रविवार, 23 मार्च 2025

ठप्पा [व्यंग्य]

 169/2025

               

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


'ठप्पा' भला  कौन नहीं जानता। व्यक्ति की गरिमा गुरूर और गुरुत्व के लिए एक न एक ठप्पा लगना बहुत जरूरी है। बिना ठप्पे के आदमी , आदमी कहाँ! यहाँ सबको एक न एक ठप्पा तो चाहिए ही चाहिए। अब यह वांछित ठप्पा येन केन प्रकारेण मिले, पर मिलना अनिवार्य है।


 इस देश में ठप्पा अर्जित करने के अनेक साधन हैं।ठप्पा अर्जित करना किसी साधना से कम नहीं है।अब वह भेड़ाचरण संहिता पर आधृत जन चुनाव प्रक्रिया से हो अथवा नामित कर दिया जाये। आसमान से टूटकर सीधा हमारे पास आ जाए और बीच में किसी खजूर में न अटकने पाए। ठप्पा ऐसा लगना चाहिए , जो आजीवन हमारे देह से चिपका रहे। सोते हुए भी कोई आवाज दे : 'प्रधान जी!' तो हमारी नींद खुल जाए कि भला हमारे बराबर भला कौन है जो प्रधान जी कहला सके। पैंतीस साल प्रोफ़ेसर रहे व्यक्ति को गली- मोहल्ले वाले ,रिक्शे ठेले वाले मास् साब ! मास्साब !  कहते हैं ,पर सिपाही जी कभी दरोगा या दीवान जी की कुर्सी से नीचे नहीं उतरते। यही तो वे ठप्पे हैं ,जो एक बार लग जाएँ  तो फिर छुड़ाए नहीं छूटते।छुड़ाना भी कौन  चाहता है भला ! पैसे के बल पर बड़े-बड़े ठप्पे बना लिए जाते हैं। मिलावट खोर सेठ हो जाता है, फर्जी डिग्री बेचक महामहिम कुलाधिपति कहलवाता है।शिक्षा माफिया नकल करा-करा के डिग्रियों के बंडल बेचकर अरबों में खेलते हैं।

यों तो नाम कमाना आसान नहीं होता,किंतु शॉर्टकट रास्ते से यहाँ क्या कुछ हासिल नहीं किया जा रहा है ! बस गाड़ी की डिग्गी में नोटों के बोरे होने चाहिए। अब पॉकिट में या हाथों में नोटों की गड्डियों से काम नहीं चलता।यह देश प्राचीन काल से ही विश्व गुरु कहलाता आ रहा है। भले ही दुनिया अंतरिक्ष में खोज कर रही हो,पर यहाँ कब्रें खोदने से फुरसत नहीं है। दुनिया ऊपर जा रही है तो 'विश्व गुरू' अपना झंडा अंधेरों में फहरा रहा है। बात ठप्पों की है,तो शोध का एक ठप्पा यह भी तो कुछ कम नहीं। शायद कुछ नया मिल ही जाए।

आदमी के लिए काम करना अनिवार्य नहीं है।जब चाहिए एक ठप्पा ;  तो क्यों न ठप्पा -फैक्टरी ही खोल ली जाए !जहां तरह -तरह के ठप्पे बनाएँ और मनमाने दाम पर बेचे जाएं। इन नकली क्रीत ठप्पों के बल पर लोग शिक्षक, प्रोफेसर, प्रशिक्षक और न जाने क्या-क्या बन गए ! कंपाउंडर डॉक्टर बने हुए करोड़ों में खेल रहे हैं।वे भी नकली, डिग्री भी नकली। नकल और नकली की राजधानी बना हुआ 'विश्वगुरू' विदेश में नहीं तो अपनी गलियों में तो झंडे गाड़ ही रहा है। सब ठप्पों का चमत्कार है। ठप्पों की बहार है।ठप्पों से बहार है।ठप्पों से ही घर -बार गुलज़ार है। रैडीमेड ठप्पे मिल रहे हैं। जिसे चाहिए वह खरीद लें। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।

