शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

ऊपर की कमाई [ व्यंग्य]

 475/2024 

 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 ऊपर वाले को कौन नहीं जानता।उसको न मानने वाले भी प्रकारांतर से उसे मानते ही हैं। वह है,इसीलिए तो उसके न मानने की बात लोग करते हैं।जब बुरा वक्त आता है तो अच्छे - अच्छे नास्तिक भी उसे मानने को विवश हो जाते हैं।ऐसे नहीं तो ऐसे सही।आस्तिक लोग तो यह भी कहते हुए पाए जाते हैं कि ऊपर वाले की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।जब सब कुछ ऊपर वाला ही हिलाता-झुलाता है,फिर लोग जब ऊपर की कमाई लेते हैं तो उसे क्यों अनदेखा कर जाते हैं।क्यों मनमाना कर जाते हैं। क्यों अनजाने हो जाते हैं।कैसे ऊपर की कमाई का तानाबाना बुन पाते हैं। 

   आम हो या खास, दूर हो या पास, भरा उदर हो या किए हुए हो उपवास ;ऊपर वाले की मान्यता,पूजा -पाठ,भक्ति भाव,सबको सहज और सहर्ष स्वीकार है। ऊपर की कमाई में सम्पन्नता की भरमार है। ऊपर की कमाई से खुल रहे उनके उन्नति के सर्व द्वार हैं। क्या आपको मेरी इस बात से इनकार है? मैं तो कहता हूँ कि छोटा हो या बड़ा ,आम या खास, बालक हो या बूढ़ा, नर हो या नारी - सभी को लगी है ये आम बीमारी। लोगों की खिल - खिल उठी हैं फूलों की क्यारी। इसीलिए जब तक नहीं आती है घर में ऊपरी कमाई तब तक तो खुश नहीं रहती घर की लुगाई। अब यह अलग बात भी नहीं कि वह अपनी हो या पराई; सभी को चाहिए ऊपरी कमाई। ऊपरी कमाई के सामने पुण्य, पूजा, प्रण, परमात्मा सब कुछ नगण्य हो जाता है।ये ईश पूजक आदमी ऊपर की कमाई का इतना दीवाना हो जाता है कि उसे इतना भी होश नहीं रहता कि वह सामने वाले का गला काट रहा है। किसकी गर्दन पर छुरा फेर रहा है,किसके बच्चों के पेट पर लात मार रहा है। अपने को आबाद करने के लिए किसे बरबाद कर रहा है।

   ऊपरी कमाई या ऊपर की कमाई के अनेक रूप - स्वरूप हैं।ये अलग बात है कि उनके कुरूप ही कुरूप हैं ,क्योंकि वह तुम्हारी नहीं किसी और की कमाई के यूप हैं।वे किसी के लिए कितने ही कुरूप हों, परन्तु प्रापक के लिए सु -रूप ही सु-रूप हैं।मिलावट,रिश्वत,दलाली,कमीशन ,दहेज सब में ऊपरी कमाई की जान बसती है।इसे अन्याय से कमाई हुई अन्य आय की शुद्ध शुद्ध हिंदी संज्ञा से सम्मानित किया जा सकता है।अपनी कन्या के लिए वर की तलाश करते समय लोग उसकी ऊपरी कमाई पर अधिक और वास्तविक ईमान की कमाई पर कम नज़र रखते हैं। उसका बाप कितना अधिक दहेज दे सकता है,यह आकलन भी वे सहज रूप में कर लेना चाहते हैं।यह दहेज भी कन्या -धन के नाम पर लिया जाने वाला ऊपरी कमाई का सघन स्रोत है।लिया तो दाता की अनिच्छा से ही जाता है,किन्तु कहा यही जाता है, हमने माँगा नहीं,वे स्वेच्छा से अपनी लड़की को दे रहे हैं।

