गुरुवार, 16 मई 2024

संचार क्रांति का हिंदी साहित्य पर प्रभाव [आलेख ]

 227/2024 


 

 ©लेखक 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 यह सर्वांश में सत्य है कि एक ओर जहाँ विज्ञान वरदान है तो दूसरी ओर अभिशाप भी है।वह विज्ञान ही है जिसके कारण संचार के क्षेत्र में क्रांति ही आ गई है।सहित्य क्या मानव जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया है।आज विज्ञान ने वह सब कुछ प्रत्यक्ष कर दिखाया है,जिसके विषय में पहले कभी सोचा भी नहीं गया था। 

 यदि अतीत के वातायन में झाँक कर देखें तो पता लगता है कि जो चिट्ठियाँ पहले हफ़्तों महीनों की यात्रा करके अपने गंतव्य पर पहुँच पातीं थीं, अब उनका प्रचलन ही बंद हो गया है। अब तो मोबाइल से तुरंत कोई भी संदेश सम्पूर्ण विश्व में किसी के भी पास पहुँचाया जा सकता। पैसा भेजने के लिए धनादेश(मनी ऑर्डर)का प्रयोग किया जाता था। मनी ऑर्डर की निरर्थकता को देखते हुए सरकार को उसे बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। अब कोई भी धनराशि भेजने के लिए ऑन लाइन अनेक साधन हैं,जिनसे कुछ ही पल में एक राशि दूसरे स्थान पर भेज दी जाती है।मोबाइल के आने के बाद टी वी, ट्रांजिस्टर, रेडियो, वीडियो, टेप रिकॉर्डर आदि सभी विदा हो गए।अब विश्व में हो रही किसी भी गतिविधि की जानकारी मोबाइल से कुछ ही पलों में कर ली जा रही है।

  मोबाइल न हुआ ,जादू की डिबिया ही हाथ लग गई मनुष्य के हाथों में। संचार क्रांति के इस युग में हिंदी साहित्य क्या विश्व का कोई भी साहित्य प्रभावित हुए बिना नहीं रहा है।जो पत्र -पत्रिकाएँ, पुस्तकें,बड़े -बड़े ग्रंथ पुस्तकाकार रूप में छपकर आते थे ,अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनका एक उचित समाधान प्रस्तुत करते हुए क्रांति ही ला दी है। 

   हिंदी साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में हजारों पत्रिकाएँ और पुस्तकें ऑन लाइन छपकर छा ही गई हैं। साहित्य की संख्या की बात करें तो इतना कुछ लिखा जा रहा है,जिसे पढ़ पाना भी सम्भव नहीं हो रहा है। यदि गुणवत्ता की दृष्टि से विचार किया जाए तो उसे तो उठाकर एक कोने में रख देना पड़ेगा।जिस प्रकार दुकानों पर लिखा रहता है कि 'फैशन कर युग में गारंटी की आशा न करें।' वैसे ही संचार क्रांति के युग में उत्कृष्टता और गुणवत्ता को तो भूल ही जाना पड़ेगा।भला हो उस कोरोना काल का ,जिसने घरों में पड़े - पड़े लोगों को कवि और लेखक बना दिया। कोरोना काल की यह साहित्यिक उपलब्धि एक बीमारी से उत्पन्न हुई है,तो रुग्ण तो होगी ही।कोरोना काल के तथाकथित रचनाकारों को यह भ्रम हो गया है कि वे बहुत बड़े साहित्यकार हो गए हैं।यद्यपि वहाँ छंद के नाम पर शून्यता का सन्नाटा है।मुक्त काव्य के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है,जो आजकल की ऑन लाइन कृतियों में देखा जा रहा है; उसका तो भगवान ही मालिक है।यद्यपि उसे श्रेष्ठता और गुणवत्ता की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो उसका स्थान कचरे का डिब्बा ही होगा।उधर उन नवागंतुकों का अहं देखिए तो पुराने कवि और साहित्यकार उनके समक्ष कहीं नहीं टिकते। वे अपने को किसी कालिदास ,सूर, कबीर,तुलसी,प्रसाद या पंत से कमतर मानने को कदापि तैयार नहीं हैं।यह भी आज की संचार क्रांति की देन है। जब बरसात होती है तो मेढ़क मछलियों के साथ-साथ घोंघे और सीपियाँ भी बरसती हैं। 

   सञ्चार क्रांति के युग का एक पहलू यह भी है कि जिन्हें स्वयं साहित्य की दो पँक्तियाँ भी लिखना नहीं आता ,वे संपादक बन गए हैं। इसलिए जो रचनाकार जैसी भी अनगढ़ कविता या लेख भेज देता है,उसे बिना कुछ देखे -परखे छाप दिया जाता है और प्रेषक की अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति कर दी जाती है। फिर तो वह उस रचना का स्क्रीन शॉट लेकर अपने इनबॉक्स में दिखाते हुए फूला नहीं समाता।कुछ तथाकथित 'महापुरुष' अथवा 'महानारियाँ 'साहित्यिक संचार क्रांति में आग लगाए हुए हैं और सभी रचनाकारों को बड़े- बड़े सम्मानों से सम्मानित करते हुए उन्हें साहित्य के सिर पर बिठा रहे हैं।इससे वर्तमान श्रेष्ठ सहित्य कलंकित हो रहा है।यह सोचनीय है कि अपात्रों के हाथों में श्रेष्ठ साहित्य की छवि धूमिल हो रही है। 

 इस प्रकार हम देखते हैं कि संचार क्रांति के दोनों ही पहलू हैं।सकारात्मक और नकारात्मक।क्रांति तो अपना काम बखूबी कर ही रही है,किन्तु इसमें भी साहित्य के दलाल अपने काले हाथों से श्रेष्ठ साहित्य का मुँह भी काला करने में कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं।इस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।सहित्य की इतनी छीछालेदर संभवतः पहले कभी नहीं हुई होगी। कुछ धनान्ध व्यवसायियों ने तो इसे कमाई का माध्यम ही बना लिया है और साझा संकलनों के माध्यमों से शॉल ,नारियल,स्मृति चिह्न और प्रमाण पत्रों का धुँआधार वितरण कर रहे हैं। धंधा अच्छा चल रहा है।यह भी आज की संचार क्रांति का एक अनुज्जवल पहलू है। 

 शुभमस्तु ! 


