सोमवार, 30 सितंबर 2019

शेरा वाली माता आओ [ बालगीत ]


★●★●★●★●★●★●

शेरा     वाली     माता  आओ।
अपनी उजली ज्योति जलाओ।।

हमें  शेर   से  डर   लगता  है।
थर-थर-थर हॄदय कँपता  है।।
हमें  शेर   से   मातु   बचाओ।
शेरा  वाली .....

ऊँचे    पर्वत    पर  रहती  हो।
कैसे ठंड   कड़ी  सहती  हो!!
नीचे   उतरो     गर्मी    पाओ।
शेरा वाली .....

नौ -   नौ   रूपों  में भी रहना।
अस्त्र-शस्त्र का बोझा सहना।
दर्शन  अपने   देवि   कराओ।
शेरा  वाली .....

घन-घन-घन  घंटा  बजता है।
माँ   दरबार  तेरा  सजता है।।
माता  आकर भोग लगाओ।
शेरा वाली .....

पाप  ताप  बढ़ता  धरती  पर।
माता तू  जल्दी  उसको   हर।।
मानव - कष्ट दूर  कर  जाओ।
शेरा वाली .....

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🍑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

www.hinddhanush.blogspot.in

30सितंबर2019◆7.45 अपराह्न।

रविवार, 29 सितंबर 2019

नवदुर्गा :महिमांजलि [ दोहा ]



           1.शैलपुत्री

माँ     देवी   के    रूप   में, 
कृपा    करो     माँ   आप। 
सुख -समृद्धि - वर्षा  करो,
हरो      दुःख    संताप।।1।

शैलराज       हिमवंत     के,
घर     में    धर      अवतार।
शैल - सुता   शीतल    करो,
पाप   -   ताप     संसार।।2।

पार्वती            वृषवाहिनी ,
बसो     भक्त  -  उर  -धाम।
कृपावृष्टि    अविरत   करो,
दया  मातु    अभिराम।।3।

      2.ब्रह्मचारिणी

तप    आचरिता     रूप  तव,
ब्रह्मचारिणी              मात।
तप ,   संयम ,   वैराग्य की,
दें       माता      सौगात।।4।

सदाचार    औ'  त्याग   की,
दाएँ     कर      जप - माल।
एक   कमण्डल    वाम कर,
दिव्य  ज्योति  तव भाल।।5।

सर्व    सिद्धि    की   दायिनी,
नाम         अपर्णा       एक।
मन  विचलित  करना   नहीं,
जब  हों   विपति  अनेक।।6।

           3.चंद्रघंटा

शोभित      देवी -  शीश  पर,
घण्टाकृति          अध- चाँद।
स्वर्ण  वर्ण,  दस   हाथ  तव,
घन - घन    भीषण  नाद।।7।

सिंहवाहिनी       देवि     तुम,
करो      अशुभ     से    त्राण।
वस्तु     अलौकिक   दायिनी,
सदा  'शुभम'   कल्याण।।8।

सद्गति - दायिनि   शांति की,
देतीं         शुभ        वरदान।
ध्वनि     नव दिव्य सुगंधियाँ,
साधक       को   हों   भान।।9।

           4.कूष्मांडा

माँ    की    मृदु   मुस्कान से ,
जन्मा       यह       ब्रह्माण्ड।
आदि शक्ति    नव  सृष्टि की,
कहलाई         कूष्माण्ड।।10।

जब   फैला     था    सृष्टि   में ,
तम      परित:         घनघोर।.
कूष्मांडा      ने    सृजन   का ,
किया     प्रकशित   भोर।।11।

अष्ट   भुजा    की   स्वामिनी,
गहे     कमल     का    फ़ूल।
चक्र , बाण  ,धनु  औ'   गदा,
अमृत  -   कलश अनुकूल।।12।

अष्ट      सिद्धियाँ     दायिनी ,
निधियों      की    जप - माल।
एक      कमण्डल     हाथ  में,
देवी       सदा       कृपाल।।13।

सूर्य -  लोक   की   वासिनी,
प्रभा    सूर्य      की    भाँति।
आलोकित  हैं  दस    दिशा,
दिनकर   जैसी    कांति।।14।

अखिल     चराचर  में  बसा,
माँ     का       तेज    प्रताप।
आयु  और    यश  बल  बढ़े,
नित्य    करें   शुभ जाप।।15।

आधि  - व्याधि  से मुक्त कर,
देतीं      सुख  -     साम्राज्य।
सुख   समृद्धि    की  दायिनी,
जीवन  का   शुभ आज्य।।16।

           5.स्कंदमाता

चतुर्भुजाएं               सोहतीं,
माता         पंचम         रूप।
अंक      लिए     स्कंद   सुत,
ऐसा      दिव्य     स्वरूप।।17।

वरमुद्रा       धारण        किए,
ऊर्ध्व         भुजा     जो  वाम।
अधो     भुजा     थामे     हुए,
युगल   कमल  अभिराम।।18।

शुभ्र         वर्ण       पद्मासना,
सिंहवाहिनी                 मात
सर्वकामना        पूर्ण     कर,
       देतीं       मोक्ष  -     प्रभात।।19।  
        
     
6.कात्यायनी

देवि       पराम्बा    भगवती-
के   तप      का    परिणाम।
सुता   रूप      जन्मी    वहाँ,
कात्यायन      के   धाम।।20।

सिंहवाहिनी       देवि      माँ,
कात्यायिनि      हैं       आप।
चतुर्भुजी      भय    नष्ट  कर,
रोग      शोक       संताप।।21।

चार    फ़लों   की    कामना,
कर    जो     करते    भक्ति।
वर    मुद्रा   और  अभय कर-
से     देती     माँ   शक्ति।।22।

ब्रज     की   अध्यक्षा   तुम्हीं,
देतीं          सुफ़ल     अमोघ।
जो        करते        आराधना,
मिटते    हैं   अघ - ओघ ।।23।

         7.कालरात्रि

देह     अँधेरे      की      तरह-
काली ,           बिखरे    बाल।
विद्युतवत       माला      गले,
रूप       बड़ा   विकराल।।24।।

साँसों    में     ज्वाला    जले,
तीन     नयन    हैं      श्याम।
गर्दभ    पर     आसीन    माँ,
कालरात्रि      अभिराम।।25।

शुभंकरी       कहते      उन्हें,
भागें         दानव        भूत।
गृह -   बाधाएँ       दूर   कर ,
करतीं     कृपा    अकूत।।26।

            8.महागौरी

नित  अमोघ     फ़लदायिनी,
गौरी         शक्ति  -  स्वरूप।
कुंद - पुष्प   सम   रूप   रङ्ग,
वसनाभूषण          यूप।।27।

वृषारूढ़        गौरी      महा ,
सबल       भुजाएँ       चार।
संचित     कल्मष    दूर कर,
करें      कृपा  -  संचार।।28।

एक    हाथ    डमरू   लिए ,
एक    अभय      का   दान।
इक   त्रिशूल    धारण  किए,
और      एक   वरदान।।29।

सिद्धि    अलौकिक  दें सभी,
ऐसी     माँ      की    शक्ति।
गौरी      माँ     के  चरण में,
लगे   'शुभम'  अनुरक्ति।।30।

         9.सिद्धिदात्री

दुर्गा    का     नव    रूप  यह,
सिद्धिदायिका             नाम।
अष्ट सिद्धि    नव  निधि मिले,
जो   भी    भक्त  सकाम।।31।

पाकर     देवी     की    कृपा ,
शिव        का    बदला   रूप।
आधे        नारीश्वर        बने,
पा  लीं      सिद्धि  अनूप।।32।

कमलासन   पर       सोहतीं,
रहतीं       सिंह         सवार।
चक्र  ,  गदा और शंख  सँग,
पुष्प  कमल   भी  धार।।33।

माँ    दुर्गे    तव    शरण    में ,
आया           तेरे           द्वार।
कृपा  -  करों    से   वृष्टि कर,
माँ    कर     मम     उद्धार।।34।

ध्यान     धरूँ   सुमिरन करूँ,
चरण         नवाऊँ      शीश।
सद   विवेक   धारण    करूँ,
शिवम  'शुभम  'आशीष।।35।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🙏 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल


