शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

पोखर ताल प्रसंग 🪺 [ दोहा ]

 

[ताल,नदी,पोखर,झील,झरने]

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       🪸 सब में एक 🪸

जल-आशय में दीखता, तल वह होता ताल

गड़हा निर्मल नीर का,बतलाता निज हाल।।

पायल बजती पाँव में,बजती सुमधुर ताल।

मन मेरा वश में करे,गजगामिनि की चाल।।


क्षीणकाय गंगा  नदी,पतली - पतली  धार।

मंथर-मंथर  नाचती,पाने को निधि   प्यार।।

तपता  जेठ  निदाघ में,हुए शर्म   से  लाल।

नदी लजाती-सी  बढ़ी,सूख गए  हैं  ताल।।


आती  ऋतु बरसात की,उछले मेढक मीत।

पोखर में   टर्रा  रहे, चाल चले   विपरीत।।

पोखर में  गोते  लगा, खेलें बाल   किशोर।

चढ़े भैंस की पीठ पर,उठतीं सलिल हिलोर।


नैन- झील की माप का,हुआ नहीं अनुमान।

डूब गया आकंठ मैं,कामिनि तुझे न भान।।

मानसरोवर - झील में, मुक्ता  रखें   सहेज।

हंस उड़े जब शून्य में,करे काम  तव  तेज।।


अविरत झरने झर रहे, पर्वत  श्रेणी  स्रोत।

नाव नहीं  चलती  वहाँ, चले न कोई  पोत।।

झरने की जलधार का,देख नया शुभ रूप।

शुभं प्रकृति में जा रमा, अद्भुत दृश्य अनूप।


        🪸 एक में सब 🪸

ताल,नदी,पोखर सभी,

                        सूख  रहे  जल    स्रोत।

झील और झरने कहें,

                     कुपित  निदाघी  पोत।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०४.२०२२◆५.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

विषबेल 🪸 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् 

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भाभी के आनंद का ,हरण करे  जो   नारि।

ननद उसे कहते सभी,रहना सभी सँभारि।।


आनंदित करना नहीं, किसी ननद का काम।

भावज की कमियाँ लखे, नरक बनाए धाम।


भैया  से  चुगली  करे, ढूँढ़े भावज  -  दोष।

कच्चा हो यदि कान का,करे तिया पर रोष।।


ननदें  नित तकरार का,घर में  कारण  एक।

भाभी वह बड़भागिनी,जिसकी ननदी नेक।।


मात, पिता, भ्राता  सभी, करते हैं विश्वास।

सुता भूमिका ननद की,बन बैठी जब सास।।


समझे  ननदी आपको,सबसे ही  मतिमान।

भावज कचरा  बाहरी, काटे ननदी   कान।।


ननदी जिस घर में बनी,संचालिका प्रधान।

घर विनाश की राह में,गाता रौरव - गान।।


नारी ,नारी  के लिए, क्यों है आरी  मीत।

भरें पुरुष  के  कान दो,चाहें अपनी जीत।।


दिखलाती अभिजात्यता,नारी निज उत्कृष्ट।

घर में ठाने रार को,ननदी अति  पथभ्रष्ट।।


चूल्हे  - माटी के सभी,सत्य सभी ये   बात।

घर- घर में जो रार है, ननदी कारण  जात।।


नारी - नारी के लिए, क्यों बनती विषबेल।

भाई  का  घर  रौंदती, खेल रही  बहु खेल।।


🪴 शुभमस्तु !

२६.०४.२०२२◆७.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

सजल 🪷

   

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समांत:अस।

पदांत: है।

मात्राभार :16.

मात्रा पतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अरिदल की ढीली नस-नस है

जब से   हुआ   दीन परबस है


बीत   रहा   है   जीवन  रूखा

निचुड़ गया जीवन का  रस है


चमक-दमक ऊपर से कितनी

मेधा लेकिन  ठस  की ठस है


चमचे     दूध - मलाई    खाते

मिलता उनको अविकल जस है


दुनिया   त्रस्त  मरी   मानवता 

फैली   चारों   ओर   उमस  है


माँग  -  माँग  कर मान चाहते

पूनम   को   छाई   मावस   है


🪴 शुभमस्तु !


