शनिवार, 31 जुलाई 2021

गप्पू जी 🤓 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🧸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                       -1-

गप्पू जी  गपिया रहे, हमको सारा   ज्ञान।

विषय न छूटा एक भी,कहो हमें भगवान।।

कहो हमें भगवान,नीति सब ही हम जानें।

मानें  एक  न  बात,रबर अपनी ही  तानें।।

'शुभम'समझ पर्याय,कहो चाहे  तुम टप्पू।

गप्पों  के  सिरमौर,कहें आदर से   गप्पू।।


                       -2-

गप्पू जी  की  गप्प  का,कर लें  अनुसंधान।

मिले  नहीं संदर्भ भी,नहीं  ग्रंथ - पहचान।।

नहीं  ग्रंथ - पहचान,हड़प्पा में भी   जाओ।

मोहनजोदड़ काल,शोध कर भी पछताओ।।

'शुभम' ठोक कर ताल, चलाता अपना चप्पू।

डूबे   चाहे    नाव,  कान   से बहरा   गप्पू।।


                        -3-

गप्पू जी अपनी कहें,सुन लें उनकी  बात।

सुनकर भी करते वही,जो मन कहे सुहात।।

जो मन  कहे सुहात,नहीं कोई समझाओ।

दो मत निजी सुझाव,नहीं साँची जतलाओ।।

सर्व  ज्ञान  के  कोष,छोड़ नावों  के  चप्पू।

बहते मन की धार,'शुभम'निधड़क ये गप्पू।।


                       -4-

गप्पू जी के काम के, जन जन बड़े   मुरीद।

गर्दभ  भी  करने  लगे,घोटक जैसी   लीद।।

घोटक  जैसी लीद, वेश गीदड़ ने   बदला।

ओढ़ शेर की खाल,बजाता वन में तबला।।

'शुभम'न समझें आप, वही पपियाता पप्पू।

घनन -घनन का शोर,कर रहे गायक गप्पू।।


                         -5-

गप्पू    जी  के  गाँव में ,आई विकट   बरात।

अनुगामी  हैं  भक्त वे, दिखे न दिन या रात।।

दिखे   न दिन या रात, लगाकर चश्मा आए।

आगे     नवल  प्रभात, अँधेरे पीछे    छाए।।

'शुभम'  मजीरा   ढोल,बजाते गाते   टप्पू।

उन्मादों  में  लीन ,  गाँव  के सारे    गप्पू।।


🪴 शुभमस्तु !


३१.०७.२०२१◆१२.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

अपना वतन 🇮🇳 [ गीत ]

 

★★★★★★★★★★★★★★★

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

★★★★★★★★★★★★★★★

मेरे  वतन   की    धूल को।

मेरे  वतन  के    फूल  को।।

मेरा   नमन!  मेरा  नमन!!

मेरा वतन ! अपना वतन!!


हम   वतन    की  संतान हैं।

तुमसे    हमारी    जान  हैं।।

है   विश्व  में   चमका  रतन।

रक्षक बनें कर- कर  जतन।।

मेरा   नमन !   मेरा-  नमन!

मेरा वतन  !  अपना वतन!!


हम   गाँव    नगरों   में   रहें।

अपना   तुम्हें  मन  से कहें।।

गंगा  करे  सब  अघ  शमन।

वन,खेत में खिलता चमन।।

मेरा  नमन  !   मेरा   नमन!

मेरा  वतन !  अपना  वतन!!


इतिहास      गौरवपूर्ण     है।

दर्शन   यहाँ     का   गूढ़ है।।

है   ज्ञान  की  दिपती  तपन।

प्रभुभक्ति का नैत्यिक जपन।

मेरा   नमन !    मेरा   नमन!

मेरा  वतन !  अपना   वतन!!


साहित्य    शुभ    संदेश   है।

रहता  न  उर   में  क्लेश है।।

मजबूत      सारे      संगठन।

रहते   सभी   उर   से प्रमन।।

मेरा     नमन !   मेरा नमन !

मेरा  वतन ! अपना  वतन!!


गंगा   जमुन    की    धार है।

मैदान ,   अचल ,  पठार है।।

धरती   हरित   नीला  गगन।

है सिंधु का उर अति गहन।।

मेरा    नमन !   मेरा   नमन !

मेरा  वतन ! अपना  वतन!!


ऋतुएँ    सहज  आ - जा रहीं।

पावस   सुजल   बरसा  बहीं।।

मधुमास, गर्मी,  शिशिर कन।

हेमंत    प्यारा    शरद  तन।।

मेरा   नमन  !  मेरा   नमन !

मेरा वतन  !   अपना वतन!!


होली ,    दिवाली     पर्व   हैं।

शुभ  दशहरा   मम   गर्व है।।

रहते 'शुभम' हम  सब मगन।

निज काज में रखकर लगन।।

मेरा   नमन  !   मेरा   नमन !

मेरा  वतन ! अपना   वतन!! 


🪴 शुभमस्तु !


३०.०७.२०२१◆१.३० पतनम मार्तण्डस्य।

बची हुई पूड़ियाँ 🟠 [अतुकान्तिका]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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राम लढ़ेती की अम्मा 

के घर पच्चीस साल बाद

उसके भैया सिंधु की 

नई वधूटी का गौना 

होकर आया है,

घर पड़ौस का वातावरण 

खुशबू ने महकाया है,

बहुरिया की 

मुँह दिखाई की रस्म

के लिए आई हैं

सुंदर - सुंदर बहुरियां

गाँव की बहुत सी

 बड़ी- बूढ़ीयाँ,

उधर बज रही हैं

नव बहुरिया की

हरी -हरी चूड़ियाँ।


सिंक रही हैं

धधकती भट्टी पर 

गरमा -गरम पूड़ियाँ,

आलू का रसीला 

महकता साग,

अपना-अपना भाग,

जो खाएगा 

नई बहुरिया के गौने का

पूड़ी - साग। 


खुशनुमा माहौल,

ढोलक है गीत हैं

मंगलाचार है,

राम लढेती की अम्मा

कभी बाहर कभी अंदर

लगाती -सी परिक्रमा,

कितना सुंदर है समा।


रतजगे में बीत गई 

सारी रात,

नाचती गाती बजाती रहीं

सिंधु की पड़ौसिन भाभियाँ

साड़ी में उड़से हुए

घर की चाबियाँ,

हँसी मज़ाक 

कभी -कभी नैतिकता भी

उठाकर रख दी ताक,

उधर छोटे बच्चे 

किवाड़ों की 

संधियों से रहे हैं झाँक,

महीना है ठंड का माघ ।


होते ही भोर,

खुली आँखों की

अलसाई कोर,

अम्मा ने देखीं

बची हुई पूड़ियाँ,

लगा -लगा कर नमक

खा रहे प्रेम से सुस्वाद

रात की बची पूड़ियाँ,

बच्चे बूढ़े बूढियाँ,

उधर बजती हुई सुनीं

उढ़के हुए किवाड़ों के

 पीछे कक्ष में 

हरी - हरी  'शुभम'  चूड़ियाँ।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०७.२०२१◆ ६.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

गरजे भी बरसे भी! ⛈️ [ अतुकान्तिका]

 

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✍️ शब्दकार©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अब तक गरज रहे थे,

खूब गरजे,

अब बरस भी रहे हैं,

सिद्ध कर दी कहावत

पूरी तरह ग़लत,

कि बरसते नहीं हैं

गरजने वाले।


गर्जना का 

कुछ तो संबंध है

बरसने के साथ,

बिना बादल 

नहीं होती कोई गर्जना,

यह तो पूर्व लक्षण है

कि बादल बरसेंगे,

हम सभी

अब नहीं जल को

तरसेंगे।


ऐसे भी हैं आज

कुछ बादलनुमा सजीव

जो बनाए ही गए हैं

मात्र गर्जन के लिए,

आम आदमी के

तड़पाने के लिए,

जैसे हो कोई क्लीव,

मात्र प्रदर्शन और

गरजते हुए आश्वासन,

आम आदमी को भले 

न हो नित्य का राशन,

पर उन्हें तो देना ही है

कोरा भाषण,

भर सकते हो

इससे अपना उदर

तो भरो न!

