बुधवार, 6 दिसंबर 2023

मार्गशीर्ष हेमंत ऋतु ● [ दोहा ]

 522/2023

 

[मार्गशीर्ष,हेमंत,अदरक,चाय,रजाई]

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      ●  सब में एक ●

श्रीकृष्ण-प्रिय मास है,मार्गशीर्ष शुभ मीत।

सब  पापों  से मुक्ति  को,गाएँ प्रभु के गीत।।

मार्गशीर्ष  पावन   बड़ा, गीता में   भगवान।

वास   यहीं   मेरा   रहे ,  कहते कृपानिधान।।


ऋतु आई हेमंत की,कार्तिक अगहन   मास।

पावनता इसमें भरी,स्वर्णिम सजल उजास।।

रोचक ऋतु हेमंत की,हिम का होता  अंत।

ग्रीष्म न पावस सोहती,शोभित नहीं  वसंत।।


शीतलता   बढ़ने  लगी, अदरक  लें   भरपूर।

प्रतिरोधक   क्षमता   बढ़े, सूजन मितली  दूर।।

अदरक  का  गुण है यही, रक्त - शर्करा  न्यून।

करता  पाचन ठीक ये, बढ़ती शक्ति  इम्यून।।


चीन   देश  से  विश्व में, फैल गई ये  चाय। 

स्वागत घर - घर चाय  से,उत्तम एक उपाय।।

नींद,दाँत,दिल  की  करे,सदा हानि ये चाय। 

सभी जानते तथ्य ये,फिर भी करें न   बाय।।


हुआ  आगमन शीत का,थर-थर काँपे  गात।

निकल रजाई आ  गई,  देती उसको  मात।।

कठिन  शीत  उपचार का,साधन सुंदर एक।

सभी  रजाई ओढ़ते, बिस्तर में ले    टेक।।


           ● एक में सब ●

मार्गशीर्ष हेमंत ऋतु,ले अदरक की चाय।

ओढ़ रजाई बैठ  जा,कितना श्रेष्ठ    उपाय।।


●शुभमस्तु !


06.12.2023●7.00आ०मा०

घर का न घाट का ● [ व्यंग्य ]

 521/2023 

 

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 ●© व्यंग्यकार

 ● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           पहले ये कहावत धोबी के कुत्ते के लिए प्रसिद्ध थी कि 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का।' किन्तु अब ये कहावत भले ही प्रसिद्ध न हुई हो पर आदमी पर शत प्रतिशत लागू हो रही है। यदि आप इस तथ्य को भली भाँति समझ लेंगे तो इसकी ख्याति भी बढ़ जाएगी।हम और आप जैसे लोग ही इसकी ख्याति को विस्तार भी देने लगेंगे। यदि आपको मेरी बात का विश्वास नहीं हो रहा हो तो घर से बाहर निकल कर देख लीजिए। 

         आप आदमी के जन्म से ही ले लीजिए। पहले आदमी औरत का बच्चा अर्थात हम और आप जैसे प्राणी कहाँ पैदा होते थे?आप कहेंगे कि घर में।अपने घर में हम सब का जन्म होता था ,जिसे सौरी घर या प्रसव कक्ष कहते थे। और नए जमाने के बच्चे कहाँ और कैसे पैदा हो रहे हैं ? आप कहेंगे :नर्सिंग होम में,हॉस्पिटल में, बस में ,ट्रेन में ,हवाई जहाज में और कभी - कभी तो अस्पताल के गेट पर , सड़क पर या रिक्शे में या ऑटों रिक्शे में । यदि प्रसूता या उसके पति का स्तर ऊँचा हुआ तो कार या एम्बुलेंस में भी पैदा होने का जुगाड़ कर लिया जाता है। कुल मिलाकर एक शब्द में कहें कि तब बच्चे घर में पैदा होते थे और अब घर के बाहर पैदा हो रहे हैं।

              जब पैदा हुए हैं तो कभी न कभी बीमार भी होंगे ही। पहले बीमार होने पर दादी माँ के नुस्खे या हकीम वैद्यों के चूरन चटनी ही हमें नीरोग करने के लिए पर्याप्त थे।और दो चार दिन गर्म पानी पीकर या लंघन करके अथवा रसोई घर के लोंग, इलायची,जीरा,काला नमक,हींग, मीठा तेल, देशी घी,दाल चीनी आदि से ही ठीक हो जाया करते थे। अब जब आदमी के स्तर में इज़ाफ़ा हुआ तो घर के ये सभी इंतजाम निरर्थक हो गए और सीधे अस्पताल में भर्ती करना अनिवार्य हो गया।अर्थात इलाज भी घर से बाहर। अब के पैदा होने वाली संतति के लिए घर भी किसी काम नहीं आया।वे बाहर से ही उपचार लेकर स्वस्थ होते हैं। 