२५.०४.२०२२◆ ४.१५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

सजल ☘️


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समांत:आनी।

पदांत: है।

मात्राभार :14.

मात्रा पतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जीवन  जटिल    कहानी   है

बात   यही     समझानी    है


दोलन  बन  हिलता     मानव

बात   न   ये     बचकानी   है


धन्ना  धन    की      ढेरी   पर 

अदना      कोई      दानी    है


सुमन    सुगंधों     से    महके 

शूलों    में       शैतानी       है


अंधों    में       काना     राजा 

तनिक     नहीं     हैरानी    है


राम   राज्य   के   भाषण   हैं 

'शुभम'  किंतु    मनमानी   है


🪴 शुभमस्तु !


१८.०४.२०२२◆ ९.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


रविवार, 17 अप्रैल 2022

मारदेव' की मार ❤️ [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 ❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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            संसार में 'मार' की विकट मार भी अनंत है।इससे नहीं बचा कोई संत या असंत है।जैसा उसका नाम है। वैसा ही उसका काम है।इस भूमंडल पर इसीलिए उसका नाम है। उसी से सृजन है, संसार है। पर 'मार' की मार खाने के बाद मनुष्य कहता; 'ये दुनिया असार है।' बेचारा इंसान कितना लाचार है।फिर भी नहीं मानता कभी वह हार है। क्योंकि इस 'मार' से ही बनता उसका परिवार है।विश्वामित्र जैसे महा ऋषि ज्ञानी, पराशर मुनि आदि कोई भी नहीं बच पाए ,तो फिर एक सामान्य व्यक्ति की क्या सामर्थ्य कि 'मार' के हमले से संभले! उसके फूलों के धनुष औऱ फूलों के ही बाण कितने घातक हो सकते हैं,यह प्रत्येक घायल पुरुष जानता है। जो घायल न हुआ उसे शिखंडी मानता है।

                    'मार' के जन्मोपरांत नामकरणकर्ता ने बहुत ही सोच - समझकर उसका नाम रखा होगा कि इस नवजात का नाम 'मार' नाम से अभिहित किया जाता है ,क्योंकि इसका मुख्य कार्य मारना ही होगा।इसकी मार से मानव,देव,दानव, राक्षस, पिशाच, जलचर, थलचर ,नभचर कोई भी तो नहीं बच पाया। औऱ तो औऱ इसने तो भगवान शंकर पर भी डोरे डालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, भले ही देह विहीन होकर अदेह हो गया।पर अपना काम नहीं छोड़ा। छोड़ना भी नहीं चाहिए।एक सत्कार्य के लिए यदि शरीर का भी त्याग करना पड़ जाए, तो त्याग देने में ही जगत कल्याण है। यही तो उसकी कर्मनिष्ठा का सशक्त प्रमाण है। 

           अपनी निष्ठा की मार मारते - मारते 'मार' देवता हो गया ,काम का देवता और कहलाया 'कामदेव'। जैसे लोग अपने एक से एक उत्तम नाम रखवा लेते हैं ,अथवा उनके परिजन रख लेते हैं,वैसे ही काम के भी अनेक नाम प्रचलित हुए:मन्मथ,कंदर्प, मनसिज, रतिपति, रतिनाथ; परंतु सबसे सार्थक नाम 'मार' ही रह गया :;क्योंकि अनादि काल से यह मारने का काम ही करता आ रहा है। उसे कभी भी बूढ़ा भी नहीं होना। 'मार' की छत्रछाया से ही आच्छादित है पृथ्वी का कोना - कोना।काम ही है 'मार' का अनहोना।

      'मार' अमरदेव है।उसे भगवान शंकर भी पूर्णतः नहीं मार सके।यदि मर ही जाता तो 'मार' कैसे कहलाता! शरीर की क्या ? पर मन में जमा हुआ सबको मथता रहता है।अपने छंद के बन्ध की रचना रचता रहता है। और तो और इसके नाम को यदि उलट दिया जाए तो भी 'मार' से 'रमा' बन कर रमने लगता है।'मा' सृष्टि की उत्पादक है तो 'र' रति है ;नारी की प्रतीक।जिनके संयोग से सृष्टि का सृजन प्रतिपल ही होता रहता है।

