गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

पिचकारी [ बाल गीतिका]

 78/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


निकल  पड़ीं  हैं  अब   पिचकारी।

बरसाने   को    रँग     पिचकारी।।


फ़ागुन   आया    चटकीं   कलियाँ,

रुकती    नहीं    लेश    पिचकारी।


देवर     से    भाभी     यों    बोली,

क्यों  न अभी     लाते   पिचकारी।


बिना  झिझक  साली   यों कहती,

जीजा जी   ला   दो    पिचकारी।


नेता     को     जनता     ललकारे,

देखेंगे         चुनाव   -   पिचकारी।


बोले     श्याम   यशोदा     माँ  से,

राधा    से     खेलें       पिचकारी।


'शुभम्'    फाग  गा    रहे    हुरंगा,

चले   दृष्टि  की  दृग  -   पिचकारी।


शुभमस्तु !


29.02.2024◆ 9.45आ०मा०

फगुनाहट - पदचाप [ दोहा]

 77/2024

      

[महुआ,गुलाल,अंगूरी,पिचकारी,फगुनाहट]

                सब में एक

महके   महुआ मोहते, मृदुल  मंजु मदभार।

माधव मद  मनभावता, मेरे  मन  भिनसार।।

महुआ -सी मद मोहिनी,मोहित करती  देह।

कोना - कोना  पूर्ण  है, महक रहा मम गेह।।


पाटल सेमल खिल उठे, भरते लाल गुलाल।

फ़ागुन  आया  झूम  के,बिखरा गगन प्रवाल।।

मोहन  राधा  से मिले,तरु  तर सघन  तमाल।

छूते गौर कपोल दो, खिलते   लाल गुलाल।।


अंगूरी  तव देह  की, मादक  मृदुल  सुगंध।

मन  मेरा  चोरी  करे, करती मम मति अंध।।

अंगूरी  रस    से  भरे,   मृदुले    तेरे    नेत्र।

आकर्षित करते  सदा,तन-मन के मम क्षेत्र।।


पिचकारी कटि खोंस कर,निकले  ब्रज घनश्याम। 

निकलीं  गोपी   गेह   से,धर  तन वेश   ललाम।।

इत    मोहन   उत  राधिका, लिए ग्वालिनी    संग।

पिचकारी    कर    में    गहे , बरसाती   हैं    रंग।।


फगुनाहट   हर  ओर  है,  सचराचर     संसार।

निकली तिय अभिसार को,  भरी  देह मदभार।।

फगुनाहट- पदचाप  से,भावित तृण तरु जीव।

विरहिनि  तरसे  नेह  को, कब आएँगे    पीव।।


                  एक में सब

महुआ  फगुनाहट  भरे,गमके गाल  गुलाल।

अंगूरी  तन  मोहती, पिचकारी   दे    ताल।।


शुभमस्तु !


28.02.2024 ●8.00आ०मा०

                    ●●●

सरसों फूली [ गीत ]

 76/2024

    ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सरसों फूली

खेत - खेत में

चहुँ दिशि छाया मोद।


फ़ागुन आया

ऋतु माधव की

मची हुई है धूम।

तितली भँवरे

कली - कली को

रहे डाल पर चूम।।


खेल रहे हैं

पाटल पर जा

अलि-शावक नित गोद।


कोयल कूके

अमराई में 

कुहू-कुहू की टेर।

बौराई है 

डाली -डाली 

कीटों ने ली घेर।।


सेमल टेसू

खिले नाचते

कीर रहे फल खोद।


होली के रँग

की तैयारी

सजा रही नव साज।

धर ललाट पर

माधव आया

रंग  - बिरंगा ताज।।


कामदेव की

सेना उमड़ी

सिमट रहा है ओद।


शुभमस्तु!


27.02.2024●7.30 आ०मा०

                     ●●●

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

गोबराहारी गुबरैला जी ● [ व्यंग्य ]

 075/2014 


  

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 'गोबर' एक सार्वभौमिक और सार्वजनीन संज्ञा शब्द है।साहित्य के मैदान में इसने भी बड़े -बड़े झंडे गाड़े हैं।हिंदी साहित्य के कुछ ख्यातिलब्ध मुहावरे इसकी संपत्ति हैं।जैसे: गुड़ गोबर होना, दिमाग में गोबर भरा हुआ होना,गोबर गणेश आदि आदि।इन मुहावरों ने गोबर को अमरता की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। यदि इस ख्यातिलब्ध गोबर से कोई वस्तु या जीव की उत्पत्ति होगी ,तो उसमें भी गोबर की गोबरता अवश्य ही पाई जाएगी।इस गोबर को एक ही स्थान पर पड़ा रहने पर एक जंतु विशेष की उत्पत्ति हो जाती है ;जिसका नाम है 'गुबरैला'।

  'गुबरैला' की प्रकृति और वंशावली के आधार पर वह अपने पिता गोबर और माता गोबरा के गुण और डी. एन.ए.के मिलान के बाद यह सिद्ध किया गया है कि वह योग्य दंपत्ति की सुयोग्य संतति है।और तो और उसका सूतक गृह और निवास स्थान भी गोबर ही है।वह जहाँ जन्म लेता है ,वहीं पर अपना सारा जीवन बिता देता है।वह अपनी मातृभूमि गोबर का सच्चा सपूत जो है। इस रचनाकार ने उसके गुण धर्म के आधार पर उसके विभिन्न नामकरण भी किए हैं। जिन्हें इस प्रकार गिनाया जा सकता है : गोबरज,गोबरजा,गोबरसुत,गोबरसुता, बरजात,गोबरसन्तति, गोबरवासी, गोबरवंशी, गोबराहारी, गोबरांश,गोबरनिर्भर,गोबरदेव,गोबराशीष आदि।

    इस गोबरवासी का सर्वप्रिय और सर्व प्रचलित नाम 'गुबरैला' ही है। जो सर्वत्र मान्यता प्राप्त है।इसकी प्रकृति और गुणों के आधार पर अनेक मुहावरों और कहावतों का भी जन्म हुआ ,जिनकी चर्चा पहले ही की जा चुकी है। 'गुबरैला ' जी से प्रेरित और मान्यताप्राप्त कुछ मनुष्यों ने भी यही संस्कार सहज स्वीकार करते हुए 'गुबरैला वृत्ति' को धारण किया है।गुबरैला की आदि और इति मंजिल गोबर पिंड तक ही सीमित है। उसका यह एकनिष्ठ स्वभाव कुछ लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।जब कभी मन हुआ तो बाहर आकर गोबर पिंड पर भी भ्रमण कर लिया और पुनः स्व निर्मित गोबर गुहा में रम लिए।एक विरक्त सन्यासी स्वभाव को धारण किए हुए गोबर पिंड ही काशी ,वहीं प्रयागराज, वहीं हरिद्वार, वही द्वारिका,वहीं आठों धाम विराजमान हैं।जब सब कुछ वहीं है ,तो कहीं अन्यत्र क्यों जाया जाए ? हमारी भारतीय संस्कृति में वैसे भी माता पिता से बढ़कर कुछ नहीं है। जैसे भगवान गणेश ने अपने माता पिता की परिक्रमा पूर्ण कर सम्पूर्ण धरती की परिक्रमा कर ली और उसे पूर्ण मान्यता भी प्रदान की गई तो हमारे प्रिय गुबरैला जी को ही क्या पड़ी जो इधर - उधर की धूल फांकता फिरे? मन चंगा तो कठौती में गंगा की कहावत को यदि सच्चे अर्थ में किसी ने मान्य किया तो इस गोबर गणेश ,गोबर गणेश नहीं,गोबरसुत गुबरैला ने ही। वैसे यदि हम विचार करें तो यह गुबरैला जी भी किसी गोबर गणेश से कम महत्त्व नहीं रखते।

       जब गुबरैला जैसे जानदार जीव की जीवंतता की चर्चा आम हो रही है तो हमारा यह कर्तव्य भी बनता है कि उसकी जन्मदात्री ,जन्मदाता और जन्मभूमि की चर्चा भी लगे हाथ क्यों न कर ली जाए ?गाय तथा भैंस बैल हाथी आदि पशुओं के गोबर का विशेष महत्व है। जिस काम के लिए मानव विसर्जित पदार्थ काम नहीं लाया जाता ,उस काम के लिए इस गुबरैला के जन्म धाम को प्रयोग किया जाता है। वह भी बड़े ही आदर और पवित्र भाव के साथ ग्रहण किया जाता है।अशुद्ध घर ऑंगन और दीवारों की लिपाई पुताई करके उन्हें पवित्र करना हो तो गुबरैला के जन्म धाम गोबर की ही याद आती है।सुना तो यह भी गया है कि पहले के लोग किसी व्यक्ति के अपवित्र हो जाने पर उसे गुबरैला के जन्म धाम गोबर को खिला कर शुद्ध कर लेते थे।जब गुबरैला का जन्म धाम इतना महत्वपूर्ण और पावनकारी है,तो बेचारे गुबरैला ने ही क्या बिगाड़ा है जो उसे हेयता की दृष्टि से देखा जाये। वह भी एक विशेष सम्मान का अधिकारी है। 

