गुरुवार, 30 नवंबर 2023

सुप्त सात्विकता जगाओ! ● [ अतुकांतिका ]

 514/2023

 

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●© शब्दकार 

●  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खोल दो

बन्द खिड़कियाँ

स्वच्छ हवा अंदर 

आने दो,

लगी हुई जो

तुम्हारे दिल में

उसे बुझ जाने दो।


प्रतिस्पर्धा के

खुले मैदान में आओ,

दौड़ते हुए किसी की

टाँग में 

अपनी टंगड़ी 

न अड़ाओ।


किन्तु तुम

आदमी हो

अपनी आदत से

बाज कैसे आओगे,

अपनी टंगड़ी से

औरों को गिराओगे।


कोई जरूरी नहीं कि

तुम किसी को 

गिरा पाओ,

सम्भव है

तुम स्वयं 

चारों खाने चित्त

स्वयं को पाओ।


'शुभम्' जगाओ

अपनी सुप्त सात्विकता,

और स्वयं भी

खुले मैदान में

दौड़ते हुए दिख पाओ,

सोई हुई लपटों को

बुझाओ !

पूरी तरह बुझाओ।

दानव से मानव

बन जाओ।


● शुभमस्तु !


30.11.2023●6.15प०मा०

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दिलजले ● [ अतुकांतिका ]

 513/2023 

      

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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वह बाहर है  तो 

अंदर भी है,

माचिस की

डिब्बी में बंद,

बड़ी ही हुनरमंद,

जलाना ही 

उसका काम,

सुबह से शाम।


भीतर एक नहीं

दो - दो ,

दोनों ही अदृश्य

साथ ही अ-वश्य,

कौन नहीं जानता

जठराग्नि को,

और दूसरी भी

ईर्ष्याग्नि को।


परिचय क्या कराना!

और समझदार को 

क्या समझाना ?

दोनों ही 

स्वतः लग जाती हैं,

लग जाएँ  तो

बुझाए न बुझ पाती हैं!


आदमी है ही वह चीज

जो किसी की बढ़ती को

नहीं देख पाता,

भीतर ही भीतर

सुलगता ही नहीं

खाक हुआ जाता! 

कह भी नहीं पाता,

बस उसकी आँखों

चेहरे के रंगों

बदलते हुए ढंगों से

पारे का चढ़ाव

दिख ही जाता।


जो जितना तामसी

उतनी ही तेज 'यह' आग,

नहीं देखता

अपना कर्म

अपना भाग,

जलता है स्वयं

किसी का बाल भी

झुलसा नहीं पाता,

दिलजलों को 

कौन नहीं जानता?

पर दिलजला 

इसे सच नहीं मानता।


● शुभमस्तु !


30.11.2023●6.00 प०मा०

बुधवार, 29 नवंबर 2023

फैशन ● [ दोहा ]

 512/2023

              

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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फैशन   इतना  कीजिए, हो जाएँ बरवाद।

ऋण  लेकर घृत पीजिए,चार्वाक कर याद।।

मोबाइल  मँहगा रखें,हे ठन - ठन गोपाल।

दिखा अमीरी शान से,फैशन रखें बहाल।।


भले   ठंड   लगती  रहे,रखें नग्न ही    देह।

फैशन   में  इठलाइए, भाँग न भूंजी   गेह।।

कामिनि  तेरी  देह में,अग्नि  ताप भरमार।

फैशन करें  बरात  में,कपड़े सभी उतार।।


चोली   ऐसी  देह  पर ,तुम्हें सोहती  खूब।

फैशन  में  बाहें बिना,चरी भैंस ज्यों  दूब।।

उघडी  नंगी  पीठ  की, फैशन की भरमार।

जनता को शोभन लगे, रोके क्यों भरतार।।


नारी   फैशन  में चले, सौ पग आगे देख।

चाँद  नहीं  तेरी  बचे, करना मीन न  मेख।।

फटी जींस में हिप्स का,फैशन का ये हाल।

सुनें न अम्मा बाप की,चलें हंस की चाल।।


विदा  साड़ियाँ हो  रहीं,करे पिलाजो  जोर।

फैशन  अब  रंगीन  है,  लेती  देह हिलोर।।

फैशन की महिमा बड़ी, सुने न देकर  कान।

भटकी  है  पीढ़ी नई,अजब दिखाए  शान।।


भले  न  रोटी पेट में, मोबाइल हो हाथ।

फैशनरत  छोरे  सभी,छोरी उनके साथ।।


●शुभमस्तु!


29.11.2023●10.00आ०मा०

कुल्फी वाला एक ● [ गीत ]

 510/2023

    

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चला उदर की

अग्नि शमन को

कुल्फी वाला एक।


पेटी बाँधी 

लाल रंग की

साइकिल कहलाए।

आगे पीछे

थैले टाँगे

जिज्ञासा उपजाए।।


बेच कुल्फियाँ

गेहूँ चावल 

देता उनमें   फेक।


एक हाथ में 

कुल्फी थामे 

कहता आओ खाओ।

बालक बूढ़े

सब नर- नारी

ठंडी कुल्फी पाओ।।


ताप मिटाओ 

जेठ मास है

लगा खड़ा मैं ब्रेक।


जूते पहने 

नहीं पाँव में

फटी चप्पलें मैली।

एक लेखनी

लगी जेब में

बनी टाट की थैली।।


हरा अंगौछा 

सिर पर धारे

मन में  है शुभ  टेक।


●शुभमस्तु !


28.11.2023●7.30प०मा०

शरद - चंद्रिका मोहिनी ● [ दोहा ]

 511/2023

  

[रंग बिरंगी,रमणीय,व्यंजना,प्रस्ताव, संकेत ]

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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              ● सब में एक ●

रंग बिरंगी   शाटिका,  धरे  गात  पर   रात।

देती  शुभ  दीपावली,  ज्योति  भरी  सौगात।।

रंग बिरंगी  वादियाँ,  सुमन  भरे   सदगन्ध।

तितली अलिदल झूमते,मुक्त मुदित  निर्बंध।।


शरद - चंद्रिका  मोहिनी,छिटकी है  चहुँ ओर।

गाछ - गाछ रमणीय है,मृदुल मनोहर  भोर।।

सरिता तट रमणीय है,सुन कलरव - गुंजार।

तरुवर  बैठे  कीर दल,करते विशद विचार।।


भक्ति-काव्य की व्यंजना,भर निर्वेद सुभाव।

ईश-भजन  में रस भरे,जगत-चक्र अलगाव।।

शक्ति  सुसज्जित व्यंजना,काव्य उच्च उत्कृष्ट।

अभिधा में प्रियता कहाँ,बना 'शुभम्' का इष्ट।।


साहस कर करता  तुम्हें, प्रणय पूर्ण प्रस्ताव।

ठुकराना  मत  शोभने,मम  उर का सद्भाव।।

समुचित हो प्रस्ताव तो,नहीं तनिक आपत्ति।

करती  अंगीकार मैं, प्रणय  पूर्ण तव   उक्ति।।


बातों - बातों  में  दिया, प्रियतम  ने संकेत ।

भाव  जगे  अभिसार के, उर में बहु  समवेत।।

समझ गई संकेत मैं,शब्द निहित प्रिय-भाव।

परिरंभण की कामना,प्रणय-वीचि का चाव।।


        ●  एक में सब  ●

रंग बिरंगी   व्यंजना,भाव  भरी रमणीय।

आलिंगन - संकेत है,प्रिय - प्रस्ताव वरीय।।


●शुभमस्तु !


29.11.2023●5.30आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

भूख ● [ चौपाई ]

 509/2023

                 

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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भूख  उदर  की  सदा  सताए।

जंतु भूमि, नभ, जल जन्माए।।

अलग भूख जो जन्मी  काया।

जगती में  व्यापी  नित माया।।


कवि को मानस -भूख सताती।

असमय समय देख कब पाती।।

पकड़ लेखनी लिखता कविता।

नहीं जहाँ पर   पहुँचे   सविता।।


नेता  सब   कुरसी    के  भूखे।

ऊपर   चिकने   अंदर   रूखे।।

सत्तासन   की  भूख  निराली।

मिले  रसों की   मीठी  डाली।।


शिक्षा  की शुचि भूख जगाता।

मानव  वह शिक्षक कहलाता।।

जो समाज शिक्षा  का  भूखा।

जीवन  जीता कभी न रूखा।।


भूख  देह  की   संतति    लाती।

तन मन को उपकृत कर जाती।।

वंश -  वृद्धि   के   गाछ  उगाए।

भूख  देह की   क्या न   कराए??


विविध  भूख  के   रूप  बनाए।

बनते  हैं   मानव    के    साए।।

बिना  भूख  क्या जीवन कोई!

भूखी  देह  न सुख  से   सोई।।


भूखा    रहे  न   भू   पर  कोई।

आँख न कोई  दुख   से   रोई।।

'शुभम्' चलें  हम भूख मिटाएँ।

भूखे  मनुज  नहीं   सो   पाएँ।।


●शुभमस्तु !


27.11.2023●12.30प०मा०

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प्रभु की प्रभुताई ● [ गीतिका ]

 508/2023

    

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शरद   सुहानी     शीतल   छाई।

अद्भुत  है    प्रभु की     प्रभुताई।।


पावस   की  रिमझिम  है बीती,

हलकी-हलकी     शीत  सुहाई।


विजयादशमी      पर्व    मनाया,

दीपावलि  की  ज्योति   जलाई।


नहीं  एक सम  ऋतु    भारत में,

कर्ता   की    मनहर    कविताई।


षड ऋतुओं  का  शुभागमन हो,

कभी  किसी    की  हुई  विदाई।


परिवर्तन    सबको     हितकारी,

छिपीं   हजारों   सुखद   भलाई।


'शुभम्'चलें  कुछ शोध करें हम,

पड़ी   ज्ञान पर  तम  की   काई।


●शुभमस्तु !


27.11.2023●6.15आ०मा०

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शरद सुहानी ● [ सजल ]

 507/2023

        

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● समांत :आई।

●पदांत : अपदांत।

●मात्राभार : 16.

