सोमवार, 31 जनवरी 2022

ये भारत महान है 🇮🇳 [ मनहरण घनाक्षरी ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                        -1-

तेग  ने  हुंकार  भरी,  शत्रु - सेन   भय भरी,

देह  कँपी  थरथरी  ,देश  की ये शान     है।

रोता है नापाक पाक,उड़ती जो तेरी खाक,

काट  दी है  तेरी  नाक,भारत में  जान  है।।

इतराना भूल जाए, माँग -माँग भीख  खाए,

बचने  न  नीच  पाए, हुआ नहीं  भान    है?

पहल  हमने  न  की, छोड़ेंगे नहीं  जीते  जी,

जो  दृष्टि  फिर वक्र  की,भारत  महान  है।।

                        -2-

सम्मान  आन  शान से,साहस पहचान  से,

जवान से  किसान से, विश्व हमें   जानता।

विज्ञान  ज्ञान उच्च  है,रंधीरता प्रत्यक्ष   है,

समीप   तेरे  मृत्यु  है, मूढ़  रार   ठानता।।

इतिहास ने सिखाया,पंथ जीत का दिखाया,

श्रम -अन्न कमा खाया,डींग भी  न  तानता।

फहराएगा    तिरंगा, लहराएँ गीत  -   गंगा,

कोई हो न भूखा  नंगा, देश की   महानता।।

                        -3-

टेढ़ी  कुदृष्टि  तू करे,अकाल मौत  ही   मरे,

हरे! हरे!! हरे !हरे!!,पाक मूढ़  मान जा।

छद्म तव  कुचाल से,दाढ़ी बढ़ी  विशाल  से,

पतित  पात  डाल से,  भिज्ञ हम  जान जा।।

पीछे हटा!पीछे हटा!!,भू धूल से  मत सटा,

कुछ  भी  नहीं  तेरा बँटा,हिंद पहचान  जा।

प्रभु   भक्त है  'शुभम',पीछे नहीं   है  कदम,

क्रूर  पाक   नीच थम,नापाक अज्ञान   जा।।

                        -4-

गीदड़ों  से क्या लड़े, अधीर पाँव  में   पड़े,

विष  कपट  के घड़े,समान वीर     चाहिए।

गह  लिए  हाथ  बम,हस्त में न लेश    दम,

जानें  नहीं  हमें  कम,संगीन धीर  चाहिए।।

गूँजा    वंदे   मातरम , नेत्र नहीं   भीत  नम,

ये     तिरंगा    परचम,   शमशेर     चाहिए।

पवित्र  राष्ट्रगान है,ये आन बान   शान    है,

भारत   ये   महान  है, नीर - क्षीर   चाहिए।।


🪴 शुभमस्तु !


३१.०१.२०२२◆४.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।


सजल 🪦


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

समांत : 'आ'।

पदांत: है।

मात्राभार:14.

मात्रा पतन: शून्य।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

मनुज   जो   होता   भला  है

कर्म  शुभ  उसका   फला  है


मन,वचन शुचि  कर्म  जिसके

सुमनवत  महका    खिला  है


साँप    है  तो      नेवला   भी

काटने    उसको    चला    है


शूल  के   सँग    पुष्प  पाटल

खिलखिलाता  नित  पला है


उषा  रवि -  कर  ने   निरंतर

जगत के   तम   को  मला है


सिंधु   का   आधार    धरणी

गहनतम निधि   का  तला है


'शुभम'  जीवन  को   बनाना

सत्पुरुष  की  नित  कला है


🪴 शुभमस्तु !


३१.०१.२०२२◆१०.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

रविवार, 30 जनवरी 2022

ग़ज़ल 🙈


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🙈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

क्यों    किसी        रंग     में !

क्यों      किसी     संग    में!!


झूमते         हम         सदा,

शब्द     की      तरंग      में।


डुबकियाँ        लगा      नहा,

बह         रही       गंग     में।


पंक      -      आकंठ     जो,

जीत        की       चंग     में।


डूब    जाएँ      और    सब ,

मति      मत  -   उमंग    में।


नीतियाँ       विलुप्त        हैं,

सियासत       -    भंग     में।


बोनटी   -      ध्वज     सजा,

इस        चुनाव  -  जंग   में।


दशक        अष्ट        वसंत,

ज्वार     अंग   -   अंग    में।


सीख     दें      वे    'शुभम',

स्वयं          बेढंग         में।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०१.२०२२◆५.१५ 

पतनम मार्तण्डस्य।


जीवन की रेल 🚉 [ दोहा गीतिका ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

◆■◆■

दिन से दिन ऐसे जुड़े,ज्यों डिब्बों की  रेल।

दिन होते सब मेल ही,नहीं कभी  फीमेल।।


दिन  के  पीछे  रात है, दोनों का नित  संग, 

बिना दिवस के रात क्यों,यही नित्य का खेल


एक-एक कर बीतते,पल -पल दिन या रात,

बूँद -  बूँद  कर  रीतता, भरा घड़े   में  तेल।


रवि-कपोल पर हाथ रख,उषा जगाती नित्य,

हर्षित हो रवि जागता, ले किरणों  का भेल।


मौन बना  चलता रहे, प्रातः से चल   शाम,

चमके ऊपर शून्य में,दिया तमस को  ठेल।


पल -पल का उपयोग कर,करना है कर्तव्य,

वृथा बिताना ही नहीं, क्यों करता अवहेल।


बचपन यौवन प्रौढ़ता, जीवन के   बहु रंग,

'शुभम'प्रीति के भाव से,बनता जीवन गेल।


*भेल= बेड़ा, समूह।

*गेल = सुंदर स्त्री। (भाव: नारीवत सुंदर )


🪴शुभमस्तु !


३०.०१.२०२२◆६.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।

शनिवार, 29 जनवरी 2022

वृद्ध का आलाप 🧑🏻‍🦯 [ कुंडलिया ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                        -1-

हमको  अब  लगने लगा,बना बुढ़ापा मीत।

 भरा -भरा खाली लगे,गया गात यह  रीत।।

गया  गात   यह  रीत, प्रौढ़ता बीती    सारी।

रहा न  यौवन   शेष,लगीं तन में   बीमारी।।

'शुभम'फूलती साँस,उजाला समझे तम को।

चौथेपन का पाँव,निकल आया  है  हमको।।

                        -2-

पहले तन में शक्ति थी,यौवन जिसका नाम।

तन की ताकत घट रही,जीवन की  है शाम।।

जीवन  की  है  शाम, शेष  हैं अनुभव  सारे।

सुनते  युवा न  बात, सुता या पुत्र    हमारे।।

'शुभम' दे रहे सीख, मार नहले  पर  दहले।

बदला है युग आज,वही अब हमसे   पहले।।

                        -3-

देकर   सौगातें    सहस,  गेह बनाई    देह।

बचपन,यौवन , प्रौढ़ता, नर- जीवन के मेह।।

नर - जीवन  के  मेह,वसंती ऋतु  सरसाई।

जुड़ा  काम  से नेह,करी करनी   मनभाई।।

'शुभम' खिले जब फूल,सुगंधें पावन   लेकर।

दिए नहीं कटु  शूल,जिया अपने को  देकर।।

                        -4-

मेरे  तन   में  वेदना ,सता रही दिन -   रात।

कभी पीर घुटने करें,कभी कमर  में  वात।।

कभी  कमर में  वात,टीसती दिन भर ऐसे।

चुभते   हैं  बहु  शूल,धतूरे के फल    जैसे।।

'शुभम' बुढ़ापा   मीत, दे रहा कष्ट    घनेरे।

भूल  गया  सब  ज्ञान,द्वार पर बैठा     मेरे।।

                        -5-

कविता  माँ की गोद में, विस्मृत  वृद्धालाप।

वही  पिता ,माता वही, वही ईश  का  जाप।।

वही  ईश  का   जाप ,साठ वर्षों    से    मेरा।

उर का वहीं  निवास ,सबल बाँहों   ने  घेरा।।

'शुभं'काव्य मम सोम,काव्य ही  मेरा सविता

प्रसरित भव्य प्रकाश, सँजीवनि हिंदी कविता


🪴 शुभमस्तु !