           प्रायः मार कष्टकारी ही होती है। परंतु 'मार' की मादक मार का प्रभाव ही अलग है।वह वेदनात्मक नहीं है, आनन्दप्रद और सुखदायक ही है।इसलिए सारा संसार 'मार ' की सुखद मार का आनंद प्राप्त करता हुआ अपने भविष्य का निर्माण करता है। मानव के गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूड़ाकर्म, विद्यारंभ,कर्णवेध,यग्योपवीत, वेदारम्भ, केशांत, समावर्त,विवाह आदि सोलह संस्कार इसी 'मारदेव' के पूरक हैं । 'मार' की इसी रचनात्मकता की सारी दुनिया कायल है।सभी जीव- जंतु उसके प्रभाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उसके गुण गायन में तल्लीन हैं।

 'मारदेव' की मार से, कुसुमित यह संसार। 

 फूले-फलता झूमता,कर नारी से प्यार।।


 'मारदेव' की मार में,डूबे जन आकण्ठ। 

 बुद्धिमान ज्ञानी सभी, ऋषि मुनि कोरे लंठ।।


 'मारदेव' का तन मरा,जीवित केवल प्राण। 

 देकर अपनी देह को,किया जगत कल्याण।।


 'मारदेव' की मार में, मर मत जाना मीत। 

 जिसने जीता मार को , हुई उसी की जीत।।


 'मारदेव' बिन देह के, करते सृजन अपार। 

 पाराशर की मोड़ते, गंगा जी में धार।। 


 जय जय 'मारदेव' महाराज।


 🪴 शुभमस्तु ! 

 १७.०४.२०२२◆७.००पतनम मार्तण्डस्य। 

 ❤️🌱❤️🌱❤️🌱❤️🌱❤️❤️❤️ 


शनिवार, 16 अप्रैल 2022

उम्मीद [अतुकान्तिका ]

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✍️शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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उम्मीद की धुरी पर

टिका हुआ संसार,

सब कुछ

शुभ ही होगा,

अनुकूल होगा समय,

सभी हमारे अनुकूल होंगे,

और हम भी 

सबके अनुकूल हों;

ये भावना ही

भवितव्य को

सुखकर बनाती,

लक्ष्य तक पहुँचाती,

प्रशस्त करती हुई

हमारा आगामी पथ,

जीवन का रथ।


मन के हारने से

हार ही होनी है,

नई -नई मंजिल पर

चलने की नई फसल

बोनी है,

इसलिए मन को

अशक्त नहीं बनने देना,

हमारा मनोबल ही है

हमारी मजबूत सेना,

जीवन की परीक्षा में

हमें हर सवाल का

जवाब आता है,

यही हौसला तो

हमें निरंतर आगे

बढ़ाता है,

जिसे उम्मीद कहें

अथवा आशा,

सैनिक का मनोबल

उसे दुश्मन पर

विजयी

बनाता है,

यों तो 

जो सूरज उदयाचल पर

प्रातः तेज चमकता है,

वही संध्या को

अस्ताचल पर जाता है,

पुनः वही प्रातः

नया उजाला

फैलाता है,

उसी उज्ज्वलता की

 कामना में जियें,

उम्मीद का अमृत

'शुभम' नित पिएं।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०४.२०२२◆२.४५ 

पतनम  मार्तण्डस्य।

नशा [अतुकांतिका ]

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ .भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सुना ही नहीं ,

देखा भी है,

नशे में उन्मत्त

अंग्रेज़ी बोलने लगता है,

भले ही एक भी दिन 

कालेज क्या

मदरसे में भी नहीं गया हो,

हिंदी भी नहीं पढ़ी हो

पर बोलता है अंग्रेज़ी ही।


संभवतः

 नशा और अंग्रेज़ी का

कोई निकट का नाता है,

आवश्यक नहीं कि

नशा शराब का ही हो,

वह धन का बल का

विद्या का अविद्या का

कोई भी हो सकता है!