                जो इस धरती पर आया है ,उसे जाना भी है। यह एक अनिवार्य सत्य है। यह सत्य तब भी सत्य था और आज भी सत्य ही है।तब के और अब के जैसे आने में अंतर आया है ,वही अंतर जाने में भी आ गया है। पहले लोग घर की चार दीवारी में चारपाई पर पड़े पड़े ही अंतिम साँस लेकर प्रस्थान कर जाते थे। किंतु आजकल के समय में दुनिया से विदा होने के तरीकों और स्थानों में भी बड़ा बदलाव आया है।अब तो अस्पताल में इलाज कराते -कराते या तो ऑपरेशन टेबिल पर आखिरी साँस छोड़ देते हैं अथवा भर्ती होने के बाद किसी सफेद चादर से आवृत बैड पर।कोई सड़क पर दुर्घटना में चला जाता है तो कोई आत्मघात कर विदा हो लेता है। विष ,आग,रेल की पटरी आदि अनेक ऐसे साधन या उपसाधन हैं ,जो घर की दीवारों से बाहर के ही हैं। 

          जन्म और अवसान के बाद किंचित चर्चा इन दोनों के बीच के पलों की भी कर लें तो समीचीन होगा। मनुष्य के जीवन का एक सुनहरा काल विवाह संस्कार का माना जाता है। पहले विवाह भी घर पर ही चार और एक पाँच बाँस का मंडप सजा कर अग्नि के सात फेरे ले लिए जाते थे। बस हो गया विवाह। बारात किसी खेत में या किसी बरगद,आम या नीम,शीशम के पेड़ के नीचे ,चौपाल आदि पर रोक दी जाती थी। और विवाह की सारी रस्में घर के अंदर ही सम्पन्न होती थीं।इसके विपरीत आजकल जमाना प्रदर्शन का अधिक और वास्तविकता का कम रह जाने से अलग बने हुए मैरिज होम , विवाह घरों ,गार्डनों, वाटिकाओं आदि में विवाह की रस्में पूरी की जाती हैं। अर्थात यह सब भी घर के बाहर ही होता है।

                 इस प्रकार आज के आदमी का सब कुछ घर से बाहर ही सम्पन्न हो रहा है।अब वह घर का रहा न घाट का।जीने से मरने तक का सारा इंतजाम घर से बाहर ही है। फिर ये घर किसके लिए ,किस काम के लिए हैं।जब घर , घर ही नहीं रहे तो वे फ्लेट,मकान या किसी अन्य रूप में परिवर्धित हो गए। घर की संस्कृति मर चुकी है। इसीलिए अब लोगों में घर के प्रति जो आत्मीयता का भाव पहले होता था ,अब नहीं रहा है। घर मकान हो गए।आदमी, आदमी न रहा ,फ्लैट हो गया !अपने अहं में ग्लैड हो गया। 

 ●शुभमस्तु !

 05.12.2023● 2.00प०मा० 


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सोमवार, 4 दिसंबर 2023

सुख की खोज ● [ व्यंग्य ]

 520/2023


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●© व्यंग्यकार 

● डॉ० भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           जीवन की सारी भागदौड़ सुख के लिए है।यह अलग बात है कि प्रत्येक जीव के लिए सुख की अलग - अलग परिभाषा है।सबकी अलग - अलग आवश्यकताएँ हैं। कुछ जीवों की आवश्यकताएं बहुत ही सीमित हैं तो कुछ जीवों का जीवन विस्तार ही बहुत बृहत है ,विस्तृत है। उनमें सम्भवतः मनुष्य का जीवन विस्तार अत्यन्त व्यापक परिधि को घेरे हुए है। मनुष्य और पशुओं की तुलना करते हुए कहा गया है: 'आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुभिर्नराणाम्। धर्मो हि तेषांमधिको विशेषः धर्मेणहीना: पशुभिः समानः।।' अर्थात आहार ,निद्रा ,भय और मैथुन मनुष्यों और पशुओं में एक समान (आवश्यकताएं) हैं।किंतु मनुष्यों में एक धर्म ही वह विशेष तत्त्व है ,जो उसे पशुओं से अलग करता है।धर्म से हीन मनुष्य तो पशुओं के समान ही है।

