वे पक्षी -पशु थे।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

हार सभी को चाहिए [ दोहे ]

कुहरा फिर छाने लगा, पाँच वर्ष के बाद।
समझ न आये जोर से, घनघन घंटा नाद।।

मुद्दों की बरसात में, कीचड़ छिड़कें रोज़।
दूध धुले कहते स्वयं, दूषित नयन-सरोज।।

फिर मंदिर निर्माण की,लगी सुलगने आँच।
शनै:-शनै: बढ़ने लगी,ज्यों -ज्यों बीते पाँच।।

हार सभी को चाहिए,नहीं चाहिए हार।
पुंलिङ्ग की वांछा उन्हें,खुले भाग्य का द्वार।।

मिट्ठू जी कहने लगे,हम विकास के ईश।
भ्रष्टाचारी चोर तुम,हम तुमसे इक्कीस।।

नारों के निर्माण में, ऊँचा अपना नाम।
चिंता हमें न काम की ,हमें चाहिए दाम।।

हुई समस्या दूर जो,मुद्दे रहें न शेष।
इसीलिए हमने रखा, अपना नेता -वेष।।

नेता सबसे श्रेष्ठ है, जनता नौकर भेड़।
आगे-आगे हम सदा, भले देश की रेड़ ।।

सर्दी का मौसम नहीं,बढ़ता जाता ताप।
नारे, मुद्दे ,पंक का,क्षण-क्षण बढ़ता शाप।।

पश्चिम की अंधी नकल, कोई नहीं विचार।
देश काल जाने बिना, "शुभम" न हो गलहार।।

💐शुभमस्तु  !
 ✍🏼©रचयिता :
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

अच्छा ! तो तुम इंसान हो  [ लघु व्यंग्य कथा]


   एक दिन वह अपने  निवास   खण्डहरधाम से मार्ग भटक गया और एक घनी बस्ती में आ घुसा। उसने देखा कि यहाँ पर अनेक लंबे -लंबे दो पैरों पर चलने वाले प्राणी घूम रहे हैं। उनके दो -दो हाथ भी हैं।  उनके साथ कुछ  छोटे -बड़े  काले , भूरे , सफेद  कई प्रकार के प्राणी  भी रह रहे हैं। ऐसे विचित्र वातावरण को देखकर वह चौंका । उसे ये बड़ा ही मनोरंजक लगा। इसलिए वह अपना बसेरा भूलकर एक सघन बरगद की  ऊँची डालपर रहने लगा।  दिन में उसे नहीं दिखता था। इसलिए अँधेरा होने पर बस्ती में घूमने निकलता था। एक दिन वह रात को लगभग 9 बजे बस्ती  के एक मकान की मुँडेर पर बैठा था। तभी उसने तेज -तेज आवाज के साथ कुछ लोगों को परस्पर विवाद करने, झगड़ने  और मारपीट की स्थिति देखी। उससे रहा नहीं गया तो एक पास ही खड़े प्राणी से पूछ बैठा। " ए भैया तुम कौन हो । इस तरह आपस में क्यों लड़ रहे हो?"
वह प्राणी कहने लगा -"हम लोग इंसान हैं । "
"अच्छा! तभी आप लोग इस तरह लड़ रहे हो! ऐसे तो पशु गधे, घोड़े , कुत्ते , बिल्ली भी आपस में नहीं लड़ते ! "
"तुम कौन हो , जो मुँडेर पर बैठे हुए मुझसे पूछताछ कर रहे हो? कहाँ रहते हो । यहाँ क्या कर रहे हो?"
"बड़े भाई! मुझे उल्लू कहते हैं।"
" हा! हा!! हा!!! उल्लू ?"
"हाँ भाई! उल्लू ।मैं पड़ौस के एक खंडहर में रहता हूँ । आज रास्ता भटक कर यहाँ आ गया ,तो आप जैसे प्राणियों से भेंट हो गई। अच्छा भी लगा   .....और .... "
"औऱ क्या  बताओ तो ..."
"और ये कि मुझे ये देखकर आश्चर्य हो रहा है कि तुम अपने को एक ओर तो इंसान भी कहते हो दूसरी ओर ये कि अक्लवन्द भी सबसे ज्यादा बनते हो और लड़ते पशुओं से भी बुरी तरह। ऐसे तो हम उल्लू कहलाने वाले भी नहीं लड़ते!"
"बात तो तुम्हारी सोलहों आने सच्ची लगती है। "
"लगती नहीं , है भी सच्ची ही। तुम लोगों को इस तरह नहीं लड़ना -भिड़ना चाहिए।  सुना है तुम हम उल्लुओं की पूजा करते हो ?"
"हाँ, ये सच है। तुम लक्ष्मीजी के वाहन हो , इसलिए। शायद तुम्हारी पूजा से लक्ष्मी जी भी आ जाएं हमारे घर में। जहाँ उल्लू  वहाँ लक्ष्मी। इसलिए
उल्लू  पूजो  धन मिले,
पर   बुद्धि   हर  जाय।
बुद्धिमान  बिन लक्ष्मी,
क्या  जग  में  कर पाय।।"
"बहुत चालाक और चालू प्रतीत होते हो। अपना काम निकालने के लिए गधे को भी बाप बना लेते होंगे"
"अरे  उल्लू  भाई! तुम तो अक्ल भी रखते हो !"
"हाँ मित्र ! उल्लू हूँ , पर इतना उल्लू  भी नहीं।"
इतना कहकर उल्लू इंसानों की बस्ती से अपने खंडहर की ओर उड़ गया।
तभी से उल्लू इंसानों की बस्ती से दूर बियाबान में रहते हैं।

