मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

मन मोर भयौ मथुरा बिंदरावन🎊 [ कुन्दलता सवैया ]

 95/2023


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✍️ शब्दकार ©

💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

रँग लाल गुलाल उड़े ब्रज में,

             डफ ढोल धमाधम बाजत वादन।

चुनरी पट ओढ़ि चली तरुणी,

            चलती पिचकारिहु धार सनासन।।

पथ कान्ह मिले गहि बाँह लई,

                लिपटाय लई तर अंग मनावन।

चलि कुंजनु खेल करें रस के,

             मन मोर भयौ मथुरा बिंदरावन।।


                        -2-

रस चूसि करै खिलवाड़ अली,

        कलिकावलि नाचाति झूमि रिझावति।

तितली उत रंग - बिरंग भई,

             रस केलि करै रँग ही बरसावति।।

मधु चाटि पराग  लिए  उड़ती,

           मधुमाखिहु फूलनु से रस लावति।

सरसों अलसी सिहराइ रहीं,

          नचि  मौनहि वादन गीत सुनावति।।


                        -3-

कसि तंग भई मम चोलि सखी,

         ऋतुराज सताइ रहौ भरि फागन।

पिय भूलि गयौ कहुँ पंथ दई,

            हिय चैन नहीं बरसें दृग सावन।।

अलि फूल निहारि उठै हिय में,

        अति पीर न औषधि टीस नसावन।

पिक कूकि रही तरसाइ मुई,

            वन फूलि पलास करै हिय दाहन।।


                        -4-

सब आम रहे इतराइ सखी,

         झुकि बौरत-बौरत कूकि रिझावत।

पतझार भयौ   तरु  पीपर पै,

            कचनार कली विहँसें  शरमावत।।

अपने - अपने  बदले  कपड़े,

           दल लाल गुलाल भए  तरु गावत।

तरुणी मटकाइ चले पथ पै,

          करि नैन सँकेतनु पास बुलावत।।


                        -5-

नित काम विदेह अधीर करै,

            नव ओप भरें तरुणी तन फागन।

नत सीस भयौ पुरुषारथ है,  

          रँग रूप नयौ  नर को दृग दामन।।

बतराइ  रहे   अनबोलत  वे ,

              मधु चाह बढ़ी रस रंग  दृढ़ावन।

लिपटाय सप्रेम लता चिपकी,

             निज अंक गहें तरु मौन रसालन।।


🪴 शुभमस्तु !


28.02.2023◆7.00पतनम मार्तण्डस्य।

श्रमिका 🎋 [अतुकान्तिका ]

 94/2023


  श्रमिका  🎋

          [अतुकान्तिका ]

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✍️शब्दकार ©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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स्वेद - श्रम से सिक्त,

तरुणी 

सब सुखों से रिक्त,

मुख पर हर्ष की

हर रेख,

उसकी भंगिमा तो देख,

ढोती शीश पर 

वह भार,

ग्रह- दायित्व से लाचार,

विविध प्रकार।


पास में ही

कहीं है ईंट का भट्टा,

वहाँ होंगे लगे

चिने ऊँचे बड़े चट्टा,

उठाती ईंट,

 धूल - धूसर देह,

कहीं होगा 

पति संतति गेह,

खा रही लाल भूरी खेह,

नहीं संदेह।


साँवले मेघ दल के बीच

चमकती ज्यों दामिनी -सी,

दूध - सी धवल 

दंत - पंक्ति,

कानों में लटके हुए

कुंडल समुज्ज्वल,

फटी मैली शाटिका

परिधान,

नहीं लगती कहीं

मन से परेशान।


सिर पर रखे 

पटला 

काष्ठ का

नीचे एँडुरी मोटी,

नहीं छोटी,

ढोती ईंट 

वह श्रमिका,

खड़ी मुस्कराती

न हो जैसे

उसे  तृण मात्र चिंता,

मानो कह रही,

' ईंट ढोकर

पालती परिवार,

 नहीं इससे मुझे इंकार,

पेट की खातिर

बहाना स्वेद 

कोई चोरी तो नही!'


🪴 शुभमस्तु !


28.02.2023◆6.00 आ.मा.

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

ज्ञानी 🧎🏻‍♂️ [ चौपाई ]

 93/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ज्ञान - रूप  है  सूर्य   निराला।

हरता नित जग का तम काला।

एकमात्र   ईश्वर    ही   ज्ञानी।

मानव ने   अपनी  ही  तानी।।


ज्ञानी  नहीं  ज्ञान  दिखलाता।

उसका मौन ज्योति बन आता।।

अहंकार  का   तमस नहीं है।

समझें   ज्ञानी   वही सही है।।


रामायण   बहु  वेद   पुराना।

लिखे ग्रंथ ज्ञानी  जन नाना।।

जो जितना नर  ऐंचकताना।

चाहे तमवत  जग में छाना।।


मिथ्या  भाषण  अति वाचाली।

जीभ सदा उसकी ही काली।।

रखता   सदा   ज्ञान   से दूरी।

मुँह में  राम बगल में   छूरी।।


निकट नहीं   ज्ञानी  के जाता।

मूढ़ पुरुष जन को भरमाता।।

ज्यों उलूक दिन में नित सोता।

बीज आलसीपन के बोता।।


ज्ञानी में   बहु  दोष  निकाले।

सत्ता तब   ही मूढ़   सँभाले।।

उजला ज्ञान अँधेरा   काला।

फैलाए    अज्ञानी     जाला।।


ज्ञानी जन को जो   अपनाए।

प्रभु - वाणी  में रम- रम  जाए।।

'शुभम्' गीत ज्ञानी   के  गाएँ।

भागें     अज्ञानी     शरमाएँ।।


🪴 शुभमस्तु !


27.02.2023◆1.30प.मा.

सदा नमन उस प्रेम को 💞 [ दोहा ]

 92/2023


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✍️ शब्दकार ©

💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बीज उगा जब प्रेम का,नर- नारी  के अंक।

तन-मन से वे एक हो,मिलते युगल निशंक।

जड़-  चेतन संसार में,  एक प्रेम  ही   सार।

आकर्षण ऐसा  भरा,  निर्मित विविधाकार।


उड़े  परागण    प्रेम के,नारी- केसर    पास।

भर बाँहों  में  ले लिया,देता मधुर   सुवास।

चुम्बक उर के प्रेम की,खींच रही निज ओर।

उषा-भानु के साथ से,शोभित सुरभित भोर।


प्रेम गया  विश्वास भी,गया उसी  के   साथ।

भंग सभी रिश्ते वहीं, क्या सेवक क्या नाथ?

सृष्टि - शृंखला की कड़ी,बनती जब हो प्रेम।

शांति सुमति समृद्ध हो,नित निवास गृहक्षेम।


प्रेम - हवस के भेद को,युवा न जानें आज।

जाते  भटक कुराह में,गिरे एक दिन  गाज।

प्रेम  नहीं  अंधा  कभी,जो कहते  वह भूल।

नहीं हवस के चक्षु हों,चलता वह प्रतिकूल।।


प्रेम नहीं साकार ये,विमल हृदय  का  तत्त्व।

आँखों से दिखता नहीं,बिना तमस का सत्त्व।

हम तुम प्राणी जीव सब,अंडज पिंडज ढोर।

उद्भिज उगते प्रेम से,निशि दिन संध्या भोर।


प्रेम नाम है सत्य का,वही जगत  का  ईश।

सदा लीन उस प्रेम में,'शुभम्'विनत है शीश।


🪴 शुभमस्तु !


27.02.2023◆1.00प.मा.

आस्तिक का संज्ञान🪦 [ कुण्डलिया ]

 91/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

आशा ही तो ईश है, आस्तिक का    संज्ञान।

अस्ति शब्द में हैं बसे,आस्तिकता  के  प्रान।

आस्तिकता के प्रान,अटल विश्वास न  जाए।

कण-कण उसकी सृष्टि,वही भगवान कहाए।

'शुभम्'जीवनी-शक्ति, मिटाती सदा निराशा।

त्याग क्षुद्र हंकार,अमर रख अपनी आशा।।


                          -2-

कर्ता     ने   जैसा   रचा, वैसा  ही   संसार।

जो  कृतज्ञ  उस  ईश का,स्वीकारे  उपकार।

स्वीकारे  उपकार, उसे आस्तिक  नर  जानें।

नास्तिक  टूटा  तार,नहीं सच को  सच मानें।

'शुभम्' सत्य  प्राकट्य, विश्व - सृष्टा   संहर्ता।

कण-कण में प्रभुवास,सृष्टि रचना का कर्ता।


                         -3-

माना  जिसने  ईश को,विविध रूप  आकार।

वही आस्तिक  तत्त्व है,संकल्पित सुविचार।

संकल्पित   सुविचार,  बना देवों  के आलय।

करके दृढ़   विश्वास,पूजता उनको   निर्भय।

'शुभम्' अहं में लीन, नहीं निज को पहचाना।

मात्र   कूपमंडूक,  अबल सृष्टा   को   माना।


                         -4-

रहता कण-कण में वही,एक मात्र भगवान।

तपते खंभे में बसा,लघु पिपीलिका  जान।

लघु पिपीलिका जान,कीट, पशु,खग, नर,नारी।

लता विटप में वास,खिले फूलों की क्यारी।

आस्तिक शुभं स्वरूप,भार गिरि भू का सहता।

सबका सबलाधार,परम अणु में वह रहता।


                          -5-

पाहन में   भी देव हैं, यही अस्ति   का ज्ञान।

नयन मूँद रवि क्यों छिपे,उर में कर संधान।

उर में  कर  संधान,चराचर ही   तब   जागे।

आस्तिक की पहचान,तमस अंतर का भागे।

'शुभम्' जनक है सत्य,जननि तेरी संवाहन।

क्या वे  दोनों  झूठ,हृदय क्या तेरा   पाहन?


🪴शुभमस्तु !


