रविवार, 24 सितंबर 2023

आँख अपनी- अपनी ● [ व्यंग्य ]

 417/2023 


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 ●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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         इस देहांचल में आँख कहें या आँखें, पता नहीं वे कहाँ - कहाँ नहीं झाँकें! कहाँ -कहाँ नहीं ताकें! इन आँखों की कुछ अलग ही हैं शाखें। बिना ही किसी आवाज के ये क्या - क्या नहीं भाखें!कभी -कभी ऐसा भी बहुत होता है, खुली हुई हैं आँखें फिर भी वह अंधा ही होता है।मानो कि वह जागते हुए सोता है। अपने लिए काँटे वह स्वयं ही बोता है। बाद में पछताता रोता है। मानो भेड़ की तरह चलता कोई खोता है।

      एक समान नहीं हैं किन्हीं दो लोगों की आँखें।कुछ मरी सूखी - सी ,कोई उलूक - सी आँखें।कहीं टपकती हुई चालाकी या शैतानी ,किन्हीं -किन्हीं आँखों में दया की निशानी।नेताजी में अलग आँख,तो पुलिस की अलग ही शाख।शिक्षक की अलग तो बाबू की एकदम अलग।जज साहब की अलग तो वकील साहब की कुछ और ही अलग।बनिया-व्यापारी की आँख, सदा हानि - लाभ पैसे से आँक।बच्चे में भोलापन तो बाप में वात्सल्य का जतन। माँ की आँख में ममता तो नारी के नयन की कोई नहीं समता।वह अपनी अलग ही आँख से दुनिया को निहारती मानो सबकी नजरों को ,नजरियों को बुहारती है।कभी झलकती है वहाँ वासना तो कभी किसी देव-देवी या पतिदेव की उपासना।कभी वहाँ करवा चौथ तो आँखों में दहकती हुई सौत। तो कभी देवी, तो कभी रणचंडी मौत। 

     आदमी के चेहरे पर ज्यों अलग - अलग मुखौटे !त्यों आँखों पर चढ़े चश्मों के अलग - अलग झोंके। एक तो अलग आँख!उस पर भी उस पर चढ़ जाए चश्मा!किसी के लिए चेहरे की सुषमा तो किसी के लिए नज़रों का करिश्मा !मुखड़ा कहे बेटी।उसके पीछे नज़र हेटी ! आखेटी।कितनी ही आँखों के कितने रंगीन चश्मे। किसी की आँखें आँखें कम झील बड़ी गहरी,अब चाहे ग्राम्य बाला हो या छरहरी शहरी।किसी की आँख का मर चुका है पानी, किसी की आँख कंजूस तो कोई बड़ी दानी। ऐसी -ऐसी भी हैं आँखें जिनका नहीं कोई सानी। आँखों आँखों में दो से चार हुए नैना, लगने लगी प्रियतमा जिसे जुबाँ से कहता है बहना। आँखों में ही नफरत आँखें ही गहना ।वास्तव में आँखों की महिमा का भी भला क्या कहना! कोई किसी को फूटी आँख न सुहाए ।उधर माँ की ममता भरी आँखों में अपना एकाक्षी औरस सोना हीरा बन जाए।भले ही उसे देख किसी का शगुन बिगड़ जाए। 

              अनेक पर्याय इन आँखों के देखे। व्याख्या करें तो बन जाएँगे बड़े -बड़े लेखे। नयन, चख, नेत्र ,चक्षु,दृग, लोचन ,विलोचन,अक्षि,अम्बक,दृष्टि, नजर,चश्म,नैन ,नैना दीदा आदि।कोई किसी की आँख से गिरता है तो कोई अपनी ही आँख से गिर मरता है।किसी की आँख का सामना हर कोई नहीं करता है।आँख का नक्शा कितनी जल्दी बदलता है।हर आँख की अपनी सफलता है। 

