शुक्रवार, 31 मई 2024

नेता [कुंडलिया]

 251/2024

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

नेता  अलग  प्रजाति है, मनुज जाति से भिन्न।

नहीं  चाहती  एकता, जन-जन करती   छिन्न।।

जन - जन  करती   छिन्न, रंग में भंग कराना।

नेताओं  का  काम,   कथा  में  गधा चलाना।।

'शुभम्' चरित बदरंग,नहीं कुछ जन को देता।

मानव - दानव   बीच,विकसता सच्चा   नेता।।


                         -2-

कहता   पूरब    जा  रहा, जाता पश्चिम   ओर।

नेता    की   पहचान   ये, साँझ बताए   भोर।।

साँझ    बताए  भोर,  हृदय  का राज अजाना।

मरा आँख का  नीर, समय पर कभी न आना।।

'शुभम्' अलग ही  धार,नदी के साथ न  बहता।

मुख से  साँचे बोल,भूल  वह कभी न  कहता।।


                         -3-

आशा    नेता   से    नहीं, करना  कोई    मीत।

झूठे  उसके   बोल  हैं,  चले   चाल विपरीत।।

चले  चाल  विपरीत, दिलाए  बस आश्वासन।

ठगता    सारा   देश,  बाँटकर  चीनी राशन।।

'शुभम्'  न  देना  काम,देश सब इससे  नाशा।

रहो   भरोसे     राम,  झूठ   ही   देता  आशा।।


                          -4-

नेता     ऐसा    चाहिए,  कथनी  करनी   एक।

सत चरित्र  से  युक्त  हो, जिसमें भरा विवेक।।

जिसमें   भरा    विवेक, देश  आगे ले   जाए।

लफ़्फ़ाजी   से    दूर,   नहीं  ऑंखें दिखलाए।।

'शुभम्'    बने  आदर्श,  कीर ज्यों अंडे   सेता।

जन  में  न  हो अमर्ष, देश  सेवक  हो    नेता।।


                         -5-

कोई   नेता  क्यों बना, अलग - अलग है लक्ष्य।

धन  अर्जन  कोई  करे, खाता  भक्ष्य-अभक्ष्य।।

खाता   भक्ष्य -अभक्ष्य,  चरित   का कोई  हेटा।

सात   पीढ़ियाँ    धन्य,   दीखते  बेटी   - बेटा।।

'शुभम्'  स्वप्न  साकार,  हुए जब फसलें  बोई।

लादे    धन   की   खेप,  बना  यों नेता    कोई।।


शुभमस्तु !


31.05.2024●7.00आ०मा०

                   ●●●

करवट ऊँट की [अतुकांतिका]

 250/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


इधर आग है

उधर आग है

बाहर भीतर

 आग लगी,

चरम आग का

क्या होना है ?

सोच रहे हैं

मनुज सभी।


चित भी इनकी

पट भी उनकी

अंटा उनके बाप का,

नहीं जानते

ऊंट किधर ले

करवट मत के ताप का।


न्याय नीति

सब रखे ताक पर

हथकंडे के ही फंडे,

बाजी निकल 

न पाए कर से

घूम रहे हैं मुस्टंडे।


भीतर खोट

मिले बस सत्ता

चाहे जैसे 

हम भगवान,

दाँत अलग कुछ

दिखलाने के

खाने को बनते शैतान।


रक्षक है

बलवान समय ही

हो न सकेगा 

अब अन्याय,

मानव को 

मानव जो समझे

'शुभम्' उसी को 

मिलता न्याय।



●शुभमस्तु !

30.05.2024●3.45प०मा०

                 ●●●

गुरुवार, 30 मई 2024

तपें नौतपा खूब [ भुजंगप्रयात ]

 249/2024

           

छंद विधान:

1.मापनी :122  122  122  122

2.चार चरण का वर्णिक छंद।

3.दो -दो चरण समतुकांत।

4.कुल वर्ण संख्या :12.


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तपें   नौतपा   में   धरा   जीव  सारे।

सभी  चाहते  हैं  नदी   के  किनारे।।

तवा-सी  तपी   भूमि  धूनी  लगी है।

नमी  नीर   की पूर्ण जाती  भगी है।।


नहीं  पाँव  नंगे    पड़ें  यों   धरा में।

कहें   कीर  सारे जला   मैं मरा मैं।।

सभी  ढोर  भैंसें व  गायें  दुखी   हैं।

हमें एक  ही जीव  दीखे   सुखी है।।


सुखी  है  हरा  है  सुफूला  जवासा।

वहीं पास में है अकौवा स- आसा।।

पके आम  मीठे   हमें   हैं    रिझाते।

सभी  प्रौढ़  बूढ़े  युवा  खूब   खाते।।


तपें  चादरें    चारु    शैया    हमारी।

खड़ी  है  रँभाती  सु  गैया  बिचारी।।

चलें  नौतपा  में  स -धूली  तपाती।

हवा आग  की  ये भभूती   उड़ाती।।


तपें   नौतपा   खूब    गंगा  नहाएँ।

जपें  शंभु  का नाम  गीता  सुनाएँ।।

यही जेठ   का मास ज्ञानी  विज्ञानी।

करें कृष्ण का नाम   नामी सुमानी।।


शुभमस्तु !


29.05.2024●12.15प०मा०

तपे नौतपा ग्रीष्म [ दोहा ]

 248/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लाज करें तिय जेठ की,मुख अवगुंठन ढाँप।

लगे    नौतपा  आग  के,बरस  रहे  हैं साँप।।

लगें  थपेड़े   आग    के , मुरझाए  दो गाल।

आँख  मिलाए कौन अब, सूरज से तत्काल।।


धरती  पर  पड़ते  नहीं, बिना उपानह  पाँव।

नीम  तले  की छाँव भी,  माँग रही है छाँव।।

चैन   मिले  घर   में   नहीं, ढूँढ़ें  बाहर छाँव।

ढोर  लिए  अपने सभी, वट  तरु नीचे गाँव।।


अवा  सरिस  धरती हुई,तवा  सदृश है रेत।

उठें  बगूले  वात   के,तप करते सब खेत।।

बिस्तर  चादर  सब तपें,तपें आग-सी देह।

दूर - दूर तक  है  नहीं,  बरसे  नभ से मेह।।


क्षिति नभ पावक तत्त्व त्रय,चौथा चटुल समीर।

पंचम  जल भी खौलता, तापित सभी अधीर।।

बिना  तपे   नव ताप में,  होती  धरा न   शुद्ध।

ज्ञान  तभी  मिलता  सही, कहते सत्य प्रबुद्ध।।


षड ऋतुओं में ग्रीष्म ही,शोधक हैं दो मास।

कीट आदि सब नष्ट हों, दृढ़ है यह विश्वास।।

तपसी  ज्ञानी  तप  करें, तप  से ज्ञानी  बुद्ध।

धरती  तपती  मास दो, रविकर से कर युद्ध।।


ऋतु है भीष्म निदाघ की,तप का ही आधार।

'शुभम्' मनुज जितना तपे,आता पूर्ण निखार।।


शुभमस्तु !


29.05.2024●6.30आ०मा०

                   ●●●

ग्रीष्म उत्ताप [ दुर्मिल सवैया ]

 247/2024

         


छंद-विधान:

1.24 वर्ण का वर्णिक छंद।

2.आठ सगण सलगा =(II$ ×8).

3.12,12 वर्ण पर यति।प्रत्येक चरण में 24 वर्ण।

4.अंत में समतुकांत अन्त्यानुप्रास।


© शब्दकार 

 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                      -1-

नभ से बरसे रवि तेज महा,

                        धरती जल अंबर नित्य  तपे।

अकुलाइ रहे जन जीव सभी,

                    कब शीतल ब्यारि बहे भुव पे।।

कत रोष  भरे सतराइ खड़े,

                       जल जीवहु प्राण बचाइ जपे।

तन  स्वेद  भरे  महकाइ  रहे,

                  निज नाथ बिना  तिरिया कलपे।।


                          -2-

वन  बागनु  में पथ गाँवनु में,

                        नित पेड़ कटें जलहीन   धरा।

नभ  में  उमड़ें न  सु मेघ घने,

                        सब चीखत कीर पखेरु   मरा।।

पय सूख  गयौ  थन  ढोरनु से,

                        तिय कौ मुरझाइ गयौ  अँचरा।

नर नारि किसान  दुखी  मन में,

                            घर में घबराइ फिरे   कबरा।।


                          -3-

खरबूज सुगंध   लुभाइ  रही,

                              तरबूज तरावट आइ गई।

लँगड़ा फ़जली  महके  अमुवा,

                         नव नीलम  जामुन छाइ  नई।।

निबुआ रस कौ सुख अम्ल रिसे,

                        बहु स्वाद भरे फल डाल कई।

जब   छाछ   सुशीतल  स्वाद भरे,

                       मन में तन में सुख राशि   भई।।


                         -4-

तचि भूमि  भई  रज आग मई,

                         परसे पद अंग जलाइ रही।

चिनगारि  उड़े  तन  कोमल  पे,

                       जल लूक  सुदेह सुभाइ नहीं।।

तन कौ  जल सूखि  उड़े नभ में,

                      सब रूखनु लूअ चुभाइ बही।

मछली  सर में   घबराइ  घिरी,

                    बस छाछ रुचे अरु खाइ दही।।


                         -5-

इत  प्यास बढ़ी  उत  ताप चढ़ौ,

                         बड़रे दिन की छुटकी रतियाँ।

इत ब्याह भयौ नव   ब्याहुली से,

                      कित जाय करें मन की बतियाँ।।

तन से तन कौ मन से मन कौ,

                       परिचायक जातक की  गतियाँ।

निज द्वार रखौ शुभ चिह्न 'शुभं',

                       शुचि पीत सजें दो- दो सतियाँ।।


शुभमस्तु !