27.02.2023◆11.30 आरोहणम् मर्तण्डस्य।

ऋतुओं के राजा आएंगे 🌾 [ गीतिका ]

 90/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मारेंगे  भर-भर    रँग -  धारी।

हाथों  में  लेकर   पिचकारी।।


फागुन   में  होली का  डंका,

खेलें सब बालक, नर , नारी।


ऋतुओं   के   राजा    आएंगे,

खिलने लगीं फूल की  क्यारी।


पीले  पत्ते       पेड़     गिराते,

पतझड़  होता है  नित  जारी।


रँग- गुलाल  से  हम   खेलेंगे,

नाचें -  कूदें      दे - दे   तारी।


एक म्यान में सहज रहें कब,

सास बहू की  दो -दो  आरी।


भाभी   कहती  देवर  आओ,

हम छोटे  तुम   भाभी  भारी।



🪴शुभमस्तु !


27.02.2023◆2.30आ.मा

फागुन का डंका 🧨 [ सजल ]

 89/2023

 

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●समांत:  आरी ।

●पदांत: अपदांत ।

●मात्राभार  :16.

●मात्रा पतन :शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🧨 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मारेंगे  भर-भर    रँग -  धारी।

हाथों  में  लेकर   पिचकारी।।


फागुन   में  होली का  डंका,

खेलें सब बालक, नर , नारी।


ऋतुओं   के   राजा    आएंगे,

खिलने लगीं फूल की  क्यारी।


पीले  पत्ते       पेड़     गिराते,

पतझड़  होता है  नित  जारी।


रँग- गुलाल  से  हम   खेलेंगे,

नाचें -  कूदें      दे - दे   तारी।


एक म्यान में सहज रहें कब,

सास बहू की  दो -दो  आरी।


भाभी   कहती  देवर  आओ,

हम छोटे  तुम   भाभी  भारी।



🪴शुभमस्तु !


27.02.2023◆2.30आ.मा.

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

हिंसक का हृदय- परिवर्तन 🪷 [ संस्मरण ]

 88/2023


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 ✍️ लेखक

 🪷भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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                       यह घटना अब से लगभग 38-39 वर्ष पहले की है।मैं हिंदी प्रवक्ता पद पर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बीसलपुर(पीलीभीत)से स्थानांतरित होकर जिला एटा के एक राजकीय महाविद्यालय में कार्यभार ग्रहण कर चुका था।कार्यभार ग्रहण किए हुए एक दो वर्ष हुए होंगे कि जिस मकान में किराए पर रह रहा था,उसी मकान के दूसरे कमरे में रह रहे एक किराएदार से मेरी पत्नी के साथ बच्चों की किसी बात पर कुछ विवाद हो गया। तो वह किराएदार रंजिश मानने लगा।मेरे मन में उसके प्रति कोई दुर्भाव भी नहीं था। बात आई गई हो गई। 

            जुलाई का महीना था।ग्रीष्मावकाश के बाद कालेज खुल चुके थे।छात्र -छात्राओं के प्रवेश चल रहे थे।एक बड़े से शिक्षण कक्ष में प्रवेश साक्षात्कार हो रहे थे। प्रवेशार्थियों और उनके अभिभावकों से घिरा हुआ मैं साक्षात्कार में व्यस्त था। 

           किसी अभिभावक या विद्यार्थी को मैं नहीं जानता पहचानता था। एक 25-30 वर्ष का लड़का कक्ष के द्वार पर खड़ा हुआ बहुत देर से देख रहा था। उसके काले रंग की एक -डेढ़ इंच की दाढ़ी थी। पता नहीं किस रंग की टीशर्ट औऱ जींस पहने हुए था।देखने में उसका रँग -  रूप किसी गुंडे जैसा ही था। मुझे नहीं पता था कि वह कौन है औऱ किस उद्देश्य से वहाँ आया हुआ है।जैसे अन्य अभिभावक आ जा रहे थे ,वैसा ही मुझे वह भी लगा। बहुत देर तक खड़ा रहने के बाद वह मेरे पास आया औऱ ये कहकर मुझे कक्ष के बाहर बरामदे में ले गया कि कुछ जरूरी बात करनी है। मैंने समझा किसी के प्रवेश की सिफारिश की बात होगी। मैं उसके साथ बड़े ही सामान्य ढंग से बाहर चला गया ।

             मुझे इस बात का अनुमान भी नहीं था ,कि उसकी मंशा क्या है? वह कहने लगा :'अमुक व्यक्ति ने ,जो आपके बराबर वाले कमरे में किराए पर रहता है; उसने मुझे आपको मारने के लिए भेजा है।' उसकी बात सुनकर मैं चौंका औऱ पूछा कि ऐसा क्यों?'मुझे पिछली किराएदार से विवाद की बात का कोई ध्यान भी नहीं था।वह आगे बोला:'मैं बहुत देर से आपको देख रहा था।आप तो बहुत अच्छे आदमी हैं। सबका सहयोग कर रहे हैं। सबका काम कर रहे हैं। अब मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगा। वही खराब इंसान है ,जिसने गलत काम के लिए मुझे आपके पास भेजा है।' 

            इसके बाद वह अपना परिचय देकर वापस चला गया। मुझे लगा कि मुझसे परिचय औऱ बातचीत से वह प्रभावित हुआ और उसका निर्णय बदल गया। उस हिंसक का हृदय परिवर्तन हो चुका था। वह आया तो था ;मेरी हिंसा करने , मुझसे मिलकर तथा मेरा आचरण और व्यवहार देखकर वह द्रवित हो चुका था। अब उसने मेरी हिंसा का विचार बदल लिया था और उलटे पाँव वापस हो गया था। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

  25.02.2023◆11.00प.मा.

 

शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

गरम रजाई 🌻 [बालगीत ]

 87/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चली   गई   अब  गरम रजाई।

एक वर्ष   को   हुई   विदाई।।


शरद ,शिशिर,  हेमंत नहीं  है।

नहीं शीत का काम कहीं  है।।

हलकी - हलकी   गर्मी  आई।

चली  गई अब गरम  रजाई।।


नहीं  आग  पर   कोई   तापे।

थर-थर कर कोई क्यों काँपे?

शेष नहीं  तन की   ठिठुराई।

चली  गई अब गरम  रजाई।।


देखो   फागुन   मास सुहाया।

जीव-जंतु सबके  मन भाया।।

सब कहते होली   अब आई।

चली गई   अब गरम  रजाई।।


पीपल, नीम   पुनः  हरियाये।

पहले   पीले   पात   गिराए।।

ठंडी   हवा   चली  पछुआई।

 चली  गई  अब गरम रजाई।।


लाल गुलाबी  महकी क्यारी।

नीली अलसी  पाटल  भारी।।

'शुभम्'  वसंती  सरसों छाई।

चली गई अब गरम   रजाई।।


🪴शुभमस्तु !


23.02.2023◆6.30 प.मा.

मारेंगे भरके पिचकारी 🧨 [ बालगीत ]

 86/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🧨 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मारेंगे    भरके     रँग -  धारी।

हाथों  में  लेकर   पिचकारी।।


फागुन   ने   है   पीटा  डंका।

होली आई  क्या  अब शंका।।

खेलें सब बालक, नर , नारी।

मारेंगे   भरके     रँग -धारी।।


ऋतुओं   के   राजा    आएंगे।

बेल , पेड़    सब     हर्शायेंगे।।

खिलने लगीं फूल की  क्यारी। 

मारेंगे     भरके     रँग-धारी।।


पीले  पत्ते       पेड़     गिराते।

उड़-उड़ कर धरती पर जाते।

पतझड़ होता है  नित  तारी।

मारेंगे     भरके    रँग- धारी।।


रँग- गुलाल  से  हम   खेलेंगे।

अम्मा   से   पैसे   ले    लेंगे।।

नाचें -  कूदें      दे - दे   तारी।

मारेंगे     भरके   रँग -धारी।।


भाभी   कहती  देवर  आओ।

खेलो रँग तुम क्यों शरमाओ।

हम छोटे  तुम   भाभी  भारी।

मारेंगे    भरके     रँग -धारी।।


🪴शुभमस्तु !


24.02.2023◆4.30प.मा.

पतझड़ 🍂🍁 [ कुंडलिया ]

 85/2023


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✍️ शब्दकार ©

🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                          -1-

पीले  पत्ते   पतित  हो,  करें धरा  -  शृंगार।

पतझड़ कहते हैं सभी,कुदरत का  उपहार।।

कुदरत का उपहार,स्वच्छता तरु  की  होती।

आते  हैं   ऋतुराज , हर्ष  से धरा  भिगोती।।

'शुभम्'  प्रकृति में रंग,गुलाबी उजले   नीले।

तीसी  पाटल फूल,खिले  नव पीले  -  पीले।।


                         -2-

लेना  भोजन   छोड़कर, लंघन करते  पेड़।

खाए  बिन  पीले  पड़े,खड़े बाग,वन, मेड़।।

खड़े  बाग, वन,मेड़, गिरे सब धीरे - धीरे।

है  पतझड़  का रूप,कहें जन पल्लव  पीरे।।

'शुभम्'अंकुरित गाभ,नई कोंपल की  सेना।

कोमल हँसती लाल,उन्हें अब भोजन लेना।


                         -3-

होता है जब   आगमन, राजा का भू - धाम।

स्वागत  में  तैयारियाँ,करता है हर   आम।।

करता है  हर आम,सुघर कुसुमाकर  राजा।

गिरते  पीले  पात, सुमन खिलते नव ताजा।।

'शुभम्'पतित होओस,बीज हर्षित हो बोता।

पतझड़ का शुभ काल,धरा पर ज्यों ही होता


                         -4-

पतझड़ होता देखकर,हर्षित प्रकृति अपार।

लता विटप-पल्लव गिरें,निर्वसना कचनार।।

निर्वसना  कचनार,  नीम पीपल   रतनारे।।

अधरों  में हँस  लाल, लगें नयनों  को प्यारे।।

'शुभं'पतित द्रुम पात,धरा पर उड़ते खड़बड़।

धरणी चमके मीत, हो रहा देखें  पतझड़।।


                         -5-

पतझड़ की है सीख ये,समय नहीं सम एक।

वसन बदलते  वृक्ष  भी,होते विदा  अनेक।।

होते  विदा  अनेक,जीर्ण जब वे  हो  जाते।

गिरते अवनी - अंक,नहीं तरु पर रह  पाते।।

'शुभम्'छोड़ता देह,किए बिन कोई खड़बड़।

ज्यों गिरता है पात,धरा पर होता  पतझड़।।


🪴शुभमस्तु !


