मंगलवार, 31 मई 2022

भूख 🍛 [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🍛 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

एक  वे हैं  फेंक   देते, रोटियाँ जो   घूर  पर,

एक  वे  हैं   ढूँढ़ते हैं,   रोटियाँ जो  घूर  पर,

अन्न को बरबाद करना,यों उचित होता नहीं,

वे 'शुभम्'भीआदमी हैं,जो भटकते घूर पर।


                          -2-

पेट की ज्वाला भयंकर,क्या नहीं करवा रही,

भूख से  संतान  तड़पे, धूप में झुलसा   रही,

फेंक  देते   ढेर पर  जो,रोटियाँ  बैठी    वहाँ,

हाथ की पढ़कर लकीरें,भाग्य को पछता रही


                          -3-

देह  पर  कपड़े  नहीं  हैं,पेट में  रोटी   नहीं,

जीवनी इच्छा कड़ी है, मात की  छोटी नहीं,

साथ में निज सुत सँभाले, ढूँढ़ती है रोटियाँ,

ढेर  पर  जो सूखती हैं,देखती मोटी   नहीं।


                         -4-

फेंक  देते  रोटियाँ   जो, गंदगी  के  ढेर  पर,

सोचते कण भी नहीं वे,निज मनों में बेर भर,

काश  दे देते किसी को,भूख से  बेहाल जो,

सोचती है भाग्य अपना,शांति पाती सेर भर।


                         -5-

अन्न की अवमानना है,है नहीं समुचित कभी,

अन्न  अपने  देव हैं नर,प्राण देते   वे    सभी,

अन्न थाली में वही ले,जो उदर में  ग्रहण   हो,

फेंकना अनुचित सदा है,भूल मत ये बात भी


🪴शुभमस्तु !


३१.०५.२०२२◆ ११.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


सागर 🚢 [मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🚢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

प्यार का सागर कभी,खारा नहीं होता प्रिये,

प्यार  जो सच्चा करे,हारा नहीं  रोता  हिये,

त्याग में ही प्यार के,खिलते सुमन हैं सर्वदा,

महकते     दोनों परस्पर, एक दूजे  के  लिए।


                        -2-

अंक में अपने खिलाता, हर नदी को नेह  से,

छोड़कर अपने पिता का,सरि चली है गेह से,

हृदय सागर-सा बनाए,गहन गर भी पी सके,

गगन के  जल को समाएँ,जो बरसता मेह से।


                           -3-

बैठ तू तट पर रहा तो, हाथ कुछ आए नहीं,

जो गया सागर तली में,पा  सके  मुक्ता वहीं,

डूबने का डर सताए,तू निकम्मा  क्यों  बने,

स्वेद जोअपना बहाए,कनक मुक्ता हर कहीं।


                        -4-

स्वीकार सागर ने किया,दूषण प्रदूषण आपका,

मृत देह कचरा देश का,सरि नीर सारा आपका,

मेघ   ने   निर्मल बना कर, आपको ही दे दिया,

भाद्र श्रावण ने भिगोया, अवनि का तल आपका।


                         -5-

गहन सागर -सा बना लें, हम हृदय अपना शुभम्,

सुतल मुक्ता से सजा लें,जगत हो अपना शिवम,

आदमी     से   आदमी का विष, मिटाएँ शंभु-सा,

सत्य का ध्वज हम उठाएँ, विश्व हो तब सुंदरम।


🪴 शुभमस्तु !


३१ मई २०२२■७.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।


🚢🪷🚢🪷🚢🪷🚢🪷🚢

सोमवार, 30 मई 2022

झूठों की विदाई 💎 [ सजल ]


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समांत : आई ।

पदांत: कीजिए।

मात्राभार :19.

मात्रापतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

☔ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हो       भला    सबकी    भलाई    कीजिए।

मत    कभी   जन   की   बुराई    कीजिए।।


कर्म   करने     के   लिए   नर  - देह     ये,

स्वेद   से   श्रम    से      कमाई    कीजिए।


रोग     जो      आएँ    कभी   इस   देह   में,

स्वस्थ         होने     को     दवाई   कीजिए।


खेत       को   बंजर    नहीं     है   छोड़ना,

स्वस्थ      बीजों   की     बुवाई    कीजिए।


नीच    की      संगति    कभी अच्छी   नहीं,

जो      न     माने    तो  ठुकाई    कीजिए।


बीज       बोना       ही     नहीं  पर्याप्त   है,

सूखते           पौधे       सिंचाई  कीजिए।


सत्य    के   नित   साथ    में रहना  'शुभम्',

झूठ  ,     झूठों     की    विदाई    कीजिए।


🪴 शुभमस्तु !


३० मई २०२२ ◆११.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

तप्त लू के बाद ☔ [ सजल ]


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समांत :आ।

पदांत:गई।

मात्राभार :19.

मात्रापतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

☔ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ग्रीष्म    बीती   पुण्य  पावस आ   गई।

मुदित    तृण  पादप  लता भी भा   गई।


प्यास   धरती    की   बुझाने  के  लिए,

गगन  में   काली    घटा  भी छा    गई।


लोटते    हैं      रेत     में     पंछी  सहस,

भोर    से  ही   कूक कोकिल भा   गई।


त्याग    तप   का   मूल्य    है संसार   में,

धरणि   जो   तपती  रही सब पा   गई।


आम   गदराने       लगे   हैं   डाल पर,

बैठ   डाली  पर  शुकी   फल खा     गई।


विरहिणी  की  आँख   चौखट पर लगी,

आँसुओं     से     गीत  विरहा गा   गई।


जिंदगी सुख -दुःख  का उपक्रम 'शुभम्',

तप्त  लू  के  बाद    रिमझिम आ    गई।



🪴 शुभमस्तु !


३० मई २०२२ ◆६.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

लड़ाई 🏌🏽‍♀️ [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बुरी    बताते    सभी   लड़ाई।

लड़ते  फिर भी बहना -भाई।।


नेता  क्यों आपस  में  भिड़ते।

साँड़ समान सड़क पर अड़ते

शांति रास उनको कब आई?

बुरी    बताते    सभी लड़ाई।।


आपस  में   लड़वाते  जनता।

एक  -  एक  दूजे पर तनता।।

भाती   उनको   खूब  पिटाई।

 बुरी  बताते   सभी   लड़ाई।।


होती   जंग    प्रचंड   चुनावी।

आपस   में होते   वे    हावी।।

खून- खराबा   रंजिश   छाई।

बुरी  बताते    सभी   लड़ाई।।


लड़वाने का अलग  मजा  है।

ऊँची अपनी सदा  ध्वजा है।।

दावत भी मिलती  मनभाई।

बुरी  बताते    सभी  लड़ाई।।


हमला  देश  देश  पर  करता।

नहीं ईश   पापों   से   डरता।।

निर्ममता     छाई      निठुराई।

बुरी   बताते   सभी   लड़ाई।।


🪴 शुभमस्तु !


२९ मई २०२२ ◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

गंगा माँ 🏞️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

गंगा  माँ  हरिद्वार  में , पावनता   की   धार।

अघ-ओघों को तारती,करती भव  से   प्यार।

करती भव से प्यार,बुलाती निज भक्तों  को।

आधि-व्याधि से दूर,करे माँ अनुरक़्तों को।।

'शुभम्' शांति का धाम,बनाती तन मन चंगा।

झुका चरण में शीश, किया करता माँ गंगा।।


                        -2-

गंगा  माँ  की  गोद  जा,हरती देह  - थकान।

जैसे  जननी  अंक में, वैसा  गंग  -  नहान।।

वैसा गंग-नहान, ताप  नाशिनि   सुरसरिता।

मानव का कल्याण,किया करती दुख हरिता

'शुभम्'न रुकती धार,हिमाचल से चल बंगा।

लुटा  रही  माँ  प्यार, पावनी शीतल   गंगा।।


                        -3-

गंगा माँ जलरूपिणी,हरतीं जल   दे  प्यास।

फसलों का सिंचन करें,हरे वृक्ष,  वन, घास।।

हरे  वृक्ष, वन, घास, लताएँ नित   लहरातीं।

जल पीते जन, जीव,हवाएँ रहीं  न   तातीं।।

'शुभम्' सुशीतल घाम,पखेरू रंग  -  बिरंगा।

कच्छप जल घड़ियाल,मस्त रमते जल गंगा।


                         -4-

गंगा  माँ  का जल सदा,पावन सद  निर्दोष।

कृमि उसमें पनपें नहीं, औषधियों का कोष।

औषधियों  का  कोष,मिटाता रोग    हमारे।

दुर्गंधों   से  दूर,  पान    कर  बिना  बिचारे।।

'शुभम्' करे यदि वास,किनारे भूखा -  नंगा।

देतीं  अपना  नेह,  तरंगिणि माता     गंगा।।


                        -5-

गंगा माँ  की  आरती , होती नित    हरिद्वार।

पौड़ी  के  हर घाट पर,सजता है    त्यौहार।।

सजता  है  त्यौहार, बजाते घन  - घन   घंटे।

तन्मय  होती  भीड़, भुला जीवन  के  टंटे।।

'शुभम्' महकती गंध,पावनी विरल   तिरंगा।

फहराता  हर ओर,लहरती पावन    गंगा।।


🪴 शुभमस्तु !


