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शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

अंतर ● [अतुकान्तिका]

 362/2023

          

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● ©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गरीबों से अधिक

अमीरों को,

नेताओं, अधिकारियों को,

डॉक्टरों ,अभियंताओं को,

अभावों से अधिक

भरावों को,

सोने की चाहत है।


अच्छा है यह

कि खाया नहीं जाता

चमचमाता हुआ सोना,

वरना कितना अधिक

पड़ता इस आदमी को

जीवन में रोना,

फिर भी इस कनक की

चमक से 

पड़ता है उसे अपना

यथार्थ सुख खोना।


चाहत में सुख की

आजीवन ,

सोने की चौंध 

उसकी बुद्धि को

चुँधियाती है,

सोना का साथ

भुला देता है

उसे चैन से सोना।


सोने के सिंहासन पर

सब एक हैं,

कहीं कोई अंतर नहीं,

जैसे मरघट की

माटी में 

सबकी एक ही

दशा रही,

गोल -गोल रोटी से अधिक

यहाँ सदा सोने की

महत्ता जाती कही।


जिसने भी 'शुभम्'

ये अन्तर  समझा-जाना,

बना नहीं वह कभी

सोने का दीवाना,

उसने अपना

 सच्चा सुख

कहीं औऱ ही 

जाना।


● शुभमस्तु !


18.08.2023◆ 6.45 आ०मा० 

रविवार, 6 अगस्त 2023

सार्थकता जीवन की ● [अतुकान्तिका]

 334/2023


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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जिस्म

जिंदगी

जर्रा -जर्रा

जर्जर

ज़रा - ज़रा।


जिंदादिल ही

जिया जिंदगी

जिसने 

ज़ख्म सिया,

जलता एक दिया।


कुत्ते भी

भर लेते

अपने पेट,

मस्त सूकर

कीचड़ में,

नर जीवन

नहीं जुआ।


करता नहीं

जनक जननी की

सेवा ,मान न पूजा,

देशभक्ति गुरु मान

न जिसमें

वह तो ढोर मुआ।


'शुभम्' सार्थक

जीवन कर ले

दुर्लभ मानव देह,

उड़ जाए

जिस क्षण

वह पंक्षी

रिक्त बने 

ये गेह,

हुआ या 

नहीं हुआ!


●शुभमस्तु !


04.08.2023◆3.30आ०मा०

शनिवार, 3 जून 2023

सहयात्री ● [अतुकान्तिका ]

 236/2023

     

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●शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पथ के सहयात्री

सभी एक -से 

नहीं होते,

कुछ अच्छे,

कुछ नहीं,

कुछ मरुस्थल जैसे

तप्त करते हुए,

कुछ तटस्थ

जैसे हों ही नहीं,

कुछ अमराई जैसे

छायादार,

करते हुए उपकार।


आदमी के प्रकार

जैसे खरबूजे की बहार,

क्या पता कौन

क्या निकल जाए!

कोई सहचार से

आजीवन विस्मृत 

नहीं हो पाए!

और कोई 

बबूल के शल्यवत

चुभ -चुभ जाए।


आवश्यक नहीं

नर देह में,

मानव ही हो,

कसे से सोना

और बसे से इंसान

पहचाना जाता है,

ज्यों आदमी 

आदमी के

 निकट आता है,

अपनी सुगंध

किंवा दुर्गंध से

प्रभावित कर जाता है।


आदमी की

 खाल के नीचे,

समझ मत लेना

यह आँखें मींचे,

कि वह 

आदमी ही होगा,

पता तभी लगना है

जब उसका उतरेगा

अपना  बाहरी चोगा,

अन्यथा छद्म ही होगा।


आओ 'शुभम्'

हम आदमी को जानें,

उसके स्वार्थ से

उसे पहचानें,

अपने को परहितार्थ

मानव - देह में

मानव तो बना लें,

स्वार्थों को परे रख 

प्रेम और सद्भाव से

सबको रिझा लें।


● शुभमस्तु !


