शनिवार, 31 दिसंबर 2022

शुभागमन नववर्ष 🪷 [ दोहा ]

 557/2022


□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆□

✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆□

नए  वर्ष   तेईस  का, शुभागमन  है    मीत।

आओ आजीवन चलें,गा प्रियता  के गीत।।

हुई भूल यदि विगत में,क्षमा करें  मम भूल।

मिला कदम से हम कदम,रहें सदा अनुकूल।


प्रभु से ऐसी कामना,स्वस्थ सुखी  संसार।

सबका ही कल्याण हो,करें जीव उपकार।।

शब्द-साधना  से बने, जीवन का   संगीत।

वही शब्द मुख से कहें, बनें नहीं विपरीत।।


कर्म  किए  प्रारब्ध में,उसका ही  परिणाम।

आज हमें है मिल रहा,प्रातः निशिदिन शाम।

कल से प्रेरण प्राप्त कर,सुखद करें भवितव्य

नए  वर्ष में  नित्य ही, करें  पूर्ण   कर्तव्य।।


देश  रहा तो हम   रहें, देश बिना क्या  अर्थ।

श्वान सदृश  जीते  रहे, जीना तेरा   व्यर्थ।।

अपनी भाषा जननि का,घटे न तिल भर मान

जनक और गुरु ईश हैं,रहना मत अनजान।।


करनी  ऐसी  कीजिए,  बढ़े देश  का  मान।

यशः काय जीवित रहे, कर्मों पर  दे  ध्यान।।

कविता के आदर्श को, जीवन में   ले  धार।

कथनी करनी एक हो,जन-जन का उपकार।


'शुभम्'साधना काव्य की,जगहित्कारी मीत।

शब्दों  में  संगीत  हो, तभी तुम्हारी   जीत।।


🪴शुभमस्तु!


31.12.2022◆8.15

पतनम मार्तण्डस्य।


⛳🪷⛳🪷⛳🪷⛳🪷⛳


नववर्ष 2023 की हार्दिक शुभकामनाएं।


⛳🪷⛳🪷⛳🪷⛳🪷⛳

मानव की कपि- क्रीड़ा 🐎🐖 [ व्यंग्य ]

 556/2022

   

□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆

✍️ व्यंग्यकार ©

👨🏻‍🍼 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆□◆

भारतीय  बारह राशियों में मात्र दो राशियों को छोड़कर शेष दस राशियों का प्रतिनिधित्व पशु तथा अन्य जंतु जैसे भेड़, बैल,केकड़ा,सिंह,बिच्छू,अर्द्ध अश्व,मगरमच्छ,मछली ,नर नारी का मिथुन युगल और कन्या (ये भी जंतु ही हैं) ;से किया जाता है।किन्तु चीनी ज्योतिष के अनुसार वहाँ मनुष्य के लिए तो कोई स्थान ही  नहीं है।वहाँ सभी बारहों राशियों में क्रमशः चूहा, बैल/गाय,बाघ,खरगोश ,ड्रैगन, साँप,घोड़ा, भेड़/बकरी,बंदर, मुर्गा,कुत्ता और सुअर ये कुल बारह प्रतीक परिकल्पित किए गए हैं।कुल मिलाकर देखा जाए तो मानव की नगण्यता के बाद पशु पक्षियों को प्रमुखता मिली है।इससे यह प्रतीत होता है कि मानव में मानव के कम पशुओं औऱ पक्षियों की प्रकृतिं की प्रधानता है।तराजू तो पापों- पुण्यों को तोलकर घड़े (कुम्भ) में  भरने भर के लिए ही हैं।इससे यह भी संकेत मिलता है कि मनुष्यों में उनका अपना न्यूनतम ही है।चौरासी लाख यौनियों में पशु पक्षी का ही बाहुल्य है।इसीलिए उनके ही गुण अवगुण मानव यौनि में जन्म लेने पर आ जाते हैं ।

जब मानव का झुकाव और लगाव मानवेतर प्राणियों से ही अधिक है तो उनमें मानवेतर गुण अवगुण भी मिलना स्वाभाविक है।इस बात को दृष्टिगत करते हुए भारतीय मानव वर्ग को क्यों न पूरी तरह पशुओं के नाम कर दिया जाए। वर्गीकरण को निम्नवत चार भागों में विभाजित कर लेते हैं:--

1.हस्ती वर्ग।

2.सिंह वर्ग

3.अश्व  वर्ग।

4.शूकर वर्ग।

इन चारों वर्गों की अपनी- अपनी विशेषताएं हैं।जो परस्पर एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं।पहला वर्ग 'हस्ती वर्ग' है। यह वर्ग अपने कद काठी और ऊँचाई में किसी को भी नहीं गिनता।यह केवल उसको महत्त्व देता है,जो इसको तेल लगाता है।इसकी रक्षा करता है। वरना इसकी दृष्टि सदैव आसमान को देखने की ही रहती है।अपनी सर्वोच्चता के अभिमान में यह किसी को घास डालना अपनी तौहीन समझता है।जिनको यह अपने से छोटा समझता है,उनकी घास खा सकता है। खाता भी है।लेकिन अच्छी तरह सूँघ देखकर ही स्वीकार करता है।आवश्यकता पड़ने पर गधे को भी पिताजी बनाने में इसे कोई आपत्ति नहीं है।महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इसके खाने और दिखाने के दाँत अलग- अलग ही  होते हैं।

दूसरा वर्ग 'सिंह वर्ग' है।जैसा कि इसके नाम से ही सिद्ध होता है कि यह हस्ती वर्ग का रक्षक औऱ स्वावलंबी है। यह अपना और अपने विश्वास पात्र सबकी रक्षा ही नहीं करता ,बल्कि उनका पोषण भी करता है।हस्ती वर्ग  की तेल मालिश में इसे बहुत आनन्दानुभूति होती है।उससे परम् संतुष्ट भी रहता है।यह ऊपर नीचे देखकर चलता है।अपने चौपायों का इसे बहुत अभिमान भी है।जिनके बल बूते यह अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखता है। जरूरत पड़ने पर अश्व आदि का पोषक भी बन जाता है।

तीसरे वर्ग में 'अश्व वर्ग' को मान्यता दी जाती है। यह एक परिश्रमी वर्ग है। जो हस्ती और सिंह दोनों वर्गों का सहायक औऱ पोषक है।उत्पादन ,संरक्षण, वितरण आदि कार्य का दायित्व इस वर्ग के हिस्से में आते हैं।उद्यम शीलता इस वर्ग की प्रकृति है। यदि किसी वर्ग को उद्यम सीखना हो ,तो इस वर्ग से प्रेरणा ग्रहण करे। सकता हस्ती ,सिंह और उसका अगला शूकर वर्ग इस वर्ग से प्रेरित हो भी रहा है।क्योंकि उन्नति औऱ प्रगति के लिए इससे अच्छा कोई वर्ग नहीं है।

अंतिम और चौथा वर्ग है: 'शूकर वर्ग'। यह उक्त तीनों वर्गों की सेवा औऱ स्वच्छता का दायित्व ग्रहण करते हुए सबका सहायक वर्ग है। उसे कोई महत्व दे अथवा नहीं दे; वह सहिष्णुता का सुंदर पर्याय है।यद्यपि उसे भी अपने स्वाभिमान से अत्यंत प्रेम है।

किसी भी वर्ग को यह नहीं मान लेना चाहिए कि जन्म जन्मांतर तक उसकी वर्ग व्यवस्था बदलेगी नहीं।इसलिए किसी को भी किसी अन्य को हीन या तुच्छ मानने का कोई अधिकार नहीं है।पता नहीं कि कब कौन हस्ती शूकर बन जाए औऱ शूकर हस्ती के आसन पर आसीन हो जाए।सिंह कब अश्व बनकर खड़ा हो जाए या शूकर ही सिंह बन जाए।इसलिए कोई किसी वर्ग को छोटा बड़ा न समझे। यह तो उसके कर्म का खेल है कि किस रूप में देह धारण करता है।चतुर्वर्ग में विभक्त यह मानव जगत अपनी कर्म गति के परिणाम से वर्गान्तरण करता हुआ अपने अहं में उछलता कूदता हुआ कपि- क्रीड़ा में मग्न रहता है।

🪴शुभमस्तु !

31.12.2022◆6.00

पतनम मार्तण्डस्य।

🐘🐆🐎🐖🐘🐘🐎🐖🐘

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

इच्छा 🧡 [ कुण्डलिया ]

555/2022

           

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

सीमा  में  शोभन लगे,इच्छाओं  का  रूप।

जो अनंत इच्छा करे,गिरे तमस   के  कूप।।

गिरे   तमस   के कूप,भूल अपने को  जाए।

भावी हो अपरूप,नहीं कुछ जग  में  भाए।।

'शुभम्' साध ले चाह,न कोई जीवन - बीमा।

गहराई  को  माप,उदधि की अपनी  सीमा।।


                          -2-

संभव इच्छा-व्योम में,उड़ना ही  शुभकार।

लौट जहाँ से आ सके,मन में सुदृढ़ विचार।।

मन में सुदृढ़ विचार,पलायन गति को छोड़े।

हो इच्छा बलवान,कदम भूतल   पर  मोड़े।।

'शुभम्' बचे अस्तित्व,न हो चिंतन में लाघव।

इच्छा  हो  साकार, फलवती तेरी   सम्भव।।


                         -3-

होती  इच्छाएँ  भली, कुटिल बुरी  भी  मीत।

पहचानें  उनको  सदा,पड़ें नहीं   विपरीत।।

पड़ें  नहीं   विपरीत, भलाई देखें    सबकी।

जन का हो उपकार,न कोसें धरती उर की।।

'शुभम्' नियंत्रण त्याग,शुभाशुभ इच्छा बोती।

धी पछताती नित्य,रुग्ण यदि लिप्सा  होती।।


                         -4-

मानव  इच्छा-दास  जो,खो देता  उर- धीर।

शांतिहीन  जीवन  मिले,चुभते रहते  तीर।।

चुभते  रहते  तीर, शुभाशुभ जान न पाता।

मारे  पाँव कुठार,न माने पितु गुरु   माता।।

'शुभम्' मानवी - देह, कर्म से होता  दानव।

इच्छाओं का  बोझ, शीश पर लादे मानव।।


                         -5-

मानव -इच्छाएँ सभी,हो न सकी  हैं  पूर्ण।

दस इन्द्रिय का दास जो,चक्र निरंतर घूर्ण।।

चक्र  निरंतर  घूर्ण,नचातीं भीतर    बाहर।

सही गलत की सोच, नहीं हो सके उजागर।।

'शुभम्' हारता  दाँव, भोगता जीवन  रौरव।

रहे न  इच्छा - पार,अधूरा ही वह  मानव।।


🪴शुभमस्तु !


