रविवार, 30 अप्रैल 2023

एक श्रमिका सर्वहारा 👩🏻‍🍼 [ गीत ]

 181/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

👩🏻‍🍼 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धरे सिर  पर  बोझ जाती

एक श्रमिका सर्वहारा।


जेठ   की है   धूप  भीषण,

सड़क भी   तपने  लगी है।

दीन    नारी     पाँव    नंगे,

प्यास तन-मन की जगी है।।

बेचती    भारी    लकड़ियाँ,

है   नहीं   कोई    सहारा।


वस्त्र  से   लज्जा ढँकी बस,

पाँव  घुटनों    तक   उघाड़े।

जा  रही  निश्चिंत  पथ  पर,

आ  सका कोई   न   आड़े।।

बाँध आँचल से अबल शिशु,

पी रही  दृग  नीर  खारा।


पक गए हैं कान सुन - सुन,

हम    मिटा   देंगे    गरीबी।

चाभते     बादाम     पिस्ता,

काजुओं  के  भोग  कीवी।।

ढोल    पीटे  जा   रहे    हैं,

जिंदगी  की शुष्क  धारा।


जिंदगी -   से   बाल   उलझे,

ऐंडरी  सिर    पर   धरी   है।

देह     काँटे  -  सी    हुई   है,

हो  रही    वह   अधमरी  है।।

आदमी        बेचारगी       में,

रात-दिन भीषण कु-कारा।


सोचती   है     बोझ     भारी,

हो    मिलेंगे    अधिक   पैसे।

खा  सके    भर    पेट    रोटी,

कर रही    नित    यत्न ऐसे।।

आयु   से    लगती    अठारह,

चुक गया अस्तित्व  सारा।


🪴शुभमस्तु!


28.04.2023◆4.00आ०मा०

कल की सोचे आज 🏕️ [ गीतिका ]

 180/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कल की सोचे आज,सुधी मानव वह  होता।

दूरदर्शिता-भाव,   न  नैया  बीच   डुबोता।।


नहीं   सोचते   ढोर,  नहीं  खग  भी  बेचारे,

ज्यों  ही  होता  भोर, लगाते नभ  में  गोता।


जीवन भर का  लेख,विधाता लिखते  पहले,

मानव  तू  भी देख ,नहीं  रह यों ही सोता।।


भावी   का  संज्ञान,  करे जो मानव  चिंतन,

बना  वही  पहचान, कल्पतरु -दाना  बोता।


जीता  ढोर   समान , बना जीवन  परजीवी,

कैसे  बने  महान, अश्रुभर  दृग   से   रोता।


जमा  दूध   को  नित्य,दही बन जाता गाढ़ा,

पाता  वह   नवनीत,हाथ से खूब   बिलोता।


देता  मिट्टी  लाद, पीठ पर मालिक   उसका,

हेंचू -  हेंचू   नाद ,मार   खा करता   खोता।


सेवा करे न पुत्र,जननि अपने  पितु ,गुरु की,

रहता सदा अभाग,नयन- जल से तन धोता।


'शुभम्'  वही  नर धन्य,दूरदर्शी  हो  जीवन,

नहीं मनुज वह वन्य,सुमन की माला पोता।


🪴शुभमस्तु !


21.04.2023◆9.30 प.मा.

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

छन्दमाल्य परिकल्पना ☘️ [ दोहा ]

 179/2023


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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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छन्दमाल्य परिकल्पना,कुमकुम जी सुप्रसाद

गुंजित  बाराद्वार  में,प्रतिभा का   अनुनाद।।

'कौशल 'का कौशल यहाँ, छाया है चहुँ ओर।

गौरी जी   योगेश  का, होता चंचल   भोर।।


कहना क्या देवेश का,कौशल जी  का  नेह।

श्रम के सजल सुबिन्दु से, बरसाते रस-मेह।।

शुभम् कला कौशल यहाँ, है साहित्यिक मंच

'शुभदा'की छाया सघन,कौशलजी का संच


मुख्य अतिथि राकेशजी,छन्दमाल के चाँद

फैलाते  नव  चंद्रिका, सदा रहेगा   याद।।

आए  गोप  कुमार जी,सँग में मीत  दिनेश।

इधर  रमे  राकेश  जी,सुनिता के  प्राणेश।।


छंदबद्ध  रचना   नई, सुनकर हुए  विभोर।

उड़गन नभ में उड़ गए,ज्यों भागे हों चोर।।

धारानगरी  भोज  की,    उतरी   बाराद्वार।

कौशल दास महंत का,लगा काव्य -दरबार।।


रवि तेईस अप्रैल  का, बना नया  इतिहास।

वर्ष 'शुभम्' तेईस का,अपना एक  उजास।।

मिलाअकिंचन को यहाँ,'शुभं'सकल सम्मान।

आजीवन भूले नहीं, प्रियवर कौशल- शान।


गुरुवर के सम्मान से,होता 'शुभम्' विभोर।

कोस चार सौ पार कर,लेता हिया हिलोर।।

चलकर  सिरसागंज   से, पाया मौहाडीह।

चाँपा  बाराद्वार  में, कौशल जी   उर   ईह।।


मिट जाती कब दूरियाँ, उर की उर के बीच।

आते दोनों शीघ्र ही,होकर प्रकट   नगीच।।

ख्यातिलब्ध है आगरा, यू.पी.- मंडल  एक।

ब्रजभूमि  मथुरा  वहीं, यमुना धार  अनेक।।


ब्रजभाषी  मैं गाँव  का,जन्म आगरा  पास।

कर्मभूमि  में रोप कर,प्रभु ने दिया निवास।।

यमुना  की  रेती बड़ी ,पावन सुंदर    मीत।

लोट-लोट  ब्रज- रेणु में,गाए हैं  शुभ   गीत।।


पुनः - पुनः  आभार है,शब्द न मेरे    पास।

दिवस आज का है बना,पावनतम इतिहास।

है प्रभु से यह कामना,घटे न उर    का  नेह।

मिलें 'शुभं' कौशल सदा, क्षणिक नहीं संदेह।


🪴शुभमस्तु !


21.04.2023◆5.00आ.मा.

टिकोरे 🌳 [ बाल गीतिका ]

 178/2023

         

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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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छोटे    कच्चे    आम  टिकोरे।

आते  अपने  काम   टिकोरे।।


चलती  आँधी टप- टप गिरते,

गिरें सुबह  से  शाम   टिकोरे।


दीदी     ढेले     मार   गिराती,

बगिया  में जा   ग्राम  टिकोरे।


मौसम   हो   वैशाख जेठ का,

करते  अपना  काम   टिकोरे।


कानों में कुछ फुसफुस करती

लाने को जा    घाम   टिकोरे।


हिलती  डाल  भरे मुख पानी,

ललचाते    हर वाम   टिकोरे।


'शुभम्' पुकारे जब कोयलिया,

बिना   दिए   दे   दाम टिकोरे।


🪴शुभमस्तु !


21.04.2023 ◆3.30आ.मा.

कच्ची अमिया 🥭 [बाल गीतिका ]

 177/2023


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✍️ शब्दकार ©

🥭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कच्ची        अमिया     खाए   दीदी।

गुपचुप       हमें         बुलाए    दीदी।।


आँधी       चली         झकोरे    लेती,

बगिया         में        बुलवाए  दीदी।


कहती          चुन्नू         टॉफी  दूँगी,

जाने        को          उकसाए   दीदी।


मानी           बात      गए    अमराई,

झोली        भर -  भर    लाए दीदी।


बोली      नहीं      बताना    माँ    को,

छुप    -  छुप    अमिया   पाए  दीदी।


गिरे         आम    चखकर  हम बोले,

हमें       न         खट्टा     भाए दीदी।


'शुभम्'      बुलाती         करे  इशारे,

होठों          में          मुस्काए  दीदी।


🪴शुभमस्तु !


21.04.2023◆2.30आ.मा.

माँ वीणावादिनी से 🎻 [दोहा ]

 176/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🎻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माता   वीणावादिनी, नमन करे  शत  बार।

पुत्र 'शुभं'नित विनत है,माँ कर कृपा अपार।

अक्षर -अक्षर जोड़कर,दिया शब्द उपहार।

उर - भावों के रंग से, बने काव्य  शुभकार।।


रस-वाणी रसना भरी ,करे जगत कल्याण।

ज्ञानदायिनी    शारदे, मेधा कर  मम  त्राण।।

विमला,  विश्वा, ज्ञानदा, इला, ईश्वरी   मात।

अंधकार उर  का  मिटा,लाएँ हृदय  प्रभात।।


अक्षर - अक्षर  ब्रह्म  है,दोहा 'शुभम्' प्रणीत।

लिखवाती गह लेखनी, सरस छंद  माँ गीत।

जन्म-जन्म तव चरण में,गाऊँ कविता नित्य

शुभकारी दुखहारिणी,जनहित मय औचित्य


लिखतीं लिखवातीं तुम्हीं, होता  मेरा  नाम।

तव चरणों में सौंपता,विधुवदनी  शुभ धाम।।

त्रिगुणा, शुभदा,अम्बिका,पाप मोचना रूप।

विस्मृत करे न एक पल,भगवत'शुभं' स्वरूप


कामप्रदा, सुरपूजिता, वंद्या आ उर -  गेह।

कृपाकरों से  काव्य का, बरसाओ माँ  मेह।।

चित्राम्बरि माँ भारती,आर्त 'शुभम्' तव द्वार।

खटकाता माँ अर्गला,याचक कवि उपहार।।


पद्माक्षी! वसुधे!'शुभम्',याचक को दो बूँद।

दे दें  अपने  कर  युगल,बैठा लोचन  मूँद।।


🪴 शुभमस्तु !


20.04.2023◆10.००आ.मा.

