बुधवार, 31 जनवरी 2024

मैं सच नहीं बोलता ● [व्यंग्य ]

 044/2024

     

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●© व्यंग्यकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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क्या आपको पता है कि मैं सच नहीं बोलता।क्या किया जाए कि सच न बोलना मेरी कोई मजबूरी नहीं है।यह मेरी दैनिक आवश्यक ता भी नहीं वरन अनिवार्यता है।इसके बिना मेरा कोई काम नहीं होता।काम चलता भी नहीं, इसलिए जो भी करता हूँ या होता है या हो जाता है ;वह सब बिना सच के ही हो जाता है। फिर बेचारे सच को इतना कष्ट क्यों दिया जाए ?कि सत्यवादी हरिश्चन्द्र की बेइज्जती हो जाए!अपनी ओर से मैं साहित्य के किसी मुहावरे के समानांतर एक और मुहावरा खड़ा नहीं करना चाहता। हालांकि यह लोकतंत्र है। यहाँ बिना खड़े हुए कोई रह भी नहीं सकता।यहाँ खड़े होकर ही किसी को कुर्सी हासिल होती है। पहले सबको खड़े होना पड़ता है ,फिर पाँच साल तक चैन से बैठिए।कभी - कभी कारों या हेलीकॉप्टर में उड़ भी लीजिए,किन्तु खड़े मत होइए।


एक  बड़ी ही प्रसिद्ध कहावत कही जाती है कि जैसी चले बयार तबहिं रुख तैसो कीजै।बस इसी कहावत के मद्देनजर मुझे भी रहना पड़ता है। इधर- उधर,ऊपर- नीचे,आगे -पीछे कहीं कोई सच बोलने वाला न हो तो कोई भला सच बोलकर सच न बोलने वालों के बीच क्या कर लेगा?सिवाय इसके कि वह समाज में अपनी जग हँसाई कराए! हज़ार कौवों के बीच एक हंस अपने पंख ही नुचवाएगा। इससे ज्यादा सम्मान तो उसे मिल नहीं सकता।इसलिए मुझे अपने अड़ौस-पड़ौस के अनुसार चलना पड़ता है।

कहीं कोई सच नहीं बोलता तो मुझे ही क्या पड़ी है कि सच बोलकर सच की खोटी की जाए।नेता सुबह से रात तक बिना सच बोले जब देश चला सकता है, अधिकारी बिना सच के अपने अधिकार को अमली जामा पहना सकता है, कर्मचारी सच को तिलांजलि देकर अपना काम कर सकता है।बनिया बिना सच के आजीवन व्यापार कर सकता है ,फिर भी ईमानदार बना रहता है। पति - पत्नी एक ही छत के नीचे रहकर कभी सच को पास भी नहीं फटकने देते।प्रेमी -प्रेमिका का दूर -दूर तक सच से कोई नाता नहीं है।फिर भी उनका प्रेम परवान चढ़ा रहता है।मेरी समझ में नहीं आता कि सच किस चिड़िया का नाम है और वह किस पेड़ पर अपना घोंसला बनाकर रहती है ? ये संपूर्ण पृथ्वी किस सच की धुरी पर घूम रही है, कहना कठिन है। जो जैसा कह देता है ; हम वैसा मान लेते हैं। 

इतना अवश्य है कि सच के बारे में ढिंढोरा बहुत पीटा जाता है,किन्तु उसका  रंग,रूप,आकार,प्रकार कैसा है ,कोई नहीं जानता। यदि आप मे से किसी ने सच को देखा हो तो मुझे भी बतलाना।यदि दिखा सको तो दिखा भी देना।लेकिन सच का शोध करने या ज्यादा माथापच्ची करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जब दुनिया के सारे काम काज,ब्याह -शादी,बच्चे, नौकरी,चाकरी,ठेकेदारी,दुकानदारी,राजनीति,कर्मकांड,व्यवसाय,जीना ,मरना,विकास,विनाश,प्रेम,घृणा,ईर्ष्या,क्रोध,लड़ाई,झगड़ा, शासन,प्रशासन,प्रसाधन,प्रमाणन,  युद्ध,कारीगरी,जादूगरी,बाजीगरी आदि आदि बिना सच के ही अस्तित्व में हैं और बाकायदा फल -फूल रहे हैं तो रोहिताश की माँ को उसकी साड़ी के पल्लू का कफ़न क्यों बनवाया जाए?

इतनी सारी बातें करने और जानने के बाद आप भी समझ गए होंगे कि जिसके बिना भी काम चल सके ,उसे व्यर्थ ही कष्ट क्यों दिया जाए! इसलिए मैं सच से सर्वथा दूर ही रहता हूँ और एक परिवक्व नेता की तरह यदि पूरब जाता हूँ तो पश्चिम बताता हूँ और उत्तर जाता हूँ तो दक्षिण बताता हूँ।अपना - अपना सिद्धांत है। मेरा भी अपना यही सिद्धांत है कि सच मत बताओ। इसी में सुरक्षा है।निश्चिंतता है।जोख़िम नहीं है। विश्वास है। यदि आप कभी -कभी सच  बोलते हों या सच पर चलते हों तो मुझे अपना प्रेरणास्रोत बनाइए और बिना सच के जीकर देखिए।फिर देखिए कि आपके रहन - सहन और प्रगति में कितना अंतर आता है। जो काम सफल नहीं होता ,वह भी सफलता के पहाड़ पर कितनी जल्दी चढ़ जाता है।बस सच से दूरी बनाएँ और  चैन की वंशी बजाएँ। 

● शुभमस्तु !

31.01.2024●6.45प०मा०

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जीवन एक जहाज ● [दोहा ]

 43/2024

     

[विधान,जहाज,पलक,संदूक,मरुथल]

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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              ● सब में एक ●

सबका विहित विधान है,अगजग कोई जीव।

नर-नारी   कोई   बने,  कोई   जन्मे    क्लीव।।

चलती  सृष्टि  विधान  से, पूर्वापर      सम्बंध।

कनक सुमन पाटल सभी,पृथक्-प्रथक्  है गंध।।


जीवन  एक  जहाज  है,लाद कर्म  का  भार।

धीरे-धीरे   गमन   कर,  जाता   है भव   पार।।

तन - जहाज निधि में पड़ा,बैठा मन का कीर।

उड़ता फिर आ बैठता, किंचित उसे  न  धीर।।


पलक झपकते   बीतती, जीवन  की  ये   रैन।

हाय - हाय  करता रहे, फिर  भी लेश  न चैन।।

पलक पाँवड़े  दूँ बिछा, मैं प्रियतम  की  गैल।

करता  हो  विश्वास  वह,यदि न हृदय  में मैल।।


निज   उर के  संदूक में,रखें छिपा   कर  राज।

कभी न  संकट  झेलना,  पड़े खुजानी   खाज।।

खुले  पड़े संदूक - सा, जिनका जीवन    मीत।

रिक्त  सदा  रहता  वही,चलता गति   विपरीत।।


कर्मों  का  परिणाम है,मरुथल या  वन - बाग।

मानव  जीवन   सींचिए, भरके नव   अनुराग।।

मरुथल में  ही  दीखती, मृग मरीचिका  मित्र।

नयनों  का  वह  छद्म  है,दिखते उलटे  चित्र।।


           ● एक में सब ●

विधि विधान निर्मित बड़ा,

                            जीवन एक जहाज।

पलक ढले मरुथल बने,

                              नहिं संदूक विराज।।


*विराज = सूर्य,ब्रह्मांड में सबसे बड़ा।


●शुभमस्तु !


30.01.2024●10.30प०मा०

माघ का शीत ● [ गीत ]

 42/2024

       

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● © शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माघ मास में

थर-थर काँपे

जरा अवस्था  गात।


शीत न छोड़े

पीछा अब भी

ढँके देह को खूब।

कंबल साफी

ओढ़े भारी

गए ठंड  से ऊब।।


बुनी ऊन की

टोपी सिर पर

करती-सी ज्यों बात।


किंचित नाक

खुलीं दो आँखें

पड़ीं झुर्रियाँ देह।

बाहर कैसे

जाएँ वे अब

पड़े हुए निज गेह।।


घर पर रहें

उचित यह करना

दिन हो चाहे रात।


सघन कोहरा

जाल बिछाए

मचा रहा है धूम।

अगियाने पर

कब तक तापें

लेता है नभ चूम।।


गई जनवरी

शीत निगोड़ा

करे ओस बरसात।


●शुभमस्तु !


30.01.2024● 7.15 आ०मा०

सेवक ● [ चौपाई ]

 41/2024

              

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सेवक    वही    करे    जो   सेवा।

मिले   बाद    में    उसको   मेवा।।

जन सेवक  बन   नाम     कमाते।

नारों  से  जन     खूब     रिझाते।।


स्वार्थ  बिना   सेवा    जो  करता।

निर्धन  -  उदर  अन्न   से  भरता।।

सेवक  वह    साँचा     कहलाता।

दुनिया  भर  में     नाम  कमाता।।


सदा     राम   की    सेवा  करते।

पल को   राम न उन्हें   बिसरते।।

सीता   खोज  लौट   हनु   आए।

समाचार  शुभ   उन्हें     सुनाए।।


सेवक-धर्म  कठिन  अति  होता।

सदा  जागता  कभी  न   सोता।।

नेता   जो     सेवक     कहलाते।

जन - जन को   झूठा   बहलाते।।


मन में कपट न   जिसके   होता।

सेवक  पद  वह  सही   सँजोता।।

लखन भरत-से   जिनके   भ्राता।

वही  राम कण-कण  बस जाता।।


रँगे    वेश   जो     सेवक    बनते।

धनुष  सदृश  जनता    में    तनते।।

अखबारों     में     नाम    छपाते।

छायाचित्रों       में        मुस्काते।।


'शुभम्' न   सेवक   पीट   ढिंढोरा।

कहे न   मैं     हूँ     सेवक   तोरा।।

कर्मों   से    वह    देह     सजाता।

जन सेवक जग   में    कहलाता।।


●शुभमस्तु !