💐शुभमस्तु !
✍🏼 ©लेखक
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

अम्मा मुझको ठंड लग रही

'अम्मा  मुझको  ठंड लग रही,
आज   मुझे    मत   नहलाना।
हाथ पाँव    मुँह   धोकर  मेरा
विद्यालय      में       पहुँचाना।'


'स्वेटर  शर्ट   और    टाई  के
भीतर   पता   न   लग  पाये।
पेंट  और   मोजों  के   अंदर
नहीं  पैर     भी   दिख   पाए।
थोड़ी  क्रीम   लगा  देना  तुम
चेहरा      मेरा     चमकाना।'
'अम्मा मुझको  .........
'सर   मेडम    जब पूछें  मुन्ना
तब  क्या    तुम   बतलाओगे।
चोरी   पकड़ी    जाए  तुम्हारी
नज़र      झुका      शर्माओगे।
पाँच मिनट बस नहा लो थोड़ा
कल   संडे    है  मत   नहाना ।'
'अम्मा मुझको ....
'ठंडे   पानी     से   लगती   है
मुझको    अम्मा    ठंड  बड़ी ।
देखो   बाहर  कोहरा  कितना
पिल्ले चिड़ियाँ  भी   सिकुड़ी।'
थोड़ी    देर     लगेगा     ठंडा
फिर तुम  गरम - गरम  खाना।'
'अम्मा मुझको .....
💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 24 नवंबर 2018

