रविवार, 31 जनवरी 2021

माँ भारती [ गीत ]



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✍️शब्दकार©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वत्सलमयी   माँ       भारती।

नित  नेह  से      पुचकारती।।

शत -शत  तुम्हें   करते नमन।

आशीष   दे    माता   प्रमन।।

माँ   जन्म    दे   लाई    धरा।

हर  कष्ट,   दुःख  तुमने हरा।।

सुख,  शांति ,  समृद्धि  धारती। 

वत्सलमयी    माँ     भारती।।


पावन  चरित   दो   माँ हमें।

शुभ  कर्म में मति, मन रमें।।

हम  काम  तेरे    आ  सकें।

कर्त्तव्य , धर्म   निभा सकें।।

हर  शत्रु     का   संहार  हो।

हर  जीव  का  उपकार हो।।

तुम   पाप    को   संहारती।

वत्सलमयी    माँ   भारती।।


बहती     रहे     गंगा   सदा।

कावेरी , यमुना ,     नर्मदा।।

सिंचन  करें  जल का  सदा।

हर जीव-जन को शुभप्रदा।।

पंछी, विटप,  फुलवार  को।

देतीं  सुहृद    उपहार   जो।।

अघ -  ओघ   से   उद्धारती।

वत्सलमयी  माँ     भारती।।


फहरे      तिरंगा     उच्चतम।

कर  ध्वस्त सारे   भेद - भ्रम।।

हम  मात्र  मानव    ही   रहें।

जो  सत्य हो  मुख   से कहें।।

प्रभु भक्ति ,श्रद्धा ,   नेह का।

संचार    हो   उर ,  मेह का।।

माँ   डूबते     को      तारती।

वत्सलमयी     माँ   भारती।।


सब  कर्म -  फल  से जी रहे।

जो   दे   विधाता   पी   रहे।।

फ़िर  कौन छोटा  या   बड़ा।

सत्कर्म  से   भर   लें  घड़ा।।

मुख  पर वही   जो उर बसे।

कहना वचन यदि रस रिसे।।

करता 'शुभम' तव  आरती।

वत्सलमयी   माँ    भारती।।


🙏🇮🇳🙏जय माँ भारती।


🪴 शभमस्तु !


३१.०१.२०२१◆५.००आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

शनिवार, 30 जनवरी 2021

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कृषकों  को  भेड़ें   जान लिया।

भेड़िया  आज  पहचान  लिया।।


उकसा,   बहकाकर,  भड़का कर,

पिछलग्गू    अपना      मान लिया।


कंकड़ी    फेंक    कर    टोहें   लीं,

तम्बू   सड़कों     पर    तान लिया।


जो      चला    रहा    हल   खेतों  में,

उसकी   माटी    को    छान  लिया।


बैनर   किसान   के    हित कारी ,

तलवार      कटारी    तान लिया।


घर  का   आतंकी   द्रोही  बन ,

दुनिया  ने   तेरा     भान  लिया।


'शुभम'    खेल    मत  खेल  क्रूर ,

हमने  भी   अब  तो  ठान लिया।


🪴 शुभमस्तु !

३०.०१.२०२१◆ १२.१५पतनम मार्तण्डस्य।


ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अहंकारियों  के अगर कान होते।

सभी  चादरों को यहाँ तान सोते।।


काँटे उगाते जो औरों की ख़ातिर,

बिना एक दुम के उन्हें मान खोते।


होती  न गदही  कभी गाय माता,

कर  ले  भले  गंग  जल पान गोते।


नहीं छोड़ते हैं सहज सर्प विष को,

फन जब कुचलता मरण जान रोते।


निर्बल  नहीं  है  ये   अपना तिरंगा,

 रटते  हैं  बोली  वे  अज्ञान तोते।


जिन्हें देश प्यारा है प्राणों से ज़्यादा,

नहीं  राह   में  वे   श्मशान बोते।


'शुभम' नौंन मत दो खोतों के मूँ में ,

हल  में  भी   कोई  गदहा  न जोते।


🪴 शुभमस्तु ।


३०.०१.२०२१◆१२.००आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

लाल किला काला किया! [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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लाल किला काला किया,आतंकी करतूत।

फेंक तिरंगा भूमि पर,बना स्वयं  ताबूत।।


श्वान देखकर श्वान को,भौंके लाख हज़ार।

पता  नहीं  क्यों भौंकते,करते बंद   बजार।।


समझा भेड़ किसान को,बन भेड़ों  का  कूप।

रेड़ मार ली आप ही,फिर लौटा घर चूप।।


भोला भ्रमित किसान ये,जान न पाया चाल।

भाँजी तलवारें वहाँ, बुलवा अपना  काल।।


कंधे  देख  किसान के,लादीं खर तलवार।

शांतिदूत   को  मारते, करके पैनी    धार।।


जान  बचाने   के  लिए , कूदे सैनिक   वीर।

लौट  वार करते नहीं ,फिर भी वे   रणधीर।।


दृश्य  देख  आँखें झुकीं,लाल किला  प्राचीर।

हुआ  दूध  का दूध ही,विलग नीर का नीर।।


लगा न कृषकों का  शुभं,आंदोलन उस ठौर।

आतंकी   गुंडे   जुटे, शर्मनाक वह    दौर।।


हिंसा को न्यौता दिया,कहा बैल आ मार।

देखें शासन आज हम,बीजेपी सरकार।।


छब्बेजी  बनने  गए, चौबेजी जिस   ठाम।

मात्र  दुबे ही  रह गए, तेग न आई  काम।।


उलटे  पैरों  घर  चले, फेंक तेग तलवार।

मुँह लटकाए नयन नत, काम न आई रार।।


साठ दिवस दावत उड़ीं, खा पिश्ता बादाम।

हुई हलाल न ही सुरा,डंक हुआ  बदनाम।।


भाड़े की हर भीड़ ही, करती भंडाफोड़।

नेताओं   की  गोद  में,सदा टूटते  गोड़।।


घड़ियाली आँसू बहा,बिलखे नेता आज।

ऊपर से आदेश  था,नाटक का आगाज़।।


बाज  पराए  हाथ में, करता अत्याचार।

मरवाता निज बंधु को,कैसा ये उपकार !!


🪴 शुभमस्तु!


२९.०१.२०२१◆८.१५पतनम मार्त्तण्डस्य।

श्वान-राग ! [ व्यंग्य ]


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✍️ लेखक © 

📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                देखा ! फुस्स हो गई न! बड़े जोश से निकले थे डोला लेकर, किसानों के नाम का बड़ा झोला लेकर,हवा भरते गए गुबार के गुब्बारे में,मगर फुस्स हो गई बने थे इंडिया मेकर।भेड़ों के झुंड में भेड़िए घुस आए, भेड़ें भड़भड़ाती रहीं भेड़िए भर्राए, तीन बिलों की बात पीछे रह गई ,कानून की धज्जियाँ ही उड़ाते नज़र आए।

                 लोकतंत्रात्मक गणराज्य का उजला दिन ,काला कर दिया।लाल किले का तिरंगा मैला कर दिया, किसान बिलों में खालिस्तानी कहाँ से आ गए,अमन के सिपाहियों के अस्तित्व पर छा गए। हवा गुब्बारे में उतनी ही भरी जाती है, जितनी किसी गुब्बारे की क्षमता नापी जाती है।शांति के नाम पर अशांति, हिंसा ,खून -खराबा ,नियमों की धज्जियाँ उड़ाना कहाँ तक उचित था? विदेशी आतंकवादी अपनी रोटियाँ सेंकते रहे। मुफ्तखोर काजू, बादाम ,शराब की दावतें उड़ाते रहे।और उधर गुब्बारा फुस्स......हो गया। मुखौटे धारियों का मुखौटा हटा , वह नंगा हो गया।


               भौंक रहा था एक कुत्ता गली में।कुछ ही देर में देखा कि गली सैकड़ों कुत्तों की भौं- भौं की ध्वनि से गूँजने लगी।वे भौंकते रहे, भौंकते रहे ,और भौंकते रहे। जब वे कुछ देर तक भौंकते -भौंकते थक गए, तो किसी ने पूछा कि अरे स्वानो! बुड्ढे औऱ जवानो! इतनी देर से क्यों भौंक रहे हो। पता नहीं क्यों तुम सब दहकते खड़े हो। आख़िर किस बात की जिद पर अड़े हो। तब एक कुत्ता बोला :'ये भौंक रहा था ,इसलिए मैं भी भौंक रहा हूँ। तब उससे भी पूछा गया तो उसने किसी दूसरे की ओर इशारा किया कि ये भौंक रहा था ,इसलिए मैं भी भौंकने लगा। इसी प्रकार सभी कूकरों की ओर से यही उत्तर आया कि फलां को देखकर मैं भी भौंक रहा था। कारण किसी को पता नहीं।बस दूसरे कुत्ते को देखकर स्वान-राग शुरू कर दिया।उन्हीं 'कुक्कर - संघ' में कुछ भेड़िए भी पगड़ी बांधकर कूकर बन गए और स्वर में अपना स्वर भी मिलाने लगे। मेवा, किशमिस खाने लगे ।और अंततः जब वह दिन आया तो भांडाफोड़ हो गया। कुत्ता बना हुआ भेड़िया नग्न हो गया। 


             अरे ओ नादानो! हैवानों के साथ किस किसान की दाल गली है ,जो तुम्हारी ही गल जाएगी। यदि लाल किले पर पीला झंडा फहराने से दिल्ली फतह हो जाए तो ये इंडिया भी तुम्हारे नाम हो जाएगी? गणतंत्र दिवस , भारतीय संविधान का पवित्र दिवस को काला करने की तुम्हारी मंशा इतनी नापाक है , देश के प्रशासन को आभास भी होता ,तो इन कुत्तों की दौड़ का अंजाम कुछ और ही होता। क्या अब इस देश का संविधान कूकर और भेड़िए बनाएंगे? वे ही बागडोर थामेंगे , देश को फिर गुलाम बनाएंगे? 