●मात्रा पतन :शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शरद   सुहानी     शीतल   छाई।

अद्भुत  है    प्रभु की     प्रभुताई।।


पावस   की  रिमझिम  है बीती,

हलकी-हलकी     शीत  सुहाई।


विजयादशमी      पर्व    मनाया,

दीपावलि  की  ज्योति   जलाई।


नहीं  एक सम  ऋतु    भारत में,

कर्ता   की    मनहर    कविताई।


षड ऋतुओं  का  शुभागमन हो,

कभी  किसी    की  हुई  विदाई।


परिवर्तन    सबको     हितकारी,

छिपीं   हजारों   सुखद   भलाई।


'शुभम्'चलें  कुछ शोध करें हम,

पड़ी   ज्ञान पर  तम  की   काई।


●शुभमस्तु !


27.11.2023●6.15आ०मा०

रविवार, 26 नवंबर 2023

बच्चा भी नहीं हूँ,किन्तु...● [संस्मरण ]

 506/2023 


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● ©लेखक 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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आयु में बड़ा होकर भी किसी को अपनी बाल्यावस्था और अतीत को भुला पाना सम्भव नहीं है।इसलिए मेरे बीते हुए सात दशक कल की सी बात लगते हैं।आठवें दशक की दहलीज पर दो सीढ़ियाँ चढ़ जाने पर बचपन के बीते हुए दिन और उसकी खट्टी -मीठी यादें भी आना और उनका चुभलाना भी कम आनन्ददायक नहीं लगता ।वयस बढ़ने पर कोई कुछ भी बन जाए किन्तु बचपन तो बचपन ही होता है। एक कोरा कागज ;जिस पर समय की लेखनी जो कुछ भी लिख डाले, लिख जाता है। लिख ही नहीं जाता , अमिट हो जाता है।ऐसे ही कुछ अमिट लिपि मेरे बाल्य पटल के पन्नों पर भी लिखी हुई है।जो कहीं- कहीं बहुत स्प्ष्ट है, तो कहीं-कहीं धुँधली भी पड़ चुकी है। अब इसमें कोई क्या करे ,समय को जो स्वीकार है ;वही तो रहेगा,बचेगा। 

   उस समय मेरी वयस यही कोई सात-आठ -नौ वर्ष की रही होगी।गाँव के अन्य बच्चों के साथ मैं भी उस समय के प्रचलित खेल खेलने में मग्न रहता था।गेंद बल्ला, गिल्ली डंडा,अपने विशाल गूलर के पेड़ पर हरियल डंडा,कंचा -गोली जैसे बहुत सारे खेल मेरे प्रिय खेल थे।क्वार के महीने में टेसू का खेल भी साथियों के साथ रुचि पूर्वक खेला करता था।सावन में लंबी कूद और ऊँची कूद कूदना कभी नहीं छोड़ा। कबड्डी तो ऐसा प्रिय खेल रहा कि कभी छोड़ा ही नहीं गया, विशेषतः वर्षा के बाद के शरदकाल या ग्रीष्म ऋतु में कबड्डी की धूम मची रहती थी।गाँव और खेतों को जोड़ने वाले वाले दगरों(चकरोडों) में ही कबड्डी और पैंता(लंबी कूद) के लिए सदा खुले रहते थे।रक्षाबंधन और जन्माष्टमी के अवसर पर इनके विशेष प्रतियोगी आयोजन भी होते थे।जिनमें गाँव तथा दूरस्थ गाँवों के खिलाड़ी और शौकीन लोग एकत्रित होकर उसे मेले जैसा रूप प्रदान करते थे।इनाम भी बाँटे जाते थे।

   बचपन की संगति कैसी है?यह अपने ऊपर निर्भर नहीं है। वह अच्छी भी हो सकती है और नहीं भी।इसे एक संयोग ही कहा जा सकता है।मेरे भी अपने यार- दोस्त थे। जिनके साथ -साथ रोज खेलते -कूदते ,लड़ते -झगड़ते ,फिर से एक हो लेते।और लड़ -भिड़कर जाते भी भला कहाँ!एक होना समय की माँग थी। या कहिए कि हमारी विवशता थी। और नए मित्र लाते भी कहाँ से ! इसलिए आज लड़ते तो सुबह फिर एक हो जाते। मानो कल कुछ हुआ ही न हो ! सब कुछ पूर्ववत। 

   कुछ अच्छी या बुरी आदतों का पदार्पण भी प्रायः बचपन में ही हो जाता है। क्योंकि बचपन ही तो हमारे भावी जीवन की कार्यशाला है।वे आदतें जीवन को प्रगति के शिखर पर भी पहुँचा सकती हैं और गहरे खड्ड में भी पतित कर सकती हैं। इसीलिए बचपन की संगति (सुसंगति अथवा कुसंगति) शेष जीवन की आधारशिला है। मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ कि यदि उसी समय सचेत नहीं हुआ होता तो आज जो मेरी अवस्था है,स्वम्भवत: वह कुछ और ही विद्रूप में होती। 

  गाँव में मेरे पूज्य बाबा जी की एक बड़ी -सी कच्ची चौपाल थी। जिसकी दीवालें और फर्श कच्चे थे और छत में रेल पटरी के गर्डरों पर पत्थर की पटिया पड़ी हुई थी। लगभग तीस गुणा बीस फ़ीट के बड़े कक्ष के सामने एक बड़ा सा चबूतरा था। उसके एक कौने पर एक नीम का विशाल पेड़ भी था। चौपाल पर गाँव और परिवार के लोगों की बैठकबाजी होती रहती थी। हम बच्चे भी खेलते कूदते रहते।

   एक दिन की बात है कि कहीं से बीड़ी का एक बंडल हाथ पड़ गया और साथ में एक दियासलाई भी। फिर क्या था हम दो बच्चों ने एक बीड़ी निकाली और सुलगा ली और ज्यों ही एक सुट्टा मारा कि खाँसते -खाँसते वह दिन कि आज का दिन। वह तो अच्छा था कि हमारी इस हरकत को देखने वाला कोई बड़ा व्यक्ति वहाँ मौजूद नहीं था , वरना बहुत डाँट पड़ती।लेकिन सबक मिल चुका था।तब से अब तक बीड़ी देवी के दर्शन करते ही वह दिन याद आ जाता है और देव दर्शन हो जाते हैं। किसी दुर्व्यसन को पढ़ने का यह पहला पाठ था ,जो अंतिम पाठ भी सिद्ध हुआ। ये ही हम बच्चों के बनने -बिगड़ने के दिन थे;जब जिस ओर पेड़ की टहनी मुड़ जाती ,वैसी की वैसी ही बनकर कोई और ही रूप देती।तभी तो कहा जाता है कि बचपन जीवन की वह नींव है ,जिस पर भावी जीवन का विशाल भवन खड़ा होता है।आज मैं बच्चा तो नहीं हूँ, किन्तु बचपन की वे अनेक स्मृतियाँ भी मेरे यह जीर्ण - शीर्ण होते देह और शक्तिवन्त होते जीवन की सुदृढ़ आधारशिलाएँ हैं। 

 ● शुभमस्तु ! 

 26.1.12023●11.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य। 

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शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

लपेटा लपटों का ● [व्यंग्य ]

503/2023 

 लपेटा लपटों का ● 

 [व्यंग्य ] 

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 ● © व्यंग्यकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 लपट का कोई सुनिश्चित आकार नहीं होता।वह तो पतली, मोटी, आड़ी,तिरछी,छोटी, बड़ी,खड़ी, पड़ी आदि कैसी भी हो सकती है। बस वह शीतल नहीं होती। जब होगी, तो गर्म ही होगी। हर लपट एक दूसरी से भिन्न आकार - प्रकार की ही बनती है।लिपटना या किसी को अपने साथ लपेटना ही उसका काम है।जब लप - लप करती हुई लपट की झपट आगे बढ़ती है तो किसी न किसी को , कुछ न कुछ को लपेटने के लिए ही उठती है।वह कब किसे और क्यों अपने झपेटे में ले लेगी ,कुछ नहीं कहा जा सकता।

 प्रायः यह भी अनुभव किया गया है कि कोई भी लपट ऊपर से नीचे की ओर नहीं, सदैव ही नीचे से ऊपर की ओर ही चलती है,बढ़ती है।यह तो दिखाई देता है कि लपट का उद्गम क्या है?कहाँ है ? किंतु यह पता नहीं चलता कि वह कहाँ जाकर विलुप्त हो जाती है।जब लपट की चपेट में कोई वस्तु आदि आ जाती है तो वह भी अपनी नई लपट को पैदा करने लगती है।अन्यथा अपनी लपक -झपक करते हुए व्यापक शून्य मंडल में विलुप्त हो जाती है। इस प्रकार प्रत्येक लपट की दो ही गतियाँ हैं :पहली यह कि वह किसी को लपेटे में लेकर उसे जलाए और यदि उस वस्तु में यदि जलने और लपट पैदा करने की क्षमता है,तो वैसा वह भीकरे । लपट की दूसरी और अंतिम गति यही है कि ऊपर जाकर अदृश्य हो जाए।पुनः लौट कर न आए। यह तो अच्छा ही है कि लपट पुनः लौटती नहीं और निराकार होने के बाद पुनः साकार नहीं होती।फिर तो वह धूम मचाकर धूम - धूम हो जाती है और हमारी आँखों को बंद करने के लिए ही बाध्य कर देती है।

 लपट की एक अन्य कोटि ऐसी भी है जो बाहर नहीं लगती। नर - नारियों के दिलों में सुलगती है।सुलगते -सुलगते कभी धूम-दर्शन कराती है तो कभी अदृश्य रूप में जलती है।जहाँ जलती है ,उसे उसका बखूबी अनुभव होता है। चाहता तो वह यह है कि वह सामने वाले को जलाकर खाक कर दे ,राख कर दे ;किन्तु इसके विपरीत वह स्वयं ही उसकी अदृश्य लपटों में घिरा हुआ तड़पता रहता है और किसी का एक बाल भी नहीं जला पाता।यही इस लपट की विशेषता है। शायद आप समझ गए होंगे क्योंकि हो न हो यह लपट कभी न कभी आपके दिल में भी जली होगी। यदि नहीं जली ,तो आपकी महानता का यह शुभ संकेत है।इस प्रकार की लपटों के कुछ   सामाजिक,राजनैतिक,धार्मिक, मज़हबी,सरकारी,निजी और विविध विषयक नमूने प्रस्तुत किए देता हूँ। 

 उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सुंदर क्यों ?  उसकी गाड़ी मेरी गाड़ी से महँगी और बढ़िया क्यों?वह तो एक बार की विधायकी में मन्त्री क्यों और कैसे बन गया,मैं तीन बार की विधायकी में भी क्यों नहीं बना? उसका बेटा विदेश में पढ़ता है ,मेरा क्यों नहीं? पड़ौसी बिना कुछ किये ही पेंशन से लाखों पाता है और ऐश करता है और इधर हम रात- दिन एक करके खून - पसीना बहाकर भी ढंग से दाल - रोटी भी नहीं खा पाते? ऐसा क्यों? उनके बेटे की बहू इतनी सुंदर कि देवी लगती है और इधर हमारी बहू कल्लो मसानी चुड़ैल, महा लड़ाका ?उनके भगवान हमारे भगवान से बड़े क्यों? मेरे बॉस वर्मा जी को ज्यादा तवज्जो देते हैं ,मुझे क्यों नहीं ? साला बॉस ही चरित्रहीन लगता है , अपनी सेक्रेटरी को एक मिनट के लिए भी चैंबर से बाहर नहीं जाने देता ? पास ही बिठाए रखता है। उसकी दुकान की ज्यादा बिक्री क्यों होती है,मेरी दुकान की क्यों नहीं ? उसकी पत्नी पिलाजो ,मैक्सी और मोर्डन कपड़े पहनती है ,मेरी तो साड़ी धोती में ही रहती है।जाने कहाँ से इतना पैसा लाते हैं कि एक- एक दिन में पाँच -पाँच बार कपड़े बदलते हैं? अमुक रचनाकार की अब तक दो दर्जन से भी अधिक किताबें प्रकाशित हो गईं और हम अभी एक के भी दर्जी नहीं बन सके? इस प्रकार की लपटों के हजारों लाखों नहीं ,करोड़ों उदाहरण बिना ढूंढ़े ही कदम- कदम पर मिल जाते हैं। क्या कीजिए ये समाज ,ये संसार ही करोड़ों लपटों में घिरा हुआ है। अंतर और अंदर छिपी हुई अग्नि का ही परिणाम ये लपटें हैं ,जो कहीं दृश्य हैं ,कहीं अदृश्य। 

 झोंपड़ी बँगले को देख-देख लपटायमान है।नारी ,नारी को देख झपटायमान है। बाबू,अधिकारी से हलकान है। अधिकारी, मंत्री से डुलायमान है। बनिया, बनिये से दुखायमान है। छात्र किसी दूसरे छात्र के अंकों के ग्राफ से हलकान है। सौत,सौत के प्रेम प्रवाह को देख विरहमान है,कि उसके हिस्से में क्यों पति का कुछ ज्यादा ही झुकान है। और तो और पड़ौसी अपने पड़ौसी से लपटायमान है कि वह चैन से रोटी क्यों खा रहा है? अगला दुखी क्यों नहीं ? परेशान क्यों नहीं है? 

 एक चूहा बिल्ली की सी दौड़ है। बिल्ली चूहे के पीछे है तो कुत्ता बिल्ली के पीछे!बस यही खेल चल रहा है। लगता ही नहीं कि कहीं आदमीपन भी है ! सब एक दूसरे से लपट से लिपटे जले जा रहे हैं।लगने लगा है कि आदमजाद यह आदमी भी मात्र कुत्ता बिल्ली से अधिक कुछ नहीं है। इससे तो गुबरैला बेहतर कि वह अपनी गोबर - गंध में निमग्न है। उसे किसी चूहे बिल्ली कुत्ते सुअर या आदमी से कोई मतलब नहीं है। कम से कम वहाँ आग की लपटें तो नहीं हैं।

 ●शुभमस्तु !

 24.11.2023● 7.00प०मा० 

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खिसियानी बिल्ली● [ अतुकांतिका ]

 502/2023

 

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● ©शब्दकर्ण

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खिसियानी बिल्ली

करती  है एक काम,

उतारती है गुस्सा भी

खम्भे पर,

करती तब आराम।


करे  भी क्या?

करने को 

कुछ तो हो !

चूहे भी मिले नहीं

पी नहीं सके जाम।


फिरती है

खौखिआई,

चिल्लाते बच्चे सब

शेर की मौसी आई,

मिमिआई

अविराम।


चढ़ गई पेड़ पर

पीछे पड़े 

दौड़ श्वान,

जान बची

लौट आई

बसेरे के दरम्यान।


ऐसे ही आदमी भी

बना हुआ 

खिसियानी बिल्ली,

करनी थी चोट 

कुत्ते पर

बिल्ली पर कर डाली,

 बेचारा ईर्ष्या से हैरान।


●शुभमस्तु !


23.11.2023●5.15पतनम मार्तण्डस्य।

धैर्य ● [ सोरठा ]

 501/2023

                     

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जब हो विपदा  काल, धैर्य नहीं निज खोइए।

फैलाती  निज जाल,अनुचित सदा अधीरता।।

संतति   पाले   कोख, धैर्य धरे जननी   सदा।

तब मिलता शुभ मोख,झेले नौ-नौ मास वह।।


वही   परीक्षा - काल, आती  है जब  आपदा।

संतति हो तब   ढाल, धैर्य, धर्म, नारी,  सखा।।

छोटे -  बड़े    पड़ाव,   जीवन  में  आते   सदा।

डूब   न   पाती  नाव,  धैर्य  बँधाते मित्रगण।।


होता  लाल  निराश, माँ के आँचल में   छिपा।

छोड़  न   बेटे  आश,धैर्य   बँधाती अंक  ले।।

उचित न बहुत अधीर,उचित न अति का धैर्य भी।

अति का भला न नीर,अति की भली न  धूप है।।


प्रथम  धैर्य  को  जान,दस लक्षण हैं   धर्म  के।

अन्य पाँच भी मान, क्षमा,शौच, धी, सत्य  सह।।

जब  असार    संसार ,   जाता कोई   छोड़कर।

करके  बुद्धि - विचार,विवश सभी  हैं  धैर्य  को।।


प्रथम  सबल   पहचान, धर्मीजन का  धैर्य   ही।

करते जन गुणगान,निज  पथ से विचलित नहीं।।

मानव   की  सत  राह, असफलताएँ   रोकतीं।

मिटा   पंथ    की  दाह,  वहाँ धैर्य बल   सौंपता।।


रुकें   न   पल को   एक,  देता धैर्य जबाव  जो।

त्याग न 'शुभम्'विवेक,सत पथ पर चलते  रहें।।


●शुभमस्तु !


23.11.2023● 9.00आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

बुधवार, 22 नवंबर 2023

एकादशी ● [ दोहा ]

 500/2023

                 

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पावन तिथि एकादशी,आतीं दो प्रति मास।

व्रत साधें पूजा करें,नियम सहित उपवास।।

शुक्ल पक्ष एकादशी,कार्तिक पावन मास।

प्रबोधिनी कहते सभी,करते  व्रत उपवास।।


देव शयन एकादशी,शुभ अषाढ़- चौमास।

हरि जाते हैं शयन को,सागर के आवास।।

तुलसी सँग हरि-ब्याह से,ब्याह हुए आरम्भ।

एकादशी   सुपावनी, रखें  न  मन में  दम्भ।।


तिथि  हो  जब एकादशी,खाएँ नहीं  मसूर।

चना, उड़द, गाजर सभी,चावल से रह  दूर।।

गोभी ,गाजर से बचें,शलजम,पालक साग।

तिथि पावन एकादशी,लगे न व्रत में   दाग।।


चोरी,  हिंसा,  क्रोध   से,बचें कपट से   मित्र।

स्त्रीसंग     न    कीजिए,  एकादशी   पवित्र।।

नहीं  सताएँ    और  को, और न खाएँ     पान।

पावन तिथि एकादशी,रमा-विष्णु का    मान।।


इष्टदेव    हरि  जागिए,भर खुशियों से    गेह।

पावन   तिथि  एकादशी,आई मिले   सनेह।।

देवशयन    एकादशी,   अक्षत,  पीले   फूल।

रोली ,   तुलसी-मंजरी, धूप-दीप मत   भूल।।


कमल -पुष्प से पूजते,जो हरि को इस   काल।

देवशयन    एकादशी,  बनती पुण्य -  प्रवाल।।


●शुभमस्तु !


22.11.2023◆ 12.30पतनम मार्तण्डस्य।

मन की गहरी झील में ● [ दोहा ]

 499/2023

 

   [झील,माली,माया,संयम,प्रसाद]

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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               ● सब में एक ●

नयनों की दो झील में,  ढूँढ़  रहा  हूँ  प्यार।

जितना  डूबा  मैं  वहाँ, पाया  शुष्क  दयार।।

बादल ओढ़े झील पर,टहल रहा   था   मौन।

पूछा  तो  कहने  लगा, बोलो तुम हो  कौन।।


पतझड़  के  नव  रूप  में, आया विमल  वसंत।

माली निर्णय  दो  हमें,किसे कहें  ऋतु - कंत।।

सुमनों  की  बगिया सजी, माली रहा    सँवार।

चैत्र  और  वैशाख  की, अद्भुत अलग  बहार।।


माया हरि के प्रेम का,कभी न होता   साथ।

लगन लगी हरि -भक्ति में,सोना रहा न हाथ।।

माया  तो   मरती  नहीं, मरती है  बस    देह।

माया - तृष्णा  बढ़ रही, मिली देह हर   खेह।।


संयम से  कर  साधना, पाने को  निज  लक्ष्य।

शयन जागरण साध ले,खा मत भक्ष्य-अभक्ष्य।।

ऋषि-मुनि  संयम साधते ,करते पालन   धर्म।

चमकें  रवि  के  तेज-से, समझ साधना - मर्म।।


गुरु - प्रसाद जिसको मिला,प्राप्त किया सत तत्त्व।

निखरा नर  भू  लोक  में,कनक सदृश   व्यक्तित्व।।

करना  मत  अवहेलना, मिलता अगर    प्रसाद।

मंदिर,    देवी,   देवता,  श्रुतियों  में    अनुनाद।।


           ● एक में सब ●

मन की  गहरी झील में,माली संयम  एक।

माया तो ठगती फिरे, ले प्रसाद  की  टेक।।


●शुभमस्तु !