              इन चारों मानवीय विशेषताओं की आजीवन यात्रा इन चारों की पूर्ति की ही है। कितने मनुष्य ऐसे हैं ,जो धर्म का आचरण करते हैं और उसके आचरण और संवर्धन के लिए पशु से इतर जीवन जीते हैं। इसके विपरीत मनुष्य की सारी दौड़भाग एक गोल -गोल रोटी के चक्कर लगाने में ही पूरी हो जाती है।रोटी कमाने के लिए वह खेती,नौकरी,व्यवसाय,चोरी,डकैती,गबन,राहजनी, मिलावटखोरी,नेतागीरी, गुंडागीरी, जेबकटी,स्मगलिंग और न जाने कितने वैध और अवैध धंधे करता है और उन्हें करते -करते जिस संसार को असार कहता भर है , परंतु उसे ही सबसे बड़ा सार मानता है ; उसके लिए ही दिन -रात एक करता है। उसी संसार के लिए न पाप देखता है और न पुण्य ,धर्म देखता है न अधर्म, नीति देखता है न अनीति,वैध देखता है न अवैध -अपनी जी तोड़ शक्ति से करता है।

              मात्र रोटी (आहार)के नाम पर दुनिया का सारा बखेड़ा इस आदमी नामधारी जंतु द्वारा फैलाया गया है।जब रोटी मिल जाती है तो शरीर ढँकने के लिए कपड़े की आवश्यकता सामने आती है।इसलिए तरह- तरह के कपड़े सूती,टेरीन, टेरीकॉट,रेशम, खादी, ऊनी,लैदर,रैग्जीन,कृत्रिम रेशम और अन्य कृत्रिम धागों से बने हुए आवरण की खोज शुरू होती है।कपड़े की डिजाइनें, रंग, आदि का निर्माण विभिन्न कल - कारखानों में होने से उसकी आय के स्रोत बढ़ जाते हैं।जब उसे कपड़े मिल गए तो अपने रहने के लिए बड़े -छोटे भवनों का निर्माण भी वह करने लगता है। इस प्रकार एक आम या खास हर व्यक्ति को इन तीन आवश्यकताओं :रोटी,कपड़ा और मकान की पूर्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है। और इन्हें पूरा करते -करते उसका जीवन पूर्ण हो जाता है। धर्म को बुढ़ापे के लिए छोड़ देता है। किसी -किसी को तो बढ़ावा आने से पहले ही बुलावा आ जाता है। यदि सौभाग्य से उसे बुढ़ापे से दो -चार होना हो पड़ा तो इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। पहले तो हाथ पैर ही जवाब दे जाते हैं। न पैरों से चला जाता है और न हाथों से माला ही पकड़ी जाती है।आँखों से दिखता नहीं, कान सुनते नहीं, दाँत बे -दाँत होने लगते हैं। धर्म कैसे हो ?जब धर्म ही नहीं तो मनुष्य और पशु में अंतर ही क्या रह गया ?

            मनुष्य के लिए मान्य चार पुरुषार्थों में जिसे पहले ही स्थान पर रखा गया है ,उस धर्म को वह अंतिम पायदान पर रखकर लतिया धकियाता रहता है। और धकियाते -धकियाते वहाँ जा पहुँचता है कि समय का धक्का उसे ही ऐसा धकियाता है कि वह सीधा परलोक यात्रा पर सिधार जाता है।वह केवल दूसरे पुरुषार्थ अर्थ (रोटी,कपड़ा और मकान) तथा तीसरे पुरुषार्थ काम ( मैथुन तथा अन्य कामनाओं की पूर्ति) में ही जीवन गुजार देता है। इस प्रकार उसके आहार,निद्रा,भय और मैथुन की पूर्ति इन दोनों पुरुषार्थों में सम्पूर्ण हो लेती है। मोक्ष की साधना तो कोई करोड़ों जन में एक दो व्यक्ति ही कर पाते हैं। 