    कर्मचारी, अधिकारी,सरकारी या गैर सरकारी ;सब ही ही हैं ऊपरी आय के भिखारी।नेता ,डाक्टर,इंजीनियर ; यहाँ कौन बचा है जो ऊपरी कमाई का रसिया न हो। शिक्षक का पेट भी नौकरी से नहीं भरता तो वह क्लास का कोर्स कोचिंग में पूरा करता है। बेचारा कितना ईमानदार है ! इसीलिए या तो क्लास में जाता ही नहीं ,और यदि जाता है तो विद्यार्थियों को इधर -उधर की बातों में उलझा कर कोर्स को कोचिंग में पूरा करने का पक्का वादा करता है और उसे निभाता भी है।यही हैं आजकल के पूजनीय गुरु जी।जहां से ईमानदारी के प्रशिक्षण की शिक्षा होती है शुरू भी। 

   दुनिया में अनेक व्यवसाय हैं।उनमें ऊपरी कमाई का बहुत बड़ा संजाल है।दाल में नमक के बराबर तो उचित है ,न्याय संगत है किंतु दाल ही नमकीन हो जाए तो यह सीमा की पराकाष्ठा है।घी,तेल,दालें, मसाले, धनिया ,मिर्च, हल्दी, दूध,फल ,सब्जी आदि सभी स्थानों पर ऊपरी कमाई मिलावट के रूप में सुलभ है। इस आदमी के पेट के गड्ढे को कोई ऊपरी कमाई भी काम आने में हिचहिचाती है।यह वही त्रिपुंडधारी, जनेऊधारी,मालाधारी, घण्टाबजैया, करता ता ता थैया, परिक्रमा लगैया, सजनी हो या सैयां, बहना हो या भैया,: सब जगह है नम्बर दो वाला सबसे बड़ा रुपैया। 

   नेता विधायक या सांसद बनते ही कुछ ही वर्षों में खाक पति से लाख पति नहीं, अरब खरब नील पद्म और महापद्म पति के सिंहासन पर विराजता नजर आता है। अंततः यह चमत्कार भी तो वेतन की कमाई का नहीं ,ऊपरी कमाई का ही है।बेबस जनता के खून से निचोड़ी गई दवाई का ही है।जो सच के विरुद्ध आवाज उठाए उसे सलाखों के पीछे ठूँस दो। सत्य बोलना अपराध हो गया है।झूठ हवाई यान पर सवार है।यह भी ऊपरी कमाई का चमत्कार है। देश सुधार का नारा लगाते रहिए और छुपे -छुपे रसोगुल्ले खाते रहिए।दूसरों को उपदेश देते रहिए और मेज के नीचे से उत्कोच लेते रहिए। आखिर उनके पालित दलाल किस दिन काम आएँगे! यों ही देश आगे बढ़ता रहेगा और ऊपरी कमाई से सम्पन्न होता रहेगा। मेरा देश महान जो है। महान था और रहेगा भी। 

 शुभमस्तु ! 

 19.10.2024●10.45 आ०मा० 


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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

चोरी का गुड़ [अतुकांतिका]

 474/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गुड़ - गुड़ की

गुडविल ही न्यारी,

खिले अधर की

कलिका क्यारी,

चोरी करने में भी

अति श्रम लगता है।


नकली डाक्टर

अस्पताल भी,

सीख लिए गुर

भ्रमर जाल भी,

बिना पढ़े जब

नोट छप रहे,

शिक्षा सब बेकार।


डिग्रीधारी

बैठे टापें,

नकली से वे

असली छापें,

मेरा देश महान।


छापा पड़े

छिपें वे बिल में,

छपे हुए 

जो रक्खे घर में,

देकर बेड़ा पार,

क्या कर ले सरकार?


'शुभम्' सत्य 

जिसने भी बोला,

कहते उसने ही

विष घोला,

पकड़ा गया

चोर का झोला,

तीन ढाक के पात।


शुभमस्तु !