नशा शराब में नहीं

आदमी की

 सख्सियत में होता है,

 वरना बोतल 

स्वयं नाच उठती,

भंग ,नहीं करती

 भंग किसी की चेतना,

वह तो आदमी ही

भंग में निहंग 

बना बैठा है,

एक नाग फन का

दंश है,

तो दूसरा बिच्छू का

अंश है।


नशा नाश के

अत्यंत निकट है,

अपने ही अहं में

बड़ा विकट है,

उसे तो बस

अपनी ही बात की

एक रट  है,

उसे मिलनी चाहिए

सटासट है,

चाहे बिके परात

चाहे बिके घट है!


नशे के रँग में

जो फँसा है,

जैसे मकड़ा

अपने बनाए जाल में

स्वयं ही टंगा है,

उसी में मस्त है,

नशे से ही 'स्वस्थ' है,

सारी दुनिया एक ओर,

नशेबाज दूसरी ओर,

भले उससे कोई त्रस्त हो

नशेबाज  अपने में

मस्त है।


🪴शुभमस्तु !

१५.०४.२०२२◆१.००

पतनम मार्तण्डस्य।

समर्पण [ मुक्तक ]

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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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नहीं शर्त   का   संबल होता,

सुंदर सहज  समर्पण   होता,

दूर -दूर  तक स्वार्थ   नहीं  है,

खुलता वहाँ समर्पण -सोता।1।


जहाँ   समर्पण  प्रणय वहाँ है,

देशभक्त  का   स्वर्ग   वहाँ  है,

मैत्री-  भाव  समर्पण  शोभन,

मात्र  दान का भाव  जहाँ  है।2।


स्वार्थ भरा  मानव का मन  है,

लेने का    ही  सभी  जतन है,

सौदेबाजी,    नहीं     समर्पण,

लालच लिप्त मनुज का तन है।3।


स्वयं   समर्पण   करके  जानें,

मन की शांति   सभी पहचानें,

देने में जो   सुख   मिलता  है,

वहीं स्वर्ग   है  मानव    मानें।4।


सीमा  पर  सैनिक   प्रहरी  है,

मापहीन   श्रद्धा   गहरी     है,

कितना बड़ा समर्पण उनका,

पुण्य -मूल  नित सदा हरी है।5।


🪴 शुभमस्तु !


१५.०४.२०२२◆११ .१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

गागर की गरिमा [ बालकविता]

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✍️ शब्दकार ©

💧 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गर्मी   में  गागर   की  गरिमा।

कौन न जाने उसकी महिमा।


शीतल जल  सबको  है  देती।

प्यास देह की  वह  हर लेती।।


माटी  का   निर्माण  निराला।

बनते इससे कुल्हड़  प्याला।।


हँड़िया दिया सभी अति प्यारे।

नादें ,मटकीं   हैं सब   न्यारे।।


गागर का जल अति गुणकारी।

शीतलता   सुगंध   भी  न्यारी।।


कुम्भकार के श्रम का  सोना।

रूप   निराला   है अनहोना।।


आओ  माटी   को   अपनाएँ।

कृत्रिमता  को   दूर   भगाएँ।।


🪴शुभंमस्तु !


१२.०४.२०२२◆१.१५पतनम मर्तण्डस्य।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

बिच्छू और तितली 🦋 [ अतुकान्तिका ]

  

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 ✍️शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सभी हैं यहाँ

बिच्छू  भी 

तितलियाँ भी यहाँ!

अपनी - अपनी प्रकृति,

अपनी-अपनी गति,

जैसी प्रकृति 

वैसी ही मति।


बिच्छू को तो बस

डंक ही मारना,

कभी भी स्व प्रकृति

नहीं बदलना,

पहन लें भले

योगी की वेशभूषा

 चला जाए  प्रयागराज 

अथवा बन जाए मूसा,

जो भी मिले 

उसे अपना डंक घूँसा।


तितली तो 

जब भी निकली

सुंदरता ही बिखरी,

फूलों से मिलती

उड़ती फुदकती,

बस रस ही चूसती,

अपनी ही मस्ती में

इधर से उधर फिरती!


कोई तुलना नहीं

तितली की बिच्छू से,

जो आया 

करने जो काम,

नहीं सधेगा 

उससे कुछ औऱ

कर पाने का आयाम!