22.11.2023● 9.45आरोहणम्  मार्तण्डस्य।

गिल्ली डंडा कंचा भूले ● [ बाल कविता ]

 498/2023

  

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●© शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गिल्ली - डंडा    कंचा   भूले।

नहीं  रहे  सावन   के   झूले।।


कहाँ  कबड्डी   खेले    कोई ।

कंकरीट  की   सड़कें   बोई।।


ऊँची  कूद   न  लंबा    कूदें।

कुश्ती  देख  आँख वे   मूँदें।।


खेलें   नौ  न अठारह   गोटी।

गई  मूँड़  से    लंबी    चोटी।।


कंकड़ - खेल  नहीं  वे जानें।

मोबाइल पर   अँगुली  तानें।।


नहीं नाव  कागज़  की चलती।

उन खेलों की कमियाँ खलती।।


 अब  का बचपन पचपन जैसा।

नहीं  खेल अब  कल  के जैसा।।


'शुभम्' खेल  वे  पिछली  बातें।

मोबाइल   की    चलती    घातें।।


● शुभमस्तु !


21.11.2023●5.45पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 20 नवंबर 2023

जुनून बनाम पागलपन● [ व्यंग्य ]

 497/2023

   

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● © व्यंग्यकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     शब्दकोश में पाए गए शब्दों में यह कदापि आवश्यक नहीं कि उनके शब्दार्थ या भाव सुरुचिपूर्ण, सकारात्मक और सर्वानुकूल ही हों। यदि किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने का जोश सामान्य न होकर असामान्य हो, तो प्रायः उसे जुनूनी कह दिया जाता है।यह सुनकर संबंधित को कभी भी कुछ बुरा या नकारात्मक नहीं लगेगा।इसके विपरीत यदि उसे पागल अथवा विक्षिप्त कह दिया जाए ,तो उसे कदापि सकारात्मक अनुभव नहीं होगा।इसका अर्थ यह हुआ कि किसी शब्द का किसी भाषा में ठीक वही अर्थ देना अनिवार्य नहीं है,जिसके लिए उसका निर्माण हुआ है।विभिन्न भाषाओं में उसके विविध भावान्तर हो सकते हैं। जब 'जुनून' शब्द  का कोशीय पर्याय  जानने का प्रयास किया गया तो उसके अनेक भाव रूप अर्थ प्राप्त हुए।जैसे :पागलपन,विक्षिप्त,उन्माद,सनक, दीवानापन,ख़ब्त।

यदि दुनिया में विद्यमान पागलपन के आकलन की बात की जाए तो यह अनेक कोटियों में विभाजित किया जा सकता है।कुछ ऐसे भी पागल हैं ,जिन्हें कोई पागल नहीं कहता। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे : कोई कुर्सी के लिए पागल है ,तो उसके लिए कुछ भी कर सकता है। और वह इसके लिए भी तैयार बैठा है कि  ' कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ।जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ।' कोई राजनीति का दीवाना है तो किसी पर समाज सेवा का भूत सवार है। कोई धर्म के लिए 'झंडा ऊँचा रहे हमारा' करने में कोर कसर नहीं छोड़ रहा है। किसी पर सम्मान पाने का भूत बैठा हुआ है।ये सभी प्रकार की 'अतियाँ'  ही जुनून हैं ।दीवानापन हैं, सनक हैं ,ख़ब्त हैं और ज़्यादा आगे बढ़कर कहना चाहें तो पागलपन ही हैं। 

जब कोई व्यक्ति किसी कार्य की तल्लीनता में इतना निमग्न हो जाए कि दिन- रात का भेद भी भूल जाए।  किसी काम की सफलता का श्रेय भी प्रायः ऐसे ही जुनून को दिया जाता है।यदि महान वैज्ञानिक महामहिम अबुल कलाम जी अपने विज्ञान के जुनून में इतने न खो गए होते तो वह विश्व के इतने महान वैज्ञानिक नहीं बन पाते। यहाँ तक कि उन्हें विवाह करने और पत्नी के साथ रहने का भी समय नहीं था।यदि अतीत के पन्नों में झाँक कर देखें तो राजकुमार सिद्धार्थ भी यदि दुःख की खोज के लिए सन्यास नहीं लेते तो संसार को इतना बड़ी वैराग्यवान महान विभूति नहीं मिलती। इसे पागलपन नहीं कह सकते।यह जुनून का ही  सत - परिणाम है।महाकवि कालिदास के जुनून ने ही संस्कृत साहित्य का महाकवि बना दिया।  

 महाकवि कालिदास का नाम आया तो कवियों की बात भी क्यों न कर ली जाए।जब तक कोई कवि या रचनाकार जुनून की हद से भी उस पार नहीं चला जाए ,तब तक महानता उसके चरण नहीं  चूमती। इसका अर्थ यह हुआ कि महानता का जुनून या पागलपन से निकटता का सम्बंध अवश्य है। पागलखाने में कपड़े फाड़ने वाले या ईंट पत्थर फेंकने वालों को भी यदि सही दिशा मिल जाए तो कोई संदेह नहीं कि उनमें भी कुछ न कुछ  ख्याति लब्ध करने वाली हस्तियाँ मिल जाएं।इसके लिए उनके चिकित्सकों को भी जुनून की सीमा तक प्रशिक्षण देना होगा।अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि पागलों के बीच रहकर वे भी पागल हो जायें।

जुनून या पागलपन की परिभाषा से एक बात यह भी निकल कर आती है कि केवल सामान्य बने रहकर आदमी दाल,रोटी और हरी सब्जी खाने वाला चुसा हुआ आम ही बनकर रह जाएगा। उसके वक्ष पर 'महान' का  तमगा तभी झिलमिलायेगा जब वह इन 'आमों' के ढेर  से बाहर निकल कर अपनी अलग ही सुंगध छोड़ेगा। 'फूल वो सर पे चढ़ा जो चमन से निकल गया।' 

देश और दुनिया के नक्शे पर नजर डालें तो देखते हैं कि महान विभूतियाँ बिना किसी विशेष उन्माद ,जुनून या सनक के नहीं अवतरित हो गईं! आप भी अपने भीतर टटोल कर देख लें कि आप में भी 'महान' बनने के जरासीम तो नहीं कुलबुला रहे। यदि हाँ, तो निकट भविष्य में आपको भी महान कवि ,लेखक,व्यंग्यकार, वैज्ञानिक,राजनेता,समाजसेवी, धर्म-धुरंधर बनने से कोई नहीं रोक सकता।लैला -मजनू, शीरीं फ़रहाद कोई यों ही नहीं बन जाता। तलवार की दो धारों पर चलना पड़ता है।ये भी एक जुनून है। संसार का कोई भी क्षेत्र हो, बस समर्पण चाहिए। वहीं आप अपनी 'महानता' का लोहा मानने के लिए इस दाल - रोटी और  हरी सब्जी खाने पचाने वाली दुनिया को बाध्य कर ही देंगे।बस कर्म के पीछे लट्ठ लेकर दौड़ पड़िए और किसी की  भी इधर से सुनिए और उधर से आर-पार कर डालिए।बस जुनून का डंडा उठाने भर की देर है !  अब देरी भी क्यों ?चल पड़िए! अपने गंतव्य की ओर और 'सामान्य 'से  'असामान्य' हो जाइए।

●शुभमस्तु !

20.11.2023●7.15 प०मा०

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गाए जनगण ● [ गीतिका ]

 495/2023

       

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कभी  न  करना  हृदय  मलीन।

नहीं     बनेगा   जीवन    दीन।।


जीवन  में  वे     दुःखी     सदा,

भरते   उदर  किसी   से  छीन।


निज  कर्मों  पर  कर   विश्वास,

ईश - भक्ति    में  रहना  लीन।


दुर्बल  को    खाता    बलवान,

ज्यों  छोटी  को  तगड़ी   मीन।


निष्ठावान    कर्म    में     नित्य,

सदा  बजाते  सुख   की  बीन।


भारत   माँ  की   अपनी  शान,

हमें  न बनना    पाकी    चीन।


'शुभम्'   मातरम   वंदे     गीत,

गाए  जनगण   रँग    में   तीन।


●शुभमस्तु !


20.11.2023◆7.30आ०मा०

शब्द ● [ चौपाई ]

 496/2023

                     

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अक्षर  - अक्षर   ब्रह्म  समाया।

शब्द -शब्द में प्रभु  की माया।।

शब्दसहित  मानव   की भाषा।

संकेतक उर  की  अभिलाषा।।


मानव ,  ढोर ,  पखेरू    सारे।

शब्दसहित  तन भू पर   धारे।।

शब्द  हृदय  के   भाव  बताए।

धी  में  उगे    विचार   जताए।।


शिशु  अबोध  माँ  ने जन्माया।

शब्द प्रकृति से  लेकर  आया।।

रुदन शब्द नव शिशु की भाषा।

बतलाती  मन की अभिलाषा।।


बाग - बाग  कोयलिया  बोले।

मधुर शब्द -रस श्रुति में घोले।।

काँव -काँव के शब्द   न भाते।

रँभा-रँभा पशु कुछ कह जाते।।


शब्द कुकड़ कूँ किसे न भाए।

ताम्रचूड़   नित   हमें  जगाए।।

गौरैया   की    चूँ -चूँ    बोली ।

कानों में रस - गोली   घोली।।


देवालय      में     घंटे     बजते।

फर-फर कर ध्वज ऊपर सजते।।

विद्यालय   में    पढ़ने     जाएँ।

घंटा - शब्द   हमें    मन   भाएँ।।


शब्दों  का  कवि   शब्दकार है।

करता  कविता    तदाधार  है।।

'शुभम्' शब्द की महिमा   गाए।

नहीं  किसे   चौपाई      भाए।।


●शुभमस्तु !