02.06.2023◆6.00आ०मा०

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

दर्पण के सामने 💃🏻 [ अतुकान्तिका]

 65/2023

 

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✍️शब्दकार©

🪞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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होती हूँ

समक्ष दर्पण के

जब मैं खड़ी,

समझती हूँ

हसीना 

भूमंडल की

मैं ही सबसे बड़ी।


मेरा नाक नक्श

मेरा रूप रंग,

सबसे ही अलग है

उसका रंग -ढंग,

छाया ही रहे

देह- नयनों में अनंग,

निहारे जो

मेरी ओर

रह जाता है दंग!


जो भी निहारे

मेरी हिरनी -सी चाल,

देखते ही पल भर में

हो - हो जाए निहाल,

ढूँढ़े नहीं धरतीं पर

मेरी मिसाल,

एक ही बनाई मैं

साँचे में ढाल।


नहीं बना

कोई दूसरा साँचा,

उपमा नहीं ऐसी

बनाए ऐसा ढाँचा,

एक ही बस एक ही

मात्र मैं औऱ कोई नहीं,

बात सोलह आने सही।


दीपक पर ज्यों

गिरते हैं  सैकड़ों पतंगे,

निकल जाऊँ बाहर

तो हो जाएँ दंगे,

मतों के लिए जैसे

गलियों में मतमंगे।


पर मुझे क्या!

गजगामिनि - सी

चलती चली जाती हूँ,

इधर -उधर बिजलियाँ

गिराती हूँ

आगे बढ़ जाती हूँ,

अपनी ही मस्ती में

मैं 'शुभम्' मदमाती हूँ,

इठलाती बल खाती हूँ,

फागुन के महीने -सी

रंग बरसाती हूँ।


🪴शुभमस्तु !


10.02.2023◆6.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

खुली हुई आँखों के सपने 🪂 [अतुकान्तिका ]

 553/2022

 

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✍️शब्दकार©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बंद आँखों में

सब देखते हैं

सपने

आंशिक अधूरे,

किन्तु क्या

होते हैं

कभी वे पूरे?


खुली आँखों से

देखें सपने,

स्वदेश के लिए,

स्वधर्म के लिए,

स्वकर्म के लिए।


जाति - वर्ण के

घेरों में

सिमटे रह गए हैं,

ज्यों सरि- प्रवाह में

बह रहे हैं,

जड़  और निर्जीव 

मृत देह,

कोई संदेह ?


पेट तो 

भर लेते हैं

अपना श्वान भी,

हर आने जाने वाले पर

भौंकना ही है  उन्हें

बिना सोचे -समझे हुए।


काश मानव

भिन्न होता

उन श्वानों की

भौं -भौं  से,

तो देश और

 समाज का

रूप यह नहीं होता।


अपना पथ

 स्वयं बनाना है,

आकाश में

पर्वतों

और सागर में

 बढ़ते हुए जाना है,

कर्मवीर बनकर

दिखलाना है,

अपना 'शुभम्' मानवीय

परचम लहराना है,

मनुष्यता को

मनुष्यता ही 

रहने देना है,

ढोरों मेषों की तरह

लकीर का फ़क़ीर

नहीं बना रहना है।


🪴 शुभमस्तु!

30.12.2022◆ 5.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

सिकुड़ते हुए शब्दकोष! 💌 [ अतुकान्तिका]

 516/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

💌 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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स्थाई पतझड़

लग गया है,

बहार पुनः वसंत की

अब नहीं आएगी!

समाज के दरख़्त

झड़ने लगे हैं,

होते हुए

क्रमशः 'पत्रहीन'।


शब्दकोष में

पत्र के अर्थ

सिकुड़ने लगे हैं,

जब चिट्ठियाँ ही नहीं

तो पत्र क्यों रहेंगे!

अब तो बस

पेड़ों लताओं पर

पत्र हवा में

उड़ते रहेंगे!


पत्रों के विकल्प

एक नहीं

हैं बहुत सारे !

ई-मेल, फेसबुक, व्हाट्सएप,

ट्विटर, मैसेज,

पत्र सूख चुके हैं,

शादी आदि के 

कार्डों में

 सिमट चुके हैं,

कम्प्यूटर मोबइल

झपट चुके हैं।


गूगल बाबा

शब्दकोष का भी

बड़ा बाबा बना है,

कोने में पड़े 

वे धूल खा रहे हैं,

अतीत में जा रहे हैं,

डिजिटाइजेशन के कारनामे

गज़ब ढा रहे हैं!

पता नहीं 

हम कहाँ जा रहे हैं! 

