शुक्रवार, 30 जून 2023

आगे राजा पीछे रानी● [ बालगीत ]

 283/2023

 

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आगे   राजा      पीछे    रानी।

चली  आ रही   यही कहानी।


मधु -  माधव  वसंत मदमाता।  

ऋतुओं का राजा  आ  छाता।।

शीत न   गरमी     बरसे  पानी।

आगे     राजा   पीछे    रानी।।


खिलते फूल हँसीं सब कलियाँ।

करें     तितलियाँ भी रँगरलियाँ।।

पुष्प -   पराग     लुटाए  दानी।

आगे       राजा      पीछे   रानी।।


जेठ - अषाढ़   लुएँ   हों भारी।

तपन   घाम  की   फैले  सारी।।

आँधी  में   उड़   जाती  छानी।

आगे     राजा     पीछे     रानी।।


तपे  निदाघ    जेठ  में   बेढब।

कष्ट झेलते जड़  - चेतन तब।।

बड़े -  बड़ों   की  मरती  नानी।

आगे      राजा       पीछे   रानी।।


सावन  भादों  पावस  आती।

झरतीं बुँदियाँ भर औलाती।।

खूब  बरसता है तब    पानी।

आगे   राजा     पीछे   रानी।।


'शुभम्' तभी सब हर्षित होते।

लगा लगा    पानी   में  गोते।।

सुखी हो   रहे    सारे    प्रानी।

आगे   राजा    पीछे    रानी।।


●शुभमस्तु !


30.06.2023◆2.45प०मा०

आ गई जुलाई ● [बाल गीतिका]

 282/2023

        

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जून विदा  आ  गई   जुलाई।

ऋतुओं की रानी अब आई।।


नहीं धूप    लू    गरम हवाएँ,

हुई  तपन की  पूर्ण    विदाई।


रिमझीम -रिमझिम बूँदें झरतीं,

दीवारों   पर   जमती    काई।


हैं   प्रसन्न नर  -नारी हम सब,

पशु -पक्षी में   खुशियाँ  छाई।


नदियाँ नाले भर -  भर चलते,

गड्ढे   भरे   भरी   सब   खाई।


हरे -  हरे   अंकुर   उग   आए,

शुष्क पेड़ लतिका   हरिआई।


इधर    बोलते  मोर    मनोहर,

उधर    रागिनी   कोयल गाई।


'शुभम्'  सभी ने   हर्ष मनाया,

कहते सब शुभ    वर्षा   आई।


●शुभमस्तु !


30.06.2023●2.00प० मा ०


असली जीवन ● [ बाल गीतिका ]

 281/2023

   

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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असली जीवन बचपन वाला।

नहीं मुलम्मा पचपन  वाला।।


बचपन में सब स्वच्छ शुद्ध है,

नहीं नशे का   छुटपन  ढाला।


अंदर    जैसे    वैसे     बाहर,

नहीं लगा झुटपन  का ताला।


नंगा   तन ,पर   नहीं    नंगई,

यौवन  में    नंगापन   काला।


खाने  और   दिखाने   को ये,

नहीं बतीसा   ठनगन  वाला।


हम  न झूठ के   लगा  मुखौटे,

पिटवाते  हैं  अपन   दिवाला।


'शुभम्' विवशता एक हमारी,

रुके न अपना बचपन आला।


●शुभमस्तु !


30.06.2023◆1.30 प०मा०

अभिनय● [ अतुकान्तिका ]

 280/2023

              

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अभिनय में ही

जीवन बीता,

बचपन मात्र 

यथार्थ मनुज का,

शेष रहा सब रीता।


जो जैसा था

दिखा न पाया,

पहन आवरण

मास्क लगाया,

फिर भी छिपा न

सुमन कली का।


यौवन, प्रौढ़,

जरा सब नकली,

रूप गुप्त कर

नर ने असली,

किया नित्य ही

ढोंग बली का।


क्या नारी - नर

ढोंगी सारे,

जितना छिपता

धीमान बेचारे!

खाने को

घी दूध मलीदा।


'शुभम्' चलें

 उस ओर किनारे,

जहाँ न नाटक

नायक न्यारे,

खुला खेल

रघुवर संग सीता। 


●शुभमस्तु !


29.06.2023◆9.45प०मा०


उदासी के आयाम ● [ कुंडलिया]

 279/2023


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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

रहता  कभी   प्रसन्न मन,कभी उदासी  मीत।

आनंदित   रसमग्न हो,  गाता मधु    संगीत।।

गाता  मधु  संगीत, रूप पल-पल   में   बदले।

भरता  भाव-कुभाव,कभी नहले    पर  दहले।।    

'शुभं'न मन की चाल,समझ पाया रवि उगता।

बना रहा दिन-रात, जगत-मस्तक पर रहता।।


                        -2-

छाया  आनन-पट्ट पर,सघन उदासी - अंक।

चिन्तातुरता छा गई,क्या वह गुप्त   कलंक!!

क्या वह गुप्त कलंक,समस्या-समाधान का।

मिला न तुझको अंश,कष्ट है तुझे  मान का।।

'शुभम्' वहीं निस्तार,जहाँ अवसाद समाया।

तैल - बिंदु विस्तार,रोक तब मिटती  छाया।।


                        -3-

कोई  सदा  न एकरस,रह पाया  इस  लोक।

हर्ष  कभी  आनंदरत, कभी हो   रहा  शोक।।

कभी  हो रहा शोक, मनुज-मन  ऐसे   डोले।

ज्यों  पीपल  के  पात, हिले हों होले - होले।।

'शुभम्'शून्य परिणाम,पका कर जतन रसोई।

हुई   उदासी   ढेर,  खेह  बन रहे   न  कोई।।


                        -4-

मानव  कालाधीन  है,  कर  ले   चिंतन  मीत।

कभी रुदन हँसना कभी,सोहर परिणय गीत।।

सोहर परिणय  गीत,उदासी जब  भी   आती।

 भाता  कब  मनमीत,  जिंदगी नहीं  सुहाती।।

'शुभम्'  देह सब एक,कभी नर बनता दानव।

कभी देव  अवतार, कभी बनता  है  मानव।।


                        -5-

कविता में सजता वही,जैसा कवि  का  भाव।

कभी उदासी  से भरा,कभी सुरस  का  हाव।।

कभी सुरस का हाव,उतर निधि  मोती पाता।

गहराई   का   चाव,  नई चमकार   सजाता।।

'शुभम्' पहुँच की बात,नहीं जा   पाए सविता।

कवि का वहाँ प्रसार,चमकता उसकी कविता।


●शुभमस्तु !


29.06.2023◆5.45प०मा०

पावस● [ सोरठा ]

 278/2023

           

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कजरी नहीं मल्हार, पावस की ऋतु आ गई।

लिखा न शुभद लिलार,  अमराई  सूनी पड़ी।।

सुने  न   दादुर - गीत, वीर बहूटी    केंचुए।

बतलाओ  हे  मीत, पावस क्यों  बेरंग   है।।


बरसे जलद फुहार,सावन- भादों  माह में।

ऋतु- रानी का प्यार,  पावस है मनभावनी।।

पावस का उपहार,बिजली कड़की  मेघ में।

दंपति सह परिवार,कृषक सभी हर्षित बड़े।।


हरी - हरी  है  घास, खेत, बाग, वन  झूमते।

मिटी धरा की प्यास, पावस में    पशु   कूदते।।

भरे  नदी  तालाब ,  पावस के घन झूमते।

गदला बहता आब,कल-कल नद-नाले करें।।


भीगा -भीगा भोर,पावस की ऋतु आ गई।

लेता हिया  हिलोर,नर-नारी चहके   सभी।।

बरसी पावस मीत,गड़ -गड़ गरजे मेघ दल।

सुरसरि  सम  संगीत,मन मेरा गाने   लगा।।


तरु   से लिपटी बेल,देख -देख  मन झूमता।

पावस का है खेल,विरहिन के उर  आग  है।।

जुगनू   चमके   रात, लालटेन अपनी  लिए।

दिखा न एक प्रभात,पावस की अपनी छटा।


हरे -  हरे    शैवाल,   पावस में उगने   लगे।

धूसर   कोई   लाल,   घूर कुकुरमुत्ते   सजे।।


●शुभमस्तु !


29.06.2023◆11.30आ०मा०

हरी चूड़ियाँ ● [ नवगीत ]

 277/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हरी चूड़ियाँ

खन - खन बोलें

अँगना  गेह  रसोई।


गुन -गुन गाती

गीत सुहागन

मस्तक -बिंदिया चुप-चुप।

खड़ी ओट में

पिया निहारे

सट कपाट से छुप -छुप।।


कभी उठाती

पलकें दोनों

रस- घट युगल डुबोई।


जब गाती हैं

गीत चूड़ियाँ

प्रियता बरसे सज - धज।

आपस में

कुछ बतियाती -सी

चाल थिरकती ज्यों गज।।


मुखर निमंत्रण 

देती चूड़ी

औऱ  न समझे कोई।


मौन हो गईं

भरी कलाई

आलिंगन में जाकर।

प्रिया खो गई

तन - मन अपने

नेहामृत को पाकर।।


है निशंक वह

सहज समर्पण

अंतर देह भिगोई।


शब्द मौन हैं

साँसें गाएँ

तेज - तेज नव सरगम।

रुके हुए पल

कब तक रुकते

अंग- अंग है हर नम।।


शृंगारित हैं

सभी सृजन क्षण

एक प्राण तन दोई।


●शुभमस्तु !.