 16.05.2024●6.30 आ०मा० 


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कस्तूरी - परिमल जगी [ दोहा ]

 226/2024

     

[परिमल,पुष्प,कस्तूरी,किसलय,कोकिला]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

सभी  दंपती  के  लिए,परिमल शुभ  संतान।

जननी   को  सम्मान  दे, होता  पिता महान।।

पति-पत्नी  के  मध्य  में, परिमल सच्चा प्रेम।

जीवन    हो   आनंदमय,   चमके जीवन-हेम।।


खिले पुष्प- सा  पुत्र  जो, हर्षित हों    माँ-बाप।

सत्पथ  पर  संतति   चले,  बढ़ता सदा प्रताप।।

मानव   के   सत्कर्म    ही,  देते पुष्प -   सुगंध।

संतति  को  शुभ    ज्ञान दें , बनें नहीं दृग-अंध।।


कस्तूरी  सद गंध - सा,मिले शुभद  यश  मान।

उच्च   शिखर  आरूढ़ हो, मानव बने   महान।।

कस्तूरी - सद्गन्ध    को,  हिरन  न जाने   लेश।

त्यों सज्जन  अवगत  नहीं, रख साधारण  वेश।।


किसलय  फूटे   वृक्ष  में,लाल हरी  हर  डाल।

आएं  हैं   ऋतुराज    फिर, तरुवर मालामाल।।

किसलय नन्हे  लग रहे,ज्यों नव शिशु के हाथ।

झूल   पालने  में  रहा,निज जननी के   साथ।।


ऋतु  वसंत  मनभावनी,करे कोकिला  शोर।

अमराई     में   टेरती,   हुआ   सुहाना   भोर।।

श्याम  कोकिला की सुनी, अमराई   में   टेर।

विरहिन  के  मन  टीस  ने, किया प्रबल अंधेर।।


                 एक में सब

लगी   कूकने कोकिला,  खिले पुष्प   रतनार।

कस्तूरी -परिमल जगी,किसलय की भरमार।।


शुभमस्तु !


15.05.2024● 8.00आ०मा०

दिनकर तीव्र उदोत [ गीतिका ]

 225/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उतर  रहे  जल - स्रोत, धरा  में  कम है   पानी।

दिनकर  तीव्र  उदोत, कठिन  है जान  बचानी।।


लुएँ  चलें  चहुँ ओर, जीव  जन व्याकुल   सारे।

दिखते  कहीं  न  मोर, कहाँ  हैं जलधर   दानी।।


नेताओं    को   घाम,   नहीं   लगता निदाघ  में।

ए. सी.  कार  ललाम,  मंच   पर भाषण   बानी।


भरे  देश    का  पेट , कृषक  की दीन दशा   है।

सब   करते   आखेट, जिन्हें  सरकार   बनानी।।


आश्वासन  से  भूख , नहीं   मिटती जनता  की।

गए   पेट   तन   सूख,  घरों  पर  टूटी   छानी।।


पाँच   वर्ष   के  बाद, निकल  बँगले से   आए।

लेना  मत   का  स्वाद,मची  है  खींचा - तानी।।


पंक    उछालें   नित्य,  परस्पर   नेता    सारे।

'शुभम्'  यही  औचित्य , न इनका कोई सानी।।


शुभमस्तु !


12.05.2024●10.00प०मा०

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उतर रहे जल-स्रोत [ सजल ]

 224/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समांत    :  आनी

पदांत     : अपदांत

मात्राभार : 24.

मात्रा पतन: शून्य


उतर  रहे  जल - स्रोत, धरा  में  कम है   पानी।

दिनकर  तीव्र  उदोत, कठिन  है जान  बचानी।।


लुएँ  चलें  चहुँ ओर, जीव  जन व्याकुल   सारे।

दिखते  कहीं  न  मोर, कहाँ  हैं जलधर   दानी।।


नेताओं    को   घाम,   नहीं   लगता निदाघ  में।

ए. सी.  कार  ललाम,  मंच   पर भाषण   बानी।


भरे  देश    का  पेट , कृषक  की दीन दशा   है।

सब   करते   आखेट, जिन्हें  सरकार   बनानी।।


आश्वासन  से  भूख , नहीं   मिटती जनता  की।

गए   पेट   तन   सूख,  घरों  पर  टूटी   छानी।।


पाँच   वर्ष   के  बाद, निकल  बँगले से   आए।

लेना  मत   का  स्वाद,मची  है  खींचा - तानी।।


पंक    उछालें   नित्य,  परस्पर   नेता    सारे।

'शुभम्'  यही  औचित्य , न इनका कोई सानी।।


शुभमस्तु !


12.05.2024●10.00प०मा०

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शनिवार, 11 मई 2024

मेरा बचपन :मेरा सेवासन (संस्मरण )

 223/2024 


 

 ©लेखक

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 बचपन, बचपन होता है।किंतु बचपन के कार्य और रुचियाँ व्यक्ति के आगामी जीवन का दर्पण होते हैं।बड़े -बड़े चोर,डाकू,अपराधी ,धर्मनिष्ठ, समाजसेवी, नेता आदि सभी प्रकार और प्रवृत्तियों के लोगों में उनके भावी जीवन का बीजारोपण बचपन से ही हो जाता है।मैं यह भी नहीं कहता कि किसी महानता का बीजारोपण मेरे बचपन में हो गया था। हाँ,इतना अवश्य है कि मेरी प्रवृत्ति बचपन से ही परिवार,समाज और अपने आसपास व्याप्त किसी प्रकार की कमी को सही करने और उसका उपाय ढूँढने की ही रही।यही कारण है कि जैसे ही मैंने होश सँभाला और दो अक्षर पढ़ना सीखा ,वैसे ही मेरी लेखनी अपना काम करने लगी। 

 कविताएँ लिखना तो मुझे उसी समय से आ गया था ,जब मेरी उम्र मात्र ग्यारह साल की थी।उस समय मैं कक्षा चार का छात्र था।उस जमाने में बच्चे आजकल की तरह ढाई तीन साल के पढ़ने नहीं जाते थे। मैं जब पढ़ने बैठा उस समय मेरी उम्र सात वर्ष की रही होगी।इसलिए चौथी कक्षा में आते -आते ग्यारह साल का होना ही था।लेखनी अपनी यात्रा पर चल पड़ी थी। 