29.01.2024●11.30आ०मा०

भ्रष्ट आचरण मंत्र ● [ दोहा गीतिका ]

 040/2024

       

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● शब्दकार

●  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भारत  माता  का   करें,हम सब ऊँचा     भाल।

कलयुग  की  विकरालता,का फैला  है  जाल।।


कथनी  मीठी   खाँड़-सी,करनी विष  की  बेल,

भाषण  की  नित  माधुरी,पलटे पल-पल चाल।


सत्तासन     की    दौड़   में,  दौड़ें आँखें     मूँद,

उन्हें   न  चिंता   देश   की,कौवा  बने   मराल।


पले    सपोले   रात -   दिन,  चूस  रहे   हैं   देश,

जागरूक  हम   सब   रहें, गले न उनकी  दाल।


नहीं  चाहते   देश  का,  करना पूर्ण     विकास,

गेह   भरा  हो  स्वर्ण से,  लाल  सेव - से    गाल।


काम   कभी   होता   नहीं, लिए बिना  उत्कोच,

भ्रष्ट   आचरण   मंत्र   है, सत  चरित्र  की  ढाल।


'शुभम्' दिखाने   के  लिए , दाँत और  ही  मीत,

खाने   वाले   और  हैं,  दिखे   न जिनका  बाल।


●शुभमस्तु !


29.01.2024 ●9.30 आ०मा०

सत्तासन की दौड़ ● [ सजल ]

 039/2024

 

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● समांत :आल

● पदांत :अपदान्त

● मात्राभार :24

●मात्रा पतन :शून्य

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● शब्दकार

●  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भारत  माता  का   करें,हम सब ऊँचा     भाल।

कलयुग  की  विकरालता,का फैला  है  जाल।।


कथनी  मीठी   खाँड़-सी,करनी विष  की  बेल,

भाषण  की  नित  माधुरी,पलटे पल-पल चाल।


सत्तासन     की    दौड़   में,  दौड़ें आँखें     मूँद,

उन्हें   न  चिंता   देश   की,कौवा  बने   मराल।


पले    सपोले   रात -   दिन,  चूस  रहे   हैं   देश,

जागरूक  हम   सब   रहें, गले न उनकी  दाल।


नहीं  चाहते   देश  का,  करना पूर्ण     विकास,

गेह   भरा  हो  स्वर्ण से,  लाल  सेव - से    गाल।


काम   कभी   होता   नहीं, लिए बिना  उत्कोच,

भ्रष्ट   आचरण   मंत्र   है, सत  चरित्र  की  ढाल।


'शुभम्' दिखाने   के  लिए , दाँत और  ही  मीत,

खाने   वाले   और  हैं,  दिखे   न जिनका  बाल।


●शुभमस्तु !


29.01.2024 ●9.30 आ०मा०

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गुरुवार, 25 जनवरी 2024

काजर की कोठरी ● [ व्यंग्य ]

 038/2024 

 

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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         जीवन रूपी नदी की अतल गहराई   में  उसकी   थाह  लेने के प्रयास में ऐसा बहुत कुछ मिला  जो उसके लिए  अनिवार्य है। जब गहराई में उतरेंगे सीप,शंख,मोती, घोंघे,सिवार,मछली,मेढक,कंकड़,पत्थर आदि कुछ भी हाथ लग सकता है।अब यह अलग बात है कि आप क्या खोजने निकले थे और क्या हाथ लगा? अपनी खोज के दौरान मुझे जो हाथ लगा है; वह  मानव जीवन की बहुमूल्य चीज है ,जिसे आपके समक्ष रखते हुए प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। वह ऐसी वस्तु है ,जिसका नाम ऊपर दर्शाई गई वस्तुओं में सम्मिलित नहीं है। उस अमूल्य और आवश्यक वस्तु का नाम है : 'ढकोसला'। जानकर और सुनकर आपको आश्चर्य भी हो सकता है ,किन्तु इस छोटी-सी खोज के लिए आश्चर्य करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

   'ढकोसला' जीवन का आवश्यक तत्त्व है। इसके बिना समाज,धर्म,राजनीति,जनतंत्र,कर्मकांड,रहन- हन,आहार- विहार,लोकाचार,देशाचार आदि चल नहीं सकता। इसीलिए इसे आवश्यक अंग न मानकर आवश्यक तत्त्व माना गया है।आप मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में घुस जाइए ; बिना ढकोसले के काम चल ही नहीं सकता।आपके किसी भी क्रिया कर्म की गाड़ी ढकोसले के ईंधन के बिना गति नहीं पकड़ सकती।

'ढकोसला' शब्द की गहनता से पड़ताल करने पर ज्ञात होता है कि   'जो हमारे जीवन और कर्म की असलियत को ढँक दे,और बाहर कुछ और ही दिखाई दे तथा उसकी अंतर्वस्तु कुछ और ही हो ,वही है 'ढकोसला'।' मानव देह धारी जंतुओं में भला ऐसा भी कोई है ,जो ढकोसला प्रिय न हो ?

साधु ,संत,मंत्री, अधिकारी,पंडा- पुजारी,मानव देहधारी इस  विशेषता से अछूता नहीं है। ऐसा कोई देह या मन नहीं है ,जहाँ ढकोसला - वास न हो!कहीं पर इसे सभ्यता के नाम से तो कहीं पर संस्कार के नवनीत से लीपा-पोता  जाता है। ढकोसला कहने में किंचित भद्दा लगता है न ! इसलिए उसे स्थान - स्थान पर अलग - अलग रूपाकार दे कर समृद्ध किया जाने का विधान है।यथार्थ की नग्नता को मखमली चादर से ढँकने का नाम ही ढकोसला है।

यदि धर्म ,राजनीति या किसी अन्य क्षेत्र का कोई उदाहरण दिया जाए तो सामान्य  कहन में उपहास ही कहा जाएगा।इसलिए मानवीय ढकोसले के उदाहरण देना उनका तंज माना जायेगा। लेखकीय धृष्टता न मानी जाए तो  यह कहना उचित ही होगा कि यदि पुलिस की वर्दी न हो और उसे सामान्य जन की तरह रहने दिया जाए तो क्या अपराधी और समाज के अवांछनीय तत्त्व निरंकुश नहीं हो जाएंगे?इसी प्रकार बिना तिलक छाप या कंठी माला के क्या समाज पंडे पुजारियों को ससम्मान महत्त्व प्रदान करेगा ? नेताओं को अपनी चुस्त दुरुस्त   नेताई के लिए ऐसा कुछ ओढ़ना पड़ता है कि उसे नेता समझा जाए !अपनी महत्त्वाकांक्षा को सशक्त बनाने के लिए कुछ प्रदर्शनात्मक आवरण अनिवार्य हैं।

         सामान्य शब्दों में कहा जाए तो 'ढकोसला'  किसी व्यक्ति,पद, संस्था, क्रिया,कार्य,अनुष्ठान आदि की चमक -  दमक  और लोक प्रियता बढ़ाने का उत्कृष्ट साधन है ।यही कारण है कि वह अब साधन मात्र न रहकर अनिवार्य तत्त्व बन गया है। कभी -कभी तो आदमी ढकोसले के लिए उधार माँगकर भी काम चला लेता है।जैसे विवाहार्थी कन्या को दिखाने के लिए सोफा,क्रॉकरी चादर आदि अपने पड़ौसी से माँग ली जाती हैं।ढकोसलों की यदि एक सूची बनाई जाए तो एक महा ग्रंथ ही लिख जाए! निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि ढकोसला मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। मानवीय सभ्यता और संस्कृति की सारी चमक -  दमक इन्हीं ढकोसलों से है। यदि मानवीय ढकोसलों पर शोध किये जाँय तो कई बृहत शोध प्रंबंध तैयार हो सकते हैं।माया मोह से विरक्त भी ढकोसलों से बच नहीं सके हैं। वे भले ही यह दावा करें कि वे उनसे बचे हुए हैं ,तो भी वे उनसे बच नहीं सकेंगे। फिर यदि हमारे लोकप्रिय माननीय नेताजी या 

अन्य सामाजिक यदि ढकोसलों के ढेर में दबे हुए हैं तो बेचारों/बेचारियों का दोष ही क्या ? ये जगत तो काजर की कोठरी है! 'काजर की कोठरी में कैसौ हू सयानों जाय ,एक लीक काजर की लागि है पै लागि है।'

● शुभमस्तु !

24.01.2024● 11.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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संविधान गणतंत्र का ● [ दोहा ]

 037/2024

    

[संविधान,सरकार,गणतंत्र,सरपंच,राष्ट्र-पताका]

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● © शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ●  सब में एक  ●

अंगीकृत  कर  देश ने,संविधान मजबूत।

सुमन  पिरोए माल के,गूँथ एक ही सूत।।

संविधान में   एकता, समता के सिद्धांत।

बना रहे दृढ़ देश को,जनगण रहे न भ्रांत।।


भारत  की सरकार का, है जनतंत्र  स्वरूप।

जनता  जिसको चाहती,चयन करे  वह भूप।।

जब  विपक्ष मजबूत हो,चले सही सरकार।

नहीं  निरंकुशता  बढ़े, खुलें प्रगति के  द्वार।।


दुनिया   में   प्रख्यात  है, भारत का   गणतंत्र।

संविधान-पथ  पर  चले,पढ़ प्रियत्व  के  मंत्र।।

एक   तिरंगा   राष्ट्र    का, है गणतंत्र   महान।

मिलजुल कर रहते सभी,गा जनगण का गान।।


अपने   बलबूते  चुना,  दुनिया  ने सरपंच।

भारत   सारे  विश्व  में, उच्च देश का   मंच।।

पाक चाहता बन सके, सबका वह सरपंच।

लिए  कटोरा  घूमता, पूछ न जग में   रंच।।


राष्ट्र-पताका  देश  की,दुनिया में   सिरमौर।

तीन   रंग   में   झूमती,   टिके न कोई और।।

राष्ट्र-पताका  के   लिए, होम दिए थे  प्राण।

वे  बलिदानी  वीर  थे, किया देश का   त्राण।।

             ● एक में सब ●

संविधान गणतंत्र का,बना विश्व - सरपंच।

राष्ट्र-पताका  झूमती,शुभ सरकार विरंच।।


●शुभमस्तु!


24.01.2024●8.00आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

सीतारामागमन ● [ गीत ]

 36/2024

    

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सीताराम का

शुभ आगमन

मंगल मोद मय मम देश।


खिल उठे हैं

उर करोड़ों

देख कर यह दृश्य अद्भुत।

हाथ थामे 

गमन प्रभु जी

जानकी का रूप सोहित।।


पीत अंबर

किए धारण

सीता राम का शुभ वेश।


नग्न पद जाते

अभय पथ 

हाथ में कोदंड गुरुतर।

पीठ पर तूणीर

बाणों से भरा

सोहे  अभयकर।।


मुकुट मस्तक पर

सुशोभित स्वर्ण का

आते जगत के सकलेश।


ऊँचे कँगूरे

महल के हैं

दिख रहे अंतर प्रमन।

सीता पहन

पीली शाटिका

मन     से    मगन।।


हर्षमय उल्लास

सीतारामागमन

हवा में उड़ रहे सु- केश।


●शुभमस्तु !