29.06.2023◆10.30 आ०मा०

बुधवार, 28 जून 2023

जलधर ● [दोहा ]

 276/2023

      

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● © शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जलधर उमड़े व्योम में,ज्यों मम उर में भाव।

हरी-भरी  धरती  हुई, मिटे तपन  के  घाव।।

सावन भादों में लगी,जलधर झड़ी  अपार।

हर्षित हैं नर-नारि सब,जड़- चेतन  संसार।।


काले जलधर झूमते,ज्यों काले गज  व्योम।

दिनकर भी दिखते नहीं, नहीं चमकते  सोम।।

जलधर जल धारण किए, आए आँगन द्वार।

कृषक मुदित आभार में,है प्रसन्न     संसार।।


पहले पावस मास में,खिलते थे   जो   रंग।

अब जलधर  बरसा रहे,नहीं केंचुआ  संग।।

वीर बहूटी अब नहीं,दिखती सावन   मास।

भेक  नहीं  टर्रा रहे,जलधर का   उपवास।।


जलधर देखे   व्योम में,हुई कोकिला   मौन।

पीउ-पीउ की रट कहाँ,सुनता है अब कौन??

ले दलबल जलधर चले, बरसाने  जलधार।

प्यासी अवनी को करें,दे -दे अपना    प्यार।।


बाँहों  में   अपनी    भरे, आए जलधर  श्याम।

आलिंगित धरणी खिली,प्रमुदित ललित ललाम

बिजली    कौंधी    शून्य में,  तड़पे    बारंबार।

जलधर करते गर्जना, बरसा कर    जलधार।।


विरहिन प्यासी नेह की,आए अभी न श्याम।

जलधर वाणी जब सुनी,बेकल   राधा वाम।।


●शुभमस्तु !


28.06.2023◆10.30आ०मा०

पावस आई झूमकर ● [ दोहा ]

 275/2023


[ बूँदाबाँदी,बरसात,धाराधार, पावस,चातुर्मास]

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●©शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       ● सब में एक ●

बूँदाबाँदी ने  किया,शीतल नम    परिवेश।

हर्षित सभी किसान हैं,हरित धरा के  केश।।

बूँदाबाँदी  से   पड़ी, शीतल   मंद   फुहार।

हँसे लता तरु जंतु जन,पिक की मधुर गुहार।।


आते ही बरसात के,मिटी धरा  की  प्यास।

तपती थी  जो जेठ में,अब क्यों  रहे  उदास।।

करें प्रतीक्षा जीव जड़,कब आए बरसात।

अंकुर उगते अवनि में,मंगल शुभद प्रभात।।


सावन   भादों  मास   में,बरसे धाराधार।

बादल छाए व्योम में,करते कृपा  अपार।।

देख  बरसता  मेघ  को, भू पर धाराधार।

मोद भरे नर - नारियाँ, है कृतज्ञ  संसार।।


माधव   ही  ऋतुराज  है,  रानी पावस   मीत।

सुन कोकिल आह्वान को,बजे सलिल-संगीत।

कंत अकेली छोड़कर, मत जाना   परदेश।

पावस आई झूमकर,विरह न हो लवलेश।।


पावन चातुर्मास  में,श्रावण  भादों  क्वार।

कर अर्चन हरि विष्णु का,कार्तिक है त्योहार।।

करें भक्ति व्रत शुभ्र प्रिय,आया  चातुर्मास।

शोभन शुचि परिवेश है,हरि निद्रा  आवास।।


        ● एक में सब ●


बूँदाबाँदी हो   रही,

                     ऋतु पावस बरसात।

बरसे  धाराधार  जल,

                       चातुर्मास प्रभात।।


●शुभमस्तु !


28.06.2023◆6.30आ०मा०

मन खिंचता ही जाए ● [ गीत ]

 274/2023


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●©शब्दकार 

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खड़ी ओट में

लख मृगनयनी

मन खिंचता ही जाए।


खुले केश सिर

माथे बिंदिया

मंद -मंद  मुस्काती।

कुंडल झूमें

कानों में दो

द्विज-मुक्ता चमकाती।।


भौंहें वक्रिम

सजी कँटीली

काजल नयन सजाए।


आधी लुक - छिप 

मुदित निहारे

देखे उसे  न कोई।

देख सके वह

सबको इकटक

दृष्टि दूध से धोई।।


जो देखे वह

यौवन-बाला

देख - देख रह जाए।


लगता है ये

प्रेमी उसका

पथ पर आता-जाता।

मिले नयन से

नयन युगल के

देख श्याम शरमाता।।


बरसाने की

राधा मानो

दृष्टि न थकने पाए।


●शुभमस्तु !


27.06.2023◆7.30आ०मा०

तरुणाई ● [चौपाई]

 273/2023

            

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बचपन विदा मिली तरुणाई।

सावन को   बयार   पुरवाई।।

खेल - खिलौने   छोड़े   सारे।

लगे  चमकने  दृग   में  तारे।।


आँखों   में   छाई  हरियाली।

फूली तन की डाली - डाली।।

तरुणाई    के   खेल  निराले।

 भाग्यवान के   खुलते ताले।।


खेल  अनौखे   तरुणाई   के।

दिखा रहा   है   निपुनाई के।।

काम-कामिनी  में   जा  डूबा।

नहीं  एक पल  मानव ऊबा।।


क्या नारी क्या नर -  तरुणाई।

ज्यों कलगी पर  बाली आई।।

महक उठे तन - मन भी सारे।

लगते संतति  उसको  प्यारे।।


तरुणाई   के   मद   में  भूला।

देह और मन दिखता  फूला।।

आँधी   से  जाकर   टकराता।

तूफानों   के   गीत   सुनाता।।


सरिता की   धारा   को उलटे।

नहीं लक्ष्य  से  पीछे   पलटे।।

सैनिक बनकर  देश  बचाता।

तरुण वही सच्चा कहलाता।।


'शुभम्' नहीं   खोएँ  तरुणाई।

युग ने  यौवन- महिमा गाई।।

थिरता नहीं   जगत  में कोई।

मुरझाती   हर   माला   पोई।।


●शुभमस्तु !


26.06.2023◆4.00आ०मा०

कर्मठ बनें यथेष्ट ● [ गीतिका ]

 272/2023

  

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शोभन  मेरा देश,जननि ने जन्म  दिया है।

पावन  है  परिवेश,अन्न खा नीर  पिया है।।


करते  हैं  जो  द्रोह, शत्रु  हैं भारत  माँ   के,

चिपकी जौंकें गोह,जन्म बदनाम किया है।


धन्य  वही   है  देह, काम आए जननी  के,

मिले धरा की खेह,सुकृत में नहीं  जिया  है।


व्यर्थ मनुज का गात,ढोर- सा जीवन जीता,

पछताए दिन-रात,फटे को नहीं  सिया  है।


उत्तम   संतति-जन्म, नहीं दे पाए  मानव,

भावहीन है मर्म,जननि शूकर कुतिया  है।


कर्मों से ही यौनि, सुधरती जीव  मात्र की,

बनता बकरी,गाय,भेड़,बछड़ा,बछिया है।


'शुभम्'मनुज तन श्रेष्ठ,कर्म का साधन तेरा,

कर्मठ बने यथेष्ट,ज्योति का पुंज  दिया है।


●शुभमस्तु !


26.06.2023◆1.30 प०मा०


धन्य वही है देह ● [ सजल ]

 271/2023

   

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●समांत :इया

●पदांत :है।

●मात्राभार :24.

●मात्रा पतन:शून्य।

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शोभन  मेरा देश,जननि ने जन्म  दिया है।

पावन  है  परिवेश,अन्न खा नीर  पिया है।।


करते  हैं  जो  द्रोह, शत्रु  हैं भारत  माँ   के,

चिपकी जौंकें गोह,जन्म बदनाम किया है।


धन्य  वही   है  देह, काम आए जननी  के,

मिले धरा की खेह,सुकृत में नहीं  जिया  है।


व्यर्थ मनुज का गात,ढोर- सा जीवन जीता,

पछताए दिन-रात,फटे को नहीं  सिया  है।


उत्तम   संतति-जन्म, नहीं दे पाए  मानव,

भावहीन है मर्म,जननि शूकर कुतिया  है।


कर्मों से ही यौनि, सुधरती जीव  मात्र की,

बनता बकरी,गाय,भेड़,बछड़ा,बछिया है।


'शुभम्'मनुज तन श्रेष्ठ,कर्म का साधन तेरा,

कर्मठ बने यथेष्ट,ज्योति का पुंज  दिया है।


●शुभमस्तु !


26.06.2023◆1.30 प०मा०


सपरेटा पर मलाई ● [क्षणिकाएँ ]

 270/2023

 

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                    -1-

नीचे सपरेटा

ऊपर तैरती मलाई,

'भक्तों' की भीड़

देख-देख खिलखिलाई।


                   -2-

सोना रखा

रह गया घर में,

हीरे की चमक

रही बाहर ही दिखाई।


                 -3-

लगी हुई

घर में आग,

जाकर कहीं और

जल  - झड़ी

बरसाई।


                  -4-

 हमारे 

कानों को,

ढोल दूर के

बड़े ही मनोरम

देते सुनाई।


                   -5-

पीते हैं जो स्तन्य

हो गए हैं धन्य,

झाँकते नहीं भीतर

सत्य देता नहीं दिखाई।


●शुभमस्तु!


23.06.2023◆6.45आ०मा०

योग:कर्मसु कौशलम ● [ दोहा ]

 269/2023

 

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मिले  एक   से एक जो, कहलाता  है   योग।

शक्ति  एकता  की  बढ़े,कहते हैं    सब  लोग।।

अंग - अंग  गतिशीलता, करती  देह  निरोग।

जड़ता को तज कीजिए,मित्रो नित्य सु-योग।।


एक दिवस  के योग से,मिले न इतना  लाभ।

नित्य नियम से जो करे,बढ़ती उसकी आभ।।

पशु - पक्षी करते सभी,नित्य नियम से योग।

वे   औषधि   लेते   नहीं,रहते सदा   निरोग।।


योग: कर्मसु  कौशलम, यही मर्म  है  मीत।

तन-मन  में  दें  संतुलन,चलें नहीं  विपरीत।।

शब्द - भाव के योग से,रचता है कवि  छंद।

कविता में रस-स्रवण कर,बाँट रहा मकरंद।।


योग  नहीं  बस देह  का,प्राणों का   आयाम।

कुंभक  रेचक  कीजिए, वेला ब्रह्म   प्रणाम।।

स्वस्थ देह में स्वस्थ धी,करती सदा  निवास।

योग-साधना जो करे,करके सफल   प्रयास।।


योग     नहीं  है  आज  से,भूलें नहीं  अतीत।

योगेश्वर   श्रीकृष्ण  से,चलें नहीं    विपरीत।।

पातंजलि ऋषि ने किया,जन-जन योग प्रसार।

देह  योग  से  ढालिए, कभी  न   होगी   हार।।


सत्कर्मों   के योग का,सदा सुफल है   मीत।

संतति चले सुमार्ग में,गाती यश  के  गीत।।


●शुभमस्तु !