30.12.2022◆1.45

पतनम मार्तण्डस्य।

अतीत के पृष्ठों से 📖 [ संस्मरण ]

 ५५४/२०२२ 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 ✍️ लेखक © 

 📚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 अतीत की पुस्तक के पृष्ठों को उलटने - पलटने का भी अपना कोई महत्त्व किसी के लिए हो या न हो;किंतु मेरे लिए अपने अतीत की पुस्तक का हर पृष्ठ अमूल्य है।उन्हीं असंख्य पृष्ठों में से एक पृष्ठ को पलटकर आपको प्रत्यक्ष कर रहा हूँ।जीवन के इकहत्तर वर्ष पूर्ण करते हुए सबकी तरह मैंने भी अनेक उतार -चढ़ाव औऱ उत्थान- पतन देखे हैं। ग्यारह वर्ष की आयु में पता नहीं वह कौन- सा क्षण औऱ दिन रहा होगा, जब माँ सरस्वती ने मेरी जिह्वा पर विराजमान होकर मेरे हाथ में लेखनी थमा दी और मैं व्यक्ति ,समाज,अड़ौस- पड़ौस, प्रकृति ,देश और दुनिया पर काव्य रचनाएँ करने लगा।

 अपनी रचनाओं की तरह ही प्रत्येक वस्तु को विधिवत सहेज कर रखने की मेरी प्रकृति जन्मजात ही है। मुझे अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में अव्यवस्था ,बिखराव और विसंगति कभी भी पसंद नहीं आई।यही कारण है कि मेरे बचपन से लेकर अब तक लिखी गई हजारों रचनाएँ आज भी सुरक्षित हैं।यद्यपि अभी तक मेरी सोलह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं औऱ सत्रहवीं प्रकाशनाधीन है।अभी भी 25-30 पुस्तकों की सामग्री प्रकाशनार्थ प्रतीक्षारत है। काव्य तो एक सरिता है ,जिसका प्रवाह हृदय गिरि से निरतंर होता है,निरंतर होना है।

 मेरी सबसे पहली रचना प्रकृति सौंदर्य को लेकर 10-12पंक्ति की एक लघु रचना ही है। बीज तो बीज है, सूक्ष्म ही तो होगा। उसके बाद समय,दिन,रात और मार्ग! पता नहीं कितना जल बह गया गंगा में ; यह तो मेरा सागर ही जानता होगा।मेरे माता-पिता,बाबा-दादी और चाचा भी इस तथ्य से सुपरिचित थे कि मैं कविताएँ लिखता हूँ। किंतु एक अव्यक्त सोच औऱ संकोच ने कभी मुझे अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाने का अवसर प्रदान नहीं किया।यद्यपि मेरे पिताजी मेरी डायरियों से कभी कोई रचना पढ़ लेते रहे हों, यह अलग बात है।हाँ, इतना अवश्य है कि अपने गाँव की अपनी ही चौपाल पर स्थित नीम के नीचे चबूतरे पर बैठकर अपनी रचनाएँ अपने अन्य परिजनों और मित्रों को अवश्य सुनाया करता था। 

  स्नातक कक्षाओं तक विज्ञान का विद्यार्थी रहने के बावजूद काव्य - लेखन कभी नहीं रुका।ये अलग बात है कि कभी मैदानी नदी की तरह तो कभी पहाड़ी झरनों की तरह काव्य - प्रपातों का झरना बहता ही रहा। छोटी कक्षाओं में तो मित्र गण काव्य सुनने में इतनी रुचि नहीं लेते थे किंतु जब आगरा कालेज, आगरा में एम.ए. हिंदी में प्रवेश किया तो सभी सहपाठी बड़ी रुचि पूर्वक मेरी रचनाएँ सुनते थे।उस समय एम.ए. पूर्वार्द्ध में हम कुल आठ छात्र औऱ लगभग चालीस छात्राएं थीं। जिनमें कुछ छात्राएं बड़ी रुचि पूर्वक मेरी कविताएं सुनती थीं। किसी का नाम नहीं लिखूँगा,किन्तु उन की छवि आज भी जस की तस मेरे स्मृतिकोष में सुरक्षित है।मेरी एक सहपाठिन ने तो एक दिन अत्यंत प्रभावित होकर मुझे अपने घर पर आकर पढ़ाने का आमंत्रण ही दे डाला कि मैं उसके घर पर जाकर उसे पढ़ा दिया करूँ।मैं अपनी कक्षा में प्रतिभाशाली विद्यार्थियों में गिना जाता था। मैंने उस कुमारी क..... से यही कहा कि ऐसा तो सम्भव नहीं हो पाएगा, हाँ, यदि कालेज में ही वह कुछ पूँछना चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है।क्योंकि मुझे प्रतिदिन पंद्रह किलोमीटर की साइकिल यात्रा पचपन मिनट में पूरी करने के बाद कालेज आना होता है।पढ़ाने के बाद रात्रि में लौटने में मुझे बहुत असुविधा होगी। इस पर उसने मुझे अपनी कोठी में ही रहने का प्रस्ताव दे डाला ,जिसे मैंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। पता नहीं समय की धारा मुझे कहाँ ले जाती! और मैं अपने निर्धारित मार्ग पर चलता हुआ यहाँ तक आ पहुँचा हूँ। 

 आगरा कालेज ,आगरा में 1974 में विज्ञान स्नातक विद्यार्थी को एम.ए हिंदी में प्रवेश पाने की योग्यता का प्रमाण पत्र मेरे काव्य लेखन की ही महिमा है ,अन्यथा पूज्य गुरुवर हिंदी- विभागाध्यक्ष डॉ. भगवत स्वरूप मिश्र जी ने तो प्रवेश के लिए स्पष्ट मना ही कर दिया था। उसी वर्ष 23 सितंबर की रात को देखे गए एक स्वप्न ने मुझे एक खण्डकाव्य लिखने के लिए प्रेरित किया और प्रातःकाल जागने के बाद खण्डकाव्य 'ताजमहल' पर लेखनी चलने लगी तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया।मात्र एक रचना लिखने के बाद मानों कविता का झरना ही प्रस्फुटित हो हो गया। अंततः वही खण्डकाव्य 2008 में नई दिल्ली से प्रकाशित भी हुआ। महाकाव्य 'तपस्वी बुद्ध' तो उस समय वर्ष 1970में ही पूर्ण हो गया था ;जब मैं ग्यारहवीं कक्षा का विद्यार्थी था। सौभाग्य से यह भी वर्ष 2018 में साहित्यपीडिया प्रकाशन , नोएडा से प्रकाशित हुआ।  पूजनीया माँ और पूज्य पिताजी के दिवंगत होने पर एक - एक सप्ताह में शोक के उन क्षणों में खण्डकाव्य 'बोलते आँसू' और 'फिर बहे आँसू' लिख पाना मुझे आज भी आश्चर्य से कम प्रतीत नहीं होता। 

 प्रत्येक रचना और कृति का अपना अतीत होता है। अलग-अलग प्रेरणा भी होती है। कवि नहीं जानता कि किस कविता का जन्म किस समय और कैसे हो जाता है।विद्यार्थी - जीवन में रास्ते में यकायक किसी भाव का उद्भव होता औऱ मैं साइकिल से नीचे उतरकर रचना की उस पंक्ति को जेब में रखे हुए कागज पर लिख लेता और घर जाकर रचना पूरी करता। कभी - कभी रात में दो बजे उठकर भी काव्य सृजन हुआ है ,होता रहा है।आज भी होता है।निश्चय ही काव्य सृजन का अद्भुत लोक है।काव्य -सृजन के क्षण उस प्रसव वेदना की तरह होते हैं ,जैसे वह कोई आपन्नसत्वा नारी हो। जब तक रचना पूर्ण नहीं होती;कवि को शांति नहीं मिल पाती। मुझ अकिंचन पर माँ वीणावादिनी की इस महती कृपा वृष्टि के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए शब्द नहीं हैं,कि कुछ कह सकूँ। बस यही कामना है कि जन्म जन्मांतर तक उनका कृपा हस्त इस भगवत के शीश पर सदैव बना रहे।

 🪴 शुभमस्तु! 

 30.12.2022◆8.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

 🎸🎸🎸🎸🎸🎸🎸🎸🎸

खुली हुई आँखों के सपने 🪂 [अतुकान्तिका ]

 553/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️शब्दकार©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

बंद आँखों में

सब देखते हैं

सपने

आंशिक अधूरे,

किन्तु क्या

होते हैं

कभी वे पूरे?


खुली आँखों से

देखें सपने,

स्वदेश के लिए,

स्वधर्म के लिए,

स्वकर्म के लिए।


जाति - वर्ण के

घेरों में

सिमटे रह गए हैं,

ज्यों सरि- प्रवाह में

बह रहे हैं,

जड़  और निर्जीव 

मृत देह,

कोई संदेह ?


पेट तो 

भर लेते हैं

अपना श्वान भी,

हर आने जाने वाले पर

भौंकना ही है  उन्हें

बिना सोचे -समझे हुए।


काश मानव

भिन्न होता

उन श्वानों की

भौं -भौं  से,

तो देश और

 समाज का

रूप यह नहीं होता।


अपना पथ

 स्वयं बनाना है,

आकाश में

पर्वतों

और सागर में

 बढ़ते हुए जाना है,

कर्मवीर बनकर

दिखलाना है,

अपना 'शुभम्' मानवीय

परचम लहराना है,

मनुष्यता को

मनुष्यता ही 

रहने देना है,

ढोरों मेषों की तरह

लकीर का फ़क़ीर

नहीं बना रहना है।


🪴 शुभमस्तु!

30.12.2022◆ 5.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

जलाओ दिये 🪔 [ नवगीत ]

 552/2022



■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

वेला है 

सँझबाती की

जलाओ दिए।

पथ भी है

अँधियारा

कहाँ हैं दिए ??


आए थे

अकेले ही

जाना भी अकेला।

चलन है

सनातन ये

कब तक ये मेला!!


जिस कारण

भेजा था

पूर्ण वे किए।


आया था 

खाली मैं

जाना भी खाली।

रोकर वे 

चुप होंगे

बजाएँ कुछ ताली।।


माने थे

अपने जो

हित उनके जिए।


योनियों का

परिवर्तन

होता ही रहना।

समय की

धारा में

सबको ही बहना।।


विरले हैं

ऐसे कुछ

बसे वे हिये।


बीत गए

युग कितने

चलता मैं रहा।

कर्मों की

तरणी चढ़

धारा में बहा।।


कोशिश थी

मेरी यह

फटे को सीए।


🪴 शुभमस्तु!


गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

पियराए दिन ⛱️ [ नवगीत ]

 551/2022

   

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

पीत पल्लव -से

झड़ गए

पगुराए दिन।

पकड़ नहीं

पाए हम

हाथ आए दिन।।


उगा गोला

लाल  - लाल

श्रीगणेश काम।

थकीं अस्थि 

चूल - चूल

हो गई शाम।।


लालच में 

पैसों के

ललचाए दिन।


नौंन तेल

लकड़ी का

करते जुगाड़।

देखा है

समय ऐसा

झोंका भी भाड़।।


दाने को

एक-एक

तरसाए दिन।


वर्ष क्या

वय भी ये

हो गई तमाम।

कल का भी

पता नहीं

घिस गया चाम।।


बल खाते

मदमाते

पियराए दिन।


नए  --नए 

चेहरों में

देखे नवरंग।

बदली हुई

चाल देख

हुए हम दंग।।


बदल के 

मुखौटे भी

दुख दिए दिन।


रस गिरा 

बूँद -बूँद

खाली हाथ हम।

संगिनी के

साथ चले

कदम -दर-कदम।।


सबक नित

सिखाते हुए

अति भाए दिन।


🪴 शुभमस्तु !