28.05.2024●2.00प०मा०

                   ●●●

रही न तरुवर छाँव [ गीत ]

 246/2024

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ठूँठ बिलखते

करते क्रंदन

रही न तरुवर छाँव।


अपने पाँव

कुल्हाड़ी मारे

मानव निर्दय जीव।

जिनसे लाभ 

उठाए निशि दिन

बना उन्हीं से क्लीव।।


पत्थर मार

फलों को तोड़े

लगा रहा नित दाँव।


धरती  रोए

बूँद -बूँद को

 निर्मेघी आकाश।

करें तपस्या

जो आजीवन

उन पेड़ों की लाश।।


पौधारोपण 

नहीं हो रहा

लू में तपते पाँव।


जान रहा है

सुख वृक्षों का

फिर भी बन अनजान।

आरे चलते

तरु   पर   उसके

दिखा व्यर्थ की शान।।


कोकिल वाणी

 न दे सुनाई

या कौवे की काँव।




शुभमस्तु !


28.05.2024●8.30आ०मा०

सोमवार, 27 मई 2024

कच्छप खरहा दौड़ है! [ दोहा गीतिका ]

 245/2024

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कच्छप  खरहा   दौड़  है,उर में खिलते   फूल।

समय उन्हें परिणाम दे,किसके वह अनुकूल।।


खरहा   दौड़ा  तेज  ही, हाँफ  गया वह  शीघ्र

सोया  तरुवर  छाँव  में,  शर्त  गया वह  भूल।


कच्छप यों चलता  रहा, रुके  बिना अविराम,

लक्ष्य  पार  उसने  किया,सोया शशक बबूल।


करें  न  अति  विश्वास भी,अपने ऊपर  मित्र,

कर्म  शिथिल  होना  नहीं, चुभें न पैने   शूल।


आदि  मध्य शुभ अंत का,करें संतुलन ठीक,

उचित नहीं अति से भरी,मन की तेरी   हूल।


राजनीति  या देश  हो, या समाज का   धर्म,

नीति नियम तजना नहीं,रहकर ऊल जलूल।


'शुभम्' चला  चल  पंथ  में,  करे नहीं  विश्राम,

विजय  सदा ही   हाथ  हो, चमके  केतु  समूल।


शुभमस्तु !


27.05.2024●4.00आ०मा०

                   ●●●

करें न अति विश्वास भी [ सजल ]

 244/2024

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समांत    : ऊल

पदांत     : अपदांत

मात्राभार  : 24

मात्रा पतन :शून्य।


कच्छप  खरहा   दौड़  है,उर में खिलते   फूल।

समय उन्हें परिणाम दे,किसके वह अनुकूल।।


खरहा   दौड़ा  तेज  ही, हाँफ  गया वह  शीघ्र।

सोया  तरुवर  छाँव  में,  शर्त  गया वह  भूल।।


कच्छप यों चलता  रहा, रुके  बिना अविराम।

लक्ष्य  पार  उसने  किया,सोया शशक बबूल।।


करें  न  अति  विश्वास भी,अपने ऊपर  मित्र।

कर्म  शिथिल  होना  नहीं, चुभें न पैने   शूल।।


आदि  मध्य शुभ अंत का,करें संतुलन ठीक।

उचित नहीं अति से भरी,मन की तेरी   हूल।।


राजनीति  या देश  हो, या समाज का   धर्म।

नीति नियम तजना नहीं,रहकर ऊल जलूल।।


'शुभम्' चला  चल  पंथ  में,  करे नहीं  विश्राम।

विजय  सदा ही   हाथ  हो, चमके  केतु  समूल।।


शुभमस्तु !


27.05.2024●4.00आ०मा०

                   ●●●

फोटो फुटौवल [ व्यंग्य ]

 242/2024

               

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

आज के युग में आदमी से अधिक आदमी के फोटो का महत्त्व है।क्योंकि आदमी का क्या,वह तो कभी भी टाटा  बाय बाय करते हुए निकल लेता है, अमर है तो उसका फोटो ही है,और कुछ भी नहीं।फोटो की अमरता को दृष्टिगत करते हुए आदमी काम से अधिक फोटो को वरीयता प्रदान करता है।काम चाहे हो या न हो उसका फोटो खिंच जाना चाहिए।इस फोटो फुटौवल के हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं।

जीवन के विशद आकाश की यात्रा पर निकलो तो फोटो फुटौवल के नशा में झूमते हुए हजारों लोग मिल जाते हैं।पेड़ एक लगता है फोटो पच्चीस के खींचे जाते हैं। वह भी एक दो नहीं पचासों  फोटो अलग- अलग अदाओं में अलग धजाओं में खिंचते हैं। भला हो मोबाइल कैमरा बनाने वाले का यह सुविधा मुट्ठी-मुट्ठी को प्रदान कर दी।वही फोटो फिर अखबार ,टीवी, मुखपोथी और सोशल मीडिया पर धमाल मचाते हैं।शादी ब्याह की रस्में हों या न हों दूल्हा,दुल्हन, फूफा,जीजा,समधी,समधिन,यार दोस्त सब फोटो फुटौवल में मस्त हैं।

         फोटो का बड़ा भाई वीडियो क्यों पीछे रहने लगा भला?बरात चार कदम आगे बढ़ती है तो फोटुओं की बरात और आगे निकल जाती है।घोड़ी के साथ नाचने का मौका बार -बार हाथ नहीं आने वाला! इसलिए इसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए।फोटो फुटौवल के चक्कर में घनचक्कर बना हुआ आदमी यह भूल जाता है कि विवाह की रस्मों से ज्यादा खास है फोटो फुटौवल।इसलिए सूर्यास्त को पड़ने वाली भाँवरें अगले दिन सुबह या दोपहर तक पड़ पाती हैं। पता ही नहीं लगता कि विवाह के लिए फोटो खींचने हैं या फोटो फुटौवल के लिए विवाह करना पड़ रहा है। विवाह गौड़ हो जाता है।फोटो अपनी टाँगें पहले अड़ा देता है।जैसे सब कोई फोटो फुटौवल के दीवाने हो गए हैं।कभी -कभी तो फोटो फुटौवल में हाड़ फुटौवल और खोपड़ी फुटौवल  बाजी मार ले जाती है।

आग लगी हुई है।आग बुझाने वाले कम वीडियो और फोटो बनाने वाले ज्यादा मिल जाएँगे।आग बुझाने की चिंता और प्रयास भला कितने भाषाणवीरों का रहता है? न के बराबर। जब तक फायर ब्रगेड की गाड़ी आती है, तब तक सब स्वाहा हो चुकता है।

   विचार किया जाए तो आदमी से अधिक बड़ी उम्र फोटो की ही होती है। क्योंकि आदमी तो निकल लेता है , फोटो स्मृति चिह्न बना हुआ अमर हो जाता है।तभी तो पिछली कई -कई पीढ़ियों के फोटो आज की पीढियां देख पा रही हैं।ये हमारे पर बाबा हैं,ये उनके भी बाबा हैं ,ये दादी हैं ,ये परदादी हैं वगैरह वगैरह।

 वर्तमान फोटो फुटौवल का एक अहम पहलू ये भी है कि इसके दीवाने अपना जीवन इसी के लिए दाँव पर लगा बैठते हैं। वे साहसिक दृश्य (एडवेंचर ) के लिए नदी के बीच धार में,फिसलते हुए कगार में, रेल की पटरी पर, बहु मंजिला भवनों की चोटी पर, साँप बिच्छुओं से खेलते हुए फोटो फुटौवल से पीछे नहीं हटते।फोटो पहले ,जीवन बाद में। इसीलिए तो डूबा है आदमी फोटो के स्वाद में।आदमी से ज्यादा बसता है वह उसकी ही याद में।आदमी विदा ,स्मृतियों पर फिदा।

इससे एक बात और निकल कर आती है कि उसे वर्तमान से अधिक इतिहास से प्रेम अधिक है।वह अतीत जीवी है।वर्तमान से घृणा और चिह्नों से प्यार।क्या ही विचित्र है ये आदमी का खुमार।वह छायाप्रेमी है। अतीत जीवी है।इसीलिए नए फैशन के लोग जिंदा माँ बाप के वर्तमान का सम्मान न करके उनके फोटुओं पर माला पहनाते हैं, कौवे और चीलों को भोज कराते हैं।यह भी तो फोटो प्रेम ही है।आदमी के अधः पतन की पराकाष्ठा।फोटो फुटौवल का एक और रूप।बन गया आधुनिक आदमी फोटो - भूप। वर्तमान से अधिक भूतप्रेम, पीछे रह  गए  सब कुशल - क्षेम।शेम! शेम!! कहाँ से कहाँ जा पहुँचा आदमी! आदमी को आदमी होना था लाज़मी।जीवित देह से इम्पोर्टेन्ट हो गई  आदमी की ममी।रही ही कहाँ हैं उन आँखों में नमी ?लगता है ये आदमी नहीं है ,ये है आदमी की डमी।ये अलग बात है कि इसे उसकी अति सभ्यता कहें अथवा बड़ी - सी कमी।


शुभमस्तु !


