169/2025
©व्यंग्यकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
'ठप्पा' भला कौन नहीं जानता। व्यक्ति की गरिमा गुरूर और गुरुत्व के लिए एक न एक ठप्पा लगना बहुत जरूरी है। बिना ठप्पे के आदमी , आदमी कहाँ! यहाँ सबको एक न एक ठप्पा तो चाहिए ही चाहिए। अब यह वांछित ठप्पा येन केन प्रकारेण मिले, पर मिलना अनिवार्य है।
इस देश में ठप्पा अर्जित करने के अनेक साधन हैं।ठप्पा अर्जित करना किसी साधना से कम नहीं है।अब वह भेड़ाचरण संहिता पर आधृत जन चुनाव प्रक्रिया से हो अथवा नामित कर दिया जाये। आसमान से टूटकर सीधा हमारे पास आ जाए और बीच में किसी खजूर में न अटकने पाए। ठप्पा ऐसा लगना चाहिए , जो आजीवन हमारे देह से चिपका रहे। सोते हुए भी कोई आवाज दे : 'प्रधान जी!' तो हमारी नींद खुल जाए कि भला हमारे बराबर भला कौन है जो प्रधान जी कहला सके। पैंतीस साल प्रोफ़ेसर रहे व्यक्ति को गली- मोहल्ले वाले ,रिक्शे ठेले वाले मास् साब ! मास्साब ! कहते हैं ,पर सिपाही जी कभी दरोगा या दीवान जी की कुर्सी से नीचे नहीं उतरते। यही तो वे ठप्पे हैं ,जो एक बार लग जाएँ तो फिर छुड़ाए नहीं छूटते।छुड़ाना भी कौन चाहता है भला ! पैसे के बल पर बड़े-बड़े ठप्पे बना लिए जाते हैं। मिलावट खोर सेठ हो जाता है, फर्जी डिग्री बेचक महामहिम कुलाधिपति कहलवाता है।शिक्षा माफिया नकल करा-करा के डिग्रियों के बंडल बेचकर अरबों में खेलते हैं।
यों तो नाम कमाना आसान नहीं होता,किंतु शॉर्टकट रास्ते से यहाँ क्या कुछ हासिल नहीं किया जा रहा है ! बस गाड़ी की डिग्गी में नोटों के बोरे होने चाहिए। अब पॉकिट में या हाथों में नोटों की गड्डियों से काम नहीं चलता।यह देश प्राचीन काल से ही विश्व गुरु कहलाता आ रहा है। भले ही दुनिया अंतरिक्ष में खोज कर रही हो,पर यहाँ कब्रें खोदने से फुरसत नहीं है। दुनिया ऊपर जा रही है तो 'विश्व गुरू' अपना झंडा अंधेरों में फहरा रहा है। बात ठप्पों की है,तो शोध का एक ठप्पा यह भी तो कुछ कम नहीं। शायद कुछ नया मिल ही जाए।
आदमी के लिए काम करना अनिवार्य नहीं है।जब चाहिए एक ठप्पा ; तो क्यों न ठप्पा -फैक्टरी ही खोल ली जाए !जहां तरह -तरह के ठप्पे बनाएँ और मनमाने दाम पर बेचे जाएं। इन नकली क्रीत ठप्पों के बल पर लोग शिक्षक, प्रोफेसर, प्रशिक्षक और न जाने क्या-क्या बन गए ! कंपाउंडर डॉक्टर बने हुए करोड़ों में खेल रहे हैं।वे भी नकली, डिग्री भी नकली। नकल और नकली की राजधानी बना हुआ 'विश्वगुरू' विदेश में नहीं तो अपनी गलियों में तो झंडे गाड़ ही रहा है। सब ठप्पों का चमत्कार है। ठप्पों की बहार है।ठप्पों से बहार है।ठप्पों से ही घर -बार गुलज़ार है। रैडीमेड ठप्पे मिल रहे हैं। जिसे चाहिए वह खरीद लें। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।
सहित्य के खेतों की ओर दृष्टिपात करें तो वहाँ भी स्वयं निर्मित स्वयंभू ठप्पे मिल ही जाएँगे। किसी ने साठ साल की उम्र में युवा चर्चित कवि का ठप्पा लगा रखा है ,तो कोई अपने को वरिष्ठ कवि कहलवा रहा है।कोई श्रेष्ठ साहित्यकार की ओढ़नी ओढ़े हुए इतना अवगुंठित है कि उसे अपने समक्ष कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा है।यहाँ ठप्पों की भरमार है।कोई किसी से नीचे नहीं हैं। सभी वरिष्ठ हैं।साहित्य के मूल्य और मूल्यांकन को भला पूछता ही कौन है! जो जितना बड़ा ठप्पाधारी है, वह उतना ही महान अवतारी है। पूछिए हर उस आम से ,जिस पर कोई ठप्पा नहीं चिपका हुआ है। जब नहीं मिल पाता है कोई उचित ठप्पा,तो कोई कोई तो बन जाता है किसी का चमचा। उसी में वह भर-भर भगौना खीर उड़ाता है। और 'उनका आदमी' कहलाता है।आखिर कहीं तो ठप्पे की तसल्ली करनी पड़ती है।
शुभमस्तु !
23.03.2025●11.00आ०मा०
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