२८ मई २०२२◆५.००

पतनम मार्तण्डस्य।


शनिवार, 28 मई 2022

प्रयास 💎 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

💎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हाथ पर हाथ 

रखने भर से

नहीं चलता काम,

सुबह से शाम

अहर्निश अविराम

लगना पड़ता है,

तभी दो जून का

 भोजन व्यक्ति को

मिलता है,

अनायास कुछ भी

हाथ नहीं आता।


बिना हिलाए 

हाथ-पैर भी

जड़ हो जाते हैं,

वेदना से टीसते हैं

व्रण भर जाते हैं,

निष्क्रियता मृत्यु है,

यही ऋत है सत्य है।


कर्मशीलता जीवन है,

मानव हेतु संजीवन है,

पिपीलिका कभी

 निराश  नहीं होती,

चढ़ती है गिरती है,

फिर चढ़ती गिरती है

अंत में उच्च शृंग के

सर्वोच्च  तल पर

 उतरती है,

अपने अथक प्रयास को

सार्थक करती है।


बैठे हुए किनारे पर

मोती किसने भला पाए?

सागर में जो उतरे

गहरे में

वही मुक्ता भर- भर लाए,

प्राण का खतरा भी

जीवन देता है,

जो जान डालता है

जोखिम में,

वही कुछ कर 

गुजरता है


मुर्दे बहते हैं

नदी के प्रवाह में,

पुरुषार्थी धारा के विपरीत

मार्ग बनाते हैं,

परजीवी बस

रक्त चूषक होते हैं,

परोपकारी रक्त

परहित में चढ़वाते हैं।


अकर्मण्य को

आजीवन

 रुदन ही लिखा है,

बहानेबाजियों का

वहाँ ज़ख़ीरा ही सजा है,

रहना है जिंदा तो

प्रयास रत रहना होगा,

प्रयास करके 

नए पथ का

निर्माण करना होगा,

चलते रहने का नाम ही

जीवन है,

जिंदादिल ही

सदा अमर

 हुआ करते हैं।


🪴शुभमस्तु !


२८ मई २०२२◆७.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


बाबा के बाल 🦧 ◆ बालगीत ◆


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✍️

 शब्दकार ©

🦧 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गोरे  -  गोरे    बाल     तुम्हारे।

लगते  बाबा   हमको   प्यारे।।


'कहते   सब   पहले  थे काले।

लगते  चिकने  बड़े   निराले।।

अब  कैसे   रँग   बदले   सारे।

गोरे   -  गोरे   बाल  तुम्हारे।।'


'अनुभव  ने  इनको रँग डाला।

रहा न अब वह रँग भी काला।'

'लगते    हैं  अंबर   के    तारे।

गोरे - गोरे    बाल    तुम्हारे।।'


'पापा जी    के  क्यों हैं काले।

नहीं बने वे  अनुभव  वाले??'

'सच   कहते   हो पौत्र हमारे।'

'गोरे -  गोरे   बाल    तुम्हारे।।'


'बाबा  चलो   रंग   ले    आएँ। 

या  नाई    से  उन्हें     रंगाएँ।।

होंगे  पहले      जैसे      न्यारे।

गोरे -   गोरे बाल     तुम्हारे।।'


'पक्का  रँग है   इनका   गोरा।

क्यों  रँगवाता इनको  छोरा??

नहीं माँग  कर    लाया प्यारे।'

'गोरे - गोरे     बाल  तुम्हारे।।'


🪴 शुभमस्तु !


२७ मई २०२२◆१.१५पतनम

मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 26 मई 2022

जीवन - धारा 🌀 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार©

🌀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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देश की जीवन - धाराएँ हैं

हमारी नदियाँ

अहर्निश अनवरत 

बहते हुए

बीत गईं सदियाँ,

अभिसिंचन करतीं

कलकल करतीं,

पल को  न ठहरतीं

भूतल पर लहरतीं

जीवन दे रहीं हैं।


गंगोत्री से गंगा

यमुनोत्री से यमुना

निरन्तर  बहती रही

कहती रही

मत करो हमें दूषित

मत बहाओ गंदगी,

उपकारी की सदा ही

करती है 

ये दुनिया वंदगी,

मानवता धर्म निभाओ,

पाशविकता से इतर जाओ,

हम जीवन दायिनी हैं।


आत्म स्तुति क्या करना?

कितनी सरिताएँ झील झरना

तुम्हारे लिए हैं,

अभिसिंचन

तृप्ति के स्रोत 

पशु, पक्षी, पेड़ ,

पौधे, लताएँ,

समतल मैदान

ऊँची अधित्यकाएँ,

नीची उपत्यकाएँ,

समर्पित हैं

देश के लिए।


पिता पर्वत से

पिया सागर तक,

उपकार ही उपकार, 

सरिताओं का उपहार,

कल्याण का जीवंत रूप,

उगातीं आहार।


हे मानव !

मत बनो निष्ठुर,

हो  तो बड़े ही चतुर,

स्वार्थी भी घनघोर,

मचाते स्व उपकार का शोर,

अपने ही पैरों में करते

कुल्हाड़ी प्रहार !

विडंबना का तुषार!

हृदय -सरिता गई है सूख,

काटे जा रहे लता रूख,

दुःख ही दुःख! 

चेतावनी है 'शुभम्'

सँभल जाओ,

अपने भविष्य को

मत यों वीरानगी से

भर जाओ।


🪴 शुभमस्तु !


२६ मई २०२२■५.३० पतनम मार्तण्डस्य।

बचपन 🙋🏻‍♂️ [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🙋🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

बात बचपन की चली है भूलता बचपन नहीं,

मात्र  यादें ही बची हैं स्वर्ग से भी  कम  नहीं,

जिंदगी के सब थपेड़े औऱ लफड़े  शून्य  हैं,

झूठ ने यौवन सजाया बालपन-सा सच नहीं।


                        -2-

जिंदगी का फूल बचपन आज वह मुरझा गया,

बीज फल के लोभ में नित देख ले उलझा गया,

खेलना स्वच्छन्द खाना औऱ पीना याद है,

डेढ़ दशकों में हमारी जिंदगी पर छा गया।


                        -3-

प्यार जो माता पिता या मम पितामह का मिला,

आज तक बचपन न लौटा नेह का सुदृढ़ किला,

मधुर स्मृतियाँ बची हैं कागजों की नाव में,

चल रहा है जिंदगी को पालने का सिलसिला।


                        -4-

बचपने की बात कहकर हेयता मत लाइए,

शक्ति है तो मीत बचपन की डगर फिर जाइए,

जिंदगी की मंजिलों की सीढियां हैं पाहनी,

मात्र च्विंगम की तरह अब बालपन चुभलाइए।


                        -5-

जननी ने बचपन में अपना प्यार निछावर मुझे किया,

स्वयं सो रही गीले में वह सूखा बिस्तर मुझे दिया,

लाड़ पिता बाबा दादी का पाकर के मैं धन्य हुआ,

शब्दों में कृतार्थ भावों से शुभाशीष ले 'शुभम्'जिया।


🪴 शुभमस्तु !


२६ मई २०२२ ◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

मुड़ -मुड़ के तो देख 🦩 [ व्यंग्य ]


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✍️ व्यंग्यकार ©

🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हाँ ,हम तुम्हीं से कह रहे हैं।तुम अच्छी तरह से समझ तो गए ही होगे कि तुम्हें पीछे मुड़कर देखने का भी समय नहीं है।अब समय होगा भी क्यों ? क्योंकि तुम्हारे पास पीछे मुड़कर देखना ही शेष नहीं रह गया है। तुम तो बस आगे ही देखने वाले जीव हो।ठीक वैसे ही जैसे गैंडे ने अपनी गर्दन  घुमाने की क्षमता ही खो दी है, वैसे ही जीवन में जब कभी भी गर्दन नहीं घुमाई तो तुमने भी अपनी क्षमता गँवाई।जीव विज्ञान का यह सिद्धांत है कि जब किसी अंग का प्रयोग करना बंद कर दिया जाता है तो वह अंग भी संग छोड़ जाता है।जैसे करोड़ों वर्ष पहले किसी युग में मानव की भी  गधे, घोड़े, सुअर आदि पशुओं की तरह पूँछ हुआ करती थी,किन्तु पूँछ की पूछ जब बंद कर दी गई तो वह बेचारी भी क्या करती ! वह भी कमर के पिछले निचले हिस्से में संकुचित होकर एक अस्थि शेष के रूप में  आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। विश्वास न हो तो पीछे हाथ से  टटोल कर देख लीजिए न! हाथ कंगन को आरसी क्या! पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या!