बुधवार, 19 अप्रैल 2023

अवतार 🪦 [ दोहा ]

 175/2023

   

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नीचे  जो  आया  धरा, कहलाया  अवतार।

नरक स्वर्ग सब कर्म के,जीव धरे आकार।।

पाप निरंतर बढ़ रहा,पापी जन   का  भार।

पुनः धरा पर आइए,लेकर प्रभु  अवतार।।


लेते हैं अवतार सब,पूर्व योनि को  त्याग।

कर्मों  का परिणाम है,पाप-पुण्यकृत  भाग।।

त्रेता  में श्रीराम ने,लिया मनुज   अवतार।

लीला  पुरुषोत्तम  बने, हरने को  अघभार।।


कीट योनि खग ढोर भी,मनुज विटप का रूप

विविधाकृति अवतार की,कब दरिद्र कब भूप

द्वापर में श्रीकृष्ण थे,कलयुग कल्कि स्वरूप।

लेंगे फिर अवतार वे,धनुष - बाण  का यूप।।


कर्मों के  अवतार ही,  हैं चौरासी    लाख।

योनि प्रबल परिणाम है,यथा जीव की शाख

बदल रूप अवतार का,लेते  हैं  प्रतिशोध।

जीव-जगत  ब्रह्मांड में,कर ले हे नर  बोध।।


गधा बना इस योनि में,पिछले जन्म कुम्हार।

गिन-गिन बदला ले रहा, मालिक से अवतार

खाल  ओढ़ कर शेर की,सिंह बना  है  श्वान।

भेद  खुले अवतार का,रहे न  तेरा   मान।।


चींटी  भी अवतार है,हाथी भी   अवतार।

काया से  ही कर्म का,निर्मित यह   संसार।।


🪴शुभमस्तु !


19.04.2023◆7.15आ०मा०

कस्तूरी-सा चरित्र🪷 [ दोहा ]

 174/2023


[कस्तूरी,कबूतर, खेत,अशोक, दृष्टि]

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✍️ शब्दकार©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      ☘️ सब में एक  ☘️

कस्तूरी-सा  कीजिए, अपना   चारु चरित्र।

नयन-दृष्टि पहुँचे नहीं,महकें सुजन सु-मित्र।।

मेरे  उर  के  मध्य  में,  तुम कस्तूरी-  गंध।

आनंदित  करती  सदा,प्रिय प्रेयसि  निर्बंध।।


देवी रति-वाहन  बना, शांत कबूतर  मीत।

प्रेमपत्र  ले  जा  वहाँ,  हुए बिना  भयभीत।।

आशा,शांति -प्रतीक है,परिवर्तन  का रूप।

दया भाव   ही  बाँटता, मीत कबूतर  यूप।।


खेत- खेत सोना उगे,अन्न, शाक,फल,फूल।

मेरे  भारत  देश  में,हो  समृद्धि   का  मूल।।

पकी फसल को खेत में,पाकर सभी किसान

हर्षित  होकर  देखते,संध्या 'शुभम्' विहान।।


मानव के हित के लिए,पीपल नीम अशोक।

तुलसी  आँगन  में खड़ी,दें बीमारी    रोक।।

जैसा तरु का  नाम है, वैसा उसका  काम।

छाँवदान नित ही करे,है अशोक शुभ नाम।


जैसी जिसकी दृष्टि है, वैसी उसकी सृष्टि।

नारी  माता,  कामिनी, करें नेह  की  वृष्टि।।

दृष्टि- भेद  से  मित्रता, पड़े खटाई    बीच।

जा   चौराहे   फेंकते,  मित्र परस्पर  कीच।।


       ☘️ एक में सब  ☘️

दृष्टि  खेत  की   मेड़  पर,

                      शोभित विटप अशोक।

कस्तूरी  मृग    छाँव   तर,

                             करे कबूतर  धोक।।


🪴शुभमस्तु !

19.04.2023◆6.30आ०मा०

माधवी मंगल 🪴 [माधवी /सुंदरी सवैया ]

 173/2023

   

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छंद -विधान:

1.08 सगण (112×8)+गुरु(2)=25 वर्ण।

2.समतुकांत चार चरण का वर्णिक छंद।

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

रवि क्रोध करै तपती धरती,

           तरु जीव भए अति  व्याकुल सारे।

सब माँगि रहे कछु वारि मिलै,

               चलते -चलते पथ में  जन हारे।।

तरु पीपर  पात   हिलाइ  रहे,

               दल काँपत से ध्वनि  देत सकारे।

मुख ढाँप चलै पथ में सजनी,

                  घन अंबर में घुमड़ें न बिचारे।।


                        -2-

बगिया-बगिया  नित बौर झरें,

                  बढ़ते-बढ़ते हरिताभ टिकोरे।

नव  यौवन   के मद में युवती,

                 उचकाइ उछाल भरें पद  पोरे।।

कछु पाहन हाथ लिए मचलीं,

                चुरियां खनकीं पहुँची कर गोरे।

रसना खटियाइ   भरी पनियाँ,

            ढिंग आय तु आमनु तोरत  छोरे।।

 

                         -3-

मधुमास सुभोर गुलाब  खिले,

           वन बागनु बंद खिलीं कलियाँ हैं।

इत कोकिल कूकि धमाल करै,

            उत फूलनु फूलि रहीं डलियाँ हैं।।

टपकें टपका  पकि आमन से,

            भ्रमते तितली अलिहू गलियाँ हैं।

तरुणी तरसाइ   रही पिय कों,

         कित जाइ छिपे उर के छलिया हैं ।।


                        -4-

सरि जाइ रही निधि अंकनु में,

               उठती गिरती मन मोद उमाही।

करती अभिसार दिवा-रजनी,

           कलछू -कलछू सुर गावति राही।।

चलनों अजहूँ बहु कोसन में,

           निधि खोलि खड़ौ अपनी दृढ़ बाँही।

सखि सीखि लियौ नित दान सदा,

              नदिया कहतौ जग बाँटति छाँही।।


                        -5-

बसि के मथुरा कित भूलि गए,

               मुरलीधर वे नंदलाल  हमारे।

हति कंस दिए बहु दानवहू,

             अब लौटि न देखत कंत दुलारे।।

दिन -रैन न चैन परै हमको,

              नित प्राण जलें बिनु लाल तुम्हारे।

सब गाय गुपाल  हताश  भए,

              रहि पावत नेंक न नाथ  बिना रे।।


🪴शुभमस्तु !


18.04.2023◆2.30प.मा.

लदे टिकोरे 🌳 [ गीत ]

 172/2023

    

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✍️शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अमराई की  घनी  छाँव में,

'शुभम्'गया सानंद  गाँव में,

लदे  टिकोरे।


विनत भाव से झुक-झुक आईं,

लदीं  टिकोरों  से  नत  डालें।

होड़   लगी   धरती  छूने की,

पोषण करती   भू माँ पा लें।।

जिसने हमको पाला,

देकर नेह -  निवाला,

कैसे हों कृतकृत्य  जननि  से,

छू   कर  गोरे।


नवल किशोरी  युवती बाला,

अमराई  में चहक   रही   हैं।

अमिया   हरी  खटाई  वाली,

खाने को  वे बहक वहीं  हैं।।

मुँह में  पानी आए,

देख आम तरसाए,

तोड़ रहीं   पाहन उछाल  वे,

पहुँचे    कोरे।


तन-मन जगी लालसा कैसी,

चाहें  स्वाद   खटाई   खाएँ।

नारी  का  यौवन   पुकारता,

तन-उद्यनिका को  महकाएँ।।

अमराई   में   जाएँ,

छील दाँत से खाएँ,

प्रकृति की इस मौन माँग में,

हिया   हिलोरे।


आओ   राधा,     चंपा,   हेमा,

हाथ हिलाकर   हमें   बुलाएँ।

नव  रसाल   की  शाखाएँ  वे,

दिखलातीअनगिनत कलाएँ।।

यौवन की बढ़वारी,

चाह रही  हर बारी,

'शुभम्' रसीली बनकर रस दें,

नहीं न छोरे।


🪴 शुभमस्तु !


18.04.2023◆9.15आ०मा०

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

पुरुष 🧘🏻‍♂️ [ चौपाई ]

 171/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🧘🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कोमल  और   परुष  से सारी।

बनी सर्जना   प्रभु की न्यारी।।

पुरुष परुष  कोमल  है नारी।

बनी जगत की महिमा प्यारी।


पहले  परम  पुरुष ही आया।

बनी   बाद  में नारी -  काया।।

कहता  है  जग    सुंदर  नारी।

नारी  नर    से   होती  भारी।।


धन-ऋण का यह खेल रचाया।

जीव- जंतु सबको ही भाया।।

अंबर   पुरुष   धरा  है  नारी।

खिले सृष्टि संतति नित जारी।।


कामदेव   रति   रूप   सुहाए।

आकर्षित   हो   सृष्टि रचाए।।

जलचर थलचर नभचर नाना ।

परम पुरुष के विविध विधाना।।


गाड़ी   के   पहिए  नर -नारी।

संग   पुरुष   पत्नी   संचारी।।

दाता पुरुष ग्रहण वह करती।

करती तृप्त स्वयं तिय तरती।।


कम - ज्यादा की बुरी लड़ाई।

लड़े परस्पर   कलह   बढ़ाई।।

'शुभम्'एक पग चले न गाड़ी।

नारी पुरुष बिना  वह ठाड़ी।।


🪴शुभमस्तु !


17.04.2023◆5.15प०मा०

गीत वही है गेय 🌳 [ गीतिका ]

 170/2023

 


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 ✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गीत वही है गेय, जहाँ कोकिल  की  लय है।

नहीं शब्द  का खेल,भाव नर्तन परिचय  है।।


जाना मत उस ठौर,मान का पान न मिलता,

मुरझाता उर-बौर,क्षीण हो जाती   वय    है।


स्वयं  चाहता   मान,  अहंकारी   ये  मानव,

करे न कौड़ी दान, दिखाता- सा अभिनय है।


वर्ण -भेद  का  रंग,  बहुत जाना   पहचाना,

सभी रहें जन -तंग,ध्येय मन में  अक्षय   है।


हृदय  कपट -भंडार,नेह ममता  से  खाली,

झूठा  लाड़ -  दुलार, क्रूरता का संचय  है।।


भूले छंद -विधान,  ताल  में टर -  टर  होती,

कवियों कीबारात,भेक की जय जय जय है।


'शुभम्' बिना ही स्वेद,पताका लहरे -फहरे,

गर्दभ गाते वेद,किसी को कुछ क्या भय है?