 मेरा गाँव आगरा से उत्तर दिशा में टेढ़ी बगिया से जलेसर मार्ग पर तीन किलोमीटर और रोड से गाँव 1500 मीटर की दूरी पर पूर्व दिशा में स्थित है। उस समय टेढ़ी बगिया से जलेसर को जाने वाली सड़क कच्ची हुआ करती थी।मेरा विचार यह था कि यह सड़क पक्की होनी चाहिए।1975 में मेरे द्वारा एम०ए०करने तक वह कच्ची ही रही।उससे पहले उस समय की बात है जब उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्य मन्त्री श्री हेमवती नंदन बहुगुणा हुआ करते थे।मुझे यह अच्छी तरह याद है कि उस सड़क को पक्का कराने के लिए एक प्रतिवेदन मेरे द्वारा उन्हें रजिस्टर्ड डाक से भेजा था। उस समय मैं किसी कक्षा का विद्यार्थी ही था। कार्बन लगाकर प्रतिवेदन तीन प्रतियों में लिखा गया और गाँव के लगभग सौ लोगों के हस्ताक्षर कराकर एक प्रति भेज दी।इसके साथ ही आगरा शहर ,यमुना नदी ,आगरा से जलेसर जाने वाली सड़क का नक्शा बनाकर भी भेजा। बाद में वह सड़क पक्की कर दी गई। मैं नहीं जानता कि यह सब कैसे हुआ। 

  1996 - 97 में मैं राजकीय महाविद्यालय आँवला (बरेली) में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर था।तभी आगरा के समीप आँवलखेड़ा में नव स्थापित राजकीय महिला महाविद्यालय खुलने की सूचना मिली।तभी उत्तर प्रदेश सरकार में माननीय मंत्री श्री धर्मपाल सिंह जी के सत्प्रयासों से मैंने अपना स्थानांतरण इसी कालेज में करा लिया। वहाँ मुझे राष्ट्रीय सेवा योजना के कार्यक्रम अधिकारी का प्रभार भी प्राप्त हुआ। और उसका प्रथम दस दिवसीय विशेष शिविर अपने गाँव में ही लगा दिया तथा अपने ही निवास पर सभी शिविरार्थिनीयों के ठहरने, खाना बनाने ,खिलाने आदि की सभी व्यवस्थाएँ कर दी गईं। 

 पचास छात्राएं नित्य प्रति गाँव में आतीं और फावड़े तसले लेकर गाँव से सम्बद्ध पक्के मार्ग तक दगरे को कच्ची सड़क में बदलने का कार्य करतीं।सड़क बनाई गई और सड़क पर सड़क से गाँव की दूरी अनुमान से ही 1200 मीटर लिख दी गई।विशेष शिविर के समापन समारोह का संपादन तत्कालीन क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी आगरा डॉ.रामानंद प्रसाद जी के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। 

 उसी अवधि में कच्ची सड़क बन जाने के बाद मेरे मन में यह विचार कुलबुलाने लगा कि यह कच्ची सड़क यदि पक्की हो जाती तो कितना अच्छा होता। बस मैंने अपने प्रयास शुरू कर दिए और एक प्रार्थना पत्र बनाकर गांव की बी०डी०सी० के माध्यम से माननीय ग्राम्य विकास मंत्री श्री धर्मपाल सिंह जी को भेज दिया। कुछ ही महीने के बात थी कि पक्की सड़क निर्माण के लिए पी०डब्लू०डी० विभाग के पास आवश्यक धनराशि भेज दी गई और शीघ्र ही सड़क निर्माण का कार्य भी प्रारम्भ हो गया और मेरे द्वारा लगाए गए सूचना बोर्ड के अनुसार केवल 1200 मीटर सड़क का ही निर्माण किया गया। गांव से 300 मीटर पहले ही सड़क बनाना बन्द कर दिया गया। पूछने पर बताया गया कि 1200 मीटर के लिए ही अनुदान आया था। मैंने पुनः माननीय मंत्री जी को लिखा पढ़ी की तो गाँव के बाहर जंगल तक दो किलोमीटर तक पक्की सड़क बना दी गई ।इस प्रकार समाज और देश हित की भावना ने गाँव की उस सड़क को सम्बद्ध मार्ग से जोड़कर पूर्णता पाई।

  मेरे जीवन की यही कुछ छोटी - मोटी झलकियाँ हैं ,जो बड़े होने पर भी जीवन में एक सकारात्मक सोच बनकर देश व जनहित के लिए समर्पित रहीं। मुझ अकिंचन में आज भी वही जज्बा,जुनून और जोश कायम है,जिससे निस्वार्थ भाव से पूर्ण करते हुए जीना ही जीवन का लक्ष्य बन चुका है।काव्य और साहित्य लेखन भी मेरी इसी भावना को समर्पित कार्य हैं,जिसे आजीवन करने की यथाशक्य इच्छा पालकर अपने चिंतन को अग्रसर कर रहा हूँ। 

 भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखभाक भवेत।।

 11.05.2024●11.45आ०मा० 

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शुक्रवार, 10 मई 2024

रसना [कुंडलिया]