सारे शब्दकोश

सिकुड़ते जा रहे हैं।


समय की चाल को

भला रोक ही

कौन पाया है,

वही तो 

अपने प्रवाह में

हमें  यहाँ तक

बहा लाया है, 

पत्र तो पत्र

हम सब 

बहे जा रहे हैं,

अनवरत रात -दिन,

क्षण प्रति क्षण,

बहता हुआ जाता

देख रहे हैं 'शुभम्'

सृष्टि का कण- कण!


🪴 शुभमस्तु!


09.12.2022◆7.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 13 नवंबर 2022

चरण - विचरण 🏃🏻‍♂️ [अतुकांतिका ]

 472/2022


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✍️ शब्दकार©

🏃🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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विचरण करते

आजीवन

ढोते तन का भार,

युगल चरण का

मानव को

सुंदर उपहार।


तत्पर सदा

कहीं भी जाने को,

समतल पर्वत

निधि -गहराई अथवा

धरती पथराई,

चरणों की महिमा

नहीं कहीं 

कवियों ने गाई,

उचित नहीं आचरण

और उनकी निठुराई।


जब तक

 चलते चरण,

करती जीवन को

प्रकृति धारण,

अन्यथा होने

लगता शनैः शनैः

 निस्सारण,

जीवन से निस्तारण,

क्या है कारण?


क्यों करें उपेक्षा

निज चरणों की,

उचित समीक्षा

देह के अंग- प्रत्यंग,

जीवन की उमंग,

हो जदपि सांग 

अथवा अनंग,

भरते हैं रंग

ये चरण युगल।


जाते जन

प्रातः भ्रमण,

कुछ चलें चरण,

करने जीवनी शक्ति का

 ओजस  वरण,

चरण महिमा का गायन,

'शुभम्' वंदनीय आचरण।


🪴 शुभमस्तु!


10.11.2022◆7.30  आरोहणम् मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 3 नवंबर 2022

हम हैं दो कान 🦻🏻 [ अतुकान्तिका ]

 464/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🦻🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हम हैं

 दो जुड़वाँ भाई कान,

हमें नहीं मिला

कभी भी उचित सम्मान,

किसी की तेरहवीं की

बची हुई दो

सूखी पूड़ियों की तरह,

चिपका दिया है

कपोलों पर

एक इधर 

दूसरा उधर।


हमने कभी भी

एक दूसरे को नहीं देखा,

कहीं नहीं बनी

हमारे मिलन की

भाग्य रेखा,

हमें बस समझ रखा है

टाँगने की खूँटी,

कभी चश्मे की डंडियाँ,

आँखों की क्या अदावत थी

जो अपना  

उल्लू सीधा करने को

हमारे ऊपर 

बोझा डाल दिया,

कभी मिस्त्री की

घिसी हुई 

पेंसिल की ठूँठी,

किसी ने गुटके की

बची हुई पुड़िया,

खोंस रखी है 

ढंग से बढ़िया।


हमारी कभी 

प्रशंसा नहीं होती,

होठों को लिपस्टिक,

आँखों को काजल,

गालों पर रूज,

मुखड़े पर क्रीम,

समझ में नहीं आई

हमारे कर्ता की थीम,

लटका दिए

हमें छेदकर 

झुमके और बालियाँ,

नाक में नथुनियाँ,

ललाट पर बिंदियाँ,

माँग में सिंदूर

चश्मे बद्ददूर!


 बजती हैं सदा

चेहरे की 

प्रशंसा में तालियाँ,

हमें तो पड़ती हैं 

सदा ही

गालियाँ,

कमजोर हुआ

 बालक तो

मास्टर जी हमें ही

मरोड़ देते हैं,

मजबूर होकर

हम सब कुछ

सहते हैं।

गूँगे जो हैं,

परन्तु बहरे तो नहीं।

बोल नहीं सकते 

तो क्या ! 

सुन तो सकते हैं!

गाली या ताली

भली या बुरी

सब हम ही

सुनते हैं।


हमने कभी कुछ

माँगा हो तो बताएँ,

और तो और

पंडित जी

को भी बड़ी दूर की सूझी,

हमारे ही ऊपर

लटका कर जनेऊ

अंटा मार दिया

किसी- किसी ने तो

चाबियों का गुच्छा भी

बाँध लिया!