         ये सबसे अधिक ज्ञानी हैं , अब क्या ये ही शासन चलाएंगे ? सही कहा गया है कि 'गधाऐ नौंन दऔ ,गधा कहै हिए की ऊ फोरीं।' सच यह भी है कि 'अनुचित साधनों से प्राप्त की गई उपलब्धि कभी सफलता देने वाली और स्थाई नहीं होती।' लेकिन कूकर में विवेक कितना ! कि दो रोटी के टिक्कड़ तक।उसे दो टिक्कड़ फेंक कर दो या चांदी की थाली में , कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो परमहंस है ! मान -अपमान से सर्वथा परे ? लेकिन अफसोस कि मानव देहधारी ! उसने अपने ही रक्षकों पर तलवारें भांज मारीं ? बहुत ही शर्मनाक औऱ निंदनीय है ये दुष्कृत्य! भारत के उज्ज्वल इतिहास में छब्बीस जनवरी दो हजार इक्कीस - पावन गणतंत्र दिवस के स्वर्णिम इतिहास में काले पृष्ठ के रूप में ये अनायास ही जुड़ गया है। और बचा है जिनकी आँखों में थोड़ा -सा भी पानी , वह इस पौष की ठंड में छुहारे - सा सिकुड़ गया है! 

 🪴 शुभमस्तु !

 २९.०१.२०२१◆४.५०पतनम मार्त्तण्डस्य। 

              

किसान आंदोलन के नाम ! [ अतुकान्तिका]

 

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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लाल किले पर 

तलवारें भांजने वालो! 

अपनी आँखों के

पानी को सँभालो,

एक ही झंडा है,

वह मात्र तिरंगा है,

वही एक यमुना है

वही एक गंगा है,

अपनी माँ से ही

क्यों ले रहे हो

पंगा ये?


पड़ जायेगा

बहुत ही भारी,

बने रहो 

देश की पुलिस के

आभारी ,

नहीं तो घरों में बैठकर 

रोतीं बिलखती तुम्हारी

पत्नी ,बहन ,महतारी,

मनाओ अपनी जान की खैर,

मत करो इस 

अन्नदायिनी धरती से बैर,

बन रहे हो 

केले के बाग में

कँटीले बेर,

अभी भी नहीं हुई है देर,

जगाओ अपनी सद्बुद्धि,

आतंकियों के साथ

मत बनो दुर्बुद्धि !

अभी भी समय है

कर लो अपनी

आत्मा की शुद्धि।


भाड़े के भांडों से

कब तक गवाओगे!

मुफ़्त के काजू बादाम

कब तक उड़ाओगे,

तिरंगे को अपावन 

तुमने जो किया है! 

शहीद भगत सिंह का 

जज़्बा भी क्या 

 तुमने जिया है?

गंगा ,यमुना, सिंधु,

पंज आब को 

मैला तुमने ही किया है।

भोले किसानों को

मोहरा बनाकर,

उनके कंधे पर

 ट्रैक्टरों का ज़खीरा

 तुमने ही चलाया है,

अपने पैरों में

 मारकर कुल्हाड़ी

अन्नदाता के प्रति

किया तुमने छलावा है! 


देशद्रोही हो तुम

तुम्हें धिक्कार है !

हजारों हज़ार बार

धिक्कार है ! धिक्कार है!!

देश की अस्मिता ,

गरिमा , गौरव को

दागी किया है,

आतंकियों की

 गोद में बैठ 

कायरता, क्लीवता, कापुरुषता का नंगा

नर्तन किया है! 

आ गई बाहर 

तुम्हारी नंगी औक़ात,

हिंसा से

 किसने जीती है बिसात?

'जिओ और जीने दो '

- का पावन संदेश,

क्या भूल गए?

याद करो उनको

जो मातृभूमि की

खातिर फंदे पर झूल गए।


अक्षम्य अपराध की

कोई भी छूट नहीं है,

जो करेगा न्याय का दंड

तुम्हारे लिए वही सही है!

आख़िर बकरे की अम्मा

कब तक खैर मनाएगी?

नपुंसकों की मौत पर

क्यों मर्सिया गाएगी!

तुम्हें   पशु    कहना

पशुजाति   का    अपमान   है!  

  और    तू   अपने    को  कहता

'शुभम'  इंसान है!

भेड़िए ओढ़कर खालें 

चले आए! 

देश के अन्नदाता को

भ्रमित कर छलते आए!

देशद्रोहियों का

जो हस्र होना है!

उनकी जाया माओं को

रोना ही रोना है!

देशद्रोही पामर है ,कीट है,

उसे बस शल्य ही होना है,

शल्यों को जलाना

हमें खूब आता है,

खूब आता है,

संविधान के पर्व को

कलंकित करने का

दंड देना,

 ये देश खूब जानता है।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०१.२०२१◆४.००पतनम मार्त्तण्डस्य।

किसान आंदोलन बनाम लोकतंत्र की हत्या [ कुण्डलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

लेकर आड़ किसान की,बदल बदलकर वेश।

लाल किला दागी किया,किया कलंकित देश।

किया  कलंकित देश,अपावन यमुना - गंगा।

फेंक दिया ध्वज धूल,शर्म से झुका तिरंगा।।

'शुभम'  कहाँ गणतंत्र, सो रहे अंडे   से  कर।

नेता ध्वंशक  क्लीव, तापते अगनी  लेकर।।


                      -2-

नेता  ही  इस  देश  के, लगा रहे  हैं  आग।

भारत माता   रो  रही,  फूट गए  हैं भाग।।

फूट  गए  हैं भाग,आड़ कृषकों   की  लेते।

स्वयं  सेंकते  हाथ ,गले  निर्धन   के   रेते।।

'शुभम' एकता  भंग, तोड़ जनगण को देता।

कायर,  कूर , कपूत,देश के नकली   नेता।।


                      -3-

नेता   नंगा   हो  गया ,  लगा देश  में  आग।

संविधान  के  दिवस को,लूटा गया  सुभाग।।

लूटा  गया   सुभाग,  पुलिस कर्तव्य निभाती।

दिया  शांति-संदेश, आन पर जान  लुटाती।।

'शुभं'पराजित क्रूर,क्लीव क्या किसको देता?

तोड़   रहे  हैं    देश, विपक्षी निर्मम    नेता।।


                      -4-

कहते हैं धिक्कार हम, हया न जिनमें  शेष।

आँखों  में  पानी  नहीं, फैलाते  जो     द्वेष।।

फैलाते   जो  द्वेष, छद्म   से हिंसा    करते।

बहका मूढ़ किसान, देश की इज्जत हरते।।

'शुभम'न शेष विधान,रक्त के दरिया   बहते।

गुंडे,कायर ,क्लीव,सभी हम इनको  कहते।।


                      -5-

दिल्ली  दिल है देश का,दीं तलवारें  भौंक।

मंचों  पर चढ़  चीखते,नेता अपनी  झोंक।।

नेता  अपनी  झोंक, तिरंगे  को फिंकवाया।

आतंकी  वे  नीच, कोख ने जिनको जाया।।

'शुभम' थूकता देश,न समझे शातिर  बिल्ली।

जना न ऐसा  शेर, झुका  जो पाए  दिल्ली।।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०१.२०२१◆२.१५आरोहणम मार्त्तण्डस्य.

