बुधवार, 4 दिसंबर 2024

लुटेरों के बीच किसान ! [ व्यंग्य ]

 551/2024 

 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 गूगल गुरु से जब ये पूछा गया कि 'लुटेरा' शब्द का विलोम क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए वह निरुत्तर हो गया और यही कहा कि 'लुटेरा' शब्द का कोई विलोम शब्द नहीं होता,क्योंकि यह एक गणनीय संज्ञा है।यह तो कोई उचित और तर्कपूर्ण उत्तर नहीं हुआ।अर्थात जो किसान ,सबका अन्नदाता है : लुट तो सकता है, ठगा जा सकता है ,मूर्ख बनाया जा सकता है ;वह किसी को लूट पाने के गुण से वंचित होता है। उसे सब लूट सकते हैं ;किन्तु वह किसी को भी लूटने की क्षमता से शून्य होता है।ये  विचित्र विडम्बना है! 

  जब कोई व्यक्ति बाज़ार में कुछ भी खरीदने जाता है तो उसके मूल्य का निर्धारण और वाचन विक्रेता दुकानदार ही करता है।सोना,चाँदी, लोहा, बर्तन, कपड़ा, बाइक, कार, ट्रक,बस,टिकट,सीमेंट,बालू, सरिया ,जमीन,मकान,प्लॉट,फ्लैट आदि आदि संसार की समस्त वस्तुओं का मूल्य बताने या माँगने वाला उसका विक्रेता ही होता है। कोई दुकानदार कभी किसी ग्राहक क्रेता से यह नहीं पूछता कि क्या भाव खरीदोगे? क्या दाम दोगे? बेचारे किसान को ही मंडी या बाजार में पूछना पड़ता है कि सेठ जी गेहूँ किस भाव खरीदोगे?आलू किस भाव क्रय करोगे?बैंगन,मिर्च,टमाटर ,अरबी, मिर्च,टिंडा,गोभी, गरमकल्ला,भिंडी,बंदगोभी,जौ,चना,मटर,सरसों, अरहर,उर्द,मूँग आदि किस भाव लोगे? किसान के साथ समाज देश और दुनिया ने ये कैसा मज़ाक बना रखा है कि जो उसका उत्पादक और मालिक है ;वह खरीददार से पूछ रहा है कि मूल्य क्या लगाओगे! कैसी मूर्खतापूर्ण बात है ! 

  जब किसान मंडी में अपनी सब्जी लेकर पहुँचता है तो साफ़ और साबुत आढ़तिया छंटनी कर लेता है और थोड़ा सा भी खराब होने पर उसे निकाल कर सड़क पर ऐसे फेंकता है ,जैसे यह सब कुछ उसके पिताजी के खेत से बिना लागत,बिना खाद पानी, बिना निराई -गुड़ाई और बिना श्रम के ही आ विराजा हो। बड़े नखरे और रॉब दाब के साथ किसान से व्यवहार क्या दुर्व्यवहार ही किया जाता है और उधर किसान की सेहत पर कोई असर ही नहीं।उसमें भी नकद गिनने पर हजार बहाने! परसों आना,एक हफ्ते बाद ले जाना! या माल बिकने पर मिलेगा आदि आदि।

   जिधर भी देखिए किसान के लुटेरे बैठे हैं।सारा बाजार और मंडियों में बैठे ठग उसे ठग रहे हैं और वह निरीह प्राणी बना हुआ सब कुछ सहन किए जा रहा है।यह किसान का वीभत्स अपमान है। सबसे बड़ी और बुरी बात ये भी है कि इस मुद्दे पर समाजसेवी, धर्म धुरंधर, नेता ,अधिकारी,शासन -प्रशासन सरकारें मौन बैठी हैं:कानों में तेल और मुँह पर फेविकॉल लगाए हुए ! जैसे किसी को कोई मतलब नहीं है। जबकि सारा देश सामाज और व्यक्ति उसी किसान के पसीने का अन्न,फल सब्जी आदि खाता है। वह तो ग़नीमत है कि गाय भैंस या बकरी आदि के दूध का मूल्य उसका मालिक ही लगाता है अन्यथा यदि चाय के चुक्कड़ों पर छोड़ दिया जाए तो मुफ़्त में ही दुह ले जाएँ!

