शनिवार, 30 सितंबर 2023

स्व -भाव● [ व्यंग्य ]

 428/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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कितना गति  और लोकप्रिय शब्द है : 'स्वभाव'।लेकिन क्या आपने इस शब्द पर कभी गहनता से विचार किया है? सम्भवतः नहीं किया गया होगा।जन सामान्य में यह बहुत ही हलका - फुलका शब्द माना जाता रहा है। विचार करें तो चार नई बातें निकलती हैं।शोध करें तो बोध होता है। यों बिना विचार किए शब्द - रस ,शब्दानंद अथवा शब्दार्क नहीं मिलता ।आज हम इसी शब्द का आनंद प्रदान करने के लिए उपस्थित हुए हैं। 

सामन्यतः 'भाव' शब्द से पूर्व उपसर्ग 'स्व' संयोजित करने से यह शब्द निर्मित हुआ है। सम्पूर्ण सृष्टि में इस 'स्वभाव' का ही तो चमत्कार व्याप्त है। जितने भी प्राणी इस सृष्टि में सृजित हुए हैं ;सबका स्वभाव एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है।जिस प्रकार प्रकृति ने समस्त मानव प्राणियों के हाथ की लकीरों को असमान और भिन्न रूप में बनाया है ,वैसे ही उनके स्वभावों में सादृश्य नहीं है।न सभी मनुष्यों के स्वभाव एक समान हैं और नहीं किन्हीं पशु, पक्षियों और मछलियों के स्वभाव में ही कोई समानता है ।स्वभाव की भिन्नता से ही किसी प्राणी के व्यक्तित्व और चरित्र का निर्माण होता है। 

  'स्व' शब्द का सामान्य अर्थ 'अपना' होता है। अर्थात अपना स्वभाव ।सबका अपना -अपना स्वभाव है। जिसे प्रकृति भी कहा गया है।अब यह 'भाव' 'सु' है या 'कु' है; यह तो बाहर प्रकट होने से ही ज्ञात होता है।

 'कोयल कौवा एक सम,ऋतु वसंत के माँहि। 

जान परत हैं एक सम,जौ लों बोलत नाँहिं।।'

 यही स्थिति सृष्टि के समस्त प्राणियों पर भी प्रभावी होती है। आपने अनुभव किया होगा कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं ,जैसे कटखना कुत्ता।भला कटखने कुत्ते से कौन बात करना चाहेगा ? कुछ ऐसे जैसे कि भोला - भाला खरगोश, गिलहरी,गौरैया या कबूतर।कुछ ऐसे भी कि ततैया मिर्च और कुछ गुड़ से भी मधुर।बैल,गधा,ऊँट,शूकर ,सिंह,सियार,हिरन,मूषक, हाथी,भालू,वानर, सबके स्वभाव की भिन्नता मानव व्यक्त्वि में दिखाई देती है।यही स्वभाव की स्वाभाविक विशेषताएँ उसे अन्य प्रजातियों के साथ -साथ उसी की प्रजाति के अन्य जीवों से भिन्न कर देती हैं।सिंह में सियार असम्भव स्वभाव है तो ऊँट में गर्दभ भाव नहीं मिल सकेगा।वानर वानर है तो हाथी हाथी है। सभी अपने - अपने रंग, रूप,आकार,प्रकार के साथ -साथ स्वभाव से सर्वथा भिन्नता धारण किए हुए हैं। 

 आपने अनुभव किया होगा कि प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा जहाँ एक दूसरे से भिन्न होता है ,वहीं वह किसी पशु पक्षी आदि से भी बहुत कुछ समानता लिए हुए होता है।किसी का थोबड़ा भैंसे जैसा तो किसी का गाय जैसा।किसी की नाक की बनावट तोते जैसी घूमी हुई और वक्राकार तो किसी के गाल टमाटर जैसे लाल तो किसी के पिचके हुए पापड़।किसी की चाल में धूल उड़ाती हुई बैलगाड़ी तो किसी की गेंडा सम पिछाड़ी।किसी का सीना उभरी हुई हैड लाइट तो कोई हर समय सींग मारकर तैयार करने को दीवारों से फाइट।किसी की देह पत्थर जैसी कठोर तो किसी की ज्यों जंगल का नाजुक मोर।

   यदि मानवों की आँखों पर विचार किया जाए ,तो एक बृहत महाकाव्य ही लिख जाए।आँखों के अनेक रंग ,अनेक तरंग।किसी की आँखें हैं गहरी सुरंग तो किसी की उथली - पुतली वाली दबंग। किसी की आँखों में झूमता हुआ मतंग तो किसी में तरंगायित अनंग।कोई आँख छोटी तो कोई घनी मोटी।किसी - किसी में शतरंज की गोटी। किसी की नज़र बड़ी हेटी तो किसी में ममता भरी लोटी।कहीं कुत्सित क्रूरता का प्रवाह तो उधर विनम्रता का उछाह।कहीं टपकती हुई चालाकी तो कहीं धूर्तताधारी नालायकी।कहीं सरसती हुई सरसता, रसमयता तो कहीं टपकती हुई नीरसता ,उदासीनता।किसी की आँख बिल्ली तो मिचमिची बंद चीनी चिल्ली। कहीं बन्दर जैसी खों - खों कहीं कुत्ते की भों -भों।जितनी आँखें, उतनी कहावतें। किसी-किसी नयन-जोड़ में गहरी झील,किसी का रंग ज्यों समंदर में रंग नील।लाखों - लाख आँखों केअफ़साने। नित-नित नए नयन -तराने। कोई -कोई रेगिस्तान- सी सूखी।कोई भीगी और गीली, कोई बड़ी दुःखी।इनमें भी स्वभाव ही भरा है। कहीं सूखा कहीं हरा-हरा है। 

   इस प्रकार मनुष्य -मनुष्य की चाल -ढाल ,शरीर के अंग और उपांग ,बाल ,खाल, गाल, रंग ,लंबाई ,चौड़ाई आदि सब स्वभाव के पैमाने हैं।स्वभाव के ही कारण हम उनके दीवाने हैं।वे हमारे परवाने हैं। स्वभाव के ही कारण कोई किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाता।स्वभाव के ही कारण मेरा प्रिय दिल से बाहर नहीं जाता।यह भी स्वभाव ही है कि किसी की दुकान पर कोई ग्राहक नहीं जाता ,तो पड़ौस वाली पर लगा रहता सारे दिन ताँता। 

    स्वभाव सर्वथा प्राकृतिक है।इसलिए इसे चाहकर भी सप्रयास बदला नहीं जा सकता। हाँ ,आंशिक रूप से नियंत्रित ही किया जा सकता है।किंतु भूल जाने पर वह फिर से बाहर आ ही जाता है। नर हो या नारी ,सबको है 'स्वभाव' की लाचारी ।पूर्व जन्म के संस्कार भी हमारे स्वभाव के बड़े कारक हैं।इसीलिए कोई स्वभाव से तारक है ,तो कोई मारक है ,कोई उद्धारक है, कोई प्रताड़क है, कोई घातक है ,क़ोई कोयल, कागा, कोई चातक है।किसी के स्वाभाव में मोर है ;तो कोई- कोई निरा उठाईगीरा और चोर है। सारी दुनिया में मानव के स्वभाव का शोर है।पाकिस्तान ,भारत , अमेरिका,फ्रांस,जर्मनी, ब्रिटेन सबका अलग -अलग स्वाभाव है ,दौर है।साँप- सपोलों का अपना परिचय है,तो नेवला, भेड़िया का अलग ही भय है। 

 सारी मानव जाति स्वभाव की गुलाम है।यही वह शै है जो आता जीवन में सर्वत्र काम है।किसी का स्वभाव दर्दे - बाम है ,तो किसी का घर के लोगों के लिए भी हराम है,बेकाम है। स्वभाव की बहु आयामी ये सभी बातें ,अपने यथार्थ में सही हैं।यदि आता नहीं हो आपको मेरी बात का विश्वास ,तो घूमकर देख लीजिए दुनिया और शोध कर देखिए कुछ खास। सच ही कहता है 'शुभम्' , नहीं समझिए इसे हास या बकवास। मत यूँ बनाइए अपना चेहरा यों उदास ।अपनी- अपनी समझदानी को टटोलिए और समझ लेने का कीजिए प्रयास।जी हाँ, सतप्रयास।स्व -भाव का स्वाभाव जानिए ,परखिये। इधर से उधर को मत भटकिए।मत अपने किसी की आँख में वृथा मिथ्या खटकिए।

 ●शुभमस्तु! 

