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मंगलवार, 28 जून 2022

अतीत की सतीतता और आज ! 🪷 [ लेख ]

 

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 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         पीछे !पीछे !! पीछे !!! और पीछे झाँक कर जब देखता हूँ;तो अतीत दिखाई देता है।अपने सात दशक पूर्व के अतीत की झाँकी में जिस तीत के दर्शन होते हैं,आज उस तीत का दुर्भिक्ष काल चल रहा है।चाहे भौतिक रूप से देखें,सामाजिक, भावनात्मक , धार्मिक अथवा सांस्कृतिक रूप से सिंहावलोकन करें ,तो तीत तो बस अतीत में ही दिखाई देती है। आर्द्रता का वह 'सतीत- काल' अब किसी भी क्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता। इन्हीं में से कतिपय बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। 

               सबसे पहले भौतिक जगत की ओर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि पावस ऋतु में जो वर्षा होती थी ,आज उसका दस प्रतिशत भी जल वर्षण नहीं होता।आषाढ़ का मास लगते ही आकाश मंडल काले भूरे मेघों से भर जाता था। मेघों की श्यामलता से दिन में भी अँधेरा छा जाता था।कुछ ही दिनों में बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की गर्जन और चमक के साथ वर्षा प्रारम्भ होती तो एक एक पखवाड़े रुकने का नाम नहीं लेती थी। थोड़ी देर के अंतराल के बाद जो वर्षा होती ,तो गोबर से लिपे पुते गाँव के आँगन, छतें ,गलियाँ, पनारे , नालियाँ, नाले ,दगरे ,खेत , वन, उपवन,नदियाँ, नहरें, बम्बे आदि सभी कुछ पानी पानी होते दिखाई देते थे। सात दशक पहले बरसते पानी में नहाने, आँगन में लोटने,पनारों के नीचे खेलने ,गलियों में उछलने कूदने का जो आनन्द लिया , उसे फिर नहीं देखा गया। वृद्धावस्था की ये आयु पाने के बाद स्वयं तो वह आनन्द नहीं ले सकते ,किंतु आज की नई पीढ़ी तो उस समय के आनन्द की कल्पना भी नहीं कर सकती।यद्यपि उस समय आज जैसी आर्थिक समृद्धि नहीं थी ,फिर भी आदमी संतुष्ट था ,प्रसन्न था। चाहे वह किसान हो ,मजदूर हो,नौकरी पेशा हो ,आम स्त्रियाँ हों अथवा विद्यार्थी ; सभी आंनद मग्न जीवन यापन कर रहे थे। 

            घर गाँव के बाहर खेतों में ,मेड़ों पर , तालाबों में सब जगह एक नया उल्लासपूर्ण वातावरण का साम्राज्य था।रास्ते, मेड़ों, खेतों में रेंगती हुई वीर बहूटियाँ, केंचुए, अनेक प्रकार के कीट - पतंगे,तालाबों में टर्राते हुए मेढक ,चम -चम चमकते हुए जुगुनू वृंद आदि का अपना ही समा था। यह सब कुछ तीत अर्थात पानी की बहुतायत का चमत्कार था। जो वर्तमान में दुर्लभ ही नहीं असम्भव ही हो चुका है।कच्ची छतों,घूरों, मेड़ों औऱ जहाँ - तहाँ उगने वाले फंगस,गगनधूर,मकियाँ,कठफूले, कुकुरमुत्ते,नम दीवारों पर हरे -हरे मखमली स्पर्श का आनन्द प्रदान करते शैवाल आदि अब कहाँ? सांध्य काल में मनोहर इंद्रधनुष की छटा का आनंद अब कठिन हो गए हैं।यह बात अभी मात्र बरसात की ही की जा रही है। ये वह सुनहरा काल है ,जिसके आधार पर वर्ष की शेष पाँच ऋतुओं का सौंदर्य टिका होता है।शेष पाँच ऋतुओं के सौंदर्य का तो फ़िर कहना ही क्या है? वर्णनातीत ही है। 

               भौतिक जगत की एक नन्हीं - सी झाँकी के बाद जब आज के सामाजिक क्षेत्र में झाँकते हैं तो वहाँ भी मानवीय संबंधों की तीत की कमी ही कमी दिखाई देती है। उस अतीत में सभी के दुःख- दर्द में सम्मिलित होना प्रत्येक सामाजिक के जीवन का अहं हिस्सा होता था। परिचित या अपरिचित कोई भी हो ,उससे राम राम, नमस्कार ,प्रणाम करना हमारा संस्कार था ।अब हम केवल अपने मतलब से नमस्ते करते हैं।जिनसे मतलब है ,बस वही हमारे नमस्ते के दायरे में आते हैं। शेष तो ऐसे हैं ,जैसे अपरिचित ,अनजान ।उस समय के लोग विशाल हृदय थे ,तो आज संकीर्ण हृदय। हृदयहीन भी कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।आज स्वार्थ ही संस्कार है।सामाजिकता का तिरस्कार है ,बहिष्कार है।कोई किसी के कटे पर मूत्र विसर्जन करने को तैयार नहीं है ,यदि कर भी देता है ,तो उसे उस मूत्र का मूल्य भी चाहिए;जिसे लिए बिना वह पिंड छोड़ने को तैयार नहीं है।मूल्य विहीन समाज में अब आदमी का मूल्य दो दमड़ी का भी नहीं है।मूल्य केवल स्वार्थ का ही शेष है।यह युग मूल्यप्रधान नहीं , स्वार्थ प्रधान है।ढोंग,ढपली औऱ प्रदर्शन आज के युग में सर्व सम्मान के आधार हैं।भावों की तीत मर चुकी है। हृदय मात्र रक्त संचारक पम्प है , उसमें भावों का कोई स्थान नहीं है।

               संस्कृति औऱ धर्म ;ये सभी मानव मूल्यों और मानवीय भावों से जुड़ी हुई चीजें हैं। जब भाव ही मर चुके हैं ,तो संस्कृति और धर्म कैसे सतीत रह सकते हैं।धर्म का दिखावा औऱ संस्कृति का ढोल उस समय नहीं पीटा जाता था।उस समय धर्म में शुष्कता औऱ दिखावा नहीं था, जो आज दिखाई दे रहा है।आज धर्म व्यावसायिकता का केंद्र बन गया था। पुण्य से पाप कमाने का धंधा जोरों पर है। धर्म के नाम पर आदमी अंधा हो चुका है ,जिसका लाभ बड़े- बड़े महंत, गद्दीधारी ,ए सी वासी धर्म के साम्रज्य पर बैठे तथाकथित 'महापुरुष ' चला रहे हैं। भावों का अकाल धर्म , संस्कृति सबका बेड़ा गर्क कर रहा है।

