शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

आज भी है मुझे प्रायश्चित! [ संस्मरण ]


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 ✍️लेखक ©

 🔰 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

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               जीवन में कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित इस तरह से घटित हो जाता है कि मनुष्य पहले से सोचता भी नहीं है कि ऐसा भी हो सकता है, जिसका जीवन भर प्रायश्चित बना रहता है।प्रायश्चित के अतिरिक्त अन्य कोई समाधान नहीं है और इस प्रायश्चित के द्वारा वह अघटनीय का ध्यान सदैव कचोटता रहता है।सम्भवतः यही उसका एक दंडविधान भी है। यह बात यद्यपि बहुत छोटी-सी है ,किन्तु मेरे मानस पटल पर कुछ ऐसा बिम्ब बनाए हुए रहती है कि उससे मुक्त नहीं हो पाता । 

        36 वर्ष पूर्व सन 1984 में मैं राजकीय महाविद्यालय, जलेसर एटा में हिंदी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत था। बरसात के दिन थे ,किन्तु बरसात नहीं हो रही थी। अगस्त के महीने के किसी दिन मैं प्रातः लगभग साढ़े नौ बजे महाविद्यालय जाने के लिए ऊपरी मंजिल पर बने घर की सीढ़ियों से उतरकर सड़क पर बाहर आया और पैदल ही चलने लगा।महाविद्यालय घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था ,इसलिए समय से पहुँचने के लिए आधा घण्टा पूर्व निकलना होता था। अभी मुशिकल से पचास कदम ही आगे बढ़ा था कि सामने से चले आ रहे एक रिक्शेवाले ने अपना रिक्शा मेरी दोनों टाँगों के बीच में घुसा दिया। मैं सफेद रंग की पेंट और सफ़ेद कमीज़ पहने हुए था। जैसे ही रिक्शे का अगला आधा कीचड़ से सना पहिया टाँगों से पार हुआ, मेरा पेंट उससे सन गया ।फिर क्या मेरा क्रोध सातवें आसमान की बुलंदियों का स्पर्श करने लगा। 'क्या तुझे दिखाई नहीं देता तुझे?' मैंने रिक्शेवाले को जिस तेजी से कहा ,उसी तेजी के साथ आव देखा न ताव ,दो थप्पड़ उसी कनपटी पर रसीद दिए ।

          वह कुछ बोला भी नहीं और तुरंत ही मैं उल्टे पाँव घर की ओर कपड़े बदलने के लिए लौट पड़ा। शीघ्र ही कपड़े बदले और पुनः कालेज की ओर चल पड़ा।लेकिन रास्ते भर यही सोचता रहा कि क्या मुझे इस तरह रिक्शेवाले को मारना चाहिए था ? भूल इंसान से ही होती है। उसने कोई जानबूझकर कपड़े खराब नहीं किए थे। इसलिए मुझे उसे मारना नहीं चाहिए था। मुझे लगा कि मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है। पर अब किया भी क्या जा सकता था ! तीर कमान से निकल चुका था। मुँह से निकली ज़ुबान औऱ कमान से निकला बाण पुनः लौटकर नहीं आते।यही बात रहकर रह कर मेरे मानस पटल पर छा गई थी। 

           आज भी जब उस दिन का स्मरण होता है तो मुझे वही प्रायश्चित बार -बार होने लगता है कि मुझे उस रिक्शेवाले को थप्पड़ नहीं मारने चाहिए थे।वह एक मानवीय भूल थी। उस छोटी- सी घटना की स्मृति अभी भी मुझे कचोटती है और मैं अपने को क्षमा नहीं कर पाता हूँ। पता नहीं वह अनाम रिक्शेवाला आज कहाँ होगा?होगा भी या नहीं होगा! पर मैं उसकी स्मृति से मुक्त नहीं हो पाता हूँ। 

 💐 शुभमस्तु ! 

 31.10.2020◆3.15 अपराह्न।

नेहिल चाँद-चकोर [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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लगा  टकटकी  ताकता, पंछी चारु    चकोर।

नभ मेंस्वर्णिम थाल सा, चमका चाँदअँजोर।


दुग्ध सनी उज्ज्वल प्रभा,फैली चारों ओर।

अंबर   में  राकेश है,भू पर विहग  चकोर।।


मन में सच्चा  प्रेम है,दूरी का क्या  मोल।

लेना कभी न जानता, देता  है  अनतोल।।


विरह कसौटी प्रेम की,खग चकोर से जान।

सदा  प्रतीक्षारत  रहे, यही प्रेम की  शान।।


जब चकोर विष को लखे,होते नयन गुलाल।

प्राण त्यागता शीघ्र ही,आ जाता खग काल।।


चंदा चारु चकोर का,नेह जगत विख्यात।

कवि की कविताकलित है,मूक नेह की बात


पूर्ण  आश्विनी चंद्रमा,मुस्काता नभ    बीच।

खग चकोर की टकटकी,रही नेहरस सीच।।


सीख दे रहा प्रेम की,सच्चा विहग चकोर।

'ईलू ईलू'  झूठ  है, मौन   नेह की     डोर।।


उतर नयन से जा रहा,मन के निलय सनेह।

वाणी  होती  मौन ये,बनता उर    में   गेह।।


शिक्षक मानव प्रेम का,चंदा चतुर   चकोर।

एक न मुख से बोलता,फिरभी भावविभोर


'करता   तुमसे  प्रेम में ',  झूठा तेरा     प्रेम।

कहता मुख से बोलकर,नहीं कुशल या क्षेम।


💐 शुभमस्तु !


31.10.2020◆5.30अपराह्न।


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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2020

महारास - लीला [ अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार©

🌜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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महारास के

शुभारम्भ की निशा

शरद -पूर्णिमा,

माया के परदे से रहित

जीव ब्रह्म का महामिलन,

ब्रज-निकुंज में

राधा -श्याम रचाते 

महारास की लीला

समा सजीला।


जन्मे 

देव -सेनापति

पार्वती -शिव के सुत

मयूर-वाहन षडानन,

शरद -पूर्णिमा की

शुभ निशा समुज्ज्वल,

छाया आनन्द अपार

कैलाश -धाम में।


विष्णु-प्रिया 

देवी धन की

लक्ष्मी मैया का

अवतरण दिवस

पावन है

शरद -पूर्णिमा।


प्राची के 

अम्बर से उगता

स्वर्ण-थाल -सा 

गोल चमकता 

सुखद सुधाकर,

सँग में आती

चतुर चंद्रिका।


बरस रहा है

सोम इंदु से

क्षीर -थाल में,

करता जो नीरोग

अमृतमय 

मानव तन मन।


छिटक रहे

अनगिनत बड़े -छोटे

तारागण,

झिलमिल करते

ज्यों अम्बर में,

पुष्प दुग्ध के

आँख मिचोंनी सी

करते,

झरते - से।


आओ बाहर

खुले गगन तल

चाँदनी भर लें,

अपने आँचल में,

उर के कोने -कोने में,

फैलाकर

युगल करों की

अंजुली के 

शुभ दौने में।


💐 शुभमस्तु !


29.10.2020 ◆5.00अपराह्न।

शरद पूर्णिमा आई [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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शरद -  पूर्णिमा   देखो  आई।

अम्बर -थाल खील भर लाई।।


सूरज   धाया   अस्ताचल  में।

उतर गया है किसी अतल में।

प्राची   में    छा   गई  जुन्हाई।

शरद -  पूर्णिमा  देखो  आई।।


कनक थाल-सा उगा सुधाकर

धीरे -  धीरे  उठा  गगन  पर।।

अँधिआरे   में   रौनक   छाई।

शरद - पूर्णिमा  देखो  आई।।


राकापति   राकेश    एक  हैं।

अरबों   तारे  साथ   नेक हैं।।

सोम बरसता  शशि प्रभुताई।

शरद -  पूर्णिमा देखो  आई।।


खीर सजाकर खुले गगन में।

हितकर होता मानव तन में।।

सेवन सदा  सुबह  सुखदाई।

शरद - पूर्णिमा  देखो आई।।


जन्मी  आज    लक्ष्मी माता।

पूजा कर जो इनको ध्याता।।

धन-देवी   हों  सदा   सहाई।

शरद -  पूर्णिमा  देखो आई।।


राधे  और  श्याम की लीला।

करते रास सुखांत सजीला।।

श्रीगणेश    होता   सुखदाई।

शरद -  पूर्णिमा  देखो आई।।


पार्वती -  शिव   ने जन्माया।

वही षडानन सुत कहलाया।।

यह कुमार - पूर्णिमा  कहाई।

शरद - पूर्णिमा   देखो आई।।


💐

 शुभमस्तु !


