रविवार, 4 जून 2023

वाङ्गमुख



शिक्षाप्रद कहानियों,पंचतंत्र, कथा सरित्सागर,विभिन्न उपदेशकों,गाथाओं,महाकाव्यों आदि के माध्यम से ज्ञान की अनेक जन हितकारी बातें  मनुष्य समाज के समक्ष आईं और इतिहास की सामग्री बन कर रह गईं।अंततः जो कुछ भी वर्तमान में होता है अथवा हो रहा है तथा भविष्य में जो भी होगा; उसे भी एक न एक दिन इतिहास में ही बदल जाना है।अनेक सरल सुबोध विधाओं और वक्रोक्तियों ने उसे समझाने की युक्तियाँ उसके समक्ष परोसीं ; किंतु क्या सीधे - सीधे उसने उन्हें अपनी स्वीकृति प्रदान की? जहाँ तक मैं समझता हूँ, गंगा नदी में हजारों लाखों वर्षों से न जाने कितना जल बहकर सागर में मिल गया, किंतु मानव मन की थाह आज तक  बड़े - बड़े ऋषि मुनि, उपदेशक,साधु - संत भी नहीं ले सके।

व्यंग्य विधा की अपनी तीसरी और अन्य विधाओं में अद्यतन प्रकाशित समस्त कृतियों में  'शुभम्'व्यंग्य वाग्मिता उन्नीसवीं कृति है। अपनी अन्य व्यंग्य रचनाओं की तरह इस कृति में भी मानव मन, मानव समाज, मानवीय संस्कृति और सभ्यता गत विडम्बनाओं का संक्षिप्त निरूपण अपनी एक विशेष  भाषा शैली के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है।जो बात सीधे-सीधे वाङ्गमुख शिक्षाप्रद कहानियों,पंचतंत्र, कथा सरित्सागर,विभिन्न उपदेशकों,गाथाओं,महाकाव्यों आदि के माध्यम से ज्ञान की अनेक जन हितकारी बातें मनुष्य समाज के समक्ष आईं और इतिहास की सामग्री बन कर रह गईं।अंततः जो कुछ भी वर्तमान में होता है अथवा हो रहा है तथा भविष्य में जो भी होगा; उसे भी एक न एक दिन इतिहास में ही बदल जाना है।अनेक सरल सुबोध विधाओं और वक्रोक्तियों ने उसे समझाने की युक्तियाँ उसके समक्ष परोसीं ; किंतु क्या सीधे - सीधे उसने उन्हें अपनी स्वीकृति प्रदान की? जहाँ तक मैं समझता हूँ, गंगा नदी में हजारों लाखों वर्षों से न जाने कितना जल बहकर सागर में मिल गया, किंतु मानव मन की थाह आज तक बड़े - बड़े ऋषि मुनि, उपदेशक,साधु - संत भी नहीं ले सके। व्यंग्य विधा की अपनी तीसरी और अन्य विधाओं में अद्यतन प्रकाशित समस्त कृतियों में 'शुभम्'व्यंग्य वाग्मिता उन्नीसवीं कृति है। अपनी अन्य व्यंग्य रचनाओं की तरह इस कृति में भी मानव मन, मानव समाज, मानवीय संस्कृति और सभ्यता गत विडम्बनाओं का संक्षिप्त निरूपण अपनी एक विशेष भाषा शैली के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है।जो बात सीधे-सीधे कहने में व्यक्ति के मन और चेतना पर उतनी प्रभावी नहीं होती,जितनी एक व्यंग्य के माध्यम से हो सकती है। यह मेरा मानना है। व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार अपने गुदगुदाने वाले आक्रोश के द्वारा भ्रष्ट व्यक्ति, समाज, व्यवस्था,अनाचार,अनीति, विसंगतियों आदि की विविध विडम्बनाओं पर करारा प्रहार करने का प्रयास करता है।उसके द्वारा विद्रूपित समाज का ऐसा बिम्ब प्रस्तुत किया जाता है कि जिससे वह अपने सर्वांग से झकझोर दिया जाता है।

 व्यंग्य वस्तुतः वर्तमान और विगत शताब्दी की एक ऐसी जीवंत विधा है , जो सबके चेहरे उघाड़ डालने में सक्षम है।लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न करने के लिए व्यंग्य एक वक्रोत्यात्मक रोचक विधा है।जो अपनी काव्यात्मक कला से समाज को झकझोरती है,वहीं दूसरी ओर उसका मनोरंजन करती हुई सत्य कक स्वीकार करने के लिए बाध्य भी कर देती है।व्यंग्यकार के द्वारा एक ऐसी चेतना शक्ति का प्रादुर्भाव किया जाता है जिसमें उसके मानवीय मूल्य निहित होते हैं।सहित्य में जो रसात्मकता व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से उत्पन्न की जाती है,वह अन्य विधाओं के माध्यम से नहीं की जाती।