वे फिसलें तो हम हँसें 【 व्यंग्य लेख】

इस हँसी का शायद दिमाग नहीं होता। इधर वे फिसले और ये महारानी जी तुरन्त हाज़िर।किसी के फ़िसलते (रपटते) ही बुलंद आवाज़ में हा! हा !!हा !!!हा!!!,ही !ही !!ही !!!ही !!!ही !!! , हे! हे !!हे!!! हे!!!, हैं ! हैं !!हैं !!!हैं !!!, हो ! हो !! हो !!!हो !!! स्वतः ही निकल जाता है।ये हँसी का कैसा मनोविज्ञान है ? कि किसी के फिसलने, रपट जाने, स्लिप हो जाने पर अनायास ही हँसी का फव्वारा फूट जाता है और फिसलने वाला अनायास ही एक
ऐसे अवांछित और अनावश्यक अपराध बोध से घिर जाता है ,मानो उससे कितना बड़ा अपराध हो गया हो।जबकि किसी के अचानक फिसलने में उसका कोई दोष नहीं होता। हमारी असावधानी , जल्दबाज़ी, अन्यमनस्कता, कहीं पर निगाहें कहीं पर चलना, स्थान दोष आदि के कारण हम फ़िसलते हैं, रपटते हैं। पर किसी दूसरे की हंसी हमें ख़ुद को लज्जित होने जैसा भाव  बोध कराके उसकी हँसने की पुष्टि ही कर देती है।
विचारणीय ये है कि किसी पर हँसने से पहले हमारी बुद्धि इतना क्यों नहीं सोच लेती की कभी जिस शख़्स पर हँसा जा रहा है , उसके विपरीत स्थिति भी तो उत्पन्न हो सकती है। हँसने वाला भी तो फ़िसल सकता है। अनायास हँसी का  पात्र बन सकता है।
   आज का व्यक्ति समाज, पड़ौसी, सियासी दल सभी दूसरे को फिसलता देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। इसलिए उनके मार्ग में ऐसी स्थितियाँ,परिस्थितियां, रपटन, फ़िसलन, पैदा कर रहे हैं कि वे गिरें तो हमें हँसने का सुअवसर सुलभ हो ।आदमी आदमी की सफ़लता , उन्नति , विकास और उत्थान से खुश नहीं है। वह उसे गिरते हुए देखकर और झूठी सहानुभूति दिखलाकर खुश है। पड़ौसी पड़ौसी को गिरते देखकर प्रसाद बाँट रहा है। मन ही मन हँस रहा है। देखो ! अब आएगी अकल ठिकाने! ये सोच है उसकी।  जैसे कि उसके जीवन में तो विषमताएँ आयेगीं ही नहीं। राजनीतिक दल तो हद से बाहर ही चले गए हैं। वे दूसरों को रपटाने के लिए कोई कोर कसर
बाक़ी नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए सभी दलों के दलदल की यह अहम विशेषता हो गई है कि जब दलदल में हैं तो कीचड़ उछालना तो उनका एक जायज़ धर्म बनता है। जिसका परिपालन उन्हें करना ही है औऱ बखूबी कर  भी रहे हैं। इस बिंदु पर कोई भी दल किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। मानो एक सियासी कीचड़ उछाल प्रतियोगिता का युग ही प्रारम्भ हो गया है। सत्ता दल को तो पाँच -पाँच वर्ष केवल कीचड़ उछाल में ही लग जा रहे हैं। अरे!मियां मिट्ठू बनना तो कोई इनसे सीखे ! दूसरे फिर भला पीछे क्यों रहने लगे? सारी सियासत दलदलमय, पंकमय, निर्भय, निर्दय  और विछिन्नता की लय में गतिमान हो गई है। साठ वर्षों से पिछली सरकारों ने देश का शोषण किया, अत्याचार किये,  देश का विकास नहीं किया, इसका मौका अब हमें  दिया जाए। इस मानसिकता को लेकर ही सत्तासीन होना सियासत का लक्ष्य हो गया है। इसलिए साम, दाम ,दंड और भेद इन चतुरनीतियों का प्रयोग कर वोट लुटे जाने और अगले को फिसलकर गिराने का चक्रव्यूह बनाया जाता है। कैसे हम दूसरों को गिराएँ :इसके प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं। कैसे वे फ़िसलकर चारों खाने चित्त हो जाएं , इसकी योजनायें  क्रियान्वित की जा रही हैं। मीठा ज़हर जनता को खिलाकर उसे मदहोश किया जा रहा है।  बस वे न फिसलें, बाक़ी सब फ़िसल जाएँ। यही एक मात्र उद्देश्य है उनका। देश की किसे पड़ी। अपनी कुरसी , मंत्रिपद, अपनी सत्ता हासिल हो जाए बस।  फिसलाने ,फुसलाने का पूरा इंतज़ाम है। स्पीड ब्रेकर, गड्ढे, खाइयाँ , टीले,  हड़ताल , बवाल, दंगे -सभी पूरी तैयारी के साथ हाज़िर हैं। बस वक़्त का इंतज़ार है। जनता तो भेड़ है, जिधर  हांको हक ही जाएगी। सोशल मिडियस पर बाकायदा ब्रेनवाश फ़िसलन तैयार हो ही चुकी हैं। पत्रकार और टी वी चैनल बिक ही गए। जैसा वे चाहेंगे , वही गीत गाएंगे , वही मिथ्या आँकड़े पेश किए जाएंगे।ये सभी फ़िसलन जनता को फिसलाने के लिए ही तो बनाई गई हैं। अब रही बात हँसी की , तो देखते हैं कि कौन हँसेगा औऱ किस पर हँसेगा। अपने पर या अपनी नादानियों पर। वक़्त इंतज़ार कर रहा है। इसलिए हँसी तो फंसीं में मत रह जाना। दूसरों पर हँसना आसान है, अपने पर नहीं। अपने पाँव संभलकर रखना , बड़े - बड़े लुभावनी जलेबी दौड़ में  मैदाने -जंग में उतरने जा रहे हैं।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼© लेखक
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

काँटे का बयान

दिन और रात 
संध्या और प्रभात
उजाला और अँधेरा
निकम्मा और कमेरा
परस्पर विरोधी विलोमार्थक
स्वस्थान में सभी हैं सार्थक।

वैसे ही फूल और काँटा
जी हाँ, फूल और काँटा
आप सब मुझे काँटा कहते हो
कभी -कभी मेरी चुभन सहते हो
मेरा नाम आते ही आती है वेदना
एक चुभन एक टीस की संवेदना
जानते हैं निकलता है 
काँटे से काँटा,
मैं वही हूँ एक चुभता हुआ काँटा,
मारता है ज़हर ही ज़हर को
मार देती है बुरी नज़र ही शज़र को।

भगवान है तो शैतान भी है
इंसान है तो हैवान भी है
महकता नहीं मैं फूल की महक सा
कसकता हूँ हमेशा चुभन से दहकता
एक ही डाली के हम वासी हैं
दुष्टों के दलन में अहमियत खासी है।

हमसे ही सुरक्षित हैं ये सुमन
हम शूल हैं वे फूल हैं प्रमन
गुलाब की डाली पर बसेरा
मैं नहीं मुरझाता साँझ हो या सवेरा

दीर्घजीवी भी  मैं सुमन की अपेक्षा
सभी ने तो की है इस शूल की उपेक्षा
मैं ही शूल ,शल्य और काँटा
प्रकृति ने मुझे मेरा कार्य बाँटा
जिसको जो आवंटित वही तो करेगा
काँटे की चुभन काँटा ही हरेगा।
काँटा ही हारेगा।।
शुभमस्तु !

