रविवार, 30 जून 2019

ग़ज़ल

मनभाया   मनभाया   है।
तेरा    सुंदर     साया है।।

मेरी   किस्मत  अच्छी  है,
तू   मेरे    घर    आया  है।

झेली  हैं मुश्किल कितनी,
मिली शज़र की  छाया है।

माज़ी  को समझा  किसने,
जुल्मो -सितम जो ढाया है।

रो - रो  कर   रातें    काटीं,
गीत  प्यार    का गाया  है।

ख़ारों में  उलझा अब तक,
फ़ूल   आज  मुस्काया  है।

वक़्त  बदलता   है सबका,
'शुभम' आज कह पाया है।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शनिवार, 29 जून 2019

नकल का सुख [व्यंग्य]

   नकल का भी अपना ही सुख है।हम बचपन से नकल करते -करते बड़े हो गए। छोटे थे तो अपने माता -पिता और बड़ों की नकल की।नकल से बहुत कुछ सीखा ।और इस प्रकार नकल से असल रूप में तैयार हो गए। पर नकल करने का हमारा संस्कार नकली नहीं रहा। वह असली हो गया। नतीजा यह हुआ कि नकल हमारा जन्मसिद्ध अधिकार ही हो गया।अब तो बिना नकल के हम आगे बढ़ना ही नहीं चाहते।
   जैसे - तैसे करके स्कूली शिक्षा पार कर ली । कालेज में भी पहुँच गए ।यहाँ पर देखा तो बहुत ही प्रसन्नता हुई। यहाँ हमें न पुस्तकों की ज़रूरत थी न पढ़ने लिखने की। और तो और यहाँ जाकर हाज़िरी देना भी भी ज़रूरी नहीं रहा।जाओ तो ठीक और नहीं जाओ तो और भी ठीक। न टीचर चाहते कि छात्र कॉलेज में आएं न कालेज के मालिक ही चाहते कि बच्चे आएं क्योंकि छात्र आएंगे तो उन्हें टीचर रखने पड़ेंगे और टीचर होंगे तो उन्हें वेतन भी देना ही पड़ जाएगा। इसलिए यही हमारे हित में है कि छात्र कालेज में आएं ही नहीं। बस एक दो क्लर्क टाइप लड़के रख लिए जाएं जो समय -समय पर फीस जमा करने , छत्रवृत्ति फार्म , परीक्षा फॉर्म, परीक्षा फीस आदि जमा करने के लिए उन्हें मोबाइल से सूचना देते रहें। इधर छात्रों को औऱ भी बहुत सी जिम्मेदारियों का भी निर्वाह करना आवश्यक था। जैसे पत्नी की जिम्मेदारी ,रोजी -रोटी की जिम्मेदारी, पिताजी के आदेश को पूरा करने की लाचारी, क्योंकि पिताजी ही कब चाहते हैं कि बच्चे पढ़ - लिखकर गुणी बनें। मास्टर साहब से कह देंगे तो नकल तो मिल ही जाएगी।
   जब बचपन से ही कभी कुछ नहीं पढ़े तो नकल करना तो हमारा जन्म सिद्ध अधिकार ही बन जाता है। लेकिन लल्लू नकल के लिए भी अकल चाहिए। सो उतनी तो है ही। परीक्षा -हॉल में खड़े होकर वे बोलते जाएंगे औऱ हम लिखते जाएंगे। सी सी टी वी कैमरा लगा है तो क्या ? इतनी तो अकल उनमें भी है कि ऐसे हालात में नकल कैसे कराई जानी चाहिए। आखिर तो वे हमारे गुरू हैं। गुरू तो फिर गुरू ही हैं। वे कैमरे के चरणों मेंमें जाकर खड़े हो गए और कैमरे ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। फिर क्या जो चाहो करो, जैसे चाहो करो। वे गैस पेपर थामे बोलते रहे हम लिखते रहे। एक -दो सवालों के उत्तर छूट गए तो क्या? पास तो हो ही जायेंगे। पुलिस में भर्ती हो जाएगी। और करना भी क्या है ? किश्मत ने जोर मारा तो प्राइमरी के मास्टर भी हो जाएंगे।
   वास्तव में नकल का अपना बड़ा सुख है। हीरो -हीरोइनों से नकल करके नए-नए हेयर -स्टाइल आ रहे हैं। फ़टी हुई जीन्स पहनने का फैशन सिनेमा की ही देन तो है। मैले -कुचैले बिना क्रीज के कपड़े पहनने की नकल भी तो हमारे अविष्कारक अभिनेताओं की खोज है। जिसकी नकल में नई पीढ़ी दीवानी है।
   कहा जाता है कि जो जितना अधिक प्रकृति के निकट है , वह उतना ही सुखी है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आदमी भी भेड़ -चाल में बहुत अधिक आगे बढ़ गया है। क्या जरूरत है अपने दिमाग पर जोर डालने की? 'महाजनो येन गतः स पंथा:। अर्थात महा जन (बड़े लोग ) जिस मार्ग पर जा रहे हों , उस मार्ग पर आँखें बंद करके चलते चले जाना ही उचित है। इस प्रकार नकल से कुछ भी सीख लेने का दायरा बराबर बढ़ता जा रहा है। 'नकल' शब्द बड़ा व्यापक है। 'न' अर्थात नहीं, और कल अर्थात भविष्य ,आने वाला कल। जिसका कोई आने वाला कल न हो , अर्थात जिसका कोई भविष्य न हो, उसे 'नकल' जैसे महान शब्द की संज्ञा से अभिहित  किया जाता है। कहने का आशय यह है कि नकल मात्र वर्तमान -जीवी है। उसे भविष्य की चाहत है, न चिंता।वह तो केवल आज और अभी में विश्वास करती है। जब हमारा आज अर्थात वर्तमान सुधर जाएगा तो क्या अतीत औऱ क्या भावी , सब स्वतः सुधर ही जाने हैं। इसलिए प्यारे संतो! केवल औऱ केवल नकल यानी वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करते हुए कल की मत सोचो। न बीते हुए कल की न आने वाले कल की। सब कुछ नकल में रहस्यमय रूप से इस प्रकार छिपा हुआ है जैसे रात के नीचे दिन, अँधेरे के पीछे उजाला , चंन्द्रमा के पीछे सूरज का गोला, अकर्मण्यता के पीछे मेहनत का निवाला। इसलिए जितना भी हो सके वही गुर हासिल करो जिससे नकल को और भी प्रभावी बनाया जा सके।
   ये सरकारें ये प्रशासन : सभी नकल के दुश्मन हैं। जो नकल रोकने के पीछे इतना पेट्रोल , पैसा औऱ समय बरबाद करते हैं। इतने पैसे से तो नकल करने के बहुत सारे संसाधन जुटाए जा सकते हैं।लाखों करोड़ों के धन का अपव्यय नकल रोकने में कर दिया जाता है। असली सुख तो नकल में ही है। नकल करो और सुख भोगो, बस यही नारा होना चाहिए। आज की नई पीढ़ी इस नारे में पूरा विश्वास करती है।
   परीक्षा का भी एक विशेष मौसम होता है। इस मौसम में क्या छात्र , क्या अभिभावक और क्या टीचर: सभी एक ही रंग में रंग जाते हैं। जैसे वसन्त में होली , वैसे मार्च अप्रेल में परीक्षा की रंगोली। पिता स्वयम चाहते हैं कि बेटा ज़्यादा से ज्यादा नम्बर लाए । लड़का बी ए कर रहा है। शादी के लिए देखने वालों को बताने के लिए हो जाएगा। वक्त पर डिग्री काम आएगी। छात्र का तो संस्कार ही पूज्य पिताजी की कृपा से नकल का बन गया है , तो अवश्य ही मास्टर जी से सिफ़ारिश करेंगे कि यदि कृपा हो जाए तो वे उन्हें खुश करने में कोई कमी बाक़ी नहीं रखेंगे।कॉलेज मालिक को ये खुशी होगी कि बिना हर्रा फ़िटकरी के रिज़ल्ट का रंग चोखा हो जाएगा। इस प्रकार त्रिगुणात्मक शक्ति के सशक्त सहयोग से नकल में चार चांद लग जाएंगे। आ हा हा नकल की कथा अनन्त है। नक़ल का सुख अनन्त है।ऐसा भी कोई संत है , जो कहे कि नक़ल अदन्त है। ये भूत भविष्य वर्तमान का सद्ग्रन्थ है ।