21.06.2023◆11.45आ०मा०


माँ ममत्व - भंडार● [ दोहा ]

 268/2023

 

[माँ,पिता,वात्सल्य,ममत्व,पुत्र]

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       ● सब में एक ●

संतति हित माँ का सदा,आँचल छायादार।

उऋण नहीं होना कभी,आजीवन आभार।।

पिता और माँ का युगल,है ईश्वर  साक्षात।

हर घर में होता सदा,उनसे 'शुभम्' प्रभात।।


अंबर-सा विस्तीर्ण है,नित्य पिता-उर मीत।

जो जाना क्षमता सदा,गाता  है  जय-गीत।।

यदि  ईश्वर  को देखना,घर को मंदिर   मान।

कृपावन्त तेरे  पिता,मूढ़ मनुज    पहचान।।


गुरु माता पितु का सदा,यदि चाहें वात्सल्य।

सेवा  - पूजन नित  करें,वही ईश  के  तुल्य।।

माता  के  स्तन्य  में,पीता शिशु  वात्सल्य।

वही कृपा आशीष है,तन-मन हित नित बल्य।


मात-पिता सौजन्य का,मिलता जिसे ममत्व।

सफल वही  संतति सदा,पाती जीवन-सत्व।।

माँ ममत्व-भंडार है,ज्यों निधिगत मधु नीर।

आजीवन सद गंध दे,पितु का अमर उशीर।।


पुत्र पात्रता  शून्य जो, समझें    शूकर - श्वान।

जनक-जननि को भूलता, मच्छर ढोर समान।।

फसल वही  उत्तम सदा,रहित कंडुआ  पेड़।

त्यों न पुत्र संतति कुटिल, मारे  घर की रेड़।।

     

        ● एक में सब ●

पिता और माँ का मिला,

                        संतति को वात्सल्य।

पाता पुत्र ममत्व नित,

                           दिव्याशीष अतुल्य।।


●शुभमस्तु !


21.06.2023◆6.00आ०मा०

मंगलवार, 20 जून 2023

बहुजिह्वी ! ● [ व्यंग्य ]

 267/2023


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©व्यंग्यकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीव और जीभ :इन दोनों की राशि नाम और उच्चारण में बहुत बड़ा साम्य है।जल, थल और आकाश में चौरासी लाख यौनियों के जीवों की अपार भरमार है।इनमें से जंतु कहलाए जाने वालों के मुखों में एक- एक अदद जीभ भी होती है।जंतुओं की विविध प्रजातियों में एक जंतु मनुष्य भी है।इसके मुँह में प्रत्यक्षतः एक ही जीभ दिखाई देती है। नाग - नागिन की तरह भीतर से एक और बाहर से दो जीभें नहीं दिखाई देतीं।

 मनुष्य की एक जीभ भी बड़ी चमत्कारी है।कभी- कभी तो एक ही पूरे परिवार पर भारी है। किसी - किसी जीभ ने तो मोहल्ले - पड़ौस की दुनिया भी तारी है।किंतु दिन- रात चलते-चलते वह आज तक नहीं हारी है। मनुष्य की जीभ के बहुरूपिये रूप और कार्यों पर यदि विचार किया जाए तो एक महाग्रंथ ही तैयार हो जाए।यद्यपि इस जीभ में कोई हड्डी या कारटीलेज आदि कठोर तत्त्व नहीं है।फिर भी कभी -कभी यह वज्र से भी कठोर होकर आघात करती है कि महाभारत होने में देर नहीं लगती।प्रत्यक्षत:यह एक ही दिखाई देती है , किन्तु यही एक जीभ मनुष्य को बहु जिह्वी बनाती है। इसके अच्छे औऱ बुरे कार्यों की सूची इतनी छोटी भी नहीं है।षटरसों का स्वाद लेने से लेकर यह तेज तलवार, खंजर और बंदूक की गोली से भी अधिक प्रहारक मार करती है।वह भी यही जीभ है जो फूल बरसाती है तो ऐसा लगता है कि इधर से पुष्पवर्षा होती रहे और उनकी कोमलता और सुंगन्ध का आनंद लेते हुए इसी की छत्रछाया में बैठे रहें। 

 अपनी बेटी के लिए प्रत्येक माँ की जीभ से फूल ही बरसते हैं।किंतु वही जीभ अपनी पुत्रवधू के ऊपर ईंट, पत्थर, काँटे,धूल,कीचड़ क्या कुछ नहीं बरसाती। उसकी बदली हुई दृष्टि उसकी जीभ के माध्यम से उसके ऊपर वज्राघात करने में कभी नहीं चूकती। यदि नारियों के मुख में एक ही जीभ होती तो कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत नहीं होता। नहीं सीता और राम को बारह वर्ष का वनवास होता और न आदिकाल से घर -घर के आँगन में महाभारतों के लघु संस्करणों की पुनरावृत्ति होती। 

 यद्यपि नारी को देवी स्वरूपा मानते हुए पूजा जाता है।यदि नारी देवी स्वरूपा है ,तो क्या उसकी जीभ के कारण अथवा किसी अन्य कारण से?यह एक द्विविधाग्रस्त प्रश्न है।'भय बिनु होय न प्रीति ' के अनुसार भी हो सकता है कि उसके विशेष जिह्वा गुण के कारण इतना महत्व दिया गया हो।यदि उसे देवी स्वरूपा नहीं माना जायेगा तो घर का चूल्हा भी नहीं जलेगा।अंततः पुरुष को नारी से अनेक उल्लू भी तो सिद्ध करने हैं।इसलिए उसकी आरती उतारना घाटे का सौदा नहीं है। 

 नारी को प्रसन्न रखने के लिए पुरुष वर्ग द्वारा अनेक उपचार किये जाते रहे हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रकृति ने भी उनमें आभूषण प्रेम औऱ सजने - सँवरने का विशेष लोभाकर्षण कूट -कूट कर भर दिया है।चाहे वह निपट गँवार ग्राम्य बाला हो अथवा पी एच०डी० या एम०बी०बी०एस० धारी प्रबुद्घ नारी हो। जज, वकील इंजीनियर या किसी राज्य या केंद्र की कैबिनेट मंत्री ही क्यों न हो, आभूषण प्रेम के नाम पर इन सबकी रचना एक ही तत्व से हुई है। नारी के जीभ रूपी अस्त्र से बचने के लिए उसमें मार्केटिंग,वाणी - मांजुल्य ,पोषण भाव,नेत्र -चमत्कार जैसे अनेक विशेष तत्त्व समाहित किए गए हैं।मानव की जीभ का बहुरूपियापन न जाने कितने गुल खिला सकता है। कोई नहीं जानता।

 पल में माशा पल में तोला वाली कहावत इस ढाई इंच की जिह्वा पर सटीक खरी उतरती है। इसे पलटने में भी देर नहीं लगती।तभी तो किसी कवि ने कहा है कि 'जीभ स्वर्ग ले जाय जीभ ही नर्क दिखावे।' इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि इस जीभ के कारण ही स्वर्ग और नरकों का निर्माण इस धरा-धाम पर हुआ है ।भला हो उस जीभ निर्माता का जिसने मानव के मुख में एक ही जीभ दी।यदि एक से अधिक जीभें होतीं तो संसार का रूप कुछ और ही होता।जब एक ही जीभ सौ प्रकार से सक्षम हो ,तो बहुत जीभें क्यों दी जातीं? अभी तो अर्थ का अनर्थ होता है ,फिर पल -पल महा अनर्थ ही होते। स्वर्ग की कल्पना करना भी असंभव हो जाता।साँप की जीभ के दोनों भाग विविध प्रकार की गंधें ग्रहण करते हैं ;किन्तु मनुष्य की जीभ क्या कुछ ग्रहण नहीं करती? इतना अवश्य है कि इसके सहयोगी दो नेत्र औऱ दो कान भी इसकी भरपूर मौन मदद करते हैं।अपना काम करके झटपट बत्तीस हिमायतियों के बीच लुप्त हो कर अपना भोला भाव दर्शन करती है। वास्तव में जीभ की महिमा है अपरम्पार ।वह अच्छा ही है मुँह का बंद हो जाता द्वार । अन्यथा खुले रहते यदि इसके किवाड़ तो भड़-भड़ करती रहती हर पल अनिवार।

 ●शुभमस्तु ! 