©रचयिता
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मैं सुमन हूँ

मैं सुमन हूँ
गाछ की बन्द कली में
प्रतीक्षा है मुझे अभी 
कली खिलने की
चहकने महकने की।

मैं  खिलूँगा 
रवि रश्मियों से मिलूँगा
बिखेरूँगा सुगन्ध की लहरें
ज्यों केसरिया गगन में फहरे
रंगहीन अदृश्य निराकार
लाते हुए परिवेश में बहार
करता हुआ आकर्षित मधुमाक्षिकाएँ
कीट पतंगे रंगीन तितलिकाएँ
वे आएँ आएँ और ले जायें
मीठा मधुर रस रसना से पियें पाएँ
नन्हे -नन्हे पीले  पराग कण
नए जीवन का करने संचरण।

मेरे सुर्ख लाल लाल हैं दल
सम्मोहन है जिनका बल
बहुत ही संक्षिप्त मेरा जीवन
किन्तु कृतार्थ करता हुआ 
निज को मेरी निजता को
कोई शिकायत नहीं नियति से
जीवनी -शक्ति से  
जीवन की गति से
प्रकृति से ।

अंततः मुरझाना ही है मुझे
अल्पकालावधि में 
जाना ही है मुझे
किन्तु फल और बीजों का सृजन
यही है मेरी प्रार्थना वंदन नमन
देकर इस जगत को
चला जाऊँगा
मैं सुमन हूँ 
सु मन ही कहलाऊँगा
क्योंकि मेरा मन भी सुंदर है,
तन तो सौंदर्य का समंदर है।

रंग और खुशबू कोई धोखा नहीं
तुम्हारी आँखों या नाक को रोका नहीं
जाकर असार संसार को देता हुआ
कुछ भी तो नहीं किसी से लेता हुआ।

तुम तो मानव हो
सुदृढ़ देहधारी,
कृतार्थ कर लो 
जीवन है स्नेह बारी,
जो देता है वही जीता है
वरना आना -जाना
सभी का रीता है।।

💐शुभमस्तु !
 ✍🏼© रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

विविध भारती

[ दोहे ]
अहंकार     की   खाल में,
लिपटा    मानव     आज।
विनत   भाव   आता नहीं,
शीश   अकड़  का   ताज।।1

झुकी  पेड़   की   डालियाँ,
पर   न   झुका    नर   मूढ़।
झुकने    वाले      ही मिलें,
यह     रहस्य    अति  गूढ़।।2

अति  प्रिय   अपनी  बेटियाँ,
बहू     में     लाखों     खोट।
समझे       पुत्रीवत    बहू,
मुस्काएँ        तब        होठ।।3

मुँह      धोये    बैठी     हुईं,
चाहें         खूब       दहेज।
पर     देने    के  नाम   पर,
पटके        कुरसी   -  मेज।।4

कहते    दोनों    सत्य   वे,
फिर      कैसी      तक़रार !
कोर्ट     कचहरी   में  भरी,
वादों       की       भरमार ।।5

बहुत     बड़ा    उद्योग  है,
राजनीति       का     काम।
हर्रा   लगे    न    फ़िटकरी,
मिलें    दाम      ही     दाम।।6

दस    पीढ़ी    तर  जाएँगीं,
राजनीति      की       नाव।
पाप -  पुण्य   कुछ भी नहीं,
करो     वही     जो     चाव।।7

मी टू     के      माहौल    में,
फूँक   -   फूँक   पी    छाछ ।
कब   लिपटी   थी  तन तिरे,
समझ   व   रहा   है   गाछ।।8

तब     मुस्काते    फूल   थे,
अब    है      सूखी    खाल।
चिपक न जाए 'मी त' ही,
इसका     रखना    ख़्याल।।9

बीस   वर्ष     के   बाद   में,
पावनता     की          याद।
पंक -   नदी बहती "शुभं"
ले कलयुग    की       खाद।।10
💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

पहनूँ फूलों के हार मैं [ लोकगीत पैरोडी]

चाहे बिक जाय देश हमार,
पहनूँ   फूलों  के  हार  मैं।

योग्यता अँगूठा  छाप  मेरी,
अभिशाप नहीं वरदान मेरी,
लिखने - पढ़ने  में  लाचार ।
पहनूँ   फूलों  के हार  मैं।।1

हत्या भी कीं अपहरण किए,
दुष्कर्मों को  हम वरण किए,
और   किए   हैं   अत्याचार।
पहनूँ   फूलों  के  हार  मैं।।2