29.10.2020 ◆ 2.00अपराह्न।

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

सुगंध [ मुक्तक ]

 

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✍️

 शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रूप  नहीं  आकार   न  तेरा,

सदा  लुभाती   मुझे   घनेरा,

तू   ईश्वर   की   सत्ता  जैसी,

तन-मन करे  सुगंध सवेरा।1।


गेंदा  सुमन    गुलाब, चमेली,

बसी  हुई   है   तू   अलबेली,

देव - भोग   करते    हैं   तेरा,

सद-सुगंध है नित्य नवेली।2।


बिखर  रहा  यश सारे जग में,

नगर, गाँव के हर जन मग में,

हरसिंगार   कली   बेला  की,

भरे सुगंध देह रग - रग में।3।


भँवरा   पीत     पराग   बटोरे,

मधुरस   -  लोभी  बड़े चटोरे,

काला   भँवरा भूँ - भूँ  करता,

मिले सुगंध मुफ़्त गुल गोरे।4।


माटी  में  गुण  एक  समाया,

नर -नारी  को  सदा लुभाया,

वही  गुलाब,  चारु   चंपा में,

शुभ सुगंध वह ही कहलाया।5।


💐 शुभमस्तु !

27.10.2020 ◆12.15अपराह्न।

साबुन [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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घिस - घिस छोटा मैं होता हूँ।

मैल   तुम्हारा   मैं    धोता हूँ।।


तरह - तरह  के  रँग  हैं   मेरे।

महक  ताजगी  भरी बिखेरे।।

कभी न   मैला  मैं   होता  हूँ।

मैल    तुम्हारा   धोता     हूँ।।


सब ही मुझको  साबुन कहते।

सस्ते  - मँहगे भी हम  रहते।।

कभी  नहीं  मैं  तो  सोता हूँ।

मैल  तुम्हारा   मैं  धोता   हूँ।।


मैं विषाणु  को मार  भगाता।

पल में हर  जीवाणु हटाता।।

उनको   झागों  में  खोता हूँ।

मैल  तुम्हारा   मैं  धोता  हूँ।।


नित   सेवा  में  तत्पर  रहता।

खोता निजअस्तित्व न कहता।।

कभी न फ़िर भी मैं रोता  हूँ।

मैल   तुम्हारा   मैं   धोता  हूँ।।


वसा अम्ल में कास्टिक सोडा।

पानी   भी   लगता है थोड़ा।।

तब ही  मैं   निर्मित  होता हूँ।

मैल  तुम्हारा   मैं   धोता  हूँ।।


मृदु  कठोर  दो   रूप हमारे।

सोडा  या   पोटाश   सहारे।।

कैमीकल क्रिया  सँजोता हूँ।

मैल     तुम्हारा   धोता   हूँ।।


💐 शुभमस्तु !


27.10.2020◆10.00पूर्वाह्न।


कैसा रावण-दहन ये! [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🚩 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बात हँसी की आज की,सुनें सुजन धर कान।

जला रहा पुतला स्वयं,रावण आज महान।।


घर-घर रावण देख लें,गली- गली  उन्नीस।

वही आज के राम हैं, दुनियादार खबीस।।


कामवासना लीन जो,वही आज के राम।

तीर पटाखों के चला, छपते फ़ोटो  नाम।।


कन्या,बाला,नारि का,नहीं जहाँ सम्मान।

नर समाज रावण वही,कैसे हो पहचान।।


ढोंग रचा नाटक करें,रावण ही नित आज।

विस्फोटक पुतले जला,करते निज पर नाज


नगर गाँव औ'खेत में,गली सड़क व्यभिचार।

वे  रावण  पुतले   जला,बढ़ा रहे भूभार ।।


राम जगा अपना प्रथम,तब रावण पहचान।

पानी  पीता  छान के, लहू पिए अनछान।।


लगा  मुखौटा राम  का,देखें रावण  रोज।

उत्कोचों  से दे रहे,निर्धन जन को  भोज।।


माथे पर  चंदन लगा,बना हुआ   है   राम।

परनारी को हेरता,  जैसे रति को    काम।।



💐 शुभमस्तु !


25.10.2020◆2.00अप.



रविवार, 25 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पुतला आज  जलाए  पुतला

रावण  का  ही  भाये पुतला।


जो  इंसाँ  हिंसा  का  वाहक,

वह बनकर दिखलाए  पुतला।


दस अवगुण  से भारी मानव,

अवगुण मार  भगाए  पुतला।


बोध नहीं    बच्चों  जैसा  भी,

ग़र अभिमान जलाए  पुतला।


नहीं    पूजता   नारी   काया,

काम -पुजारी  भाए  पुतला।


मना  रहा  है  दम्भ  दशहरा ,

खुद को कुछ समझाए पुतला।


'शुभम'  राम  की  मर्यादा को,

निज  जीवन मे लाए  पुतला।


💐 शुभमस्तु !


25.10.2020◆12.15अप.

ग़ज़ल

  

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✍️ शब्दकार ©

💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जब  से  घर में  आई   साली।

पत्नी  लगने  लगी   पराली।।


साली  इधर  छोड़ती  ख़ुशबू,

उधर  धुआँ दे  पत्नी  काली।


साली  की  मुस्कान  मनोहर ,

पत्नी  रहती    तनी  सवाली।


पूनम  की  है   इधर   चाँदनी,

लगती  सूरजमुखी  मवाली।।


जिस  कोने   में  साली  होती,

लगता  घर में   हुई   दिवाली।


साली  के रँग   लाल ,गुलाबी,

उधर  नहीं दाड़िम की लाली।


रबड़ी ,  मोहनभोग   इधर  हैं,

खाली उधर   इमरती  प्याली।


साली  तो    आनी - जानी है ,

नहीं  समझना   पत्नी  गाली।


'शुभम' हुए मदहोश इधर जो,

सूख गई अमृत  की   प्याली।


💐 शुभमस्तु !


25.10.2020◆10.00पूर्वाह्न।


शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

ऐ ज़िंदगी!कमाल है तेरा भी !! [ व्यंग्य ]



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 ✍️लेखक © 


 🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'


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                 ऐ जिंदगी ! तुम भी कमाल करती हो ! मज़ाक करती हो,आदमी के साथ? यदि आदमी अपने भविष्य की ओर देखे तो भले ही वह पैंतीस साल का युवा होने पर भी बच्चा ही रहेगा ! और यदि पीछे की ओर मुड़कर देखने लगे तो बूढ़ा हो गया ? वाह ! री जिंदगी वाह ! तेरा भी कमाल है!  


            तू युवाओं से कहती है कि अपना आज देख ।अपना वर्तमान देख। अंधा हो जा । जीवन के ऐसे राग - रंग और खिलंदड़ी का अवसर फिर नहीं आ जायेगा,इसलिए किसी भी क्षण को चूके मत। हर क्षण का भरपूर उपभोग कर ले। फिर पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत! इसलिए अपने यौवन में अंधा हो जा। आगा -पीछा मत निहार। आगे देखेगा तो बच्चा! और पीछे झाँकेगा तो बुड्ढा घोषित कर दिया जाएगा। इसलिए अंधा होकर विलासिता की नदी में गोते लगा। डूब जा ,तैर ले और आ सके तो किनारे पर लौट कर आ जा। यही तो यौवन की रंगीनी है, जो केवल आज को ही देखती है। कल क्या होगा ,नहीं सोचती। 


                उधर किसी बच्चे को तो अपना वर्तमान देखने का अधिकार ही तू नहीं देती।फिर वह बच्चा कहाँ रहा ?वयस्क हो गया । तू अभी बच्चा है ,इसलिए अपने भावी जीवन की सोच। उसी को सींच। तेरे पीछे तो कुछ है ही नहीं ,इसलिए मुड़कर देखने के लिए तेरे पास कुछ शेष नहीं है। तू अभी बच्चा है!बूढ़ा नहीं। ये काम तो बूढ़े करते हैं।तू अपने बचपन के खेल खेल ।अभी से क्यों बनाता है  इस बचपन को जेल ।ये तेरे झेलने के दिन नहीं , खेलने के दिन हैं । फिर  तो सारी जिन्दगी  चकिया चलानी है ।