20.11.2023◆8.45 आ०मा०

कभी न करना ● [ सजल ]

 494/2023

           


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● समांत : ईन ।

●पदांत  : अपदांत।

● मात्राभार :15.

●मात्रा पतन : शून्य।

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कभी  न  करना  हृदय  मलीन।

नहीं     बनेगा   जीवन    दीन।।


जीवन  में  वे     दुःखी     सदा।

भरते   उदर  किसी   से  छीन।।


निज  कर्मों  पर  कर   विश्वास।

ईश - भक्ति    में  रहना  लीन।।


दुर्बल  को    खाता    बलवान।

ज्यों  छोटी  को  तगड़ी   मीन।।


निष्ठावान    कर्म    में     नित्य।

सदा  बजाते  सुख   की  बीन।।


भारत   माँ  की   अपनी  शान।

हमें  न बनना    पाकी    चीन।।


'शुभम्'   मातरम   वंदे     गीत।

गाए  जनगण   रँग    में   तीन।।


●शुभमस्तु !


20.11.2023◆7.30आ०मा०

रविवार, 19 नवंबर 2023

दीवाली के वे दिन ● [ संस्मरण ]

 493/2023


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●© लेखक 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यह सत्य है कि बीता हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता।यह बात मुझे ही लगती है कि अतीत वर्तमान से अधिक मधुर और प्रिय होता है अथवा हर व्यक्ति के लिए इसका मानक कुछ और है? आज से  साठ - बासठ वर्ष पहले की दीवाली के रस - रंग कुछ और ही थे,जो आज कदापि नहीं हैं।वह समय था जब होली,दीवाली, दशहरा,गाय,मेरा विद्यालय आदि विषयों पर निबंध लिखवाए जाते थे।इन सबमें जो वास्तविकता और आदर्श विद्यमान था,आज मृत प्रायः हो चुका है।जीवन्तता जड़ हो गई है।

बात दीवाली की करें तो पता लगता है कि वह यथार्थ और विशुद्धता से परिपूर्ण प्रकाशोत्सव था।आज की तरह बनावटीपन और प्रदर्शनों की होड़ नहीं थी।दीवाली पर हृदयों के दीप जलते थे। बिजली की झालरों की झड़ी नहीं थी।सब कुछ शुद्ध  देशी और ग्रामत्व से परिपूर्ण। कोई होड़ नहीं, कृत्रिमता नहीं,प्रदर्शन भी नहीं।

साँझ होते ही घर ,दरवाजे, कोने, कुए ,नदी, छतें, मुड़गेरी  आदि माटी के दियों की दिप -दिप से दीपायमान हो उठते थे।मोमबत्तियाँ भी जलाई जाती थीं ,किन्तु कुम्हार के अवा में पके हुए लाल - लाल माटी के दीयों में जो  चमक थी ,वह बेचारी मोमबत्तियों  में कहाँ! उनकी बात ही निराली थी।फुलझड़ियाँ ,बम,पटाखे ,अनार, सुर्र -सुर्र करती फुलझड़ी ,रॉकेट,चक्र सब कुछ था ,किन्तु उस समय की कुछ  अलग ही धजा थी।अलग ही फ़िजा थी। सुबह जागने पर पता लगता था कि रात को पहने हुए कपड़ों में छलनी बन गई हैं।फिर तो अम्मा की डाँट भी खानी ही खानी जरूर थी। बताने की जरूरत नहीं, छिद्रित छलनी हुई कमीज और पाजामे खुद ब खुद बयाँ करने लगते थे कि देखो हमने भी पटाखे चलाए हैं ! और बेतहाशा चलाए हैं। 

दीवाली की रात गाँव की एक परंपरा भी सराहनीय है। मेरी माँ तथा गाँव की अन्य माताएँ- बहनें  एक दूसरे के दरवाजे पर दीपक जलाने जाती थीं।वे सरसों के तेल से भरे हुए दिये बाती तथा एक माचिस अपने सूप में सजाकर ले जातीं और घर- घर जाकर उनके दरवाजे दीप जला आतीं। यह 'आप सबको दीवाली शुभ हो' की सद्भावना का ही एक रूप था।शब्द नहीं ,क्रिया से शुभ दीवाली पर्व मनाने की  भावना का प्रतीक था यह कार्य।आज केवल खोखले शब्द रह गए हैं,क्रिया भाव विलुप्त हो गया है। 'शुभ दीवाली 'की जगह वह 'हैपी दीवाली' जो हो गई है। अब तो केवल अपने ही शुभ - लाभ की भावना है। 'हैप्पी' बोलकर एक औपचारिकता पूरी कर ली जाती है।मन में तो कुछ और ही अदृष्ट है! 

 हम बच्चों के लिए  दीवाली की रात बीतने के बाद की अगली सुबह भी उतनी ही रोमांचक और आनंददायिनी होती थी ,जितनी दीवाली की रात।जल्दी -जल्दी बिस्तर छोड़कर हम बच्चों का पहला काम होता था कि रात में जलाए गए दियों  और मोमबत्तियों को एकत्र करना तथा बिना चले पटाखों को खोजना और गोबरधन बाबा की पूजा की तैयारी करना। उनमें से अधिकांश दिये माँ के द्वारा  अरहर,उर्द ,मूँग आदि की दालों में बघार देने के काम आते थे। इसलिए वे माँ को सौंप दिए जाते थे। कुछ दिए हमारे खेल -खिलौने बन जाते थे। उनका सदुपयोग हम दियों की तराजू बनाने के लिए करते थे।संग्रह-  कार्य के उपरांत हमारा 'तराजू - निर्माण अभियान'  प्रारम्भ हो जाता। तकली या किसी पैनी वस्तु से दो दियों में समान दूरी पर तीन -तीन छिद्र किए जाते। उनमें तीन बराबर नाप के धागे लेकर किसी लकड़ी के दो छोरों पर बाँधकर और डंडी के बीचोंबीच एक पुछल्ला लगाकर  फ़टाफ़ट तराजू बना ली जाती और दूकान चालू।काम चालू।

दियों की तरह इकट्ठे किए गए मोम या अधजली मोमबत्तियों को पिघलाकर पुनः मोमबत्ती निर्माण की कार्यशाला प्रारम्भ हो जाती थी। लाल, पीले, हरे ,सफ़ेद आदि कई रंगों का मोम एक कटोरे में पिघलाकर एक नया ही रंग बन जाता और उसे पपीते के पत्ते के  डंठल के खोखले भाग में भरकर उसमें एक धागा डालकर नई मोमबत्तियाँ बना ली जातीं।मोम ठंडा होने पर डंठल को फाड़ दिया जाता और सीधी या कुछ वक्राकार मोमबत्ती तैयार।'हवन करते हाथ जले' कहावत के अनुसार इस 'हवन कार्यशाला' को संपादित करने में पिघला हुआ मोम  हमारे  हाथों को भी जला देता।  लेकिन इसकी  कोई भी सूचना माता -  पिता से गुप्त ही रखी जाती।लेकिन 'महान कार्य' करने में कुछ ज़ोखिम भी उठाना पड़े तो फ़िक्र ही क्या !  की भावना हम बच्चों को लेश मात्र भी आहत नहीं करती थी। जिन बच्चों को पपीते के डंठल नहीं मिल पाते वे अंडी के पत्तों के डंठलों से इस अभियान को साकार कर लेते। क्या ही आनंदप्रद अतीत था।जिसकी आज केवल यादें ही शेष हैं।

●शुभमस्तु !

19.11.2023◆1.00 प०मा०


शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

आपाधापी ● [ कुंडलिया ]

 492/2023

              

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

आपाधापी   देश   में,  दिखती चारों   ओर।

नेताओं में देशहित , कहाँ छिपा किस छोर।।

कहाँ   छिपा किस छोर,चूसते जनता  सारी।

नारों   की   बस  रोर,  परिग्रह  की बीमारी।।

'शुभम्'  उठाई   पूँछ, आदि  से  पूरी   नापी।

ताने      झूठी     मूँछ,   मचाए आपाधापी।।


                        -2-

आपाधापी   में   जुटा,  जन-जन देखो   आज।

झूठी  शान   बघारता,  धर  पीतल का    ताज।।

धर  पीतल   का ताज,  खोखली बातें    करता।

जनहित की कर बात,उदर हित जीता -  मरता।।

'शुभम्'   वचन   में भक्त,हृदय से कपटी   पापी।

परधन     में      अनुरक्त,  मचाता  आपाधापी।।


                        -3-

आपाधापी     से    नहीं , सरे  तुम्हारा   काम।

खुलता  है   जब   भेद तो, होता काम  तमाम।।

होता   काम    तमाम, जगत  में हो  बदनामी।

रहे न   कौड़ी  दाम, दिखें  सद्गुण भी   ख़ामी।।

'शुभम्' न बगुला भक्त,हुआ कब सच्चा  जापी।

कामुकता -  आसक्त,    सदा   रत आपाधापी।।


                        -4-

आपाधापी    से   नहीं,   जीवन  हो   अनुकूल।

परिश्रम ही फलता सदा,जहाँ मनुज  का  मूल।।

जहाँ  मनुज  का  मूल,समय का पालन  करना।

करें  न   इसमें   भूल, सुगमता से सरि   तरना।।

'शुभम्'  सत्य का साथ,त्याग मत बनकर पापी।

विनत  बड़ों  को  माथ,  करे  मत आपाधापी।।


                        -5-

आपाधापी   जो    करे,  जीवन  वह  धिक्कार।

भेद   खुले  जब  मूल   का,देते सब   दुत्कार।।

देते     सब   दुत्कार,   मान  मिट्टी  में   मिलता।

मिलती  है बस  हार,सुमन पाटल क्यों खिलता??