24.02.2023◆3.30प.मा.

जीव का यथार्थ अभिज्ञान 🧏🏻 [ अतुकान्तिका ]

 84/2023


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✍️ शब्दकार ©

🧏🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बिच्छू को पता है

कि वह बिच्छू है,

उसका भी

अपना एक वजूद है,

छूते ही डसना है

नियति ही यही है,

नियत भी यही है,

नीयत भी वही है।


देह तो मानव की मिली,

क्या सभी मनुज देहधारी

मानव हैं?

एक ही तरह की देह में

बिच्छू, साँप, खटमल,

अश्व ,सूकर, गर्दभ

आदि -आदि।


 प्रदत्त संस्कारों से पृथक

होता भी क्यों?

हो भी सके कैसे?

देह ही तो है,

जो मात्र एक गेह है,

उसमें  रहने वाला

आत्मा आवश्यक नहीं

मानव हो,

वह म्लेच्छ, क्रूर दानव

हिंसक पशु या पालतू ढोर

कुछ भी हो सकता है।

इसका अभिज्ञान उसे है,

परंतु उससे बाहर नहीं 

आ सकता।


करोड़ों नर देहों के बीच

क्या सभी मानव हैं?

होते यदि सब मानव

तो आज टीवी अखबार,

सोशल मीडिया

अमानवीय गतिविधियों से

भरे नहीं होते,

और भले अच्छे मानुष

यों दुःख से

 तड़प नहीं रहे होते।


जनक -जननी की

शोषक चूसक

उत्पीड़क,

संतति क्या मनुष्य है?

किसी खटमल मच्छर की आत्मा उनमें अवश्य है,

बनाए गए वृद्ध आश्रम

उन्हीं गिद्ध -चीलों की 

खोज है,

जिन्हें बंद कमरों में

दिखाई देती अपनी ही

मौज है!


कर्म फल कभी 

नहीं बदलता,

अक्षम्य है,

अदम्य है,

ये मूढ़ नरदेहधारी,

क्या इतना भी

 नहीं समझता?

नरकों का निर्माण

यों ही नहीं किया गया,

रौरव कुम्भीपाक को

उनसे ही

 आबाद किया गया,

कर्म ही स्वर्ग है,

कर्म ही नरक है,

नरक का फलक है।


🪴 शुभमस्तु !


23.02.2023◆9.00प.मा.

बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

सबको लगे प्रशंसा प्यारी 🧚🏻‍♀️ [ व्यंग्य ]

83/2023

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 ✍️ व्यंग्यकार © 
 🧚🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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 सबको लगे प्रशंसा प्यारी। 
 आलू तज पनीर तरकारी।। 
          यदि कोई मेरी प्रशंसा करता है ,तो मुझे बहुत ही अच्छा लगता है।आपको भी लगता होगा। सबको लगता है।जब कोई किसी की प्रशंसा कर रहा होता है ,तो प्रतीत होता है कि शरीर के भीतर न जाने कितनी सी.सी . रक्त बढ़ गया हो और वह भी तब; जब न तो किसी बोतल सिरिंज से चढ़ाया गया हो और नहीं किसी का रक्त - चूषण ही किया गया हो। प्रशंसा से भीतर ही भीतर मानो रक्त का स्रोत स्वतः उमड़ उठा हो। आदमी अंदर से ही फूलने लगता है और बोले जा रहे झूठ का प्रतिकार करने का भी साहस नहीं कर पाता।यह प्रशंसा का बहुत बड़ा चमत्कार है। 

        प्रशंसा का भी कोई न कोई आधार होता है। निराधार तो यह धरती भी अपनी धुरी पर नहीं भ्रमण करती।कहीं वह स्वार्थ के शहद में लपेटकर थोपी जाती है,तो कहीं किसी प्रलोभन या लालच वश पोती जाती है।जैसे विवाह के इच्छुक लड़के या लड़की के लिए प्रशंसा का मधुर- मधुर आवरण लपेटा जाना अनिवार्य माना जाता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो कालिदास औऱ विद्योत्तमा का विवाह भी नहीं हो पाता।कहा जाता है कि यदि कोई काम बन रहा हो तो झूठ भी सच से अधिक रंगीन हो जाता है। जिस प्रकार कालिदास के साथ आए हुए पंडितों ने अपने तर्कों से विद्योत्तमा को कालिदास का लोहा मनवाने के लिए बाध्य कर दिया।औऱ उसी झूठी प्रशंसा का सु- परिणाम यह निकला कि विदुषी विद्योत्तमा के साथ सप्तपदी लेकर जड़ कालिदास संस्कृत के महान महाकाव्यकार बनकर विश्व विश्रुत हुए। इसी पैटर्न पर आजकल क्या सदैव से ही लड़के - लड़कियों के शुभचिंतक बिचौलिए झूठी प्रशंसा से सात जन्म के बंधनों में बँधवाते चले आने का पुण्य अर्जित करते आ रहे हैं औऱ भविष्य में भी करते जाएँगे।

        इतना तो मानना पड़ेगा कि प्रशंसा में झूठ की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।झूठ के महान योगदान से ही काले अक्षर का स्वामी विधान सभा और लोकसभा में कैबिनेट मंत्री की ऊँची कुर्सी की शोभावृद्धि करते हुए देखा जाता है।जिन्हें उनकी योग्यता के बलबूते कोई एक चपरासी की नौकरी भी नहीं देगा ,वे देश सेवक बनकर देवी- देवताओं की तरह पूजे जाते हैं।कतारबद्ध होकर आप मंदिर के देवी -देवताओं के दर्शन तो कर सकते हैं,किन्तु यहाँ यह संभव ही नहीं है।इन तथाकथित मंदिरों में प्रसाद मिलता नहीं ,वरन जगह -जगह देना पड़ता है,फिर भी दर्शन की कोई प्रत्याभूति नहीं है।हमारे यहाँ यह भी माना औऱ कहा जाता है कि मक्खन खाने से बेहतर होता है ,मक्खन लगाना।यह मक्खनबाजी भी एक कला है। कला भी ऐसी कि इसे हर एक नहीं सीख सकता।बड़े ही अनुभव औऱ प्रशिक्षण के बाद ही इसके 'गुर' सीखे जाते हैं।प्रशंसक एक अच्छा कलाकार बन कर उभरता है। 

          किसी की प्रशंसा करते समय झूठ और सच के घोल का अनुपात क्या हो ?इसका कोई पूर्व निश्चित मानक नहीं हैं। यह पृथक् - पृथक् पात्रों पर पृथक् रूप में ही प्रभावी होता है।इसकी सर्वकालिक औऱ सार्वभौमिक कोई सुनिश्चित नियमावली या आचार संहिता नहीं बनी। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आत्मस्तुति करते हुए भी नहीं अघाते। ऐसे लोगों को हमारे यहाँ मियां मिट्ठू की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।जब किसी के व्यक्तिगत विवरण (रिज्यूमे) माँगा जाता है तो बहुत कुछ ऐसी विशेषताएं जोड़ दी जाती हैं, जिन्हें गूँगा के घर वाले क्या स्वयं गूँगा भी नहीं जानता। मानव समाज में कुछ ऐसे वर्ग औऱ वर्ण भी विद्यमान हैं, जिनका व्यवसाय ही है कि दूसरों की प्रशंसा का स्तुति गान करें औऱ इनाम पाएँ।उनकी रोजी - रोटी का आधार क्या रोजी -रोटी ही कहिए कि चार पैसे उन्हें इसी प्रशंसा से ही मिल पाते हैं। 

      यह एक सैद्धांतिक सत्य है कि जिसके प्रति हम आसक्त होते हैं अथवा चाहते हैं ;उसकी बुराइयों के प्रति हमारी आँखें स्वतः बंद हो जाती हैं। वहाँ हम देखकर भी अंधे बन जाते हैं। उसकी खटाई में से भी दूध की क्रीम निकाल ही लेते हैं।इसलिए वह हमारी प्रशंसा का प्रिय पात्र बन जाता है।जब वही प्रिय पात्र , मित्र अथवा सम्बन्धी खटास देने लगता है तो वह खटास फिर शहद नहीं कुनैन बन जाती है। साझे का घड़ा चौराहे पर धड़ाम हो ही जाता है। इस प्रकार यह प्रशंसा गुण- सापेक्ष नहीं , हमारे सम्बंध-सापेक्ष /स्वार्थ -सापेक्ष होती है।दाँत काटी रोटी वाले यार रातों रात कट्टर दुश्मन बनकर प्रकट होते हैं। इस प्रकार जो हमारे जितने निकट होता है,वह उतना ही घातक आस्तीन का साँप बनकर डसने की कोशिश करता है।

      हमारे प्राचीन आदि और रीतिकालीन साहित्य में साहित्यिक प्रशंसा के एक नहीं ,अनेक उदाहरण मिलते हैं। 'जिसकी खाना, उसकी गाना' के सिद्धांत पर सभी राज्याश्रित कवि (आदि काल तथा रीतिकाल) राजा रानियों ,उनके यश- वैभव,पराक्रम, सेना,राज्य विस्तार आदि की प्रंशसा सौ- सौ गुणा बढ़ -चढ़कर करते रहे। चंद्रबरदाई ,बिहारी, घनानंद, केशव, भूषण आदि का साहित्य प्रशंसाओं का क्षीर सागर ही है।समाज हो, साहित्य हो या राजनीति का अखाड़ा हो ;सर्वत्र प्रशंसा रूपी फसल लहलहाती हुई दृष्टिगोचर होती है।यह एक ऐसा घेवर है कि बच्चा, किशोर ,जवान,प्रौढ़ ,बूढ़ा सभी को लालसा है।दाँत हों या बेदान्त हो, सभी सहज रूप में उदरस्थ करने को सन्नद्ध हैं।इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। नहीं कह सकता कि बस - बस , अब और नहीं ।मेरा पेट पहले से ही भरा हुआ है। मैं तृप्त हुआ बैठा हूँ। परंतु आज तक क्या ऐसा भी कोई पैदा हुआ है, जिसका प्रशंसा सर पेट भर हुआ हो? प्रशंसा तो त्वरित पाचनशील है। फिर पेट भरेगा ही क्यों औऱ कैसे? 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 22.02.2022◆3.00प.मा. 