💐 शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
🍀 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 28 जून 2019

नियम तोड़ो:सुखी रहो [व्यंग्य]

    इस असार किन्तु असरदार संसार में जन्म लेने वाले हर जीव को सुख चाहिए। इस सुख को पाने के लिए वह कुछ भी करने के लिए वह तैयार रहता है।सुअर कीचड़ -आसन में लीन रहता हुआ परम् सुख की अनुभूति प्राप्त करता है। उसे इसके लिए किसी नियम या आचार - संहिता की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार अनेक मानव देहधारी प्राणी भी देह- सुख ,मन - सुख , चर्म -सुख, नेत्र -सुख,जिह्वा- सुख, कर्ण- सुख आदि को पाने के लिए मानव द्वारा मानव के लिए ही बनाये गए किसी नियम , आचार -संहिता , संविधान , क़ानून आदि की कोई भी परवाह नहीं करते औऱ अपने ही रंग -ढंग से जीवन यापन में लीन रहते हैं।
   इसी मानव -देह में कुछ ऐसे समर्थ प्राणी भी अपने दो पैरों पर कम चार पहियों पर अधिक चलते हुए इस प्रकार जीवन जीने में ही जीवन की सफलता का अनुभव करते हैं , कि जब तक वे अपने ही नियमों का उल्लंघन न कर लें तब तक उन्हें मखमली गद्दों पर भी नींद नहीं आती। उनकी मान्यता आम मान्यता से एकदम विपरीत और स्व- निर्मित है। वे मानते हैं कि नियम तो आम आदमी के लिए होते हैं।हम तो नियमों के विधाता हैं , विधायक हैं। विधाता कोई नियमों पर थोड़े ही चलता है। वह तो आम जनता के लिए नियम बनाता है कि वे उस पर चलें। वे 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' : तुलसीदास जी की उक्ति के पालन में सांगोपांग लीन रहते हैं। यही नहीं उनके बच्चे, पुत्र पुत्रियाँ उनसे भी दो जूता आगे ही कदम रखते हैं। माँ पर पूत पिता पर घोड़ा , और नहीं तो थोड़ा थोड़ा।    आपने देखा और अखबारों में पढ़ा होगा , कि टॉल टेक्स वालों को पीटते हुए विधायक , सांसद या मंत्री -पुत्र पिट गए ।क्यों ? क्योंकि वे विधान को रूपाकार देने वाले अमुक- अमुक बड़े बाहुबली नेता जी के 'सुपूत' थे। किसी बड़े पुलिस- अधिकारी के लाड़ले थे। वे न तो टॉल टेक्स देना चाहते थे न किसी की सुनना ही उन्हें पसंद था। वे तो बस अपनी ही हनक में क़ानून को हाँकना चाहते थे। ये भी एक सुख ही है , जिसे नेता -पुत्र या अधिकारी -पुत्र भुनाते हुए अपने पिताओं के नाम रौशन करते हैं।
   इसी प्रकार सड़क पर यातायात के नियमों को सूखे पापड़ की तरह तोड़ते हुए बिना हेलमेट , बिना सीटबेल्ट , बिना लाइसेन्स, बिना आवश्यक कागज़ात सर्राटा मारते हुए तीन तीन सवारी बाइक पर लेकर ऐसे चलते हैं जैसे आकाश में एअर इंडिया का विमान उड़ा रहे हों। उन्हें न क़ानून का डर न मरने का  भय। उनका यही सुख है।
   ईमानदारी से जीवन जीना भी कोई जीना है? जब तक बेईमानी, गबन, रिश्वत, चोरी , भृष्टाचारी , ऊपरी कमाई जैसे 'वैध' साधनों का सहारा न लिया जाए तब तक सुख कहाँ? जो मिठास चोरी से प्राप्त गुड़ में है , वह ईमानदारी से कमाई जलेबी में नहीं होती। इसलिए चोरी करना ज़रूरी है। यदि सूखे वेतन से ही काम चल जाए तो कोई 'ऊपरी कमाई' के लिए रिश्वत क्यों ले ? भृष्ट तरीके क्यों अपनाए? चोर प्रवृत्ति के लोग चोरी क्यों करें ? इसलिए करें कि भगवान कृष्ण ने भी चोरी की थी। ये भगवानत्व का विशेष 'सद्गुण' कैसे आएगा। उन्हें भी उस चौर्य कला का आनन्द मिले! जिसकी चर्चा महर्षि वात्स्यायन ने अपने जगत्प्रसिद्ध 'कामसूत्र' में की है। अंततः चोर की गई चोरी के औचित्य का शोध कर ही लेता है। इस प्रकार चोरी करके सुख पाना आदमी की एक कुशल कला की पहचान है।
   इसी संदर्भ में यह भी कहना समीचीन होगा कि आदमी - औरत का छिनरा- पन भी बहुत सुख देने वाला है। अपनी सुंदर सुशील पत्नी को छोड़कर पराई स्त्रियों से तन -मन लगाने की बात कोई नई नहीं है।आदिकाल से ऐसा होता चला आ रहा है। इंद्र को अहल्या पर मन आ गया तो वह गौतम ऋषि का वेश बनाकर उसके साथ छल पूर्वक दुष्कर्म करने से नहीं चूका । पराशर ऋषि को एक निषाद बालिका मत्स्यगंधा (सत्यवती) भा गई तो उन्होंने अपने चरित्र, तप , ज्ञान , विवेक औऱ नैतिकता को दूर जंगल में फेंक दिया और नाव में अपने मन की करके सुख पा लिया।
   बड़े गर्व के साथ कहते हुए ये सुना जा सकता है कि हम ऋषियों की संतान हैं। क्या हम ऐसे ही ऋषियों की संतान हैं , जो विवेकशून्य और अपने तप को तन की आसक्ति वश तिलाजंलि देने में तिल भर विलम्ब नहीं करते थे? औऱ तो और एक अप्सरा मेनका ने ही ऋषि विश्वामित्र के तप को भंग करते हुए अपने सुख का सृजन किया। अपनी को भुलाकर पराई का जो दैहिक सुख है यह भी आदमी की आदिम संस्कार शाला से निकला हुआ अमर- पाठ है। जिसे वह युग -युगांतर से याद करता आ रहा है। सब कुछ सुख के सृजन के लिए समाज के बनाये नियमों और आचार संहिताओं का खुला उल्लंघन करते हुए। इस स्थान पर आदमी विवाह -संस्था को भी धता बता देता है :दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज है!
   आदमी ने सुख के साधनों का सृजन करने के लिए अनेक शोध कर डाले हैं। इसी ओर वह निरंतर अग्रसर भी हो रहा है। नैतिकता , नियम , क़ानून, आचरण -संहिता शायद मोटे -मोटे ग्रंथों में छपाकर पुस्तकालयों की अलमारियों में सजावट की वस्तु बनकर रह गई है। अपनी आत्मा की आँख से बचने की कोशिश में लगा हुआ आदमी रात -दिन नियम तोड़कर सुख खोज रहा है। उसकी मान्यता है कि जब सुख ही नहीं तो जीवन कैसा? इसलिए चाहे सब कुछ टूट जाए, पर सुख तो मिलना ही चाहिए।कीड़े-मकोड़े भी सुख ढूंढ़ रहे हैं। फ़िर आदमी और अन्य जीवधारियों में भेद क्या?