 20.06.2023◆ 6.30आ०मा०

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सोमवार, 19 जून 2023

नैतिकता ,कानून और 'रिश्तात्त्व में रहन' ● [व्यंग्य]

 266/2023

 

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●©व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                 जैसा भी हो अपने देश के कानूनों को मानना,उनका सम्मान करना और उनकी बनाई गई लकीर पर फ़क़ीर बनकर कर फक्र करते हुए उनका अनुपालन करना हमें देश का सच्चा नागरिक बनाता है।भले ही वे कानून समाज,नैतिकता और एक सत्व प्रधान मानवता के कितने ही विरुद्ध क्यों न हों! कौन नहीं जानता कि कानून के दरवाजे पर 'न्याय की तराजू' हाथ में टाँगे हुए क़ानून की प्रतीक नारी की आँखों पर काली पट्टी बँधी हुई है। इसका सीधा - सा अर्थ स्वतः समझने योग्य है कि कानून अंधा होता है।अर्थात वह सही और गलत को प्रत्यक्षत:नहीं देख सकता।वह बस कानों से सुनकर फैसला करता है, सत्य,असत्य, नैतिकता, सामाजिकता आदि से उसका दूर - दूर तक भी कोई सम्बंध नहीं है।

           आज मेरा मंतव्य आज से पैंतालीस वर्ष पूर्व 1978 ई.में बने हुए राष्ट्रीय क़ानून 'लिव इन रिलेशनशिप' पर विचार -विमर्श करने का है।इस कानून को मान्यता माननीय सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों द्वारा प्रदान की गई। एक ओर वे ' माननीय' हैं (तो मानने ही पड़ेंगे),दूसरी ओर 'विद्वान 'भी हैं (तो उनकी सर्वोच्च विद्वत्ता को चुनौती भी नहीं दी जा सकती); ऐसी स्थिति में भला देश के इस ' पवित्र कानून' पर जिंदा अँगुली तो क्या एक मरा हुआ तिनका भी नहीं उठाया जा सकता। देश का पवित्र कानून है;मानना ही पड़ेगा।

               कानून कहता है कि कोई भी अविवाहित वयस्क बाला यदि किसी अविवाहित वयस्क बालक के साथ अपना घर,माँ, बाप और भाई बहनों से भरे - पूरे परिवार को तिलांजलि देकर किसी होटल, किराए के मकान या अन्यत्र रहना चाहती है ,तो उसे उसके माँ ,बाप या अन्य कोई रोक नहीं सकता। वहाँ पर वे दोनों वयस्क कुछ भी करें, कोई -टोक नहीं है। यहाँ तक कि वे एक विवाहित दंपति की तरह बच्चे भी पैदा करें तो भी क़ानून की आँख में खटकने वाली कोई बात नहीं होगी। अरे भई ! बात खटकेगी तो तब जब कानून की आँखें हों? वह तो पहले से ही गांधारी बना बैठा है।उसे क्या? अब वे दोनों चाहे सुहाग रात मनाएं या बच्चे पैदा करें।नियम - कानून भी तो उसी ने बनाया है! नैतिकता, समाज,धर्म,वर्ण,जाति सब को भाड़ में झोंक कर मनमानी करने का नाम ही तो 'लिव इन रिलेशनशिप' है। शायद इसी को समाजवाद भी कहते होंगे। लाचार माता -पिता फड़फड़ाते रहें तो फड़फड़ाते रहें। उन्हें अपनी मनमानी करने से कोई भी नहीं रोक सकता।

          इस 'लिव इन रिलेशनशिप' से दिल - उछालों की तो होली- दीवाली हो गई। देश के सर्वोच्च कानून ने इसकी बाइज्जत मान्यता दे दी। समाज ,दुनिया ,नैतिकता यहाँ तक कि उनके माँ -बाप उनके ठेंगे पर ! आजकल ठेंगा दिखाना किसी को चिढ़ाने के अर्थ में नहीं है ,वरन वह 'पसंदगी 'का प्रतीक है। नहीं मानें तो व्हाट्सएप के इमोजी भंडार में नज़र घुमा कर देख लीजिए।जिन परिवारों के युवा औऱ युवतियाँ इस प्रकार के संबंधों की शोभा बढ़ाते हुए देश के सर्वोच्च कानून के प्रबल पालक और समर्थक बने हुए दायित्वविहीन जीवन जी रहे हैं ,यदि देश के सर्वेक्षण के आधार पर उनके माता -पिताओं से पूछा जा जाए ,तो क्या वे इसका समर्थन कर सकेंगे? वे सम्मान से सिर ऊँचा करके विमर्श के उन्मुख होने की स्थिति में होंगे? संभवतः नहीं। 

           समाज कहाँ जा रहा है? कूकर - शूकरों जैसा जीवन जीता हुआ आज का अत्याधुनिक युवा वर्ग अंततः देश और समाज को कहाँ ले जा रहा है। सुना है कि महानगरों में ऐसे हजारों अविवाहित जोड़े 'लिव इन रिलेशनशिप' में अपने दरबों में अंडे दे रहे हैं।परिणाम भी आ रहे हैं। किसी अत्याधुनिकता की देह किसी फ्रिज़ में ,अटेची में ,कुकर में या बोरों में खंड- खण्ड में विभाजित की हुई टीवी ,अखबारों और सोशल मीडिया पर आए दिन दिख ही जाती है। कानून भला क्यों देखे? वह तो पहले से ही गंधारीत्व धारण किए हुए शांत है।वह किसी सामाजिक नीति रीति का ठेकेदार थोड़े ही है? उसे पुनर्विचार की भी आवश्यकता नहीं है। 

            राम,कृष्ण ,महावीर, स्वामी विवेकानंद ,स्वामी रामकृष्ण परम हंस के आदर्श औऱ नैतिक मानदंड झूठे पड़ गए हैं।बीस प्रतिशत पारदर्शी पहनावे में देह दर्शन कराना ही नई सभ्यता है।आप किसी भी नारी को इसके लिए रोक टोक नहीं सकते। वह देवी जो है। पूज्या है। सम्माननीया है।उसमें सरस्वती, लक्ष्मी औऱ दुर्गा का वास है। न ! न!! आप उससे कुछ नहीं कह सकते।वह कुछ भी करें। सब जायज है। यदि आपने दुर्भाग्य से कुछ भी कह दिया तो चरित्रहीनता का कीचड़ आपके ऊपर ही आएगा।इसलिए कृपया अपनी कुशल चाहें तो मुँह पर मजबूत - सी मुख चोली धारण किए रहें। 

              आज का युवा वर्ग सभ्यता की पराकाष्ठा को पार कर गया है।करेला और नीम चढ़ा। एक ओर तो वैसे ही वे घर से भाग - भाग कर 'भागवान' बने हुए थे, उधर से हमारे सर्वोच्च कानून ने भी पक्का कानून बना दिया ,बहुत अच्छे! बहुत अच्छे!!ऐसे ही किए जाओ और इन सठियाये हुए बूढ़े -बुढियों को लात मारकर अपना आशियाना अलग ही बसाओ। तभी तो अति आधुनिक कहलाओ।जब तक जी न भरे तब तक 'लिव इन 'के अनुभव पाओ। जब भर जाए एक दूसरे से जी, तब मारो दो लात या टुकड़े -टुकड़े कर जाओ। देह ही तो सब कुछ है। उसे खूब चमकाओ।नैतिकता को झोंको भाड़ में औऱ देहानन्द में रम जाओ। 

 ●शुभमस्तु !

 19.06.2023◆7.15प०मा०


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शब्दों में क्यों पिता समाए ● [ चौपाई ]

 265/2023


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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शब्दों  में  क्यों  पिता समाए।

कोई  तो   यह  बात  बताए।।

पिता  बिना  जीवन क्या मेरा।

अंश  भानु  का   पुत्र  सवेरा।।


नहीं  पिता  को जिसने जाना।

कहाँ ईश को  उसने   माना??

अंश  पिता संतति  है   अंशी।

जिससे  बजती जीवन-वंशी।।


महाकाव्य   हैं   पिता  हमारे।

पितु कारण हम कार्य तुम्हारे।।

बिना पिता यह जीवन रीता।

एक - एक पल उनसे बीता।।


पिता  आप अवनी पर लाए।

खेले  - कूदे    मोद   मनाए।।

बचपन ,यौवन ,जरा  हमारी।

सदा समर्पित  सादर  सारी।।


मात -पिता  से घर कहलाया।

पाकर सुत नव मन बहलाया।

अँगुली पकड़ सिखाते चलना।

गिर जाने पर फिर से उठना।।


गुरु आदर्श  पिताजी  - माता।

भगवत नित तुमको है ध्याता।

ईश्वर   को   देखा   है     मैंने।

पिता   सिखाते   थामे   डैने।।


समझें   तो   घर  - घर   में ईश्वर। 

पिता-जननि नित 'शुभम्'धीर धर।

चरणों  में    शुभ   अर्घ्य   तुम्हारे ।

पथ   प्रशस्ति   दें    पिता हमारे।।


●शुभमस्तु !


19.06.2023◆11.00आ०मा०

चौमासे की रात ● [ गीतिका ]

 264/2023

        

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शुभागमन   आषाढ़,बरसता झर-झर पानी।

नभतर  मेघ   प्रगाढ़, धरा पर उतरा   दानी।।


काले - भूरे    मेघ, मौन आह्वान    कर  रहे,

घटा  पवन   का  वेग , टपाटप  करती  छानी।


मिटी   धरा   की प्यास,सृजन गर्भान्तर  होता,

बँधी कृषक को आस,निराशा पड़ी   सुलानी।


अंकुर    हरे   अनेक,  धरणि  पर   छाए  ऐसे,

धी  में   उगा  विवेक, समझ लें  इसके  मानी।


तृप्त सभी हैं जीव,मनुज खग ढोर लता तरु,

चातक   रटता    पीव,  गगन में   गूँजी  बानी।


देख रही है बाट, विरहिणी पिया   न    आए,

खड़ी   हमारी  खाट, वही फिर  बात  पुरानी।


जोता  गया  न खेत,  बीज बोया  क्यों  जाए?

नई  फसल के  हेत, बिगड़ने लगी    कहानी।


चौमासे  की रात,'शुभम्' जी क्या     बतलाएँ,

कही  न  जाए बात,पिया की प्रेम -  दिवानी।


●शुभमस्तु !


19.06.2023◆6.00आ०मा०

शुभागमन आषाढ़ ● [ सजल ]

 263/2023

 

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● समांत : आनी

●पदांत :   अपदान्त।

●मात्राभार : 24.