 सब कुछ अर्थ अवलंबित हो चुका है ,तो अतीत की सतीतता कैसे आ सकती है? धर्म,राजनीति,समाज ,कर्म, यहाँ तक कि मौसम, ऋतुएँ, धरती ,बादल, वर्षा की तीत अतीत बन कर रह गई है। जिसकी वापसी की संभावना दिखाई नहीं देती । पता नहीं कि मानव औऱ मानव से सम्बद्ध सभी कुछ उसे किस शुष्कता की ओर ले जा रहे हैं। जब मनुष्यता ही नहीं रहेगी तो विनाश की ओर जाना एक प्राकृतिक न्याय की ओर पदार्पण ही तो होगा।जिसकी परवाह न किसी धर्म धुरंधर को है, न संस्कृति विद को। राजनेता को तो अपनी कुर्सी की दो रोटियां सेंकने से मतलब है। उनके जाने चाहे मनुष्य जाए भाड़ में या देश रसातल में,अथवा सारी सृष्टि अशेष हो जाए। उसे नहीं पता कि सूखे आटे से तो रोटियाँ भी नहीं बनतीं। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २८ जून २०२२◆ ७.००पतनम मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 20 जुलाई 2021

साहित्य और समाज 📙 [ लेख ]


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 ✍️ लेखक ©

 📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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            साहित्य और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है।   जहाँ समाज है , वहाँ उसका साहित्य भी है। प्राचीन मनीषियों ने 'सहितस्य भाव:इति साहित्यम'  कहकर साहित्य को परिभाषित किया है।वस्तुतः साहित्य समाज को माँजता है। समाज की समस्त अच्छी - बुरी गतिविधियों को एक दर्पण की तरह प्रस्तुत करना ही साहित्य का कार्य है। 

              इतिहास यदि मुर्दों का साहित्य है ,तो साहित्य जीवितों का इतिहास है।वर्तमान को वाणी प्रदान करने के साथ भविष्य को दिशा देने का काम साहित्य के माध्यम से किया जाता रहा है और आज भी किया जा रहा है। यह एक कभी भी समाप्त नहीं होने वाली ऐसी धारा है , जो निरंतर समाज रूपी सागर में मिलती है और पुनः पावस के पवित्र मेघ बन कर उसी पर बरस जाती है।समाज के खारेपन को निरंतर निर्मल बनाती रहती है। 

             वाल्मीकि से लेकर अद्यतन बहती आ रही यह साहित्य धारा कभी भी सूखने वाली नहीं है। साहित्य विभिन्न विधाओं के माध्यम से हमारे समक्ष उपस्थित होकर मानव मात्र का कल्याण करता है।समाज ,व्यक्ति और देश ही नहीं मानव मात्र का हित करना साहित्य का लक्ष्य है।

             प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह समकालीन और विगत साहित्य का अनुशीलन करे। 'साहित्य संगीत कला विहीन: साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः'के अनुसार उस व्यक्ति को मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं है ,जिसे अपने साहित्य से लगाव न हो। 

       साहित्य सृजन में भवों की प्रधानता होती है। भाव मानव से सम्बंध रखने वाली अमर अमूर्त साधना है। भाव और बुद्धि का समन्वय साहित्य में देखा जाता है। जो साहित्य जितना भाव प्रधान होता है ,वह उतना ही हमें और हमारे समाज के हृदय को स्पर्श करता है। केवल बौद्धिक विश्लेषण बुद्धि को कुरेदता भर है।स्पर्श नहीं कर पाता। यही कारण है कि सूर,कबीर ,तुलसी , बिहारी ,दिनकर, भूषण , कालिदास ,भवभूति आदि का साहित्य आज भी उतना ही जीवंत और अमर है ,जितना उनके समय में रहा होगा। ज्यों -ज्यों बुद्धिवाद बढ़ता गया ,समाज के सापेक्ष साहित्य भी नीरस औऱ उबाऊ बनता गया।अख़बार की तरह एक बार पढ़ने के बाद पुनः पढ़ने की इच्छा ही नहीं होती । 

             साहित्यकारों का यह दायित्व है कि वे ऐसे साहित्य का सृजन करें, जो मानव मात्र का हितैषी और प्रेरक हो। धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष की ओर ले जाने वाला और सर्वांगीण विकास में सहायक हो। साहित्य के लिए साहित्य लेखन उचित नहीं है। जो साहित्य समाज का विकास न कर सके ,उसका औचित्य ही क्या है? साहित्यकारों को अपनी विद्वत्ता प्रदर्शन करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए। इसलिए उसे मानव मात्र के लिए सहज ,सुबोध औऱ सरस भाषा शैली में लिखा जाना चाहिए।यदि उसे पढ़ते समय शब्दकोष ही खोलना पड़ा, तो रस भंग होना ही है। इसलिए कोरी नट कला दिखाना उचित नहीं है। साहित्य के मूल में यही भाव निहित होना चाहिए: 

 'सर्वे   भवन्तु     सुखिनः    सर्वे     संतु    निरामयाः, 

 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक भवेत।

' 🪴 शुभमस्तु! 

 २०.०७.२०२१◆६.०० पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

कोरोना का फैलाव क्यों ? 🐲 [ लेख ]


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 ✍️ लेखक © 

 🥝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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             देश में कोरोना - वायरस के फैलाव की बात से कौन भिज्ञ नहीं है? इस फ़ैलाव के लिए बहुत कुछ अर्थों में मानव स्वयं उत्तरदायी है।इस प्रश्न पर विचार किया जाना अति आवश्यक हो गया है। कोरोना-फ़ैलाव के कारणों में मेरी दृष्टि में एक प्रमुख कारण है , व्यक्ति की 'अपनी लापरवाही'। रोगाणु के बचाव के लिए मास्क का प्रयोग ,अन्य व्यक्ति से निश्चित दूरी का अनुपालन,कुछ विशेष प्रकार की क्रियाएँ, कुछ विशेष खानपान और आहार -विहार से भी बहुत कुछ बचाव सम्भव है। पर अपने देश का आदमी अपने प्रति ही इतना अधिक गैर जिम्मेदार है कि वह जानते हुए भी इन सब बातों की अनदेखी करता है।

             गाँव के अधिकांश लोगों से यदि मास्क आदि का प्रयोग करने की सलाह दी जाती है ,तो वह अपनी हेकड़ी में दम भरते हुए यही कहता है कि हमें कोरोना कैसे हो सकता है। हम मेहनत करते हैं।पसीना बहाते हैं।  हम मजबूत हैं। शहर के लोगों की तरह कमजोर नहीं हैं हम लोग।हमें क्यों होगा कोरोना ? इसी प्रकार की बे सिर पैर की बातें उन्हें सुझाव दिए जाने पर सुनने को मिलती हैं।यही कारण है कि वे टीकाकरण में भी विश्वास नहीं करते। 