 222/2024

                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

रसना   रस -  आगार  है, मधुर  कसैला   तिक्त।

अम्ल लवण कटु हैं सभी,छः रस से अभिसिक्त।।

छ:  रस  से अभिसिक्त, सभी की महिमा  न्यारी।

मधुर  सभी   से   श्रेष्ठ, लगे सबको अति  प्यारी।।

'शुभम्'  बोलिए  बोल, नहीं  कटु करना    रचना।

लगे  हृदय    को   फूल, बनाएँ  सुमधुर    रसना।।


                          -2-

जैसा  इसका    नाम  है,  वैसा  ही हो   काम।

रसना रस  की  धार हो,  रसना  रस का धाम।।

रसना  रस  का  धाम,  हृदयपुर   में बस जाए।

मिले  शांति  विश्राम,सुने  शुभकर फल   पाए।।

'शुभम्'  यहीं  है  नाक,न  बोलें कड़वा   वैसा।

करे    सार्थक   नाम, काम  हो रसना   जैसा।।


                         -3-

जाती   लेकर   स्वर्ग   में,  करे   नरक निर्माण।

रसना  जिसका  नाम  है,  करती  है म्रियमाण।।

करती   है   म्रियमाण, जगत  को यज्ञ   बनाए।

हानि  लाभ  यश  मान,  सभी का बोध  कराए।।

'शुभम्' सुने पिक बोल, हृदय कलिका मुस्काती।

कटु  कागा  के  शब्द, सुनी  कब वाणी  जाती।।


                         -4-

वाणी  रसना   जीभ  ये, शुभकारी  बहु    नाम।

सदा  विराजें  शारदा,  करती  हैं निज    काम।।

करती  हैं  निज  काम, काव्य  की गंगा  बहती।

गहे    लेखनी    हाथ,   शब्द  भावों में    रहती।

'शुभम्'  न   सबको प्राप्त,शारदा  माँ कल्याणी।

रसना  से  रसदार,   सदा  बहती  शुभ   वाणी।।


                         -5-

रसना   पर  माँ  आइए, कवि  की यही  गुहार।

रक्षा      मेरी    कीजिए,   माँ   भारती   उदार।।

माँ  भारती  उदार , जगत  हित निकले  वाणी।

चींटी  गज   नर  ह्वेल, शुभद  करना कल्याणी।

'शुभम्' कर्म फल दान, किया माँ ने कर  रचना।

हो न  लेश  भर हानि, शारदे कवि की   रसना।।


शुभमस्तु !


10.05.2024●9.15आ०मा०

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गुरुवार, 9 मई 2024

टूटकर जुड़ने की [ अतुकांतिका ]

 221/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टूटकर

जुड़ने की गाँठें

पूर्ववत होतीं नहीं।


दूरियाँ 

बनती दिलों में

जब विषमता का जहर,

आँच - सा जलता

यकायक

रात - दिन आठों प्रहर।


आदमी ही 

आदमी का

शत्रु बनकर आ खड़ा।


स्वार्थ आड़े

आ रहे हैं

स्वार्थ की सत्ता सदा,

हो रहे हैं

गैर अपने

हाथ में खंजर गदा।


'शुभम्' शुभता

जानता कब

पंक में सिर तक गड़ा।


शुभमस्तु !


09.05.2024●3.45 प०मा०

धरती पर भी झाँका होता [ नवगीत ]

 220/2024


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आसमान से

एक बार तो 

धरती पर भी झाँका होता।


उड़ता रहा

रूस अमरीका

पातालों  की  खबरें लाया।

आग लगी थी

आसतीन में 

नहीं चिरांयध तुझको आया।।


जिंदा मानुष के

जलने का

समाचार  क्या अशुभ न बोता?


घर के बालक

भूखे मरते

उधर  दूध  पीते  हैं  कुत्ते!

नंग- धणन्ग

देह सिसियातीं

नहीं गात ढँकने को लत्ते।।


सोने के 

आखर में अपना

नाम लिखाने को तू रोता!


भाती है

कीचड़ की बदबू

दोनों हाथ सने कीचड़ से।

जी भर

उसे उछाल रहा है

भूक  रहे  दिन में गीदड़-से।।


'शुभम्' फूटने 

लगा देह से

नाले वाला पंकिल सोता।


शुभमस्तु !


09.05.2024●3.15 प०मा०

धरती का भगवान आदमी [नवगीत]

 219/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ब्रह्मा विष्णु

 महेश हो गया

धरती का भगवान आदमी।


अपना नाम

लिखाता फिरता

मंदिर सड़कों  और  गली में।

चला अकेला

साथ न कोई

जंगल का बस सिंह बली मैं।


अंहकार का

दास बना तू

नहीं कभी जो रहा लाजमी।


अपने ही गुण के

घर - घर में

डंके  से   बाजे   बजवाए।

कोई टिके

समक्ष न तेरे

सौ-सौ गुण अपने गिनवाए।।


बचा न पानी

दो नयनों में

सूख गई सब बची जो नमी।


धन बल से

सब चैनल क्रय कर

अखबारों में छपता अपना।

बना स्वयंभू

ईश्वर रे नर

देख रहा कुछ ऊँचा सपना।।


सबमें कमियाँ

खोज हजारों

अपने में थी नहीं दो कमी।


शुभमस्तु !


09.05.2024●2.15प०मा०

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कभी शाख पर कभी धरा पर [नवगीत ]

 218/2024

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समय एक सा 

कभी न रहता

कभी शाख पर कभी धरा पर।


इतराना क्या

सुमन चमन के

दो दिन की बहार है तेरी।

फिर मुरझाना

तुझे पड़ेगा

दुर्लभ मंजिल राह अँधेरी।।


रह जाने हैं

धरे यहीं पर

सत्ता सत्तासन होते क्षर।


अंबर में 

उड़ते पंछी के

पंख साथ कब तक दे पाते।

शक्तिहीन 

होते हैं डैने

कट कर गिरते क्षय हो जाते।।


देख सामने

दृष्टि घुमाकर

पड़ता है सबको जीकर मर।


कटु वाणी की

चला सुनामी

तूने  सदा  डुबाया  खुद को।

घुट-घुट कर

क्यों अश्रु बहाए

भूल गया क्यों अपने रब को।।


'शुभम्' स्वार्थ में 

डूबा मानव

बना बनाया पाया है घर।


शुभमस्तु !


09.05.2024●1.30 प०मा०

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हुक्का [ गीतिका ]

 217/2024

                  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चिलम  गई  अब   रहा  न  हुक्का।

गुड़ -  गुड़ कहीं न करता   हुक्का।।


चार   लोग    मिल   बैठें    जमकर,

सबको      बाँध   बैठता      हुक्का।


सिखलाता   था      मेल     एकता,

सम   समाज  की  समता   हुक्का।


किया  बंद    यदि    हुक्का -  पानी,

बहिष्कार    का     नपता    हुक्का।


बच्चों  का   यह   खेल   न   समझें,

बड़े   जनों    की    दृढ़ता    हुक्का।


दाढ़ी    मूँछ       सफेदी        लाएँ,

पक्का     मर्द      जताता    हुक्का।


'शुभम्'    उमड़ता   पानी     पीला,

अनुभव   खान    बताता   हुक्का।।


शुभमस्तु !


