शनिवार, 27 जुलाई 2024

झूला झूल रही बाला [ गीत ]

 319/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अमराई में

आम्र - शाख  पर

झूला  झूल रही बाला।


सावन आया

रिमझिम बरसीं

अंबर से सर - सर बूँदें।

है आनंद लीन

 रज्जू गह 

अपने युगल नयन मूँदें।।


हरी-भरी

धरती सरसाई

अंबर  में  घन का ताला।


इधर हवा

बहती पुरवाई

उधर पके टपका टपके।

बालक और

किशोर सभी मिल

आम उठाने को लपके।।


भूल गई

घर की सुधि सारी

पिए प्रेम की वह हाला।


झूला खींच 

दे रहीं सखियाँ 

बार - बार  लंबे झोटे।

बैठ नहीं

पातीं झूले पर

जिनके  देह-अंग मोटे।।


'शुभम्' उन्हें

डर लगता भारी

झूला लगे नहीं आला।


शुभमस्तु !


23.07.2024●4.15आ०मा०

                  ●●●

आदमी और कूड़ा [ व्यंग्य ]

 323/2024

                  

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

आदमी का कूड़े के साथ चोली- दामन का संबंध है।यह तो हो ही नहीं सकता कि जहाँ आदमी पाया जाए और कूड़ा न पाया जाए! कूड़ा तो आदमी के आगे-पीछे,ऊपर-नीचे , अगल-बगल ;यहाँ तक कि उसके अंदर - बाहर भी कूड़ा भरा हुआ है। जब कूड़े से आदमी का इतना आत्मीय और निकट का संबंध है,तो  उसका कूड़ा-प्रेम स्वाभाविक ही है। उसे मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि वह जीवन भर कूड़ा पैदा करता है,उसे नष्ट भी करता है ;किन्तु कभी भी जीवन भर कूड़ा- मुक्त  नहीं हो पाता। यहाँ तक कि एक दिन ऐसा भी आता है कि वह अपने परिजनों के लिए स्वयं कूड़ा बन जाता है।और उस कूड़ा बने हुए आदमी को हटाने में कोई विलम्ब भी नहीं किया जाता।आदमी की देह के कूड़ा -निस्तारण को अंतिम संस्कार की संज्ञा दी जाती है।

प्रत्येक आदमी के कूड़ा-उत्पादन के अलग-अलग रूप ,प्रकार और श्रेणियाँ हो सकती हैं।जब आदमी इस धरा धाम पर आया है,तो साथ में कुछ न कुछ कूड़ा लेकर भी आया है।अत्याधुनिक आदमी कूड़े से ऊर्जा का उत्पादन भी कर रहा है।लेकिन अधिकांश लोग तो ऐसा कर नहीं सकते। अन्यथा यह कूड़ा ही उनके जीने की समस्या पैदा कर सकता है।इसलिए उसका निस्तारण भी अनिवार्य हो गया है।हमारे यहॉं कुछ ऐसे लोग भी उत्पन्न हो गए हैं ,जो भले ही देश और समाज के लिए स्वयं कूड़ा हैं,किन्तु अपना कूड़ा दूसरे के दरवाजे पर फेंक आने में कुशल हैं।इस कार्य को सुगम करने के लिए वे रात के अँधेरे और एकांत आदि का सहारा लेते हैं।बस उन्हें अवसर की तलाश है कि कब किसी की आँख से बचे कि उन्होंने अपना कूड़ा किसी पड़ौसी के  दरवाजे पर फेंका! फिर क्या है ,जब फेंकना था तो फेंक ही दिया ।अब बाद में जो भी महाभारत होना हो तो हो।जब हल्ला मचेगा ,तो वे चुप्पी साधे अपने घर के बिल में घुस जाएँगे और चुपचाप घर के कोने या किवाड़ों के पीछे खड़े होकर सुनेंगे कि कौन क्या कह रहा है। कहीं कोई उनका नाम तो नहीं ले रहा!अब यदि कोई नाम लगा भी रहा हो तो अब तो अपनी सहन शक्ति का परिचय देना उनकी मजबूरी और मजबूती हो जाती है।इससे उनकी सहन शक्ति परीक्षा भी हो लेती है और यदि सहन नहीं कर पाए तो कुंडी खोलो और निकल पड़ो जंग के मैदान में कि कूड़ा हमने नहीं फेंका। देखो इस कूड़े में भिंडी के डंठल पड़े हैं और हमारे यहाँ आज उर्द की दाल बनी है। भला यह कूड़ा हमारा कैसे हो सकता है ? जिसके घर में भिंडी बनी हो ,उसके घर की तलाशी ली जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। अंदर से चोरी  और बाहर से सीनाजोरी! इसी को कहते हैं।