23.01.2024●10.00आ०मा०

जय जय श्रीराम ● [ गीतिका ]

 035/2024

       

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●समांत : आम

● पदांत :अपदांत

●मात्राभार : 16,15

●मात्रा पतन :शून्य

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम-सा      नहीं     दूसरा   नाम।

सुघर  साकेत   अयोध्या    धाम।।


वंदनवार     सजे    अति  मनहर,

स्वागतरत      नर  -  नारी  आम।


जपता    राम   पाप   सब  कटते,

लगता   एक  न    दाम    छदाम।


दिवस    आज    बाईस   जनवरी,

तोरण  सजे   सजे   सब    खाम।


प्राण  -  प्रतिष्ठा     रामलला   की,

आज  हो    रही    दृश्य   ललाम।


घर  -  घर   दीप जलें  भारत   में,

मनहर  हो    अगजग   अभिराम।


वास्तुकला  का   भी क्या  कहना,

तृप्त   न   होते     नयन   अवाम।


'शुभम्' विश्व  की   दृष्टि  इधर  है,

नतमस्तक    जग   करे    प्रणाम।


●शुभमस्तु !


22.01.2024● 6.15आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

जय श्रीराम ● [ सजल ]

 034/2024

             

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●समांत : आम

● पदांत :अपदांत

●मात्राभार : 16,15

●मात्रा पतन :शून्य

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम-सा      नहीं     दूसरा   नाम।

सुघर  साकेत   अयोध्या    धाम।।


वंदनवार     सजे    अति  मनहर,

स्वागतरत      नर  -  नारी  आम।


जपता    राम   पाप   सब  कटते,

लगता   एक  न    दाम    छदाम।


दिवस    आज    बाईस   जनवरी,

तोरण  सजे   सजे   सब    खाम।


प्राण  -  प्रतिष्ठा     रामलला   की,

आज  हो    रही    दृश्य   ललाम।


घर  -  घर   दीप जलें  भारत   में,

मनहर  हो    अगजग   अभिराम।


वास्तुकला  का   भी क्या  कहना,

तृप्त   न   होते     नयन   अवाम।


'शुभम्' विश्व  की   दृष्टि  इधर  है,

नतमस्तक    जग   करे    प्रणाम।


●शुभमस्तु !


22.01.2024● 6.15आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

राम में समाइए ● [ मनहरण घनाक्षरी]

 033/2024

             

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● ©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                       -1-

राम नाम है     महान,  नित्य  जपें राम  गान,

भक्त   तेरी   आन  बान,  राम   रूप ध्याइए।

पापी जन  दिए  तार, किए   पाप  से      निवार,

राम    हैं    महा    उदार,   उर    से लगाइए।।

राम - से ही  एक राम,  और से न दूजा    काम,

राम  नाम   मात्र   धाम,   राम   क्यों  भुलाइए।

कण-कण   बीच  राम, हिय  के नगीच   राम,

राम   से   ही    सींच  धाम, राम  में   समाइए।।


                        -2-

राम का  स्वरूप  एक, राम  की  है नेक  टेक,

हिय   में  टटोल  देख,  खोज - खोज    लाईए।

तात - मात  बात  मान, लिया एक प्रण   ठान,

संग      जानकी       पयान,   राम  ऐसा    चाहिए।।

भीलनी  के जूठे   बेर,  खाए  बिना सूक्ष्म  देर,

भ्रात     प्रिय    रहे   हेर,   ऐसे    बन   जाइए।

राम  - सा है और कौन,शास्त्र या  पुराण   मौन,

छवि    है   माधुर्य   लौन,   राम   में  समाइए।।


                        -3-

राम  कृष्ण  का  है  देश, पीत गेरुआ है वेश,

भक्ति   प्रेम  का   सँदेश,   हिय  में बसाइए।

विष्णु - अवतार  श्रेष्ठ,कौन लघु कौन   ज्येष्ठ, 

कौन   राम  कृष्ण  ठेठ,  सोच  में  न  लाइए।।

अयोध्या के राजा  राम,ब्रजवासी एक  श्याम,

युगल   हैं   पवित्र   नाम, कोई  एक    पाइए।

गोपियों  के  मध्य  एक, अवध - नरेश  एक,

ज्ञान-चक्षु   खोल   देख,    राम   में  समाइए।।


                        -4-

भक्ति  का  आगार  राम,  राम ही औदार्य  धाम,

जपें  भक्त   प्रातः - शाम,  राम  मन      लाइए।

एक  ही   आदर्श   राम, लीलाधर कृष्ण   श्याम,

दिव्य   रूप   अभिराम,  और  कहाँ    जाइए।।

सीता  मात  राधा रूप, काटें  बंध अघ     यूप,

खिल  उठे   भक्ति - धूप,      औध पुरी   आइए।

लखन  भी   बलराम,  शक्ति   के स्वरूप   नाम,

कान्हा    राम       अकाम,    राम    में    समाइए।।


                  -5-

हिया   ये  अयोध्या  धाम,बसें जहाँ  प्रभु     राम, 

दूर   खड़ा   रहे  काम,  चले  क्यों  न   जाइए!

रखें  मन   एक    ध्येय,  राम  मात्र एक    प्रेय,

मिले    तुम्हें     यह   श्रेय,   थापना   कराइए।।

नेह  -  सरयू   की   धार, खोलती विवेक-द्वार,

राम   - भक्ति   उपहार ,   उर       में    बसाइए।

कर्म    तेरे    सदा    नेक, बने नहीं कूप -  भेक,

'शुभं'     राम - नाम  टेक,  राम   में     समाइए।।

● शुभमस्तु !


20.01.2024●12.30प०मा०

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कण-कण में श्रीराम ● [ कुंडलिया ]

 032/2024

    

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                    -1-

रमते  हैं   श्रीराम  जी,कण-कण में ये    जान।

अंतरतम  निज  खोज  ले,वहीं राम  पहचान।।

वहीं   राम   पहचान,  मनुजता उनसे    सीखे।

तभी मनुज तन बीच,मनुज-सा मानव   दीखे।।

'शुभम्'    पाल  सद्धर्म, सिंधु  से पापी   तरते।

करना    ऐसे    कर्म,  राम   कर्मों  में    रमते।।

                       -2-

करना  तुझको  चाहिए,  कौन न जाने   तथ्य।

मूढ़  न  इतना  आदमी, यही  बात है    सत्य।।

यही   बात    है   सत्य,   ढूँढ़ता  बाहर  मानव।

करता   खोटे   काम,  बना  अंतर से   दानव।।

'शुभम्'  झाँक  श्रीराम, कर्म   से   होगा तरना।

आदर्शों   को  जान,  धर्म   का पालन  करना।।


                         -3-

जपता    है   श्रीराम  की, माला  कर   में   नित्य।

पर   नारी   पर   दृष्टि है,   कृत्य  नहीं   औचित्य।।

कृत्य  नहीं औचित्य,तिलक मस्तक  पर  सज्जित।

करता  पापी  कर्म,  नहीं  पल  भर को  लज्जित।।

'शुभम्'   भक्ति   हे मूढ़,  वृथा  है  जो  नर  तपता।

माला   मन   की   फेर,  अकारथ जो तू   जपता।।


                           -4-

मेरा   -  मेरा   ही  किया,  किया नहीं     उपकार।

जाने   क्यों    श्रीराम    तू,  क्या  रटता   बेकार।।

क्या    रटता    बेकार,  परिग्रह    में   रत   मानव।

धर्म - ध्वजा    को   तान, बना कर्मों   से   दानव।।

'शुभम्'    ढोंग   के  वेष,  सजाए सब   कुछ  तेरा।

बढ़ा     लिए   हैं    केश,    चीखता   मेरा -  मेरा।।


                         -5-

राजा     को   वह  चाहिए, जैसे   थे     श्रीराम।

जन - जन का आदर्श  हो,सदा विरत हो काम।।

सदा    विरत  हो   काम, एक आदर्श    बनाए।

पति, भ्राता, सतपुत्र ,  पिता  का धर्म    निभाए।।

'शुभम्' प्रजा के  हेतु,करे शुभ ही शुभ   काजा।

आडंबर     से   दूर,   बने   वह सच्चा     राजा।।

●शुभमस्तु !


 19.01.2024●11.45 आ०मा०

धर्मतंत्र की ढाल ● [ गीतिका ]

 31/2024

 

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● ©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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लोकतंत्र   की    चाल     देखिए।

धर्मतंत्र      की   ढाल     देखिए।।


ज्योति   जलाए  रहें   लगन   की,

जलती    रहे    मशाल    देखिए।


पाप -  शाप   धोती    हैं   नदियाँ,

आया  है    शुभ    काल  देखिए।


आड़  धर्म की   पतित  -  पावनी,

कागा    बने      मराल    देखिए।


मीनों  को मोहित    करते   नित,

व्यस्त  बड़े   घड़ियाल    देखिए। 


तिलक   लगाए     बने    पुजारी,

चिकने  -   चुपड़े    गाल  देखिए।


टाँग  नहीं     कुर्सी    की    छोड़ें,

खाते     मेवा  -   थाल   देखिए।


धर्म-ध्वजा जकड़ी जिस दिन से,

भरी    तिजोरी    माल   देखिए।


बदले    वेश     भाँगड़ा     गाते,

कदमों  की  नव   ताल   देखिए।


आम    सदा   चुसता  ही आया,

होता   नित्य   कमाल    देखिए।


'शुभम् '  राम   सबके  उद्धारक,

फैला  कैसा     जाल     देखिए।


●शुभमस्तु !


18.01.2024●6.00प०मा०

ठिठुरते हुए भजन गायन!● [ अतुकांतिका]

 030/2024

 

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जनतंत्र का

धर्मतंत्र में पलायन,

ज्यों सूरज उत्तरायण,

ठिठुरते हुए भजन गायन,

और कोई उपाय न !


राजनीति जाती

रामरीति की ओर,

ओढ़कर मुखौटा,

बाँधकर लँगोटा,

निर्वसन तो नहीं।


करना है उन्हें वही

जो करते रहे,

जिसे जो सहना है सहे,

कवि क्यों चुप रहे?

अभिनय में 

कोई कमी नहीं।


धर्म की आड़

ज्यों हिमालय पहाड़

अंतिम उपाय

ज्यों शीत में चाय!

वाह री सियासत!


'शुभम्' श्रेयत्व का,

अवसरवादिता

भुनाई क्यों न जाए?

धर्मभीरुता के घन

गगन में छाए!


●शुभमस्तु !