अपनी प्यास 

कल्पना के अम्बु से 

पूरी करो न!

बातों के बतासे नहीं

रसगुल्ले खिलाते हैं,

कहते हैं पूरब 

और पश्चिम को जाते हैं।


सबका आच्छादन

इनका प्रधान गुण है,

आत्महित में निमग्न

इनका प्रत्येक

देह - कण है।

जल नहीं

जल की बात से ही

गरज पड़ते हैं,

चौकी चौपाल चौराहे

चतुर्दिक चभर चभर

 करते हैं।


एक नई संस्कृति का

निर्माण हो रहा है,

ऐसा नहीं कि 

आम आदमी 

सो रहा है,

अपने अस्तित्व रक्षा की

कुछ विवशताएँ हैं,

क्योंकि उनके ऊपर

छाई हुई काली

घटाएँ हैं, 

जिनसे  मात्र 

गरजने भर की 

 'शुभम'आशाएँ हैं।


🪴 शुभमस्तु!


२९.०७.२०२१◆७.४५ पत नम मार्तण्डस्य

बुधवार, 28 जुलाई 2021

ग़ज़ल 🚀


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✍️शब्दकार©

🚀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आदमी   से  आदमी  जलता रहा।

पेट  के  भीतर  जहर  पलता रहा।।


'मैं  बड़ा   हूँ  रंग   मेरा  गौर  है ',

अघ-विकारों से स्वयं छलता रहा।


जातियों  में  बाँट  कर खंडन किया,

नफ़रतों  का बीज  ही फलता रहा।


पढ़  लिए   हैं  शास्त्र  ज्ञानी भी  बड़ा,

किंतु  सूरज-चाँद-सा  ढलता रहा।


यौनि-  पथ तो एक था सबके लिए,

अंत  सबका  एक  ही  जलता रहा।


आपसी  मन -  भेद  में बरबाद  है,

नित अहं  के  पात्र  में  ढलता रहा।


भेद  तो  चौपाल  तक  ही जा थमा,

लाल  लोहू  दलित  का भरता रहा।


नाश   के  लक्षण   दिखाई   दे रहे,👼

आत्मा  की  लाश पर चलता रहा।


दे   दुहाई   ग्रंथ   की   करता नहीं,

रूढ़ियों को फाड़कर सिलता रहा।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०७.२०२१◆१२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

जटिल कहानी 🦦 [ चौपाई ]


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✍️ शब्दकार ©

🛩️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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राजनीति  की    करनी  ऐसी।

करे   देश   की   ऐसी- तैसी।।

पढ़ना- लिखना  व्यर्थ बतावें।

अपने  को  सिरमौर  जतावें।।


अधिकारी  को  नाच नचाना।

दंगम - दंगा    रोज़   मचाना।

नाचे   डंडा  उच्च   प्रशासन।

मात्र  ज़रूरी   झूठा  भाषन।।


कानूनों    के   सब    निर्माता।

करने का क्या  तृण भर नाता?

कर्म   न   इनसे   कोई   छूटा।

जो मन  चाहा  उसको लूटा।।


जब  चाहें तब नियम बदलते।

जनता  को नित ही वे छलते।।

भावें  नहीं   पढ़े नर -  नारी।।

समझ   रहे  उनको  बीमारी।।


भोलों को ठगते  बन फाँसी।

बात सही है समझ न हाँसी।

मिल जाएँ भगवान भले ही।

नेता मिलें न बिना छले ही।।


चले नाक की सीध  अबोला।

चमचे   थाम   रहे  हैं झोला।।

जिसकी लंबी  पूँछ भेड़ की।

उसकी उतनी बड़ी पूछ भी।।


राजनीति  मकड़ी का जाला।

जो फँस जाए उलटा डाला।।

माल तिजोरी सिर गलमाला।

शयन सेज पर गरम मसाला।


धोखे की  टटिया   के रक्षक।

आम जनों के चूसक भक्षक।।

निज घर के उद्धारक तारक।

निर्धन जन के सब संहारक।।


काला  अक्षर   सबको  हाँके।

पढ़ा-लिखा या करता फाँके।।

कितना कहें  रबर - सी तानें।

बात 'शुभम' की साँची मानें।।


राजनीति की जटिल कहानी।

नित नवीन  नाले  का पानी।।

नेता -  कथनी  सदा  अनंता।

करनी में ऋषि   साँचे संता।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०७.२०२१◆६.१५ पत नम मार्तण्डस्य।

दुःख 🔥 [ दोहा- मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

दुखमय यह संसार है,सुख का न्यून  प्रभात

दुख पर्वत-सा सामने,सुख के कण हैं  सात

सुख के पल गणनीय हैं,दुख की नाप न तोल

निशिदिन सुख दुख झेलते,मानव के उर गात


                         -2-

दुख देता जो अन्य को,मिलता उसे न  चैन,

पीड़ा   ही   नित  झेलता,रोते हैं    दो  नैन,

तन से मन से  वचन से,  नहीं सताओ मीत,

मधुर सत्य बोलें 'शुभम',मुख से अपने बैन।


                          -3-

कब दुख मिल जाए कहाँ, नहीं पूर्व आभास,

नहीं किसी को दीजिए,मूढ़ मनुज तुम त्रास,

दुखदाता को दुःख का,पल- पल  पारावार,

दुख  तो तेरे साथ है, घर-घर में  नित वास।


                           -4-

सुख  दिन है  दुख रात है,आते - जाते नित्य,

दोनों  मानव  के लिए, जीवन के   औचित्य,

धन कुबेर को सर्वसुख,मिलते सदा न मीत,

दुःख न निर्धन को सदा,जीवन 'शुभं'अनित्य।


                       -5-

सुख - दुख में समता रहे, कहते उसे विवेक,

कर्म 'शुभम' करता  रहे,है सलाह   ये   नेक,

चींटी  में  भी प्राण   हैं, इतना सोच   विचार,

टर्र-टर्र   करना   नहीं, ज्यों  कूपों  में   भेक।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०७.२०२१◆११.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌴


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पकड़कर     खम्भे   सभी चलते    रहे।

आप   अपने   को    स्वयं  छलते   रहे।।


एक    को    छोड़ा   कभी   दूजा    गहा,

ज़िंदगी    भर  हाथ   ख़ुद मलते     रहे।


बुद्ध,     ईसा,   राम,   वेदों   को     पढ़ा,

थम  न    पाए   एक   पर  टलते     रहे।


है    नहीं    पहचान    अपनी सोच     भी,

हिम   के    पिंडों  -  से  पड़े  गलते   रहे।


पालतू     ज्यों    भेड़    बाड़ों में    पड़ी,

हलवाइयों    के    तेल -   से  तलते  रहे।


जौंक   से  चुसवा   रहे   निज खून    को,

तुम    चुसे      वे    चूसकर   फ़लते   रहे।


रूढ़ियों     में   फाँस   कर  लूटा     सदा,

अन्नदाता    तुम    थे     वे   पलते     रहे।


हीनता     का    बोध   ही    बाँटा     गया,

माला       जनेऊ   डालकर दलते      रहे ।


ठगते     रहे   हिंदुत्व   को  ही तोड़   कर,

ए' शुभम' !   तुम    नित्य   ही खलते   रहे।


🪴 शभमस्तु !


