गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

जनता आलू -कंद [कुण्डलिया]


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✍️ शब्दकार ©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

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                   -1-

जनता आलू- कंद है,रहती सबके  साथ।

गोभी बैंगन मटर सँग,होता उसका हाथ।।

होता  उसका हाथ,  कूटकर पापड़  बेलें।

काटें  सुंदर चीप,चमक रैपर की    झेलें।।

'शुभम'न मौका चूक,काम जब तेरा बनता।

'जाय भाड़ में देश', यही कहती है जनता।।


                  -2-

जनता    आलू-  कंद  है,होती है      बेस्वाद।

यदि  गोभी  के साथ हो,गोभी हो  आबाद।।

गोभी   हो     आबाद, तरसते बैंगन    सारे।

पड़े - पड़े  ललचाएँ , पड़े हैं नदी  किनारे।।

'शुभम' रसीला झोल,कभी है सूखा  बनता।

जितना दो गुड़ डाल,मधुर हो उतनी जनता


                      -3-

जनता   आलू -  कंद है,ऊपर माटी    धूल।

कब वह किसके साथ हो,कब जाएगी भूल।।

कब   जाएगी भूल, किसे सिर पर   बैठाए।

किसको दे संन्यास,किसे कुर्सी   दे  जाए।।

'शुभम'न समझें भेड़, ऊन से कंबल बनता।

करती यही कमाल, मतों से मारे  जनता।।


                 -4-

जनता आलू  -  कंद है, लुढ़के गोल  मटोल।

चाहे कोई मोल दो ,बिक जाए बे  -   मोल।।

बिक  जाए बे - मोल,बनाए गर्दभ   राजा।

कहते नेता लोग,  हमारे सँग में  आ   जा।।

'शुभं'न समझें चाल,काल आलू जब बनता।

अटक कंठ के बीच,हँस रही आलू जनता।।


                   -5-

जनता   आलू -  कंद   है, मोटे छिलकेदार।

छिलका हटता है तभी,पता लगे किरदार।।

पता  लगे  किरदार, छीलने वाला   जाने।

है वह जड़ मतिमंद,उसे जो अपना   माने।।

'शुभम'मटर के साथ,और ही सरगम बनता।

धुँधली  धूल  गुबार , भरी है आलू  जनता।।


💐 शुभमस्तु !


31.12.2020◆4.00अपराह्न

नेता ही भगवान [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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नेता ही भगवान है,जनता पूजक भक्त।

पूँछ बनी भेड़ें सभी,सत्तासन अनुरक्त।।


चला  बवंडर  देश  में, जनता रजकण मात्र।

पीछे  चलने को बनी,मात्र भेड़  ही    पात्र।।


जनताअब जनता नहीं,मतदाता मतिहीन।

खोए हैं अधिकार सब,राजनीति का दीन।।


खोकर के जनबोध को,हुई विसर्जित आज

जनता है कण धूल का,देखे चम चम ताज।।


'पट भी मेरी चित्त भी,मुझे चाहिए जीत।

अंटा  मेरे  बाप का,शत्रु न कोई   मीत।।'


उनमें सब अवगुण भरे,मैं ही गुण की खान।

बिना  मिले सत्ता मुझे,सूख रहे  हैं   प्रान।।


चाहे   बेचें  देश  हम, चाहे  बनें   गुलाम।

अर्थ जाय पाताल में,फिर भी करो प्रनाम।।


राजनीति में झूठ का,   बहुत बड़ा है योग।

अंधा  बाँटे  रेवड़ी, करें  मीत ही    भोग।।


सत्ता  सच  से  दूर  है, अस्त्र हमारा  झूठ।

अपनों को वरदान हम, बंद सभी को मूठ।।


जनता तो बस आम है,चुसना उसका काम।

चाहें निकले प्राण ही,फिर भी करें   प्रनाम।।


भोले -से वे लोग हैं, हम भाले की नोंक।

खुश होते नारे लगा,भले आग में झोंक।।


💐 शुभमस्तु !


31.12.2020◆2.30अपराह्न।


हर समय नसीहत [ गीत ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हर समय  नसीहत मिलती है,

क्या आँख  कान  अंधे बहरे?

क्षण- क्षण मानव को सिखा रहा,

दे   देकर    तेरे    दर   पहरे।।


आती   है    कभी   महामारी,

भूकम्प  कभी   आ जाता  है।

अतिवृष्टि कभी सूखा अकाल,

नर ही  नर को  खा जाता है।।

ये कालचक्र  रुकता न  कभी,

कुछ  दाग  छोड़ता  है  गहरे।

हर समय नसीहत मिलती है,

क्या आँख कान अंधे  बहरे??


बाहर    बदबू   भीतर   बदबू,

पावनता   खोज  रहा मानव।

हैं   काम   बुरे,  खोटे,   खट्टे,

बन जाता है   मानव  दानव।।

गीदड़  ने खाल ओढ़  ली  है ,

छिप  रहे  मुखौटे   में  चहरे।

हर समय नसीहत मिलती है,

क्या आँख कान अंधे बहरे??


पशु मानव में अब होड़ लगी,

पशुता  ही   पहले  जीती  है।

मानवता तो  बस   ढोंग शेष,

कर्मों   की  गागर  रीती  है।।

भगवान   बने  पुजते   नेता,

जो जहर भरे  घट  हैं  गहरे।

हर समय नसीहत मिलती है,

क्या आँख कान अंधे बहरे??


कंचन कामिनि का दास बना,

नर   धर्मदास    कहलाता  है।

रँग कर तन  पर  चीवर पहने,

वह व्यास  बना पुजवाता है।।

ढोंगी   संसार    मान    पाता,

उसकी ही ध्वजा आज फहरे।

हर समय  नसीहत मिलती है,

क्या आँख कान अंधे  बहरे??


सत्ता   पर    गुंडे   काबिज़ हैं,

काबिल  की  कोई  पूछ नहीं।

भेड़ों   की   भीड़  चले  पीछे,

होती  है   उसकी  पूँछ नहीं।।

तानाशाही       के     बलबूते,

जनता   भोली  उनसे  थहरे।

हर समय नसीहत मिलती है,

क्या आँख कान अंधे बहरे??


'चित भी  मेरी  पट  भी  मेरी,

अंटा   है    मेरे   बापू    का।'

है 'शुभम'सियासतआज यही,

अंधे  भक्तों  के   टापू   का ।।

हर   तरह   हमारी  हो सत्ता,

हैं   बने  देश  के   वह महरे।

हर समय नसीहत मिलती है,

क्या आँख कान अंधे बहरे??


*थहरे=थर्राती है।

*महरे=पूज्य,श्रेष्ठ,मुखिया।


💐 शुभमस्तु !


31.12.2020◆11.45पूर्वाह्न।

बवंडर में धूल का कण बनाम जनता [अतुकान्तिका]


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✍️ शब्दकार ©

🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आज की जनता ने

अपना जनता होने का

जनतात्व - बोध

समग्रतः 

विसर्जित कर दिया है

मात्र  एक  नेता में।

आज वह 

अपने अंधत्व में 

खाली है,

ज्यों जनतंत्र में

चौपालों पर सुलगती हुई

पराली है।


आज की जनता

नहीं रही अब जनता,

जनता का जनबोध

खोखला ही तनता, 

वह मतदाता भी

 नहीं है,

जो वह मान ले

वही सही है।


आज की जनता है

धूल का एक कण

निर्जीव ,

अस्तित्वविहीन,

किसी बवंडर के पीछे

उड़ने वाला 

मात्र तिनका।


जनता का अस्तित्व

उसका महत्त्व

नष्ट किया जा रहा है,

मगर उसे

राजनीति को

 विकृत करने में

  परम आनंद

  आ रहा है,

आज जनता

 राजनीति की

चहेती बन गई है

अपने ही आत्मघाती 

भविष्य के लिए।


कोई भी जनता

जब बन जाती है भक्त,

किसी दल

 या नेता में

अनुरक्त,

नष्ट हो जाता है

उसका विवेक,

नहीं रह पाती

 वह नेक,

नहीं कर पाती

सत्य का अभिषेक,

बनकर रह जाती 

मात्र बरसाती भेक,

दलों के दलदल में

लथपथ

बस टर्र- टर्र की टेक!