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सत्यमेव जयते 🌞 [ दोहा ]

 82/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'सत्य मेव जयते' 'शुभम्',यही हमारा मंत्र।

बना रहा है देश को,जन-जन प्रिय गणतंत्र।

सत्य तिरोहित हो भले,ज्यों मेघों  में अर्क।

वही  रूप  है  ईश का,चले न कोई  तर्क।।


सत्य शिवं सुंदर 'शुभम्',करता जन कल्याण

रक्षक सत पथ का सदा,बनता स्वयं प्रमाण।

सत्य कभी मरता नहीं,नित्य बदलता रूप।

ज्यों सूरज की ज्योति में,बल के हैं बहु यूप।


सत्य बसा कवि-भाव में,देता कविताकार।

शब्द, अर्थ, रस, छंद से,लाता काव्य निखार।

सत्य रहे उर में सदा, किंचित  रहे  असत्य।

तमस सदा टिकता नहीं,जिसके क्रूर अपत्य।


ईश्वर  का  पर्याय  ही,सत्य सदा  से मौन।

नित असत्य हल्ला करे,उसे न जाने कौन??

सत्य सदा ही बोलिए,प्रियता  दे  उर कान।

असत करेला नीम-सा, छीने शांति  महान।।


सत्य बिना चलता नहीं,जगती का आचार।

धरा टिकी है साँच पर,बहे त्रिपथगा-धार।।

सतयुग त्रेता चार युग,द्वापर कलि का रूप।

निर्भर  सत्याधार में,सत्य सदा  युग-भूप।।


विरत न होना सत्य से,जन -जीवन-आधार।

सुघर रूप में ढालता, दे  मानव - आकार।।


🪴 शुभमस्तु !


22.02.2023◆8.45आ.मा.

गोल-गोल रोटी 🦚 [ दोहा ]

 81/2023


[रोटी,गुलाब,मुँडेर,पाती,पलाश]

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       💞 सब में एक 💞

पानी  बरसे  मेघ  से,उगते हैं कण   अन्न।

रोटी बनती  अन्न से,पलता मनुज  प्रपन्न।।

घूम  रहा संसार  ये,निशि-दिन चारों   ओर।

गोल-गोल रोटी वही,जिसका ओर न छोर।।


देता सीख गुलाब का,महमह  करता फूल।

जीवन क्षणिक अमोल है,साथ फूल के शूल।

संगति सुमन गुलाब की,देती  सदा  सुगंध।

सुमन सदृश मानव जिए,करके भव्य  प्रबंध।


छत - मुँडेर पर नाचता,मृदुल मनोहर मोर।

रिझा-रिझा निज मोरनी,बना हुआ चितचोर।

वेला   ब्रह्म - मुहूर्त  की, गाता पंडुक    गान।

कभी विटप की डाल पर,घर- मुँडेर सम्मान।


पाती ने   संवाद  के, बदल लिए   नव  रूप।

मोबाइल  हर  हाथ  में,है  युग- यंत्र  अनूप।।

प्रिया प्रतीक्षा  में खड़ी,लगी पिया   से  डोर।

कब पाती उसको मिले, भरे नेह  प्रति पोर।।


फूले फूल पलाश के,लाल- लाल चहुँ ओर।

तिया अटारी पर खड़ी, देख रही वन -छोर।।

अरुणिम सुमन पलाश के,होली खेलें आज।

चटख रंग की लालिमा,शुभ वसंत का साज।


       💞 एक में सब 💞

रोटी रखी मुँडेर पर,वन में   खिले पलाश।

हँसता फूल गुलाब का,विरहिन पाती आश।


🪴शुभमस्तु !


22.02.2023◆4.45आरोहणम् मार्तण्डस्य।


नव गंदुम झूमि रहे मनभावन 🌾 [ कुन्दलता सवैया ]

 80/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

सजि बालि रहीं सब खेतनु में,

               नव गंदुम झूमि रहे मनभावन।

इत  आय  गयौ  रँग  राग भरे,

         वन फूलि पलास भए फिर फागन।।

मद यौवन कौ रिसि जाइ नहीं,

           मन राखि सदा अपनों तिय पावन।

नव  गंदुम  पेट  भरे  तन कौ,

           तन भूख नहीं सब दुःख नसावन।।


                         -2-

इत  गंदुम  पीत   पराग  उड़े,

           उत वात चलै पछुआ हर्षावति।

कटि को मटकाइ रिझाइ रही,

           हरिआभ दुकूल धरे मन भावति।।

धरि मौन चुमावति चूमति है,

           परिरंभण लीन भई हँसि गावति।

सब खेत हरे भरि बालिनु से,

            भरि दूध गई हिय कों ललचावति।।


                         -3-

मधुमास लगौ मन झूमि उठौ ,

           वन किंशुक नाचि उठे मनभावन।

नव पाटल फूलि गुलाल भए,

               नव गंदुम झूमि उठे  हरषावन।।

नर - नारि सु देह सकाम भरे,

             सब भूलि गए मन कौ अनुशासन।

कहँ  जाय छिपे घनश्याम हरी,

               रँग डारि करें हमरौ तन  पावन।।


                         -4-

कुहुकी पिक बाग रसलानु में,

           सब शाख गईं झुकि बौरि सचेतन।

रस चूसि रहे अलि फूलनु पै,

        अलसी कलशी धरि नाचि उठी वन।।

सरसों सरसाइ रही महकी,

             जनु चादर पीत रिझाइ रही मन।

उर आतुर धीर नहीं छिन को,

            सखि अंग अनंग जलावत आगन।।


                         -5-

टटकी कलियाँ वन-बागनु में ,

             भँवरे मद मत्त भए करि स्वागत।

लतिका लिपटी तरु -बाँहनु में,

                तरुनी उर भेद न मानुस पावत।

महुआ  महके    टपके  धरनी,

             रँग होलिहु खींचि अनंग बुलावत।

कहतीं ब्रज नारि न देह छुऔ,

             नटनागर भाव कुभाव सुहावत।।


*गंदुम = गेहूँ।


🪴 शुभमस्तु !


21.02.2023◆12.45 प.मा.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

साधना 🧎🏻‍♀️ [ चौपाई ]

 79/2023

    

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✍️ शब्दकार ©

🧎🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीवन कठिन  साधना भारी।

निज विधि से जीते नर-नारी।।

सीधा  सरल  पंथ  जो  जाने।

चलने   में    लगता  इतराने।।


सोच-समझ कर जीवन जीना।

नहीं  पड़े   तुमको  विष पीना।।

संत    तपस्वी    जैसे   जीते।

शुभ्रासन  में    जीवन  बीते।।


मंजिल  ऊँची  चढ़ना  चाहे।

नव सोपानों   पर  अवगाहे।।

निमिष नहीं गिरने में लगता।

पंथ-साधना की क्या समता??


राम बुद्ध  ने  तप  ही साधा।

मिटा राह की   सारी बाधा।।

योगेश्वर   श्रीकृष्ण   निराले।

खुले जनक जननी के ताले।।


शिव  को   पार्वती   ने  पाया।

अथक साधना ने  रँग लाया।।

एकलव्य   ने      विद्या  पाई।

श्रेष्ठ धनुर्धर की छवि   छाई।।


छात्र साधना  जो  करते  हैं।

सदा सफ़लता को  वरते हैं।।

मात्र साधना के ही बल पर।

कृषक अन्न से भरता है घर।।


तुलसी ,सूर , कबीर, निराला।

लिखते बच्चनजी मधुशाला।।

'शुभम्'साधना का अधिकारी।

काव्य-सुमन की खिलती क्यारी।।


आओ   करें   साधना   प्यारे।

लाएँ   तोड़   गगन   के तारे।।

पहले मात - पिता  गुरु सेवा।

तभी मिले साधक को मेवा।।


🪴शुभमस्तु !


20.02.2023◆1.45प.मा.

कुसुमाकर - कोयल के रिश्ते 🌳 [ मुक्तक ]

 78/2023

 

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🦚 शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                 -1-

रिश्ते जनक-जननि संतति के,

जब  पावनतम  सुमधुर  होते।

परिजन सब आनंद - लहर में,

नित्य  नए  हर्षद  क्षण बोते।।

नींव स्वार्थ - धरणी  पर होती,

 वहीं  कलंकित   होते   रिश्ते,

जननी-जनक सभी संतति नित,

आजीवन    रहते    हैं   रोते।।

                  

                    -2-

कुसुमाकर कोयल के रिश्ते

टेसू ,पाटल  - सुमन   जानते।

बौराई   अमुआ   की   डाली,

हो प्रसन्न  निज  अंग  तानते।।

पीपल लाल- लाल अधरों से,

मुस्काता गुन - गुन  गाता है।

बालाओं   के   अंग  भरे मद,

अँगड़ाई की  तान    ठानते।।

                 

                   -3-

कागा  के  मराल  से रिश्ते,

कैसे  सुघर  मधुर   हो  पाएँ?

सामिष  है आहार काग का,

कैसे हंस-काग  सँग  खाएँ??

सखा वही  कहलाते जब दो,

एक थाल में  भोजन   खाते।

'शुभम्' बने वे उत्तर- दक्षिण,

करें  विकर्षण  भागे   जाएँ।।

                  -4-

रिश्ते की  यदि नींव ठोस हो,

थिरता रिश्तों  को मिल पाती।

बालू  पर   दीवार  न  टिकती,

कोयल क्यों जाड़ों  में गाती??

वैसे    उपादान    वांछित   हैं,

जब  गाए कू - कू  कर  गाना।

सुमन  खिलें  बौराएँ  अमुआ,

किसलय पीपल की मुस्काती।।


                    -5-

गागर  में हों   छिद्र  बहुत  से,

बूँद नहीं  पानी   रुक   पाता।

रिश्ते रिसने  लगें कहीं जो,

चौराहे पर  घट  फट  जाता।।

'शुभम्' रहे विश्वास अटल तो,

आँच  नहीं   रिश्तों  पर कोई।

आजीवन  वह अमर सदा ही,

हर समाज उसके गुण गाता।।


🪴शुभमस्तु !