 व्यंग्य रचना में हास्य और व्यंग्य का मिला जुला पुट उसे जीवंतता तो प्रदान करता ही है, साथ ही वह आलोचनात्मक ,प्रतिक्रियात्मक और रसात्मक भी होता है। व्यंग्य में हास्य का उपयोग उपहास और कटाक्ष के लिए किया जाता है। इसके विपरीत हास्य में उसका विशुद्ध प्रयोग मात्र हँसने-हँसाने के लिए ही किया जाता है। हास्य प्रतिक्रियात्मक और आलोचनात्मक नहीं होता।व्यंग्य अपनी व्यंजना शक्ति से पाठक और श्रोता को उसकी यथार्थता से अवगत कराने में सक्षम होता है।उसको सचाई से सजग करता है।वह मानव जीवन की समस्याओं के मूलभूत कारण को समझाता है।इतना ही नहीं व्यंग्य के माध्यम से समस्याओं का निदान भी किया जाता है।इससे मानव-जीवन की त्रुटियों औऱ जीवन और समाज विरोधी अवधारणाओं का निराकरण भी किया जाता है। 

  इस कृतिकार के द्वारा इस 'शुभम् व्यंग्य वाग्मिता शीर्षकस्थ कृति में जिन व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से व्यक्ति, समाज, व्यवस्थाओं और सार्वदेशिक विसंगतियों को निरूपित किया गया है,उनमें व्यंजनात्मकता के साथ -साथ विनोदात्मकता का सम्पुट भी है। व्यंग्य अपनी दोहरी शक्ति से दोधारी तलवार की तरह प्रहार करते हुए शनैः - शनैः गुदगुदा भी रहा है। इस व्यंग्य कृति का कृतिकार जहाँ एक गद्यकार है ; वहीं वह एक कवि भी है। कवि। की काव्य - चेतना से उसकी समस्त रचनाओं में एक नवीन चेतना औऱ जीवंतता का संचार हुआ है। जहाँ अन्य व्यंग्यकार अपनी व्यंग्य रचनाओं में मात्र गद्य का ही आश्रय लेते हैं ,वहीं इस कृतिकार ने काव्य के रस रसांगों से भी समाविष्ट किया है।इस प्रकार इन समस्त रचनाओं में काव्यात्मक विनोद उन्हें प्राणवंत बना रहा है।इन व्यंग्य रचनाओं में कोरे हास्य की सृष्टि के लिए काव्यात्मक रसमयता का संचार नहीं किया गया है।

  सहित्य की विविध गद्य और पद्य विधाओं में व्यंग्य विधा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।व्यंग्य व्यंग्यकार की वैचारिक स्वाधीनता का प्रतीक है। वैचारिक स्वाधीनता के दुरुपयोग से सर्वत्र बचा गया है। सहित्य समाज का दर्पण है,इसलिए उसमें ऐसी किसी बात के लिए लेशमात्र भी स्थान नहीं है ,जो व्यक्ति, देश और समाज के लिए घातक हो।विनोद औऱ काव्यत्व से व्यंग्य की कटुता को न्यूनतम करने का प्रयास किया गया है।व्यंग्य रचना में विनोद का पुट उसके कटु प्रभाव को न्यूनतम करता है। बिना व्यंग्य का हास्य -विनोद तो हो सकता है ,किन्तु विनोद शून्य व्यंग्य लवणरहित शिकंजी की तरह अलोना ही है ।

 मेरे द्वारा प्रणीत 'शुभम व्यंग्य वाग्मिता कृति में कुछ वैचारिक लेखों, कहानियों और संस्मरणों को भी उचित स्थान दिया गया है। इस कृति के अंतर्गत जो कुछ निवेदन किया गया है,इसकी सत्यता की कसौटी हमारे गुणग्राहक सहित्य मर्मज्ञ मनीषी हैं। मुझे विश्वास है कि वे इस शब्दकार की लेखनी को अपने शुभाशीष से अनुग्रहीत करेंगे। 