बवंडर के पीछे 

उड़ता हुआ

धूल का कण,

जनता  के 

दुखते हुए वृण,

दिन प्रति दिन

क्षण-क्षण।


💐 शुभमस्तु !


30.12.2020◆3.30अपराह्न।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

समय सत्य का त्राता [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हर साल  नया होकर आता।

मैं समय, सत्य का ही त्राता।।


मैं  बुरा  नहीं   अच्छा  होता।

अनवरत  बहे   मेरा  सोता।।

अच्छा कोई   बद  बतलाता।

मैं समय,सत्य का ही त्राता।।


मैं ब्रह्म,  सत्य का वाचक हूँ।

मैं नहीं जगत का याचक हूँ।।

यह सत्य तथ्य मैं समझाता।

मैं समय,सत्य का ही त्राता।।


सबके कर अलग तराजू है।

कुछ वाम दाहिनी बाजू है।।

सबको मैं नहीं कभी भाता।

मैं समय,सत्य का ही त्राता।।


सरिता     में    मुर्दे   बहते हैं।

कुछ धार चीर  कर  रहते हैं।।

मुझको तो बस चलना आता।

मैं समय, सत्य का ही त्राता।।


मैं तो  तटस्थ  नित रहता हूँ।

यह गूढ़ सत्य  मैं कहता हूँ।।

तव कर्म नए फल का दाता।

मैं समय,सत्य का ही त्राता।।


तुम ईश,काल,यमपाश कहो।

या धर्मराज  का वास कहो।।

नीमों में  आम  नहीं  लाता।

मैं समय,सत्य का ही त्राता।।


जिसको साला वह साल कहे।

जिसको माला वह माल कहे।।

मैं वर्ष,  वर्ष   में   ही  आता।

मैं समय,सत्य का ही त्राता।।


मैं 'शुभम'अशुभ कुछ भी मानो।

कर्मों  का  फ़ल  मुझसे जानो।।

माया  में  मनुज   भूल  जाता।

मैं समय, सत्य  का  ही त्राता।।


💐 शुभमस्तु !!

29.12.2020◆4.30 अपराह्न 


पौष की रात [ बाल कविता]


★★★★★★★★★★★★★★★

✍️ शब्दकार ©

🌟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

★★★★★★★★★★★★★★★

तारे         छिपते।

दिप -दिप दिपते।।


रजनी    काली ।

बड़ी   निराली।।


झींगुर       बोलें।

झंकृत     डोलें।।


पौष       महीना । 

तन- पट  झीना।।


शीत       समाया ।

सहे   न    काया।।


बाग         बगीचे।

लगते       सींचे।।


कुहरा       छाया।

धुँधली     माया।।


ओस      बरसती।

नभ   से   झरती।।


नीड़       शांत  हैं।

कीर    क्लांत  हैं।।


झेंपुल        बोली ।

भोली  -    भोली।।


भोर   हो      गया।

शोर   हो    गया।।


चिड़ियाँ    चहकीं।

कलियाँ    महकीं।।


💐 शुभमस्तु !


29.12.2020◆12.15 अपराह्न।

भालू आया [ बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार©

🐻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भालू      आया ।

नाच    दिखाया।।


एक      कलंदर ।

सँग   में  बंदर।।


छम - छम नाचे।

भरे      कुलाँचे।।


धारे        लाठी।

नाम      मराठी।।


झबरा      भालू ।

खाए      आलू।।


बंदर        चालू।

नाम     समालू।।


दोनों         नाचें।

खबरें        बाँचें।।


नहीं        झगड़ते।

कभी    न  लड़ते।।


सब    खुश  होते।

बालक       रोते।।


माँ       समझाती।

पैसे         लाती।।


भालू         बंदर ।

'शुभम' कलंदर।।


💐 शुभमस्तु !


29.12.2020◆11.15पूर्वाह्न।

बँदरी- बंदर [बाल कविता]

 

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✍️ शब्दकार ©

🐒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आया  देखो   एक  कलंदर।

कपड़े  पहने  बँदरी - बंदर।।


 बँदरी  कुर्ता  सँग सलवार।

 बंदर       पहने    धारीदार।।


कंधे   पर    लाठी   धर के।

गुस्से   में    जाता भर के।।


बहू     बँदरिया   को  लाने।

ससुरालय   में  रिस  ढाने।।


आगे  -    आगे     बंदरिया।

बंदर   पीछे   दौड़   लिया।।


उन्हें   कलंदर    समझाता।

बंदर     ठंडा   हो   जाता।।


बंदरिया    को   माफ़ी    दे।

लौटा    सिर  धर साफी ले।।


नाच    रहे    बँदरी  -  बंदर।

गोल   भीड़   के  ही अंदर।।


बजी  डुगडुगी   गली-गली।

'शुभम' देखते लला - लली।।


💐 शुभमस्तु !


29.12.2020◆10.45पूर्वाह्न।


भोर जागरण [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भोर  - जागरण  है हितकारी।

खिल जाती तन-मन की क्यारी।।


भोर-जागरण जो भी करता।

बीमारी  से  कभी  न डरता।।

काम  न  कोई  लगता  भारी।

भोर -जागरण  है हितकारी।।


आलस कभी न हमें सताता।

तन-मन में फुर्ती भर लाता।।

ताकत कभी न हिम्मत हारी।

भोर-जागरण  है  हितकारी।।


शीघ्र   जागकर टहलें थोड़ा।

पड़े न रोगों का फिर कोड़ा।।

पीवें जल -गिलास नर-नारी।

भोर -जागरण  है हितकारी।।


उदर  स्वच्छ  कर करें गरारे ।

दातुन , मंजन  खूब  सँभारे।।

ताजा जल नहान की बारी।

भोर -जागरण है हितकारी।।


जल्दी    सोएँ  जल्दी  जागें।

निद्रा - मोह शीघ्र उठ त्यागें।।

'शुभम'   प्रातराश    तैयारी।

भोर -जागरण है हितकारी।।


💐 शुभमस्तु !


29.12.2020◆9.45 पूर्वाह्न।

जाड़ा आया [ बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जाड़ा      आया।

कुहरा     छाया।।


धूप      सुहानी।

शीतल   पानी।।


अब   अगियाने ।

लगें      सुहाने।।


पस्त    हौसले।

शांत   घोंसले।।


चिड़ियाँ    बैठीं।

ऐंठी     -  ऐंठी।।


हरे    खेत   हैं।

शीत    रेत  हैं।।


ओस   बरसती ।

टप- टप करती।।


भैंस     रँभाती।

गाय   खुजाती।।


खुश   हैं पिल्ले।

हुए      मुटल्ले।।


भूरे       बादल।

नभ में रलमल।।


शिशिर  छा गई।

'शुभम' भा गई।।


💐

 शुभमस्तु !