18.01.2024●3.30प०मा०

दो राहे पर देश ! ● [आलेख ]

 029/2024

    

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●© लेखक

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     आज जनतंत्र दोराहे पर खड़ा हुआ नहीं है।उसने यह भलीभाँति तय कर लिया है कि उसे किधर जाना है।अब ऐसे काम चलने वाला नहीं है। जनतंत्र को अपने रास्ते पर चलने के लिए यों तो कई रास्ते हो सकते हैं।उन सभी  रास्तों पर चलकर भी उसने बखूबी देख लिया है।वह जनतंत्र ही क्या जो जन या जनता की नब्ज़ की धड़कन को न पहचाने।आज के  जनतंत्र और उसके  ऊपर   बैठे मठाधीशों ने यह अच्छी तरह जान और समझ लिया है कि नब्ज़ किस ओर धड़क रही है।इसलिए आम जन   और आम जनता की धड़कन को पढ़ना भी बहुत जरूरी है।उसने नब्ज को भी पढ़ लिया है।

   विलासिता से अघाया हुआ आदमी भगवान का सहारा लेना पसंद करता है।भगवान को यदि कहीं पाया जा सकता है तो अपने विश्वास में। उसका सबसे बड़ा विश्वास उसके इष्टदेव का स्थान अर्थात मंदिर है।मंदिर अर्थात धर्म की ओर रुख किया जाए तो हो सकता है ,हमारे इष्टदेव उद्धार कर ही दें। वैसे भी जनता को जनार्दन कहा जाता है। साक्षात भगवान ही माना जाता है। जो जनता भगवान का पर्याय हो ,उसके रुख को पहचानना ही बुद्धिमता कही जाएगी।वह किसमें विश्वास करती है। उसके विश्वास को अपना विश्वास बना लेना ही जनतंत्र की समझदारी है।

सामान्यतः जन और जनता तंत्र का अनुगमन करती है;अनुसरण करती है। जब गंगा उलटी बहने लगे तो समझना चाहिए कि तंत्र को खतरे का आभास हो रहा है।इसलिए वह भयभीत है।गंगा उलटी दिशा में प्रवाहित हो रही है,यह स्पष्ट है और आज तंत्र भी जन - भावना का अनुसरण करते गए पूजा-पाठ,हवन-पूजन,तंत्र-मंत्र-यंत्र,कर्मकांड आदि का  मुरीद (अनुगामी)

हो गया है।यही कारण है कि संभावित ख़तरे को भाँपते हुए उसने अपनी कार्य प्रणाली को बदल लिया है। अब यह तो भविष्य ही जाने कि इसका क्या परिणाम हो।

आमेर नरेश मिर्जा राजा जय सिंह की दिशा और दशा कविवर बिहारीलाल के एक दोहे ने ही पलट दी थी और वह अपनी नवोढ़ा रानी के मोह पाश से मुक्त होकर अपना राजपाट सही रूप से चलाने के लिए जाग गए थे।जो पुजारी मंदिर आने जाने वाले भक्तों की गतिविधियों और वार्ताओं को सुनता है ,वह भला भक्तों की वास्तविक नब्ज़ की आवाज से कैसे अनभिज्ञ रह सकता है ?इसीलिए गंगा का प्रवाह परिवर्तित हो गया है।

  मिला हुआ अधिकार भला कौन छोड़ना चाहता है।अब चाहे वह सत्ता हो या सिंहासन ;उसके प्रति आसक्ति हो जाना स्वाभाविक ही है।यद्यपि अपने दोष और अपराध स्वयं अपनी आँखों से दिखाई नहीं देते। किन्तु यदि कोई आईना दिखाने का प्रयास करता है,तो सहज स्वीकार करना भी आदमी की फ़ितरत में नहीं है।इसलिए वह अपने गलत कृत्यों की समर्थक - सेना खड़ी करना भी खूब जानता है; जो उसकी भूलों पर मख़मल का पर्दा डालकर गोबर को कलाकंद सिद्ध करने में लगी रहती हैं।ऐसा हर राजतंत्र और जनतंत्र में होता है। प्रत्येक कुर्सीनसीन के साथ होता है। क्योंकि चमचों को भी भगौने चाटने में भरपूर आनंद आता है।इसलिए वे सत्ता या उच्चासन के विपरीत जाएँ तो कैसे जाएँ ! उनका भला इसी में है कि वे दिन को अगर रात कहा जाए तो रात ही कहें। नीम के पेड़ को आम कहलवाया जाए तो आम ही कहें। अरे भई!उन्हें भी तो अपने उल्लू सीधे करने हैं। और यहीं से करने हैं।उन्हीं से करने हैं। विरोधी भला क्या खाकर किसी का कल्याण करेंगे !

                              जब सारे प्रयास    अर्थात    साम,  दाम,  दंड    और    भेद   काम   नहीं  आते ,फिर तो एक भगवान का भरोसा ही बचता है;जिसके सहारे डूबती हुई नैया को पार लगाने की आशा की जा सकती है, की भी जाती है। जन को भरम में डालकर यदि उल्लू सीधा किया जा सके ,तो क्यों न किया जाए!एकमात्र भरोसा भगवान का ही तो है। अब उसी की रस्सी थामकर ,धर्मतंत्र को जन तंत्र का उद्धारक मानकर बेड़ा गर्क होने से बचाने के लिए सोचना ही आज की प्रासंगिकता है।


●शुभमस्तु !


17.01.2024●8.30प०मा०

बुधवार, 17 जनवरी 2024

रामलला के द्वार ● [ दोहा ]

 028/2024

  

[रामलला,मंदिर,प्राण-प्रतिष्ठा,सरयू,हर्षोल्लास]

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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             ●  सब में एक ●

स्वागत  करने  हम खड़े, रामलला  के द्वार।

पुरी  अयोध्या  में सजा ,नव्य  भव्य  दरबार।।

रामलला की  हो  कृपा,चाहत रखते   भक्त।

श्रद्धा  से  नतशीश  हम, उर  से   हैं  अनुरक्त।।


मंदिर है  श्रीराम  का,इस धरती पर   भव्य।

पुरी अयोध्या सज रही,दुल्हन-सीअति नव्य।।

पहले   मन- मंदिर  बना, करें प्रतिष्ठा    राम।

पाषाणों  को  बाद  में,करना मनुज  प्रणाम।।


प्राण-प्रतिष्ठा  के  बिना, पाहन ही   हैं  देव।

मंत्र- सिद्ध  जीवन  भरें, तब हो साँची सेव।।

प्राण-प्रतिष्ठा जीव की,विधिवत हो सम्पन्न।

तभी राम आशीष  दें,कृपा- दान  दें   अन्न।।


सरयू में   आनंद   की,  उठने लगीं   हिलोर।

रामलला-शुभ  आगमन, नाच रहे वन  मोर।।

मज्जन  सरयू  में  करें,  पावन उर  अभिषेक।

दर्शन   पाएँ   राम का, सँग सीता जी   नेक।।


भारत  हर्षोल्लास  में,झूम रहा चहुँ    ओर।

दसों  दिशाएँ  गा रहीं,  रामलला मय   भोर।।

धर्म  सनातन  एक है,  पर्व दिव्य है   आज।

जन-जन हर्षोल्लास  में,सजे मनोहर  साज।।

            ●  एक में सब  ●

सरयू -  तट मंदिर बना,रामलला   का  आज।

प्राण-प्रतिष्ठा  लीन हम ,हर्षोल्लास  सुसाज।।


●शुभमस्तु !


16.01.2024●10.30प०मा०

जाती ग्राम्या एक ● [ गीत ]

 027/2024

       

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बाँध पोटली

रखे शीश पर

जाती ग्राम्या एक।


सरसों फूली

खेत -खेत में

दगरे पर बहु झाड़।

मूँज खड़ी है

कीकर बेरी

बना रहे  हैं आड़।।


बकरी ढोरों 

को खाने को

चारा लाई छेक।


पगडंडी पर

बने पाँव के

चिह्न, न बाकी घास।

घनी घास है

शेष अभी कुछ

चलने में कुछ खास।।


बाड़ लगी है

फसल-सुरक्षा

के हित लगी अनेक।


साड़ी उसकी

पीली अरुणिम

नीली पहन कमीज।

शिष्ट आचरण 

से रहती वह

उर में ममता बीज।


'शुभम्' काम से

रखती मतलब

खोती नहीं विवेक।


●शुभमस्तु !


16.01.2024●12.30प०मा०

ओ मेरे मन! ● [आलेख ]

 026/2024

    

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●© लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         ओ मेरे मन ,आओ ! मेरे पास आओ।आज कुछ पल पास-पास बैठें।एक दूसरे को जानें। तुम तो मुझे अच्छी तरह जानते हो। पहचानते हो।पर मैं तुम्हें कितना जान पाया हूँ। कह नहीं सकता। इसलिए सोचा ,आज ही नहीं वरन दो दिन से सोच ही रहा हूँ कि मैं और तुम ,तुम और मैं पास -पास बैठें और अपनी - अपनी कहें। तुम कैसे कहोगे। मुझे स्वतः ही समझना पड़ेगा।तुम्हें जानना पड़ेगा। तुम तो मूक हो। फिर भी मुझे क्या मेरे सारे तन को चलाते हो।दसों इंद्रियों को चलाते हो। संचालक होने के लिए मुँह और उसमें वाणी होना जरूरी जो नहीं है।

  ओ मेरे  मन ! आज मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।हे मन !तुम तन में रहते हो।'मन'और 'तन' कविता के समतुकांत की तरह  एक ही तरह के दो नाम।एक दूसरे से सर्वथा संपृक्त रहते हुए भी असंपृक्त।एक निराकार तो दूसरा साकार।एक घर तो एक उसका निवासी नागर।जैसे किसी सागर में  अदृष्ट गागर।तुम्हारे बिना इस तन का कोई महत्त्व नहीं,मूल्य नहीं।तन में बसा हुआ मन।

         इस विशाल तन में रहते हुए भी मैं यह नहीं जान पाता कि तुम कहाँ हो।तुम्हारी स्थिति कहाँ है। भले ही तुम निराकार हो,तो भी कहीं न कहीं तो रहते बसते होगे।इस तन की एक- एक छोटी बड़ी गतिविधि के नियामक तुम्हीं तो हो।बिना तुम्हारे इस तन की कोई भी क्रिया सम्पादित नहीं होती।जब तन सो जाता है ,तब भी तुम अनवरत जागते रहते हो।यहाँ तक कि स्वप्न लोक में न जाने कहाँ -कहाँ की सैर कराते हो।इतना व्यस्त रहने के बावजूद तुम्हें थकते नहीं देखा गया।रुकते नहीं देखा गया। तुम्हारी कार्य यात्रा निरंतर चलती ही रहती है।