          जिस शक भरी आँख से पुलिस देखती है ,उन आम आदमी की आँख से कितनी भिन्न रहती है! राजनेता की आँख कुछ और ही होती है। वह राजनीति के बीज हर कहीं बोती है।मजबूरी में आदमी नेता के पास जाता है ,वरना किसी बुद्धिमान को नेता फूटी आँख नहीं भाता है।डॉक्टर चिकित्सक देह मन का इलाज करता है। उसकी नजर में सर्वत्र रोग ही उभरता है। शिक्षक सीख देने में जहाँ कुशल होता है ,वहीं कभी -कभी चिराग तले अँधेरा भी रोता है।बाबू कहाँ सहज ही किसी के काबू में आता है।अपने डेढ़ चावल की खीर वह अलग ही पकाता है।जातिवादी आँख से ये देश और समाज बरबाद है,पर उसकी सोच इतनी तुच्छ है कि वह इसी से आबाद है। क्या नेता क्या अधिकारी , क्या कोई पुरुष क्या कोई नारी ! सबकी आँखों में लगी है जातिवादी बीमारी। और तो और जाति के नाम पर मतमंगे सरपट दौड़ रहे हैं।गाँव -गाँव गली - गली, नगर -नगर ,मोहल्ला दर मोहल्ला अपनी जाति का मत ढूंढ रहे हैं। यही सब आँख की हीन भावना की बात है।जिसकी जितनी भी अपनी औकात है। इसी चलता है खेल शह और मात है।

             साहित्यकारों और कविजन की भी अपनी अलग आँखें है। वहाँ भी कहाँ है दूध और पानी अलग -अलग !वहाँ भी ग्रुप हैं ,समूह हैं ,क्षेत्रवाद है ,प्रदेशवाद है ,पूर्व पश्चिम वाद है, भयंकर जातिवाद है।सहित्य चरे घास पर पड़नी उसमें कुछ ऐसी ही जातीय खाद है।जाति पहचान कर ही मिलती वहाँ दाद है। कवियों का सम्मेलन इसी से आबाद है। यदि वहाँ कविता पढ़ रही हो कोई नारी और वह भी सुंदर महाभारी,तब तो श्रोताओं कवियों की बदल जाती आँख सारी।जैसे खिल खिला उठी हो रातरानी की क्यारी। हो जाता कवि गण में नशा एक तारी।वाह !वाहों की गूँज लगने लगती बड़ी प्यारी।ये भी तो मानव - आँख की खुमारी। फिर क्या आँखों ही आँखों में सारी रतिया गुजारी। 

            कुल मिलाकर इतनी-सी बात है। आँख - आँख का अपना अलग इतिहास है।जितनी आँखें उतनी बातें।अनगिनत हावरे या कहावतें।कुछ ठंडी ,नरम , चिकनी या तातीं।सारी की सारी कही भी तो नहीं जातीं।मौसम हो सर्द ,गरम ,वसंत या बरसाती। नेह भरी आँखें देख भर -भर जाती छाती।ज्यों देख अँधेरे में जल जाती बाती।आँखों का ये संसार ही निराला है। किसी की आँख पर लगा न एक ताला है। कहीं झरते हैं फूल तो कहीं तीक्ष्ण भाला है। सादगी से भरपूर कोई कहीं गरम मसाला है। आँखों से घर में अँधेरा है ,आँखों से ही उजाला है।आदमी क्या जंतु मात्र की आँखों का कुछ अलग बोलबाला है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 24.09.2023.9.00प०मा०

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ग़ज़ल ●

 416/2023

        

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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सच पर   आज टिकी है दुनिया।

छल   से   रोज  छकी है दुनिया।।


रूह  और  दिल  की  टक्कर है,

अपनी  बनी  नकी  है  दुनिया।


पढ़ने  गया    न   कभी मदरसा,

ले    मुबाइल   पकी   है दुनिया।


शौहर     चला    रही   हर बीबी,

जीत न  उसे  सकी   है  दुनिया।


नई     चाल     के   बच्चे   जनमे,

अब  अतफ़ाल     ठगी  है दुनिया।


सभी       चाहते     शहसवार  हों,

जहरी   बड़ी     बकी   है  दुनिया।


'शुभम्'  न   रंग   समझ  में आते,

हमने    खूब     तकी    है दुनिया।


●शुभमस्तु !