 30.09.2023◆9.00आ०मा० 

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शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

चिंतक!चिंतन!!चिंतना!!! ● [ आलेख ]

 427/2023 

 

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● © लेखक 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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                 मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है।उसके चिंतन की चर्खी निरन्तर चलती रहती है। 'चिंतक' शब्द का निर्माण 'चिंता' से हुआ है।प्राणिजगत में इस चिंता ने ही उसे अपने प्राणत्व की सबल सामर्थ्य के आधार पर इतना अग्रगामी बना दिया है कि वह अब रोकने से भी रुकने वाला नहीं है।कितने भी गति-अवरोधक लगा लें ,उसे कोई भी आगे बढ़ने से रोक नहीं सकता।वह चिंतन ,अनुचिंतन,बहुचिन्तन, अंतःचिंतन, बहिर्चिंतन,निज चिंतन, जगचिंतन,परचिन्तन, सुचिन्तन,कुचिंतन,मधुचिंतन, कटुचिंतन,बदचिंतन,वाद चिंतन,स्वादचिंतन,आबाद चिंतन,बर्बाद चिंतन,अच्छाद चिंतन,प्रसाद चिंतन,अवसाद चिंतन,हास्य चिंतन,लास्य चिंतन, आवास चिंतन, अर्थ चिंतन, अनर्थ चिंतन, कला चिंतन, सहित्य चिंतन,दार्शनिक चिंतन, ज्ञान चिंतन,विज्ञान चिंतन,धर्म चिंतन, अधर्म चिंतन,चोर चिंतन,घोर चिंतन, अघोर चिंतन,बरजोर चिंतन,प्रेयसी चिंतन, प्रेमी चिंतन, पत्नी चिंतन, सपत्नीक चिंतन, संतति चिंतन,पितृ चिंतन,कार्य चिंतन, बाज़ार चिंतन,देश चिंतन, विदेश चिंतन,मान चिंतन,अपमान चिंतन,चारु चिंतन ,अचारु चिंतन,वर्तमान चिंतन, अतीत चिंतन,भावी चिंतन,काव्य चिंतन , गद्य चिंतन, व्यंग्य चिंतन,व्यवसाय चिंतन आदि अनेकशः चिंतन किया करता है। 

              चिंतन की पात्रता अलग - अलग पात्र पर अलग -अलग हो सकती है। कोई कोई पात्र बहु चिन्तनशील भी होता है।मानव व्यक्तित्व की बहु आयामी चिंतना कब किस रूप में होती है;कहा नहीं जा सकता। मानव का मन पानी पर चलती लहर की तरह चलायमान रहता है।कभी ऊपर कभी नीचे।कभी इधर कभी उधर। कभी ठंडा कभी गर्म।कभी कठोर कभी नर्म।कभी मष्तिशकीय कभी मर्मीय। वह नियंत्रणीय भी है और अनियंत्रणीय भी।

               सोते, जागते और स्वप्न देखते हुए भी चिन्तन -चर्खी का घूर्णन अनेकशः चमत्कार करता है चिन्तन से उसे कभी चैन नहीं ,विश्राम नहीं ,ठहराव नहीं, उलझाव नहीं। कोई गणना नहीं कि चर्खी ने कितने चक्र पूर्ण किए। जैसे छत- पंखा निरन्तर घूर्णन करते हुए कब किंतने चक्र लगा गया ,इसका कोई आगणन नहीं होता। ठीक उसी प्रकार मन का चिंतन भी अविराम और हृदय की तरह आजीवन अनथक घूमता है और मानवीय सफलता किंवा असफलता के बहु आयाम चूमता है। स्व- सफलता पर झूमता है तो असफलता पर ऊँघता है। 

            कहा गया है कि 'सब ते भले वे मूढ़ जन जिन्हें न व्यापे जगत गति।' यह चिंतना की बात इस प्रकार के मानव देह धारियों पर प्रभावी नहीं होती।उन्हें तो मानव देह में शूकर- श्वान समान ही मान्य किया जाता है। जिस प्रकार शूकर अपनी मस्ती में आकंठ निमग्न रहता हुआ पंकाशय में पड़ा - पड़ा गड़ा -गड़ा रहता है। उसी तरह ऐसे नर तन धारी जीव भी अपने स्वत्व से बेखबर लीन रहते हैं।दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है ! उन्हें क्या करना ?क्यों जानना ? क्यों किसी को मानना , अपनी मस्ती में निजत्व को ढालना ।टीवी ,अखबार ,सोसल मीडिया उसके किसी काम के नहीं।सब गलत, वह अपने में सही। उसके जैसा कहीं कोई भी नहीं।क्यों करे वह भी अपने दिमाग़ का दही। उसकी तो अपनी कीचड़ में ही गंगा यमुना बही।इसीलिए तो उसने स्व मस्ती की गैल गही।

              चिंतना के इतने बृहत सागर में डूबता - उतराता मानव अपने अंतिम क्षण तक उससे उबर नहीं पाता। यहीं पर वह खग ,पशु, जलचर ,स्वेदज,अंडज और पिंडज से भिन्न हो जाता है। उसके मन - मष्तिष्क की यह विशेषता सर्व अग्रणी जंतु की कोटि में स्थापित कर देती है।जिसे आज कोई भी नहीं छू सका है। हाँ,इसी चिंतना के बल पर वह चाँद ,सितारों, मंगल ,शुक्र आदि की ऊंचाइयों को पा सका है।उसकी चिंतना की चमत्कारिता ने मोबाइल ,कम्प्यूटर और रोबोट जैसी मशीनें बना डाली हैं। जो अपनी क्षमता में एक से एक निराली हैं। 

             आइए हम सब मानव की नवल चेतना का अवगाहन करें और उसके उच्चतम शृङ्गों का स्पर्श करें। सु -चिंतनशील अग्रणी मानव बनें।मानव की देह में दानव न रहें। प्रकृति द्वारा प्रदत्त हमारा यही सबसे महान उपहार होगा।इस नश्वर देह का उपकार होगा। 'ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत' से जीवन का उद्धार नहीं होगा। कर्म -फल कभी न कभी कृतकार्य होगा। 

 ● शुभमस्तु !

 29.09.2023◆ 7.45प०मा०


पड़ौसी ● [ व्यंग्य ]

 

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● ©व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       सैकड़ों वर्ष पहले महात्मा कबीरदास हमें जो लिख कर दे गए ; वह अपने सभी अर्थों और 'अनर्थों' में सार्थक और सटीक ही सिद्ध हुआ है:- 

 'निंदक नियरे राखिए,आँगन कुटी छवाय।

 बिन पानी साबुन बिना,निर्मल करे सुभाय।।' 

          कहने का भाव यही है कि किसी को एक बुरा पड़ौसी भी सौभाग्य से मिलता है।चौदह अगस्त सन एक हजार नौ सौ सैंतालीस को यह सौभाग्य हमें अर्थात हमारे भारत देश को प्राप्त हुआ।जिसका सोत्साह समारोह पूर्वक समागम सारा देश करता है।हमारा देश ही नहीं ,प्रत्युत वह पड़ौसी भी करता है। जब आज वह हमारे लिए बुरा है तो हम भी तो उसके लिए बुरे ही मान्य होंगे। यह अलग बात है कि हम और हमारा देश कितना अच्छा या बुरा है।यह तो सारी दुनिया जानती है। जग जाहिर ही है। इसलिए हमें यहाँ पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि अन्ततः हम हैं कैसे? हम तो हैं आज भी वैसे के वैसे , जैसे थे सतहत्तर साल पहले जैसे। 

          बुरा पड़ौसी होने के अनेक लाभ हैं। इससे हम बेखटके घोड़े बेचकर सो नहीं सकते।उधर वह पड़ौसी भी अपने गधे - खच्चर बेचकर नहीं सो सकता! क्योंकि जो दूसरे की नींद हराम करने की सोचता है , उसकी नींद तो पहले ही हराम हो चुकी होती है।जलने का एक विशिष्ट सिद्धांत है कि जो किसी को जलाना चाहता है ,(यह अलग बात है कि वह किसी को जला पाए अथवा नहीं) ,वह उपले के अंगार की तरह पहले स्वयं जलकर खाक हो चुका होता है ,बाद में बची -खुची जलन से दूसरे को तप्त कर सकता है। वास्तविकता ये है कि उसमें आग की तपन बची हुई भी तो हो ? बुझी हुई राख से बेचारा जलाना तो क्या झुलसा भी नहीं पाएगा! कभी - कभी तो ऐसा भी होता होगा कि भरी कड़ाकेदार शीत में एक कम्बल का सम्बल बनकर गरमाएगा। जो हमें दुःखद न होकर सुखद ही होगा।तो एक बुरा पड़ौसी होने का यह बहुत बड़ा लाभ हुआ कि वह हमारे जागरण,चेतना और सावधानी का कारक बनकर उभरता है। चूँकि वह हमारे आस - पास ही है, इसलिए यदि इधर - उधर से कोई पत्थर का टुकड़ा भी हमारे आँगन में गिरा मारता है तो हम उसे उसी का प्रक्षेपित- अस्त्र मान कर जाग जाते हैं। भले ही वह किसी आस्तीन के साँप/ साँपों द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम हो।जब कभी आतिशबाजी ,फुलझड़ी या बम-पटाखे की आवाज या उनके खण्डांश भी प्राप्त हो ही जाते हैं, जो उसकी आंतरिक मनोभावना के सबल ,प्रत्यक्ष और जीवित प्रतीक होते हैं। 