29.12.2020◆8.00 पूर्वाह्न।

खुशियाँ [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                 -1-

भौतिक सुख,सुख का संभ्रम है,

लगता  दीपक   लेकिन  तम है,

खुशियाँ   वहाँ   नहीं  हैं  साथी,

न्यून  न्यूनतम  सुख का क्रम है।


                   -2-

माया  की   छाया   में   अंधा,

मानव के पग,तन , मन,कंधा,

दिन  में  लेकर   दिया  ढूँढ़ता,

खुशियाँ, सपने का यह धंधा।


                  -3-

पर  - पीड़क  के  नैन  नहीं हैं,

सोते - जगते   चैन    नहीं   हैं,

खुशियाँ   कैसे   उसे  मिलेंगीं,

'शुभम'सरल,सत बैन नहीं हैं।


                   -4-

मन में ही  खुशियाँ  बसती हैं,

बागों  में  कलियाँ   हँसती  हैं,

माया का गुलाम  बन सिसके,

मानव'शुभम'खुशी रिसती हैं।


                   -5-

पर - उपकारी   सदा सुखी है,

परपीड़क  जन  कालमुखी है,

'शुभम' उसे  खुशियाँ हैं सारी,

दीन -हीन लख बना दुःखी है।


💐 शुभमस्तु !


29.12.2020◆2.00अपराह्न।

आओ जी नववर्ष मनाएँ [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आओ   जी   नववर्ष मनाएँ।

खेलें -   कूदें    हर्ष   जताएँ।।


माह  जनवरी  पौष महीना।

माघ फरवरी  नहीं  पसीना।।

फ़ागुन  मार्च   रंग   बरसाएँ।

आओ  जी  नववर्ष  मनाएँ।।


अप्रैल   माह   चैत्र का होता।

मई ग्रीष्म का  बहता सोता।।

हिंदी   में     वैशाख   बताएँ।

आओ जी  नववर्ष   मनाएँ।।


जून  जेठ   की  गर्मी  वाला।

खुले जुलाई रिमझिम ताला।।

हम   अषाढ़   में  झूमें  गाएँ।

आओ  जी  नववर्ष   मनाएँ।।


सावन  में  अगस्त  आता है।

मन  को  भादों  हर्षाता  है।।

मेघ   सितंबर  जल बरसाएँ।

आओ जी   नववर्ष मनाएँ।।


अक्टूबर फिर माह नवम्बर।

और अंत में शीत दिसम्बर।।

आश्विन कार्तिक अगहन आएँ।

आओ   जी  नववर्ष मनाएँ।।


💐 शुभमस्तु !


29.12.2020◆6.30पूर्वाह्न।

आया नया वर्ष [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आया   नया वर्ष   शुभ आया।

विदा  बीस इक्कीस सुहाया।।


सब  निरोग   हों  भारतवासी।

मिट जाए उर  बसी  उदासी।।

कोरोना   की  रहे   न   छाया।

आया नया वर्ष   शुभ आया।।


सबको मिले   अन्न,गृह,पानी।

नहीं  रहे  अब   खींचातानी।।

लेकर  गया  न  कोई   लाया।

आया नया  वर्ष शुभ आया।।


मन  के  ईर्ष्या , द्वेष   मिटाएँ।

वैर   भाव    सम्पूर्ण   हटाएँ।।

याद न रहता कल क्या खाया?

आया  नया  वर्ष शुभ आया।।


मिटे   अमंगल   मंगल  आए।

काल  बली  के  काले  साए।।

मिटकर लाएँ  शुभ का पाया।

आया नया वर्ष  शुभ आया।।


अहंकार    विषवत  है  भारी।

रावण  की  लंका तक जारी।।

खाक हुआ हर मनुज तपाया।

आया नया  वर्ष शुभ आया।।


निर्मल   हो  गंगा  का   पानी।

हर  नारी  हो  घर की  रानी।।

पति,संतति सँग स्वर्ग सुहाया।

आया  नया  वर्ष शुभ आया।।


धर्म, कर्म   का  पतन न होवे।

भूखा  कोई  मनुज  न सोवे।।

गीत 'शुभम'  ने  मंगल गाया।

आया नया  वर्ष  शुभ आया।।


💐 शुभमस्तु !


28.12.2020◆5.15अपराह्न।


भोजन,पानी और हम [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भोजन  करके  लेटिए,साँसें आठ   उतान।

सोलह  दाएँ लीजिए,बत्तिस वाम सुजान।।


भोजन  के उपरांत जब,लेटेंगे कुछ    देर।

पाचन होगा उचित ही,रुग्ण न होंगे  फेर।।


भोजन  के  उपरांत ही,करके कुछ   आराम।

सौ पग धीमे घूमिए,सुबह और नित  शाम।।


भोजन  के  उपरांत  मत,पीना पानी   मीत।

बिता  आध घंटा तभी,पीवें जल  सँग प्रीत।


सुबह जाग पानी पिएँ,पहले चार  गिलास।

पानी हो यदि गुनगुना,उचित न मानें हास।।


उठें  गुनगुना  नीर पी,उदर स्वच्छ  हो मीत।

स्वस्थ रहें तन मन सभी, उचित यही है रीत।


भोजन  के उपरांत भी,नीर गुनगुना   ठीक।

पाचन अच्छा हो 'शुभं',स्वस्थ रहे तन नीक।।


नित्य  गरारे जो  करे,हो विषाणु  से मुक्त।

कोरोना  भी दूर हो,अनुभव है ये  भुक्त।।


बाहर से आएँ कभी,धोकर मुँह,पद, हाथ।

पानी रुककर ही पिएँ,ताजा ही हो गाथ।।


नमक  हरिद्रा  डालकर, करें गरारे   रोज।

शुद्ध गलाअपना रखें,मुख का खिले सरोज।।


💐 शुभमस्तु !


25.12.2020◆5.30पूर्वाह्न

समय

 

            [ सायली ]

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✍️ शब्दकार ©

🚸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                    -1-

समय 

सबका सदा

अच्छा नहीं होता

बुरा भी   

नहीं।


                   -2-

जा 

रहा है

दो हजार बीस

आ रहा

इक्कीस।


                     -3-

दोष

क्यों देना

समय को मानवो!

गरेबाँ झाँको

अपना।


                     -4-

अतिक्रमण 

आदमी का 

बुलाता महामारी सदा

दोष देता

अन्यत्र।


                      -5-

दायित्व

नहीं लेता

आदमी अपने ऊपर,

बिगड़े काम

का।


                    -6-

शातिर

बुद्धि का 

इंसान मढ़ता दोष

कोरोना का

 रोना।


                     -7-

प्रदूषण

किया तुमने

कोरोना को दोष

'शुभम'कैसा

रोष।


💐 शुभमस्तु !

27.12.2020◆3.45 अपराह्न।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हर  वक़्त  बोझ से मन भारी।

लगता मन भर का कन भारी।


मन ही  चालक है जीवन  का,

सँभले  न  रोग  तो तन भारी।


जब  दाल  झूठ  की गले नहीं,

लगता सच का तृन-तृन भारी।


कायर  तो    पीठ  दिखाते  हैं,

लगता  उनको  हर  रन भारी।


जब  साँपों  में विष नहीं भरा,

लगता उनको निज फन भारी।


जब   दूध  नहीं  देती  गौ माँ,

लगते किसान को थन भारी।


जिनके   कंधे   मजबूत  नहीं,

उन  कंधों  पर  है  गन भारी।


पढ़ने से हो जब अरुचि 'शुभम',

तब  लगे  घण्ट की टन भारी।


💐 शुभमस्तु !


27.12.2020◆3.00अपराह्न।

ग़ज़ल

 

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✍️शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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इंसाँ     रंग     बदलते    देखे।

बनकर  गिरगिट छलते देखे।।


अपने   ही  अपनों  को ठगते,

आँच   दाह  की  जलते  देखे।


मुँह  में  राम  बगल  में बरछी,

चाल   मराली    चलते   देखे।


इतराकर    जो  चलते  भू पर,

वे   तारों  - से   ढलते    देखे।


पत्थर  दिल   इंसाँ  भी हमने,

हिमवत  सदा पिघलते   देखे।


कीड़े  समझ  रहे  मानव को,

कर  अपने   वे   मलते  देखे।


'शुभम 'तान छाती  चलते थे,

नज़र   झुकाए   चलते  देखे।


💐 शुभमस्तु ! 