17.10.2024●2.45 प०मा०

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बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

प्रेम का प्रसाद ? [ व्यंग्य ]



473/2024 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 प्रेम ,प्रेम है। प्रेम कोई प्रसाद तो है नहीं कि जिस - तिस को बाँटते उछालते रहा जाए।यह तो केवल और केवल अपनों के लिए है। अपनों की परिधि में जो भी आते हैं,वे सभी प्रेम के पाने के पात्र हैं।यह सबके लिए नहीं है। आम जन के लिए भी नहीं है।अपनों का घेरा कोई इतना विस्तृत तो हो नहीं सकता कि इसकी कुंडली में सारे ब्रह्मांड को लपेट लिया जाए।अब इस सीमा को सुनिश्चत करना आवश्यक हो गया है कि किस -किस को प्रेम किया जाए और किसको इससे वंचित रखा जाए।जब किसी को इससे वंचित रखा जाएगा तो वंचितों को किंचित तो देना ही होगा ,और वह होगी घृणा,एकमात्र घृणा। 

  जब बात प्रेम को सीमाबद्ध करने की आई है ;तो उसका भी अवलोकन कर लिया जाए।पहले ही कहा गया है कि यह केवल अपनों के लिए है।अपनों की सीमा में सबसे निकट और विकट कोई है वह है अपनी संतान।माता -पिता अपनी संतान से प्रेम करते हैं,यह जगज़ाहिर है।क्योंकि वे उनके रक्त सम्बन्ध में आबद्ध हैं। अपने बच्चों को छोड़कर दूसरों के बच्चों को दूसरा ही समझा जाए।हाँ,प्रेम का नाटक करने में कोई आपत्ति नहीं है।किंतु उन सबसे प्रेम तो नहीं किया जा सकता। इसके बाद बारी आती है स्वजातियों की।अपनी जाति वालों से प्रेम करते हुए ऐसे सिमट जाओ ;जैसे कुंए का मेंढक अपनी चार - छः फुट की दीवारों के अंधकूप को ही अपनी सारी दुनिया मान बैठता है।अन्य जातियों के लोगों से घृणा करो।उन्हें अपने समक्ष तुच्छ, हेय और गुण हीन सिद्ध करने में लगे रहो।अपने आप मियां मिट्ठू बने रहो,बनते रहो।अन्य जातियों को अपनी जाति के समक्ष नीची सिद्ध करते रहने में जिंदगी गुजार दो। भूल से भी उनसे प्रेम मत कर लेना। 

  अन्य मज़हब और धर्मावलंबियों को तो कभी प्रेम करना ही नहीं है। उनसे तो घृणा ही करनी है। मौके बे मौके उन पर ईंट- पत्थर बरसाओ, बम बरसाओ, गोलाबारी करो,किंतु प्रेम करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।धर्म बने ही घृणा फैलाने के लिए हैं। यदि स्वधर्मी से प्रेम किया तो क्या किया ? उससे घृणा ही करनी है। यही सच्चा मनुष्य धर्म है। 

   शैशवावस्था में माँ स्व -शिशु को स्व-स्तन से चिपकाकर प्रेम करती है। शिशु भी माँ को उतना ही प्रेम करता है।वही पिता से प्रेम करना सिखाती है।तो पिता भी संतति का प्रेम पात्र बन जाता है।धीरे -धीरे प्रेम का दायरा बढ़ता है तो भाई -बहन,चाचा -चाची आदि भी उसमें घुसा लिए जाते हैं।ये सभी स्वजातीय भी हैं और स्वरक्तीय भी हैं।इसलिए इनसे इनमें प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित होना भी जरूरी है।जब वही शिशु बालक, बाला भोलाभाला होता है ,तो प्रेम पल्लवन फूलने - फलने लगता है। किशोर/किशोरी होते ही विपरीत लिंगी के साथ जब प्रेम का विस्तार होने लगता है ,फिर तो जाति धर्म और मज़हब की दीवारें भी टूट जाती हैं।यह भी प्रेम का एक रूप है।जिसे गदहपचीसी की उम्र भी कहा जाता है।यहाँ आने के बाद कूँआ ,बाबली,खाई, गड्ढा, पोखर कुछ भी दिखना बंद हो जाता है। प्रेम विस्तार जो पा रहा है। 