20.02.2023◆10.30 आ.मा.


आया है ऋतुराज 🌾 [ कुंडलिया ]

 77/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                           -1-

करता है बक आचरण,चल मराल की चाल।

कौन नहीं है  जानता, व्यर्थ ठोंकता   ताल।।

व्यर्थ  ठोंकता   ताल,  सभी उपहास  बनाते।

करता   कीटाहार  , देख  कर हंस  घिनाते।।

'शुभं' नहीं आचार,उचित करता वह  भरता।

मिले  न  मुक्ताहार,  प्रदर्शन झूठा   करता।।


                         -2-

जैसा तन  का  रूप हो,जैसा योनि   प्रकार।

शोभन है वह आचरण,यही सत्य शुचि सार।

यही सत्य शुचि सार, काग क्यों तू  इतराए!

चले हंस की चाल,कहाँ से सित रँग  लाए।।

'शुभम्'मनुज की देह,आचरण है क्या वैसा!

ढोरों - से तव काम,नहीं लगता  नर  जैसा।।


                         -3-

बोली बोल सुहावने,कुहुकिनि वृक्ष  रसाल। 

भाषा का मधु आचरण,श्रवणों में रस डाल।

श्रवणों  में  रस  डाल, सँदेशा देता  प्यारा।

आया  है  ऋतुराज, एक  ही अपना  नारा।।

'शुभं'सदा शुभ बोल,नहीं कर वृथा ठिठोली।

आप कहें नर नारि, आपकी हो मधु बोली।।


                         -4-

होली   आई    साँवरे,  आजा खेलें     रंग।

बुरा नहीं हो आचरण,हिल- मिल झूमें संग।।

हिल - मिल  झूमें  संग,हमें मर्यादा  प्यारी।

छूना  मत  ये अंग, कुलीना ब्रज  की  नारी।।

'शुभम्' नहीं  उपहास,न भावे हमें  ठिठोली।

बोले हँसकर श्याम,राधिके क्या फिर होली?


                         -5-

पहने  उजले  आवरण, उर में विष - भंडार।

कृत्रिम   तेरा  आचरण,  देगा नहीं    उबार।।

देगा नहीं उबार, काग कोकिल  बन  कूके।

आए  जब  मधुमास,लगेगा कपट  बिझूके।।

'शुभम्' न तज मर्याद,कष्ट पड़ते  हैं  सहने।

मत कर सीमा भंग, नहीं शुभ जो तू पहने।।


🪴 शुभमस्तु !


20.02.2023◆9.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

आया मधुमास 🎊 [ नवगीत ]

 74/2023


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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रँग भरके 

पिचकारी

आया मधुमास।

वन -वन में

हँसते हैं

खिलखिले पलास।।


तीसी धर

कलशी सिर

मत्त उठी नाच।

भाए क्यों

विरहिन को

कोकिला उवाच।।


पाटल की

बस्ती में

गेंदुई सुवास।


अरहर है

हरहाई

झूमे गोधूम।

मंडराए 

अलि दल ये

कलियाँ लीं चूम।


मटर चना

इतराए

बैंजनी उजास।


बौराई

अमुआ की

हरियाली डाल।

पीपल की

तरुणाई

ठोक रही ताल।


आए कब

परदेशी

तिया ले उसास।


घोला है 

भाभी ने

बटुआ भर रंग।

आएँ कब

देवर जी

करना है दंग।।


होली है

होली है

करना परिहास।


🪴 शुभमस्तु !


18.02.2023◆3.00प.मा.

पात्र मृत्तिका के वे चमकें 🪴 [ गीतिका ]

 76/2023


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✍️शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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उजले   को   करते  हैं काले।

उनसे हम  कुछ कहने वाले।।


कर्मों का  फल  सभी  भोगते,

नहीं  वहाँ   लग   पाते   ताले।


पात्र  मृत्तिका   के  ही  चमकें,

पके  अवा    साँचे    में  ढाले।


परजीवी   बनकर   जीते जन,

नहीं  पड़ें   पगतल  में  छाले।


रविकर -  से  वे  चमक रहे हैं,

संघर्षों   ने     प्रतिपल   पाले।


बहुत  सहज   हैं  बात बनाना,

ठट्ठा      करते      बैठे - ठाले।


'शुभम्' उजाला तुम्हें मिलेगा,

बाँटोगे   यदि   नित्य   उजाले।


🪴शुभमस्तु!


20 फरवरी 2023◆6.45 आरोहणम् मर्तण्डस्य।

उनसे कुछ कहने वाले हैं 🦚 [ सजल ]

 75/2023

 

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●समांत: आले ।

●पदांत:अपदांत ।

●मात्रा भार: 16.

●मात्रा पतन: शून्य।

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✍️शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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उजले   को   करते  हैं काले।

उनसे हम  कुछ कहने वाले।।


कर्मों का  फल  सभी  भोगते,

नहीं  वहाँ   लग   पाते   ताले।


पात्र  मृत्तिका   के  ही  चमकें,

पके  अवा    साँचे    में  ढाले।


परजीवी   बनकर   जीते जन,

नहीं  पड़ें   पगतल  में  छाले।


रविकर -  से  वे  चमक रहे हैं,

संघर्षों   ने     प्रतिपल   पाले।


बहुत  सहज   हैं  बात बनाना,

ठट्ठा      करते      बैठे - ठाले।


'शुभम्' उजाला तुम्हें मिलेगा,

बाँटोगे   यदि   नित्य   उजाले।


🪴शुभमस्तु!


20 फरवरी 2023◆6.45 आरोहणम् मर्तण्डस्य।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

जीवन- मूल्य अमोल 🪂 [ कुंडलिया ]

 73/2023


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

जीवन में अनमोल थे,जीवन - मूल्य  अनेक।

भौतिकता ने हर लिया,पावन अमल विवेक।

पावन  अमल  विवेक,प्रेम करुणा  मानवता।

नष्ट  हो   रहे  नित्य, करें दानव  से  समता।।

'शुभम्'हुआ नर श्वान,उधेड़े उर  की  सीवन।

गिरा पतित हो कूप,आज मानव का जीवन।


                         -2-

मानव-तन मिलता नहीं,सहज बिना सत्कर्म।

शेष  नहीं   है  आस्था , पाहन होता    मर्म।।

पाहन  होता  मर्म,नहीं विश्वास    बचा   है।

उर है  उर  से दूर ,नित्य  हा हंत  मचा    है।।

'शुभं'सँभलजा आज,बना अपना पावन मन

जीवन-मूल्य अमोल,बने मत पशु मानव तन


                          -3-

घटता - मिटता ही गया,मानव का  विश्वास।

नैतिकता नरमूल्य की,शेष नहीं अब आस।

शेष नहीं अब आस,दया ममता  नैतिकता।

मरा पड़ा  है नेह, बढ़े  प्रतिदिन  दानवता।।

'शुभम्'बना नर ढोर,घास मूली-सा  कटता।

मन में बैठा चोर, मूल्य का मानक  घटता।।


                         -4-

बढ़ते  वृद्धाश्रम  गए, घटता मानव - मोल।

सास-ससुर-वांछा नहीं,बहू- बोल अनतोल।

बहू - बोल अनतोल,प्रताड़ित करते  रहना।

नहीं बोलते एक,शब्द मुख से क्यों कहना??

'शुभम्'भोगते भोग,विलासी मंजिल  चढ़ते।

पुत्रवधू  सुत  नित्य,पाप के पथ  पर  बढ़ते।।


                         -5-

बेघर  कूकर  ढोर-से, मानव में  बहु   भेद।

छलनी  मनुज चरित्र  की,हुए हजारों  छेद।।

हुए   हजारों    छेद,   वासना छाई   भारी।

भूल गया  निज मोल,मिटी मानवता  सारी।।

'शुभम्' मरा  विश्वास, हाथ में गीता   लेकर।

भौतिकता का दास,मनुज पशुवत है बेघर।।


🪴शुभमस्तु !


17.02.2023◆4.00 प.मा.



आस्था की कमी 🪷 [आलेख ]

 72/2023

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 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       मानव - जीवन में अनेक जीवन - मूल्यों की मान्यता है।इन मूल्यों के आधार पर ही हमारी संस्कृति और सभ्यता का विशाल भवन निर्मित हुआ है।ज्यों- ज्यों मानव के कदम भौतिकवाद की ओर बढ़ रहे हैं ,हमारे समस्त जीवन - मूल्यों में निरंतर ह्रास हो रहा है।प्रेम, दया, ममता, करुणा,वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति आदि के प्रत्येक रूप में उनका क्षरण हुआ है।मानवीय अधिकार ,कर्तव्य और न्याय हमारे सामाजिक जीवन के आधार हैं।उधर शांति, प्रेम, अहिंसा आदि हमारे अध्यात्म के आधार स्तम्भ हैं।

     हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा- पद्धति मानवीय मूल्यों की सशक्त आधार रही है।जहाँ अध्ययन करने के बाद विद्यार्थी एक पूर्ण मनुष्य बनकर अपने घर लौटता था। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से जीवन - मूल्यों की पोषिका औऱ संरक्षिका रही है।उसने ही जीवन मूल्यों का विकास और प्रचार- प्रसार भी किया है। 

         निरन्तर बढ़ते हुए भौतिकवाद ने हमें हमारे मूल्यों से पतित कर दिया है। हमारे परिवार जीवन- मूल्यों के संरक्षण की प्रथम पाठशाला है औऱ हमारे माता- पिता तथा वरिष्ठ ज़न ही उसके शिक्षक ,पोषक, प्रशिक्षक और संवाहक रहे हैं।किंतु परिवार और समाज में अब उस प्रेम ,लगाव, घनिष्ठता और सहयोग की भावना का निरंतर क्षरण हो रहा है। मनुष्य का मनुष्य से पारस्परिक विश्वास विखंडित हो गया है। अपने माता- पिता, गुरु ,परिजनों के प्रति आस्था क्षीण होती जा रही है। निजी स्वार्थों में संलिप्त होने के कारण किसी की सहायता करना या किसी की सहायता लेना उचित नहीं माना जाता। जिन कल- कारखानों में हजारों लोग काम करते थे , वहाँ कार्य का निष्पादन कुछ मशीनों से मात्र इन - गिने कारीगरों द्वारा पूर्ण कर लिया जाता है।पहले यदि मजदूर कोई छप्पर बनाते थे ,तो पूरे मोहल्ले के लोग उसे उठवाने के लिए सहर्ष पहुँच जाते थे ।इधर आज उनका चलन भी कम हो गया है। पैसे के बढ़ने के कारण बुलाने पर भी कोई किसी का सहयोग नहीं करता। 