तुम अपने को देश का कर्णधार कहते हो।कर्णधार वह होता है जो किसी नाव की पतवार थाम कर उसे पार लगाता है। तुम्हारा काम पार लगाने का है , नाव को डुबाने का नहीं।जब तुम अपनी नाव पर चतुरदृष्टि नहीं रखोगे तो नाव तो डूब ही जानी है।लगता है तुम्हारा ध्यान हर समय नाव पर नहीं ताव पर रहता है। तुमने अपने को भगवान से भी ऊपर का दर्जा दे रखा है। मंदिर में ईश दर्शन के लिए एक ही जगह प्रसाद चढ़ाया जाता है ,किन्तु तुम्हारे दरबार में जितने पुजारी ,मठ महंत बैठे हैं ,सभी को पुजापा चढ़ाने की परंपरा है। चाहे किसी के पास हो अथवा नहीं, पर उन्हें अवश्य चढ़ाए! भले तुम्हारा दर्शन हो पाए या नहीं हो पाए। अंत में लौट के बुद्धू घर को बैरंग आए! यदि तुमने अपनी गर्दन घुमाकर अपने भक्तों की ओर देखा होता तो इन पुजारियों की ठगी का शिकार नहीं होना पड़ता । पर भला तुम्हें तो इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता!

जिस काम का वादा करके तुम जनता के पास दर-दर पर गए औऱ अपनी टोपियाँ या  गमछे उसके चरणों में पलक पांवड़े की तरह बिछा दिए ,उस जनता को इतना उपेक्षित तो नहीं करना चाहिए था।पर भला तुम्हें भी कोई समझा सकता है? क्योंकि सर्व बुद्धिमान होने का परमिट तो केवल और केवल तुम्हारे ही पास है न!  साक्षर ,अल्प साक्षर अथवा निरक्षर होकर भी तुम आई. ए. एस.; आई.पी.एस. पर शासन करते हो।डाँटते हो। कभी -कभी अपने जूतों के तसमें खुलवाते तो कभी डिसपोजेबिल कवर उतरवाते हो। आपका यह प्रकरण शर्म करने योग्य तो बनता है।करनी भी चाहिए।परंतु यदि शर्म ही शेष होती ,तब तो गर्दन को मोड़कर भी देख सकते थे।एक बार चरणों में समूचे ही यू शेप में घुटनों तक झुक लिए ,कोटा पूरा हो गया; झुकने का भी मुड़ने का भी।

सम्भवतः कृतघ्नता की परिभाषा तो तुम्हें अच्छी तरह आती होगी।इसलिए बता भी नहीं रहा हूँ।यदि मैंने तुम्हें कृतघ्नता की परिभाषा बतलाई  तो तुम्हारी ग्रीवा इधर -उधर तो नहीं ;हाँ, भूमुखी अवश्य हो जाएगी।वह भी तब जब कि तुम्हारे भीतर थोड़ा - बहुत  अंश मानवता का भी शेष होगा!पर मुझे तो इसमें भी संदेह का कालापन दिखाई देता है।दाल में  काला नहीं; समूची दाल ही  काली है।

तुमसे डरना आम आदमी की मजबूरी है।क्योंकि तुम्हारे औऱ उसके मध्य सैकड़ों किलोमीटरों की दूरी है।तुमने कभी  आदमी  को  आदमी समझा ही कब है! ये तो समझने का  'मौसम' न आया होता तो  आदमी ऊदबिलाव दिखाई देता। 'भय बिनु होय न प्रीति ' का सिद्धांत खूब अपनाते हो।उसी बल पर बंदर के मदारी की तरह नचाते हो।परन्तु अपना कर्म पूरी तरह भूल जाते हो।

बालू की नींव पर रखे हुए भवन का अस्तित्व बहुत अधिक समय तक स्थाई नहीं रहता। आश्वसनीय बालू का तुम्हारा भवन भी कब ढह जाए कुछ भी पता नहीं।पर तुम्हें कोई फर्क भी नहीं पड़ता। अपना उद्देश्य तो इसी भवन- निर्माण से पूरा कर लोगे। ठिकाने बदल लोगे।पर कसम खाकर बैठे हो कि गर्दन नहीं मोड़ोगे तो नहीं ही मोड़ोगे। इससे तुम्हारा महत्त्व घट जाएगा, ये मेरी नहीं; तुम्हारी  चुहिया - सी सोच है।सबसे बड़ा सहारा तो अदृश्य उत्कोच है।कहीं ऐसा तो नहीं तुम्हारी ग्रीवा में कहीं स्थाई मोच है ? इसलिए बेचारे अपनी ग्रीवा को मोड़ें तो कैसे मोड़ें? भले ही किसी औऱ की समूल तोड़ें या मरोड़ें ;पर अपना उद्देश्य पल भर के लिए भी नहीं छोडें।

  🪴शुभमस्तु !

२६ मई २००२२◆८.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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बुधवार, 25 मई 2022

सब ते भले वे मूढ़ जन 🐷 [ व्यंग्य ]

 


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🤡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                    संसार में जितने भी जीव देह धारण करते हैं;मुझे लगता है कि सबका एक ही उद्देश्य है। और वह है :आनंद प्राप्त करना। येन केन प्रकारेण उसकी सारी खोज 'आंनद प्राप्ति' की ही होती हैं।यह हर जीव की योनि पर निर्भर करता है कि उसे किस विधि से अधिक और लंबे समय तक आंनद प्राप्त हो सकता है।मानव, पशु,पक्षी, जलचर , स्वेदज आदि का अपना - अपना संस्कार है ,जिसके परिणामस्वरूप उसे आंनद प्राप्ति की भरपूर संतुष्टि होती है।

                 उदाहरण के लिए सुअर को ही ले लीजिए। उसे देश और दुनिया से दूर कीचड़ में लोट मारने में आनन्द आता है ,उतना आंनद संभवतः किसी प्रकार नहीं आता होगा।उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि सोने के भाव कितने रुपए प्रति दस ग्राम हैं अथवा पेट्रोल की दर आसमान को छू रहीं हैं।उसके समक्ष यदि छप्पन प्रकार के सुस्वादु व्यंजनों का ढेर भी लगा दिया जाए तो खाने की तो बात ही क्या वह उन्हें देखेगा या सूंघेगा भी नहीं।उसका आनन्द तो पंक- शयन में ही निहित है। शेष सभी आंनद- साधनों से वह सर्वथा अपरिचित है।यहीं पर उसका ऋत है।सत है।कहिए इस सम्बंध में आपका क्या मत है? 

             वैशाख - नंदन -गर्दभ को धूल उड़ाते हुए घूरे पर लोटने में जो आनंदानुभूति होती है,वह त्रिलोकों में कहीं भी नहीं है।गुबरैले को गोबर - निवास में, गोबर की तेज सुवास में, दादुर को तालाब की टर्राहट में, उल्लू को नेत्र बंदकर खंडहर में 'उल्टासन' में लटकने में,चमगादड़ को रात्रि जागरण में 'लटकासन' में औऱ आदमी को 'भटकासन' में जो आनन्द आता है ,वह अन्यत्र दुर्लभ है।सबके आनन्द के स्रोत अलग - अलग हैं। 

                   एक विचित्र बात ये भी है कि मनुष्य ने यद्यपि मानव देह धारण करने का लाभ प्राप्त कर लिया है ,किन्तु  उसके  मानव  देह  में जीवन जीने के  बावजूद  उसमें  सुअर ,ग धा, कुत्ता,उल्लू, चमगादड़ ,  मछली, मेढक,गुबरैला,साँप,बिच्छू, मच्छर,बंदर, साँड़, जूंआँ , आदि न जाने कितने जीवों के आनंद प्राप्ति के 'सद्गुण' रचे - बसे हुए हैं।यही तो उसका सौभाग्य है कि एक ही देह से वह मनचाहा आंनद रस पा रहा है। उसे मरण पूर्व  सुअर ,कुत्ता आदि शरीर धारण करने का सुखानुभव पहले ही मिल रहा है। जो उस योनि में जाने पर एक सांस्कारिक अनुभव का काम भी दे सकेगा। इसीलिए प्रकृति ने मानव शरीर देकर उसे टू इन वन,थ्री इन वन ,फ़ॉर इन वन नहीं, 'मल्टी इन वन ' बना दिया है। 