29.12.2022◆2.00

पतनम मार्तण्डस्य।

ठिठुराती रात 🫐 [ नवगीत ]

 550/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

उतरी है

अंबर से

ठिठुराती रात।

कोहरे में 

होती है

झीनी बरसात।


भारी- सी 

रजाई में 

करते आराम।

नवोढ़ा के 

आँचल में

घुस आई घाम।।


बीते हैं

दिन दो ही

करे नहीं बात।


जग जाए

सासू माँ

लगता है डर।

नींद नहीं

आँखों में

कुंडी बजी खर।।


बोला है 

कुक्कड़ कूँ 

हो गई प्रभात।


आँगन में

गौरैया

चूँ- चूँ  स्वर बोल।

भौजी के

शब्द -सुमन

रस रहे घोल।।


पिड़कुलिया

डाली पर

फुला रही गात।


गेहूँ के

पल्लव- दल

शुक्तिज की ओप।

दिनकर की 

रश्मि नई

दिखलाती कोप।।


मुँड़ेर पर

तुहिन जमी

हो गई मात।


🪴 शुभमस्तु !


29.12.2022◆12.30 पतनम मार्तण्डस्य।

भैं-भैं भेड़ें करतीं 🐑 [ नवगीत ]

 549/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपने - अपने रेवड़ में खुश,

भैं  - भैं  भेड़ें करतीं।


मैं - मैं बकरा - बकरी करते,

और नहीं कुछ सुनना,

भैंसें  लड़ामनी   पर   रेंकें,

जंजीरों  में  बंधना,

बोलें    बोली   न्यारी,

चट औरों  की क्यारी,

गायें क्यों गाएँ कजरी धुन,

खड़ी फसल को चरतीं।


फूट डालकर साँड़ - झुंड में,

शेर उन्हें खा जाते,

अगड़े - पिछड़े की परिभाषा,

देकर भेद जताते,

ऊँची बनी दिवारें,

लंबे भाषण झारें,

हार- जीत की राजनीति है,

कहने से वे डरतीं।


मतलब को सब हिन्दू भाई,

ऊँची  कुर्सी  उनकी,

दूर रहो अनुसूचित पिछड़े,

करें सदा हम मन की,

अपनी  न्याय- तराजू,

खाएँ  हम  ही  काजू,

चरण पूज्य  हैं  सदा हमारे,

अमर जाति क्या मरतीं?


जन्म - जन्म में वर्ण एक ही,

अपना ऊँचा होगा,

नहीं  बनेंगे  बकरी  -  भेड़ें,

एक रंग का चोगा,

अपनी      दावेदारी,

यह तकदीर हमारी,

कौन  देखता  है  परदे  में,

करनी जो छिप धरतीं।


🪴शुभमस्तु !


28.12.2022◆ 8.15 

पतनम मार्तण्डस्य।

रहते सूरज इतनी दूर 🌞 [बालगीत ]

  548/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

रहते     सूरज    इतनी    दूर।

फिर   भी   दें  गर्मी   भरपूर।।


देर नहीं  पल  की  भी  करते।

अंबर में तुम  नित्य  विचरते।।

दुनिया    में     फैलाते     नूर।

रहते  सूरज    इतनी      दूर।।


गर्मी   वर्षा   या     हो   शीत।

कभी  नहीं   होते   विपरीत।।

सूर   सदा     रहते    हैं   सूर।

रहते  सूरज    इतनी      दूर।।


सबसे  पहले  तुम जग जाते।

उषा - किरण ले हमें जगाते।।

नहीं    कभी    रहते   मदचूर।

रहते   सूरज     इतनी    दूर।।


तुम्हें   न आए  ढोल बजाना।

अपने गुण अपने मुख गाना।।

मौन  चलो  तुम बिना गरूर।

रहते   सूरज    इतनी    दूर।।


'शुभम्' कर्म के शिक्षक प्यारे।

कर्मठता  में   सबसे    न्यारे।।

सौर लोक   में   हो    मशहूर।

रहते    सूरज     इतनी   दूर।।


🪴शुभमस्तु !


28.12.2022◆2.30 

पतनम मार्तण्डस्य।



जन्मदिवस 🌱 [ दोहा ]

 547/2022

   

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

जन्मदिवस  मम आज है,मास दिसंबर मीत

अट्ठाइस तारीख को,पौष माह ऋतु  शीत।।

जननी देवी  द्रोपदी, मौहर सिंह  शुभ धाम।

खेला आँचल में  'शुभम्', बाबा  तोताराम।।


पितामही  शुभ जानकी,देवी बड़ी  अधीर।

बजी बधाई  गेह  में, जन्मा नाती    मीर।।

जन्मदिवस  है आज ही,कहती थी माँ बात।

तब थी मावस पूस की,शुक्रवार  की रात।।


प्रथम पुत्र के  जन्म का, उत्सव हर्षोल्लास।

जन्मदिवस को गा रही,सोहर गीत  सहास।।

जन्मदिवस उस गाँव में,शहर आगरा पास।

पिता जननि के उर बसी,सौभाग्यों की आस।


जन्मदिवस   वेला  सदा,करती  है  बेचैन।

रहते  सोहर -धाम  में,  कर्ण युगल दो नैन।।

जन्मदिवस वह  धन्य है,जन्मे जहाँ  सपूत।

बाँझ  रहे  जननी वही,गुण से हीन   प्रभूत।।


जन्मदिवस की है घड़ी, चाहत शुभ आशीष।

मिले 'शुभम्' सद्भावना,उच्च रहे   उष्णीश।।


🪴 शुभमस्तु!


28.12.2022◆6.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।


आमंत्रण नववर्ष का 🪷 [ दोहा ]

 546/2022

 

[आमंत्रण,अभ्यर्थना, आचमन,अंजन, अंगीकार]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

        🍑 सब में एक 🍑

आमंत्रण नववर्ष का,विदा विगत बाईस।

सभी सुखी सानंद हों,साथ तीन के बीस।।

सादर आमंत्रण करें, माता आओ   द्वार।

वीणावादिनि    भारती, सुखी करें  संसार।।


हाथ जोड़ अभ्यर्थना,करते हम जगदीश।

रोग मुक्त कर विश्व को,नासें कष्ट   कपीश।।

सुनते  प्रभु अभ्यर्थना,उर से  कर  उच्चार।

वर्षा  हो  आंनद की, सुखी रहे   परिवार।।


गंगाजल का आचमन, करके किया विचार।

अहित न हो मुझसे कभी,सबका करूँ सुधार

देवार्चन  से  पूर्व  ही, करें आचमन   मीत।

तन-मन को निर्मल करें,उर भी रहे  सतीत।।


अंजन आँखों में सजा,खंजन-से तव नैन।

उर ज्यों पावन शारदा, कोकिलवत हैं बैन।।

आँखों में आँजा शुभे!तुमने अंजन स्याह।

कुंतल श्यामल मेघ-से,मुख से निकले वाह।।


तुमको अंगीकार कर,जाग्रत मम सौभाग्य।

मिलें  एक  से एक दो ,  एकादश  भावज्ञ।।

सच्चे तन-मन  से प्रिये! करके अंगीकार।

'शुभम्' बनाया जीव को,ग्रहण करें आभार।।


     🍑  एक में सब  🍑

अंजन अंगीकार दृग,

                        किया आचमन नीर।

आमंत्रण माँ शारदे, 

                         अभ्यर्थना अधीर।।


🪴 शुभमस्तु !


28.12.2022◆ 5.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

घरनी घर की नित हो शुभदा 🪂 [सिंहावलोकन सवैया]

 545/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

अब साल नई शुभ आइ रही,

              शुभता सबको प्रभु दें  सुखदा।

सुखदा उर भाव  रहें जन के,

              कविता वर मीत करें  वरदा।।

वरदा धन-धान्य  भरें  गृह में,

                    शुभ राह चलें घरनी  प्रमदा।

प्रमदा गुरु हैं निज संतति की,

                करतीं पति -गेह सदा शुभदा।।


                         -2-

तन  नंग-धड़ंग  उघारि  चलें,

                   बदराह  कुचाल हुईं  अँगना।

अँगना निज अंग दिखाइ रहीं,

                मद में तनि झूमि चलें सजना।

सजना समझाइ नहीं तिय को,

              पड़ि जाइ न पीठि कहूँ बिलना।

बिल नाहिं बने घुसि जायँ कहीं,

             निज जान बचाय छिपें पियना।।


                         -3-

कुल-मानक  भूलि गईं घरनी,

                    इतराइ चलें बिगड़ी करनी।

करनी-फल नीक नहीं मिलनों,

                जितनी करनी उतनी   भरनी।।

 भरनी न भरी नित रिक्त रहें,

                   भव पार नहीं तरिका तरनी।

तरनी पतवारनु थामि चलें,

                  मँझधार नहीं पड़ती   मरनी।।


                           -4-

बिगड़ें घर  संतति  शांति नसे,

                  घरनी घर की नित हो शुभदा।

शुभदा सत  चारु  चरित्र रहे,

                    तब मातु रमा  रहतीं  वरदा।।

वरदायिनि  शारद  ज्ञान भरें,

                 झड़ता तम का धुँधला गरदा।

गरदा न   रहे   तहँ  तेज महा,

                  शुभ रूप ललाम सदा प्रमदा।।


                         -5-

खग-शावक अंड विखंड करें,

                   जब पंख उगें नभ में  उड़ते।

उड़ते  तजि  नीड़  स्वतंत्र रहें,

                 पुनि लौटि नहीं घर को मुड़ते।।

मुड़ते नभ में नव खोज करें,

                  नित मंजिल उच्च नई चढ़ते।

चढ़ते गढ़ते  सुख- साज नए,

                  नित वृद्धि करें पथ  में  बढ़ते।।


🪴 शुभमस्तु!


27.12.2022◆3.45

 पतनम मार्तंडस्य।

मोबाइल हर चीज खा गया 📱 [ बालगीत ]

 544/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■✍️

✍️ शब्दकार ©

📱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपना प्रिय जो उसे भा गया।

मोबाइल हर चीज खा गया।।


आँख मिचौनी  गिल्ली- डंडा।

नौ  गोटी   कंचों  का  फंडा।।

कंकड़  वाले   खेल  ढा गया।

मोबाइल हर चीज खा गया।।


ट्रांजिस्टर  हो  गए  ट्रांसफर।

टी वी भी कर रहे विदा घर।।

अखबारों पर  झूम छा गया।

मोबाइल हर चीज खा गया।।


 नहीं  ताश   के   पत्ते   भाते।

चार लोग मिल बैठ न पाते।।

डिबिया में हर चीज पा गया।

मोबाइल हर चीज  खा गया।।


टेसू  -  झाँझी  चले   जा  रहे।

हम बच्चों को   नहीं भा रहे।।

छोटे मुँह  को  बड़ा  बा  गया।

मोबाइल हर चीज  खा गया।।


अगियाने   पर    नहीं  तापते।

ओढ़    रजाई   देह   ढाँकते।।

भीतर  सारे रँग  दिखा  गया।

मोबाइल हर चीज खा गया।।


छीनी  गीतों की ध्वनि प्यारी।

कजरी मस्त  मल्हारें  न्यारी।।

नयन ज्योति में धुँआ आ गया।

मोबाइल हर चीज खा गया।।


🪴 शुभमस्तु !