    माना कि गुबरैला अपने स्वकेन्द्रित भाव और प्रकृति के कारण किसी से कुछ कहता नहीं है,तो भला उसके प्रति हेयता का भाव क्यों रखा जाए ? उसे भी एक सन्यासीवत सम्मान दिया जाना चाहिए। वह किसी से कुछ माँगता भी नहीं है। किसी के विरुद्ध अपने बल का प्रयोग भी नहीं करता ,तो उसे निर्बल क्यों समझा जाए? वह अपने समाज और घर-परिवार में ही मस्त तथा व्यस्त रहता है ,तो बुरा क्या है? उससे किसी की कोई हानि भी नहीं होती। वह आत्म केंद्रित है ,तो यह उसकी प्रकृति प्रदत्त शक्ति ही है।वह भी मानव की तरह चौरासी लाख योनियों में से एक योनि का भोग कर रहा है।जब उसका समय पूर्ण होगा तो वह भी अपने नए रूप में जन्म लेकर तदवत विचरेगा।अभी उसे अपनी गोबर -गुहा तक ही सीमित रहने दीजिए। इसी में उसका कल्याण है।वह कर्म नहीं कर सकता ,भोग तो सकता है। वह उन नर देहधारियों से बेहतर है ,जो मनुष्य देह धारण करते हुए भी गुबरैला से बदतर जीवन जी रहे हैं। 

 ●शुभमस्तु! 

 24.02.2024●12.30प.मा.

 ●●●

अनमोल [कुंडलिया]

 074/2024

               

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                          -1-

मानव    जीवन    का   नहीं,मनुज जानते    मोल।

योनि    बड़ी    अनमोल    है,जीना इसको   तोल।।

जीना    इसको    तोल,  कर्म  जो जैसा     करता।

मिलती   वैसी   योनि,  उसी   में जीव    विचरता।।

'शुभम्'  करें  उपकार, बना मत तन मन    दानव।

नर   तन    है   उपहार, बने  ही रहना     मानव।।


                         -2-

अपना   चरित   सुधारना, हर मानव का   काम।

कोरा  कागज  अनलिखा,  काम लिखे या  राम।।

काम   लिखे    या  राम, आचरण  ऐसा   करना।

हो  जीवन  अनमोल, उदर निज श्रम   से भरना।।

'शुभम्'   स्वर्ण  आगार,  इसी  में देखे     सपना।

करता    हिंसाचार,  बिगड़ता  जीवन    अपना।।


                         -3-

कर्ता   ने    इस   सृष्टि   में,  दिया  कर्म  अनुरूप।

कोई    भिक्षु    फकीर   है, अन्य  बना   है   भूप।।

अन्य   बना   है    भूप,   प्राप्त अनमोल खजाना।

सब  सुख  हैं  उपलब्ध, साज सज्जा भी   नाना।।

'शुभम्'  कर्म  फल देख,बने मत धन जन   हर्ता।

यही   ईश - संदेश,    बने    मानव  शुभ    कर्ता।।


                           -4-

मानव - तन   के    अंग  सब,  होते हैं  अनमोल।

दस   इन्द्रिय  मन एक है, सबकी अलग हिलोल।।

सबकी  अलग  हिलोल,विविध अंगों  की  काया।

करे  न  मनुज  कुबोल,  सुदृढ़  है उनका  साया।।

'शुभम्' सभी  का  साथ, नहीं कर उनसे  लाघव।

बने    तभी     सम्पूर्ण,  सदा  उपयोगी   मानव।।


                         -5-

माता        भारत   भारती,   है अनमोल   महान।

अन्न   दूध  फल   दे  रही,  ताप   धरा   जलपान।।

ताप   धरा  जल  पान,   पाँच तत्त्वों की    धरती।

वायु  गगन  के साथ,  सदा सबका हित   करती।।

'शुभम्'    जानकर   मोल,इसे जो नर   अपनाता।

निशि दिन उसको प्राप्त, सदा शुभ भारत माता।।


●शुभमस्तु !


23.02.2024●8.00आ०मा०

                   ●●●

गोबराहारी [अतुकांतिका]

 073/2024

            

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


वहीं जन्म 

वही आहार

कैसा है यह चमत्कार !

पहेली नहीं यह

 मात्र शुद्ध गोबराहार।


उसी ने जन्माया

उसी को खाया

उसी में वास

उसी का साया,

समझा कोई पहेली?

बताओ तो जरा भाया।


गोबराहारी

गोबरवासी 

गोबर ही पिता

गोबर ही माँ जी,

सारे जगत से संन्यासी

बड़ी ही उदासी

कहते सब गुबरैला जी !

गुबरैला जी!!


अपने में मस्त

सीमित विन्यस्त

चुस्त - दुरुस्त

एक ही गंध

उसको लगती सुगंध

भाए नहीं कलाकंद,

कोई नहीं द्वंद्व।


'शुभम्' ऐसे भी 

कुछ यहाँ मानव,

पसंद नहीं है

जग का रव,

विचित्र है उनका ढब,

सोच है बड़ी अभिनव,

गुबरैला बने जीते हैं,

जहाँ से जन्मते हैं

उसे ही खाते - पीते हैं।


●शुभमस्तु !


22.02.2024 ●7.30प.मा.

                   ●●●

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

गुबरैला [बाल गीतिका[

 072/2024

              

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गोबरवासी       है     गुबरैला।

बनना  नहीं    हमें   गुबरैला।।


भाती   जिसे  गंध   गोबर  की,

कहलाता   है    वह    गुबरैला।


कलाकंद    रबड़ी   न   सुहाती,

बतलाता      सबको    गुबरैला।


छोटी -  सी   दुनिया  है उसकी,

छोड़   कहाँ      जाए   गुबरैला !


मतलब नहीं   किसी  से उसको,

स्वयं  लीन  है   नित    गुबरैला ।


क्षण  भर को  वह  बाहर  झाँके,

गोबर    में      जाता     गुबरैला।


गोबर   घर   गोबर    ही   खाना,

रंगमहल       कहता     गुबरैला।


'शुभम्'  बहुत मानव   भी   ऐसे,

कहते   हम   जिनको    गुबरैला।


●शुभमस्तु !


22.02.2024● 10.15आ०मा०

वासंती मधुमास ● [ दोहा ]

 071/2024

        

[बसंत,बहार,प्रत्याशा,प्रेम,मधुमास]


© शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

कुहू-कुहू    कोकिल   करे, बगरे बाग  बसंत।

सरसों फूली खेत  में,क्षितिज छोर पर  अंत।।

आते    देख बसंत को,  करें  विटप पतझार।

नवल  वसन  धारण  करें, लता  पेड़ रतनार।।


कली-कली  हँसने  लगी,सुमन  सजे  कचनार।

हरियाने   सूखे     विटप,   आती    देख  बहार।।

सुमन  न  खिलते बाग में,सदा न सजे    बहार।

थिर न  रहे  यौवन कभी,थिर न सिंधु  में ज्वार।।


प्रत्याशा  में   जी  रही, कब आवें प्रिय   कांत।

विरहिन  फगुनाई  हुई, उर  है विकल  अशांत।।

प्रत्याशा  की    डोर    में,   बँधे प्रिया  के    नैन।

प्रीतम    देंगे     लौटकर ,  उर  को  मेरे   चैन।।


कोकिल और  बसंत  का,अद्भुत अविचल प्रेम।

गाती   स्वागत   में   सदा, बरसाते तरु   हेम।।

प्रेम   बिना  जीवन   नहीं,अमर  रहे  विश्वास।

मानवता  के  पेड़  पर,मृदुल सुमन का   हास।।


मृदुल  षोडशी   देह  में, यौवन   का मधुमास।

करता  नित  अठखेलियाँ,पावन पूर्ण उजास।।

कामदेव  ने  हाथ  में, लिया  धनुष निज   तान।

फ़ागुन में मधुमास ये ,  भरता सुमन निधान।।

                    एक में सब

प्रत्याशा   में    प्रेम  की,जीती लेकर आस।

विरहिन  देख बहार को,है बसंत  मधुमास।।


●शुभमस्तु !