           आज का धर्म- कर्म दिखावा अधिक और यथार्थ नगण्य रह गया है।आज प्रदर्शन ही धर्म है। आडम्बरों में उलझा हुआ आदमी किसी को कुछ भी नहीं गिनता। बस उसका नाम और फोटो अखबारों,टीवी और सोशल मीडिया पर चमकना चाहिए।उसे वाह वाह मिलनी चाहिए। 

              इस आस्था की कमी का दुष्परिणाम यह देखा जा रहा है कि मनुष्य मात्र मशीन बनकर रह गया है।उसे किसी के प्रति कोई विश्वास नहीं रह गया। लगाव नहीं रह गया है। मित्र ही अपने मित्रों के हत्यारे हो रहे हैं। मित्रता में स्वार्थ के कलंक उसे कलुषित कर रहा है। यह मनुष्य की मूल्यहीनता का ही परिणाम है कि बेटे औऱ बहुएँ अपने वृद्ध सास- ससुर और माता -पिता को घर में नहीं देखना चाहतीं। अपने विलासिता पूर्ण जीवन को बेधड़क जीने के लिए उनके लिए वृद्ध आश्रम में ही शरण देना उचित समझा जा रहा है।मानवता निरंतर पतित होती जा रही है। आज सड़क पर दुर्घटना होने पर कोई किसी की मदद नहीं करता ,क्योंकि वह किसी पुलिस या कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। लगता है कि शनैः - शनैः मानव मूल्य मरते जा रहे हैं। यह मनुष्य जाति के अपने मरण की आरंभिक स्थिति है। जब मूल्य ही नहीं, तो प्रकृति उसे बनाए रखकर भी क्या करेगी? मनुष्य अपना विनाश स्वयं निश्चित करते हुए अधः पतन के कूप में जा रहा है। मूल्यहीनता औऱ मानवीय अनास्था के लिए वह स्वयं उत्तरदाई है।उसकी अति बौद्धिकता से वह हृदय हीनता की ओर निरन्तर अपने कदम बढ़ाता हुआ मरणशील हो रहा है। फिर क्या हुआ जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।रह जायेगी घर बाहर बस अमानवीयता की रेत ही रेत। 

 🪴शुभमस्तु! 

 17.02.2023◆11.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य। 

🪴🪷🪴

कवि का उपहार🏞️ [अतुकान्तिका ]

 71/2023


 

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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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उड़ने को अंबर में

माँ वीणावादिनि ने

प्रदान किए पंख,

कल्पना के यान पर सवार

चलता कवि निःशंक,

नहीं कह पाता

आम जन कोई

एक भी अंक।


कवि - कवि की है

अपनी - अपनी  सीमा,

कितना कोई माप सका

तेज चले या धीमा,

जनहित के लिए है यह

माँ भारती का वरदान,

छेड़ देता संगीत की

वही कवि तान,

वीणाधारिणी हैं महान।


करना नहीं

हे महामते!

मिथ्या मानव - गुणगान,

बनाए रखना माता की

महिमा का मान,

शब्द- शब्द में देता हुआ

भाव ,रस, छंदों के प्राण,

कवि तेरी कविता का

यही सत प्रमाण।


हे कवि- पक्षी तू

स्वतंत्र है,

न बंधन है  तुझे

 नहीं बेड़ियाँ,

महकाता रह

आजीवन

काव्य- सुमनों की लड़ियाँ,

बनती रहें

अनवरत उच्चतर सरणियाँ।


'शुभम्' कवि की रचनात्मकता

ही उसका शृंगार है,

चाटुकारिता मिथ्या प्रचार

कवि का संहार है,

जिसके भी वक्ष में

भावों के हित दुलार है

 एक सुकवि के लिए

इससे वृहत क्या 

उपहार है?


🪴शुभमस्तु !


16.02.2023◆11.15प.मा.

रूढ़िवादिता कुष्ठ है 🪴 [ दोहा ]

 70/2023

  

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✍️ शब्दकार ©

📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पहले  बनी लकीर पर,चलता अज्ञ   समाज।

रूढ़िवादिता  है  वही,सुजन बताते   आज।।

रूढ़िवादिता - गेह  में,  पलती जो   संतान।

शोध न हो नव सोच की,नवाचार का ज्ञान।।


रूढ़िवादिता  पाँव  में,  कसती बेड़ी  -  बंध।

बना मेष मानव चले,ज्ञान -  दृष्टि से   अंध।।

अपनी संतति से कहें, रूढ़िवादिता   छोड़।

चलें आज  के साथ  ही,नाता नव  से जोड़।।


रूढ़िवादिता  कुष्ठ   है, कैसे  बढ़े   समाज।

आँखें  खोले  हम बढ़ें, यही सोचना  आज।।

रूढ़िवादिता  - पंक  में, कुंजर फँसे  हजार।

कैसे   वे   बाहर   चलें, रहते  वे   लाचार।।


रूढ़िवादिता  त्यागकर , करते राह  प्रशस्त।

लिपि ललाट लिखते वही,वे अपने वर हस्त।

दिशा रुग्ण अनुलोम की,चलता है जो मेड़।

रूढ़िवादिता- कूप में,ज्यों गिरती  है  भेड़।।


रूढ़िवादिता - त्याग ही,साहस की पहचान।

प्रगति-पंथ पर जो चले,बढ़ता जग में मान।।

रूढ़िवादिता से नहीं,कभी 'शुभम्' का नेह।

करता नवल प्रशस्त पथ,बनता स्वर्गिक गेह।


🪴शुभमस्तु!


15.02.2023◆11.45पतन्म मार्तण्डस्य।

बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

रामदूत 🚩 [ दोहा ]

 69/2023

        

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✍️ शब्दकार ©

🚩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रामदूत  हनुमान  जी, करते  हैं   कल्याण।

भक्तों  के संकट  हरें, करें सदा ही त्राण।।

पवन पिता माँ अंजनी,सुत वर श्री हनुमान।

रामदूत कहते सभी, रखें सदा प्रभु  ध्यान।।


रामकाज हित  साधने,उड़े गगन   हनुमान।

गिरि सँग संजीवनि उठा,रामदूत बलवान।।

रामायण  या राम का,नहीं शेष  अस्तित्व।

रामदूत  हनुमान  का,एकमात्र शुभ सत्त्व।।


जान मधुर फल भानु को,निगल गए हनुमान

रामदूत  अनजान   में,  राहु माँगता   त्रान।।

ब्रह्मा, रवि,  यमदेव   से,पाया तेज   प्रताप।

रामदूत की शक्ति का,करता जग शुभ जाप।


रामदूत हनुमान  को,नहीं शक्ति का भान।

जामवंत  ने याद दी,लाँघा सिंधु   महान।।

नव निधि आठों सिद्धियाँ, दाता हैं बजरंग।

सुरसा,माया का किया,मुक्त प्राण  से   संग।।


रामदूत  हनुमान   की, कृपा बिना   उद्धार।

कलयुग में होता नहीं,श्रेष्ठ 'शुभम्'शुचिकार।

अजर अमर हनुमान हैं,सीता का   वरदान।

राम मुद्रिका भेंट कर,हरते शोक   महान।।


अहिरावण से मुक्त कर,राम लखन को त्राण।

रामदूत  हनुमान ने, बल  का दिया प्रमाण।।


🪴शुभमस्तु !


15.02.2023◆7.00आ.मा.

आने को ऋतुराज हैं 🌻 [ दोहा ]

 68/2023

     

[केतकी, कचनार, रसाल, ऋतुराज, किंशुक]

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      🌾 सब में एक 🌾

मोहमदी   में   मेंहदी,  नामक  है    उद्यान।

खिलता मोहक केतकी,सुमन सुगंधित जान।

कारण अपने झूठ के,श्रापित शिव से फूल।

सभी जानते केतकी, मत कर अर्चन भूल।।


पंखुड़ियाँ कचनार की,पंच तत्त्व-सी आज।

रंग बैंजनी  में रँगी, सजता फागुन - ताज।।

कोकिल गाता आम पर,महक रही कचनार।

सुमन  परस्पर  बोलते, बहती मंद   बयार।।


महक उठा  मधुमास में,देखो सघन रसाल।

कोकिल  के स्वर गूँजते,बौराई हर  डाल।।

कंजपुष्प सित नील भी,नवमल्लिका अशोक

खिलते बौर रसाल के,कामबाण इस लोक।


आने को ऋतुराज हैं,पल्लव-स्मिति लाल।

 नाच रहा अश्वत्थ द्रुम,बदली कामिनि चाल।

घूम-घूम  वन-बाग में,कोकिल करे धमाल।

आए हैं ऋतुराज जी,चलें उठा निज भाल।


सुग्गे जैसी चोंच- से,किंशुक  फूले   लाल।

कहे अटारी तिय खड़ी,लगी वनों में ज्वाल।।

आओ किंशुक फूल से,निर्मित करके रंग।

होली खेलें  प्रेम से, आपस में नित   संग।।


  🌾   एक में सब 🌾

किंशुक वन  में  झूमते,

                      तरु रसाल कचनार।

दे सुगन्ध  अति  केतकी,

                    शुभ ऋतुराज   बहार।।


🪴शुभमस्तु !


14.02.2023◆11.30प.मा.

सभ्यता नित्य सिखाती 🙆🏻‍♂️ [ सजल ]

 66/2023


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●समांत : ऊल ।

●पदांत : न होते।

●मात्राभार:16.