२९.०१.२०२२◆२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

बचपन ही बचपन को ढोये 🥏 [ चौपाई ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

👮‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

बचपन  ही  बचपन   को ढोये।

देख  दृश्य   मन  मेरा   रोये।।

बँधा पीठ  शिशु  अपना भाई।

चारे   का   गट्ठर   ले    आई।।


सात वर्ष   की   छोटी  बाला।

नहीं जा सकी   पढ़ने शाला।।

दायित्वों   का   बोझा   भारी।

ढोती तन  पर   वह   बेचारी।।


देख  दशा   मानवता    रोती।

बचपन को बोझों  में  खोती।।

घर का   हाल  बताएँ    कैसे।

बालक हैं   भारत   में   ऐसे।।


जो विकास का   खाते चारा।

दायित्वों  से   करें  किनारा।।

नेता   ये   भारत    के   झूठे।

व्यर्थ   तानते    ऊँचे    मूठे।।


जो समाज   सेवी   कहलाते।

बच -बचकर  ऐसों   से जाते।

क्यों ऊँचा   करते  हो   झंडा।

'शुभम' झूठ  सेवी का फंडा।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०१.२०२२◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

कवि गिरोह से जो बचे 🍬 [ दोहा - गीतिका ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपने गुरु की 'पूँछ'जो,सुघड़ नाक के  बाल।

 नित  मूँछें  ऊँची करें, करके ऊँचा   भाल।।


गुरु की महिमा शिष्य से,बढ़ा शिष्यगण भीड़

उत्तम होता गुरु वही,चमके तन  की  खाल।


धर्म, सियासत में बढ़े,बड़े-बड़े पटु   शिष्य,

खेतों  में   साहित्य  के,कागा बने   मराल।


कविता  यों  उगने  लगी,  जैसे  खरपतवार,

नाम रखा कविवर शुभम, ठोंक रहे हैं ताल।


सौ   चेले   आगे  चलें,   पीछे खड़े     हजार,

वाह!वाह!ध्वनि गूँजती,बदली गुरु की चाल


कवि-सम्मेलन-मंच पर,औरों को कर  हूट,

गुरु - ग्रीवा  को हार से,करते माला - माल।


जैसे  डाकू   चोर  के  ,बनते बड़े    गिरोह,

कवि - गिरोह बनने लगे,करते मंच   धमाल।


कालिदास तुलसी सभी,होते कवि यदि आज

सिर अपने नित पीटते,बैठ इम्लिका   डाल।


ताली  थाली  लोलुपी, हुल्लड़बाज   अनंत,

हा-हा  ही- ही  मंच पर,जोरों की   करताल।


क्लिष्ट काव्य के प्रेत भी,मिलते हैं  दो - चार,

कोई  समझे या  नहीं,चलें  हंस  की  चाल।


कवि गिरोह से जो बचे, भाग्यवान वह  मीत,

'शुभं'अकेला जो चला,फँसता क्यों वह जाल


🪴शुभमस्तु !


२९.०१.२०२२◆९.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

गीतिका 🦋

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🦋  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

देश   खूँटों  में   सिमटकर  रह    गया।

आदमी   उनसे  लिपटकर  बह  गया।।


अस्मिता ,  गौरव    सभी  जाने    लगे,

गालियों   को मंत्र   कहकर  सह  गया।


खूँटियों    पर   टाँग     दी    हैं  नीतियाँ,

चापलूसी       से    चिपककर लह गया।


छोड़कर सत  का   कठिनतम राजपथ,

असत    में सपना सुलगकर कह गया।


पेड़   को    साया    सघन   ही  चाहिए,

वेदना  की  आग   पलकर  दह   गया।


मुक्त   होने    की   नहीं  चाहत  कभी,

खूँटा - पुराणों   उलझकर  ढह   गया। 


आज   खूँटा   -   पर्व    की वासंतिका,

गीतिका में 'शुभम' पतझर कह   गया।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०१.२०२२◆१०.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

खूँटाचार संहिता | [ व्यंग्य ]

 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

              आज हम सभी 'खूँटा- युग' में साँस ले रहे हैं। प्रत्येक किसी न किसी खूँटे से बँधा हुआ है।जैसे रसायन विज्ञान में किसी पदार्थ की भौतिक रूप से पहचान करने के लिए देखकर (आँखों से) ,छूकर( त्वचा या कर स्पर्श से),सूँघकर (घ्राण से) औऱ रस अथवा स्वाद लेकर (रसना से) परीक्षा की जाती है। उसी प्रकार इन खूँटों की भौतिक परीक्षा का भी प्राविधान है।पहले इन्हें दोनों आँखों से भलीभाँति देखना पड़ता है (यदि आँख एक भी हो ,तो भी चलेगा)।इससे खूँटे का रँग,रूप,आकार आदि का पता चल जाता है। यदि आँखों /आँख से देखने पर भी पूरी जानकारी न हो ,तो इन्हें हाथ से या जिस प्रकार से भी छू सकें ; छूना पड़ता है। इससे खूँटे की कोमलता- कठोरता,चिकनाहट- खुरदरापन, शीतलता - उष्णता ,गड्ढायुक्त - गड्ढामुक्त आदि तथ्यों का ज्ञान हो जाता है।देखने और छूने के बाद बारी आती है खूँटे को अपनी घ्राणेन्द्रिय से सूँघने की। इससे उसकी सुगंध किंवा दुर्गंध का अभिज्ञान हो जाता है । साथ ही यह भी पता चल जाता है कि उसकी उस गंध का प्रसार कहाँ तक है।यह उसके विस्तार की परीक्षा है। अब शेष रहता है ;खूँटे को चखना । रसना से स्वाद का परीक्षण हो लेता है।खूँटे की मधुरता ,कड़वाहट, तिक्तता, आदि षटरस का बोध कर लिया जाता है।

 खूँटे के चतुर्विध परीक्षणोपरांत उसके चयन /बंधन की बात सामने आती है। यदि वह खूँटे से बँधने वाले पगहे से जुड़ने का निर्णय लेता है ,तो 'जुडोत्सव' का शुभ मुहूर्त, स्थान आदि का निश्चय करके जुड़ लिया जाता है। इतने विधि -विधान के उपरांत ही कोई खूँटे से बँधता है । 

 इन विशिष्ट खूँटों का स्वरूप स्थूल खूँटों की तरह नहीं होता। स्थूल खूँटे एक ही स्थान पर जड़ और स्थिर होते हैं।इसके विपरीत ये विशिष्ट खूँटे चलायमान, उड़नशील औऱ गतिमान होते हैं। ये बात अलग है कि इन सबकी गति एक समान नहीं होती।अलग -अलग गति ,मति और रति से सुशोभित ये खूँटे अपने हर तौर - तरीके में भी विशिष्ट ही होते हैं।ऊँचे,लंबे ,ठिगने,मोटे, चिकने, खुरदरे , ठंडे ,गरम आदि बहु रूप और आकार प्रकार के होते हैं।खूँटों के द्वारा सौदेबाज़ी भी की जाती है और बँधने वालों को खरीदा जाता है , बेचा नहीं जाता ,क्योंकि इनसे उनके आकार - प्रकार का रूप हलका- भारी हो सकता है।कोई भी खूँटा कभी हलका या पतला नहीं होना चाहता।सर्वत्र चलायमान ये खूँटे सदैव जागरूक और जागृत अवस्था में विचरण करते हुए रहते हैं।खूँटों ने कभी रुकना और थमना नहीं सीखा।उनके गौरव औऱ गुरूर का यही सबसे बड़ा कारण है।

  अब आप यह भी पूछेंगे कि ऐसा कौन है , जो किसी खूँटे से नहीं बँधा है? जहाँ तक मेरी शोध - दृष्टि जाती है , हम सभी खूँटों से बँधे हुए मदमत्त हैं। कोई खूँटों में व्यस्त है ,कोई मस्त है और कोई- कोई पस्त भी है।किसी -किसी को खूँटे ध्वस्त भी किए दे रहे हैं। पर मजबूरी है उनकी कि वे उनसे बँधकर भी आश्वस्त हैं। जाएँ तो जाएँ कहाँ। उनके लिए कहीं भी भाड़ में शीतलता नहीं हैं। कुछ पात्रों को जीवन भर खूँटा बदलने में ही बीत जाता है। यहाँ तक कि उनका सब कुछ रीत जाता है।

  कोई पत्नी के खूँटे से बंधा है ,कोई पत्नी पति रूपी खूँटे के चारों ओर परिक्रमा कर रही है।कोई नौकरी या व्यवसाय के खूँटे में कोल्हू का बैल बना हुआ है।खूँटे को छोड़े तो इधर खाई उधर कुँआ है। कोई दलों के दलदल में आकंठ धंसा है।उसके लिए वहीं मजा ही मजा है।घुटन होने पर खूँटा छोड़ने को स्वतंत्र है। पुराने खूँटे को दस बीस गालियाँ सुनाकर , पचास - सौ कमियाँ गिनाकर पगहा तोड़ देता है औऱ रात को सोता है किसी छोटे से कक्ष में सवेरा किसी फाइव स्टार में होता है।गले का पगहा भी रँग बदला हुआ दूसरे रँग में नया होता है। इतना बहुत ही अच्छा कानून है कि कोई भी कभी भी पगहा तोड़ने के लिए स्वतंत्र है , लेकिन वह इतना मूर्ख भी नहीं कि असमय ही खूँटा बदल ले। पूरा -पूरा स्वाद लेने के बाद ही मति परिवर्तन करता है। इसका भी एक विशेष मौसम होता है। पाँच वर्ष में रस लोभी भौंरे की तरह वह रँग ,रस ,वेष, केश, परिवेश सब बदल लेता है। दूसरे खूँटे में पनाह ले लेता है। जिस पुराने खूँटे के गुणगान करते हुए थकता नहीं था , उसके नन्हें से छिद्रों को एक अँगुली से नहीं दोनों हाथों की दसों अंगुलियों से चौड़ा कर भाड़ बना देता है। कहता था जिनको गधा औऱ सुअर ;उन्हीं गधा - सुअरों को बाप के आसन पर सजा देता है।इस माँस की जीभ का भी क्या भरोसा ? चक्कर खा ही जाती है। इस खूँटे से निकल उधर लिपट जाती है। खूँटा वही भला , जहाँ मिले माल मलाई। इसी में तो है बँधने वाले पात्र की भलाई।जमुना गए तो जमुनादास,गंगा गए तो गंगादास। जहाँ आस ,वहीं चले साँस। मिटता है अँधेरा फैलता है प्रकाश।