            मूर्खता की हदें तो तब पार हो जाती हैं ,जब देश-प्रदेश के तथाकथित बड़े - बड़े नेता जी नियम कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए देखे जाते हैं।उनका मानना है कि वर्तमान सत्ता दल के टीके को हम क्यों लगवाएँ?जब हमारी सरकार बनेगी ,तब लगवाएंगे।हो सकता है कि इस सरकार की कोई चालबाजी हो ,जो हमें मारने के लिए ईजाद की गई हो।इस प्रकार की सोच के सभी लोगों की बुद्धि पर तरस आता है! इनकी बुद्धि की बलिहारी ही है।ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि प्रदान करे।

            ' डंडे का डर' भी आंशिक समाधान हो सकता है।अभी एक सप्ताह पहले मुझे एक प्राइवेट वाहन से जिला मुख्यालय जाना पड़ा।मुझे छोड़कर उस वाहन में कोई भी मास्क नहीं लगाए हुए था। कुछ देर चलने के बाद मुझसे रहा नहीं गया। मैंने वाहन - चालक से ही कहा  :तुम दिनभर वाहन चलाते हो। हर प्रकार का व्यक्ति इसमें आता - जाता है। तुम्हें अपने बचाव की भी चिंता नहीं है?तुम्हें तो मास्क लगाना ही चाहिए।उसने मौन स्वीकृति दी और हाइवे पर थोड़ा आगे चलने के बाद रास्ते में मिले एक खोखा- दूकान से एक पाँच रुपये का मास्क खरीद कर लगा लिया। यह मास्क मेरे कहने से लगाया हो ,ऐसा भी नहीं है। यह मास्क डंडा के डर से अगले चौराहे पर होने वाले चालान से बचने के लिए लगाया गया था। यह देखकर मेरे पड़ौस में रखे ख़रबूज़े ने भी बैग से मास्क लगाकर अपना मुख -नाक आच्छादन कर लिया।शेष सवारियां निर्विकार भाव से यात्रा करती रहीं। 

           शासन और प्रशासन के बार-बार के निर्देशों औऱ कड़ाइयों के बावजूद सड़क, गली ,बाज़ार ,दुकान ,यात्रा ,मेला, कार्यालयों में बरती जा रही उदासीनता अंततः कहाँ ले जाएगी! जब सरकार ने निःशुल्क टीकाकरण प्रारम्भ कर दिया तो हमें अपने प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों और सरकारों का कृतज्ञ होना चाहिए न कि उसमें मीन - मेख निकालनी चाहिए।

             कुछ ऐसे भी अति बुद्धिमान लोग भी इस देश में निवास करते हैं , जो कोरोना को जाति ,मज़हब औऱ धर्म से जोड़कर देख रहे हैं। कुछ लोगों की आँखों में परमात्मा सुअर का बाल देकर ही पैदा करता है। जिनका कर्म ही है कि हर अच्छी बात में अपनी "अति -बुद्धिमत्ता "? का प्रमाण दें। सो वे ही रहे हैं।

 'जो आया जेहि काज सों तासे और न होय। 

 बोनों ही है विष जिन्हें वे विष ही नित बोय।' 

         मानव की दूषित सोच औऱ उसका दुष्प्रचार कोरोना प्रसार में विशेष सहायक सिद्ध हो रहा है। शासन नियम बना सकता है ,पर उनका अनुपालन तो हमें ही करना होगा।इस भयंकर रोग का हस्र भी जानते हैं सब, फिर भी इतनी भयंकर उदासीनता औऱ अनदेखी निंदनीय है।ईश्वर ऐसों को सद्बुद्धि प्रदान करे औऱ और मेरे देशवासियों की इस महामारी से रक्षा करे। 

 🪴 शुभमस्तु ! 


शनिवार, 2 जनवरी 2021

साहित्य -सृजन:2020 🏕️ एक आत्म मूल्यांकन


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✍️ लेखक©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 🦚ॐ श्री सरस्वत्यै नमः🦚

                वीणा वादिनी विद्या और काव्य की अधिष्ठात्री  माँ  सरस्वती की कृपा है कि मैं आज भी वर्ष 1963 (11 वर्ष) की अवस्था से अद्यतन माँ सरस्वती     की अनवरत साधना में निरत रहते हुए काव्य - साधना  में संलग्न हो रहा हूँ। इस अंतराल में कई हज़ार कविताएँ, लेख, निबंध , एकांकी ,कहानी, लघुकथाएँ,  ,व्यंग्य आदि विविधरूपिणी पद्य और गद्य की रचनाएँ  लिखने के साथ - साथ अभी तक बारह पुस्तकों का प्रकाशन भी हो सका है। इस अंतराल में देश और विदेश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया। ये मेरे लिए अत्यंत हर्ष और सौभाग्य का विषय है। 

रचना लेखन विवरण:

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  वर्ष : 2018 2019 2020

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  योग:  225   387   530

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  वर्ष 2020 में मेरी दो पुस्तकों का प्रकाशन  हुआ।

1. आओ आलू आलू खेलें:( बालगीत संग्रह एवं

आलू- शतक) 

2. 'शुभम' व्यंग्य वातायन:( व्यंग्य संग्रह)


 बहुविधा तूलिका मंच के संस्थापक    तथा  पटल  के प्रशासक डॉ. राकेश सक्सेना जी ने  संभवतः 16 अक्टूबर 2018 को मंच की स्थापना की, जो अद्यतन मंच के समस्त रचनाकारों के सहयोग और सेवाभावी योगदान से निरन्तर एक अनुशासन की कोमल रेशमी रज्जू से बंधा हुआ चल रहा है। मैं किसी मंच - प्रतिभागी के महत्व को किसी प्रकार

कमतर नहीं आँक सकता। मुझे यह ख्याल नहीं आ रहा कि कब मुझे इस मंच से जुड़ने का सौभाग्य प्रियवर डॉ. राकेश सक्सेना के द्वारा प्राप्त हुआ। वैसे  प्रदेश के राजकीय उच्च शिक्षा विभाग में सेवारत होने के कारण हम लोग पहले से ही सुपरिचित थे। देश के विभिन्न  साहित्यिक औऱ सामाजिक मंचों पर मेरी  रचनाओं से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे इस मंच से जोड़ना उचित समझा। तब से आज आज तक मेरी यह साहित्य यात्रा अनवरत प्रवाहित हो रही है।इसके लिए मंच के समस्त सुधी समीक्षकों ,सरंक्षक डॉ. राम सेवक शर्मा 'अधीर 'जी, के साथ - साथ मंच के समस्त श्रध्देय अग्रज और  आदरणीय अनुज /अनुजाओं , समवयस्क मित्रों का कृतज्ञ हूँ कि जिनके निर्देशन मैं आज भी सीख रहा हूँ; अपने को  विद्यार्थी ही मानता हूं। इस मंच को अपना काव्य -गुरु मानने में भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आभार व्यक्त करने के लिए नामों का गिनना उचित नहीं होगा, क्योंकि यह सूची इतनी लंबी होगी कि भूलवश नाम न लिखने पर उन्हें तो अच्छा नहीं लगेगा, मुझे भी अन्याय ही अनुभव होगा।