२७.०७.२०२१◆१०.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

पंडुक गाती भजन सकारे 🐦 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🐦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

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रहती   है    नित    मेरे   द्वारे।

पंडुक  गाती   भजन सकारे।।


लता - कुंज  में   नीड़ बना है।

पत्तों  का  लघु  घेर  घना  है।।

चमक  रहे   हैं  नभ  में  तारे।

पंडुक  गाती भजन   सकारे।।


पिड़कुलिया वह कहलाती है।

पूरे   घर   के   मन  भाती है।।

समझाती प्रभु की महिमा रे।

पंडुक  गाती  भजन  सकारे।।


घूघी,  कुमरी   वही  फ़ाख्ता।

ईंटाया  ,पंडक  जग कहता।।

और  पेंडुकी   भी   कहता रे।

पंडुक  गाती  भजन सकारे।।


रंग  ईंट - सा   या  हो   भूरा।

नर ग्रीवा   पर    कंठा  पूरा।।

छोटे  कंकड़   भी   चुगता रे।

पंडुक  गाती  भजन सकारे।।


तुर - तुत्तू   तुर -तुत्तू  का स्वर।

कानों को  लगता  है मनहर।।

'शुभम' न सुनकर थकते हारे।

पंडुक  गाती भजन   सकारे।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०७.२०२१◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


रविवार, 25 जुलाई 2021

ग़ज़ल 🪅

 

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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बड़ी  ही  कृपा  की  जो चले आप  आए।

भला  आपका  हो  जो  चले आप  आए।।


बिना  गर्ज़    के  एक  हिलता  न      पत्ता,

बल्लियों  दिल  उछलता चले आप  आए।


कूपों       में    अपने  घुमड़ते   हैं    दादुर,

कुआँ    छोड़    अपना    चले आप  आए।


खाए      हैं      बतासे     बातों   के    हमने,

बात   बिगड़ी  को  बनाने चले आप  आए।


किसी   और  की  है  न  चिंता किसी  को,

छोड़  अपनी  भी खुमारी चले आप  आए।


कहता   है    समाजी  मगर दूर   जग  से,

समझ   आप   अपना   चले आप   आए।


'शुभम'    रंग      दुनिया   ये बदले हजारों ,

रँग  अपना   ही जमाने चले आप   आए।


🪴 शुभमस्तु !


२५.०७.२०२१◆११.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌴


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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दीवारें  चारों   बंद हैं तो खिड़कियाँ भी क्या करें,

वातायनों  में रोध है ये सिसकियाँ भी क्या करें।


आँख    में   पानी   नहीं  है पी गए  सारी  हया,

इस  क़दर  बेशर्म हैं  वे झिड़कियाँ भी क्या करें।


देवरानी    जींस में सज सड़क पर इठला रही,

देखती   हैं चाल बदली बड़कियाँ भी क्या करें।


न्यूनतम   कपड़े पहनकर मम्मियाँ बाज़ार में,

स्वयं ही सिखला रही हैं लड़कियाँ भी क्या करें।


भजन   गाती    दादियाँ  उठकर सकारे रोज़ ही,

ब्रह्मवेला  में विटप पर पिड़कियाँ भी क्या करें।


सारे   घर में     रेंगतीं हैं   मूक छिपकलियाँ यहाँ,

जाल   अपने   पूरती   वे मकड़ियाँ भी क्या करें।


बाप    की   दो बात   भी मानें   नहीं औलाद अब,

'शुभम'चिल्लाते रहो अब झिड़कियाँ भी क्या करें।


🪴 शुभमस्तु  !


२५.०७.२०२१◆१०.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌻


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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जिस       साँचे    में    ढल  पाओगे।

वैसा     -     वैसा       फ़ल   पाओगे।।


खोदोगे        श्रम       की  सुरसरिता,

तब         ही       गंगाजल   पाओगे।


रहना    जो     परिजीवी    बन  कर,

अपने       को     ही    छल पाओगे।


दोगे   यदि    तुम     दुःख   किसी  को,

रात   न    दिन        तुम    कल पाओगे।


कर    दोगे      बरबाद     समय   ख़ुद ,

अपने      ही       कर     मल  पाओगे।


शठता    में     ख़ुद       को भुला  दिया,  

जीवन      में      नित      खल  पाओगे।


जब      'शुभम'        गहन  गोता    लोगे,

सागर     का       भी      तल  पाओगे।


 🪴 शुभमस्तु !


२५.०७.२०२१◆८.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 24 जुलाई 2021

करता सत गुरु को नमन 🙏 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार© 

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

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करता सत गुरु को नमन, जिनसे पाया ज्ञान।

जननी मेरी प्रथम गुरु,करता उनका ध्यान।।


पूज्य जनक गुरु दूसरे,शत शत उन्हें प्रनाम।

जिनके पावन नेह से,उपजा 'शुभम'अनाम।।


विद्या गुरुजन  से  पढ़ी,पाया अक्षर   ज्ञान।

नमन उन्हें करता 'शुभम',एवं नित सम्मान।।


बड़े आयु में श्रेष्ठ जन,वे सब गुरु का मान।

सीख मिली उनसे बड़ी,प्रेरक मनुज महान।


जीव  जंतु  तरु  बेल भी, देते शिक्षा  नीक।

वे  भी  गुरु मेरे  सभी,बनवाते नव  लीक।।


जिन ग्रंथों को पढ़ लिया,या पढ़ने  को शेष।

शिक्षा   देते  वे  सभी,कहते बनें  न  मेष।।


चींटी  से    संघर्ष   का, सीखा उत्तम   पाठ।

गिर-गिर जो चढ़ती सदा,गाँठ लगा लीं आठ।


काजल सी कोकिल भली,वाणी है अनमोल।

सिखलाती   बोलो  'शुभम',मेरे जैसे   बोल।।


कुक्कुड़  कूँ  की बाँग ने,हमें जगाया  रोज़।

सदा  समय  से जागिए, बचा रहेगा  ओज।।


उदय अस्त रवि सोम के,कहते समय अमोल

गया समय लौटा नहीं, कानों को ले  खोल।।


पाहन पुजता है तभी,जब वह लिया  तराश।

गुरु तराशते हैं हमें, देकर दिव्य    प्रकाश।।


कुंभकार - गुरु मृत्तिका,को देते  नव  रूप।

कोई  चढ़ता  शृंग पर,कोई भव  के  कूप।।


गुरु से रखता जो कपट,कभी न  हो उद्धार।

उऋण न होता जन्म में,होती है  जग  हार।।


गुरु  चरणामृत पान कर,हुए कृष्ण  श्रीराम।

एकलव्य की साधना,करता 'शुभम' प्रनाम।


गुरु  गुरुता में श्रेष्ठ  है,करना यह  स्वीकार।

दुग्ध  सिंहनी  का नहीं,जाता कंचन   पार।।


सतगुरु का सुमिरन करूँ, करता उर सम्मान

'शुभम'सकल आभार से,लियाआपसे ज्ञान।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०७.२०२१◆३.१५पतनम मार्तण्डस्य।