27.12.2020◆6.45पूर्वाह्न

ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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किसी को तो अपना बना कर तो   देखो 

नेह का एक दीपक जला कर तो देखो।।


रोते   भला  क्यों धन औलाद को    तुम,

प्रभु -  पाद   में  उर  लगा कर  तो देखो।


'मैं'    'मैं'   में    खोया   हुआ   है   जमाना,

निर्धन   की  कुटिया सजा कर तो    देखो।


श्वान भी हर गली  का  उदर अपना भरता,

भूखे    को   रोटी  खिला  कर  तो    देखो।


सीधे    जो      होते     वही    पेड़  कटते,

टेढ़े   जो   खड़े  हैं  कटा कर  तो   देखो।


नारों    से     चलता     नहीं  देश    कोई ,

प्रेम   देश  के   हित  उगा  कर तो   देखो।


'शुभम'   देश   को   बेच भरते जो   झोली,

दोमुँहे  साँप का फन दबा कर तो   देखो।


💐 शुभमस्तु !


26.12.2020◆7.30 अपराह्न।

गुलगुलों से परहेज़ [अतुकान्तिका]


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✍️शब्दकार©

🍁 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गुड़ खाएँ 

गुलगुलों से परहेज़!

रखी है अपनी

विचित्र खिचड़ी संस्कृति सहेज,

जिसे  कहें वेज

चाहें कहें नॉनवेज!


जीवन का हर काम

चलता ईस्वी सन से

सुबह से लेकर शाम!

पर विरोध के लिए

विरोध से

होता हमारा नाम! 

हिंदी तिथियों को

करना सरनाम ,

ईस्वी के

विशेष विरोध का पयाम,

देना ही हमारा काम।


ब्याह की होती

 जब चाह,

याद आ जाती 

हिंदी  तिथि

 माह  की राह,

परंतु आमंत्रण पत्र में

रहती जरूर 

अंग्रेज़ी तारीख।


स्कूल,कॉलेज,ऑफ़िस,

ट्रेन, बस , वायुयान,

सेवा , व्यवसाय ,अदालत,

कमाई हुई आय,

कर, हाय! हाय!

टाटा बाय! बाय!!

सबमें

अंग्रेज़ी तारीख की 

दवाई,

पिलाई जाती घुट्टी में

अंग्रेज़ियत की चाय,

खाया जाता 

आजीवन गुड़ !गुड़ !!

और गुड़!!!

तब नहीं देखता 

पीछे मुड़ ,

बस अंग्रेज़ी का हुक्का 

होता रहता गुड़- गुड़!


रेल ,बस परिवहन,

या वायुयान,

विश्वविद्यालय की परीक्षा,

किंडर गार्टन के एग्जाम,

सबके टाइम टेबिल 

नहीं बनते

सावन सुदी सप्तमी,

फाल्गुन वदी नवमी,

अथवा  

कार्तिक  सुदी अष्टमी 

के काल दर्शक 

के अनुसार,

आता है नव वर्ष

तब कुछ

 लकीर के फ़क़ीर,

क्यों पकड़ने लगते

भूली हुई लकीर,

या कहें भुला दी गई

या भुला दी जा रही लकीर! 

तब याद आ जाती 

भूली हुई नानी की तरह

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा 

अथवा

ऐसा ही कुछ -कुछ! 

बड़े ही प्रेम से

जीवन भर

 गुड़ खाने वाले

करते हैं 

गुलगुलों से परहेज़!

बस गुलगुलों से परहेज़!


💐 शुभमस्तु!


24.12.2020◆ 7.55 अपराह्न।

रविवार, 20 दिसंबर 2020

बगुला खड़ा अधीर [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कलगी  लगा  मयूर  की,देता मुर्गा    बाँग।

कपट-भेद टिकता नहीं,करले कितना स्वांग।


टाँग  देख  शरमा  रहा, अपनी मोर    महान।

सबको सब कुछ है नहीं,यही रहस पहचान।।


भुस  में आग लगा खड़ी, कूर जमालो   दूर।

ताली दे - दे हँस रही, लूट मज़ा    भरपूर।।


एक टाँग पर ध्यान में,बगुला खड़ा अधीर।

मछली  आई  दृष्टि में, टूट पड़ा    बेपीर।।


दो  बिल्ली  के बाँट में,बंदर न्यायाधीश।

बिल्ली मुँह को ताकतीं,रोटी खाता   कीश।।


सारस लोमश मित्रता, निभे न दिन दो चार।

कपट भरा मन में बड़ा,कैसे हो   आहार??


लोमशजी ने  खीर की,भरकर बड़ी   परात।

रखी  जीमने  सामने,सारस समझा   घात।।


देख  सुराही  खीर की,  लोमशजी  हैरान।

सारस ने बदला लिया, लौटा भृकुटी तान।।


आज  शेर की  माँद में,गीदड़ डाले   टाँग।

खालओढ़कर शेर की,खुला ढोंग का स्वांग।


कौआ ओढ़े सित वसन,चला हंस की चाल।

भेद खुला जो वेश का,बना न काक  मराल।।


साँप छुछून्दर मिल गए, असमंजस की बात।

कैसे  उगले ले निगल,कहो साँप अब  तात।


💐 शुभमस्तु !


15.12.2020◆5.45अपराह्न।

देशभक्ति कहते किसे! [ दोहा - ग़ज़ल]


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✍️ शब्दकार ©

🏵️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देशभक्ति कहते किसे,किस चिड़िया का नाम

नहीं जानते देश जन,करते नमक    हराम।।


नारों   से   होता  नहीं ,  कभी देश   उद्धार,

देशभक्ति   के  नाम  पर,करते हैं  बदनाम।


बने  देश  पर भार  जो, बंगला गाड़ी  मुफ़्त,

सुविधाएं सब मुफ़्त की,चमकाना बस चाम।


कर  चोरी  जो  कर रहे, वैभव के   भंडार,

देशभक्त   कहला  रहे,  वे ही चारों   धाम।


जिन  पर  कोई वश नहीं,जैसे छुट्टा   बैल,

खुले फ़सल को खा रहे,मुखपट नहीं लगाम।


सौ- सौ चलें  मुकद्दमे, फिर भी  दुग्धस्नात,

शीत  नहीं  उनको लगे,लगे न गर्मी    घाम।


जितना   लोहू  चूसते ,  उतना ऊँचा    नाम,

'शुभम' स्वर्ग की सीढ़ियाँ,सजा गए सुरधाम।


💐 शुभमस्तु !


15.12.2020◆8.00अपराह्न।

आओ तापें [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🍂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आओ   तापें  आग  जलाएँ।

अब अलाव अपना सुलगाएँ।


दादी को   अब ठंड  सताती।

ठिठुर काँप कंबल में जाती।।

दादी  को    गर्मी    पहुँचाएँ।

आओ तापें  आग   जलाएँ।।


बाबा  काँप   रहे   हैं थर -थर।

ओस गिर रही ऊपर झर-झर।

उनको   भी    पूरा   गरमाएँ।

आओ   तापें   आग जलाएँ।।


भरी  शीत  में  दही  बिलोती।

अम्मा   बरामदे    में   सोती।।

जाड़े का  कुछ  जतन कराएँ।

आओ  तापें   आग  जलाएँ।।


छप्पर   में   है  भैंस  रँभाती।

ठिठुर शीत  से   गैया जाती।।

आग  जलाकर  उन्हें  तपाएँ।

आओ  तापें  आग  जलाएँ।।


चिड़ियों  की  ऐसी   मजबूरी।

आग-ताप   से  है अति दूरी।।

सांय -सांय  चल रहीं हवाएँ।

आओ तापें  आग   जलाएँ।।


💐 शुभमस्तु !