                 इसी स्थान पर मुझे यह कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि यों तो देश में हजारों साहित्यिक मंच होंगे किन्तु इतना अनुशासित , व्यवस्थित और ईमानदार मंच शायद ही कोई हो। फ़ोटो , वीडियो और ओडियो नहीं भेजने का कठोर नियम नारियल की तरह से बाहर से कड़ा और भीतर से दुग्धवत निर्मल औऱ सनीर है। अन्यथा इस पर कितना कूड़ा -कचरा गिराया जाता , इसकी कोई सीमा नहीं है।इसका अर्थ यह नहीं लिया जाए कि मैं चित्र आदि को कूड़ा -कचरा समझता हूँ ।उनका भी अपना महत्व है , लेकिन एक सीमा तक ही वह सुगन्ध 

देता है। उसकी अतिशयता दुर्गंध ही छोड़ती है। चित्र तो हमारी  अपनी महत्वाकांक्षी भावना के प्रतिरूप हैं। दूसरा उन्हें कितना महत्व देता है , उसका मूल्यांकन इस पर भी निर्भर करता है । इसलिए  इस मंच का  सौंदर्य  और सुरुचि इसी में निहित है।


       लेख के विस्तार की अतिशयता को दृष्टिगत करते हुए इतना ही कहना चाहता हूं कि साहित्य की सेवा , मातृभाषा , जननी और जन्मभूमि की सेवा ही मेरा कर्म है , धर्म है और इसी में मेरा अपना मर्म भी है।

  वर्ष 2021 के प्रथम दिवस की इस पावन वेला में माँ सरस्वती से मेरी यही प्रार्थना है कि आजन्म इसी प्रकार माँ भारती की

सेवा में तन मन और धन से लगा रहूँ।ॐ 


🌷🌷 जाने वाले वर्ष 2020को  भावभीनी विदाई।🌷🌷


💐💐 नवागत वर्ष  2021 का हृदय की गहराइयों से स्वागत💐💐

और आप सभी को बहुत -बहुत शुभकामनाएं और बधाई 💐💐 .......


💐 शुभमस्तु !


01.01.2021◆8.00 अपराह्न।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

कविता क्या है? [ लेख ]

 

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 ✍️ लेखक © 

 📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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               कविता मानवीय मनोभावों के उच्छ्वसित होने का एक सुंदर ,सशक्त और कलात्मक माध्यम है।यह मानवीय भावों-यथा:प्रेम, करुणा ,दया, ममता ,घृणा ,क्रोध आदि की रक्षा करती है।कविता मानवीय मनोभावों को उत्तेजित करने का उत्कृष्ट साधन है।किसी कवि के द्वारा जब भावनाओं का प्रसवी करण होता है ,तो कविता स्वतःस्फूर्त रूप से प्रस्फुटित होने लगती है। 


              स्वावभावतः प्रत्येक व्यक्ति प्राकृतिक रूप से एक कवि होता है,किन्तु एक सामान्य व्यक्ति और कवि में मूलभूत अंतर यह होता है कि शब्द- साधना की कलात्मक अभिव्यक्ति करके कवि अपने मनोभावों को कागज़ ,कैनवस या किसी अन्य आधार पर अंकित कर देता है और वह एक कविता बन जाती है।अन्य सामान्य व्यक्तियों में यह विशिष्ट क्षमता नहीं होती।इसीलिए वे काव्य का सृजन नहीं कर पाते। वे किसी गूँगे व्यक्ति की तरह गुड़ का रसास्वादन तो कर सकते हैं, किन्तु शब्दाधृत कला द्वारा अभिव्यक्त करने में असमर्थ होते हैं।

       

              कविता में विद्यमान प्रेरक शक्ति मानव को किसी सत्कर्म में प्रवृत्त करने की भावना को उद्दीप्त कर उसे सक्रिय बनाती है। जिस प्रकार ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि का सृजन किया जाता है ,उसी प्रकार प्रत्येक कवि भी काव्य -जगत का सृजन करता है। कविता करना एक कला है। जो इस कला में शब्द -साधना का निरन्तर अभ्यास करता हुआ आगे बढ़ता है , वह क्रमशः पारंगत होता चला जाता है। कविता के माध्यम से मानव - जगत के सुख-दुःख, आनन्द-विषाद आदि का सही रूप में अनुभव प्राप्त कर पाता है। 

       

             यह ठीक है कि कविता से मानव का मनोरंजन भी होता है,किन्तु मात्र मनोरंजन ही कविता का अंतिम उद्देश्य नहीं है। मानव -हृदय में एकाग्रता का भाव कविता से ही प्रादुर्भूत होता है। कविता मानवीय भटकाव को दूर करती हुई उसे केन्द्रीयता प्रदान करती है।सीधे -सीधे उपदेश देना नीरस और प्रभावहीन होता होता है, किन्तु कविता द्वारा उससे अधिक प्रभाव उत्पन्न किया जाता है।कविता मानव में सौंदर्य -बोध उत्पन्न कर संसार को सकारात्मक ष्टि से देखने के लिए प्रेरित करती है।वह मानवीय नकारात्मक भावों को निकालकर बाहर कर देती है।

      

             कविता मानवीय अंतःकरण में विलास की सामग्री नहीं परोसती।कविता में मानवीय भाव : करुणा ,प्रेम ,शृंगार ,हास्य,रौद्र, भयानक, वात्सल्य , वीभत्स, शांत आदि रस रूप में साधारणीकृत होकर अस्वादित होते हैं , तभी तो हमें जगत जननी सीता और जगत पिता श्री राम के पुष्प वाटिका के प्रणय प्रसंग को देख पढ़कर उनके प्रति पूज्य भाव होने पर भी उनकी प्रीति एक सामान्य प्रेमी -प्रेमिका की प्रीति की तरह आनंदानुभूति कराती है। वहाँ राम भगवान राम नहीं रह जाते ,और न सीता विशेषत्व धारित सीता माता रह पाती हैं। उन दोनों का साधारणीकृत प्रणय भाव ही सामाजिक को लौकिक प्रेम की अनुभूति का आनंद देता है।


                मानव -जाति के लिए कविता एक अनिवार्य तत्त्व है। मानव की मानवता की रक्षा करने में कविता की महत्वपूर्ण भूमिका है। मानवीय प्रकृति को जागृत बनाए रखने के लिए कविता के बीज का वपन ईश्वर द्वारा मानव -हृदय में किया गया है। पशु, पक्षी ,पौधे ,लता ,जलचर , थलचर तथा करोड़ों जीवधारियों में कविता करने का गुण नहीं पाया जाता। उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं है। प्रयास करके मानव डाक्टर, अभियंता, वकील , नेता , विधायक ,सांसद ,मंत्री आदि कुछ भी बन सकता है , किन्तु सप्रयास कवि नहीं बन सकता।