26.05.2024●7.45आ०मा०

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रोज सुबह होते ही [ व्यंग्य ]

 243/2024

           

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रोज सुबह होते ही वे अपने घर से बाहर निकल जाती हैं।किस -किसके दरवाजे को वे नहीं खटखटाती हैं? कभी इस दर पर कभी उस दर पर।चलती चली जाती हैं वे हर घर - घर।कोई काम हो ,ऐसा कुछ भी नहीं।कुछ माँगना- देना हो ऐसा भी कुछ नहीं।फिर भी बिना माँगे  वे बहुत कुछ दे आती हैं और जो चाहती हैं वह बिना दिए ले आती हैं।वह कोई भिखारिन भी नहीं हैं।पर सौ दो सौ हजार में वे एक यहीं हैं। वस्तुतः उनके लेन-देन की कोई सीमा नहीं है।

आप कहेंगे कि ये क्या पहेली बुझा रहे हैं। ये क्या माजरा है जो इतने घुमा - फिरा कर बता रहे हैं।जी हाँ, वह एक चलती फिरती पहेली ही हैं।ज्यादा तो कुछ नहीं वह चालीस साला नवेली ही हैं।उनका दिन भर यही काम है। लगाने -बुझाने में उनका मोहल्ले में बड़ा नाम है। ऐसा भी नहीं कि उन जैसी कोई हँसी हस्ती नहीं हैं। आप शोध करके के देखें तो वे हर कहीं हैं।ये वे हैं जिन्हें किसी की खुशी,शादी, ब्याह,जन्म,जन्मदिन, नवगृहनिर्माण आदि कुछ भी सहन नहीं हैं।यदि हो जाये कहीं गमी तो सारी  खुशियाँ यहीं हैं।भीतर -भीतर उनका दिल बल्लियों उछलता है।बाहर से दिखावटी आँसू का सैलाब उमड़ता है। उनके चरित्र की महिमा विधाता ब्रह्मा भी नहीं जानते। ऐसी 'महानारियों' की संरचना वे कचरे से मानते। जैसे गुबरैले को गोबर की महक और स्वाद भाता है ,वैसे ही इनको कचरा फैलाना सुहाता है।

चुगलखोरी इनका प्रिय व्यसन है।चुगलखोरी के लिए ही तो इनके दिल में मची रहती सन -सन है।यहाँ की वहाँ और वहाँ की यहाँ इनका प्रिय शगल (हॉबी,कामधंधा)है।इसके बिना नहीं कटता एक भी पल है।पड़ती नहीं इनके दिल में एक घड़ी की भी कल है।इनके लिए यह काम बड़ा ही सरल है।भले ही वह भद्र समाज के लिए गरल है।पर क्या कीजिए गिरगिट का भी ! वह कभी स्वेच्छा से रंग नहीं बदलता।वह तो प्रकृति प्रदत्त गुण है कि चाहकर भी नहीं सँभलता।इसी तरह वे 'महादेवी' भी क्या करें,उन्हें विधाता ने भेजा ही इस काम के लिए है:'

जो आया जेहि काज सों तासों और न होय।'

परमात्मा का समाज के ऊपर बड़ा ही उपकार है कि वे पढ़ी हैं न लिखी। पर अच्छे -अच्छे पढ़े लिखों के कान अवश्य काटना चाहती हैं।यह अलग बात है कि यह काम इतना आसान भी नहीं है। कि वे जो कह दें सब सही है ! सोचती तो हैं कि वे किसी के भी कान न छोड़ें ।सबको नकटा बनाकर ही पानी पिएं। पर ऐसा हो नहीं पाता है।उनकी बातों में उनका अधकचरा हसबैंड ही आता है। वह तो उनमें सौ फीसद विश्वास जतलाता है।नहीं यदि कभी आए ,तो कस-कस कर थप्पड़ भी खाए।ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार इतिहास बनाया गया है। और कई बार उसे दोहराया भी गया है। उसका यह 'चंडी रूप' कई जोड़ा आँखों से देखा गया है,और कई जोड़ा कानों से सुना भी गया है।

एक विशेष बात यह भी है कि इस प्रकार की 'महानारियाँ' यहीं पर हों,या दो चार हों। ऐसे महान चरित्र तथाकथित  'सुशिक्षिताओं' और कवयित्रियों में भी मिले हैं।जो किसी अन्य कवि की ख्याति से क्षुब्ध ही होती हैं।वे या तो उन्हें उपेक्षित करती हैं अथवा जान बूझकर टाँग घसीटने का काम करने में प्रवीणा हो जाती हैं।पता चला है कि कुछ सहित्यिक मंचों पर वे अपनी रूप शोभा बढ़ा रही हैं और अपने चहेते -चहेतियों को सिर चढ़ा रहीं हैं। अब क्या करिए ,अपवाद कहाँ नहीं हैं ! कभी तुलसी बाबा यह बहुत पहले कह गए हैं :

'नारि न  मोह नारि के रूपा।' 

क्यों मानहिं वे पुरुष अनूपा।।

शुभमस्तु !

26.05.2024● 2.00प०मा०

शनिवार, 25 मई 2024

मियाँ मिट्ठू बनें [ व्यंग्य ]

 241/2024

               


©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मियाँ मिट्ठुओं का जमाना है।यदि आपको अपने को ऊपर उठाना है,तो ये आपका जमाना है।आप जमेंगे ही नहीं,नाकों नाक तक तर माल में गड़ जाएंगे। आपका मुकाबला अच्छे -अच्छे क्या बड़े-बड़े अच्छे नहीं कर पाएँगे।बस आप मियाँ मिट्ठू बने रहिए।कोई कुछ भी कहे आप अपनी पर डटे रहिए। भले ही आपकी बात सोलह आने झूठ हो।भले ही आपकी सम्पत्ति का स्रोत खसोट - लूट हो।पर प्रश्रय देते रहिए आपसी फूट को।बस चमकाए रखिए अपने टाई- सूट को।


जब तक आप मियाँ मिट्ठू नहीं बनेंगे,भला आपको कौन जानेगा।आपकी महिमा को कौन मानेगा।इसलिए कुछ उखाड़-पछाड़, तोड़-फोड़ भी जरूरी है।तभी तो आपकी इच्छा हो सके पूरी है।वैसे आप जमाने से दूरी ही बनाए रखना। तभी तो आपको उसका मधुर लवण स्वाद पड़ेगा चखना।हो सकेगा तभी आपका पूरा हर सपना।अब अपने इतनी दूर बसे हुए सूरज को ही देख लीजिए।वह भी मियाँ मिट्ठू बनने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता।वैशाख जेठ में दिन में दिखा देता है तारे पर दुनिया से मुख नहीं मोड़ता।शिशिर के कड़े शीत में आगमन की प्रतीक्षा करवाता है ; तो सावन भादों में मेघों में दुबक जाता है।सूरज भले ही  वाणी से मौन है ,किंतु मियाँ मिट्ठू उससे बड़ा कौन है?


    बड़ी - बड़ी कंपनियों वाले अपने घटिया माल का बढ़िया विज्ञापन करवाते हैं।जो खूबियाँ उनके माल में नहीं होतीं ,उनको हीरो- हीरोइनों को  मोटा  पैसा दे देकर झूठ कहलवाते हैं।उपभोक्ता भी हैं कैसे मूर्ख और नादान कि उनकी बातों में आ जाते हैं।यदि क्रीम लगाने से चमड़ी गोरी हो गई होती तो देश की सारी भैंसें गोरी चिट्टी गाय बन जातीं।पर आदमी है कि झूठ का दीवाना है। मैंने पहले ही कहा कि ये मिया मिट्ठुओं का जमाना है।


आप मेरी बात मानें। नेताओं की तरह दूसरों पर भरपूर कीचड़ उछालें।चलाते रहें अपनी मियाँ मिट्ठूपन की चालें।इस काम के लिए हो सके तो कुछ गुर्गे और चमचे भी पालें।फिर देखिए आपके कारनामे नहीं रहेंगे काले।अरे कुछ झूठ बोल कर ,झूठ में सच घोलकर, नाप तोलकर मियाँ मिट्ठू बने रहिए। आज के नेताओं से कुछ तो प्रेरणा लीजिए, कुछ सीखिए,मियाँ मिट्ठू अवश्य बने रहिए।


आप कहेंगे कि मियाँ मिट्ठू बनने के लिए हम क्या करें? बस झूठ की नाव में बैठ जाइए और अपनी नैया पार लगाइए।आपने देश और समाज के लिए क्या- क्या किया! इसी के गुण गाते रहिए ,दूसरों को नीचा दिखाइए और अपनी गुण- गाथा गाते रहिए।फिर क्या है नदी के बहाव में भी उल्टे बहिए।कोई क्या जाने कि आप कितने समर्पित हैं,समाज और देश हितार्थ संकल्पित हैं,देश की पीड़ा से आप कितने व्यथित हैं। यही सब कहिए,भले कुछ न किया हो। कुछ करिए भी मत। क्योंकि जिसे करना है ,स्वयं कर लेगा।आपको तो अपने प्रताप का झंडा ऊँचा उठाए रखना है।अखबार की सुर्खियां, सोशल मीडिया, मुखपोथी, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप सब पर छाए रहें।अपने मियाँ  मिठत्व का स्वाद बढ़ाते रहें। ये देश ऐसे मियाँ मिट्ठुओं को ही पसंद करता है। ऐसों पर मरता ही नहीं अपनी जान भी छिड़कता है।


शुभमस्तु !


25.05.2024●7.45आ०मा०

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पानी [कुंडलिया]

 240/2024

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

पानी - पानी  की  पड़ी,परित: प्रबल पुकार।

पानी  आँखों   का  मरा, नर  में नहीं शुमार।।

नर में  नहीं  शुमार,   भैंस   लोटे पोखर   में।

वैसा   ही   व्यवहार, उलीचे  जल  भू भर में।।

'शुभम्'  न  समझे बात,कहें तो मरती नानी।

छोड़ी नर  औकात, नहीं मिलता फिर पानी।।


                          -2-

मानव जीवन  के लिए,  पानी अति अनिवार्य।

बिना  सलिल सब  शून्य है,चले न कोई कार्य।।

चले   न   कोई   कार्य,  देह  में  सौ में   सत्तर।

पानी    ही   है  धार्य,  धरा   में  वह पिचहत्तर।

'शुभम्'    बहाए   खूब, बना  है  नर से  दानव।

मेघ   गए   हैं    ऊब,  बरसते   क्यों  हे  मानव??


                          -3-

पानी    के     पर्याय  हैं,   जीवन  अमृत   नीर।

जीव, जंतु, पादप, लता, सबकी जल तकदीर।।

सबकी   जल   तकदीर,अंबु  बिन हर  संरचना।

बनता   नहीं   शरीर,  ताप  से जलना  तचना।।

'शुभम्' पाँच में एक,तत्त्व जल क्रमिक कहानी।

क्षिति पावक नभ वायु,साथ में शीतल   पानी।।


                         -4-

पानी आँखों  की  हया,नित प्रति जाती सूख।

नर - नारी  कब   के  मरे, मरते पल्लव रूख।।

मरते    पल्लव   रूख, सूखते  सागर   सरिता।

क्या    पोखर  तालाब, शेष  रहने जलभरिता।।

'शुभम्'  दिखाए   आँख,पिता से खींचातानी।

मरा   आँख   का  नीर, पुत्र का सूखा   पानी।।


                          -5-

मोती  मानुस  चून  को,पानी अति अनिवार्य।

पानी बिना न जी सकें, करें न अपना कार्य।।

करें  न  अपना  कार्य,अंकुरित  पादप  होते।

बने  नहीं  आहार, कृषक  कब  दाना  बोते??