            हर रूप में आनंद का लाभ वह इच्छानुसार ले सकता है। ले भी रहा है।कुछ ऐसे मानव देहधारी 'महापुरुष' हैं ;जो प्रत्यक्षत: नेता ,अधिकारी या मठाधीश हैं ,लेकिन परोक्ष रूप में उनमें रक्त   चूषक मशकों  के  सभी  लक्षण विद्यमान हैं ,और वे निर्भय होकर रक्त - चूषण की क्रिया में अहर्निश संलग्न हैं। कोई रोकने -टोकने वाला भी नहीं है।उनके लिए न कोई 'आल आउट' है , न अगरबत्तियां औऱ न ही कोई कॉइल निर्माण हुआ है।देश भक्त के आवरण में वे मच्छराधिपति बने हुए जन-जन का अलंकार बने हुए हैं।ऐसा नहीं कि उन्हें गेंदा औऱ गुलाब की भारी - भारी मालाओं में दुर्गंध आती हो। वे उन्हें बहुत ही प्रिय हैं।उन्हें अन्य प्रकार की जगत -गतियों में कोई रुचि नहीं है । रूप -स्वरूप बदल कर अपना उल्लू सीधा कर लेना उनका विशेष गुण है।

           इनके दर्शन लाभ प्राप्त करना भगवान के दर्शन से भी दुर्लभ कार्य है। मूढ़ बनकर मलाई चाटना मानव की रहस्यमय बुद्धि की अति विशिष्ट उपलब्धि है।उसका बहुरूपियापन उसका विशेष गुण है। आदमी की देह में वह सभी जगह समायोजित हो जाता है।कहीं कोई कठिनाई आड़े नहीं आती।उसका 'मूढ़' बने रहकर घाघपन करना उसका गुण ही बन जाता है।आंनद के विविध स्रोतों से अनुभव प्राप्त करके वह अपने परिजन और इष्ट मित्रों ही नहीं अपनी सत्तर -सत्तर पीढ़ियों को लाभान्वित करने का पुण्य प्राप्त कर लेता है।

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २५ मई २०२२◆ ७.०० पतनम मार्तण्डस्य।

गंगामय हरिद्वार 🏞️ [ दोहा गीतिका]


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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हरि  की  पौड़ी पर लगा, भक्तों का दरबार।

करते हैं   किल्लोल  वे, गंगामय   हरिद्वार।।


दूर   प्रदेशों  के  चले, शहरों से   नर - नारि,

गंगाजल भी भर लिया, सुरसरि का उपहार।


देखा  तीव्र  प्रवाह  को, थाम शृंखला  लौह,

अवगाहन जल में किया शीतलतम जलधार


पौड़ी  के  हर  घाट पर, जनरव का  आनंद, 

नहलाती  माँ  पुत्र को, दे  गंगा  का  प्यार।


गंगा  माँ  की  आरती, करते हैं सब  लोग,

बजा घण्ट घड़ियाल वे,बढ़ती भीड़ अपार।


संध्या - वेला  आ  लगी, रोका गंग - नहान,

झूम   रहे   आंनद  में ,  बैठे  लगा   कतार।


दानी  करते  दान  भी,  याचक माँगें  भीख,

आटे की नम गोलियाँ, झपट रहीं झख धार।


पूजा  के  बाजार  की, रौनक का  आनंद,

भक्त  घूमकर  ले  रहे,गंगा नाम    उचार।


'शुभम्' पुण्यकर्ता सुजन,को पुकारती मात,

आ   गंगा   स्नान  कर,  कर दूँगी   उद्धार।


🪴 शुभमस्तु !


२५०मई२०२२◆२.००

पतनम मार्तण्डस्य।

प्रकृति के बहुरंग 🌈 [ दोहा ]

 

[बिजली,पानी, हवा, तूफान,आँधी]

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✍️ शब्दकार  

 🌈 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      🏞️ सब में एक🏞️

ले बिजली को अंक में,मेघ हुए   बरजोर।

मौन  धरा  को  डाँटते,  करते रव घनघोर।।

बिजली-सी  कौंधी हिये, आई  तेरी  याद।

नाद  नहीं   कोई  उठा,  करती तू   संवाद।।


पानी जीवन जीव का, खलता सदा अभाव।

पानी बिना न चल सके,पड़ी रेत   में  नाव।।

अति दोहन करना नहीं, पानी का  हे मीत!

पानी  रहा न आँख में,होगा सब   विपरीत।।


पछुआ चलती जेठ में,व्याकुल हैं  जन जीव।

रुख बदलेगी जब हवा,घर आएँ तव पीव।।

हवा  हेकड़ी  हो  गई,आया मास    अषाढ़।

सूरज   दादा  जा   छिपे,छाए मेघ    प्रगाढ़।।


ऐंठ नहीं दिखलाइए, बनकर नर  तूफान।

क्षणिक ताव होता बुरा,रहता नहीं  निशान।।

मिलता  है  निर्वात जो,उठता रव  घनघोर।

क्रीड़ा हो तूफान की, हिला धरा  के छोर।।


समझ नहीं नर बावले,ये आँधी के  आम।

समय बचा रत हो सदा,बनें सभी तव काम।

आँधी या  तूफान का,एक बड़ा    विज्ञान।

कुछ घड़ियों के बीच ही,करते हैं  अवसान।।


        🏞️ एक में सब 🏞️

आँधी, पानी या  हवा,

                     बिजली या तूफान।

कहर  ढहाते  जब  कभी,

                       मचे     त्राहि भगवान।।


🪴 शुभमस्तु !

२५ मई २०२२◆५.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 24 मई 2022

झूठे पड़ते हुए मुहावरे 📲 [ व्यंग्य ]

 

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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     रेलगाड़ी अपनी तेज गति से आगे बढ़ती हुई जिस प्रकार पेड़ - पौधों, शहरों ,गाँवों, शहरों और स्टेशनों को पीछे छोड़ती हुई आगे चलती चली जाती है, (यह अलग बात है कि वही गाड़ी पुनः लौटकर उसी पटरी पर आती भी है।और पुनः- पुनःउसी यात्रा पथ की पुनरावृत्ति भी करती है।) उसी प्रकार मानव -जीवन में प्रचलित अनेक मुहावरे पीछे छूटते जाते हैं औऱ समय की रेलगाड़ी पुनः नहीं लौटती ;इसलिए वे भी लौटकर नहीं आते। वे पूरी तरह झूठे पड़ जाते हैं। 

    आदमी के कभी चुप न बैठने की आदत को लेकर एक प्रचलित मुहावरा होता था ,क्या रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह किच -किच लगा रखी है! पर जब उस दिन मैं रेलगाड़ी में यात्रा पर लखनऊ जा रहा था, तो मुझे उक्त मुहावरा औंधे मुँह पड़ा हुआ पूर्णतः शांत पड़ा मिला। 

          बात सात मई 2022 की है। मुझे अपने बेटे के साथ युगधारा फाउंडेशन लखनऊ द्वारा एक बड़े अखिल भारतीय समारोह में आमंत्रित किया गया था ,जहाँ मुझे 'साहित्य शिरोमणि सम्मान:2020' (मानद) प्रदान किया जाने वाला था। पूर्व निर्धारित स्टेशन से पूर्व आरक्षित कोच में आवंटित बर्थ पर हम लोग आसीन हो गए।रेलगाड़ी अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी। 

         सिसकते हुए नहीं ,दम तोड़ चुके मुहावरे को शांत मुद्रा में पड़े हुए देखा तो न जाने कैसे -कैसे भाव मनो मष्तिष्क में घूमने घनघनाने लगे। रेलगाड़ी का कोच रेलगाड़ी का न होकर घर का पूर्णतः शांत कक्ष लग रहा था।कहीं कोई चूं चकर नहीं थी,किसी को किसी की फिकर नहीं थी। किसी की किसी से किसी की जिकर नहीं थी।सब जागते हुए सोए जैसे मौन आसन में तल्लीन थे।कहीं कोई ध्वनि नहीं, छुन छुन्नन छुन भी नहीं।सभी के हाथ में जादू जैसी डिबिया सुशोभित हो रही थी।कुछ के कान में ढक्कन लगे हुए थे ,जिससे वे बाहर की नापसंद ध्वनियों से अनभिज्ञ थे।अपने - अपने अस्तित्व से सुविज्ञ थे। न कोई किसी से बतिया रहा /रही था/थी। न कोई हँस रहा था ,न रो ही रहा था। बस एक सन्नाटा पसरा हुआ था। जैसे किसी के घर में भयंकर खसरा हुआ था। न छोटे बच्चों की चिल्ल -पों, न फेरी वालों की हों- हों। हमारा तथाकथित मुहावरा दम तोड़ चुका था। 