मैं यह बात पहले भी कह चुका हूँ कि यह आदमी रूपी जंतु जहाँ भी गया,कूड़ा ही  उत्पादित  करता  और फैलाता गया।जो जितना अधिक कूड़ा -उत्पादन करे,वह उतना ही सभ्य ,सुसंस्कृत,धनाढ्य और आधुनिक कहलाता है। पहाड़ों पर गया तो वहाँ प्लास्टिक की बोतलें, रेडीमेड फ़ूड के रैपर,मल मूत्र फैला कर आ गया।पिकनिक मनाने गया तो वहाँ भी वही हाल।यहाँ तक कि इस आदमी ने चाँद को भी कूड़े से वंचित नहीं छोड़ा।यदि वहाँ उसने कुछ छोड़ा तो बस कूड़ा ही छोड़ा।अभी मुझे चाँद पर जाने का अवसर नहीं मिला ,इसलिए अभी यह नहीं बतला सकता कि चाँद के चंद यात्रियों ने क्या- क्या कूड़ा छोड़ा?

आदमी का शरीर ही कूड़ा उत्पादन की एक अच्छी खासी फैक्टरी है।जिससे वह हर पल हर दिन रात ,बारहों मास कूड़ा बनाता और निष्कासित करता रहता है।इसके लिए उसने हर घर में बाकायदे स्नान घर, शौचालय,मूत्रालय, कूड़ेदान आदि साधन बना रखे हैं।कोई -कोई तो इन कार्यों के लिए खेतों का सहारा लेते हैं। वैसे तो इस देश में प्रत्येक स्थान लघुशंका निवारण स्थान है ही।जहाँ  दीवार पर लिखा हो : 'गधे के पूत ,यहाँ मत मूत।' तो उस स्थान पर अनिवार्यता हो जाती है, क्योंकि  इस देश के आम आदमी  का  आम चरित्र  भी यही है कि जिस काम को करने के लिए प्रतिबंध लगाया जाए, उसे जरूर करो।  बस वह इसी सिद्धांत को गाँठ में  बाँधे हुए चल पड़ा है।

कुछ लोगों का जन्म ही कूड़ा फैलाने के लिए हुआ है।नेता अपने भाषणों, आश्वासनों,वादाख़िलाफियों ,झूठों, अत्याचारों और शोषणों का कूड़ा देश भर में फैला रहे हैं,यह किसी से छिपा हुआ नही है। व्यभिचारी व्यभिचार का कूड़ा और स्वेच्छाचारी स्वेच्छाचार का कूड़ा फैलाकर देश और समाज को दूषित कर रहे हैं। भौतिक कूड़े का निस्तारण सम्भव है,किन्तु मानसिक और क्रियात्मक कूड़े का निस्तारण कैसे हो ? यह एक चिंतनीय विषय है।बेईमानी का कूड़ा उत्पादित और फैलाने वालों का प्रतिशत इतना अधिक है कि लगता है ये आदमी और देश की ईंट ईंट में बेईमानी भरी हुई है।समाज मे हो रहे झगड़े -फसाद, कचहरियों के मुकदमे इतने अधिक कि न्यायाधीशों को कूड़ा निस्तारण में  युग बीत जाएँगे,किन्तु आदमी का यह कूड़ा कभी समाप्त नहीं हो सकेगा।आदमी में बेईमानी की  एक ऐसी अटूट शृंखला है कि वह अमरौती खाकर आई लगती है।झूठ है तभी तो सत्य जिंदा है ,वरना सत्य को कौन पूछता है? बेईमानी के कूड़े से  ही ईमान जिंदा है। 

शुभमस्तु !

27.07.2024●9.30 आ०मा०


                     ●●●

कचरे में रोटी [नवगीत ]

 322/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ढूँढ़ रहा

कचरे में रोटी

बचपन ये नौ-दस साल ।


दाँत दूध के 

अभी  न टूटे

बे-घरबार न  अपना नीड़।

कब वसंत

आया कब निकला

उसे निरर्थक जन की भीड़।।


संवेदना

 मर चुकी जन की

सिकुड़ गई बचपन की खाल।


धन्ना सेठ

दया के सागर

खिंचवाते फोटो दो चार।

नहीं पेट में 

जाती रोटी

जननी जनक पड़े बीमार।।


अखबारों में

खबर छपाते

ऐसे हैं भारत के लाल।


तन पर लदे

चीथड़े मैले

हर दर पर मिलती दुतकार।

बदतर है हालत

ढोरों से

बचपन गया अभी से हार।।


'शुभम्' योनि

मानव की ऐसी

मिले न सूखी रोटी -दाल।


शुभमस्तु !


26.07.2024●9.30आ०मा०

                   ●●●

बेच रहा सच तेल [अतुकांतिका]

 321/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुविधाभोगी 

जनगण सारा 

सुविधाभोगी शब्द हो गए,

व्याकरण निःशब्द  

करे क्या !