तीन धागों का बोझ

औऱ ऊपर लाद दिया,

वैसे क्या हम

किसी लद्दू घोड़े से 

कम थे ?

जिनमें लोंगें कुंडलों से ही

हम दोनों ही

बेदम थे।


काटते - काटते बाल

वह हरजाई

हमें ही काट देता है,

च्च !च्च!!करते हुए

नाई भी 

हमें लात देता है,

डिटॉल चिपका के

पुचकार देता है,

पर हम जुड़वाँ 

कान भ्राताओं का जोड़ा

सब सहन कर लेता है।

क्या करें किसी गाड़ी

की अतिरिक्त एक्सेसरीज

की तरह कपोलों पर

चिपके रहना है,

दर्द और बोझ

सभी कुछ सहना है,

हम कान हैं 'शुभम्',

सब कान खोलकर 

हमारी भी सुन लें।


🪴 शुभमस्तु !


03.11.2022◆3.15 

पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2022

जिंदादिल रहें सदा ! 🏊🏻‍♀️ [अतुकान्तिका ]

 449/2022


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✍️ शब्दकार ©

🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पर्वत की 

ऊँचाइयों पर चढ़ना

औऱ चढ़ते जाना,

सागर की 

गहराइयों में उतरना

औऱ उतरते जाना,

दोनों में लक्ष्य है,

मानव हेतु परीक्ष्य है।


सहज नहीं हैं

गिरि - आरोहण,

निधि - अवगाहन,

चाहिए अदम्य साहस,

दुस्साहस,

जीवट की कशमकश,

सबका नहीं है बस,

अंत में मिलता है,

अतुल्य रस।


चलेंगे जब आप

 गिरि-आरोहण पर

किंवा निधि- अवगाहन पर,

रोकेंगे लोग 

तुम्हारे आगे बढ़ने पर,

जिन्हें कुछ भी 

ज्ञान है न अनुभव,

दे डालेंगे 

अयाचित नसीहत,

कितनी है मूढ़ ये,

इंसान की रुकावट?

तुम्हें बहलायेगी

हवा की हर आहट,

किन्तु नहीं होना है

तुम्हें कदापि कभी

आहत,

बनाए रखनी है

अपनी अटल चाहत।


तुम्हारी सफलता पर

जमाना विजय ध्वज

फहराएगा,

'हमने कहा था न

कि यह एक दिन

नाम कमाएगा,'

 -यही कहेगा

बैंड भी बजायेगा,

किन्तु यदि नहीं मिली

एक प्रतिशत सफलता,

तब भी यही दुहरायेगा

- 'हमने कहा था न,

कि घर का बुद्धू 

लौट कर घर आएगा,'

चित्त या पट्ट में

अंटा तो 

उनके बाप का ही

गहगाहएगा।


मत जाओ इसलिए

जमाने पर,

जमाने की अनुशंसा

कुशंसा पर,

बढ़ते रहना है,

निरन्तर बिना रुके

 'शुभम्'  पथ ही

ग्रहण करना है,

लक्ष्य अवश्य 

विजय का सेहरा

मस्तक पर बाँधेगा,

जमाने की क्या?

वह तो कुछ न कुछ

बड़बड़ायेगा,

गड़बड़ायेगा।

प्रवाह में मुर्दे 

बहा करते हैं,

जिंदा दिल तो

सदा आगे 

बढ़ा करते हैं।


🪴 शुभमस्तु !


27.10.2022◆8.30 

पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2022

सबके शुभ का संधान करें🌷 [सजल]

४०५/२०२२ 

 

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समांत:आन।

पदांत:करें।

मात्राभार :16.

मात्रा पतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सबके          शुभ         का    संधान    करें।

अपने        गुरुजन         का    मान   करें।।


सबके      सुख     की    नित चाह      बढ़ी।

सुख     का   जन - जन    को  दान    करें।।


यह         सकल    विश्व    परिवार     एक।

बस     मानवता         का     गान      करें।।


जग       नरक  -   स्वर्ग     है  हमसे    ही।

क्षण    -  क्षण     को    नया  विहान  करें।।


मत     सोचें     बुरा     किसी   का     हो।

हो      भला     सभी     का    ध्यान   करें।।


देने           वाला          ही    पाता       है।

है        पात्र      कौन     पहचान       करें।।


तन    -  मन    से   'शुभम्'   सदा   करना ।

आजीवन            शुभता   -  पान      करें।।


🪴शुभमस्तु !