    विश्व का आठवां आश्चर्य ये है कि स्टेशन पर बैठी हुई चार स्त्रियाँ शांत बैठी हुई थीं। पर यहाँ तो पूरे कोच में लगभग आधी से अधिक स्त्रियाँ ही थीं। पर वहाँ भी मुहावरे की कोई भी जिंदा होने की निशानी शेष नहीं थी। क्या पुरुष ,बालक,युवा ,किशोर, प्रौढ़ ,वृद्ध ! क्या किशोरियां, विवाहिताएं अथवा अविवाहिताएँ, सबका एक ही हाल था। ऐसा नहीं कि वह तथाकथित जादुई डिबिया मेरे और बेटे के पास नहीं थी, किन्तु वह हमारे पेण्टों की जेबों में कुछ भिन्न प्रकार से शांत पड़ी हुई थीं। वे किसी प्रकार की ध्वनि ,लय, संगीत आदि का निष्क्रमण नहीं कर रही थीं। 

              ये चर्चा तो मात्र एक मुहावरे की है। ऐसे न जाने कितने मुहावरे और कहावतें दम तोड़कर अत्याधुनिक टेकनोलॉजी की भेंट चढ़ चुके हैं। यह भी एक गंभीर शोध का विषय है।देखते- देखते पिछले बीस वर्षों से ही आदमी कितना आत्मकेंद्रित होकर कछुआ वृत्ति में अपनी लम्बी ग्रीवा को भीतर घुसेड़ चुका है। कानों पर ही नहीं,उसकी आत्मा, दिल औऱ दिमाग पर भी ढक्कन लग चुके हैं। वह जो देख रहा है , वह दर्शनीय है अथवा नहीं; यह कोई नहीं जानता।क्योंकि कोरोना की बीमारी की तरह मास्क के ढक्कन मुँह की तरह कहाँ नहीं लग चुके हैं ? आदमी कहाँ जा रहा है,किसी को कुछ भी नहीं पता। उसे अपना नहीं पता तो दूसरों का पता क्या जानेगा? इतना निश्चित रूप से सत्य है कि यह मानवीय भविष्य का सु- लक्षण नहीं है। असामाजिकता, आत्म केन्द्रीयता, आत्म संहार के ये पूर्व लक्षण कहाँ ले जाएँगे; अनिश्चित भविष्यत के गर्भ में है।

 🪴 शुभमस्तु !

 २४ मई २०२२■◆७.३० पतनम मर्तण्डस्य।


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मुश्किलें 🎇 [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार©

🎇 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                          -1-

जिंदगी में आदमी को हैं नहीं कब  मुश्किलें,

कौन कहता है कि हल होती नहीं ये मुश्किलें,

बन प्रमादी हाथ पाँवों को नहीं तुम रोकना,

जो चला अनथक पथों में दूर होतीं मुश्किलें।


                        -2-

कर्मपथ पर जो चला है मंजिलें मिलतीं उसे,

रुकता नहीं थकता नहीं शूलपथ पर जो घुसे,

मुश्किलें उस धैर्यशाली को न आड़े आ सकीं,

पाहनों से शैल पर देखा न जल  कैसे   रिसे !


                        -3-

अधर पर मुरली सजी  तो हाथ में भी चक्र था

योग योगेश्वर कन्हैया  नवनीत खाता तक्र का,

मुश्किलें इतनी पड़ीं पर लौटकर  देखा नहीं,

कृष्ण की उस भाललिपि का लेख बेढब वक्र था।


                        -4-

बैठा रहा तट पर धरे निज हाथ में तू हाथ को

सरित को  कैसे तरेगा ढूँढ़ता जो  साथ   को,

पार  करना  है  अकेले नाव खेनी  आप   ही,

मुश्किलें आड़े उसे हैं ठोकता निज माथ को।


                        -5-

कोशिशों  का ज्वार यों तेरा नहीं   ठंडा  पड़े,

मुश्किलें  सब पार होंगीं राह में  जो तू अड़े,

चींटियों को देख ले मिलतीं उन्हें गिरिचोटियाँ

'शुभं' कर अपने इरादे फौलाद-से पक्के कड़े।


🪴 शुभमस्तु !


२४ मई २०२२◆२.००

पतनम मार्तण्डस्य।


माँ की छाया 🏔️ [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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संतति के हित  माँ की छाया।

किसे न माँ का नेह लुभाया!!


माता  है जग   की  कल्याणी।

सीता, रमा,शक्ति ,माँ वाणी।।

सकल सृष्टि पर उनका साया।

संतति के हित माँ की छाया।।


देती जन्म  जननि  कहलाती।

पिला दूध  पोषण  करवाती।।

थपकी  देकर   पूत   सुलाया।

संतति के हित माँ की छाया।।


संतति   की    रक्षा   में  सूखे।

खा लेती भोजन   माँ  रूखे।।

गीले बिस्तर   सो सुख पाया।

संतति के हित माँ की छाया।।


आजीवन हित-चिंतन करती।

संतति के सुख जीती-मरती।।

समता  में  है   कौन  समाया!

संतति के हित माँ की छाया।।


शक्ति  - स्वरूपा  माता होती।

देती है  संतति  हित   मोती।।

निशि दिन कष्ट उठाती काया।

संतति के हित माँ की छाया।।


माता का   उपकार   न  माने।

लगते   रौरव  - ताप  सताने।।

क्यों नर- जन्म जीव ने पाया?

संतति के हित माँ की छाया।।


मानव  -  तन है भाग्य हमारा।

आजीवन है जननि -सहारा।।

'शुभम्' मात ने सुत अपनाया।

संतति के हित माँ की छाया।।


🪴 शुभमस्तु !


२४ मई २०२२◆ ११.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

पावन शीतल गंगाधारा 🏞️ [बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गंगा   माँ   की  पावन  धारा।

करती है   कल्याण   हमारा।।


हरिद्वार   को   हम   जाते  हैं।

सीढ़ी   बैठ   नहा   आते  हैं।।

है  विशाल रमणीक  किनारा।

गंगा  माँ   की   पावन धारा।।


 गंगोत्री   से   बहकर   आती।

औषधिमय शीतल जल लाती

सुख  पाता  जो पथ में हारा ।

गंगा माँ   की   पावन  धारा।।


हरती   रोग   पाप   माँ गंगा ।

जाता   कोई   पापी    नंगा।।

देती   सबको   सदा  सहारा।

गंगा माँ   की   पावन  धारा।।


पथ गंगा के   अति   पथरीले।

ऊँचे  पर्वत,   वन, भी  टीले।।

मनसा   देवी   पर्वत    न्यारा।

गंगा  माँ   की पावन   धारा।।


नीलकंठ, ऋषिकेश सुपावन।

लक्ष्मण झूलाअति मनभावन।

झूला राम   नाम   का  प्यारा।

गंगा माँ     की  पावन धारा।।


🪴 शुभमस्तु !


२४ मई २०२२ ◆८.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 20 मई 2022

आदमी 👫 [ अतुकांतिका ]

  

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✍️ शब्दकार ©

👫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सड़कों पर

गलियों बाजारों में

ट्रेनों बसों हवाई जहाजों में

घरों होटलों बारातों में

आदमीनुमा ढाँचे

घूमते टहलते खड़े बैठे

सोते जागते झगड़ते 

मिल जाएंगे,

वे आदमीनुमा तो हैं,

किन्तु  क्या आदमी भी हैं?

यह एक ज्वलंत प्रश्न है।


आदमीयत 

कोई और चीज है,

जो आदमीनुमा ढाँचे को

आदमी बनाती है,

जब वही नहीं 

तो आदमी क्या?

औऱ क्यों?

बस ऐसे ही है

कपड़े की दुकान पर

निर्जीव खड़े हुए

 आदमी  औरत,

खजुराहो के मंदिरों की

बनी पाषाण प्रतिमाएं!

क्या इनसे आदमियत की

कुछ उम्मीद लगाएं?


ऐसे ही बहुत से लोग

एक ढाँचे में धरती पर

आते हैं,

और चले जाते हैं!

जैसे  चिड़ियाघरों में

घूमते हुए शेर, चीते ,भालू,

किसान के खेत में

ढेर सारे टमाटर ,आलू!


आदमियत कहाँ शेष 

रही है पुतिनों में,

जहर पिला रही

दूध वाली पूतनाओं में!

'आम' को रात दिन 

चूस रहे कुर्सी नसीनों में?


मर चुका है

जिनकी आँखों का पानी,

सजी हुई हैं आज

उन्हीं से राजधानी,

यही तो खोज करें 

अनुसंधानी ,

क्या आदमी है 

इसका सब मानी?


आदमी बस 

कुछ ही शेष हैं,

आदमेतरों से भिन्न 

देखो वे

 पीछे- पीछे जा रहे

झुंडों में मेष हैं,

बस वे 

आदमी के ढाँचे में हैं! 


🪴 शुभमस्तु !