 मैं अपने कवि शिष्य श्री कौशल महंत 'कौशल' (छत्तीसगढ) का हृदय से आभारी हूँ कि उन्होंने स्वयं और अपने सुपुत्र श्री योगेश महंत जी के कठिन परिश्रम के परिणाम स्वरूप उसे संसार के समक्ष प्रकाशवान बनाने में अपनी अहं भूमिका का निर्वाह किया है।पुस्तक के मुखावरण निर्माण में अपने सुपुत्र श्री भारत स्वरूप राजपूत औऱ सुपुत्री सुश्री जयप्रभा की भूमिका को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। माँ सरस्वती को पुनः -पुनः नमन करते हुए अपनी यह उन्नीसवीं कृति आप सभी सुधी पाठकों के कर कमलों में सौंपते हुए हृदय में अत्यधिक हर्षानुभूति होना स्वाभाविक है।


 स्वाधीनता दिवस                                                                  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 15 अगस्त 2023                                                                    सिरसागंज(फ़िरोज़ाबाद) 

 संवत2080 विक्रमी                                                                       पिन :283 151

     

शनिवार, 3 जून 2023

खरबूजा खाँस रहा है!● [ व्यंग्य ]

 237/2023


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 ●व्यंग्यकार © 

 ● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      स्वजातीय को देखकर रंग बदलने की परम्परा अत्यंत प्राचीन है।इस मामले में खरबूजा और आदमी परस्पर प्रतियोगी की भूमिका में दिखाई देते हैं।यह बता पाना इतना सहज और सरल नहीं है कि पहले कौन? खरबूजा या आदमी? बहरहाल इतना तो सुनिश्चित है कि इन दोनों में कोई भी किसी से पीछे नहीं है। 

        रंग बदलने का सीधा- सा अर्थ है कि अपना रंग बदलने वाला अपने सहज स्वरूप और प्रकृति से भिन्न अपना आकार प्रकार और रंग -रूप बदल लेता है। यों तो रंग बदलने के मामले में गिरगिट का कोई सानी नहीं है। वह भी समय - समय पर अपना रंग बदल लेने के लिए प्रसिद्ध है।लेकिन इस आदमी ने तो बेचारे गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया है।यों तो प्रकृति में मेढक, सर्प तथा कुछ अन्य कीट -पतंगे भी इस रंग -बदल कला के विशेषज्ञ हैं।उन्हें आत्म-रक्षार्थ या किसी परिस्थिति विशेष में रंग बदलना ही पड़ जाता है।इसके विपरीत ये आदमी नामधारी जंतु तो अकारण सकारण भी रंग बदलते हुए देखा जाता है। 

 यों तो रंग बदलना एक कला है।जो हर एक व्यक्ति के लिए संभव भी नहीं है।किसी को धोखा देना हो ,तो अपनी वास्तविक पहचान छिपाने के लिए रंग बदलना भी अनिवार्य हो जाता है।रावण ने सीता का अपहरण करने के लिए रंग बदला था इस बात से कौन भिज्ञ नहीं है!मारीच मामा ने सीता को मृग मरीचिका दिखाने के लिए स्वर्ण मृग का सुंदर रूप धारण किया।चन्द्रमा ने गौतम ऋषि की पत्नी को छलने के लिए स्वयं गौतम शरीर में परिवर्तन कर लिया और वह गौतम वेषधारी छलिया चंद्रमा को नहीं पहचान सकी।इसी प्रकार मछुआरे की बेटी मत्स्यगंधा सत्यवती को ठगने के लिए ऋषि पराशर ने अपना रंग जाल फैलाया ,जो महर्षि वेदव्यास के रूप में रंग लाया,यह भी जगत प्रसिद्ध है।

    रंग बदलने के इन प्राचीन उदाहरणों से इतना तो स्प्ष्ट हो ही जाता है कि ठगाई, छल, धोखा और छद्म के लिए रंग बदलना एक अनिवार्य कर्म है। सुना है कि प्राचीन काल में राजाओं के अनेक जासूस रंग बदलकर जासूसी किया करते थे ।देवकीनंदन खत्री का छः खंडों में विभाजित प्रथम हिंदी उपन्यास 'चंद्रकांता संतति ' रंग - बदल जासूसी और तिलस्म के कारनामों से भरा पड़ा हुआ है। पहले के कुछ श्रेष्ठ राजा गण वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल- चाल लिया करते थे औऱ असहायों और दीन - दुखियों की सहायता भी किया करते थे। आज भी इसका प्रभाव वर्तमानकाल के नेताओं पर देखा जा सकता है ,जो जनता का दुःख-सुख जानने के लिए नहीं, वरन उसका शोषण करने के लिए बगबगे(बगले जैसे)वेश धारण करने लगे।