21.02.2024●10.15आ०मा०

ऋतु माधव की सरसाइ रही● [ सुखी सवैया ]

 070/2024


छंद विधान:

1. सगण ×8 + लघु लघु

   112 ×8  + 1 1   = 26 वर्ण

2. 12 ,14 पर यति।


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                        -1-

वन  बागनु  फूलि रही सरसों,

                           भँवरा मँडराइ रहे वसुधा पर।

तरु कोकिल कूकि मचाइ रही,

                       बहु शोर कुहू करती अमुआ पर।।

अजहूँ पिय लौटि न आइ सके,

                   बिरमाइ  गए  कित जाइ तिया घर।

कत   धीर धरूँ नहिं चैन परै,

                     इत ब्यारि बहे कंपतौ हिय पातर।।


                       -2-

ऋतुराज चले नव साज सजे,

                  वन - बागनु पेड़ लता  हरषावत।

पतझार  भयौ नित रूप नयौ,

              कलिका नव फूलि रही मनभावत।।

अमुआ निबुआ  तरु फूलि रहे,

                       नव बौर लदे भँवरा मँडरावत।

मधुमाखिहु  चूसि  रही  रस कूँ,

              सरसों अति झूमि रही सुख पावत।।


                         -3-

वन-बागनु  नाचत  मोर  करें, 

                मन मोद भयौ निज तीय रिझावत।

गरजें   घन   अंबर   बीच घने,

                 विरही मन में तिय को तरसावत।।

पिय  बाट  निहारि  रही  सजनी,

                 हिय में सुधि बारहिं बार करावत।

तटिनी अति तेजहि तेज बहै,

                 नित सागर में करि मेल समावत।।


                           -4-

ऋतु  माधव  की  सरसाइ  रही,

                    सब जीव सकाम भए सचराचर।

नव कोंपल  फूटि  रही  तरु की,

                   ललछोंहि हरी भरि रूप उजागर।।

कटु नीम,बबूल, करील हरे,

                     वट,पीपल,आम भरे रस गागर।

निज पीव बिना तरुणी न रहै,

                 लखि राधिका श्याम भए नटनागर।।


                        -5-

शुभ फागुन मास बयार बहै,

                 सतरात बड़ौ तिय काम सतावत।

नित तीर   बनी हिय फ़ारि रही,

                पिय दूरि बसौ तनि' पास न आवत।

लतिका लिपटी तरु को कसि कें,

                 मम प्रीतम को बतियाँ समझावत।

भँवरा  रस   चूसि   रहे सजनी,

                 तितली नित झूमि सुगीत सुनावत।।


●शुभमस्तु !


20.02.2024 ●10.45आ०मा०

                        ●●●

विरहिन दुखी अपार ● [ गीत ]

 69/2024

     

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


घिर - घिर आई

साँझ अँधेरी

विरहिन दुखी अपार।


मुख मलीन अति

आँखें पथ में

देखें   बाट   निहार।

कब आओगे

प्रीतम प्यारे

करती हृदय विचार।।


झीने की सीढ़ी

पर बैठी

उमड़ रहा उर प्यार।


कुहू - कुहू कर

कोकिल बोले

उठे   हिया  में  पीर।

और न कोई

घर में मेरे

बँधा सके  जो  धीर।।


दिवस न चैन

नींद नहिं रजनी

जीवन  मेरा  भार।


फूल - फूल पर

भँवरे झूमे

रस पीते चहुँ ओर।

मम रसलोभी

अजहुँ न आए

मन में उठे हिलोर।।


'शुभम्' बताओ

कब लौटेंगे

घर  मेरे  भरतार।


● शुभमस्तु !


20.02.2024●8.45आ०मा०

प्रिय ऋतुराज आ रहा ● [ गीतिका ]

 068/2024

      

 समांत : अर

पदांत  : अपदांत

मात्रभार : 16.

मात्रा पतन : शून्य।


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हवा  बह   रही    शुभद   सुभगतर।

गूँज  उठा  विटपों     में    मर -मर।।


पड़ती     है       पदचाप      सुनाई,

प्रिय  ऋतुराज  आ   रहा   घर -घर।


खेत   बाग   वन   सुमन  खिले बहु,

झूम  रहे    तितली   दल    मधुकर।


पीपल    निम्ब      शिंशुपा    झरते,

अवनी  पर   होता    नित   पतझर।


अमराई     में       कूके    कोकिल,

जपते  भक्त    शिवालय  हर -  हर।


सुमन     सुनिर्मित    कामदेव   का,

धनुष  तना   है   चलता   सर - सर।


'शुभम्'  हँस   रहा     बूढ़ा    पीपल,

लाल  अधर   स्मितियाँ     भर - भर।


●शुभमस्तु !


19.02.2024● 7.00 आ०मा०

ऋतुराज आ रहा ● [ सजल ]

 067/2024

            

 समांत : अर

पदांत  : अपदांत

मात्रभार : 16.

मात्रा पतन : शून्य।


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हवा  बह   रही    शुभद   सुभगतर।

गूँज  उठा  विटपों     में    मर -मर।।


पड़ती     है       पदचाप      सुनाई,

प्रिय  ऋतुराज  आ   रहा   घर -घर।


खेत   बाग   वन   सुमन  खिले बहु,

झूम  रहे    तितली   दल    मधुकर।


पीपल    निम्ब      शिंशुपा    झरते,

अवनी  पर   होता    नित   पतझर।


अमराई     में       कूके    कोकिल,

जपते  भक्त    शिवालय  हर -  हर।


सुमन     सुनिर्मित    कामदेव   का,

धनुष  तना   है   चलता   सर - सर।


'शुभम्'  हँस   रहा     बूढ़ा    पीपल,

लाल  अधर   स्मितियाँ     भर - भर।


●शुभमस्तु !


19.02.2024● 7.00 आ०मा०

शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

बाल की खाल ● [ व्यंग्य ]

 066/2024 

  

© व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 आजकल 'बाल-साहित्य' की विशेष चर्चा रंग बिखेर रही है।जहाँ जाएँ वहाँ बाल ही बाल बिखरे पड़े हैं।हम भी आज उसी बाल चर्चा के लिए निकल पड़े हैं।बाल-रोग विशेषज्ञ के बोर्ड और फ्लैक्स गली-गली, सड़क-सड़क,शहर-शहर,वाल-दीवाल पर लगे पड़े हैं।कवि लोग बाल गीत,बाल कविता, बाल गीतिका,बालकथा,बाल लघुकथा, बाल चित्रमाला सजाने में तल्लीन हैं।वे बड़े - बड़े बाल साहित्यकार बने हुए माला और शॉल से सम्मानित होकर गौरवान्वित हो रहे हैं।

  बाल की चर्चा का श्रीगणेश हुआ है तो असली बाल को कैसे भुला जा सकता है।जिस बाल चर्चा में रीति काल से लेकर आधुनिक काल तक कवियों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। नायिका के घने बालों से भ्रमित होकर जुगनू धमाचौकड़ी मचाते हैं तो राधा के श्याम घनश्याम ही हो जाते हैं। भौंरे भ्रमित हुए तो गोरी के कपोलों पर छाए घने बाल समूह पर ही मँडराने लगे।सिनेमाई नायक तो नायिका के बालों के इतने मतवाले हैं कि उन्हें घटाएँ समझ कर दिन में ही रात की कल्पना से मदहोश हो जाते हैं।किसी के घुँघराले हैं तो किसी के सर्पीले।किसी के उलझे हैं तो किसी के जूड़ाबद्ध।आजकल के नाइयों की दुकान पर जाकर देखो तो सिर पर केकड़े ,कछुए,मानवीय चेहरे,शेर,बिल्ली,कुत्ता,घोड़ा,गधा, और न जाने क्या -क्या उकेर देने लगे हैं। यह भी विचित्र बाल कलाकारी है जो नीचे से ऊपर तक देखी भी जाती है और यदि न देख पाओ तो समझी भी जाती है।कुछ चीजें केवल कल्पनागत हैं,उन्हें ज्यादा उघाड़कर देखना भी शिष्टाचार की सीमा का खुला उल्लंघन है। वह आचार संहिता के विरुद्ध होगा,इसलिए यहाँ बाल की खाल और ज्यादा न निकाली जाए तो ही श्रेयस्कर होगा। 

  वैसे सामान्यतः यह मानव देह भी किसी बाल भवन क्यों बाल किले से कम नहीं है।नख से शिख तक बाल- बोलबाला है।सबका अपना-अपना काम बड़ा निराला है।ज्यादा दूर क्यों और कहाँ जाएँ ये अकेला चेहरा ही बाल - गढ़ है,बाल - दुर्ग है।कहीं से भी शुरू करें ;बाल ही बाल।आँख ने अपनी सजावट और सुरक्षा के लिए अभेद्य दो - दो बाल दीवार खड़ी कर रखी हैं। जिन्हें एक विशेष नाम - 'भौंह' से जाना और समझा जाता है।महिलाओं के द्वारा इनका बड़ी होशयारी से बनाव -सजाव किया जाता है।एक -एक बाल को चिमटी रूपी तलवार से तराशा जाता है। भौंह के बाल अपने स्थान पर सजे हुए स्थिर अवस्था में नेत्र -शोभा का एक प्राकृतिक उपकरण बनकर उभरते हैं। यह अलग बात है कि वृद्धावस्था में ये भी अपना रंग बदलते हैं। आँखों के पलक रूपी मजबूत कपाटों पर तने हुए बाल भी नेत्र रक्षक का कार्य करते हैं।जिन्हें 'बरौनी' कहते हैं। जो रात-दिन नीचे ऊपर झपकते रहते हैं।आँखों के नीचे की विशेष संरचना नाक कहलाती है। किंतु ये भी नहीं बाल झुंड से खाली है।ये तो इंसान के लिए जीवन की दुनाली प्रणाली है। इसके सुरक्षात्मक बाल श्वास में अवरोधक अवांछित का तिरस्कार बहिष्कार करते हुए ऑक्सीजन का परिष्कार करते हैं। 'नाक के बाल होना ' एक प्यारा - सा मुहावरा इन्हीं के लिए बना है। नाक से किंचित नीचे उतरे तो मूँछ और इधर उधर नीचे ऊपर दाढ़ी की ड्यौढ़ी ही सजी हुई है। नारियां यहाँ बाल - वैभव- वंचिता हैं।इस बाल -विज्ञान में पुरुषों का पौरुष संग्रहीत है।