टूण्डला तक   मेरी यात्रा है,
चेलियाँ बहुत  प्रिय पात्रा हैं,
कर   लूँ     परदेश   विहार।
पहनूँ  फूलों  के  हार मैं।।3

तन से दिमाग से  काम नहीं,
जो कहता हूँ वह काम सही,
बस   रसना    का   व्यापार।
पहनूँ   फूलों   के  हार  मैं।।4

कँगले से  करोड़पति  बनना,
पैदल  से हेलीकॉप्टर चढ़ना,
लगते  हैं  पाँच   ही    साल।
पहनूँ    फूलों   के हार मैं।।5

देता  नहीं  केवल   लेता  मैं,
सौ-सौ  झूठों   का   नेता  मैं,
सहस्रों    की    लगी  कतार।
पहनूँ   फूलों  के  हार  मैं।।6

आश्वासन कितने  दिलवा लो,
चमड़े की जीभ से कहवा लो,
मुख   से   बहती   है  बयार।
पहनूँ  फूलों   के   हार   मैं।।7

कहते   हैं  नोट   बरसते   हैं,
एम ए  डी लिट् भी तरसते हैं,
यहाँ   ऋतु    है    सदाबहार।
पहनूँ   फूलों   के   हार  मैं।।8

दस -दस  पीढ़ी  का इंतज़ाम,
नेता  मंत्री  का   यही    काम,
सब     धन्धे      हैं    बेकार ।
पहनूँ  फूलों   के    हार  मैं।।9

सी एम, पी एम    बन जाऊँगा,
अच्छे  - अच्छों  को नचाऊँगा,
मेरे    मन    की  यही   पुकार ।
पहनूँ    फूलों   के   हार  मैं।।10

यहाँ   नाम  और  नामा  भी है,
सूट - बूट    पायजामा    भी है,
"शुभम" बदलो रूप हज़ार।
पहनूँ   फूलों   के   हार   मैं।।11

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

बाल आकांक्षा

[ बाल गीत]
माँ मेले   में   जाऊँगा।
चाट-पकौड़ी  खाऊंगा।।

चाट-पकौड़ी मिर्च  पड़ी
इससे  अच्छी है  रबड़ी।
पहले चाट   मैं  खाऊंगा
फिर रबड़ी ले आऊंगा।।
माँ मेले में ....

मेरे   खिलौने   टूट गए 
गुब्बारे   भी    फूट  गए।
दो चार खिलौने लाऊँगा
दोस्तों के संग जाऊँगा।।
माँ मेले में ....

आज नहीं तुम कल जाना
पापा  को संग   ले जाना।
मैं साथ   तुम्हारे  जाऊँगा
घूमूँगा   और   घुमाऊंगा।।
माँ मेले में ....

पापा झूला नहीं झुलायेंगे
कहते हैं  वे   गिर  जाएँगे।
माँ तुमको भी झुलवाऊंगा
कार में   सैर   कराऊंगा।।
माँ  मेले में ....

तुम पैसे  कहाँ से  लाओगे,
कैसे   मेले    जा   पाओगे।
अपनी गुल्लक   तुड़वाऊंगा
पर साथ   तुम्हारे  जाऊँगा।।
माँ मेले में ...

💐शुभमस्तु !

✍🏼© रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप शुभम

मक्खन से गोबर सजा

1
चौकीदार सोता रहा, माल ले गए चोर।
'ले गए अरबों ले गए ', मचा देश में शोर।।

2
दाद बुद्धि की दीजिए, बंदिश एक हज़ार।
दो सहस्र का पिंक  रंग, काले धन का द्वार।।

3
काला धन-पालक कहे, छिपा विदेशी बैंक-
काला धन सब लाएँगे, ऊँची होगी रैंक।।

4
तीस दिनों में बीस दिन, घूमा दूर विदेश।
काला धन लौटा नहीं, रहा टापता देश।।

5
उन्हें दिखाने के लिए , कर लो मित्रो ढोंग।
मक्खन से गोबर सजा,(चाहे) रहो पोंग के पोंग।।

6
बड़ी -बड़ी बातें करो, रहे ढोल में पोल।
नमक लगा रोटी भखो, चढ़ा रहे बस खोल।।

7
अमरीका से बढ़ हुआ, लगा मूर्ति निज देश।
थोथ प्रदर्शन ही उचित, ये अपना संदेश।।

8
बातों में क्या खर्च है, मारो बढ़-बढ़ डींग।
झूठ आँकड़े पेश कर, रहो चलाते सींग।।

9
अक्लवन्द मुझसे बड़ा, लिया नहीं अवतार।
महारथी मैं झूठ का, भला करें करतार।। 

10  
अमरीका में ट्रंप नहिं, यहाँ भी रहता ट्रंम्प।
जादू की लकड़ी घुमा, चाहे ऊँची जम्प।।

11
जनता तो बस भेड़ है, जाए अंधे कूप।
"शुभम" इशारा बहुत है,धूप कहो तो धूप।।

💐शुभमस्तु !