             कविता केवल प्रत्येक सहृदय मानव को प्रभावित करती है। सभी लोग सहृदय नहीं होते ,इसलिए उनके ऊपर कविता का प्रभाव ऐसे होता है ,जैसे सूखे हुए पाषाण खण्ड पर कुछ देर के लिए जलधारा गिरा देना , जो अल्प काल के लिए उसे मात्र गीला ही करती है ,कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाती। सृष्टि में विद्यमान सौंदर्य -बोध को जागृत करने तथा उसे बनाए रखने के लिए कविता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।कविता मानव को सौंदर्य की ओर आकर्षित ही नहीं करती ,वरन उसमें अनुरक्ति का सूत्रपात भी करती है।भौतिक सौंदर्य की तरह मानसिक सौंदर्य भी मानव की आत्मा को तृप्त करता है। कविता में पार्थिव और अपार्थिव -दोनों प्रकार के सौंदर्य का संयोग दृष्टव्य होता है। मानव पार्थिव सौंदर्य के अनुभव के बाद अपार्थिव (मानसिक) सौंदर्य की ओर आकर्षित होता है । पार्थिव सौंदर्य से अपार्थिव की ओर ले जाना कविता का प्रधान लक्ष्य है।


             कुछ कविगण अपने किसी निजी स्वार्थवश या लालच के कारण राजनेताओं, अधिकारियों ,अपने इष्ट मित्रों आदि की प्रशंसा में कसीदे काढ़ते हुए कविता का दुरुपयोग करते हुए भी देखे जाते हैं।यह कविता का अपमान है। माँ सरस्वती का असम्मान है। कवि की दृष्टि में सर्वोच्च प्राथमिकता उच्च आदर्शों ,मानवीय मनोभावों औऱ सकारात्मकता की ओर होनी चाहिए। चाटूकारिता से रंजित कविता करना कवि क़ा धर्म नहीं है।एक सच्चा कवि मानव मात्र में सौंदर्य का प्रवाह करता है। कविता की रसात्मकता ही उसका प्रधान गुण है: ' वाक्यं रसात्मकम काव्यं'। 

 💐 शुभमस्तु !


 18.09.2020◆12.55अपराह्न। 


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शुक्रवार, 29 मई 2020

गुरु शिष्य परम्परा [ लेख ]




✍ लेखक © ☘️ 
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

                वर्तमान युग में प्राचीन पावन परम्पराओं का अस्तित्व शनैः शनैः कम से कमतर होता जा रहा है।जब सभी ऐसी अनु करणीय परंपराएं ढहती चली जा रही हैं , तो गुरु शिष्य परम्परा को मानने वाला कौन है? इस सबके लिए हमारा समाज और सामाजिक ढाँचा उत्तरदायी है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य श्री रामचरित मानस में मानवीय जीवन मूल्यों का विश्वकोश देखा जा सकता है। जिसमें पिता -पुत्र, माता -पुत्र , पति -पत्नी , स्वामी- सेवक , भाई -भाई , गुरु -शिष्य परम्परा और व्यवहृत आदर्शों का जीवंत निरूपण मिलता है।मर्यादा पुरुषोत्तम राम का युग त्रेतायुग था । द्वापर युग को पार करने के बाद रहे- सहे मूल्यों का ह्रास ही हुआ है। जब समाज के सारे मूल्य पतित हो रहे हैं , तो गुरु -शिष्य परम्परा ही कैसे अक्षुण रह सकती है।

              समाज में माता -पिता ही गुरु को महत्त्व नहीं देते ,तो संतान कैसे उसे सम्मान दे सकती है। समाज और माता पिता द्वारा दिये गए संस्कार ही संतान के चरित्र और मूल्यों का सृजन करते हैं। घर पर कोचिंग पढ़ाने वाले शिक्षक के संबंध में एक सेठ जी अपनी सेठानी से फोन पर पूछ रहे हैं: 'अरी मास्टर आया कि नहीं ट्यूशन पढ़ाने?' ये हैं आज के धन कुबेरों के संस्कार ! जिन्हें एक शिक्षक से उचित सम्मान देने की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। भूल जाइए वह अतीत की गुरु -शिष्य की परंपरा , जब शिष्य सुबह से लेकर कार्य पूरा न होने तक जंगल से गुरु माँ के ईंधन के लिए लकड़ियां काटकर लाते थे। क्या आज का शिष्य यह सब कर सकता है?
                      एक शिष्य जो कभी भी गुरु जी के लिए एक पालक का पत्ता भी नहीं लाया , एक दिन मटकी भर मट्ठा लेकर गुरु जी की देहरी पर जा पहुंचा। गुरु जी को आश्चर्य हुआ : 'अरे !भाई छबीले राम , इस मटकी में क्या लाया ?' शिष्य बोला :'गुरु जी आपके लिए छाछ लाया हूँ।' गुरु जी बोले : 'आज कैसे याद आ गई , पहले तो कभी नहीं लाया! ' छबीले राम कहने लगा -' गुरु जी। बिल्ली मुँह मार गई थी। सो मैंने सोचा , फेंकने से अच्छा है , गुरुजी के यहाँ ही दे दें , तो गुरु जी खुश हो जाएंगे।' गुरु जी लगभग दहाड़ते हुए।बोले - अरे ! दुष्ट छ्वुया तुझे मैं ही मिला था इस काम के लिए? चल उठा ,औऱ चलता बन।'

              तो ये हैं आज के शिष्यों के संस्कार! क्या कर सकते हैं आप इससे इनकार। जब तक माँ -पिता को सही संस्कार नहीं मिलेंगे और उस गुरु को अपनी दुकान पर सामान उठाने -रखने वाले नौकर समझा जाएगा , तब तक गुरु -शिष्य परम्परा की बात सोचना भी बेमानी होगा। निरर्थक होगा।शिष्यों से पहले उनके माँ- बाप के लिए संस्कार -शाला खोले जाने की आवश्यकता है।

 💐 शुभमस्तु !

 29.05.2020 .12.25 अपराह्न।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

निष्कर्ष :घरबंदी के [ लघु लेख ]