          अर्थ का विस्तार धर्म ,कर्म,पाप , पुण्य,प्रदर्शन,फैशन( क्रीम,इत्र, पाउडर,रूज,काजल,बिंदी,लिपस्टिक,गहने, चूड़ी, साड़ियाँ आदि) के अनन्त कोस तक फैला हुआ है।मनुष्य बस इसी में सिमट -लिपट कर रह गया है।रात -दिन इन्हीं के लिए मारामारी,खून पसीना बहाना, दौड़भाग, नौकरी ,दुकान, ,चोरी ,गबन,राहजनी,नेतागीरी, गुंडागर्दी,जन सेवा,स्वास्थ्य सेवा, कचहरी सेवा, दलाली सेवा,शिक्षा सेवा, कानूनी सेवा,राजस्व सेवा,डाक सेवा , रेल सेवा ,बस परिवहन सेवा ,हवाई सेवा ,ठगी, व्यापार , दूर संचार आदि करता हुआ संसार के मद मधुर सार का रस ग्रहण कर रहा है। इसी में सुख का सार तत्त्व का परिणाम प्राप्त कर रहा है।

                   मनुष्य को धर्म और अध्यात्म में कोई रुचि नहीं है। ये उसके सबसे नीरस और दुखद पहलू हैं।उसकी।मान्यता इन्हें गौण मानने में है। यही कारण है कि लाखों में कोई एक दो ही सच्चे संत बन पाते हैं। मनुष्य गृहस्थ आश्रम को भले ही तप मानता हो ,तीर्थ कहता हो। किन्तु आचरण उसके विपरीत ही करता हुआ देखा जाता है। दूसरों की दृष्टि में महान बनने के लिए वह तिलक ,छाप,माला , शॉल,दुशाला सब कुछ ग्रहण करता है किंतु वहाँ धर्म कम दिखावा अधिक है। फोटो खिंचाने, अखबार की सुर्खियों में आने, टी वी और सोशल मीडिया में कहर ढाने की उसकी मानसिकता आदर्श है। 'राम -राम जपना, पराया माल अपना ' की उक्ति सार्थक करने में आदमी कोई कोर कसर शेष नहीं छोड़ता।

                   मनुष्य की सुख की खोज की अनंत यात्रा है।सारा जीवन इसी में गुजार देना उसके जीवन का परम लक्ष्य है।यह यात्रा किसी गुबरैले ,केंचुए ,कुत्ते, सुअर की यात्रा से कुछ भिन्न नहीं है।अंतर मात्र इतना है कि वह बुद्धिजीवी और वे सब देहजीवी। मनुष्य कोई इनसे कम देहजीवी नहीं है।कर्म की परिणति उसे मनुष्य या मनुष्येतर जन्तु बनाती है।इसलिए आहार निद्रा भय और मैथुन की समानधर्मिता मनुष्यों और पशुओं को एक ही मंच पर लाकर खड़ा कर देती है।अपने अहंकार के वशीभूत वह भले ही उनसे कितना ही श्रेष्ठ क्यों न समझता रहे।मनुष्येतर जीव ढोंग नहीं कर सकते, बस यही खग - पशुओं और मनुष्यों में अंतर है। न वहाँ धर्म है न यहाँ धर्म बचा है। यहाँ तो शर्म भी नहीं बची कि वह चुल्लू भर जल में डूब सके । यदि चलते -चलते उसका कदम फिसल जाता है ,तो यही कहेगा कि मैं जान बूझकर नाटक कर रहा था। 

 ●शुभमस्तु ! 

 04.12.2023●9.00प०मा० 

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खेत ● [ चौपाई ]

 519/2023

              

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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समझें     खेत    देश   को  नेता।

फसल  काट निज घर भर लेता।।

पिछड़ी   या   गरीब   हो  जनता।

काम  वहीं   नेता   का    बनता।।


जितनी   बाड़     लगाते    भारी।

खेत  न बचता फसल   न सारी।।

घुसा    खेत    में   नेता     खाता।

आश्वासन     दे- दे     ललचाता।।


जब   चुनाव   की   आती  बारी।

आश्वासन    की    दौड़ें    लारी।।

जाकर     खेत      रेवड़ी    बाँटे।

वही   बाद    में     मारे     चाँटे।।


बँटती  सुरा    खेत  में    जाता।

नोटों    की     गड्डी    बँटवाता।।

भोला    मतदाता    लुट  जाए।

नेता     की    बातों  में    आए।।


माली   बन  कर  खेत   रखाएँ ।

मीठे  बनकर    उन्हें     रिझाएँ।।

 भाषण  से  क्या पकती  खेती?