हाँ,  भई सबसे बड़ा  है सुख,
 क्यों  देखें  नियमों  का मुख,
नियमों में  तो होता  है  दुःख,
नियमभंग की ओर करें रुख।

 आओ  चलें   उस  ओर,
 जहाँ जंगल  हो घनघोर,
भ्रष्ट बेईमानी का हो जोर,
जार छिनरे  रिश्वती चोर।

सुअर  से  सीखें  सुख पाना,
कूकरों  से   चरित्र   गिराना,
गधों से गधत्व  का   निभाना,
देह को मिलेगा तब सुखदाना

पहले    पशु  फ़िर   इंसान हो,
पर कीड़ेमकोड़ों से महान हो,
देह में जब तक शेष जान हो,
ऐ आदमी! तुम सुख की खान हो।

💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

अंधविश्वास [लघुकथा]

   एक दिन मैं बटेश्वर तीर्थ स्थल में पत्नी के साथ वहाँ के प्रसिद्ध मंदिरों में शंकर भगवान के दर्शनार्थ पहुँचा। बटेश्वर तीर्थस्थल यमुना के किनारे पर स्थित है। आगे बढ़ते हुए एक बड़ी भीड़ को पार करते हुए हम आगे बढ़े। सामने यमुना नदी बह रही थी। लेकिन उस समय उसका पानी बहुत ही गदला और मैला था। पानी की स्थिति देखकर मैंने पत्नी से कहा - 'क्या इस पानी में नहा पाओगी। देखो कितना गंदा पानी है।'
   इस पर पत्नी के कुछ कहने से पहले ही पास ही खड़ी हुई एक अन्य अपरिचिता अधेड़ महिला कहने लगी-'इतराओ मत। जमुना मैया हैं।' और अपनी आँखें तरेरती हुई आगे बढ़ गई। मैं उसकी बात का कुछ भी उत्तर देता , इससे पूर्व ही वह चली गई।
   मैंने सोचा, इसी का नाम अंधी आस्था है।जहाँ मथुरा आगरा के नालों, मल मूत्र से भरी नदी को जमुना मैया के नाम पर गोते लगाए जा रहे हैं। हाथ मुँह धोए जा रहे हैं। आचमन भी किए जा रहे हैं। धन्य मेरे देश , धन्य यहाँ की
अंधी आस्था औऱ विश्वास। मैं बिना यमुना में नहाए ही शंकर जी के दर्शन कर लौटा।
ॐ नमः शिवाय।

💐शुभमस्तु !
✍लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

वेदना [अतुकान्तिका]

  वेदना निःशब्द है
हृदय भी निस्तब्ध है
नहीं है कोई वाणी
न कहीं आकार भी
वेदनामय  है
सकल संसार ही।

वेद पढ़ना 
बहुत ही आसान है,
जानता यह तथ्य भी
इंसान है,
पर वेदना ????
पर वेदना का समझना
दुर्लभ बहुत है,
ज़रूरी नहीं  यह भी
सभी चेहरे  कुछ कहें,
बोलने वाले नयन
सभी होते नहीं,
वेदना उर की
अश्रु बनकर बही।

वेदना सागर की
समझता है सागर ही,
न तलैया ताल न सरिता
न सीमा में बँधी
लाल- लाल गागर ही,
गहराइयों में उसकी
सीपियाँ शंख घोंघे सभी
मोतियों का आगार भी,
बड़वाग्नि की वाणी 
सुनाती वेदना
छिपी सागर के तले,
रहस्यों से भरी
सबल चेतना को।

किस किससे कहें
छिपी उर -वेदना को,
कौन सुने
अवकाश है किसको,
उपहास ही करते सभी,
अवकाश ही अवकाश है
हँसने के लिए किसी की
वेदना पर,
नहीं है किसी के वास्ते
नयनों में नमी बाक़ी।

मात्र स्वार्थ का
घूमता हुआ घेरा,
सभी अपने स्वार्थ
अपने आनन्द में
भ्रमित भटके हुए!

पत्थर की तरह 
होता द्रवित 
उर 'शुभम ' का,
तहों में वेदना की
करता हुआ प्रतीक्षा
उस घड़ी की 
जो कह रही है-
मित्र! जब सुख भी 
न रह पाया हमेशा,
तो भला दुःख भी
नहीं रह पाएगा सदा ही।
घड़ी की जो सुई
कभी होती है नीचे
वही चढ़ती हुई 
शनैःशनैः ऊपर
पहुँच ही जाती।
समय कोई कभी 
स्थिर नहीं होता।

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 24 जून 2019

हमारी मानसिकता

   मानव जीवन मन से संचालित है। वही इस शरीर रूपी रथ का सारथी है। इस तथ्य को भगवान श्रीकृष्ण ने श्री मद्भगवत गीता में विस्तार से समझाया है। इन्द्रयों रूपी दस घोड़े उसे अपनी -अपनी दिशा में खींच रहे हैं। ऐसी दशा में यदि हमारा मन रूपी सारथी देह रूपी रथ को बचाने के लिए यदि इन इंद्रियों रूपी घोड़ों पर नियंत्रण नहीं  कर सका तो रथ का नष्ट -भृष्ट होना अनिवार्य है।
   जिन जातियों  औऱ समाजों के  संस्कार  ऐसे नहीं हैं ,कि वे आत्म नियंत्रित हो सकें ,उनके उत्थान और विकास में  सदियां लग जाएँगीं। शनैः शनैः उन्हें अपने संस्कारों में सुधार करना आवश्यक है। तन से निश्चित ही मन की महत्ता अधिक है। वह इतने विशाल तन पर नियंत्रण करता है।अवश्य ही कुछ अनिवार्य क्रियाएँ ऐसी हैं, जिन पर मन का भी नियंत्रण नहीं है। वे स्वतः चालित क्रियाएँ अहर्निश चलती रहती हैं , जिनसे हमारा जीवन चलता है। जैसे :हृदय की गति, भोजन का पाचन, अनेक अन्तःस्रावी ग्रंथियों से अनेक।पाचक रसों, हार्मोन्स आदि का आवश्यकतानुसार स्रवण, पलकों का  उठना गिरना आदि आदि।
   जैसी हमारी सोच होती है ,वैसा ही मन निर्मित होती है। सोच का सम्बंध हमारे मष्तिष्क से है। उसमें निरन्तर विचारों का खेल चलता रहता है। पल -पल  विचार बनते औऱ बिगड़ते रहते  हैं। इन्ही के बनने -बिगड़ने से मन में किसी स्थाई  धारणा का सृजन होता है, जो कालांतर में मन में एक स्थान बना लेता है।इसी मन के बारे में कहा  गया है :
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
पारब्रह्म को पाइए , मन ही की परतीति।।
   हमारा मन जितना शक्तिशाली होगा, हम भी उतने ही शक्तिशाली होंगे। कमजोर मन के लोग चूहे को भी साँप समझकर मर जाते हैं।उधर एक अपंग भी मन की दृढ़इच्छा शक्ति के बल पर अलंघ्य पर्वत पर चढ़ जाता है। यह सब कुछ मन की अपरिमेय शक्ति के द्वारा ही संपादित किया जा सकता है। संकल्प के द्वारा इसे बढ़ाया जा सकता है।
   मानव सामान्यतः मन की सात से दस प्रतिशत शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सारा जीवन व्यतीत कर देता है। शेष नब्बे से  तिरानवे प्रतिशत हिस्सा निष्क्रिय ही बना रहता है। विश्व के बड़े - बड़े वैज्ञानिक भी  अधिकतम 20 % भाग प्रयोग में लाकर चमत्कारिक खोज करते हुए अपना नाम रौशन करते हैं। कल्पना करें कि यदि शत- प्रतिशत मानसिक शक्तियों का प्रयोग हो जाए तो शायद अपने अभिमान में वह ईश्वर औऱ प्रकृति को भी भुला दे औऱ उस परम पिता को भी धता बताने लगे। संभवतः इसीलिए उसे औऱ अधिक मानसिक शक्ति के प्रयोग पर स्पीड ब्रेकर लगा दिया है। परिणामतः वह  उतनी ही परिधि में भ्रमण करते हुए अपने अहंकार का  विनाशक डंका नहीं बजा पाता। यह प्राकृतिक न्याय् है।जो मानव के हितार्थ प्रकृति के द्वारा लिया गया है।
   प्रत्येक जाति और समाज  की सांस्कारिक इच्छा शक्ति  उसे   प्रगतिशील , विकासशील और  जन हितकारी बनाती है। कहा गया है कि पेट तो कुत्ते  भी भर लेते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ ही यह है कि यदि केवल अपने लिए जिए तो क्या जिए? पशु -पक्षी, कीट पतंगे, जलचर, वनचर, थलचर करोड़ों जीव केवल अपने में ही जीते हुए स्व सीमित हैं। अधिकांश मनुष्यों का जीवन भी कुछ इसी प्रकार का है। यदि  पैदा होकर खाया ,पिया , बड़े हुए , जवान हुए , बूढ़े हुए  और मर गए तो एक  कुत्ते , बिल्ली , गधे , घोड़े के जीवन और मानव देह धारी में क्या अंतर हुआ?  इसलिए जीव का मानव देह धारण का कुछ पृथक महत्त्व  भी होता है। शिक्षा ,सुसंगति, स्वाध्याय, और संस्कार -परिमार्जन- प्रयास से इस ओर सफ़लता पाई जा सकती है। इसके लिए हमें सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। यही सच्चा मानव -धर्म है।
कहने का आशय यह है कि जातीय  और सामाजिक उत्थान के लिए निरन्तर  अपने मन को उसी प्रकार परिमार्जित  करते रहना है, जैसे पीतल के पात्र को बार-बार माँजने पर वह चमक उठता है। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है। अन्यथा 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे , के सिद्धांत पर तो चौरासी लाख योनियों में यों ही जीव को भटकते रहना होगा। फिर क्या मानव और क्या श्वान, दोनों एक समान।

💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
❤ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 23 जून 2019

योग -दोहानन्द

योग   नाम  है  जोड़ का,
जो   जोड़े    वह   योग।
तन - मन को जो तोड़ता,
कहते उसको  रोग।।1।।

तन - मन के उपयोग ही,
कहलाते      हैं     भोग।
बिना  भोग  जीवन नहीं,
कहते  हैं  सब लोग।।2।।

सदा    संतुलन   श्रेष्ठ   है,
मानव - जीवन        हेत।
भोग  संग   हो  योग  भी,
ज्यों श्यामल सँग सेत।।3।।

एक  दिवस   तो   योगमय,
तिन   सौ    चोंसठ   भोग।
ख़बर   छपे    अख़बार  में,
फिर सब  भूले  योग।।4।।

फ़ोटो  भी  खिंचवा   लिए,
टी वी    पर    भी    सीन।
योग  - दिवस   ऐसे  मना,
सेल्फ़ी  सजी  नवीन।।5।।

आपस  में   यदि   प्रेम  है,
उर   में   शुचि     सद्भाव।
यह भी  शुभकर   योग है,
भरें  हृदय  के  घाव।।6।

मन की   चंचल   वृत्तियाँ,
'शुभम'     रोकता    योग।
नियम  बिना सब व्यर्थ है,
बारहमासी      भोग।।7।।

क्लेश   अविद्या  अस्मिता ,
राग   द्वेष     कुल    पाँच।
अभिनिवेश   के   संग  में,
जलें  योग की आँच।।8।।

परमतत्त्व    से     जोड़ता ,
आत्मतत्व    को      योग।
देहभोग     में    लिप्तजन ,
भोगा     करते     रोग।।9।।

ढोंग    दिखावे    में   नहीं ,
होता   'शुभम'     सु-योग।
एक  दिवस   के  खेल  से,
बनते   बुद्ध  न लोग।।10।।

जो  मन   को  रुचिकर लगे,
उसका       करना    त्याग।
विकट योग  यह भी 'शुभम',
जाग  सके तो जाग।।11।।

राजनीति जिस घर घुसी,
हुआ     वही    बरबाद।
वही  हाल   है योग  का,
भोगी ढूढ़े  स्वाद।।12।।

राजनीति   के  घुन  बड़े-
घाघ    बदल  नित  रूप।
साँस  फुला  बाहर  करें,
वायु  बनी  विद्रूप।।13।।

एक  दिवस   के योग से,
तर       जाए      इंसान।
रोज़-रोज़ फ़िर क्यों करें,
योगक्रिया कर ध्यान।।14।।

गृहिणी  नट नित  ही करें,
नियमित   सभी  किसान।
पशु  पंक्षी   नित  योगरत,
घर जंगल खलिहान।।15।।

💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🧘‍♂ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 21 जून 2019

कुत्ते की चोट बिल्ली पर [व्यंग्य]

   पी -पीकर अपनी आँतें गला लीं। दिल का दिवाला निकाल दिया।जिगर का ज़िक्र ही क्या करें, वह भी बेचारा बे -चारा हो गया। अस्पताल में भर्ती हुए , कुछ दिन में भगवान के प्यारे हो गए। पीटा गया निरीह डाक्टर।
 
सड़कों में गड्ढे। चालक की लापरवाही ।नतीजा भयंकर दुर्घटना । कुछ मरे कुछ घायल। घायलों का अस्पताल में इलाज़। पूरी कोशिश। नहीं बचा सके उसे। पीटा गया निरपराध डाक्टर।
   खाया प्रदूषित भोजन। फैल गया देह में जहर । अस्पताल तक लाए। इलाज़ शुरू भी नहीं हुआ। डाक्टर दोषी। डाक्टर पर टूटा कहर। पीटा गया बेचारा डाक्टर।
   बड़े -बड़े नाले। न सफाई न कोई देखने वाले। पॉलीथिन के अंबार। पट गए नाले। सारा दोष प्रशासन पर। आम आदमी दूध का धुला। फैल गई महामारी। मरने लगे बच्चे और गरीब। पिटने लगे हॉस्पिटल के डाक्टर।
 
गंदगी के ढेर। जल प्रदूषित। वायु प्रदूषित। सब्जी प्रदूषित। फल रासायनिक से पकाए। तरह -तरह की बीमारियां फैलायें। बीमारियां बढ़ती ही जाएँ। मरीज को क्लिनिक पर भर्ती करायें। डाक्टर न बचा पाए। फ़िर डाक्टर ही पिट जाए।
   पैसे नहीं हैं मरीज पर। गरीब है बहुत। डाक्टर निःशुल्क इलाज़ न करे। अपनी जेब से फ़ीस न भरे, तो फिर क्या डाक्टर पिटा करे।
   बाबू , अधिकारी ,नेता कितना भी भृष्टाचार करे। व्यवसायी चाहे कम तोले कम नापे, पर उनके लिए सबकी मांफी। बलात्कारी, भृष्ट प्रशासक, पीकर चलाने वाले चालक, समाज और देश में आतंक फैलाने वाले सफेदपोश आतंकवादी । निकलते हैं पहनकर धुली खादी। उनको भला कौन पीटता है।क्योंकि वे तो सभी निरीहों को पीटते औऱ पिटवाने की उचित व्यवस्था करते हैं। पिटता तो है , केवल जीवन दान देने वाला डाक्टर ही । हर हाल में केवल गरीब बिल्ली ही चोट खाती है, कुत्ते तो अपनी टाँग उठाकर दूर बच निकलते हैं।

💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

प्रकृति और योग [अतुकान्तिका]

प्रकृति से दूर
विकृति भरपूर,
प्रकृति का साथ
जीवनी -शक्ति का हाथ,
प्रकृति की विकृति ही जगत,
जगती सृजन सृष्टि,
प्रकृति और पुरुष का योग
नवीन सर्जना का सुयोग।

 प्रकृति क्या है?
ब्रह्मांड की ज्या है,
मापती हुई 
अखिल ब्रह्मांड का व्यास,
सृष्टि का विन्यास,
एकरूपता से अनेकरूपता
पुनः अनेकरूपता से एकरूपता,
साम्यावस्था या प्रलयावस्था,
स्वरूपवस्था में 
अव्यक्त प्रकृति,
व्यक्त होते ही
विविधरूपिणी सृष्टि।

योग से सृजन 
नव निर्माण
गतिमयता जीवन,
प्रकृति से योग
योग से प्रकृति
जीवमात्र की सुगति
सद्गति सुगति।

स्वशासित प्रकृति
अनवरत अहर्निश
गतिमान
न कभी विराम विश्राम
अविराम अभिराम।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌳डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 18 जून 2019

साईं -शरणम [कुंडलिया]

1
साईं  सच   कुम्हला  रहा,
छाई       झूठ   -   बहार।
सच  के   सँग  कोई  नहीं,
झूठों      का      दरबार।।
झूठों       का      दरबार,
हो  रही   हा हा   ठी ठी।
सच   का  देश - निकार,
गल्प   की  बातें  मीठी।।
बेटा        बेटा       रहा ,
न किसी  का कोई भाई।
देख    रहे   हो शुभम,
कहाँ अब कलयुग साईं।।