२०मई २०२२◆ १०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 19 मई 2022

कछुआ 🗾 [अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कछुआ एक वृत्ति है,

पर यहाँ तो

व्यक्ति ही कछुआ है,

जिसको बनाने वाला

भी व्यक्ति मछुआ है,

जो अब तक

बनाया जाता रहा ,

जितना भी सह सकता था

खूब सहा,

पर अब तो 

जाता  नहीं रहा!


उसे बताया गया

हिंदुस्तान में 

ताजमहल से सुंदर

कुछ भी नहीं है,

बस जो रटा दिया

वही सही है।

परंतु आज वह 

झूठ हो गया,

हजारों मंदिर 

एक नहीं

हजारों गुणा सुंदर

हजारों वर्षों से

अपनी यश पताका

उच्च आकाश में

बुलंद कर रहे,

हमने सोचा कि

ये सच भी

कोई हमसे कहे,

पर आज वह

 सिद्ध हो गया,

जगत में प्रसिद्ध हो गया।


बैठे रहे बने कछुए

झूठे इतिहास को

रटाते रहे,

खुली आँखों में

मूर्ख बनाते रहे,

सियासत के चूल्हों पर

रोटियाँ सेंक खाते रहे,

 वाम पंथियों के चंगुल में

अपने को  फँसाते रहे।


अब तो कछुए ने

अपनी ग्रीवा 

बाहर निकाल ली है,

पूर्व से पश्चिम

उत्तर से दक्षिण

वास्तु के सहस्रों

प्रतिदर्श ,

भारतीय संस्कृति के 

 उच्च आदर्श,

जिनका कोई जोड़

नहीं है,

उनके लिए धरती पर

उपमाएं भी नहीं हैं,

वे मात्र उन्हीं जैसे हैं,

अब कछुए की

ग्रीवा बाहर देख रही है।


🪴 शुभमस्तु !


१९ मई २०२२◆ ४.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

गोबर पर नवनीत 🎏 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गोबर   पर  नवनीत  सजाना,

मुझे     नहीं      भाता       है।

घड़ियाली    आँसू    से  रोना,

तनिक     नहीं   आता     है।।


नेता  ने   अभिनेता   बनकर,

बदल    लिया  निज    बाना।

लुभा शहद -सी  मधु बातों में,

सीखा        मूर्ख     बनाना।।

बिना   बादलों   के  अंबर से,

नित    वर्षा    करवाता    है।

गोबर  पर   नवनीत  सजाना,

मुझे      नहीं      भाता     है।।


देश - देश   चिल्लाने   भर से,

देश    नहीं     ये      बदलेगा।

शौक  चूसने  का 'आमों'  को,

तहस - नहस  सब कर देगा।।

चरित  नापने    का    पैमाना,

क्यों  न  बनाया   जाता   है।

गोबर  पर  नवनीत   सजाना,

मुझे    नहीं       भाता      है।।


काला  अक्षर    भैंस   बराबर,

बन    मंत्री    करता   शासन।

पढ़ा -  लिखा  डिग्री धारी नर,

चालक   बन   ढोता  राशन।।

एक  प्रशासक   भारत   सेवी,

पीछे -  पीछे       आता     है।

गोबर  पर   नवनीत  सजाना,

मुझे     नहीं      भाता      है।।


अंधे   बाँट      रहे    रेवड़ियाँ,

ढूँढ़  - ढूँढ़      घर   वालों   में।

कलई   भले   धुले  गालों की,

बचते  लगा  सु -  ढालों   में।।

पड़ी  हथकड़ी  जब हाथों में,

कैसा   वह     मुस्काता     है!

गोबर  पर  नवनीत   सजाना,

मुझे      नहीं     भाता      है।।


धरती   जब   रोती है  प्यासी,

पौधारोपण        होता      है।

एक   बार   जो   गर्त   खुदे हैं,

बार -  बार  तरु    बोता   है।।

एक   पेड़   को  रख गड्ढे  में,

नेता    घर    भग   जाता   है।

गोबर पर   नवनीत   सजाना,

मुझे       नहीं    भाता      है।।


बिना   गाय   के दूध   हजारों,

टन मन   घृत  - भंडार    भरे।

मधुमक्क्खी के बिना शहद के

पीपे      देखें    खड़े    खरे।।

नकली औषधियाँ खा-खाकर,

रोगी   मर - खप   जाता    है।

गोबर पर   नवनीत   सजाना,

मुझे    नहीं      भाता      है।।


पैसा  ही   आदर्श   यहाँ   पर,

नैतिक   मूल्य   नहीं     चाहें।

मनुज कामिनी  का   सत्संगी,

फैला   खड़ा    सबल   बाँहें।।

'शुभम्' सत्य पथ पर चलने में

मानव  - उर     घबराता    है।

गोबर  पर  नवनीत   सजाना,

मुझे    नहीं       भाता     है।।


🪴 शुभमस्तु !


१९ मई २०२२◆ २.००पतनम मार्तण्डस्य।

आँगन -आँगन में दीवारें 🏕️ [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आँगन -  आँगन  में     दीवारें,

सड़कों पर     जन- रेला    है।

ठोड़ी  पर टिक  रही   हथेली,

मानव    यहाँ   अकेला    है।।


कहते  थे  कुटुंब   वसुधा  को,

सभी    किताबी    बातें     हैं।

सोदर  बना   शत्रु  सोदर का ,

प्राणघात     की    घातें    हैं।।

नभ   में  घूम   रहे  ज्यों  तारे,

बना     मृत्तिका      ढेला   है।

आँगन   -   आँगन  में  दीवारें,

सड़कों   पर  जन -  रेला है।।


कोरे     आदर्शों    की    बातें,

भाषण   सब    बकवासी  हैं।

नेता  चूस    रहे   जनता  को,

सुघर     लक्ष्मी   दासी    हैं।।

बाँटा    अन्न   बिना   पैसे  के,

डाला     नाक    नकेला    है।

आँगन -   आँगन   में   दीवारें,

सड़कों  पर   जन -  रेला है।।


देशभक्त   का   ढोंग  बनाया ,

रँगे    हुए      कपड़े      पहने।

कनक- कामिनी से चुँधिआए,

भरे      कोठरी     में    गहने।।

लच्छेदार      जलेबी     जैसी,

मधु    बातों   का    भेला   है।

आँगन -  आँगन    में   दीवारें,

सड़कों  पर    जन - रेला है।।


छाया    वाले   पेड़    नहीं  हैं,

सड़कें     सूनी   -   खूनी   हैं।

मानसून     आए    भी   कैसे,

जलीं सड़क   पर   धूनी   हैं।।

नहीं  पथिक को छाया  पानी,

नर  पश्चिम    का    चेला   है।

आँगन -   आँगन   में   दीवारें,

सड़कों  पर   जन - रेला  है।।


दौड़  लगाते   गाँव   शहर की,

शहर    उन्हें    लतियाते    हैं।

दर  -  दर   दूध  बेचते जाकर,

क्रय   सब्जी   कर  लाते  हैं।।

कौड़ी  का  भी मोल   नहीं है,

गूँगों    का    जग    मेला   है।

आँगन -   आँगन   में   दीवारें,

सड़कों  पर   जन -  रेला है।।


🪴 शुभमस्तु !


१८ मई २०२२◆ ७.३० पतनम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 18 मई 2022

जीवन 🫧 [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीवन      सबका     अपना  -  अपना,

उतना    ही    फल      जितना  तपना,

परिजीवी       बन      कर   जो    रहते,

देख      रहे       वे        केवल   सपना।।1।


थलचर        जलचर      नभचर    रहते,

तीन   भुवन      में     क्या- क्या    सहते,

कर्मों      का       जीवन   शुभ    कर्ता,

मृतक       सदा      धारा      में   बहते।।2।


स्वावलंब         के     चरणों    पर   चल,

बहती   है     ज्यों    सरिता  कल  - कल,

जीवन         नई        दिशाएँ     देता,

चरैवेति         है          तेरा     संबल।।3।


मानव          देह        जीव      ने     पाई,

क्यों          धरती         पर    आ   इतराई,

होता     गर्दभ          अश्व   योनि        में,

रहती    जीवन       की     न   लुनाई।।4।


कर्म         योनि        मानव   यह     तेरी,

क्यों          करता      भोगों     में      देरी,

जीवन   जी       मत  शूकर      -    जैसा,

'शुभम्'       विदा     की बजती    भेरी।।5।


🪴 शुभमस्तु !


१८ मई २०२२◆ ८.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

माँ धरती अंबर पिता 🪷 [ दोहा ]

 

[ धरती,गगन,पाताल, त्रिलोक,त्रिभुवन ]

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      🪺  सब में एक   🪺

माँ धरती अंबर पिता,निज संतति के  हेत।

वांछित संतति से यही,करें वृद्धि नित सेत।।

धरती  प्यासी जेठ में,माँग रही   जलधार।

कब बादल ले अंक में,बरसाए निज  प्यार।।


विशद गगन-से हैं पिता, रहते  हैं बस मौन।

क्या संतति को चाहिए, उन्हें बताए कौन??