निष्कर्ष :घरबंदी के
 [ लघु लेख ]
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 ✍ लेखक ©
 🏡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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        दस दिन तक देश को 'घरबंदी' में रहने के बाद कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष निकलकर आए हैं, जिन्हें जानना और समझना बहुत आवश्यक हो गया है। जब कोई निष्कर्ष हमें चौंकने के लिए विवश कर देता है ,तो उस पर चिंतन करना भी आवश्यक होता है।
 1. ' घरबंदी बनाम घेराबंदी ': अन्य पशुओं , पक्षियों , कीड़े -मकोड़ों ,जलचरों आदि की तरह मानव भी उन्हीं में से एक प्रजाति है।अब यह स्पष्ट हो गया है कि उन सबकी तरह यह भी अपने घरों में बंद होकर नहीं रह सकती।सरकार के द्वारा की तो घरबंदी गई थी , किन्तु उसकी अन्य प्रजातीय जीवों की तरह वह 'घेराबंदी ' ही साबित हुई, क्योंकि उसके भले के लिए , उसकी प्राणरक्षा के लिए पुलिस , मिलिट्री आदि की व्यवस्था इसीलिए की गई थी। लेकिन वह घर में बैठने वाला जीव कहाँ है ? उसकी असलियत खुलकर सामने आ गई। पुलिस वाले नियत स्थानों पर (सड़क , चौराहे आदि ) घर से निकलने वाले लोगों की घेराबंदी करते हुए नज़र आए। लेकिन घरों में बंद रहना उसके लिए असम्भव हो गया। और वह घर के दरवाजे , खिड़की , गली ,सड़क पर नजारा लेने के लिए बाहर आ गया। पुलिस ने अपनी ड्यूटी की और कर भी रही है। पर यह मानव प्रजाति मानने वाली नहीं है। अब प्रत्येक दरवाजे पर पहरा तो नहीं बिठाया जा सकता। 'लातों के देव बातों से नहीं मानते ।'
 2.'मानव के लिए घर अनावश्यक ' ! : मानव ने अपने रहने के लिए जो घर बनाये हैं , उसकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है। घर तो केवल खाने औऱ सोने के लिए ही हैं। दुकान , ऑफिस , वाहन , सड़क , कल ,कारखाने , कंपनियां ही वे जगह हैं , जहाँ मानव को शांति मिलती है। उसका ज्यादातर समय इन्हीं में व्यतीत होता है। घर तो केवल एक शो पीस हैं, क्योंकि अपना पैसा भी वह घर पर नहीं रखता। बैंक में रखता है। उसकी अधिकांश जरूरतें बाहर ही पूरी होती हैं।इसलिए उसके लिए घरबन्दी किस काम की?
 3. 'अविश्वासी मानव': मानव प्रजाति मरने से भी नहीं डरती । जिस रोग के कारण उसे बचाने का प्रयास सरकार द्वारा महीनों पहले से किया जा रहा है, उसके प्रति उसे कोई विश्वास नहीं है। जितने अधिक उपाय सुझाए जा रहे हैं, वह उतना ही उनके प्रति उनका उपहास करता हुआ दिखाई दे रहा है। वह अदृश्य में विश्वास ही नहीं करता , इसीलिए तो पत्थरों में भगवान की खोज करता है।जब ईश्वर निराकार नहीं तो कोई बीमारी निराकार कैसे हो सकती है !
 4.'मानव सभ्यता :एक दिखावा': मानव प्रजाति का संस्कार कपड़े पहनने का नहीं है। इसलिए वह अपनी नंगई का प्रदर्शन गाहे बगाहे करता रहता है। स्त्री को खुश करने के लिए ग्रंथों में लिख दिया गया कि नारी में पुरुष की अपेक्षा लज्जा आठ गुना अधिक होती है। लेकिन नारी द्वारा पहने जा रहे वस्त्रों से साफ दिखाई देता है कि उसे अपनी देह के प्रदर्शन का कितना चाव है! पता नहीं क्यों वह आंशिक देहांग किस मजबूरी में ढके रहती है? जिसे सभ्यता कहा जाता है। सभ्यता : अर्थात ऊपरी आवरण , जिसे जब चाहें उतार कर रखा जा सकता है।समुद्र के किनारे धूप दर्शन के बहाने उनकी वह चाह भी पूरी करती हुई देखी जा सकती है।
 5.'नियम और कानून का दुश्मन :मानव ': नियम और कानून को पहले बनाना और उसी मानव के द्वारा तोड़ना , यह उसका प्रिय शौक है। घरबन्दी में इसे बखूबी देखा जा रहा है। उससे कहा गया कि घर में रहो ,तो वह दरवाजों से झाँक रहा है। कोई न कोई बहाना लेकर बाहर जाना ही है। जो जा रहा है , डंडा भी खा रहा है।कोई दुकान के सामने बैठा हुआ है कि कोई ग्राहक आए तो उसे सौदा दे दे। कुछ तो इनकम हो ! बीमार होने और मरने को तिलांजलि देकर ग्राहक का इंतजार कर रहा है। बगीचे में लिख दिया जाए कि फूल तोड़ना मना है। तो वह सोचता है , क्यों न तोड़ा जाए। अहंकारी नेता , गुंडे आदि टॉल प्लाजा पर बिना टॉल दिए इसीलिए तो निकलना चाहते हैं।घरबन्दी में यह खूब देखा जा रहा है।
 6.'मानव -विनाश का पूर्वाभ्यास':एकमात्र मानव ही ऐसी प्रजाति है ,जिसे अपने ही हितैषियों , शुभचिंतकों का विश्वास नहीं है। ये तीर ,कमान, भाले, बर्छी, बंदूकें, पिस्टल , स्टेनगन , तोप, मिसाइल , परमाणु बम, हाइड्रोजन बम , जैविक बम , वायरस बम आदि उसने मानव को मारने और दुनिया से मिटाने के लिए ही बनाये हैं न? किसी चूहे , बिल्ली , कुत्ते , लोमड़ी , सियार , हाथी , गधे , घोड़े , मच्छर , बर्र , खटमल आदि को मारने के लिए नहीं बनाए। मानव की यदि कोई सबसे बड़ी शत्रु प्रजाति है तो वह और कोई नहीं वह स्वयं मानव ही है। वही उसके लिए सबसे बड़ा खतरा है। प्रकृति उसे नष्ट करे या न करे , लेकिन एक न एक दिन मानव मानव के कारण ही नष्ट हो जाएगा। इस समय इसका पूर्वाभ्यास चल रहा है। एक सूक्ष्म वायरस के कारण मानव का असमय विनाश हो रहा है। यह सिलसिला कब तक चलेगा , कोई नहीं जानता।
 7.' श्मशान में सोहर ': मानव प्रजाति वक्त की नज़ाकत को नहीं समझती। महाविनाशात्मक बीमारी का ऐसा उपहास विश्व के इतिहास ने शायद कभी नहीं देखा है । वह अपना ही उपहास करता हुआ दिखाई दे रहा है। यदि शासन और प्रशासन का डंडा मजबूत नहीं होता तो वह गलियों औऱ सड़कों पर नंगा नाच करता हुआ दिखाई देता। हजारों विश्व के लोग मर रहे हैं। उधर सोशल मीडिया पर देखा जा रहा कि अनेक चुटकुले , ऑडियो , वीडियो , बनाकर श्मशान में सोहर गाया जा रहा है।दूल्हे के बैंड बजाए जा रहे हैं।वाह रे ! क्रूर इंसान ! तेरी इस कायरता को हजार बार धिक्कार ! लाखों बार धिक्कार !!
 8.'आदमी ही विषाणु': मानव प्रजाति के लिए मानव ही सबसे बड़ा विषाणु (वायरस ) है। विज्ञान का उपयोग क्या मानव विनाश के लिए ही किया जाएगा ? अपने को विश्व के उच्चतम शिखर पर देखने की आकांक्षा उससे क्या कुछ नहीं करवा लेगी !जब वह।सम्पूर्ण मानव जाति का विनाश कर लेगा तो अपनी अपरिमित खुशी का साझेदार किसे बनाएगा !क्या महाराजा युधिष्ठिर को महाभारत के बाद अपनों की ही लाशें बिछाकर सच्ची खुशी हासिल हुई ? स्व विनाश के बाद कोई विक्षिप्त ही अट्टहास कर सकता है।लेकिन ये ज्ञान -विज्ञान का पुतला क्या इसी लिए है ?
         इसी प्रकार के बहुत से निष्कर्ष हैं जो इस विषाणु की विभीषिका ने मानव के समक्ष विचार करने के लिए छोड़ दिये हैं। जिसे मानवता कहा जाता है , वह अब ढूंढने पर ही मिलेगी।समाजसेवियों , पुलिस प्रशासन , चिकित्सा विभाग अपने प्राणों की परवाह किए बिना मानव जाति को बचाने के लिए रात - दिन एक कर रहा है। लेकिन कहावत वहीं है :बकरा जान से गया औऱ खाने वाले को स्वाद ही नहीं आया? सरकारी मदद का अनुचित लाभ लेने वाले लोग घरों में स्टॉक कर रहे हैं।उसे इकट्ठा करके बेच रहे हैं। दूसरों के हक पर डाका इसी को कहते हैं।कुछ ऐसे भी हैं जो अपनी धार्मिकता के प्रचार की आड़ में रोग का प्रसार कर बेशर्मी की सीमाएँ तोड़ रहे हैं। जिस थाली में खाकर उसी में छेद करना इसी को कहते हैं। धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो इंसान के जिस्म में नरभक्षी बने हुए हैं।
 ईश्वर सबका कल्याण करे।
हम तो फिर भी यही कहेंगे:
 सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखभाक भवेत