    किसान की उक्त लूट और देश की लुटेरी प्रवृत्ति का कारण ढूँढने चलें तो उसके मूल में किसान की गरीबी और धनहीनता ही है। यदि देश के किसान की हालत सुधरी हुई और सम्पन्नता की रही होती तो ये सभी लुटेरे लूट - स्थल : मंडियों में नहीं बुलाते ! जरूरतमंद को किसान के पास ही तेल लगाने जाना पड़ता । शासन -प्रशासन भला क्यों चाहने लगा कि किसान को उसकी फसल का कुछ ऐसा मूल्य मिले कि वह सम्पन्न हो सके !यदि किसान सम्पन्न हो गया तो सब भूखे मर जायेंगे।वह बराबर कर्जदार बना रहे,यही बैंकों, शासन और सरकारों के हित में है! लड़की -लड़कों की विवाह शादी में ऋण के बिना उसका काम नहीं चल सकता। उसके बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ सकते। विदेश नहीं जा सकते। 

    गलत काम किये बिना कोई अमीर नहीं बनता।जो ईमानदार और स्वच्छ है उसी को सब लूट रहे हैं।इस दिशा में सत्य ने भी ऑंखें बन्द कर रखी हैं। जहां झूठ, बेईमानी, दुराचार,असत्य,अनाचार,अत्याचारऔर शोषण का बोलबाला है, वही फल -फूल रहा है। पैसा कठिन परिश्रम से अर्जित नहीं होता,तिकड़म और तड़क-भड़क से होता है।जो जितना बड़ा बेईमान ,वह उतना ही सम्मानवान। दुनिया और समाज में उसका उतना ही बड़ा वितान।वही सबसे बड़ा पहलवान,धनवान। 

    किसान होना एक अभिशाप से कम नहीं। किसान जैसा संतोषी और सर्वाधिक दुखी कोई नहीं।क्योंकि सब उसे लूट खाने के लिए बैठे हैं। लूट खा ही रहे हैं। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण क्या देना?अपने-अपने कुर्ते में झाँक लेना।एक अनार सौ बीमार। सब उसे चूसने के लिए अहर्निश तैयार।इसलिए हे किसानो! हे अन्नदाताओ! हो जाओ होशियार। इन लुटेरों से बच के रहो ! खबरदार ! क्योंकि मानवमात्र के तुम्हीं हो पालनहार।अपने अस्तित्व और अस्मिता को पहचानों। किसान संगठन बनाओ और एकता का शंख गुँजाओ।तभी तुम्हें इस लुटेरी व्यवस्था से निजात मिल सकेगी। राजनेताओं और राजनीति के जाल में मत फंस जाना। अन्यथा पड़ेगा तुम्हें बहुत- बहुत पछताना। अब समय आ गया है कि किसान अपने को जानें ,पहचानें। 

 शुभमस्तु ! 

 04.12.2024●4.30प०मा० 


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रंग शुभद हेमंत [दोहा]

549/2024

             

[हठधर्मी,हेमंत,त्याग,साधना,समाज]

                     सब में एक

देश न व्यक्ति समाज को,हठधर्मी शुभ नेक।

होता   हितकारी   नहीं, सोया  हुआ विवेक।।

करना   प्रथम   विचार  ये, ऐ हठधर्मी   मूढ़।

सत्य  नहीं  जो  सोचते,   मेष   पृष्ठ  आरूढ़।।


ऋतु  आई   हेमंत  की,सुखद शीत  विस्तार।

धूप गुनगुनी  भा  रही,तन-मन बढ़ा निखार।।

रंग   शुभद  हेमंत  है,  विकसे गेंदा    फूल।

तितली  उड़ें   पराग ले, ओढ़े   पीत दुकूल।।


त्याग दिया  घर -बार  भी, बुद्ध बने  सिद्धार्थ।

क्यों मानव को  दुःख है, करे मनुज परमार्थ।।

त्याग भाव में  व्यक्ति का, निवसित  परमानंद।

संग्राही    क्या    जानता,रसमयता का   छंद??


मानव   जीवन साधना, करने का  सुविवेक।

जन - जन  को  होता नहीं,करे कर्म की  टेक।।

रहे   साधना  लीन  जो, करे  प्राप्त    गंतव्य।

देवोपम  नर  है  वही, बने  मनुज वह दिव्य।।


करता  है  शुभ  कर्म जो, दे  सम्मान समाज।

बिना कर्म मिलता नहीं,मान न कल या आज।।

सुदृढ़  श्रेष्ठ  समाज  का, साहित्यिक  सम्बंध।

उच्च  शिखर आसीन कर,बिखरे सुमन सुगंध।।

                 एक में सब

हठधर्मी   से जो रहे,   त्याग साधना    हीन।

पल्लव   है हेमंत का,वह समाज  अति  दीन।।


शुभमस्तु !


04.12.2024●5.30आ०मा०

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बस आदमी नहीं है [ गीत ]

 548/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बस देह आदमी की

पर आदमी नहीं है।


तन ढोर  सदृश  मैला

ढँकने को नहीं  कपड़ा,

बिखरे हैं बाल सिर के

रोटी का रोज  लफड़ा,

रोती हैं आँख  दोनों

तृण भर  नमी नहीं  है।


खेलें  वे  और  कूदें

कैसे न समझ  आए,

सूखी हैं आँत जिनकी

अति शीत  भी सताए,

माँ के हो वस्त्र तन पर

ये   लाजमी   नहीं  है।


मेरा महान भारत

कहते न थकते नेता,

नंगे  हैं  आम बालक

बतलाएँ  वे  ही जेता,

रहने को झोंपड़ी क्या 

तल में जमी नहीं है।


शुभमस्तु !