♾◆◆♾◆◆♾◆◆♾

राहबर  आज   ग़र   भला होता।
राहे - नेकी   पे   वो   चला होता।।

वो  तो   खुदगर्जियों   में  डूबा है,
उसको  नासेह  ग़र    मिला होता।

इक    गया     और       दूसरा आया,  
काश   ये   खत्म   सिलसिला होता।

हमको  आदत  है   जुल्म सहने की,
आदमी     यूँ     नहीं     ढला होता।

इक  हुनर है  'शुभम', यहाँ  जीना,
वरना  सीने   में  ज़लज़ला होता।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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28सितंबर2019◆7.30अपराह्न।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

चर्चा ;चोली-दामन [ व्यंग्य]

              हज़ारों लाखों वर्षों से नहीं , युग -युग से राम, कृष्ण, स्वामी विवेकानंद जैसे लाखों संत , ,महात्मा, वेद , पुराण , रामायण, महाभारत , बाइबिल , कुरान अनगिनत धार्मिक -युग-पुरुष , युग -नारियाँ और पवित्र ग्रन्थ, मनुष्य का नैतिक विकास और उद्धार के लिए अपने सत्प्रयासों से लगे रहे ।आज भी लगे हुए हैं।किंतु आज भी हम मानवीय नैतिक विकास से संतुष्ट नहीं हैं।ज्यों -ज्यों दवा की , त्यों -त्यों मर्ज़ बढ़ता गया :वाली स्थिति बनी हुई है। आज भी बेचारे कितने संत -पुरुषों और महानारियों ने मानव -जाति के उद्धार के लिए क्या कुछ नहीं किया ? बड़े -बड़े आश्रम बनाये गए, जिनमें ए सी , आराम , करोड़ों के वैभव -विलास की चकाचोंध के बीच रात -दिन वे लगे हुए हैं। कुछ तो इतने अधिक आगे बढ़ गए कि बढ़ते - बढ़ते कारागार का विकास करने लग गए।जो सत्संग आश्रमों के मादकता पूर्ण यौवन और सौंदर्य की छाँव में हो रहा था , अब कारागार की शोभा बढ़ा रहा है। राम -राम करते -करते कब काम की आरामगाह में आसीन हो गए , पता ही न चला। धर्म और अध्यात्म की यह विकास यात्रा बहुत लंबी है। इसके बावजूद आज भी इंसान विकास के लिए तड़प रहा है।

                  इस देश की यह पवित्र परम्परा रही है कि अपना बचाव करते हुए दूसरों का सुधार करो। उन्हें ज्ञानोपदेश दो, धार्मिक ग्रन्थों में लिखी बातों के पालन के लिए प्रेरित करो।लेकिन यह ध्यान रखना बहुत ही जरूरी है कि स्वयं कभी भी भूलकर अपने बताए हुए या धार्मिक ग्रंथों में लिखे हुए मार्ग पर मत चलना। यदि चले , तो तुम्हें कोई धर्मात्मा नहीं कहेगा। सदैव गेरुआ , माला ,छाप, तिलक के आवरण के नीचे छिपकर रखना होगा। सुरा-सुंदरी का सेवन पर्दे के पीछे अनिवार्य है, क्योंकि वे ही तो तुम्हारी साधना के वाहक और संचालक सिद्ध होंगे। धर्म की रहस्य साधनाएं ऐसे ही हुआ करती हैं।

                      क्या हुआ यदि धर्म के नाम पर दुनिया को खून की नदियों को पार करना पड़ा। शायद इतना नर -संहार तो महाभारत के महासंग्राम में भी नहीं हुआ , जितना धर्म के नाम पर किया गया। कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। धर्म की चरम अवस्था का ही परिणाम है कि आज मंदिर और धर्म स्थल रंगरेलियों के प्रमुख केंद्र बन गए हैं। इससे सुरक्षित स्थान और हो भी कहाँ सकता है? एकांत भी और शक -संदेह की नज़रों से भी सर्वथा दूर। यह हमारी धार्मिक उन्नति का एक पहलू भर है। यदि औऱ अधिक गहराई में उतरा जाए ,तो मुक्ति के मोती मिलने में कोई संदेह ही नहीं ।

                    धर्म के बाद यदि मानव - विकास और उद्धार का सबसे सशक्त माध्यम है तो वह है राजनीति। इसमें भूमिका अदा करने वाले लोग नेता कहलाते हैं , किन्तु वे नेता कम अभिनेता अधिक होते हैं। नेता और राजनीति का चोली- दामन का साथ है। राजनीति यदि चोली है तो नेता दामन है।इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दामन कितना गंदा या साफ़ है। क्योंकि उसके ऊपर तो झकाझक सफ़ेद बुर्राक सूट धारण कर लेते हैं।जैसे घूरे पर पानी का छिड़काव करके , कनातें लगाकर ज्यौनार करा दिया जाता है , तो कोई भी बाराती नाक -भों नहीं सिकोड़ पाता। यही स्थिति राजनीति रूपी चोली की है, जिसमें चोर , डाकू, फूल देवी, फूल बाई, गबनी , हिजड़े, गिरहकट , अभिनेता , अभिनेत्री , नर्तकियाँ आदि घुस कर देश के विकास का प्रण कर लेते हैं। दलों के कपड़े ऐसे बदलते हैं , जैसे नहाने के बाद अलग कपड़े, आराम के अलग कपड़े, लंच के अलग , डिनर के अलग । सुबह एक दल में नाश्ता हो रहा है तो लंच की थाली किसी और दल में दाल मखानी के साथ हो रही है ।और रात को डिनर का शाही पनीर किसी अन्य की केंडल लाइट की मद्धिम -मद्धिम रौशनी में किया जा रहा है।


                      वास्तव में देश का विकास भी एक दल में जड़ होने से होने वाला नहीं है। गंगा गए तो गंगादास , जमुना गए जमुनादास। गतिशीलता ही विकास की पहचान है। गतिशीलता हो तो राजनेताओं जैसी।यही तो देश के वर्तमान हैं , भविष्य हैं। भूत तो स्वतः हो ही जाएँगे।

                     देश के विकास के लिए आम की तरह पिलपिली बुद्धि के लोगों की आवश्यकता है। ये नए लौंडे - छोरियाँ क्या जानें कि राजनीति किस चिड़िया का नाम है? इसीलिए उनका ध्येय पार्टी के झंडे में लिपट कर श्मशान जाने का होता है। होना भी चाहिए , जब उन्होंने उसी के बैनर तले इतना विकास किया कि स्विस बैंक में भी जगह कम पड़ गई , तो क्या उस पार्टी के अहसान फ़रामोश हो जायें ? उसी ने तो उन्हें सब कुछ दिया है न! उनका विकास भी देश का विकास है। क्योंकि वे भी तो इसी देश के नागरिक हैं।आत्म-विकास ही देश का विकास है।

                  धर्म चाहे राजनीति में अतिक्रमण करे या न करे , लेकिन देश के सर्वांगीण विकास के लिए राजनीति का प्रवेश प्रत्येक क्षेत्र में ज़रूरी है।इसलिए आज समाज , शिक्षा , विज्ञान,    भूगोल , खगोल , इतिहास, साहित्य , कला, धर्म , अध्यात्म सभी में राजनीतिक 'सुगंध' प्रसारित हो रही है। परम -आत्मा की तरह सब में    'मान न मान मैं तेरा मेहमान' बनकर बलात घुस ही पड़ी है। जब घुस ही गई है , तो आप उसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं तो एक पीढ़ा तो डालेंगे ही। कैसे नहीं होगा भला देश का विकास! वे करके ही छोड़ेंगे। जब धर्म नहीं कर सका तो राजनीति से कैसे बचकर जाएगा? यह देश की राजनीति ही है कि आज हम चंद्रयान से चन्द्रमा की सैर कर रहे हैं। इसमें विज्ञान और वैज्ञानिकों का क्या योगदान ? सब कुछ राजनीति से आसान। आगे -आगे देखिए होता है क्या ?
 💐 शुभमस्तु !!
 ✍ लेखक ©
 🕸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
 www.hinddhanush.blogspot.in

  

         

दृश्यावली [ अतुकान्तिका ]



दूध नहीं
दे सकता 
कोई गधा,
उसका काम है
पूर्व निर्धारित
बँधा - सधा,
नहीं ढो सकती
पीठ पर बोझा,
कोई गाय,
है भी नहीं
कुछ उपाय।

बिच्छुओं से
 देश की सेवा ??
माटी ही है 
भक्ष्य जिन्हें
प्रिय मेवा!
दंशन ही धर्म
सत्कर्म जिन्हें,
कैसी आशा ?
 किस विश्वास की
झोली  भरें!!