बिच्छू  तो बिच्छू ही रहेगा,

तितली तितली ही

रहेगी।


आदमी की देह में

बिच्छू भी हैं

तितलियाँ भी हैं हजारों,

कुछ बदले हुए वेष

रूप रंग  बदले हुए

लगाए मुखौटे,

धोखे का सामान!

जगत परेशान,

कैसे करें पहचान,

अपने स्वार्थ में

पुतिन भी 'देवता' है?

मित्रों के लिए,

वरना क्या है वह?

सारा जगत

देख रहा है

उसके दंशों को।

मानवता को विनष्ट

कर रहे महिषासुर

रावण और कंसों को।


🪴 शुभमस्तु !


०७.०४.२०२२◆१.३० पतनम मार्तण्डस्य।

सर्व तीर्थमयी माता 🪔 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

माता   गंगा   पावनी, सबसे तीर्थ    महान।

माता  चारों  धाम है,माँ  मानव  का   मान।।

माँ मानव का मान,वही शुचि मथुरा काशी।

रामसेतु हरिद्वार, जननि संतति अघनाशी।।

'शुभं' वही सुत श्रेष्ठ,नित्य जननी को ध्याता

सेवा हर दिन-रात,किया करता निज माता।।


                        -2-

माता  की माने नहीं,जो संतति  शुभ  बात।

तीर्थ सभी व्रत व्यर्थ हैं,करता है निज घात।।

करता  है निज घात, धतूरे- सा खिलता  है।

पापों का परिणाम ,सुता -सुत में मिलता है।।

'शुभम' जननि का रूप,धूप वर्षा में  छाता।

घर बनता सुरलोक,जहाँ पूजित  हो माता।।


                        -3-

माता है सब देवमय,पितर बसें   पितु   देह।

सभी तीर्थ उस गेह में,जहाँ प्रेम  निधि मेह।।

जहाँ प्रेम निधि मेह, बरसता झर-झर प्यारा।

नहीं डूबती नाव,सभी को मिले   किनारा।।

'शुभम'वही शुभ धामवही नर जग को भाता

जननि-जनक हैं तीर्थ,शक्ति श्री धी की माता


                             -4-

माता ने  निज  कुक्षि में,रखा तुम्हें  नौ  माह।

तन-मन  की हर भावना,तृप्त अधूरी  चाह।।

तृप्त  अधूरी  चाह, तीर्थ  हर यमुना - गंगा।

नहीं  वसन का  लेश,सर्वथा ही   था  नंगा।।

'शुभम'मान-अपमान,नहीं था उर में  आता।

जीवन की वह शान, श्रेष्ठतम होती  माता।।


                        -5-

माता   के   स्तन्य  में,  पावन गंगा  -  धार।

तीर्थराज की छाँव भी, उज्जयिनी हरिद्वार।।

उज्जयिनी हरिद्वार,अवध मथुरा या काशी।

कण-कण में ब्रजभूमि,वहीं रहते अविनाशी

'शुभम'पिता के साथ, पुत्र जो माँ को ध्याता।

नित उसका उद्धार,किया करते पितु माता।


🪴 शुभमस्तु !


०६.०४.२०२२◆२.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

इतराना क्या देह का ? 💃🏻 [ दोहा ]


[फसल,मिट्टी ,खलिहान,अन्न,किसान]

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✍️ शब्दकार ©

🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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     🌲 सब में एक 🌲