      सौभाग्यवश यदि एक नहीं ;दो - दो या उससे भी अधिक बुरे पड़ौसी हो जाएं ,तो फिर सोने में सुहागा ही हो जाए।और यह सौभाग्य हमारे हिस्से में आया है कि हमारे एकाधिक पड़ौसी कुछ इसी प्रकार के हैं। जो समय- समय पर हमारी पीठ में बर्छी -भाले कोंचते रहते हैं। इसे हम किसी मच्छर-मानिंद मान कर कभी मसल देते हैं तो कभी रगड़ मारते हैं।इतना तो हमारा उनके प्रति फर्ज़ भी बनता है ,ताकि वे हमें कमजोर न समझने लगें। इसलिए अपने झापड़ के पापड़ को खिलाना भी अनिवार्य भी हो जाता है।किंतु उनकी आदत जो इतनी खराब पड़ गई है कि बाज नहीं आते। हम सोचते हैं कि मच्छरों के लिए तलवार का वार क्यों किया जाए? 'जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार।' सुई की नन्हीं- सी नोंक पर पंच हो जाने वाले जुएँ के लिए हमारा तोप ,गोला और बारूद झोंकना निज शक्ति का अपव्यय ही माना जायेगा। और फिर दूरस्थ मित्र-मंडली में हमारी शाख भी क्या रह जाएगी भला! इसलिए कभी नजरंदाज करके ,कभी माफ करके और कभी साफ़ करके अपनी उचित कार्यवाही को अंजाम देते हैं। भैया !पड़ौसी -धर्म तो निभाना ही होता है, सो निभा देते हैं। और करें भी क्या ? आखिर पड़ौसी तो पड़ौसी ही होता है।कोई दुश्मन थोड़े ही है ,जो निबटा दें। दुनिया क्या कहेगी कि गरीब परिजीवी मच्छर को भून डाला ! कुछ दूरस्थ ये भी तो सोचेंगे कि बड़ा ही बदतमीज था साला , हमें तो पहले ही पता था एक दिन ऐसा ही है होने वाला ! वैसे भी निकला हुआ है दिवाला ! पर बुरी आदत नहीं छोड़ता।खाली कटोरा लिए फिर रहा है ,पर बिच्छू की आदत ही है कि डँसना है ,तो डंसना है। 

           पड़ौसी का अपने पड़ौसी से निकट का सम्बंध होता है।देखा नहीं कि कभी चीनी ,कभी चाय की पत्ती ,कभी जामन तो कभी आटा- दाल ही माँग लाते हैं। कभी - कभी हम भी उससे नमक (लाहौरी) खरीद लेते हैं ; परंतु अपनी माली हालत को देखते - समझते हुए भी हमसे लोहा लेना नहीं छोड़ता।छोड़े भी क्यों ? अंश किसका है ! वंश के अंश का ध्वंश थोड़े हो गया है ? जो संस्कारवश स्वतः प्राप्त डी० एन०ए० का असर भुला दे ? 

             जिस पड़ौसी के अस्तित्त्व से हमारा भी गन्दा स्वभाव निर्मल हो जाए ,और वह भी बिना साबुन-पानी का प्रयोग किए हुए ही !(इसका मतलब यह भी हुआ कि कबीरदास के समय में भी साबुन का प्रयोग होता होगा ,तभी तो ये शब्द निकल कर बाहर आया होगा।) स्वभाव के शुद्धीकरण का काम भी हमारे लिए फ़ायदे की ही बात हुई न ? उससे बराबर हमारे मन के मैल स्वतः धुलते , घुलते ,निकलते,पिघलते रहते हैं। जिस पड़ौसी के बुरेपन में भी हमने अर्थात उसके पड़ौसी ने अनेक आच्छादनकारी अच्छाइयों के सु - दर्शन किए;उसमें यदि कोई छोटी - मोटी बुराई भी हो ; तो उसे क्या देखना ? नजरअंदाज करना ही बेहतर होगा। उसे हमने बुरा - पड़ौसी तो पहले ही घोषित कर दिया है। इसलिए अब उसकी बुराइयों की बारीक लिस्ट में अवशिष्ट ही क्या है ? अंत में यही कह सकते हैं कि अच्छा पड़ौसी यदि महा सौभाग्य है तो बुरा पड़ौसी किसी भाग्य से कम नहीं है।वह ज्यादा सोने से बचाता है ,स्वयं भी न सोता है और न सोने ही देता है। जब कोई कम सोएगा तो सक्रिय भी अधिक रहेगा । ज्यादा काम करेगा ,तो बड़ा नाम भी करेगा। किसी की जलन हमें विकास ,प्रगति और समृद्धि की ओर अग्रसर करती है। यही काम हमारा पड़ौसी भी कर रहा हो तो बुरा भी क्या है ?सब भला ही भला है। ये भी देश की उन्नति की एक प्रगतिशील कला है।उसकी जलन की आग में हम हाथ सेंकते रहें और वह समझे कि वह जला रहा है। 

                  किसी से जलन रखने वाला व्यक्ति हो ,समाज हो,जाति हो, वर्ग हो या देश ही क्यों न हो! वह जलन इसीलिए रखता है कि बनना तो वह वैसा ही चाहता है; किंतु यदि चाहने भर से कोई कुछ बन जाए या बदल जाए तो हम भी कब के अमरीक़ा रूस बन गए होते। पर हम, हम हैं। वे, वे हैं। कोई किसी के जैसा चाह कर भी नहीं बन सकता। यही असमर्थता उसे जलाती है। प्रकृति ने सबका सृजन अलग - अलग साँचे में करके मूर्त किया है। इसीलिए राम राम हैं ,कृष्ण कृष्ण हैं, बुद्ध बुद्ध हैं। कोई किसी के जैसा नहीं है, तो एक पड़ौसी दूसरे जैसा हो भी कैसे सकता है! पड़ौसी की जलन ही उसकी रक्षक है, स्वच्छक है, गुडलक है।


 ● शुभमस्तु !


 29.09.2023◆12.15 प०मा०


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ज्ञानी ● [ कुंडलिया ]

 425/2023

    

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

करते अपने ज्ञान का,सत- उपयोग अनेक।

ज्ञानी  कहलाते वही,जाग्रत रखें  विवेक।।

जाग्रत रखें विवेक,फूँक निज चरण बढ़ाते।

सफल वही नर नेक,जगत में नाम  कमाते।।

'शुभम्'तमस से दूर, उजाला जग में  भरते।

पर उपकारी सूर,समय को उज्ज्वल करते।।


                        -2-

ऐसे  कोरे  ज्ञान का,नहीं मनुज   को लाभ।

काम न आए आपके, ज्यों जंगल का दाभ।।

ज्यों जंगल का दाभ,काम पितरों  के  आए।

तर्पण   होकर  श्राद्ध, पक्ष में शुद्धि   कराए।।

ज्ञानी  है  वह  श्रेष्ठ, 'शुभम्' जो देता  जैसे।

पावन  कुश  है  ज्येष्ठ, ज्ञान को  जानें  ऐसे।।


                        -3-

अपना  ज्ञान बघारिये,जहाँ मिले  सत मोल।

मत  ज्ञानी  बनना वहाँ,शब्द तोलकर  बोल।।

शब्द तोलकर  बोल,श्रेष्ठ गुरु मात-पिता  हों।

विनत   भाव  में  डोल,नहीं कोई  समता  हों।।

'शुभम्' ज्ञान  का मान,बढ़ाने को  है  तपना।

दुनिया  को पहचान,नहीं है हर  जन अपना।।


                        -4-

करते   कब कर्तव्य को,माँग रहे   अधिकार।

ऐसे  ज्ञानी    मूढ़   हैं,  शोषक करें    प्रहार।।

शोषक   करें   प्रहार, बने  हैं पर -  उपदेशी।

परिजीवी    वे   कूर, ढोंग  धारी   नर  वेशी।।

'शुभम्'   हुए  बदनाम,ज्ञान को  हरते - हरते।

आते एक  न काम,फली के खंड   न  करते।।


                        -5-

ज्ञानी ,  दानी , सूरमा , करे  देश   का    काम।

देशभक्ति   होती  वहीं, चमकाए  निज नाम।।

चमकाए   निज  नाम, यथा बल  हो उपयोगी।

करे न घर में  छेद, नहीं तन मन  का   रोगी।।

'शुभम्' वृथा वह ज्ञान,नहीं हो जिसका मानी।

सफल  वही  मनु जात, सूरमा, दानी, ज्ञानी।।


●शुभमस्तु !