  चेहरे से अगल- बगल या नीचे और निम्नतर झाँकें तो बाल - सरिताएँ ही नहीं, बाल-सागर है। इनके अधिक विस्तार में क्यों जाएँ ,यह सर्व विदित है ,सर्व उजागर है।कुदरत ने आदमी को ,विशेष रूप से पुरुष को बालागार ही बना डाला है। नारियों पर सौंदर्य बरसाया है ,सारा बाल - बदला हम पुरुषों से निकाल डाला है। एक के देह में नाली और नाला तो दूसरी ओर चुनी गई माला। क्या करें बाल - हमला झेल रहे हैं।मंगल,गुरु और शनिवार को छोड़ उन्हें चेहरे से उसेल रहे हैं।

  लगता है जाने क्या सोचकर बनाने वाला पगतल ,करतल और नखतलों पर बाल उगाना भूल गया।नहीं तो भालू और इंसान में भी भेद करना कठिन हो जाता। वास्तव में बाल की खाल कितनी भी निकाली जाए ,परंतु पूरी तरह नहीं निकाली जा सकेगी।बाल विज्ञान, बाल साहित्य, बाल व्यंग्य, बाल ज्ञान,बाल चिकित्सा, बाल कमाल का जो जग विख्यात धमाल है ,वह पूरी तरह एक सवाल है।बुद्धि की अणुवीक्षण सूक्ष्मता विशद शोध का विषय है। न आकाश के तारे गिने जा सकते हैं और न मानव देह के बाल। अब एक तरह के बाल हों तो उनकी खाल का विश्लेषण भी किया जाए। साहित्यिक बाल देखें या चिकित्सकीय बाल अथवा दैहिक बाल।सबका अपना ही है विचित्र संसार।कुछ भी हो ये बाल हैं प्रकति का अनुपम उपहार।इनमें चाहे सुगंधित तेल डालें या भेजें विद्यालय के द्वार।कविता गीत लिखें या करें बालकथा से उपसंहार।अस्वस्थ हो जाने पर ले जाएँ बाल -चिकित्सक के अस्पताल। यहाँ- वहाँ, जहाँ-तहाँ बिखरे हैं , निखरे हैं छोटे- बड़े बाल।दैहिक बालागार ने कर दिया निहाल। ●शुभमस्तु ! 

 17.02.2024●11.00आ०मा०

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सुधार ● [ कुंडलिया]

 065/2024

               


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                        -1-

नेता   निकला   देश   का,  करने  पूर्ण   सुधार।

अपना   ही   करता  सदा, बनकर बड़ा  उदार।।

बनकर   बड़ा    उदार,   झूठ आश्वासन    देता।

टपके   परधन  लार, तिजोरी   निज भर   लेता।।

'शुभम्'  जलेबी   जीभ,  रात - दिन अंडे    सेता।

अपना ही  कल्याण,  किया  करता जन  नेता।।     


                           - 2-

करना  ही  सब  चाहते, अविकल  आत्म  सुधार।

किंतु   न  होना  उचित  है, बनें  अन्य  पर  भार।।

बनें  अन्य   पर   भार, खड़े  हों निज पैरों    पर।

शोषण  का   कर  त्याग, न  माँगें जा गैरों   घर।।

'शुभम्' शुद्ध  सुविचार,  हृदय  में अपने  रखना।

होगा   परम   सुधार,  हीनता   कभी न   करना।।


                           -3-

मानव-तन  तुझको  मिला, तज चौरासी   लाख।

यौनि-यौनि भ्रमता  फिरा,बना मनुज-तन  साख।।

बना  मनुज - तन   साख,कर्म आधारित   रचना।

कर   ले    कर्म - सुधार,  कर्म से एक न   बचना।।

'शुभम्'  कीट कृमि रूप,ढोर खग पादप   दानव।

तुझे  नहीं    हैं  याद,मिला अब जीवन    मानव।।


                           -4-

सीमा  नहीं  सुधार    की, लगे   रहें दिन - रात।

यह जीवन भी कम पड़े,यौनि-यौनि  भ्रमि तात।।

यौनि-यौनि भ्रमि तात,यौनि बहु जीव   भोगता।

कर्म-यौनि नर  गात,मनुज तू क्यों न   सोचता??

'शुभम्'     करे   सत्कर्म,  कर्म ही तेरा    बीमा।

होगा     तभी   सुधार, अनन्तिम आई    सीमा।।


                             -5-

भज   ले  रे  नर  ईश को, करले  यौनि-सुधार।

होना  पड़े  न कीट कृमि,पशु खग यौनि अपार।।

पशु    खग  यौनि  अपार, चराचर में तू   भटके।

डूबे    तू   मँझधार,   शिला   से जाकर   अटके।।

'शुभम्'  ईश  का ध्यान, सदा ही मन से  जप ले।

आना   पड़े   न लौट, मनुज तू ईश्वर भज    ले।।

●शुभमस्तु !

 16.02.2024●9.45 आ०मा०

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गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

अंधविश्वासों के गलियारे से● [ व्यंग्य ]

 064/2024 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 एक बहुत ही प्रचलित और सामाजिक शब्द है :'अंधविश्वास'।इस शब्द की गहराई से जाँच पड़ताल करते हुए यदि परिभाषित करने का प्रयास किया जाए तो उसे भी महान बनाया जा सकता है।यदि आपने कभी ऐसा प्रयास किया हो या किए हुए प्रयास पर अपना दावा ठोका हो तो आप निसंकोच बता सकते हैं।आप कहें न कहें ,मुझे तो कहना ही है। तो पहले मेरा विचार भी जान लीजिए।उसके बाद आप यह भी कह सकते हैं कि मैं भी यही कहने वाला था। यदि आप मुझे पहले कहने का सु अवसर प्रदान करते तो मैं भी यही कहता जो आप कह रहे हैं।

 'अंधविश्वास' के सम्बंध में मेरा यही एक विचार है कि अंधविश्वास अर्थात अंधों में फैला हुआ ऐसा विश्वास ;जिस पर बिना ही सोचे समझे मान लिया जाए। केवल मान ही न लिया जाए ,वरन सत्य मान लिया जाए।आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी बात को बिना सोचे - समझे मानने वाले को अंधा कैसे कहा जा सकता है?यदि हमारा कोई विश्वसनीय व्यक्ति कोई बात रखता है ,तो माननी पड़ती है।मेरा मत यह है कि अंधे की तरह मान लेना ही अंधे हो जाने जैसा है।वह व्यक्ति अपने चर्म चक्षुओं से भले ही अंधा न हो ,किंतु यदि उसके पास विवेक की आँख देख नहीं रही हो तो अंधा या अंधवत ही कहा जायेगा।

  आज के युग में अंधविश्वास फैलाने के लिए वोट बैंक की जरूरत होती है। यदि विश्वास के संबंध में वोट बैंक मजबूत है,तो पत्थर भी दूध पीने लगते हैं।यदि कोई इसका विरोध करता है तो उसे पल भर में धर्म विरोधी करार दिया जाता है।कौन सही गलत के पचड़े में पड़े , इसलिए उस झूठ को ज्यों का त्यों मान लेने में ही खैरियत है।इसलिए आम आदमी- समाज में अंध विश्वासियों का अनुपात कुछ ज्यादा ही होता है। 

  आज अन्ध विश्वासों के क्षेत्रों का विस्तार हो रहा है। क्या समाज और क्या धर्म,क्या निरक्षर और क्या साक्षर ,क्या सियासत और क्या कूटनीति आदि सर्वत्र अंधविश्वासों का बोलबाला है।अफ़वाह फैलाने वाले वोटर इस क्षेत्र में अच्छे काम आते हैं। वे मिथ्या बात को बहुत सारा नमक मिर्च लगाकर स्वादिष्ट भी बनाते हैं।यही कारण है कि धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों में वे पाले भी जाते हैं,जिनका काम केवल अंध विश्वास फैलाना होता है।किसको फुर्सत है कि दूध का दूध और पानी का पानी अलग-अलग होने का इंतज़ार करे! बस सुना और मान लिया। हलवाई की दूकान पर जाकर कोई भी असली और नकली खोए,पनीर, देशी घी या रिफाइंड की पहचान नहीं करता।खरीदा और खाया।इससे आगे वह सोच नहीं पाया।अंधविश्वास की जड़ बहुत गहरे में होती है।दमदार अफवाहें उसे और शक्ति प्रदान करती हैं।आज के युग में तो सोशल मीडिया यह काम बड़ी ही सहजता से कर रहा है कि अंधविश्वास सिर चढ़कर बोल रहे हैं और अपना वोट बैंक विस्तार करते हुए समाज को पतनोन्मुख करते चले जा रहे हैं। 