षड् ऋतु समुच्चय 🏞️🏕️ ◆ [ दोहा ] ◆


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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मम भारतअति पावनी,षड् ऋतुओं का देश

सबका अपना रूप रँग, सबका मोहक वेश।

वसंत 🌻

पहली ऋतु ऋतुराज की,कहते जिसे वसंत।

सुमन खिले कलियाँ नई,विकसी हरी अनंत।


चैत्र  और वैशाख में,आता नव  मधुमास।

सरसों फूले खेत में,बिखरे बौर - सुवास।।


मौसम रम्य सुहावना, सम शीतलता   घाम।

हिमगिरि से हिम रिस रहा,बौरे आम ललाम।


मदनोत्सव  होली मनी, जाग उठा है  काम।

बूढ़े पीपल में अरुण, उगतीं गाभ  अनाम।।


ग्रीष्म🌞

जाते ही  ऋतुराज के,आया गरम   निदाघ।

सूरज नयन तरेरता,ज्यों जंगल में  बाघ।।


लुएँ  चलें  नित भोर से,तन से बहता   स्वेद।

कुम्हलाएँ कलियाँ नरम, लगी पिघलने मेद।।


ताप बढ़ा सूरज चढ़ा,पकतीं फ़सल अनाज।

नष्ट  हुए  कीटाणु भी, नहीं भानु   नाराज़।।


ज्येष्ठ और  आषाढ़ का, है अपना  ही  रंग।

सरिता निर्मल बह रही,निधि से मिली निसंग


पावस⛈️

सावन भादों मास में,पावस करे  किलोल।

ऋतुओं की रानी कहें,पड़ते बाग  हिंडोल।।


नभ से  बरसे नीर जब,बुझे धरा की प्यास।

हरे-हरे तृण उग रहे, बँधी कृषक की आस।।


घरआँगन गलियाँ भरीं,सरिता,सर,तालाब।

पावस आई झूमकर,सुखद समा सँग आब।।


झर-झर  बूँदें  झर  रहीं,बालक नंग - धड़ंग।

नहा रहे  हैं  दौड़कर,लथपथ जल से  अंग।।


शरद 🌝

पावस - मेघों  से  धुला, निर्मल शरदाकाश।

कार्तिक आश्विन मास में,बदला है ऋतु प्राश


वर्षा  बूढ़ी  हो  गई,श्वेत  सुमन में    कास।

लगे  झूमने  वायु  में,किसे  न आते   रास।।


कमल खिले तालाब में,लहराए  नत  धान।

राजहंस की मधुर ध्वनि,ज्यों नूपुर की शान।


शरद-चंद्रिका देखकर,मन - मतंग  की चाल।

कहती  लाओ पास में,कामिनि अपने गाल।।


हेमंत 🔥

ओस - बिंदु  गिरने  लगे,आई ऋतु   हेमंत।

अगहन एवं  पौष  में, कहते ज्ञानी   संत।।


देह -दोष सब शांत हैं,उच्च अग्नि का काल।

कीट-पतंगे नष्ट हैं, तन को मनुज  सँभाल।।


उष्ण  नीर  से  लें  नहा, करें तैल - अभ्यंग।

खट्टा - मीठा  खाइए, उचित लवण भी संग।।


कसरत भी करना सही,बढ़े देह की आग।

ऋतु हेमंत न भूलिए,प्रतिरक्षा हित   जाग।।


शिशिर 🌬️

धवल दिशाएँ हो गईं,शिशिर - शीत की मार।

घना  कोहरा छा रहा , भू- नभ  एकाकार।।


कण-कण भीगा ओस से,अमृत सम है ताप।

देव भानु   नित दे रहे,ग्रहण कीजिए आप।।


तिल -गुड़ के आहार से, तन को करना पुष्ट।

मेवा,पय, प्रिय पाक भी,करते हैं   संतुष्ट।।


माघ और फाल्गुन युगल,संवत्सर मासांत।

'शुभम' हितैषी जीव के,मत रहना उद्भ्रांत।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०७.२०२१◆१०.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

वर्षा - बहार ⛈️ [ दोहा -गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

💦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वर्षा - रानी   कर रहीं,नित सोलह    शृंगार।

साथ मेघ,चपला सखी, मानसून का प्यार।।


झर झर झर झरने लगीं बूंदें  मूक  अबाध,

प्यास बुझाती अवनि की,नहीं मानती हार।


चमकी चपला मेघ में,करती ज्योति लकीर,

तड़तड़ तड़की जोर से,भय का लाती ज्वार।


बच्चे  नंग - धड़ंग  हो, नहा  रहे   हैं   मस्त,

साड़ी  चिपकी  देह से, गातीं नारि  मल्हार।


सरिता  पर  यौवन चढ़ा,नाले करें   किलोल,

नाली  गाती  गीत - से,  आई खेत - बहार।


गुड़िया अपने राम की,दिखती एक न आज, 

न  ही  केंचुआ  रेंगते, आँगन में    इस  बार।


बगुलों  का आहार तो,कीट- पतंग  अनेक,

हल के पीछे मिल रहा,खाते बिना डकार।


सड़कें  डूबीं  बाढ़ में, गली - गली  में  शोर,

धान रोपने को चले,कृषक छोड़  घर-द्वार।


प्रकृति - सुंदरी  ने पहन, ली है साड़ी  सब्ज,

अंकुर   नव  उगने लगे,पड़ा हरा   गलहार।


गौरैया  निज नीड़ में, सिमटी-सिकुड़ी आज,

तरु-खोखल में कीर का,छिपा हुआ परिवार।


'शुभम'कलापी नाचते,छत पर खूब सँभाल,

कें-कें बतखें कर रहीं, सर के पास अपार।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०७.२०२१◆६.३०पतनम मार्तण्डस्य।

त्याग 🛕 [दोहा -गीतिका]

 

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✍️ शब्दकार©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आग त्याग की जो जला,होता स्वर्ण समान।

वही तपस्वी साधु भी,वह पावन  वरदान।।


त्याग  सहज  होता नहीं,करते नाटक  लोग,

गृह में स्थित गृहस्थ जो,गहने की  पहचान।


दान कौड़ियों का करे,लिखता मुहर हज़ार,

छप जाता अख़बार में,दिखलाता है  शान।


करता  चोरी ग़बन जो,त्याग न  पाए   मैल,

जो चमड़ी पर है लगा,भरा नाक मुँह कान।


त्यागी  बने विदेह- सा,करके महल   निवास,

या तो तू सिद्धार्थ बन,करे जगत   गुणगान।


नेता कहता  देश  की,संपति यदि मिल जाय,

सत्तर   पीढ़ी  चैन   से, खाएँ बैठ    पिसान।


'शुभम'त्याग मोदक नहीं,जो निगले हर एक,

आया था हरि भजन को,ताना काम-वितान।


🪴 शुभमस्तु।


२३.०७.२०२१◆१२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

रिमझिम बरसे मेघ सावनी 🌳 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रिमझिम  बरसे   मेघ सावनी,