●मात्रा पतन:शून्य।

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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शुभागमन   आषाढ़,बरसता झर-झर पानी।

नभतर  मेघ   प्रगाढ़, धरा पर उतरा   दानी।।


काले - भूरे    मेघ, मौन आह्वान    कर  रहे,

घटा  पवन   का  वेग , टपाटप  करती  छानी।


मिटी   धरा   की प्यास,सृजन गर्भान्तर  होता,

बँधी कृषक को आस,निराशा पड़ी   सुलानी।


अंकुर    हरे   अनेक,  धरणि  पर   छाए  ऐसे,

धी  में   उगा  विवेक, समझ लें  इसके  मानी।


तृप्त सभी हैं जीव,मनुज खग ढोर लता तरु,

चातक   रटता    पीव,  गगन में   गूँजी  बानी।


देख रही है बाट, विरहिणी पिया   न    आए,

खड़ी   हमारी  खाट, वही फिर  बात  पुरानी।


जोता  गया  न खेत,  बीज बोया  क्यों  जाए?

नई  फसल के  हेत, बिगड़ने लगी    कहानी।


चौमासे  की रात,'शुभम्' जी क्या     बतलाएँ,

कही  न  जाए बात,पिया की प्रेम -  दिवानी।


●शुभमस्तु !


19.06.2023◆6.00आ०मा०

बिना मोल का झोल● [ कुंडलिया]

 262/2023 


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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

 ऊबड़  - खाबड़    चेहरा, टेढ़ी  - मेड़ी   देह।

मेरी   प्यारी  आत्मा,  रहती  है    इस   गेह ।।

रहती   है    इस  देह , बने  हैं नौ     दरवाजे।

ठोस  गैस  अवलेह, द्रवित रस  ताजे - ताजे।।

'शुभम्'कहाँ पर वास, नहीं कर हाबड़-ताबड़।

आया  जी  को  रास, चेहरा ऊबड़ - खाबड़।।


                         -2-

दर्पण  के   आगे  खड़ी,मन में अटल  विचार।

सबसे  सुंदर  नारि   मैं,  रची धरा   करतार।।

रची   धरा   करतार,  अप्सरा  हूँ  मैं   न्यारी।

भला   और  है  कौन,मोहिनी मम सम नारी।।

'शुभं' पुरुष को बाँध,करूँ क्यों सहज समर्पण।

हाव-भाव  अनिवार्य,सोचती सम्मुख   दर्पण।।


                        -3-

टेड़ी  चलता  चाल   जो,अपने ही  घर - द्वार।

कौन  उसे  समझा  सके, पर्वत सरिता  खार।।

पर्वत   सरिता  खार , नारि-नर  हैं   ही  ऐसे।

चलते   उत्तर   ओर,  बताते दक्षिण    वैसे।।

'शुभम्'  नहीं  सिर बीच,बुद्धि घुटने  या  एड़ी।

जैसे  नागिन - नाग, चाल मानव   की   टेड़ी।।


                        -4-

ऊपर  चिपका आवरण,उसके नीचे खाल।

अंतर  का  जाना  नहीं,  कैसा तेरा   हाल।।

कैसा  तेरा   हाल, नहीं साहस भी    इतना।

दिखती   देह पवित्र, शीश धड़  टाँगें टखना।।

'शुभम्' दिखाता भाव,जंतु सब जैसे  भूपर।

भरे  अहं  के  घाव, हजारों भीतर   ऊपर।।


                        -5-

आलू -गोभी   की  तरह, हुए मनुज के भाव।

समझे  औरों  को नहीं, भरा रहे  उर   ताव।।

भरा  रहे   उर   ताव,स्वयं को कर्ता    जाना।

जलता  हुआ   अलाव, बिखरता ताना-बाना।।

'शुभम्' फिसलता नित्य,मुष्टिका से ज्यों बालू।

बिना मोल का झोल,सड़क पर लुढ़का आलू।।


●शुभमस्तु !


17.06.2023◆2.00प०मा०

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शुक्रवार, 16 जून 2023

सभ्यता की पारदर्शिता● [ व्यंग्य ]

 261/2023

 

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© व्यंग्यकार ● 

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 आदम और हौवा की संतान ऐ आदमी !आभार मान अपनी उन सभी आँखों का,जो प्रकृति ने तुझे प्रदान कीं।यह मत सोच कि तेरी ये दो ही आँखें हैं ,जो चर्म - चक्षु कहलाती हैं।इतना ही नहीं कुछ अदृश्य आँखें हैं ,जो इन दोनों से भी गहरे और गहरे में देख पाती हैं।वे हैं हिए की आँखें ! किंचित झुक कर नीचे तो झाँकें। नहीं कहा जा सकता कि कितनी हैं हिए की आँखें:दो या दो दर्जन।किन्तु बाहर की दृश्य दो की तरह उन्हें भी दो ही मान लेते हैं। इस 'मान' की भी क्या कुछ कम मान्यता है! इस मानने से ही हमारा महान विज्ञान, गणित,सहित्य,काव्य आदि भरा पड़ा हुआ है।एक तीसरी अदृश्य आँख और भी है, जो सबके प्रशस्त ललाट मध्य विराजमान है।यह बात अलग है कि वह कभी-कभी ही खुलती है,औऱ जब खुलती है तो कुछ विशेष ही कर गुजरती है।जैसे भगवान शंकर के तीसरे नेत्र का चमत्कार तो सुना ही होगा कि उन्होंने सशरीर कामदेव को भी अपने तृतीय नेत्र की अग्नि से भस्मसात कर डाला था। 

 अब प्रश्न ये है कि आँखों का आभार क्यों माना जाए?अब तक तो अपनी आँखों की संख्या औऱ क्षमता की बात हुई।ये आँखें ही हैं ,जो न स्वयं को औऱ न किसी और मानव(नर एवं नारी) को अपनी मूल औऱ प्राकृतिक अवस्था में देख पातीं!दाद दीजिए इनकी संयुक्त सोच को कि इन्होंने कुछ नया सोचा कि अपने को उसके असली रूप में नहीं देख पाया। इसलिए उसको ढँकने के लिए आवरण का विचार लाया। विचार लाया ही नहीं,वरन पहले तो पेड़ों के चौड़े पल्लव दल औऱ उनकी छाल से अपनी देह और खाल को ढंकवाया। इससे उसे एक नहीं अनेक लाभों का लाभ मिल पाया।उसने देह को ठंड, धूप, लू,ताप, वर्षा आदि के प्रचण्ड प्रहार से बचाया।उसके बाद उसे सभ्यता का आवरण बताया। जी हाँ, सभ्यता का आवरण। 

 कोई किसी कुत्ते,बिल्ली,शूकर ,गधे ,घोड़े,गाय या भैंस,तीतर, मोर,बटेर, कोयल या कौवा से नहीं कहता कि नंगा घूम रहा है।किंतु इसी प्रकार यदि कोई स्त्री या पुरुष प्राकृतिक अवस्था में दिख जाए तो यही कहा जायेगा कि वह कोई पागल होगा या परम् हंस,दिगम्बरी या भिखारी।क्योंकि सभ्यता के कृत्रिम आवरण की अपेक्षा मनुष्य मात्र से ही की जा सकती है;किसी मनुष्येतर जंतु से नहीं। ये कृत्रिमता औऱ बनावटीपन, ये छद्मता आदि सभी रचनाएँ मनुष्य के ही हिस्से में आईं हैं। वह अपने को स्व - रूप में न दिखना चाहता है औऱ न ही देखना पसंद करता है।

 सभ्यता की वर्तमान बाढ़ ने उसे अपनी प्राकृतिक अवस्था में लौटने के लिए प्रेरित किया है।इसलिए देह के 20 प्रतिशत हिस्सों को छोड़कर शेष सबकी नुमाइश करना ही उसकी नव सभ्यता की पहचान बन गई है। इस क्षेत्र में नारियों ने रिकॉर्ड ही तोड़ दिए हैं औऱ निरंतर तोड़े भी जा रहे हैं।पुरुष वर्ग अभी बहुत पिछड़ा हुआ है। पर क्या करे ,उसे भी तो अत्याधुनिक कहलाने में अपने झंडे फहराने हैं।अब फटी हुई जींस(फटी न हो ,तो जबरन फाड़ डाली गई),बैगी,लैगी, जांघ, वक्ष और नितम्ब दिखाऊ रूमाल - छाप आवरण, अपने चरम स्तर पर हैं।  सभ्यता कितनी पारदर्शी होती जा रही है! यह किसी से गोपनीय नहीं है! सब खेल खुल्लम खुल्ला। जैसा मानुस वैसा कुत्ती का पिल्ला। 

 वर्तमान पारदर्शी सभ्यता के भविष्य पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि मनुष्य आदिम युग की ओर लौट रहा है।(सुना है इतिहास अपने को दोहराता है। ) उसे अपने नंगपने से ही अधिक संतुष्टि है।एक संकट की आशंका है कि फिर बेचारे दिगम्बरी जैन मुनियों की पहचान कैसे होगी। हो सकता है कि वे सबसे अलग दिखने के लिए कपड़े भी पहनने लगें।आज गधे,घोड़ों, कूकर,शूकरों आदि से चल रही प्रतियोगिता का हश्र यही होने वाला है। जब सर्वत्र पानी ही सूख रहा है तो भला आँखों में ही क्यों बचेगा? वहाँ सूखा नहीं ; मर ही चुका है। इसलिए अब तुम्हारी आँखों को सोचने की आवश्यकता समाप्त प्रायः होती जा रही है।सभ्यता की परिभाषा ही बदल दी है आज के आदमी -औरत ने। अब वे चर्म - चक्षु  नहीं, चमड़ी की खिड़कियाँ हैं। जो सोचने का काम छोड़कर दूसरों के बैड रूम और बाथ रूम में झाँकने में तल्लीन हैं।अब आँखों में दिमाग नहीं रहता। किसी की एड़ी में तो किसी के घुटनों में बसता है।औऱ आदमी बेहिसाब संगिनी  किंवा पर संगिनी के   संग - संग खिलखिलाकर हँसता है।वर्तमान सभ्यता की यही तो समरसता है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 16.06.2023◆11.45आ०मा० 

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रहस्य ● [ अतुकान्तिका ]

 260/2023

           

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● © शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सदा से ही

रहस्य रही प्रकृति

नियंता उसका,

कौन जाने

वह क्या कुछ

रहा रचता!