                  यदि किसी साठ साला ने अपने भविष्य या वर्तमान की ओर भूलवश नज़र भी डाल दी , तब तो गज़ब होने में कोई कमी नहीं रहेगी। समाज, देश औऱ दुनिया की नज़र में बदनाम ही हो जाएगा! 'अच्छा!तो बुड्ढे के सींग निकल आए हैं। फिर से जवान हो रहा है।' इस तरह के दुर्वचन प्रायः सुनने को मिल जाएंगे।बूढ़े अपने बूढ़ेपन की सीमा में रहें ,तो गनीमत अन्यथा समाज के लांछन - बाणों से घायल होने में देर नहीं लगने वाली ! यदि उसने आगे बढ़कर झाँक भी लिया तो जैसे घर और बाहर आग ही लग जायेगी।इसलिए सींग कटवाकर बछड़ा बनना बड़ा ही खतरनाक खेल है।


          बूढ़ों का तो जैसे कोई मन ही नहीं है।जो बूढ़ा डाल-डाल औऱ पात -पात पर धमा-चौकड़ी मचा चुका है ,उसे जमाना मूर्ख समझता है।वह केवल अपने अतीत की रंगीनियों में चाहे पाप करे या पुण्य ,सब क्षम्य है। क्योंकि वे किसी को दिखाई नहीं देते। कल का युवा ही आज का बूढ़ा है। उसकी ओर इतनी हेय दृष्टि ! अरे जिंदगी !! यह तो कोई अच्छी बात नहीं है। जब दाँत थे , तब चने नहीं थे और जब दाँत नहीं रहे, बे -दाँत हो गए तो चनों के दर्शन नहीं। यह वेदांत दर्शन ही बुढ़ापा है।यौवन में दाँत तो थे , पर चने ही नहीं थे,क्या चबायें? दूध के दाँत तो कुछ भी चबाने के लिए व्यर्थ ही रहे। 


              जीवन कैसे - कैसे विरोधाभासों का नाम है! बचपन ,यौवन और बुढ़ापा ।पता नहीं ऐ ज़िंदगी! तूने हमें किस पैमाने से नापा! कभी तो याद रहे मम्मी! मम्मी!!पापा !पापा!! और कहीं भूल बैठा अपना आपा। मचाने लगा आपा -धापा। और अंत में न पापा ! न  आपा ,न अपनापा , जब गात बुरी तरह काँपा, बचा रह गया सिर्फ़ एक स्यापा! जिसका नाम रख दिया गया बुढ़ापा। 


 💐 शुभमस्तु ! 


 23.10.2020 ◆7.35 अपराह्न।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2020

यौवन के दिन चार [ कुण्डलिया ]

 

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✍️ शब्दकार©

💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

बचपन के दो नयन में,ले भविष्य आकार।

वर्तमान    देखें  युवा,  जरा अतीताभार।।

जरा   अतीताभार,  देखता बीते  कल को।

चखता बारंबार, मधुर-खट्टे रस  फल  को।।

'शुभम' सुहाना काल,लगे जब आता पचपन।

जिज्ञासा  में लीन,देखता कल को   बचपन।।


                         -2-

बूढ़े  की    पहचान  है , देखे काल    अतीत।

फूल सभी जब फल बनें, बाकी रहे न तीत।।

बाकी  रहे  न   तीत,  घटीं घटनाएँ    सारी।

राग- रंग के  खेल, शेष  अब तम,  बीमारी।।

'शुभम' न खिलते फूल,कहाँ अब खुशबू ढूँढ़े।

पीछे   रहते  झाँक,  वही कहलाते    बूढ़े।।


                        -3-

यौवन  की आँधी चपल, देखे  केवल आज।

कल का क्या विश्वास है,सजा शीश पर ताज

सजा शीश पर ताज,राग- रंग जी भर भोगो।

कर लो ऐश- विलास,मस्त तन-मन से लोगो।

'शुभं'आज ही आज,देह में सुख की दौ बन।

भर लो पूर्ण उजास,सजाओ अपना यौवन।।


                        -4-

अंधा यौवन आज में,कल की क्या परवाह?

आगे - पीछे देख  ले,उसको वाहो  -  वाह।।

उसको  वाहो -वाह, अनूठा उसका   जीवन।

मिलता उसे विवेक,महकता यौवन का धन।।

'शुभम'न क्षण को देख,सबल हों दोनों कंधा।

धी में जगा प्रकाश, अन्यथा यौवन    अंधा।।


                        -5-

खोई   हुई   अतीत में,  बूढ़े मन   की  देह।

पलट रही निज रील ही, परिजन अपना गेह

परिजन  अपना गेह, देखती बीता  सपना।

यौवन के दिन चार,नहीं कोई अब अपना।।

'शुभम'  सुहानी  साँझ,हो रही नीरस  छोई।

जरा चित्त की देह, विगत सपनों में खोई।।


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* दौ बन= दावाग्नि बनकर।

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💐 शुभमस्तु !


20.10.2020◆10.00पूर्वाह्न।


आदमी का मापन [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बचपन की

आँखों में

भविष्य की चमक,

यौवन में

आज के

वर्तमान की हनक,

वृद्ध देखता है

मुड़ -मुड़कर

पीछे की छुन -छुनक।


यौवन को

कहते हैं अंधा,

उसे तो चाहिए

बस आज का ही

मजबूत कंधा,

न इधर 

न उधर ,

कैसे देखेगा ?

गिरा तो गिरा 

कैसे सँभलेगा?

उठा तो उठा

फिर क्या कहना!


बूढ़े की पहचान:

अतीत में समाई

रहती है जान,

यदि देख ले वर्तमान

या भविष्य की ओर,

जीवन अमृत हो जाये!


अपनी ही बनाई

रील को

उलट -पलटकर

देखता है,

बीते दिनों की

रंगीनियों में

सुख ढूँढ़ता है,

भविष्य में

निराशा औऱ तम,

बस भ्रम ही भ्रम,

जरा -जरा सा 

कर दे,

यही तो जरा है,

कमी है इतनी,

कि वह 

अभी नहीं मरा है,

किन्तु उसका

राग -रंग 

खट्टा -मीठा अनुभव

ताजा और हरा है,

इसी से तो 

वह वृद्ध 

जिंदा रहा है !


कुछ भी 

नहीं है स्थाई,

न बचपन,

न यौवन,

न बुढापा,

वक्त ने

अपने ही पैमाने से

आदमी को नापा!

फिर क्या खुशफ़हमी

क्या स्यापा?


💐

 शुभमस्तु !


23.10.2020◆ 6.15अपराह्न।

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार ©

🤷🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चेहरों  पर   विश्वास  नहीं  है।

 इंसाँ से कुछ आस  नहीं  है।।


रोज़   दिखावे   के  नाटक हैं,

संदेशा  कुछ  खास   नहीं है।


बहू बनी पति -गृह की अम्मा,

कोई  ननदी,   सास  नहीं  है।


झूठे    रंग   फूल    में    देखे ,

जो मनभाए   वास   नहीं  है।


मन पर तम का साया काला,

भावी का  आभास  नहीं  है।


जुबाँ   बोलती    माता ,बहना,

मन में  तनिक उजास नहीं है।


'शुभम'कंस रावण अनगिनती

आता   कोई    रास   नहीं  है।


💐 शुभमस्तु !


18.10.2020◆3.00अपराह्न।


🪂🪁🪂🪁🪂🪁🪂

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार©

🛤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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माँ   की    पूजा   करता   है।

करनी  से   क्या  डरता   है??


छीने   अस्मत    नारी     की,

सूकर    बना    विचरता   है।


जुबाँ   शहद - सी    है   तेरी,

दिल में   ज़हर   उभरता  है।


माँ   का    टीका   माथे  पर,

जिस्म   श्वान - सा धरता  है।


अखबारों      में    रेप    भरा,

इंसाँ     नहीं       सुधरता   है।


तन  को   रँगने   से   क्या हो,

मन  में    रंग   न    भरता  है।


'शुभम'  दिखाता   है  नाटक,

जो  मिल  जाए     चरता  है।


💐 शुभमस्तु !