29.09.2023◆3.45आ०मा०

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गुरुवार, 28 सितंबर 2023

अश्वयुज वेला ● [अतुकान्तिका ]

 424/2023

       

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●©  शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पावस के बाद

आ गई है

अश्वयुज वेला,

पर्वों का मेला,

अनन्त चतुर्दशी से

श्री गणेश 

श्री गणेशजी ने ही किया,

महक उठी

पारिजात की बगिया।


पहले पितरों की याद

आत्माओं का तर्पण

श्रद्धापूर्वक श्राद्ध,

आदि शक्ति माँ

दुर्गा का पूजन वंदन

तमस पर 

प्रकाश की

 विजय का पर्व।


जाग उठे

देवी -देवता भी

एक दीर्घ निद्रा के बाद,

करवा चौथ 

सधवाओं का

पति -रक्षा -पर्व

सहर्ष सगर्व।


आ गई दीवाली 

दीपों की मालिका 

सजाती सुहाती,

कार्तिक मास,

धन त्रयोदशी

गोवर्द्धन पूजा,

भैया दूज,

त्योहारों की लड़ी,

झनझनाती फुलझड़ी।


अनवरत पर्वों का

अटूट क्रम,

हर्ष उल्लास सह

 'शुभम्'  पालन धर्म ,

वसंत में 

रंग भरी होली,

अबीर चंदन रोली,

फागुन चैत्र की अठखेली।

मिठास भरी 

गाली की बोली।


●शुभमस्तु !


28.09.2023◆3.00प०मा०

आसोज ● [ सोरठा ]

 423/2023

           

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कहलाता है क्वार,मास शुभद आसोज का।

श्रीगणेश शुभ  द्वार,पर्वों का खुलता  यहाँ।।


आया  शुभ आसोज,बीते सावन - भाद्र  भी।

कर कन्या गण भोज,विजयादशमी   पर्व है।।


लगा विमल आसोज,शरद -आगमन हो रहा।

सुबह नहाएँ रोज,सरिता कलकल बह रही।।


भादों  पावस  मास,शुभ अनंत  चौदस बड़ी।

नव आसोज सहास,कल पूनम के  बाद ही।।


दें  उनको  सम्मान, पितरों  का  ये   मास  है।

याद करें प्रिय जान,मास 'शुभम्'  आसोज है।।


अश्विन और कुआर,इष, कुँआर, आसोज हैं।

कर पावस को पार,बहुत नाम शुभ  मास के।।


मास अश्वयुज नेक, अश्व एक जिसमें  जुता।

है आसोज विवेक,नखत अश्विनी  से  जुड़ा।।


या कुछ  कहें असोज,कहते हैं आसोज  भी।

बरसे नित निशि ओज,ओस बरसती शून्य से।


बंद हुए  थे   पर्व, पावस  की जलधार   से।

शुभ आसोज  सगर्व,श्रीगणेश उनका  हुआ।।


विजयादशमी  पर्व,  हम माँ दुर्गा   पूज   लें।

कर रावण-मद  खर्व,धूम नित्य आसोज की।।


पितर लोक  में याद, आते  हैं आसोज  में।

किए बिना रव नाद,करते सुधि परिवार की।।


●शुभमस्तु !


28.09.2023◆8.30आ०मा०

बुधवार, 27 सितंबर 2023

अशुभचिंतक'! ● [ व्यंग्य ]

 422/2023 


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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           यों भी किसी व्यक्ति का नाम लेना उचित नहीं होता। ये तो मानो पीठ पीछे की बात है,फिर भी भला मेरी क्या बिसात है ; जो किसी का नाम ले सकूँ!नाम लेने में डर भी है और खतरे भी।किसी के बुरा मान जाने का भी अंदेशा है। वैसे यह भले -भले लोगों के लिए सु - संदेशा है।अब आपके मन में यह जिज्ञासा हो गई होगी कि मैं किस विषय को चर्चा -ए-खास बनाने जा रहा हूँ।यदि आपमें तनिक - सी धैर्य धारण की शक्ति हो तो वह सब कुछ अल्प क्षणों में आपकी नजरे- इनायत होगा।

               बात नाम से श्री गणेशित हुई थी।नाम में भी भला क्या धरा है ! और ये भी है कि अंततः आदमी नाम के लिए ही तो मरा है।घर, गाँव और नगर छोड़ कर यहाँ का वहाँ पर और वहाँ का जाने कहाँ -कहाँ पर पड़ा है।नाम और काम के लिए कहीं खड़ा या अड़ा है।या तिरछा बन चढ़ा है। 

            अब आप ही जानते हैं कि आदमी स्व - नाम के लिए क्या- क्या नहीं कर गुजरता ? मरता क्या न करता ! क्या उसका जीवन यों ही धक्के खाते हुए ढलता ! आँखों का सपना क्या आँखों में ही टर्र- टर्र कर टलता!किसी की खुशी में शरीक होने से खुश व्यक्ति को कितना आनंद अनुभव होता होगा ,यह तो आप अपने सीने पर हाथ रखकर ही अनुभव कर लीजिए कि जब आपके घर में पुत्र रत्न (यह तो बाद में ही पता चलता है कि वह वास्तव में रत्न है या कंकड़ का टुकड़ा !) का जन्म होता है तो आप के जताने- बताने अथवा सु - समाचार के हवा में उड़ जाने से लोग आपको बधाई देते हैं ,तो आपकी खुशी हजारों गुणा बढ़ जाती है। इसी प्रकार की अपेक्षा हर एक व्यक्ति अपने मित्रों ,संबंधियों, पड़ौसियों, मिलने वालों ,परिचितों आदि से करता ही है। यह मानव- स्वभाव है। चूँकि मनुष्य एक सामाजिक जन्तु भी है ,इसलिए ये अपेक्षा और भी बलवती हो जाती है। 

              यदि आपकी अपेक्षाओं पर आपका कोई शुभचिन्तक खरा नहीं उतरे और वह आपका 'अशुभचिंतक' बन जाए ! तो आपको पता लगे या न लगे !लग तो जाता ही है कि अन्तर्भावस्थिति आपके अंतर तक स्वतः पहुँच ही जाती है।और वह भी नकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हुई।अर्थात उसकी प्रज्वलित ईर्ष्याग्नि की दहकती हुई लपट आपको तप्त करने लगती है।हो सकता है आपकी अति सामीप्यता वश आप बेधड़क होकर पूछ ही बैठें तो उसके पास बगलें झाँकने के सिवाय कुछ भी कहने या सफाई देने को शेष नहीं रहेगा। सफाई भी देगा तो सौ में सौ फ़ीसद झूठी।कुछ टूटी फूटी। बहाने की बूटी !जी हाँ, बहाने ,बहा देने की बूटी !कुछ बूटियों के नमूने भी देख लीजिए।यथा: 

 1. :मैं बहुत व्यस्त था,आपका संदेश देख नहीं पाया।'

 2.' अरे !मुझे तो अब पता चला कि आपकी कोई किताब प्रकाशित हुई है!' 

3. 'अरे !आपको इतना बड़ा राष्ट्रीय सम्मान मिला और हमें हवा भी नहीं!अब तो पार्टी -सारटी बनती है।'

 4. 'बिना कुछ खिलाए -पिलाए कैसे मान लें कि आप देश के इतने बड़े साहित्यकार भी हैं!'इसीलिए बधाई भी नहीं दी। जब पार्टी दोगे तब बधाई भी मिल जाएगी। इस हाथ से उस हाथ ले। ले भला कोरे - कोरे वाहवाही लूटना चाहते होगे!' 

5.'मैं बाहर चला गया था।'(शहर से !दिमाग से नहीं!) 

6.'मैं बीमार हो गया था। इसलिए संदेश नहीं देखा।' 

7.' मेरी एक पत्नी अचानक अस्वस्थ हो गई तो सब कुछ भूल गया।'

 8.'बेटी को देखने आने वाली थी एक पार्टी। वह भी आई नहीं।उधर आपको शुभकामनाएं भी नहीं भेज पाया। सॉरी !' 

9.' एक कवि सम्मेलन में बाहर चला गया था। वहाँ पर नेटवर्क नहीं था।'

 10.''मेरा मोबाइल खराब हो गया था।' आदि - आदि। 

                 इसी प्रकार के 'अशुभचिंतन' के हजारों लाखों उदाहरण हो सकते हैं।आखिर कुछ न कुछ सफ़ाई देना भी तो मुँह छिपाने के लिए चादर का होना अनिवार्य है।यही वे सब चादरें हैं।

                  मानुस- समाज में ऐसे -ऐसे विचित्र नमूने यदि एक हो ,तो कोई बात हो। यहाँ तो कदम कदम पर एक ढूँढ़ो तो हज़ार मिलते हैं।नकद माँगों तो उधार मिलते हैं।जब आत्मीयता नहीं होती तो झूठा लबादा तो ओढ़ना ही पड़ता है। इतना स्प्ष्ट है कि इससे सामने वाला हमाम में नहीं , खुली सड़क पर नंगा हो जाता है ! पर बेशर्माई पर हजार बार लानत! रखा रहे अपने पास अपनी जलन की इबारत! इससे क्या किसी की टूटने वाली है किसी की ऊँची इमारत? कदापि नहीं जी। कदापि नहीं। परंतु बेचारे श्वान की असली औकात पता चल ही जाती है। 'स्वयं वैसा नहीं हो पाया ' - की दारुण दग्धक भावना अन्तरग्नि के रूप में अदृष्ट हो ही जाती है। यही उसका मूल है।जो उसके हृदय में चुभता हुआ शूल है।अब इस बात को ज्यादा क्यों दिया जाए तूल है!चूल्हे में डालो और पादांगुष्ठ की नोंक पर हवा में उछालो। 

 ●शुभमस्तु !