हमारा गणतंत्र पर्व: भारतीय होने का गर्व [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आया  है  गणतंत्र- पर्व  फिर,

भर    उत्साह    मनाना    है।

शंख एकता   का  धरती पर,

मिलकर   हमें    बजाना  है।।


भारतीय   होने   का  हमको,

गर्व     हमेशा   रहा,      रहे।

त्यागवीर   बलिदानी  गाथा ,

पल्लव -पल्लव  पुष्प  कहे।।

मिली   धरोहर   हमें  पुरानी ,

इसको   बचा ,  सजाना   है।

आया है गणतंत्र - पर्व  फिर,

भर   उत्साह    मनाना   है।।


संविधान     अंगीकृत   करके,

उसका       मान      बढ़ाएँगे।

हो  अखंड  मम  भारत माता,

माँ   का    कर्ज़     चुकाएंगे।।

धरती   की माटी   से हमको,

अन्न    बहुत    उपजाना   है।

आया  है  गणतंत्र- पर्व फिर,

भर    उत्साह    मनाना  है।।


लोकतंत्र   गणराज्य देश का,

पंथों    से      निरपेक्ष     रहे।

मानव, मानवता   के हित में,

सदा   नेह   की   सरित बहे।।

मानव की गरिमा, अखंडता,

का ध्वज   नित  फहराना है।

आया है  गणतंत्र -  पर्व फिर,

भर     उत्साह    मनाना  है।।


निज विचार,अभिव्यक्ति, धर्म के,

बनें   उपासक    भारतवासी।

मिले न्याय जन-जन को सच्चा,

मुख  पर  छाई  मिटे उदासी।।

बाल-  बालिका  में शिक्षा का ,

घर - घर   अलख  जगाना है।

आया  है गणतंत्र -   पर्व फिर,

भर    उत्साह     मनाना   है।।


अवसर की समता हो सबको,

भेदभाव     से     दूर       रहें।

'हम    हैं  भारतवासी    सारे,'

ताने    सीना    सभी    कहें।।

'शुभम' गर्व से  मस्तक ऊँचा,

हमको     सदा   उठाना    है।

आया  है गणतंत्र - पर्व  फिर,

भर   उत्साह     मनाना   है।।


💐 शभमस्तु !


२५.०१.२०२१◆११.००आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देवनागरी      साड़ी    धारी।

उर्दू की लिपि  है  सलवारी।।


ऊँचे मस्तक  की  लिपि हिंदी,

उर्दू की  भगिनी अति प्यारी।


बाएँ   से   दाएँ    गति करती,

पढ़ते   वेद  -  पुराण   मुरारी।


उर्दू    की   विपरीत  चाल  है,

फिर भी  हिंदी  की बहना री।


आँकें मत   उर्दू  को   कमतर,

उसकी भीअपनी छवि न्यारी।


बहुभाषी     है   देश    हमारा,

प्यारी   हैं    भाषाएँ      सारी।


'शुभम'रार भाषा की मत कर,

हिंदी ,उर्दू    सब    हैं   प्यारी।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०१.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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किसे आज दुःख-ताप नहीं है।

किया न  जिसने  पाप नहीं है।।


किसका  पेट  भरा  है धन से,

धन  की  कोई  माप  नहीं  है।


चलती -फिरती   नाटकशाला,

इस दुनिया की  नाप नहीं  है।


परहित से मन खिल उठता है,

इससे उत्तम   जाप   नहीं  है।


माता-पिता   सताता   है  जो,

भीषण  इससे   शाप  नहीं है।


आप - आप में   जो  खोया है,

दादुरता क्या   ताप   नहीं  है?


खाता   इसका  गाता उसका ,

देशद्रोह  क्या   शाप नहीं  है ?


💐 शभमस्तु ! 


२४.०१.२०२१◆६.१५आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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किसी को  भी अपना बनाकर तो देखो।

नेह का एक दीपक जलाकर तो देखो।।


रोते  भला  क्यों  धन ,औलाद को  तुम,

प्रभु  पाद  में  उर  लगाकर  तो  देखो।


'मैं' 'मैं'    में   खोया   हुआ  है जमाना,

निर्धन की कुटिया सजाकर तो देखो।


श्वान भी हर गली का उदर अपना भरता,

भूखे   को  रोटी  खिलाकर तो   देखो।


सीधे     जो    होते  वही  पेड़ कटते,

टेढ़े  जो  खड़े  हैं  कटाकर तो देखो।


नारों   से   चलता   नहीं   देश कोई,

प्रेम  देश  के  हित उगाकर तो देखो।


'शुभम'  देश को बेच  भरते जो   झोली,

दोमुँहे  साँप  का फन दबाकर तो देखो।


💐 शुभमस्तु !


26.12.2020◆7.30अपराह्न।

गाजर,टमाटर से कम नहीं! [ व्यंग्य ]


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 ✍️ लेखक © 
🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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 कौन कहता है कि आज का आदमी गाजर टमाटर से कम है! कदापि नहीं । बल्कि वह आलू,गोभी,गाजर,टमाटर, मटर,पालक ,बैंगन, बथुआ से होड़ लेता हुआ उनसे बहुत आगे चला गया है। जिस प्रकार इन सभी सब्जियोंऔर फलों(सेव,संतरा,लीची,अंगूर, अनार,अनन्नास,आड़ू आदि) के अनेक रंग हैं , वैसे ही उसने अपने को भी अनेक रंगों में विभाजित कर लिया है। फल, फूल,सब्जियों की तरह वह बेचा और खरीदा जा रहा है।

           कौन नहीं जानता कि रंग को ही वर्ण भी कहा जाता है। विभिन्न वर्णों में बँटा हुआ आदमी अपने कद को बड़ा मानने के अहंकार में खोया हुआ ,अपने को निरंतर कमजोर और पराधीन करता चला जा रहा है। कोई अपने को 'सवर्ण'कहकर देश और समाज में घृणा बाँट रहा है। मानव , मानव के मध्य ऊँची -ऊँची दीवारें खड़ी कर रहा है।'सवर्ण' अर्थात जिसका कोई वर्ण है, और उसी के द्वारा विभाजित किया गया :'अवर्ण' (अ=नहीं, वर्ण =रंग) अर्थात जिसका कोई वर्ण ही नहीं ! क्या ऐसा भी सम्भव है? कि किसी मानव का कोई वर्ण न हो! यदि वर्ण है तो अपना उज्ज्वल, केसरिया, लाल आदि और अवर्ण का काला ,स्याह, धूसर ,अशुद्ध और अपवित्र । 

         मानव का पतन और विकास :दोनों ही उसके अपने हाथ में हैं। विडम्बना ही यह है कि वह जिसे विकास कहता है ,वही उसके विनाश का बीज है ।यही कारण है कि अनेक मत ,मतांतर ,मजहब और धर्म उठ खड़े हुए हैं। सब अपने -अपने अभिजातत्व का झंडा ऊँचा कर रहे हैं।अनेक जातियाँ, उप जातियाँ,गोत्र,उपगोत्र आदि में विभाजित मानव कोई गाय ,भैंस ,भेड़ बकरी थोड़े ही है, वह सबसे बुद्धिमान धरणीधर है। उसके अनेक रंग के झंडे (:लाल ,हरा, केसरिया, सफेद ,नीला , बहुरंगी :)देखे जा सकते हैं। मानव ही मानव को बाँट ,काट औऱ छाँट रहा है।गाजर -मूली की तरह खुद बखुद कट रहा है। यह मानवीय अति बुद्धिमता का परिणाम है। जैसे --जैसे वह अपने को तथाकथित विकास के पहाड़ पर चढ़ता हुआ दिखाता है, उतना ही गहरे पाताल की ओर गिरने का अनायास उपक्रम कर लेता है। 
           आज का अति विकसित ,अति बुद्धिमान मानव, मानव की घृणा की सर्वोच्च चोटी पर आसीन है। उसे मानव की देह से बदबू आती है।लेकिन जब मृत्यु की शैया पर पड़ा हुआ अंतिम साँस ले रहा होता है ,तो उसीके संबंधी उसी बदबूदार आदमी के खून को सिरिंज से चढ़वाकर उसकी प्राण रक्षा भी करते हैं। वहाँ वह अपने वर्ण को भी भूल जाता है। उसका मानसिक ऊँच -नीच न जाने किस आदर्श की बलि चढ़ा दिया जाता है। तब उसके 'पवित्र' कमल-मुख से एक ही सूत्र वाक्य प्रस्फुटित होता है: 'हर इंसान के खून का रंग लाल होता है,उसमें भेद भाव कैसा!' काश यह आदर्श वाक्य जीवन- वाक्य बन जाता! फिर मानव मानव नहीं ,देवता बन जाता ।पर क्या कीजिए उसे देवता बनना स्थायी रूप से स्वीकार नहीं है। वह अस्थाई ,तात्कालिक और स्वार्थवश देवता बन तो जाता है , पर उस उपाधि को सिर पर रखी टोपी की तरह उतार कर फेंक देता है।
             बस, ट्रेन , वायुयान ,होटल , रेस्टोरेंट, हॉस्पिटल, सार्वजनिक नल , भोजनालय आदि स्थानों पर इस रंग-बिरंगे आदमी का आदर्श स्वरूप देखते ही बनता है। वहाँ नहीं पूछता कि वाहन का चालक, परिचालक, होटल का मालिक , बियरर ,डॉक्टर ,नर्स का वर्ण क्या है। जहाँ जीवन की रक्षा में संकट उत्पन्न होने लगे, वहाँ वर्ण विवर्ण हो जाता है।सारी अस्पृश्यता न जाने कहाँ काफूर हो जाती है। यह भी सही है कि 'भरे हुए पेट वालों को वर्ण दिखाई देता है, जब पेट खाली हो तो वर्ण की कौन पूछता है! बात भी सही ही है। तब तो साँप और नेवले एक ही बिल में रहने को तैयार हो जाते हैं।सारे भेदभाव की दीवारें स्वतः ढह जाती हैं। एक ही थाली के चट्टे-बट्टे बन जाते हैं।जब जीवन है ,तभी तो वर्ण है ,अन्यथा कोई वर्ण ही नहीं। जब वांछित ग्रुप का रक्त नहीं मिलता, तो बिना सोचे -समझे जिसका भी मिलता है , ठूँस दिया जाता है।
            वाह रे !अपने को बुद्धिमान कहने वाले इंसान ! अपने अस्तिव के पवित्र चरणों पर कुल्हाङी का प्रहार करने वाले मानव तू धन्य है! निश्चय ही तेरी कीमत आलू ,गोभी ,टमाटर, गाजर ,गोभी से अधिक है! तराजू के एक पलड़े में ये औऱ दूसरे में तेरी देह, फिर भी तू भारी । क्या करें ,तेरी भी है लाचारी, तुझे जीतना है सकल जहान, बनना है गधे, घोड़ों ,भेड़-बकरियों से महान! तेरी इसीलिए तो है ऊँची शान! बस-बस ज्यादा मत बन ! अब औऱ भी ज्यादा मत तान! क्या कहा ! सचाई सुन जानकर हो गए हैं बहरे कान! अरे नादान अब भी तो अपने को पहचान ! देख ले , सबका एक ही हस्र होता है, जिसे तू कहता है श्मशान। नहीं मानता तो भले ही मत मान!पर आदमी को आदमियत से पहचान!
 🍒 शुभमस्तु ! 
 २२.०१.२०२१◆७.४५पतनम मार्त्तण्डस्य।