अंबर  -  पट      में   छाए  हैं।

प्यास  बुझी  धरती  की सारी,

सबके    मन     हर्षाए     हैं।।


बड़ी  प्रतीक्षा  थी  सावन की,

कब   तक  घन     तरसायेंगे।

कब निदाघ के स्वेद -बिंदु नम,

वर्षा -  जल    बन    जाएँगे।।

वही स्वेद कण बादल बनकर,

वरुण   देव      बरसाए     हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ  सावनी,

अंबर  -  पट    में  छाए   हैं।।


घर,आँगन,गलियों,सड़कों पर

देखो      पानी   -  पानी    है।

राजा  है   वसंत  ऋतुओं का,

पावस    ही   ऋतुरानी    है।।

धानी पहन   शाटिका  धरती,

के  तृण - तृण     हरियाये  हैं।

रिमझिम   बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट     में   छाए   हैं।।


नदियाँ   अपने  यौवन  पर हैं,

सागर    से   मिलने     जातीं।

पिता हिमालय का घर छोड़ा,

इठलाती   हैं    बल   खातीं।।

खेत,बाग, वन   हरे -भरे   हैं,

अर्क , जवास     लजाए   हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए   हैं।।


छत  से   पतनाले    बहते  हैं,

पानी  धड़ -  धड़   गिरता है।

नाले उमड़  रहे  सड़कों  पर,

नाली   का   उर   चिरता है।।

तालाबों में  नित   स्वर  गूँजें,

सारी    रात      जगाए    हैं।

रिमझिम  बरसे मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में   छाए  हैं।।


वीर     बहूटी      शर्माती   हैं,

रेंग    रहे       केंचुआ    बड़े।

दादुर  टर - टर  करते  सर में,

बुला    रहे     दादुरी     पड़े।।

चढ़ीं  गिजाई  घास - पुंज में,

निकल   सर्प   भी  आए हैं।।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए   हैं।।


आनत   पादप - पल्लव  सारे,

बेलें      झुक       शर्माती   हैं।

चिड़ियाँ छिपीं नीड़ डालों पर,

भीग - भीग   चिचियाती  हैं।।

मेहो -  मेहो     मोर     नाचते,

मौन   सभी   पिक   पाए  हैं।

रिमझिम  बरसे   मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए   हैं।।


धान  रोपने  कृषक  चल दिए,

सँग  में    पत्नी   भी   जातीं।

बार - बार  झुक  पौध  रोपतीं,

श्रम से  तनिक  न  घबरातीं।।

छोटे  -   छोटे    बच्चे   प्यारे,

दंपति   के   सँग   आए    हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में    छाए  हैं।।


वधू   नवोढ़ा     पीहर   में  है,

याद   पिया   की   आती   है।

कुचचोली कस-कस जाती तो

मन  ही   मन    शर्माती   है।।

बैरी   सावन  के  झड़  लगते,

तन   में    आग   लगाए   हैं।

रिमझिम  बरसे मेघ सावनी,

अंबर -  पट    में   छाए  हैं।।


कामदेव  कामिनि  बाला  को,

निशि- दिन  खूब   सताता है।

चैन नहीं  दिन में  है   मिलता,

निशि -  निद्रा  ले   जाता है।।

परिजन समझ  न पाएँ पीड़ा,

मन्मथ  निज  मुख  बाए  हैं।

रिमझिम   बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में   छाए   हैं।।


झींगुर की झनकार श्रवण कर

मन   में  डर -  सा   लगता है।

जुगनू   चमक   रहे  रजनी में,

चाँद  न   नभ  में दिखता है।।

तारे  घन -  चादर   को  ओढ़े,

बैठे    छिप     शर्माए       हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में    छाए   हैं।।


तीजें    हरियाली    रक्षा  के,

बंधन  का   है    पर्व   सखी।

चल  झूला   झूलें  बगिया में,

आ जा     मेरी     चंद्रमुखी।।

साजन   दूर    बढ़ाएँ    कैसे,

पींगें    'शुभम'   न   आए हैं।

रिमझिम  बरसे  मेघ सावनी,

अंबर -  पट   में    छाए   हैं।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०७.२०२१◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

स्मिति - चमत्कार 💃🏻 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सलज स्मिति का 

सजल गुलाल,

नयन के द्वार 

जा धँसा 

उर के कोने - कोने में

जा बसा,

बढ़ती ही गई 

अतृप्त तृषा,

दोंगरे  की 

आषाढ़ वर्षा ।


बही

बहती गई,

तन -मन में

धारा प्रवाह,

विचित्र -सी 

चाहत चाह 

यही था 

स्मिति का चमत्कार।


हँसी कलियाँ

करतीं अलि संग

रँगरलियाँ,

नहीं मुस्कराने में

रहे समर्थ,

न जिनको 

स्मिति का कुछ अर्थ

श्वान,बिल्ली,गदहा या

अश्व ,

विशाल कुंजर

गीदड़ ,शशक लघु,

मनुज के लिए

लिए नव अर्थ

स्मिति का

अपना अति स्वार्थ

नहीं जाता है व्यर्थ।


न कोई शब्द,

नहीं ध्वनि की लहर,

अंगों में हृतकम्प

उसी क्षण प्रहर,

ज्यों बोलती 

ग़ज़ल की बहर,

जाती किस 

कोने ठहर!


इधर स्मिति की रेख,

उधर नयनों में 

स्पंदन अदेख,

झुक गईं उठीं 

युगल पलकें,

ज्यों संध्या को

पश्चिम  नभ में

मेघा ढलते,

लहराती घुँघराली

ललाट पर

कामिनि की अलकें,

उर के भीतर त्यों

स्पंदन की 

विद्युत चमके।


संदेश बिना ही तार,

तीव्र रफ़्तार,

करती तन -मन में

विचित्र चमत्कार ,

'शुभम' प्रस्रवित हुए

नव नेह हार्मोन,

न अंतर्जाल

नहीं कोई  भी फोन,

स्मिति से अंततः 

बच पाया है कौन!


🪴 शुभमस्तु !