'शुभम्'  जेठ  का मास,धरा पानी बिन रोती।

स्वाति   बिंदु  के  बिना,नहीं  बनता  है  मोती।।


शुभमस्तु !


24.05.2024●1.00 प०मा०

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छिपकली -तंत्र [अतुकांतिका ]

 239/2024

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सत्ता के लिए

छिपकलियों में

छिड़ गई है जंग,

पछाड़ने की लगी होड़

दिखलाने लगीं

नए - नए रंग,

शक्ति- प्रदर्शन के

नए -नए ढंग।


'ए मुषली!

तू बड़ी वैसी है,

मुझे नहीं खाने देती

खा जाती 

सब कीट पतंगे,

इसीलिए तो होते हैं

तेरे मेरे दंगे,

चल मक्खी मच्छरों की

आम सभा करवाते हैं,

चुनाव मतदान से हो

यही संविधान बनाते हैं।'


छिपकलियों के नेतृत्व में

एक आम सभा हुई,

लड़ें वे आपस में

यही बात

 सुनिश्चित की गई,

जो जीतेगी वही

छत - रानी बनेगी,

तीन साल तक

सत्ता उसके

 हाथ में रहेगी।


और क्या है 'शुभम्'

चुनाव हो हो रहा है,

उधर मतदाता मच्छर

तान चादर सो रहा है,

'अरे इस वैशाख जेठ की

लू में कौन वोट देने जाए!

जीतकर भी इन्हें 

हमें ही खाना है,

इसलिए निज हित में

इन्हें अपना 

डंडा पुजवाना है।'


और वे  आम चुनाव

लड़ रही हैं,

पोलिंग बूथ खाली पड़े हैं,

पोलिंग पार्टी 

कुर्सियों पर सो रही है।


शुभमस्तु !


23.05.2024●5.45प० मा०

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छिपकलियों में छिड़ी लड़ाई [बालगीत]

 238/2024

 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


छिपकलियों    में    छिड़ी  लड़ाई।

मोटी - मोटी         लड़ने      धाई।।


सभी  कह  रहीं    छत     है   मेरी।

बतला  तू     कैसे    छत      तेरी।।

सबने  अपनी      युक्ति     जताई।

छिपकलियों  में     छिड़ी   लड़ाई।


मक्खी     मच्छर  तू    खा    जाती।

मुझे  भयंकर     भूख       सताती।।

सबसे  पहले     मैं       थी    आई।

छिपकलियों  में     छिड़ी   लड़ाई।।


कीट  पतंगों   के     मत ले    लो।

फिर मस्ती से  छत  तर    खेलो।।

जिसने  लड़      कुर्सी   हथियाई।

छिपकलियों  में    छिड़ी  लड़ाई।।


छत   पर     प्रजातंत्र    ही   होगा।

जो   जीते,      पहने   नृप  - चोगा।।

नहीं        चलेगी          तानाशाई।।

छिपकलियों  में     छिड़ी   लड़ाई।।


आगे      पीछे      दौड़    लगाती।

लड़ने लगीं    सभी   बल  खाती।।

'शुभम्'  करें    कनवेसिंग   भाई।

छिपकलियों  में     छिड़ी  लड़ाई।।



शुभमस्तु !


23.05.2024●4.30प०मा०

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देखो छत की ओर [ गीतिका ]

 237/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


देखो    छत  की  ओर, छिपकलियों की   जंग।

ज्यों  गिरगिट   चितचोर ,  नित्य बदलता   रंग।।


विष    का    तन   भंडार,   देख   जुगुप्सा   देह,

 भोलेपन    की   धार,   छुआ  न जाए     अंग।


छत    पर    करना  राज,   यही   एक   उद्देश्य,

बँधे     शीश    पर    ताज, तभी   नहाएँ   गंग।


चिकने     मुखड़े    पीन,  लगा  मुखौटे     खूब,

साठा     बने     नवीन,   चर्म    चमक   अभ्यंग।


लगी    हुई     है    होड़,   करें  धरा पर     पात,

करे    सियासत    मोड़,  देख- देख जन     दंग।


नीति   नहीं    कानून,   केवल    पंक -  उछाल,

सब    हैं    अफलातून,  बाहर  भीतर       नंग।


'शुभम् '  बढ़ा     उत्पात, राजनीति का    मूल,

छिनते    नारि     दुकूल,बने मनुज अब   संग।


शुभमस्तु !


23.05.2024● 12.45 प०मा०

                    ●●●

गृहगोधा की जंग [ दोहा ]

 236/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


छिपकलियाँ  पाली  नहीं,जातीं  छत में  मित्र।

पता न कब आतीं सभी,दिखला चटुल चरित्र।।

नर -नारी  घर  में बसें,छिपकलियाँ भी  साथ।

स्वतः कहाँ  से आ गईं,कभी न आतीं  हाथ।।


छिपकलियाँ लड़तीं सभी,छत पर शासन  हेतु।

फहराना  वे    चाहतीं, अपना  काला   केतु।।

लड़-भिड़   पीछा कर  रहीं,दौड़ लगाएँ  नित्य।

छिपकलियाँ छत में बसीं,बतलातीं औचित्य।।


छत  की  रानी  मैं  बनूँ, उनका यही विवाद।

छिपकलियाँ  दुम  खीँचतीं,मच्छर देते  दाद।।

जंग  छिड़ी  घनघोर  ये,छिपकलियों की तेज।

कीड़े   और   पतंग  में ,खबर सनसनीखेज।।


कौन  गिरा  पाए  किसे,बचा स्वयं की लाज।

छिपकलियाँ  निर्भय  लड़ें,देखो ऊपर  आज।।

झींगुर    मच्छर   के लिए,गरम मसाला  खूब।

जंग   छिपकली से मिला,कौन सके अब ऊब।।


सबके  बड़े  कयास  हैं,करवट हो क्या   ऊँट?

कौन  छिपकली  जीतती, निकले बगबग सूट।।

तू   मुषली   गन्दी  बुरी, मैं  ही  निर्मल   साफ।

आ  जाने  दे  जीतकर , तुझे न करना   माफ।।


वाणी करें भविष्य  की,  झींगुर दास अभीत।

छिपकलियों की जंग में,नीति सभी विपरीत।।

गृहगोधा  की  जंग में,  छत की क्षति अपार।

राजनीति  के  युद्ध का,  मत  समझें आधार।।



शुभमस्तु!


23.05.2024●11.45आ०मा०

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गुरुवार, 23 मई 2024

छिपकली - जंग [ व्यंग्य

235/2024 

 

 ] ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

       छिपकलियों की जंग जारी है।जोर- शोर से जारी है। जोश - खरोश के साथ जारी है।जंग के रंग को देख रही दुनिया सारी है।सबके मन में एक जिज्ञासा एक उत्साह तारी है। आप ये भी न समझें कि यह कोई महामारी है।हाँ,इतना अवश्य है कि यह जंग सभी पर भारी है।ये तो बाद में ही पता चलेगा कि इसका परिणाम मीठा है कि खारी है। बस इतना समझ लीजिए कि जंग जारी है।

      कोई छिपकली अकेली जंग नहीं लड़ सकती।इसलिए स्वाभाविक है कि लड़ने वाली छिपकलियाँ एक से अधिक ही होंगीं।निश्चित रूप से ऐसा है भी कि वे एकाधिक ही हैं।अब बात लड़ने के उद्देश्य की आती है कि अंततः कोई लड़ता क्यों है?अपने अस्तित्व की रक्षा भी जंग का एक 'लोकप्रिय' उद्देश्य हो सकता है। इसके अलावा सत्ता हथियाना भी एक विशेष उद्देश्य है।अपने अहंकार की तुष्टि के लिए लहू वृष्टि एक अन्य जंगोद्धेश्य है।अहंकार से अहंकार टकराता है,तो खास तो खास बना रहता है ,आम चुस जाता है। आम तो है ही चुसने चूसे जाने के लिए।

       छिपकलियों का आहार मक्खी, मच्छर , कीट और पतंगे बड़े ही प्रमुदित हैं;छिपकली -जंग में ही उनके भाग्य उदित हैं।जंग जितनी लम्बी चले ,इसी चिंतन में वे खिलखिलाते नित हैं। आप यह भलीभाँति जानते हैं,कि छिपकली कभी नीचे रहना पसंद नहीं करती। उसे हमेशा ऊँचाइयां ही पसंद हैं।ऊंचाइयां भी कोई ऐसी वैसी नहीं।इसीलिए छिपकलियों का छतों से विशेष संबंध है।छतों के ऊपर नहीं, छतों के नीचे की सतह पर ही उनका प्रिय आवास है।ये अलग बात है कि विदेश यात्रा बतौर वे धरती पर भी चरण धर लेती हैं।जरा सी जन- पद आहट पाते ही पुनः छत पर चढ़ लेती हैं। 

     लगता है छिपकली-जंग का उद्देश्य छत की रानी बनने का है।इसीलिए वे एक दूसरी को भूमिसात कर अपने सिर पर ताज पहनना चाहती हैं।जब दो लड़ते -झगड़ते हैं ,तो तीसरा तमाशा देखता है। इस समय भी यही हो रहा है।छिपकलियाँ तमाशा हैं और मक्खी मच्छर तमाशा देख रहे हैं।एक दूसरी की पूँछ पकड़ कर घसीटी -खींची जा रही है।बस उसे नीचा दिखाना है।नीचे गिराना है।अपनी जय जयकार कराना है। कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि दो की लड़ाई में बाजी तीसरा मार ले जाता है।सभी इसी ओर नजर गड़ाए बैठे हैं कि देखें ऊँट किस करवट बैठता है। और वे हैं कि अपने मन की सारी की सारी कीचड़ निकाल कर बाहर किए दे रही हैं।कहीं ऐसा न हो कि आने वाली होली पर सफाई करने के लिए नाले- नालियों में भी कीचड़ न बचे। हाँ, इतना अवश्य है कि सारी छिपकलियाँ निर्मल मन निर्मल तन बगुले जैसे वसन और हम्माम में नगन हो जाएंगी। 

     आइए छिपकली - जंग के ऊँट की ओर नजर गड़ाते हैं कि हमारे बिना जाने वह कोई करवट न ले ले।करवट लेगा तो उठ कर खड़ा भी हो सकता है।यदि बैठा का बैठा ही रह गया तो जंग से लाभ ही क्या हुआ?हालांकि कोई जंग कभी किसी को लाभ देने के लिए नहीं लड़ी जाती। वह तो केवल अपने और मात्र अपने ही लाभ के लिए ,अपने अहं की तुष्टि के लिए, सामने वाले के विनाश के लिए और स्व विकास के लिए लड़ी जाती है।हम तो भैये तमाशबीन हैं, तमाशा देख रहे हैं।बस कोई भी छिपकली जीते, हमें तो तालियाँ ही बजानी है।क्योंकि इन छिपकलियों ने हमें तो बस ताली बजाने वाला ही समझा है।ताली बजाने लायक ही छोड़ा है।क्योंकि इनकी नजर में बाकी सब गधे खच्चर हैं यही एक  'श्वेतवर्ण'  घोड़ा हैं। 

 शुभमस्तु ! 