रंगों का संसार [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रंगों  का  संसार  है, भाँति -भाँति   के  रंग।

मज़हब  में  मत  बाँटिए, हो मानवता  भंग।।


पल्लव का रँग हरित है,पुष्प लाल सित पीत।

मानव का रँग एक ही,कर्ता की  शुभ  नीत।।


जितने  रंगों  में  बँटा, मानव का    संसार।

टुकड़े-टुकड़े हो गया,अलग-अलग दरबार।।


धरती  के  ऊपर  तना, मोहक नीलाकाश।

स्वर्णिम किरणें भानु की,भू पर हरित प्रकाश


गोरी  गौ माता  बनी,महिषी काले   वेष।

चितकबरी बकरी कहे,भैं- भैं करती मेष।।


मुर्गे की कलगी सजी,कलिका गुडहल  लाल।

लाल चोंच है कीर की,हरित पंख का  शाल।।


नीलकंठ दर्शन करें,शुभ दर्शन शुभ काल।

कोयल की वाणी मधुर,करती सदा कमाल।


दुग्ध धवल गोभी सजी,आलू मटर अनेक।

पालक बथुआ शाक का,घर घर में अतिरेक।


सेव,संतरा ,मौसमी, नीबू, किवी , अनार।

रंग -रंग के फल सभी,जामुन पके अपार।।


रंग -रंग का आदमी, खून सभी का  लाल।

जब  चढ़ता  है देह में,करता नहीं  बबाल।।


ऊँची-नीच बस रंग की,होता वर्ण विवर्ण।

जब अर्थी पर लेटता,भेद न अर्जुन कर्ण।।


🪴 शुभमस्तु!


२२.०२.२०२१◆५.००पतनम मार्त्तण्डस्य।

असमानता [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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असमानता में निहित है

उद्देश्य प्रकृति का,

हाथ की

 पाँच अँगुलियों की तरह,

कनिष्ठिका से लेकर

अंगुष्ठ पर्यंत,

सबके ही हैं

कार्य अनन्त,

अनामिका ,मध्यमा

और  तर्जनी ,

खान-पान ,ग्रहण,

मुष्टिका ,सर्जरी,

टेढ़ी कर घी भी

बाहर निकालना,

बँटा हुआ है हर

काम को सँभालना।


नभगत सूरज चाँद

सबका पृथक- पृथक काज,

कोई विशाल कोई लघु

कोई तप्त अति गर्म,

कोई धारण किए

 शीतलता का धर्म ,

किसी को दिन

किसी को मिली रात,

सभी देते हैं

जगत को

अपनी - अपनी

अमूल्य सौगात,

सभी आवश्यक हैं

संध्या, दिवस,

 रात और प्रातः।


अनगिनत असंख्य तारे

अलग-अलग आकार,

अलग -अलग प्रकार वाले,

अपने -अपने निराले गुण,

असमानता में प्रमुदित

करते निज कार्य निष्पादन।


अलग -अलग

 वृक्ष और लताएँ,

कितना आपको

 विस्तार से बताएँ,

कोई आम तो कोई नीम,

कोई बबूल कोई 

बरगद की तरह विस्तीर्ण,

पीपल ,शीशम या चीड़,

लगी है वन में 

पेड़ों की भीड़,

जूही, बेला ,मोगरा ,चंपा ,जूही,

गेंदा, गुलाब,

 कोई नहीं यूँ ही,

कोई समानता नहीं,

तुलना भी नहीं,

कमल हो या धतूरा,

सबके अपने 

महत्त्व का है जमूरा।


एक आदमी को ही

असमानता से संतोष नहीं,

समान होने के लिए

उर में आग जलती  रही,

ईर्ष्या, द्वेष ,घृणा ,वैर की,

आँधी ही चला दी उसने 

नीचता के अंधेर की,

राम तो राम ही हैं

कृष्ण भी कृष्ण ही हैं,

कंस, कंस है,

रावण भी रावण ही है,

अपनी प्रकृति से

कोई बदला नहीं

 तृण भर भी है,

फिर क्यों समानता की

आग लगाता है,

'शुभम' ये मानव 

क्यों तांडव मचाता है,

क्यों अपने में 

संतुष्ट न होकर,

अशांति फैलाता है।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०१.२०२१◆६.००आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

राष्ट्र -आराधना [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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राष्ट्र की आराधना का दिवस पावन।

आ गया गणतंत्र प्यारा भुवन भावन।।


राष्ट्र     सर्वोपरि     हमें   थाती  हमारी।

बाग  में  खिलतीं करोड़ों भव्य क्यारी।।

ज्ञान   की  गंगा  हमारी  अघ नसावन।

राष्ट्र  की  आराधना का दिवस पावन।।


तीन  रँग  का  केसरी  ध्वज फहरता  है।

मध्य  में  सित  हरित  नीचे लहरता है।।

चक्र   की महिमा अहर्निश है रिझावन।

राष्ट्र   की  आराधना का दिवस  पावन।।


विविध    भाषा ,रंग,  रूपों  के   निवासी।

मोदमय   रहते   नहीं  मुख  पर   उदासी।।

एकता    के   सूत्र   में रँगता है  फ़ागुन।

राष्ट्र   की   आराधना का दिवस पावन।।


ज्ञान   का रवि भी यहाँ से उदित  होता।

रश्मियों  के पुंज का शिव सत्य  सोता ।।

बरसता   है  मेघ   मंजुल सजल   सावन।

राष्ट्र  की   आराधना  का दिवस   पावन।।


उत्सवों     का   देश    भारत  रंग   होली।

दीप   - उत्सव    है    दिवाली  नव  रँगोली।

विजय दशमी है'शुभम'शिव शक्ति ध्यावन।

राष्ट्र   की  आराधना  का दिवस  पावन।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०१.२०२१◆४.४५पतनम मार्त्तण्डस्य।

प्रशंसा [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🦩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अपनी प्रशंसा

किसको प्रिय नहीं,

झूठी हो भले

या हो वह सही,

जब तक न पड़े

प्रशंसा में 

प्रशंसक की ओर से

कुछ या बोरा भर चीनी,

तब तक आता नहीं स्वाद

प्रशंसित को 

नहीं आती 

सुगंध रसभीनी।


सच में झूठ का पुट

होना भी जरूरी है,

छः की छत्तीस करना

प्रशंसक की मजबूरी है,

तिल का बनाया जाए

हिमालय पहाड़,

प्रशंसित लगता है

पवन के वेग से

दहाड़।


जड़ कालिदास को

महाकवि बनाने में,

अहम भूमिका थी

प्रशंसकों की,

विद्योत्तमा की रही होगी

विवाह के बाद,

उससे पहले तो

प्रश्नों के सटीक उत्तर भी

देने थे ,

अन्यथा कालिदास जी के

पड़ने वाले लेने के देने थे।


राजनेताओं की झूठी

उपाधियाँ ,

इसी श्रेणी में आती हैं,

जब नेता और नेतियाँ

मंत्री  पद की गहरी 

कुर्सी में धँस जाती हैं,

तो फिर  नकली भी

असली की चासनी में 

लिपट झपट जाती है,

लग जाती हैं 

चापलूसों की कतारें,

फिर तो पी एच. डी .धारी भी

आरती उतारें।


कितनी महान है

झूठी प्रशंसा ,

जो जड़ को  भी

महान बनाती है,

छः गुणी को

छत्तीस बनाती है,

असली सोने से

नकली सोना

चमकता है 

कुछ ज्यादा,

पाने वाले

पा ही जाते हैं 

अधिक फ़ायदा,

नहीं चलता यहाँ

कायदा या बेकायदा !