🪴शुभमस्तु !


170.4.2023◆3.00प०मा०

भूले छंद विधान 🔴 [सजल ]

 169/2023

 

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●समांत :  अय

●पदांत : है।

●मात्राभार :24.

●मात्रा पतन : शून्य।

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 ✍️ शब्दकार ©

🪭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गीत वही है गेय, जहाँ कोकिल  की  लय है।

नहीं शब्द  का खेल,भाव नर्तन परिचय  है।।


जाना मत उस ठौर,मान का पान न मिलता,

मुरझाता उर-बौर,क्षीण हो जाती   वय    है।


स्वयं  चाहता   मान,  अहंकारी   ये  मानव,

करे न कौड़ी दान, दिखाता- सा अभिनय है।


वर्ण -भेद  का  रंग,  बहुत जाना   पहचाना,

सभी रहें जन -तंग,ध्येय मन में  अक्षय   है।


हृदय  कपट -भंडार,नेह ममता  से  खाली,

झूठा  लाड़ -  दुलार, क्रूरता का संचय  है।।


भूले छंद -विधान,  ताल  में टर -  टर  होती,

कवियों कीबारात,भेक की जय जय जय है।


'शुभम्' बिना ही स्वेद,पताका लहरे -फहरे,

गर्दभ गाते वेद,किसी को कुछ क्या भय है?


🪴शुभमस्तु !


170.4.2023◆3.00प०मा०

संवेद्य संतति और जननी 🤱🏻 [ गीत ]

 168/2023


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✍️शब्दकार ©

🤱🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पोंछ रहा

जननी के

आँसू बेटा भोला।

उठता उर

तपता - सा

भारी -भारी  गोला।।


क्या दुख है

मेरी माँ 

तुझको  कौन  सताए।

तेरा सुत

उरज-अंश

सह क्या तृण भर पाए??


देख -देख 

ये कपोल

उर मेरे विष घोला।


कारण मैं 

तो नहीं न

बता दे मात मेरी।

तन -मन की

वह पीड़ा

भर रही अँधेरी।।


छोटा हूँ

तो क्या है

दहकता हृदय- शोला।


मेरा तन

ही नंगा

विवसन मैं यहाँ खड़ा।

कत पोंछू

 मैं तव अश्रु

हाए ! मैं अवश बड़ा।।


तेरा ही

आँचल है

मेरे हित अनमोला।


घुटनों पर

लगा टेक

बैठी दुःखी जननी।

पिता नहीं

संभवत:

घर पर कोई सजनी।।


यहाँ - वहाँ

यों कोई

क्यों माँ से कटु बोला।


रग - रग में

बहता जो

रक्त जननि का मुझमें।

और कहाँ

उफनेगा

पीड़ा , माँ के दुख में!!


समझ नहीं

भीतर उर

सुत का कब है पोला?


धन्य हृदय

जो धड़के

माँ को  दुख  में  तारे।

अला - बला

हर ले सब

'शुभम्' अपनपा हारे??


आवंटित

जननि -कुक्षि

पीड़ाहर शुचि चोला।


🪴 शुभमस्तु !


17.04.2023◆12.45प०मा०

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

भाईचारे' का मर्सिया! 👺 [ व्यंग्य ]

 167/2023

    [ व्यंग्य ]

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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🪭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 आम जन मानस में कही जाने वाली एक कहावत बहुत ही लोक प्रचलित है कि आजकल दो ही चीजों की कीमत आसमान छूती जा रही है।पहली जमीन औऱ दूसरे हैं कमीन।इस कहावत में कुछ झूठ भी नहीं है।यदि आप इस बात की सत्यता में विश्वास नहीं करते हों तो इसे सौ फीसदी सत्य प्रमाणित करना भी कोई चील के घोंसले में मांस खोजने के समान कठिन नहीं है। 

 अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत है कि जिस चीज की कमी हो जाती है ,उसकी माँग बढ़ जाती है। अब जब माँग बढ़ेगी तो सामग्री में कमी आएगी और उत्पादन भी बढ़ाना पड़ेगा ।माँग बढ़ने से वस्तु मँहगी भी होने लगेगी। अर्थशास्त्र का यह लोकप्रिय सिद्धांत समाज,शासन प्रशासन औऱ सरकारों पर भी बख़ूबी लागू होने लगा है।

 ऐसा लगता है कि भले ,भद्र या सच्चे लोगों की कोई कमी नहीं है। इसलिए ऐसे भद्र पुरुषों (महिलाएँ भी) की भरमार का परिणाम है कि उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। अधिक उत्पादन ,माल सस्ता। कौन पूछता है भद्र पुरुषों को ।कौड़ी के मोल ,मिल जाते हैं अनतोल।अब तो हत्यारों, डकैतों, बलात्कारियों,दूसरों की संपत्ति छीनने वालों,जमीन के बदले नौकरी देने वालों,आतंकियों, उग्रवादियों, चरित्रहीनों, नौकरी दाताओं,(केवल वे लोग ही चरित्र हीन नहीं हैं, जो जार हैं, परस्त्रीगामी हैं ।अब तो गबनी,रिश्वत खोर, बैंक लुटेरे, देश लुटेरे,राहजन आदि सभी चरित्रहीन ही हैं।) की ही सर्वाधिक माँग है।उन्हें ढूँढ़ने के लिए जंगल, जेलों ,होटलों, कोठियों आदि की खाक छाननी पड़ती है।अब दस, बीस, पचास हजार में भी नहीं मिलते । अब तो उनके ऊपर एक ,दो ,पाँच लाख या इससे भी ऊपर इनाम रखा जाता है। उन्हें खोजने के लिए हजारों लीटर डीजल ,पेट्रोल फूँका जाता है।इनाम स्वरूप उनके 'शरणदाताओं'को 'सम्मानित' किया जाता है। 

 नई तथा अत्याधुनिक परिभाषा के अनुसार जिनके पास धन- दौलत, कार ,कंचन ,कामिनी की कमी न हो ;उन्हें 'कमीन'=[कमी+न] की उपाधि से उपकृत किया जाने का नियम है।और वे किए भी जा रहे हैं,उन्हें इस असार संसार से मुक्ति प्रदान करते हुए हूरों के लोक में पद स्थानित कर दिया जाता है।इस सबका ध्यान हमारे शासन - प्रशासन को विशेष रूप से रखना पड़ता है।इससे उनका पवित्र दायित्व - भार भी कई गुणा बढ़ जाता है। 

 किसी समाजसेवी, देशभक्त ,कवि ,साहित्यकार, वैज्ञानिक,संगीतकार,गायक, अभिनेता,सुयोग्य प्रशासक या राजनेता का उचित सम्मान हो या न हो,परन्तु इन तथाकथित 'कमीन' वर्ग की 'ख़ातिरदारी' पूरे जोश -ओ -खरोश, लाव -लश्कर और प्रचार -प्रसार के साथ की जाती है। इससे कम मूल्य पर समझौता नहीं होता। रक्तबीजों की तरह बढ़ते हुए ये अभद्र जन/जनी इतने सुयोग्य समझे जाने लगे हैं कि बिना किसी प्रचार- प्रसार वे जेलों की रोटियाँ तोड़ते हुए शान से विधायक और सांसद चुन लिए जाते हैं। धन्य हैं हमारे समाज औऱ देश के मतदाता जो बिना चरण चुम्बन कराए ही उन्हें विधान सभा या लोकसभा का माननीय बनाने में देर नहीं करते। इससे भी ज्यादा बधाई के पात्र हमारे वे राजनेता और राजनीतिक दल हैं ;जिनके संरक्षण में वे पलते बढ़ते और ऊपर तक चढ़ते हैं। ऐसे दलों के दलदल में राजनीति का लोटस नहीं खिलेगा तो क्या धतूरा महकेगा? यत्र तत्र सर्वत्र बढ़ते हुए गिद्घ, चीलों की समृद्धि का रहस्य अब समझ में आ रहा है। उन्हें भी व्यक्ति, समाज और देश से क्या लेना देना , बस उनकी कुर्सी के रक्षक (कृपया राक्षस न कहें) जिंदाबाद रहें। तभी तो एक गिद्ध के जाने पर 'भाईचारे' का मर्सिया शुरू हो जाता है। वे सच्चे आँसुओं से जार-जार बिलखने लगते हैं।किसी को अन्याय दिखता है तो किसी को जाँच आवश्यकता महसूस होने लगती है।वे भूल जाते हैं कि हमारी संस्कृति इतनी अशक्त और लाचार नहीं है। वह 'शठे शाठयम समाचरेत 'का सिद्धान्त भी भूली नहीं है।काँटे से काँटे को निकालना भी उसे अच्छी तरह आता है। युग के अनुसार वह कांटा इतना बड़ा भी हो जा सकता है कि उसे किसी 'कल' में लगाकर कलमा पढ़ना पड़े। कलयुग है न!कल के युग में भी कल की कलाकारी नहीं चली तो क्या त्रेता या द्वापर युग में चलेगी? ये कुछ कम नहीं है: 

 जैसे में तैसौ मिले,मिले नीच में नीच। पानी में पानी मिले, मिले कीच में कीच।।

 🪴शुभमस्तु !