18.10.2020 ◆2.45 अपराह्न।


अतीत के झरोखे से [ संस्मरण ]

 

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 ✍️लेखक © 

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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 यह सच है कि अतीत कभी लौटकर नहीं आता,लेकिन अतीत के बिना वर्तमान भी तो नहीं है। अतीत की पीठ पर कदम रखता हुआ वर्तमान अपने स्थाई पदचिह्न बनाता हुआ आगे बढ़ जाता है।उन पदचिह्नों को कोई याद रखे ,नहीं रखे ;यह व्यक्ति -व्यक्ति पर निर्भर करता है।आज जब मैं अपने अतीत के झरोखों में झाँककर देखता हूँ ,तो खट्टे -मीठे अनुभवों का स्वाद तरोताज़ा हो जाता है। 

 बात उस समय की है ,जब मैं आगरा के धूलियागंज स्थित अग्रवाल इंटरमीडिएट कालेज में इंटरमीडिएट (जीवविज्ञान) का प्रथम वर्ष छात्र था। विज्ञान ,जीवविज्ञान के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेज़ी के विषय भी चयनित करने होते थे। यह बात 1970 की है। हमें अंग्रेज़ी पढ़ाते थे : गुरुवर श्री बी.एल.सिंघल साहब। गुरु जी ने सभी छात्रों को घर पर करके लाने के लिए कुछ गृहकार्य दिया। जिसमें हमें चार लाइन की नोटबुक में अंग्रेज़ी के पढ़ाए हुए सभी पाठों के शब्द , उच्चारण और अर्थ लिखकर लाने को कहा गया था।जिन्हें कुछ ही दिन बाद जाँच कराने को भी कहा गया था। 

 उस समय हम सभी छात्र गण 'G' के निब वाले होल्डर से अंग्रेज़ी लिखा करते थे। हिंदी लेखन के लिए अलग प्रकार का निब होल्डर में लगाया जाता था।इन होल्डरों से लिखने का उद्देश्य यही होता था, कि हमारा लेख सुंदर हो जाए।लगभग चार -पाँच दिन में काम पूरा करके मैंने अपनी नोट-बुक (कॉपी) गुरु जी को दिखाई। मेरा साफ -स्वच्छ औऱ पूरी तरह से शुद्ध कार्य देखकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और कॉपी पर कार्य के अंत में 'GOOD'का रिमार्क देते हुए मेरी पीठ थपथपाई और शुभ अशीष देते हुए बोले: 'शाबाश बेटे ! इसी प्रकार कार्य करते रहे , तो जीवन में एक दिन बहुत बड़े आदमी बनोगे ,सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी।' 

 पूज्य गुरुवर के उस आशीष को मैं अभी तक नहीं भूला हूँ। कभी नहीं भुला पाया।आज भी उनके वे वाक्य और उनका वह सौम्य चेहरा नहीं भूलता। पूज्य गुरुवर श्री बिशन लाल सिंघल जी का आशीष मेरे जीवन का वह पाथेय बना जो कभी भी समाप्त नहीं हुआ और आज भी उनकी प्रेरणा और उस शुभ घड़ी में उनके मुखारविंद से निसृत शब्द मेरे जीवन का प्रकाश पुंज बन गए।

 मैं यह भी बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ , कि मेरी कार्यप्रणाली अन्य सभी जन से अलग प्रकार की और वैज्ञानिकता से परिपूर्ण होती है। आज भी जीवन के सातवें दशक के सोपानों पर अग्रसर होते हुए मेरी कार्यप्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यह सब मेरे पूज्य बाबा, दादी, पिताजी , माँ और चाचाजी के आशीष का फल है। मैं आज जो कुछ भी हूँ, उसी वृक्ष का नन्हा बीज हूँ , जिसका अभिसिंचन ,पालन और पोषण मेरे पूज्य पूर्वजों और पूज्य गुरुजन ने किया। मैं आजीवन उनका ऋणी रहूँगा। 


 💐 शुभमस्तु !


 16.10.2020◆ 2.30 अपराह्न।

माँ जगदंबा! [ बालगीत ]

  

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✍️ शब्दकार©

⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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  जगदम्बे !  हम तेरे  बालक।

  माँ तू है हम सबकी पालक।


नौ  रूपों  में   माँ   आती  है।

दुर्गा,  आर्या    कहलाती  है।।

माँ  है  तू  जग की संचालक।

 जगदम्बे! हम  तेरे   बालक।।


नाम     हजारों     माता   तेरे।

हम  हैं  नित  संकट  से  घेरे।।

माता तू  जग  की   उद्धारक।

 जगदम्बे ! हम  तेरे  बालक।।


भय, भ्रम से हम काँप रहे हैं।

कितने  हमने   कष्ट   सहे हैं।।

सदन पधारो बन अघ घालक।

जगदम्बे! हम   तेरे बालक ।।


महिषासुर  को  तुमने मारा।

शुम्भ निशुम्भ मातु संहारा।।

ज्ञान बुद्धि की दाता  शारद।

 जगदम्बे! हम  तेरे  बालक।।


धन,बल   को माँ  देने वाली।

'शुभम' नाचते दे हम ताली।।

माँ आद्या तू है खल घालक।

 जगदम्बे !हम  तेरे   बालक।।


💐 शुभमस्तु !


17.10.2020◆5.00अपराह्न।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

चार्वाक् की चारु वाक् [ कुण्डलिया ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

सत्ता  ईश्वर  की  नहीं, चल लोकायत   राह।

चारु वाक् कहती यही,बनी रहे सुख  चाह।।

बनी रहे सुख चाह,जिओ सब सुख से जीना।

करो  न  तन से काम, बहाना नहीं  पसीना।।

खाओ 'शुभम' उधार, हिलाना मत रे पत्ता।

ऋण लेकर खा माल, नहीं ईश्वर की सत्ता।।


                       -2-

होते  स्वर्ग न  नर्क ही, और न होती  मुक्ति।

ऋण लेकर सुख से रहो,सुंदर सबसे भुक्ति।।

सुंदर  सबसे भुक्ति, भोग में तन  मन  बीते।

बिना  भोग सब सून,चले जाओगे  रीते।।

'शुभम'मिले तन खाक,जिओ मत रोते रोते।

तन को दो आराम,कहीं परलोक  न  होते।।


                      -3-

लेकर सारा धर्मबल, असुर चले सत राह।

जना  विष्णु ने देह से,माया मोह   अनाह।

मायामोह  अनाह,देव  याचक बन   आए।

हुए  धर्म से हीन, पाप ले जग में    छाए।।

'शुभम' दिगंबर देह,मोहमाया बद   देकर।

किए असुर बदराह, पापधारित मत लेकर।।


                       -4-

केवल  हैं  अनुमान ही, ईश्वर या परलोक।

नहीं आत्मा जन्म ले,करें न मन में  शोक।।

करें न मन में शोक,धरा,जल,तेज,हवा से।

चेतनता उद्भूत, अमर तन नहीं  सुधा  से।।

'शुभम'  देह  के साथ,चेतना के मिटते  तल।

ईश्वर है अनुमान, जिओ सुख से नर केवल।।


                        -5-

होता  जब    ईश्वर नहीं,कैसे मिले  प्रमाण।

खोज-खोजकर व्यर्थ में,क्यों होता म्रियमाण

क्यों होता म्रियमाण, व्यर्थ अनुमान तुम्हारा।

जो  है नित अपरोक्ष, देह ही मात्र    सहारा।।

'शुभम' तत्त्व आकाश,नहीं आत्मा का सोता।

देह   चेतना   रूप,  नहीं  ईश्वर भी    होता।।


💐 शुभमस्तु !


14.10.2020◆12.45 अपराह्न।



माँ की लोरी [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मुझे  याद   है   माँ  की लोरी।

माँ  थी  मेरी  कितनी  भोरी।।


बिस्तर  जब गीला  हो जाता।

रोकर   अपना  कष्ट बताता।।

लेती   समझ    वेदना   मोरी।

मुझे   याद  है माँ  की लोरी।।


नींद नहीं जब मुझको आती।

थपकी दे - दे  मुझे  सुलाती।।

गा- गा   मीठे  स्वर  में लोरी।

मुझे याद  है माँ  की  लोरी।।


कभी   जाँघ  में  चींटी काटे।

पापाजी  के   पड़ते    चाँटे।।

ढूँढ़  हटाती   माँ   तब फौरी।

मुझे  याद  है  माँ  की लोरी।।


पीढ़े  का   था  झूला  डाला।

कभी खटोले पर मतवाला।।

झोंटा    देतीं    बहना  छोरी।

मुझे  याद है   माँ की लोरी।।


प्यारी - प्यारी निंदिया आजा।

मेरे लाल को आइ  सुलाजा।।

गाती   थी   माँ   मेरी  गोरी।।

मुझे याद  है  माँ की  लोरी।।


💐 शुभमस्तु !