 💐 शुभमस्तु !
 02.04.2020 ◆11.00 पूर्वाह्न।

शनिवार, 14 मार्च 2020

इतिहास-निर्माण अंधों से होता है! [ लेख ]

✍ लेखक ©
 🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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 भीड़ को भेड़ों का पर्याय मानें तो कोई आश्चर्य करने की बात नहीं है। भीड़ में तो भेड़ ही शामिल हो सकती हैं। मेरे अनुसार यह कहा जा सकता है कि जो भय से भीत है , अर्थात डरा हुआ है, वही भीड़ है। भयभीत को ही भीड़ का सहारा चाहिए। जिसके पास सत्य का साथ है, वह कभी भीड़ का अंग नहीं होता। कहना यह चाहिए कि भीड़ का कोई निर्धारित नीड़ नहीं होता।

 जो व्यक्ति भीड़ का एक अंग होता है , उसे भीड़ का एक सहारा होता है। उसे हर समय यह अनुभव होता है कि वह अकेला नहीं है। इतने लोग जो उसके साथ चल रहे हैं , अथवा यह कहें कि वह इतने लोगों के साथ है । वह सोचता है कि क्या इतने लोगों की सोच ग़लत हो सकती है? बस इसी विश्वास के साथ वह अपने विवेक की आँखें बंद कर लेता है और बिना पट्टी बांधे हुए भी वह उसके पीछे अन्धवत चलता रहता है। इसे यदि अंधानुकरण कहें तो कोई बात नहीं होगी। यह भीड़ का सहारा और उसे ही सत्य समझ लेने का भ्रम चाहे गड्ढे में ले जाये या आग में झोंक दे , उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ।

 भीड़ में चल रहे व्यक्ति का अपना निजी व्यक्तित्व भी मर जाता है। अकेले चलने वाले व्यक्ति से वह सर्वथा विपरीत होता है। यद्यपि अकेले चलने वाला सर्वांश में सत्य ही हो , यह भी अनिवार्य नहीं है। चूँकि उसका विवेक जागृत रहता है , इसलिए उसे भीड़ से पूछने की आवश्यकता भी नहीं रहती।वह सत्य का अनुसंधान करने में सक्षम होता है किंतु भीड़ सत्य की खोज से सर्वथा दूर ही रहती है। बहिर्मुखता का नाम ही भीड़ है। भीड़ केवल बाहर ही देखती है।वह अपने अंतरतम में नहीं झाँक सकती , क्योंकि भीड़ का अंतरतम होता ही नहीं है। भीड़ सदा सत्य से दूर ही रहती है।

 यदि कोई व्यक्ति भीड़ का नेतृत्व करता है , तो भीड़ को अंधा बनकर पीछे - पीछे चलने का एक और सहारा बन जाता है।यदि आगे चलने वाली भेड़ कुँए में गिरती है , तो यह भी सुनिश्चित है , कि अनुगामिनी सभी भेड़ें उसी कुँए में गिरेंगी ही। राजनीतिक अथवा मजहबी अन्धानुगामियों की स्थिति कुछ इसी प्रकार की होती है। अंधा अपने आंतरिक विवेक की हत्या पहले ही कर चुका होता है , जब उसे भीड़ या उसके तथाकथित नेता रूपी अंधे की लकड़ी का सहारा मिल जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता। चरित्र सदैव व्यक्ति का ही होता है।

 लाओत्से का कथन है :'भीड़ के सामने सत्य कहो तो भीड़ पहले हँसेगी, और यदि तुम कहते ही चले जाओ तो भीड़ तुमसे बदला लेगी।भीड़ डरने लगेगी कि तुम कहे ही चले जा रहे हो ,कहीं कुछ लोग भीड़ में तुमसे राजी ही न हो जाएं। कहीं ऐसा न हो कि कुछ लोगों को तुम्हारी बात ठीक ही न लगने लगे।' भीड़ का यह विश्वास उसे सत्य को सुनने , मानने , विश्वास करने और उसका अनुसरण करने के लिए सिरे से नकार देता है। यही कारण है कि जब जीसस ने अपने को और सबको भी ईश्वर का बेटा बताया तो उनकी हँसी इसी भेड़ और भीड़ के द्वारा बनाई गई और अंततः उसी भीड़ के द्वारा उन्हें फाँसी दे दी गई। लोग सूली पर चढ़ाते हुए जीसस को देखने के लिए इसलिए एकत्र नहीं हुए कि परमात्मा के पुत्र को सूली पर चढ़ाया जा रहा है , बल्कि उनका उपहास करने के लिए ही एकत्र हुए थे। यह वही भीड़ का फैसला और उसका किया गया कृत्य।

 इतिहास का निर्माण अंधों से होता है। भेड़चाल से ही इतिहास की रचना होती है और होती रहेगी। भेड़ों के पास सूझबूझ नहीं होती । वे केवल अंधानुकरण भर जानती हैं।लगता है हर एक के गले में हर अगली भेड़ की पूँछ बँधी हुई है। और वे पीछे -पीछे चलती चली जा रही हैं। जिंदाबाद कहो तो जिंदाबाद और मुर्दाबाद कहो तो मुर्दाबाद। इसी सूत्र से है भीड़ या भेड़ों का अस्तित्व आबाद। महात्मा कबीर बहुत पहले ही कह गए हैं : 'अंधा अंधे ठेलिया , दोनों कूप पडंत।' अंधों के द्वारा अंधों को धक्के दिए जा रहे हैं। अंधों के नेता अंधे बने हुए हैं। अंततः सबको कूप में गिरना ही है । सब देख भी यही रहे हैं ।चूँकि प्रायः सब लोग भेड़ बने हुए हैं। इसलिए न कहीं विवेक है , न प्रेम और न सत्य । इसीलिए सबका जीवन एक भार बना हुआ है।नर्क में रहने वाले प्रश्न कर रहे हैं कि क्या कहीं नर्क है?