26122022◆4.30 पतनम

मार्तण्डस्य।

बोल रहे तमचूर 🐓 [ गीतिका ]

 543/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

सूरज से  उज्ज्वल  प्रभात है।

तम को  देता  नित्य  घात है।।


उपवन में खिलती हैं कलियाँ,

सरवर  तल पर  पद्म जात है।


शॉल  श्वेत  ओढ़े  रवि  आया,

पौष मास में  तुहिन - पात है।


छिपे   हुए    नीड़ों   में   पंक्षी,

शीतल बहती शिशिर वात है।


बोल   रहे   तमचूर   गली  में,

कहते जागो  अब  न  रात है।


बैठे    ओढ़     रजाई   कंबल,

बाबा - दादी   कंप   गात   है।


'शुभम्' खेलते कूदें बालक,

ठंड   हमें   लगती  न तात है।


🪴शुभमस्तु !


26.12.2022◆7.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सूरज से उज्ज्वल प्रभात 🌞 [ सजल ]

 542/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

● समांत: आत।

●पदांत :  है।

●मात्राभार :16.

●मात्रा पतन:शून्य।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

सूरज से  उज्ज्वल  प्रभात है।

तम को  देता  नित्य  घात है।।


उपवन में खिलती हैं कलियाँ,

सरवर  तल पर  पद्म जात है।


शॉल  श्वेत  ओढ़े  रवि  आया,

पौष मास में  तुहिन - पात है।


छिपे   हुए    नीड़ों   में   पंक्षी,

शीतल बहती शिशिर वात है।


बोल   रहे   तमचूर   गली  में,

कहते जागो  अब  न  रात है।


बैठे    ओढ़     रजाई   कंबल,

बाबा - दादी   कंप   गात   है।


'शुभम्' खेलते कूदें बालक,

ठंड   हमें   लगती  न तात है।


🪴शुभमस्तु !


26.12.2022◆7.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शनिवार, 24 दिसंबर 2022

मानवता को नमन🪴 [ देव घनाक्षरी ]

 541/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

छंद- विधान:

1.देव घनाक्षरी चार चरणों का वर्णिक छंद है।

2.इसमें 8,8,8 और 9 के क्रम से 33 वर्ण होते हैं।

जिसमें 16,17 वर्ण पर यति होता है। यदि 8,8,8 ,9 पर भी हो तो अति उत्तम है।

3.प्रत्येक चरण के पदांत में नगण (III)का होना अनिवार्य है।

4.प्रत्येक पंक्ति के दो चरणों मे समांत  होना अनिवार्य है।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

कर्म  का विधान एक,कर्म करें सदा   नेक,       

पाएँगे सुफल सदा,चेतना नित हो   सबल।

अंत में न आए राम, किए जो निकृष्ट काम,

सभी क्षण हैं अमोल,चरित्र हो तेरा धवल।।

जिएँ जीने की तरह,ढूँढ़ लाएँ अब्धि - तह,

मुक्ता लाल मूँगा खोज,त्याग प्राण-हर गरल।

योनि मानवी अमूल्य,जानें यही  देव - तुल्य,

'शुभं'क्यों विनष्ट करे, उपयोगी पल-विपल।।


                         -2-

दिवस  संग  रात है, साँझ संग प्रभात   है,

आते जाते सुख दुख,होता यों मानव विकल।

रुके न  समय कभी, जानते ये बात   सभी,

शांति का न त्याग करें,लाएँ जिंदगी में अमल

कर्म  में  कुशल रहें,बाधाओं के   शैल  सहें,

फहराएँ उच्च केतु,होंगे ही मानुष  सफल।।

वीर  बढ़ते   ही सदा,रुकें न पंथ  में   कदा,

दृढ़ता के साथ चलें,कहें नहीं न आज कल।।


                         -3-

पिया  नीर  खाया अन्न,सदा ही  रखा प्रसन्न,

दिए  वेश  भाषा घर, देश भारत  है  महत।

देश का गुमान हमें,हया न आँख में जिन्हें,

धिक्कार है धिक्कार है,बचा न लेशमात्र सत

कृतघ्नता  सवार है,छाया अति  खुमार  है,

नीचता का रूप धरे, होनी ही है तेरी कुगत।।

कृतज्ञ  रहें  देश  के, बनें न रूप  मेष  के,

'शुभम्'जिएँ देश को,अन्यथा बस लें अनत।


                              -4-

अन्न पालता जहान, बीज बो रहा किसान,

करे नित्य उपकार, सहे  कष्ट करे  सुतप।

देती  रही  सब धरा, फैला हुआ  हरा-भरा,

माँगती न शुल्क कदा, निगल रहा गप-गप।।

विषाक्तता  नर  भरे, घात पाँव  पर  करे,

धन्य-धन्य  यह मृदा,कर मातृ भूमि सु-जप।

भूमि  का  कृतज्ञ बन, वृथा नहीं ऐंठ  तन,

शुभ  नहीं यह अदा, तैर नहीं तू  छप-छप।।


                         -5-

भर  रहे   पेट  ढोर, जिएँ  स्वयं   हित  चोर,

कैसी ये अनीति घोर,असत का यही अमल।

भेद  मनुज   ढोर  में,  समुद्र से हिलोर  में,

धुएँ  के घनघोर  में,होती  रही मृषा  चपल।।

आदमी  की  देह धरे, कर्म  पाशविक  करे,

श्वान सम मौत मरे, होना है होगा ही अटल।

योनि को पहचान ले,कर्म का सम ज्ञान ले,

मर्म में अभिधान दे,नृदेह होगी ही  सफल।।


🪴शुभमस्तु!

24.12.2022◆1.00

पतनम मार्तण्डस्य।


अक्षय ⛳ [ सोरठा ]

 540/2022

   

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

जीव भोगता नित्य, अक्षय फल है कर्म का।

ज्यों नभ में आदित्य,'शुभम्' रूप है धर्म का।


यौनि बदलती देह,जीव अमर अक्षय सदा।

मिलता है  तव गेह,  कर्मों  के परिणाम  से।।


यदि नर  को हो ज्ञान, बुरे कर्म करता  नहीं।

करें कर्म का मान, युग-युग तक अक्षय रहे।।


अक्षय अविकल नित्य,परम आत्मा एक ही।

बदले देह  अपत्य, अंश जीव उसका सदा।।


नहीं कर्म पर ध्यान,अक्षय फल सब चाहते।

प्रभु का कर अपमान,छिपे आड़ में कर्मरत।


🪴 शुभमस्तु!


22.12.2022◆1.30 पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

गरम रजाई 🛋️ [ बालगीत ]

 539/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🛋️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अच्छी  लगती  गरम   रजाई।

कहते   बाबा,   दादी,   ताई।।


जब  जाड़े की ऋतु है  आती।

दुर्बल तन को  नहीं  सुहाती।।

भुनी  शकरकंदी     मनभाई।

अच्छी  लगती  गरम रजाई।।


श्वेत  कोहरा  है   छा   जाता।

अंबर   से    नीचे   बरसाता।।

धूप   नहीं    देती    दिखलाई।

अच्छी लगती  गरम   रजाई।।


धुँआ   छोड़ता  ताजा  पानी।

नहीं  नहाती   मुनिया  रानी।।

गज़क रेवड़ी  जी भर  खाई।

अच्छी  लगती गरम रजाई।।


मकई   और   बाजरे  वाली।

रोटी खाते गरम   निकाली।।

यहाँ वहाँ   ठंडक  ही  छाई।

अच्छी  लगती  गरम  रजाई।।


कट-कट  दाँत  बज रहे सारे।

नहीं गगन   में   दिखते तारे।।

साँझ   लिए   आई  सुरमाई।

अच्छी लगती गरम रजाई।।


🪴 शुभमस्तु!


19.12.2022◆6.00

आरोहणम् मार्तण्डस्य।


सरकार 🌴 [ चौपाई ]

 538/2022

      

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

जनमत  की  सरकार हमारी।

करती पूर्ण  व्यवस्था   सारी।।

सीमा   पार     सुरक्षा   करती।

दीन -हीन के दुख भी हरती।।


देशभक्त    मंत्री   अधिकारी।

सेवक भारत के नर -  नारी।।

बन जनस्वामी क्या कर पाए?

लूट - लूट  धन  घर  में लाए।।


भरें   नोट   सोने   से   कमरे।

चूस   रहे   वे    जैसे   भँवरे।।

शोषक क्या सरकार चलाएँ?

यथाशक्य संतति  धन खाएँ।।


एक  व्यक्ति  सरकार  न होता।

यदि  होता   काँटे  ही बोता।।

मिलकर जन सरकार बनाते।

जनहित के सब काम कराते।


मनमानी  सरकार    नहीं  है।

सुरसरि  सिंचन हेतु  बही है।।

'शुभम्'न निज को ईश्वर माने।

अपने   जैसा  सबको  जाने।।


🪴शुभमस्तु!


19.12.2022◆11.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

छाया कोहरा 🏝️ [ सायली ]

 537/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏖️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

छाया

कोहरा घना

ओढ़ता चादर धवल

पूर्व में

सूरज।


                         -2-

ठिठुरे 

पेड़ों पर

बैठे नीड़ों में

पंख फुलाए

पक्षी।


                         -3-

बोले

गलियों में

तमचूर कूदते जो

पीछे आती

मुर्गी।


                          -4-

खड़ी

मौन बेचैन

खेत में अरहर

टपके ओस

छबीली।


                         -5-

बहती 

सरिता अविरल

करती रव कलकल,

नित चंचल 

अविरल।


                         -6-

गाड़े 

अगियाने में

हमने दो आलू,

खाएँगे हम

भून।


                         -7-

बीता

आधा पूस

तुषार से काँपे

नर-नारी 

सब।


                         -8-

गज़क

रेवड़ी लड्डू

तिल के भाते

जाड़े भर

खाते।


                         -9-

साग

चने का

कड़री  की भुजिया,

शिशिर भर

भायी।


                         -10-

लहराया

खेतों में

बथुआ अपने आप

स्वाद ले

खाया।


🪴 शुभमस्तु !


19.12.2022◆8.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

कूप खोद पानी जो पीता 🍀 [ गीतिका ]

 536/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

निज    भविष्य    जो    मनुज सँवारे।

चमका    है     वह       बनकर  तारे।।


श्रम     से     स्वेद -सिक्त    जो रहता,

परिजन         उसने       सदा  उबारे।


परिजीवी        निर्भर      औरों    पर,

बैठा        रहता           हिम्मत  हारे।


करनी         में        विश्वास  जगाए,

वह       अजेय         जयकार  उचारे।


सीमा      पर        साहस    से  लड़ता,

अनगिनती       वह    अरि   को   मारे।


कूप      खोद       पीता      जो  पानी,

नहीं         बताता      जलकण  खारे।


'शुभम्'     काम    से   जी न   चुराए,

सिर    पर   मुकुट     विजय का  धारे।


🪴 शुभमस्तु!


19.12.2022◆6.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

श्रम से स्वेद-सिक्त जो रहता 🌳 [ सजल ]

 535/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

● समांत: आरे ।

●पदांत : अपदांत।

●मात्राभार :16.

●मात्रा पतन: शून्य।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

निज    भविष्य    जो    मनुज सँवारे।

चमका    है     वह       बनकर  तारे।।


श्रम     से     स्वेद -सिक्त    जो रहता,

परिजन         उसने       सदा  उबारे।


परिजीवी        निर्भर      औरों    पर,

बैठा        रहता           हिम्मत  हारे।


करनी         में        विश्वास  जगाए,

वह        अजेय         जयकार  उचारे।


सीमा      पर        साहस    से  लड़ता,

अनगिनती       वह    अरि   को   मारे।


कूप      खोद       पीता      जो  पानी,

नहीं         बताता      जलकण  खारे।


'शुभम्'     काम    से   जी न   चुराए,

सिर    पर   मुकुट     विजय का  धारे।


🪴 शुभमस्तु!