मोर के पंखों पर
प्राकृतिक हैं
अन - देखती आँखें,
कोशिशें व्यर्थ हैं
सभी उनसे
वे चाहे 
जितना भी झाँकें!
दृष्टिहीनता है
 वहाँ क़ुदरती,
नृत्य के क्षणों में
वही जड़ आँखें
नृत्य भी करतीं!
पर बनाना 
व्यर्थ है,
ऐसी कृत्रिम 
आँखों की रचना ,
वह हैं
प्रकृति की
सुरम्य संरचना!!

आया जो यहाँ
जिस काम,
नहीं होता है
उससे  कुछ और,
विभाजित हैं कर्म,
आवंटित हैं धर्म,
कहें उनको
कर्म या सुकर्म,
यही है सृष्टि का
अनबूझ मर्म।

जौंक है
परिजीवी परिपोषी ,
बना रहे कोई
कितना भी  रोषी,
वही करना है उसे
जीना भी
उसी शैली में,
रक्त -आपूर्ति 
जिसे करनी है
उदर की झोली में,
वही है
उसका जीवन,
चुपके से 
चूस लेना ही
कर्म -पथ - उपवन।

इंद्रधनुष को
किसने छुआ है!
नेत्र -दृष्टि का
मात्र  वह हुआ है!
वह  है 
मनोरम कितना।

सप्त रंगों का संगम,
निश्चित अनुपात
निश्चित ही अनुक्रम,
प्रकाश और जलबिन्दुओं का
दृश्य  
मनोहर  सुरम्यतम,
नहीं आकाश नीला
पर सुदृष्ट है,
उसकी सुदृश्यता ही
'शुभम 'है
इष्ट है,
आशा और विश्वास के
सद्ग्रन्थ का
खुला हुआ है,
सु पृष्ठ है।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

केवल रस की बात [गीत]




केवल  रस  की बात न रस बरसाती है।
प्रेम  बिना  नीरस दुनियाँ कहलाती है।।

सावन - भादों   के मेघा भी  सूखे हैं ।
धरती- माँ   के  अधर आज भी  रूखे हैं।।
सिर्फ बादलों  से  बिजली  बतियाती है।
केवल रस की बात....

वे  सखियाँ  अब   कहाँ आम पर वे झूले।
कजरी  नहीं मल्हारें  ना  मन ही फूले।।
फ़ागुन  में होली  न  रंग अब  लाती है।
केवल रस की बात.....

 होरी  नहीं  न  अब वह  झुनिया- धनियाँ है।
पनघट, पनिहारिनें नहीं वहाँ पनियाँ है।।
नदी    प्रदूषित  होकर   भी  इतराती  है।
केवल रस की बात.....

नहीं रहे  ज्यौनार नहीं मधुरिम  गाली।
नहीं रहे जीजा  न  रही वैसी  साली।।
केवल बातें करने से  रार ठन जाती है।
केवल रस की बात.....

न घूँघट की ओट न नयनों में  पानी।
धर लिए हैं चूल्हे अलग हुईं  घर की रानी।।
खून  के  रिश्तों  में  भी  ठन  जाती  है।
केवल रस की बात....

जीना  नहीं   जिंदगी    केवल ढोना है।
 नहीं  महकते   फूल यही बस  रोना  है।।
कागज़  के हैं  फूल  बेल इठलाती  है ।
केवल रस की बात....

हरी हिना  पत्थर  पे  पिस ही  जाती है।
आज  की   नारी नहीं  समझ ये  पाती है।।
लाल हथेली  खूं  जैसी   रच  जाती है।
केवल रस की बात.....

💐 शुभमस्तु  !
✍ रचयिता ©
☘  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'





बुधवार, 25 सितंबर 2019

तेरा तो कुछ भी नहीं! [कुण्डलिया]


♾■■♾■■♾■■♾

खटमल     नेता   से   कहे,
एक       हमारा        खून।
दिल्ली   मुम्बई    में   रहो,
या       हो        दहरादून।।
या        हो        दहरादून,
एक     गुण      मेरे    तेरे।
हम      परिजीवी     जीव,
पास      आते      बहुतेरे।।
पलँग       बिछे      रंगीन,
गुदगुदी जिन पर मख़मल।
'शुभम'       चूसते    खून,
छिपे नेता औ' खटमल।।1।

कपड़े    केवल   रँग   लिए,
मन   न   रँगा    हरि   नाम।
स्वाद     बदलते    नित्य  वे,
भीतर        खेले       काम।।
भीतर       खेले        काम ,
मिला आनन्द     काम   का।
गैरिक       रँग  के      साथ,
जुबाँ   पर     राम नाम का।।
कहते                 परमानंद ,
नाम      के    सारे   लफड़े।
यौवन   के       सँग    रास,
रँगे      बाबा ने    कपड़े।।2।

 भेद   खुला   जब  रङ्ग  का ,
पहुँचे                 कारागार।
मंत्री -  पद    भी    पा  गए,
जहाँ    न     नीति -विचार।।
जहाँ    न      नीति -विचार,
बिठा   दो    सबके    ऊपर ।
मिले       'शुभम'    सम्मान,
गिरे   अब    औंधे    भूपर।।
डूबें         विशद     जहाज़,
जब    हो    पेंदी    में  छेद।
करतूतें      खुल       जायँ,
जब खुलें वेश  के भेद।।3।

निर्धन   के   हक  के  लिए,
जो     लड़ते     यह  राज़ ।
बन   जाते     धनराज    वे,        
मढ़ते      सिर     पर ताज़।।
मढ़ते     सिर     पर  ताज़ ,
रहे  निर्धन     ही     निर्धन।
जैसे      खटमल       चूस,
बनाता    नर   का   ईंधन।।
जाति -    वर्ण    का   भेद ,
नहीं    कोई       भी बंधन।
'शुभम'    एक      ही  साध,
निचोड़े    कैसे   निर्धन।।4।

तेरा     तो   कुछ  भी  नहीं ,
जो    भोगा     वह    भाग।
जो  गाता   अब   तक रहा,
भूल      सभी     वे    राग।।
भूल     सभी     वे      राग,
भाग  जा  हमें    सौंपकर।
आया     सबका      काल,
शीश    में  तेग  खोंपकर।।
'शुभम'    खोल   ले  कान ,
नहीं     कर   मेरा   -  मेरा।
रोटी        खा      चुपचाप,
बोल  मत  क्या है तेरा।।5।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🍑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

एक जीभ के बड़े कमाल [बालगीत]


♾♾★★♾♾★★♾♾

एक  जीभ  के  बड़े कमाल।
जीभ करे औ' पिटे कपाल।।

कहकर घुसी गाल के अंदर।
कड़वी  भद्दी  या  हो सुंदर।।
बुरी  बात  का  बुरा  धमाल।
एक जीभ  के बड़े  कमाल।।

एक जीभ का ऐसा  आलम।
लड़ते घर में बीबी - बालम।।
पर गृहस्थी का खड़ा सवाल।
एक जीभ  के बड़े कमाल।।

दो जीभें हों   तब क्या होगा !
युद्धक्षेत्र घर - घर   में होगा।।
बाहर   होगा   सदा  बवाल।
एक जीभ  के बड़े कमाल।।

दाँतों  की   दीवार  खड़ीं  दो।
जिनके भीतर घुसी पड़ी वो।।
जब निकले  तब देखो चाल !
एक जीभ  के  बड़े  कमाल।।

पलट पलट कर चाल दिखाती।
झूठ  बोलती  नट - नट जाती।।
इसमें    हड्डी  रीढ़  न  बाल।
एक जीभ  के  बड़े कमाल।।

कभी चिढ़ाती बल -बल खाती।
निंदा- रस   में  मौज मनाती।।
गीत  सुनाती  दे -  दे  ताल।
एक  जीभ के  बड़े कमाल।।

द्रुपद -सुता की जीभ चल गई।
रक्त - नदी  कुरुक्षेत्र  बन गई।।
रहती 'गर  निज  भीतर गाल।
एक  जीभ  के  बड़े कमाल।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🦜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

चश्मा टेकन की तैयारी [बालगीत]




विधि की अद्भुत रचना प्यारी।
चश्मा  टेकन   की    तैयारी।।

एक  नाक  दो  कान  बनाए।
सूँघें  खुशबू  सुन  भी  पाएँ।।
ऊँची   उठी   केंद्र  में  न्यारी।
चश्मा  टेकन    की  तैयारी।।

दो -  दो  नथुने   लेते  साँस।
लें रुमाल  जब  आए बास।।
चश्मे  से  नासा  की  यारी।
चश्मा   टेकन   की  तैयारी।।