आज के जमाने में

आदमी असली नहीं,

असली प्रशंसा 

ढूँढ़ते हो 'शुभम',

ज़्यादा या कम

झूठ का छोंक भी

जरूरी है,

अन्यथा महक

नहीं आती,

दूल्हे को देखकर

दुल्हन यों ही

नहीं शरमाती,

भले सुहाग सेज पर

पोल खुल जाती!

पर अब क्या?

भँवरिया सात तो

पड़ ही गईं,

दो जोड़ी नयनों की

नज़र तो लड़ ही गई।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०१.२०२१◆८.३०पतनम मार्त्तण्डस्य।

ढोल में पोल [ गीत ]

 

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✍️शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 देखे   पापी   यहाँ    रहनुमा ,

लगते      दूध      धुले   सारे।

जनता  थर - थर काँप रही है,

दिखते   हैं   दिन  में     तारे।।


हृदय - वेदना   कही  न जाती,

सुनने    वाले     बहरे        हैं।

साँची   भी   कहने  वालों पर,

लगे   हजारों       पहरे     हैं।।

मत  का   तंत्र   देश में  फैला,

निर्धन    किस्मत    के   मारे।

देखे  पापी    यहाँ     रहनुमा ,

लगते     दूध    धुले    सारे।।


अन्न, दूध ,फल  का उत्पादक,

कृषक    सदा    से     बेचारा।

समझा  उसे न कोई अब तक,

बचा    खोखला    है   नारा।।

'जय किसान की' कहते नेता,

वे     बैठे      हिम्मत      हारे।

देखे   पापी   यहाँ    रहनुमा,

लगते    दूध      धुले   सारे।।


बिका मीडिया   राजनीति से,

जो   वह   कहती   गाना   है।

छलनी    में   दुह  रहे  दूध वे,

गाते    युगल    तराना    है।।

जाति -  भेद  में देश बाँटकर,

खाते    देश      बना     चारे।

देखे   पापी    यहाँ    रहनुमा ,

लगते       दूध    धुले   सारे।।


ठेकेदार     बुद्धि    के   नेता ,

समझें     हमें    अनाड़ी   हैं।

इनके  बिना  देश  रुक जाए,

चले  न    कोई   गाड़ी   है।।

'हम ही,हम ही,हम ही ईश्वर,'

इनके   सदा     चपल  नारे ।

देखे   पापी    यहाँ    रहनुमा ,

लगते    दूध      धुले   सारे।।


जनता   को  जड़  मान रहे हैं,

ख़ुद विकास - पुरुष अवतार।

विद्युत   की  धारा  बनकर वे,

करते   मानव   को  निस्सार।।

माल  और  माला   के स्वामी,

इनसे   विज्ञ     पुरुष     हारे।

देखे    पापी    यहाँ   रहनुमा ,

लगते    दूध       धुले   सारे।।


अत्याचार    नहीं   रुक  पाए,

रिश्वत   का    बाजार    गरम।

बलात्कार ,    नारी    बेचारी,

नित्य यहाँ, उनको  न शरम।।

भाषण  में   आदर्श    बचे हैं,

छिपे  यहाँ   विषधर    कारे।

देखे      पापी    यहाँ  रहनुमा , 

लगते  दूध     धुले     सारे।।


अजगर की कुंडली जटिल है,

जकड़ी   सारी     जनता   है।

जिसके   हाथों   में   है सत्ता ,

उतना  ही   वह   तनता  है।।

'शुभम' ईश ही रक्षक है अब,

कूप    हो   गए   सब  खारे।

देखे पापी      यहाँ    रहनुमा ,

लगते      दूध      धुले  सारे।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०१.२०२१◆११.५५ आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

मानव के कितने चरित [ दोहा -ग़ज़ल ]


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✍️ शब्दकार ©

🦜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मानव के कितने चरित,आदि न मध्य न अंत

मानव  ही  जाने नहीं,जाने साधु  न   संत।।


नियम बनाता आप ही,करता भी वह भंग,

जिन्हें विधायक बोलते,निज कर करता हंत


मानव-चरितों से भरी,कविता,कथा अनेक,

महाकाव्य की पोथियाँ,चरित राम, हनुमंत।


सीता, सावित्री यहाँ, कुटिल मंथरा  नारि,

हर युग में मिलती सदा,पन्ना धाय सुमंत।


भरत लखन से अनुज हैं,अर्जुन से बहु शूर,

धर्मराज विरले कहीं,विज्ञ विदुर   मतिवंत।


कंस और रावण बिना,राम नहीं हैं श्याम,

चमके चारु चरित्र दो,जगती में  यशवंत।


साँचे  बदले  नित्य  ही,जग का  रचनाकार,

कभी सूर,तुलसी हुए,कभी 'शुभम' औ' पंत।


🪴 शुभमस्तु!


१४०१२०२१◆५.००पतनम मार्त्तण्डस्य।


कर्मो से सृजन [ दोहा -ग़ज़ल ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कर्मों  से  ही है सृजन,कर्म कला का हेत।

कृषक कर्म करता नहीं,सूखेगा फिर खेत।।


सुबह जागते कीर सब, गाते कलरव गीत,

एक - एक  दाना  चुगें,पड़े धरा  के   रेत।


अपने परआश्रित रहें,सफल वही नरनारि।

पराधीन  जो  जी   रहे, वे हैं पादप बेत।


बीज धरा में डालकर,सिंचन कर नित पोष,

 रखवाली करना सदा, उसकी बाड़ समेत।


बया बनाती  नीड़ को,देख ठौर  जलवायु,

कला,करीना सीख लें,जब भी बने निकेत।


साँप  बनाते   बिल नहीं, रहते पर  घर  घेर,

साँप नहीं तुम नर बनो,निज संतति समवेत।


करे कलम अभ्यास जो,बनते कवि विख्यात,

पाहन घिसते रज्जु से,'शुभम'आज तू चेत।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०१.२०२१◆४.००पतनम मार्त्तण्डस्य।

सूरज दादा [बाल कविता]


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✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मौन  विचरते।

देर  न करते।।


सूरज     दादा।

नेक    इरादा।।


शीत   पवन है।

बढ़ी  गलन है।।


बँधे   समय  से।

हैं   निर्भय  वे।।


तेज      हवाएँ।

रोक   न पाएँ।।


छाते     बादल।

करें  न निर्बल।।


बढ़ते     जाते।

हमें   सिखाते।।


'यदि    बाधाएँ।

पथ  में  आएँ।।


'रुको,   न  रोना।

सुस्त   न होना।।


'साहस   के सँग।

आता   है   रँग।।


'बढ़ते      जाना।

कदम   बढ़ाना।।


 'तभी   सफलता।

निर्भय    चलता।।'


💐 शुभमस्तु !


१३.०१.२०२१◆११.१५

 आरोहणम मार्तण्डस्य ।


अद्भुत खगोल [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अद्भुत  है खगोल  का गोला।

दिखने   में   लगता है पोला।।


सूरज करता  नित्य उजाला।

रजनी में होता  तम काला।।

निकले  चाँद  रात में भोला।

अद्भुत है खगोल का गोला।।


दिखें  रात  में अनगिन तारे।

नयनों को  लगते   हैं प्यारे।।

देख-देख लगता मन डोला।

अद्भुत है खगोल का गोला।।


ऋषि हैं सप्त  संग ध्रुव तारा।

नवग्रहों   का   दृश्य  प्यारा।।

हैं अदृश्य लघु ,दीर्घ,मझोला।

अद्भुत है खगोल का गोला।।


सावन  भादों  घिरते बादल।

करते वर्षा सँग ले दलबल।।

धूम धड़ाम तड़ित बम्बोला।

अद्भुत है खगोल का गोला।।


धरती है  जिस पर हम रहते।

पर्वत, सरिता,  झरने बहते।।

खेत, गाँव, शहरों का चोला।

अद्भुत है खगोल का गोला।।


  🪴शुभमस्तु !