सहित्य के खेतों की ओर दृष्टिपात करें तो वहाँ भी स्वयं निर्मित स्वयंभू  ठप्पे मिल ही जाएँगे। किसी ने साठ साल की उम्र में युवा चर्चित कवि का ठप्पा लगा रखा है ,तो कोई अपने को वरिष्ठ कवि कहलवा रहा है।कोई श्रेष्ठ साहित्यकार की ओढ़नी ओढ़े हुए इतना अवगुंठित है कि उसे अपने समक्ष कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा है।यहाँ ठप्पों की भरमार है।कोई किसी से नीचे नहीं हैं। सभी वरिष्ठ हैं।साहित्य के मूल्य और मूल्यांकन को भला पूछता ही कौन है! जो जितना बड़ा ठप्पाधारी है, वह उतना ही महान अवतारी है। पूछिए हर उस आम से ,जिस पर कोई ठप्पा नहीं चिपका हुआ है। जब नहीं मिल पाता है कोई उचित ठप्पा,तो कोई कोई तो बन जाता है किसी का चमचा। उसी में वह भर-भर भगौना खीर उड़ाता है। और  'उनका आदमी' कहलाता है।आखिर कहीं तो ठप्पे की तसल्ली करनी पड़ती है।

शुभमस्तु !

23.03.2025●11.00आ०मा०

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ठप्पा हमको मिल जाए [नवगीत]



168/2025

   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गिरे गगन से

ठप्पा हमको मिल जाए।


भ्रष्टाचार  मिलावट के

हम गुरू बड़े

अँधियारे में लिए

हाथ में दिये खड़े

बोएं एक न बीज

कमल दल खिल जाए।


फर्जी डिग्री बेच

बने  अधिपति ज्ञानी

अपनी ही उपाधि

अपने सिर पर तानी

पूँछ उठे जब ऊपर को

सब हिल जाए।


'विश्व गुरू' हम कहलाते 

कम बात नहीं

बस ठप्पे की बात 

बनाएँ वही सही

करनी पूछे कौन

भले तिल-तिल जाए।


सोने में पीतल है

धनिया लीद मिला

पानी में है दूध

 कहीं फिर भी न गिला

बड़े प्रेम से ज़हर

देश दावत खाए।


शुभमस्तु !


23.03.2025●9.45आ०मा०

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[11:05 am, 23/3/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

सुनीता विलियम्स [ अतुकांतिका ]

 167/2025

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नौ महीने चौदह दिन बाद

अंतरिक्ष से लौटे

वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स

और बुच विल्मोर,

फ्लोरिडा का समुद्र तट

तीन बजकर 

सत्ताईस मिनट की

सुहानी भोर,

स्पेशएक्स्क्रू-9 कैप्स्यूल

उन्नीस मार्च 

दो हजार पच्चीस।


अंतरिक्ष यात्रियों के

साहस को

नमन करता है संसार,

एक नाउम्मीद

उम्मीद में बदली,

हट गई 

आशंकाओं की बदली,

उनके दुर्लभ अनुभव

जगत ये जाने,

यह भी एक अनुभव है

इसे आगे बढ़ने की

प्रेरणा माने।


वही मुस्कराहट है

वही सुनीता हैं 

बुच हैं,

अनहोनी के बीच

प्रत्यक्ष दो सच हैं।


जय हो विज्ञान की

जय हो  साहस की

मानव के ज्ञान की,

साढ़े उन्नीस करोड़ 

किलोमीटर की महान

दुस्साहसिक यात्रा,

चार हजार

पाँच सौ छिहत्तर बार

पृथ्वी परिक्रमा,

कल्पनातीत अनुभव,

झूलासन गाँव 

गुजरात की   

भारतीय मूल की 

बेटी को नमन।


शुभमस्तु !


20.03.2025●2.30प०मा०

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बातें हमें भाती नहीं हैं [नवगीत]

 166/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खोखले आदर्श की

बातें हमें भाती नहीं हैं।


सोच सबकी भिन्न होती

आज तुमको जानना है

जो उगा हो घास के सँग

घास जैसा मानना है

हम बबूलों से कभी

रातें कभी महकी नहीं है।


तुम उगे क्यारी गुलाबी

पंक से पैदा हुआ मैं

जन्म से ले रजत चमचे

तुम हुए,माँ की दुआ मैं

पीठ है भारी तुम्हारी

मेरी बड़ी छाती नहीं है।


श्याम को तुम श्वेत करते

निगल जाओ सूँड़ हाथी

मरती नहीं गृह मक्क्खियाँ भी

एक अपना है  न  साथी

रवि मंडलों के पार हो तुम

 इह तेल या बाती नहीं है।


शुभमस्तु !