 💐 शुभमस्तु
! 14.03.2020 ◆8.30 पूर्वाह्न।




शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

बैं नी आ ह पी ना ला [ लघुलेख ]


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 ✍लेखक © 🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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            बैं नी आ ह पी ना ला आकाश में प्रकट होने वाले इंद्रधनुष का एक संकेत- सूत्र है। जिसका पूर्ण रूप क्रम इस प्रकार है : बैंगनी ,नीला, आसमानी ,हरा ,पीला, नारंगी और लाल। पानी के सूक्ष्म कणों पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों का विक्षेपण (फैलाव) ही इंद्रधनुष का कारण है। इसमें सूर्य की किरणें वर्षा की बूँदों से अपवर्तित तथा परावर्तित होती हैं।यह हमारी पीठ के पीछे सूर्य के होने पर ही दिखाई देता है। यह चाप के आकार का होता है। इसे मेघधनुष के नाम से भी जाना जाता है। यह प्राकृतिक सुंदर घटना बरसात के दिनों में वर्षा होने के बाद देखी जा सकती है।इंद्रधनुष के रंगों का ऊपर बताया गया एक सुनिश्चित क्रम होता है। जिस रंग का तरंग दैर्ध्य जितना बड़ा होता है , वह उतना ही अधिक प्रकाशवान और आकर्षक लगता है। लाल रंग का तरंग दैर्ध्य सबसे अधिक 6.5×10 सेमी.तथा बैंजनी रंग का सबसे कम 4.5×10सेमी. होता है।

         यह तो हुई इंद्र धनुष के रंगों की बात । ये सात प्रमुख रंग हैं। इनके विभिन्न अनुपात में मिश्रण से हजारों रंग बनाये गए हैं। हमारा विशाल सूर्य ही इन रंगों का कारण है। यदि किसी प्रिज्म से प्रकाश की श्वेत किरणों को गुजारा जाता है तो प्रकाश नहीं सात रंगों में इसी क्रम से विश्लेषित हो जाता है।इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रकाश इन्हीं सात रंगों से निर्मित हुआ है। 

            रंगों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। सामाजिक , धार्मिक और आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से रंग हमारे जीवन में विशेष भूमिका अदा करते हैं। प्रत्येक रंग की अपनी विशेषता है।कुछ प्रमुख बातों को यहाँ पर बता देना आवश्यक होगा।

               हमारे व्यक्तित्व को रंग विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। लाल रंग एक ओर प्रेम का रंग माना जाता है ,उसके विपरीत यह खतरे का भी संकेतक रंग है। इसीलिए तो दुल्हन के वस्त्र , बिंदी आदि लाल ही बनाये जाते हैं। यह प्रेम का प्रतीक जो है।उसकी महावर लिपस्टिक, चूड़ियों आदि में भी इसका ध्यान रखा जाता है।हमारे रक्त का रंग भी लाल है। यह व्यक्ति विशेष के गर्म अर्थात क्रोधित रूप का भी निदर्शक है। हरा रंग शांति का रंग है। प्रकृति में पत्तियों की हरीतिमा देखकर हमारे नेत्रों को शांति प्राप्त होती है। इसीलिए प्रकृति ने पेड़ -पौधों की अधिकांश पत्तियां हरे रंग की ही बनाई हैं।इससे हमें सुखानुभूति होती है। यह नेत्रों को चुभता नहीं है। हमारे तिरंगे ध्वज में इसे इसी भाव से नीचे स्थान दिया गया है। सफेद रंग निर्मलता औऱ शांति का अनुभव कराता है।

                केसरिया त्याग और बलिदान का प्रतीक है। राष्ट्र ध्वज में सबसे ऊपर यही रंग विराजमान है , क्योंकि देश की आज़ादी हमें बड़े त्याग औऱ बलिदान के बाद मिली है। बौद्ध भिक्षु ,सन्यासी तथा बहुत से संत स्त्री पुरूष केसरिया रंग के चीवर या वस्त्र धारण करते हैं। नीला और आसमानी रंग व्यापकता के प्रतीक हैं। बैंगनी रंग बच्चों को अधिक पसंद होता है , यह अनुभवहीनता और अपरिपक्वता का प्रतीक है।काला रंग अशुभता , अंधकार और अज्ञान का है। हमारे यहाँ कानून को अंधा माना गया है। तभी तो कानून की देवी को उसकी आँखों पर काली पट्टी बांधकर दिखाया जाता है , और तो औऱ अधिवक्ताओं औंर न्यायाधीशों को कोट आदि काले ही पहनाए जाते हैं।पीला रंग ज्ञान का प्रतीक है। चीवर का रंग भी पीला ही रखने के मूल में यही कारण है। इस प्रकार रंगों का एक विशेष विज्ञान है। जो सर्वांगीण रूप से हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।   
           रंग - रंग की दुनिया है। एक दुनिया होली की भी है। जिसमें हमारे देश में विविध प्रकार के रंगों से होली खेली जाती है। इसमें बच्चे , वृद्ध , जवान , नर -नारी बड़ी उमंग और प्रेम से खेलते हैं। यह अलग बात है कि युग के अनुरूप होली खेलने के ढंग बदलते जा रहे हैं।रासायनिक रंगों ने रंग में भंग ही कर दिया है। वरना वह भी एक समय था, जब पलाश आदि के फूलों से रंग तैयार करके होली खेली जाती थी। आज तो जहरीले पेंट और कालिख से भी लोग चेहरे विकृत करते देखे जाते हैं। युग -युग में मानव -चरित्र भी बदलता है। जैसा जिसका चरित्र वैसा ही उसका चित्र। वैसी उसकी होली। वैसी ही उसकी बोली। 

         अपने चरित्र की पहचान करनी हो तो अपने पसंद के रंगों की गहराई में उतरिये । ध्यानावस्था में अपनी त्रिकुटी में अपने चरित्र के चित्रों का नज़ारा आप स्वयं देख सकते हैं। उन्हीं सात रंगों में से जो पहले और प्रमुखता से दिखे वही आपके चरित्र का चित्र है। आप उससे बच नहीं सकते। वहाँ भी रंगों का एक अपना संसार है। 💐 शुभमस्तु !
 29.02.2020 ◆7.35 पूर्वाह्न।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...