19.12.2022◆6.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 18 दिसंबर 2022

दोषी कोई और है, मैं नहीं 👈 [ व्यंग्य ]

 534/2022

 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🤫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

                 इस असार संसार में एक मात्र निर्मल प्राणी यदि कोई है, तो वह मनुष्य ही हो सकता है।इस बात को सिद्ध करने के लिए मनुष्य से अच्छा प्रमाण मिलना सम्भव नहीं है।उदाहरण के लिए यदि आपसे कोई गलत, अनैतिक,अनुचित, असामाजिक, अवैध,या देश,कानून औऱ समाज की दृष्टि में गलत कार्य जाने या अनजाने में हो जाता है, तो बिना सोचे समझे आप यही कहेंगे कि यह मैंने नहीं फलां व्यक्ति ने अथवा किसी औऱ ने किया है; मैंने नहीं किया।आप शत- प्रतिशत नकार जाएँगे कि उसे आपने ही अंजाम दिया है।किसी भी तरह आप अपना दोष स्वीकार नहीं करेंगे।स्वदोष स्वीकार न करने की यह कला,प्रवृत्ति या संस्कार मनुष्य मात्र में स्वभावगत है। आपके स्थान पर मैं या कोई अन्य व्यक्ति भी होगा तो वह भी वही करेगा ,जो आपने किया है।

           यदि मनुष्य स्व दोषों को सहजता से स्वीकार कर लेता तो आज के संसार की दशा और दिशा कुछ और ही होती।ये कचहरियाँ, दीवानियाँ,अदालतें, जज ,अधिवक्ता,स्टाम्प वेंडर आदि कुछ भी न होते। हजारों लाखों लोगों का व्यवसाय ही चौपट हो जाता।अदालतें अदालतें न होकर दंगल के मैदान हैं, जहाँ लड़ाई झूठ और झूठ के बीच नहीं, बल्कि सच और सच के बीच है। वादी अपने को सच कहता है,और प्रतिवादी अपनी सचाई का बिगुल बजाता है । फिर ये झूठ क्या वकील साहब के काले कोट की जेब में छिपा बैठा रहता है। यदि प्रतिवादी के ख़िलाफ़ मजबूत प्रमाण मिल गए और उन्होने सही सिद्ध भी कर दिया तो प्रतिवादी पराजित हो जाता है।वह दोषी सिद्ध हो जाता है। यदि सहजता से उसके द्वारा अपना दोष स्वीकार कर लिया जाता तो कोर्ट कचहरी(जहाँ मुकदमा लड़ते लड़ते कच का हरण हो जाए)तो इतना सारा बखेड़ा क्यों खड़ा होता। पर इससे कुछ लोगों का रोजगार चलना भी तो जरूरी था ,इसलिए दूध का दूध पानी का पानी करने के लिए काले कोटों के बीच सफेदी की लड़ाई करनी आवश्यक हो गई।

          इसके विपरीत स्थिति में विचार करके देखें तो स्पष्टत: यह तथ्य प्रत्यक्ष होता है कि मनुष्य बुरे और बुरे से भी बुरे कार्य करने का दायित्व दूसरों पर डालता है।किन्तु यदि अच्छा कार्य करता है तो फोटो खिंचवा कर,वीडियों बनवाकर , अखबारों, टीवी और सोशल मीडिया पर प्रसारित करवा कर स्व श्रेय लूटने में पीछे नहीं रहता।मात्र स्वदोष का प्रक्षेपण ही दूसरों पर किया जाता है ।मनुष्य की इसी प्रवृत्ति की देन हैं ये समस्त प्रकार के कोर्ट, हाई कोर्ट ,सुप्रीम कोर्ट । इसका अर्थ यह भी हुआ कि कोर्ट अच्छे कार्य के लिए न होकर उसके दोषों को उजाकर करने और उसकी सचाई बाहर लाने के लिए ही बनाए गए हैं ,किन्तु क्या इन सबके बावजूद उसने गलत काम करना ,अपराध करना अथवा झूठ से दूर रहना छोड़ा है? इस कार्य में कोई कमी न आकर और भी बढ़ोत्तरी हुई है। आदमी दिन प्रति दिन किस दिशा में जा रहा है ;स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है।उसके निरंतर दिशा - विवर्तन के कारण ही उसकी दशा का सुरूप कुरूप होता जा रहा है। 

        अपने को खटाई में न डालकर दूसरों को खटाई में झोंक देने का स्वभाव मनुष्य की काइयाँपन की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है।'मैं सुरक्षित बचा रहूँ , सब भाड़ में जाएँ।' यह सोच उस आदमी की है जो बहुत अधिक धार्मिक,पवित्र, उदार,मानवतावादी, आध्यात्मिक, परोपकारी, जनसेवी और करुणाशील होने के दंभ में चूर रहता है। लेकिन जब समय ,कानून और न्याय का डंडा उसकी पूँछ उठाकर उसका नग्न यथार्थ जग जाहिर कर देता है ,तो उसे अपना मुँह छिपाने के लिए भी सुरक्षित जगह की खोज करनी पड़ती है।

              इस प्रकरण की एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि पढ़े - लिखों और बिना पढ़े लिखों में कुछ तो अंतर अवश्य होता ही है। साधारणतः जितने काइयाँपन और चतुराई से पढ़ा -लिखा व्यक्ति स्वदोष पर आवरण डालने में कुशल होता है,उतनी कुशलता एक सीधा और सरल व्यक्ति नहीं दिखा पाता। पढ़ - लिख कर स्वदोषों को छिपाने की कलाओं, युक्तियों,बुद्धि - चातुर्य,जुगाड़बाजी आदि की मात्रा में कई गुना वृद्धि हो जाती है।पढ़ा ही इसीलिए जाता है। पढ़ा-लिखा व्यक्ति कोरी स्लेट नहीं होता।पढ़ लिख कर भी यदि कोई कोरी स्लेट बना रह गया तो उसका पढ़ना -लिखना ही अकारथ! इसलिए स्वदोष प्रक्षालनार्थ पढ़ाई एक अनिवार्य कर्म है।स्वदोष प्रक्षालन का साबुन है पढ़ाई।वही दोष के मैल को रगड़- रगड़ कर साफ़ कर देती है।इसलिए मनुष्य को खूब पढ़ना भी चाहिए ;क्योंकि वह अपने दोषों को दूसरों के सिर मढ़ने के संस्कार से इस मनुष्य यौनि में तो मुक्त हो नहीं सकता।सभी युगों में जो मनुष्य स्वदोषों को छिपाकर पर प्रक्षेपण में जितना प्रवीण होता है ,वह उतना ही बड़ा नेता, अधिकारी,कर्मचारी, आम या खास नर -नारी बन कर उभरता है।जिनकी कार गुज़रियों से टीवी ,अखबार, सोशल मीडिया आबाद रहता है।यदि विश्वास न हो तो आज का ही अख़बार उठाकर देख लीजिए, अथवा टीवी खोल लीजिए औऱ ज्यादा दूर न जाना चाहें तो हाथ के मोबाइल की झाँकियाँ देख लीजिए।वैसे भी इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात नहीं, ये संसार ही गुण- दोष मय है।  '"जड़ चेतन गुण दोषमय,विश्व कीन्ह करतार। संत-हंस गुण गहहिं पय,परिहरि वारि विकार।। " 

     अब आप और हम न तो संत हैं और न ही हंस हैं ; जो वारि- विकार को छोड़कर केवल दुग्ध पान ही करें। अपने अनिवार्य दोषों को ढँक पाने की कला भी न सीख पाए तो मनुष्य होने का लाभ ही क्या ? सबसे बुद्धिमान प्राणी होने का गौरव जो मिला हुआ है! जिसमें 'स्वदोष -छिपावन -कला' की प्रवीणता भी तो सम्मिलित है।

 🪴 शुभमस्तु! 

 18.12.2022◆ 6.00 पतनम मार्तण्डस्य।


 🤫👈👉🤫👈👉🤫👈👉

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

शंखनाद 🏫 [ मनहरण घनाक्षरी ]

 533/2022

       

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार©

⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                           -1-

शुचि  शंखनाद सुन,गूँजती अबाध  धुन,

स्वप्न  रहे  आश  बुन,   उर  में उमंग   है।

पवित्र  शिवधाम   में,   करता प्रणाम  मैं,

रहता  हूँ अनाम मैं, भाल दिव्य  गंग   है।।

पार्वती  गणेश  संग, सोम वास  है निरंग,

क्षणेक  जीता अनंग, वंद्य  रूप रंग   है।

काल महाकाल  एक,विश्व वंद्य  व्यतिरेक,

लिखे भाग्य लिपि लेख,प्राण की तरंग है।।


                         -2-

गूँज  उठा  शंखनाद,  जाग त्याग  मृषोन्माद,

यहाँ  वहाँ   भरे नाग, देश  की पुकार    है।

देशभक्त   यहाँ  कौन, शक्तिवान  खड़े मौन,

लीन  काठ  तेल  नौन,नीचता- खुमार   है।

भंग  हुआ  देशराग,  सुलगती  है   कुआग,

आदमी  ज्यों मेष छाग, अंधता  ग़ुबार  है।

देश  को  बचाएँ  हम,  शत्रु  से  रहें न कम,

सत्त्व से  बनें 'शुभम्',चिन्त्य समुदार   है।।


                         -3-

शंख  बजे  भूत  भगे, गेह  में सकार  जगे,

कीट भी  विकार तजे, शंखनाद  कीजिए।

शत्रु सीमा पार खड़ा,डाल के पड़ाव बड़ा,

सोता देशवासी पड़ा,देश-  भाव  भीजिए।।

पवनपुत्र    हनुमान,   महावीर हैं   महान,

मारें  गदा  शक्ति- बान,प्रेरणा तो   लीजिए।।

भूल  नहीं पार्थ  वीर, याद करें शब्द - तीर,

वेग  ज्यों  बहे   समीर, देश   पै  पसीजिए।।


                         -4-

शंख  में  रमा  निवास,  सत्य, नहीं उपहास,

गेह  में   शुभ  उजास, शंखनाद  मंत्र   है।

धाम  को  पवित्र  करें,नकार दोष  भी  हरें,

'शुभम्'  गान  उच्चरें, प्राकृतिक   यंत्र    है।।

दक्षिणावर्ती स्वरूप, धनहीन या  कि  भूप,

बैठता  है  शंख चुप,ये  विचित्र   तंत्र    है।

पुरुष श्रेष्ठ  या कि नारि,वादन करें  सँभारि,

श्वास- शक्ति अनुहारि, शुचिता  स्वतंत्र  है।।


🪴 शुभमस्तु!


17.12.2022◆3.00 

पतनम मार्तण्डस्य।

तेल लगाना :एक कला 🍾 [अतुकान्तिका ]

 532/2022

      

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🍾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

सीख न पाया

तेल लगाना,

उल्लू सीधा करने को,

नहीं मिले वे

घड़े तेल के

जिनको चुपड़ें

मल- मल के।


तेल लगाने का गुण

सबको 

सदा नहीं मिल पाता है,

बड़े भाग्यशाली

 होता वह

जो मन से 

तेल लगाता है।


सीखी होती

कला कहीं जो,

बड़े आदमी बन जाते,

परदे के पीछे ले जाकर

तेल महकता 

महकाते।


बड़े पुण्य का

 संस्कार ये,

तेल लगाना आ जाए,

चिकना घड़ा 

बना घूमे जो

आम जनों पर

छा जाए।


फिर भी मैं

प्रसन्न हूँ मन में,

सहलाता मैं नहीं

किसी के कभी

चरण सत हीनों के,

नहीं वंदना करता

नेता - नेती की

हूँ आनंदित 

सँग दीनों के।


प्रभु वह दिन 

मत लाना ,

जब याचक बनूँ

लगाने तेल,

'शुभम्' चरित  ही

मुझे सुहाते

उनसे मेरा

उर से मेल।


🪴 शुभमस्तु! 