 खूँटों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है।इस संस्कृति के बीच अपने को बनाए रखना, खट्टे - मीठे स्वाद चखना,सिर से लेकर टखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।जो स्ववश या परवश हम सबको शिरोधार्य है। मानने लगे हैं लोग कि आज जीने के लिए यह भी अनिवार्य है।खंभों से जुड़ने ,सटने ,चिपकने तथा उन्हें लपकने वालों की कई श्रेणियाँ हैं।चमचे,भक्त, पिछलग्गू, नेता, राजनेता औऱ उनसे भी ऊपर तंत्री आदि। सबका एक ही परिवार है। कुछ के हाथों में तो कुछ के गले में हार औऱ हाथों उपहार हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि सावन है ,भादों है या क्वार है ! ये सब तो अब सदाबहार है।फूलों की खुशबू औऱ इत्र की फुहार है।कभी हेलीकॉप्टर है तो कभी कार है। गली -गली ,शहर -शहर खूँटों की भरमार है।इन सभी खूँटों को अपने चहेतों/चहेतियों से अति प्यार है।खूँटा-संस्कृति का भी अपना एक खुमार है। 

 आइए ! हम सभी खूँटों की संख्या को घटाएँ। अपनी - अपनी महत्त्वाकांक्षा को को न छटपटाएँ ।देश का भी कभी भला सोचें।सोचें ही नहीं, करें भी। क्योंकि देश है ,तभी हम हैं। अन्यथा तैयार उधर बम हैं।ये कहने से कुछ नहीं होगा कि हम क्या किसी से कम हैं ? ईंट का उत्तर पत्थर से देना होगा। तभी हमें इस को अपना कहना होगा। इन खूँटों की क्या ?इन्हें तो जमीन चाहिए। उसे तो भक्त अपने सिर पर भी गाढ़ लेंगें। पर इस देश को बँटवारे की आग में पसार देंगे।हम सब एक हो जाएँ औऱ एक मजबूत भारत का निर्माण कर जाएँ ,ताकि हमारी आगामी पीढ़ियाँ हमारे गुण गाएँ।

 🪴 शभमस्तु ! 

 २८.०१.२०२२◆ ११.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य। 


गुरुवार, 27 जनवरी 2022

खूँटा -बदल पर्व है आया 🐐 [ बालगीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

खूँटा -  बदल  पर्व  है  आया।

बकरा जी के मन को भाया।।


आओ  बकरी , भैंसें   आओ।

खूँटा बदलो  मौज  मनाओ।।

गायों को  भी  बहुत  सुहाया।

खूँटा - बदल पर्व    है आया।।


बकरा जी ने   तोड़ा   पगहा।

कहता सबसे  अच्छा गदहा।।

पगहा  तोड़ उधर को  धाया।

खूँटा - बदल  पर्व  है आया।।


गधा   खेत, घूरे   पर   चरता।

नहीं किसी  से है वह डरता।।

मुक्त   कूदता  ही   वह पाया।

खूँटा - बदल  पर्व  है आया।।


घुने   हुए  खूँटों  को   छोड़ो।

हो मजबूत उसी   से जोड़ो।।

दे पाए जो ठंडी शीतल छाया।

खूँटा - बदल  पर्व  है आया।।


सबकी अपनी  कीमत   होती।

बुद्धिमान को  मिलते  मोती।।

खूँटों ,पगहों   की   है  माया।

खूँटा - बदल  पर्व  है आया।।


अवसर गया न फिर से आता।

जो चूका फिर -फिर पछताता।

क्यों न 'शुभम'तुमने ठुकराया।

खूँटा - बदल   पर्व  है  आया।।


🪴 शुभमस्तु !

२७.०१.२०२२◆५.३०

 पतनम मार्तण्डस्य।


मतदान करें ! मतदान करें !! 👣 [ गीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

मतदान करें !  मतदान  करें!!

भारत  माता  का मान  करें।।


नायक ऐसा हम  आज  चुनें।

जनता की  बातें  सभी  सुनें।।

सुमधुर जनगणमन गान करें।

मतदान करें !  मतदान  करें!!


सब जो वयस्क  मतदाता  हैं।

भारत के भाग्य  विधाता  हैं।।

निज मत से दुःख विषाद हरें।

मतदान करें !  मतदान करें!!


मतमंगों   का   चरित्र   जानें।

इनको न मित्र   सच्चा मानें।।

सन्मति से यह  पहचान करें।

मतदान करें !  मतदान करें!!


अवसरवादी  ये   द्वार   खड़े।

जो आज तुम्हारे  चरण पड़े।।

भाषण पर   इनके  नहीं मरें।

मतदान करें !  मतदान  करें !!


आश्वासन  को   पहचानें हम।

कितना प्रकाश कितना है तम

छुट्टा   बनकर   जो  नहीं चरें।

मतदान करें!  मतदान  करें !!


सतपथ विकास  पर ले जाए।

नेता वह   अच्छा   कहलाए।।

उस नेता को   ही   सभी वरें।

मतदान करें !  मतदान करें!!


मतदाता  तुम्हीं   जनार्दन हो।

तुम ही सर्जक तुम सर्जन हो।

तारें भारत   सब 'शुभम' तरें।

मतदान करें ! मतदान  करें!!


🪴शुभमस्तु !


२७.०१.२०२२◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।


पगहा तोड़:खूँटा छोड़ पर्व! 😲 [ दोहा ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

ग्रीवा में  पगहा पड़ा, दिया गया  वह  तोड़।

तज खूँटे से  मोह को, उसे दिया है  छोड़।।


खूँटों   से  बदलाव   का,आया है   त्यौहार।

सोच -समझ निर्णय करें,होगा बेड़ा  पार।।


दीमक   खूँटे में  लगी, तजो शीघ्र   हे मीत।

सुदृढ़  खूँटा  ढूँढ़  लो, तभी तुम्हारी जीत।।


इस  खूँटे  में  क्या  रखा,सूख गई  है घास।

'चमनप्राश' चाटें चलो,मिले 'चयन'का ग्रास।


बन रेवड़ की 'भेड़' अब, चलना कितनी दूर।

हमसे   तो  गदहा भला, चरे घास   भरपूर।।


खूँटा - युग में जी रहे,बड़ा कठिन  है  काम।

कैसे  बँधने  से  बचें, राम न मिलते   दाम!!


खूँटों  से  लगभग  सभी, बँधे हुए  हैं  आज।

अवसर देखो तोड़ दो,पहनो सिर पर ताज।।


खूँटा -पगहे  का बड़ा,जटिल प्रेम -  संबंध।

हरी- हरी जब तक मिले,चरें बने मतिअंध।।


पगहा  जब  फंदा  बने, तोड़ फेंक   दें  दूर।

फिर से   नया  बनाइए,  लाभ मिले भरपूर।।


दाना-पानी  जब नहीं, लड़ामनी  में   शेष।

बँधें नहीं  जंजीर से,रख महिषी   का  वेष।।


जाल भ्रमों का तोड़कर,भागें प्रिय चुपचाप।

खूँटे  ही  खूँटे  खड़े,  पगहा तोड़ें   आप।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०१.२०२२◆६.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।


पगहा तोड़! 🪆 [ अतुकांतिका ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🚉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

मुंडी मुड़ा के

पगहा तुड़ा के

खूँटा बदल दिया,

पिछले खूँटे में

हजार दोष देखे,

अब तक तो झेले

किए भी गए अनदेखे,

अब देखे नहीं जाते, 

तो भला वे 

पगहा क्यों नहीं तुड़ाते!


लड़ामनी 

लगने लगी थी खाली,

बहुत ही देखी - भाली,

घुनने लगा खूँटा,

मालिक लगा 

निपट झूठा ,

अस्तित्व उनका लूटा,

रातों- रात में 

उन्होंने बदल डाला 

अपना खूँटा।


जब मिले  न

चारा - पानी,

लगने लग गया

सब कुछ  बेमानी,

बढ़ने लगी खींचातानी,

करने की कुछ

 हमने ठानी,

बदले रुख हवा के,

निकल लिए हम

अपना सिर झुका के,

दो चार कमी गिना के,

भ्रमजाल पूरा टूटा।


अवसर जो अपना चूका,

वह मूर्ख है समूचा,

जा पाएगा कभी न ऊँचा,

चुपचाप  ही निकलने में

अपनी भलाई है,

इसमें न कोई लोचा,

हुई भोर उधर पहुँचा,

पकड़ा नया खूँटा।


जड़ता उचित नहीं है,

सड़ता है

 रुका जो पानी,

आवश्यक है बदलाव भी,

बहते रहो, बढ़ते रहो,

पीते रहो

 नौ - नौ घाट का पानी,

यही तो है जिंदगानी,

बेपेंदी का लोटा।


कपड़े की तरह,

पुराना तजो,

नए को भजो,

मजे ही मजे,

फिर क्यों न

पिछला खूँटा तजो?

पगहे मजबूत मत चुनो,

जब चाहो तब

नया बदल सको!

फंदा न बन जाए पगहा!

इसीलिये तो मुक्त है

'शुभम' गदहा!

हा ! हा !! हा !!!