✍🏼© रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रविवार, 11 नवंबर 2018

चाची कह चौका घुसें

[दोहे]
1
सेवक से स्वामी बना, स्वामी से भगवान।
झूठ दिखावे में मगन, सियासती इंसान।।
2
हँड़िया बनी जो काठ की, चढ़े न दूजी बार।
ख़ाक हुई एक बार में, कौन नहीं बेजार।।
3
औऱ करे तो ग़लत है, इनकी करनी ठीक।
मूर्ति -विरोधी तब रहे,अब जो कर दी नीक।।
4
सभी लुटेरे चोर ठग, लगा रहे दरबार।
अंधभक्त पीछे चलें,लंबी लगी कतार।।
5
जाति धर्म में बाँटकर, मुख से बोलें राम।
पीछे -पीछे भेड़ हैं,  आगे नेताराम।।
6
ऊँची दीवारें लगा,हृदय बाँटते रोज़।
आग लगा ग़ायब हुए, ढूढ़ें मिले न खोज।।
7
जमालो के वंशज सभी,करते नित्य कमाल।
अग्नि शमन ले दौड़ते, दंगा और बवाल।।
8
सावधान इनसे रहो, चौकीदार महान।
चाची कह चौका घुसें,इनकी ऐसी बान।।
9
मुख में कुछ दिल और कुछ, राजनीति की जान।
कथनी मीठी खांड-सी, करनी जीरा धान।।
10
गऊ माता इस ओर है, बहू माता उस ओर।
एक तराजू में रखें, ये ठग कपटी चोर।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

बुधवार, 7 नवंबर 2018

झाँकी नेताधाम की

आओ   बच्चो   तुम्हें दिखाएँ
झाँकी      नेताधाम       की ।
इस मिट्टी से तिलक न करना
मिट्टी      है        बेकाम की।।
ये नेता बेशरम ये नेता बेधरम!

पूरब   से  पश्चिम   तक  देखो
नेताओं     का     जलवा   है।
उत्तर से   दक्षिण   तक छाया
हल्लागुल्ला      बलवा    है।।
चूसा  जाता  है   जनता   को
यहाँ  रोज  हर  रात औ' दिन।
मजबूरी   का   लाभ   उठाया
जाता  बच्चो  हर  पल छिन।।
आश्वासन   तो  ऊँट   सरीखे
मदद  जीरे - सी   नाम    की।
इस मिट्टी से तिलक न करना
मिट्टी    है      बेकाम     की।।
ये नेता बेशरम ....

ये   है  अपनी  लखनऊ नगरी
नाज़    इसे       नेताओं   पर।
ठाठ  नवाबी    बाट    नवाबी
श्वेत   वसन    लेताओं    पर।।
दारुलशफा  और  सचिवालय
में    दलाल       शोभा   पाते।
सेवा    में   तत्पर   जनता के
भैंस    सहित   खोया  खाते ।।
सदा जागृत   लखनऊ  नगरी
ज़रूरत   नहिं    विश्राम की।।
इस  मिट्टी से तिलक न करना
मिट्टी      है      बेकाम   की।।
ये नेता बेशरम....

देखो    लगा      मुखौटे   नेता
वोट       माँगने      आते    हैं।
पाँच  साल तक दिखे न चेहरा
आने     में       शरमाते    हैं।।
किस मुँह से जनता बिच जाएँ
'पानीदार'       बड़े        नेता।
मौसम आता  जब  चुनाव का
 दिया   वचन   बिसरा   देता।।
नाम  न   होगा   क्या   उनका
फ़िक्र    नहीं     बदनाम  की।।
इस मिट्टी  से तिलक  न करना
मिट्टी    है      बेकाम      की।।
ये नेता बेशरम....

'भाईचारा'     अगर    सीखना
तो    सीखो       नेताओं    से।
जाति - बंधु  की  सेवा  करना
 इन    सेवा - दाताओं     से।।
जेब गर्म  निज  भरी  तिजोरी
यही    देश   हित   सेवा   है।
वे  भी   भारत  के 'सपूत ' हैं
खानी      काजू     मेवा   है।।
पेंशन जितनी बार विधायक
मिले      मलाईधाम       की।
इस मिट्टी से तिलक न करना
मिट्टी    है      बेकाम    की।।
ये नेता बेशरम...

मज़हब   धर्म की रार छेड़ना
वोटर  -  बैंक    बढ़ाता    है।
अपना  इन्हें  समझने वाला
ख़ुद   मूरख   बन  जाता है।।
बात  जोड़ने  की  करते  हैं
भग्न   एकता   जनता   की।'
'फूट डालकर राज करो' बस
नीति   यही   है   नेता   की।।
नाम   राम का   ले   लेते  हैं
फ़िक्र   नहीं  राम धाम की।।
इस मिट्टी से तिलक न करना
मिट्टी    है      बेकाम   की।।
ये नेता बेशरम...