  यदि गहराई के साथ अध्ययन किया जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि रंग बदलने की कला मुख्य रूप से किसी अन्य को छलने,ठगने, शोषण करने और अपना उल्लू सीधा करने के काम आने वाली प्रमुख कला है।आज के युग में क्या शिक्षा,क्या व्यवसाय क्या धर्म और क्या राजनीति ; देश और समाज का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है ,जहाँ इसका विस्तार न हुआ हो।शिक्षा जैसा पवित्र कार्य भी इसी रंग-बदल कला के कारण धंधा बनकर रह गया है।कमाई का कोरों का खजाना बन गया है ,जहाँ मात्र शिक्षा को छोड़कर किताबें, कॉपी, पेंसिल, पैन, पूरी स्टेशनरी, यहाँ तक कि जूते ,कपड़े ,ड्रेस आदि सब कुछ एक ही छत के नीचे मिल जाता है।यदि नहीं है तो वहाँ मात्र शिक्षा नहीं है। 

  यदि व्यवसाय की बात की जाए तो वहाँ भी रंग-बदल का रंग-बिरंगा बाजार सुनामी में डूबा हुआ है और उपभोक्ता की जेब काटने के हजारों कारनामे करता हुआ आकंठ निमग्न है ।मात्र व्यवसाय ही रंग- बदल का इतना बड़ा क्षेत्र है कि इस विषय पर पृथक रूप से शोध ग्रंथ लिखे जाने की आवश्यकता है।राजनीति का तो रंग - बदल का खुला खेल है। कहीं कोई पर्दा नहीं। राजनीति के तंबू के नीचे धर्म, शिक्षा, समाज सेवा, व्यवसाय आदि सभी की फसलें भरपूर उपज दे रही हैं।धर्म की रंग - बदल कला की ओट में आशाराम बापुओं, राम रहीमों और न जाने कितने रंगे हुए सियारों के आश्रम फल -फूल रहे हैं।

 देश का धार्मिक नहीं धर्मांध मनुष्य स्वयं आ बैल मुझे मार की कहावत को सार्थक करता हुआ दिखाई दे रहा है। इतना सब देखने - सुनने के बाद बेचारा खरबूजा क्या मुकाबला करेगा इस बहु रंगिया आदमी से ;जो दसों दिशाओं में अपने रंग-रंग के परचम लहरा रहा है। वह तो बेचारा व्यर्थ ही रंग बदलने के लिए बदनाम हो गया। बद अच्छा बदनाम बुरा।इस आदमी ने तो रंग बदलने में गिरगिट, मेढक, साँप के साथ -साथ बेचारे खरबूजे को भी खेत में ही छोड़ दिया।बद अच्छा हो गया, औऱ बदनाम होने के लिए खरबूजा खेत में खाम खाँ खाँसता रह गया। 


 ●शुभमस्तु!


 03.06.2023◆4.30आ०मा०

सहयात्री ● [अतुकान्तिका ]

 236/2023

     

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●शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पथ के सहयात्री

सभी एक -से 

नहीं होते,

कुछ अच्छे,

कुछ नहीं,

कुछ मरुस्थल जैसे

तप्त करते हुए,

कुछ तटस्थ

जैसे हों ही नहीं,

कुछ अमराई जैसे

छायादार,

करते हुए उपकार।


आदमी के प्रकार

जैसे खरबूजे की बहार,

क्या पता कौन

क्या निकल जाए!

कोई सहचार से

आजीवन विस्मृत 

नहीं हो पाए!

और कोई 

बबूल के शल्यवत

चुभ -चुभ जाए।


आवश्यक नहीं

नर देह में,

मानव ही हो,

कसे से सोना

और बसे से इंसान

पहचाना जाता है,

ज्यों आदमी 

आदमी के

 निकट आता है,

अपनी सुगंध

किंवा दुर्गंध से

प्रभावित कर जाता है।


आदमी की

 खाल के नीचे,

समझ मत लेना

यह आँखें मींचे,

कि वह 

आदमी ही होगा,

पता तभी लगना है

जब उसका उतरेगा

अपना  बाहरी चोगा,

अन्यथा छद्म ही होगा।


आओ 'शुभम्'

हम आदमी को जानें,

उसके स्वार्थ से

उसे पहचानें,

अपने को परहितार्थ

मानव - देह में

मानव तो बना लें,

स्वार्थों को परे रख 

प्रेम और सद्भाव से

सबको रिझा लें।


● शुभमस्तु !


02.06.2023◆6.00आ०मा०

गुरुवार, 1 जून 2023

दीवारों के कान! ● [ बाल कविता ]

 235/2023

 

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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दीवारों   के   कान  कहाँ  हैं।

बतलाएँ वे   लगे  जहाँ   हैं??