*नकी =शत्रु।

*अतफ़ाल =बच्चे।

*शहसवार =घुड़सवार।

*बकी=पूतना।

*तकी =देखी।


24.09.2023◆10.45आ०मा०

ग़ज़ल ●

 415/2023

             

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सच को सच कहते कब लोग!

खुदगर्जी में  हों  जब   लोग।।


झूठों   के   संग   भीड़   बड़ी,

उल्लू कर   सीधा  अब  लोग।


चश्मदीद   में    नहीं   ज़ुबान,

जातिवाद  में  रँग  सब  लोग।


कहें  नीम   को आज  बबूल,

कहते  दिन को भी शब लोग।


रीति-नीति   सब  चरतीं घास,

बदल रहे   अपने  ढब  लोग।


लंबी -चौड़ी    हाँकें      रोज,

वक्ती  बंद  करें  लब    लोग।


'शुभम्'  देखता  ऊँट पहाड़,

गुनें हक़ीकत को   तब लोग।


●शुभमस्तु 24.09.2023◆10.00 आ०मा०


कवि लिख ले नवगीत ● [ नवगीत ]

 414/2023


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●©शब्दकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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टाँगमोड़कर

हाथ छोड़कर

कवि लिख ले नवगीत।


गीत नहीं ये

क्रीत नहीं जी

नई उपज का धान।

मौलिक चिंतन

जुड़ कर अंचल

चढ़ा काव्य की सान।।


लय भी गति भी

जन से रति भी

गरम न इतना शीत।


 समझ न दोहा 

 या चौपाई 

कुंडलिया का छंद।

गहराई में

कहाँ गड़ा  था 

बना शतावर -कंद।।

 

जाना- माना

अलग न तुमको

अद्भुत थी ये रीत।


दुल्हन जैसा

मुखड़ा देखा

छोटे -   छोटे   गाल।

लगे मिलाने 

संग तुम्हारे

'शुभम्'  शैशवी चाल।।


मन में मेरे

भय था छाया

अब भी नहीं अभीत।


● शुभमस्तु !


22.09.2023◆11.00आ०मा०

निर्मल ● [ कुंडलिया ]

 413/2023

                 

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

मानव   के  उर में सदा,बसते हैं   गुण  तीन।

सत, रज,तम कहते जिन्हें,रहता उनमें लीन।।

रहता   उनमें   लीन, कौन कब   बाहर आए।

आधारित    हालात,  कौन-सा रंग   दिखाए।।

निर्मल कर उर धीर ,नहीं बनता   यदि  दानव।

सत का साथ न छोड़,बना रहता नर   मानव।।


                         -2-

मंदिर  है मन  आपका,रखिए  निर्मल    मीत।

पास न आए तम कभी,गा सदगुरु   के  गीत।।

गा सदगुरु  के  गीत,सभी को मानव   जानें।

मन में प्रभु का वास,जीव सब में  यह  मानें।।

'शुभम्' हीन आचार,न जाएँ नजरों  से  गिर।

करनी   शुद्धाधार,  रखें  निर्मल  मन - मंदिर।।


                        -3-

धरती पर सब जीव यों,रखते अलग स्वभाव।

कोई     प्राणों    को हरे,भरता कोई     घाव।।

भरता    कोई  घाव,प्राण निज कोई    देता।

परहित  में दिन - रात,पूर्ण जीवन  कर  लेता।।

'शुभम्' बंद कर आँख,मेष निर्मल कब  रहती!