   जिस क्षेत्र में अंधविश्वासों का बोलबाला है,वही तो स्वार्थी लोगों का निवाला है।अपने को किसी संभावित संकट से बचाने के लिए भी अंधविश्वास बड़े काम की चीज है।एक बार एक अफ़वाह फैलाई गई थी कि घर के दरवाजे पर उलटा सातिया (स्वस्तिक चिह्न) लगाएँ ,तो घर पर कोई संकट आने से वह बचा रहेगा।तो गाँव - नगरों की महिलाएँ अपने घर के दरवाजों पर उलटे सातीये लगाने लगीं। कभी भानजे को जलेबी खिलाई जाती है तो कभी दोपहर के बाद सत्तू खाने से मामा रास्ता भटक जाता है।कभी पत्थर की मूर्तियाँ बोलने लगती हैं ,तो कभी उनकी आँखों की पुतलियाँ जीवित मानव की तरह कार्य करने लगती हैं। देश और जन समाज में फैले हुए हजारों ऐसे अंधविश्वास गहराई से जड़ जमाए हुए उसे वैज्ञानिकता की कसौटी से विमुखता प्रदान कर रहे हैं।एक ओर हम चाँद पर मानवीय पदचिह्न बना रहे हैं ,तो ये अंधविश्वास भी उसे उतने ही नीचे रसातल की ओर धकेलते चले जा रहे हैं। 

 ●शुभमस्तु ! 

 15.02.2024●5.45प०मा०

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होता हुआ पलायन● [नवगीत ]

 63/ 2024

 

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आस्थाओं से

धर्म का 

होता हुआ पलायन।


वैशाखियों पर झूमती

आज की सियासत।

इतिहास में लिखी जाती

रक्त की इबारत।।


वर्ण भेद फैलाती

नटी बनी डाहिन।


मैं ही युग निर्माता

मेरा ही इतिहास सब।

पहले जहाँ शून्य रहा

भरा है  वह मैंने अब।।


स्तुति करो मेरी ही

मेरा ही शुभ गायन।


मेरे जैसा ज्ञानी जन

एक  नहीं  धरती पर।

मुझको ही जपते सब

भारत में अब घर -घर।।


'शुभम्' ईश अवतारी

नर दल में मैं लायन।


●शुभमस्तु !


15.02.2024●2.30 प०मा०

ज्ञान ● [ सोरठा ]

 62/2024

                    

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बंदर   जैसे   स्वाद, अदरक  का  जाने  नहीं।

ज्ञान न   उसको  नाद , जो  बहरा है कान से।।

रखे   घूमता  नित्य, ज्ञान - पोटली शीश  पर ।

क्या  किंचित  औचित्य, सदुपयोग जाने  नहीं।।


रखें   हृदय  में   धीर,  ज्ञान-पंथ  दुर्लभ   बड़ा।

चल  पाते    बस  वीर, दोधारी  तलवार     ये।।

धारण     करें   सुपात्र,  ज्ञान सिंहनी-दुग्ध    है।

ग्रहण    करेगा    मात्र, सोने  से निर्मित   वही।।


नारिकेल  फल   एक,बंदर  लुढ़काता    फिरे।

मानस  शेष  विवेक, ज्ञान नहीं उसको 'शुभम्'।।

नहीं  ज्ञान - आधार,  तन  पर धारित  वस्त्र का।

करके  देख   विचार,ज्ञान जीव का तत्त्व  है।।


करते   नहीं   बखान,  ज्ञानी अंतर-ज्ञान   का ।

ज्ञानी  की  पहचान,  समय पड़े तो काम   ले।।

नहीं   ज्ञान - पहचान, गाल बजाने से   कभी।

कभी न बढ़ता मान,ध्वनि -विस्तारक  यंत्र का।।


लेशमात्र  भी  ज्ञान,  भोंपू   में  अपना   नहीं।

उसका  करता   दान, वक्ता  जो  भी बोलता।।

दें उसको गुरु ज्ञान, प्रथम शिष्य पहचान  कर।

मिटता ज्ञान -निधान, मिलता अगर कुपात्र को।।


दें   विद्या का दान, संतति  की रुचि जानकर।

अनचाहा  नव  ज्ञान, बल से कभी न दीजिए।।


●शुभमस्तु !


15.02.024●9.00आ०मा०

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

ढपोरशंख ● [ व्यंग्य ]

 61/2024 

 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 ढपोरशंख की खोज बहुत पहले हो गई थी। इसलिए आज उसके इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं है।इतना अवश्य है कि तब के और अब के ढपोरशंखों में यदि कुछ असमानताएं हैं तो कुछ समानताएँ भी हैं।समानताएँ हैं,तभी तो वे आज भी ढपोरशंख बने हुए हैं ; अन्यथा वे भी अपना नाम बदलकर कुछ और हो गए होते।जैसे बहुत सारे अपने नाम बदलकर कुछ के कुछ हो गए। 

 यदि ढपोरशंख की देह संरचना की दृष्टि से चर्चा करें तो आदि कालीन ढपोरशंख कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित और अत्यंत कठोर होते थे।प्रथम आदि ढपोरशंख देना भी जानता था।किंतु उसकी आगामी पीढ़ी के ढपोरशंखों ने अपने नामों को सही अर्थों में सार्थक कर दिया।कहना यह चाहिए कि उसी के वंशज आज तक अपनी वंशावली बढ़ाते चले आ रहे हैं। आज वे कैल्शियम कार्बोनेट के बने हुए नहीं हैं। आज उनका सृजन हाड़ माँस रक्त मज्जा और त्वचा आदि से हो रहा है।

 अब यदि आप किसी आधुनिक ढपोरशंख का नाम और परिचय पूछना चाहें तो कृपया आप मुझे क्षमा करेंगे क्योंकि आज के युग में कोई एक ढपोरशंख हो तो डरते -डरते ही सही उसका नामोल्लेख भी करूँ ; किंतु इस धरती पर तो कदम -कदम पर ढपोरशंख मिल जाएँगे।वैसे एक व्यंग्यकार किसी भी ढपोरशंख से डरता नहीं है।तो मैं भला क्यों डरने लगा। कुल मामला ये है कि जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है ,जहाँ ढपोरशंख न हों।जैसे पुराने वाला ढपोरशंख केवल बोलता था ,किंतु जो बोलता था कि इतना दे दूँगा। वचन देने के बाद वह कभी भी अपना वचन पूरा नहीं करता था।केवल बड़े- बड़े वादे करना ही उसका काम था,देना तो सीखा ही नहीं। इतने से संकेत से यदि आप समझ सकें तो समझ लें, वरना मुझे फिर यही कहना पड़ेगा कि " ना समझे वह अनाड़ी है।" 

 ढपोरशंखों के क्षेत्र की बात की जाए तो इसके लिए कोई विशेष क्षेत्र निर्धारित नहीं है।समाज,सियासत, शिक्षा,राजस्व,अधिकारी,कर्मचारी, धर्माचारी,गेरुआधारी,हलका या भारी, नेता,अभिनेता आदि सभी के समुद्र ढपोरशंखों से भरे पड़े हैं।उनके मुँह में बड़ी- बड़ी जुबानें हैं,किंतु उनके प्रति कृतज्ञता भाव किंचित मात्र नहीं है। जैसे किसी मशीन में कोई ध्वनि रिकॉर्ड कर दी गई हो ,बस वैसे ही बजना उनका काम है। असली ढपोरशंख की यही पहचान है।यदि देश के समग्र ढपोरशंख समाज को सूचीबद्ध किया जाए तो उसे सूचीबद्ध नहीं ग्रंथबद्ध करना होगा। यहाँ सब कुछ ढपोरशंखमय है। आगे पीछे ,ऊपर नीचे, इधर उधर, नजर आपकी जाती हो जिधर : ढपोरशंख ही ढपोरशंख दिखाई देंगे।उनके दाँत हाथी दाँत से कम मूल्यवान नहीं , दिखाने के और तथा खाने के और। 

       वात प्रधानता ढपोरशंखों का प्रमुख गुण है। आज वे निर्जीव नहीं, सजीव हैं। नदी ,तालाब या सागर में नहीं ; मानव समाज में मानव देह में ही सुशोभित होते हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ ,कि वे बजते ही रहते हैं। बजने के अनुरूप कभी चलते नहीं। यदि बजने के अनुरूप चलने भी लगें तो उनका नाम ढपोरशंख के स्थान पर कुछ और ही करने के लिए सोचना पड़ जायेगा।हमें तो इसी बात की प्रतीक्षा है कि उनका नाम बदला जाए,किंतु उन्हें भी तो अपने ढपोरपन को विदा करना होगा। 