🪴 शुभमस्तु !


२६.०१.२०२२◆४.०० पतनम मार्तण्डस्य।


आज दिवस गणतंत्र का 🇮🇳 [ दोहा ]

 

[संविधान, गणतंत्र,तिरंगा, राष्ट्रगान,आजादी]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

       🇮🇳 सब में एक 🇮🇳

संविधान का दिवस है, दो हजार   बाईस।

बीस औऱ छः जनवरी, नमन राष्ट्र को सीस।।

संविधान निर्माण कर, दिया  देश को  मंत्र।

भीमराव जी  धन्य  हैं, बना संगठित   तंत्र।।


आज दिवस गणतंत्र का,जनता का है राज।

जनता ने चुनकर रखा,जन के ही सिर ताज।

दुनिया  में  सिरमौर  है,भारत का  गणतंत्र।

एकसूत्र की  माल  ये, राष्ट्र - एकता    मंत्र।।


नमन तिरंगा को करें,रखें उच्च  नित मान।

लहराता नभ  में रहे,घटे न इसकी    शान।।

प्राण निछावर कर दिए, बलिदानी  वे  वीर।

उसी तिरंगे को  नमन,करते   हैं  रणधीर।।


राष्ट्रगान के मान का, रखना ही  है  ध्यान।

ध्वनि जब कानों में पड़े,करें खड़े  हो  गान।।

राष्ट्रगान ही   मान  है,  राष्ट्रगान   ही  मंत्र।

गाएँ सब समवेत स्वर,'शुभम' देश गणतंत्र।।


अमर शहीदों को सदा, करते नमन प्रणाम।

आजादी जो  दे गए, वर्तमान   परिणाम।।

आजादी के  मान  में, करें न   कोई  भूल।

देखे  टेढ़ी  दृष्टि  से,दें उस अरि   को  शूल।।


        🇮🇳 एक में सब 🇮🇳


अमर तिरंगा देश का,

                     संविधान है    शान।

आजादी  गणतंत्र की,

                       राष्ट्रगान सम्मान।।


🪴 शुभमस्तु ! 


२६ जनवरी २०२२◆ गणतंत्र दिवस ◆७.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य ।

खूँटा ♟️ [ मुक्तक ]

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 ✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

खूँटे       बदल      रहे      हैं,

झूठे      बदल        रहे     हैं,

सोए     थे       खाट      टूटी,

बिस्तर    बदल    रहे    हैं।1।


पगहा    तुड़ा      के     भागे,

सोए      पड़े       थे    जागे,

पीछे  न    मुड़    के    देखा,

भागे   वे       तेज     आगे।2।


बदला  जो     आज     खूँटा,

दीमक    लगा     है      टूटा,

थामा   है  आज    कस कर,

गोरा    है     या     कलूटा।3।


खूँटों  में    जड़      नहीं   है,

पत्तों     की     पतझड़ी    है,

उड़ते       गुबारों     में     वे,

थिरता  न अब   कहीं   है।4।


खूँटे    बिना     न      कुरसी,

आती     नहीं      है    तुरसी,

सेवा     न      होती      छुट्टा,  

चाहत   है    उच्च  कुरसी।5।


मौसम  में    उठा -  पटक है,

यह    जानता    घटक     है,

घूरे  के   दिन     भी    बदलें,

ऐसी  ये चटक -   मटक है।6।


खूँटों    की     खटपटी     है,

नट   हैं     कहीं     नटी    है,

निष्णात     हैं        कलाधर,

भगदड़  भी  अटपटी   है।7।


खूँटा  -   कला     के      बंदे,

फैलाते        अपने        फंदे,

सुबह    हो     कौन     खूँटा,

कब    जान    पाते    बंदे।8।


खूँटे     ही      खींच     लाते,

पंजे      में    भींच       जाते,

बदलाव      की     हवा    है,

पय - सार    सींच   भाते।9।


संस्कार       आज       खूँटा,

दरबार        ताज        खूँटा,

खूँटों     से     दूर       रहना ,

जन   का   दुलार   खूँटा।10।


🪴शुभमस्तु !


२५.०१.२०२२◆९.४५     पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 25 जनवरी 2022

मोहक सूरजमुखी 🦋🌻 [ बाल कविता ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

सूरजमुखी  खिले  हैं   न्यारे ।

सुमन बहुत ही लगते  प्यारे।।


भीने - भीने  महक   रहे   हैं।

मधुमक्खी ने वचन कहे  हैं ।।


'तुम कितनी मोहक लगते हो

मौन मूक बनकर सजते हो।।


'ताजा मधुरस  हमें   पिलाते।

छत्ते  में  हम  शहद   बनाते।।


'स्वागत तुम वसंत का करते ।

उड़ने की  थकान  को  हरते।


'हिलो नहीं  रस  पी   लेने दो।

हमको  भी हित कर देने  दो।


'जीवन  है  उपकारी  अपना।

यही  हमारे  तप  का  तपना।


'तुम भी तो पर - उपकारी हो।

'शुभम'खिलेअपनी क्यारी  हो।'


🪴शुभमस्तु !

२५.०१.२०२२◆१२.१५पतनम मार्तण्डस्य।


राष्ट्र एकता 🌾🇮🇳 [ मुक्तक ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

फहराया   नभ  प्रबल तिरंगा,

रहे   न   कोई   भूखा    नंगा,

बहती  रहे रात दिन  अविरल,

राष्ट्र एकता की शुचि गंगा।1


🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳


रंग -  रंग  का    देश   हमारा,

गंगा,   यमुना  ,  सरयू  धारा,

अभिसिंचन कर देतीं जीवन,

राष्ट्र एकता  का  दें  नारा।2


🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳


खंड - खंड में  जो  बँट जाते,

मिटने का   वे  पथ  अपनाते,

सुदृढ़ सशक्त  बनें  जन सारे,

राष्ट्र एकता  मंत्र   सुनाते।3


🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳


अपना  उदर श्वान  भी  भरते,

अपने ही  हित  जीते -  मरते,

मानव ,पशु-जीवन  से ऊपर,

राष्ट्र एकता परहित करते।4


🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳🌾🇮🇳


धर्म,  कर्म  सबका  है अपना,

देखें 'शुभम' एक   ही सपना,

मानवता से  विलग  न होना,

राष्ट्र एकता के हित तपना।5


🪴 शुभमस्तु !


२५.०१.२०२२◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

संविधान 🇮🇳🇮🇳 [ दोहा ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

संविधान  का  दिवस है, दो  हजार   बाईस।

बीस और छःजनवरी,नमन राष्ट्र को सीस।


संविधान से यदि चले,यह  निज भारत देश।

सदा  प्रगति उत्कर्ष हो,हो कोई  रँग  वेश।।


संविधान को तोड़कर, मनमानी का  खेल।

डुबा रहा है देश को,सब  कुछ है   बेमेल।।


संविधान निर्माण कर,दिया देश   को  मंत्र।

भीमराव  जी धन्य हैं, बना संगठित   तंत्र।।


संविधान   में  दोष का,  करते जो   संधान।

खंडित करना चाहते, सुगठित देश-वितान।।


संविधान  में  न्याय  का, सुंदरतम    संदेश।

जाति ,वर्ण के पक्ष का,नहीं सूक्ष्म  लवलेश।।


संविधान  भगवान है,   संविधान   सम्मान।

धनी और निर्धन सभी, सबका ही गुणगान।।


संविधान  को अति बुरा,कहता  है नर  मूढ़।

बुद्धि घास उसकी चरे,चलती पशुपथ कूढ़।।


संविधान  को सोच कर,किया गया  निर्माण।

बनी तराजू न्याय की,करे सभी  का  त्राण।।


संविधान  से  देश   जब , हो जाएगा   दूर।

मिट  जाएगा  देश   ये,   होगा चकनाचूर।।


संविधान  से  देश  ये,दुनिया में   सिरमौर।

'शुभम' सराहा जा रहा ,करके देखें   गौर।।


🪴शुभमस्तु !


२४.०१.२०२२◆१०.००

पतनम मार्तण्डस्य।

देश का गौरव तिरंगा 🇮🇳 [ बाल कविता ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

आ   गया   है   शुभ   तिरंगा।

देश  का     गौरव     तिरंगा।।


बलिदान    का   रँग   केसरी,

शांति का  सित  रँग   तिरंगा।


लहलहाती    फसल     जैसा,

हरित     लहराता      तिरंगा।


शान ध्वज  की  कम  न होवे,

तन खड़ा   भू   पर    तिरंगा।


नोंच लें  वे   आँख  अरि  की,

देखता   जल    कर   तिरंगा।


गणतंत्र   गायन   कर    रहा ,

भा  रहा   नभ  पर    तिरंगा।


सत 'शुभम'  सम्मान  उर  में,

भारती   का   प्रण     तिरंगा।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०१.२०२२◆१.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 24 जनवरी 2022

सजल 🇮🇳

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

समांत: इया।

पदांत :करते हैं।

मात्राभार :24.