 23.05.2024●10.00आ०मा० 

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छिपकलियों की जंग [ गीत ]

 234/2024

         

©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'


छत   तल दौड़ी छिपकलियों की जंग  तेज है।

कब धरती  पर  आ टपकें सनसनीखेज  है।।


मैं    ही   तो छत  की  रानी हूँ यह विवाद  है।

गिरना  होगा   तुझको   नीचे  मूक नाद  है।।

ऊँचा   मेरा  सिंहासन  शुभ सजी सेज   है।

छत तल दौड़ी छिपकलियों की जंग तेज  है।।


पूँछ   पकड़कर  खींच   रही  है   जो मोटी  है।

बेचारी   बन   चीख    रही   है  जो छोटी   है।।

खतरा  है  दोनों   गिर   जाएँ   सड़ी लेज   है।

छत  तल दौड़ी  छिपकलियों की जंग  तेज है।।


दोनों   के   झगड़े   को  तीजी  देख  रही    है।

दोनों    ही     गिरने    वाली   अनुमान यही है।।

मौके   की   उसको   तलाश   निश्चय सहेज है।

छत  तल  दौड़ी छिपकलियों   की जंग तेज  है।।


झींगुर  मच्छर    नाच   रहे  क्या  होने    वाला।

छिपकलियों   की   महाजंग  है गरम मसाला।।

लड़ने      वाले   बने  तमाशा   बढ़ा  क्रेज   है।

छत   तल दौड़ी  छिपकलियों की जंग तेज  है।।


शुभमस्तु !


23.05.2024●5.15आ०मा०

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धरती धारक धर्म की [ दोहा ]

233/2024

         

          [नीर,नदी,धरती,बिवाई,ताल]

                       सब में एक

निर्मल   गंगा   में  बहे, अविरल शीतल  नीर।

बुझे  पिपासा जीव की,हो नहान सरि -  तीर।।

मिलन   तुम्हारा  शोभने, उर को शीतल नीर।

महक उठा सद्गन्ध-सा,कण-कण बना  उशीर।।


नदी   नहाई     धूप  में,  निर्मल करती   नीर।

ताप  धरा  का  हर  रही,तृण भर नहीं अधीर।।

नदी-नदी  सब  ही  कहें, देती वह दिन  - रात।

कलकल कर किल्लोल कर,करती है ज्यों बात।।


पाले    अपने    क्रोड़   में,धरती माँ   संसार।

मौन   रहे  सह    कष्ट  भी, देती  दान अपार।।

धरती धारक  धर्म  की, तल में मात्र  सुधर्म।

सबको ही  सुखदायिनी,  करे  नेक  सत्कर्म।।


प्यासी  धरती   रो  रही, फटीं बिवाई पाँव।

जा  खेतों  में  देख  लो,बिलख   रहे हैं  गाँव।

फ़टे बिवाई पाँव  की,  सबको होती   पीर।

नहीं   और  की  जानते,  बड़े -बड़े रणवीर।।


भीषण  तप्त  निदाघ  है,सूख  गए  हैं  ताल ।

जीव - जंतु  प्यासे  सभी,बिगड़ गया है  हाल।।

पड़ीं  दरारें  ताल में,  तड़प मरीं जल - मीन।

दादुर  तल में  जा  घुसे, बजा  चैन की   बीन।।


                 एक में सब

नदी  ताल  धरती सभी,धरें न मन  में  धीर।

फटी  बिवाई  पाँव में, वांछित निर्मल  नीर।।


शुभमस्तु !

22.05.2024● 8.00 आ०मा०

शुभद अल्पना घर में [ गीत ]

 232/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुख समृद्धि

धन-धान्य बढ़ाती

शुभद अल्पना घर में।


आता पर्व

दिवाली का जब

लेतीं  बना  रँगोली।

धर्म - कार्य

पूजा व्रत में भी

सजती रही अमोली।।


कमल पुष्प

मोरों से सजती

सुखद अल्पना दर में।


माँ बहनों

ने लिया हाथ में

गृह - सज्जा  अधिकार।

अला-बला से

बचा रहे घर

दोषों  का   प्रतिकार।।


चावल रोली

आटा बालू

से सज भारत भर में।


देवी - देव

ज्यामितिक आकृति

हल्दी   या   सिंदूर।

स्वस्तिक लक्ष्मी -

 चरण सजाते

नया  सृजन  भरपूर।।


कल इसको

धुल जाना ही है

भाव यही नश्वर में।


शुभमस्तु !


21.05.2024●7.15 आ०मा०

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नाग नथैया गिरिवर धारी [ गीतिका ]

 231/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगें       रंग    के     काले     हैं,

सबके    मुरली       वाले      हैं।।


मातु     देवकी     जननी     के,

नटखट     पुत्र     निराले     हैं।।


कारागृह   में      जन्म     हुआ,

लगे  जहाँ    पर    ताले      हैं।।


चलें  सखाओं के सँग दिन भर,

पड़ें  न    पग     में   छाले    हैं।।


नाग    नथैया     गिरिवर  धारी,

लगते       भोले -  भाले      हैं।।


लूट  -  लूट   दधि माखन  खाते,

माँ      यशुदा    ने    पाले    हैं।।


वन -  वन जाते    गौचारण  को,

विपदाओं      ने      ढाले      हैं।।


'शुभम्' श्याम राधा  के प्रिय वर,

कंस    आदि   के     लाले    हैं।।


शुभमस्तु !


20.05.2024●2.15प०मा०

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सबके मुरली वाले हैं [ सजल ]

 230/2024

            

सामांत    :आले

पदांत      : हैं

मात्राभार  : 14.

मात्रा पतन :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगें      रंग    के      काले     हैं।

सबके    मुरली      वाले      हैं।।


मातु     देवकी     जननी     के।

नटखट     पुत्र     निराले     हैं।।


कारागृह   में      जन्म     हुआ।

लगे  जहाँ    पर    ताले      हैं।।


चलें  सखाओं के सँग दिन भर।

पड़ें  न    पग     में   छाले    हैं।।


नाग    नथैया     गिरिवर  धारी।

लगते       भोले -  भाले      हैं।।


लूट  -  लूट   दधि माखन खाते।

माँ      यशुदा    ने    पाले    हैं।।


वन -  वन जाते  गौचारण  को।

विपदाओं      ने      ढाले      हैं।।


'शुभम्' श्याम राधा  के प्रिय वर।

कंस    आदि   के     लाले    हैं।।


शुभमस्तु !


20.05.2024●2.15प०मा०

                    ●●●

परहित [ कुंडलिया ]

 229/2024

                     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

                    

                              -1-

बातें   परहित  की   करें,  भरते अपने   पेट।

नेता  अपने   देश    के,  बना  देश को   चेट।।

बना   देश   को   चेट, भरी  खुदगर्जी   सारी।

सत   पथ  का  आखेट,  यही उनकी बीमारी।।

'शुभम्' सत्य  यह  तथ्य,अलग हैं दिन से रातें।

मुख में  बसा   असत्य,झूठ सब इनकी  बातें।।


                              -2-

अपना -  अपना   पेट  तो,  भर  लेते हैं     श्वान।

जीता   परहित   के लिए, यही मनुज  पहचान।।

यही   मनुज   पहचान,  परिग्रह  से है    बचना।

सुखमय   हो   संसार,  श्रेष्ठ   हो  भू की   रचना।।

देने  से   शुभ   दान, 'शुभम्'   शुचि देखे  सपना।

सबका   हो  कल्याण,स्वर्ग सम घर हो   अपना।।


                             -3-

करनी    परहित  की भली, मिले शांति   संतोष।

तन -  मन   अपने  वचन से, करें न कोई   रोष।।

करें   न   कोई    रोष,   पेड़    फल लकड़ी   देते।

देकर   शीतल   छाँव,  कष्ट   तन का हर     लेते।।

'शुभम्'  पत्र  दल   मूल, सभी  की महिमा  बरनी।

सब   परहित  के  काज,रखें पावन निज  करनी।।


                           -4-

कहते    सब  नदिया    उसे, आजीवन दे    नीर।

प्यास  बुझाए  जीव की, हरती  तन- मन  पीर।।

हरती   तन - मन  पीर, धरा का सिंचन   करती।

खिलते   तरु  पर  फूल, फलों से झोली  भरती।।

'शुभम्'   नदी  का  दान,सुखों के सागर   बहते।

धरती  परहित  रूप ,   किंतु जन नदिया  कहते।।


                           -5-

मानव  ने  समझा  नहीं,परहित का कुछ  मोल।

स्वार्थलिप्त  जीता  रहा, अशुभ  कर्म  अनतोल।।

अशुभ कर्म  अनतोल,किया करता नर   जीभर।

करे   वचन  में   झोल, नशे   की हाला   पीकर।।

'शुभम्' न  लेता  सीख,बना है निशिदिन दानव।

सूरज  निशिकर नीर, सिखाते  नित  ही  मानव।।


शुभमस्तु !