13.10.2020◆5.15अपराह्न।

तृप्ति [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

तृप्ति कहाँ किसको मिलती है,

भुक्ति -चाह किसकी टलती है,

रटन  लगी है  और - औऱ  की,

कथरी  फटी  सदा  सिलती  है।


                       -2-

जितना  भी  रस  को पीता हूँ,

लगता  है   जीवन  जीता   हूँ,

तृप्ति नहीं मिलती है  मन को,

कभी न   पाता   मनचीता  हूँ।

                      -3-

ऊँचा !ऊँचा !!ऊँचा !!! चढ़ता,

चला    गया मैं  ऊपर   बढ़ता,

तृप्ति-बिंदु पर  जब पहुँचा मैं,

पतित हो गया  सपने गढ़ता।।


                     -4-

मरती  देह , न    मरे   वासना,

आती   उसमें   लेश  वास ना,

तृप्ति-बिंदु पर ढलता  मानव ,

'शुभम'समझ मत ये उपासना।।


                      -5-

तृप्ति-बिंदु पर नहीं है रुकना ,

उदासीन  हो   नहीं ठिठकना,

चरैवेति      जीवनाधार     है,

रुक जाने का मतलब चुकना।


💐 शुभमस्तु !


13.10.2020◆2.00 अपराह्न

रविवार, 11 अक्तूबर 2020

दीवार बनाना जान लिया [ गीत ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'

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दीवारों   के   सँग रह  रहकर,

दीवार   बनाना   जान  लिया।

निर्जीव   सोच   मानव   तेरी,

क्यों कदाचार सच मान लिया।


ये   ऊँच -  नीच   की   दीवारें,

भू  पर   ही  तुझे   गिराती  हैं।

मज़हब,   धर्मों    की   चट्टानें,

मानव का  मर्म   चुराती   हैं।।

हिन्दू  - मुस्लिम  के खंजर से,

कट जाना  तूने   ठान  लिया।

दीवारों   के  सँग  रह रहकर,

दीवार   बनाना  जान लिया।।


जब  वोट पड़ें   सब  हिन्दू हैं,

वैसे   अनुसूचित   पिछड़े  हैं।

इन सबको  मारा भगाना  है,

तुम उत्तम उनसे  अगड़े  हो।।

उनकी धमनी  का खून स्याह,

अपना है अरुणिम जान लिया।

दीवारों  के  सँग  रह   रहकर,

दीवार   बनाना  जान लिया।।


जब  भीख  खून  की लेते हो,

पूछा न कभी  बाँभन,  धोबी।

जब प्राण  बचाता  शुद्र -रक्त ,

जानते  नहीं   बुशरा,  बॉबी।।

लेने   से   पहले   लोहू   को,

क्या इतना तूने  छान लिया?

दीवारों  के  सँग  रह रहकर,

दीवार बनाना  जान  लिया।।


जब    भरा   पेट    होता तेरा,

तब ऊँचनीच दिखता तुझको।

अपने   को   ऊँचा  बतलाता,

नीचा ही दिखलाता सबको।।

खुदगर्ज़ी   तेरा    धर्म   बना,

ऊँचा निज झंडा तान लिया।

दीवारों  के  सँग  रह रहकर,

दीवार  बनाना  जान लिया।।


बस में  न पूछता   चालक से,

किस जाति, धर्म का तू भाई?

होटल पर चभर -चभर चरतीं,

सूकर ,श्वानों-सी   वह  माई।।

मानवतावाद    सिखाता   है,

तू थोथा ,यह पहचान लिया।

दीवारों  के  सँग रह  रहकर,

दीवार  बनाना  जान लिया।।


वर्णों    में  बाँटा   मानव  को,

तू   गोरा   वे   सब   काले हैं।

तू   जन्मा   और  द्वार  से ही,

वे   अन्य  ईश  ने  पाले   हैं।।

सब एक  खाक  में मिलने हैं,

तूने न कभी यह ध्यान लिया।

दीवारों  के  सँग   रह रहकर,

दीवार  बनाना  जान लिया।।


माटी के पुतले सँभल 'शुभम',

माटी में  सबको  मिलना  है।

माटी   की   ढेरी    पर   तेरी,

दूबों का झुरमुट खिलना है।।

तू   समझदार   तो इतना है ,

कालौंच गही मुख सान लिया।

दीवारों  के   सँग रह  रहकर,

दीवार  बनाना  जान  लिया।।


💐 शुभमस्तु !


11.10.2020◆8.45 अपराह्न।


नारी ही अरि नारि की [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बाला नारी बालिका,पूज्य बारहों   मास।

जहाँ नारि सम्मान हो, होता वहाँ उजास।।


दुराचार जो कर रहे, बालाओं के   साथ।

सुअर श्वान नर रूप में,उन्हें न जोड़ें हाथ।।


नारी से  ही  सृष्टि है, नारी कला   स्वरूप।

दुराचार में लीन जो,उन्हें जगत तम कूप।।


कन्या के नव भ्रूण को,हनते नागिन  नाग।

यौनि न मानव की मिले, फूटें उनके  भाग।।


देवी माँ कहते जिसे, उससे काले   कर्म?

पशु से भी वे हीन हैं,मृत है उनका धर्म।।


रमा,जया,माँ शारदा, माता  के  बहुरूप।

दानव इसको जानकर,गिरते हैं भव कूप।।


यह भी सच है जान लें,नारी आरी  रूप।

वही भ्रूण हत्या करे, गिरती है तम   कूप।।


नाले,  कूड़ा    ढेर  पर,भ्रूण फेंकती   नारि।

नारी ही अरि नारि की,निज को पहले तारि।।


सास सतावे सुत-वधू,समझे सुता न नेक।

उनसे उत्तम वे सभी,कूकर, सूकर,  भेक।।


निम्न यौनि में जीव वे,खाते निज संतान ।

कुछ मानव ऐसे यहाँ, रहते इसी जहान।।


बल से नारी जाति का,करता मानव ध्वंश।

मानवता उसकी मरी, रावण हो या कंस।।


💐 शुभमस्तु !


11.10.2020◆5.00अपराह्न।

शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

रचनाकारों से [ कुण्डलिया ]

 

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✍️ शब्दकार©

🎑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

दोहा,  चौपाई   लिखें, या कुंडलिया    छंद।

नियम नहीं आता अगर,लिखना करदें बंद।

लिखना कर दें बंद, प्रथम नियमों को जानें।

यदि हो तुम अज्ञान,छंद की टाँग न   तानें।।

'शुभम'सीख लें छंद, न समझें रबड़ी पोहा।

अपमानित हों मीत,इसलिए जानें    दोहा।।


                       -2-

अपनी हठ पर हैं अड़े,कुछ कवि रचनाकार।

शुद्ध नहीं लिखते सदा,मिटती काव्य-बहार।

मिटती काव्य - बहार,चिह्न भी नहीं  लगाते।

चलती जैसे    ट्रेन ,रुके बिन तेज    भगाते।।

'शुभम' ऐंठ में खूब,बहस की माला  जपनी।

समझें तुलसी सूर,अड़े हैं हठ पर   अपनी।।


                      -3-

रचना करना है कला, उचित न फ़ूहड़ लेख।

कोई उनको टोक दे,करें न मीन  न  मेख।।

करें न मीन न मेख,समीक्षक को धमकाते।

आड़ी तिरछी पाँत,काव्य की वे छिड़काते।।

'शुभम' न मानें बात,शोर मचना ही मचना।

अहंकार  के  पूत, बिखरती करते    रचना।।


                      -4-

गाड़ी भर कवि हो गए,गली - गली में आज।

बड़े -बड़ेउपनाम हैं,स्वयं बाँध सिर   ताज।।

स्वयं बाँध सिर ताज,जीभ की खाज मिटाते।

हँसगुल्ले   की तोप, चलाकर हँसें   हँसाते।।

'शुभम' मधुरतम  सोम, पी रहे दारू  ताड़ी।

नहीं सहित काभाव,मिलें कवि भरभर गाड़ी


                      -5-

बसता उर में  अहं जब,कैसा रचनाकार!

कवि ब्रह्मा का रूप है,सर्जन का आधार।।

सर्जन का आधार , काव्य शब्दों  से  गढ़ता।

देता  रूपाकार , सुघर  साँचे  में     मढ़ता।

'शुभम'सजाता अंग,अंग को मन से कसता।

विमल शरद का बिंदु,हृदय में अमृत बसता।


💐 शुभमस्तु !