10●10●2022◆6.15  आरोहणम् मार्तण्डस्य।

दो - दो चाँद 🌝 [अतुकान्तिका ]

 411/2022

    

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✍️ शब्दकार ©

🌝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दो  -  दो  चाँद 

सामने मेरे,

एक धरा पर

एक गगन में,

बहुत मगन मैं।


अर्द्धांगिनि मैं

निज प्रीतम की,

निशिदिन  की

हर क्षण - क्षण की,

करूँ प्रार्थना

तुझसे अनुनय ,

चाँद गगन के

यही कामना मेरी 

मेरा प्रीतम चाँद ,

छाया बन मैं 

रहूँ साथ उसके

आजीवन।


प्रिय के नेह - दीप में

जलती ,

बाती बन कर 

जीवन संगिनि मैं

दे रही उजाला,

कभी न आए

अमावस्या ,

सफल बने मेरी

त्याग तपस्या।


करवा की ऐ!

चौथ माता,

मन मेरा

तेरे गुण गाता

तुझको ध्याता,

एक वर्ष में

एक दिवस ही

ऐसा आता,

मुझे सुहाता।


हे अम्बर के चाँद!

स्वस्थ सदा ही रहे

मेरा सुहाग,

मिले उसको 

दीर्घायु का वरदान,

करूँ मैं तुझको

अपने सुख का दान,

'शुभम्' तू  

कितना महान।


🪴 शुभमस्तु!


13.10.2022◆करवा चौथ◆ 11.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

झंडारोहण -परीक्षा!' 🙉 [अतुकान्तिका]

 390/2022




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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'झंडारोहण- परीक्षा' 

हुई देशवासियों की,

परिणाम भी

देख लिया सबने,

पचास प्रतिशत से

भी अधिक 

असफल ही रहे,

इनकी देशभक्ति की

'अति' की कौन कहे!


जानते नहीं

ये देश आजाद है !

कोई भी काम

करने की 

क्या कोई मरजाद है?

कानों में तेल

आँखों पर हरी पट्टी,

यही तो गई है

पिलाई इन्हें जन्मघुट्टी!


टाँग दिया!

बस टाँग ही दिया,

तिरंगा घर की छत

ट्रैक्टर, जल टंकी पर,

दृष्टि क्यों जाएगी अब

ध्वज नोंचते हुए

मंकी पर,

झुके,फटे,मैले

तिरंगे ,

वर्षा- जल में नहा रहे

हर - हर गंगे,

बस यहीं पर

हम भारतीय हो लिए

ऊपर से नीचे तक

 पूर्णतःनिर्वस्त्र नंगे!


क्या यही राष्ट्रभक्ति है?

तिरंगे के प्रति

अनुरक्ति है!

परीक्षा भी हो चुकी,

परिणाम है सामने,

खोल देख लें नयन,

क्या किया है आपने!

डेढ़ महीने के बाद

छत, टेम्पो, ट्रेक्टर पर

तिरंगा लहरा रहा है,

हिंदुस्तान का ये

'तथाकथित देशभक्त',

अंधा और बहरा रहा है!

अरे !देख भी ले 

तेरी भी छत पर

सरकार का 'आदेश'

अभी भी गहरा रहा है।


राष्ट्रध्वज का अपमान!

देश का अपमान!

सो रहा भारतीय

लंबी-सी चादर तान,

जानता ही नहीं

राष्ट्रध्वज की 

आचार संहिता,

लगा जो बैठा है

 'स्व-सद्बुद्धि' को पलीता!

यही तो तेरे भविष्य का

दर्पण !

क्या यही  है  तेरा

देश को समर्पण ?

स्वाधीनता का है

अंध -चर्वण !

क्या कर ही दिया

श्राद्ध पक्ष में

स्व- विवेक का तर्पण ?

यह तो  है एक निदर्शन,

अंधेरगर्दी का दर्पण ।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०९.२०२२◆६.३०आरोहणम् मार्तण्डस्य।

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'झंडारोहण- परीक्षा' 

हुई देशवासियों की,

परिणाम भी

देख लिया सबने,

पचास प्रतिशत से

भी अधिक 

असफल ही रहे,

इनकी देशभक्ति की

'अति' की कौन कहे!