११.०२.२०२१◆३.००पतनम मार्तण्डस्य।

सफल उसी मानव का जीना [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मानव - तन   से  बहे पसीना।

सफल उसी मानव का जीना।


सुबह  जागतीं चिड़ियाँ प्यारी 

परिश्रम में  जुट जातीं सारी।।

नहीं  अन्न    औरों  से  छीना।

सफल उसी मानव का जीना।


उड़-उड़ चिड़ियाँ अन्न जुटातीं।

पानी   पीतीं   भोजन  पातीं।।

महके श्रम कण भीना -भीना।

सफल उसी मानव का जीना।


देखो  बुनती   बया   घोंसला।

खोती मन का नहीं  हौंसला।।

सीखें खग से कला, करीना।।

सफल उसी मानव का जीना।


बाग ,छतों  पर  मोर   नाचते।

संग  मोरनी ,  कथा  बाँचते।।

कण-कण चुगते श्रम से बीना।

सफल उसी मानव का जीना।।


ब्रह्म   मुहूरत   बाँग   लगाए।

नित्य समय  से हमें जगाए।।

'शुभम'मुर्ग का स्वर मनभीना।

सफल उसी मानव का जीना।


🪴 शुभमस्तु !


११.०१.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

कवि होना संस्कार है! [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🫐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कवि कहना तो सहज है,पर कविकर्म दुरूह।

बनते  हिमगिरि से सदा, हैं माटी   के   ढूह।।


भाषा, चिह्न विराम की,समझ नहीं भरपूर।

ऐसे  कवि  रहते सदा, मद में चकनाचूर।।


उछल-कूद कपिवत करें, डाल-डाल उत्पात।

समझाएं  कवि को अगर,माने एक न बात।।


छंदबोध के ही बिना,कवि वे कपि स्वच्छन्द।

मनमानी  अपनी करें,मिले न रस  आनन्द।।


कवि बनना है तो करें,कवियों का सम्मान।

विद्वानों से सीख लें,करें न निज गुणगान।।


शुद्ध  वर्तनी    जानकर ,दें रचना  में  रोप।

जैसी   पौध  लगाइए, वैसी आए   ओप।।


शिक्षा  से  बनते सभी,शिक्षक वैद्य वकील।

कृपा करें माँ शारदा, भरती कवि की झील।।


कवि होना संस्कार है,संस्कृति काव्यस्वरूप।

पूर्व जन्मकृत पुण्य से,बंद पाप भावकूप।।


मुक्त  छंद के  नाम पर,लिखते ऊटपटाँग।

टोकें  तो  टेढ़े पड़ें, खाई   हो ज्यों   भाँग।।


अहंकार यदि शेष है,कवि न, मात्र नर मूढ़।

तुकबंदी करने लगे,स्वयं कहें कवि गूढ़।।


बिना कृपा माँ भारती,पंक्ति न आए एक।

'शुभं'विनत माँ चरण में,लेकर पूर्ण विवेक।।


🪴 शुभमस्तु !


11.01.2021◆11.45आरोहणम  मार्तण्डस्य।


तुलसी [ बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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लाल -  हरे   तुलसी  के पत्ते।

लगते तीखे जब हम चखते।।


कहती  दादी  अति गुणकारी।

तुलसी-दल की महिमा न्यारी।


वात और कफ़  दोष  हटाती।

हृदय रोग  भी शीघ्र मिटाती।।


उदर -वेदना, ज्वर  को हरती।

भूख बढ़ाती,  बुद्धि सँवरती।।


रोग    रतौंधी       होता   दूर।

डालें  पत्र -  स्वरस   भरपूर।।


कर्ण-वेदना ,  पीनस   जाती।

सूजन को   भी  हरती पाती।।


दंत -  वेदना   में    हितकारी।

मुख रोगों  में भी सुखकारी।।


खाँसी  ,श्वास   रोग  हर लेती।

 तुलसी'शुभम'शिवम कर देती।


💐 शुभमस्तु !


09.01.2021◆3.30पतनम मार्तण्डस्य।


पीकर आया सोमरस [कुण्डलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

सूरज  केवल  एक  ही,चंदा केवल    एक।

शेष  सभी  जुगनू  बसे,टर्राते नित    भेक।।

टर्राते   नित   भेक, देश  तालाब   हमारा।

मगरमच्छ का भोज,बना है मनुज बिचारा।।

'शुभम' चाटते  शेर,धरा से सूखी  भू  रज।

नभ में रहा बिखेर, उजाला काला  सूरज।।


                      -2-

शेखी  स्वयं बघारना ,सीखें मुझसे    लोग।

मैं ही तो भगवान हूँ, सबको करूँ निरोग।।

सबको  करूँ निरोग, बजाओ घण्टे,  थाली।

अर्थ न  रखना  पास, करूँगा पूरा  खाली।।

'शुभम' विदेशी चाल, नहीं मेरी क्या  देखी?

मैं  ही  प्रभु  श्रीराम, सही  है मेरी    शेखी।।


                     -3-

पीकर  आया सोमरस,पावन अमृत    सार।

अमर देह मेरी सदा,घट-घट का  आधार।।

घट- घट का आधार ,सदा ही मुझको  रहना।

ज्यों  गंगा  की धार, धरा  पर वैसे  बहना।।

'शुभम' ईश-अवतार,पिलाता अमृत-सीकर।

धरती का भगवान चला हूँ, अमृत  पीकर।।


                      -4-

बाँट रहे थे बुद्धि जब,चित्रगुप्त जिस  द्वार।

सबसे आगे  मैं खड़ा,पाने प्रथम   कतार।।

पाने  प्रथम  कतार,बड़ी झोली  फैला  दी।

भर ली ठूँसम - ठूँस,पैर से सिर तक छा दी।।

'शुभम' बना अवतार,वे रहे अन्य को डाँट।

हुआ धन्य मम भाग,जब रहे बुद्धि वे बाँट।।


                     -5-

बाहर   से कुछ और हूँ, अंदर से कुछ और।

बदरी फल-सा मैं मधुर,करें नयन से गौर।।

करें   नयन  से  गौर,  रूप  मेरे    बहुतेरे।

चमगादड़ - से   नैन, सिखाए लाखों   चेरे।।

'शुभम' कहूँ जो बात,वही दुहराते  नाहर।

बनी हुई ये लीक,चले मत जाना   बाहर।।


💐 शभमस्तु !


09.01.2021◆1.25पतनम मार्त्तण्डस्य।

नाच रहा है मोर [ चौपाई ]

 

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✍️शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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अभी    हुआ   है  शोभन  भोर ।

छत  पर  नाच  रहा है मोर।।


आस - पास  मोरनी  घूमती।

सम्मोहित -सी मौन झूमती।।


मैंने    देखा     चोरी -  चोरी।

ओढ़ रखी थी सिर पर बोरी।।


मोर - मोरनी  मगन   हो रहे।

नहीं  मोर ने  शब्द  दो कहे।।


हिलते थे सब पंख झरर झर।

फैले   थे  रंगीन  सुघर  वर।।


नहीं  प्रेम   में    वाणी  होती।

चुगती प्रिया  नेह  के  मोती।।


मन में    बसता   प्रेम  हमारे।

वाणी   के   लेता  न  सहारे।।


जो  कहता 'करता  मैं प्यार।'

झूठा   उसका   नेह  दुलार।।


'आई लव यू'    झूठ   बयानी।

नग्न खड्ग ज्यों बिना म्यानी।


ज्यों पय में  घृत बसता गाढ़ा।

'शुभम'हृदय त्यों अमृत बाढ़ा।


💐 शुभमस्तु !


08.01.2021◆7.15 आरोहणम मार्त्तण्डस्य।

होगा भोर [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रास्ते

कहीं नहीं जाते ,

परंतु 

पहुँचा देते हैं

गंतव्य तक,

जहाँ भी

 जाना है हमें।


रास्ते 

मौन हैं ,

चलना तो हमें ही है,

अपने निर्दिष्ट

पथ पर

निरंतर,

बिना थके

बिना रुके 

अहर्निश।


गंतव्य

नहीं आते

स्वतः अपने पास,

होना चाहिए

मन में दृढ़ विश्वास,

मिलता है तभी

उज्ज्वल प्रकाश,

करता है मानव

निरंतर विकास।


आशा की डोर

मत छोड़ ,

मत हो मन से 

कभी कमजोर,

होगा भोर!

होगा भोर !!