  प्रेम आत्मकेंद्रित है तो घृणा का संसार में विस्तार है। जहाँ प्रेम हो या न हो ,घृणा अवश्य मिलेगी।ये बहुत सारी जातियाँ,मज़हब,धर्म इसके विस्तार हैं।यहाँ घृणा की तेज रफ्तार है।आदमी घृणा से नहीं प्रेम से बेजार है।घृणा तो कहीं भी मिल जाएगी।उसे परमात्मा न समझें। प्रेम तो जमा हुआ घी है,घृणा तालाब में पड़ी हुई तेल की बूँद है,जो निरन्तर फैलती ही फैलती है। विश्वास न हो तो नजरें उठाकर देख लो,रूस- यूक्रेन को,इजराइल-फिलिस्तीन को,भारत -पाकिस्तान को,बांग्ला देश को। जिधर दृष्टि जाती है,घृणा ही नज़र आती है।इनका प्रेम मर ही चुका है न !

  रही - सही कमी इन नेताओं ने पूरी कर दी। नेतागण प्रेम के हत्यारे हैं।नेताओं और राजनीति में प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है।जैसे चील के नीड़ में सेव संतरे नहीं ,माँस ही मिलने की सौ फीसद संभावना है।जितना ही प्रेम मरता है,घृणा जन्म लेती है।यह दायित्व सियासत ने सँभाल रखा है।दूसरे धर्मों,दलों, नेताओं ,व्यक्तियों के प्रति जितनी फैला सको घृणा फैलाओ।भूल से भी प्रेम आड़े न आ जाए।सत्तासन हथियाने के लिए प्रेम की नहीं, घृणा के विस्तार की आवश्यकता है।जो हो भी रहा है। जितना प्रेम मरेगा,उतनी घृणा पनपेगी। मानवता नपेगी।दानवता हँसेगी। दुनिया तो जैसे चलती रही है,चलती रहेगी।कहीं धुंआ,धक्के, धमाल और बबाल का विकराल। प्रेम रहेगा ही कहाँ ,जहाँ घृणा का जमाल।प्रेम बिंदु है ,तो घृणा कटु सिंधु है।एक का कण है तो दूसरा कण - कण में है।

 शुभमस्तु ! 

16.10.2024●11.45आ०मा०

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सरस सुभावों से सजी [ दोहा ]

 472/2024

      

[जीवंत,सरोजिनी,पहचान,अपनत्व,अथाह]

               सब में एक

सरस  सुभावों  से  सजी, रचना  हो जीवंत।

मनुज प्रभावित हों सभी,रसिक गेरुआ संत।।

माटी  की  प्रतिमा   बना, मूर्तिकार दे   रूप।

सुघड़  और जीवंत का,संगम अतुल अनूप।।


आँखें  सरस सरोजिनी,हे कामिनि  रतनार।

मैं रस लोभी  नेह  का,बरसाती - सी प्यार।।

अमराई सामीप्य में, शुभ  सरोजिनी ताल ।

शरदागम   में    खेलते,कितने बाला -बाल।।


छोटी - सी पहचान भी,  बनी प्रणय   संबंध।

ज्यों गुलाब वेला मिले,अद्भुत अमल सुगंध।।

बहुत  दिनों के बाद में, आज मिले हो  मित्र।

बिसरी -सी  पहचान का,उड़ता है नव इत्र।।


शुभ प्रभाव अपनत्व का,जब लाता है रंग।

आत्मीय   लगते   सभी, उमड़े  भाव तरंग।।

चमत्कार अपनत्त्व का, दुनिया में    बेजोड़।

पशु- पक्षी लगते निजी,मुख न सकोगे मोड़।।


आज आश्विनी पूर्णिमा,  उमड़ा   प्रेम अथाह।

हँसता है शशि व्योम में,रस निधि में अवगाह।।

आई  करवा   चौथ  है,तिय  का प्रेम अथाह ।

आज  बना  पति  देवता, पूजा जाता  वाह!!