08.05.2024●2.15प०मा०

गोदी [ गीतिका ]

 216/2024

                    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गोदी   का   सुख    किसे   न  भाए।

गोदी    रोते        को      ललचाए।।


बचपन   की    आदत    न   भूलती,

प्यार    मिले   झट    से   चढ़  जाए।


नेता      की      गोदी       में     नेता,

चमचा   तुरत      उछल  बढ़   आए।


दूध    पी    रहे       पत्रकार      बहु,

राजनीति    के      द्वार        सजाए।


कुछ    कंधे   पर     चढ़े    हुए     हैं,

शेष  बचे    सिर     पर   धर    लाए।


कुछ     बेचारे      सोच      रहे     हैं,

कोई       मेरी         गोद      शुभाए।


'शुभम्'  गोद   में    इज्जत    बढ़ती,

गोदीधारी            जान       बचाए।


शुभमस्तु !


08.05.2024●1.15प०मा०

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पोखर पानी बावली [ दोहा ]

 215/2024

         

[पोखर, ताल, झील, बावली, पानी]


                 सब में एक

गाँव - गाँव  पोखर सभी, सूखे तीव्र   निदाघ।

जेठ और  वैशाख  क्या,मास पौष या   माघ।।

बिना नीर  मछली मरीं,पोखर सब जल हीन।

भेक   नहीं  टर - टर   करें, ढूँढ़े  वास नवीन।।


बरसे  मेघ  अषाढ़  के,  भरे  खेत वन   ताल।

खग तरु जन प्रमुदित सभी,बदल गया है हाल।।

ताल - तलैया  बाग - वन, होते सब   आबाद।

सघन  मेघ वर्षा  करें, कल-कल छल-छल  नाद।।


अति वर्षा - जल   से बने, खेत बाग वन झील।

प्रमुदित हैं  तरुवर   सभी, हर्षित नहीं   करील।।

तव   नयनों  की झील में,  तैर रहा  मन  मीन।

चैन नहीं  पल   को  कहीं,  अतिशय होता दीन।।


मन    तेरा    है   बावली,  सीढ़ी  बनी हजार।

कैसे   पाऊँ   थाह  मैं,जब तक मिले न प्यार।।

पास न  आना  बावली,मैं  जलधर  का खंड।  

उड़ता  रहता  शून्य  में,  झोंका   बन बरबंड।।


पानी-पानी   हो  गया,  खुला चोर का  भेद।

चोरी  भी  पकड़ी गई,  बड़ा  हुआ जब  छेद।।

आँखों  का  पानी  मरा, हया न मन  में  शेष।

नेतागण   इस  देश   के,  धारण  करें   सुवेष।।


                    एक में सब

पोखर सरिता  बावली,झील ताल  आगार।

पानी  बिना न जी सकें, चाहें जल का  प्यार।।


शुभमस्तु !


08.05.2024●8.00आ०मा०

                  ●●●

मंगलवार, 7 मई 2024

श्रमरत है मजदूर [ गीत ]

 214/2024

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भारी ईंटें

उठा शीश पर 

श्रमरत है मजदूर।


तन पर मैले

वसन धरे वह

जा भट्टे के बीच।

रखता बोझ

ईंट का भारी

देह स्वेद से सीच।।


पत्नी बालक

निर्धन भूखे

हुआ  बहुत  मजबूर।


दिन भर करता

काम थकित हो

मिले न इतना दाम।

मुश्किल से ही 

मिल पाता है

रात्रि -शयन आराम।।


जुट पाता 

भी नहीं अन्न जल

परिजन  को भरपूर।


शोषण करते

पूँजीपति क्यों

बेबस  हैं  लाचार।

देह न देती

साथ काम का

पड़  जाते  बीमार।।


'शुभम्' राष्ट्र

उनका सीमित है

सब खुशियों  से दूर।


शुभमस्तु !


07.05.2024●8.15आ०मा०

                 ●●●

चप्पल [ बाल गीतिका ]

 213/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सरपट    फटफट    जातीं  चप्पल।

आतीं  -  जातीं  -   आतीं  चप्पल।।


उबड़ - खाबड़   या    समतल   हो,

पदत्राण    बन     पातीं     चप्पल।


कीचड़ , पर्वत      या   हो     ढालू,

बिलकुल  नहीं     डरातीं   चप्पल।


काँटा  चुभे   न    कीचड़     लिपटे,

दोनों    पैर       बचातीं      चप्पल।


न  हो   हाथ    में अस्त्र -  शस्त्र तो,

दुश्मन    पीट     गिरातीं    चप्पल।


होतीं   कभी     हाथ   में   शोभित,

दुष्टों    को      धमकातीं     चप्पल।


'शुभम्'  बहुत   ही   गुण   से भारी,

प्रतिपक्षी      धकियातीं     चप्पल।


शुभमस्तु !


06.05.2024●5.45प०मा०

                   ●●●

सोमवार, 6 मई 2024

चश्मा [बाल गीतिका]

 212/2024

                

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नाक    कान    पर  अटका  चश्मा।

हमको    राह     दिखाता   चश्मा।।


तेज    धूप    की   चौंध    न भाती,

आँखों    को     भरमाता     चश्मा।


दृष्टि   अगर     कमजोर      हमारी,

साफ -  साफ  दिखलाता    चश्मा।


यदि हो  आँख  खराब   किसी  की,

शगुन  न    बुरा    कराता    चश्मा।


मुखड़े    का    शृंगार     एक   यह,

चारों    चाँद      लगाता      चश्मा।


सूरदास      भी     सजते    इससे,

दर्शक    को    जतलाता    चश्मा।


'शुभम्'  शौक का  पूरक   कृत्रिम,

मित्रो        रंग - बिरंगा       चश्मा।


शुभमस्तु !

06.05.2024●12.30प०मा०

                   ●●●

रूप का अभिमान इतना! [ गीतिका ]

 211/2024

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


क्यों  मदों  में  चूर हैं  ये आज की नव गोरियाँ।

समझतीं  नर को  नहीं हंकार में भर छोरियाँ।।


रूप का  अभिमान इतना  अप्सरा भी मात है,

चढ़ रही हैं आज उनके भाल पर क्यों त्यौरियाँ।


चार अक्षर  पढ़   लिए  तो शारदा अवतार बन,

मारती हैं कवि पुरुष को शब्द की शत गोलियां।


छू   न  जाए  सभ्यता  का  एक पल्लू  देह  से,

मारती  हैं  व्यंग्य   की  मीठी  दुधारी  बोलियाँ।


भेदभावों   की   खड़ी   दीवार उर के बीच   में,

भर  रही  हैं  माँग में किस नाम की वे   रोलियाँ!