मात्रापतन :नहीं है।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

देश की आन को निज प्राण दिया  करते  हैं

वीर बलिदानी  सदा त्राण किया  करते   हैं


देश  की  भक्ति   ये बातों  के बतासे   नहीं

सपूत  देशभक्त   मातार्थ जिया  करते   हैं


सीमांत  धन्य  प्रहरी  सोते न   जागते   ही

साड़ी  फटे  जो  माँ की  गुप्त सिया करते हैं


सैनिक - उर धड़कता संतति है,   वीर  पत्नी

मात - पिता  से  पूछो  अश्रु पिया  करते  हैं


फहरा  ध्वज  तिरंगा  करता  है  शान  ऊँची

धीर  'शुभम'  सारे  परिणाम दिया  करते  हैं


🪴 शुभमस्तु !


२४.०१.२०२२◆९.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

रविवार, 23 जनवरी 2022

सुन साँचों का साँच ⛵ [ कुंडलिया ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

⛵ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                       -1-

साँचे  में  ढल आदमी, हुआ साँच  से   दूर।

जैसे  मेढक  कूप  का,उछले नित   भरपूर।।

उछले   नित  भरपूर,वही  है दुनिया  सारी।

सजी  चार ही  हाथ,  कूप  में चारदिवारी।।

'शुभम'  कूदता  मूढ़,भरे नर नित्य  कुलाँचे।

समझ स्वयं को ईश, बना माटी  के  साँचे।।

                        -2-

रंगा  जी  ने रँग  लिए, साँचे कितने    आज।

लाल,हरे , पीले  चुने,  बनने को    सरताज।।

बनने  को सरताज ,अलग पहचान दिखाए।

गिरगिट   जैसे   रंग, देह पर बदले    पाए।।

'शुभम'  कहाँ  है  साँच, नहाते गदहे   गंगा।

चमके भाल त्रिपुंड, पैर से सिर  तक  रंगा।।

                        -3-

मानवता  के  नाम का,गढ़ा न साँचा   एक।

पक्षपात  की आग  में, झोंकी करनी  नेक।।

झोंकी  करनी  नेक, वाद  की भट्टी जलती।

शेष नहीं है न्याय,मनुजता निज कर मलती।

'शुभम'   झपट्टामार,  सदा से है   दानवता।

साँचों  का संसार ,मर रही नित  मानवता।।

                         -4-

अपने - अपने  मेख  से, बाँध मेखला  एक।

चमकाता निज नाम को,नहीं कर्म की टेक।।

नहीं  कर्म   की टेक,बदलता सिर की टोपी।

दिखा धर्म की आड़,बाड़ उपवन में रोपी।।

'शुभम' झूठ के गान,दिखाते स्वर्णिम सपने।

कुर्सी से यश मान,जाति के सब जन अपने।

                          -5-

माटी साँचों  की नहीं, होती अति  मजबूत।

सीमा  भी उसकी कभी,होती नहीं  अकूत।।

होती नहीं अकूत, सोच  को रोक  लगाती।

स्वच्छ नहींआकाश,घुटन नित बढ़ती जाती।

'शुभम' जानता साँच, धूल धरती  की चाटी।

सीमाओं को त्याग, फाँक मानव की माटी।।


*मेख =खूँटा।

*मेखला= शृंखला,जंजीर।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०१.२०२२◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।

साँचे का संसार यह ! 🤿 [ व्यंग्य ]

 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 ✍️ व्यंग्यकार © 🤿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम ' 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆★◆■◆■ 

 साँचे का संसार यह,नित साँचों की खोज।

 साँचों में बहुजन फँसे,ढूँढ़ रहे निज ओज।

 जिधर भी दृष्टि डालिए ,साँचे ही साँचे दिखाई देते हैं।जो जन पहले से ही साँचों में सटे हुए हैं, वे वहाँ पर अपनी सट-पट कर रहे हैं। किंतु जो अभी साँचों से बाहर हैं, वे साँचों की तलाश में भटक रहे हैं।अपना - अपना सिर पटक रहे हैं। साँचों में सटे हुए कोई-कोई जन मटक रहे हैं ,कुछ अटक रहे हैं औऱ किसी अन्य को खटक रहे हैं। साँचे मानो मानव की शांति की तलाश हैं।साँचों के बिना मानो वे जिंदा लाश हैं।घूरे पर चरने वाले विचरते हुए गधों की घास हैं।बड़े ही निराश हैं। साँचों के बिना तो जैसे कागज़ के ताश हैं। कोई कहीं भी फेंक देता है और अपना उल्लू सीधा कर लेता है। इसलिए उन्हें एक उचित साँचे की तलाश है। 

           कोई समाज सेवा के साँचे में सटा है। तो दूसरा सियासत के साँचे में जुटा है।कोई धर्म की चदरिया रँग रहा है औऱ अपने चर्म - चरणों को पुजवाकर साधु - संगत में सज रहा है। किसी को नशा है धन कमाने का ,किसी औऱ का धन लूटने का।किसी को मोह माया के बंधन से यथाशीघ्र छूटने का।कोई किसी कामिनी की काया में अपने को सिमटाये हुए है। तो उधर कामिनी निज साँचे में अपना तन मन रमाए हुए है। कोई ज्ञानी बनने की राह पर निकल पड़ा है , सब भटक रहे हैं अंधकार में ; इस अहं में गड़ा है।कोई झुकते - झुकते दुहरा हो रहा है।उधर जो तना हुआ है , निज गुरूर में इतरा रहा है। मानो साँचे ही अंतिम गंतव्य हैं।साँचों में घुस बैठना ही उनका वास्तविक मंतव्य है।इसलिए साँचे ही प्रणम्य हैं। उनके लिए वही उनकी श्रेष्ठतम शरण्य हैं। 

           समाज, सियासत, धर्म ,दल, ज्ञान, पांडित्य,व्यवसाय, अमीर, गरीब,स्त्री,पुरुष, कवि ,लेखक, चोर ,डकैत ,डॉक्टर, अभियंता ,अधिवक्ता ,शिक्षक, कर्मचारी ,अधिकारी, नेता , अभिनेता,मंत्री,संतरी,साधु , महात्मा ,पुजारी,महंत,:चेहरे अनंत, साँचे भी अनंत।साँचे से बाहर रहना ; मानो मिट्टी का लोंदा। एकदम बोदा।अस्तित्व विहीन।कहीं भाषा का साँचा, कहीं जाति ,वर्ग ,वर्ण ,सम्प्रदाय का साँचा। सब कुछ है वह ,परंतु यदि नहीं तो कोई मानव नहीं। कहीं मानवता नहीं। मानव नाम का कोई साँचा ही नहीं। कोई भी अस्तित्व नहीं मानवता के साँचे का।

          पशु को एक खूँटे से बाँधा जाता है। पर मानव तो स्वयं खूँटा बंधित है। वह खूँटा प्रिय है। बंधना उसकी प्रकृति है।उसकी मति में यही उसकी सद्गति है। बिना बँधे हुए वह रह नहीं सकता , जी नहीं सकता। इसीलिए न्याय नहीं; सर्वत्र पक्षपात का बोलबाला। जैसे सभी कूओं में भंग का मसाला भर डाला। नाम भर साँचा , पर साँच का नाम नहीं। 

        साँचे में ढल जाने से लाभ ? लाभ ही लाभ। निरंतर लाभ। न साँच की चिंता , न आँच का डर। भेड़ बनकर उनके पीछे -पीछे विचर। बस साँचे का घेरा न टूटे। अपना स्वामी न रूठे। कूप मंडूक बने रहें। चारदीवारी में पड़े - पड़े तने रहें । लकीर के फ़कीर बन मंडल में सजे रहें। हर समय बने - ठने - घने रहें। एक जंजीर से निरन्तर बँधे रहें। जो मिले ,उसी में मजे रहें। 

        जो साँचे में जितना फिट। वह उतना ही रहता है हिट। कैसी खिट-खिट ।कैसा सोचना ,कैसी घिस- पिट।जैसी माटी भरी जाएगी , नाक -नक्स की सूरत वैसी ही बन जाएगी।इसलिए 'सबते भले वे मूढ़ जन, जिन्हें न व्यापे जगत गति।'काहे का सोचना, काहे को लगाए मति।। बिना ही लगाए हर्रा फिटकरी ! मिलते चलें खीर मालपुआ खरी। तो क्यों न किसी साँचे में अपने तन - मन की माटी को जमाए ? नहीं आजमाया है अभी तो क्यों न जाकर के आजमाए? इतना अवश्य देख लेना कि साँचे हों पके -पकाए। वरना ऐसा न हो कि लौट के बुद्धू घर को आए! 

 🪴 शुभमस्तु !