अपनी कमर लादकर चश्मा।
 बढ़ा रहा  चेहरे  की सुषमा।।
टाँगे  कान   दो  डंडी  कारी।
चश्मा  टेकन   की   तैयारी।।

दादी  बाबा    के  चेहरे  पर।
ख़ूब   देखते   हैं  ,बहरे पर।।
नहीं  नाक पर चश्मा भारी।
चश्मा  टेकन   की  तैयारी।।

दोनों   कान   मदद  करते हैं।
वहीं  डंडियों   को रखते  हैं।।
सहयोगी    भावना   हमारी।
चश्मा  टेकन   की   तैयारी।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🤓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 22 सितंबर 2019

मानव , मानव तो रहे [ दोहे ]


  ★★◆★★◆★★◆★★

लगी    आग    में   छोड़ना,
घी     की       गाढ़ी    धार।
ऐसे   ही    बहु जन    यहाँ,
बोलें    बिना     विचार।।1।

यहाँ     सदा   ही  बाल      की ,
खाल        निकालें      लोग।
कलह     बढ़ाने    का  लगा ,
जिनके    मन   में  रोग।।2।

टाँग    फटे     में    फाँसना,
जिनका   ही     नित  काम।
बुद्धि     शुद्धि    उनकी करें,
विमला        राधेश्याम ।।3।

अपने -  अपने    चौक   पर,
सब        स्वामी       सम्राट।
पर्वत     के      नीचे     लगे,
पता     ऊँट   को    ठाट।।4।

शीतल      वाणी    बोलकर ,
देनी      सुख     की    छाँव।
गरम   हवा   के    जल  रहे,
यहाँ     गाँव   के    गाँव।।5।

कड़वी     वाणी   तीर - सी ,
जाय     हृदय     के    पार।
सुनना      जैसा      चाहते,
वैसे     बोल      उचार।।6।

वाणी   से     पत्थर    फटे,
करो   न   उर     पर   वार।
कोमल      अंतर्बाह्य    जो,
उस   पर   नहीं  प्रहार।।7।

कौवा   कोयल   से    कहे,
कैसे         गाऊँ       गीत।
कर्कश  स्वर   में   बोलता,
यही     हमारी    रीत।।8।

बिच्छू ,    बिच्छू    ही   रहे,
देना   ही        है        दंश।
कृष्ण  सदा  रक्षक  'शुभम',
अशुभ   सदा  ही कंस।।9।

मानव ,    मानव   तो   रहे ,
धर कर        मानव     देह।
जहाँ    बसे    बोले 'शुभम',
हो   जन-जन  से नेह।।10।

रङ्ग     वर्ण    सब   व्यर्थ  हैं,
क्या   चमड़ी    का    मोह।
मानव  , मानव    पर    हँसे,
मानव    प्रति    विद्रोह।।11।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

www.hinddhanush.blogspot.in

22.09.2019◆5.50अपराह्न

चश्मा-टेक-स्थान

 [ हास्य -व्यंग्य ]

              भगवान भी कितना बड़ा कारसाज़ है। आख़िर भगवान तो भगवान ही है। शरीर के एक अंग के निर्माण और भगवान की दूरदर्शिता पूर्ण सोच का परिणाम ही है हमारी 'नाक'। इसकी रचना औऱ उसके बहुउपयोगी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ही इसको स्थापित किया गया है।

           जब पहले पहल भगवान ने इंसान को बनाया होगा , उस समय उसने यह भी सोच रखा होगा कि भविष्य में इस इंसान का विकास जब होगा तो उसकी आँखें टी. वी. , कम्प्यूटर , मोबाइल पर इतनी अधिक व्यस्त हो जाएँगीं कि उसकी देखने की क्षमता में अवश्य कमी आएगी। उसके समाधान के लिए वह चश्मे की खोज जरूर करेगा। जब उस चश्मे को टेकने के लिए ही जगह नहीं होगी तो चश्मा भला लगेगा कहाँ और कैसे? इसलिए चेहरे के केंद्रीय स्थल पर एक उभरा हुआ टेक- स्थान बनाया जाना अपरिहार्य समझा गया और उसका नाम रख दिया गया 'नाक' । उसमें साँस के आवागमन के लिए दो छिद्र भी बना दिए गए। उस का जो ऊँचा प्लेटफार्म बनाया गया ,वही चश्मे का टेक - स्थान बना। अब जब नाक बन गई तो यह भी गम्भीरता पूर्वक सोचना पड़ गया कि चश्मे की डंडियाँ कहाँ टेकी जाएँगीं , यह सोचकर पुनः दो डंडी -टेक -स्थान भी निर्मित किए गए , जिन्हें 'कान'की संज्ञा से अभिहित किया गया। इस प्रकार चश्मे की जरूरत की पूर्ति का काम पूर्ण हुआ।नाक और कान चूँकि दोनों ही 'चश्मा- टेक- स्थान ' हैं , इस- लिए मात्राओं को उसी स्थान पर बनाये रखते हुए 'न' औऱ 'क' को ही दोनों टेक -स्थानों के लिए अंतर करने के उद्देश्य से उनका नामकरण हुआ : नाक और कान। तभी एक कहावत का जन्म हुआ : आवश्यकता अविष्कार की जननी है। चश्मे के आविष्कार ने नाक के उच्च सिंहासन की शोभा सैकड़ों गुणा बढ़ा दी।

                नाक तो नाक ही है । इसका एक अर्थ स्वर्ग भी होता है। यदि विचार किया जाए तो स्वर्ग से क्या कम है, नाक । नाक के बिना साँस लेना ही दूभर। इसलिए इस नाक से अनेक स्वर्गवाची शब्दों का सृजन हो गया। 'नाकपति 'अर्थात राजा या इंद्र। 'नाकनाथ' , 'नाकपेधक' इंद्र को कहा गया।'नाकचर ' अर्थात जो नाक(स्वर्ग), में विचरण करे अर्थात देवता। नाकचर के एक अन्य अर्थ में देखा जाए तो भी देवता। क्योंकि देवता नाक से ही चरते (भोजन ,सुगन्ध आदि ग्रहण करते हैं ) हैं।इसीलिए उन्हें धूप ,अगर , लोहबान आदि की सुगंध से तृप्त किया जाता है। देवता खाते कहाँ हैं , सूँघते भर हैं। भला जो 'नाक बुद्धि' हैं ,वे ये सब कहाँ समझें ? क्योंकि उनकी बुद्धि नाक तक ही सीमित होती है। नाकपति और नाकचरों को खाने का समय कहाँ? क्योंकि उन्हें 'नाकनटियों' (स्वर्ग की नर्तकियों) और 'नाकवनिताओं'(अप्सराओं) के नृत्य औऱ विलास से अवकाश ही कहाँ मिलता होगा। 'नाकनारियों' के जमघट से घिरे 'नाकपति' फिर भी अतृप्त ही बने रहते हैं । 'नाकवासियों' का यह परम सौभाग्य है कि वे निरन्तर 'नाक नदी'(स्वर्ग की गंगा) में अभिषिक्त होते रहते हैं।

            अब रही दूसरे टेक -स्थान 'कान' की बात। कान का स्थान ऊँचा होने के बावजूद नाक का स्थान ऊँचा माना गया : (नाक बास बेसरि लह्यो ) और कानों में पहने जाने वाले कुंडल भी वह स्थान प्राप्त नहीं कर सके:(अजों तरयौना ही रह्यौ)।इसलिए 'नकबेसर' या 'नाक बेसर' नामक नाक का आभूषण आविष्कृत हुआ। उधर नाक की नथुनिया ने तो गज़ब ही कर डाला , कान का आश्रय लेकर उसने नारी चन्द्र - वदन पर कब्ज़ा ही कर लिया। कान फिर भी उपेक्षित रह गए। इसी को शायद किस्मत कहते होंगे।