16.12.2022◆4.15 

पतनम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

आदमी यह आज का 🙉 [ नवगीत ]

 531/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

मात्र  अपना  चाहता  हित,

आदमी यह आज का।


बढ़   रही    संपन्नता    में,

शून्य  मानवता  हुई,

ढपलियाँ  सबकी अलग हैं,

रागिनी बजती  नई,

जगत    है   नक्कारखाना,

मित्र है नर बाज का।


जानता   कोई   नहीं    है,

सँग पड़ौसी भी नहीं,

एक   ही  आवास   वासी ,

में नहीं   चर्चा  कहीं,

दूसरों  का  साथ  क्या  दे ,

काम का ना काज का।


 आदमी  से  आदमी   का,

काज सधता  है यहाँ,

कान  आँखें  बंद कर  वह,

घूमता  सारा   जहाँ,

नित्य   सपने   देखता   है,

विश्व भर  में  राज का।


बृहत    मेले    में   अकेला,

आदमी  बौरा  रहा,

पीपनी    अपनी    बजाता,

मूढ़ है  भौंरा  महा,

घोंसलों   में  बंद    चहका ,

चख रहा रस खाज का।


🪴 15.12.2022◆ 9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

गज़क रेवड़ी आई 🥏 [नवगीत ]

 530/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

मूँगफली तिलकुट्टी महकी,

गज़क रेवड़ी आई।


थर-थर पूस काँपता ओढ़े,

दूध छाछ की चादर,

धुंध  कोहरा  की  छाई  है,

सूरज भाता सादर,

पादप मौन खड़े हैं,

छोटे या कि बड़े हैं,

धीरे - धीरे   फैल  रही है,

धूप गुनगुनी छाई।


कड़री, चना ,हरे बथुआ के,

स्वाद सभी को भाए,

ढूँढ़ - ढूँढ़   कर  ले  आते हैं,

मिलें न तो तरसाए,

मक्का की सद रोटी,

स्वाद लगी  है मोटी,

ज्वार बाजरा  खाते हैं  जन,

जो जिसके मनभाई।


आलू  भुने  स्वाद के लगते,

शकरकंद  भुनवाए,

अगियाने  पर  गप्प लड़ाते,

हाथ  पैर   गरमाए,

खाते कुछ  गुड़धानी,

लंबी   कहें   कहानी,

ताप   रहे  हैं  बैठ  छान में,

बाबा दादी ताई।


 भोर  भई  तमचूर  बोलता,

कुक्कड़ कूं की बोली,

जागो - जागो  बाहर आओ,

चोंच बतख ने खोली,

गौरैया       चिचियाई,

पिड़कुलिया भी आई,

पिल्लों के  सँग  खरहे खेलें,

पूसी भी मिमियाई।


बस्ते   उठा   पीठ  पर लादे,

बालक घर से धाये,

टन - टन घण्टी बजे जोर से,

दौड़े कुछ अनखाये,

माँ बोली कुछ खा ले,

धीरज धर  ए   लाले!

नहीं देर  तक सोया कर तू,

झूठी रिस भर आई।


🪴शुभमस्तु !


14.12.2022◆7.15

 पतनम मार्तण्डस्य।


🐓🦢🐓🦢🐓🦢🐓🦢🐓

[1:19 pm, 15/12/2022] DR  BHAGWAT SWAROOP: 531/2022

🙉 आदमी यह आज का 🙉

            [ नवगीत ]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

मात्र  अपना  चाहता  हित,

आदमी यह आज का।


बढ़   रही    संपन्नता    में,

शून्य  मानवता  हुई,

ढपलियाँ  सबकी अलग हैं,

रागिनी बजती  नई,

जगत    है   नक्कारखाना,

मित्र है नर बाज का।


जानता   कोई   नहीं    है,

सँग पड़ौसी भी नहीं,

एक   ही  आवास   वासी ,

में नहीं   चर्चा  कहीं,

दूसरों  का  साथ  क्या  दे ,

काम का ना काज का।


 आदमी  से  आदमी   का,

काज सधता  है यहाँ,

कान  आँखें  बंद कर  वह,

घूमता  सारा   जहाँ,

नित्य   सपने   देखता   है,

विश्व भर  में  राज का।


बृहत    मेले    में   अकेला,

आदमी  बौरा  रहा,

पीपनी    अपनी    बजाता,

मूढ़ है  भौंरा  महा,

घोंसलों   में  बंद    चहका ,

चख रहा रस खाज का।


🪴 15.12.2022◆ 9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

बुधवार, 14 दिसंबर 2022

प्रभु की प्रभा अनंत 🪷 [ दोहा ]

 529/2022


[अंत,अनंत,आकाश,अवनि ,अचल]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

     🧡 सब में एक 🧡

आदि अंत के मध्य में,सकल सृष्टि साकार।

जो  आया  जाना  उसे, होता है  अनिवार।।

छिपा अंत में जीव का,कर्म- भोग परिणाम।

सदुपयोग पल का करें,जीवन बने ललाम।।


ईश- सृष्टि में प्रकृति का,है अनंत  विस्तार।

सब  उससे अनभिज्ञ  हैं,भंग न होती धार।।

अक्षय अमर अनंत है,प्रभु की लीला मीत।

कर प्रयास पाया  नहीं, सका न कोई  जीत।।


पंच तत्त्व विस्तार में,व्यापकतम आकाश।

सबका आलय है वही,सदा नित्य अविनाश।

मम  उर के आकाश की,सीमा है अज्ञात।

शब्द भाव गुंजारते,बन कविता  दिन-रात।।


धुरी अवनि चलती रहे,प्रतिपल प्रति दिनरात

सूर्योदय  शुभ काल  में,देती नवल   प्रभात।।

अवनिअंक में धारती, जन्म अवधि सह मोद

कष्ट न हो तृण मात्र भी,संग सुशीतल ओद।।


चंचल मन करना नहीं,ज्यों पीपल का पात।

अचल वचन हिमवंत-सा,नर को सदा सुहात

मेरे उर  शुभ कामना,अचल रहे अहिवात।

सुता सुखी जीवन जिएँ,आजीवन दिन रात।

    🧡 एक में सब 🧡

प्रभु की प्रभा अनंत है,

                      अंत   रहित   आकाश।

अवनि  सचल है अचल गिरि,

                        अमर मनुज की    आश।।


 🪴 शुभमस्तु !


14.12.2022◆7.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

नेता बाँटें रेवड़ी 🍿 [ दोहा ]

 528/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🍿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■■■◆■◆■

नेता  बाँटें   रेवड़ी, मत   की मन   में  चाह।

टोपी   चरणों में  रखे, झूम विजय-उत्साह।।

रबड़ी   खाते   आप  वे, मतमंगों  के  वेश।

बाँट  रहे   हैं  रेवड़ी,  लूट - लूट  कर  देश।।


घर    वालों   को   रेवड़ी, बाँटें अंधे   लोग।

औरों  को देते  नहीं,  बढ़ा स्वार्थ  का  रोग।।

जनता खुश पा  रेवड़ी, ले जाकर जो आड़।

स्वयं  मलाई  चाटता, झुकवाता  है  भाड़।।


नहीं  रेवड़ी   के  लिए, देना अपने    प्राण।

बुरा -भला सोचें सदा,नेता करें  न   त्राण।।

नेताओं  को  चाहिए,कुर्सी, पद,   सम्मान।

दिखा  रेवड़ी   दूर  से,लूट  रहे धन  - धान।।


मीठी गुड़ की  रेवड़ी,तिल- तिल मारें डाल।

परजीवी  नेता   सभी,  लेते तेल  निकाल।।

नेता  को समझे  नहीं, जड़मति वह  इंसान।

बाँटें   मीठी    रेवड़ी, मीठे जहर   समान।।


राजनीति  है  दाँव की, रेवड़ियों  के   दाँव।

मतदाता को ठग रहे,डगर नगर  हर  गाँव।।

रूप बदलकर रेवड़ी,आती जन   के  पास।

चिड़ियाँ चुग लें खेत जब,होता कृषक उदास


🪴 शुभमस्तु !


13.12.2022◆7.30 पतनम मार्तण्डस्य।

अष्ट सगणाक्षरी 🍀 [ सिंहावलोकन सवैया ]

 527/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

छंद विधान:  1.सिंहावलोकन सवैया चार चरणों का एक  समतुकांत  वर्णिक छंद है।

2.इसमें 08 सगण (II2 ×8)=24 वर्ण होते हैं। १२ वर्ण पर यति होता है ।


3.इसकी प्रथम पंक्ति का अंतिम शब्द दूसरी पंक्ति का प्रथम शब्द होता है।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️

 शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

भरतार गए  जब सों घर से,

           दिन रैन दुखें तिय की अँखियाँ।

अँखियाँ नित नीर भरी बरसें,

           दुख जानि रहीं नियरी सखियाँ।।

सखियाँ समुझाय रहीं सखि को,

             कछु हासमई  करके बतियाँ।

बतियाँ न करें दुख दूरि भलें,

             भरतीं बल सों सखि की छतियाँ।।


                         -2-

सुखसार नहीं ससुराल सदा,

            दुइ चारि दिना सुख में निकरें।

निकरें घर से यह सोचि चलें,

              अधिकाइ करें ससुरे बिगरें।।

बिगरें   ससुराल   न नेह  रहे,

            कछु  काम  लगाइ तुम्हें   रगरें।

रगरें नहिं मान मिलें तुमकूं,

        जिजुआ-जिजुआ कहि के झगरें।।


                         -3-

अवतार लियौ  हमनें  तुमनें,

               गत यौनि पधारि गए धरती।

धरती तल  पै बहु जीव बसें,

           कृत कामनु के फल ही करती।।

करती भव में शुभ फूल खिले,

             घट पापनु पुण्यनु सों भरती।

भरती घट की जब ग्रीव सभी,

               पुनि यौनि नई भव में सरती।।


                         -4-

अब शीत धमाल कमाल करै,

                 रतियाँ भरि ओस लिए बरसें।

बरसें नभ तें हिम की डलियाँ,

                       तमचूर जगें गलियाँ हरसें।।

हरसें सजनी  सँग साजन के,

                 अब सेज नहीं पिय को तरसें।

तरसें मुख  में इक  दाँत नहीं,

                 कत चाबि चना ददुआ घर सें।।


                       -5-

उर में बसते  सिय  राम  सदा,

              नित जानकिनाथ सदा  शुभदा।

शुभदा करतीं अपनी सु-कृपा,

                     कविता करता जड़ मैं वरदा।

वरदा  रमतीं  रसना  रस की,

                     धर रूप सजे शुचिता प्रमदा।

प्रमदा   रचतीं  जग की रचना,

                   बनती घरनी घर की सुखदा।।


🪴 शुभमस्तु !