20.12.2020◆2.15अपराह्न।


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कहते मुझको दियासलाई [ बालगीत ]

 

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✍️शब्दकार ©

🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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छोटी - सी डिबिया मनभाई।

कहते  मुझको  दियासलाई।।


चूल्हे  में  मैं  आग   जलाती।

बर्नर गैस -स्टोव  सुलगाती।।

सब्जी, रोटी    नित बनवाई।

कहते  मुझको दियासलाई।।


लड्डू ,  पेड़ा,  रबड़ी मीठी।

मधुर  जलेबी  या  हो पीठी।।

सदा  बनाते  सभी   मिठाई।

कहते  मुझको  दियासलाई।।


पानी , दूध   गर्म  मैं  करती।

पानी  में  गिरने   से डरती।।

गर्मी   मुझमें  सदा   समाई।

कहते  मुझको दियासलाई।।


दीप  जलाती  हवन कराती।

देव- आरती  भी  करवाती।।

नर - नारी  को  खूब सुहाई।

कहते  मुझको दियासलाई।।


ठिठुरे   जाड़े  से  जब  दादी।

पहने    बैठी   सूती   खादी।।

अगियाने   में   आग जलाई।

कहते  मुझको दियासलाई।।


अग्निदेव    मुझमें   रहते  हैं।

सभी लोग सच ही कहते हैं।।

'शुभम'देव बन  जग में छाई।

कहते  मुझको  दियासलाई।।


💐 शुभमस्तु !


2012.2020◆12.30अपराह्न।


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दायज़ [ कुण्डलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©।

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                     -1-

दायज़ हमें न चाहिए, मुख में यह  आदर्श।

पर मन में कुछ और है,करता तप्त अमर्ष।।

करता तप्त अमर्ष, पड़ा मध्यस्थ   रार   में।

कैसे निकले राह, नाव है फँसी   धार  में।।

शुभम ब्याह की बात,कहे क्याअपना वाइज़।

मुख से  बोले  राम,गले में अटका  दायज़।।


                     -2-

दायज़ की मख़मल बिछी,जो गूँगा नत नैन।

पिता,   पुत्र  का  सोचता, कैसे बोले    बैन।

कैसे  बोले   बैन,  ब्याह  तो करना   है   ही।

बची रहे मम लाज, बने वह क्यों सुत-सेही।।

'शुभम'न खोले ताश,तुरुप का अपना वाइज़।

मन में सुदृढ़ विचार, पुत्र-माँ चाहे दायज़।।


                      -3-

दायज़ को अनुचित कहें,देते पर-उपदेश।

मन मन भावें वे सभी,हिलें मुड़ी सँग केश।

हिलें मुड़ी सँग केश,सास झोली  फैलाती।

भरती पति के कान, बने  आँसू  औलाती।।

'शुभम' सुता बैचैन,नहीं अब कोई वाइज़।

अब भी लेआ कार,नहीं था तब यदि दायज़।


                     -4-

दायज़ से परिवार की ,टूट गई सुख शांति।

बेटी रोती रात-दिन,शेष नहीं मुख-कांति।।

शेष नहीं मुख-कांति,सुता माँ बाप  दुखारी।

ताने   मारे  सास,  न  लाई दायज़    दारी।।

'शुभम'कलह का धाम,मरे सब पहले वाइज़।

दायज़ की अति भूख,रटे सपने में  दायज़।।


                     -5-

दायज़ के मारे मिटे, कितने घर,परिवार।

घर,खेती को बेचकर,किया ब्याह-संस्कार।

किया  ब्याह- संस्कार ,उधारी ऐसी   भारी।

पड़े  पिता  बीमार, हुई  माता की   ख़्वारी।।

'शुभम'सताती सास,बहू को नित नाजायज़।

सुता -जन्म अपराध,नहीं दे पाए  दायज़।।

शब्दार्थ :

दायज़=दहेज।

वाइज़=नसीहत/उपदेश देने वाला।

दारी=महिलाओं की एक गाली।


💐 शुभमस्तु !


18.12.2020◆3.00अपराह्न।

नहीं थकी अब भी [ अतुकान्तिका]


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✍️शब्दकार ©

🧕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आजीवन ढोया भार

कभी उदर में

कभी कंधों पर,

समर्पित ही रही नारी

गूँगे,बहरों

और अंधों पर।


नहीं मिली है 

निजात,

निरंतर आघात पर आघात,

पर नहीं थकी

मुसम्मात।


बचपन से यौवन

यौवन में नवोढ़ा,

मुग्धा या ऊढ़ा,

पश्चात परिपक्व प्रौढ़ा,

और अब

बेदम देह की पीड़ा!

वृद्धता की दारुण क्रीड़ा,

फिर पीठ पर 

लादे हुए

लकड़ियाँ,

ईंधन का बीड़ा,

किस बात की

शेष रही व्रीड़ा?


दबती ही रही

बोझों तले,

भोर से लेकर

साँझ ढले,

कितना ही

धीमे चले,

पर रुकी नहीं,

चलती रही,

अपने सुखों की दाल

दलती रही,

नहीं कोई भी मलाल!

धैर्य धारिणी वृद्धा,

अकाल या दुकाल,

समय को छलती रही।


त्याग की देवी,

श्रम की पुतली

झुकी हुई कमर,

अब नहीं आते

गुंजारते भ्रमर

पर जूझती रही,

'शुभम'समर पर समर,

और देवी नारी

हो गई अमर।


💐 शुभमस्तु !

19.12.2020◆10.30पूर्वाह्न।


🧕🌹🧕🌹🧕🌹🧕🌹🧕

मखमल के तले [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार©

🪘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दुम हिलाने के लिए

यहाँ वहाँ कुत्ते,

खोंखियाने के लिए

बंदर सदा  ताते,

दहाड़ने के लिए

वनराज शेर,

देखना है यदि

कहीं अंधेर,

तो आइए देखिए

सियासती बेर,

जनता की देह के

पल्लव केर।


हंस भी

कौवे भी,

डराते हुए रोज़

हौवे भी,

नहीं लड़ते चुनाव

हंस कभी,

सताते रहे हैं

सदा रावण,कंस सभी,

नहीं रही आँखों में

जिनके लेश भर नमी,

प्रकाश का अभाव ही

अँधेरा है,

पुण्य का अभाव

पाप का बसेरा है।


अस्तित्व है

पिपीलिका का

मूषक का,

खटमल का  या मच्छर का

रसक्तचूषक का,

सहजीवन का

विचित्र संयोग,

मानव - शरीर  में

गिद्ध  भी तो हैं,

विनम्र भले लोग

उनसे बिद्ध ही तो हैं!



सियासती मखमल तले

छिपी लीद की ढेरी,

चादर जो हटी तो

नहीं मेरी !नहीं मेरी!!

चाहिए सबको तरक्की

मखमल को ओढ़कर,

मुखौटों के नीचे

छिपे चेहरों को छोड़कर।


कंचन कामिनी की सीढ़ियां

चढ़ती रहीं जिनकी पीढ़ियाँ,

उनको क्या समझेंगी!

अतीत की बूढ़ियाँ!

कल के बंदर

आज भी हैं बंदर ही,

नचा रहे द्वार -द्वार

'शुभम' हैं तो 

ठेठ कलंदर ही!


💐 शुभमस्तु ! 


17.12.2020◆7.15 अपराह्न।

अन्नदाता [अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अन्नदाता!

देश का

कब हँसता !

कब मुस्कराता!

कुछ पता लगता ?


अन्नदाता!

अन्न के 

कण - कण में बसता,

मानव मात्र से 

जन्म- जन्म का  रिश्ता,

एक दैवी फरिश्ता,

उसका मूल्य 

देश नहीं जानता।


अन्नदाता को

बरगलाया 

बहकाया

बहलाया फुसलाया 

सियासत ने,

जीवन का दाता,

नेताओं को नहीं भाता,

अन्न ,दूध ,फ़ल,

सब्जी , शाक,

मिष्ठान्न , धान्य,

किसे नहीं मान्य?