हे  मेरे मन ! यदि गति की बात की जाए तो तुम्हारी समता में कोई भी नहीं टिक पाता।विद्युत गति से भी लाखों गुना तीव्र गति से दौड़ने वाले हे मेरे मन ! कवियों को तो कुछ और ही तीव्र गति प्रदान की है।वे न जाने किन अज्ञात लोकों की सैर करते और कराते हैं। अपनी कविता के माध्यम से पाठक  और श्रोताओं को जाने कहाँ-कहाँ ले जाते हैं।ये असम्भव सामर्थ्य यदि कहीं है ,तो केवल तुम्हारे पास है, कहीं और नहीं है।

   कहा जाता है कि जब दसों  प्राणों और उपप्राणों द्वारा इस तन को छोड़ दिया जाता है तो दसों इंद्रियों के सूक्ष्म रूप के साथ तुम भी बाहर चले जाते हो।तुम तो अरूप हो ही।बाहर भी अरूप ही रहोगे।परंतु जीव की प्रेत या पितर योनि में जाकर क्या शांत बैठे रहोगे? क्योंकि स्थिरता तो तुम्हारी प्रकृति में है ही नहीं।वहाँ भी कुछ न कुछ गतिमान रहोगे ही ;यह मैं समझता हूँ।उधर ऐसा भी है कि बिना तन के तुम कुछ कर नहीं पाओगे, ये बात अलग है।तुम्हें तो तन के वन में विचरण करना ही भाता है।क्योंकि तन से ही तो तुम्हारा घनिष्ठ नाता है।बिना तन के मन सर्वथा क्रिया शून्य बन जाता है।

हे मेरे मन! अब तक न जाने तुम कितने मनों से मिले हो।कोई तुम्हें भाया ,कोई नहीं भाया।किसी से मिले ,तो मिल कर भी नहीं मिले। और यदि किसी से मिल गए तो ऐसे जैसे दूध में शक्कर।हजारों किलोमीटर की दूरियाँ पार करके भी तुम मिल गए,और यदि नहीं मिले तो एक छत के नीचे  साथ रहने वाले से भी नहीं मिल सके।कहते हैं कि तुम मैले भी होते हो और निर्मल भी होते हो।तुम वह मन नहीं कि गंगा नहाने भर से निर्मल हो जाए।तुम तो यदि हो चंगे !तो घर में ही हर- हर गंगे!!तुम्हारी हर प्रकृति विचित्र है।यही कारण है कि दूर बसा हुआ भी तुम्हारा प्रियवर है ! प्रेय है ! किसी गीत की तरह गेय है! और पड़ौस में रहने वाला भी कोई हेय है।मन ही मन को जाने। मन ही मन को पहचाने। हे मन! तुम्हारे मापने के हमारे पास नहीं हैं पैमाने।तुम्हारी लीला  तुम्हीं जानो।

 ऐ मेरे  प्रिय मन! तुम खट्टे भी हो जाते हो तो मधुर भी होते हो।मधुर होने पर सम्बन्ध भी मधुर हो जाते हैं और तुम्हारे खट्टेपन से रिश्तों में भी खटास घुल जाती है।खट्टे ही नहीं,तुम्हें कड़ुए होते हुए भी पाया गया है।ऐसा भी कुछ जीवन का कटु अनुभव है।

कभी- कभी तो ऐसा भी हुआ है कि तुम भीग - भीग गए हो।इसे सामान्य भाषा में करुणा या दया भाव कहते हैं।जब तुम हर्षित होते हो तो ये तन फूल की तरह हलका हो जाता है।रोम-रोम से हर्ष की फुहार - सी बरसने लगती है।इस तन की सारी दशा और दिशा तुम्हीं तो सुनिश्चित करते हो।दस घोड़ों के इस तन रूपी रथ के चालक तुम्हीं तो हो मेरे मन! भला कोई भी दैहिक हलचल तुम्हारे बिना भी सम्पन्न हो सकती है ? जहाँ तुम ले जाते हो, ये तन-रथ वहीं गतिमान होता है।

हे प्रिय मन!तुम अदम्य हो।यद्यपि यह असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।जिसने तुम्हें अपने वशीभूत कर लिया ,वह तुमसे असम्भव को भी सम्भव करा सकता है। तुम्हारी शक्ति और सामर्थ्य दोनों ही अपार हैं।तुम्हारा कितना भी गुणगान किया जाए,कम है। मेरी शब्द - क्षमता से परे है। हे मन ! तुम तुम ही हो। सर्वथा अतुलनीय !अवर्णनीय!!सर्वथा अकल्पनीय !!! फिर भी तुमसे मिलने का एक छोटा-सा प्रयास किया है।अब यह तो तुम ही जानो कि इस कार्य में कितना सफल हुआ हूँ।


●शुभमस्तु !


15.01.2023●4.00प०मा०

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रामलला की प्राणप्रतिष्ठा● [ सजल ]

 025/2024

 

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● समांत :आम

● पदांत : देखिए।

● मात्राभार :16.

●मात्रा पतन: शून्य।

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अवध पुरी  में  राम    देखिए।

मनहर सुबहो- शाम  देखिए।।


आई    है    बाईस   जनवरी,

सजा  अयोध्या धाम देखिए।


तोरण  द्वार  सजे  अति सुंदर,

स्वागत  में हर  आम  देखिए।


घर - घर  में    होगी   दीवाली,

जगती  में    सर  नाम देखिए।


रामलला    की     प्राणप्रतिष्ठा,

दृश्य  भव्य अभिराम   देखिए।


हर्षित हिन्दू   जन नर -  नारी,

वास्तुकला का   काम देखिए।


दुनिया  की  नजरें   भारत पर,

मंदिर  के  दृढ़   खाम  देखिए।


जग में 'शुभम्' राम ही साँचा,

नहीं   भक्ति  में  दाम देखिए।


●शुभमस्तु !


14.01.2024●9.45आ०मा०

राजनीति का चोर ● [ गीतिका ]

 24/2024


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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यहाँ   वहाँ    हर   ओर   लगा है।

राजनीति    का    चोर   लगा है।।


क्या  मंदिर   का  पावन   ऑंगन,

अनायास    बरजोर    लगा    है।


शालाओं    में      छिपकर   बैठा,

दरिया  में    हिलकोर   लगा   है।


बात  न   माने    संतति    अपनी,

घर -  ऑंगन   कमजोर  लगा  है।


 समझ   रहे  कलयुग   को   त्रेता,

काला  रँग  ही    गोर    लगा   है।


पूरब     चले     बताए      पश्चिम,

रोग  बड़ा    घनघोर    लगा    है।


राज  न    इसका    जाने    कोई,

छुओ   जहाँ   वह   छोर  लगा है।


'शुभम्' सियासत   ज़हर  जलेबी,

जब  देखो   तब   भोर   लगा  है।


● शुभमस्तु !


14.01.2024●11.45आ०मा०

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अवधपुरी में राम ● [ गीतिका ]

 023/2024

  

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अवध पुरी  में  राम    देखिए।

मनहर सुबहो- शाम  देखिए।।


आई    है    बाईस   जनवरी,

सजा  अयोध्या धाम देखिए।


तोरण  द्वार  सजे  अति सुंदर,

स्वागत  में हर  आम  देखिए।


घर - घर  में    होगी   दीवाली,

जगती  में    सर  नाम देखिए।


रामलला    की     प्राणप्रतिष्ठा,

दृश्य  भव्य अभिराम   देखिए।


हर्षित हिन्दू   जन नर -  नारी,

वास्तुकला का   काम देखिए।


दुनिया  की  नजरें   भारत पर,

मंदिर  के  दृढ़   खाम  देखिए।


जग में 'शुभम्' राम ही साँचा,

नहीं   भक्ति  में  दाम देखिए।


●शुभमस्तु !


14.01.2024●9.45आ०मा०

शनिवार, 13 जनवरी 2024

मेरी प्रिय वर्णाका ! ● [आलेख ]

 022/2024

 

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 ●© लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं, तुम मेरे अधीन नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ,पहचानता हूँ।मेरे मानस में निवास करती हो।पर मैं कभी भी तुम्हें छू भी नहीं पाता। मैं तुम्हारी चाहत का दास हूँ।अपनी इच्छा से एक शब्द भी लिख पाना मेरे अधिकार से बाहर है।सब कुछ तुम्हारी इच्छा के अधीन है।तुम चाहो तो कुछ लिखा जाता है और यदि तुम न चाहो तो पिपीलिका की टाँग के बराबर भी अंकित नहीं हो पाता। हे देवी !हे महादेवी !! तुम्हें क्या नाम दूँ ? लेखनी कहूँ ?वर्णाका  कहूँ या क्या कहूँ ?नहीं जानता। 

 तुम मेरे ही पास हो। यहीं कहीं विद्यमान हो। पर इन दो चर्म-चक्षुओं से देखना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।मेरी प्रज्ञा के किस कोटर में निवास करती हो, यह भी मैं नहीं जानता।तुमने मेरे नाम से मुझे कितने ग्रंथ दिए,अनगिनत रचनाएं दीं। परन्तु आज तक मैं तुम्हें वायु और आकाश की तरह ही समझ पाया। जिस प्रकार आकाश अदृष्ट और व्यापक है,वायु अदृष्ट और जीवनदायिनी है,वैसे ही तुम भी अदृष्ट, व्यापक और इस अकिंचन को जीवन प्रदान करती हो।तुम देखी नहीं जा सकतीं। तुम स्थूल जो नहीं हो। तो भला क्यों और कैसे देख पाऊँगा! तुम्हारी अपनी जो प्रकृति है ,वह विधाता की अनुपम और अलौकिक सृष्टि है।अदृष्ट रहकर भी संसार को चलाने वाली माते! वेद ,पुराण उपनिषद गीता ,रामायण आदि सब तुम्हारी ही देन हैं।न जाने कितने जन को उसके कर्ता होने का श्रेय दिया! मुझे भी दिया है और निरंतर दे रही हो। कैसे करूँ शब्दों में तुम्हारी महिमा का गायन! तुम तुम्हीं हो। किसी से उपमा भी तो नहीं दी जा सकती।अनुपमेय हो। अरूप हो।मेरी साधना की साकारता हो। 

 जिसने जितना जाना ,उतना बखाना। परंतु हे माते! तुम तो विविधरूपिणी हो ,जिसके रूप स्वरूप हैं नाना! तुम हर अक्षर में अक्षर हो, शब्द में, वाक्य में , गीत में ,कविता में ,गद्य में ,संगीत में ,वादन में , वाद्य में वादक में , कवि में ,लेखक में ; कहाँ -कहाँ नहीं हो। मैं एक अकिंचन तुम्हें नमन करता हूँ।परम् पिता परमात्मा से यही प्रार्थना करता हूँ कि जन्म- जन्मान्तर मेरा तुम्हारा अन्तर्सम्बन्ध यों ही इसी प्रकार चलता रहे।मैं तुम्हें जानूँ ,तुम मुझे जानो।निराकार रहकर भी तुम मेरे अस्तित्व का अंग बनकर मेरी आत्मा को सार्थकता प्रदान करो। इससे अधिक और क्या चाह सकता हूँ !मैं एक अकिंचन प्राणी। मेरी प्रिय कल्याणी !