2
साईं   तुमने   सब  दिया,
देय        रहा      भरपूर।
कर्महीन     नर    चूसते,
अहंकार      में      चूर।।
अहंकार       में      चूर,
धर्म   की  रक्षा   करना।
शुभम  न  हो मग़रूर,
न्याय की भिक्षा  भरना।।
आज अचानक  विपति,
शीश   पर   ऐसी  आई।
जपता      तेरा      नाम ,
दुःख   हरो   मेरे  साईं।।

3
साईं  क्या  अपराध मम,
करता     हूँ    सत  कर्म?
अपने   जाने   में   कभी,
करता    नहीं     अधर्म।।
करता    नहीं     अधर्म,
तदपि   आपदा   घेरती।
अपने       होते      शत्रु ,
शारदा   बुद्धि   फेरती।।
समझ  न पाया शुभम,
रहस्यावृत      प्रभुताई।
उबरेंगे  कब  दिवस  बुरे,
कह   दो    प्रभु    साईं।।

4
साईं    क्या  विनती  करूँ,
अंतर्यामी                 ईश।
उर    के   भीतर  तुम बसे,
शिरडी      के     जगदीश।
शिरडी      के     जगदीश,
सभी  सुख दुःख पहचानो।
करो      दूध      का    दूध ,
शुभम की विनती मानो।
मात -पिता गुरु औ' सखा,
दाता    दो        कुशलाई।
पूजन   वंदन   क्या  करूँ,
साँस - साँस   में   साईं।।

5
साईं     इस     संसार  का,
स्वार्थ     भरा    हर  रूप।
उदर  भरो उसका   प्रथम,
स्वयं    गिर   पड़ो   कूप।।
स्वयं    गिर   पड़ो   कूप,
न्याय    खूँटी   पर टाँगा।
बेईमान               हज़ार,
उन्हीं का जनमत जागा।।
जीना      दूभर      हुआ ,
बाँट    में  है    कपिआई।
मानव        दानव - रूप,
शुभम रक्षा कर साईं।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🙏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

वर्षा आई [बालगीत]

अम्मा    देखो     वर्षा   आई।
रिमझिम रिमझिम बुँदियाँ लाई।

हम  नहाएँगे   बाहर   जाकर,
सड़क खेत गलियों में आकर,
दौड़  भाग  कर  धूम   मचायें,
नाचें    कूदें       गाने      गाएँ,
लगती   वर्षाऋतु     मनभाई।
अम्मा देखो.....

बरस रहा  है  झर -झर पानी,
नहीं    पेड़   बेलें    मुरझानी,
डालें   झूम   रही   हैं    कैसे!
हमको   बुला   रही  हैं  जैसे,
हरी    पत्तियाँ  ख़ूब  नहाईं।
अम्मा देखो .....

छोड़   घोंसले    पंक्षी  भागे,
भीग गए  पर  जब  वे जागे,
दुबक  गए  कोने में  जाकर,
पंख    सुखाते   हैं फैलाकर,
बच्चे ढँक चिड़िया चिचिआई।
अम्मा देखो .....

भर -भर  बहते नाले -नाली,
छत से बहती  तेज  पनाली,
खेत  भरे  गलियों   में पानी,
ढही    मेंड़  नदिया   तर्रानी,
गड्ढे   भरे  भर   गई   खाई।
अम्मा देखो....

साँझ  हुई  दादुर  दल बोले,
टर्र-टर्र  करते  मुख  खोले,
अंडे   तैर   रहे  जल ऊपर,
फुदक रहे कुछ दादुर भूपर,
मेढक  ने  मेढकी   बुलाई।
अम्मा देखो ....

खूंटा  तोड़   भागती  भैंसें,
गैया   रँभा  रही  कुछ ऐसे,
रेवड़ में  मिमियाती बकरी,
बिल सेभागे चुखरा चुखरी,
श्वान देख बिल्ली शरमाई।
अम्मा देखो....

वर्षा से  सब  खुश  नर -नारी,
कृषक   नाचते    मंगलकारी,
चेहरों पर  मुस्कान  खिली है,
कमल कमलिनीताल लिली है
धरती माँ  की  प्यास  बुझाई।
अम्मा देखो ....

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
💦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 17 जून 2019

कलि कुचाल [दोहे]

 स्वार्थ  लिप्त  संसार सब,
पैसा         माई      बाप।
झूठों  का   बहुमत  यहाँ,
पुण्य  न  कोई   पाप।।1।

मर्यादा    निज   भूलकर,
करते    जन     अपमान।
धन  देकर   मिलता यहाँ,
मानव  को   सम्मान।।2।

धमकी  धक्का  धौंस का,
अनुचित  डाल     दबाव।
गुंडों   के     चढ़ने    लगे,
आसमान पर  भाव।।3।

आशा    करना   व्यर्थ है,
मिल    जाएगा     न्याय।
मौसेरे      भाई      सभी,
चोर    करें   अन्याय।।4।

नारी  का   आँसू    गिरा ,
बहे    राज    औ'   पाट।
नदियाँ   लोहू   की  बहीं,
नष्ट   हो  गए   ठाट।।5।

कौरव-दल के साथ कुछ,
कुछ पांडव-दल      संग।
नारी - कृत  अपमान  से,
हुआ   रंग   में   भंग।।6।

बिना   कर्म  के  ही मिले,
रोटी       दोनों       जून।
निकले  स्वेद  न  देह  से,
उनके   आँगन   सून।।7।

भूसा  भरा    दिमाग़   में,
तन   मन   हुए     अपंग।
जौंक  बना शोषण   करे,
माली    हालत   तंग।।8।

ग़ुब्बारे     में     पंप     से,
दूषित      भरी     बयार।
विस्फोटक नर को   बना,
मज़ा  कर   रहे   यार।।9।

न्याय   गया   न्यायी  गए,
आपाधापी            रोज़।
बिना करे   रबड़ी   मिले,
मिले मुफ़्त में मौज।।10।

पोदीने    के     पेड़   पर,
चढ़ा    दिया     मतिमंद।
रार  ठानता   जनक   से,
फैला  कुल  दुर्गंध।।11।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 16 जून 2019

पावस का भिनसार [दोहे]

मौसम   में   छाने  लगी,
शोभन   सजल   बहार।
प्यासी  धरती को मिली,
नन्हीं    बूँद   फुहार।।1।

नभ में  छाए  विरल घन,
झाँकें     जिनमें     धूप।
कभी हवा  शीतल   बहे,
कभी तपन का रूप।।2।

जेठ   मास  के   ताप से,
तपते      धरती     धाम।
शांति  मिले तरुवर तले,
व्यजन  हुए  बेकाम।।3।

डाली   पर   चूँ - चूँ करें,
गौरैया     दो      क्लांत।
दाना - पानी  जब मिले,
मन  में उपजे  शांत।।4।

तरबूजा     बरसा    रहा ,
लाल   प्रेम    रस - धार।
ग्रीष्म काल  ने  दे  दिया,
मानव  को उपहार।।5।

मस्त  महक खरबूज की,
खींच   रही    है   ध्यान।
बैठ   मेंड़   पर   खाइए,
तब करना जी स्नान।।6।

गंगा   की   धारा  विरल,
सुंदर       शांत    प्रवाह।
रजत बालुका मौन धर,
उर बिच उर्मि उछाह।।7।

यौवन    मदमाती    चढ़ी,
लता      अमृता     नीम।
औषधि   का   भंडार   है,
अगणित गुण निस्सीम।।8।

गुडूची   छिन्नरुहा   कहो,
या   गिलोय   दो    नाम।
अर्श   दाह   मधुमेह   में,
एक  लता बहु काम।।9।

छाया    छाया     चाहती,
तरु तल   छिपी  सभीत।
पादप   लू    में    काँपते,
छाया  घन मनमीत।।10।

तप  से  तप कर   मेदिनी,
निखरी    कंचन  -  रूप।
झर -झर-झर बुँदियाँ झरें,
लुप्त हो गई धूप।।11।