             द्विनामी तीन टेक-स्थानों के कारण चश्मा अपना आसन जमा कर क्या बैठा , उसने नाक के नाकपन में बहुआयामी सफ़लताओं के झंडे ही गाड़ दिए! कालांतर में नाक मान - सम्मान औऱ प्रतिष्ठा का पर्याय ही बन गई।तभी तो रावण की नाक उसकी बहन सूर्पणखा बन गई और लक्ष्मण जी ने अग्रज श्रीराम जी पर डोरे डालने के कारण उसकी कीमत उसे अपनी सुंदर नाक ही कटवाकर अदा करनी पड़ी। उस नाक -कटान अपमान के प्रतिशोध- रूप श्रीरामजी की भार्या सीताजी के अपहरण के रूप में कहानी और भी जटिल हो गई , जिसका समापन राम - रावण युद्धोपरांत , धोबी प्रकरण और सीता जी के भू लीन हो जाने के रूप में संसार ने देखी।ये सब हुआ तो नाक के कारण ही न! ये नाक ही है , जो क्या - क्या न करा ले! महाभारत भी नाक के कारण ही हुआ । जिसने भी अपनी नाक नीची होते देखी , उसने दूसरे की काटने के लिए महा भारत ही करवा दिया। वहाँ भी नाक , यहाँ भी नाक ! जहाँ भी देखा नाक ही नाक। सब कुछ बखेड़ा नाक के ही कारण। कहीं नाक नीची न हो जाये। अरे ! कभी -कभी तो चाहे अपनी ही नाक क्यों न कट जाए , पर दूसरे का शगुन तो बिगड़े ही बिगड़े। अब मालूम हुआ कि महाभारत इस 'चश्मा- टेक -स्थान' :नाक के कारण ही हुआ था।

 💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
🧡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'



    

ग़ज़ल





रक़ीबों  से दामन बचाकर तो देखो।
मुहब्बत की खुशियाँ    लुटाकर तो देखो।

किनारे  पे  मोती  मिले  हैं भला क्या,
समंदर  में  गोता  लगाकर तो देखो।

ये  दिल  तो मुहब्बत की ख़ातिर   मचलता,
जरा   दिल  को दिल से मिलाकर तो देखो।

तुम्हें अपनी  मंज़िल  यक़ीनन मिलेगी,
पसीने  की  गंगा   बहाकर  तो देखो।

'शुभम'  तेरी   मंज़िल है कदमों  के  नीचे,
दिया  हसरतों   का जलाकर तो देखो।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता©
⛱ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

www.hinddhanush.blogspot.in

20.09.2019◆4.45अपराह्न

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

डाल-डाल कपि [अतुकान्तिका]


  

जन -जन का मन
सहित्य का
उच्च सिंहासन।
नहीं है 
व्यक्ति -स्तुति गायन,
व्यक्ति नहीं है महान,
सर्वोपरि देशगान,
जन गण मन 
उसी की आन मान शान,
सबसे महान।

नहीं है कवि 
चारण या भाट,
जो बाँधे 
मिथ्या सराहना के ठाठ,
किसी की बिछाए ,
किसी की 
खड़ी करे खाट,
अतिशयोक्तियाँ विराट,
कवियों की चाहिए
नहीं लगनी हाट,
पर अब तो
लगी ही रहती है
हाट की बाट,
भले आठवें दिन लगे,
उनकी बुलंदियों के
सितारे तो जगें !

जातिगत मत
आधारित व्यवस्था,
पवित्रता से परे,
इस व्यवस्था में
अंध आस्था
ज्यों कुहर में गिरे,
कवि भी एक मानव,
मानवीय दौर्बल्य से
कैसे बचे?
सस्ती लोकप्रियता में
रंचे -बसे।

राजनीति से प्रेरित
उपाधियाँ सम्मान,
मात्र
नेता -स्तुति -गान के
कुशल आख्यान,
टी. वी. अख़बार में
प्रसारण प्रकाशन।
शॉलों  प्रशस्तिपत्रों  के
अम्बार बेशुमार,
नेता -नवनीत -लेपन ही
परोक्ष /प्रत्यक्ष आधार।

गली -गली 
गाड़ियों कवि ,
ज्यों आमों के बाग 
डाल - डाल कपि,
लतीफ़ेबाजी ठिठोली
काव्य की पराकाष्ठा
आम जन की 
यहीं तक आस्था,
जो परोसा गया
वही तो खा सका!
अन्य रसास्वादन से
कैसे हो वास्ता ?
हँसोड़ों  की गलियों से
हँस - कवियों का रास्ता,
हंस - कवियों का नहीं,
ये बात मित्रो!
पूर्ण सत्य और सही।

जमाना बहुमत का
बहूमत का,
भले ही 
मूर्खमत हो!
सत्य की दुर्गति हो,
मताधिक्य ही निर्णायक,
संसद का विधायक,
जन - ग्रीवा का शायक,
आज का वही जनकवि,
वही  माननीय जनगायक!
भले  ही कोकिल दल मध्य,
कर्कश -स्वर -वायस।

चाटुकारिता नहीं
प्रबुद्धता की पहचान,
नहीं किसी सुकवि की
आन, मान ,शान।
अलग ही है
कवि का अपना अस्तित्व,
नवनीत - लेपन से इतर
दिनकर - सा
'शुभम' व्यक्तित्व,
वही है 
सत्साहित्य का तत्त्व,
साहित्य का महत्त्व।

जागृत हो उठो
सजग सहित्यकारो!
सियासत के 
धुँधले सितारों को,
निर्मल सहित्याकाश में
मत उभारो!
अपने अस्तित्व को
जानो पहचानो!
चापलूसों के 
आँगन में
 तम्बू मत तानो!!

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

www.hinddhanush.blogspot.in

19.09.19◆4.00अपराह्न

जब तिमिर हट जाएगा गीत]

चश्मा-टेक-स्थान

 [ हास्य -व्यंग्य ]

              भगवान भी कितना बड़ा कारसाज़ है। आख़िर भगवान तो भगवान ही है। शरीर के एक अंग के निर्माण और भगवान की दूरदर्शिता पूर्ण सोच का परिणाम ही है हमारी 'नाक'। इसकी रचना औऱ उसके बहुउपयोगी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ही इसको स्थापित किया गया है।

           जब पहले पहल भगवान ने इंसान को बनाया होगा , उस समय उसने यह भी सोच रखा होगा कि भविष्य में इस इंसान का विकास जब होगा तो उसकी आँखें टी. वी. , कम्प्यूटर , मोबाइल पर इतनी अधिक व्यस्त हो जाएँगीं कि उसकी देखने की क्षमता में अवश्य कमी आएगी। उसके समाधान के लिए वह चश्मे की खोज जरूर करेगा। जब उस चश्मे को टेकने के लिए ही जगह नहीं होगी तो चश्मा भला लगेगा कहाँ और कैसे? इसलिए चेहरे के केंद्रीय स्थल पर एक उभरा हुआ टेक- स्थान बनाया जाना अपरिहार्य समझा गया और उसका नाम रख दिया गया 'नाक' । उसमें साँस के आवागमन के लिए दो छिद्र भी बना दिए गए। उस का जो ऊँचा प्लेटफार्म बनाया गया ,वही चश्मे का टेक - स्थान बना। अब जब नाक बन गई तो यह भी गम्भीरता पूर्वक सोचना पड़ गया कि चश्मे की डंडियाँ कहाँ टेकी जाएँगीं , यह सोचकर पुनः दो डंडी -टेक -स्थान भी निर्मित किए गए , जिन्हें 'कान'की संज्ञा से अभिहित किया गया। इस प्रकार चश्मे की जरूरत की पूर्ति का काम पूर्ण हुआ।नाक और कान चूँकि दोनों ही 'चश्मा- टेक- स्थान ' हैं , इस- लिए मात्राओं को उसी स्थान पर बनाये रखते हुए 'न' औऱ 'क' को ही दोनों टेक -स्थानों के लिए अंतर करने के उद्देश्य से उनका नामकरण हुआ : नाक और कान। तभी एक कहावत का जन्म हुआ : आवश्यकता अविष्कार की जननी है। चश्मे के आविष्कार ने नाक के उच्च सिंहासन की शोभा सैकड़ों गुणा बढ़ा दी।

                नाक तो नाक ही है । इसका एक अर्थ स्वर्ग भी होता है। यदि विचार किया जाए तो स्वर्ग से क्या कम है, नाक । नाक के बिना साँस लेना ही दूभर। इसलिए इस नाक से अनेक स्वर्गवाची शब्दों का सृजन हो गया। 'नाकपति 'अर्थात राजा या इंद्र। 'नाकनाथ' , 'नाकपेधक' इंद्र को कहा गया।'नाकचर ' अर्थात जो नाक(स्वर्ग), में विचरण करे अर्थात देवता। नाकचर के एक अन्य अर्थ में देखा जाए तो भी देवता। क्योंकि देवता नाक से ही चरते (भोजन ,सुगन्ध आदि ग्रहण करते हैं ) हैं।इसीलिए उन्हें धूप ,अगर , लोहबान आदि की सुगंध से तृप्त किया जाता है। देवता खाते कहाँ हैं , सूँघते भर हैं। भला जो 'नाक बुद्धि' हैं ,वे ये सब कहाँ समझें ? क्योंकि उनकी बुद्धि नाक तक ही सीमित होती है। नाकपति और नाकचरों को खाने का समय कहाँ? क्योंकि उन्हें 'नाकनटियों' (स्वर्ग की नर्तकियों) और 'नाकवनिताओं'(अप्सराओं) के नृत्य औऱ विलास से अवकाश ही कहाँ मिलता होगा। 'नाकनारियों' के जमघट से घिरे 'नाकपति' फिर भी अतृप्त ही बने रहते हैं । 'नाकवासियों' का यह परम सौभाग्य है कि वे निरन्तर 'नाक नदी'(स्वर्ग की गंगा) में अभिषिक्त होते रहते हैं।