प्रति क्षण

ध्वंश एवं सृजन,

कभी  वह्नि

 कभी यजन,

कभी ग्रहण

कभी त्यजन।


सृष्टि का निरंतर शृंगार,

छीनता कभी

देता उपहार,

नहीं  राग न द्वेष,

मानव मात्र

बस मेष।


प्रकति का

लघु कण

यह मानव!

बनी हुई लकीर

पर चलता हुआ रव।


कभी नहीं

होता अभिनव,

'मा' अर्थात 'नहीं'

'नव' ही 'नवीन',

अक्षर बस तीन।

 

नहीं जाना

नया पहचाना,

मारता 'शुभम्' ताना ,

सब कुछ पुराना,

  धर अहं का बाना।


●शुभमस्तु !


16.06.2023◆6.15 आ०मा०

रक्तदान:कैसा ये औचित्य ● [ सोरठा ]

 259/2023

 

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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रक्त चूसते नित्य,गिद्ध जौंक मच्छर सभी।

कैसा ये   औचित्य,रक्तदान उनको   करें!!

होता दानव एक,रक्त ग्रहण का पात्र क्या?

रक्तदान क्या  नेक,जो कृतज्ञ होता   नहीं।।


देखें प्रथम  सुपात्र,  देना  कोई    दान   हो।

जो पाए   हर गात्र,रक्तदान खैरात    क्या??

दान वहाँ है पाप,   जिनका दूषित  रक्त  है।

तुम्हें  लगेगा   शाप,रक्तदान करना   नहीं।।


अरि मानव के नीच,दुश्मन हैं जो   देश   के।

फेंक दिया ज्यों कीच,रक्तदान वह व्यर्थ है।।

चूस   रहे    जो   रक्त, रक्तदान  कैसे    करें।

बनें  देश  के  भक्त, पल-पल बदलें  रक्त वे।।


मानव आज महान,ऊँच-नीच का भेद  है।

त्याग भेद का भान,रक्तदान लें   प्रेम   से।।

कहते जिनको  नीच, परछाईं से    द्वेष   है।

बचा रहे निज  मीच,रक्तदान स्वीकार कर।।


करते जिनका त्राण, रक्तदान सबसे बड़ा।

बचा  रही जो प्राण,सेवा यही महान   है।।

उसे न करना दान, जो अबला को लूटता।

काटें नाकें  कान,रक्तदान अघ है   वहाँ।।


करें रक्त का दान,उनको क्यों हम प्राण दें।

मिटा देश की शान,हनन करें नर -नारि का।।


●शुभमस्तु !


15.06.2023◆12 .45पा०मा०

बुधवार, 14 जून 2023

दोपहर ● [ दोहा ]

 258/2023

        

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भोर गँवाया खेल में,फिर रत काम  ललाम।

बिता दोपहर वाम में,झटपट  आई  शाम।।

जेठ  दोपहर दिन तपें,नहीं रात   में     चैन।

जब  मच्छर डंसने लगें,लगें न पल को  नैन।।


आठ पहर चौंसठ घड़ी,नहीं विपल आराम।

गया दोपहर ऐंठ में,लिया न हरि का  नाम।।

कौन दोपहर देखता,सुबह न निशि या शाम।

संतति जन्में शुभ्र क्यों,नर- नारी  रत  काम।।


कर्मशील जो नर नहीं,क्या जीवन का अर्थ!

भोर दोपहर अंधता,कर देती  सब   व्यर्थ।।

रखे  हाथ  पर  हाथ तू, बैठा क्यों   बेकाम?

बिता दोपहर द्यूत में,चाट रहा  नर   चाम।।


खेल भोर के और हैं,और शाम   के  औऱ।

लगा दोपहर नाच में,झड़े आम  का  बौर।।

आँधी  लू  तपती  धरा,जेठ मास   के  खेल।

तपे दोपहर  आग-सा,बहे देह   से   तेल।।


कुंडी  खटकी  द्वार पर,खोले यदि  न  कपाट।

लौटे वापस दोपहर,नियति न    देखे   बाट।।

भोर दोपहर साँझ निशि,सबके अपने लक्ष्य।

पल-पल को पहचानिए,भखे न भक्ष्य-अभक्ष्य।


संध्या  से   पहले  करे, जीवन के   उपचार।

सुखद दोपहर  जो चले,उसका   बेड़ा पार।।


● शुभमस्तु !


14.06.2023◆7.00आ०मा०

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सरि-प्रवाह की सीख ● [ दोहा ]

 257/2023

 

[धार,लहर, प्रवाह,भँवर, कूल]

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ● सब में एक  ●

जीवन की जल- धार के,जन्म मृत्यु दो छोर।

उधर अस्त हो भानु ज्यों,इधर सुहाना भोर।।

बहे  धार में   देह  मृत, जैसा   चले   प्रवाह।

जीवित   बढ़ते  चीरकर, बना नई   वे   राह।।


गिरती - उठती  लहर है, मानव  जीवन मीत।

प्रवहमान  रहती  सदा,कर कलकल  संगीत।।

सर,सरिता,सागर सभी, लहर उठें  हर  ओर।

क्षमता सबकी अलग है,मौन कहीं  बहु  रोर।।


सरि- प्रवाह की सीख है,चलने का ही नाम।

जीवन  है  ये  जान लें,चलना है  अविराम।।

जल - प्रवाह  की  राह में, बाधाएँ    गंभीर।

आती  हैं   दिन-रात  ही,रुकें न भय  से वीर।।


जीवन-नौका भँवर में,सबकी फँसती  मीत।

जो जूझा जय ही मिली,बढ़ता राह  अभीत।।

घबराना  मत भँवर में, लें जीवट  से   काम।

करना  है   संघर्ष  नित, पा जाए  शुभ  धाम।।


बैठा   है  जो कूल  पर,मिले  न  मुक्ता  एक।

पाता है वह लक्ष्य  को,करता जल-अभिषेक।।

पैठे  बिना  न सिंधु के,मोती का  क्या  काम!

कूल बैठ क्या पा सके,बैठे मिले  न  धाम।।


         ● एक में सब  ●

जल - प्रवाह की धार में,

                         उठतीं लहर अनेक।

बैठ कूल  के  द्वार     पर,

                         देख भँवर अतिरेक।।


●शुभमस्तु !


13.06.2023◆11.00प०मा०

भूखे प्यासे नन्हे बालक ● [ गीतिका ]

 256/2023

     

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भूखे  प्यासे   नन्हे  बालक।

होंगे  कैसे   इनके  पालक!!


तन पर फ़टे वसन सब धारे,

दीन - हीन घर के संचालक।


भोजन नहीं   पेट   भर पाते,

बने  सुखद भावी के घालक।


लिपि ललाट की कैसी इनकी,

नहीं देखता जग का  चालक।


देख  दया  आती   है  इनको,

उर करता  है  मेरा धक-धक।


कोई     बैठा     बोरा    ओढ़े,

मैले  - कुचले   बैठे    नाहक।


'शुभम्' न दें प्रभु कहीं गरीबी,

बन जाए यों जीवन जालक ।


●शुभमस्तु !


13.06.2023◆11.15 आ.मा.

अमृत - कलश ● [ चौपाई ]

 255/2023

        

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अमृत - कलश   चाहते  सारे।

देव,  दनुज,  मानव    बेचारे।।

नहीं  चाह   से अमृत मिलता।

सुमन स्वेदश्रम से ही खिलता।।


अमृत-कलश देह-श्रम लाता।

शुचि विवेक से मानव पाता।।

जो आया   उसको   है जाना।

छद्म अमरता से क्या पाना??


कर्म  भाग्य   का  है निर्माता।

यों ही  भाग्य न   देता दाता।।

स्वेद -बिंदु से    सींचें  जीवन।

मिले अमरता का सुंदर धन।।


छप्पर फाड़ नहीं धन मिलता।

दिखा न मन की तू चंचलता।।

अमृत - कलश वही नर पाए।

श्रमज वारि जो धरणि बहाए।।


मन-मोदक   सपने में खाए।

बार -बार   वह नर पछताए।।

परजीवी   परधन की चाहत।

करती है तन मन को आहत।।


अमृत-कलश सहज क्यों पाए!

छाले पड़ें    बुद्धि तप जाए।।

मानव-जीवन कठिन कहानी।

नित्य   नई   है   नहीं पुरानी।।


'शुभम्' कलश  अमृत का पाया।

माँ वाणी पद शीश झुकाया।।

परमानंद   मातु   की    सेवा।

देती है   अमृत   भर    मेवा।।



● शुभमस्तु !


12.06.2023◆8.45आ.मा.

ईश्वर से बचपन को तोला ● [ गीतिका ]

 254/2023


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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जीवन की हर  बात निराली।

शुभता की सौगात  सँभाली।।


ईश्वर से   बचपन   को तोला,

पारदर्शिता   भोली  - भाली।


बचपन निकट सत्य के होता,

होती छलनी एक   न  जाली।


चिड़िया ज्यों सेती अंडों को,

 नाचें - कूदें    दे - दे    ताली।


क्षमादान  बालक   सौ  पाए,

 बुरा न मानें दें यदि    गाली।


बड़ा  हुआ   चालाकी  छाई,

जलता है  ज्यों जले पराली।


बचपन खेल - कूद में  जाए,

यौवन खड़ा  तान दोनाली।


बचपन कौन भूलता अपना,

रचना प्रभु ने अद्भुत ढाली।


बंद  हुए   सुख   के दरवाजे,

छलना की चल उठी पनाली।


'शुभम्' सत्य -पर्याय बालपन,

यौवन काम -  वासना थाली।


●शुभमस्तु !