नहीं कर 

व्यर्थ का शोर,

थामे रख 

मजबूती से

लक्ष्य की

 डोर का छोर।


पहचान

 अपने मन की 

अपार शक्ति,

मत रख 

बाधकों की बातों में

अनुरक्ति,

मत बैठ

नकारात्मक शक्ति के

मानुष के पास,

भर देगा 

निराशा हताशा,

वह नहीं है खास,

अपने में है

यदि दृढ़ विश्वास,

चलती रहेगी

तेरी मधुर -मधुर साँस,

आएगी तुझे

वही रास ,

बनेंगे नए - नए अनुप्रास,

दिखाई देगा 

पथ में 

उजास ही उजास,

 'शुभम सफलता का 

 उजास! 


विस्मृत हो जाएगा

निराशावादी शब्द 'काश',

वहीं के वहीं होंगे

रास्ते तेरे मौन,

नज़र नहीं 

मिलाएगी दुनिया,

नहीं कहेगी 

तू कौन ! 

कौन कहता है

सूरज से 

कि तू कौन है,

चल रहा अहर्निश

किन्तु वह नित 

मौन है।


🪴 शभमस्तु !


07.01.2021◆7.30पतनम मार्त्तण्डस्य।

वैचारिक गुलामी का दौर [ लेख ]


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✍️ लेखक©

 🦣 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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           आज वैचारिक गुलामी का दौर चल रहा है।सच के ऊपर पहरा है।आदमी का चरित्र दोहरा है। आप सच को सच कहने से भी डर रहे हैं। क्योंकि मीडिया और सत्तासीनों के द्वारा वही कहलवाना और सुनना पसंद है ,जिसे वे पसंद करते हैं।उनकी पसंद के विरुद्ध एक शब्द भी कहना, लिखना अथवा प्रकाशित करना अपराध है।अब सत्य भी अपराध है और सत्य लिखने बोलने वाला देशद्रोही है। आज सच वह नहीं है ,जो आप सोचते हैं। आज सच मात्र वही है ,जैसा वे सुनना पसंद करते हैं। सीधे शब्दों में यदि कहा जाए तो मानसिक गुलामी का साम्राज्य कायम है।

            अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कड़ा पहरा है।मानवाधिकार का खुलेआम हनन किया जा रहा है। आज की जनता, जनता नहीं रह गई है। उसका ' ब्रेनवाश' नहीं, 'ब्रेनवध' कर दिया गया है।जिस प्रकार विज्ञापनों में एक ही धारावाहिक में अनगिनत बार दिखाने के बाद यह बात दिमाग में बैठाने की कोशिश की जाती है कि फलां रिफाइंड ही सबसे अच्छा औऱ स्वास्थ्यवर्धक है, सरसों का तेल जैसी चीजें गँवारू चीजें हैं।जबकि वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत ही होती है। ऐसा लगता है कि देश के हर नागरिक को यदि सबसे ज्यादा चिंता किसी बात की है ,तो वह देश की ही है।

            'व्हाट्सएप विश्वविद्यालय' अथवा 'मीडिया विश्वविद्यालय' के द्वारा जो शिक्षा का विष वमन किया जा रहा है ,उसी वमन को अपना प्रातराश, मध्यान्ह और रात्रि -भोजन मानने वाला देशवासी उसी का वमन करते हुए देखा जा सकता है। आदमी की आपसी बहस का मुख्य मुद्दा भी यही है।रेल,बस, चाय घर आदि अनेक सार्वजनिक स्थानों पर अलादीन के चिराग के जिन्न की तरह प्रकट हो जाता है। जनता का अपना जन बोध ही मर चुका है। आज वह मतदाता भी नहीं है।जनता भी नहीं है। केवल और केवल भेड़ों को भीड़ है ,जो अंधे कुँए की ओर आँखें बन्द करके चली जा रही है। सारे वीडियो , संदेश उसी एक धारा में बदलते चले जा रहे हैं। एक समय ऐसा भी आने वाला है ,जब इस मानसिक गुलामी से पीछे मुड़ कर लौट पाना भी सम्भव नहीं होगा। तब सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही चीज हाथ में रह जायेगी ,वह होगी: 'हाथ मलना।' 

               महाभारत के एक मुहाने पर बैठे हुए हम केवल कौरवों और पांडवों के दो धड़ों में बांटे जाकर भयंकर भविष्य की विभीषिका का आनन्द लेने के लिए उत्सुक से दिखाई दे रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि इस महायुध्द में देखने वाले आज के उत्साही औऱ उत्सुक दर्शक पहले ही काम आने वाले हैं। सत्ता और मीडिया फिर भी वहीं के वहीं टी वी चैनलों पर तू तड़ाक ,बम भड़ाक की बहस करते हुए देखे जाएंगे। एक भयंकर ज्वालामुखीय विस्फ़ोट की ओर ले जाया जा रहा है ,और हम लोग आराम से स्मार्ट फोन औऱ टी वी पर उस दिन की प्रतीक्षा का आनंद लेने में मग्न हैं।

             जिस व्यक्ति का 'ब्रेनवध ' हो जाय ,वह व्यक्ति नहीं रह जाता। मात्र एक शव की तरह उपयोगकर्ताओं द्वारा उसका उपयोग (उपयोग कम दुरुपयोग अधिक) कर लिया जाता है। जैसे भैंस का कटड़ा मर जाने पर लोग उसी मृत कटड़े की खाल में भूसा भर के भैंस के आगे खड़ा करके दूध दुह लेते हैं ,ठीक वैसे ही इस 'ब्रेनवध'किए हुए मानव शव का उपयोग क्रीत मीडिया अथवा सत्ता धारियों द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा है।शव को क्या पता कि उसका क्या हो रहा है? यही स्थिति आज के जनता के जनतात्व से हीन मानव की हो गई है। काले कम्बल ने हमें नहीं जकड़ा है , हम कम्बल को ही नहीं छोड़ पा रहे हैं। अंतिम देवता के रूप में देखने वाले दर्शक सम्मोहन में विक्षिप्तता की स्थिति में सो रहे हैं। प्रगाढ़ निद्रा स्वप्न दिखाती है,जो वे देख रहे हैं। यह स्वप्न शीघ्र टूटने वाला भी नहीं है। सब जानते हुए भी जो आग में अपने पैर झोंक देता है ,उसे क्या कहते हैं, मुझे यह बतलाने की आवश्कता नहीं है। यह दौर जन जागरण का नहीं है, आम जन मानसिक दासता का दौर है। हाथ कंगन को आरसी क्या! पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या!! 

 🪴 शुभमस्तु !

 03.01.2021.7.00अपराह्न। 



  


नेता सदा वही होता [ गीत ]


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✍️ शब्दकार©

🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जो  जनता  को  साथ ले चले,

नेता      सदा    वही    होता।

जिसके   पीछे  दौड़े   जनता,

नेता वह  कभी  नहीं  होता।।


लोक  बोध  खोया   जनता ने,

आजादी  के   सँग   धोखा है।

नेता   रँगा     हुआ   रंगों   से,

रैपर   तो  खाली  खोखा है।।

सपने   मात्र    दिखाने वाला,

नायक  उचित    नहीं  होता।

जो जनता को साथ  ले चले,

नेता    सदा    वही    होता।।


डर-डरकर   जीती हो जनता,

तंत्र   मात्र    है    लोक  नहीं।

लोक   नहीं   तो देश  नहीं है,

धोखे    की वह   व्यथा रही।।

निजता आत्मघात की जननी,

अपने   लिए     शूल    बोता।

जो जनता को  साथ ले चले,

नेता   सदा   वही      होता।।


तानाशाहों    ने   अतीत    में,

जनता     को   डरवाया    है।

बन   बैठे   भगवान  स्वयं ही,

सदा  ज़ुल्म    ही    ढाया  है।।

लोकतंत्र   में   हर   वाणी का,

अपना   एक     धर्म   होता।

जो  जनता को साथ ले चले,

नेता   सदा     वही    होता।।


जो मिलता  स्वीकार करें वह,

मत   विरोध   उसका करना।

एक   शब्द  भी बोल गए तो,

जेलों   में      होगा    मरना।।

हम   अवतारी   हैं   ईश्वर के ,

वही    उगे    जो    मैं  बोता।

जो जनता  को  साथ ले चले,

नेता   सदा    वही     होता।।


तज विरोध अनुरोध कर रही,

नहीं  रही   अब   वह जनता।

जितना  ही  तुम झुकते नीचे,

नेता  और    गया    तनता।।

आज  बदलती  है परिभाषा ,

अपराधी   वह    नर  होता।

जो जनता को  साथ ले चले,

नेता     सदा    वही    होता।।


अपना   स्वत्व  मिटा सत्ता में,

जनता     बस    आरोही  है।

तना   शुष्क   पर्वत - सा नेता,

'शुभम' सत्य  अब  द्रोही है।।

चिल्लाओ  मत  पीछे  आओ,

बनो     भेड़     लद्दू    खोता।

जो जनता  को  साथ ले चले,

नेता    सदा    वही    होता।।


🪴 शुभमस्तु !