19.03.2025●8.30प०मा०

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अमराई [दोहा]

 165/2025

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगे   चैत्र- वैशाख   ज्यों, अमराई में  धूम।

मची  हुई  है  भोर  से, भ्रमर रहे मधु चूम।।

बौराए   हैं  आम  के, सघन  कुंज छतनार।

अमराई  में   गूँज  है, भ्रमरों का अधिकार।।


सावन   में  अमराइयाँ,  हलचल  से भरपूर।

डाल -डाल   झूले  पड़े,  गोरी मद में चूर।।

अमराई   में    खेलते,    बालक वृंद अनेक।

सघन छाँव  है आम की,कोलाहल अतिरेक।।


होली   आई   झूमते , तितली भ्रमर अनेक।

रौनक  में अमराइयाँ,लिए  सघन दल  टेक।।

कुहू - कुहू  कोकिल  करे, अमराई की छाँव।

बाग  महकते   बौर  से, चहक  रहे हैं  गाँव।।


ग्वाल     प्रतीक्षा  में   खड़े,  आएँ राधेश्याम।

अमराई  की   छाँव   में,क्रीड़ा करें ललाम।।

आते  ही  ज्यों ही दिखे, भौंह नचाते श्याम।

अमराई खिल-खिल गई,गृह तज आईं वाम।।


गिरे    टिकोरे   आम  के, अमराई के  बीच।

बालाएँ   प्रमुदित  बड़ी,जो थीं खड़ीं नगीच।।

थके  पथिक को भा रही,अमराई की छाँव।

भूभर  में  जिनके जले,बिना उपानह पाँव।।


अमराई  में  चू    रहे,  खटमिट्ठे  फल आम।

बाला युवती  भावतीं,  ब्रजनारी सब वाम।।

शुभमस्तु!


19.03.2025● 11.00आ०मा०

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कुहू-कुहू कोयल करे [ दोहा ]

 164/2025

     

[कोयल, कचनार,सेमल,कलिका, कामदेव]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

कुहू-कुहू कोयल करे, आया मास  वसंत।

अमराई बौरा रही, कलियाँ  कलित अनंत।।

कोयल -वाणी जब सुनी,उठे हिये में हूक।

प्रोषितपतिका है दुखी,  करती है दो टूक।।


कांत कली कचनार की,झूम रहीं हर  डाल।

सुमन बैंजनी नाचते,बजा -बजा ज्यों  ताल।।

खाँसी कफ सूजन सभी,हरण करे कचनार।

कलिका की सब्जी  बना, खाएँ हो उपचार।।


पत्रहीन   सेमल   खड़ा ,जंगल के  एकांत।

लाल सुमन मुस्का रहे,  हृदय हुआ उद्भ्रांत।।

कटि पीड़ा या कब्ज हो,सेमल का उपचार।

भूला यह  जाता  नहीं ,  सुंदर  पर उपकार।।


हर कलिका में फूल का,होता प्रौढ़ विकास।

महक रही है डाल पर ,  बनी वृत्य अनुप्रास।।

यौवन मानो फूल है, कलिका वयस किशोर।

उषा  उदय  उपरांत ही, होता है शुभ  भोर।।


कामदेव करते   कृपा, होता सृष्टि  विकास।

खिलतीं कलियाँ देह में,अंग विकसते   खास।।

कामदेव ऋतुराज का,आया  फागुन   मास।

फूल हँसे कलियाँ खिलीं,तन में हुआ उजास।।


                    एक में सब

सेमल की कलिका खिली, कामदेव का रंग।

कोयल बोले   बाग  में, शुभ कचनार उमंग।।


शुभमस्तु !


19.03.2025●6.00आ०मा०

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अपने-अपने पैमाने से [नवगीत]

 163/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपने- अपने पैमाने से

माप रहे रचनाएँ।


तुमने देखा तुम ही जानो

मेरी मैं ही जानूँ

झूठ कहो मेरी बातों को

क्यों यह मैं सच मानूँ

सबके अनुभव अलग-अलग हैं

देख हमें  उबकाएँ।


थोपो मत अपने दर्शन को

लाद रहे हो जबरन

भाव नहीं होते हैं कवि के

किसी अन्य की उतरन

होंगे जमीदार तुम अपने

नहीं हमें समझाएं।


तुमने  पाटल कमल सजाए

यहाँ उगी बस सरसों

उगे धतूरे के कुछ पौधे

खेत हमारे बरसों

बहे स्वेद अंगों से निशिदिन

कैसे कर बतलाएँ।


मैं लकीर की करूँ फ़कीरी

मुझसे कभी न होना

झूठे आदर्शों में लिपटा 

नहीं रो सकूँ रोना

चाटुकारिता भरी मधुरता

से न हमें बहलाएँ।


शुभमस्तु !


18.03.2025●10.15 आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...