देता है सदा ,

पर सियासत के लिए

वही ढाक के तीन पात!

अन्नदाता है

हम आप सबकी नाक,

कर रही है

सियासत उसी का

गला चाक!


अभावों से 

सदा ही ग्रस्त,

सदा ही 

रहता है

अन्नदाता त्रस्त !

तथापि है 

वह अपनी

निजता में मस्त!


अन्नदाता के

देह का श्रम,

बहता हुआ पसीना,

उन्नत मस्तक

चौड़ा सीना,

मोती के बिंदु,

श्रम-सीकर 

पीकर जीता !

फिर भी रीता का रीता!

फटे हुए चीथड़े 

जोड़ -जोड़  सीता,

धरती ही गंगा ,

धरती ही गीता!

सियासत तथापि

कर रही फजीता!


सशक्त नहीं हो

किसान!

चाहते सभी 

बना रहे

निर्धनता की खान! 

कैसे पढ़ाए बच्चे

कैसे करे शादी!

उधर सियासत के

दरिंदों से,

मुक्त नहीं होता कभी,

नहीं होने देना 

चाहते वे ! 


नेताओं के सुपुत्र

पढ़ें विदेश!

अन्नदाता  को नहीं

मिलता स्वदेश!

असमानता का ताण्डव,

राजनीति का चौसर

किसने फैलाया?

अभावग्रस्त त्रस्त

बनाए रखने का 

तंत्र !

अन्नदाता रहा 

गुलाम और परतंत्र!

असमानता 

विषमता 

अनेकता

खण्ड- खण्ड भारत!


अन्नदाता का घर।

परिवार सब गारत!

ढह गई कृषक की

सुख समृद्धि की इमारत!

क्या कहीं 

कुछ भी है 

'शुभम' उसका

घरनी नहीं खुश

न बाल-बच्चे को

न नई कमीज

न साबुत बस्ता!

फ़िर मेरा अन्नदाता

कैसे हँसता?

कैसे मुस्काता?


💐 शुभमस्तु !


10.12.2020◆ 8.25 अपराह्न।

कौन देश का शुभचिंतक है! [ गीत ]

 

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✍️शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कौन देश   का  शुभचिंतक है,

कौन    देश   का   रखवाला !

चूल्हा   राजनीति   का तपता,

खंडित   भारत   कर डाला।।


धरती सभी  किसानों  की है,

फसलें   काट    रहे     नेता।

हित को अनहित बतलाते हैं,

नेता   नहीं      कभी    देता।।

जाति, धर्म  में  जनता  बाँटी,

अगड़ा ,पिछड़ा  कर  डाला।

कौन देश का  शुभचिंतक है,

कौन   देश   का   रखवाला!!


दोष   दूसरों   के   दिखलाते,

नहीं   गरेबाँ    निज    झाँकें।

कोस  रहे  पानी  पी -पीकर,

पर करनी  को   ही   आँकें।।

ऊँच-नीच सब देन इन्हीं की,

छुआछूत       गड़बड़झाला।

कौन देश का शुभचिंतक है,

कौन   देश   का  रखवाला!!


नेताओं   में     आतंकी   भी ,

छिपे   हुए   मिल    जाते हैं।

आगजनी     हत्याएँ    करते,

फिर बिल  में   घुस जाते हैं।।

आतंकी   नेता    दल   सारा,

एक      रंग -  रूपों    वाला।

कौन देश का  शुभचिंतक है,

कौन   देश   का  रखवाला!!


कभी   किसानों   का  मुद्दा है,

कभी  छात्र    भी   भड़काए।

हिन्दू - मुस्लिम  रार ठानकर,

छिपे   नाग     बाहर   आए।।

देशभक्त   कहते   अपने को,

लगा   देश   में   वे     ताला।

कौन देश का  शुभचिंतक है,

कौन    देश  का  रखवाला!!


मन   में  भरी  धूर्तता  काली,

वसन   बगबगे     धारी   हैं।

भारतमाता   बिलख  रही है,

नेता     ही     बीमारी    हैं।।

इन्हें चाहिए   बस सिंहासन,

आँखों   पर    इनके  जाला।

कौन देश का शुभचिंतक है,

कौन  देश   का  रखवाला!!


नारी   को   कहते   वे माता,

उस   पर   अत्याचार   करें।

भोग्या   बना  उसे शैया पर,

नारी  से   व्यभिचार   करें।।

कथनी-करनी विषम हो गई,

निज   कपाल   उल्लू पाला।

कौन देश का शुभचिंतक है,

कौन  देश   का   रखवाला!!


गद्दारों   से    सावधान   रह,

निज   अस्तित्व   बचाना है।

संस्कार   निज  बचा भारती,

'शुभम' राष्ट्र  बन  जाना है।।

सुखी स्वस्थ  हो भारतमाता,

भावी   बने     नहीं   काला।

कौन देश का शुभचिंतक है,

कौन   देश   का  रखवाला!!


💐 शुभमस्तु !


09.12.2020◆4.45अपराह्न।

आग लगाना काम हमारा [ चौपाई ]

 

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✍️ शब्दकार 

🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आग  लगाना   काम  हमारा।

कृषक जले या कुनबा सारा।।

धरती उनकी  फ़सल  हमारी।

वे   बोएँ    काटें   हम  सारी।।


हम   भड़काते    बहकाते  हैं।

मदिरा हम   ही  पिलवाते हैं।।

सच को भी  सच नहीं मानते।

सीधी   राहें    नहीं   जानते।।


वे  पूरब  हम   पश्चिम  जाते।

उलटी  पट्टी   सदा   पढ़ाते।।

जो करता अनुगमन हमारा।

वही हमारा  सबसे  प्यारा।।


मुद्दे  बदल- बदल  कर आते।

सत्ता  के    झंडे    जलवाते।।

है   कुख्यात   चरित्र  हमारा।

अज्ञानी  बन  गया   सहारा।।


नहीं   देश   से   लेना -  देना।

सत्ता को बस  हथिया लेना।।

जैसे  भी  हो  हम  हथियाएँ।

ऊँचा सिंहासन   पा   जाएँ।।


देशभक्ति   खूँटी  पर   टाँगी।

मुर्गे   जैसे   हम  सब बाँगी।।

सीधे - सच्चों   को  मरवाएँ।

ऐसे   हुनर   हाथ  में  पाएँ।।


लगा  मुखौटे   हम  आते  हैं।

बस निरीह   को  मरवाते हैं।।

बहु  रूपों   में  हम  हैं  आते।

कृषकजनों को लुभा सताते।।


नहीं आँच  हम  पर  है आती।

कृषक और मजदूर जलाती।।

जब   सत्ता  में  हम आते हैं।

नियम   बदल  सारे जाते हैं।।


करतूतों  के  हम  नायक  हैं।

नहीं देश के  सुत लायक हैं।।

असली  रूप ,वेश  के  नीचे।

हमने   नागफनी  ही सींचे।।


आस्तीन   में    हम   पलते हैं।

जन जन को छल से छलते हैं।

'शुभम'नहीं कल्याण  हमारा।

डूब   रहा   है  अपना  तारा।।


💐 शुभमस्तु !