03.01.2021◆1.30अपराह्न।

शनिवार, 2 जनवरी 2021

साहित्य -सृजन:2020 🏕️ एक आत्म मूल्यांकन


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✍️ लेखक©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 🦚ॐ श्री सरस्वत्यै नमः🦚

                वीणा वादिनी विद्या और काव्य की अधिष्ठात्री  माँ  सरस्वती की कृपा है कि मैं आज भी वर्ष 1963 (11 वर्ष) की अवस्था से अद्यतन माँ सरस्वती     की अनवरत साधना में निरत रहते हुए काव्य - साधना  में संलग्न हो रहा हूँ। इस अंतराल में कई हज़ार कविताएँ, लेख, निबंध , एकांकी ,कहानी, लघुकथाएँ,  ,व्यंग्य आदि विविधरूपिणी पद्य और गद्य की रचनाएँ  लिखने के साथ - साथ अभी तक बारह पुस्तकों का प्रकाशन भी हो सका है। इस अंतराल में देश और विदेश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया। ये मेरे लिए अत्यंत हर्ष और सौभाग्य का विषय है। 

रचना लेखन विवरण:

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  वर्ष : 2018 2019 2020

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  योग:  225   387   530

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  वर्ष 2020 में मेरी दो पुस्तकों का प्रकाशन  हुआ।

1. आओ आलू आलू खेलें:( बालगीत संग्रह एवं

आलू- शतक) 

2. 'शुभम' व्यंग्य वातायन:( व्यंग्य संग्रह)


 बहुविधा तूलिका मंच के संस्थापक    तथा  पटल  के प्रशासक डॉ. राकेश सक्सेना जी ने  संभवतः 16 अक्टूबर 2018 को मंच की स्थापना की, जो अद्यतन मंच के समस्त रचनाकारों के सहयोग और सेवाभावी योगदान से निरन्तर एक अनुशासन की कोमल रेशमी रज्जू से बंधा हुआ चल रहा है। मैं किसी मंच - प्रतिभागी के महत्व को किसी प्रकार

कमतर नहीं आँक सकता। मुझे यह ख्याल नहीं आ रहा कि कब मुझे इस मंच से जुड़ने का सौभाग्य प्रियवर डॉ. राकेश सक्सेना के द्वारा प्राप्त हुआ। वैसे  प्रदेश के राजकीय उच्च शिक्षा विभाग में सेवारत होने के कारण हम लोग पहले से ही सुपरिचित थे। देश के विभिन्न  साहित्यिक औऱ सामाजिक मंचों पर मेरी  रचनाओं से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे इस मंच से जोड़ना उचित समझा। तब से आज आज तक मेरी यह साहित्य यात्रा अनवरत प्रवाहित हो रही है।इसके लिए मंच के समस्त सुधी समीक्षकों ,सरंक्षक डॉ. राम सेवक शर्मा 'अधीर 'जी, के साथ - साथ मंच के समस्त श्रध्देय अग्रज और  आदरणीय अनुज /अनुजाओं , समवयस्क मित्रों का कृतज्ञ हूँ कि जिनके निर्देशन मैं आज भी सीख रहा हूँ; अपने को  विद्यार्थी ही मानता हूं। इस मंच को अपना काव्य -गुरु मानने में भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। आभार व्यक्त करने के लिए नामों का गिनना उचित नहीं होगा, क्योंकि यह सूची इतनी लंबी होगी कि भूलवश नाम न लिखने पर उन्हें तो अच्छा नहीं लगेगा, मुझे भी अन्याय ही अनुभव होगा।

                 इसी स्थान पर मुझे यह कहने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि यों तो देश में हजारों साहित्यिक मंच होंगे किन्तु इतना अनुशासित , व्यवस्थित और ईमानदार मंच शायद ही कोई हो। फ़ोटो , वीडियो और ओडियो नहीं भेजने का कठोर नियम नारियल की तरह से बाहर से कड़ा और भीतर से दुग्धवत निर्मल औऱ सनीर है। अन्यथा इस पर कितना कूड़ा -कचरा गिराया जाता , इसकी कोई सीमा नहीं है।इसका अर्थ यह नहीं लिया जाए कि मैं चित्र आदि को कूड़ा -कचरा समझता हूँ ।उनका भी अपना महत्व है , लेकिन एक सीमा तक ही वह सुगन्ध 

देता है। उसकी अतिशयता दुर्गंध ही छोड़ती है। चित्र तो हमारी  अपनी महत्वाकांक्षी भावना के प्रतिरूप हैं। दूसरा उन्हें कितना महत्व देता है , उसका मूल्यांकन इस पर भी निर्भर करता है । इसलिए  इस मंच का  सौंदर्य  और सुरुचि इसी में निहित है।


       लेख के विस्तार की अतिशयता को दृष्टिगत करते हुए इतना ही कहना चाहता हूं कि साहित्य की सेवा , मातृभाषा , जननी और जन्मभूमि की सेवा ही मेरा कर्म है , धर्म है और इसी में मेरा अपना मर्म भी है।

  वर्ष 2021 के प्रथम दिवस की इस पावन वेला में माँ सरस्वती से मेरी यही प्रार्थना है कि आजन्म इसी प्रकार माँ भारती की

सेवा में तन मन और धन से लगा रहूँ।ॐ 


🌷🌷 जाने वाले वर्ष 2020को  भावभीनी विदाई।🌷🌷


💐💐 नवागत वर्ष  2021 का हृदय की गहराइयों से स्वागत💐💐

और आप सभी को बहुत -बहुत शुभकामनाएं और बधाई 💐💐 .......


💐 शुभमस्तु !


01.01.2021◆8.00 अपराह्न।

रोटी गरम बाजरे वाली [बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🫐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रोटी  गरम   बाजरे   वाली।

रंग- रूप में साँवल काली।।


साग,हरी  डाली  सरसों का।

स्वाद नहीं भूला  बरसों का।।

घी के  सँग  में बड़ी निराली।

रोटी  गरम   बाजरे   वाली।।


पूस माघ   का  जाड़ा आता।

शीत हमें  तब बहुत सताता।।

सजती   है  रोटी  से  थाली।

रोटी   गरम   बाजरे  वाली।।


घी गुड़  के सँग देख मलीदा।

लार   टपकती   देखें  दीदा।।

खाते  जी  भर पेट न खाली।

रोटी  गरम    बाजरे  वाली।।


मींज   दूध   में    खाते  रोटी।

छोटी   हो   या पतली मोटी।।

भिगो-भिगोकर खीर बनाली।

रोटी  गरम   बाजरे    वाली।।


तिल गुड़ संग सेंकते टिक्की।

खाता चुन्नू   खाती  मिक्की।।

'शुभम'ग्राम या शहर मनाली।

रोटी    गरम   बाजरे  वाली।।


🪴 शुभमस्तु !


02.01.2021◆2.21अपराह्न

सजल पौष की शीत [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप *शुभम'

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सजल पौष की शीत में,बरसे नभ से  ओस।

दृष्टि जहाँ तक जा सके,दीखे सौ-सौ कोस।।


कुहरे के कुहराम से,जीव जगत बेचैन।

दृष्टि न आए पास भी,भले खुले हों नैन।।


श्वेत धूम -सा छा गया,कुहरा पथ हर खेत।

चादर तनी प्रगाढ़ सी,मौन कीर समवेत।।


ओढ़   रजाई बैठिए,या कंबल के    संग।

दूर शीत को कीजिए, सुरा न लेना  भंग।।


अगियाने की शरण में,जाड़े का उपचार।

मूँगफली  खाते  रहें,न हो शीत  संचार।।


सरसों की भाजी बना,खाते हैं जो  लोग।

सरल शीत उपचार है,दूर उदर के  रोग।।


शकरकंद  की  खीर से, मिलता परमानंद।

गज़क कभी मत भूलिए,मिटे शीत  छलछंद।


सौंधी  रोटी  बाजरा, की खाएँ सँग   तोष।

नहीं  सताए  शीत फिर,हमें न देना  दोष।।


गर्मी  का  जब सृजन हो,दूर रहेगा   शीत।

सबकी क्षमता अलग है,सहे शीत की तीत।।


कोई    ढूँढ़े   धूप  को,   कोई  ढूँढ़े      ओट। 

सूट -  बूट   के  साथ में, धारे कोई   कोट।।


'शुभम'शीत का काल है,बचने की भी ढाल।

गरम  नीर  सेवन   करें,बदलें अपनी चाल।।


🪴 शुभमस्तु !


02.01.2021◆ 11.15 अपराह्न।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...