 14.04.2023◆4.45प०मा०

तर्जनी बनाम वर्जनी 👈 [ अतुकान्तिका ]

 166/2023

   

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✍️ शब्दकार ©

👉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तर्जनी की आँख

देखती रही

अहर्निश

दूसरों की ओर,

देखा नहीं

मुड़कर झलक भर

तनिक भरकर कोर।


दूसरों में दोष दर्शन

तर्जनी तेरी 

प्रवृति है ,

पथिक को

रास्ता बताना

प्रकृति है,

बन के मुक्का

एकता से

सुकृति है।


नकार और सकार का

साकार है तू,

निकालने के लिए

पात्र से गाढ़ा जमा घी

सर्व प्रथम

तू ही पड़ती है टेढ़ी,

शेष चारों नहीं आतीं

लौट जातीं,

नहीं देतीं साथ तेरा,

क्योंकि

दोष दर्शन में नहीं

कोई नहीं

 सानी घनेरा।


तर्जनी की तर्ज पर

संसार भी

दूसरों के दोष देखे,

डालकर अँगुली 

तर्जनी अपनी

छेद को चौड़ा करे,

क्या करे?

छोड़कर प्रकृति अपनी

श्रेष्ठता कैसे वरे!


तर्जनी 

बनी यों ही नहीं,

बैठा हुआ है मौन

बेचारा तिलकधारी

अंगुष्ठ तेरी तली,

अंततः तू नर नहीं

जग की जनी,

हे वर्जनी!

हे तर्जनी!!


🪴 शुभमस्तु !


14.04.2023◆6.30आ०मा०


बुधवार, 12 अप्रैल 2023

कविता है शुचि साधना🪷 [ दोहा ]

 165/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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भावों  की  साकारता,है कविता   का   रूप।

दात्री   वीणावादिनी , बना रही  कवि   यूप।।

कविता  को मत जानिए,शब्दों  का  भंडार।

भाव,व्यंजना,छंद,रस,गति लय की चमकार।


कविता है शुचि साधना,करती जग कल्याण।

जन-जन,देश,समाज में,भरती है नित प्राण।

कविता-वाणी सत्य की,नहीं अनृत का काम

कविउर शांति प्रदायिका,चले न सतपथ वाम


कविता अर्जन का नहीं, साधन जानें आप।

ज्ञान-भानु चढ़ता रहे,मिटें जगत के ताप।।

सतत साधना कीजिए, नित्य निरंतर मीत।

कविता शुभकारी सदा,होता स्वयं  प्रतीत।।


कंचन कामिनि की करें,कविता से मतआश।

उर की निर्मलकारिणी,कविमानस का प्राश।

कविता मानव-मूल्य की,रक्षक सदा असीम।

पाप-ताप काटे सदा,तन-मन निवसित भीम।


होती गुरु,माँ की कृपा,कविता करता व्यक्ति।

माला महके शब्द की,मिले अपरिमित शक्ति

निंदा-रस लेना नहीं,कविता में क्या  काम!

नहीं विमुख हो सत्य से,कवि का होता नाम।


कविता  से   मन-देह  के,  होते दुर्गुण    दूर।

गंगावत  पावन  करे,पाप  अहं   को   चूर।।


🪴शुभमस्तु !


12.04.2023◆6.45आ०मा०

प्रेमी परिमल पुंज🏕️ [ दोहा ]

 164/2023


[धूप,कपोल,आखेट, प्रतिदान,निकुंज]

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       ☘️ सब में एक ☘️

धूप- छाँव  उनको कहाँ, नित्य बहाते  स्वेद।

उदर भरें श्रम के बिना,करते वे जन- भेद।।

धूप  चिलचिलाती  रही, कर्मवीर  निर्बाध।

रहा  साधना लीन जो,पूर्ण करे  निज साध।।


पाटल जैसे लाल हैं, अँगना युगल कपोल।

चहके सहज सुगंध से,कोकिल जैसे बोल।।

गोरे सुमन कपोल की,सुषमा सौम्य असीम।

तृप्त नयन हों देखकर,कटु रस त्यागे नीम।।


दृष्टिबाण  संधान  कर, करती है    आखेट।

गजगामिनि-सी कामिनी,उघड़े त्रिबली पेट।।

पता नहीं कब चल गए,सजनी के  दो  तीर।

घायल है आखेट से,सबल युवा   रणवीर।।


प्रेम न  सच्चा   चाहता, बदले में  प्रतिदान।

देना ही  संतोष का, प्रतिफल परम महान।।

वांछा यदि प्रतिदान की,उचित नहीं ये भाव।

देकर    जो  भूला   रहे, हरे  न  होंगे   घाव।।


बातें   करें  निकुंज  में,  बैठे  राधे - श्याम।

दूर   गईं   गायें   सभी,   ढूँढ़ें मनसुखराम।।

छाई है मधुमास में,हिलती घनी   निकुंज।

करते हैं विश्राम दो,प्रेमी परिमल   - पुंज।।


     ☘️ एक में सब ☘️

पड़ती  धूप  कपोल   पर,

                      मिला  प्रणय- प्रतिदान।

नव  निकुंज  आखेट  का,

                          नहीं  उचित   संधान।।


🪴 शुभमस्तु !

11.04.2023◆11.15प०मा०

मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

सदा वत्सला 🧕🏻 [अतुकान्तिका ]

 163/2023


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✍️ शब्दकार ©

🧕🏻 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धरिणीवत

धारिणी 

नित तारिणी,

सदा वत्सला 

संतति हित 

सुजला सुफला

विमला कमला,

शारदा दुर्गतिनाशिनी

जननी।


देती सदा स्नेह

निस्संदेह,

कुक्षि में रखती

नव मास,

कष्ट में यद्यपि

रहती तेरी श्वास,

अटल विश्वास

नहीं कोई 

जननीवत समता।


सुत हो

अथवा सुता,

सभी से सम नाता,

हे प्रसविनी माता

सुत निशिदिन

तुझको ध्याता,

मनवांछित

सब पाता,

आजीवन तेरे

गुण गाता।


जिसने माँ को पूजा

जीवन उसका धन्य हुआ,

नहीं जग में

जननी सम दूजा,

जननि शीतल 

जल का कूजा,

तेरा ही सु -नाम

धरती के

 कण -कण में गूँजा।


जननि के

मौन आशीष,

सदा रहते

निज संतति के संग,

विपत्ति में बनते

रक्षक त्राण,

बचाते प्राण,

धन्य माँ जननी

वरदायनी 

'शुभम्'के तन में

कण - कण में बसती,

समर्पित माँ को

 मेरी हस्ती,

नमन माँ तुझको

बारम्बार।


🪴शुभमस्तु !


11.04.2023◆5.30 आ०मा०

पैसा 💰 [ चौपाई ]

 162/2023

    

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✍️ शब्दकार ©

💰 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बहुविध  रूप   दिखाती माया।

एक रूप पैसा    की  काया।।

जगत-काज सब करता पैसा।

उसका चाल-ढाल ही  ऐसा।।


बालक   बूढ़े  नर   या   नारी। 

पैसा  अर्जन    की   बीमारी।।

सोते -  जगते     पैसा - पैसा।

पागल  हुआ  आदमी  ऐसा।।


दाल - भात,  भाजी या  रोटी।

जली-कटी या छोटी - मोटी।।

अन्न, दूध, फल   देता    पैसा।

सोना ,  चाँदी ,  गैया , भैंसा।।


देवालय  में     फूल    चढ़ाते।

गंध-दीप नित भक्त  जलाते।।

पैसा  बिना  प्रसाद    न पाएँ।

रिक्त हाथ वापस   घर जाएँ।।


कहे  पुजारी    धर  जा पैसा।

क्यों मैं सुनूँ  अपवचन वैसा।।

मुझे  दक्षिणा   अभी  चाहिए।

दक्षिण कर  से अभी लाइए।।


राजकीय  या    कोई     सेवा।

करने   वाला    चाभे   मेवा।।

जो दहेज के    भुक्खड़ भाई।

पैसा के   हित   बनें  कसाई।।


कसकर  पैसा  नोट पकड़ता।

शिशु मुट्ठी में त्वरित जकड़ता।

भले दुधमुँहे   बालक-  बाला।

माया ने   कस  फंदा  डाला।।


सन्यासी     सब   चीवरधारी।

लिए  कटोरा बने   भिखारी।।

पैसा  बिना  न भरता    गड्ढा।

हो जवान बालक या  बुड्ढा।।


चले न गृहस्थाश्रम   की गाड़ी।

पैसा   बिना    रहेगी   ठाड़ी।।

नेता , धन्ना    सेठ,  महाजन।

पैसा बिना न चलता जीवन।।


कोई मैल   हाथ  का कहता।

पाई पकड़  दाँत    से रहता।।

ढोंगी  जन  की  बातें  छोड़ो।

पैसे से   सब     नाता जोड़ो।।


पैसा की  है  बड़ी    कहानी।

नित्य  नई है न    हो पुरानी।।

'शुभम्' न चाहे  जो नर पैसा।

पाखंडी  झूठा    वह   ऐसा।।


🪴शुभमस्तु !


10.04.2023◆11.30आ०मा०

जाना मत उस द्वार🪂 [ गीतिका ]

 161/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जाना मत उस द्वार,जहाँ सम्मान   नहीं।

स्वार्थ भरा संसार, किसे संज्ञान    नहीं!!


कर्मवीर    को   देश, करेगा याद  सदा,

कर्महीन   का नाम, कहीं पहचान    नहीं।


बदल - बदल कर वेश, देश जो  ठगते  हैं,

पग - पग पर बदनाम,कहीं गुणगान नहीं।


करते   झूठी    बात,   द्वार पर मतमंगे ,

बदल मुखौटे नित्य,मनुज अनजान नहीं।


सुन कोकिल की कूक,जगी विरहिन पीड़ा,

रस  लेता अलि चूस,सुमन को भान नहीं।


कर  महलों  में  वास,आम को  भूला   है,

क्या न तुझे अनुमान,कृषक पर  छान नहीं।


जनसेवा   का नाम, ख़ाक से लाख   हुआ,

'शुभम्' तुम्हारा  काम, कहीं संधान  नहीं।


🪴शुभमस्तु !


10.04.2023◆6.00आ०मा०

कृषक पर छान नहीं🪭 [ सजल ]

 160/2023


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●समांत : आन।

●पदांत :   नहीं।

●मात्राभार :22.