        हमारा आपसे यही विनम्र आग्रह है कि आप भी अपने अंदर छिपे हुए ढपोरशंखत्व को पहचानें।यदि वहाँ से आपका ढपोरत्व विदा हो जाता है ,तो इस लेख के लेखक की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और ढपोरशंखों की मतदाता संख्या में से एक मत कम हो सकेगा। क्योंकि ढपोरशंख होना कोई अच्छी बात नहीं है। सम्भवतः आप भी इस सत्य से अवश्य अवगत होंगे। वैसे आपके क्या किसी भी ढपोरशंख के लिए यह कोई सहज में होने वाला काम नहीं है।अन्यथा न लें तो यही कहूँगा कि गुबरैला गोबर छोड़कर कलाकंद को क्यों पसंद करने लगा ! गुबरैले के लिए गोबर ही उसका संस्कार है। उसके लिए सर्वथा सकार है,साकार है।इसलिए कलाकन्द से उसे सदा ही नकार है।भले ही यह उसका मनोविकार है। इसीलिए वह गोबर के प्रति महाउदार है।मेरे कहने का मात्र यही सार है। 

 ●शुभमस्तु !

 14.02.2024 ●1.15प०मा०

शारदोत्सव वसंत पंचमी ● [ दोहा ]

 60/2024

        

© शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माघ  मास तिथि  पंचमी, शुक्ल पक्ष की  आज।

शुभ  वसंत   आया धरा, धरे   शीश पर   ताज।।

खिले    वसंती    फूल    हैं, गेंदा  सरसों   भव्य।

नाच   रहे    वन   बाग   में,  मोर  मनोहर  नव्य।।


कोयल   कूके   डाल   पर,  झूमें भ्रमर   अबाध।

मधुपाई   मधु   के   लिए,  मन में साधे     साध।।

बूढ़ा   पीपल   हँस  रहा, अधर  हुए  हैं    लाल।

कली  खिली  कचनार  की,  शरमा  घूँघट  डाल।।


रंग - बिरंगे     पट  धरे,   तितली  दल   के   झुंड।

क्यारी    में    उड़ते    फिरें,   तरु पर काकभुसुंड।।

वीणावादिनि   शारदा , का  शुभ दिन  है   आज।

पूजा  अर्चन  हम  करें,   सजा  शुभंकर     साज।।


कवियों  का  शुभ   पर्व  है, वीणापाणि    महान।

कवि  को  देतीं भाव  रस, शब्द शक्ति - संधान ।।

महुआ - वन    की   रम्यता, छाई  है कुछ     और।

आए   हैं    ऋतुराज  जी,  षडऋतु  में  सिरमौर।।


कोंपल   हरियाने  लगीं,   पीपल  नीम    बबूल।

क्यारी   में  पाटल    खिले,  रखवाले हैं   शूल।।

पीत   वसन   तन  धार   कर, मना वसंती   पर्व।

मात     शारदा   का   करें,   वंदन आज   सगर्व।।


●शुभमस्तु !


14.02.2024 वसंत पंचमी ●8.00आ०मा०

पीली-पीली सरसों फूली ● [ गीत ]

 59/2024

 

© शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पीली - पीली

सरसों फूली 

नाच  रहे  हैं  खेत।


फूल बसंती

महक रहे हैं

लगा रही पिक टेर।

कब आओगे

मोहन प्यारे

करो न इतनी देर।।


डाल-डाल पर

भ्रमर झूमते

मधुपाई  मधु हेत।


पीत शाटिका

धार  देह  पर

फूली  धरती  आज।

आए हैं अब

ऋतुराजा जी

सजा शीश पर ताज।।


निकले झुंड

तितलियों के भी

उड़ते  बहु  समवेत।


मातु शारदा 

की पूजा का

तिथि पंचमी बसंत।

वीणावादन

का स्वर गूँजा

कविता 'शुभम्' भनंत।।


हरियाया है

बूढ़ा पीपल

मूढ़ मनुज तू चेत।


●शुभमस्तु !


13.02.2024●8.00 आ०मा०

सुदृढ़ता का नाम किला है ● [गीतिका ]

 058/2024



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●© शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सुदृढ़ता    का    नाम   किला  है।

जगती  पर   वह   हमें   मिला  है।।


कभी  मोम - सी    कोमलता  भी,

तूफानों     में    नहीं    हिला    है।


छूने  में    पाटल    भी     लज्जित,

भीतर   से   काठिन्य  -  शिला   है।


सह  ले  वह      भूकंप    सुनामी,

नहीं   किंतु   वह   सहे   गिला  है।


भीतर  कभी    झाँक   कर  देखो,

गाँव  नहीं     संभ्रांत   जिला    है।


महायुद्ध   का    कारण     भी   है,

पुरुषों  में    बहुमूल्य    तिला    है।


'शुभम्' न चलता काम जगत का,

समझो -  समझो  वह महिला  है।


●शुभमस्तु !


12.02.2024● 8.15आ०मा०

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सुदृढ़ता का नाम ● [ सजल ]

 057/2024

      

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● समांत : इला

● पदांत  : है।

● मात्राभार :16.

● मात्रा पतन:शून्य

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●© शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सुदृढ़ता    का    नाम   किला  है।

जगती  पर   वह   हमें   मिला  है।।


कभी  मोम - सी    कोमलता  भी,

तूफानों     में    नहीं    हिला    है।


छूने  में    पाटल    भी     लज्जित,

भीतर   से   काठिन्य  -  शिला   है।


सह  ले  वह      भूकंप    सुनामी,

नहीं   किंतु   वह   सहे   गिला  है।


भीतर  कभी    झाँक   कर  देखो,

गाँव  नहीं     संभ्रांत   जिला    है।


महायुद्ध   का    कारण     भी   है,

पुरुषों  में    बहुमूल्य    तिला    है।


'शुभम्' न चलता काम जगत का,

समझो -  समझो  वह महिला  है।


●शुभमस्तु !


12.02.2024● 8.15आ०मा०

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देने लगा थपकियाँ माधव ● [ गीत ]

 056/2024


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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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देने लगा

थपकियाँ माधव

शीतल  भीगे  हाथ।


घुली हवा में

मादकता - सी

भ्रमर रहे पथ भूल।

रुकता नहीं

वक्ष पर कोई

पीला हरित दुकूल।।


सरसों की ले

पीली चादर

पिक गाती नित गाथ।


अलसी कलशी

धरे शीश पर

नाच रही सह  गान।

चना मटर का

 रंग   बैंजनी

गेंदा  खाए   पान।।


पाटल शीश 

उठा  क्यारी में

दिए   जा  रहा साथ। 


प्रोषितपतिका

धीरज खोए

कब आओगे श्याम।

नागिन सेज

लगे तन डंसती  

बहुत सताए काम।।


नींद न रैन

चैन कब दिन में

एक तुम्हीं मम नाथ।


●शुभमस्तु !


09.02.2024●11.15 !आ०मा०

दाता उत्तम पाँच ● [ कुंडलिया ]

 055/2024

      

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

दाता  सबका  ईश  है,  सबसे      श्रेष्ठ   उदार।

देता   है     माँगे   बिना,  लाता    सदा    बहार।।

लाता  सदा बहार, सदा  सुख- दुख  वह   जाने।

देने   का   आभार,   नहीं  फिर  भी नर    माने।।

'शुभम्'  उसी  के  रूप , पिता  जी जननी माता।

मान   सदा  उपकार, वही   हैं  जीवन  -   दाता।।


                        -2-

दाता उत्तम  पाँच  हैं,क्षिति  जल गगन  समीर।

अनल   पाँचवाँ तत्त्व   है,  देते सब  धर   धीर।।

देते    सब    धर  धीर,  माँगते   एक  न   पैसा।

जन्मा    दूजा   एक , न  माँगे   जग में     ऐसा।

'शुभम्'  ईश वरदान,मनुज  सुख इनसे    पाता।

नहीं   जानता     मोल,  न   ऐसा कोई    दाता।।


                        -3-

दाता  के  अभिमान  में, मनुज  हुआ है   चूर।

दर्शाए   निज  दान को,   भरा    अहं भरपूर।।

भरा    अहं   भरपूर,  नाम    छाया छपवाता।

अखबारों  में   खूब,  मित्र  को चित्र दिखाता।।

'शुभम्'  दिया जो   दान, जानता ईश विधाता।

मैं   कर्ता  दे    मान,   मुझे    मैं   तेरा   दाता।।


                          -4-

दाता   अब   दिखते  नहीं, ढोंगी  मिलें    अनेक।

देना  एक  छदाम   क्यों, दूषित  हुआ    विवेक।।

दूषित   हुआ   विवेक,   प्रदर्शन  करते     भारी।

ध्वनि  - विस्तारक  यंत्र, बजाकर करते   ख्वारी।।

'शुभम्'  तिलक दे   भाल, बनें वे संत   विधाता।

पीतांबर     धर     देह,   बने  वे  सबके    दाता।।


                           -5-

दाता   प्रभु-सा   एक  भी,मिला न जग   में नेक।

मौन     धार   देता   रहे,  मात्र  दान की    टेक।।

मात्र    दान  की    टेक,  नहीं  बदले में      लेता।

अभयदान नित ईश,मनुज  को सब  कुछ   देता।।

'शुभम्' न प्रभु को भूल,सभी के सिर  पर  छाता।

सबको  वह अनुकूल, जगत का प्रभु ही   दाता।।


●शुभमस्तु !