बहुत सुनी   है   हमने   चर्चा।

भले  किसी को लगती मिर्चा।


कहते  सब    दीवारें   सुनतीं।

गल्प -कथाएँ भी वे   बुनतीं।।


मन में जागी    है   जिज्ञासा।

लेतीं  क्या    दीवारें   श्वासा।।


कान न   दीवारों   के    देखे।

क्यों कपोल सजते अभिलेखे


गुपचुप घुसर-पुसर की बातें।

करतीं कान-कान मुख घातें।।


दीवारों   के   नाम    लगाते।

इधर-उधर  चर्चा   टरकाते।।


अपना  दोष  और पर डालें।

दीवारों पर चाड़  निकालें।।


झूठी  बात कान की करते।

कानों  में  घुस बातें भरते।।


लिए  कहावत   झूठ कहानी।

पड़ी 'शुभम्' को सत्य बतानी।।


●शुभमस्तु !


01.06.2023◆2.00प०मा०

कवि कहलाओगे ● [अगीत ]

 234/2023

    

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●शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कुछ  भी लिख,

कैसा भी लिख,

तुकांत या अतुकांत,

भाव उद्भ्रांत,

कवि कहलाओगे।


वर्तनी न छंद,

धी-पात्र  बंद,

भले    निर्बंध,

कैसी भी गंध,

कवि कहलाओगे।


अपनी   ही   ठान,

किसी की न मान,

बंद  आँख   कान,

छेड़  भिन्न   तान,

कवि कहलाओगे।


कोई  कहे पद्य,

कोई  कहे गद्य,

सामिष हो मद्य,

रहेगा   अबध्य,

कवि कहलाओगे।


कवियों की बारात,

समझे   नहीं  बात,

शब्दों के   आघात,

समीक्षक    थर्रात,

कवि कहलाओगे।


भूल जा कबीर,

खुली   तकदीर,

तुलसी न   सूर,

अपने   में   चूर,

कवि कहलाओगे।


मात्रा    न   वर्ण,

तीरंदाज    कर्ण,

कोयलों में स्वर्ण,

बढ़ा   तो   चरण,

कवि कहलाओगे।


उलटी   है  चाल,

शारदा    बेहाल,

केशव   निढाल,

तेरी बस   ताल,

कवि कहलाओगे।


कुछ भी लिख डाल,

करेगा         कमाल,

तू     ही    बेमिसाल,

हो एक  शब्द- जाल,

कवि    कहलाओगे।


बने  स्वयँ  कविराय,

 ये  कुंडलिया भाय,

अहं    के    स्वभाव,

देते मुच्छ निज ताव,

कवि    कहलाओगे।


'शुभम्' हँसे   या रोए,

देख      दृश्य    खोए,

कैसे बीज आज बोए,

रसहीन  ऊख   छोए,

कवि कहलाओगे।


●शुभमस्तु !


01.06.2023◆ 1.00प०मा०


सोमवार, 29 मई 2023

बरस रही जलधार ● [ गीतिका ]

 233/2023

 

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●शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बरसे    काले  मेघ , मास सावन   आया।

छिपा  जलद  में वेघ,धरा खोले   काया।।


चले पवन पुरजोर,सनन-सन- सन करता,

खोल  धरणि  पर  बाँह,गगन मानो छाया।


सभी   चाहते  नीर,  प्यास से जो     मरते,

देखे   काले   मेघ,  दृश्य  सबको    भाया।


अमराई    में  कूक,  गा रहे पिक    प्यारे,

मोर  नहीं  हैं   मूक,  नृत्य करता   गाया।


बरस  रही    जलधार ,नीड़ में कीर   छिपे,

गाते  भेक  मल्हार,   कृषक दल   हर्षाया।


बालक  नंग-धड़ंग,कर रहे जल -  क्रीड़ा,

यहीं   अर्कजा   गंग,  नहा हर्षण    पाया।


काले   घन के बीच,चमकती है  बिजली,

बहती   काली   कीच,पावसी है    माया।


हरे -  भरे    तरु  कुंज, लताएँ झूम   रहीं,

दृश्य  हरित  है  मंजु, नई छवि सरमाया।


रहें   न   काले    मेघ,  देश के अंबर    में,

बढ़े  प्रगति  का  वेग, सुखी हों नर-जाया।


'शुभम्'  करें   कर्तव्य,  सभी अपने- अपने,

जीवन   हो तब  भव्य,सुखी हों   हमसाया।


●शुभमस्तु !


29.05.2023◆10.30 आ०मा०


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...