            अब रही दूसरे टेक -स्थान 'कान' की बात। कान का स्थान ऊँचा होने के बावजूद नाक का स्थान ऊँचा माना गया : (नाक बास बेसरि लह्यो ) और कानों में पहने जाने वाले कुंडल भी वह स्थान प्राप्त नहीं कर सके:(अजों तरयौना ही रह्यौ)।इसलिए 'नकबेसर' या 'नाक बेसर' नामक नाक का आभूषण आविष्कृत हुआ। उधर नाक की नथुनिया ने तो गज़ब ही कर डाला , कान का आश्रय लेकर उसने नारी चन्द्र - वदन पर कब्ज़ा ही कर लिया। कान फिर भी उपेक्षित रह गए। इसी को शायद किस्मत कहते होंगे।

       द्विनामी तीन टेक-स्थानों के कारण चश्मा अपना आसन जमा कर क्या बैठा , उसने नाक के नाकपन में बहुआयामी सफ़लताओं के झंडे ही गाड़ दिए! कालांतर में नाक मान - सम्मान औऱ प्रतिष्ठा का पर्याय ही बन गई।तभी तो रावण की नाक उसकी बहन सूर्पणखा बन गई और लक्ष्मण जी ने अग्रज श्रीराम जी पर डोरे डालने के कारण उसकी कीमत उसे अपनी सुंदर नाक ही कटवाकर अदा करनी पड़ी। उस नाक -कटान अपमान के प्रतिशोध- रूप श्रीरामजी की भार्या सीताजी के अपहरण के रूप में कहानी और भी जटिल हो गई , जिसका समापन राम - रावण युद्धोपरांत , धोबी प्रकरण और सीता जी के भू लीन हो जाने के रूप में संसार ने देखी।ये सब हुआ तो नाक के कारण ही न! ये नाक ही है , जो क्या - क्या न करा ले! महाभारत भी नाक के कारण ही हुआ । जिसने भी अपनी नाक नीची होते देखी , उसने दूसरे की काटने के लिए महा भारत ही करवा दिया। वहाँ भी नाक , यहाँ भी नाक ! जहाँ भी देखा नाक ही नाक। सब कुछ बखेड़ा नाक के ही कारण। कहीं नाक नीची न हो जाये। अरे ! कभी -कभी तो चाहे अपनी ही नाक क्यों न कट जाए , पर दूसरे का शगुन तो बिगड़े ही बिगड़े। अब मालूम हुआ कि महाभारत इस 'चश्मा- टेक -स्थान' :नाक के कारण ही हुआ था।

 💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक © 🧡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'



    

बुधवार, 18 सितंबर 2019

माँ -बापू को तब पहचाना [बालगीत]


♾★★★♾★★★♾
मन का लाड़ -दर्द जब जाना।
माँ - बापू को तब पहचाना।।

मेरे  सुख   की ख़ातिर  जीते।
वरना    वे     रीते   के  रीते।।
उनके  सुख  का बना बहाना।
माँ -बापू को ....

गीले  में  माँ   ख़ुद सोती थी।
नहीं शिक़ायत भी होती थी।।
सूखे  बिस्तर  मुझे  सुलाना।
माँ -बापू को ....

बुरी  नज़र  से  मुझे   बचाती।
काला  टीका  शीश लगाती।।
बोल   मनौती   देव   मनाना।
माँ -बापू को ....

थोड़ी  अगर  शिक़ायत होती।
बापू  दुःखी बहुत  माँ रोती।।
राई - नौंन    शीश    उतराना।
माँ - बापू को  ....

उनके   आँसू    देख  न पाऊँ।
चाहे  जितने  कष्ट   उठाऊँ।।
प्रभुजी  ऐसा   योग्य बनाना।।
माँ -बापू को ....

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🧒🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

अम्मा- बापू घर की शान [बालगीत ]


  ♾◆◆♾◆◆♾◆◆

सबसे   अच्छे   और   महान।
अम्मा - बापू  घर  की  शान।।

पहले   सबसे  माँ  की पूजा।
नहीं  पिता  सम कोई  दूजा।।
माँ -  बापू  से   बढ़ता   मान।
अम्मा  -बापू ....

देकर  जन्म    धरा  पर लाई।
देख मुझे मन - मन मुस्काई।।
तन   में  माँ  के  आई  जान।
अम्मा - बापू....

मुझे   देखकर   हर्षित  बापू।
कैसे अपनी  खुशियाँ  नापू।।
लगे   गुनगुनाने   कुछ  गान।
अम्मा -बापू ....

इनकी  सेवा  का  बड़भागी।
बन जाऊँ  मैं  पूत सुभागी।।
आजीवन  इनका  गुणगान।
अम्मा-बापू ....

दूध पिलाया जब -जब रोया।
लाड़ लड़ाया जब मैं सोया।।
मुझे  सुनाती    लोरी - तान।
अम्मा -बापू ....

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
                                                            👨‍🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

डाक -पखवाड़ा [दोहा ,चौपाई] ( व्यंग्य -काव्य)


  ♾♾♾♾♾♾♾
                -दोहा -
जीवित    माँ      भूखी   रहे,
मरी    देह       को     खीर।
मालपुआ     मीठे      बहुत,
मानव     की   तकदीर??1।

जीवित     बाप     न  पूजते ,
श्रद्धा      मृतक       अपार।
काग    खाय    पहुँचे   वहाँ,
डाक -  पक्ष    के   द्वार।।2।

दुनिया     ऐसी        बाबरी ,
पूजे        कागा        श्वान।
मात -  पिता     भूखे    मरें,
तनिक न घर    में मान।।3।

मरे      बाप  की    हड्डियाँ,
ले        जाते        परयाग।
दुनिया   को     दिखरावहीं,
धन्य  बाप    के   भाग।।4।

            -चौपाई -
जियत बाप भूखे मर जाहीं।
मरे बाप तब   चढ़े कढ़ाही।।

कौवा खायं जिमावहिं बाँभन।
गंगा तट करि रहे दान पुन।।

श्राद्ध -पक्ष  डाकहु  पखवारा।
भोजन वसन जाहिं जेहि द्वारा।।

जहाँ   दिवंगत   आत्मा   होई।
तहाँ मिलहिं जो भेजहिं सोई।।

बड़ी अजब यह डाक -प्रथाहू।
काग खाय  पा जाय पिताहू।।

 चील  खाय    तौ पावे   माई।
श्राद्ध डाकविधि मनुज बनाई ।।

पुनर्जन्म  में   नहिं  विश्वासा।
जौ होतौ  नहिं  करते  हासा।।

आस्था  भूत - प्रेत  में  भारी।
तेहि ते  श्राद्ध करें नर -नारी।।

                - दोहा -

वर्तमान   को    भूलि    सब,
रखें    भूत     पर      ध्यान।
जीवित कौ   नहिं मान कछु,
मूरति     में     भगवान।।5।।

प्रतिमा   और     प्रतीक  की,
संस्कृति     बड़ी      विचित्र।
कागा  पिता     प्रतीक     है,
चील    मातु    को  इत्र।।6।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
⛲ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 15 सितंबर 2019

ग़ज़ल


      

 हिंदी    है   मनभावन   गंगा,
 हिंदी   सुंदर   सावन   गंगा।

हिंदी  भाषा अजर- अमर है,
हिंदी  सदा सुहागन   गंगा।।

हिंदी   सबकी  पावन  वाणी,
संस्कारों   का  उपवन गंगा।।

एक    सूत्र    में  बाँधे  हिंदी,
ज्यों  बहती है  वन-वन गंगा।

मधुर  मातृभाषा   है  अपनी
सबको   देती   जीवन  गंगा।।

दीन - दुखी  इन्सां  की वाणी,
कल्याणी   मनभावन  गंगा।।

जन्मदात्री   प्रसविनि  माता!
'शुभम'  है  हिंदी पावन गंगा।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🏵 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