●मात्रा पतन:शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जाना मत उस द्वार,जहाँ सम्मान   नहीं।

स्वार्थ भरा संसार, किसे संज्ञान    नहीं!!


कर्मवीर    को  देश, करेगा   याद     सदा,

कर्महीन   का नाम, कहीं पहचान    नहीं।


बदल - बदल कर वेश, देश जो  ठगते  हैं ,

पग - पग पर बदनाम,कहीं गुणगान नहीं।


करते   झूठी    बात,   द्वार  पर   मतमंगे ,

बदल मुखौटे नित्य,मनुज अनजान नहीं।


सुन कोकिल की कूक,जगी विरहिन पीड़ा,

रस  लेता अलि चूस,सुमन को भान नहीं।


कर  महलों  में  वास,आम को  भूला   है,

क्या न तुझे अनुमान,कृषक पर  छान नहीं।


जनसेवा   का नाम, ख़ाक से लाख   हुआ,

'शुभम्' तुम्हारा  काम, कहीं संधान  नहीं।


🪴शुभमस्तु !


10.04.2023◆6.00आ०मा०

रविवार, 9 अप्रैल 2023

बेघर-बार बेचारा! 🧙🏽‍♂️ [ चौपाई ]

 159/2023

       

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✍️शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बेघर  -    बार     वसन    तन मैला।

पाँव  न     जूते      साथ    न   थैला।।

बंद      दुकान        लगा     है ताला।

 नहीं    पास    में      दिखता  लाला।।


दाढ़ी    बढ़ी     केश     सिर खिचड़ी।

बेचारे      की      सु -   दशा बिगड़ी।।

पहने               धारीदार      पजामा।

नहीं      पास      में    उसके   नामा।।


फड़  - सिल   पर  वह जाकर सोया।

किसने         देखा      भूखा  रोया!!

दाढ़ी      में    उर   -   भाव  छिपाए।

नयनों     में       आँसू    भर आए।।


लगा      बाँह    का   तकिया  सोए।

सपने      रंक     भूप     के     बोए।

पड़ा      सड़क    पर  दूषण  सारा।

सोया         निर्धन      तन  बेचारा।।


पीत     कमीज      पहन   अधबाँही।

चिंताहीन           धूप       या छाँही।।

'शुभम्'   न   प्रभु     नर    दीन बनाए।

जहाँ - तहाँ     पड़     वह  सो जाए।।


🪴शुभमस्तु !


09.04.2023◆6.00प०मा०

धीरज -धनधारी धनी 🩷 [ दोहा ]

 158/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धीरज- धनधारी    धनी, होते शांत   उदार।

आतुरता करते नहीं,पावन 'शुभम्' विचार।।

चुन-चुन शब्द सजाइए,शुचि रचना की माल।

आतुरता में भंग हो,छंद रसों   की   डाल।।


जननी  जनती जीव को,धीरज  धरे  महान।

आतुरता  करती नहीं,संतति   करे प्रदान।।

कवि -तापस की साधना,चलती धर के धीर।

आतुरता से अल्प दिन,बने न कवितावीर।।


आतुरता से  काम के,बिगड़ें  रूप   अनेक।

धरती धीरज धारिणी,गतिमय नित सविवेक।

आतुरता में  भूलता, सहज धैर्य  की चाल।

फूँक- फूँक पग जो रखे,उसका ऊँचा भाल।।


पढ़ - पढ़  ग्रंथ बढ़ाइए, शब्दकोष का ज्ञान।

अनुचित आतुरता'शुभम्',करिए अनुसंधान।

कहाँ करें किस शब्द का,सुंदर उचित प्रयोग।

आतुरता करना  नहीं,जान जलेबी - भोग।।


आतुरता में  जो   रहे, गिरे सप्त   सोपान।

कछुआ जीता दौड़ में ,हारा शशक अजान।।

आतुरता  में  भूलते,  रखा हुआ   सामान।

रोते   गाड़ी  में   चढ़े, छूट गया  धन - धान।।


🪴शुभमस्तु !


09.04.2023◆5.30 प०मा०


ग़ज़ल 🌴

 157/2023

       

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुझको  तुम्हारे   दर्द   का शजरा न  मिला।

महका  गुलाबी  जिस्म वो गजरा न मिला।।


किसको     बताएँ   हाल   जाए   न   कहा,

खोया   तुम्हारे   पास   ही खसरा  न मिला।


ख़ुशबू    दहकते   हुस्न   की बसती   बदन,

तुमसे   तुम्हीं  हो  एक  ही दुसरा  न मिला।


मरता   नहीं   है   इश्क़ ये सौ - सौ    जनम,

देनी  पड़ेगी    दाद   तिरा जिगरा  न  मिला।


आँखें  तो   देखीं  खूब    ही सूरत   'शुभम्',

आँखों  से लेता  जान  जो  कजरा न मिला।


🪴शुभमस्तु !


09.04.2023◆2.30प०मा०

मोती सबको चाहिए 🪭 [ व्यंग्य ]

156/2023 


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🫧 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्

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 मोती सबको चाहिए,बिना हुए निधि पैठ।

 करे प्रतीक्षा मूढ़ नर, रहा किनारे बैठ।।

 मेरे उपर्युक्त दोहे के प्रथम चरण के अनुसार इस असार संसार में सामान्य -विशेष,गर्दभ या मेष,नर या नरेश,खल्वाट या केशेश :ऐसा कोई भी शेष नहीं; जिसे मोती पाने की आकांक्षा न हो। किंतु मोती प्राप्त करने के लिए परिश्रम करने की भी आवश्यकता है।देह से स्वेद -स्रावण तो करना ही पड़ेगा; इस छोटी - सी बात से कोई अनभिज्ञ नहीं है।पर मोती सबको चाहिए ही।

  आदमी नामक इस जीव के मन जैसी भी एक अदृश्य,अ-वश्य(जिस पर उसका वश भी नहीं),अबध्य,दुर्लभ्य जैसी चीज भी है;जो सर्वाधिक वेगवती,चटपटी,नट या नटी, देह के कण-कण में सटी हुई है कि उसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं है। 'सबहिं नचावत राम गुसाईं' की तरह वह किस- किस को नहीं नचा रही है। अब चाहे राजा हो या रंक, सदेह हो या अनंग,सजीव हो या संग (पाहनवत) मन सबका ही मचलता है।स्वतः स्फूर्त करंट से चलता है, स्पंदित होता है।इसलिए वह सर्व अभिनंदित होता है, वंदित होता है। कभी विषादग्रस्त कभी आनंदित होता है। पल में माशा पल में तोला, कितना चंचल कितना भोला! न आयत न चौकोर न गोला, चार निलय अलिंद से बना अमोला।इस मन की माया ही अपार है। आदमी इस मन के कारण ही तो बेबस, लाचार है।इसके अंतर में प्रति क्षण चढ़ाव है उतार है।बिना मन के भी तो नहीं मानव का निस्तार है।निर्मम भी बहुत कोई बहुत ही उदार है।पर मोती तो सबको ही चाहिए। कहिए कैसा ये विचार है? 

     देखा! कितना वृहद सागर का विस्तार है?और तू किनारे पर पड़ा ,खड़ा-खड़ा सोच रहा है कि सागर के मोती कैसे हाथ लगें! कभी आता उसे बोध हीनता का, कभी अपनी अकर्मण्यता की दीनता का,कभी दिख जाता है किसी गोताखोर से छीनता-सा। मोती चाहिए तो सागर के किनारे खड़े होने से काम नहीं चलने वाला।उसे अनिवार्यतः सागर की तलहटी में उतरना ही पड़ेगा। वहाँ विद्यमान सीपी, शंख, घोंघों में मोती खोजना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि मोती तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हों और कहें कि आओ हमें चुन लो। अपने सपनों के गलीचे बुन लो।परन्तु मेरी भी आवाज सुन लो ,पाकर भी मोती , ये शक्ल क्यों बनाता है रोती-रोती? शायद कुछ लोगों की नियति ही है बड़ी खोटी, जो पाकर भी सुघड़ मोती ; रोयी - रोयी - सी होती।जागती हुई भी लगे सोती की सोती!

       बहुत अच्छा ! कि पा गया तू मोती।बनाए रखनी है इसकी चमक औऱ ज्योति।शीतलता औऱ सु -शांति का प्रतीक है तेरा मोती।लगा कर सागर में गोता ,बन गया न तू अब गोती! मन में शांति रख और दान कर शीतलता। तभी तो स्वेद का श्रम आदमी को फलता।पाने के बाद भी जो दूसरों को दलता, वही किसी उजाले की तरह अस्ताचल में ढलता।बाद महत उपलब्धि के मानवता को छलता, बहुत दिन उसका सितारा नभ में नहीं चमकता! यों तो हर भौतिकता का अस्तित्व सदा नहीं चलता।फिर भी संतोष देती है उसके श्रम की सफलता।

         इसलिए हे मानव ! सुपथ पर अहर्निश चल। ऐ नश्वर मुक्ताकामी!मुक्ताधारी!! चलता रह! चलता रह!! मोती-से नर- जीवन को मत विफलता कह।मृत देहवत प्रवाह में मत बह। अपनी एक नई धारा का निर्माण कर।चीर कर प्रवाह को नवीन पथ वर। मेष या गर्दभ वत जीवन न बिता। लुटलुटी लगा कर रेत में धूल मत उड़ा।लगा छलाँग हिमांचल या सतपुड़ा।कभी गंगा में नहाने से गधे गाय होते हुए नहीं देखे न सुने हैं। और तूने सोने के महलों में मिथ्या सपने बुने हैं!लगता है तेरे ये काष्ठ - पलंग सड़े-घुने हैं।तेरे दंभ भरे झूठे झुनझुने हैं।तू ही खिलाड़ी तूने ही तो चुने हैं। 

 🪴शुभमस्तु !

 09.04.2023◆11.45आ.मा. 