 27.09.2023◆8.45 प०मा० 


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भालचंद्र हे सुमुख प्रभु!● [ दोहा ]

 421/2023

 

[सुमुख,एकदंत,कपिल,गजकर्णक,गणाध्यक्ष,भालचंद्र,विनानायक,धूम्रकेतु]

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● ©शब्दकार

●  डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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करूँ सुमुख की  वंदना, गौरी - पुत्र   गणेश।

प्रथम पूज्य संकटहरण,पितुवर वरद महेश।।


काव्य   महाभारत लिखा,एकदंत  भगवान।

पंख - लेखनी   भंग थी,लेखन तब   आसान।।


कपिल -उदय के साथ ही,हुआ तमस का नाश

भोर हुआ कलियाँ खिलीं, जागी उर में आश।।


गजकर्णक गजपति सदा,विघ्नविनाशक देव।

भालचंद्र  लंबा उदर,करें सुमुख   नित   सेव।।


गणाध्यक्ष गजमुख हरें,संकट विघ्न  हजार।

विनत रहूँ प्रभुवर सदा,कर दें कृपा   अपार।।


भालचंद्र के शीश पर,शोभित  चंद्र-प्रकाश।

विघ्न-तमस को नष्ट कर,करें पाप  का  नाश।।


खीर   बनाई यत्न से,  बुढ़िया ने   भर  पात्र।

कृपा विनायक देव की,तुष्ट किया जन गात्र।।


मानव के सुविचार को, धूम्रकेतु    का  धूम।

नवाकार   देता सदा,विशद गगन   को  चूम।।


सुमुख,विनायक,कपिल तुम,एकदंत भगवान।

गजकर्णक शुभ ही करें, धूम्रकेतु  सह  मान।।


भालचन्द्र प्रभु आइए, गणाध्यक्ष   तव  नाम।

लंबोदर  पूजित  प्रथम, करें पूर्ण मन - काम।।


दस दिन की ही बात क्या,गजकर्णक विघ्नेश।

आजीवन  वरदान  दें,हरें 'शुभम्'  के  क्लेश।।


●शुभमस्तु !


26.09.2023◆10.30प०मा०

मंगलवार, 26 सितंबर 2023

हुल्लड़ हूल हैं हम ● [ व्यंग्य ]

 420/2023 


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 ●©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हम शांति प्रिय नहीं हैं।शांति से दूर -दूर तक हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। 'हमारा' का अर्थ यहाँ 'मेरा' ग्रहण नहीं किया जाए।यह हमारा और कोई नहीं ,हमारा पूरा समाज है,पूरा मोहल्ला है,पूरा गाँव है, पूरा शहर है ,बल्कि यों कहना भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इने -गिने हाथ की अँगुलियों के पोरुओं पर गिने जा सकने वाले कुछ ही लोगों को छोड़कर पूरा देश ही गर्क है इस शौक- मौज की बाढ़ में।अब वह समाज कितना ही प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध ;इससे कोई लेना - देना नहीं है। इसे आप हो-हल्ला, हुल्लड़बाजी,शोर आदि कुछ भी नाम दे लीजिए। 

 किसी की धार्मिक आस्था अथवा धार्मिक अंध विश्वासों पर डंडा मार करना मेरा कोई उद्देश्य नहीं है।आप खूब अंधे बने रहिए और भेड़चाल में मस्त रहिए ,व्यस्त रहिए।क्योंकि मेरे कुछ भी बताने - समझाने से आप पर कोई फर्क पड़ने वाला भी नहीं है।उलटे मुझे ही गरियाने लगेंगे कि बड़ा उपदेशक बना है , जो हमें सिखाने चला है ! हमें क्या नहीं आता! हमारी धार्मिक या सामाजिक या राजनैतिक या मज़हबी या दलीय या दलदलीय किंवा त्यौहारी विश्वासों को लतियाने ,धकियाने व नकियाने चला है ? 

 बम -पटाखे फोड़ने,आतिशबाजी छोड़ने से लेकर ध्वनि विस्तारक यंत्रों से मंत्र प्रसारण करने तक सरकार के सारे नियमों कानूनों की धज्जियाँ बिखरने का 'बृहत उत्तरदायित्व' का बृहत निर्वाह भी तो आपको ही करना है न ! उसे बखूबी कीजिए ।क्योंकि तभी तो आप सरकार को धर्म या मज़हब विरोधी कह पाएँगे।इसलिए धार्मिक या मजहबी उल्लास के लिए खूब मनमानी करना आपका 'पवित्र कर्तव्य' है।ढोल- नगाड़े, सड़क - गली या चौराहे , मेले , उत्सव, विसर्जन,विवाह-शादी, बारात आदि अनेक अवसरों पर कानफोड़ू धम -धमाधम,ठोक - ठोक खम, करें चमाचम।नाचें छमाछम।

  क्या फर्क पड़ता है आपको इस खयाल से कि किसी बीमार के चैन ,विद्यार्थी की पढ़ाई में गरल,किसी के गम की घड़ी दुखदाई में कोई खलल भी पड़ता होगा ? आप तो आप हैं ! सौ कानूनों के एक आप ही तो बाप हैं, आपके मारे तो पुलिस वाले भी कोने में खड़े -खड़े रहे काँप हैं।कौन कहता है भला कि आप जैसे लोग ही तो प्रदूषण के शाप हैं ,देश के लिए अभिशाप हैं, आप तो अपने ही कद से बड़े बे -नाप हैं ! आप से ही तो धर्म की गूँजती आवाज है। 

  आप न यदि न होते तो ये धर्म ,कर्म ,शर्म सब कुछ रसातल में न जा गिरता ?आप न गिद्ध हैं न बाज हैं, आप ही तो आज के लिए ताज हैं।आप से भला कौन नहीं डरता ? डरता नहीं तो क्या बिना मतों के समर्थन के मरता ? आपको हजार समर्थन और मेरे जैसे विरोधियों को अपने मत भी चिंता ,इसलिए आपके भय वश अपना मत भी आपके बॉक्स में चलता!जमाना बहुमत का।भले ही वह मूर्खों का हो।आपको मूर्ख थोड़े ही कहा है। एक नियम की बात कही है।भेड़ों के झुंड में यदि भेड़िया भी फंस जाए तो वह भी डरपोक श्वान की तरह अपनी पूँछ स्व-टाँगों के भीतर ही दुबकाये! 

  न किसी की सुननी है। बस अपनी मनमानी करनी है।जैसा घरवाला वैसी ही उसकी घरनी है। धर्म - कर्म की नैया इसी तरह तो पार करनी है। इसी को आस्था कहा जाता है। आप जैसे जनाधार के ललाट पर धर्म का सेहरा लपेटा जाता है।अब चाहे मेटाडोर पर साउंड बॉक्सों की बारात निकालिए या मंचों के आँगन में सबको बहरे -बहरी बना डालिए। आप पर आई० पी ०सी ०की सारी की सारी धाराएँ अपनी स्वेच्छाचारिता के गहन गर्त में गारत कर दी जाती हैं। इन्हीं ढोल -धपोलों की धमाधम यदि सुनते हमारे विद्वान वैज्ञानिक तो चन्द्रयान नहीं भेज सके होते।ये वह समाज है जहाँ कर्मठ और स्वेद सिक्त होने वाले को नहीं ,श्रेय केवल ढोल पिटइया को मिलता है।गाल बजईया को मिलता है। यहाँ दिमाग का मूल्य नहीं । मूल्य बाजों का है। शोर का है। वह शोर चाहे मंत्री करे या संतरी।भले ही वह वैज्ञानिक हो , इंजीनियर हो ,डॉक्टर हो , कवि या साहित्यकार हो।उन्हें ये समाज घास भी डालने वाला नहीं है। श्रेय लूटने की सुनामी में कौन आगे है ,मुझे क्या बताना !क्योंकि आप मुझसे ज़्यादा समझदार हैं। अब किसी समझदार को भी क्या समझाना ? 'परेंगित ज्ञान फला हि बुद्धय:।' 

 ● शुभमस्तु ! 