उड़ती  है   गलियों    में    रेती।।


सभी  खेत के  मालिक  बनना।

एक  नहीं  नेता  की    सुनना।।

तभी  खेत अपना   यह   होगा।

वरन   लुटेगा  तन    से   चोगा।।


'शुभम्'   पढ़ाएँ संतति  अपनी।

खेत और खेती   हो   जितनी।।

स्वावलब    ही    एक    सहारा।

प्रगति  मिले    शिक्षा  के  द्वारा।।


●शुभमस्तु !


04.12.2023●9.00आ०मा०

राजनीति का खेल ● [ गीतिका ]

 518/2023

     

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● शब्दकार ©

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राजनीति  तो  खेल है,मुख क्यों करे मलीन।

कभी हार  होती  रहे, कभी जीत की   बीन।।


करते  वादे नित्य  ही,जनसेवक  बन  लोग,

सत्तासन पर बैठकर, लेते जन सुख  छीन।


उठें   खाक  से  लाख   में, खेलें  नेता  लोग,

बकरी  से   हाथी  बने,  देह  हो  गई   पीन।


अपने -  अपने   पेट  की, चिंता हुई   सवार,

छोटी मछली खा  रहे, मगरमच्छ बड़   मीन।


आश्वासन  दे  लूटते ,जन -जन का विश्वास,

झूठ  बोलना  आम  है, छलिया बड़े  प्रवीन।


समझें  सबसे  श्रेष्ठ   वे, करें  देश में    राज,

जनता  को सम्बल नहीं, भाव   भरे उर हीन।


'शुभम्' न  नेता  चाहते, करना देश -विकास,

कौन  उन्हें  पूछे   भला,  नारे  नित्य   नवीन।


● शुभमस्तु !


04.12.2023 ●7.15आ०मा०

राजनीति तो खेल है ● [ सजल ]

 517/2023

     

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● समांत :ईन।

●पदांत : अपदान्त।

●मात्राभार :24

●मात्रा पतन :शून्य।

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● शब्दकार ©

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राजनीति  तो  खेल है,मुख क्यों करे मलीन।

कभी हार  होती  रहे, कभी जीत की   बीन।।


करते  वादे नित्य  ही,जनसेवक  बन  लोग,

सत्तासन पर बैठकर, लेते जन सुख  छीन।


उठें   खाक  से  लाख   में, खेलें  नेता  लोग,

बकरी  से   हाथी  बने,  देह  हो  गई   पीन।


अपने -  अपने   पेट  की, चिंता हुई   सवार,

छोटी मछली खा  रहे, मगरमच्छ बड़   मीन।


आश्वासन  दे  लूटते ,जन -जन का विश्वास,

झूठ  बोलना  आम  है, छलिया बड़े  प्रवीन।


समझें  सबसे  श्रेष्ठ   वे, करें  देश में    राज,

जनता  को सम्बल नहीं, भाव   भरे उर हीन।


'शुभम्' न  नेता  चाहते, करना देश -विकास,

कौन  उन्हें  पूछे   भला,  नारे  नित्य   नवीन।


● शुभमस्तु !


04.12.2023 ●7.15आ०मा०

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

सब जगह 'यह' आदमी ● [ व्यंग्य ]

 516/2023


 

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● ©व्यंग्यकार 

 ● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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    चाहे गिलहरी और कौवे की साझा खेती करने की कहानी हो या लोमड़ी की चालाकी से जंगलाधिपति शेर जी को कुएँ में कुदवाने की।चाहे खरगोश और कछुए की दौड़ प्रतियोगिता हो अथवा चिरैया और चिरौटा की खीर पकाकर चिरौटे की चालाकी कथा हो।सभी पशु -पक्षियों की पुरानी कहानियों में कहीं भी वे नहीं हैं। सभी जगहों पर यदि कोई है तो वह आदमी ही है। आदमजात के नर -नारी ही पशु -पक्षियों की भूमिका में प्रकट होते हैं। 