शनिवार, 8 अप्रैल 2023

ग़ज़ल

 155/2023


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✍️ शब्दकार ©

🩷  डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नज़रें         चिलमन -  फाड़ तुम्हारी।

पार     करें         हर    आड़ तुम्हारी।।


महल    किलों     की  क्या थी  हस्ती,

झेली       नहीं       पछाड़    तुम्हारी।


चंचल      चितवन      कैद   न   होती,

ऊँची         आँखें       ताड़    तुम्हारी।


रहे              टापते        पहरे  वाले,

ऐसी           साड़म   -  साड़ तुम्हारी।


किसके     कानों      में    दम  इतना,

सह          पाएगा       झाड़  तुम्हारी।


जहाँ     धधकती     आग   रात - दिन,

देह       बनी     है       भाड़  तुम्हारी।


'शुभम्'      चलन    की  चाल अनौखी,

जिनगी         बनी       कबाड़ तुम्हारी।


🪴शुभमस्तु !


08.04.2023◆3.45प०मा०


ग़ज़ल

 154/2023

      

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पास    नहीं  तुम  मेरे  आना।

बाँहों  के  मत    घेरे   लाना।।


जली  आग -  सा  मेरा तन है,

मुझे  न    भाए    घेरे  जाना।


आह- दाह  बर्दाश्त  न   होगी,

चाहत    मुझे    उजेरे   पाना।


कोई कब तक मुँह मत खोले,

सरसों - सा   यों   पेरे  जाना।


माशूका  महजबीं  न  नाज़ुक,

उम्दा  है  क्या   फेरे    खाना?


झूठी  है      तारीफ़    तुम्हारी,

ठगिआई     अंधेरे       छाना।


'शुभम्'खार झुरमुट में पलता,

 नहीं     चलेगा    तेरा   दाना।


🪴शुभमस्तु !


08.04.2023◆3.00प०मा०


शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

चंदन 🌳 [ कुंडलिया ]

 153/2023

          

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✍️शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

चंदन चर्चित चाम का,चींटी भर  क्या  मोल?

गुण-गुंजन  गूँजे  नहीं,जीवन झोलमझोल।।

जीवन झोलमझोल,जले ज्यों लकड़ी ईंधन।

जल जाए त्योंआग,चमकता मानव का तन।

'शुभम्'गुणों की गंध, जगत में  पाती   वंदन।

नाशवान का रूप, कनक, चाँदी क्या चंदन।।


                         -2-

अपना जीवन आप ही,महकाएँ निज नाम।

है  अपने  ही  हाथ में, हों जैसे कृत  काम।।

हों जैसे कृत काम,मनुज चंदन- सा  महके।

यश की ध्वजा अपार,शून्य में चढ़कर चहके।

'शुभं'कर्म का फूल,महकता समुचित  तपना

शीतलता  दे मीत, बना मन चंदन   अपना।।


                         -3-

चंदन  से  लिपटे रहें,विषधर सदा   भुजंग।

तथ्य नहीं  ये ठीक  है,नहीं उचित  ये संग।।

नहीं उचित ये संग,नहीं क्यों विष वे  त्यागें?

जो  महके   दिन-रात,दूर वे उससे   भागें।।

'शुभम्' सर्प का साथ,नहीं पाता जग - वंदन।

न हो मलय गुणगान,मनुज क्यों चाहे चंदन।।


                          -4-

चंदन   तेरा  नाम  है, गुण में सदा   विलोम।

शीतलता  सपने नहीं,तप्त ज्वाल - से रोम।।

तप्त ज्वाल - से रोम,शब्द ज्यों मक्का भूनी।

उग्र  दहकती  जीभ, नेह  से खाली    सूनी।।

'शुभम्'कर्म का ताज, शीश पर  सोहे वंदन।

अर्जित  करें  सुगंध, तभी कहलाएँ   चंदन।।


                         -5-

चंदन  औषधि रोगहर,उच्च रक्त  का  चाप।

करे  नियंत्रित  शीघ्र ही,छींक, मुँहासे, ताप।

छींक,मुँहासे, ताप, पुरुष- शुक्राणु   बढ़ाए।

खजली से आराम, नाभि पर लेप   लगाए।।

'शुभम्'भाल पर बिंदु,सजाए कर शिववंदन।

देवालय  के  धाम,लगा सिर जा नर  चंदन।।

🪴शुभमस्तु!


07.04.2023◆5.00प.मा.


ग़ज़ल 🌴

 152/2023

    

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सुघर        चाँद     में   दाग  मिला     है।

इंसानों          में     नाग      मिला    है।।


झोपड़ियाँ          दिन    -  रात     कराहें,

बीच      किले     के    बाग  मिला    है। 


हंसों       के          सँग     बगुले    आए,

कोकिल -  दल       में     काग  मिला है।


गम      है       कोसों      दूर    ख़ुशी   में,

बेवा      -     भाल      सुहाग   मिला    है।


 नहीं          गाय       का     दूध   सुहाता,

घर   -   घर    बकरी -   छाग   मिला   है।


गीत       कौन          सुमधुर    है     गाता,

नहीं        कर्णप्रिय       राग   मिला      है।


'शुभम्'        रसायन      खाती      दुनिया,

जहरीला        हर      साग   मिला       है।


🪴 शुभमस्तु !


05.04.2023◆7.00प.मा.


नारी 🧕🏻 [ दोहा ]

 151/2023


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✍️ शब्दकार ©

🧕🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नारी  जाया सृष्टि की,नारी से हम    आप।

जननी जीवनसंगिनी,करिए दुर्गा  - जाप।।

नारी कोमल  कांत  है,किंतु सुदृढ़ उर धार।

अतुल  शक्ति से जूझती,नैया करती  पार।।


नारी  एक  प्रहेलिका,नर को सदा   अबूझ।

पात पात में पात है,रहती अलख  असूझ।।

नारी  ममता प्यार की,है अतुलित  भंडार।

नर -वल्गा कर थामती, देती निज उपहार।।


नारी का विज्ञान मन, समझें नहीं अबोध।

पल भर में  भाँपे तुम्हें,करती अंतर शोध।।

मोम और पत्थर मिला, नारी के  उर  देह।

बने  कांत  सुदृढ़ सभी, बरसाती  गृह मेह।।


माया, साहस, अनृत का,नारी में  है भाव।

अदया,भय,अविवेक भी,रहे चपलता-घाव।।

श्वेत  श्याम  दो पक्ष का,नारी में    संयोग।

अंतर से पहचान कर,करती यौवन - भोग।।


वनिता,महिला,कामिनी,नारी के बहु नाम।

वामा  भी  वह मानवी,पुरुष देखता  चाम।।

देवी , दुर्गा,   शारदा,  रमा, चंचला   नाम।

नारी   के  बहुरूप  हैं, कर्मों के   परिणाम।।


आधे   जन   भूगोल  में, नारी का    संसार।

आधे  नर  साभार हैं, देखा शोध - विचार।।


🪴शुभमस्तु !


05.04.2023◆9.45आ.मा.

अवा - तवा धरती बनी! 🌳 [ दोहा ]

 150/2023

 

[ग्रीष्म,गौरैया,लू,तपन,पखेरू]

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      ☘️ सब में एक  ☘️

जेठ  मास  आषाढ़ में, ग्रीष्म  तपे पुरजोर।

छाँव खोजती छाँव को,दिखें न कोकिल मोर

मौन खड़े तरु शिंशपा,हिलता एक  न  पात।

ग्रीष्म सताए रात-दिन,दूर खड़ी  बरसात।।


गौरैया   ये    नीड़   में,अंडे रखकर   चार।

दाना  तिनका  ला  रही,हर्षित है   परिवार।।

शुभता  का  पर्याय  है, गौरैया  का   गीत।

वर्षा  हो  आनंद   की, गर्मी हो  या  शीत।।


पड़े थपेड़े जेठ  के,कामिनि सुमन -कपोल।

लू से  मुरझाने  लगे,बिगड़ गया   भूगोल।।

गिरे टिकोरे आम के,चलती लू   दिन- रात।

गए  बीनने  बाग  में,बालक हुआ    प्रभात।।


क्यों दिनकर हैं क्रोध में,तपन बढ़ाते नित्य।

स्वेद-सिक्त नर -नारियाँ,ज्ञात नहीं औचित्य।।

अवा -तवा  धरती बनी,तपन बढ़ी दिन-रात।

देती  है   संकेत  ये,   होगी अति   बरसात।।


बूँद - बूँद  जल के लिए,भटक रहे हैं  श्वान।

दुखी पखेरू हैं  सभी, फैला  तपन-वितान।।

नीर  पिलाएँ प्रेम से,व्यथित पखेरू   ढोर।

चोंच खोल निज ताकती, गौरैया प्रति भोर।।


     ☘️ एक में सब ☘️

तपन बढ़ी लू  की बड़ी,

                       जेठ ग्रीष्म का   मास।

अन्य   पखेरू   संग   ले,

                           गौरैया दे     आस।।


🪴शुभमस्तु !


04.04.2023◆11.30 प.मा.

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

उठाधरी 👫 [ बालगीत ]

 149/2023

        

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✍️ शब्दकार ©

👫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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उठाधरी  जो  जितनी  करता।

ऊँचा उसका नाम निखरता।।

 

पड़े  - पड़े   जो   रोटी   तोड़े।

नहीं  दौड़ते    उसके   घोड़े।।

नहीं  पड़ा  बिस्तर  में  मरता।

उठाधरी  जो जितनी करता।।


देखा    होगा     तुमने   नेता।

नहीं किसी को कुछ भी देता।

नहीं चोर   डाकू   से   डरता।

उठाधरी  जो जितनी करता।।


नेता  कभी न   निर्भय  होता।

गारद लगा   चैन   से  सोता।।

साथ पुलिस को लिए विचरता।

उठाधरी  जो जितनी करता।।


उठाधरी   की   भारी    सेना।

करता धन का   लेना-  देना।।

पूँजीपति का   नाम  फहरता।

उठाधरी जो   जितनी करता।।


गली शहर   बाजार  लगाता।

सेठ वही   लाला कहलाता।।

गड्डी सजा   तिजोरी  भरता।

उठाधरी  जो जितनी करता।।


उठाधरी तुम   सीखो   प्यारे।

काम  बनेंगे   पल   में  सारे।।

नहीं 'शुभम्'सुत कभी अखरता।

उठाधरी जो  जितनी करता।।


🪴शुभमस्तु !