नाम विमला  शांति कमला रख लिए सुंदर बड़े,

परुषता  मन   में भरी  है  कर  रही बरजोरियाँ।


'शुभम्'  नारी  योनि का देखा बहुत अपमान ये,

नारियाँ  ही  कर  रही   हैं नारियों की खोरियाँ।


शुभमस्तु !


06.05.2024●8.45आ०मा०

                     ●●●

आज की नव गोरियाँ [ सजल ]

 210/2024

         

समांत    :  इयाँ

पदांत     : अपदांत।

मात्राभार : 26

मात्रा पतन : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


क्यों  मदों  में  चूर हैं  ये आज की नव गोरियाँ।

समझतीं  नर को  नहीं हंकार में भर छोरियाँ।।


रूप का  अभिमान इतना  अप्सरा भी मात है।

चढ़ रही हैं आज उनके भाल पर क्यों त्यौरियाँ।।


चार अक्षर  पढ़   लिए  तो शारदा अवतार बन।

मारती हैं कवि पुरुष को शब्द की शत गोलियां।।


छू   न  जाए  सभ्यता  का  एक पल्लू  देह  से।

मारती  हैं  व्यंग्य   की  मीठी  दुधारी  बोलियाँ।।


भेदभावों   की   खड़ी   दीवार उर के बीच   में।

भर  रही  हैं  माँग में किस नाम की वे   रोलियाँ!!


नाम विमला  शांति कमला रख लिए सुंदर बड़े।

परुषता  मन   में भरी  है  कर  रही बरजोरियाँ।।


'शुभम्'  नारी  योनि का देखा बहुत अपमान ये।

नारियाँ  ही  कर  रही   हैं नारियों की खोरियाँ।।


शुभमस्तु !


06.05.2024●8.45आ०मा०

                     ●●●

नारी बनाम गलती [कुंडलिया]

 209/2024

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

माने अपनी लेश भर , गलती   कभी न   एक।

देखे  बिना  न  आँख  से,  नारी   वह प्रत्येक।।

नारी  वह    प्रत्येक, ईश   की  अद्भुत   रचना।

आठ  पहर  का  साथ,पुरुष  यह कैसे बचना।।

'शुभम्'  सत्य  यह बात,सदा वह अपनी ताने।

देते    रहो    प्रमाण, आपकी   एक  न    माने।।


                         -2-

नारी   से  कहना   नहीं, गलती  करो अनेक।

दे दें   भले  प्रमाण   भी,   एक  तुम्हारी टेक।।

एक  तुम्हारी  टेक, कभी   मैं  गलत न होती।

लगा  रहे  आरोप , झूठ   कह-कह  कर रोती।।

'शुभम्' न  डालो  हाथ,साँप का बिल है भारी।

करो  मौन  स्वीकार, गलत कब होती   नारी।।


                        -3-

पहले - पहले  पुरुष की,रचित हुई है देह।

बाद विधाता ने  करी, नारी सृष्टि स्व गेह।

नारी  सृष्टि  स्व गेह,भूल क्या ऐसी उनसे।

हुई  सृजन में  दीर्घ, भरी  नारी ठनगन से।।

'शुभम्'  सोचते  ईश,मार  नहले पर दहले।

रच दी  नारी शुभ्र, नहीं  पर  नर  से पहले।।


                         -4-

नारी   है  संसार   में,  प्रभु  की महती  भूल।

कहते   हैं   परमात्मा,   बने पुरुष-अनुकूल।।

बने पुरुष-अनुकूल,झूठ निकला वह  वादा।

कर्म  करे   प्रतिकूल,उलट  ही हुआ इरादा।।

'शुभम्' करें क्या लोग,पुरुष पर पड़ती भारी।

पाल   लिया   क्या  रोग,नहीं फुलवारी नारी।।


                         -5-

करते  हैं  उपहास  क्यों, वृद्ध विधाता  आज।

नहले  पर  दहला  लगा, हटा दिया नर-ताज।।

हटा  दिया  नर -ताज, गलतियों की ये क्यारी।

माने  एक  न  बात,खिल रही घर-घर   नारी।।

'शुभम्' जननि का रूप, कभी पत्नी ला धरते।

खोद  घरों  में   कूप, विधाता  नाटक करते।।


शुभमस्तु !

06.05.2024●7.30आ०मा०

                     ●●●

पहले वाली बात नहीं है [ नवगीत ]

 208/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पहले वाली

बात नहीं है,

पाँच साल पहले जैसी।


बहने लगीं

हवाएँ उलटी

शीत युद्ध अनिवार चले।

मन में चलीं

कटारी बरछी

पड़ती बीच दरार छले।।


रुख बतलाते

वर्षा होगी

नहीं  प्रबल वैसी-वैसी।


एक दूसरे को

दिखलाना

 चाह रहे दोनों नीचे।

सत्तासन की

शतरंजों में

गोट मुट्ठियों में  भींचे।।


अच्छे ये

आसार नहीं हैं

होनी है ऐसी -तैसी।


समय एक -सा

कभी न रहता

प्यादा   फ़र्जी बन जाता।

चालें अपनी

चले न सीधी

चलते - चलते तन जाता।।


गर्भ समय के

जो पलता है

कर देता हालत ऐसी।


शुभमस्तु !


05.05.2024●2.30प०मा०

                    ●●●

उसको आँख दिखाना मत [ नवगीत ]

 207/2024

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सत्तासन की

जननी जनता

उसको आँख दिखाना मत।


तू याचक है

दाता है वह

फैलाए भी जोड़े हाथ।

आजीवन तू

उऋण न होगा

सदा झुकाना उसको माथ।।


तू संतति

वह पूजनीय है

तुझे पालना ही है सत।


भय धमकी

आतंक दिखाकर

कौन यहाँ पर टिक पाया।

शोषण करता

तू उसका ही

जिसकी तुझे मिली छाया।।


आजीवन 

आभारी होकर

कर्म पंथ पर हो जा रत।


अहंकार से

मिट जाते हैं

राजपाट  वैभव   सारे।

न्याय धर्म का

करे अनुसरण

बनते हैं जन-जन प्यारे।।


करनी कथनी

एक जहाँ हो

जनगण की होती सदगत।


शुभमस्तु !