पावस   के  भिनसार में,
सेंध       लगाती     धूप।
डाँटें   बादल   गरजकर,
भरते  सरिता कूप।।12।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 13 जून 2019

प्रशंसा हमारी संजीवनी (व्यंग्य)

   हिंदी में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है :अपने मुँह मिया मिट्ठू बनना। जिसका तात्पर्य सभी जानते ही हैं। इससे एक ध्वनि यह भी आती है कि प्रशंसा सभी को प्रिय है। प्रशंसा चाहे झूठी हो अथवा सच्ची। कुछ नमक मिर्च मिलाकर की गई प्रशंसा और अधिक स्वादिष्ट हो जाती है।उसका जायका बढ़ जाता है।जितना अच्छा स्वाद, उतना अधिक आनन्द का अनुभव होना स्वाभाविक है।
   प्रशंसा की वृद्धि के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता? हमारे बहुत से सामाजिक और पारिवारिक कार्य तो प्रशंसा की धरती पर ही टिके हुए हैं। जैसे किसी लड़के या लड़की का विवाह - संबंध तय होना है । ऐसे शुभ अवसर पर प्रशंसा रूखी रोटी पर मलाई की चिकनाई का कार्य करती है। सादे पानी में संतरे की महक और ताज़गी का दम भरती है। पचास बातों में दस पाँच झूठी भी चल जाती है। दूसरों के खेत को अपना बता कर अपना ओहदा ऊँचा कर लिया जाता है। दूसरे घर से माँगी गई क्रॉकरी , सोफा, चादर , तकिये आदि से अपना ऊँचा स्थान प्रदर्शित करने के लिए आगन्तुकों की प्रशंसा का पात्र बनना एक आम बात है।
इसी प्रकार कवि- सम्म्मेलनों में चाहे कविता समझ में आये या न आये, पर तालियाँ बजाकर बार -बार वक्ता कवि का मनोबल बढ़ाना समस्त श्रोताओं का आवश्यक धर्म हो जाता है। कुछ कवि लोग तो मंच पर आते ही तालियों की फरमाइश स्वयं करने लगते हैं। जब तक बीच- बीच में तालियों की पटपटाहट सुनाई न पड़े , उनका उत्साह ही पतित हो जाता है। यहाँ पर सच्ची ताली और झूठी ताली का घालमेल हो जाता है। पता ही नहीं लगता कि कौन सी ताली सच्ची प्रशंसा की है।
   सच्ची प्रशंसा में खून बढ़ाने की वह टॉनिकीय शक्ति नहीं है ,जो झूठी प्रशंसा में है। अतिशयोक्ति अलंकार की जननी हो न हो, झूठी प्रशंसा ही है। इस काम के लिए अर्थात झूठी प्रशंसा के कसीदे काढ़ने के लिए चारण भाट रखे जाते थे, राज्याश्रय में पलते थे। जिनकी खाना ,उनकी बजाना। इसी अटल सिद्धांत पर चलना ही उनकी दिनचर्या थी । इसी झूठी प्रशंसा की प्रवृत्ति ने अलंकार का रूप ले लिया।झूठ को मान्यता मिल गई।
कवि सदा से ही प्रशंसा प्रिय प्राणी रहा है।यदि उसकी जरा सी भी कमी इंगित कर दी गई , बस वह आग बबूला हो जाता है। शायद उसे अपनी काबिलियत का भरोसा नहीं रहा। जब तक उसके कानों में वाह! वाह!! , क्या कहने हैं ! , क्या ख़ूब कहा है!, मुकर्रर मुकर्रर , वन्स मोर, जैसे कानों में शहद उंडेलने वाले जुमले न पड़ जाएं , तब तक उसे चैन कहाँ? कोई समझ नहीं पाया और मुकर्रर चिल्लाया तो कवि भी खुश होकर दोबारा सुनाने लगा। उसने समझा कि उसे ज़्यादा अच्छा लगा है, इसलिए मुकर्रर कह रहब है। इसके विपरीत सत्य भी संभव है।
   वैसे भी देश और दुनिया में सच से ज़्यादा झूठ ही मान्य औऱ पूज्य है। साँचे के साथ लोग नहीं मिलेंगे । झूठों की रैलियाँ निकाली जाएँगी। उन्हें मोटे -मोटे हारों से लाद दिया जाएगा। जीवित रहने पर भी और मरने पर भी। ये सब झूठ की बलिहारी है। इसीलिए झूठी प्रशंसा ज़्यादा प्रभावकारी है। इससे बिना हवा भरे आदमी फुलकर कुप्पा हो जाता है। आदमी को फुलाने औऱ कुप्पा बनाने (अर्थात मूर्ख बनाने ) का इससे बढ़िया कोई फार्मूला नहीं है। इसी फॉर्मूले का प्रयोग आदमी नामक चालाक प्राणी ने देवी देवताओं की आरतियों में बख़ूबी किया है।
   प्रशंसा आदमी के लिए बनी या आदमी प्रशंसा के लिए बना ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ।मेरे अनुसार आदमी औऱ प्रशंसा एक दूसरे के पूरक हैं। आदमी है तो प्रशंसा है और प्रशंसा है तो ही आदमी है। थोड़ा बहुत अपनी गाँठ में हो उसमें कुछ मिलावट चल सकती है। दूध में पानी मिलाया जाता है। ये काम भैंस नहीं करती। आदमी करता है।यानी सच में झूठ को मिलाने का 'पवित्र' कार्य। उसका सिर्फ़ सच से काम नहीं चलता। इसलिए झूठ का जल मिलाकर उसके आकार और आयतन [अर्थात आय का तन] में बढ़ोत्तरी कर लेता है। झूठ सच की कीमत में बिकने लगता है। धड़ल्ले से बिकता है। गाय का थन तो बढ़ नहीं सकता , हाँ वरुण देव द्वारा प्रदत्त जल से दुग्ध मेन का आय का तन अवश्यमेव बढ़ ही जाता है निस्संदेह झूठी प्रशंसा यत्र तत्र सर्वत्र सर्वमान्य और सोने में सुहागा है।

💐शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सात सुर [अतुकान्तिका]

स र ग म के सात सुर,
साथ -साथ सात सुर,
सुर में सुर मिलाते,
नया संगीत सजाते,
श्रवण से हृदय  में-
उतर -उतर जाते,
कभी मेघ मल्हार बन-
धरा पर मेघ बरसाते,
कभी राग दीपक से-
अनजले दीपक जलाते।

स र ग म के ये सात सुर
'सुर '  हैं  'असुर'   नहीं,
स्वर हैं व्यंजनों के
बदलते हुए रूप रंग आकार,
व्यंजनों का रस रीति शृंगार,
जुड़ते हुए ऊपर या नीचे,
कभी आगे कभी पीछे-
सोने में सुहागा हैं,
जो पा ले वही सुभागा है,
अन्यथा अभागा है।

माला के अलग -अलग धागे,
पिरोते मोतियों को विराजे,
अलग -अलग  रंग,
अलग ही सुगन्ध,
कभी तीव्र कभी मंद,
अप्रतिबन्ध  रूप स्वच्छन्द।

स र ग म में सात सुर,
संगीत के प्राण,
साहित्य और कला के त्राण,
न कहीं पुच्छ न विषाण,
होंगे भी क्यों ?
मानवता का सुसन्देश,
मानवों की पावन धरा पर,
गुंजायमान माँ शारदा की
वीणा का मधुर स्वर,
सत्यं शिवम सुंदरम का 
घर -घर  शाश्वत कल रव,
जहाँ सत्य है ,
शिव है ,
और सुंदर है,
वहीं  'शुभम'  है,
सफ़लता का मंदिर है।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कविता की कविता [कुण्डलिया]

कविता का तन शिल्प है,
विमल    आत्मा    भाव।
पूरक     दोनों    परस्पर,
रहता   नहीं      अभाव।।
रहता    नहीं      अभाव,
समन्वय   सुंदर    होता।
बिना भूमि कवि -कृषक,
नहीं   बीजों  को  बोता।।
तेज  बिना   कहता नहीं,
'शुभम'  रवि को सविता।
भाव   शिल्प   के  बिना,
नहीं कहलाती कविता।।1।