10.10.2020◆10.00 पूर्वाह्न।

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

'ताजमहल' की प्रेरणा [ संस्मरण ]

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 ✍️ शब्दकार © 

 🔱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                    ताजमहल का नाम सुनकर चौंकिएगा नहीं।इस नाम को सुनकर चौंक जाना स्वाभाविक है। कहाँ विश्वप्रसिद्ध ताजमहल और कहाँ मैं ? भला ऐसा भी कहीं हो सकता है कि मैं कोई ताजमहल खड़ा कर सकूँ! यह बात है तो ताजमहल की ही ,पर उस ताजमहल की नहीं है ,जिसका नाम कानों में पड़ते ही सफ़ेद संगेमरमर से बनी भव्य और उच्च इमारत का बिम्ब मस्तिष्क पटल पर अंकित हो जाता है।इस संस्मरण में जिस ताजमहल के निर्माण की चर्चा की गई है ,वह मेरा अपना छोटा - सा ताजमहल है ,जिसमें नीचे से ऊपर तक कुल एकादश मंजिलें हैं।

                मेरा 'ताजमहल' किसी प्रेयसी की प्रेरणा स्वरूप नहीं लिखा गया। उस समय मैं बी.एस सी. उत्तीर्ण करने के बाद हिंदी में एम.ए.पूर्वार्द्ध का विद्यार्थी था।अविवाहित था। मेरी अवस्था का 23वां वर्ष चल रहा था।23 सितंबर 1974 की रात की बात है।समय रात के 2 और 3 बजे के मध्य का रहा होगा। उस समयावधि में मेरे द्वारा एक विचित्र स्वप्न देखा गया,जो मेरे खण्डकाव्य 'ताजमहल' की प्रेरणा का कारण बना। यों तो काव्य रचना करते हुए मुझे ग्यारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। इससे भी तीन वर्ष पूर्व महाकाव्य 'तपस्वी बुद्ध' भी पूर्ण कर चुका था। किंतु इस खंडकाव्य की प्रेरणा कुछ विचित्र प्रकार की थी। 

                 यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी उचित होगा कि विश्व प्रसिद्ध ताजमहल की दूरी मेरे गाँव से लगभग 15 -16 किलोमीटर होगी। बरसात के दिनों में आकाश स्वच्छ औऱ निर्मल रहने के कारण हम गाँव से ही ताजमहल देख लिया करते थे। एक दो बार ताजमहल को देख भी चुके थे। अपने स्वप्न में मैंने देखा कि मेरे ही गाँव का एक परिचित व्यक्ति उस भौतिक ताजमहल की इमारत पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है । बहुत ही जिज्ञासा पूर्वक मैं उसे आरोहण करते हुए देख रहा हूँ।  स्वप्न में  देखा गया  ताजमहल  भौतिक ताजमहल से सर्वथा भिन्न अलौकिक और अवर्णनीय था।  प्रथम सर्ग का श्रीगणेश इस प्रकार किया गया है: 

अर्द्ध क्षणदा थी कोमल कांत, जा रही स्मित - सी चुपचाप। 

 कदम उठने पर पायल-नाद, नहीं होती तृण भर पदचाप।।

            इसी प्रकार के 34 छंदों में प्रथम सर्ग पूर्ण हुआ है।इसी प्रकार के दस सर्ग भी लिखे गए हैं। प्रातःकाल उठने पर 'प्रेम ' शीर्षक से  एक कविता लिखी ,जो मुझे बहुत ही प्रिय लगी और उसको लिखने के बाद मानो मेरी कल्पना को पंख लग गए और एक पर एक रचनाएँ लिखने का अनवरत क्रम प्रारम्भ हो गया।एक सप्ताह तब हुआ कि निरंतर लिखते हुए ग्यारह सर्गों में निबद्ध एक खण्डकाव्य तैयार हो गया।

             वर्ष 2008 में इस खण्डकाव्य का प्रकाशन सम्भव हो सका।इस काव्य को बार -बार पढ़ना और पढ़कर सुनाना मुझे बहुत ही प्रिय रहा है। 24 सितंबर 1974 को पहली रचना ,जो उसके प्रथम  सर्ग के रूप में है ,लिखी गई। ऐसा लगने लगा कि इस विषय पर बहुत कुछ लिख सकता हूँ। और वह लिखा भी गया ,पूरा भी हुआ, प्रकाशित भी हुआ।भले ही लिखने के 34 वर्ष बाद हुआ । 

              मेरा 'ताजमहल'  मेरी पसंद की सर्वप्रिय रचनाओं में से एक है।यों तो 'निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस् होउ अथवा अति फीका।' यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी समीचीन होगा कि इस खण्डकाव्य में ताहमहल को प्रेम का प्रतीक नहीं माना गया।   मेरे द्वारा उन अनाम वास्तुविदों की अमर कला साधना का प्रतीक माना गया है , जिसके कारण उनके हाथों को शाहजहां द्वारा कटवाया जाना चर्चित है। अनेक नाटकीय बिम्बो के माध्यम से  रचना को गति प्रदान की गई है । संभवतः यही रचना का मूल है। वही इसकी मूल प्रेरणा है। स्वप्न पर आधारित यह कृति अपनी मौलिकता में अपने ही प्रकार की है। रचना के समीक्षक ही इसका सही मूल्यांकन कर सकते हैं। तो यह  है  मेरा अपना 'ताजमहल' और  उसकी प्रेरणा ।


 💐 शुभमस्तु ! 


 09.10.2020◆6.00अपराह्न।

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

ये मानव!ये नेता!! [ कुण्डलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🐋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                     -1-

मानव अपनी ऐंठ में,गया मनुजता भूल।

जाति भेद में डूबकर,दिया रंग को तूल।।

दिया  रंग   को तूल,  रंग पहचान   बनाई।

जैसे   काली  भैंस,  गाय  गोरी  कहलाई।।

'शुभम'हुए सब एक,न कोई पशु या दानव।

अहंकार में नाश ,कर रहा अपना मानव।।


                     -2-

मानव जो नवता नहीं,है लकड़ी की शाख।

सूखा  नीरस  हाड़-सा,नीरस नंगा   दाख।।

नीरस   नंगा  दाख,   टूटता  जैसे     कंडा।

करता सामिष भोज,माँस, मछली या अंडा।।

'शुभं'मनुज का गात,छिपा पशुअंदर दानव।

पहने वसन  सफ़ेद,नग्न अंदर से   मानव।।


                      -3-

आलू,गोभी फूल-सी, मानव की  औकात।

हिंसा पागल  श्वान की,उसको है  सौगात।।

उसको है  सौगात, प्राण हरता है   निर्मम।

करता हत्या भ्रूण, नहीं पशुता में वह कम।।

'शुभम' नहीं विश्वास, श्रेष्ठ   हैं चीते   भालू।

मानव का अरि मूढ़,घास कूड़ा नर आलू।।


                      -4-

शिक्षित बॉडी गार्ड हैं,मंत्री अपढ़  अनेक।

हत्या,किडनैपिंग  करें, हुए वोट   से  नेक।।

हुए वोट  से नेक, पहनकर बगबग  कुर्ता।

मंत्री  पद की  ओट,  बनाते नर का भुर्ता।।

'शुभम'भाड़ में देश,भले ही बने बुभुक्षित।

नेता काम पिपासु ,गेट पर ठाड़े शिक्षित।।


                        -5-

भगती  करते  देश की, पत्नी देते   छोड़।

वैरागी  साधू   बने ,  मर्यादा  को    तोड़।।

मर्यादा  को   तोड़,   चमकती नेतागीरी।

देशभक्ति  की  नाव, चलाते चमचा  मीरी।।

'शुभम'पेट की ओर,पैर की घुटनी झुकती।

चलें हंस की चाल,काग की देखी भगती।।


💐 शुभमस्तु !