भ्रष्टाचार हमारे खून में है! [व्यंग्य]

               अरे भाई! आप भी कैसी बात करते हैं ? भ्रष्टाचार दूर करो ! भ्रष्टाचार दूर करो !! ये तीन शब्द सुनते -सुनते मेरे तो कान पक गए। जब कोई चीज पक जाती है , खेत से ,ठेले से ,बाज़ार से लेकर खाई ही जाती है। तो कानों को भी कोई न कोई खाता ही होगा। जब कोई कान खायेगा , तो हारकर कहना ही पड़ेगा। 'बहुत हो गया, मेरे कान मत खा।' इसलिए अब यह कहना ही बन्द हो गया कि भ्रष्टाचार दूर करो। भ्रष्टाचार तो आज के दौर में शिष्टाचार हो गया है।

             यह स्वतः समझने योग्य है कि जो चीज हमारे जटिलता से बुने, बने , ठने, घने , ऐंठ में तने डी. एन. ए. में जन्म से ही समाई हुई है, उसे कैसे अलग कर सकते हैं। बस समझने की बात मात्र इतनी -सी है कि हमें वह शुभ अवसर ,मौका , मुहूर्त , शुभ घड़ी भी तो मिलनी परम आवश्यक है , जब हम भ्रष्टाचार के खट्टे -मीठे अचार का रसास्वादन कर सकें। जो चीज बारहों मास, चौबीस घण्टे , प्रति क्षण हमारे खून में गंगा -जमुना की तरह बह रही है , उसे कहीं लेने जाने के लिए कोई कष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं है। जरा -सी गर्दन उधर घुमाई और हम अपने उच्च आसन से स्वतः च्युत होकर भ्रष्ट आचरण में अवतरित (नीचे गिरना) हो गए। हम माननीय मंत्री-संतरी , सांसद- विधायक , अधिकारी, लेखाकार, ठेकेदार , पंचायत सेक्रेटरी, अध्यापक , कार्यालय- अधीक्षक, वरिष्ठ - कनिष्ठ लिपिक, , सेक्शन ऑफिसर , निदेशक, सहायक /संयुक्त निदेशक , सचिव-विशेष सचिव , महा सचिव , अध्यक्ष , मेयर , चेयर पर्सन, ग्राम प्रधान, राजनेता , समाज- सुधारक , धर्म -पंडित आदि ऐसे ही हज़ारों - हज़ारों पदों से अवतरित (अर्थात पद से पतित , मानवता से पतित) होकर मुखौटा लगाकर भ्रष्टता के अचार का स्वाद चटखारे ले लेकर खा रहे हैं। खून में समाई चीज की लालामी कब बाहर आ जायेगी , कुछ नहीं कहा जा सकता।

                      चारों ओर एक ही नारा , एक ही स्लोगन कानों में बजता है , तो ऐसा लगता है कि मुझे छोड़कर सभी चोर , डाकू, उचक्के, गबनखोर, रिश्वतखोर , जालसाज , ठग , लुटेरे, राहजन, जेबकट और शातिर हैं। मैं ही अकेला हूँ, जो दूध में धुला हुआ हूँ। नैतिकता की पावन भागीरथी में तो मैं नित्य गोते लगाता हूँ। पर क्या करूँ , मजबूरी का नाम तो है ही मज़बूरी। वहाँ तो इस पवित्र भ्रष्टाचार से है किलोमीटरों की दूरी।(अब मापन के पैमाने बदल गए हैं , इसलिए कोसों की नहीं ।) जब तक हम इसकी धारा में नहा नहीं पाए , तब तक हम निर्मलता के निर्मलानन्द हैं।

                   भारतीय जेलों की शोभा बढ़ा रहे तथा कथित सन्त ,और न जाने कितने 'महापुरुष- 'महानारियाँ' कुछ सलाखों के अंदर , कुछ बाहर , कुछ परदे के भीतर , कुछ बाहर , कुछ खुलेमन से खुलेआम -' भ्रष्टाचार की नदी में अभिषेक कर रहे हैं। कुछ की पूँछें उठ चुकी हैं , कुछ उठने वाली हैं। बाप -बेटे , घर के सभी सदस्य नाकों तक डूब गए । जमाने ने देखा । मगर भारतीय आस्था की गहनता भी सराहनीय है कि उनके तथाकथित भक्त उनकी भक्ति में निरन्तर अखंड -कीर्तन करते हुए आज भी देखे जा सकते हैं। अंधी आस्था के पीछे देश की न्याय व्यवस्था को चुनौती देने वाली यह भक्ति इस देश में ही सम्भव है। भक्त हो तो ऐसा! चमत्कारिक भक्ति के हजारों लाखों नमूने इस देश के नगरों और गांवों में एक नहीं अनेकों मिल जाएंगे।

 हमेंअपना काम निकालने के हजारों सूत्र और आचार -संहिताएं रटी पड़ी हैं। रिश्वत लो खुलेआम । रिश्वत देकर छूट जाओ। इसमें क्या बुरा है ? अब यही आम जन सभ्यता का एक विशेष महत्वपूर्ण बिंदु है। जहाँ कहीं भी खतरे का कोई चिह्न ही नहीं लगा। सौ दिन में एक दिन पकड़े गए तो क्या? लिया है तो देंगे भी। इधर ' दिया' का दिया जला और अंधकार खत्म! इसलिए अब सब जगह कोर्ट , कचहरी, बस , ट्रेन, सड़क, चौराहा , थाना , चौकी, स्कूल , कालेज सर्वत्र रिश्वत एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में विद्यमान है। जो नहीं लेता , वह आज के युग का महामूर्ख है। मान्यता यह है कि जब तक ऊपरी कमाई न हो , तब तक नौकरी भी क्या नौकरी है ? ऊपर से नीचे तक जिसकी भी पूंछ उठाओ ,मादा ही निकलेगा। 'मैं न कहूँ तेरी, तू न कहे मेरी।' का नीतिगत सिद्धात अनिवार्यतः पालनीय है। तुम भी खुश , हम भी खुश।

                 लाइन में लगने से हमारी प्रतिष्ठा प्रभावित होती है। हमें लोग आम आदमी समझने लगते हैं , इसलिए हेकड़ी से धक्का देते हुए पहले काम करा लेना , टिकिट ले लेना, ज्यादा पैसा देकर काम कराना: हमारी आन, मान और शान का प्रतीक है। भ्रष्टाचार के सहस्र मुख , लाखों चरण और करोड़ों हाथ हैं। असंख्य नेत्र, श्रोत, नाक और मुँह हैं।वह सर्वत्र व्याप्त परम् सत्ता का विराट स्वरूप है। ये मत पूछिए कि कहाँ नहीं है! थल के तल पर विद्यमान भ्रष्टाचार की यह सत्ता, जिसे स्वीकार नहीं , वह इस नश्वर संसार में रहने का पात्र नहीं है। जीना है तो समय के साथ चलिए , भ्रष्ट बनिये! भ्रष्ट बनिए!! भ्रष्ट बनिये।जेल में बंद नेताओं की तरह।

 💐 शुभमस्तु !
 ✍लेखक © 🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'


   




गुरुवार, 12 सितंबर 2019

जौंकीकरण [अतुकान्तिका]

       

चौंकना मत कोई
जौंकीकरण से,
बच सकोगे
कहाँ तक,
इनके बलात 
लातीकरण से,
तानाशाह के
तानाशाहीकरण से?

जौंक का धर्म,
प्रकृति और कर्म,
चूसना रक्त ,
शनै:-शनै: 
लगाकर मुखौटे ,
रिझाकर ,
उलझाकर,
चूसना ही लक्ष्य,
अभक्ष्य या भक्ष्य,
अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष।

बज चुका है ढोल ,
जिसके मध्य मात्र पोल,
कोई मत बोल,
सचाई की तुला पर
नहीं कुछ तोल,
हो सके तो
सदा रस में 
विष ही घोल।

कुछ भी नहीं तेरा
सर्वस्व उसका
जो चूसता है,
तुझे है हर रोक 
जरा मत टोक,
तेरे हिस्से में
बस शोक ही शोक,
अफ़सोस! 
मन मसोस!
चारों तरफ़
बस जौंक ही जौंक,
तलाश एक मौके की
टटिया है धोखे की,
प्रतीक्षा कर 
आगामी  जौंकीकरण की!