12.06.2023◆ 5.45आ०मा०

शुभता की सौगात ● [ सजल ]

 253/2023


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● समांत : आली

●पदांत :अपदान्त

●मात्राभार :16.

●मात्रा पतन : शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जीवन की हर  बात निराली।

शुभता की सौगात  सँभाली।।


ईश्वर से   बचपन   को तोला,

पारदर्शिता   भोली  - भाली।


बचपन निकट सत्य के होता,

होती छलनी एक   न  जाली।


चिड़िया ज्यों सेती अंडों को,

 नाचें - कूदें    दे - दे    ताली।


क्षमादान  बालक   सौ  पाए,

 बुरा न मानें दें यदि    गाली।


बड़ा  हुआ   चालाकी  छाई,

जलता है  ज्यों जले पराली।


बचपन खेल - कूद में  जाए,

यौवन खड़ा  तान दोनाली।


बचपन कौन भूलता अपना,

रचना प्रभु ने अद्भुत ढाली।


बंद  हुए   सुख   के दरवाजे,

छलना की चल उठी पनाली।


'शुभम्' सत्य -पर्याय बालपन,

यौवन काम -  वासना थाली।


●शुभमस्तु !


12.06.2023◆ 5.45आ०मा०

रविवार, 11 जून 2023

तुम अगर दिन को रात कहो ,हम रात कहेंगे● [ व्यंग्य ]

 252/2023

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● © व्यंग्यकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 आगे बहरा, पीछे अंधा।चल निकला तेजी से धंधा।। 

बकलोलों का सुदृढ़ कंधा।इन्हीं तीन से चमचा बंधा।।

 चमचा तभी तक चमचा है,जब तक वह स्वतंत्र भगौना नहीं बन जाता।बड़े भगौने की तरह नहीं तन पाता।वरना उसे तब तक स्व भगौना वाणी में स्वर में स्वर देते हुए यही गाना गाना होगा: तुम अगर दिन को रात कहो,हम रात कहेंगे। देश औऱ समाज में अँगुलियों के पोरों पर गिने जा सकने वाले भगौनों की तुलना में चमचों की संख्या अनगिनत है।निरंतर चमचों की बढ़ती हुई संख्या चिंतित करती है।

ये तो आप जानते ही हैं कि चमचे में दिमाग नहीं होता।हर चमचा चाहे वह प्लास्टिक का या फाइबर का हो अथवा लोहा ,पीतल या तांबा निर्मित हो; वह निरंतर इस प्रयास में रहता है कि वह चाँदी का चमचा बने या सोने में तब्दील हो जाए, वरना उसकी चमचा योनि का लाभ ही क्या है? यद्यपि यह चौरासी लाख योनियों से भिन्न योनि नहीं है। चमचे के नाम से एक नए 'भारतीय चमचावाद' का जन्म हुआ है,जो अहर्निश अपने प्रिय भगौने को समर्पित रहता है।अपने प्रिय और सम्माननीय भगौने के प्रति उसे इतनी अन्ध भक्ति रहती है कि वह क्षणमात्र के लिए भी उससे विमुख नहीं होता।भगौना जब तक अपना चूल्हा नहीं बदलता तब तक चमचा भी अपने समर्पण से टस से मस नहीं होता।यदि तत्कालीन भगौना बबूल को नीम कहता है तो यह अनिवार्य है कि चमचा भी बबूल को भी नीम ही कहेगा। चमचे का यह समर्पण,त्याग औऱ कभी - कभी उसका बलिदान सराहनीय हो जाता है। उसकी इस सराहना का आधार है उसकी अंधभक्ति ।उसे तो अपने भगौने का अनुगामी ही रहना है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक ब्याई हुई भैंस का लभारा।लभारे को भगौने से दूध का लाभ है; तभी तो वह उसके थनों को न छोड़ने के लिए बाध्य है।

 चमचे के बिना भगौने का अस्तित्व सोचा भी नहीं जा सकता। जितना बड़ा भगौना ,उतना ही बड़ा या अधिसंख्य चमचे उसकी आरती में अहर्निश तल्लीन रहते हैं।ये चमचे ही उसकी पूँछ हैं। जिसकी जिसकी पूँछ जितनी लंबी , उसकी पूछ भी उतनी ही अधिक। यह चमचा -चातुर्य की ही क्षमता है कि वह अपने भगौने को माँज -माँज कर चमका देता है।भगौने के भव्य दरबार में हर समय समर्पित चमचा धन्य है।एक चमचा किसी भगौने के साथ - साथ अनेक छोटे चमचों, चमचियों ,करछुलियों का उद्धार कर देता है। 

  यों तो चमचे छोटे -छोटे गाँवों, कस्बों , गलियों, मोहल्लों में बखूबी पाए ही जाते हैं। किंतु जब उनकी तरक्की होने लगती है तो बड़े - बड़े नगरों,महानगरों और देश प्रदेशों की राजधानियों में अपने चमत्कारों के चक्र चलाते हुए देखे जा सकते हैं। चमचे की एक बहुत बड़ी खूबी यह होती है कि उसे अपने सेवा कार्य से इतना अधिक समर्पण भाव होता है कि वह किसी काम को छोटा नहीं मानता।जूता उठाने और पहनाने से लेकर गड्ढा खोदने , बाँस- बल्लियाँ गाड़ने, दरियाँ बिछाने, बैनर सजाने के बाद जो समय बचता है ,उसमें भर -भर तेल मालिश करने से भी गुरेज नहीं करते ।चमचों का यह सहज समर्पण अपने भगवान के प्रति भक्त - भक्तिनों के समर्पण से किसी मायने में कमतर नहीं है। 

 चमचा एक परम आत्म विश्वासी जीव होता है।वह यह भी जानता है कि यदि वह नहीं होता तो भगौने का भले ही अस्तित्व होता किन्तु उसका जो महत्त्व और चमत्कार है;वह उसी के बलबूते पर है। उसके बिना उसकी चमक - दमक की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चमचावाद की बढ़ते हुए चरण देखकर यह सहज ही विचारणीय हो जाता है कि देश और समाज में जब चमचों का इतना प्रभाव औऱ महत्त्व है तो उस पर शोध कार्य को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। शोध कार्य के लिए कुछ आधुनिक विषय प्रस्तावित कर रहा हूँ, जिन पर कार्य करके भारतीय चमचावाद को और भी शक्ति सम्पन्न किया जा सकता है।जैसे:

1.आधुनिक भारत की प्रगति में चमचों का योगदान।2.नई पीढ़ी के लिए नवीन अवसर औऱ चमचावाद।3.आधुनिक चमचावाद के विविध आयाम। 4.चमचावाद के चमत्कार और भगौने।5.चमचावाद के आर्थिक पहलू और सामाजिक क्रांति।6.चमचा - चापल्य से समाज कल्याण ।7.चमचावाद: एक उद्योग।8.भारतीय नारियों के बढ़ते हुए चरण और चमचियों का पोषण।9.सामाजिक चैतन्यता में चमचावाद की अवधारणा। 10.चमचावाद के खट्टे -मीठे पहलू।11.भारतीय चमचावाद में पुरानी चमचा पीढ़ी के अनुभवों का योगदान।आदि आदि। 

 यदि आप बेकार बैठे हैं। न नौकरी है न कोई धंधा ।तो आँखें बंद करके किसी वरिष्ठ चमचे से गुरु दीक्षा ग्रहण कर लीजिए। चमचागीरी गांधी गीरी की तरह कोई चोरी नहीं है। अपनी पत्नी, संतति और परिवार का भला चाहते हैं तो सच्चे चमचे के गुण अर्जित कर के अपना,समाज और देश के कल्याण में अपनी अहं भूमिका का निर्वहन कीजिए। बस इतना ध्यान रखना है कि भगौने को अग्रज भ्रातृ भाव से अंगीकार करते हुए इस मूल मंत्र को कभी भी विस्मृत मत कीजिए: 'वे अगर दिन को रात कहें ,तुम रात कहोगे। खटक जाए जो भगौने को न ऐसी बात कहोगे'।। ●शुभमस्तु !

 11.06.2023◆8.00प०मा०

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समयापतन और अप्रत्याशित का साधारणीकरण ● [आलेख ]

 251/2023

   

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●© लेखक 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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सूरज समय का द्योतक है।वह अनवरत गतिमान है।उसका उदय,गगन पथ में आरोहण, अवरोहण औऱ अस्त उसके अनेक रूप हैं। किसी वस्तु ,व्यक्ति  के आरोहण में जो दुरूहता और काठिन्य है ,वह दुरूहता अवरोहण में नहीं है।कोई भी वस्तु या व्यक्ति जितनी देर से ऊपर चढ़ पाती है,उसके गिरने में उतना समय नहीं लगता। यही तथ्य सूरज या समय पर भी प्रभावी होता है।

हम औऱ आप सभी जन समाचार पत्रों, टी वी, सोशल मीडिया आदि पर नित्य प्रति जिन घटनाओं को नित्य प्रति देखते,पढ़ते और सुनते आ रहे हैं; उन्हें  देख ,पढ़ और सुनकर हमें कोई आश्चर्य नहीं होता।सब कुछ सामान्य -सा लगने लगा है। यह सब देखनेपढ़ने और सुनने के हम आदी हो चुके हैं। 

बड़ी -बड़ी  रेल दुर्घटनाएँ होती हैं।आकाश पथ में हवाई जहाजों में भीषण एयर क्रेश होते हैं।सड़कों पर नित्य बड़े छोटे वाहन भिड़ंतों में धन  -जन की हानि होती है।अग्निकांड होते हैं। भूकम्प आते हैं। सुनामियां कहर बरपाती हैं। लोग कीड़े मकोड़ों की तरह एक दूसरे का नर संहार कर रहे हैं। स्त्रियों को घरों में मारा और खण्ड- खण्ड कर काटा जा रहा है। मजहब औऱ धर्म के नाम पर मानव ही मानव का शत्रु बन गया है।धर्म,शिक्षा, धर्म, व्यापार,राजनीति के नाम पर आदमी आदमी का रक्त पिपासु बन गया है। बलात धर्मांतरण कर मानव के मानवीय अधिकारों का हनन किया जा रहा है।मानव मानव क्या, पड़ौसी पड़ौसी को, देश समीपस्थ देश को,