मानव सिमट रहा है [ गीत ]

  

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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ज्यों-ज्यों मानव सिमट रहा है।

त्यों- त्यों  पूरा  निबट  रहा  है।।


जाति- पाँति  में टंगा हुआ है।

वर्ण- भेद   में रँगा  हुआ  है।।

आपस में  वह  डपट रहा है।

त्यों -त्यों पूरा निबट  रहा है।।


कोई  हिन्दू, सिक्ख  , इसाई।

कोई   नहीं  किसी का भाई।।

मन में काला   कपट बहा है।

त्यों-त्यों पूरा  निबट  रहा है।।


मानव  का  आहार   आदमी।

हिंसा का  आधार   लाजमी।।

खाने को  नर  झपट  रहा है।

त्यों-त्यों  पूरा  निबट रहा है।।


जातिवाद     फैलाते     नेता।

मत फुसला करके वह लेता।।

अस्त्र नोट की चपत  रहा है।

त्यों-त्यों  पूरा निबट रहा है।।


बचा    नहीं  कोई  भी थैला।

राजनीति  का कचरा फ़ैला।।

ज़बरन ही वह लिपट रहा है।

त्यों -त्यों  पूरा निबट रहा है।।


शिक्षा ,धर्म,  कर्म  में गदला।

बदबूदार   नगर या  नगला।।

सन्नाटा  ही   प्रकट  रहा  है।

त्यों -त्यों पूरा निबट रहा है।।


मानव,मानव   से   जलता है।

छुप-छुप कर अपने मलता है।

'शुभम'घटा जो अघट रहा है।

त्यों-त्यों  पूरा  निबट रहा है।।


💐

 शुभमस्तु !


06.10.2020◆5.00अपराह्न।


चलो नदी में नहाएँ [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏊‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चलो नदी  में  आज  नहाएँ।

कागज़ की कुछ नाव बहाएँ।।


कलकल बहती  नदी  हमारी।

धाराएँ    हैं    कितनी  सारी।।

खेलें - कूदें      हम     हर्षाएँ।

चलो  नदी  में आज नहाएँ।।


रुकती नहीं कभी दो पल को।

नहीं टालती बहना कल को।।

सरिता से  कुछ  सीखें  पाएँ।

चलो नदी  में  आज  नहाएँ।।


गर्मी,    सर्दी,    वर्षा   भारी।

नहीं  दिखाती  वह लाचारी।।

गहरे जल में क्यों  हम जाएँ।

चलो नदी  में आज  नहाएँ।।


लोग  बहाते    कचरा ,मैला।

हो जाता तब जल मटमैला।।

जल में साबुन  नहीं  लगाएँ।

चलो नदी में  आज  नहाएँ।।


आने    वाली     है  दीवाली ।

निर्मल नदिया हो जल वाली।।

'शुभम' शाम को दीप जलाएँ।

चलो  नदी में   आज  नहाएँ।।


💐 शुभमस्तु !


06.10.2020◆2.30अप.

सरिता [ मुक्तक ]

  

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✍️ शब्दकार©

🛶 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                  -1-

पर्वत -पिता - गेह   से चलती,

तेजी  से  नीचे   वह   ढलती,

प्रिय सागर से मिलन -आतुरा,

सरिता कभी न मानव छलती।


                   -2-

न दिया न दिया उसको कहते,

सिंचन  करती    हर्षित  रहते,

जीवन   की   धारा है  सरिता,

जीव, जंतु,पादप  सब लहते।


                   -3-

गंगा   को  कहते   सुरसरिता,

कलकल बहती अमृत भरिता,

जन जीवन का पालन करती,

पाप -शाप की मोचक हरिता।


                   -4-

पशु- पक्षी सब प्यास  बुझाते,

मानव अपना    जीवन   पाते,

दे जल निधि को  मेघ बरसते,

'शुभम' खेत  सब सींचे जाते।


                     -5-

भारत माँ की धमनी सरिता,

कण-कण में अमृत की भरिता,

बिना रक्त क्या तन मानव का,

धरती   पर   है   वैसे  सरिता।


                     -6-

हर सरिता  का  प्रीतम सागर,

मंथर - मंथर   चाल   उजागर,           

गुन - गुन  गाती गीत  मनोहर,

समा रहा   निज  में नटनागर।।    


                      -7-

लहरों   की   बाँहों  को खोले,

सजनी   सरिता से बिन बोले,

आलिंगन   में   लेता  सागर,

लहरों   में   लेती   हिचकोले।


💐 शुभमस्तु !


06.10.2020◆12.30अपराह्न।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

शरद -आगमन [ दोहा ]

 

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✍️शब्दकार©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मूँज,काँस की बाल ये,होने लगी सफ़ेद।

ऋतु वर्षा बूढ़ी हुई,शरदागम का    वेद।।


रातें शीतल चाँदनी,खिली अंक ले  सोम।

निर्मल बाँहों में गहे,धरती को सित व्योम।।


आश्विन पूनम चाँदनी, नखत अश्विनी आज।

अश्वाननवत सोहता, अम्बर में शुभ  साज।।


हिरन -देह काली पड़ी,तप आश्विन की धूप।

भूरापन उज्ज्वल नहीं,बदला तन-मन रूप।।


ओस-बिंदु झरने लगे,जैसे नयन  प्रकाश।

नहा रही है चाँदनी ,पिया मिलन की आश।।


विदा हुई पावस सजल,सलज शरद संगीत।

टेसू - झाँझी  गा रहे,दर-दर जाके   गीत।।


आया कार्तिक मास जो,दीपों का त्यौहार।

दीवाली की ज्योति का, मनभाया व्यौहार।।


फूल- तरैया खेलतीं, घर - घर बाला  नेक।

मिलजुल गातीं गीत वे,सस्वर 'शुभं' विवेक।


 फ़सल बाजरे की खड़ी,पकी अन्न की बाल।

प्रकृति रूप बदला सभी,बजती है नवताल।


श्वेत   पुष्प   खिलने लगे,  महका हरसिंगार।

शिवलिंग पर होने लगा,स्वतः सुमन का प्यार


शरद  सुहानी  भा गई,मधुर मनोहर   भोर।

'शुभं'मंजु प्राची दिशा,देख तुरत उस ओर।



💐 शुभमस्तु !


05.10.2020◆2.00 अपराह्न।


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अब देखो ये 'इज्जतघर' [ सायली ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सबने

देखे हैं

गाँवों में बने 

'इज्जतघर' कितने

मजबूत।


सजी

हुई    है

दुकान 'इज्जतघर' में

किसान बना 

लाला।


उपले

लकड़ी ईंधन

बढ़ा   रहे   शोभा

'इज्जतघर' की

आज।


खरीदें

आज  कुरकुरे,

गुड़, दाल,  सब्जी,

'इज्जतघर' बना 

दुकान।


'इज्जत'

जा   रही

आज  भी  बाहर

छोड़कर  अपना

'इज्जतघर'।


ओट

मूँज की

ढूँढ़ती  जा  रही

लेकर  लोटा 

हाथ।


मिली 

किसी को

आड़  मेंड़  की

बैठ गई 

निश्चिंत।


आया 

कोई राहगीर

उठ  खड़ी   हुई

लोक  लाज 

है।


पीलिया

ईंटें  चिनी

बघार  सीमेंट  का

शेष  सब

बालू।


गठबंधन

मुखिया सचिव

करते    हैं   जब

बनते   हैं

'इज्जतघर'।


खाएँ

वे  मलाई

दिखाते हैं भामाशाही,

बालू   से 

चिनाई।


खटिया

नहीं करती

खड़ी  वे   अब

नहाने  को

'इज्जतघर'।


  है

 बहुत आराम

बना  जब     से

अपना  'इज्जतघर'

सुघर।


नहीं 

भीगते अब

उपले,  ईंधन,लकड़ी,

'इज्जतघर' जो

है।


आदत

पुरानी है,

जाने   की   खेत,

छूटेगी कैसे

अपनी।


खाई 

है  कसम

हम  नहीं सुधरेंगे

बना  लो 

'इज्जतघर'।


दूकान

ईंधन  भंडार

स्नानागार  भी  है

किन्तु  नहीं

'इज्जतघर'।


है 

बहुत होशियार

आदमी   आगे -  आगे

पीछे  उसके

सरकार।


 था 

 उद्देश्य   एक

 बहुउद्देशीय बनाया  उसने

अपना 'इज्जतघर'

अनौखा।


वे

डाल-डाल

ये   पात  - पात

क्या  करेगी

सरकार?


दिमाग

रखते हैं

हम गाँव वाले

देखो अब

'इज्जतघर'।


💐 शुभमस्तु!