२२.०७.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।

मुस्कान 💋 [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार©

💋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                           -1-

मुस्कान आदमी  के  अधरों में    खेलती  है,

तव दिल का हाल क्या है बाहर धकेलती है,

गदहे   न   मुस्कराते चिड़ियाँ न  श्वान , गायें,

मुस्कान  ग़म का कचरा ठोकर से ठेलती है।


                             -2-

मुस्कान  तव  अधर की आँखों  में आ  गई,

सावन में  नील   घन में चपला ज्यों  भा गई,

आँखों में झाँकीं  आँखें  झुकती गईं  पलक,

होते   ही   अरुण गाल दो रूमानी  छा  गई।


                             -3-

मुस्कान     का     इंसान    से सम्बंध    है,

खिलती  हृदय - कलिका अजब अनुबंध है,

युगल  अधरों   की  सजल भाषा    मुखर,

हो   नहीं   पाती,   जलज   सद   गंध   है।


                             -4-

मुस्कान    से    ही    हम   तुम्हारे हो   गए,

एक    पल    में   ही  अपनपा  खो     गए,

विकट    जादू  -  सा    हुआ कैसे      कहें,

बीज    अँखुआए     उरों    में   बो       गए।


                            -5-

मुस्कान   में  भी   राज छिप जाते     बड़े,

खल    नहीं   पहचान    में  आते    कड़े,

नेह     की    मुस्कान   को पढ़ना    सरल,

आँखें    लेतीं    चीन्हें    जब आंखें  लड़े।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०७.२०२३◆४.०० पतनम मार्तण्डस्य।


टुकड़ा - पर्व' मनाता है ☘️ [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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टुकड़ों  का  भूखा   ये  दानव,

'टुकड़ा -पर्व '    मनाता     है।

टुकड़े   हुए   देश - दर्पण  के,

मन  ही    मन    हर्षाता   है।।


कहता  है  स्वाधीन   हुए हम,

देश   एक    से    तीन    बने।

मज़हब  को आधार   बनाया,

अहंकार    के     तीर    तने।।

खिचड़ी फिर भी बनी हमारी,

चावल  - दाल   न   भाता  है।

टुकड़ों का   भूखा   ये दानव,

'टुकड़ा - पर्व'     मनाता   है।।


बीच   दिलों   के   हैं   दीवारें ,

गहरी    रक्तिम    खाई      है।

झूठी    मीठी    बातें   कहता,

'हम   सब    भाई -  भाई हैं।।'

मुख परअमन बग़ल में छुरियाँ

मिथ्या   बोल    लुभाता    है।

टुकड़ों  का   भूखा   ये दानव,

'टुकड़ा - पर्व'    मनाता    है।।


सिसक  रही   भोली मानवता, 

छ्द्म,  द्वेष ,   पाखंड     भरा।

बँटा   तिरंगा    तीन   रंग  में,

केसरिया,  सित  और  हरा।।

बीज बैर   के   बोए   जिसने,

पहले     ऊपर     जाता    है।

टुकड़ों  का  भूखा  ये  दानव,

'टुकड़ा -   पर्व'    मनाता है।।


सत्यानाशी    के   झाड़ों   में ,

आम    नहीं     फलने   वाले।

नींव जमी   बालू पर जिनकी,

भवन   नहीं    टिकने  वाले।।

युग-युगको विष-बीज बो दिए

नर,  नर  को  ही   खाता   है।

टुकड़ों   का   भूखा ये दानव,

'टुकड़ा -  पर्व'    मनाता   है।।


अलग-अलग चूल्हों पर देखो,

धुआँ   अलग   ही  उठता  है।

अपना  भाग   स्वयं ले भागा,

करता  अब  भी   शठता है।।

नैतिकता मर  चुकी  हिए की,

निशि - दिन  शीश  उठाता है।

टुकड़ों का   भूखा   ये दानव,

' टुकड़ा-पर्व '   मनाता    है।।


आस्तीन  के   साँप पाल कर,

धोखा   हमने      खाया    है।

गाली   का   जवाब  गोली से,

अभी  नहीं    मिल  पाया है।।

लिए  कटोरा   भीख  माँगता,

फ़िर  भी   आँख  दिखाता है।

टुकड़ों  का  भूखा   ये दानव,

'टुकड़ा - पर्व'    मनाता   है।।


आओ  भारतवासी  मिलकर,

पाठ   एकता   का   पढ़   लें।

सबल संगठन के गढ़ बसकर,

तन-मन की  गरिमा  गढ़ लें।।

शत्रु न 'शुभम' मिलाए आँखें,

देख   इधर   ललचाता     है।

टुकड़ों का भूखा   ये  दानव,

'टुकड़ा - पर्व'   मनाता   है।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०७.२०२१◆१०.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 21 जुलाई 2021

भारत माता -वंदन🌾 🇮🇳 [ गीत ] 🇮🇳


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हे भारत  माता !  तुम्हें नमन।

शत बार   तुम्हें वंदन- वंदन।।


माटी का हर कण-कण चंदन

है इसी  धरा  पर   वन नंदन।।

सब   भारतवासी रहें   प्रमन।

करने न पड़ें उर -भाव दमन।।

तुम ही मेरे  जीवन  का  धन ।

हे  भारत माता! तुम्हें  नमन।।


सर्वोच्च हिमालय सरि गंगा।

कोई न   रहे  संतति   नंगा।।

भूखा  न  यहाँ   कोई  सोए।

दुःख से न नयन  कोई धोए।।

सबका हो  माते!निर्मल मन।

हे भारत माता ! तुम्हें नमन।।


सु-समय  बरसे  भू पर पानी।

गोधूम, चना ,यव  हों  धानी।।

दें   शुद्ध   दुग्ध   भैंसें    गायें।

सश्रम  आहार   सभी  पायें।।

मम देश समर्पित हों तन मन।

हे भारत माता!  तुम्हें  नमन।।


 षट  ऋतुएँ  आती - जाती हैं।

कर परिवर्तन  सुख लाती हैं।।

कंचन-से  अपने सुबह-शाम।

जागते कार्य  करते   विराम।।

बहती है शीतल सुखद पवन।

हे भारत माता ! तुम्हें नमन।।


फ़ल, अन्न,शाक,सब बोता है।

फ़िर भी अभाव  में  रोता है।।

देता   सुमनों की  सद  सुगंध।

फिर भी किसान पर लगे बंध!

आजीवन  होवे   दुःख-शमन।

हे भारत माता !  तुम्हें नमन।।


विज्ञान ,कला, साहित्य   बढ़े।

इतिहास नया हर व्यक्ति गढ़े।

प्रतिभा का नहीं पलायन हो।

भारत  माता  का  गायन हो।।

सुंदर स्वदेश सत चारु चमन।

हे भारत  माता!  तुम्हें नमन।।


मानव   में   उपजे   मानवता।

मिट जाय उरों  से  दानवता।।

ढह  जाएँ वर्ण   की   दीवारें।

सब  मनुज -प्रेम को ही धारें।।

हो'शुभम'देश का हर कन कन।

हे  भारत माता ! तुम्हें नमन।।


  🪴शुभमस्तु ! 


२१.०७.२०२१◆१२.३०पतनम मार्तण्डस्य।

रिमझिम बरसे मेघ ⛈️ [ अतुकान्तिका]

 

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✍️ शब्दकार ©

⛈️  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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घनघोर  घटाएँ