09.02.2024●8.30 आ०मा०

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कली ● [अतुकांतिका ]

 054/2024

                 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हर एक कली में

एक आशा 

सकुचाई-सी

बैठी है उनींदी- सी

लेती जमुहाई -सी।


रात -दिन झूमती है

डाली पर कली,

पता ही नहीं चला

कब फूल बन गई

मनचली।


घूँघट ज्यों खोलकर

कोई नवोढ़ा 

झुकती कुछ

लचकती मचकती

शरमाई हुई

परफ्यूम लगाई हुई।


जिसने भी निहारा

निहारता ही रह गया,

निहारते -निहारते

 हारा,  हारता ही गया,

आशा जो फलीभूत हुई

सुमन में तब्दील हुई।


देती हुई संदेशा

हँसो मुस्करा लो

जी भरके,

हस्र तो सबका

एक ही है

इस भूधर में,

आए हैं

तो सुगंधें फैलाएँ,

नाम तो कमाएँ।


●शुभमस्तु !


08.02.2024● 3.15प०मा०

हर आशा का नाम कली ● [ गीतिका ]

 053/2024


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 हर    आशा  का  नाम   कली है।

पूर्व  सुमन  परिणाम   कली  है।।


अवगुंठन   जो     डाले    निकले,

कोमलता  का    धाम    कली  है।


सूक्ष्म  बीज   में   बृहत   विटप है,

शुभता   का  उपराम   कली  है।


जिस दिन खिल महकाती क्यारी,

हर   ममता का   काम    कली है।


सुमन  छिपा   है  जिसके   घूँघट,

फल का शुचि  उद्दाम   कली   है।


नाच  दिखाती    जब   डाली  पर,

छिपे   बौर   में   आम   कली   है।


'शुभम्'  जगाती   नित   जिज्ञासा,

प्रियता   प्रातः -  शाम   कली  है।


●शुभमस्तु !


08.02.2024● 2.30प०मा०

हँसते फूल ● [ बाल गीतिका ]

 052/2024

         

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हँसते    और    विहँसते   फूल।

उर  में  नहीं    उमसते     फूल।।


मुरझाते  कुछ    डाली     पर,

देवों  पर   कुछ   चढ़ते  फूल।


माला  बन    कुछ   पड़ें   गले,

किंतु  न  जन से  लड़ते   फूल।


बनें    बीज    कुछ   पौध  नई,

दें   सुगंध  जहँ   बसते     फूल।


करते    नित      उपकार    बड़े,

सुंदरता     से      महके    फूल।


फल   बनते      हैं   फूलों    से,

सेव  संतरा     भरते        फूल।


'शुभम्'  सीख  देते   कमनीय,

बनें   फूल -  से   नर  ये   फूल।


●शुभमस्तु !


08.02.2024● 1.45प.मा.

बीती आधी रात ● [ नवगीत ]

 051/2024

            

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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काका सोए 

नहीं अभी तक

बीती  आधी  रात।


हुक्का गुड़-गुड़

बता रहा है

जाग रहा है मौन।

दे सुझाव सो

 जाओ काका

खटका कुंडी कौन।।


कर लेते हैं

बीच -बीच में

बुढ़िया से दो बात।


खाँसी उठती

कभी जोर की

खों -खों का स्वर जोर।

गला रुँधाता

साँस न आती

उठती तड़प-हिलोर।।


खाँसी है तो 

क्यों पीते हो

देती  है  ये  घात।


कुंडी खटका

नाती बोला 

लो बाबा जी चाय।

अदरक वाली

माँ ने भेजी

खाँसी होगी बाय।।


नींद चैन की

आ जाए फिर

मिनट पाँच या सात।


●शुभमस्तु !


07.02.2024●3.15प०मा०

कवि कहते नवगीत [ नवगीत ]

 050/2024

         


  ©शब्दकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

सीख न पाया

अभी आज तक

कवि कहते नवगीत।


गलियारे वे

छाँव गाँव की

नदिया नाव कछार।

गैया मैया

छाछ बिलौनी

ढेंकी ढाक कहार।।


याद न आती

गँवई गोरू

पूस माघ का शीत।


टिप-टिप करती

औलाती की

रिमझिम सावन धार।

छानी में कब

सोने देती

घर के बंद किवार।।


कुंडी खटका

बुला रही है

संकेतों में प्रीत।।


शकरकंद दो

गाड़ी भूभर

बीती  कल  की शाम।

भोर हुआ वह

भुनी मिल गई

पका पिलपिला आम।।


किया न दातुन

मुख ही धोया

खाई  हुए अभीत।


शुभमस्तु !

07.02.2024 - 12.15 प०मा०

शृंगार- सभा ● [ दोहा ]

 49/2024

      

[आनन,अलकें,अभिसारी,आभा,आलता]

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●© शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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          ●  सब में एक ●

आनन है अरविंद-सा,अलिवत चिकुराच्छाद।

मृगनयनी  हे  कामिनी, पद  पायल का   नाद।।

आनन  तेरा   देखकर, मम   दृग हुए  चकोर।

पल  भर  को  हटते  नहीं,खोए करें न  शोर।।


अलकें श्यामल  मेघ-सी, कहलाते  घनश्याम।

हे  मनमोहन नित बसो,मम  उर - गेह अकाम।।

अलकें अध्वर झूमतीं, श्यामल कान्ह-ललाट।

भँवरे   क्रीड़ामत्त  ज्यों, कलिंदजा  के    घाट।।


जब से देखी श्याम-छवि, मम अभिसारी  नैन।

मछली - से   तड़पें  सदा, पड़े न पल को चैन।।

अभिसारी प्रिय  के  बिना, रहती सदा  अधीर।

शंकित  मन  चंचल  रहे,  रह -रह उठती  पीर।।


आनन - आभा  खोलती, भेद हृदय  का  मीत।

दृग  पुतली हैं  गा रहीं,  निशा  अभिसरण गीत।।

आभा है कुछ और ही, पिया-मिलन  के  बाद।

हे    मृगनयनी   शोभने,    बदला पायल-नाद।।


लगा  आलता पाँव में, गजगामिनि  की  चाल।

बदल  गई   है  आज  तो, उछले  धरा  मराल।।

लगा  रहे  हैं  पाँव  में,   घोल आलता   आज।

कान्हा  राधा  से  कहें, करो  न किंचित   लाज।।

            ●  एक में सब ●

अभिसारी   आभा  प्रिये,

                          तव आनन  की  और।

विहँसे   अरुणिम आलता,

                             अलकें  हैं सिरमौर।।


●शुभमस्तु !


07.02.2024●8.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

धर्म की पीठ पर ● [ गीतिका ]

 048/2024

 

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज  धर्म   की   पीठ  पर, नेता  हुए  सवार।

उर में  बहु  रंगीनियाँ, दृग  में  भरा  खुमार।।


राजनीति    रंगीन   है,   रामनीति  के     कंध,

झंडे   फहराए   गए,  विनत   राम के    द्वार।


द्विविधाएँ   गहरा   रहीं, मन है बहुत   हताश,

रामालय  पर   छोड़  दें,  सत्तासन का   भार।


आम  सदा  चुसता  रहा, राजनीति के  हाथ,

मतमंगे   चिंतित    बड़े,   करना  बेड़ा   पार।


सुनता  एक  न   और की,रखता  अपनी   शेर, 

भामाशाही   सिर  चढ़ी, 'मैं'  का भूत  सवार।


'मैं'  कर्ता   सर्वस्व  'मैं',  मैं  ही सबसे   श्रेष्ठ,

जंगल   का  मैं   शेर  हूँ, कभी न मानूँ   हार।


'शुभम्' लिखूँ  इतिहास मैं,केवल अपने नाम,

खड़े  रहो  बाहर  सभी,टपकाते मुख  लार।


●शुभमस्तु !


05.02.2024●9.45आ०मा०

राजनीति रंगीन ● [ सजल ]

 047/2024

    

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●सामांत  : आर

●पदांत   : अपदांत

● मात्राभार : 24.