कविता  वनिता  एक सम,
नव गति    नव लय   छंद।
नवल  ताल   भी   चाहिए,
चले    चाल     स्वच्छन्द।।
चले     चाल     स्वच्छन्द,
उतरती    उर   में   जाए।
ज्यों  वनिता   को   देख ,
पुरुष  आकर्षण    पाए।।
सरल  हृदय  मनभावनी,
'शुभम'को भाए  वनिता।
भावों     से       भरपूर,
भावती भावित कविता।।2।

कविता     में   शृंगार  का, 
मोहक    मृदुल     महत्त्व।
अलंकार    से   सज  रहा ,
कवि  का कविता - तत्त्व।।
कवि  का  कविता - तत्त्व,
यमक अनुप्रास सुसज्जित।
ज्यों   तन       के    शृंगार,
नासिका नथुनी  सज्जित।।
सहज   देह   के  गठन  से,
'शुभम'  सजती है  वनिता।
बिना    कृत्रिम       शृंगार,
सहज मनभाती कविता।।3।

कविता  सज्जित  शब्द  से,
शब्द   ब्रह्म      का     रूप।
ब्रह्म  जहाँ   सत्यं   शिवम,
सहज       सुंदरम     यूप।।
सहज      सुंदरम       यूप,
भाव   की    गंगा   बहती।
कवि     भागीरथ      बना ,
सहज निज पथ पर रहती।।
बहती      कविता -   धार,
रश्मि  ज्यों   प्रातः सविता।
हृदय  -     धरा    संसिक्त ,
'शुभम 'करती है कविता।।4।

कविता -  सृष्टि  महान  है,
कवि    ही    उसका   ईश।
बिना नियम   क्या सृष्टि है!
जाने     यह      जगदीश।।
जाने    यह         जगदीश,
वर्ण    मात्रा    की  गिनती।
होनी        है      अनिवार्य ,
'शुभम' की वाचिक विनती।।
बड़ी  नाक   हो  मुँह    पर ,
भावे    हमें     न    वनिता।
ज़्यादा       मात्रा     भार ,
न अच्छी लगती कविता।।5।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गर्मी का प्रकोप [बाल गीत]

गर्मी से सब जन अकुलाते।
शीतल छाया को तरसाते।।

सूरज निकला आग बरसती।
भूखी-प्यासी चिड़ियाँ मरती।
माँग रहे  सब   पानी - पानी।
पशु  पक्षी  नर  पौधे प्रानी।।
घबरा  कर  ठंडक  में जाते।
गर्मी से .....

हाँफ  रहा  है  श्वान द्वार पर।
बैठी   गौरेया    फैला    पर।।
भैंसें   लोट   रहीं  तालों   में।
गायें  रंभा   रहीं    शालों में।।
मोर  सघन  अमराई   जाते।
गर्मी से .....

ठंडे   तरबूजे    हम   खाते।
ख़रबूज़े  मीठे     मनभाते।।
खीरा प्यास बुझाता  सारी।
आम   संतरे   मीठे  भारी।।
घर पर  ठंडा  पना  बनाते।
गर्मी से.....

तपता अम्बर  धरती प्यासी।
छाई  चारों   ओर   उदासी।।
कभी धूल   आँधी  भरमार।
कभी-कभी जल की बौछार।
कूलर   पंखे  बहुत   सुहाते।
गर्मी से......

नभ के ऊपर कृषक ताकते।
बरसेगा कब   मेघ   माँगते।।
पानी  का  स्तर  भी  उतरा।
जलाभाव का संकट उभरा।।
बैठे   खटिया  स्वेद   बहाते।
गर्मी से....

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

छाता प्यारा (बाल गीत)

छाता छाता  छाता प्यारा।
रंग -बिरंगा  काला न्यारा।।

जब हम विद्यालय को जाते।
सिर पर  छाता तान लगाते।।
धूप हमें  फिर  नहीं  सताती।
ठंडी -  ठंडी    छाया आती।।
छाता   हरता  ताप   हमारा।
छाता छाता ......

वर्षा   में   जब   बरसे पानी।
बूँदें  करें   बहुत   मनमानी।।
भीगे   बस्ते    कपड़े    सारे।
आते   छाते   काम   हमारे।।
नहीं  भिगा  पाती जलधारा।
छाता छाता .....

 कुत्ते  भौंक  रहे  हैं  हम पर।
बचना हमको अपने दम पर।।
छाता उठा  उन्हें   धमकाया।
पास न  आए   दूर  भगाया।।
कुत्ते    करते    दूर   किनारा।
छाता छाता .....

आता   गड्ढा    नाली - नाला।
छाता  टेका  पाँव  निकाला।।
अच्छा  साथी  छाता  अपना।
पानी  और   धूप  से  बचना।।
लाठी-सा बन  गया  सहारा।
छाता छाता ......

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 9 जून 2019

ग़ज़ल

विधना के  खेल निराले हैं,
फूलों  में  उगते   भाले  हैं।

करनी का सबको फ़ल मिलता,
शुभ फ़ल के बड़े कसाले हैं।

अन्याय असत का सरल मार्ग,
अधिकांश  इसी  पथ वाले हैं।

अपने हित न्याय टाँग खूँटी,
सतपथ में मकड़ी -जाले हैं।

सौ झूठे  उधर  एक ही सच,
ये  झूठे   बहुमत  वाले   हैं।

सच मौन व्यथित नतग्रीव खड़ा,
झूठे  हर्षित  मतवाले  हैं।

झूठों   के   पैर   नहीं होते,
सच्चे  दृढ़  साँचे  ढाले  हैं।

पर जीत सत्य की अंतिम है,
यद्यपि उसके पग छाले  हैं।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

ग़ज़ल

सुख के बदले दुःख का आना।
जीवन  का  दस्तूर  पुराना।।

अपनी   राहें   चलते -  चलते,
मंज़िल पर खुद को पहुँचाना।

काँटों के सँग लाख रुकावट,
लक्ष्य-सिद्धि तक मत घबराना।

जितने  मुँह    हैं  उतनी बातें,
ख़ुद को इसमें मत उलझाना।

सुनना सबकी करना मन की,
निज विवेक का 'शुभम' जमाना।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कवि-सम्मेलन? [दोहे]

कवियों का संगम हुआ,
मानो   कुम्भ     प्रयाग।
बहती  धारा काव्य की,
खुले  हमारे   भाग।।1।

कहीं     प्रेम  रस धार है,
वीरोचित         रसनाद।
कोई    दर्शन     में  बहा,
भिन्न -भिन्न रस स्वाद।।2।

बजी   ख़ूब   ही तालियाँ,
फ़ूल   खिले    हर   होठ।
कोई    बातों   में   मगन ,
लगा  चार जन गोठ।।3।

ताली     सबको   चाहिए ,
अपनी      ताली      मौन।
जो निज कविता पढ़ रहा,
नहीं    जानते   कौन!!4।

वाह   वाह    भी   हो रही ,
करतल   ध्वनि  भी  ख़ूब।
पर   संबंधों   के  खेत  में,
नहीं   जम   रही  दूब।।5।

अपनी   कविता   हो चुकी,
जाना     है      घर      दूर।
बैग    उठा   चलते    बनो,
यह    कैसा     दस्तूर।।6।

ख़ूब     बटोरी    तालियाँ,
बाँधी      गठरी      मोट ।
ज्यों   नेताजी   चल दिए,
ले   जनता   के वोट।।7।

गाकर    अपने   गीत  वे,
चढ़कर   ग़ज़ल -विमान।
शेष  बचे  दस - पाँच ही,
पढ़कर  किया पयान।।8।

कवि   नेता  में  भेद क्या ,
'शुभम'   न   पाया  जान।
अपनी ढपली   को  बजा,
किया शीघ्र प्रस्थान।।9।

मुख्य -अतिथि अध्यक्ष जी,
सुनना   अब   कवि -गान।
अपनी  पढ़   हम   ये चले,
बाहर  खड़ा विमान।।10।

'इनके '  ही    घरबार    हैं,
'वे'      सब       बेघरबार।
इसीलिए कहता  'शुभम',
स्वार्थ  भरा  संसार।।11।

पीछे     मुड़कर   दृष्टि  की,
चेहरा     हुआ      मलीन।
अर्द्ध  शतक में  पाँच-दस,
कविजन थे  आसीन।।12।