●मात्रा पतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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एक  रंग  सब  फूल  न  होते।

चुभते  जो  सब  शूल न होते।।


शब्द- बाण  बेधते  हृदय  को,

हितकारी   अनुकूल  न  होते।


स्त्रीकेसर    नित    पाती    है,

वे   परागकण  धूल  न   होते।


सोच समझकर शब्द निकलते

वाणी - निःसृत  भूल  न होते।


साधु-संत धरते  निज तन पर,

चीवर  ऊल - जुलूल   न  होते।


हया  नहीं   नयनों   में   कोई,

नारी - देह   दुकूल   न   होते।


'शुभम्' सभ्यता नित्य सिखाती,

मानव   मूढ़   समूल   न होते।


🪴शुभमस्तु!


13.02.2023◆6.45आ.मा.


एक रंग के फूल न होते 🪷 [ गीतिका ]

 67/2023


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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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एक  रंग  सब  फूल  न  होते।

चुभते  जो  सब  शूल न होते।।


शब्द- बाण  बेधते  हृदय  को,

हितकारी   अनुकूल  न  होते।


स्त्रीकेसर    नित    पाती    है,

वे   परागकण  धूल  न   होते।


सोच समझकर शब्द निकलते

वाणी - निःसृत  भूल  न होते।


साधु-संत धरते  निज तन पर,

चीवर  ऊल - जुलूल   न  होते।


हया  नहीं   नयनों   में   कोई,

नारी - देह   दुकूल   न   होते।


'शुभम्' सभ्यता नित्य सिखाती,

मानव   मूढ़   समूल   न होते।


🪴शुभमस्तु!


13.02.2023◆6.45आ.मा.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

दर्पण के सामने 💃🏻 [ अतुकान्तिका]

 65/2023

 

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✍️शब्दकार©

🪞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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होती हूँ

समक्ष दर्पण के

जब मैं खड़ी,

समझती हूँ

हसीना 

भूमंडल की

मैं ही सबसे बड़ी।


मेरा नाक नक्श

मेरा रूप रंग,

सबसे ही अलग है

उसका रंग -ढंग,

छाया ही रहे

देह- नयनों में अनंग,

निहारे जो

मेरी ओर

रह जाता है दंग!


जो भी निहारे

मेरी हिरनी -सी चाल,

देखते ही पल भर में

हो - हो जाए निहाल,

ढूँढ़े नहीं धरतीं पर

मेरी मिसाल,

एक ही बनाई मैं

साँचे में ढाल।


नहीं बना

कोई दूसरा साँचा,

उपमा नहीं ऐसी

बनाए ऐसा ढाँचा,

एक ही बस एक ही

मात्र मैं औऱ कोई नहीं,

बात सोलह आने सही।


दीपक पर ज्यों

गिरते हैं  सैकड़ों पतंगे,

निकल जाऊँ बाहर

तो हो जाएँ दंगे,

मतों के लिए जैसे

गलियों में मतमंगे।


पर मुझे क्या!

गजगामिनि - सी

चलती चली जाती हूँ,

इधर -उधर बिजलियाँ

गिराती हूँ

आगे बढ़ जाती हूँ,

अपनी ही मस्ती में

मैं 'शुभम्' मदमाती हूँ,

इठलाती बल खाती हूँ,

फागुन के महीने -सी

रंग बरसाती हूँ।


🪴शुभमस्तु !


10.02.2023◆6.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

हम कैसे आजाद?.🌾 [ दोहे ]

 64/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 बिछा जहाँ बोरा दिया,बसा वहीं घर - बार।

देश   धर्मशाला  हुआ,  धर्मों का    बाजार।।

किया नहीं कुछ देशहित,खाया उसका अन्न।

दीमक   जैसा  चाटता, फैलाता    अवसन्न।।


नहीं  देशहित  पेड़  का,तोड़ा तिनका  एक।

चाहत बहु अधिकार की,शेष न बचा विवेक।

चोरी  से  घुसपैठ  कर, माँग रहे   अधिकार।

राशन  पानी  मुफ़्त का, देश किया  बेजार।।


चाह  देश  को तोड़ना, करना टुकड़े   पाँच।

देखा  चारों  ओर  ही,  सुलग रही  है आँच।।

सड़कें  पटरी  रेल की, बिछा चादरें  सब्ज।

हक अपना जतला रहे,तेज धड़कती नब्ज।।


जैसे  भी  हो  लूट लो,नहीं बाप का देश।

भिखमंगा  पहले  बनो,बढ़ा शीश के केश।।

अँगुली की ले राह वे, ग्रीवा तक दे  दाब।

क्यों  मानें अहसान वे,पीकर गंगा   आब।।


संविधान  कैसा  बना,जो  न दे  सके सीख।

चोर राज ये छीनता, माँग- माँग कर  भीख।।

नेता मत के लोभ में ,आँख मूँद  कर मौन।

बहरे  कानों से  सभी,ललकारे अब   कौन।।


भीड़तंत्र जनतंत्र को,करता नित बरबाद।

चिंता से  भौंहें  तनी,हम  कैसे आजाद??


🪴 शुभमस्तु !


08.02.2023◆5.00प.मा.

जनेऊ 🦢 [ दोहा ]

 63/2023

   

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✍️ शब्दकार ©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सोलह शुभ संस्कार में,'शुभम्' जनेऊ एक।

आयु बुद्धि बल तेज कर,जाग्रत करे विवेक।

संयम  से  जीवन  जिएँ, धरे  जनेऊ   सूत्र।

बाँधें  बाएँ  कान पर, त्यागें जब मल - मूत्र।।


गुरु  बालक  को  ज्ञान दे,सह गायत्री   मंत्र। 

धरे जनेऊ सूत्र त्रय,बँधे नियम तन  -  तंत्र।।

बाएँ   से   दाएँ    बँधा,   सूत्र जनेऊ    मीत।

पावन ही रखना  सदा, चले नहीं   विपरीत।।


नारी   भी   अपने   गले, पहनें मानो     हार।

नियम जनेऊ का यही,'शुभम्'सत्य सुविचार।

न्याय दृष्टि   पावन करे,'शुभम्' जनेऊ  ध्येय।

तीन  सूत्र बंधन  यही,ज्ञाता को   यह  ज्ञेय।।


सप्त  ग्रंथि  शुभ सूत्र में,धागे हैं  बस   तीन।

ब्रह्मा विष्णु महेश के,शुचि प्रतिमान नवीन।।

गुरु - दीक्षा  के  बाद में,सूत्र जनेऊ   धार।

बालक निकलें देश में,करने ज़न उपकार।।


कहलाए  ये  उपनयन, यज्ञसूत्र,  व्रतबन्ध।

ब्रह्मसूत्र, बलबंध भी,रख निज बाएँ कंध।।

देव पितृ ऋषि ऋण कहें,सत रज तमस प्रतीक

गायत्री के सूत्र त्रय,है उपनयन सु-नीक।।


🪴शुभमस्तु!


08.02.2023◆11.45आ.मा.

फागुन जोगी वेश में 🎊 [ दोहा ]

 62/2023

 

[फागुन,फाग,पलास,वन, जोगी]

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      🌹 सब में एक 🌹

शिशिर शीत सी-सी करे,फागुन लाया रंग।

होली के नव फ़ाग गा,मन हो गया  मतंग।।

फागुन कहता झूमकर,लाया  मैं मधुमास।

पाटल डाली पर खिले,वन में खिले पलास।।


फाग लगाए  आग तन,उर में  प्रेम-उजास।

गाते - गाते नाचता,हिमगिरि खिला  बुराँस।।

बजे ढोल डफ जोर से,स्वरित सुरीला फाग।

हिया झूमता मत्त हो,बगिया में ज्यों  नाग।।


देख रही छत पर खड़ी,दूर लपट ज्यों आग।

फूले फूल पलास के,काम उठा उर जाग।।

वन- पलास रँग लाल से,मन में उठी उमंग।

लगता छिप-छिप ताकता,ताने बाण अनंग।।


वन उपवन तरु बेल में,कोंपल विकसे लाल।

लगता है मधुमास ने,आकर किया  धमाल।।

वन-वन भटके राम जी,लखन सिया के संग।

नियति-लेखनी जो लिखे,मिटे न उसका रंग।


रावण जोगी-वेश में, ठगने को सिय-राम।

जब आया मिट ही गया,पाया है प्रभु-धाम।।

सजा वेश जोगी बने,धरते ठग  का  रूप।

जनता को ठगते फिरें,गिरें छद्म भव - कूप।।


      🌹 एक में सब 🌹

फागुन जोगी  वेश  में,

                      कर ले सुमन पलास।

फाग - गान  में  लीन है,

                    वन में  अरुण उजास।।


🪴शुभमस्तु!


08.02.2023◆6.15 आ.मा.


मच्छर टोपी ले उड़ा🦟 [ दोहा ]

 61/2023


 

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✍️शब्दकार ©

🦟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मच्छर टोपी ले उड़ा, सँभले नहीं सँभाल।

जनता चिल्लाती रही,बुरा हुआ  है  हाल।।


टोपी  अंबर में   गई, मच्छर जी के  संग।

सभी  देखते   रह गए, भौंचक होते  दंग।


ताकत  मच्छर की बढ़ी,मानव है  बेहाल।

सिर  से  ले टोपी उड़ा,नंगे सिर  के बाल।।


नीले  अंबर  के तले,जनता की  भरमार।

ले कर मच्छर जा उड़ा,मानव की है हार।।


बचो-बचो रे मानवो, मसक हुआ खूँख्वार।

ले  मेरी   टोपी  उड़ा,नर -नारी की  हार।।


07.02.2023◆ 4.25 प.मा.


फागुन का धमाल 🎊 [ गीतिका ]

 60/2023

 

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✍️शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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फागुन   का   होता धमाल है।

प्राची का अरुणाभ  भाल है।।


चादर   सेत   न   सूरज  ओढ़े,

डफ ढोलक की बजी ताल है।


पादप पर पखेरु  की हलचल,

नाच उठी हर डाल -  डाल है।


कुक्कड़ - कूँ  की  टेर  लगाए,

तमचूरों   की   नई   चाल   है।


मानसरोवर     में    जा   देखें,

है   प्रसन्न    भोला  मराल  है।


हँसती मुस्काती रवि - किरणें,

फैला स्वर्णिम किरण-जाल है।


'शुभम्' महकते क्यारी- क्यारी,

पाटल - दल  मानो प्रवाल  है।


🪴शुभमस्तु !