नभ में  छाईं

चलती पुरवाई

अति मनभाई

हुई तपन की

सहज विदाई।


प्यास धरा की

शांत हो रही,

झर - झर झरतीं

बूँदें ,

नभ से भूपर,

भीग रहे वन ,बाग, खेत

रेत के शुष्क मरुस्थल,

जिधर जा रही दृष्टि

दिखाई देती बस जलवृष्टि,

तृप्त होती है सृष्टि।


बहती पवन 

कर रही ज्यों जल आचमन,

बाहर से भीतर तक

भीगे तन - मन,

तोता ,मोर ,पपीहा

कोयल ,गौरैया,

पंक्षी गण 

सबके हर्षित कन -कन।


गाय रँभाती,

मिमियाती बकरी,

 भरी नीर से

 गलियाँ सँकरी,

घर - आँगन में 

चले पनारे,

नदिया नाले

यौवन में मदमस्त 

मटमैले

नहीं जा सके सँभाले।


 बगुले उड़ते

नभ में ज्यों 

दूधिया पंक्तिबद्ध ,

खा रहे केंचुए,

उछल रहे हैं

दादुर करते हैं टर - टर,

झींगुर की झनकार

बनाती तम को गहनतर।


वीर बहूटी निकल पड़ीं

बाहर मेड़ों पर,

छूते ही सिमटी सिकुड़ी

नई वधू सी,

गगनधूर उग आईं

कच्ची छत के ऊपर,

घूरे पर ,

पड़े जहाँ थे ढेर

वहीं कूड़े पर ।


छाई हरियाली,

महक उठी है डाली -डाली

झुकी सलिल भार से 

अद्भुत लगी निराली,

पके आम जामुन 

खट्टे मीठे,

'शुभम' साधना रत 

ज्यों सब मेघ ,

गा रहीं मल्हारें 

पड़  रहीं फुहारें

नर -नारी बालक

 सब मस्त,

ऋतुओं की रानी

आई है ,

सब करें स्वागत

अभिनन्दन ,

 हों व्यस्त

कृषक  नर -नारी,

गिरती नभ से रिमझिम

जल की धारी।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०७.२०२१ ◆ ८.३०पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

साहित्य और समाज 📙 [ लेख ]


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 ✍️ लेखक ©

 📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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            साहित्य और समाज का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है।   जहाँ समाज है , वहाँ उसका साहित्य भी है। प्राचीन मनीषियों ने 'सहितस्य भाव:इति साहित्यम'  कहकर साहित्य को परिभाषित किया है।वस्तुतः साहित्य समाज को माँजता है। समाज की समस्त अच्छी - बुरी गतिविधियों को एक दर्पण की तरह प्रस्तुत करना ही साहित्य का कार्य है। 

              इतिहास यदि मुर्दों का साहित्य है ,तो साहित्य जीवितों का इतिहास है।वर्तमान को वाणी प्रदान करने के साथ भविष्य को दिशा देने का काम साहित्य के माध्यम से किया जाता रहा है और आज भी किया जा रहा है। यह एक कभी भी समाप्त नहीं होने वाली ऐसी धारा है , जो निरंतर समाज रूपी सागर में मिलती है और पुनः पावस के पवित्र मेघ बन कर उसी पर बरस जाती है।समाज के खारेपन को निरंतर निर्मल बनाती रहती है। 

             वाल्मीकि से लेकर अद्यतन बहती आ रही यह साहित्य धारा कभी भी सूखने वाली नहीं है। साहित्य विभिन्न विधाओं के माध्यम से हमारे समक्ष उपस्थित होकर मानव मात्र का कल्याण करता है।समाज ,व्यक्ति और देश ही नहीं मानव मात्र का हित करना साहित्य का लक्ष्य है।

             प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह समकालीन और विगत साहित्य का अनुशीलन करे। 'साहित्य संगीत कला विहीन: साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः'के अनुसार उस व्यक्ति को मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं है ,जिसे अपने साहित्य से लगाव न हो। 

       साहित्य सृजन में भवों की प्रधानता होती है। भाव मानव से सम्बंध रखने वाली अमर अमूर्त साधना है। भाव और बुद्धि का समन्वय साहित्य में देखा जाता है। जो साहित्य जितना भाव प्रधान होता है ,वह उतना ही हमें और हमारे समाज के हृदय को स्पर्श करता है। केवल बौद्धिक विश्लेषण बुद्धि को कुरेदता भर है।स्पर्श नहीं कर पाता। यही कारण है कि सूर,कबीर ,तुलसी , बिहारी ,दिनकर, भूषण , कालिदास ,भवभूति आदि का साहित्य आज भी उतना ही जीवंत और अमर है ,जितना उनके समय में रहा होगा। ज्यों -ज्यों बुद्धिवाद बढ़ता गया ,समाज के सापेक्ष साहित्य भी नीरस औऱ उबाऊ बनता गया।अख़बार की तरह एक बार पढ़ने के बाद पुनः पढ़ने की इच्छा ही नहीं होती । 

             साहित्यकारों का यह दायित्व है कि वे ऐसे साहित्य का सृजन करें, जो मानव मात्र का हितैषी और प्रेरक हो। धर्म ,अर्थ ,काम और मोक्ष की ओर ले जाने वाला और सर्वांगीण विकास में सहायक हो। साहित्य के लिए साहित्य लेखन उचित नहीं है। जो साहित्य समाज का विकास न कर सके ,उसका औचित्य ही क्या है? साहित्यकारों को अपनी विद्वत्ता प्रदर्शन करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए। इसलिए उसे मानव मात्र के लिए सहज ,सुबोध औऱ सरस भाषा शैली में लिखा जाना चाहिए।यदि उसे पढ़ते समय शब्दकोष ही खोलना पड़ा, तो रस भंग होना ही है। इसलिए कोरी नट कला दिखाना उचित नहीं है। साहित्य के मूल में यही भाव निहित होना चाहिए: 

 'सर्वे   भवन्तु     सुखिनः    सर्वे     संतु    निरामयाः, 

 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक भवेत।

' 🪴 शुभमस्तु! 

 २०.०७.२०२१◆६.०० पतनम मार्तण्डस्य।

भीगी - भीगी सुबह 🌦️ [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌦️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भीगी - भीगी   सुबह    हो  गई।

मेघों की  यह  विजय पय मई।।


देखो    काले     बादल   आए।

खेत, बाग,  वन  में  वे   छाए।।

तपन  भानु  की  कहीं  खो गई।

भीगी - भीगी   सुबह   हो गई।।


बादल   गरजे      भूरे   - काले।

लगे    उमड़ने     बड़े   निराले।।

बिजली   चमकी   लुएँ  लो गई।

भीगी -  भीगी   सुबह   हो गई।।


घर,आँगन  बरसा  अति पानी।

 बाहर  मत  जा   कहती रानी।।

छत - गलियों  की  धूल  धो गई।

भीगी -  भीगी   सुबह  हो गई।।


चलते  छत  के    सभी  पनाले।

नग्न    नहाते   हम   मतवाले।।

कीचड़    बहकर    दूर   हो गई।

भीगी  - भीगी    सुबह   हो गई।।


चिड़ियाँ   छिप  बैठीं झाड़ों में।

बकरी , भेड़ें    हैं      बाड़ों   में।।

गौरैया    निज   नीड़   रो  गई।

भीगी - भीगी   सुबह   हो गई।।


सभी  किसान मगन हैं मन में।

शशक हिरन छिपते घन वन में।।

'शुभम'भानु की किरण सो गई।

भीगी - भीगी   सुबह   हो  गई।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०७.२०२१◆९.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

बूँद कहते हैं मुझे 💧 [ बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार◆

💦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बूँद    कहते     हैं   मुझे   सब  मोद   से।

मैं    निकलती    बादलों   की गोद   से।।


बादलों  ने     ही     मुझे    पाला   सदा।

मैं     किसानों     की    बढ़ाती   संपदा।।


बरसती     बरसात     में   हर  खेत   में।

बाग,   वन,  सरिता,   सरोवर, रेत   में।।


प्यास    धरती    की    बुझाती  बूँद   मैं।

आस    मानव     की    बढ़ाती खूब    मैं।।


चैन  मिलता    मोर,   पपीहा, कीर    को।

पेड़   -  पौधे       हर्षते     पा  नीर   को।।


नाच  उठता    कृषक  लख नभ   मेघमय।

मुदित    हो नर  - नारि   तजते  क्रोध भय।।


गरजते     हैं      मेघ    तब   डरते    सभी।

जा   घरों    में    दुबकते      हैं   वे    तभी।।


मैं   छतों ,    गलियों,   सड़क सबको भरूँ।

छत - पनालों  से   पतित   हो स्वर   करूँ।।


नग्न     होकर    नाचते    तुम  सब  फिरो।

फिसल  कर  भू पर कभी तुम भी    गिरो।।


निकल     पड़ते     हैं    गिजाई,   केंचुआ।

विर -  बधूटी    सिमटती   यदि  जो छुआ।


'शुभम'    पावस    का   सजल शृंगार  हूँ।

बूँद   मैं   सद   सिंधु,    सरिता   धार  हूँ।।


 🪴शुभमस्तु !