राजमार्ग तज

पगडंडी पर

चलते जाते लोग,

कोई रोके - टोके किंचित

आँख तरेरें  खूब।


शुद्ध शुद्धि को

क्यों अपनाना

मनमानी अभिचार,

करना नहीं विचार,

कविता है लाचार।


बात करो मत

संविधान की

बदल गई हर चाल,

चाल-चलन की

कुछ मत पूछो

है साहित्य निढाल,

फैला मछली- जाल।


सत्य मतों पर

आधारित अब

झूठों का ही रंग,

युग बदला

साहित्य बदलता

कोरी दंगमदंग।


'शुभम्' सत्य 

खूँटी पर लटका

बहुमत का ही खेल,

हाँ में हाँ भरना

मजबूरी

झेल सको तो झेल,

बेच रहा सच तेल।


शुभमस्तु !


26.07.2024● 1.00आ०मा०

नहा नदी में नेह की [दोहा ]

 320/2024

      

[ नदी, नीर, ताल, पोखर,माटी]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक


नहा नदी में  नेह की, नर - नारी अभिषेक।

नित्य करें रचना नई, साधक सरस विवेक।।

नीर   बरसता  मेघ से , पावस  बना कृपाल।

धन्य - धन्य जन जीव हैं,भरे  नदी नद  ताल।।


प्राणों  का  आधार  है,   निर्मल सरिता    नीर।

जीव  जंतु  तरु  बाग  वन,पियें धरे उर   धीर।।

सिंचन से शुभ  नीर से,तृषा तृप्त कर  आज।

सावन आया झूमकर, सजा धरणि नव  साज।।


सावन  में  नद ताल सरि  ,देते  हैं नव  ताल।

सूखे   जेठ  अषाढ़ में,बदल गया अब  हाल।।

ताल  नदी मिल  कर रहे,आपस में  संवाद।

तू  भी  मेरे  साथ में, चल- चल  रहे न  गाद।।


पोखर ताल तड़ाग सरि,सजल मेह की धार।

सावन  भादों   झूमते, कभी  न  मानें हार।।

पोखर ताल तड़ाग  में,खिलते कमल सुभोर।

अमराई   में   नाचते ,   रिझा   मोरनी   मोर।।


माटी   का  चंदन   लगा,  चले वीर  रणधीर।

रक्षा   करने  देश   की,सुरसरि का पी  नीर।।

माटी  का   निर्माण है, मानव की यह   देह।

समझ नहीं  लेना इसे,अपना अविचल   गेह।।


                  एक में सब

नदी ताल पोखर सभी,भरे हुए शुभ  नीर।

माटी का आधार है,  महके   सुघर  उशीर।।


शुभमस्तु !


24.07.2024●3.15प०मा०

पहली गुरु जननी सदा [ दोहा गीतिका ]

 318/2024

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मात-पिता का मान रख,रहती नित अनुकूल।

संतति  वही  महान है,  उन्हें   न जाए  भूल ।।


पहली  गुरु  जननी सदा,गुरुवर जनक द्वितीय,

सिखलाया  कंधे  चढ़ा,वह  पाटल का   फूल।


अगर   कहीं  भगवान  हैं, मात -पिता साकार,

आजीवन   लेता   रहे,  जननी   पितु पद धूल।


रखे   कोख    में  मास  नौ, सोती गीली   सेज,

देवी जननी   पूज्य  नित, करे  न मूल्य   वसूल।


अँगुली   थामे   हाथ  में, सिखा रहा पद - चाल,

जन्म - जन्म   पितु  धन्य   हैं,अर्पित हुए  समूल।


आजीवन  ऋण  भार  से, मुक्त  न हो   संतान,

सुरसरि  के  वे  घाट  दो,शांत सुखद दो   कूल।


'शुभम्'  धरा  ही  स्वर्ग  है,मात-पिता के  रूप,

शब्द  न    उनसे   बोलना,  उलटे ऊलजलूल।


शुभमस्तु !

21.07.2024●11.00प०मा०

                     ●●●

मात -पिता का मान [सजल ]

 317/2024  

समांत       : ऊल

पदांत        :अपदांत

मात्राभार    : 24.

मात्रा पतन :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मात-पिता का मान रख,रहती नित अनुकूल।

संतति  वही  महान है,  उन्हें   न जाए  भूल ।।


पहली  गुरु  जननी सदा,गुरुवर जनक द्वितीय।

सिखलाया  कंधे  चढ़ा,वह  पाटल का   फूल।।


अगर   कहीं  भगवान  हैं, मात -पिता साकार।

आजीवन   लेता   रहे,  जननी   पितु पद धूल।।


रखे   कोख    में  मास  नौ, सोती गीली   सेज।

देवी जननी   पूज्य  नित, करे  न मूल्य   वसूल।।


अँगुली   थामे   हाथ  में, सिखा रहा पद - चाल।

जन्म - जन्म   पितु  धन्य   हैं,अर्पित हुए  समूल।।


आजीवन  ऋण  भार  से, मुक्त  न हो   संतान।

सुरसरि  के  वे  घाट  दो,शांत सुखद दो   कूल।।


'शुभम्'  धरा  ही  स्वर्ग  है,मात-पिता के  रूप।

शब्द  न    उनसे   बोलना,  उलटे ऊलजलूल।।


शुभमस्तु !

21.07.2024●11.00प०मा०

                     ●●●

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...