17.05.2024●7.00आ०मा०

                       ●●●

कनफोड़वा [अतुकांतिका]

 228/2024

                 

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



कठफोड़वा

मत कहिए,

कहिए अब बस

कनफोड़वा,

जो मात्र कानों को

फोड़ता है।


नक्कारखाने में

भला आवाज 

तूती की

सुनेगा भी कौन,

चिल्लाते रहो,

चीखते रहो।


 ज्यादा सड़े हुए

आम की ढेरी,

उसी में से 

चुनना है

सबसे कम

सड़ा हुआ आम,

यही है तुम्हारा काम।


होने लगी है शाम

सूरज अस्ताचल को है,

आवाजें कान फोड़ रही हैं

आम सड़ रहे हैं

किसी एक सड़े हुए को

'खास' बनाना है।


सत्य मौन है,

झूठ ठठाकर

 हँस रहा है,

किसे पड़ी है

देश हित की

कुर्सी लपक दौड़

अपने उत्कर्ष पर है।


शुभमस्तु!


16.05.2024●6.15प०मा०

गुरुवार, 16 मई 2024

संचार क्रांति का हिंदी साहित्य पर प्रभाव [आलेख ]

 227/2024 


 

 ©लेखक 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 यह सर्वांश में सत्य है कि एक ओर जहाँ विज्ञान वरदान है तो दूसरी ओर अभिशाप भी है।वह विज्ञान ही है जिसके कारण संचार के क्षेत्र में क्रांति ही आ गई है।सहित्य क्या मानव जीवन का प्रत्येक क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया है।आज विज्ञान ने वह सब कुछ प्रत्यक्ष कर दिखाया है,जिसके विषय में पहले कभी सोचा भी नहीं गया था। 

 यदि अतीत के वातायन में झाँक कर देखें तो पता लगता है कि जो चिट्ठियाँ पहले हफ़्तों महीनों की यात्रा करके अपने गंतव्य पर पहुँच पातीं थीं, अब उनका प्रचलन ही बंद हो गया है। अब तो मोबाइल से तुरंत कोई भी संदेश सम्पूर्ण विश्व में किसी के भी पास पहुँचाया जा सकता। पैसा भेजने के लिए धनादेश(मनी ऑर्डर)का प्रयोग किया जाता था। मनी ऑर्डर की निरर्थकता को देखते हुए सरकार को उसे बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। अब कोई भी धनराशि भेजने के लिए ऑन लाइन अनेक साधन हैं,जिनसे कुछ ही पल में एक राशि दूसरे स्थान पर भेज दी जाती है।मोबाइल के आने के बाद टी वी, ट्रांजिस्टर, रेडियो, वीडियो, टेप रिकॉर्डर आदि सभी विदा हो गए।अब विश्व में हो रही किसी भी गतिविधि की जानकारी मोबाइल से कुछ ही पलों में कर ली जा रही है।

  मोबाइल न हुआ ,जादू की डिबिया ही हाथ लग गई मनुष्य के हाथों में। संचार क्रांति के इस युग में हिंदी साहित्य क्या विश्व का कोई भी साहित्य प्रभावित हुए बिना नहीं रहा है।जो पत्र -पत्रिकाएँ, पुस्तकें,बड़े -बड़े ग्रंथ पुस्तकाकार रूप में छपकर आते थे ,अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनका एक उचित समाधान प्रस्तुत करते हुए क्रांति ही ला दी है। 

   हिंदी साहित्य के प्रकाशन के क्षेत्र में हजारों पत्रिकाएँ और पुस्तकें ऑन लाइन छपकर छा ही गई हैं। साहित्य की संख्या की बात करें तो इतना कुछ लिखा जा रहा है,जिसे पढ़ पाना भी सम्भव नहीं हो रहा है। यदि गुणवत्ता की दृष्टि से विचार किया जाए तो उसे तो उठाकर एक कोने में रख देना पड़ेगा।जिस प्रकार दुकानों पर लिखा रहता है कि 'फैशन कर युग में गारंटी की आशा न करें।' वैसे ही संचार क्रांति के युग में उत्कृष्टता और गुणवत्ता को तो भूल ही जाना पड़ेगा।भला हो उस कोरोना काल का ,जिसने घरों में पड़े - पड़े लोगों को कवि और लेखक बना दिया। कोरोना काल की यह साहित्यिक उपलब्धि एक बीमारी से उत्पन्न हुई है,तो रुग्ण तो होगी ही।कोरोना काल के तथाकथित रचनाकारों को यह भ्रम हो गया है कि वे बहुत बड़े साहित्यकार हो गए हैं।यद्यपि वहाँ छंद के नाम पर शून्यता का सन्नाटा है।मुक्त काव्य के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है,जो आजकल की ऑन लाइन कृतियों में देखा जा रहा है; उसका तो भगवान ही मालिक है।यद्यपि उसे श्रेष्ठता और गुणवत्ता की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए तो उसका स्थान कचरे का डिब्बा ही होगा।उधर उन नवागंतुकों का अहं देखिए तो पुराने कवि और साहित्यकार उनके समक्ष कहीं नहीं टिकते। वे अपने को किसी कालिदास ,सूर, कबीर,तुलसी,प्रसाद या पंत से कमतर मानने को कदापि तैयार नहीं हैं।यह भी आज की संचार क्रांति की देन है। जब बरसात होती है तो मेढ़क मछलियों के साथ-साथ घोंघे और सीपियाँ भी बरसती हैं। 

   सञ्चार क्रांति के युग का एक पहलू यह भी है कि जिन्हें स्वयं साहित्य की दो पँक्तियाँ भी लिखना नहीं आता ,वे संपादक बन गए हैं। इसलिए जो रचनाकार जैसी भी अनगढ़ कविता या लेख भेज देता है,उसे बिना कुछ देखे -परखे छाप दिया जाता है और प्रेषक की अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति कर दी जाती है। फिर तो वह उस रचना का स्क्रीन शॉट लेकर अपने इनबॉक्स में दिखाते हुए फूला नहीं समाता।कुछ तथाकथित 'महापुरुष' अथवा 'महानारियाँ 'साहित्यिक संचार क्रांति में आग लगाए हुए हैं और सभी रचनाकारों को बड़े- बड़े सम्मानों से सम्मानित करते हुए उन्हें साहित्य के सिर पर बिठा रहे हैं।इससे वर्तमान श्रेष्ठ सहित्य कलंकित हो रहा है।यह सोचनीय है कि अपात्रों के हाथों में श्रेष्ठ साहित्य की छवि धूमिल हो रही है। 

 इस प्रकार हम देखते हैं कि संचार क्रांति के दोनों ही पहलू हैं।सकारात्मक और नकारात्मक।क्रांति तो अपना काम बखूबी कर ही रही है,किन्तु इसमें भी साहित्य के दलाल अपने काले हाथों से श्रेष्ठ साहित्य का मुँह भी काला करने में कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं।इस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।सहित्य की इतनी छीछालेदर संभवतः पहले कभी नहीं हुई होगी। कुछ धनान्ध व्यवसायियों ने तो इसे कमाई का माध्यम ही बना लिया है और साझा संकलनों के माध्यमों से शॉल ,नारियल,स्मृति चिह्न और प्रमाण पत्रों का धुँआधार वितरण कर रहे हैं। धंधा अच्छा चल रहा है।यह भी आज की संचार क्रांति का एक अनुज्जवल पहलू है। 

 शुभमस्तु ! 


 16.05.2024●6.30 आ०मा० 


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कस्तूरी - परिमल जगी [ दोहा ]

 226/2024

     

[परिमल,पुष्प,कस्तूरी,किसलय,कोकिला]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

सभी  दंपती  के  लिए,परिमल शुभ  संतान।

जननी   को  सम्मान  दे, होता  पिता महान।।

पति-पत्नी  के  मध्य  में, परिमल सच्चा प्रेम।

जीवन    हो   आनंदमय,   चमके जीवन-हेम।।


खिले पुष्प- सा  पुत्र  जो, हर्षित हों    माँ-बाप।

सत्पथ  पर  संतति   चले,  बढ़ता सदा प्रताप।।

मानव   के   सत्कर्म    ही,  देते पुष्प -   सुगंध।

संतति  को  शुभ    ज्ञान दें , बनें नहीं दृग-अंध।।


कस्तूरी  सद गंध - सा,मिले शुभद  यश  मान।

उच्च   शिखर  आरूढ़ हो, मानव बने   महान।।

कस्तूरी - सद्गन्ध    को,  हिरन  न जाने   लेश।

त्यों सज्जन  अवगत  नहीं, रख साधारण  वेश।।


किसलय  फूटे   वृक्ष  में,लाल हरी  हर  डाल।

आएं  हैं   ऋतुराज    फिर, तरुवर मालामाल।।

किसलय नन्हे  लग रहे,ज्यों नव शिशु के हाथ।

झूल   पालने  में  रहा,निज जननी के   साथ।।


ऋतु  वसंत  मनभावनी,करे कोकिला  शोर।

अमराई     में   टेरती,   हुआ   सुहाना   भोर।।

श्याम  कोकिला की सुनी, अमराई   में   टेर।

विरहिन  के  मन  टीस  ने, किया प्रबल अंधेर।।


                 एक में सब

लगी   कूकने कोकिला,  खिले पुष्प   रतनार।

कस्तूरी -परिमल जगी,किसलय की भरमार।।


शुभमस्तु !


15.05.2024● 8.00आ०मा०

दिनकर तीव्र उदोत [ गीतिका ]

 225/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उतर  रहे  जल - स्रोत, धरा  में  कम है   पानी।

दिनकर  तीव्र  उदोत, कठिन  है जान  बचानी।।


लुएँ  चलें  चहुँ ओर, जीव  जन व्याकुल   सारे।

दिखते  कहीं  न  मोर, कहाँ  हैं जलधर   दानी।।


नेताओं    को   घाम,   नहीं   लगता निदाघ  में।

ए. सी.  कार  ललाम,  मंच   पर भाषण   बानी।


भरे  देश    का  पेट , कृषक  की दीन दशा   है।

सब   करते   आखेट, जिन्हें  सरकार   बनानी।।


आश्वासन  से  भूख , नहीं   मिटती जनता  की।

गए   पेट   तन   सूख,  घरों  पर  टूटी   छानी।।


पाँच   वर्ष   के  बाद, निकल  बँगले से   आए।

लेना  मत   का  स्वाद,मची  है  खींचा - तानी।।


पंक    उछालें   नित्य,  परस्पर   नेता    सारे।

'शुभम्'  यही  औचित्य , न इनका कोई सानी।।


शुभमस्तु !