     इस आदमी ने पशु ,पक्षियों, कीड़े मकोड़ों ,पेड़ पौधों की स्व प्रजातीय भूमिका में अपने आदमीपन की सारी चालाकियों, बुद्धिमताओं,मक्कारियों,सचारित्रताओं, दुश्चरित्रों,ठगपांतियों का असली रूप उजागर करके रख दिया है।कहने मात्र के लिए वे पशु-पक्षी हैं, किन्तु वास्तव में उनके चरित्र के पीछे आदमी ही बोल रहा है।जो भी रस या विष है ;वही तो घोल रहा है। विविध कहानियों के चरित्रों में उसका अपना मानवीकरण है। वहाँ आदमी के भावों और विचारों का कहानीकरण है।वे चाहे पालतू हों या जंगली ; सर्वत्र पात्रों के द्वारा मनुष्य का ही वरण है।पशु या पक्षी का तो मात्र आवरण है।

      जहाँ -जहाँ पड़े हैं आदमी के चरण ,वहाँ-वहाँ वे रह गए हैं मात्र उद्धरण।मानवीय संवाद,भाषा- शैली ,चरित्र सब कुछ मनुष्य का,मनुष्यकृत। केवल कथानक में वे पशु -पक्षी।स्थान या काल क्रम का कोई भी हो , क्या अंतर पड़ता है ? क्योंकि सब कुछ मनुष्यकृत, मनुष्य के लिए,मनुष्य बोध हित में पशु -पक्षीकरण कर दिया गया है। जिनका सहारा लिया गया है ,उनका अपना कुछ भी नहीं है। पशु के खोल में भी आदमी और पक्षी के खोल में भी आदमी ही घुसा पड़ा है।जैसे बारात में घोड़े के पुतले में आदमी नाच रहा हो।

      अपने सर्वजेता होने का प्रमाण आदमी सब जगह दे रहा है।चाहे पहाड़ को काटकर टनल बनाना हो या बड़े - बड़े हाईवे,ऊँची -ऊँची अट्टालिकाएँ और महाभवनों का निर्माण,जंगल को सघन बस्तियों में बदलने का काम, धरती को फोड़कर पाताल से पानी निकाल लेने का इंतजाम, सब इस आदमी का ही किया -धरा है।लेकिन जब- जब प्राकृतिक आपदाओं से वह घिरा है मरा है ,तब- तब भगवान का ही माँगता रहा आसरा है।प्रकृति से छेड़छाड़ का ख़ामियाजा भी उसने खूब ही भोगा है।तब धर्म और षट्कर्म का ओढ़ लिया चोगा है।ये आदमी कब किधर मुड़ जाएगा ,कुछ कहा नहीं जा सकता।

      वे कौन से वानर थे ,जो आज आदमी के चोले में भोले-भाले बने घूम रहे हैं और कौवा -गिलहरी , तोता- मैना ,मगरमच्छ- बंदर, शेर-लोमड़ी, खरगोश -कछुआ आदि की कहानियों से पंचतंत्र की रचना कर पोथियाँ भर रहे हैं। लेकिन ये जो नित्य प्रति छतों ,पेड़ों ,गलियों,मोहल्लों, बाजारों, मंदिरों आदि में उछलते - कूदते धमा - चौकड़ी मचाते,कपड़े ,जूते ,चप्पल ,आँखों से चश्मे ,ठेलों से फल आदि की छीना - झपटी करते हुए देखे जाते हैं , वे ज्यों के त्यों वानर ही बने रह गए !ऐसा क्यों ? अंततः इन शेष वानरों ने क्या बिगाड़ा था या क्या कमी थी ,जो उन्हें आदमी नहीं बनाया जा सका ?यह प्रश्न अवश्य ही इस प्रचलित धारणा पर एक प्रतिप्रश्न खड़ा अवश्य करता है। 

      कुल मिलाकर यदि देखा और विचार किया जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि अपने विकास और विनाश दोनों के लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी है।भयंकर बाढ़, भूकंप, अति वृष्टि,अकाल,कोरोना जैसी महामारी, भू-स्खलन आदि सभी विभीषिकाएँ उसी की देन हैं। अपना पल्ला झाड़ कर साफ - सुथरा दिखाने के लिए वह उसका ठीकरा किसी के सिर पर फोड़े ;ये अलग बात है। यह तो मानव स्वभाव है कि काम बने तो श्रेय स्वयं लूटना चाहता है और बिगड़ने पर किसी और के मत्थे मढ़ देता है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 01.12.2023●4.00प०मा० 

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...