जानते नहीं

ये देश आजाद है !

कोई भी काम

करने की 

क्या कोई मरजाद है?

कानों में तेल

आँखों पर हरी पट्टी,

यही तो गई है

पिलाई इन्हें जन्मघुट्टी!


टाँग दिया!

बस टाँग ही दिया,

तिरंगा घर की छत

ट्रैक्टर, जल टंकी पर,

दृष्टि क्यों जाएगी अब

ध्वज नोंचते हुए

मंकी पर,

झुके,फटे,मैले

तिरंगे ,

वर्षा- जल में नहा रहे

हर - हर गंगे,

बस यहीं पर

हम भारतीय हो लिए

ऊपर से नीचे तक

 पूर्णतःनिर्वस्त्र नंगे!


क्या यही राष्ट्रभक्ति है?

तिरंगे के प्रति

अनुरक्ति है!

परीक्षा भी हो चुकी,

परिणाम है सामने,

खोल देख लें नयन,

क्या किया है आपने!

डेढ़ महीने के बाद

छत, टेम्पो, ट्रेक्टर पर

तिरंगा लहरा रहा है,

हिंदुस्तान का ये

'तथाकथित देशभक्त',

अंधा और बहरा रहा है!

अरे !देख भी ले 

तेरी भी छत पर

सरकार का 'आदेश'

अभी भी गहरा रहा है।


राष्ट्रध्वज का अपमान!

देश का अपमान!

सो रहा भारतीय

लंबी-सी चादर तान,

जानता ही नहीं

राष्ट्रध्वज की 

आचार संहिता,

लगा जो बैठा है

 'स्व-सद्बुद्धि' को पलीता!

यही तो तेरे भविष्य का

दर्पण !

क्या यही  है  तेरा

देश को समर्पण ?

स्वाधीनता का है

अंध -चर्वण !

क्या कर ही दिया

श्राद्ध पक्ष में

स्व- विवेक का तर्पण ?

यह तो  है एक निदर्शन,

अंधेरगर्दी का दर्पण ।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०९.२०२२◆६.३०आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शनिवार, 24 सितंबर 2022

रोटी🟤 [अतुकांतिका]

 380/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गोल - गोल रोटी के

चारों ओर

चक्कर लगाता संसार,

सबसे अधिक उसे

रोटी से प्यार,

शेष सब 

रोटी के बाद,

 रोटी की ही

 सर्वाधिक तकरार।


आदमी, आदमी के

खून का प्यासा !

क्या मात्र रोटी के लिए?

महल अट्टालिकाएं

कंचन नोटों के खजाने

क्या मात्र रोटी के लिए?


भरे हुए पेट वाले

कब बैठे हैं 

शांति से?

रोटी के बहाने

भटके हैं

भ्रांति से।


सब जीते हैं

अपने - अपने ढंग से,

पेट का गड्ढा

रट लगाता है

और - औऱ के लिए,

कोई -कोई जीता है

अपनी सात -सात 

पीढ़ी की रोटी के लिए,

क्या पता 

उसकी भावी पीढ़ी

अकर्मण्य तो नहीं,

इसलिए वे

जमाते हैं उनके लिए

गाढ़ा - गाढ़ा दही।


पेट तो

कुत्ते भी भर लेते हैं,

परंतु कुछ निकम्मे

कुत्तों को भी

पीछे छोड़ देते हैं,

उन्हें अपने 

पेट को भी

भरा नहीं जाता,

महाकुत्तेपन में

कोई कुत्ता उन्हें

हरा नहीं पाता!


परजीवी बनना

उनकी पहचान है,

निकम्मापन

उनका निशान है,

छीन कर

 रोटी निगलने पर

उनका पूरा ध्यान है।


गोल- गोल रोटी

क्या कुछ नहीं कराती,

आदमी को आदमी से

हैवान बनाती,

मानव देह में

बैठा जो हुआ है

नरभक्षी भेड़िया,

एक नहीं

हजारों मिलते हैं,

जो अपनी रोटी के लिए

दूसरों को दलते,

 निगलते हैं।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०९.२०२२◆७.४५ प.मा.

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