 हे महादेवी ! कब तुम मानस के किस सँकरे कोने में दुबक जाती हो। इस अकिंचन को ढूंढ़वाती हो, पर ढूंढ़ने खोजने पर भी मिल नहीं पाती हो। और कभी यों ही निकल कर बाहर धूम मचाती हो , बिना खोजे मिल जाती हो। यही तो तुम्हारी विचित्रता है। तुम्हारा लुका- छिपी का खेल है। मैं आज तक तुम्हें जानकर भी नहीं जाना ,पहचान कर भी नहीं पहचाना। कैसा है ये तुम्हारा अनौखा ताना - बाना। कौन समझ पाया है तुम्हारा आना - जाना। तुम्हें पसंद नहीं है अपनी राह में कोई भी बाधा। उधर बाधा भी जानती है कि उसका काम ही है मात्र बाधा। इसलिए वह आती है और अवश्य बिना बुलाए अनाहूत चली ही आती है। पर तुम हो कि टूटे को भी जोड़ना जानती हो। बाधा का कहा भी कब मानती हो। क्योंकि तुम भी जब चलने का ,अपने पथ में अग्रसर होने का प्रण जब ठानती हो ,तो किसी भी बाधा को कब पालती हो।

    हे मेरी प्रिय वर्णाका ! मेरी लेखनी ! माननीया महादेवी ! यदि तुम एक बार भी रूपाकार हो तो मैं क्या न कर लूँ ! तुम्हें अपने स्नेह पूर्ण आलिंगन में भर लूँ अथवा तुम्हारे चरण युगल में इस अनिकंचन शीश को धर उबर लूँ।नहीं जानता कि मुझसे क्या हो जाए! यदि कुछ धृष्टता भी हो तो क्षमा दान मिल जाए ! 

 ●शुभमस्तु ! 

 13.01.2024●12.00मध्याह्न।

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धर्म -कर्म का विरोधाभास● [ अतुकांतिका]

 021/2024

   

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धर्म का

कर्म से

इतना विरोधाभास

क्यों है?

देखते नहीं

अख़बार में

आदमी इतना बड़ा

चोर क्यों है?


एक ओर

घण्टे घड़ियाल

 लहरती पताकाएँ,

महकती हुई धूप 

मंत्रों की ऋचाएँ,

उधर अत्याचार

रिश्वत बलात्कार

क्या यही है

मानवीय सदाचार?


धर्म का दिखावा!

मात्र ऊपरी पहनावा?

यथार्थ कुछ और!

राजनीतिक उठा पटक

आचरण की  सजावट,

 मानवीय पतन की

बड़ी आहट।


राम के नाम पर

अमानवीय शोषण,

कहलाते धर्म के

वही जन भूषण,

भय और आतंक का

प्रदर्शन !

नकली भक्त आगे

पीछे भेड़ चालन!


कर्म का बीज

कभी मरता नहीं,

धर्म की मूल

पाताल में भी

हरी की हरी!

प्रज्ञा चक्षु खोलें

अपने को टटोलें

तभी धर्म -कर्म का

अंतर खंगालें,

भ्रम नहीं पालें।


●शुभमस्तु !


11.01.2024●7.45आ०मा०

श्रेष्ठ वही शिक्षार्थी ● [ दोहा ]

 020/2024


[शिक्षा,शिक्षक,शिक्षण,शिक्षार्थी,शिक्षालय]

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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          ● सब में एक  ●

शिक्षा का उद्देश्य है,निज व्यक्तित्व विकास।

जीवन  में  नर  के  नहीं, होता  है उपहास।।

निज संतति को दीजिए,शिक्षा उचित अबाध।

जीवन की यह साधना,फलती सदा  अगाध।।


शिक्षक की कथनी वही,जो करनी का रूप।

शिष्य सफल  होते सभी, बनते हैं यश-यूप।।

पूर्ण नहीं  होता  कभी, शिक्षक लेकर   ज्ञान।

तरु झुकता फल लाद कर,बढ़ता उसका मान।।


आजीवन  शिक्षण  करें,कभी न  होते   पूर्ण।

अहंकार जिस पल किया,सभी ज्ञान हो चूर्ण।।

मौलिक शिक्षण चाहिए,छोड़े अलग प्रभाव।

मानवता  जिसमें  दिखे, मिटें हृदय के  घाव।।


सतत  साधना  रत  रहे,बगुला जैसा  ध्यान।

वही     श्रेष्ठ   शिक्षार्थी ,  सोए जैसे    श्वान।।

 ज्ञान -पिपासा  लीन  जो,पाता उत्तम  ज्ञान।

श्रेष्ठ   वही शिक्षार्थी,  मिले जगत   में  मान।।


शिक्षालय बाजार  हैं, बिकती शिक्षा  नित्य।

उद्यम  के  वे  केंद्र  हैं, नष्ट  किया औचित्य।।

शिक्षा की अवमानना, शिक्षालय में  आज। 

करें  नकलची  नित्य  ही,झपटें डिग्री  बाज।।

         ● एक में सब ●

शिक्षालय में  अब हुआ,शिक्षा  का  व्यापार।

शिक्षक शिक्षण क्या करे, शिक्षार्थी  लबार।।


●शुभमस्तु !


10.01.2024● 7.30आ०मा०

राम की सजी अयोध्या ● [गीत ]

 018/2024

   

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 राम की सजी

अयोध्या आज

सजे बहु वंदनवार।


तोरण अवनी

अंबर सरयू

सज्जित हैं चहुँ ओर।

आदि नहीं है

अंत नहीं है

दिखे न कोई छोर।।


सभी प्रेम से

जुटे हुए हैं

सजा रहे सब द्वार।


सुमन महकते

उपहारों में

बरस रहा ज्यों मेह।

हर्ष प्रफुल्लित

नाच रहे जन

रोमांचित  हर देह।।


तरुणी बाला

मुदित नाचतीं

हाथ धरे उपहार।


सरयू में है

कलरव भारी

मछली भरें उछाल।

नाव खिवैया

अब आएँगे

होगा नया कमाल।।


व्यंजन महकें

यहाँ वहाँ बहु

सभी दिशाएँ चार।


● शुभमस्तु !


09.01.2024●10.30 आ०मा०

भक्त खड़े तैयार ● [ गीत ]

 017/2024

  

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम लला का

स्वागत करने

भक्त खड़े तैयार।


आओ मेरे

पूज्य राम जी

सजी अयोध्या आज।

ठुमक -ठुमक पग

धरो धरा पर

सजे हुए सब साज।।


अपने जाने

कमी न छोड़ी

तजना नहीं दुलार।


बिछा नयन के

पलक पाँवड़े

हम करते हैं आस।

आएँगे प्रभु

राम हमारे

बना रहे विश्वास।।


यथाशक्ति बहु

भोग सजाए

किंचित हैं उपहार।


मर्यादा का 

पाठ तुम्हीं से

पढ़ता  है  संसार।

नर -नारी हैं

आज भ्रमित से

पश्चिम से क्यों प्यार।।


'शुभम्' राम जी

कृपा करो नित

हटा पाप का भार।


● शुभमस्तु !


09.01.2024●9.45आ०मा०

प्राची का रँग लाल ● [ गीत ]

 016/2024

  

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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घना कोहरा

मौन विटप सब

प्राची का रँग लाल।


झाँक रहे हैं

सूर्य देवता 

चादर  ओढ़  सफेद।

फैलाते हैं

सजल रश्मियाँ

तनिक न करते भेद।।


उषा सुनहरी

मुख चमकाए

ठंडे -  ठंडे   गाल।


दृश्य मनोहर

तरु लतिका का

पौष  मास की देह।

छूने में वह 

लगती शीतल

नम धरती पर रेह।।


सन्नाटा- सा 

पसरा  बाहर

अंबर हुआ गुलाल।


आग जलाकर

कोई तापे

कोई ओढ़े शॉल।

कंबल का ले

संबल कोई

खेल रहा है बॉल।।


अगियाने को

घेर बैठते

बना आँच की ढाल।


●शुभमस्तु !


09.01.2024●9.15आ०मा०

छाछ बिलोती मेरी अम्मा● [ बाल गीत ]

 015/2024


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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छाछ   बिलोती   मेरी   अम्मा।

करे  मथानी   धम्मक -  धम्मा।।


 सूरज  ने  निज आँखें    खोली।

कुक्कड़ कूँ की   सुनते   बोली।।

गूँज उठी ध्वनि रुनझुन  रुम्मा।।

छाछ  बिलोती    मेरी   अम्मा।।


गाढ़ा    दही    मथानी    डाला।

चमचे  से कुछ दही   निकाला।।

किया  गाल   पर   मेरे   चुम्मा।

छाछ  बिलोती     मेरी   अम्मा।।


पानी थोड़ा    गरम    मिलाया।

चला  मथानी  उसे   हिलाया।।

सोम शनिश्चर  या  हो   जुम्मा।

छाछ  बिलोती  मेरी    अम्मा।।


माखन    तैरा    ऊपर   आया।

गाढ़ा- गाढ़ा   बहुत   लुभाया।।

बादल का ज्यों   बनता  गुम्मा।

छाछ  बिलोती    मेरी  अम्मा।।


दोनों  हाथ    चलाती    जाती।

लवनी  ऊपर    छाती   आती।।

करे     मथानी ज्यों परिकम्मा।

छाछ  बिलोती    मेरी  अम्मा।।


बिस्तर  छोड़   पास  मैं  आया।

देखी लवनी मुँह  भर    लाया।।

मुझे   खिलाई    उम्मा -  उम्मा।

छाछ  बिलोती    मेरी   अम्मा।।


लवनी  'शुभम्' स्वाद से खाता।

भर-भर लौंदा चट  कर जाता।।

और - और  दो  लवनी - गुम्मा।।

छाछ  बिलोती    मेरी   अम्मा।।


●शुभमस्तु !


08.01.2024●6.15प०मा०

प्रेम ● [चौपाई ]

 014/2024

                

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सकल   सृष्टि  में   प्रेम  पसारा।

बहती   जहाँ  सृजन  की  धारा।।

जीव, जंतु,   पशु,   पक्षी  न्यारे।

बने  प्रेम   के   रस     से   सारे।।


पति -पत्नी जग   के   नर-नारी।

सुमनित करते जग की क्यारी।।

प्रेम  धरा  का    अमृत    प्यारा।

बहती  ज्यों   गंगाजल    धारा।।


बढ़ती घृणा  नित्य  क्यों जाती?