04.04.2023◆5.00प.मा.


रदपुटों पर है ताला! 🔑 [अतुकान्तिका ]

 148/2023


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✍️ शब्दकार ©

🏡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जाता नहीं

मुख विवर में

 नन्हा -सा निवाला,

कोई तो 

बतलायेगा

सच का हवाला।


किंकर्तव्यविमूढ़ -सा

बैठा हुआ है,

रदपुट युगल 

क्यों  सिले हैं?

कुछ ऐसा हुआ है,

जो न होना था, 

अपना वश न

चींटी - सा चला है!


द्रौपदी की लाज हो!

अथवा धर्म- संकट

खड़ा हो,

आदमी ये सोचता

अनमन पड़ा हो!

शत्रु का पाशा 

कहीं दृढ़तर अड़ा हो,

बिना ताले 

होठ तो सिल जाएँगे ही,

भीष्म द्रोणाचार्य 

पांडव सभी

जमीं में गड़ जाएँगे ही,

क्लीववत 

मृत प्रायः सारे,

वज्रमारे।


ऐ कवि साहित्यकारो!

क्यों पड़े ताले

तुम्हारे रद युगल पर,

देश क्या दिखता नहीं

किस पतन- पथ पर

है अग्रसर,

उन्हें बस मतों की 

फिक्र भारी,

कर हथिया सकें

गद्दी 'पियारी'!

ये मतमंगे

वही मछली मारने को

धनुष बाणों के संधान की

तैयारी?


देश जाए भाड़ में

उन्हें क्या!

होठों पर ताला लगाए

देखते हैं 

देश जलता!

देश जलता!!

नोट कमरों में भरे

बस वह चुप -चुप

निकलता,

एक थैली के सभी

जो चट्टे -बट्टे!

.....के पट्ठे!


🪴शुभमस्तु !


04.03.2023 ◆4.05प.मा.

चुगली-चाट 👥 [ चौपाई ]

 147/2023

    

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✍️ शब्दकार ©

👥 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गली - गली  में   चुगली  ताई।

महकाती घर - घर  कुनबाई।।

सास - बहू  में   हुई    लड़ाई।

करते चुगली  लोग  - लुगाई।।


तिल का ताड़   बनाने  वाली।

बहे    पनारे    नाले -  नाली।।

चुगली  देवी   की    प्रभुताई।

यहाँ वहाँ पनघट    में  छाई।।


चिनगी  आग  लगाती चुगली।

कूद-फाँदकर छत से उछली।

फेंक रही   है   ऊँची   गुगली।

नहीं समझना चुगली दुबली।।


अतिशयोक्ति  की चुगली नानी।

 नई   बनाती    बात  पुरानी।।

पल में  मुर्दे    गढ़े     उखाड़े।

तरु   खजूर  पर झंडे   गाड़े।।


कला नहीं सबको   ये आती।

झूठ तथ्य को सच करवाती।।

जिसे महारत हासिल होती।

पूँछ न उसकी कटती खोती।।


नमक मिर्च अपनी कुछ डालें।

चुगली - चाट बना खिलवालें।।

उनके कान  जुबान तुम्हारी।

रस परिपूरित चुगली प्यारी।।


'शुभम्' चलें सम्मान बढ़ाएँ।

मूसल दाल - भात में  लाएँ।।

चुगली   तेरा  मान   बढ़ाती।

नाली से छत पर ले जाती।।


🪴शुभमस्तु !


03.04.2023◆1.30प.मा.

तुम बिना 🦚 [ गीत ]

 146/2023

       

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तुम बिना न

कोई है 

तुम ही हो आधार।

कण- कण में 

व्यापित हो

नहीं एक आकार।।


जल -थल में

नील गगन

तारे सूरज सोम।

गिरि ऊँचे

सागर में

नन्हे - नन्हे रोम।।


क्यारी के

खिलते वे

उत्तमांश अवतार।


पाहन में 

मानव में

मौन  चेतना - राज।

मंदिर में

उर- दर में

सजता है प्रभु-साज।।


नारी में

हर नर में

उपकृत है उपहार।


दानव में

देवों में

तम तुम ही सुप्रकाश।

माहुर में

अमृत में

सुजीवन भी विनाश।।


हाथी में 

चींटी में 

ईश्वर की चमकार।


जाग्रति में

स्वप्नों में

अवचेतन भी रूप।

निर्धन में 

बहु धन में

हैं प्रभु जी ही भूप।।


छप्पर में 

खप्पर में

आवेशित प्राकार।


अर्थ नहीं

जीवन का

महत तत्त्व सप्राण।

रक्षक तुम 

पालक भी

हैं क्यों हम म्रियमाण??


तुम बिना न

मेरा जग

होता है व्यतिकार।


🏕️ शुभमस्तु !


03.04.2023◆10.45आरोहणम् मार्तण्डस्य।


नमो ! नमो!!ॐ कार 🪦 [ गीतिका ]

 145/2023


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✍️शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नमो!नमो!!ॐकार,अम्बिकानाथ नमन।

करो जगत - उद्धार,तुम्हारा नित वंदन।।


डमरू के स्वरकार!त्रिपुण्डी मस्तकधर,

शीश त्रिपथगा धार,विराजित तीन नयन।


शिव त्रिशूल है संग, भक्त- रक्षक   प्रभवे!

कामेश्वर ! भूतेश!!दिगम्बर! हर! भगवन।


गले सर्प   के हार, अस्थिमाली!    भोले!

महाकाल! ध्रुव! भूरि!उमापति  नंगा  तन।


विश्वनाथ ! कैलाश , तुम्हारा वास    सदा,

कल्पवृक्ष!  एकाक्ष!  हमारे जीवन -  धन।


कण-कण में सर्वेश!उमापति!शिव !  शंभू!

खड्गपरशु ! ईशान!वास जल,थल वन-वन।


शोभित   सोम  ललाट, त्र्यम्बक !   चंद्रेश्वर!

कापालिक! हे नाथ!कृपा कर निज चितवन।


अचलेश्वर!अज्ञेय!अतीन्द्रिय! अत्रि !अनघ!

अरिदम!अभय!अमोघ!अपानिधि!हुत!अभदन!


गणनायक के तात! षडानन जनक 'शुभम्'!

नंदी  वाहन  साथ,   उदधि मेदिनी   गगन।


जन्म - जन्म शिव भक्ति,सदा देना   सर्वश!

विस्मृत करूँ न नाथ!कमंडलुधर छन-छन।


🪴शुभमस्तु !


03.04.2023◆7.30 आ.मा.

कैसे हो कल्याण! ☘️ [ गीतिका ]

 144/2023

 

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✍️शब्दकार ©

🩷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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प्रेम न  मिला  उधार,दीन संसार  बड़ा।

सभी चाहते  जीत, गले में हार   बड़ा।।


करनी  में  हैं खोट, नहीं संज्ञान  लिया,

राहें सकल असूझ,कहाँ उपकार  बड़ा?


नहीं   मानता   दोष, लिप्त दुष्कर्मों   में,

सदा सुफल की चाह, वचन-उद्गार  बड़ा।


मिले बिना श्रम माल, तिजोरी कमरे भर,

देश -  प्रेम  का हाल,ज्वलित अंगार बड़ा।


नहीं  चरित का मान, कनक ऊपर   छाया,

सहे    राष्ट्र  आघात, संत से जार    बड़ा।


बगुला भगत महान, टकटकी मछली पर,

पूज्य  प्राप्त    सम्मान, भले गद्दार  बड़ा।


कैसे  हो    कल्याण,   दुखी भारतमाता,

हुआ'शुभम्'को भान,यहाँ व्यभिचार बड़ा।


🪴शुभमस्तु !


02.04.2023◆11.00प.मा.

प्रेम न मिला उधार! 🩷 [ सजल ]

 143/2023

 

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●समांत : आर ।

●पदांत :  बड़ा ।

● मात्राभार :  22 ।

●मात्रा पतन : शून्य।

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✍️शब्दकार ©

🩷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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प्रेम न  मिला  उधार,दीन संसार  बड़ा।

सभी चाहते  जीत, गले में हार   बड़ा।।


करनी  में  हैं खोट, नहीं संज्ञान  लिया,

राहें सकल असूझ,कहाँ उपकार  बड़ा?


नहीं   मानता   दोष, लिप्त दुष्कर्मों   में,

सदा सुफल की चाह, वचन-उद्गार  बड़ा।


मिले बिना श्रम माल, तिजोरी कमरे भर,

देश -  प्रेम  का हाल,ज्वलित अंगार बड़ा।


नहीं  चरित का मान, कनक ऊपर   छाया,

सहे    राष्ट्र  आघात, संत से जार    बड़ा।


बगुला भगत महान, टकटकी मछली पर,

पूज्य  प्राप्त    सम्मान, भले गद्दार  बड़ा।


कैसे  हो    कल्याण,   दुखी भारतमाता,

हुआ'शुभम्'को भान,यहाँ व्यभिचार बड़ा।


🪴शुभमस्तु !


02.04.2023◆11.00प.मा.