काला   अक्षर    भैंस  बराबर
आई ए एस    पर  शासन  है।
कथनी करनी अलग अलग ये
नेता    का   अनुशासन    है।।
भाषण  झूठे   आश्वासन   से
जनता    को    ठगते   रहना।
मुँह में राम   बगल  में  छोरी
राम -  राम    जपते   रहना।।
सदा    दिवाली    रंगीं   रातें
किशमिश  काजू बादाम की।
इस मिट्टी से तिलक न करना
मिट्टी      है    बेकाम    की।।
ये नेता बेशरम...

याचक   से     दाता  बन जाए
उसको       नेता    कहते    हैं।
चेहरे   बोल   बदल  कर  आये
अभिनेता     उन्हें    कहते   हैं।।
देता    जो     सनदें   चरित्र की
जिसका   कोई    चरित्र   नहीं।
जनता  से    तनजा    की यात्रा
का    कोई      भी   चित्र   नहीं।
कोई परिश्रम शुभम करे क्यों
जब    तक   मिले   हराम  की।।
इस  मिट्टी  से तिलक  न करना
मिट्टी       है      बेकाम    की।।
ये नेता बेशरम !ये नेता बेधरम!!

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

दीवाली हायकू

1
'दिए' की दीवाली 
ज्योति भी निराली
तम दूर हो गया।

2
दिये से दिया जला
हिये से हिया मिला
बस हो गई दीवाली।

3
तम      न     तुम 
हम    स भी   हम
एकता  के सूत्र में।

4
तम के लिए दिया
न कुछ  भी लिया
यथानाम तथागुण।

5
दिया  ही   दिया
इसीलिए  जिया
अंधकार नाशी है।

6
छत की मुँडेर पर
झिलमिलाते अँधेरे घर
दीपों की पंक्तियाँ।

7
धुआँ ही धुआँ 
इधर खाई उधर कुआँ
प्रदूषण है पटाखों का।

8
कानों को फोड़ता
शांति को तोड़ता 
शोर ये पटाखों का।

9
हिल उठी दीवारें 
पड़ गईं दरारें
पटाखा विस्फोट से।

10
खील भी बताशे भी
खांड के खिलौने भी
खीर पूड़ी औ'मिठाईयां।

11
कुमकुम धूप अगरबत्ती
मुस्कराती मोमबत्ती
वंदनवार द्वार सजे।

12
श्रीगणेश लक्ष्मीजी पूजन
माँ विद्याविधात्री का अभिनंदन
दिवाली  मनभाई है।

13
उलूक लक्ष्मी वाहन है
मूषक गणेश मनभावन
हंस पर माँ शारदा।

14
फूल वंदनवार हैं
सजे सब द्वार हैं
आँगन में रंगोली।

15
गंगा  की  लहरों  में
गाँवों में    शहरों  में
झिलमिलाए  डीप दल।
💐 शुभमस्तु !

✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

...तो दीवाली है

अँधेरा दिलों का मिटा लो तो दीवाली है,
उठी ऊँची  मीनारें गिरा लो तो दीवाली है।

ये जातियाँ ये मज़हब सभी दीवारें हैं,
इन्हीं दीवारों को हटा लो तो दीवाली है।

करोड़ों तारे  हैं दो  चाँद सूरज हैं ,
इनका उजाला भी पा लो तो दीवाली है।

ये जलते हुए दीपक भी बड़े सुहाने हैं,
इनसे ही सबक पा लो तो दीवाली है।

यहाँ तो दिन में भी अँधेरा है छाया, 
दिन में भी उजाले  डालो  तो दीवाली है।

रौशनी देने में भेद नहीं करता है दिया,
दिए जाने की समझ पा लो  तो दीवाली है।

मकड़ियों के जाले से अधिक जाले दिल में,
"शुभम" दिली जाले जला लो तो दीवाली है।।

शुभमस्तु!
तमसो मा ज्योतिर्गमय

✍©रचयिता 
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

आओ बच्चो दिये जलाएँ

[बाल गीत]
आओ बच्चो दिये जलाएँ,
अँधियारे  को  दूर  भगाएं।

ज्योतिपर्व   दीपावलि आई,
खील खिलौने खुशियाँ लाई।
पूड़ी    खीर   गुलगुले  खाएँ,
आतिशबाजी   नहीं  कराएँ।।
आओ बच्चो.....

स्वच्छ हुआ घर कोना - कोना,
बीज  प्रेम   आदर  के  बोना।
रंगोली     से    द्वार    सजाएँ,
उन  पर   घी  के दीप जलाएँ।।
आओ बच्चो.....