05.10.2020 ◆11.30 पूर्वाह्न।


रविवार, 4 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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'इज्जतघर'   में  बैठा  लाला।

बेच   रहा  है   पेठा    लाला।।


आड़ खोजती 'इज्जत'घर की,

ऊँघ   रहा   है   ऐंठा   लाला।


बहू  जा रही  ले  कर   लोटा,

डंडी  मारे   जेठा      लाला।


उपले, ईंधन   'इज्जतघर'  में,

 भर  देता   है   बेटा   लाला।


'इज्जतघर'  का द्वार भेड़कर,

नहा  रहा   करकेंटा  लाला।।


इज्जत बनी सचिव मुखिया की,

आड़ा -  तिरछा   लेटा  लाला।


'शुभम' गेट थर -थर बजता है,

पड़ा- पड़ा   बन  बैठा लाला।


💐 शुभमस्तु  !


04.10.2020◆1.15अपराह्न।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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खाना  अपने श्रम की रोटी।

मीठी  अपने दम  की रोटी।।


कामचोर   मरते   हैं    भूखे,

खाना  चाहें   भ्रम की रोटी।


पूजा  होती   सदा  कर्म की,

भली नहीं है  'हम' की रोटी।


अपनी   ताकत  को पहचानें,

अंग  लगे   सश्रम की  रोटी।


सीधी  राह    चलें   जीवन में,

भाती हमें न  खम  की  रोटी।


अरबों में  जो   खेल  रहे  हैं,

खाते  वे  भी   श्रम की रोटी।


'शुभम' ईश से  यही याचना,

देता रहे   धरम   की   रोटी।


💐 शुभमस्तु  !


04.10.2020◆11.45पूर्वाह्न।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बदल  रहा  है  रोज़  जमाना।

श्रम को समझे बोझ जमाना।


नहीं   चाहता    बहे  पसीना,

करना  चाहे मौज   जमाना।।


ऊपर  की  हो   खूब  कमाई,

करता  ऐसी  खोज  जमाना।


नहीं     पड़ौसी   बढ़ने   पाए,

रखता उससे  सोज़  जमाना।


छाई   है  दिल   में  खुदगर्ज़ी,

भले दिखाता  पोज़  जमाना।


तन गोरा मन  काला- काला,

देता यश  को  भोज जमाना।


चापलूस   है  आज   आदमी,

करता  झूठी   मौज  जमाना।


💐 शुभमस्तु !


04.10.2020◆9.15पूर्वाह्न।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सोए   होते   उन्हें  जगा  लेते,

काश अपना  उन्हें  बना  लेते।


उनके दिल में  है क्या वही  जानें,

लुत्फ़ आता अगर  बता  लेते।


चाह   पूरी अगर  नहीं  होती,

तुमको दुनियाँ से हम चुरा लेते।


दिल ज़माने में लग  गया मेरा,

वर्ना   धूनी   कहीं  लगा  लेते।


जिसे  छूने में डर रहा है 'शुभम',

काश  वो  ही कदम  बढ़ा लेते।


💐 शुभमस्तु !


03.10.2020◆5.45अपराह्न।


ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चलते   रहना  ही  अच्छा  है।

पल-पल बढ़ना  ही अच्छा है।।


रुका  हुआ   पानी  है सड़ता,

बहते  रहना    ही  अच्छा  है।


शजर धूप  सहते   हैं कितनी,

उनका  लगना  ही  अच्छा  है।


नदिया    पार    उतरने   को,

नाविक बनना   ही अच्छा है।


अपनी किस्मत आप बनाओ,

ग़म से  लड़ना  ही अच्छा है।


दोष   दूसरों   को  क्या  देना ,

श्रम भी करना ही  अच्छा  है।


'शुभम'हवा के साथ न बहना,

पवन का बहना  ही अच्छा है ।


💐 शुभमस्तु !


03.10.2020◆4.45अपराह्न।

ये इज्जतघर [ दोहा -ग़ज़ल ]


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✍️ शब्दकार©

⛺ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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'इज्जतघर' की लुट रही,इज्जत चारों ओर।

लोटा लेकर जब चले,हुआ गाँव  में  भोर।।


'इज्जतघर' में  खुल  गई, एक नई  दूकान,

बीड़ी, माचिस भी मिले,बाँट ईंट के फोर।


'इज्जतघर'में चाय भी,मिलती प्रातः  शाम,

बिस्कुट औ'नमकीन भी,मचा गाँव में शोर।


उपले ,ईंधन  भर रहे,'इज्जतघर' के बीच,

कहीं कबाड़ा सोहता,मनमानी का  जोर।


नित्य नहाने के लिए ,'इज्जतघर'है खूब,

खाट खड़ी करनी नहीं,वर्षा हो घनघोर।


पहले 'इज्जतघर' नहीं,थे जब अपने  गाँव,

तब भी जाते खेत में,खोज आड़ की कोर।


ओट मूँज  की देखकर,या मेंड़ों  की ओट,

जाते नर -नारी सभी, मिलते इज्जत- चोर।


पीली   ईंटों  से चुनी, 'इज्जतघर '- दीवार,

खुशबू  भी  सीमेंट की, बालू में  है  थोर।


सचिव और मुखिया मिले, करते बंदर बाँट,

'इज्जतघर, कैसे टिकें, चालबाज  घनघोर।


💐 शुभमस्तु!


02.10.2020◆7.00अपराह्न।

'इज्जत' जाती खेत में [कुण्डलिया]


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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

'इज्जत'बाहर चल पड़ी,लेकर लोटा हाथ।

अवगुंठन झीना सजा,माँग भरा ढँक माथ।।

माँग भरा ढँक माथ, गई घर के पिछवाड़े।

ढूँढ़  रही  है   ओट, धूप,  वर्षा या   जाड़े।।

शुभं खेत की मेंड़,मूँज की झाड़ी सज्जित।

'इज्जतघर'को छोड़,खेत में जाती 'इज्जत'।


                       -2-

सारे 'इज्जतघर'  बने, लाला की    दूकान।

बिकते  टॉफी, कुरकुरे,घर भर के   सामान।।

घर भर के सामान, दाल,सब्जी ,गुड़ ,आटा।

'इज्जत' जाती खेत,भरे सरपट    सर्राटा।।

'शुभम'मेंड़ की आड़,उदय जब नभ में तारे।

जाते घर के लोग,छोड़ 'इज्जतघर'  सारे।।


                      -3-

उपले,ईंधन भर दिए, 'इज्जतघर' की शान।

'इज्जत' खेतों  में चली,या घर के महमान।।

या घर के महमान, बाल-बच्चे, नर, नारी।

ढूँढ़  मूँज की  आड़ ,आज भी है   लाचारी।।

'इज्जतघर' हैं  बंद,  खुले में कैसे  ढँक  ले।

उठती  बारम्बार,  भरे 'इज्जतघर'   उपले।।


                      -4-

अपनी इज्जत ली बना,साहब सचिव प्रधान।

बालू में  ईंटें  चिनी, पीली, ठगा  किसान।।

पीली, ठगा किसान,पड़ा सीमेंट  नाम   का।

जैसे लगा बघार,नहीं यह किसी काम  का।।

'शुभम' बनाए दाम,और छत भी तो पटनी।

'इज्जतघर' का नाम,सजा लीं जेबें अपनी।।


                         -5-

'इज्जत' जाती खेत में, 'इज्जतघर'  है बंद।

कंडे, लकड़ी हैं भरे ,मालिक है  स्वच्छन्द।।

मालिक है स्वच्छन्द, दुकानें वहाँ  सजा दीं।

थर-थर कँपे किवाड़,सचिव की बढ़ती वादी।

'शुभम' ढूँढ़ते झाड़,टपकती टपटप  है छत।

देख न पाए और, वसन से ढँक ली इज्जत।।


                         -6-

बैठी  झाड़ी -ओट में ,चौकस हैं    दो  नैन।

राहगीर   को   देखकर,  हो जाती    बेचैन।।

हो   जाती  बेचैन, ढाँकती कसकर    नीचे।

उठ जाती अविलंब,लाज से अँग  को भींचे।।

'शुभम' बड़ी   लाचार, बहू दिवरानी   जेठी।

'इज्जतघर' को छोड़,ओट में सिमटी बैठी।।


                       -7-

करने देह-नहान को,अब तक थी बस खाट।

'इज्जतघर 'जब से बने, खत्म हो गई बाट।।

खत्म  हो  गई बाट,  बंद  कर द्वार   नहाती।

धन्यभाग  सरकार, बहुत ही नारि  सिहाती।।

'शुभम'  सही उपयोग,नहीं कर, देते  धरने।

जाती  हैं  वे  खेत, शौच ओटों में    करने।।


💐 शुभमस्तु !


02.10.2020◆7.00पूर्वाह्न।


🚪🚽🌾🚪🚽🌾🚪🚽🌾

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...