13.12.2022◆ 2.45 पतनम मार्तण्डस्य।


सोमवार, 12 दिसंबर 2022

फल जब पक जाता है 🥭 [ गीत ]

 526/2022


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🥭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

फल    कच्चा     जब  पक  जाता है।

वही    बाग        को    महकाता  है।।


जो    विकास    के    पथ  पर बढ़ता।

उच्च     शृंग       के      ऊपर  चढ़ता।।

लक्ष्य      प्राप्त     कर  मुस्काता    है।

वही     बाग         को   महकाता है।।


शिशु     किशोर   वय    होती   कच्ची।

कहलाते            वे      बच्चे -  बच्ची।।

तब      यौवन    का    रँग    छाता   है।

वही       बाग      को     महकाता   है।।


सोपानों         को        मंजिल     माने।

पाने     का       रस      क्या   पहचाने??

बैठ        राह       में     अँगड़ाता     है।

वही       बाग     को    महकाता      है।।


बढ़ते           जाना      ही     जीवन   है।

नर   -  नारी       का     सच्चा   धन  है।।

गीत        प्रीति      के    वह   गाता है।

वही        बाग      को    महकाता    है।।


'शुभम्'      वृद्ध      को    नहीं  नकारो।

महके       बिना      नहीं       यों   मारो।।

घर    -    परिजन   का  वह त्राता     है।

वही       बाग      को    महकाता    है।।


🪴 शुभमस्तु!


12.12.2022◆115पतनम मार्तण्डस्य।

परिवर्तन समय-जात है 🌳 [ गीतिका ]

 525/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

पौष     मास   की        सर्द   रात    है।

ओढ़े      सित     चादर    प्रभात     है।।


धूप        गुनगुनी      दिन    में   भाती,

होता        निशि   में     तुहिन पात  है।


तन    में    चुभते     तीर       शीत  के,

सी  -  सी    करती    शिशिर- वात  है।


निर्मल      मन      के    धारक  कितने,

जन  -   जन     में    कटु भितरघात है।


गेंदे ,                पाटल ,   सूरजमुखियाँ,

सुरभि  -  सुगंधित  -   सुजन -गात    है।


फूल      -     फूल    पर   तितली   भौंरे,

प्रकृतिजन्य               शुचि   करामात   है।


'शुभम्'       बदलते     ऋतुएँ    मौसम,

हर       परिवर्तन     समय - जात     है।


🪴 शुभमस्तु!


12.12.2022◆7.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

पौष की सर्द रात 🗺️ [ सजल ]

 524/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

●समांत : आत।

●पदांत :  है।

●मात्राभार  :16.

●मात्रा पतन : शून्य।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

पौष     मास   की        सर्द   रात    है।

ओढ़े      सित     चादर    प्रभात     है।।


धूप        गुनगुनी      दिन    में   भाती,

होता        निशि   में     तुहिन पात  है।


तन    में    चुभते     तीर       शीत  के,

सी  -  सी    करती    शिशिर- वात  है।


निर्मल      मन      के    धारक  कितने,

जन  -   जन     में    कटु भितरघात है।


गेंदे ,                पाटल ,   सूरजमुखियाँ,

सुरभि  -  सुगंधित  -   सुजन -गात    है।


फूल      -     फूल    पर   तितली   भौंरे,

प्रकृतिजन्य         शुचि   करामात   है।


'शुभम्'       बदलते     ऋतुएँ    मौसम,

हर       परिवर्तन     समय - जात     है।


🪴 शुभमस्तु!


12.12.2022◆7.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 11 दिसंबर 2022

चार लोग क्या कहेंगे! 🙊 [ व्यंग्य ]

 523/2022


 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ व्यंग्यकार  ©

🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

  हमारे समाज में चार की संख्या का  विशेष महत्त्व है।चार धाम, चार वेद,चार वर्ण, लोकतंत्र के चार चरण (किन्तु गधा,घोड़ा न समझें)  और सबसे अधिक महत्वपूर्ण यदि कोई या कुछ  है तो वह है: "चार लोग" !इन चार लोगों ने ही धरती उठा रखी है।इनका बहुत ही अधिक मान - सम्मान है।ये चार ही तो संसार में छाए हुए विस्तीर्ण वितान हैं।ये तो भगवान के ही इतर नाम हैं।इन चारों के समक्ष तो वेद भी झूठे हैं। ये चार जिनसे रूठे हैं ,उनसे समझ लें परमात्मा ही रूठे हैं।चार धाम का सारा काम इन्हीं के जिम्मे है।ये जो कह डालें ,वही पत्थर की लकीर है। ब्रह्म वाक्य है। सदैव अकाट्य है।इसलिए हर आम और खास जन उसे मानने के लिए बाध्य है। क्या आपने इन चार लोगों का चटुल चमत्कार नहीं देखा? यदि नहीं देखा या कभी देखने समझने का सु अवसर नहीं मिला ;तो हम ही दिखाए देते हैं।

मान्यवर ! मेरे इस मंतव्य के आप भी एक पात्र हैं। अन्यथा न लें तो यह अकिंचन व्यंग्यकार कुछ कहने के लिए अपनी लेखनी की स्याह स्याही की लिखाई करे!  आप ही की तरह जिसे भी देखो वह  कोई भी काम इधर -उधर देखकर करता है। कहीं कोई देख तो नहीं रहा। जैसे किसी दुष्कर्म को अंजाम देने जा रहे हों। लोग अपने विवेक को बेच खाए बैठे प्रतीत होते हैं।बस उनके मष्तिष्क में एक यही कीड़ा रेंगता रहता है कि यदि हमने यह काम किया तो लोग क्या कहेंगे? यदि मैंने लाल रंग की शर्ट पहन ली, पिछली शादी में एक बार पहनी हुई साड़ी इस शादी में भी पहन ली, यदि मैंने बाइक छोड़कर साइकिल की सवारी कर ली, यदि मैंने अपना बेटा सरकारी स्कूल में पढ़ने भेज दिया, यदि मैंने बिना दहेज लिए ही लड़के की शादी कर ली,यदि मुझे दहेज में कार नहीं मिली,यदि मेरा घर कच्चा ही रह गया, यदि मेरी पत्नी मेरे दोस्त की पत्नी से कम सुंदर हुई,यदि मेरा   मोजा किसी को जूते से बाहर फटा हुआ दिख गया, यदि मैं बिना कार लिए मॉल में चला गया,यदि मेरे कपड़ों की सफेदी उसके कपड़ों की सफेदी से कम हुई आदि आदि ऐसी हजारों लाखों  हीनता - बोध की खट्टी-मीठी  गाँठें हैं,  जिनका  खुलना सहज नहीं तो अति दुर्लभ अवश्य है। 

आदमी दूसरों को देखकर जी रहा है।दूसरों की नजरों से जी रहा है।अपने लिए अपनी नजर ताक पर उठा रखी है।उसे अपने लिए अपनी नजर की कोई चिंता नहीं है। बस :"चार लोग क्या कहेंगे" : के  असम्भव  आदर्शों का दीवाना है।

 आदमी अपनी वास्तविकता को छिपाकर अपना वह रूप प्रदर्शित करना चाहता है ,जो वह है ही नहीं। उसे चार लोगों की दृष्टि की ज्यादा चिंता है।अपने खोखलेपन को मखमली आवरण में छिपा कर बड़प्पन दिखाना उसकी आंतरिक इच्छा है। घर में लड़की को दिखाने के लिए पड़ौसी के यहाँ से सोफ़ा सेट, टी सेट, डिनर सेट, बैड सीट आदि लगाना उसकी इसी भावना से उद्भूत है।नारियों का सारा साज- शृंगार और पुरुषों का खिजाब- प्रसाधन प्रकति को धता बताने का उपकरण मात्र ही तो है।जब कि यह एक असंभव कार्य है। 

बात केवल झूठे ही अपना मन समझाने भर की है।किंतु असली बात तो चार लोगों की  चिंता खाए डालती है।ये चार लोग कोई भी हो सकते हैं।हम भी और आप भी। जो कभी मन ही मन भुनभुनाते हैं ,कभी प्रत्यक्ष कह डालते हैं।कुछ लोगों को कह - टोक कर दूसरों का दिल दुखाने में ही आनन्दानुभूति होती है।वे कभी अपने गरेबाँ में झाँक कर नहीं देखते ।उन्हें तो बस दूसरों के बैडरूम, बाथरूम औऱ खिड़कियों में देखने में ही परम सुख मिलता है।अंग्रेज़ी में ऐसे पर हित चिंतकों को 'सेडेस्टिक' कहा जाता है।कानी दर्पण में कभी अपने टेंट को नहीं निहारती। हाँ,दूसरों की नाक जरूर कटी देख लेती है।

इन "चार लोगों" के कारण दुनिया औऱ समाज को इतना लाभ अवश्य हुआ है कि लोगों ने अपनी यथार्थता को छिपा कर अपने स्तर का पैमाना ऊँचा कर लिया है। कोई किसी से कमतर नहीं दिखना चाहता।'यावत जीवेत  सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत' :का आदर्श इसी भाव से उत्पन्न हुआ। इन "चार लोगों" ने संसार का रूप स्वरूप ही परिवर्त्तित कर डाला है। इसलिए दिखावटी दिखने का दुनिया में बहुत सारा गरम मसाला है।ये आदमी उसके माँ - बाप से अधिक उसके पड़ौसियों, रिश्तेदारों, मित्रों और शत्रुओं ने ढाला है। और अंत में किन्हीं "चार लोगों" ने चार कंधों पर  अर्थी पर राम नाम सत्य बोलते हुए निकाला है।

🪴शुभमस्तु!

11.12.2022◆ 8.00 पतनम मार्तण्डस्य।




चार जने क्या कुछ कहें! 🍀 [ दोहा गीतिका ]

 522/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

चार जने क्या कुछ कहें,सोच-सोच कर लोग

सूखें  चिंता  में  सभी,लगा मानसिक   रोग।।


देखें  बाहर  झाँक कर,  अपनी नज़रें  गाड़,

जैसे हम हैं कर रहे,छिप छिप कर अभियोग


हमें   देखना   है  सदा, अपना कर्म - प्रवाह,

भला- बुरा सब जानते,तदनुरूप  है  भोग।


लोगों   की  अवधारणा , से चलना   दुश्वार,

उचित  तुम्हें  जो भी लगे, वही तुम्हारे  जोग।


अपना हृदय निकाल दें, लगते फिर भी दोष,

जग काजर  की कोठरी, देगा हर पल  सोग।


अपनी  वाणी  कर्म  से, दे  न सकोगे  हर्ष,

सदा  बुरा  दुनिया  कहे,हमने किए  प्रयोग।


'शुभम्'अंत में चार जन, अर्थी धर के कंध,

कहें  राम   ही  सत्य है,  झूठी शंसा  योग।


🪴 शुभमस्तु!


11.12.2022◆4.45 प.मा.