02.12.2024●10.30प०मा०

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सोमवार, 2 दिसंबर 2024

दुनिया ये बदल रही है [ गीतिका ]

 547/2024

          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दुनिया   ये  बदल रही है, दृढ़   टूटते किले   हैं।

उलटा   जमाना  आया, कैसे  ये सिलसिले   हैं।।


अपना हो उल्लू सीधा,फिर कौन किसको पूछे,

जिसको भी आजमाओ,उससे ही  बहु गिले हैं।


किस  बाग  में  बहारें,   मिलती   हैं  ये   बताएँ,

वह  कौन सी है डाली, जिस पर सुमन खिले हैं।


बदली है  चाल  जन की,बहे खोट का  समंदर ,

ढूँढ़ा  था  आदमी   को, बद दनुज  ही मिले हैं।


मिलते  थे  आम  पीले, मुखड़े   हैं आज ढीले,

दिखते  हैं लोग   गीले, भीतर से पिलपिले   हैं।


बाहर का  रूप  कुछ है,अंदर से रूप  रुछ  है,

चिकने  हैं  चाम  चमचम, अंदर  पड़े  छिले  हैं।


निज विश्वास की चलाना,तरणी 'शुभम् ' नदी  में,

मस्तूल  यहाँ   सभी  के, डगमग डिगे हिले   हैं।


शुभमस्तु !


02.12.2024●6.00आ०मा०

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उलटा जमाना आया [ सजल ]

 546/2024

             

समांत       : इले

पदांत        : अपदांत

मात्राभार   : 26

मात्रा पतन : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दुनिया   ये  बदल रही है, दृढ़   टूटते किले   हैं।

उलटा   जमाना  आया, कैसे  ये सिलसिले   हैं।।


अपना हो उल्लू सीधा,फिर कौन किसको पूछे।

जिसको भी आजमाओ,उससे ही  बहु गिले हैं।।


किस  बाग  में  बहारें,   मिलती   हैं  ये   बताएँ।

वह  कौन सी है डाली, जिस पर सुमन खिले हैं।।


बदली है  चाल  जन की,बहे खोट का  समंदर ।

ढूँढ़ा  था  आदमी   को, बद दनुज  ही मिले हैं।।


मिलते  थे  आम  पीले, मुखड़े   हैं आज ढीले।

दिखते  हैं लोग   गीले, भीतर से पिलपिले   हैं।।


बाहर का  रूप  कुछ है,अंदर से रूप  रुछ  है।

चिकने  हैं  चाम  चमचम, अंदर  पड़े  छिले  हैं।।


निज विश्वास की चलाना,तरणी 'शुभम् ' नदी  में।

मस्तूल  यहाँ   सभी  के, डगमग डिगे हिले   हैं।।


शुभमस्तु !


02.12.2024●6.00आ०मा०

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शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

पर मुझे रुकना नहीं है [ नवगीत ]

 545/2024

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वर्जनाएँ  तो बहुत हैं

पर मुझे रुकना नहीं है।


दो कदम आगे बढ़ा तो

बढ़ न पाते कदम मेरे

ये करो ऐसा न करना

रात -दिन बंधन घनेरे

आँख खोले यदि चलो तो

पंथ में झुकना नहीं है।


दे रहे उपदेश सब ही

बात उनकी ही सही है

और सब हैं गलत बंदे

सत्य से वह दूर ही है

आज चौराहे पर खड़ा 

भयभीत हो छुपना नहीं है।


राह भी मुझको बनानी

मंजिलें  पानी  मुझे  ही

क्यों भटकना है मुझे यों

दीप क्यों अधबर बुझे ही

चल 'शुभम्' पीछे न जाना

मध्य में  चुकना नहीं  है।


शुभमस्तु !


28.11.2024●10.45आ०मा०

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आदमी की खोज जारी [ नवगीत ]

 544/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी को आदमी की 

खोज जारी।


देह  तो  सबकी  लगे वे

आदमी हैं

आदमी थे वे सभी कल

आज भी हैं

आदमी ही आदमी  पर

बहुत भारी।


नाक मुँह दो आँख तो अच्छे

भले हैं

किंतु  पैने  दाँत  कुछ कहने

चले हैं

आदमी  ही  आदमी  को

तेज आरी।


चमड़ियों   के  रंग   से तू

भरमा नहीं

आदमी   में   आदमी  की

गरिमा नहीं

'शुभम्'समझा शहद-सा जो

विषम खारी।


शुभमस्तु !


28.11.2024●8.45 आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...