तिय - यौवन के खेत में,महक रहे हैं  फूल।

झूम भृङ्ग  भूँ-भूँ करें,फसल हुई  अनुकूल।।

स्वामिनि स्वागत में सजी,लदी शाख फलदार

पकी फसल के लोभ में,तन में उछले मार।।


महकी मिट्टी देह की, जीवित कंचन  गात।

मदमाती नित कामिनी,महक रहा अवदात।।

इतराना क्या देह का,मिट्टी का  यह   रूप।

यहीं दिव्य सुरलोक है,यहीं बना   भवकूप।।


तन ही तेरा  खेत है,तन  ही  है  खलिहान।

उत्पादन  होता  यहाँ,  करता नहीं   निदान।।

जीवन के खलिहान में, एक-एक कण बीन

जब  बोएगा खेत में, बीज उगें हर    तीन।।


जैसा  खाए अन्न तू, मन का  वैसा    रूप।

चुरा  अन्न जो  खा  रहे, गिरते अंधे    कूप।।

मन का ही उपवास है, नहीं अन्न- उपवास।

लार  टपकती अन्न को,करता नर  उपहास।।


तू किसान  नर  देह का, उपजा  चाहे  अन्न।

सोना,  हीरा, कोयला, चाहे पीतल     खन्न।।

वह किसान  होता नहीं,जो न  बहाए  स्वेद।

नौकर - चाकर  खेत  में,करते गहरे   छेद।।


            🌲 एक में सब 🌲

मानव   जीवन   खेत   है,

                  अन्न, फसल,    खलिहान।

मिट्टी से   सोना   उगा,

                          रे   नर  मूढ़  किसान।।


🪴 शुभमस्तु !


०६.०४.२०२२◆७.४५◆ आरोहणं मार्तण्डस्य।


सोमवार, 4 अप्रैल 2022

सजल 🌳


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समांत : इयाँ।

पदांत: अपदान्त।

मात्राभार :26.

मात्रा पतन:शून्य।

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 ✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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फल-भार से झुकने लगीं आम्रतरु की डालियाँ

कौन जाने गा रहा या दे रहा पिक  गालियाँ


ऋतुराज का स्वागत करें सद पवन ये कह रहा

भृङ्ग गुंजन कर रहे हैं आ रही हैं तितलियाँ


रात दिन बेचैन रहती विरहिणी निज सेज में

द्वार पर आ-आ चिढ़ातीं मदभरी मतवालियाँ


देह में लगने लगी है तप्त करती  आग-सी

बंध से निर्बंध क्यों हैं कसमसाती चोलियाँ


'शुभम' बूढ़े पीपलों के होठ रोली  हो  गए

खाल हरियाने लगी है बज उठी हैं तालियाँ


🪴 शुभमस्तु !


४.०४.२०२२◆९.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


रविवार, 3 अप्रैल 2022

वासंतिक नवरात्र 🌻 [ दोहा - गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वासंतिक नवरात्र का, 'शुभम' सुहृद उपहार।

दुर्गा  माँ  को  पूजता,  हर  हिंदू    परिवार।।


जगदंबा नव रूप में, करतीं जन - कल्याण,

करे  हृदय  से साधना,नौ दिन यह   संसार।


माँ देतीं  वैराग्य, तप, बुद्धि , ज्ञान -  भंडार,

संयम की नव चेतना, निज पावन  आचार।


माँ दुष्टों का नाश कर,करतीं अभय  प्रदान,

रहें न अघ के ओघ भी,देतीं अपना  प्यार।


आयु,मान,आरोग्य निधि, माता के वरदान,

कहीं भुजाएँ आठ दस,कहीं भुजाएँ  चार।


सिंहवाहिनी दे रहीं,  चार -चार   पुरुषार्थ,

देवी दानव  घातिनी, शुभदात्री प्रति    वार।


कर माँ की आराधना,विनसे भूत,  पिशाच,

ऊर्जा  मिले सकार की,रहे न शेष   नकार।


माता  गौरी  के  लिए, है न असंभव  काज,

सब कुछ वे संभव करें, मिटते हृदय विकार।


अष्ट सिद्धि माँ ही करें,निज साधक को दान,

'शुभम'साधना कर रहा,खुले नवम सिर द्वार।


🪴 शुभमस्तु !


०३.०४.२०२२◆५.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

नव देवी स्वरूप आराधना [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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माँ शैलपुत्री

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नौ  देवी   में  प्रथम है ,शैलसुता   का   रूप।

करें जगत -कल्याण माँ,गिरें न जन भवकूप।

हेमवती    वृषवाहिनी,  दाएँ हाथ     त्रिशूल।

हमें बचा माँ पाप से, कमल वाम कर फूल।।


माँ ब्रह्मचारिणी

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तप -आचरणी मात का,करते हैं  हम ध्यान।

देती हैं माँ सिद्धियाँ, तप, वैराग्य - निधान।।

ब्रह्मचारिणी  मात से,मिलता सत   आचार।

संयम  देतीं  भक्त को,देतीं 'शुभम'   उबार।।


माँ चंद्रघंटा

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अर्द्ध  चंद्र  आकार  का, सोहे घंटा    भाल।