 26.09.2023◆8.00प०मा०

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बदल रहा है देश ● [ गीतिका ]

 419/2023

    

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●  ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बदल रहा है देश, धर्म - अनुकूल  नहीं है।

ढोंगी  के बहु  वेश,महकता फूल  नहीं  है।।


मन में है कुछ और,दिखावा करता भारी,

चला विषैला दौर,कहीं भी ऊल नहीं है।


देशभक्ति  का  ढोंग,  कर रहे नेता   सारे,

उच्चासन पर पोंग,हृदय में हूल नहीं है।


तन को लिया उघार,देह दर्शन रत नारी,

वसन बना है भार,धर्म की धूल नहीं है।


हिंसा  की   भरमार,नहीं नैतिकता   कोई,

पुण्य   गया है हार,शील आमूल   नहीं  है।।


असमय है बरसात,उलटती चाल देख लें,

संतति   मारे  लात, पाप  ये भूल  नहीं  है।


'शुभम्' न कोई मीत,स्वार्थ की चली सुनामी,

श्लील  नहीं  संगीत, गुदगुदा शूल  नहीं  है।


●शुभमस्तु !


25.09.2023◆5.45आ०मा०

ढोंगी के बहु वेश ● [ सजल ]

 418/2023

  

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●समांत  : ऊल.

●पदांत : नहीं है.

●मात्राभार :11+13=24.

●मात्रा पतन:शून्य.

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●  ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बदल रहा है देश, धर्म - अनुकूल  नहीं है।

ढोंगी  के बहु  वेश,महकता फूल  नहीं  है।।


मन में है कुछ और,दिखावा करता भारी।

चला विषैला दौर,कहीं भी ऊल नहीं है।।


देशभक्ति  का  ढोंग,  कर रहे नेता   सारे।

उच्चासन पर पोंग,हृदय में हूल नहीं है।।


तन को लिया उघार,देह दर्शन रत नारी।

वसन बना है भार,धर्म की धूल नहीं है।।


हिंसा  की   भरमार,नहीं नैतिकता   कोई।

पुण्य   गया है हार,शील आमूल   नहीं  है।।


असमय है बरसात,उलटती चाल देख लें।

संतति   मारे  लात, पाप  ये भूल  नहीं  है।।


'शुभम्' न कोई मीत,स्वार्थ की चली सुनामी।

श्लील  नहीं  संगीत, गुदगुदा शूल  नहीं  है।।


●शुभमस्तु !


25.09.2023◆5.45आ०मा०

रविवार, 24 सितंबर 2023

आँख अपनी- अपनी ● [ व्यंग्य ]

 417/2023 


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 ●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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         इस देहांचल में आँख कहें या आँखें, पता नहीं वे कहाँ - कहाँ नहीं झाँकें! कहाँ -कहाँ नहीं ताकें! इन आँखों की कुछ अलग ही हैं शाखें। बिना ही किसी आवाज के ये क्या - क्या नहीं भाखें!कभी -कभी ऐसा भी बहुत होता है, खुली हुई हैं आँखें फिर भी वह अंधा ही होता है।मानो कि वह जागते हुए सोता है। अपने लिए काँटे वह स्वयं ही बोता है। बाद में पछताता रोता है। मानो भेड़ की तरह चलता कोई खोता है।

      एक समान नहीं हैं किन्हीं दो लोगों की आँखें।कुछ मरी सूखी - सी ,कोई उलूक - सी आँखें।कहीं टपकती हुई चालाकी या शैतानी ,किन्हीं -किन्हीं आँखों में दया की निशानी।नेताजी में अलग आँख,तो पुलिस की अलग ही शाख।शिक्षक की अलग तो बाबू की एकदम अलग।जज साहब की अलग तो वकील साहब की कुछ और ही अलग।बनिया-व्यापारी की आँख, सदा हानि - लाभ पैसे से आँक।बच्चे में भोलापन तो बाप में वात्सल्य का जतन। माँ की आँख में ममता तो नारी के नयन की कोई नहीं समता।वह अपनी अलग ही आँख से दुनिया को निहारती मानो सबकी नजरों को ,नजरियों को बुहारती है।कभी झलकती है वहाँ वासना तो कभी किसी देव-देवी या पतिदेव की उपासना।कभी वहाँ करवा चौथ तो आँखों में दहकती हुई सौत। तो कभी देवी, तो कभी रणचंडी मौत। 

     आदमी के चेहरे पर ज्यों अलग - अलग मुखौटे !त्यों आँखों पर चढ़े चश्मों के अलग - अलग झोंके। एक तो अलग आँख!उस पर भी उस पर चढ़ जाए चश्मा!किसी के लिए चेहरे की सुषमा तो किसी के लिए नज़रों का करिश्मा !मुखड़ा कहे बेटी।उसके पीछे नज़र हेटी ! आखेटी।कितनी ही आँखों के कितने रंगीन चश्मे। किसी की आँखें आँखें कम झील बड़ी गहरी,अब चाहे ग्राम्य बाला हो या छरहरी शहरी।किसी की आँख का मर चुका है पानी, किसी की आँख कंजूस तो कोई बड़ी दानी। ऐसी -ऐसी भी हैं आँखें जिनका नहीं कोई सानी। आँखों आँखों में दो से चार हुए नैना, लगने लगी प्रियतमा जिसे जुबाँ से कहता है बहना। आँखों में ही नफरत आँखें ही गहना ।वास्तव में आँखों की महिमा का भी भला क्या कहना! कोई किसी को फूटी आँख न सुहाए ।उधर माँ की ममता भरी आँखों में अपना एकाक्षी औरस सोना हीरा बन जाए।भले ही उसे देख किसी का शगुन बिगड़ जाए। 

              अनेक पर्याय इन आँखों के देखे। व्याख्या करें तो बन जाएँगे बड़े -बड़े लेखे। नयन, चख, नेत्र ,चक्षु,दृग, लोचन ,विलोचन,अक्षि,अम्बक,दृष्टि, नजर,चश्म,नैन ,नैना दीदा आदि।कोई किसी की आँख से गिरता है तो कोई अपनी ही आँख से गिर मरता है।किसी की आँख का सामना हर कोई नहीं करता है।आँख का नक्शा कितनी जल्दी बदलता है।हर आँख की अपनी सफलता है। 

          जिस शक भरी आँख से पुलिस देखती है ,उन आम आदमी की आँख से कितनी भिन्न रहती है! राजनेता की आँख कुछ और ही होती है। वह राजनीति के बीज हर कहीं बोती है।मजबूरी में आदमी नेता के पास जाता है ,वरना किसी बुद्धिमान को नेता फूटी आँख नहीं भाता है।डॉक्टर चिकित्सक देह मन का इलाज करता है। उसकी नजर में सर्वत्र रोग ही उभरता है। शिक्षक सीख देने में जहाँ कुशल होता है ,वहीं कभी -कभी चिराग तले अँधेरा भी रोता है।बाबू कहाँ सहज ही किसी के काबू में आता है।अपने डेढ़ चावल की खीर वह अलग ही पकाता है।जातिवादी आँख से ये देश और समाज बरबाद है,पर उसकी सोच इतनी तुच्छ है कि वह इसी से आबाद है। क्या नेता क्या अधिकारी , क्या कोई पुरुष क्या कोई नारी ! सबकी आँखों में लगी है जातिवादी बीमारी। और तो और जाति के नाम पर मतमंगे सरपट दौड़ रहे हैं।गाँव -गाँव गली - गली, नगर -नगर ,मोहल्ला दर मोहल्ला अपनी जाति का मत ढूंढ रहे हैं। यही सब आँख की हीन भावना की बात है।जिसकी जितनी भी अपनी औकात है। इसी चलता है खेल शह और मात है।

             साहित्यकारों और कविजन की भी अपनी अलग आँखें है। वहाँ भी कहाँ है दूध और पानी अलग -अलग !वहाँ भी ग्रुप हैं ,समूह हैं ,क्षेत्रवाद है ,प्रदेशवाद है ,पूर्व पश्चिम वाद है, भयंकर जातिवाद है।सहित्य चरे घास पर पड़नी उसमें कुछ ऐसी ही जातीय खाद है।जाति पहचान कर ही मिलती वहाँ दाद है। कवियों का सम्मेलन इसी से आबाद है। यदि वहाँ कविता पढ़ रही हो कोई नारी और वह भी सुंदर महाभारी,तब तो श्रोताओं कवियों की बदल जाती आँख सारी।जैसे खिल खिला उठी हो रातरानी की क्यारी। हो जाता कवि गण में नशा एक तारी।वाह !वाहों की गूँज लगने लगती बड़ी प्यारी।ये भी तो मानव - आँख की खुमारी। फिर क्या आँखों ही आँखों में सारी रतिया गुजारी। 

            कुल मिलाकर इतनी-सी बात है। आँख - आँख का अपना अलग इतिहास है।जितनी आँखें उतनी बातें।अनगिनत हावरे या कहावतें।कुछ ठंडी ,नरम , चिकनी या तातीं।सारी की सारी कही भी तो नहीं जातीं।मौसम हो सर्द ,गरम ,वसंत या बरसाती। नेह भरी आँखें देख भर -भर जाती छाती।ज्यों देख अँधेरे में जल जाती बाती।आँखों का ये संसार ही निराला है। किसी की आँख पर लगा न एक ताला है। कहीं झरते हैं फूल तो कहीं तीक्ष्ण भाला है। सादगी से भरपूर कोई कहीं गरम मसाला है। आँखों से घर में अँधेरा है ,आँखों से ही उजाला है।आदमी क्या जंतु मात्र की आँखों का कुछ अलग बोलबाला है। 

 ●शुभमस्तु ! 