रविवार, 2 अप्रैल 2023

समीक्षा के गुर!✅ [ व्यंग्य ]

 142/2023


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✍️व्यंग्यकार ©

✅ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मीत  समीक्षा मत करो,करो सदा  चितलाय।

मक्खन लीपो प्रेम से,या फिर गाली  खाय।।

मंचों की बरसात का मौसम है। साहित्यिक मंचों पर रातों- रात कवि बनने के चक्कर में लोग औऱ लुगाइयाँ,जवान, बालक और बुड्ढे -बुढ़बाइयाँ,बढ़े -बूढ़े ताऊ और ताइयाँ, धोती साड़ियाँ और टाइयाँ अपने प्रेम पत्रों की शाइरी को काव्य का रंग देने की फिराक में फ़िराक गोरखपुरी के नाना और मीराबाई की नानियाँ बनने पर उतारू हैं।यही कारण है कि समीक्षा -गुरुओं की भी अंधी बाढ़ ही आ गई है।चीनी और गुड़ के स्वाद का पता नहीं,परन्तु समीक्षा तो उन्हें करनी ही है।

क्या कीजिए । समीक्षा -गुरुओं की भी बड़ी विवशता है। अब जानें या न जानें ;उनकी मोटी- मोटी डिग्रियों को देखकर या पढ़कर उन्हें समीक्षक के ऊँचे सिंहासन पर  पधरवा देते हैं।एडमिन बनने के बाद वे महाकवि तो बन ही जाते हैं, साथ ही आई. ए. एस .औऱ आई.पी.एस. से भी बड़े स्वयम्भू एडमिस्ट्रेटर  स्वघोषित हो लेते हैं।कोई भी क्या कर सकता है;क्योंकि इस देश में किसी चीज की कोई आचार संहिता तो है नहीं। और यदि हो भी ,तो भी क्या  इस देश का स्वतंत्र नागरिक क्या किसी आचार संहिता का अनुपालन करता हुआ दिखाई देता है? बिना ज्ञान अर्जित किए ज्ञान का बघार देना यहाँ के नागरिकों की खूबी है।जिससे आज तक यहाँ की जनता नहीं ऊबी है। भले ही देश के नेताओं की तरह देश को ले डूबी है।

बात समीक्षकों की योग्यता की हो रही थी। जिस देश में बिना पढ़े लिखे एक कंपाउंडर एम.बी.बी.एस. ; एम.डी. ;डी. एम.को धता बताकर  डॉक्टर बना बैठा हो ,उस देश के कवियों , साहित्यकारों और कलमकारों को लिक्खाड़ बनने से भला कौन रोक सकता है? जैसे लिक्खाड़ वैसे ही समीक्षक। यदि आप जानकार  हैं औऱ सही समीक्षा करते हैं ,तो आपको गालियों की बैलगाड़ी भरी हुई तैयार मिलेगी।' साला! समीक्षक बनता है!' ' 'समीक्षक की पूँछ ! उसे क्या आता -जाता है?' ; 'इसके बाप दादों ने भी कभी कविता पढ़ी है! या समीक्षा की है!जो हमारी समीक्षा करने चले हैं!' जिसे स्वयं भाषा, विराम चिह्न, व्याकरण ,छंद, शब्द शक्ति, रस,अलंकार, समास, आदि का समुचित बोध न हो,उसका समीक्षा करना ठीक वैसे ही है ,जैसे नौसिखुआ के हाथ में बस का स्टेरिंग पकड़ा दिया गया हो।

एक समीक्षा औऱ होती है,जिसे कोई भी अक्षर बोध धारी बखूबी कर सकता है।उसे सम  + इक्षा (समान रूप से देखना) से कोई मतलब नहीं है। उसकी तो बस इच्छा ही इच्छा है। उसकी इच्छा ही समीक्षा है। बानगी देखें:


 1.'वाह!वाह !! क्या शब्द शृंगार किया है!कलम ही तोड़कर रख दी आपने तो!'

2.'क्या कहने! आप तो महान हैं! महादेवी हैं! साक्षात सरस्वती की अवतार हैं आप!'

3.'जी चाहता है कि आपकी अंगुलियाँ चूम लूँ, कैसे लिख लेती हैं /लिख लेते हैं आप इतना सुंदर, मनोरम और शानदार! '

4.'इतनी सुंदर रचना को पढ़ कर जी चाहता है कि यदि सामने होते तो आपके चरण छू लेता।'

5.'आपने तो कवि कालिदास और केशव को भी पीछे छोड़ दिया। जितना कहा जाए कम ही है।'

आदि आदि।

बोरी भर - भर  सम्मान पत्र बटोरने की होड़ में बाजी मार चुके कवियों औऱ कलमकारों की रचना बता देती है कि वे कितने पानी में  हैं। बड़े- बड़े  प्रोफ़ेसर, प्राचार्य, योगाचार्य, अधिकारी और उच्च पदस्थ जन और जनियाँ गाड़ी भर सम्मान पत्र प्रदर्शित कर बताना चाहते हैं, कि उन्होंने कबीर ,सूर और तुलसी को भी पीछे छोड़ दिया है।परंतु उनकी एक ही रचना की भाव योजना ,शब्द रचना, विरामादि का सदुपयोग, वर्तनी उन्हें आईना दिखा देता है। उन्हें एक नहीं अनेक बार बताने समझाने पर भी ऐसा लगता है कि  समीक्षक- शिकारी के बाण पाहन की शिला से लौट- लौट कर बाहर आ रहे हैं और शिकारी स्वयं स्व बाणों से घायल हो रहा है।

इस देश में समीक्षक होने के लिए एक श्रेष्ठ साहित्यकार होना आवश्यक नहीं है। कोई भी अप्रशिक्षित चालक सीट पर बैठकर  पाइलट बन जाता है। कवियों को एकमात्र प्रशंसा ही चाहिए।उनकी दृष्टि में वही समीक्षक उत्तम है ,जो उनकी पीठ थपथपाए।उनकी सराहना में  गीत गाए और अधकचरी रचना को उत्तम बताए।कवि बनने का एक नया ट्रेंड औऱ आ गया है कि मुक्त काव्य के नाम पर कुछ भी ऊँटपटांग लिख डालो, हो गई कविता। न छंद, न बंध, न तुक न तुकांत। बस नॉनस्टॉप चलने का रचनांत। कोरोना- काल ने अनेक ऐसे कवि -केंचुएं ( केंचुई भी) पैदा कर डाले।इन कवि - केंचुओं /कैंचियों ने अच्छे -अच्छे कवियों की मिट्टी पलीद कर दी। वे न जानें , न किसी की मानें।बकते रहो समीक्षक ।वे तो कचरे में  शब्द -  बुहार  कूड़ावत फेंक कर ही खुश हो लेते हैं । 'प्रमाण पत्र-लूटो- प्रतियोगिता' में समीक्षकों की आफ़त कर देते हैं।रचना की गुणवत्ता पर उनका कोई ध्यान नहीं। रात-दिन एक कर उठा लेना है सकल मही। वे जो भी लिख दें,बस वही सही।जमा देना है मंच -मष्तिष्क का दही।किंतु उन्हें रहना है वहीं के वहीं।

हमारे यहाँ एक प्रसिद्घि- लब्ध कहावत है कि 'सारी कुत्तियाँ जब इंग्लैंड चली जाएँगी ,तो फिर भिर कौन चाटेगा? बात कुनैन- सी है, कानों में शहद नहीं घोलती।जहाँ पात्रता न हो, वहाँ पत्तलों पर सिर फोड़ने का कोई औचित्य नहीं है।इसलिए दीवाल पर नाप -चिह्न लगाकर अपने कद का मापन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। कवि हो या समीक्षक ; अपने -अपने गरेबान में झाँकें ,तब औरों से पहले अपने को ही आँकें।तभी तो मिलेगी सही खिड़की से अपनी झाँकी।बिना गुणवत्ता के आएगी याद माँ की।माली है तो काट -छाँट तो करेगा ही।अनावश्यक टहनियों को अलग धरेगा ही।क्यों  न आप स्वयं माली बन जाएँ औऱ अपने काव्योद्यान की क्यारी को सुगंध से महकाएं।

🪴 शुभमस्तु !

02.04.2023◆8.30 आ.मा.


माँ के बिना व्यर्थ है जीवन🏕️ [ गीत ]

 141/2023


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ  के  बिना  व्यर्थ  है जीवन,

माँ     जीवन      की     त्राता।

शतशः नमन करूँ जननी को,

नित    वंदन     कर   ध्याता।।


नौ  -  नौ  मास उदर में धरती,

धरती -  सी    पोषण  करती।

सहती भार   गर्भ   का  माता,

आशामय    जीवन    भरती।।

जाया तन में  पलते   तन-मन,

उस  जननी  के   गुण   गाता।

माँ  के बिना   व्यर्थ  है जीवन,

माँ     जीवन     की    त्राता।।


जन्म हुआ बाहर शिशु आया,

अति   हर्षित   मेरी  भगवान।

मेरी   गुरु   तू प्रथम पूज्य माँ,

माँ जीवन का विशद वितान।

माँ के   बाद  पिता को पाया,

उनको कभी न   कम  पाता।

माँ के बिना  व्यर्थ   है  जीवन,

माँ     जीवन     की    त्राता।।


गीले   में  सुख  से   सो लेती,

बिस्तर    गीला   हो    जाता।

हर्षित होती  देख - देख मुख,

जब     सपने  में   मुस्काता।।

पल भर रोदन  सहा   न  तूने,

अमर  पुत्र  -  माँ   का नाता।

माँ के   बिना  व्यर्थ है जीवन,

माँ     जीवन    की     त्राता।।


मेरे  तन - मन   या  वाणी  से,

कष्ट   न   माँ   को   हो  पाए।

अनजाने  भी   नहीं    सताऊँ,

ऐसा   जीवन    जल   जाए।।

अहोभाग्य   मम  तू  माँ मेरी,

वेदमंत्र        मैं         उद्गाता।

माँ  के बिना  व्यर्थ है जीवन,

माँ    जीवन    की     त्राता।।


तेरी   आँखों   में   माँ   आँसू,

पल  भर    देख   नहीं  पाता।

तेरे  आँचल   की    छाया  में,

भय बाहर   का  मिट जाता।।

शब्द   नहीं   वाणी   में   मेरी,

'शुभम्' सदा माँ-अनुराता।।

माँ के बिना   व्यर्थ  है जीवन,

माँ    जीवन    की     त्राता।।

🪴शुभमस्तु !


02.04.2023◆4.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...