12.05.2024●10.00प०मा०

                  ●●●

उतर रहे जल-स्रोत [ सजल ]

 224/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समांत    :  आनी

पदांत     : अपदांत

मात्राभार : 24.

मात्रा पतन: शून्य


उतर  रहे  जल - स्रोत, धरा  में  कम है   पानी।

दिनकर  तीव्र  उदोत, कठिन  है जान  बचानी।।


लुएँ  चलें  चहुँ ओर, जीव  जन व्याकुल   सारे।

दिखते  कहीं  न  मोर, कहाँ  हैं जलधर   दानी।।


नेताओं    को   घाम,   नहीं   लगता निदाघ  में।

ए. सी.  कार  ललाम,  मंच   पर भाषण   बानी।


भरे  देश    का  पेट , कृषक  की दीन दशा   है।

सब   करते   आखेट, जिन्हें  सरकार   बनानी।।


आश्वासन  से  भूख , नहीं   मिटती जनता  की।

गए   पेट   तन   सूख,  घरों  पर  टूटी   छानी।।


पाँच   वर्ष   के  बाद, निकल  बँगले से   आए।

लेना  मत   का  स्वाद,मची  है  खींचा - तानी।।


पंक    उछालें   नित्य,  परस्पर   नेता    सारे।

'शुभम्'  यही  औचित्य , न इनका कोई सानी।।


शुभमस्तु !


12.05.2024●10.00प०मा०

                  ●●●

शनिवार, 11 मई 2024

मेरा बचपन :मेरा सेवासन (संस्मरण )

 223/2024 


 

 ©लेखक

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 बचपन, बचपन होता है।किंतु बचपन के कार्य और रुचियाँ व्यक्ति के आगामी जीवन का दर्पण होते हैं।बड़े -बड़े चोर,डाकू,अपराधी ,धर्मनिष्ठ, समाजसेवी, नेता आदि सभी प्रकार और प्रवृत्तियों के लोगों में उनके भावी जीवन का बीजारोपण बचपन से ही हो जाता है।मैं यह भी नहीं कहता कि किसी महानता का बीजारोपण मेरे बचपन में हो गया था। हाँ,इतना अवश्य है कि मेरी प्रवृत्ति बचपन से ही परिवार,समाज और अपने आसपास व्याप्त किसी प्रकार की कमी को सही करने और उसका उपाय ढूँढने की ही रही।यही कारण है कि जैसे ही मैंने होश सँभाला और दो अक्षर पढ़ना सीखा ,वैसे ही मेरी लेखनी अपना काम करने लगी। 

 कविताएँ लिखना तो मुझे उसी समय से आ गया था ,जब मेरी उम्र मात्र ग्यारह साल की थी।उस समय मैं कक्षा चार का छात्र था।उस जमाने में बच्चे आजकल की तरह ढाई तीन साल के पढ़ने नहीं जाते थे। मैं जब पढ़ने बैठा उस समय मेरी उम्र सात वर्ष की रही होगी।इसलिए चौथी कक्षा में आते -आते ग्यारह साल का होना ही था।लेखनी अपनी यात्रा पर चल पड़ी थी। 

 मेरा गाँव आगरा से उत्तर दिशा में टेढ़ी बगिया से जलेसर मार्ग पर तीन किलोमीटर और रोड से गाँव 1500 मीटर की दूरी पर पूर्व दिशा में स्थित है। उस समय टेढ़ी बगिया से जलेसर को जाने वाली सड़क कच्ची हुआ करती थी।मेरा विचार यह था कि यह सड़क पक्की होनी चाहिए।1975 में मेरे द्वारा एम०ए०करने तक वह कच्ची ही रही।उससे पहले उस समय की बात है जब उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्य मन्त्री श्री हेमवती नंदन बहुगुणा हुआ करते थे।मुझे यह अच्छी तरह याद है कि उस सड़क को पक्का कराने के लिए एक प्रतिवेदन मेरे द्वारा उन्हें रजिस्टर्ड डाक से भेजा था। उस समय मैं किसी कक्षा का विद्यार्थी ही था। कार्बन लगाकर प्रतिवेदन तीन प्रतियों में लिखा गया और गाँव के लगभग सौ लोगों के हस्ताक्षर कराकर एक प्रति भेज दी।इसके साथ ही आगरा शहर ,यमुना नदी ,आगरा से जलेसर जाने वाली सड़क का नक्शा बनाकर भी भेजा। बाद में वह सड़क पक्की कर दी गई। मैं नहीं जानता कि यह सब कैसे हुआ। 

  1996 - 97 में मैं राजकीय महाविद्यालय आँवला (बरेली) में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर था।तभी आगरा के समीप आँवलखेड़ा में नव स्थापित राजकीय महिला महाविद्यालय खुलने की सूचना मिली।तभी उत्तर प्रदेश सरकार में माननीय मंत्री श्री धर्मपाल सिंह जी के सत्प्रयासों से मैंने अपना स्थानांतरण इसी कालेज में करा लिया। वहाँ मुझे राष्ट्रीय सेवा योजना के कार्यक्रम अधिकारी का प्रभार भी प्राप्त हुआ। और उसका प्रथम दस दिवसीय विशेष शिविर अपने गाँव में ही लगा दिया तथा अपने ही निवास पर सभी शिविरार्थिनीयों के ठहरने, खाना बनाने ,खिलाने आदि की सभी व्यवस्थाएँ कर दी गईं। 

 पचास छात्राएं नित्य प्रति गाँव में आतीं और फावड़े तसले लेकर गाँव से सम्बद्ध पक्के मार्ग तक दगरे को कच्ची सड़क में बदलने का कार्य करतीं।सड़क बनाई गई और सड़क पर सड़क से गाँव की दूरी अनुमान से ही 1200 मीटर लिख दी गई।विशेष शिविर के समापन समारोह का संपादन तत्कालीन क्षेत्रीय उच्च शिक्षा अधिकारी आगरा डॉ.रामानंद प्रसाद जी के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। 

 उसी अवधि में कच्ची सड़क बन जाने के बाद मेरे मन में यह विचार कुलबुलाने लगा कि यह कच्ची सड़क यदि पक्की हो जाती तो कितना अच्छा होता। बस मैंने अपने प्रयास शुरू कर दिए और एक प्रार्थना पत्र बनाकर गांव की बी०डी०सी० के माध्यम से माननीय ग्राम्य विकास मंत्री श्री धर्मपाल सिंह जी को भेज दिया। कुछ ही महीने के बात थी कि पक्की सड़क निर्माण के लिए पी०डब्लू०डी० विभाग के पास आवश्यक धनराशि भेज दी गई और शीघ्र ही सड़क निर्माण का कार्य भी प्रारम्भ हो गया और मेरे द्वारा लगाए गए सूचना बोर्ड के अनुसार केवल 1200 मीटर सड़क का ही निर्माण किया गया। गांव से 300 मीटर पहले ही सड़क बनाना बन्द कर दिया गया। पूछने पर बताया गया कि 1200 मीटर के लिए ही अनुदान आया था। मैंने पुनः माननीय मंत्री जी को लिखा पढ़ी की तो गाँव के बाहर जंगल तक दो किलोमीटर तक पक्की सड़क बना दी गई ।इस प्रकार समाज और देश हित की भावना ने गाँव की उस सड़क को सम्बद्ध मार्ग से जोड़कर पूर्णता पाई।

  मेरे जीवन की यही कुछ छोटी - मोटी झलकियाँ हैं ,जो बड़े होने पर भी जीवन में एक सकारात्मक सोच बनकर देश व जनहित के लिए समर्पित रहीं। मुझ अकिंचन में आज भी वही जज्बा,जुनून और जोश कायम है,जिससे निस्वार्थ भाव से पूर्ण करते हुए जीना ही जीवन का लक्ष्य बन चुका है।काव्य और साहित्य लेखन भी मेरी इसी भावना को समर्पित कार्य हैं,जिसे आजीवन करने की यथाशक्य इच्छा पालकर अपने चिंतन को अग्रसर कर रहा हूँ। 

 भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखभाक भवेत।।

 11.05.2024●11.45आ०मा० 

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शुक्रवार, 10 मई 2024

रसना [कुंडलिया]

 222/2024

                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

रसना   रस -  आगार  है, मधुर  कसैला   तिक्त।

अम्ल लवण कटु हैं सभी,छः रस से अभिसिक्त।।

छ:  रस  से अभिसिक्त, सभी की महिमा  न्यारी।

मधुर  सभी   से   श्रेष्ठ, लगे सबको अति  प्यारी।।

'शुभम्'  बोलिए  बोल, नहीं  कटु करना    रचना।

लगे  हृदय    को   फूल, बनाएँ  सुमधुर    रसना।।


                          -2-

जैसा  इसका    नाम  है,  वैसा  ही हो   काम।

रसना रस  की  धार हो,  रसना  रस का धाम।।

रसना  रस  का  धाम,  हृदयपुर   में बस जाए।

मिले  शांति  विश्राम,सुने  शुभकर फल   पाए।।

'शुभम्'  यहीं  है  नाक,न  बोलें कड़वा   वैसा।

करे    सार्थक   नाम, काम  हो रसना   जैसा।।


                         -3-

जाती   लेकर   स्वर्ग   में,  करे   नरक निर्माण।

रसना  जिसका  नाम  है,  करती  है म्रियमाण।।

करती   है   म्रियमाण, जगत  को यज्ञ   बनाए।

हानि  लाभ  यश  मान,  सभी का बोध  कराए।।

'शुभम्' सुने पिक बोल, हृदय कलिका मुस्काती।

कटु  कागा  के  शब्द, सुनी  कब वाणी  जाती।।


                         -4-

वाणी  रसना   जीभ  ये, शुभकारी  बहु    नाम।

सदा  विराजें  शारदा,  करती  हैं निज    काम।।

करती  हैं  निज  काम, काव्य  की गंगा  बहती।

गहे    लेखनी    हाथ,   शब्द  भावों में    रहती।

'शुभम्'  न   सबको प्राप्त,शारदा  माँ कल्याणी।

रसना  से  रसदार,   सदा  बहती  शुभ   वाणी।।


                         -5-

रसना   पर  माँ  आइए, कवि  की यही  गुहार।

रक्षा      मेरी    कीजिए,   माँ   भारती   उदार।।

माँ  भारती  उदार , जगत  हित निकले  वाणी।

चींटी  गज   नर  ह्वेल, शुभद  करना कल्याणी।

'शुभम्' कर्म फल दान, किया माँ ने कर  रचना।

हो न  लेश  भर हानि, शारदे कवि की   रसना।।


शुभमस्तु !