05.05.2024●10.15आ०मा०

रविवार, 5 मई 2024

सच को कोई नहीं जानता [ नवगीत ]

 206/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सबके ही

कयास अपने हैं

सच को कोई नहीं  जानता।


अलग - अलग

स्वर हर ढपली के

कोई वक्ता है भावी का।

ताला लिए

फिर रहा कोई

उसे खोलने की चाबी का।।


दावों की

आँधी चलती है

कहता मुख से सत्य मानता।


हम ही सत्ता 

के धारक हैं

सिर के ऊपर गुजरा पानी।

कानों से है

बहरा  पूरा

गढ़-गढ़ कहता नई कहानी।।


भूलभुलैया में

है जनता

डोर कुए पर बैठ तानता।


चैनल और

मीडिया वाले

सबके हैं अंदाज़ निराले।

रस ले लेकर

 हैं फ़रमाते 

'सुसमाचार' मसाले वाले।।


पत्रकार टोही

फिरते हैं 

लगती केवल भूँक श्वानता।


शुभमस्तु !


04.05.2024●9.00प०मा०

                  ●●●

भाषा लाल मिर्च है जिनकी [नवगीत ]

 205/2024

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भाषा लाल 

मिर्च है जिनकी

सुनकर झन्ना जाते कान।


कुंठा चीख 

रही मंचों से

नारी   का  ये  कैसा  मान?

गर्ल फ्रेंड

विधवा कह देते

करना क्या इनको मतदान??


जहाँ नारियाँ

पूजी जातीं

ऐसा अपना देश महान।


हार - जीत सब

अलग बात है

जीभ लभेड़ा क्यों खाए?

खिसियाहट ये

क्या कहती है

बार-बार यों उलझाए।।


सौंप रहे हो

बागडोर क्यों

क्यों ऐसों को बना महान?


जूती समझ 

रहे पाँवों की

नारी  को  जो नेता आज।

रख दोगे क्या

उनके सिर पर

भारत माता का नव ताज।।


चमके 'सुचरित'

'माननीय' के 

सुन लेना सब देकर ध्यान।


शुभमस्तु !


04.05.2024●5.45प०मा०

                 ●●●

किसके भक्त आज के नेता [ नवगीत ]

 204/2024

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जनता सब कुछ

समझ गई है

किसके भक्त आज के नेता।


अब गलियों में

नहीं जरूरी

कोई  हाथ  जोड़ने  जाए।

मुखचोली धर

रंग - बिरंगी

आँखों-आँखों में शरमाए।।


माननीय के 

साथ मंच से

दोनों हाथ जोड़ वह देता।


कवि कहता है

शरमाना क्या 

पाँच साल ही तो बीते हैं।

जो पहले थे

भूखे याचक

उनके घड़े  अभी रीते हैं।।


समय कहाँ है

बेचारों को 

अब तक धन के अंडे सेता।


सुविधाओं की

त्रिपथगा से 

धन्य -धन्य जन को कर देंगे।

दुखी न होगा

भूखा कोई 

बातों से ही  दुख हर लेंगे।।


मतमंगे से

कहता जनगण

तुम्हें बनाएँगे  हम  जेता?


शुभमस्तु !


04.05.2024●3.30प०मा०

                    ●●●

शनिवार, 4 मई 2024

किसी भी कीमत पर [ नवगीत ]

 203/2024

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


होना ही है

हमको महान

किसी  भी  कीमत पर।


आलू - आलू

सोना बनकर

सुख - समृद्धि लाएगा।

बिना बहे ही

स्वेद बिंदु कण

मानव   सरसायेगा।।


मौज करेंगे

ठाले जन

बने ही मिलेंगे  घर।


तालाबों से

गूँज रही  है

टर-टर-टर दिन रात।

हमको  सुनना

नहीं किसी की

बाँटेंगे        खैरात।।


तिलक छाप सँग

गलमाला भी

धोतीधारी  चला उधर।


माल इधर का

उधर करेंगे

नहीं जेब से  देना।

सभी पड़ौसी

मित्र हमारे

नहीं  रहेगी  सेना।।


हमें चाहिए

कुर्सी ऊँची

छिड़ी हुई है टर -टर।


शुभमस्तु !


04.05.2024●8.45आ०मा०

                  ●●●

होती है कीचड़ की होली [ नवगीत ]

 202/2024

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ढूँढ़ - ढूँढ़ कर 

कमियाँ लाते 

होती है कीचड़ की होली।


अपना दामन

धुला दूध -सा

कहें  दूसरे  का  है  मैला।

मुर्दे गढ़े

उखाड़े जाते

सिद्ध करें उनको गुबरैला।।


चैनल बिके

खबर मनचाही

बिखरा रही लाल रँग रोली।


जो वे कहें

वही छपता है

भोंपू का स्वर एक  सभी का।

गोबर पर

है दूध-मलाई

नैतिकता का मरण कभी का।।


भाँग पड़ी है

कूप - कूप में

खाएँ सभी भंग की गोली।


जो खोले मुख

थोड़ा-सा भी 

अगले  ही  पल बंद मिलेगा।

पट्टा बदले

एक रात में

एक इंच भी  नहीं हिलेगा।।


जैसे भी हो

साम दाम या

दंड भेद की मीठी बोली।


शुभमस्तु !


04.05.2024● 8.00आ०मा०

                     ●●●

भक्त नहीं कुछ बोल रहे हैं! [नवगीत ]

 201/2024

    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भक्तालय में

हक्के-बक्के

भक्त नहीं कुछ बोल रहे हैं।


अंधभक्ति कुछ

काम न आई

गरुण- मीडिया बेबस भारी।

यहाँ - वहाँ

अँधियारा छाया

कोरोना  की  ज्यों बीमारी।।


एक - एक कर

कतर रहे पर

रुख बयार का तोल रहे हैं।


आँधी नहीं 

सुनामी कोई

हवा बंद  है भीतर बाहर।

घुसे माँद में

जो दहाड़ते

चीते हिंसक या थे नाहर।।


भक्तों की ख़ातिर

वचनामृत

नहीं रसामृत घोल रहे हैं।


भेड़ों की 

अपनी क्या इच्छा

वे तो केवल हैं अनुगामी।

उनकी चाह

घास मिल जाए

'जो आदेश' भरें वे हामी।।


'शुभम्' हवाओं

के रुख बदले

मन उनके अब डोल रहे हैं।


शुभमस्तु !