ढोर - मनुज के बोझ,दबी रोती    ये    धरती।।


                        -4-

भारत  माँ के वक्ष पर, अनगिन  जीव   सवार।

वे सब  निर्मल मन नहीं,चूषक और    लबार।।

चूषक   और   लबार,  देश  को  खाते   नेता।

बेचें   बीमा   रेल,  नहीं   कुछ भू  को    देता।।

'शुभम्' भरा है   खोट,देश को करते    गारत।

कैसे   बने  महान,  देश अपना  ये    भारत।।


                         -5-

नेता  जी  का मन नहीं, निर्मल   शुद्ध  विचार।

छल - बल  के हथियार से, करते अपने कार।।

करते अपने कार ,आम जन भोजन तन का।

कंचन कामिनि कार,लक्ष्य है केवल धन का।।

'शुभम्'  समझते श्रेष्ठ,स्वयं वोटों   को   सेता।

ज्यों  चिड़िया का अंड,चरित का   वैसा नेता।।


●शुभमस्तु !


22.09.2023◆9.15आ०मा०

गिरगिटानन्द ● [अतुकान्तिका]

 412/2023

   

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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इधर गिरगिट

उधर गिरगिट

लगाते दौड़ 

नित सरपट

फटाफट।


गूँगे नहीं हैं

बोलते भी हैं,

मिटाने

 जीभ की खुजली,

मंच सजते 

सजतीं पताका

सामने हैं भेड़ -रेवड़।


किसको 

सताए देश की चिंता,

लगाना ही धर्म है

तेल से भीगा पलीता,

भेड़ का रेवड़

बनाता वीडियो

पढ़ाता उधर 

वह 'गिरगिटी - गीता'।


'रंग बदलो 

समय के साथ अपना,

कोई नहीं संगी

नहीं साथी भी तेरा,

सब छूट जाना है

यहीं ये धन बसेरा,

हम देश -उद्धारक,

सुधारक,

इतिहास निर्माता।'


' सर्वश्रेष्ठ हैं हम,

न आया आज तक

ऐसा कभी कोई,

नहीं आने पाएगा,

हमें समझो

अवतार ,

उतारेंगे हमीं

धरती से पाप-

पापियों का भार,

'शुभम्'  'गिरगिटावतार',

लगाएँ पार।'


 ●शुभमस्तु !


21.09.2023◆5.00आ०मा०

बुधवार, 20 सितंबर 2023

गणपति सदन पधारिए ● [ दोहा ]

 411/2023


[चतुर्थी,गणपति,आवाहन,

इंदुर,नैवेद्य]

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ● सब में एक ●

धन्य चतुर्थी तिथि हुई,जन्मे  'शुभम्' गणेश।

मुदित मातु गौरी बनी,जनक अकंप   महेश।।

तिथि न एक शुभ-अशुभ है,ईश दिवस सब नेक।

भले चतुर्थी  प्रतिपदा, चलें पंथ   सविवेक।।


गणपति  सदन पधारिए, कृपा  करें भगवान।

शुभाशीष की कामना,धी,शुभ,लाभ महान।।

मोदक प्रिय गणपति सदा,आते हैं मम गेह।

कृपा बरसती नित्य ही,ज्यों पावस में  मेह।।


भक्त शरण में आपकी,*आवाहन* कर नित्य।

शुभाशीष ही माँगते,दिनकर हे  आदित्य।।

आवाहन के मंत्र का,करें शुद्ध    उच्चार।

हो अनर्थ ही अन्यथा,मेटें मनस  - विकार।।


इंदुर को कुछ सोचकर, वाहन  बना गणेश।

चले परिक्रमा के लिए,भू-सम मान  महेश।।

यदि हो दृढ़ संकल्प तो,चल इंदुर की चाल।

लक्ष्य मिलेगा शीघ्र ही,बने न काग  मराल।।


गुरुवर का नैवेद्य यों,सहज नहीं   है   मीत।

मिले अंश भी शिष्य को,करे जगत में जीत।।

देवों के   नैवेद्य   का,पावन  है प्रति   अंश।

ग्रहण करें सम्मान से,होगा अघ-तम ध्वंश।।


        ● एक में सब  ●

इंदुर वाहन पर चढ़े,आए गणपति   द्वार।

आवाहन नैवेद्य सँग,करें चतुर्थी   वार।।


●शुभमस्तु !


20.09.2023 ◆7.15आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...