 24.09.2023.9.00प०मा०

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ग़ज़ल ●

 416/2023

        

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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सच पर   आज टिकी है दुनिया।

छल   से   रोज  छकी है दुनिया।।


रूह  और  दिल  की  टक्कर है,

अपनी  बनी  नकी  है  दुनिया।


पढ़ने  गया    न   कभी मदरसा,

ले    मुबाइल   पकी   है दुनिया।


शौहर     चला    रही   हर बीबी,

जीत न  उसे  सकी   है  दुनिया।


नई     चाल     के   बच्चे   जनमे,

अब  अतफ़ाल     ठगी  है दुनिया।


सभी       चाहते     शहसवार  हों,

जहरी   बड़ी     बकी   है  दुनिया।


'शुभम्'  न   रंग   समझ  में आते,

हमने    खूब     तकी    है दुनिया।


●शुभमस्तु !


*नकी =शत्रु।

*अतफ़ाल =बच्चे।

*शहसवार =घुड़सवार।

*बकी=पूतना।

*तकी =देखी।


24.09.2023◆10.45आ०मा०

ग़ज़ल ●

 415/2023

             

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सच को सच कहते कब लोग!

खुदगर्जी में  हों  जब   लोग।।


झूठों   के   संग   भीड़   बड़ी,

उल्लू कर   सीधा  अब  लोग।


चश्मदीद   में    नहीं   ज़ुबान,

जातिवाद  में  रँग  सब  लोग।


कहें  नीम   को आज  बबूल,

कहते  दिन को भी शब लोग।


रीति-नीति   सब  चरतीं घास,

बदल रहे   अपने  ढब  लोग।


लंबी -चौड़ी    हाँकें      रोज,

वक्ती  बंद  करें  लब    लोग।


'शुभम्'  देखता  ऊँट पहाड़,

गुनें हक़ीकत को   तब लोग।


●शुभमस्तु 24.09.2023◆10.00 आ०मा०


कवि लिख ले नवगीत ● [ नवगीत ]

 414/2023


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●©शब्दकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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टाँगमोड़कर

हाथ छोड़कर

कवि लिख ले नवगीत।


गीत नहीं ये

क्रीत नहीं जी

नई उपज का धान।

मौलिक चिंतन

जुड़ कर अंचल

चढ़ा काव्य की सान।।


लय भी गति भी

जन से रति भी

गरम न इतना शीत।


 समझ न दोहा 

 या चौपाई 

कुंडलिया का छंद।

गहराई में

कहाँ गड़ा  था 

बना शतावर -कंद।।

 

जाना- माना

अलग न तुमको

अद्भुत थी ये रीत।


दुल्हन जैसा

मुखड़ा देखा

छोटे -   छोटे   गाल।

लगे मिलाने 

संग तुम्हारे

'शुभम्'  शैशवी चाल।।


मन में मेरे

भय था छाया

अब भी नहीं अभीत।


● शुभमस्तु !


22.09.2023◆11.00आ०मा०

निर्मल ● [ कुंडलिया ]

 413/2023

                 

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

मानव   के  उर में सदा,बसते हैं   गुण  तीन।

सत, रज,तम कहते जिन्हें,रहता उनमें लीन।।

रहता   उनमें   लीन, कौन कब   बाहर आए।

आधारित    हालात,  कौन-सा रंग   दिखाए।।

निर्मल कर उर धीर ,नहीं बनता   यदि  दानव।

सत का साथ न छोड़,बना रहता नर   मानव।।


                         -2-

मंदिर  है मन  आपका,रखिए  निर्मल    मीत।

पास न आए तम कभी,गा सदगुरु   के  गीत।।

गा सदगुरु  के  गीत,सभी को मानव   जानें।

मन में प्रभु का वास,जीव सब में  यह  मानें।।

'शुभम्' हीन आचार,न जाएँ नजरों  से  गिर।

करनी   शुद्धाधार,  रखें  निर्मल  मन - मंदिर।।


                        -3-

धरती पर सब जीव यों,रखते अलग स्वभाव।

कोई     प्राणों    को हरे,भरता कोई     घाव।।

भरता    कोई  घाव,प्राण निज कोई    देता।

परहित  में दिन - रात,पूर्ण जीवन  कर  लेता।।

'शुभम्' बंद कर आँख,मेष निर्मल कब  रहती!

ढोर - मनुज के बोझ,दबी रोती    ये    धरती।।


                        -4-

भारत  माँ के वक्ष पर, अनगिन  जीव   सवार।

वे सब  निर्मल मन नहीं,चूषक और    लबार।।

चूषक   और   लबार,  देश  को  खाते   नेता।

बेचें   बीमा   रेल,  नहीं   कुछ भू  को    देता।।

'शुभम्' भरा है   खोट,देश को करते    गारत।

कैसे   बने  महान,  देश अपना  ये    भारत।।


                         -5-

नेता  जी  का मन नहीं, निर्मल   शुद्ध  विचार।

छल - बल  के हथियार से, करते अपने कार।।

करते अपने कार ,आम जन भोजन तन का।

कंचन कामिनि कार,लक्ष्य है केवल धन का।।

'शुभम्'  समझते श्रेष्ठ,स्वयं वोटों   को   सेता।

ज्यों  चिड़िया का अंड,चरित का   वैसा नेता।।


●शुभमस्तु !


22.09.2023◆9.15आ०मा०

गिरगिटानन्द ● [अतुकान्तिका]

 412/2023

   

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●© शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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इधर गिरगिट

उधर गिरगिट

लगाते दौड़ 

नित सरपट

फटाफट।


गूँगे नहीं हैं

बोलते भी हैं,

मिटाने

 जीभ की खुजली,

मंच सजते 

सजतीं पताका

सामने हैं भेड़ -रेवड़।


किसको 

सताए देश की चिंता,

लगाना ही धर्म है

तेल से भीगा पलीता,

भेड़ का रेवड़

बनाता वीडियो

पढ़ाता उधर 

वह 'गिरगिटी - गीता'।


'रंग बदलो 

समय के साथ अपना,

कोई नहीं संगी

नहीं साथी भी तेरा,

सब छूट जाना है

यहीं ये धन बसेरा,

हम देश -उद्धारक,

सुधारक,

इतिहास निर्माता।'


' सर्वश्रेष्ठ हैं हम,

न आया आज तक

ऐसा कभी कोई,

नहीं आने पाएगा,

हमें समझो

अवतार ,

उतारेंगे हमीं

धरती से पाप-

पापियों का भार,

'शुभम्'  'गिरगिटावतार',

लगाएँ पार।'


 ●शुभमस्तु !


21.09.2023◆5.00आ०मा०

बुधवार, 20 सितंबर 2023

गणपति सदन पधारिए ● [ दोहा ]

 411/2023


[चतुर्थी,गणपति,आवाहन,

इंदुर,नैवेद्य]

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ● सब में एक ●

धन्य चतुर्थी तिथि हुई,जन्मे  'शुभम्' गणेश।

मुदित मातु गौरी बनी,जनक अकंप   महेश।।

तिथि न एक शुभ-अशुभ है,ईश दिवस सब नेक।

भले चतुर्थी  प्रतिपदा, चलें पंथ   सविवेक।।


गणपति  सदन पधारिए, कृपा  करें भगवान।

शुभाशीष की कामना,धी,शुभ,लाभ महान।।

मोदक प्रिय गणपति सदा,आते हैं मम गेह।

कृपा बरसती नित्य ही,ज्यों पावस में  मेह।।


भक्त शरण में आपकी,*आवाहन* कर नित्य।

शुभाशीष ही माँगते,दिनकर हे  आदित्य।।

आवाहन के मंत्र का,करें शुद्ध    उच्चार।

हो अनर्थ ही अन्यथा,मेटें मनस  - विकार।।


इंदुर को कुछ सोचकर, वाहन  बना गणेश।

चले परिक्रमा के लिए,भू-सम मान  महेश।।

यदि हो दृढ़ संकल्प तो,चल इंदुर की चाल।

लक्ष्य मिलेगा शीघ्र ही,बने न काग  मराल।।


गुरुवर का नैवेद्य यों,सहज नहीं   है   मीत।

मिले अंश भी शिष्य को,करे जगत में जीत।।

देवों के   नैवेद्य   का,पावन  है प्रति   अंश।

ग्रहण करें सम्मान से,होगा अघ-तम ध्वंश।।


        ● एक में सब  ●

इंदुर वाहन पर चढ़े,आए गणपति   द्वार।

आवाहन नैवेद्य सँग,करें चतुर्थी   वार।।


●शुभमस्तु !