06.02.2023◆5.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।


पाटल महके क्यारी- क्यारी 🌹 [ सजल ]

 59/2023


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●समांत : आल।

●पदांत : है।

●मात्राभार: 16.

●मात्रा पतन:शून्य।

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✍️शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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फागुन   का   होता धमाल है।

प्राची का अरुणाभ  भाल है।।


चादर   सेत   न   सूरज  ओढ़े,

डफ ढोलक की बजी ताल है।


पादप पर पखेरु  की हलचल,

नाच उठी हर डाल -  डाल है।


कुक्कड़ - कूँ  की  टेर  लगाए,

तमचूरों   की   नई   चाल   है।


मानसरोवर     में    जा   देखें,

है   प्रसन्न    भोला  मराल  है।


हँसती मुस्काती रवि - किरणें,

फैला स्वर्णिम किरण-जाल है।


'शुभम्' महकते क्यारी- क्यारी,

पाटल - दल  मानो प्रवाल  है।


🪴शुभमस्तु !


06.02.2023◆5.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 5 फ़रवरी 2023

कविता में कविता कहाँ है? 🎊 [ व्यंग्य ]

 58/2023 


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 ✍️व्यंग्यकार © 

 🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           धड़ल्ले से कवियों के सम्मेलन हो रहे हैं और बराबर होते भी रहेंगे।कवि हैं,तो उनके सम्मेलन तो होंगे ही।ये अखिल भारतीयता के स्तर से नीचे तो हो नहीं सकते। कोई विराट कवि- सम्मेलन हो सकता है ,किंतु आज तक एक भी बैनर ऐसा नहीं देखा या सुना गया ; जिस पर 'लघु कवि सम्मेलन' अथवा 'मध्यम कवि सम्मेलन' अथवा 'मोहल्ला कवि सम्मेलन' लिखा हुआ हो। भानुमती के पिटारे की तरह हैदराबाद, गाज़ियाबाद, फ़िरोज़ाबाद, इलाहाबाद, फ़तेहाबाद, मुरादाबाद,नजीबाबाद आदि शहरों से कुछ 'निःशुल्क' और कुछ सपारिश्रमिक (बेचारे इतनी दूर से परिश्रम करके आते हैं; इसलिए सशुल्क नहीं कह सकते ; 'सपारिश्रमिक' ही कहेंगे) ।

           आप जानते ही हैं ,नि:शुल्क तो निःशुल्क ही है। उसे तो कुछ मिलना नहीं है।इसलिए वह स्थानीय भी हो सकता है। घर की मुर्गी दाल बराबर जो होने लगी है।इसलिए उसे ही हलाल करना अधिक आवश्यक माना जाता है।कभी- कभी उसे बैनर झंडे लगवाने ,टेंट के गड्ढे खोदने या खुदवाने, टेंट का विशाल पांडाल बनवाने, दरियाँ बिछवाने , मंच- सज्जा कराने जैसे अति महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भी बाइज्जत नियुक्त कर लिया जाता है। तब कोई एक 'अखिल भारतीय कवि सम्मेलन' सफलता पूर्वक सम्पन्न होने की स्थिति की प्राथमिक दशा को प्राप्त होता है।

          'सपारिश्रमिक कवि' को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं। उसे तो बारात में पधारे हुए वरयात्रियों की तरह सब कुछ पका - पकाया चहिए।आए और जीमने बैठ गए। अब बात आती है कवि सम्मेलन की।भले ही मोहल्ले भर के दर्शक और श्रोता इकट्ठे न हों ,किंतु अखिल भारतीय के स्तर से कम तो कहलाया ही नहीं जा सकता। यह कवि सम्मेलन का न्यूनतम सोपान है। विश्व स्तर के कवि सम्मेलन में किसी पड़ौसी देश का प्रवासी भारतीय यदि पधार जाए तो उसकी विश्व स्तरीयता का मानक पूरा हो जाता है।इस देश में 'अखिल ब्रह्मांड स्तर' के कवि सम्मेलन होना भी सामान्य - सी बात है, बस बैनर ही तो बनवाना है।शेष सब वही का वही। 

                इन महा कवि सम्मेलनों की एक विशेषता यह देखी जाती है कि इन्हें कवि सम्मेलन कहने से पहले सोचना पड़ता है कि ये कवि सम्मेलन हैं या कुछ और।मेरे मंतव्य के अनुसार इनका नाम 'महा हा ! हा !!ठी! ठी!! सम्मेलन', 'महा चुटुकला सम्मेलन', 'महा हास्य सम्मेलन' अथवा ऐसा ही कोई अन्य नाम होना उचित जँचता है; परन्तु नामकारण से पूर्व भला मुझ अकिंचन को कौन पूँछने जा रहा है? जब इन कवि सम्मेलनों का नामकरण बदला जाएगा तो कवियों को भी कवि नहीं कहा जायेगा।उन्हें भी चुटकुलेबाज,लतीफ़ेबाज, या हास्यकार आदि किसी भी नाम से सम्मानित किया जाएगा। 

           अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इन तथाकथित सम्मेलनों में अस्सी प्रतिशत समय में केवल चुटकुले सुना - सुना कर श्रोताओं को मूर्ख बनाया जाता है। उधर हमारे श्रोतागण भी वैसे ही हैं ,जिन्हें कविता और चुटकुले में अंतर ही पता नहीं है। वे चुटकुले को ही कविता -   पाठ समझ लेते हैं।कोई कवि किसी कवि के निजी जीवन की हस्यपरक धज्जियाँ उधेड़ने लगता है ,कोई किसी की सुंदर पत्नी के सौंदर्य सागर में गोते लगाने लगता है। और यदि मंच पर कोई सुंदरी कवयित्री दिख गई तो कहना ही क्या?सोने में सुहागा वाली कहावत ही चरितार्थ हो गई।फिर तो श्लीलता को ताक पर रख कर जो कुछ कहा औऱ सुनाया जाता है ;उससे तो बड़े बूढ़ों में भी वसंत का संचार हो- हो जाये। उधर कवयित्री भी कब पीछे रहने वाली हैं, वे भी नहले पर दहला मारते हुए तीर पर सुपर तीर बौछार करने में कब पीछे हटने वाली हैं? इस प्रकार वाद- संवाद की स्थिति के दौर से गुजरता हुआ तथाकथित सम्मेलन अपनी चरम गति को प्राप्त हो जाता है। अंत में चलते -चलते रही- बची ऊर्जा के साथ दो चार मिनट की कविता भी अपनी अंतिम गति को प्राप्त हो लेती है ।एक छोटी - सी कविता की भूमिका लघु महाभारत ही हो लेती है। वह भी विषयेतर ,अप्रसांगिक औऱ असंवैधानिक।इन हँसोड़- सम्मेलनों को कवि सम्मेलन का नाम देते हुए भी कविता की मट्टी पलीद करते हुए देखकर हँसना नहीं ,रोना ही आता है।

        अगले दिन अखबारों में औऱ ताज़ा का ताजा सोशल मीडिया पर तथाकथित कवि सम्मेलनों के स्तरोन्नयन पर आत्म स्तुतियाँ देखकर तो हँसी रोके नहीं रुकती।सुर्खियां बटोरने के लिए लोग क्या कुछ नहीं करते , यदि एक सच्चे साहित्यकार को भी नौटंकी के जोकर की भूमिका में जाना पड़े ,तो साहित्य की क्या गति होगी, यह सोचनीय ही होगा। हास्य के इन प्रपाती प्रतापी फब्बारों के बीच कविता के नन्हे गुब्बारे ढूँढ़े भी नहीं मिलते।ऊँचे स्तर की कविता सुनने के लिए कुछ तो खोना पड़ता है ,इसलिए आज का श्रोता अपना बहुमूल्य समय और समझदारी का बलिदान कर ही देता है। वैसे भी जीवन में हँसने- हँस पाने का सुअवसर नहीं मिलता ,तो इन सम्मेलनों में आने के बाद वह सब कमी पूरी हो लेती है।अंत में बस यही कसक शेष रह जाती है कि इस पूरे कार्यक्रम में कविता कहाँ थी?दाल में नमक का आस्वादन कराती हुई कविता जाए तो किधर जाए ,जब कवि जन ही चुटुकुलेबाज हो जाएँ। 

 🪴शुभमस्तु ! 

 05.02.2023◆ 6.45 पतनम मार्तण्डस्य।

 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

चलें प्रकृति की ओर 🌳 [ दोहा ]

 57/2023

 

[फसल,सोना,कृषक,कुसुम, बसंत]

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       🌻 सब में एक 🌻

श्रमजल से ही सींचता,अपनी फसल किसान

अन्न, शाक,फल  दे रहा, दाता सदा  महान।।

मौसम के आघात से,फसल  हुई  बरबाद।

आसमान में  देखता, करे कृषक प्रभु-याद।।


उत्पादित  सोना  करे,धरती माँ  का  रूप।

पालन हो जन-सृष्टि का,कृषक धरा का भूप।

संतति सोना है  वही, करती  जो उपकार।

मात-पिता गुरु धन्य वे,मिलता नेह अपार।।


कर्षित कर अवनी-मृदा,कृषक  उगाए अन्न।

मानव   की   रक्षा   करे,  देश बने    संपन्न।।

सैनिक  सीमा  पर डटा,रक्षा का  प्रतिमान।

कृषक स्वेद अपना बहा,करता अन्न प्रदान।


कुसुम स्वेदजल से खिलें,उनकी अलग सुगंध

अलग तृप्ति फल दें वही,जो फलते निर्बंध।।

कुसुम सुगंधित देखकर, होता  हर्ष  अपार।

पत्थर का अंतर जहाँ,दिखता उसे न सार।।


फागुन में होली जली, हुआ वर्ष  का  अंत।

चैत्र और  वैशाख  में, आया नवल  बसंत।।

आते  मास बसंत के,प्रकृति  बदलती  रूप।

खिलतीं कलियाँ बाग में, स्वागत में ऋतु-भूप


    🌻 एक में सब 🌻

कृषक -फसल सोना बनी,

                      खिलते कुसुम अपार।

आया   नवल   बसंत   है,

                       छाया   मद  -  संभार।।


🪴शुभमस्तु !


01.02.2023●5.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...