सिंहवाहिनी  दशभुजा, चंद्र घंट  सुविशाल।।

माँ महिषासुरमर्दिनी, कर  दुष्टों  का   नाश।

कहलातीं चंदघंटिका, करें मुक्त   भवपाश।।


माँ कूष्मांडा

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कुसुम सदृश मुस्कान की,माँ कूष्मांडा  नेक।

अष्ट  भुजाएँ धारिणी, दें यश ,आयु,विवेक।।

पूरा ही ब्रह्मांड ये,  धर  निज गर्भ    महान।

देतीं  शुभ आरोग्य  माँ, कूष्मांडा   वरदान।।


माँ स्कंदमाता

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माता  सुत  स्कन्द की,सबल भुजाएँ   चार।

कमलासन  पर सोहतीं,खुलें मोक्ष के द्वार।।

यशस्विनी   स्कंद   माँ, गोद लिए     स्कंद।

कमल सुशोभित हाथ में,स्मिति मुख मकरंद


माँ कात्यायनी

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कात्यायन ऋषि के यहाँ,लिया सुता अवतार

कहलाईं  कात्यायनी, सुघर भुजाएँ  चार।।

सिंहवाहिनी  दे रहीं, चार -चार    पुरुषार्थ।

देवी  दानवघातिनी,   शुभदात्री   परमार्थ।।


माँ कालरात्रि

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कालरात्रि  माँ  सातवीं,चार भुजा दृग तीन।

असुरनाशिनी  रौद्रिणी,गर्दभ पर  आसीन।।

संहारक माँ  कालिका, राक्षस, भूत, पिशाच।

ऊर्जा सभी नकार की,नित्य जलाती आँच।।


माँ महागौरी

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श्वेत वर्ण भूषण  सभी,श्वेत वस्त्र  तन धार।

महागौरि  माता वही,सबल भुजाएँ    चार।।

सुखदात्री  अघनाशिनी,है न असंभव  काज।

जो न करे संभव सभी,सुख सौभाग्य सुसाज


माँ सिद्धिदात्री

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कमल पुष्प पर सोहतीं, सिद्धिदात्री माँ नाम।

अष्टसिद्धि की दायिनी,करता 'शुभम' प्रणाम

शिवजी ने जब तप किया,भारी तीव्र कठोर।

आधे  नारीश्वर  बने,सिद्धि गही    पुरजोर।।


🪴 शुभमस्तु !


०२.०४.२०२२◆८.००पत नम मार्तण्डस्य।


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[6:08 am, 03/04/2022] DR  BHAGWAT SWAROOP: 🌻 वासंतिक नवरात्र 🌻

            [ दोहा - गीतिका ]

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वासंतिक नवरात्र का, 'शुभम' सुहृद उपहार।

दुर्गा  माँ  को  पूजता,  हर  हिंदू    परिवार।।


जगदंबा नव रूप में, करतीं जन - कल्याण,

करे  हृदय  से साधना,नौ दिन यह   संसार।


माँ देतीं  वैराग्य, तप, बुद्धि , ज्ञान -  भंडार,

संयम की नव चेतना, निज पावन  आचार।


माँ दुष्टों का नाश कर,करतीं अभय  प्रदान,

रहें न अघ के ओघ भी,देतीं अपना  प्यार।


आयु,मान,आरोग्य निधि, माता के वरदान,

कहीं भुजाएँ आठ दस,कहीं भुजाएँ  चार।


सिंहवाहिनी दे रहीं,  चार -चार   पुरुषार्थ,

देवी दानव  घातिनी, शुभदात्री प्रति    वार।


कर माँ की आराधना,विनसे भूत,  पिशाच,

ऊर्जा  मिले सकार की,रहे न शेष   नकार।


माता  गौरी  के  लिए, है न असंभव  काज,

सब कुछ वे संभव करें, मिटते हृदय विकार।


अष्ट सिद्धि माँ ही करें,निज साधक को दान,

'शुभम'साधना कर रहा,खुले नवम सिर द्वार।


🪴 शुभमस्तु !


०३.०४.२०२२◆५.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...