               एक में सब

हे जीवंत सरोजिनी,परिचय ही पहचान।

मम अथाह अपनत्त्व की,पावन अनुसंधान।।


शुभमस्तु !


16.10.2024●5.30आ०मा०

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बोझ उठाती है धरती [ गीत ]

 471/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तुण्दिल  पेट

साँड़ -से तन का

बोझ उठाती है धरती।


अभी और भी

खाना चाहें

पेट तोंद पर फेर रहे।

भोग सामने

रखा हुआ है

ललचाए दृग हेर रहे।।

सबसे अधिक

कौन खा पाए

बता रही दाढ़ी हिलती।।


नहीं देश के

काम आ सके

भारी -  भारी   मोटे   देह।

सँकरा दर है

कुटियाओं का

हो जाना है जिसको खेह।।

रँगे गेरुआ

तन पर धारे

दुनिया पद -पूजा करती।


अंधे हैं

विश्वास मनुज के

तन  से  काम नहीं होना।

रँगिया बाबाओं 

को घर - घर 

भिक्षा  का दाना बोना।।

'शुभम्' कर्म से

विरत सभी ये

करने पर नानी मरती।


शुभमस्तु !


15.10.2024●11.15आ०मा०

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और नहीं कुछ खास चाहिए [सजल ]

 469/2024

    

समांत       :आस

पदांत        : चहिए

मात्राभार    : 16.

मात्रा पतन  : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गदहों  को    बस     घास   चाहिए।

और नहीं    कुछ    खास   चाहिए।।


दुल्हन    को     मिल   जाए  दुल्हा।

ननद  न    कोई     सास   चाहिए।।


श्याम     पुकारें     श्यामा - श्यामा।

निधिवन  में    नित  रास  चाहिए।।


तारे       छिटक      रहे   अंबर  में।

निशि  को दुग्ध  उजास    चाहिए।।


गुरु  से  ज्ञान    मिले    शिष्यों को।

स्वामिभक्त     हो   दास   चाहिए।।


नीड़  चील    का   रिक्त  न  रहता।

माँस     मिले    विश्वास    चाहिए।।


कविता  सरस   भाव    वाली   हो।

यमक  श्लेष      अनुप्रास  चाहिए।।


शुभमस्तु !


13.10.2024●10.15प०मा०

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रावण को जिंदा रखना है [ गीत ]

 468/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रावण को

जिंदा रखना है

फिर अगले साल जलाने को।


रहने हैं

अत्याचार सभी

व्यभिचार बंद मत करना तुम।

मत बलात्कार भी

बंद करो

अलगाववाद नाचे  छुम - छुम।।

वे पात्र

खोजते  रहना है

जनता को नित्य सताने को।


रावण यदि

होता नहीं यहाँ

रामों   की  पूछ नहीं होती।

कुचले बिन

सीपी का अंतर

मिलते न हमें सुथरे मोती।।

रावण ही

रावण जला रहे

सत्तासन को हथियाने को।


घर -घर रावण

दर-दर रावण

मत राम-लखन को खोज यहाँ।

रामत्व नाम तो

नारा है 

मत   त्रेता   ढूँढ़ें   यहाँ - वहाँ।।

सीताओं में

सत शेष कहाँ 

सासें घर में लतियाने को।


शुभमस्तु !


13.10.2024●12.15अपराह्न

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...