03.05.2024●4.00प०मा०

रथ के घोड़े थके हुए हैं [ नवगीत ]

 200/2024

        

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


घंटे शंख

बंद हैं सारे

रथ के घोड़े थके हुए हैं।


सन्नाटा पसरा 

घर भर में

कोई कुछ भी नहीं बोलता।

साँय - साँय 

चलती हैं लूएँ

गुपचुप धीमा जहर घोलता।।


पड़े गाल पर

गरम थपेड़े

आम पिलपिले पके हुए हैं।


एक स्वयंभू

ईश्वर बनकर

निर्मित की है अपनी सत्ता।

मेरी  इच्छा

बिना न हिलना

किसी पेड़ का कोई पत्ता।।


अपनों का ही

रक्त पिया है

हाथ अभी तक रँगे हुए हैं।


ये न समझना

पता नहीं कुछ

हवा कौन सी बाहर बहती।

सिर के ऊपर

बहता पानी

सरिता नई कहानी कहती।।


ताश महल 

के पत्ते सारे

अवगुंठन में ढँके हुए हैं।


शुभमस्तु !


03.05.2024●3.15प०मा०

                  ●●●

अभिमान [कुंडलिया ]

 199/2024

                      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

करता नर अभिमान  क्यों, आया खाली   हाथ।

यहीं मिला  रहना  यहीं,जाए क्या तृण    साथ??

जाए  क्या  तृण साथ, वृथा क्यों तनता  फिरता।

नेह - डोर को  छोड़, नित्य  विपदा से   घिरता।।

'शुभम्' काठ - सा तान ,घूर पर गर्दभ   चरता।

जग  में  मिले  न मान,अहं क्यों रे नर  करता ??


                          -2-

कारण मनुज-विनाश का,है अतिशय अभिमान।

मरते  बुद्धि  विवेक  सब, रहता अपनी   तान।।

रहता  अपनी   तान,  किसी  की बात  न  माने।

मरे   हृदय   की  तीत,  लगे  फिर तू  पछताने।।

'शुभम्' सँभल  चल  चाल, नम्रता कर  ले धारण।

यों  विनाश  का  मूल, अहं  बन जाता   कारण।।


                         -3-

नेता  नित  अभिमान में,  करें न जन से  बात।

मंत्री  पद  की  ऐंठ  में,  जन  को मारें   लात।।

जन को  मारें  लात, अवधि  जब पद की बीते।

मिले  न   मत  का   दान, लौटते   हैं वे    रीते।।

'शुभम्'  करे   कल्याण,कृपा  करता जो   देता।

विजयश्री   की   माल, पहनता  वह जन नेता।।


                           -4-

रहता  भाव  विनीत जो, तजकर मन अभिमान।

मिले सफलता  हर कहीं,  करे  कृपा का  दान।।

करे  कृपा  का   दान, काम   उसके कब  रुकते?

होता  वही   महान,  विनय   से  दानव   झुकते।।

'शुभम्'  मिले  शुभ  राह,कष्ट तन मन  में  सहता।

करता  है  जग  वाह, नेह  से  जो जन   रहता।।


                          -5-

अपना धन - अभिमान  तू,तज दे रे नर  मूढ़।

जलती  गोरी   देह   भी,नश्वर  जीवन   कूढ़।।

नश्वर  जीवन   कूढ़, अमरता जिसकी   होती।

सूक्ष्म   आत्मा   एक, नहीं  हँसती या   रोती।।

'शुभम्' सुधारें  योनि ,विनय  से तुमको तपना।

त्याग  अहं  के  खेल ,देख  तू  भावी अपना।।


शुभमस्तु !


03.05.2024●10.45आ०मा०

                    ●●●

दूध का दूध [ अतुकांतिका ]

 198/2024

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कौन जानता है

अपना प्रारब्ध!

किंतु हमारा वर्तमान 

हमारा भविष्य 

सब देन है प्रारब्ध की।


अहंकार में मानव

भूल जाता है

कर्म का बोया 

गया बीज,

कल वही 

बनता है 

गुलाब के फूल

या कीकर के शूल।


देखता क्या है?

सब तेरे सामने ही

आना है,

प्रारब्ध का ध्यान कर

अब क्या पछताना है?


जैसा बीज बोया था,

वैसा ही फल खायेगा,

अरे बच्चू! 

बच कर कहाँ जाएगा?

नरक और स्वर्ग

सब यहीं मिल जाएगा।


दूध का दूध

पानी का पानी,

 सब सामने ही आना है,

पैसा ही सब कुछ नहीं

 'शुभम् ' कर्म -फल

सुहाना है।


शुभमस्तु !


02.05.2024●10.00 प०मा०

                     ●●●

गरिमा ग्रीष्म प्रताप की [ दोहा ]

 197/2024


    [चिरैया,जीव,धरती,दरार,ग्रीष्म]

            

               सब में एक


चपल  चिरैया चोंच में,  चाँप चने की दाल।

पहुँची अपने नीड़ में ,जहाँ   खेलते लाल।।

देह-नीड़    में   प्राण की,सूक्ष्म चिरैया  एक।

कहाँ छिपी अनजान मैं,करती काज अनेक।।


जीव - जगत जंजाल  है,जब से जाना मीत।

कैसे  उबरें  जीव  ये,    चाल   हुई विपरीत।।

जैसे  अपने  जीव की, पोषक    है  हर   देह।

समझें सबको भी वही,प्रिय सबको निज गेह।।


भरी   धारणा   शक्ति  से, धरती -धैर्य  महान।

सहन  करे  हर कष्ट को,चला मूक अभियान।।

धरती माता  दे  रही,  नित्य  अन्न फल   दान।

उसका  सदा  कृतज्ञ   हो,जन्म वहीं अवसान।।


मन में   पड़ी  दरार  ही, बन जाती   है  गर्त।

पतन  करे  नर  का  वही, उधड़े बनकर पर्त।।

भरना  शीघ्र दरार को,निपुण मनुज का काम।

शुभता  आती  नित्य ही,जीवन हो अभिराम।


ग्रीष्म - ताप  से  तप्त हो, धरती माँगे  नीर।

नभ- मंडल  में सूर्य  का,बढ़ता तेज अधीर।।

गरिमा ग्रीष्म प्रताप की,कौन यहाँ अनजान?

वर्ष  सुखद  आनंदप्रद,  करता  भानु महान।।


                   एक में सब

ग्रीष्म - ताप  धरती  तपी, पड़ने   लगीं   दरार।

जीव जगत व्याकुल सभी,विकल चिरैया-क्यार।।


शुभमस्तु !


01.05.2024● 4.45आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

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