'शुभम्'  एक  सिद्धांत, मान  चल बने  न  पापी।

मन को  रखना शांत, उचित  क्या आपाधापी??


●शुभमस्तु !


17.11.2023◆ 10.00आरोहणम मार्तण्डस्य।


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मतमंगे ● [ अतुकांतिका ]

 491/2023

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज देख लो 

जितना चाहो

फिर न मिले दीदार,

हम ऐसे किरदार।


पाँच वर्ष में

अवसर आया

दर्शन दे दें,

खुली हवा में

जनता देखे

हम मतमंगे ऐसे।


आज सुलभ

मंदिर में दर्शन

देवों के भगवान के,

नहीं मिलेंगे

फिर नेताजी

विजय माल को

 डाल के।


 द्वारपाल

 बाहर ही रोके,

कैसे मिलने जा पाओ,

दान -दक्षिणा 

यदि दे दो तो,

पल भर को दर्शन पाओ।


कैसा ये अब

प्रजातंत्र है,

नेता राजा कहलाए,

मत देकर नित

जनता सारी

बार -बार अति पछताए।


'शुभम्' यही तो

मूर्खतन्त्र है,

जनता बनती 

मूर्ख सदा,

मत बिकते 

नोटों के बदले

मत से कीमत

 हुई अदा।


● शुभमस्तु !.


16.11.2023◆6.00पतनम मार्तण्डस्य।

कवि बनाता उत्साह से● [ सोरठा ]

 490/2023


 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गिर - गिर बार अनेक,चींटी चढ़े पहाड़  पर।

खोती  नहीं  विवेक, जिंदादिल उत्साह  से।।


हार - जीत है नित्य,मानव -जीवन खेल  है।

जीवन का औचित्य,बढ़ता चल उत्साह से।।


बनता वृद्ध सु-गात,यद्यपि बढ़ती आयु   से।

देता  वय   को  मात, बना  रहे उत्साह   तो।।


होता   क्या   उत्साह, नेताजी  से सीखिए।

मिटे न   कुरसी - चाह,बार - बार वे   हारते।।


मरे   नहीं   उत्साह,  चोरों  से भी सीख   लें।

बढ़ती  जाती   चाह,बार -बार जा जेल  में।।


पुनः- पुनः  कर  भूल, कवि  बनता उत्साह  से।

लिखता आम  बबूल, पाटल  सह कचनार भी।।


कहलाता   उत्साह, यौवन  उसका नाम   है।

नित  बढ़ने  की  चाह, मरे  नहीं जिंदादिली।।


भर  के  जोश  अपार, सीमा  पर सैनिक  खड़े।

खुलते    बंद    द्वार,  रग - रग   में उत्साह   है।।


देती  है  नित  ज्ञान, असफलता से सीख  लें।

घटे  न   तेरा   मान,  बढ़ता  चल उत्साह    से।।


बढ़े   न   आगे   पैर,  मरते  ही  उत्साह   के।

तभी   तुम्हारी   ख़ैर, जिंदादिल रहना   सदा।।


जिसमें    हो    उत्साह,  पाता है मंजिल  वही।

मरी न  मन की चाह, कच्छप जीता  दौड़   में।।


●शुभमस्तु !


16.11.2023●12.30पतनम मार्तण्डस्य।

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जैसी जिसकी दृष्टि ● [ दोहा ]

 489/2023

 

[सृष्टि,दृष्टि,विशिख,जीवटता,प्रभात]

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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              ●  सब में एक ●

जैसी  जिसकी दृष्टि  है,वैसी उसकी  सृष्टि।

तपता  भानु  निदाघ में, पावस में हो  वृष्टि।।

कर्म बिना इस सृष्टि में,करें न फल की   चाह।

पाना  यदि  गंतव्य  को, चलना दुर्गम    राह।।


नारी  जननी, कामिनी, रमणी, भार्या    रूप।

मात्र  दृष्टि  का  खेल  है,भगिनी वही  अनूप।।

विविध दृष्टि दृग में बसीं,बदल-बदल कर रूप।

सुहृद  सखा  होता  कभी,वही बने अरि   यूप।।


चला विशिख कामारि का,भस्म हुआ तब काम।

धरके   रूप   अनंग    का,  देह   हुई    उपराम।।

विशिख-वचन वाचाल के, चुभते  हैं  उर  बीच।

घाव  नहीं   भरते  कभी, कहलाता नर   नीच।।


जीवटता से  जो  जिए,उसका जीवन   धन्य।

भर  लेते   हैं  पेट   तो, कूकर- शूकर   वन्य।।

जीवटता  से प्राप्त कर,मानव निज   गंतव्य।

आजीवन   सद्बुद्धि   से,करता रह   कर्तव्य।।


रजनी  के  उपरांत  ही, आता  शुभ्र   प्रभात।

जागी है नव  चेतना, शुभ प्रतीक नित  तात।।

जागें   ब्रह्म  मुहूर्त में,  वेला   नवल   प्रभात।

समय  न खोना  एक पल, जीवन हो   अवदात।।

                ● एक में सब ●

विशिख -दृष्टि मत कीजिए,भाव - सृष्टि उत्कृष्ट।

जीवटता से कर सृजित,शुभ प्रभात  हो  पुष्ट।।


●शुभमस्तु !


15.11.2023●8.00आ०मा०

उजाला घर -घर फैले ● [ गीतिका ]

 488/2023

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●©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दीवाली   है   आज, दीप  से दीप जलाएँ।

सजा सुखों का साज,द्वार,घर,छतें सजाएँ।।


अंधकार  का  नाम, हृदय में शेष न रखना।

करना  सुंदर  काम,जगत  में  नाम कमाएँ।।


मिटे परस्पर  बैर, मिलें  अधिकार सभी  को।

रहे  न   कोई    गैर, सभी   कर्तव्य निभाएँ।।


रहे  न   टूटी  छान,उजाला  घर - घर   फैले।

मिले सभी  को  मान,दीन को गले लगाएँ।।


मिटे  विषमता  मीत, एकता समता   आए।

हर्ष  भाव  के गीत,सभी मिलजुल कर गाएँ।।


स्वच्छ  द्वार, दीवार,छतें, घर, बाहर, भीतर।

कर लें आज विचार,हृदय भी स्वच्छ बनाएँ।।


'शुभम्'  सपोले  मित्र, कभी होंगे न  हमारे।

रखना  चारु  चरित्र, सपोले  सभी मिटाएँ।।


●शुभमस्तु !


13.11.2023◆6.45आरोहणम मार्तण्डस्य।

दीवाली है आज ● [ सजल ]

 487/2023


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● समांत :  आएँ ।

●पदांत : अपदांत।

●मात्राभार :11+13=24.

●मात्रा पतन : शून्य।

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●©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दीवाली   है   आज, दीप  से दीप जलाएँ।

सजा सुखों का साज,द्वार,घर,छतें सजाएँ।।


अंधकार  का  नाम, हृदय में शेष न रखना।

करना  सुंदर  काम,जगत  में  नाम कमाएँ।।


मिटे परस्पर  बैर, मिलें  अधिकार सभी  को।

रहे  न   कोई    गैर, सभी   कर्तव्य निभाएँ।।


रहे  न   टूटी  छान,उजाला  घर - घर   फैले।

मिले सभी  को  मान,दीन को गले लगाएँ।।


मिटे  विषमता  मीत, एकता समता   आए।

हर्ष  भाव  के गीत,सभी मिलजुल कर गाएँ।।


स्वच्छ  द्वार, दीवार,छतें, घर, बाहर, भीतर।

कर लें आज विचार,हृदय भी स्वच्छ बनाएँ।।


'शुभम्'  सपोले  मित्र, कभी होंगे न  हमारे।

रखना  चारु  चरित्र, सपोले  सभी मिटाएँ।।


●शुभमस्तु !


13.11.2023◆6.45आरोहणम मार्तण्डस्य।

रविवार, 12 नवंबर 2023

मेरी सुनो ● [ व्यंग्य ]

 486/2023 

 मेरी सुनो ● 

 [ व्यंग्य ]

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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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मनुष्य ने मनुष्य को मनुष्यता से चलने के लिए मनुषयीय नियम, कानून ,आचार संहिताएं,विधान, संविधान और न जाने कितनी पटरियाँ बिछाईं ,ताकि उसके जीवन की रेलगाड़ी उस पर सुचारु और सुव्यवस्थित रूप से चल सके।किंतु विडम्बना की बात है कि यदि किसी ने उनका उल्लंघन किया अथवा उनकी मर्यादा भंग करने का प्रयास किया तो उनमें सबसे प्रथम भी मनुष्य ही था।इसका कारण भी यही था कि उनका कर्ता अथवा संविधान- निर्माता भी मनुष्य ही था। अब उनको तोड़ने वाला भी स्वयं मनुष्य ही होगा ,कोई तीतर ,बटेर, हाथी ,घोड़ा ,बंदर या ऊदबिलाव तो हो नहीं सकता। अतीत काल से अद्यतन नियम -भंग की इस परंपरा को बखूबी निभाता चला आ रहा है। जितना अधिक टेढ़ापन उसमें आता गया ,नियम -कानून भी उतने ही 'जलेबी -जलेबी' होते गए। आज के इस लेख का मुख्य विषय मनुष्य की परस्पर वार्ता से संबंधित है।यों तो अन्य प्राणी भी अपनी -अपनी भाषा में परस्पर बातचीत करते हैं। उसे हम मानव भले ही समझ पाएँ अथवा नहीं; किन्तु मनुष्य की परस्पर संवादशीलता की बात ही कुछ और है।