🦢🦢🧡🦢🦢🧡🦢🦢🧡

राधा को मत भूल 🪷 [ दोहा गीतिका ]

 521/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

कृष्ण  देह   में   आत्मा, राधा  - राधा  नाम।

और नहीं कुछ कामना, बस श्री राधे- धाम।।


शब्द- शब्द में कृष्ण का,है समस्त अस्तित्व,

राधा जी हैं अर्थ की,अनुपम छटा  ललाम।


कृष्ण गीत बन गूँजते,सकल सृष्टि के बीच,

राधा  ही  संगीत   हैं,  वीणा धर    अविराम।


हैं वंशी  साक्षात  प्रभु,कृष्ण मुरारी   नित्य,

राधा स्वर बन गूँजतीं, कहते यह घनश्याम।


सागर कृष्ण कृपालु का,प्रसरित ये ब्रह्मांड,

राधा वहाँ  तरंग हैं, हर  विहान  से   शाम।


कृष्ण फूल के रूप में,विकसे शुभद स्वरूप,

राधा  सदा  सुगंध  का,बरसाने  का   गाम।


'शुभं'नित्य भज कृष्ण को,राधा को मत भूल

जीव और जीवन  वही, अपने सीता  राम।।


🪴शुभमस्तु!


11.12.2022◆3.00

पतनम  मार्तण्डस्य।


शनिवार, 10 दिसंबर 2022

सर्द भरी रात है! 🌳 [ मनहरण घनाक्षरी ]

 520/2022

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                         -1-

पूस ओढ़ शॉल  सेत,मौन धर खड़े  खेत,

शांत  सुप्त  सौम्य रेत,सर्द भरी  रात  है।

पत्र-पत्र लदी ओस,पास नहीं कोस-कोस,

मंद तेज  धूप  जोश,बही शीत वात  है।।

बोल  रहे खग वृंद, गढ़े नित्य दिव्य  छंद,

फूले  सर  अरविंद, रम्यता प्रभात   है।

रेंक  रहे   बँधे  ढोर,  नाचते मुँडेर    मोर,

देख तो  सुरम्य भोर, शून्य हुआ  गात है।।


                         -2-

ठिठुर  रही  चाँदनी,  न गाए गीत रागनी,

सुधामयी  सुहावनी, मंद  बही धार   है।

मौन पेड़ बेल सभी,काँप उठें कभी-कभी,

शीत सुप्त शांत जमीं, जम उठी लार है।।

चाँद भी न बोल रहा,ओस में तनहा नहा,

कठोर  शीत को सहा,मौसमी उभार   है।

वेला उषः सकाल की, चहकती प्रवाल-सी,

प्राची गुलाल  भाल-सी, दिव्य उपहार  है।।


                         -3-

सर्द  भरी  रात  शीत, गात करे कंप  मीत,

गई  है  हेमंत  बीत, सी - सी सिसकारी है।

माँग  रहे   पूस  माघ, आग तापने   निदाघ,

कोस  नित्य   रहे  भाग,  काट रही आरी है।।

पड़े  नहीं  लेश   चैन,  देख  पंथ  थके  नैन,

विरहिणी   दिन  रैन,  शीत  से  दुखारी  है।

शोर  करे  पायलिया, 'शुभं' हुई   बाबरिया,

सर्द  सेज  नागिनिया,शीत की सवारी  है।।


                         -4-

सर्द  भरी   शीत  रात, बहती नीहार  वात,

दुग्ध  स्नात  है   प्रभात, ताम्रचूड़  बोलते।

बतखों  की  बातें सुन,चल रहीं  बाँधे धुन,

केंउ   -  चेंउ    रुनझुन,  नभचर   डोलते।।

मछली  सरि  तैरती,लगन लगी   सैर   की,

रखती  वह  धैर्य  भी, गलफड़े खोल  के।

बकरी मिमियाती है, भैंस  अब  रँभाती है,

गैया  भी पगुराती  है, देती डग तोल   के।।


                         -5-

सर्द भरी श्याम रात,शून्य गात हाथ  लात,

साथ  आग  का  सुहात, उष्ण आहार करें।

कड़री  चने  के  साग,खाते हैं जो  बड़भाग,

पास  बजे   ताप- राग, काजू छुहार   चरें।।

धूप मिले  घनी  ओट,धार गात  गर्म  कोट,

रुई   के  लिहाफ़  लोट, कान बाँध   विचरें।

घरनी हो  सुंदरी-सी, अँगुली में मुंदरी - सी,

नहीं  तेज  बंदरी- सी, सेवामयी    संचरें।।


🪴 शुभमस्तु!


10.12.2022◆2.45प.मा.

खूँटों से बँधे हुए हम!📍 [ व्यंग्य ]

 519/2022 


 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🚩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 मानव को खूँटा विरासत में मिला हुआ है। कोई भी आदमी साधारण हो अथवा असाधारण,अति विशिष्ट हो या सामान्य ;खूँटे से बँधना उसका संस्कार है।जैसे जन्म लेते ही जीव माँ के स्तन ढूँढने लगता है ,ठीक वैसे ही मनुष्य का बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगता है; अपने को ज्यादा समझदार होने का दम भरने लगता है;वह मजबूत खूँटे /खूँटों की तलाश में व्यस्त हो जाता है।वह बस पकड़े रहकर ही अधिक संतुष्ट और प्रसन्न अनुभव करता है। पकड़े रहना उसकी नियति है।इसीलिए तो मनुष्य को सामाजिक प्राणी का सम्मान मिला है।वह चाहे अति उन्नत हो अथवा पतनोन्मुख; खूँटा उसकी अनिवार्यता है।जैसे मैदान में खूँटे से बँधी हुई भैंस अथवा बकरी उतनी दूरी तक ही घास चरने के लिए विचरण कर पाती है, जितनी लंबी उसकी रस्सी होती है।रस्सी तोड़कर या खूँटा छोड़कर पलायन करना उसका संस्कार नहीं है। यह खूँटा ही उसका पालक है,रक्षक है,आश्रय है,सर्वस्व है।

 आपकी यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि ये खूँटे किस तरह के हैं, जिनसे बंधकर हर व्यक्ति अपने को धन्य - धन्य समझने लगता है। इन खूँटों के प्रकार और संख्या अनन्त है।कुछ विशेष खूँटों की चर्चा करना समीचीन होगा।

  प्रायः अधिकांश जन स्व- जाति के खूँटे से बंधकर अपने को अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं।नेता, अधिकारी, कर्मचारी, आम आदमी;यहाँ तक कि कुछ साधु- संत भी जाति के खूँटे से बँधे हुए रहकर मस्त हैं। समाज के मठाधीश जन स्वजाति के कथावाचक या कपड़े रँगे हुए विद्वान को खोज लाते हैं। ज्ञान ध्यान का क्षेत्र भी जाति के खूँटे से नहीं बचा। यह सब संस्कार की बात है। नेता जाति के आधार पर मत खोजते हैं,जातिगत क्षेत्र से ही टिकट लेकर चुनाव के मैदान में उतर पड़ते हैं।नेताओं के लिए जाति एक संजीवनी है।जहाँ कोई दाँव नहीं चलता ,वहाँ जाति का हथकंडा काम आता है। जब मनुष्य की समस्त योग्यताओं पर पानी फिर जाता है ,वहाँ उसे जाति से ही सहारा मिलता है।वही उसकी डूबती हुई नैया पार लगाने के लिए तिनका नहीं एक विशाल शहतीर का काम देती है। खेल में लुटा -पिटा बालक अंततः माँ के आँचल में में लुक -छिप कर शांति और तोष प्राप्त करता है,ठीक वैसे ही नेता या उसी प्रकार के मनुष्य को जाति का दूध पीने से तुष्टि की पुष्टि हो जाती है।

  अधिकारी का झुकाव भी अपनी जाति वाले की ओर कुछ अधिक ही होता है। ऐसा नहीं है कि कवि विद्वान नहीं होते। वहाँ भी अंदरूनी जातिगत गिरोहों का बोलबाला है।जाति एक ऐसा गरम मसाला है ,जिसे जहां भी चाहो चला सकते हो।स्कूल - कालेजों में शिक्षक भी इस संस्कार से मुक्त नहीं हैं।वे अपने विद्यार्थियों में भी वही कॉमन तत्त्व तलाशते हुए देखे जा सकते हैं। सहज झुकाव का यह बिंदु मानव समाज में कहाँ नहीं है,यह जानना कठिन नहीं तो दुर्लभ भी नहीं है। 

  पति के लिए पत्नी, पत्नी के लिए पति, स्वामी के लिए सेवक ,सेवक के लिए स्वामी, नौकरी , व्यवसाय ,समाज के अनेक रक्त सम्बंध, रक्त से इतर सम्बन्ध ,धर्म,मजहब, सम्प्रदाय,राजनीति, कूटनीति, आदि हजारों लाखों खूँटों की भरमार में बंधे हुए जन कहीं भी स्वाधीन नहीं हैं। यहाँ तक कि उसका चिंतन- मनन, अध्ययन,स्वाध्याय, शिक्षा, खेल , सब कुछ खूँटाबद्ध है। मानव का यह पालतूपन ही उसके खूँटा- बंधन का कारण है। किसी न किसी का पालित बनकर रहना ही उसे रास आता है।वह दास भी है तो अपने मन का नहीं। परिष्कृत भाषा शैली में इसे भक्त कह दिया जाता है। कोई नेता भक्त है तो कोई दल भक्त है।वह कहीं न कहीं अनुरक्त है।यह अनुरक्ति ही उसका खूँटा है। उसकी परिधि है। उसकी सीमा है। बस उसके खूँटे तक ही उसका बीमा है।

  मानव का 'खूँटात्त्व' एक ऐसा अनिवार्य तत्त्व है, जो उसे असीम से ससीम बनाता है। उसकी अपनी 'खूँटाई ' से कभी भी विदाई होती है और न ही जुदाई। उजड्ड भैंस की तरह कुछ खूँटा- उखाड़ जन पगहा तोड़कर किसी दूसरे खूँटे से आलिंगनबद्ध होते हुए भी देखे जाते हैं।राजनेताओं के लिए यह एक सामान्य-सी बात है। वहाँ उनका खूँटा ऊँची कुर्सी है, जहाँ भी वह मिले; बस उसी खूँटे को गले लगा लिया। परिवर्तनशील खूँटे व्यक्ति विशेष के चरित्र की चंचलता के पुष्ट प्रमाण हैं।कौन कब अपना वर्तमान खूँटा तोड़ बैठेगा ,कुछ भी नहीं पता। 

    मानव का यह पालतूपन उसे गाय, भैंस,बकरी,गधा,घोड़ा,भेड़ आदि की श्रेणी में स्थापित करता है। वह शेर, चीता, भालू, लकड़बघ्घा,तेंदुआ आदि स्वतंत्र जीवों की श्रेणी के समकक्ष उन्मुक्त प्राणी कदापि नहीं है।ये प्राणी खूँटे से नहीं बाँधे जाते ,औऱ न बाँधे ही जा सकते हैं।इनका दूध केवल औऱ केवल उन्हीं की संतति के लिए उत्पादित होता है।गाय - भैंस के दूध की तरह मानव के द्वारा छीन नहीं लिया जाता।जिस प्रकार मानव किसी अन्य प्राणी का दोहन करता है ,ठीक वैसे ही मानव तो स्वयं मानव का दोहन करने से नहीं चूकता।निर्जीव और सजीव विविध प्रकार के खूँटों से बद्ध यह मानव आजीवन खूँटामय रहकर ही जीवन बिता देता है। खूँटों के प्रति पराश्रयता उसकी प्रतिबद्धता बनकर उसे समस्त जीव - जगत से भिन्न प्राणी बना देती है।वह उसी के प्रति समर्पित औऱ संतुष्ट है।अपनी सुदृढ़ता का दंभ भरने वाला यह मानव कितना परिपोषी औऱ परिजीवी है, इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है। 

 🪴 शुभमस्तु !

 10.12.2022◆ 11.30 आ.मा.


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...