प्रेम अंश  को   यहाँ   नसाती।।

प्रेम -  दान   से     प्रेम   बढ़ेगा।

मानवता  के   शिखर   चढ़ेगा।।


इजरायल हमास   क्यों  लड़ते?

क्यों न प्रेम का   पर्वत   चढ़ते??

खून खराबा   उचित   नहीं   है।

किसी ग्रंथ  में  नहीं   सही   है।।


कहाँ  पुतिन का  प्रेम  गया  है?

मरी हृदय  की   पूर्ण   दया है।।

प्रेम -   रीति  भारत   से सीखे।

पाक अंध को   प्रेम   न दीखे।।


राधाकृष्ण   प्रेम    के     राही।

बृज भर ने   गाथा  अवगाही।।

गोपी श्याम    प्रेम    से  भारी।

गूँजी कुंज गली   वन  क्यारी।।


प्रेम - वंशिका    कृष्ण  बजाई।

दौड़ी - दौड़ी    गोपी      धाई।।

नंद   यशोदा   देवकि     मैया।

दाऊ कृष्ण  प्रेम  रस    छैया।।


'शुभम्' प्रेम की   धार   बहाएँ।

घर -घर में  नित स्वर्ग  बसाएँ।।

बैर  छोड़  भारत   को  भर  दें।

प्रेम सुधा आप्लावित   कर  दें।।


● शुभमस्तु !


08.01.2024● 11.30 आ०मा०

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रामनीति ही चाहिए ● [दोहा-गीतिका]

 013/2024

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नर-नारी  सुख  दुःखमय,विविध रूप  संसार।

राम   सदा   रक्षा  करें,   बरसे  प्रेम    अपार।।


पुरी  अयोध्या   धाम  में,बरसे भक्ति - पीयूष,

सरयू की कल-कल  बहे, अमृतवत जलधार।


सबके ही श्रीराम हैं,कण-कण सदा निवास,

राजनीति   दूषित   करे, अपना  करे   प्रचार।


समदर्शी  प्रभु  राम  हैं, सबके हृदय   निवास,

जातिभेद  उनमें   नहीं,बरसे सबको    प्यार।


रामनीति   ही  चाहिए, वही  राम का   राज,

मनमानी  करते    यहाँ,  नेता गण अतिचार।


शबरी,  केवट, गीध  को,  गले लगाते  राम,

पवन  पुत्र  हनुमान  को, सीता करें   दुलार।


'शुभम्'  मुखौटा  में छिपे, रावण क्रूर  अनेक,

दंड   उन्हें   कैसे  मिले,करना  यही  विचार।


●शुभमस्तु !


08.01.2024 ●9.15आ०मा०

राम सदा रक्षा करें ● [सजल]

 012/2024

      राम सदा रक्षा करें ●

                 [सजल]

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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● समांत : आर।

● पदांत : अपदान्त।

●मात्राभार : 24.

●मात्रा पतन: शून्य।

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नर-नारी  सुख  दुःखमय,विविध रूप  संसार।

राम   सदा   रक्षा  करें,   बरसे  प्रेम    अपार।।


पुरी  अयोध्या   धाम  में,बरसे भक्ति - पीयूष,

सरयू की कल-कल  बहे, अमृतवत जलधार।


सबके ही श्रीराम हैं,कण-कण सदा निवास,

राजनीति   दूषित   करे, अपना  करे   प्रचार।


समदर्शी  प्रभु  राम  हैं, सबके हृदय   निवास,

जातिभेद  उनमें   नहीं,बरसे सबको    प्यार।


रामनीति   ही  चाहिए, वही  राम का   राज,

मनमानी  करते    यहाँ,  नेता गण अतिचार।


शबरी,  केवट, गीध  को,  गले लगाते  राम,

पवन  पुत्र  हनुमान  को, सीता करें   दुलार।


'शुभम्'  मुखौटा  में छिपे, रावण क्रूर  अनेक,

दंड   उन्हें   कैसे  मिले,करना  यही  विचार।


●शुभमस्तु !


08.01.2024 ●9.15आ०मा०

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राम-नाम के उजियारे में● [ गीत ]

 011/2024 

  

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 राम-नाम के

  उजियारे में

देखें नयन उघार।


जब तक भाव न

राम रूप का

नेह न आए पास।

अँधियारा ही

दिखता जग में

रहता सदा उदास।।


मन-मंदिर में

बिठा राम को

तब मुख राम उचार।


चुभती तुझको

सुई एक तू

खाता जीवन मार।

उचित कहाँ तक

हिंसा करता

बेवश पशु लाचार।।


करनी का फल

सबको मिलता

रहता नहीं उधार।


जीव   वेदना 

अनुभव करते

जो   बेचारे   मूक।

उनके मन से

आह निकलती

होती कभी न चूक।।



'शुभम्' समझ ले

इतना तय है

लिखते राम लिलार।


● शुभमस्तु !

उर में रहते राम ● [ गीत ]

 010/2024

        

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भक्त के उर में

रहते राम

झाँक ले हृदय-भीतर।


सोना चाँदी 

में यदि होते

पाते धनिक अमीर।

कथरी ओढ़े

पा लेते हैं

उनको संत कबीर।।


राम जपे जो 

साँचे मन से

आम विटप या कीकर।


 जो आया है

उसको जाना

कब तक प्रभु ही जाने।

कुछ भी नहीं

जीव के वश में

कब तक चलें तराने।।


वही सफल क्षण

रमे राम में

क्या करना अति जीकर।


धन को जोड़ा

जपा न थोड़ा

तूने जो हरि नाम।

माया के वश

रहा रात दिन

चाह कामिनी काम।।


'शुभम्' मनुज की

देह धन्य तब

जिए राम-रस पीकर।


●शुभमस्तु !


07.01.2024● 10.00आ०मा०

राम रमे हैं ● [ गीत ]

 009/2024

      

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राम रमे हैं 

प्रति कण-कण में

चर्म-चक्षु तू खोल।


अंतर पट पर

चित्र राम का

बना हुआ है एक।

बुद्धि नहीं जा

सके वहाँ तक

जाने मात्र विवेक।।


दीन दुखी की

आहों में वह

रहता सदा अबोल।


मन से जपना

राम - राम नित

वही जीव  का प्राण।

जन्म वही है

 देता सबको

करता भी वह त्राण।।


राम आदि हैं

अंत न उनका

कहते दुनिया गोल।


खग ढोरों से

अलग बनाया

मानव की दी देह।

जीव जीव का

हंता क्यों है

तुझे दिया है नेह।।


'शुभम्' अहं को

त्याग इसी पल

प्रेम सदा अनमोल।


● शुभमस्तु !

07.01.2024 ●9.30आ०मा०

शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

मैं कर्ता हूँ!' ● [आलेख ]

 008/2024

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● © लेखक 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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                अपने मन और मान्यता की पुष्टि के लिए मनुष्य विविध उपचार करता है।अपने मन को समझाना, मनाना और प्रसन्न रखना एक दुष्कर कार्य है। मन की इन सभी चाहतों को आकार प्रदान करने के लिए उसे विविध उपचार,उपक्रम, क्रियाएँ और कार्यक्रम करने पड़ते हैं।यदि इन सबसे यह मन मान गया ,तो सब ठीक।अन्यथा कुछ भी ठीक नहीं। इस व्यापक प्रकृति में जो जैसा है ,वह तो है ही।चाह कर भी मनुष्य नकार नहीं सकता। अपने को श्रेय देना उसका अपना मानसिक व्यसन हो सकता है।इसलिए वह अनेक उपक्रमों का भागीदार बनकर अपने को अहो भाग्य मानता हुआ प्रसन्न हो लेता है और स्वयं को कर्ता मानकर संतुष्ट भी हो लेता है कि यह मैंने किया।मैं ही कर्ता हूँ। और अदृश्य इतिहास के पन्ने पर अपना नाम स्वयं ही लिख लेता है। 

             जो सर्वत्र रमता है ,वही राम है।यह अकाट्य मान्यता सर्व विदित भी है। जब यह सर्व विदित है तो जो राम सर्वत्र व्याप्त है , उस राम का आगमन क्या ?जो कहीं गया नहीं है ,वह आएगा कहाँ से ?जो राम तुम में मुझ में सब में प्राण संचार करता है ,उसमें यह मनुष्य प्राण संचार कैसे और क्यों करने चला? परंतु एक क्रिया करनी जो है, दुनिया को अपने कर्तापन का मिथ्या बोध जो कराना है ,इसलिए कुछ करने के लिए कुछ करना भर है। वरना जो कर रहे हैं ,वह पहले से ही अस्तित्व में है और सारी सृष्टि के कण- कण में व्याप्त है, उसे प्राणवंत क्या करना ?

           मानवीय सौन्दर्यप्रियता ने अपने प्रियत्व को साकार करने के लिए अनेक निर्माण कार्य किए। युग युग से करता चला आ रहा है।ये किले, महल,बाबड़ियाँ,सड़कें, बाग - बगीचे मानवीय तुष्टि की पुष्टि के विविध प्रतीक हैं। यदि ये सब नहीं होते तो यह संसार एक माली के उद्यान की तरह सजा सँवरा हुआ नहीं होता।यह सब कुछ उसी प्रकार से है ,जैसे आदमी जीवन का एक वर्ष कम होने पर जन्म दिन मनाता है।अंतर केवल सोच का है , चिंतन का भेद है। किन्तु जीवन का एक वर्ष कम होना नकारात्मक सोच है।जबकि आयु का एक वर्ष अधिक होना सकारात्मक सोच है।कम को ज्यादा मान लेने का चिंतन उसका कुछ बनाता बिगाड़ता नहीं, किन्तु झूठे ही खुश हो लेने से उसकी खुशियों में बढ़ोत्तरी अवश्य हो जाती है। एक ही बात को दूसरे ढंग से मानना ही वर्षगाँठ का आयोजन है।ठीक वैसे ही प्राण प्रतिष्ठा भी एक ऐसा स्वयं तुष्टि का उपक्रम है कि सबमें प्राण प्रतिष्ठा करने वाले राम की प्राण प्रतिष्ठा हम करें।