 मनुष्य ने परस्पर बातचीत करने के लिए भी कुछ विशेष नियम -निर्धारण किया है।जैसे 1.जब दो लोग परस्पर वार्ता कर रहे हों तो उन्हें इस प्रकार बोलना चाहिए कि सामने वाला भी उसे ध्यान से सुने।2.बातचीत करते समय उनके संवाद इतने लंबे न हो जाएं कि सामने वाले को ये प्रतीक्षा करनी पड़े कि यह चुप हो जाए तो वह अपनी कहे। 3.बातचीत के विचार और भाव ऐसे हों कि उसकी भाषा के शब्द विन्यास को अगला व्यक्ति समझ भी सके।उनमें दुर्बोधता और दुरूहता नहीं होनी चाहिए।4.वार्ता - शैली ऐसी हो कि श्रोता को ऐसा न लगे कि भाषण हो रहा है और उसे तो मात्र सुनना भर है ; कहना कुछ भी नहीं है।5.बातचीत में अश्लील और भद्दी भाषा का प्रयोग नहीं हो।जिससे किसी अन्य श्रोता को असहजता का अनुभव हो। 6.बातचीत का स्वर ऐसा रहे कि किसी को असुविधा न हो। किसी को यह कहकर रोकना - टोकना न पड़े कि धीरे बोलो।बहुत से लोगों का सामान्य स्वर भी ऐसा होता है ,जैसे वे बातचीत नहीं कर रहे ,बल्कि लड़ रहे हैं।आदि आदि। 

 समाज में अधिसंख्य ऐसे लोग हैं कि उन्हें केवल अपनी बात कहने भर से मतलब होता है । वे सामने वाले की सुनना नहीं चाहते।कभी- कभी ऐसा भी देखा जाता है कि श्रोता कुछ कहना भी चाहे तो वक्ता बोलने का अवसर ही नहीं देता और प्रायः यही कहता रहता है :'पहले मेरी सुनो। पहले मेरी सुनो।' कुछ लोगों का तो यह तकिया कलाम ही बन जाता है :'पहले मेरी सुनो।' अथवा 'मेरी सुनो।' उसकी मेरी सुनो ,मेरी सुनो की धुन से अगला व्यक्ति बोर तो होता ही है , परेशान भी हो जाता है और लगने लगता है कि यह कब अपना भाषण बंद करे और इसकी 'मेरी सुनो' से पिंड छूटे।

  'मेरी सुनो' की यह लाइलाज बीमारी प्रायः नेताओं में पाई जाती है।वे किसी की सुनना ही नहीं चाहते ।बस अपनी कही और चलते बने।इसका भी विशेष कारण यह है कि वे अपने अहंकार में किसी को भी अपने से योग्य नहीं समझते।वे अपने को सर्वज्ञानी और भगवान ही समझ लेते हैं। यही कारण है कि एक निरक्षर या मात्र साक्षर नेता आई० ए० एस० या आई० पी० एस० को भी महत्व न देकर उसे डाँटता फटकारता है।अपमानित करता है। आम जन को तो वह घास कूड़ा ही मानता है। अपना स्थान सर्वोपरि मानता है। ऐसा व्यक्ति 'मेरी सुनो' का जिंदा प्रमाण है। नेता को चुनना जनता जनार्दन की एक मजबूरी है। न चाहते हुए भी उसकी सुनना, वादों को सच मानना ,आश्वासनों में विश्वास कर लेना,उसे अपनी वेदना सुनाना, यहाँ तक कि उसका भक्त हो जाना :ये सब उसकी अनिवार्यताओं में शामिल हो गईं बातें हैं।

 'मेरी सुनो' की इस लाइलाज मर्ज के मूल में वक्ता का अहं ही प्रमुख है। सुनने के नाम पर तो वह बहरा ही है। यदि आपने ऐसे लोगों को नहीं देखा सुना हो ,तो अब आगे से देखने का प्रयास करना कि 'मेरी सुनो' का कितना व्यापक प्रभाव समाज में व्याप्त है। यदि ज्यादा दूर न जा सको तो अपने ही घर की चार दीवारों और छत के नीचे देख लेना कि कहीं अपनी अर्धांगिनी में भी तो इस रोग के वायरस नहीं लगे ? जहाँ तक इस लेखक का अनुमान है सौ में से 70 घरों में यह वायरस अवश्य ही मिल जाएगा। जहाँ पर पतिदेव को केवल 'मेरी सुनो' के अनुनाद से गुंजायित रहना है। केवल सुनना है ,कहना या कह पाना या न कह पाने की सामर्थ्य होना ही इसके मूल में है। इनके आगे संवाद - योजना के सब नियम फीकी जलेबियाँ हैं ,जिन्हें चासनी में निमग्न किया जाना असम्भव है।'मेरी सुनो' का सर्वाधिक आक्रामक रूप यहीं देखने को मिल सकता है।यदि पत्नी अधिक पढ़ी- लिखी और करवा चौथी पति अल्प शिक्षित हुआ तो यही समझ लीजिए कि एक तो करेला फिर नीम पर चढ़ बैठा ! अब चढ़ बैठा तो चढ़ ही बैठा है ।उसे तो 'मेरी सुनो' से आजीवन कोई छुटकारा ही नहीं है। 

 ●शुभमस्तु ! 


11.11.2023◆ 9.15 आ०मा० 


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परान्नभोजिता ● [अतुकान्तिका ]

 485/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'बड़ों' के बताए

मार्ग पर चलना,

यह 'बड़े लोग' 

बतलाते हैं,

और उनसे 'छोटे' 

सभी जन

उसी पथ पर

 चलते चले जाते हैं।


'परान्नभोजिता' का

संस्कार दिया जा रहा है,

'पवित्र अभियान' के द्वारा

उसे औचित्यपूर्ण

बनाया जा रहा है,

ताकि

 'ज्योतिर्मा तमसो गमय'

को उचित ठाहराया जा सके,

पुनः - पुनः देश को

दासनुदास बनाया जा सके।


सबको पता है,

मुझे अब 

क्या कुछ बताना?

कि कैसे

'मधुवत जहर '

अमृत बताया जा रहा है,

बनाया जा रहा है,

नव - नवोन्मेष कर

'भला' किया जा रहा है।


वे आज के 'भगवान' हैं,

अर्थात समस्त छः

ऐश्वर्यों से समन्वित:

समस्त शक्ति,

समस्त ज्ञान,

समस्त सौन्दर्य,

समस्त कीर्ति,

समस्त धन -सम्पत्ति,

और समस्त वैराग्य के स्वामी।


वे 'दाता,

और सभी 'प्रापक'

रहुआ या 

परान्नभोजी,

कमानी नहीं रोजी,

बैठे -बैठे खाना

परान्न पर मौज उड़ाना,

अपने पीछे -पीछे

 मेषवत बुलाना,

उनका चले आना,

भले किसी

 कूप में गिराना,

या मानसिक दास बनाना।

इधर से उधर यही है

ताना -बाना,

एक ही निशाना।


●शुभमस्तु !


09.11.2023 ◆5.15प०मा०    

मन का ही अभिषेक हो ● [ दोहा ]

 484/2023


[सुगंध,मंजुल,वनवासी,अभिषेक,वैराग्य]

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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          ● सब में एक ●

कलिका में  यों  बंद   हैं, मोहक  रंग  सुगंध।

सुमन खिला बहने लगी,किए बिना अनुबंध।।

मानव के हर रूप में,बसती सहज   सुगंध।

बने आचरण कर्म की,तन-मन से  सम्बन्ध।।


मंजुल तेरे रूप की,छवि है प्रिय   अनमोल।

शब्द मूक  होते  जहाँ,सके न काँटा   तोल।।

मंजुल रूप निहार के,धन्य हुआ   मैं   आज।

मृगनैनी मन में बसी,जीवन का सुख साज।।


वनवासी प्रभु राम ने,  दिखलाई   वह   राह।

जो लिपि लिखी ललाट में,कर लो जन अवगाह

कष्टपूर्ण जीवन सदा, वनवासी    के  भाग।

सदा अभावों   में जिए,भरा किंतु   अनुराग।।


मन का ही अभिषेक हो,तब करना प्रभु-जाप

प्रतिमा भी तब पूजिए, मिटा कलुष - संताप।।

बाह्याभयन्तर शुद्धता,तन-मन का अभिषेक।

पहले ही अनिवार्य  है,अपना जगा   विवेक।।


इधर  जगत-संलग्नता, उधर विमल वैराग्य।

एक   साथ  संभव नहीं,सभी जानते   विज्ञ।।

बात  करें  वैराग्य की,लंपट कपटी    चोर।

कलयुग में ये आम है,जा धरती  के  छोर।।


           ● एक में सब ●

वनवासी    वैराग्य में,  ढूँढ़े    नहीं  सुगंध।

मन मंजुलअभिषेक से,तृप्त अटल अनुबंध।।

             

●शुभमस्तु !

08.11.2023◆5.30आ०मा०

हरी चूड़ियाँ ● [ गीत ]

 483/2023

   

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● © शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हरी चूड़ियाँ

भरीं कलाई

मुख पर हर्ष अपार बड़ा।


मोती जैसे

दाँत चमकते

अपने   में   संतुष्ट  सदा।

भले गरीबी

आने देती

मुख पर वह वेदना कदा??


फैलाती कब

हाथ किसी के

सम्मुख वह धर धैर्य कड़ा।


लिए अंक में

नन्हा बालक 

ज्यों वह खिलता पाटल हो।

हर अभाव में

खुश रह बाला

बहता ज्यों गंगा जल हो।।


कोई कुछ भी

कहे न सुनती

स्वयं उठाती भरा घड़ा।


कठिन परीक्षा 

जीवन लेता

किन्तु न नारी घबराती।

सदा अभावों 

में जीती है

स्मिति कभी न मर पाती।।


अबला कहती 

उसको दुनिया

'शुभम्' हृदय उसका तगड़ा।


● शुभमस्तु !