अभी तो 
हिल रहा है
जीभ का पत्ता,
नहीं हिल सकेगा फ़िर,
होगी  सर्वत्र 
सिर्फ़ जौंकीकरण की
निर्मम सत्ता।

होगा तेरी 
अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध,
नहीं कह सकेगा 
तब छन्द कविता स्वच्छन्द!
मचल -मचल
सिर नवाकर चल ,
तुझे टाट 
उधर मख़मल,
तलवे चाट,
बना लाचार,
वह होगा 
जौंकीकरण का बादशाह!
तेरी तो निकलेगी भी नहीं
आह !   वाह ! !   चाह !!!
तुझे चुसना ही होगा,
चूहे की तरह 
आई बिल्ली ! आई बिल्ली !!
कहकर बिल में
घुसना ही होगा।

उठ खड़ा हो !
जाग जा !
लेकर हाथों में हाथ,
तेरे अपने ही 
निभाएंगे तेरा साथ,
संघर्ष कर 
बलिदान होने के लिए!
भावी पीढ़ियों
अपने वर्तमान की रक्षार्थ।

नहीं है अधिक समय
सो मत 
तू जाग,
छिपा बैठा है
किस मांद में
निकल भाग।
जौंकों के झुंड
निकल पड़े हैं,
आ रहा है शुभ सवेरा,
जौंकीकरण के समक्ष
क्यों सिर अपना
झुका रहा है?


आह्वान कर
ले उग्रता धारण
अपने अधिकार की रक्षार्थ,
कर्तव्य है तेरा ,
आगमित जौंकीकरण में,
नहीं कह पायेगा,
ये मेरा 
ये तेरा,
होगा सभी कुछ
जौंक का,
निर्मम क़ानून की
दुनाली की नौंक का,
रह जायेगा 
तू दाल में
हींग के 
छोंक -सा।

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🍃 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

आज भी गुलाम हैं हम [ लेख]

आज भी गुलाम हैं हम
         [ लेख]
                   पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे। आज हम अपनी मानसिकता के गुलाम हैं। अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत के गुलाम हैं। अपनी सभ्यता , संस्कृति, भाषा , वेशभूषा, आचार , व्यवहार , खानपान, पहनावा सब कुछ अभारतीय और अजूबा - सा है।जिस ओर भी दृष्टि डाली जाए , भारतीयता दूध से मक्खन की तरह ग़ायब ही मिलेगी।
                    आज हमारे विचार करने का प्रमुख बिंदु हमारी भाषा है। आज का युग प्रदर्शन का युग है। इस प्रदर्शनप्रियता से भाषा भी प्रभावित हुई है। अपनी मातृभाषा के सम्मान का भाव हमारे मन में लेशमात्र भी नहीं है। यदि बात मातृभाषा हिंदी की ,की जाए तो इसे बोलना , सीखना और सिखाना गंवारपन माना जाता है।कान्वेंट शिक्षा पद्धति ने इस दिशा में आग में घी डालने का काम किया है। दिल्ली , उत्तर प्रदेश , हिमाचल प्रदेश , बिहार , राजस्थान , मध्य प्रदेश आदि हिंदीभाषी राज्यों के साथ- साथ देश के भाषा के आधार पर विभाजित प्रदेशों महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश, बंगाल , तमिलनाडु , केरल आदि में भी हिंदी बोली , समझी औऱ पढ़ी , पढ़ाई जाती है। लेकिन देश के लोगों की विकृत मानसिकता का क्या किया जाए ? लोगों के मन -मस्तिष्क में यह बात बिठा दी गई है कि अंग्रेज़ी के बिना रोज़ी -रोटी नहीं चल सकती । इसलिए जब तक अंग्रेज़ी का अध्ययन नहीं किया जाएगा , तब तक कुछ भी नहीं होगा। जो अंग्रेज़ी जानेगा , उसी को रोज़ी -रोटी मिलेगी। बिना अंग्रेजी विज्ञान का अध्ययन नहीं हो सकता । ऐसी ही बहुत सारी मिथ्या बातें लोगों के दिमाग़ों में घर कर कर गई हैं, जिनका निकलना इतना सहज नहीं है।

            आज हिंदी गरीबों , गॉंवों, गँवारों की भाषा मानी जाने लगी है। तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की स्थिति तो इतनी अधिक चिंतनीय है कि ऐसा लगता है कि इनका काम हिंदी को अपमानित और पददलित करने का ही है। हिंदी में नमस्ते करने या कुछ भी बोलने पर बच्चों को दंडित किया जाता है। इस आर्थिक दंड का भुगतान उनके माँ-बाप को करना पड़ता है, क्योंकि इन काले अंग्रेजों के कारख़ानों में काले अंग्रेजों का निर्माण किया जाता है , इसलिए वे खुशी -खुशी अपमान का घूँट पीते हैं, और बड़ी शान से पीते हैं।'आज हमारे बेटे ने हिंदी में नमस्ते कर ली ,तो उस पर पचास रुपये जुर्माना भरना पड़ा।' है न कितनी बड़ी खुशी की बात! जैसे बच्चे को नोबल प्राइज़ से नवाजा गया हो। इस तरह काले अंग्रेजों को ढाल -ढाल कर पक्का किया जा रहा है। गधे को गंगा नहलाकर गाय नहीं बनाया जा सकता। बात यहीं आकर थम नहीं जाती , ये अपने मोहल्ले - पड़ौस के बच्चों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। उनके माँ -बाप के प्रति हेयता का भाव इनके मन में कुलबुलाता रहता है। इस प्रकार काले अंग्रेजों का एक नया वर्ग तैयार किया जा रहा है।

               हमारी मातृभाषा में ही हमारे संस्कार , सभ्यता, संस्कृति , रहन -सहन , वेश आदि निवास करते हैं। जब भाषा को कृत्रिम रूप से बदला जाता है, तो हमारा सब कुछ बदलने लगता है। भले ही हमारी दशा घोड़ों के बीच गधों की बन जाये, पर अपने अहम में हम इतने फ़ूल जाते हैं , कि पास की चीज दिखाई ही नहीं देती। सावन के अंधे को हरा ही हरा ही दिखता है।

               हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी -दिवस का आयोजन किया जाता है। चाहे इसे केवल रस्म -अदायगी ही कहिए , पर वह भी अंग्रेज़ियत के बिना पूरी नहीं होती। कुछ अंग्रेज़ीदां लोग कुछ इस तरह भाषण करते हुए भी देखे जाते हैं: ' आज 'हिंदी-डे' है । हम लोग 'इंडियन 'हैं , इसलिए इसको 'सेलिब्रेट ' करना हमारी 'ड्यूटी 'है। हिंदी हमारी 'मदर - टँग 'है। वैसे तो आज अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है , पर 'मदर टँग' होने के कारण इसकी 'स्टडी' भी हमें करनी चाहिए। आज पूरे 'वर्ल्ड 'में अंग्रेज़ी ही प्रमुख भाषा है , पर अपनी 'मदर -लेंग्वेज 'को भी पढ़ना -पढ़ाना हम 'इंडियंस 'के लिए 'कम्पलसरी 'है।' हमारे अंग्रेज़ीदां नेता और कुछ बनतू लोग इसी प्रकार भाषा के खच्चरपन के हिमायती हैं। यह भाषा का खच्चरपन हिंदी में कुछ ज्यादा ही बढ़ता जा रहा है। देश वासियों की गुलाम मानसिकता और अधिक गुलामी की ओर अपने कदम बढ़ा रही है। आज तथाकथित अत्याधुनिक माँ -बाप बच्चों की गिटपिट सुनते हैं ,तो सिहाते हुए आपे में नहीं समाते। उन्हें जूते को 'शू ' कहने में गर्व का अनुभव होता है। हाई - स्कूल उत्तीर्ण माताएं ,जिन्हें हिंदी की पूरी वर्णमाला भी नहीं आती , वे बच्चों को घर और स्कूल में इंग्लिश टीचर के पद पर बैठी हुई ' ए' फ़ॉर ऐप्पल, की शिक्षा देती हुई देखी जा सकती हैं। संस्कार और सभ्यता का जनाजा ही निकाल दिया जा रहा है। निश्चय ही देश का भविष्य बिना अपनी मातृभाषा के उज्ज्वल नहीं है। जब तक इस देश की मानसिक गुलामी दूर नहीं होगी। हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का भविष्य उज्ज्वल होने में संदेह ही रहेगा।
 💐 शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
🏕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'



         

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...