छाए मेघ अषाढ़ के,धरा मुदित  रति- चाह।

गगन भरे निज अंक में,आई मुख से आह।।


सप्त लोक भू-ऊर्ध्व हैं,सप्त निम्न पाताल।

जैसा  जिसका कर्म है,वैसा ही  हो  हाल।।

तम का नित साम्राज्य है,नागलोक पाताल।

दानव दैत्यों का जहाँ, होता सदा  धमाल।।


देवलोक  भूलोक सँग,और तीसरा   लोक।

कहते हैं पाताल है,नत त्रिलोक का शोक।।

कर्मभूमि त्रिलोक की,जीव सभी  स्वाधीन।

सत  कर्मों से स्वर्ग में,ऊँचा पद  आसीन।।


स्वर्गलोक भूलोक के,साथ दिव्य भुवलोक।

ग्रह नाक्षत्री दिव्यता,त्रिभुवन विमल अशोक

त्रिभवन-स्वामी आइए,करें जगत कल्याण।

हिंसा बढ़ती जा रही,सबका हो प्रभु त्राण।।


  🪺   एक में सब   🪺

त्रिभुवन से त्रैलोक में,

                       धरती    से पाताल।

गगन मध्य भटका सदा,

                        कर्म   सुरक्षा - ढाल।।


🪴 शुभमस्तु !


१८ मई २०२२◆७.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

मात पिता नहीं मान दियौ जिनु 🏕️ [ मत्तगयंद सवैया ]

 

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छंद विधान:

1.23  वर्णों का वर्णिक छंद।

2.सात  भगण (211) +2 गुरु.

3.  अपने चार  चरणों पर मतवाले (मत्त) हाथी (गयन्द) की  चाल से अग्रगामी होता हुआ छंद।

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                          -1-

घामनु  पाँव जरें  सजनी तन,

                  स्वेद  बहै  मुखहू  मुरझानों।

आँचरु भीजि   रहौ   लिपटौ ,

              सिमटाइ गयौ तन हू न समानों।।

शीत  सुमेरु  सुहाय रहे युग,

                  ढाँपि   लिए पट साँच सुहानों। 

कौन करै उपमा उनकी शिशु,

                 दूध पिबाइ  रही तिय  जानों।।


                         -2-

बेचन को दधि जाइ रही सखि

                  नंद गुपाल  खड़े मग माँहीं।

हाथनु दाम थमाइ कहै मति,

                 जाउ कहूँ हम ही सिग खाहीं।।

चों भटकौ  थकि जाउ सखी,

                पथ में तनिकै नहिं कुंजनु छाहीं।

जाइ कहा कहिएँ घर पै  तिय,

                बेगि जु लौटि चली घर आहीं।।


                        -3-

भीतर-भीतर आगि बरै बरसें,

                     अँखियाँ  जस सावन आयौ।

कन्त गयौ तजि मोहि सखी,

          पिक गाइ रहौ छिन नेंक  न   भायौ।।

भेजतु आँकु न एकु लिखौ घर,

               बीच  अमावस कौ  तमु   छायौ।

सावन में सिग झूलि रहीं निज,

                    पीतम संग जु पींग बढ़ायौ।।


                           -4-

मात-पिता नहिं मान दियौ जिनु,

                  देह वही अघ की अधिकारी।

मानव गात वृथा धरि कें जग,

                     में बजवावतु आपहिं तारी।।

रौरव  भोगि    रहौ   नित ही,

           कलहा  जु कहै सिगरी मति   मारी।

पामर भूलि गयौ  निजता घर,

             पालि   रहौ विष की दव   आरी।।


                         -5-

बीज बए कटु नीम न आवत,

                आम सुधा रस के मधु   भीने।

फूलत   फूल  धतूर  नहीं रस ,

                    पाटल  रंग धरे उरवी   ने।।

जो   जस   काज  करै जग में,

                  अँखुआ उपजाइ दएअवनी ने।

यौनि   सुधारि   न   लेहु सखे,

                बरबाद करे कितने  वरदी ने।।


🪴 शुभमस्तु  !

१७.०५.२०२२◆११.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


हमारे गुरु 🪷 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गुरु   बहुतेरी  सीख  सिखाते।

अँधियारे  को    दूर    हटाते।।


पहली गुरु निज जननी माता।

जिनको झुका शीशमैं ध्याता।

माँ  के  हाथ   अंक   दुलराते।

गुरु बहुतेरी सीख  सिखाते।।


जन्म  बाद  माँ  धरती  आई।

लिया गोद  में चोट  न पाई।।

रज में लोट सभी बिलखाते।

गुरु बहुतेरी सीख सिखाते।।


मिला अंश जो जनक हमारे।

पलता जीवन पिता -सहारे।।

उनसे उऋण न सुत हो पाते।

गुरु बहुतेरी सीख  सिखाते।।


माँ ने पहला  बोल सिखाया।

भाषा का रस घोल पिलाया।।

तब हम  पढ़ने  शाला  जाते।

गुरु बहुतेरी सीख  सिखाते।।


विद्यालय  में  शिक्षक   आए।

नित्य 'शुभम्' बहु पाठ पढ़ाए।

कलरव कर खग हमें सुनाते।

गुरु बहुतेरी  सीख  सिखाते।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०५.२०२२◆६.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 16 मई 2022

हे शिव शंभु कृपा करिहौ 🪦 [ मत्तगयंद सवैया ]

 

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छंद विधान:

1.23  वर्णों का वर्णिक छंद।

2.सात  भगण (211) +2 गुरु.

3. चार पद तुकांत।

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

जेठ चले पछुआ तरुणी सिर,   

                  ढाँकि  चली  मग में  घबराई।

जेठ कि  लाज  करै हर नारि,

                 बिना घुँघटा  कत बाहिर आई।।

जाइ  बरात   वु    काँपि  रही,

             अधनंग नची तजि कें     शरमाई।

माघहु    सोचि   रहौ   मन में,

          तजि  लाज दई इतराति   लुगाई।।


                        -2-

'आजु चलौ जमुना तट पै सखि,

                 कान्ह वहाँ निज धेनु    चरावें।

ग्वालनु के संग डाल कदंब कि,

               डारत    झूलहु  मोद     करावें।।'

'मो मन में डरु छाय रहौ घर,

                जाय कहा बतियाँ कहि   पावें।'

'का बस में अपने सजनी जब,

               राह में कान्ह खड़े मिलि जावें।।'


                        -3-

सावन में नित मेह  झरै बदरा,

                   झुकि  छाइ  रहे अति   भारी।

प्यास   बुझी   तपती  धरती,       

              हरषाइ  रही विरही ब्रज    नारी।।

दादुर टेर मची सर में मम,

                    दादुरि  बेगि न आवति प्यारी।

राति   गई   टर्रात  रहौ  मुख,

             फाड़ि  भई  सिगरी मम ख्वारी।।


                        -4-

हे  शिव  शंभु !कृपा  करि कें,

           सबकौ कल्याण करौ जगती में।

दारिद   दुःखहु  दूरि  करौ,

              उर-भीति निवारहु नाव नदी में।।

होय  न   रार  न  वार कहूँ ,

          सुख- शांति बयार बहै धरती में।।

सावन  में  बरसें  सरसें  नव,

              मेघ   सदा  वन में परती  में।।


                        -5-

जो जनती नर को जननी तहँ,

              छूत - अछूत कौ भेद न जानों।

राम नें मान दियौ शबरी  वन,

                ढूँढ़ि लई तृण खेद न मानों।।

मात गुरू कहलाति सदा भरि,

                 अंकहु मोद दियौ रति पानों।

नारिन   कौ   नित  मान करौ,

         परुषा निज गूढ़ अहं तजि आनों।।


🪴 शुभमस्तु  !


१६.०५.२०२२◆११.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


जेठागमन 🏝️ [ दोहा गीतिका]

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हुआ आगमन जेठ का,बहुओं ने की लाज।

सिर ढँककर पथ में बढ़ीं,मर्यादा के काज।।


फागुन   आए   चैत भी,चले गए     वैशाख,

गई  जेठ  के  संग में,अरहर करती    नाज।


जाती थीं बाजार को,खोल शीश निज केश,

अवगुंठित जूड़ा किया, देख जेठ  का  ताज।


सीमाओं को भंग कर,क्यों जाती   है  नारि,

जेठ  आ  रहे  सामने,बदल देह  का  साज।


नहीं किया सम्मान जो,पत हो पतित अनारि,

मन  ही  मन तव जेठ जी,हो जाएँ  नाराज।


सीमा सबकी है बँधी, सरिता, सिंधु, तड़ाग,

युग-युग  से आया चला, मर्यादा  का राज।


'शुभं' जेठ तो जेठ हैं,जनक जननि गुरुश्रेष्ठ

रविशशि मर्यादित सभी,राम कृष्ण ब्रजराज।


🪴शुभमस्तु !