07.11.2023◆7.30आ०मा०

सोमवार, 6 नवंबर 2023

कागज-कलम एक कपि लाया ● [ बालगीत ]

 482/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कागज- कलम एक कपि लाया।

फिर कागज   पर  घिसता पाया।।


कभी   उलटता    कभी पलटता।

कभी   डाल   पर   गया उछलता।

मन   ही  मन  में   बड़ा  सिहाया।

कागज- कलम  एक कपि लाया।।


कभी  कलम   को मुख में लेता।

कभी      दिखाता    जैसे नेता।।

कभी   लिए  कर  दिखता धाया।

कागज -कलम एक कपि लाया।।


लगता  ज्यों   कपि पढ़ा-लिखा हो।

ज्ञानी       भारी     बढ़ा - चढ़ा हो।।

कभी    बंदरिया     के   ढिंग आया।

कागज-कलम     एक कपि लाया।।


बंदर   उसको     सभी   निहारें।

ठुड्डी     करतल     रखें   विचारें।।

पास    न   आने    देता   साया।

कागज -कलम एक कपि लाया।।


'शुभम्'   देख कर  ये कपि -लीला।

भौंचक    देखे    वानर  -   टीला।।

खाऊं -   खौं     कर    उसे डराया।

कागज -  कलम  एक कपि लाया।।


●शुभमस्तु !

06.11.2023 ◆11.45आ०मा०

सतपथ पर चलने वालों की ● [ गीतिका ]

 481/2023

  

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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विपदाओं  ने    पाला   होता।

मानव  हिम्मत  वाला  होता।।


कदम -कदम पर संकट झेले।

साँचे में  नर    ढाला   होता।।


पर -सम्पति  पर दृष्टि लगाए।

मन भी उसका काला  होता।


चलता है दुर्गम पथ  पर वह।

उसके पद  में   छाला  होता।।


सत पथ पर चलने वाले की।

वाणी पर क्या  ताला होता??


अघ -ओघों  से भरा  हृदय हो। 

नयनों में   भी  जाला  होता।।


'शुभम्' सदा चलता उस पथ पर।

जहाँ   न    मैला    नाला   होता।। 


●शुभमस्तु !


06.11.2023◆6.15 आ०मा०

विपदाओं ने पाला होता ● [ सजल ]

 480/2023

    

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● समांत : आला।

●पदांत :  होता।

●मात्राभार :16.

●मात्रा पतन:शून्य।

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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विपदाओं  ने    पाला   होता।

मानव  हिम्मत  वाला  होता।।


कदम -कदम पर संकट झेले।

साँचे में  नर    ढाला   होता।।


पर -सम्पति  पर दृष्टि लगाए।

मन भी उसका काला  होता।


चलता है दुर्गम पथ  पर वह।

उसके पद  में   छाला  होता।।


सत पथ पर चलने वाले की।

वाणी पर क्या  ताला होता??


अघ -ओघों  से भरा  हृदय हो। 

नयनों में   भी  जाला  होता।।


'शुभम्' सदा चलता उस पथ पर।

जहाँ   न    मैला    नाला   होता।। 


●शुभमस्तु !


06.11.2023◆6.15 आ०मा०

लेना शिक्षा भूल से ● [कुंडलिया]

 479/2023

  

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

सेवा जननी तात की,और न गुरु  की भूल।

इनकी सेवा  में छिपा, सर्व सफलता मूल।।

सर्व सफलता मूल,यही जीवन -  निर्माता।

होता है उद्धार,इन्हें जो नित प्रति   ध्याता।।

'शुभम्' यही हैं ईश,सुलभ हो जन को मेवा।

करे   न कोई भूल,  पिता,माता, गुरु - सेवा ।।


                        -2-

रहते   बैठे   आलसी, रखे हाथ  पर   हाथ।

बैठे  तन   को  सेंकते,झुका न सकते  माथ।।

झुका न  सकते  माथ, पूर्ण कर्तव्य न करते।

अजगर   से ले सीख,पड़े उदरों को  भरते ।।

'शुभम्' करें  वे  भूल,कष्ट आजीवन   सहते।

सभी  आलसी  लोग ,जगत में यों  ही   रहते।।


                        -3-

करते श्रम से कर्म जो,होती भी   हैं   भूल।

स्वयं  सुधारें  शीघ्र ही,उनको मित्र   समूल।।

उनको मित्र समूल,कर्म से विरत न   होना।

सदा  खेत में  बीज,सुघर जिंसों  के  बोना।।

'शुभम्' भूल से सीख,राह में जो जन चलते।

सदा  सफलता -मंत्र,वही जन  जाना  करते।।


                        -4-

लेना  शिक्षा  भूल से, शिक्षक भी  है  भूल।

सावधान करती  सदा,पथ में कहाँ  बबूल।।

पथ  में कहाँ बबूल,शूल से बचकर चलना।

संघर्षों   के बीच,पड़ें फिर हाथ  न  मलना।।

'शुभम्' खोलकर आँख, निरंतर  नैया  खेना।

भ्रमरों   से उद्धार,पार सरिता कर    लेना।।


                        -5-

मानव - जीवन में नए, आते बड़े    पड़ाव।

हो जाती हैं भूल भी,डगमग हिलती   नाव।।

डगमग  हिलती नाव,धैर्य से आगे   बढ़ना।

मानें  गुरु सम भूल,पाठ शिक्षा का  पढ़ना।

'शुभम्' न त्यागें धर्म,नहीं बनना  है  दानव।

कर्मठ बनिए नित्य,सफल हो जीवन-मानव।।


●शुभमस्तु !


03.11.2023◆7.45आ०मा० 

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

अपने पसीने की सूखी भली ● [ अतुकंतिका ]

 478/2023

 

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● ©शब्दकार

●  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुफ़्त का हर माल

बड़ा भाता है,

चावल हो या दाल

लुत्फ़ लाता है,

खाए जाओ!

खाते जाओ!!

खाते चले जाओ!!!

मजे उड़ाओ।


मुफ्तखोरी में

लुट गई जनता,

देख लो आप ही

मतमंगा

किस कदर तनता?

आज चरण चुम्बन करे

कल कुछ और बनता।


क्यों करे कोई श्रम

बहाए तन से स्वेद ,

जौंक  और 

आदमी में नहीं है

अब शेष कोई भेद!

निकम्मा बना डालो 

मुफ्त का चावल

पाम ऑइल खिला लो,

देश की जनता को

गुलाम बना लो।


कमजोर करने के

तरीके हैं बड़े -बड़े!

देख ही लो 

द्वार चौपाल पर

चौराहे पर

जो बगबगे वस्त्रधारी खड़े।


बिक गए हो

चार मुट्ठी चावलों में,

दलिया-से

 जब दले जाओगे

कलयुगी कलों में,

कहीं कुछ भी

कभी मुफ़्त नहीं होता,

बिना सोचे पाता है जो

सदा रोता ही रोता।


मुफ्तखोरी में बिकने से

बुरा कुछ नहीं होता,

सँभल जाओ अभी

अपने पैरों पर हो खड़े,

पसीने की

 दो बिना चुपड़ी भली,

देखा नहीं है क्या 

अब भी जो 'शुभम्'

वेश बदले हुए ये

आ गए हैं छली।


●शुभमस्तु !


02.11.2023◆9.00प०मा०

निःशुल्क ● [ अकविता ]

 477/2023

             

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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प्रसन्नता   की  बात है,

 ये समझ लें खैरात है,

बरसात ही बरसात है,

आखिर तो सबका तात है।


अब गैस  भी  तो मुफ़्त है,

आया है अब तो लुत्फ़ है,

सेंको   मजे   से   रोटियाँ,

छू लो हिमाचल चोटियाँ।



हर माह   माला  नोट की,

समझें न इसको वोट की,

अन्न   चावल   दाल   की,

क्या बात मुफ़्ती माल की!



उज्ज्वल बना है  आज ये,

सिर पर सजा   है ताज ये,

करना   हमें   है  नाज़ भी,

शीतल सुलगती आग भी।


इस हाथ से लें प्यार से,

लौटाओगे फिर मार से,

लगते हैं  अपने यार से,

बरवादी  के आसार से।


कर्तव्य उनका   है यही,

जो पा रहे हो मुफ्त की,

वर्षा   हुई   आनंद   की,

अति 'प्रेमगंगा'  है  बही।


आज जो   बरसी कृपा,

हर आदमी   उसमें नपा,

जब जाएगी ये लौटकर,

दिखलाई देगा मौतघर।


ये  दान    तो   कर्तव्य  है,

लगता  बड़ा  ही  भव्य है,

छीनना      सद्धर्म      भी,

समझें सियासत-मर्म भी।


तुमको 'शुभम्' क्या खोलकर,

कह दें  अभी  सब   बोलकर?

कुछ  सोच  लो दृग पोंछ लो,

मत खम्भ    घर का नोंच लो।


● शुभमस्तु !


02.11.2023◆6.30प०मा०

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भूल ● [ सोरठा ]

 476/2023

             

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◆© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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और न गुरु की भूल,सेवा जननी तात की।

सर्व सफलता मूल,इनकी सेवा  में  छिपा।।


क्षमा माँग लें आप,हो जाए यदि  भूल  तो।

कर लें पश्चाताप,मानव का यह  धर्म   है।।


बैठे हैं यदि आप,रखे हाथ पर हाथ   जो।

रहें  बैठकर ताप,  होगी  एक न भूल जी।।


होती   भी हैं  भूल,कर्म करे तो   व्यक्ति  से।

रहता  मत्त  समूल,बिल में जो अजगर पड़ा।।


यदि मानें ये बात ,  शिक्षक होती भूल भी।

नहीं ,  करें  फिर घात,अज्ञानी नर   मानते।।


चलना   कैसे मीत,भूल सिखाती   राह  पर।

वहीं विजय  का गीत,भूलों से जो  सीख ले।।


पुनः न होती भूल,भूल -भूल कर  राह में।

कहते जिसे  उसूल,भूल नहीं जाना  उसे।।


उसे न कहते भूल,जान-बूझ कर  जो  करे।

होता  सदा अमूल,यह अक्षम्य अपराध  है।।


की भारत की खोज,कोलंबस ने   भूल   से।

फलित न होता रोज,नियम न ऐसा मीत ये।।


हो जाती  है भूल ,कभी - कभी विद्वान  से।

मिलें  निदर्शक मूल, क्षेत्र बड़ा विज्ञान  का।।


संतति  बढ़ती  नित्य,भूल भरा  संसार  ये।

सिद्ध करें औचित्य,चाह नहीं मन में बसी।।


●शुभमस्तु !


02.11.2023◆11.00आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...