●मात्रा पतन : शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज  धर्म   की   पीठ  पर, नेता  हुए  सवार।

उर में  बहु  रंगीनियाँ, दृग  में  भरा  खुमार।।


राजनीति    रंगीन   है,   रामनीति  के     कंध,

झंडे   फहराए   गए,  विनत   राम के    द्वार।


द्विविधाएँ   गहरा   रहीं, मन है बहुत   हताश,

रामालय  पर   छोड़  दें,  सत्तासन का   भार।


आम  सदा  चुसता  रहा, राजनीति के  हाथ,

मतमंगे   चिंतित    बड़े,   करना  बेड़ा   पार।


सुनता  एक  न   और की,रखता  अपनी   शेर, 

भामाशाही   सिर  चढ़ी, 'मैं'  का भूत  सवार।


'मैं'  कर्ता   सर्वस्व  'मैं',  मैं  ही सबसे   श्रेष्ठ,

जंगल   का  मैं   शेर  हूँ, कभी न मानूँ   हार।


'शुभम्' लिखूँ  इतिहास मैं,केवल अपने नाम,

खड़े  रहो  बाहर  सभी,टपकाते मुख  लार।


●शुभमस्तु !


05.02.2024●9.45आ०मा०

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुखद्वार- महिमा● [ व्यंग्य ]

 046/2024



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●© व्यंग्यकार

 ● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 आइए !आज आदमी की देह के प्रवेश द्वार : मुखद्वार से मिलते हैं।हमारा मुख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है।इस मुख सौंदर्य पर ही तो जीवन और जीवन साथी का आधार पूर्ण है।इसके गोरे या साँवली सूरत पर पसंद का आधार है।क्या इस बात पर भी आपने कभी कर लिया विचार है?इसके नीचे भले ही कोई लम्बा हो या नाटा, पतला हो या मोटा,छरहरा हो या या आलू का पराँठा :सब चलेगा।इसके विपरीत यदि मुख की रंगत जिसे चेहरा कहें या देह का मोहरा कहें,कुछ गड़बड़ हो ,तो फिर सम्बन्ध भी गड़बड़ हो जाता है। मुख की बनावट सजावट दिखावट से कोई भी समझौता नहीं कर पाता है। पर यह भी सत्य है कि हर एक चेहरा किसी न किसी को भा ही जाता है।इसलिए कोई भी नारी या नर कभी कुँवारा नहीं रह पाता है। सबका एक न एक जोड़ परमात्मा कहीं न कहीं किसी न किसी से अवश्य मिलवाता है।

  हम मुख्यद्वार की बात करने चले थे अर्थात हमने अपने मुखद्वार को अपनी चर्चा का आधार बनाया था,हम भटक गए और चेहरे की चौपाल लग गई।चलो कोई बात नहीं ,पुनः मुखद्वार पर आते हैं और इस मुखद्वार के सदगुण गिनवाते हैं। जब भी हम कहीं किसी नई जगह पर किसी संस्था ,संस्थान या व्यक्ति के घर के लिए जाते हैं तो सबसे पहले उसके मुख्यद्वार की घण्टी बजाते हैं।इससे स्पष्ट होता है कि हमारी देह में इस छोटे से मुख का कितना बड़ा स्थान है। इसके बिना तो पूरा शरीर ही वीरान है।

 हम सबका यह मुखद्वार बहुआयामी है।अन्य देहांगों की तरह इसके भी बहुत से काम हैं। इसका एक -एक काम पूरे आदमी पर भारी है।यह अत्युक्ति न होगी कि मुख के ऊपर ही तो देह की जिम्मेदारी है।इसका पहला काम शिशु के जन्म क्षण से ही आरम्भ हो जाता है ,जब वह अपनी भाषा में ह्वा'! व्हा' !! (हुआ! हुआ!! )हाउ! ,ह्वाई!, म्याऊ!,म्याई! करता हुआ रोने लगता है और अपनी व्यथा या जरूरत का रोना रोने लगता है।इससे यह स्पष्ट हुआ कि रोना इसका पहला काम है ,जो आजीवन चलता रहता है।यह अलग बात है कि बड़े होने पर इस रोने के रूप बदल जाते हैं।तब आदमी रोने के लिए अनेक रूप सामने लाते हैं।शिशु का पहला रुदन उसकी पेट की भूख का संकेतक भी हो सकता है।अथवा बाहरी दुनिया में आकर यह व्यक्त करने का होता है कि अरे !अरे !!यह मुझे कहाँ ला पटका! यहाँ से तो वहीं पर अच्छा - भला पड़ा हुआ था। यह कौन सी दुनिया में भेज दिया मेरे विधाता !जहाँ आकर मैं नंगा होने पर भी नहीं शर्माता!ये शर्माना भी तो इस मुख से ही सम्भव होता है। कारण कहीं और, और कार्य कहीं और ।यहीं से शुरू हुआ होगा अलंकारों का दौर। 

 रुदन के संकेत को समझा गया और माँ का स्तन उसमें ठूँस दिया गया। अब वह लग गया अपना दूसरा कर्तव्य निर्वाह पूरा करने में। दूसरा महत्वपूर्ण कार्य हुआ उदर पूर्ति। अर्थात आहार ग्रहण करना।देह का पोषण करना। कुछ और बड़ा होने पर अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य मिल गया ,उसका बोलना। जिसका एक अंग गाना भी उसी में शामिल हुआ।बोलने के लिए कंठ, मूर्धा,जीभ,तालू,दाँत ,ओठ आदि सभी का सहयोग मिला। सुर सजे। गीत गाए। मजे ही मजे। अब चाहे आदमी राम राम भजे या आदमी आदमी को ठगे।साँस लेने के लिए यद्यपि नाक की पृथक व्यवस्था है किंतु मुख भी कम नहीं। वह भी सदा नाक का काम साधने के लिए तैयार।है भी तो वह उसी का यार।इसलिए कभी- कभी साथ देने के लिए रहता है होशियार।नाक और मुख दोनों ही महत्त्वपूर्ण द्वार।नाक तो जीवन का ही द्वार है,इसलिए किंचित ऊपर ही उसका प्रसार है।मुख और द्वार के परस्पर अनेक सहयोगी:ओठ, जिह्वा,दाँत, मूर्धा, कंठ, मूँछ,दाढ़ी आदि। 

 मुखद्वार की ये अनंत महिमा।इसके हाव भावों को तो कहना ही क्या! समग्र साहित्य ही इससे भरा पड़ा। कवि और लेखकों के हृदय बीच गहरा गढ़ा।अनेकशः विधाओं में बाहर आता बड़ा।कहावतें, लोकोक्तियाँ, छंद, गीत, आल्हा,मल्हार।और भी न जाने कितनी- कितनी है इस मुखद्वार की बहार। बोलते - बोलते न थक जाने का विशेष गुण।विश्वास न हो तो किसी नेताजी को ही देख जान लीजिए।और पूछिए कि क्या आपका मुख कभी थकता भी है ?या इसके अंदर कोई ऑटोमेटिक मशीन फिट करा रखी है ? तो वह यही कहेगा कि वह तो जन्म से ही ऐसा है।मेरे मुखद्वार का चमत्कार ही कुछ वैसा है।शब्दों की टकसाल है यहाँ !यही तो उगलता हमें पैसा है।

 ●शुभमस्तु ! 

 04.02.2024●3.45प०मा०

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गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

पथिक ● [ सोरठा ]

 045/2024

                

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चलता  रह अविराम,पथिक पंथ में पग   बढ़ा।

जग   में   चमके   नाम,शीघ्र  मिले गंतव्य  भी।।


मंजिल   सबकी   एक, सबकी राहें   भिन्न  हैं।

मत खो बुद्धि विवेक,पथिक चला चल धैर्य से।।


पथिक   चले  जो राह,पथ में आते मोड़   भी।

क्या  मन  की  सत चाह,चौराहे पर   सोच  ले।।


चलता रहता नित्य,जीव-पथिक बहु यौनि में।

यात्रा  का   औचित्य,  चालक  तेरे कर्म   हैं।।


समझ न मंजिल मीत,पथ में बहुत पड़ाव  हैं।

मिले न जब तक जीत,पथिक बने चलते रहो।।


यात्रारत    है   जीव,मानव की इस देह    से।

भक्ति मिलाए पीव,पथिक श्रेष्ठ इस  यौनि  में।।


पावनतम   गंतव्य,  मानुस  की शुचि   देह  का।

शुभतम हो मंतव्य,पथिक चले यदि ज्ञान से।।


मिले  न  मंजिल  नेक,पथिक भटकते राह में।

त्याग  पूर्ण  अविवेक,इन्द्रिय दस से   जान  ले।।


सदृश  किंतु  है जीव,नर - नारी तो नाम  हैं।

एक सभी का पीव,पथिक-पंथ बदला रहे।।


अलग गाड़ियाँ रेल,पथिक पंथ में चल रहे।

कोई  चले  धकेल, कोई   उतरा बीच  में।।


हुआ किसी से मेल,मिले पथिक बहु राह में।

मैला  मैल-कुचेल, फूटी  आँख न सोहता।।


●शुभमस्तु !

01.02.2024●1.00प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...