१५.०५.२०२२◆६.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


आँगन 💮 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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घुटरुन खेले थे कभी,हम आँगन के  बीच।

देखा धूप न छाँव को,या बरसाती   कीच।।

आँगन  अब बनते नहीं,खींच दिवारें  चार।

कमरे  बनते जा रहे,नहीं धूप का   प्यार।।


माँ  आँगन  की धूप में, बैठ बिलोती  छाछ।

टपक रहीं निम्बौलियाँ,द्वार नीम  का  गाछ।।

मणियों  से आँगन बना,कान्ह निहारे  रूप।

मात यशोदा हर्षमय, लीन नंद ब्रज   भूप।।


आँगन की रज लोटकर, बड़े हुए  हम आज।

जननी  ने ले अंक में ,दिया नेह  का  ताज।।

आँगन  में चौपाल  के,मची होलिका    धूम।

रँग  बरसातीं भाभियाँ,देवर के  मुख   चूम।।


जब से आँगन में खिंची, बँटवारे  की भीत।

प्रेम विदा घर से हुआ,दिवस हुए  विपरीत ।।

संस्कार मिटने लगे, घर - आँगन  के   संग।

बँटा कक्ष  में  आदमी, हृदय हो   गए  तंग।।


आग नहीं  आँगन वही,अब है बढ़ती  आग।

खेलें  बैठें  नेह  से,घर  भर   में     अनुराग।।

बिखरे -बिखरे घर बने,आँगन का क्या काम!

नई   बहू  एकांत  में , माँग रही    आराम।।


अँगना से आँगन सजे,

                       रहीं न अँगना  शेष।

अँगना जब वामा बनीं,

                    बदले    'शुभम्' सुवेष।।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०५.२०२२◆ १२.१५

 पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 13 मई 2022

वरयात्रा' बनाम 'रवयात्रा' 🎺 [ व्यंग्य ]

 

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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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  आधुनिक युग में यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि 'स्वार्थ' किसे कहते हैं। किस चिड़िया का नाम है -'स्वार्थ'। भले कोई इसकी परिभाषा नहीं जानता हो ;किंतु उसका व्यवहारिक रूप उसके दैनिक जीवन का प्रमुख अंग है।वह अच्छी तरह इसे अपने दैनिक जीवन का व्यवहारिक रूप बनाए हुए है।

            किसी भी 'स्वार्थ' के दो रूप देखे जा सकते हैं। पहला 'एकल' या 'व्यक्तिगत' रूप है तो दूसरा 'समवेत' ,'सामाजिक' अथवा 'सामूहिक' रूप है। 'एकल स्वार्थ' से भरा हुआ आधुनिक संसार का एक - एक व्यक्ति इसका अति अद्भुत नमूना है। ''मैं न दूँ काऊ ,अकेला बैठ खाऊं।'' इसी लोकोक्ति सूत्र का अनुसरण संसार का मानव करता हुआ अपनी देश सेवा,समाज सेवा,जगत सेवा और जीव सेवा की डुगडुगी पीटता हुआ दिखाई दे रहा है। जिसके प्रमाण पत्र बनाने के लिए वीडियो बनाना, अखबार में खबरें छपवाना, सोशल मीडिया पर प्रेषित करना वह कभी नहीं भूलता।

        जब बात 'समवेत स्वार्थ' की होती है ,तो इसका सबसे सशक्त उदाहरण आधुनिक वरयात्राओं में देखा जा सकता है। वर के साथ उसका विवाह करवाने के लिए जाने वाले लोगों की यात्रा 'वरयात्रा' अथवा बारात कहलाती है। किंतु इस वरयात्रा के नब्बे प्रतिशत से भी अधिक यात्रियों का वर के विवाह से कोई लेना - देना नहीं होता।उनका लक्ष्य केवल औऱ केवल अपनी उदर - पूर्ति करके उल्टी दौड़ लगाना होता है। तरह - तरह के सुस्वादु व्यंजनों से भरी हुई लड़ामनियों पर सुस्वादु भोजन का आनन्द लेने के बाद अपने अथवा दूल्हे के पिता द्वारा प्रायोजित वाहन से सीधे घर आकर सोना ही उनका उद्देश्य है। वे चाहे इष्ट मित्र हों, मोहल्ले वाले हों, दूर के रिश्तेदार हों अथवा ब्यौहारी लोग , सब 'खाये औऱ भागे ' की दौड़ के प्रतियोगी प्रतीत होते हैं। रव करते हुए जाना और रव करते हुए भागे चले आना : बस इतनी सी बात है।वर का संग देना या उसे जीवन के नए अध्याय को पढ़ने का पाठ पढ़ाना किसी का भी काम नहीं होता। फिर ये कैसी 'वरयात्रा'? इसे यदि 'रवयात्रा' कहा जाए तो बेहतर है।भावी हसबैंड के साथ बैंड का रव ,बारातियों का खाऊं- खाऊं रव, डी जे का धमाधम रव ,शराबियों औऱ कुछ नचनियों का नृत्य रव, सर्वत्र रव ही रव। 

       आज के आदमी की यह सामूहिक स्वार्थवृत्ति की ऐसी जीवंत कहानी है ,जिसके लिए सारा समाज मौन है। समाज को सुधरना ही नहीं है ,तो कोई समाज सुधारक क्यों आगे आए! बेचारों के पास खाने के लिए समय तो है ,पर जिसकी 'वरयात्रा' के यात्री हैं ,उससे कोई मतलब नहीं ! 'समवेत स्वार्थ' की पराकाष्ठा है ये। इससे तो अच्छा है कि जितने लोग वर के साथ जनवासे में शेष रह जाते हैं,उन्हें छोड़कर किसी को भी नहीं बुलाया जाए।वर का पिता ,भाई, जीजाजी ,फूफाजी औऱ एक दो इने -गिने इष्ट मित्र ;और बस। क्यों व्यर्थ में लड़की वाले के धन ,भोजन औऱ अन्य सामान का अपव्यय किया जाए।ये कैसा 'ब्यौहार' कि खाये और भाग लिए! स्वार्थ की पराकाष्ठा का अद्भुत नमूना।

           मनुष्य की सामाजिकता की विलुप्ति यदि कहीं देखनी हो ,तो इन 'वरयात्राओं' में नहीं, इन 'रवयात्राओं' में देखिए। इनसे तो पशु -पक्षी ही बेहतर हैं। ऐसी विचित्र ढोंगी आधुनिकता औऱ स्वार्थवृत्ति के भविष्य का रब ही मालिक है। प्रदर्शन का ढोंग इन 'रवयात्राओं' के लिए पूर्णतः उत्तरदायी है।धन, धनाढ्यता और धनान्धता के दिखावे का 'व्यवहार' इस खोखले यात्राचार का कारण है। आदमी इतना गिरेगा ,सोचा भी न था। लेकिन अभी पूरी तरह गिरा कहाँ है ! बस देखते रहिए कि कितना नीचे जाता है। रसातल में तल नहीं होता।


 🪴 शुभमस्तु ! 


 १२.०५.२०२२ ◆ १०.०० पतनम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 12 मई 2022

रव यात्रा' 🎺🎷 [अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🎺 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बैंड भी था

साथ में होने वाला

हसबैंड भी था,

आए थे हँसी - खुशी

'वर यात्रा' में

मात्र उड़ाने के लिए

भरपेट दावत?


बैंड भी बज गया

भावी हसबैंड भी

जनवासे में 

रम गया,

स्वाद ले ले

उड़ा ली दावत,

अब क्यों यों

हो गई 

वर  से अदावत?

कि अपना मुँह मोड़

वापस चले आए!

घर वालों, फूफा,

जीजा के संग

उसे अकेला छोड़

चले आए!


ये भी कोई

वर यात्रा है?

तुम्हारे लौटने में

क्या किसी भी

प्रमाण की मात्रा है?

कि तुम वरयात्री हो

या  कोई  लुटेरे?

पेट के भुक्खड़

या भोजनभट्ट पिटारे?

साथ में आए थे

तो साथ भी निभाना था,

इस तरह 

वरयात्रा को

'रव यात्रा' बना

भोग उदरस्थ कर

चले नहीं आना था!


वाह री

स्वार्थ भरी

आधुनिकता?

रव के लिए

क्या बैंड बाजा

कम था !

उनकी पिपनियों 

धामाधम में नहीं

इतना दम था!

जो खाने भर का

'व्यौहार' निभाने

आना था,

उसके बाद

 रव करते हुए

'रव यात्रा' को ले

बिना वर ही

 चले आना था!


🪴 शुभमस्तु !


१२.०५.२०२२◆ ४.३०

पतनम मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...