09.12.2020◆ 10.00पूर्वाह्न।


आदर्शों के फूल [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार©

🛣️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आदर्शों  के  फूल हैं, जड़ में भरा   दहेज।

परिणय करना पूत का बिछा मखमली सेज।


मुख में जपना राम रट, मन में मात्र दहेज।

भले  खेत  घर  बेच  दो,हमें गड्डियाँ  भेज।।


पिता,पुत्र का बन गया,लेने का   अधिकार।

ऊपर से उसको मिला,बना किसी पर भार।।


नारी, नारी  पर करे, बढ़ -  चढ़ अत्याचार।

माँगे प्रथम दहेज़ वह,ए सी फ्रिज़ औ'कार।।


मौन स्वीकरण बाप का,मन में चाह दहेज़।

बचा रहेआदर्श भी,अर्धांगिनि को  भेज।।


बलि का बकरा बन रहा,हर बेटी का बाप।

पैमाना सुत जनक का,करता छोटी  नाप।।


अगर नहीं धी सम रही,क्या समधी संबंध।

एक जमा आकाश में,एक धरा की  गंध।।


दायज़ को अनुचित कहें,देते पर- उपदेश।

मन में भाव दहेज़ के,हिलें नाग से  केश।।


सुख टूटा गृह शांति भी,दानव बना  दहेज़।

छप्पर छानी बिक गई,खबर सनसनीखेज।।


पुतहू के  माँ-बाप की,साँसें रोके    सास।

देवी क्यों इनको कहें,जो हैं यम की पाश।।


नारी आरी नारि की,बने ननद या  सास।

दायज़ की झोली बनी,बहू न आवे रास।।


💐 शुभमस्तु !


सिंहासन पर आँख है ! [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धरती धीर किसान की,फसलें काटें और।

नेता  आग लगा रहे, बुरा  देश का   दौर।।


राजनीति की रोटियाँ,ईंधन कृषक महान।

चूल्हों  पर  सिकने लगीं,मूँछें ऊँची   तान।।


चोर- उचक्के  देश के, बने हितैषी   आज।

जनहित की निंदा करें,सभी चाहते  ताज।।


नाम  अन्नदाता रखा,बहका कर की लूट।

आतंकी उनमें घुसे,डाल परस्पर   फूट।।


नहीं  देशहित चाहते,बस कुर्सी की चाह।

आग  लगाकर  तापते, नेता   बेपरवाह।।


ढाल बनाकर कृषक को,खेल रहे हैं चाल।

राजनीति कीचड़ सनी,कौवा बना मराल।।


कृषक,छात्र सब गोटियाँ,खेल वही शतरंज।

छल-पारंगत शकुनि हैं,कसते तीखे  तंज।।


नहीं देशहित चाहिए,ध्येय लगाना आग।

चाहे  उजड़े  देश  ये ,चाहे उजड़े  बाग।।


जाति, धर्म में बाँटकर, करते देश  विनाश।

विष  के  पौधे  रोपते,नेता शून्य   प्रकाश।।


सिंहासन पर आँख है,देश भक्ति का ढोंग।

ठगते सारे देश को,समझ सभी को  पोंग।।


पंक सियासत का कभी, होता नहीं  पवित्र।

डालें  गंगाजल  भले,  चाहे छिड़कें   इत्र।।


💐 शुभमस्तु।!


08.12.2020◆8.45अपराह्न 


शनिवार, 19 दिसंबर 2020

हाथी की हस्ती कितनी!🐜
 [ लघु कहानी ] 
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✍️ लेखक © 
🐘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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                     एक बड़े जंगल में चुनाव हुआ।कुछ जंगली पशुओं ने मिलकर हाथी को अपना प्रत्याशी बनाया।चूहा, चींटी, खरगोश,हिरन,सियार,लोमड़, जिराफ़,बंदर,ऊदबिलाब, नेवला आदि सब जानवरों ने हाथी के ओजस्वी भाषणों के प्रभाव में आकर बहुमत के साथ मतदान किया।दूसरी ओर शेर को समर्थन देने वालों में चीता, भालू,उल्लू,चमगादड़, गिद्ध जैसे हिंसक जानवर रहे। जोर शोर से प्रचार किया गया। किन्तु अंततः हाथी की जीत हुई और शेर परास्त हो गया।चींटियों के करोड़ों के एकजुट मतदान के कारण शेर महाराज पुनः जंगल के राजा नहीं बन सके। मतदान आयोग के अध्यक्ष भालू जी ने हाथी को तीन वर्ष के लिए जंगल का राजा घोषित कर दिया। जोर शोर से जंगल में मंगल का उत्सव मनाया गया।
             हाथी को शेर से भय तो था, इसलिए जंगल का वन मंत्री शेर को बना दिया। फिर क्या ! जहाँ - जहाँ हाथी महाराज की सवारी जाती , शेर महाराज उनका दाहिना हाथ बनकर मूंछों पर ताव देते हुए आगे -आगे चलते । इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए।
           एक दिन हाथी महाराज जंगल - भ्रमण पर निकले।शेर महाराज जो केंद्रीय वन मंत्री भी थे , साथ -साथ चल रहे थे।यकायक हाथी महाराज की दो बड़ी -बड़ी आँखों की तीव्र दृष्टि पंक्तिबद्ध जाती हुई चींटियों पर पड़ी। उन्होंने अपनी भारी - सी गर्दन शेर महाराज की ओर मोड़ी और पूछा। 
हाथी: मंत्री जी ! यह क्या देख रहा हूँ मैं ? 
शेर: महाराज ! ये चीटियाँ हैं ,जो अपने भविष्य के लिए चावल, गेहूँ, बाजरा, सरसों आदि के दाने एकत्र करके अपने भूमिगत बिलों में स्थित भंडार ग्रहों में संग्रह करने ले जा रही हैं। देखिए न!किसी के मुँह में चावल है ,किसी के बाजरा ,किसी के कुछ अन्य खाद्यान्न । 
 हाथी:अरे! ये अंधेरगर्दी कैसे ! भला हमारे शासन में ये तुच्छ प्राणी अपना भंडार कैसे भर सकते हैं? हम इस जंगल के राजा हैं तो हमारा ये दायित्व है कि शेर,चीतों,गिद्ध,मच्छर,उल्लू, चमगादड़ वगैरह सबको उनका भोजन मिले। जब यही अपने घर भर लेंगी,तो जंगल की खाद्य व्यवस्था का क्या होगा? सब कुछ अव्यवस्थित हो जाएगा। नहीं, हम इन्हें ऐसा नहीं करने देंगे। आज ही शाम सात बजे एक आवश्यक विशेष सत्र का आयोजन कराइए औऱ कुछ ऐसे निर्णय लीजिए कि यह सब बन्द हो ।ये ठीक है ,इनके ही विशेष औऱ सक्रिय मतदान से हम राजा बने हैं ,लेकिन आज हम सब जंगली जीवों के राजा हैं ,तो हमारा दायित्व है कि हम हमारे अपने पशु परिवार को क्यों इससे वंचित रखें? उन्हें खाने का पूरा हक है। जैसे तुम्हें हमने किसी को भी मारकर खाने का विशेष अधिकार दिया हुआ है ,वैसे ही सबको भी मिले ! 
  शेर: जी महाराज !आज ही विशेष सत्र बुलाता हूँ और देखते हैं कि ये निरीह चींटियाँ कैसे खाद्यान्न का संग्रह कर पाती हैं! शाम को सात बजे बाकायदा विशेष सत्र का आयोजन हुआ और सर्वसम्मति से कानून बनाया गया कि:- १.चींटियों को बिल में रहने का कोई अधिकार नहीं है।
 २.यदि चींटियाँ बिल में रहना ही चाहती हैं ,तो उन्हें किसी प्रकार के भंडारण की अनुमति नहीं है।
 ३.चींटियां यथाशीघ्र अपने बिलों को छोड़ने की तैयारी करें, और जमीन पर रहें।रोज कमाएं रोज खाएँ।इसके लिए उन्हें एक महीने का समय दिया जाता है।
            विशेष सभा में किसी कोने से एक चूहे की आवाज आई कि महाराज आप यह अन्याय कर रहे हैं। जिन के बल पर आप राजा बने , उन्हीं पर अत्याचार ! ये उचित नहीं हैं। अपको इन चींटियों की एकता औऱ शक्ति का अनुमान नहीं है । एक दिन आप हमें भी इसी प्रकार धरती से बेदखल करके अपनी पालतू बिल्लियों का ग्रास बना देंगे। औऱ हमारा अस्तित्व मिटा देंगे। क्या हमने आपको इसी दिन के लिए मत दिया औऱ राजा बनाया था? कि आप हमारी जड़ें ही खोदने पर उतारू हो जाएँ? ये सरासर अन्याय है।अत्याचार है! 
  हाथी: क्या कर लेंगीं ये तुच्छ चीटियाँ! एक ही पैर से मसलकर इन्हें ऊपर न पहुँचा दिया तो मेरा भी नाम राजा हाथी नहीं ।मसलकर रख दूँगा। मैं सबका राजा हूँ, सिर्फ़ चींटियों का नहीं। तुम चूहों का नहीं। देखता हूँ ,इनकी और तुम्हारी एकता की पॉवर? हूँ!!!....... कर लेना जो करना हो। 
          अगले दिन तो जैसे जंगल में आग ही लग गई। जंगल के सारे अख़बार और टीवी चैनल एक ही समाचार को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर सुर्खियों से भरने लगे।जैसा हाथी राजा ने चाहा ,वैसा फ़रमान जारी हो गया। निरीह चींटियां पहले तो बहुत दुःखी हुईं । बाद में कुछ बुजुर्ग चूहों के आश्वासन के बाद उनमें जोश आ गया।और हाथी राजा की राजधानी के चप्पे-चप्पे पर चींटियाँ ही चींटियाँ, चूहे ही चूहे ! फिर क्या ! हाथी को अपनी सूंड़ को बचाने की ख़ातिर जो करना पड़ा , वह सब जानते हैं कि कैसे एकता की शक्ति के समक्ष उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। कुछ हज़ार चींटियां जब उनकी नाक में यात्रा करने लगीं तो जान की आफ़त ही मोल ले ली। ये सोचकर उन्होंने अपने हथियार डालना ही उचित समझा। और सारा जंगल चींटी-चूहा एकता जिंदाबाद के नारों से गूँज उठा। 