 २३.०१.२०२२◆ १२.४५ पतनम मार्तण्डस्य। 


शनिवार, 22 जनवरी 2022

  कुर्सी - बाज़ार गर्म है ! 🪑 

[ व्यंग्य ] 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🪑 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम ' 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 सज गई हैं दुकानें ,बाजार गर्म है।बिकेगी उसी की सौदा, जिसका जैसा भी कर्म है।तो देवियो!सज्जनो!बहनो! औऱ भाइयो ! ; डाक्टरो! मरीजो ! दवाघरो ! और दाइयो! बाजार लग चुका है।वह दिन पर दिन गरम भी हो रहा है।दुकानदार अपनी दुकानदारी के लिए बेशरम भी हो रहा है। अपने- अपने सामान की सौ -सौ खूबियाँ गिना रहा है।असलियत पूछने पर किनकिना रहा है।


  जैसा कि अपनी सौदा बेचने के लिए हर उत्पादक कम्पनी विज्ञापन करती है।कमियाँ हों भले हजार ,पर हजारों गुणगान से झोलियाँ भरती है। अब ये ग्राहक की इच्छा कि वह सौदा ले अथवा नहीं ले। बाज़ार का हर दुकानदार भी यही कर रहा है।विज्ञापनों से ग्राहक का मन संभ्रम से भर रहा है।


  पर ये मत समझ लीजिए कि आज का ग्राहक विज्ञापन पर रीझकर सौदा खरीद ले। वह चार दुकान पर जाता है,दाम और वस्तु की तुलना करता है। तब कहीं जाकर सौदेबाजी का मन करता है।जिसका जितना अधिक विज्ञापन ,उतना ही फीका पकवान ।विज्ञापन का क्या भरोसा! सड़े हुए आलू का गोरी मैदा से ढँका हुआ समोसा ! खाने के बाद कोसा, तो क्या कोसा ! लगा ही दिया न खोमचे वाले ने लोचा। यही हाल आज के गरम हो रहे बाज़ार का है। आदमी का विश्वास आज हो रहा तार- तार सा है।


   नए - नए रंग हैं। दुकानदारों की अपनी-अपनी तरंग है। किसी-किसी ग्राहक ने चढ़ा ली भंग है।अपन तो देखकर ही ये हाल दंग हैं। दूल्हे की बारात बने हुए अधिकांशत: मतंग हैं। उन्हें क्या कुछ दिन का गुज़ारा तो होगा।खाने के साथ - साथ पीने का भी जुगाड़ा होगा। पहनने को मिलेगा रंग - बिरंगा चोगा। भेड़ाचार के युग में भी सब भेड़ नहीं हैं।पर अधिकतर तो भेड़ ही हैं। तात्कालिक लाभ के पीछे अपना भविष्य भी दाँव पर लगाने वाले ग्राहकों की कोई कमी नहीं है। वे सस्ते विज्ञापनों पर दाँव लगा देते हैं।लेपटॉप ,मोबाइल , सस्ते बिजली ,पानी पर अपना मत ही नहीं, मति भी गँवा देते हैं।लोक- लुभावन विज्ञापन ;विज्ञापन नहीं , ठगी के तरीके हैं। ग्राहक की जेब काटकर उसे उसी के पैसे से खुश कर देने वाले फार्मूले हैं। ये तेज ग्रीष्म में उड़ने वाले बगूले हैं। 


एक बार खरीदोगे, बार -बार पछताओगे।भेड़ बने हुए किसी कुएँ में पड़े पाओगे।अपनी ही अगली पीढ़ी पर गज़ब ढाओगे। जब कोई चीज गर्म होती है ,तो गर्मी पाकर बढ़ती है, फैलती है। ये बाजार ! ये दुकानदार ! सभी फैल रहे हैं और नगर-गाँव के ग्राहक पिछली दुकानदारी अब तक झेल रहे हैं। हे ग्राहको ! तुम सौदा मत बन जाओ, ऐसा न हो कि बाद में पछताओ।अपना हित-अहित स्वयं पहचानो! मेरी कही बात आज मानो या मत मानो! पर इन विज्ञापनबाजों के हाथ में अपनी सौर इतनी भी मत तानो कि तुम्हारे पैर ही बाहर चले जाएँ ?


  मखमली चादरों में ढँके हुए ये माल ! रंग - बिरंगे बैनरों तले दिखलाते हुए कमाल ! बनने ही वाले हैं भविष्य का बवाल ! यही तो है हर ग्राहक के सामने सवाल। भविष्य में अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे होगी ? कौन कर सकेगा? कौन अपना है ,कौन ठग और लुटेरा है ; ये देखना पहचानना है। आज जब सारी दुनिया बारूद के ढेर पर भौंचक्की - सी बैठी है , तब तो औऱ भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है ,कि कौन ठग है ,कौन लुटेरा। कौन दे सकता है , स्थाई औऱ मजबूत बसेरा। इसलिए बाजार की गरमी पर मत जाएँ।ठंडा करके खाएँ। अन्यथा बाद में पछताएं! 


 ये पोस्टर ! ये झंडियाँ!! ये हैं मात्र काष्ठ की हंडियां ! जलेंगीं और तुम्हें भी जलायेंगीं। दुकानों की रंगत पर मत मर मिटो। ये एक बार गर्माएगीं, तुम्हारी आगामी पीढ़ियाँ तुम्हें हमेशा गरियायेंगीं। गरजने वाले कब बरसते हैं! जो इनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं ,वे सदा तरसते हैं। पता नहीं ,ये बाजार कुर्सियों का है।पाँच साल मजा मनाने वाली तुरसियों का है। इनकी तुरसी में तुम्हें कुछ भी नहीं मिलने वाला। क्यों करते हो इन नशेड़ियों के हाथों अपना मुँह काला! इनके एक हाथ में झंडा है ,दूसरे में जाला। यदि अब भी जपते रहे इनकी माला; तो पड़ ही जाने वाला है, तुम्हारे हाथ पैरों में ताला। 

 

 इन्हें तो बस कुर्सी चाहिए। चाहे जैसे भी मिले। साधन उचित हों या अनुचित ;उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है। ये वही हैं ,जो अपने मतलब के लिए गधे को भी अपना बाप बना लेते हैं। औऱ मतलब निकल जाने के बाद मार दुलत्ती ठुकरा भी देते हैं। हे प्यारे ग्राहको! अपना भला आपको स्वयं देखना है ,सोचना है। बात मात्र पाँच साल की नहीं, पाँच युगों की है। हमारी भावी पीढ़ियों की है। इन शवों के सौदागरों से बचके रहना है। इन्हें तो कुर्सी पाकर तुम्हें भूल ही जाना है। ये वे घोड़े नहीं ,जो घास से दोस्ती कर लें! घास तो खाई ही जाने वाली है। तुम्हें घास नहीं बनना है , न इनके ग्रास का चयनप्राश बनना है।


  ये तुम्हारे मालिक नहीं, स्वामी नहीं। ठगियों को ठुकराने में कोई बदनामी नहीं। अपने आत्मज्ञान को जगाना है। तब बाजार से सौदेबाजी करना है। 'कु ' 'रसी ' ने सदा 'कु' 'रस' ही दिया है। इस कु रस में इतने दीवाने मत हो जाओ ,जो इनके कारण अपना अस्तित्व नसाओ ! ये नहीं होंगीं ,तब भी आप होगे। ये बाजार ,ये समाज, ये राष्ट्र , ये देश तुमसे ही है, कुर्सी - बाजारों से नहीं। कुर्सियों से भी नहीं। कुपात्र को दिया गया दान भी पाप है। इसलिए सुपात्र चुनें। तब अपना भरा कटोरा किसी के झोले में डालें। 


 🪴 शुभमस्तु !


 २२.०१.२०२२◆३.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

सघन कोहरा छाया 🌼 [ दोहा गीतिका ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

  सघन   कोहरा छागया  , दिशा-दिशा  में   शीत।

छिपे  कीर  निज  नीड़ में, जीव-जंतु  भयभीत।


चादर  ओढ़े    दूध - सी, छिपे हुए   हैं   भानु,

निष्प्रभ   चंदा- चाँदनी, नहीं गा   रहे   गीत।


पल्लव-पल्लव ओस के, चमके  मुक्ता चारु,

जेठ  पराजित हो गया,पूस-माघ  की  जीत।


छुआ  न जाए  देह  को,पोर-पोर  हिम  सेत,

कैसे हो  अभिसार अब,रूठ गया  है   मीत।


अवगुंठन   अपना  हटा,नहिं चाहती    नारि,

आलिंगन   कैसे करें, गए दिवस   वे   बीत।


पाटल - दल  भीगे हुए,स्वागत को   तैयार,

उत्कंठा    ऐसी  जगी,  भाव नहीं   विपरीत।


'शुभम'  कामना  आग  - सी,दहकाती है  देह,

झरते उर नव स्रोत के,निर्झर नित नवनीत।।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०१.२०२२◆११.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।


अतीत 🧡 [अतुकांतिका]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🧡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

शेष नहीं हो

जिसकी तीत,

हो गया हो 

जो पूरी तरह रिक्त,

वही तो है 

हे मानव तेरा अतीत।


यह अतीत ही 

कभी था जब

सतीत ,

शुष्कता नहीं थी,

उष्णता भी नहीं थी,

तीत ही तीत थी,

तभी तो उर में

विद्यमान प्रीति थी।


सतीतता में

होता है नव अंकुरण,

स्फुरण ,

संचरण,

क्योंकि वहाँ नमी है,

जो है अपरिहार्य

नहीं उसकी 

कहीं भी तृण भर

कमी है।


फिर भी आज की अपेक्षा

बीता हुआ कल

सुख देता है,

बीत जाने पर

रीत जाने पर

रिक्त पात्र भी

मधुर स्मरण देता है।


यह अतीत ही

कभी वर्तमान था,

मेरी तेरी पहचान था,

कैसे किया

 जा सकता है

विस्मृत,

उसका तो 

प्रत्येक आयाम है

 अति विस्तृत,

उसी ने किया है

सदा ही तुम्हें उपकृत,

वही तो है 

जीवन का ऋत,

उसी का  वरदान है

'शुभम' है जीवन का सत।


*तीत =नमी ,आर्द्रता।


🪴 शुभमस्तु !