            पर दृष्टि में अपने को श्रेष्ठ प्रदर्शित करना मानव स्वभाव है। अन्यथा उसके अहं की तुष्टि नहीं हो पाती। इसलिए अपने समस्त दोषों पर नवनीत पॉलिश करते हुए गुण- प्रदर्शन करना उसका स्वभाव ही बन चुका है।इसी क्रम में वह जीवन भर प्रदर्शनों की बारात सजाता रहता है। यद्यपि हमारा समाज और वह व्यक्ति स्वयं भी अपनी औकात को भलीभाँति जानता पहचानता है। इसके बावजूद वह अपनी प्रदर्शन प्रियता से बाज नहीं आता। उसे अपने अस्तित्व को पशु - पक्षियों से अलग जो सिद्ध करना है। भले ही वह उनसे प्रतियोगी बनकर उनसे आगे निकल चुका हो। 

        'मैं कर्ता हूँ' : का बोध मानव की अहं तुष्टि का एक साधन है। जिसका परिणाम दुनिया के सारे उपक्रम हैं। कान को हाथ घुमाकर पकड़ने का नाम ही विविधता है,वरना कान तो कहीं गया नहीं है। उसे चाहे ऐसे पकड़ो या वैसे ;पकड़ना तो कान ही है।बस पकड़ने की विधि और हाथ के घुमाव का अंतर मात्र है। क्रिया एक ही है।यही सब मानवीय संस्कार और सभ्यता है। सभय्ता बाहरी आवरण है तो संस्कृति बाहरी सौंदर्य का एक निदर्शन।आज के युग में सभ्यता और संस्कृति का घालमेल ही नई सभ्यता है। जो क्रमशः अत्याधुनिकता की ओर बढ़ती जा रही है। वास्तविक कर्ता को नकार कर स्वयं को कर्ता बना लेना ही अहं की तुष्टि की साकारता है। जो आज अपने यौवन के चरम पर है। 

 ● शुभमस्तु ! 

 05.01.2024● 12.45प०मा० 

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रामनीति का मुखौटा● [ अतुकांतिका]

 007/2024

     

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुखौटों से

देश नहीं चलता,

पता लग ही जाता है

यदि कोई हमें छलता।


रामनीति का मुखौटा

अंदर कुछ और,

दूरगामी परिणाम पर

कीजिए तो गौर,

सबको सबकी जरूरत

जनता ही सिरमौर।


झूठे नारे

झूठे सब वादे,

लगते नहीं हैं

नेक भी इरादे!

भीतर लकदक

बाहर से सादे।


आदर्शों की चादर

उसके नीचे 

अपनी बिरादर,

भाषण में

माताओ बहनो!

ब्रदर! सादर।


मुखौटे पहचानें

उन्हें अपना न जानें

धोखे का लबादा,

नेक नहीं लगता

इनका इरादा,

रामनीति की बातें

कूटनीति की घातें,

दिन को कहलवाएँ रातें।

●शुभमस्तु !


04.01.2024●6.45प०मा०

भामाशाह ● [ अतुकांतिका ]

 006/2024

            

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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श्रेय-अश्व पर

हो सवार

चल पड़ा,

मात्र मैं ही बड़ा

सबसे तगड़ा।


लिया है जो

मन में ठान,

कान बहरे

भरा अभिमान,

क्यों सुने किसी की

कोई भी चिल्लाए!


नया इतिहास-

निर्माण,

रखें पीढ़ियाँ

मुझे ही याद,

वर्षों के बाद।


मैं ही कर्ता

नया ही रचता,

दृष्टियाँ सबकी

मेरी ओर,

हवा का रुख

मेरा पुरजोर।


 न कोई अवरोध

निष्कंटक

बढ़ना पथ पर,

'महानता का 

 मैं  अवतार'

शेष सब झाडूमार।


'शुभम्' स्वर्ण अक्षर में

लिखना है अपना नाम,

कहो मत तानाशाह

एक मैं ही तो

युग का भामाशाह,

सभी करते हैं

मुझसे डाह।


●शुभमस्तु !


04.01.2024● 5.00प०मा०

नववर्षाभिनंदन ● [ दोहा ]

 005/2024

             

[नया साल,नव वर्ष,शुभकामना,दो हजार चौबीस,अभिनंदन]

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                ●  सब में एक  ●

नया साल सबके   लिए,हो शुभकारी    नित्य।

जग में विमल प्रकाश से,चमके शुभ  आदित्य।।

नया साल लाया सभी,खुशियाँ  प्रगति  अपार।

शांति जगत में हो सदा,खुलें सुमति   के  द्वार।।


पौष  माह का  शीत  है ,आया   है    नव वर्ष।

जन-जन को  अति हर्ष है,आशामय  उत्कर्ष।।

सभी   मनुज नव वर्ष में, त्याग परस्पर  बैर।

वसुधा  ही  परिवार  हो,  कहें न कोई    गैर।।


करते   हम शुभकामना,  करे मनुज सत्कर्म। 

आपाधापी    दूर   हो,   सभी  निभाएँ   धर्म।।

जो   करता  शुभकामना,बसते उर  में  ईश।

उर में  प्रभु  का  वास  है, कृपा करें जगदीश।।


दो हजार चौबीस  के,  नए   वर्ष   का   भोर।

जन-जन को हित लाभ दे,हो उत्कर्ष-अँजोर।।

वर्ष  शुभद  है  देश  का , दो हजार  चौबीस।

रामालय  में  आ   रहे,  राम  मिटा उर - टीस।।


अभिनंदन  नव   वर्ष   का, करते     बारंबार।

खुशियों का  अंबार हो,खुलें  प्रगति  नव  द्वार।।

मन  से अभिनंदन  करें, जो आए  तव   द्वार।

उर   में    हो  अनुराग   का, सागर  अपरंपार।।


                ●  एक में सब  ●

दो हजार चौबीस का,अभिनन्दन शत बार।

नया साल नववर्ष की, शुभकामना अपार।।


● शुभमस्तु !


03.01.2024● 7.00 !

अभिनंदन नववर्ष ● [ गीत ]

 004/2024

   

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●© शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अभिनंदन है

नव आगत का

दो  हजार  चौबीस।


खुशहाली के

सुमन बाग में

खिलें  हजारों लाख ।

सकल विश्व में

भारत माँ की

बढ़े नित्य प्रति शाख।।


सभी सुखी हों

आनंदित हों

मिले न कोई टीस।


युवा वर्ग को

सही दिशा का

सुलभ सदा हो ज्ञान।

नर - नारी में

हेलमेल हो

छिड़े प्रेम की तान।।


उचित समय पर

बादल बरसें

उत्पादन   इक्कीस।


नेताओं में 

देश प्रेम हो

रहें  लूट  से  दूर।

विकसित हो ये

देश हमारा

उन्नति हो भरपूर।।


प्रजातंत्र में

प्रजा राज हो

नहीं  निपोरें  खीस।


●शुभमस्तु !


02.01.2024●2.00आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

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श्री गणेश ● [ चौपाई ]

 003/2024

        

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नए  वर्ष  की  शुभ  अगुआई।

विगत वर्ष  की  हुई   विदाई।।

श्री  गणेश की शुभता कर लें।

सँवर  न पाए  और  सँवर लें।।


करते  श्री गणेश   का  वंदन।

लगा  भाल पर टीका  चंदन।।

श्री गणेश जी विघ्न  विनासें।

भक्त गणों की  महकें  साँसें।।


करें काम तो विघ्न  न आएँ।

श्री गणेश हर  संकट  ढाएँ।।

श्री गणेश शिव गौरी   ढोटा।।

बूँदी - मोदक   खाते  मोटा।।


श्री  गणेश  जब  कोई  करना।

तनिक नहीं  विघ्नों से  डरना।।

भाव हृदय का शुभ ही रखना।

शुभ फल रसानंद ही चखना।।


श्री गणेश ने  यही  सिखाया।।

मात-पिता को श्रेष्ठ   बताया।।

परिक्रमा   कर   पहले  आए ।

धरती माँ  के  सम   बतलाए।।


सबसे    पहले     पूजे   जाते।

श्री गणेश सब दुःख   नसाते।।

जो न मान्यता   उनको   देता।

कदम -कदम पर संकट लेता।।


'शुभम्' नाम  है  श्री गणेश का।

नाम  न रहता शेष   क्लेश का।।

श्री  गणेश  का   दें   जयकारा।

लंबोदर    शुभ   लाभ   हमारा।। 


●शुभमस्तु !


01.01.2024●2.15प०मा०

सोमवार, 1 जनवरी 2024

मंगलमय हो विश्व को ( सजल)

 002/2024

   दो      हजार  चौबीस  के, नए वर्ष का भोर।

मंगलमय  हो विश्व को,मिले हर्ष  पुरजोर।।


घर-घर में  आनंद  हों,विकसित भारत देश,

मनसा, वाचा,कर्मणा,उर सत्कर्म- हिलोर।


कविता में  शुभ भाव के,आएँ शब्द  नवीन,

मातु   शारदा  की  कृपा, के  नाचें उर-मोर।


जन हितकारी  काव्य की,रचना हो इस वर्ष,

ममता,करुणा,प्रेम से, जन हों भाव  विभोर।


सीमा पर हो  शांति  नित,आए देश सुराज,

नेताओं  की  बुद्धि हो, निर्मल शुद्ध अँजोर।


शोषण  भ्रष्टाचार  का,  हो  विनाश परिपूर्ण,

बदले वेश  समाज  में, मिटें  दस्यु जन चोर।


'शुभम्' समय से मेघ दल,बरसाएँ शुचि  नीर,

देश मुक्त दुर्भिक्ष हो,गति विकास की  ओर।

 ●शुभमस्तु !

01.01.2024●6.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

नए वर्ष का भोर ● [दोहा गीतिका]

 001/2024

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

दो हजार  चौबीस  के, नए वर्ष का भोर।

मंगलमय  हो विश्व को,मिले हर्ष  पुरजोर।।


घर-घर में  आनंद  हों,विकसित भारत देश,

मनसा, वाचा,कर्मणा,उर सत्कर्म- हिलोर।


कविता में  शुभ भाव के,आएँ शब्द  नवीन,

मातु   शारदा  की  कृपा, के  नाचें उर-मोर।


जन हितकारी  काव्य की,रचना हो इस वर्ष,

ममता,करुणा,प्रेम से, जन हों भाव  विभोर।


सीमा पर हो  शांति  नित,आए देश सुराज,

नेताओं  की  बुद्धि हो, निर्मल शुद्ध अँजोर।


शोषण  भ्रष्टाचार  का,  हो  विनाश परिपूर्ण,

बदले वेश  समाज  में, मिटें  दस्यु जन चोर।


'शुभम्' समय से मेघ दल,बरसाएँ शुचि  नीर,

देश मुक्त दुर्भिक्ष हो,गति विकास की  ओर।

 ●शुभमस्तु !


01.01.2024●6.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...