२०.०७.२०२१◆८.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 19 जुलाई 2021

गंगा [ छंद :भुजंगप्रयात ]


मापनी:122 122 122 122

चार चरण।

दो -दो चरण समतुकांत।

कुल 12 वर्ण।

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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

चलें    आज    गंगा   नदी में नहाएँ।

उरों  में   समाए   अघों  को नसाएँ।।

किसी  का बुरा  भी  नहीं जो करेंगे।

धरा - धाम  से   वे  सुकूँ   से तरेंगे।।


                       -2-

सदा   पावनी     है   सुधा  वाहिनी  है।

हमारी   सु - गंगा   सदा  दाहिनी   है।।

बिना   काम   के  क्या  मिलेगा यहाँ से।

बिना   बीज   बोए  न  पौधा धरा   पे।।


                        -3-

हजारों   युगों   से   बही  जा  रही   है।

सभी  पापियों  से  दबी   जा रही   है।।

खगों ,मानवों   और    जीवों, द्रुमों   से।

धरा   को   रिझाती    सु-गंगा जलों से।।


                         -4-

त्रिवेणी     कहाती    मिली  तीन  धारें।

सभी   तीर्थ  का   राज  होता यहाँ  रे।।

जगी  ज्योति   पापों  कुशापों   नसाती।

धरा -  धाम   में  धीरता  को    बसाती।।


                      -5-

हरी     है     भरी    है   धरा  ये     हमारी।

त्रिधारा    बही    है    युगों   से    तुम्हारी।।

मिटाते   अघों    को  शिवा -शंभु    प्यारे।

'शुभं'  तू  कभी  हो   न   भोला   निनारे।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०७.२०२१◆२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 17 जुलाई 2021

आए निकट चुनाव 🎷 [कुंडलिया]

 

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✍️ शब्दकार©

👑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                          -1-

अपना दल बदलें चलो,आए निकट चुनाव।

जनता जिसके  साथ हो,वही हमारी  नाव।।

वही  हमारी  नाव,विधायक हमको   बनना।

जातिवाद का खेल, कनक चाँदी में सनना।।

'शुभम'लक्ष्य है एक, सदा सत्ता का सपना।

हम हों माला माल, जिताऊ दल ही अपना।।


                          -2-

अपने हित सब जी रहे,परहित की क्या बात

देशभक्त  कहते सभी, भले करें  हम  घात।।

भले  करें  हम घात, तिजोरी करनी   भारी।

अपनों का हित साध,करें चोरी  या  जारी।।

'शुभम' सदा परिवार,सुखी हो पूरे    सपने।

मिले मुफ़्त की क्रीम,भरें कंबल में  अपने।।

   

                            -3-

अपना  तो  कहना यही,शिक्षा सब  बेकार।

बाहुबली  बनना  सही,खुलें भाग्य के द्वार।।

खुलें  भाग्य  के द्वार, हमें बनना  है  नेता।

दुनिया  करे  जुझार,  सदा लेता  ही  लेता।।

'शुभम' फेरना सीख,माल सत्ता की जपना।

आश्वासन  दे झूठ,बना ले सबको  अपना।।


                          -4-

अपना नाल न ही गढ़ा, किसी एक दल बीच

पाला  बदलें  देखकर,भले भरी हो  कीच।।

भले  भरी  हो कीच,परमहंसों - सा जीना।

उचित नअनुचित मान,भले विष ही हो पीना

'शुभं'यही सौभाग्य,यही निशि दिन का तपना

आए निकट चुनाव,बदल दल झटपट अपना


                           -5-

अपना  जीवन देशहित,करना हमें    निसार।

कर्म  अकर्म  न देखना, पीनी है   पयधार।।

पीनी   है पयधार, गधी, ऊंटनी  या  घोड़ी।

समझें  एक  समान,मिले ज़्यादा या थोड़ी।।

'शुभम'चलाना देश,हमें निज हित ही खपना।

नेता का यह काम,देश-धन समझें  अपना।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०७.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।

काका काकी : कोरोना संवाद🗣️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

काका  काकी   से कहें,कोरोना   का काल।

मुखचोली मुख पर लगा,अपनी देह सँभाल।

अपनी देह सँभाल, लहर पर लहर आ रही।

त्राहि-त्राहि का शोर,तीसरी गज़ब  ला रही।।

'शुभम' कहे विज्ञान,बचाएँ तन का    नाका।

काकी की  मुस्कान,देख हँसते  हैं   काका।।


                          -2-

काका जी की सीख को,सुनकर अपने कान।

काकी ने  सोचा  यही, दूँगी मैं  अब ध्यान।।

दूँगी  मैं  अब  ध्यान,लगा लूँगी   मुखचोली।

साबुन  से  धो हाथ,बात उनकी  अनमोली।।

'शुभम'  रहूँगी  दूर,बनाकर दो गज   नाका।

हित की  करते  बात,हमारे साजन  काका।।


                             -3-

काका   कहते  भीड़  से,रहना काकी    दूर।

लापरवाही    जो    करे,  होगा  चकनाचूर ।।

होगा  चकनाचूर ,  जान   के पड़ते   लाले।

गँवई  सोच  न नीक,घुसें जब यम के भाले।।

'शुभम'न बनना मूढ़,पड़े जब तन पर डाका।

बचे  न  तन में प्राण,सही कहते  हैं  काका।।


                            -4-

काका काकी  का हुआ ,आपस में  संवाद।

काकी बोली 'आपसे, करती हूँ   फ़रियाद।।

करती हूँ फ़रियाद, सभी को यह समझाओ।

रखना पूर्ण बचाव,तभी निज प्राण बचाओ।

पीना  सलिल   उबाल,बना दें ऐसा    नाका।

'शुभम' नआए रोग, निवेदन तुमसे काका।।'


                            -5-

काका जी  कहने लगे,गँवई, मूढ़ , किसान।

बात  नहीं मानें  कभी,अहंकार  में   जान।।

अहंकार में  जान,बहे दिन - रात   पसीना।

हमें न  होगा   रोग, हमें  आता है    जीना।।

'शुभम'न कवि की बात,मानते पड़ता डाका।

चिल्लाते  तब हाय,  बचा लो मेरे  काका।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०७.२०२१◆१०.१५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...