एक महाशक्ति दूसरी महाशक्ति को नष्ट करने पर तुली हुई है। बारूद के ढेर पर बैठी हुई इस दुनिया का क्या हश्र होने वाला है!कोई नहीं जानता। मानव अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारते हुए आत्म हंता बना बैठा है। मानवीय अहं की पराकाष्ठा ने उसे अंधा बना दिया है।

मात्र चार पाँच दशक पहले इस प्रकार की घटनाओं को देख सुनकर आदमी थर्रा जाता था। दाँतों तले अँगुली दबा लेता था।उसका दिल दहलाने लगता था। किंतु आज सब कुछ सामान्य हो चला है।यहाँ तक कि अब इस प्रकार की घटनाओं से न हम विचलित होते हैं,न आश्चर्य प्रकट करते हैं और न ही भविष्य के प्रति आशंकित ही होते हैं।अखबार की केवल सुर्खियां पढ़ कर ही पूरा अखबार बाँचा हुआ मान लिया जाता है। रोज - रोज वही। सब एक जैसी ही खबरें, नया क्या है;जिसे पढ़ा जाए! 

वर्तमान में समय का पतन (अवरोहण)जिस गति से हो रहा है, वह अप्रत्याशित औऱ अकल्पनीय है।पिछले पचास वर्षों में समय और मनुष्य के जितने रंग देखे गए हैं, संभवतः उससे पहले कभी नहीं देखे गए  होंगे। अंततः इस आदमी को हो क्या गया है।रामायण औऱ महाभारत के जीवन मूल्य झूठे पड़ गए हैं। संतान अपने माँ बाप का सम्मान नहीं करती।बल्कि उसके धन पर ऐश और 

विलासिता पूर्ण जीवन जीना चाहती है। गुरु शिष्य के सम्बंध तार  - तार हो रहे हैं। भाई - भाई का  शत्रु औऱ मात्र हिस्सेदार बनकर रह गया है।मित्र मित्र की, पत्नी पति की ,पति पत्नी की, प्रेमी प्रेयसी की हत्या कर सुर्खियों में छा रहे हैं। लगता है कि इस आदमी की जिंस से तो ढोर, कीट - पतंगे, पखेरू औऱ जलचर जीव ही बेहतर हैं।

मूलतः मनुष्य भी तो शेर, चीता, गधा ,घोड़ा, गिद्ध ,चील , मच्छर, खटमल की तरह एक जंतु ही है न ! उसकी प्रवृत्तियों से बाहर जा ही कैसे सकता है? मानवीय पतन का दौर उसके विनाश का दौर है। कुछ नहीं पता कि क्या होगा? मानवीय सोच का दूषण उसे कहाँ ले जाकर पटके ,कोई नहीं जानता।

●शुभमस्तु !

11.06.2023◆10.30आ०मा०

शुक्रवार, 9 जून 2023

सपना मन की वासना ● [ कुंडलिया ]

 250/2023

     

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●शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1

चेतन मन जब सुप्त हो,अवचेतन का खेल।

सपना बन साकार हो,दृश्य जगत  से  मेल।।

दृश्य  जगत  से   मेल,करे बहुरंगी   क्रीड़ा।

कभी हर्ष या क्रोध, रुदन क्रंदन  या  व्रीड़ा।।

'शुभम्'अवस्था तीन,जागरण सपना केतन।

फहराता  है  जीव,  सुषुप्तावस्था    चेतन ।।


                        -2-

सपना  मन की वासना,जो न हुई   साकार।

सपने में   नव रूप में,खोज रही    आधार।।

खोज  रही  आधार ,विकल करने को   पूरी।

कैसे  ले  आकार,  रही जो सदा      अधूरी।।

'शुभम्' माँगता स्वेद,बुद्धि श्रम हो जो अपना।

करें  सुदृढ़  जो काम ,न   देखे थोथा  सपना।।

                       

                         -3-

संभव  का  चिंतन  करे,मन में सुदृढ़   विचार।

बोले   वचनों  से   नहीं,  कर्मों में    साकार।।

कर्मों   में   साकार , न  देखे कोरा    सपना।

फल   पाने   से पूर्व,   पड़ेगा सश्रम    तपना।।

'शुभम्'  सोच हो श्रेष्ठ,कर्म कर हे  मानव  नव।

कारण  एक  न शेष,नहीं जो होता     संभव।।


                        -4-

देखा     सपना    देश  ने, होना  है  स्वाधीन।

रक्त  बहा  हिंसा  हुई,  तड़पे थे  ज्यों  मीन।।

तड़पे  थे  ज्यों  मीन,  देश के भक्त   निराले।

वीर   व्रती   रणधीर,  झेलते कड़े   कसाले।।

'शुभम्'  बना  इतिहास,कनक अक्षर में  लेखा।

होते   अमर  अनाम,  जिन्होंने सपना   देखा।।


                        -5-

सपना   झूठा   देखकर, राजा बने   न   रंक।

कर्म बिना कारण नहीं,धर यह तथ्य   निशंक।।

धर यह तथ्य निशंक, कर्म ही नित फलता है।

पाता  वह  गंतव्य,  अहर्निश जो  चलता   है।।

'शुभम्'सत्य यह बात, यहाँ क्या कोई अपना?

तन-मन का विश्वास, सत्य करता है  सपना।।



● शुभमस्तु !


09.06.2023◆1.30 प०मा०

केले का तना ● [अतुकान्तिका]

 349/2023

     

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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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केले का तना

हरित श्वेत

मसृण 

रहित व्रण

शीतल कण- कण

प्रति तृण।


किसने जाना

रहस्य अंतर का,

खुलता गया

परत दर परत,

किन्तु अंत क्या?

उधड़ता गया।


अंत में

शेष रह गया

मात्र एक शून्य,

शून्य से आगमन,

शून्य में ही विलीन,

मलता मुख मलीन।


आदि से अंत तक

मात्र शून्य,

तथापि इतनी ऐंठ?

कान को 

इधर से उधर

या उधर से इधर 

को उमेठ,

सब वही 

मात्र शून्य।


कैसे हैं ये 'शुभम्'

रस्सी के बल,

कसम जो ली है

जलकर भी

निकलना नहीं बल,

सूर्य गया ढल,

अब हाथ मल!


● शुभमस्तु!


09.06.2023◆6.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 8 जून 2023

कोंपल नई खिली ● [ नवगीत ]

 248/2023

  

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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बूढ़ा बचपन

लाया यौवन

कोंपल नई खिली।


जितना छनता

बचपन छिनता

बढ़ता मैल  गया।

हर विचार की

दुर्गति   होती

चलता खेल नया।।


मन में कचरा

भरता बदबू

आत्मा नित्य छिली।


चक्षु श्रोत्र के

 सब  वातायन

काम -रसों के प्यासे।

चलती नारी 

को तकते वे

लगा छद्म -रस लासे।।


भीतर की वह

गंध विकल है

नारी नहीं मिली।


अंतर्जाल एक

सम्मोहन का

कहता जग बेचारी।

आ जा बैल 

मार सींगों से

मन मोहिनी सुनारी।।


तेरा पूरक

तू भी मेरी

पाटल सुमन लिली।


हाड़ -माँस की

आवृत काया

रस का परस नया।

ऋण-धन ध्रुव का

संगम पल का

जाने  कहाँ दया।।


शूकर  - कूकर

नर - नारी सब

कामुक ढील ढिली।


●शुभमस्तु !


08.06.2023◆2.00प०ममा०

ग्रीष्म - भोर के मंत्र● [ सोरठा ]

 247/2023


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● शब्दकार ©

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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ग्रीष्म   जेठ आषाढ़, हरियाली  अच्छी लगे।

टप -टप बूँद प्रगाढ़, स्वेद बरसता  देह   से।।

रवि  बरसाए  तेज, मौन धरा प्यासी   पड़ी।

तप को रखो सहेज,ग्रीष्म कहे दो माह को।।


बैठे जन,खग,ढोर, वट की शीतल छाँव में।

अकुलाए  हैं मोर,ग्रीष्म ताप यौवन   चढ़ा।।

मेघ  नहीं आकाश, रातें लंबी दिवस   लघु।

मिले सलिल की आश,कैसे तपती ग्रीष्म में।।


जेठ ग्रीष्म की धूप,छन-छन छानी से  छने।

सूखे हैं जल  कूप, पानी भी मिलता  नहीं।।

ग्रीष्म-भोर में  मंत्र, पीपल-पल्लव  बाँचते।

कोई  नहीं स्वतंत्र, उछल गिलहरी  बोलती।।


करता  ग्रीष्म प्रपंच,आतप जेठ अषाढ़ का।

सजा हुआ  नभ-मंच,आँधी पानी  धुंध से।।

जाती थी  तिय राह,अवगुंठन को  छोड़कर।

ग्रीष्म बदलता चाह, लाज लगी है जेठ की।।


खूब  लगाती  लोट, तप्त रेत में  जा  नहा।

ग्रीष्म शिंशुपा ओट,गौरैया चिचिया  रही।।

मिले नहीं सत ज्ञान,बिना साधना  में  तपे।

जल -घन का संधान,ग्रीष्म तपे ये साधना।।


निर्भर हैं हे  मीत, ऋतुएँ पाँचों ग्रीष्म  पर।

मधु ,पावस संगीत,शरद,शिशिर,हेमंत सब।।


●शुभमस्तु !


08.06.2023◆10.00आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...