२१.०१.२०२२◆८.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

सबके हित का भाव हो 📒 [दोहा ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

सबके हित का भाव हो,कहलाता  साहित्य।

लेखन  के आकाश में,चमके बन  आदित्य।।


शब्द-अर्थ में व्यक्त हो,कविता का हर भाव।

जैसे  तरती  धार में, बनी काष्ठ  की  नाव।।


जनहित में  साहित्य के,लगे हुए   हैं   भाव।

ज्यों पत्नी निज कांत को दिखलाए निजहाव


कविता हो या लेख हो,उसका अमर महत्त्व।

शब्दकार  यह जानते, जन हितकारी तत्त्व।।


अमर वही  साहित्य है,जिसके भाव  महान।

मानव मन को चूमते,बढ़ता कवि का मान।।


रचना ऐसी  चाहिए, खिलें सुमन  के  भाव।

बिखरे विरल  सुगंध ही,भरें उरों  के  घाव।।


कटुता  से  साहित्य  का,नहीं लेश   सम्बंध।

सदगंधों  का  वास  हो,न  हो सूक्ष्म   दुर्गंध।।


दोहा,कुंडलिया लिखें,लिखें सरस शुभ गीत।

रोला, बरवै, गीतिका ,व्यंग्य लेख   हे  मीत!!


मतमंगे साहित्य का,नहीं तनिक  भी  मोल।

सड़क छाप जो लिख रहे,होता उनमें झोल।।


कवि को कविता रच रही,देती 'शुभं'कवित्त्व

मानवता की लिपि वही,वही मनुज का सत्त्व


माँ वाणी की सत कृपा, देती कवि  को  देन।

रचता वह साहित्य को,शब्द अर्थ  की  सेन।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०१.२०२२◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 19 जनवरी 2022

ओस भीगी नव कली! 🌹 [ गीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

ओस भीगी नव कली के पास आने  दो।

प्यास से व्याकुल भ्रमर मधुप्राश  पाने दो।।


आ रहा  है पास  ज्यों -ज्यों दूर  जाती  हो।

घबरा  रही  स्पर्श  से उन्मन लजाती   हो।।

ज्यों धरा  पर मेघ  छाते  आज  छाने   दो।

ओस भीगी नव कली के पास आने दो।।


कौन कलिका  जो न  चाहे फूल बन महके!

यौवनांगी   क्यों  न चाहे कीर - सी  चहके!!

शुचि कली जो  है  अछूती महक जाने  दो।

ओस भीगी नव कली के पास आने दो।।


राह में  कालीन  अरुणिम  नम बिछाई  है।

सद  सुगंधों  से  सुगंधित  ज्यों मलाई   है।।

स्वप्न  को  साकार कर  लो कसमसाने  दो।

ओस भीगी नम कली के पास आने दो।।


चटुल  पाटल- सी सजी हो ओढ़ ली  चादर।

कब  तक रहे  अवगुंठनी  रूप की   गागर।।

तृप्ति  की  गंगा  बहा  दो  गीत  गाने   दो।

ओस भीगी नव कली के पास आने दो।।


सबलता में   नेह  रस का क्यों झरे   झरना।

विनयवत उत्थान में ही शुभ प्रणय  करना।।

नित 'शुभम' गुंजार  बन अलि गुनगुनाने  दो।

ओस भीगी नत कली के पास आने दो।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०१.२०२२◆५.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

कोरोना का ध्यान रख 🌿 [ दोहा ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

कोरोना के  काल में, रख नियमों का ध्यान।

बच्चे पढ़ते हैं सभी,छिपी मास्क  मुस्कान।।


 बैठे  दो  गज दूर सब,विद्यालय  के  छात्र।

नियमों  के अनुकूल ही,पढ़ने के सब पात्र।। 


शिक्षक छात्रों ने लगा,लिया वदन पर मास्क

बड़े ध्यान से कर रहे,अपना- अपना टास्क


दरी बिछी है भूमि पर,पढ़ने में सब  व्यस्त।

शिक्षकजी कुछ कह रहे,शिक्षण में अभ्यस्त


जीवन -रक्षा के लिए ,नियम सदा  अनिवार्य।

कोरोना से बच सकें, करें सुनिश्चित   कार्य।।


देश और  परिवार  की, रक्षा की  है  बात।

नियमबद्ध जो चल रहे,दें रोगों को   मात।।


सबके हित में निहित है,अपना हित हे मीत।

'शुभम' नियम पालन करें,होगी तेरी  जीत।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०१.२०२२◆१०.५५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


तेरे पग मंजीर -ध्वनि 🏕️ [ दोहा ]


[मंजीर, मेदिनी,बारूद, चीवर,कलिका]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

           🧡 सब में एक  🧡

तेरे पग मंजीर-  ध्वनि,रसमय  होते  कान।

उर में लहरें उठ रहीं, लिया तुम्हें  पहचान।।

बाँधूँगी मंजीर से,  कान्हा सुन  लो   बात।

माखन  खाने   दूँ नहीं,बहुत हुई   है  रात।।


धारण  करती मेदिनी,हम सबका यह  भार।

धीरज की प्रतिमा सदा, मानें नित उपकार।।

सकल मेदिनी धर खड़े,हिम आवृत हे मीत!

छाया जल-थल पर बड़ा,भुवन भयंकर शीत


बिछा  ढेर बारूद का,सुप्त सकल  संसार।

प्रभु जग की रक्षा  करें, देना संकट   तार।।

क्यों बाले! बारूद-सी,भड़क  रही हो आज।

मैंने क्या ऐसा  कहा,बतलाओ वह   राज।।


सोई   महलों  में  रही, यशोधरा   वर  नारि।

तन पर चीवर धारकर,गए त्याग सुकुमारि।

चीवर बस कपड़ा नहीं,जगत-मोह का त्याग

नर,नारी,सुत,राज का,है सम्पूर्ण   विराग।।


सुंदर कलिका देखकर,खिलता उर का फूल

विकसित अधरों की कली,हटा रही हर शूल

तन-मन में कलिका खिली,यौवन है साकार

मधुलोभी  भौंरे   चले, पाने रस  -  उपहार।।


   🧡 एक में सब 🧡

जीवन चंचल मेदिनी,

               कलिका भी बारूद ।

चीवर सँग मंजीर की,

                     नहीं नाच या कूद।।


*मंजीर -1.घुँघरू 2. मथानी के डंडे से बाँधने का स्तम्भ।


🪴शुभमस्तु!


१९.०१.२०२१◆७.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।

शारदा -स्तवन 🌻🕉️ [विधा :गीत ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️विनयावनत ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

वीणावादिनि     मातु    शारदे!

अघ-ओघों  से त्वरित तार दे।।


वागीश्वरी    जगत   कल्याणी!

देती हो   माँ जग  को  वाणी।।

शब्दों को   नित   नई   धार दे।

वीणावादिनि    मातु   शारदे!!


विमला, गिरा,   ज्ञानदा  माता!

भगवत'शुभम'नित्य ही ध्याता।।

हंसवाहिनी!   हमें     प्यार   दे।

वीणावादिनि    मातु     शारदे!!


रमा,   परा,  श्रीप्रदा,   भारती!

वसुधे! विमले!  करें  आरती।।

महाबला,    विश्वा    उबार   दे!

वीणावादिनी     मातु    शारदे!!


महाफला,  त्रिगुणा,  माँ शुभदा!

कांता ,  वंद्या   मिटा   आपदा।।

शुभ  भावों   का  पुष्प  हार दे।

वीणावादिनि    मातु    शारदे!!


जन्म- जन्म  माँ के  गुण  गाएँ।

तव    चरणों में    शीश झुकाएँ।।

कल्याणी  उर   शुभ  विचार दे।

वीणावादिनि     मातु   शारदे!!


🪴 शुभमस्तु !