10.05.2024●9.15आ०मा०

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गुरुवार, 9 मई 2024

टूटकर जुड़ने की [ अतुकांतिका ]

 221/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टूटकर

जुड़ने की गाँठें

पूर्ववत होतीं नहीं।


दूरियाँ 

बनती दिलों में

जब विषमता का जहर,

आँच - सा जलता

यकायक

रात - दिन आठों प्रहर।


आदमी ही 

आदमी का

शत्रु बनकर आ खड़ा।


स्वार्थ आड़े

आ रहे हैं

स्वार्थ की सत्ता सदा,

हो रहे हैं

गैर अपने

हाथ में खंजर गदा।


'शुभम्' शुभता

जानता कब

पंक में सिर तक गड़ा।


शुभमस्तु !


09.05.2024●3.45 प०मा०

धरती पर भी झाँका होता [ नवगीत ]

 220/2024


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आसमान से

एक बार तो 

धरती पर भी झाँका होता।


उड़ता रहा

रूस अमरीका

पातालों  की  खबरें लाया।

आग लगी थी

आसतीन में 

नहीं चिरांयध तुझको आया।।


जिंदा मानुष के

जलने का

समाचार  क्या अशुभ न बोता?


घर के बालक

भूखे मरते

उधर  दूध  पीते  हैं  कुत्ते!

नंग- धणन्ग

देह सिसियातीं

नहीं गात ढँकने को लत्ते।।


सोने के 

आखर में अपना

नाम लिखाने को तू रोता!


भाती है

कीचड़ की बदबू

दोनों हाथ सने कीचड़ से।

जी भर

उसे उछाल रहा है

भूक  रहे  दिन में गीदड़-से।।


'शुभम्' फूटने 

लगा देह से

नाले वाला पंकिल सोता।


शुभमस्तु !


09.05.2024●3.15 प०मा०

धरती का भगवान आदमी [नवगीत]

 219/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ब्रह्मा विष्णु

 महेश हो गया

धरती का भगवान आदमी।


अपना नाम

लिखाता फिरता

मंदिर सड़कों  और  गली में।

चला अकेला

साथ न कोई

जंगल का बस सिंह बली मैं।


अंहकार का

दास बना तू

नहीं कभी जो रहा लाजमी।


अपने ही गुण के

घर - घर में

डंके  से   बाजे   बजवाए।

कोई टिके

समक्ष न तेरे

सौ-सौ गुण अपने गिनवाए।।


बचा न पानी

दो नयनों में

सूख गई सब बची जो नमी।


धन बल से

सब चैनल क्रय कर

अखबारों में छपता अपना।

बना स्वयंभू

ईश्वर रे नर

देख रहा कुछ ऊँचा सपना।।


सबमें कमियाँ

खोज हजारों

अपने में थी नहीं दो कमी।


शुभमस्तु !


09.05.2024●2.15प०मा०

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कभी शाख पर कभी धरा पर [नवगीत ]

 218/2024

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समय एक सा 

कभी न रहता

कभी शाख पर कभी धरा पर।


इतराना क्या

सुमन चमन के

दो दिन की बहार है तेरी।

फिर मुरझाना

तुझे पड़ेगा

दुर्लभ मंजिल राह अँधेरी।।


रह जाने हैं

धरे यहीं पर

सत्ता सत्तासन होते क्षर।


अंबर में 

उड़ते पंछी के

पंख साथ कब तक दे पाते।

शक्तिहीन 

होते हैं डैने

कट कर गिरते क्षय हो जाते।।


देख सामने

दृष्टि घुमाकर

पड़ता है सबको जीकर मर।


कटु वाणी की

चला सुनामी

तूने  सदा  डुबाया  खुद को।

घुट-घुट कर

क्यों अश्रु बहाए

भूल गया क्यों अपने रब को।।


'शुभम्' स्वार्थ में 

डूबा मानव

बना बनाया पाया है घर।


शुभमस्तु !


09.05.2024●1.30 प०मा०

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हुक्का [ गीतिका ]

 217/2024

                  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चिलम  गई  अब   रहा  न  हुक्का।

गुड़ -  गुड़ कहीं न करता   हुक्का।।


चार   लोग    मिल   बैठें    जमकर,

सबको      बाँध   बैठता      हुक्का।


सिखलाता   था      मेल     एकता,

सम   समाज  की  समता   हुक्का।


किया  बंद    यदि    हुक्का -  पानी,

बहिष्कार    का     नपता    हुक्का।


बच्चों  का   यह   खेल   न   समझें,

बड़े   जनों    की    दृढ़ता    हुक्का।


दाढ़ी    मूँछ       सफेदी        लाएँ,

पक्का     मर्द      जताता    हुक्का।


'शुभम्'    उमड़ता   पानी     पीला,

अनुभव   खान    बताता   हुक्का।।


शुभमस्तु !


08.05.2024●2.15प०मा०

गोदी [ गीतिका ]

 216/2024

                    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गोदी   का   सुख    किसे   न  भाए।

गोदी    रोते        को      ललचाए।।


बचपन   की    आदत    न   भूलती,

प्यार    मिले   झट    से   चढ़  जाए।


नेता      की      गोदी       में     नेता,

चमचा   तुरत      उछल  बढ़   आए।


दूध    पी    रहे       पत्रकार      बहु,

राजनीति    के      द्वार        सजाए।


कुछ    कंधे   पर     चढ़े    हुए     हैं,

शेष  बचे    सिर     पर   धर    लाए।


कुछ     बेचारे      सोच      रहे     हैं,

कोई       मेरी         गोद      शुभाए।


'शुभम्'  गोद   में    इज्जत    बढ़ती,

गोदीधारी            जान       बचाए।


शुभमस्तु !


08.05.2024●1.15प०मा०

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पोखर पानी बावली [ दोहा ]

 215/2024

         

[पोखर, ताल, झील, बावली, पानी]


                 सब में एक

गाँव - गाँव  पोखर सभी, सूखे तीव्र   निदाघ।

जेठ और  वैशाख  क्या,मास पौष या   माघ।।

बिना नीर  मछली मरीं,पोखर सब जल हीन।

भेक   नहीं  टर - टर   करें, ढूँढ़े  वास नवीन।।


बरसे  मेघ  अषाढ़  के,  भरे  खेत वन   ताल।

खग तरु जन प्रमुदित सभी,बदल गया है हाल।।

ताल - तलैया  बाग - वन, होते सब   आबाद।

सघन  मेघ वर्षा  करें, कल-कल छल-छल  नाद।।


अति वर्षा - जल   से बने, खेत बाग वन झील।

प्रमुदित हैं  तरुवर   सभी, हर्षित नहीं   करील।।

तव   नयनों  की झील में,  तैर रहा  मन  मीन।

चैन नहीं  पल   को  कहीं,  अतिशय होता दीन।।


मन    तेरा    है   बावली,  सीढ़ी  बनी हजार।

कैसे   पाऊँ   थाह  मैं,जब तक मिले न प्यार।।

पास न  आना  बावली,मैं  जलधर  का खंड।  

उड़ता  रहता  शून्य  में,  झोंका   बन बरबंड।।


पानी-पानी   हो  गया,  खुला चोर का  भेद।

चोरी  भी  पकड़ी गई,  बड़ा  हुआ जब  छेद।।

आँखों  का  पानी  मरा, हया न मन  में  शेष।

नेतागण   इस  देश   के,  धारण  करें   सुवेष।।


                    एक में सब

पोखर सरिता  बावली,झील ताल  आगार।

पानी  बिना न जी सकें, चाहें जल का  प्यार।।


शुभमस्तु !


08.05.2024●8.00आ०मा०

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मंगलवार, 7 मई 2024

श्रमरत है मजदूर [ गीत ]

 214/2024

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भारी ईंटें

उठा शीश पर 

श्रमरत है मजदूर।


तन पर मैले

वसन धरे वह

जा भट्टे के बीच।

रखता बोझ

ईंट का भारी

देह स्वेद से सीच।।


पत्नी बालक

निर्धन भूखे

हुआ  बहुत  मजबूर।


दिन भर करता

काम थकित हो

मिले न इतना दाम।

मुश्किल से ही 

मिल पाता है

रात्रि -शयन आराम।।


जुट पाता 

भी नहीं अन्न जल

परिजन  को भरपूर।


शोषण करते

पूँजीपति क्यों

बेबस  हैं  लाचार।

देह न देती

साथ काम का

पड़  जाते  बीमार।।


'शुभम्' राष्ट्र

उनका सीमित है

सब खुशियों  से दूर।


शुभमस्तु !


07.05.2024●8.15आ०मा०

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चप्पल [ बाल गीतिका ]

 213/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सरपट    फटफट    जातीं  चप्पल।

आतीं  -  जातीं  -   आतीं  चप्पल।।


उबड़ - खाबड़   या    समतल   हो,

पदत्राण    बन     पातीं     चप्पल।


कीचड़ , पर्वत      या   हो     ढालू,

बिलकुल  नहीं     डरातीं   चप्पल।


काँटा  चुभे   न    कीचड़     लिपटे,

दोनों    पैर       बचातीं      चप्पल।


न  हो   हाथ    में अस्त्र -  शस्त्र तो,

दुश्मन    पीट     गिरातीं    चप्पल।


होतीं   कभी     हाथ   में   शोभित,

दुष्टों    को      धमकातीं     चप्पल।


'शुभम्'  बहुत   ही   गुण   से भारी,

प्रतिपक्षी      धकियातीं     चप्पल।


शुभमस्तु !


06.05.2024●5.45प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...