घर  बाहर  छत  और दीवारें ,
दीप  जलाओ      वन्दनवारें ।
गली - मोहल्ले   खुशी मनाएँ,
ज्योति -रश्मि से बच ना पाएँ।।
आओ बच्चो .....

देखो    कैसी    सजी   दीवारें,
ऊपर -  नीचे     हैं    उजियारे।
मावस  का  तम    दूर  भगाएँ,
उनके    द्वारे     दीप   जलाएँ।।
आओ बच्चो.....

मम्मी   ने    नये   पहने  गहने,
हम तुम नये वस्त्र   अब पहनें।
खुशियाँ   बाँटें    खुशी  मनाएँ,
मंगल - गीत  ज्योति  के गायें।।
आओ बच्चो.....

नहीं   भूलना    श्रीगणेश   को,
विद्यादात्री      सरस्वती     को।
गणपति - शारद  आशीष पाएँ,
उर -अंधियारा आज मिटायें।।
आओ बच्चो...

लक्ष्मी जी   का   पर्व  दिवाली ,
पूजन   किया  आरती  गा ली।
मात-पिता  का  आशीष  पाएँ,
चरण छुएँ नत - नत हो  जाएं।।
आओ बच्चो....

शुभमस्तु !
✍© रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

सोमवार, 5 नवंबर 2018

धन धन्वंतरि त्रयोदशी

[ दोहे]
     धन की महिमा का करूँ,
     मित्रो    आज    बखान।
     आँख   मूँदकर    दौड़ता ,
     पीछे     सकल    जहान।।

    धन - अर्जन  के  हैं बहुत,
    साधन    सुलभ    अनेक।
    धवल-श्याम    राहें   बनीं 
    खोना     नहीं     विवेक।।

    ठग  नेता  और  चोर  के,
    साधन    अनुचित  गुप्त।
    चिकने    चेहरे   चमकते ,  
    जनता -  जन   उपभुक्त।।

    विद्या -धन   है     श्रेष्ठतम,
    चुरा   न      पाए      चोर।
    बाँट  न   पाए     बंधु   भी ,     
    जीवन     का     सिरमौर।।

    बिना ज्ञान - धन  सब वृथा,
    पशु -  मानव    सब   एक ।
    पल-पल वांछित मनुज को,
    निर्मल      ज्ञान  - विवेक।।

    संतति -  धन  की   चाह में,
    विकल    रहें      नर - नारि।
    सत-संतति   ही सफल धन,
    वरना     गदला        वारि।।

    स्वास्थ्य   श्रेष्ठतम  धन सदा,
    स्वस्थ   रखें      निज    देह।
   आयुर्वेद   के    जनक   प्रभु,
   धन्वतरि             निःसंदेह।।

    स्वस्थ   नहीं   हो  देह यदि ,
    मन    भी     हो   अस्वस्थ ।
    धन का  क्या    उपयोग   है,
    मानव -  धन   तन  स्वस्थ।।

   कन्या -  धन  से   मनुज की,
   सदा       सुरक्षित      योनि।
  *"शुभम"* करें    रक्षा  सदा,
    सर्वश्रेष्ठ          नर -  योनि।।

   शुभमस्तु !
✍©रचयिता 
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम "

करवा चौथ

आज करवा चौथ 
भाए ना सौत 
दोनों के बीच में।
तू मेरा चाँद
मैं तेरी चाँद
मध्य जगमग है चाँदनी।

३ 
निर्जला व्रत
अटल मेरा सत
आजीवन रातदिन।

पाँवों में  लाल लाल
अधरों का हास लाल
माँग भरी सिंदूरी।

दीर्घायु की कामना
प्रणय मम पावना
सात -सात जन्म तक।

आशा और विश्वास दृढ़
एक से एक बढ़ 
हम दोनों के बीच में।

प्रीतम ही उपहार मम
जीवन का सार मम 
जन्मांतर का संग है।

मैं पति का शृंगार
मैं उसके अनुसार
यह सद गार्हस्थ है।

बंधन नहीं प्यार है
न ओछा विचार है
मेरी बगिया का माली वह।
     
१०
एक व्रत एक पूजा
कोई और नहीं दूजा
मेरे आसमां का चाँद वह।

११
मेरी एक धारा है
पति ही किनारा है
आब और आबरू।

१२
पति मेरी स्वाति है
पपीहा मेरी जाति है
जीवन -आराधना।

१३
आसमां का चाँद वह
धरती का चाँद  यह
जगमगाती मैं चाँदनी।

१४
साध्य  मैं पति साधना
क्यों किसे फिर बांधना?
पूरक हैं एक दूजे के लिए।

१५
पति -पत्नी से संसार है
गार्हस्थ ही उपहार है
सृष्टि-संचालन के हेतु ही।


शुभमस्तु!
✍©रचयिता 
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...