कहते   हैं  'विद- वान'  हैं,
कविजन   सुधी    महान।
देख   दृश्य    ऐसा  लगा,
है  ये  असत  बयान।।13।

अपने  हित  में  सब निरत,
कवि   भी   उनमें      एक।
अपनी   कह सुनता  नहीं,
क्या यह 'शुभम'विवेक?14।

कथनी  मीठी  खांड- सी,
करनी     नीम      कुनैन।
कवि से  जाकर  पूछ लो,
ऐसा ही कुछ है न??15।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 4 जून 2019

बरसाने की राधिका[ कुण्डलिया ]

1
बरसाने     की    राधिका,
नंदगाँव      के      श्याम।
प्रेम -पगी   जोड़ी -जुगल,
प्रेम    नित्य    अभिराम।।
प्रेम     नित्य    अभिराम,
रासलीला    निधिवन में।
कण -  कण     राधेश्याम,
खेलते       वृंदावन    में।।
देख  'शुभम '   ब्रजवासी,
लगते     हैं        हरसाने।
राधा    के     सँग  श्याम,
नहीं     रहते     बरसाने।।

2
राधे -  राधे     गा     रही,
हवा      मधुर      संगीत।
राधा   प्यारी   बन    गईं,
कान्हा   की     मनमीत।।
कान्हा     की    मनमीत,
प्रतीक्षा करते  -    करते।
उर    में    जागी    प्रीत,
तरसते   नैना     झरते।।
राधा  के    बिन    कृष्ण ,
हो  गए   आधे -   आधे।
साँस - साँस    जप  रही,
एक   ध्वनि  राधे - राधे।।

3
वृंदावन    के   धाम    में,
लता   कुंज     अभिराम।
रास     रचायें    गोपियाँ,
ब्रज  में  श्यामा - श्याम।।
ब्रज   में  श्यामा- श्याम,
प्रयाग आता अघ धोने।
काले   तन    का   रूप,
श्वेत    चंदन- सा  होने।।
अति   पावन  ब्रज धूल,
 करे  सबका अभिनंदन।
साक्षी      लीला -  रास ,
'शुभम ' सुंदर  वृंदावन।।

4
राधे -  राधे     जो  जपे ,
हर्षित   हों    घनश्याम।
आ जाते    हैं  आप ही ,
दौड़  कृष्ण  सुखधाम।।
दौड़  कृष्ण   सुखधाम,
न करते   पल  की देरी।
प्रातः     दोपहर   शाम,
भले  ही  रात   अँधेरी।।
लाज    बचाने   द्रौपदी,
निभाए  अपने     वादे।
सभी   प्रेम   से    कहो ,
कृष्ण   श्री राधे -राधे ।।

5
राधा    गोरी    गाँव  की,
नंदगाँव     के      श्याम।
गोप -   गोपियाँ साथ में,
रास     रचें    ब्रजधाम।।
रास     रचें      ब्रजधाम,
अंगना   ब्रज की   आईं।
छोड़े    सब     गृहकाज,
छोड़ पनघट   को धाईं।।
मुरली   जैसे   ही  बजी,
बहाना    करके    भोरी।
पहुँची     पौरी      छोड़ ,
कान्ह की   राधा गोरी।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

आए हम श्रीवृन्दावन धाम [गीत]

आए हम  श्रीवृन्दावन धाम।
जहाँ विचरे नित राधेश्याम।।

वृंदावन की  ब्रजरज  पावन।
जन्म-जन्म के पाप नसावन।
ब्रज का  हृदय पुण्य वृंदावन।
महिमा अवर्णनीय मनभावन।
श्री राधेश्याम के  लीलाधाम।
आए हम श्रीवृन्दावन धाम।।

निधिवन में  लीलारस भरते।
क्रीड़ा सघन यामिनी करते।।
भोग  लगाकर  पान  चबाते।
कर शृंगार  नृत्य  रम जाते।।
आज भीआते श्यामा श्याम।
आए हम श्रीवृन्दावन धाम।।

प्रेमभक्ति कण कण में हरशे।
गोपी -नृत्य रंग - रस  बरसे।।
हवा  जपे  राधे  की   माला।
गूँज रहा   संगीत   निराला।।
शांति भरती है हृदय ललाम।।
आए हम श्रीवृन्दावन धाम।।

कान्हा की मुरली अति न्यारी।
आठ सखी राधा की प्यारी।।
राधा   की   सेवा    में  आवें।
कान्हा के सँग रास रचावें।।
मधुमंगल श्रीदाम सुदाम।
आए हम श्रीवृंदावन धाम।।

यमुना जी के घाट सुपावन।
श्रीकृष्ण की लीला साधन।।
चीरघाट     श्रृंगारघाट    हैं।
वृन्दावन के    ठाटबाट   हैं।
बसे ब्रज-कण-कण राधेश्याम
आए  हम  श्रीवृन्दावन धाम।।

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पौधे हरे लगायेंगे [बालगीत]

हम   पौधे   हरे   लगाएंगे।
धरती   को  हरा  बनाएँगे।।

देखभाल  हम  नित्य करेंगे।
पौधों  के  सब  कष्ट  हरेंगे।।
पानी    से    सींचेंगे    पौधे।
करें   निराई   रहें न   बोदे।।
पेड़ों  से  सड़क  सजायेंगे।
हम पौधे हरे ....

राहगीर     को    देंगे  छाया।
सुखा पसीना शीतल काया।।
हम   खेलेंगे  हरियल  डंडा।
चिड़ियाँ रखें घोंसला अंडा।।
पशु - पक्षी  मौज   मनाएँगे।
हम पौधे हरे ....

सेब   संतरा   जामुन  आम।
फल  देने  के   आते  काम।।
पीपल नीम सघन वट छाया।
गुलमोहर का फूल लुभाया।
हम अमलतास उपजाएँगे।
हम पौधे हरे .....

गेंदा  फूल   चमेली   चम्पा।
मुस्काता  ग़ुलाब  से चप्पा।।
बेला     जूही     हरसिंगार।
फ़ूल    खिलेंगे  सदाबहार।।
खुशबू से चमन महकायेगें।
हम पौधे हरे ....

जीवन     पर्यावरण    हमारा।
जल की बचत बचे जन सारा।।
वृक्ष हवा  दें  शुद्ध  हमें जब।
साँस सहज ही लेंगे हम तब।।
धरती  आकाश    सजायेंगे।
हम पौधे हरे ....

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

कुपूत [दोहे]

 जो सुत अपने जनक का,
नित्य     करे     अपमान।
उस  कुपूत का क्यों भरें,
पेट    यहाँ    भगवान।।1।

पुत्र   वही  माँ -  बाप का ,
जो     करता      सम्मान।
सुखी  सदा   रहता  वही ,
जग में मिलता मान ।।2।

तन - मन  से  होता नहीं ,
जिससे  अपना    काम।
उस कुपूत की क्या कहें,
खाए   रोट   हराम।।3।

जीवन  भर  जो बाप पर,
बनता       भारी     भार।
हैं   कुपूत    ऐसे    बहुत,
जीवन  वह धिक्कार।।4।

पत्नी   साले   ससुर सब,
लेकर     अपने      साथ।
पिटवाता  जो   बाप  को,
कलि-कुपूत का हाथ।।5।

धाड़   मार   रोवे    तिया,
फोड़े     चूड़ी        आप।
आरोपित  रो -  रो    करे,
जो कुपूत का बाप।।6।

त्रियाचारित   फैला  रही,
सम्मुख    खड़ा   कुपूत।
ससुर  फँसाने  के  लिए,
करे  पुलिस  आहूत।।7।

लालच  लगी   हराम की,
रोटी     तोड़े          रोज़।
पूत   निकम्मे    बहुत  से,
कहे 'शुभम' कर खोज।।8।

प्रभु  यदि  मानव जन्म दे,
देना      नहीं         कुपूत।
देना     चाहे     एक    ही,
देना   'शुभम'   सपूत।।9।

 जनक  - जननि  को कष्ट दे,
 जीता     है        जो     पूत।
'शुभम' कीट उससे भले,
  होते     नहीं     कुपूत।।10।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...