१८.०१.२०२२◆६.३०

 पतनम मार्तण्डस्य।

बथुआ - गीत ☘️ [ बालगीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

गरम   पराँठा   बथुए   वाला।

जाड़े में  दे  स्वाद   निराला।।


गहरा हरा   संग   में  धनिया।

खाती  अम्मा खाती चनिया।।

मिर्च  चटपटी   सेंधा   डाला।

गरम  पराँठा   बथुए  वाला।।


बथुए  में   है   लोहा ,  सोना।

पारा और क्षार  मत  खोना।।

गेहूँ  के   सँग  उगता  आला।

गरम  पराँठा  बथुए  वाला।।


रायता बहुत स्वाद का होता।

नहीं खेत  में   कोई   बोता।।

डालें  इसमें   न्यून   मसाला।

गरम  पराँठा   बथुए  वाला।।


अमाशय   को  ताकत  देता।

कब्ज उदर की वह हर लेता।।

गैस रोग,कृमि,अर्श निकाला।

गरम   पराँठा  बथुए  वाला।।


मूत्र रोग   को   हर   लेता है।

यकृत  निरोगी  कर  देता है।।

दाद,खाज खुजली पर ताला।

गरम पराँठा   बथुए   वाला।।


आँखों की सूजन   या लाली।

बथुए   ने  नीरोग   बना ली।।

'शुभम'साग बथुआ हरियाला।

गरम   पराँठा   बथुए  वाला।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०१.२०२२◆३.३०पतनम

मार्तण्डस्य।

शबरी की भक्ति 🧕🏻 [ चौपाई ]

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

श्रमणा  एक   भीलनी  नारी।

रामभक्ति   में   डूबी   सारी।।

जन्मी शबर पिता के आलय।

नहीं उसे वन  में  कोई  भय।।


गुरु  मतंग   से   शिक्षा   पाई।

होने   वाली   बात     बताई।।

राम-लखन कुटिया तव आएँ।

तब  तेरे  संकट   मिट  जाएँ।।


रामभक्ति   में   शबरी   खोई।

कठिन  प्रतीक्षा कर-कर रोई।।

यौवन  गया   बुढ़ापा   छाया।

एक दिवस वह शुभ क्षणआया।


डलिया  में  बेरों  को  रखती।

पहले ही  वह उनको चखती।

आई   घड़ी    कुमार   पधारे।

कष्ट  मिटे  शबरी   के  सारे।।


प्रेम- भाव   से  भीगी  उर में।

बैठी  शबरी  भू- सुरपुर   में।।

जूठे   बेर    खिलाती   जाती।

मन ही मन  भारी  हरषाती।।


नयनों  में   प्रेमाश्रु    भरे   थे।

पाँव पखारे   भाव   खरे  थे।।

'शुभम'भक्ति शबरी-सी कर ले।

भव- सागर के   पार   उतर ले।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०१.२०२२◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

सजल 🪴

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

समांत:आनी।

पदांत : है।

मात्राभार :16.

मात्रापतन: नहीं है।

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

हर   जीवन   एक  कहानी  है

सुख-दुख का अपना  मानी है


महलों  में    कोई   करे    ठाठ

कुछ  के सिर पर बस छानी है


औरों  पर  होली   कीचड़  की

अपनी  पहचान  न  जानी   है


झाँकता  न   अपने   अंतर  में 

बतलाता   सबकी   कानी   है 


मेरा - मेरा   की    चाह   जगी 

कहता  जग   बात   पुरानी  है


अपने   सुधार  से  जग   सुधरे

सीखना  यही   सिखलानी   है


निज स्वार्थ लिप्त है मनुज यहाँ

सच 'शुभम' बात  बतलानी   है 


🪴 शुभमस्तु !


१७.०१.२०२१◆९.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

रविवार, 16 जनवरी 2022

बड़ी रसीली, छैल- छबीली 🍻 [ व्यंग्य ]


 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🍺 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 आज भला मुझे कौन नहीं जानता ,पहचानता।जो जानता वह तो मानता ही मानता और जो नहीं जानता वह तो और भी अधिक मानता। मैं हूँ ही ऐसी गूढ़ पहेली , अपने चहेतों की अंतरंग सहेली।चाहते हुए भी मैं रह नहीं पाती अकेली। मैं तो बड़ी ही रसीली हूँ,छैल - छबीली हूँ।रंग-रँगीली हूँ।एक क्षण के लिए भी नहीं मैं ढीली हूँ।सदा हरी हूँ ,लाल हूँ। बेमिसाल हूँ।मेरे चहेतों के लिए टकसाल हूँ।वे मुझसे औऱ मैं उनसे निहाल हूँ।साँचा धारियों के लिए तो बस काल हूँ। 

  अब तो आप मुझे पहचान गए होंगे।मैं व्यापक सर्वत्र समाना ।मेरे ठौर - ठिकाने नाना।अब तक भी जो मुझे न जाना।मारूँगी उसको मैं ताना।मैं वहाँ भी हूँ, जहाँ दिखलाई भी नहीं देती।कहीं साकार हूँ तो कहीं निराकार भी हूँ।देश,समाज,धर्म, कर्म, शासन, प्रशासन,संस्थाएं, शिक्षालय, कार्यालय, कोर्ट ,कचहरी, ( जहाँ कच का हरण किया जाए) दीवानी, चौक ,चौकी ,चौका: सभी जगह मेरा सम्मानपूर्ण स्थान है।कुछ मनुष्यों के तो मुझमें ही प्राण हैं। मेरे बिना अस्तित्व ही क्या है उनका। मैं वह शक्ति हूँ, ऊर्जा हूँ कि मेरे सहारे के बिना वे उठा भी नहीं सकते तिनका।मैं उनकी सशक्त लाठी हूँ।किसी- किसी के लिए वंश परंपरागत परिपाटी हूँ। एक ऐसी अफ़ीम हूँ उनके लिए , जिसका नशा कभी उतरता ही नहीं। मैं नहीं ,तो वे भी नहीं। कहीं के भी नहीं।

  अनेक रूप हैं मेरे।बोतलों में भरी मदिरा की तरह सब का मूल तत्त्व एक ही है।बस अंतर तो मात्र इतना कि उनके लेबिल अलग - अलग हैं। लेबिल बदलते रहते हैं। मैं वही  की वही रहती हूँ । चूहे खतरा भाँप कर बिल बदल लेते हैं। इसी में उनकी समझदारी है। मैं सबकी शिक्षक हूँ। यदि मैं भी जड़वादी सिद्धांत से एक ही स्थान पर अपनी जड़ें जमा बैठी तो किसी दिन भूचाल आने पर अस्तित्व पर खतरा हो सकता है।इसलिए मैं सदा सचल हूँ।मेरी सचलता ही मेरे अस्तित्व की संजीवनी है।'जैसी बहे बयार तबहिं तैसौ रुख कीजै' के सिद्धांत पर चलने के कारण सारा संसार मुझे सिर पर उठाए फिरता है। 

  सबको सब कुछ तो मिलता नहीं।मेरे साथ रहने वाले में यदि आप चरित्र की सफ़ेदी ढूँढना चाहें ,तो यह मेरे साथ नाइंसाफी ही होगी।मैं किसी दूध धुले इंसाफ़ की कायल नहीं हूँ 'येन केन प्रकारेण' अपना उल्लू सीधा करना ही मेरा लक्ष्य है।मनमोहनी नारी की तरह ही मेरा हर रूप भी लुभावना,सुहावना,दिखावना, रिझावना और अपने साँचे में ढालना है। जिनके लिए मैं खट्टे अंगूर हूँ , मेरे बाहुपाश से वे भी नहीं बच पाते।इसलिए प्रकारांतर से ही सही ,मेरा लोहा मानने के लिए वे भी बाध्य हैं। आप कह सकते हैं कि शर्म -ओ-हया तो मुझे कहीं छू भी नहीं गई है।बिना पूछे ,बिना बुलाए ,बिना ज़रूरत मैं चौकी से सीधे तुम्हारे चौके तक धावा बोलती हूँ ।'आ बैल मुझे मार ' की नीति मेरे लिए कोई नई नहीं है। सही अर्थ में देखा जाए तो मेरी अपनी कोई नीति ही नहीं है।फिर भी मुझे सम्मान से मंच पर आसीन किया जाता है। 

  छः ऋतुओं की तरह मेरी भी ऋतुएँ आती - जाती है। इस समय मेरा वसंत पूर्व पतझड़ चल रहा है। पीले पड़े हुए पत्ते अपना स्थान छोड़ रहे हैं और अपना नया आशियाँ तलाश रहे हैं।कुछ भूमिसात हो रहे हैं,तो  कुछ किसी औऱ की गोदी में दूध ढूँढ़ रहे हैं। मेरे यहाँ पाँच साल में बालक जवान हो जाता है। इसके बाद भी प्रौढ़ता में नए - नए रस - रंग के बिछौने बिछाता है।पतझड़ के बाद वसंत आने को है।रसलोभी भँवरे नए रस की खोज में झूम रहे हैं।कलियों के मुख चूम रहे हैं। फूल अभी खिले ही कहाँ हैं? इसलिए कलियों से ही मन लगाने में जुटे हैं। कुछ तो बेचारे वैसे ही लुटे-पिटे हैं। पाँच साल बाद मुखौटे लगाकर आने के कारण उनकी बोलती जो बंद है! यह दोष उनका है , तो झेलें।इमली के पत्ते पर बैठकर दंड पेलें। अपन तो रोज छैल -छबीली है ,रंग -रँगीली है।

  मेरे यहाँ होली की बारहमासी योजना चलती है।जहाँ अपने - अपने चरित्र के अनुसार अहर्निश होली खेली जाती रहती है।सबकी पिचकारियों में रंग -बिरंगी कीचड़ भरी रहती है ,जिसके छींटे वे समय - समय पर छिटकते रहते हैं।सबसे अच्छी बात ये है कि इसका बुरा कोई भी नहीं मानता। बल्कि भारत पाकिस्तान की तरह और तेज मिसाइल -पिचकारी से अपनी धार को दुधारा बनाने का प्रयास करता है। कोई किसी से कम नहीं है। ये तो हुई होली की बात। किंतु यहाँ बड़ी दीवाली पाँच वर्ष में मात्र एक ही बार आती है। छोटी दिवालियां तो कई - कई बार आतिशबाजियाँ कर जाती हैं। ऐसी ही एक दीवाली की तैयारी में सारा देश लगा हुआ है। यही तो मेरा यौवन काल है, वसंत है।मधुमास है।गधे घोड़े सबके लिए च्यवनप्राश है। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १६.०१.२०२१◆ १०.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...