💐 शुभमस्तु!

 04.12.2020◆3.30अपराह्न।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

मैं दहेज़ हूँ! [ व्यंग्य ] ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

 ✍️ लेखक© 

🎷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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        आप सभी लोग मुझे बहुत अच्छी तरह से जानते- पहचानते हैं। प्रायः लोग मुझे 'दहेज' के नाम से जानते हैं।दहेज़ एक ऐसी संपति है, जिसे विवाह के समय ,पहले अथवा बाद में लड़की वाले द्वारा लड़के वाले को दिया जाता है। इस बात को इस प्रकार भी कहा जा सकता है,कि लड़के वाले द्वारा लड़की वाले से उसकी इच्छा या अनिच्छापूर्वक धन अथवा सामग्री के रूप में   ले लिया जाता है। 

         वैसे तो मेरा जन्म शादी (सादी) के अवसर के लिए हुआ है। नाम तो सादी है ,पर ये केवल कोरे आदर्श और दिखावे की बात ही है। सादी के साथ बरबादी और आबादी का बहुत करीब का रिश्ता है। मानव समाज में आदर्श औऱ व्यवहार में मीलों का अंतर है। यहाँ दूर के ढोल सुहाने लगते हैं , पास में आने पर वे कानों में चुभते हुए शोर बन जाते हैं। यहाँ कभी दूध का दूध पानी का पानी नहीं होता। बड़े - बड़े आदर्शों की बातें कही जाती हैं,पर उन पर चलता कोई भी नहीं है। ढोल में पोल की तरह सब जगह पोल ही पोल है। इस मामले में धरती गोल है। आदमी की बातों में जितना झोल है ,उतना कहीं भी नहीं । 

            कुछ साहसी बापों में इतना साहस होता है कि वे खुलकर दहेज की माँग करते हैं। वे न किसी कानून से और न कानून के बाप से डरते हैं। कुछ दब्बू और डरपोक टाइप के आदर्श बाप अपनी सहधर्मिणी को आगे बढ़ा देते हैं कि जो भी कहना ,माँगना है ,तू ही माँगना ,कहना। इससे मेरी नाक भी बच जाएगी और बगुले जैसी गर्दन उठाकर भरी सभा में कह सकूँगा कि देखिए मैंने तो कोई दहेज की माँग नहीं की। सहधर्मिणी चूँकि अर्धांगिनी भी है ,इसलिए पति का आधा अंग होने के कारण पूरा जिम्मा ले लेती है, आप कुछ मत कहना ,मैं सब निपट लूँगी। और वे निपट भी लेती हैं। इसीलिए तो 'नारी आरी नारि की ' कहा गया है। पतिदेव पर्दे में बैठे पुजते रहते हैं। ससुर जी तो बहुत अच्छे हैं ,सास बड़ी खंट है। 

        बिना कमाया ,मुफ्त में आया धन किसे अच्छा नहीं लगता? इसलिए चोर के द्वारा चुराया हुआ गुड़ खरीदे हुए गुड़ से अधिक मीठा होता है। फिर मैं दहेज नाम धारी मुफ्त का धन भला किसे मीठा नहीं लगूँगा। अनिच्छा पूर्वक लिया हुआ ,दवाब बनाकर हथिआया  गया दहेज किसे औऱ कैसे प्रिय नहीं होगा। लोग कहते हैं कि दहेज से बहू की सुंदरता,महत्त्व और गुणवत्ता में चार नहीं चौदह चाँद लग जाते हैं। सास के द्वारा बहू की साँस बन्द न कर दी जाए ,उसके लिए सेफ्टी वाल्व का काम मैं ही तो करता हूँ। गृहस्थी रूपी प्रेशर कुकर का शानदार, जानदार सुरक्षा वाल्व! 

               जिनके घर में पुत्रों ने जन्म लिया है , वे सौभाग्यशाली हैं। पर पुत्री जन्मदाताओं ने मानों कोई अपराध किया हो। एक ओर जिस समाज में 'लड़का लड़की एक समान' के' खोखले नारे लगाए जाते हैं, इससे बड़ा झूठ औऱ अत्याचार हो ही नहीं सकता ,जिसके विरोध में हजार कानून बनाए जाएँ ,वहाँ उसका एक प्रतिशत भी अनुपालन नहीं हो ,इससे बड़ा मखौल और औऱ क्या हो सकता है? यह मेरे प्रति भी अन्याय की पराकाष्ठा है।इस अन्याय में पूत के पिता माता की अन्य आय जो कबड्डी खेल रही है। 

           इसे भला कौन ठुकरा सकता है! मजे की बात ये है कि सब मुझे बुरा कहते हैं ,परन्तु हृदय से अपनाते हैं। ये एक सोची-समझी साजिश औऱ विषम विडम्बना का मज़बूत उदाहरण है। मानव के खोखलेपन के ऐसे उदाहरण बहुत कम ही मिलेंगे। लड़की के पिता की कन्या को ब्याहने की मजबूरी का लाभ लेने वाला दूल्हे का बाप की खुशी का मीटर कितना ऊपर चढ़ जाता है ,इसे कोई दहेज पिशाच ही समझ सकता है। मेरी कोई जमीन हो या न हो ,पर मेरा आकाश अछोर है, जिसकी कोई साँझ हो ,पर नहीं इसका कहीं भोर है। आदमी ने मुझे पैदा किया, उसमें मेरा क्या दोष! बताए देता हूँ मुझ पर नहीं दिखाए कोई रोष! दुरुस्त कर ले पहले अपने होश! लड़के वालों का बना दिया मुझे अक्षय कोश,लड़की की सासु माँ का मन का तोष,भले सूख जाए पुत्री के पिता का गोश्त। मेरा नहीं कहीं भी कोई दोस्त। 

 💐 शुभमस्तु !

 

 18.12.2020 ◆8.15 अपराह्न।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...