20.09.2023 ◆7.15आ०मा०

यह झूठ न मान ● [ अरविंद सवैया ]

 410/2023


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छंद विधान:

1.8 सगण (112) +लघु

2.12,13 वर्ण पर यति। कुल 25 वर्ण।

3.चारों चरण समतुकांत।

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                   -1-

अपना-अपना  सब लोग कहें,

                अपना न कहीं यह लें तुम जान।

कुछ लेकर साथ न कोइ चला,

                तिनका न गया यह झूठ न मान।।

सतराइ   चलें  इतरायँ बड़े,

                  धन को दिखलाइ करें गुणगान।

नित माँस भखें खग ढोरन के,

                   नहिं पीवत नीर करें मधु पान।।


                      -2-

घरनी घर की तरनी सब की,

               सरिता जल धार करे भव पार।

समझें  नहिं कोमल है सबला,

               टपका मत जीभ भले नर लार।।

जननी जन की निज दूध पिला,

                नित पालति पोषति मान न हार।

अपमान करे मत नारि भली,

                यश मानस खोलति पावन द्वार।।


                        -3-

छलनी बस नाम, नहीं छलती,

                 कचरा सब छाँट करे सु-सुधार।

बदनाम हुई   बद   नाम रखा,

               नित बाँटति छाँटति अन्न असार।।

बदनाम   बुरा   बद श्रेष्ठ सदा,

                   बरसावत बादल सिंधु न खार।

धरती करती नर को नित ही,

                  सब खोद रहे बरसावति प्यार।।


                       -4-

नदिया-नदिया नर-नारि कहें,

                  निशि -वासर देति सदा जलधार।

करनी न लखे सरि की दुनिया,

                  बस गाल बजाइ चलें सब कार।।

खिंचवाइ जनी-जन झूठ छवी,

                       छपवाइ रहे अपने अखबार।

परदा -परदा बहु काज बुरे,

                     करते ,रहते , मरते नर- नार।।


                        -5-

अपने मन में मत हीन बनें,

                  कर सोच महान, अपुष्ट न सोच।

मत दूषित  भाव भरे मन में,

                  समझें नहिं मानव धी तव पोच।।

लकड़ीवत सख्त नहीं रहना,

               लतिका सम सौम्य रखें मन लोच।

नभ-सी कर व्यापक बुद्धि सदा,

                पथ बाधक जो कड़वा बन गोच।। 


●शुभमस्तु !


19.09.2023◆ 4.00प०मा०

पौध धान की सारी ● [ गीत ]

 409/2023

 

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रोप रही हैं

मिलकर नारी

पौध धान की सारी।


खेत लबालब 

है   पानी  से

नीचे  है  घुटनों के।

उड़सी साड़ी

कटि  में अपनी

अंग ढँके बदनों के।।


कमर झुकाए

रोपें       पौधे

काम निजी हितकारी।


हरी -हरी हैं

सुघर कतारें

मन -  आँखों को भातीं।

रहें देखते 

खड़े -खड़े हम

हमको    हैं   ललचातीं।।


सबके सिर है

निजी मुड़ासा

रंग -   बिरंगा  भारी।


एक पंक्ति में

झुकीं एक सँग

व्यस्त हस्त हैं दोनों।

बाएँ कर में

पौधे थामे

हरा   उगाने   सोनों।।


गातीं मिलजुल

गीत    मनोहर

बालाओं की क्यारी।


पुरुष सहायक

संग एक है

पौधघरों   में  जाता।

जब वे माँगें

'पौधे  लाओ'

दौड़ - दौड़ वह लाता।।


यदि हो देरी

ला पाने में

सुनता   मीठी गारी।


आने   वाली

 है   दीवाली

खील धान की लाते।

नए धान्य से

रमा -सुवन शिव

की पूजा कर पाते।।


संस्कृति 'शुभम्'

रम्य   पावन    है

भारत माँ की प्यारी।


●शुभमस्तु !


19.09.2023●10.00आ.मा.


सोमवार, 18 सितंबर 2023

आओ शिव -गौरी के नंदन● [ बालगीत ]

 408/2023

 

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आओ  शिव- गौरी के नंदन।

तुम्हें  पूजने  का करता मन।।


शुभदा  गणेश -चतुर्थी वेला।

जहाँ - तहाँ लगते बहु मेला।।

मोदक तुम्हें खिलाते सब जन।

आओ शिव - गौरी के नंदन।।


धूप,पान,फल ,फूल चढ़ाऊँ।

अर्चन कर तव आरति गाऊँ।।

घुँघरू बाँध नाच लूँ छुम छन।

आओ शिव -गौरी के नंदन।।


तुम धन -धान्य ज्ञान के दाता।

शिवजी पिता शिवा तव माता।।

भोग लगाऊँ करें न    ठनगन।

आओ शिव -गौरी के नंदन।।


भादों मास     चतुर्थी   आई।

शुक्ल पक्ष   उजियारी छाई।।

जन्म दिवस विघ्नेश्वर पावन।

आओ शिव - गौरी के नंदन।।


संकट हरो कृपा  कर स्वामी।

पितु सेवी प्रभु     अंतर्यामी।।

'शुभम्'कृपा के डालें शुभ- कन।

आओ शिव -गौरी के नंदन।।


●शुभमस्तु !


17.09.2023◆7.45 प०मा०

सखा ● [ चौपाई ]

 407/2023

   

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सखा वही जिसके सँग खा लें।

भेदभाव कण भर क्यों पालें??

जहाँ  भेद की बाड़ लगाई।

मर जाती   है  वहीं सखाई।।


'स' से संगम  और 'खा' खाना।

बनता 'सखा' शब्द जो जाना।।

जाति न ऊँच -नीच का अंतर।

वही सखा मिलता  है दूभर।।


दुख - सुख का  होता नित संगी।

रक्षा   करते   ज्यों बजरंगी।।

अंतरंगता      ऐसी    प्यारी।

दुनिया  बन जाती है न्यारी।।


और न कोई    इतना   भाता।

जितना अपना सखा सुहाता।।

अवसर   आए  मौत   बचाए।

कभी -कभी निज प्राण गँवाए।।


सखा श्याम के ब्रज के ग्वाला।

सँग -सँग रहते संग निवाला।।

गाय   चराते    वन   में   सारे।

नाच  -  कूदते    संगी  प्यारे।।


माखन चोरी के नित साथी।

बनते घोड़े    चढ़ते    हाथी।।

मटकी एक सभी सँग खाते।

छूत न किंचित मन में लाते।।


अब के सखा  न ऐसे   कोई।

साथ न खाते  एक    रसोई।।

संग कृष्ण के सखा सुदामा।

राजा के   सँग फटता जामा।।


सखा-आगमन से सुख माना।

धो -धो चरण अमिय प्रभु जाना।।

मिले न ऐसी   कहीं    मिताई।

एक लवण तो   एक मिठाई।।


'शुभम्' सखा-संसार निराला।

बड़भागी को मिले उजाला।।

हितचिंतक   होते     वे अपने।

आज न ऐसे रिश्ते    टिकने।।


सखा मिलें ज्यों  रँग में  पानी।

है अतीत की अलग कहानी।।

परिवारों को    मिले सघनता।

सखा सखा के उर की सुनता।।


●शुभमस्तु !


उत्तम सृजन आदरणीय श्री 🌹🙏


18.09.2023◆5.15प०मा०

मूढ़ सपेरे हो गए! ● [ दोहा - गीतिका ]

 406/2023

   

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आस्तीन के  साँप  ही,   फैलाएँ फण-जाल।

विष फैलाते  नित्य ही,बुरा देश  का   हाल।।


अपने जिनके  बिल नहीं, फैला तंबू    एक,

घुसें   पराए   धाम   में,खम ठोकें   तत्काल।


छोड़  सपोले  हैं दिए,  मनमानी  हो   नित्य,

जता रहे अधिकार वे,बजा-बजा कर गाल।


रक्तपात  आतंक  से,डरे हुए जन   आज,

साँपों का प्रिय खेल है,करना बड़े   बवाल।


मूढ़   सपेरे   हो गए,  बेबस बल   से   हीन,

सड़कों  पर लोहू  बहे,नोंच खा रहे खाल।


बिना  किए  सब चाहिए,जिसे निवाला  भोग,

किंचित उनको तो नहीं,मन में शेष   मलाल।


'शुभम्' पालते  साँप जो,और पिलाते   दूध,

डंसना है उनको उन्हें,शेष न सिर  के  बाल।।


●शुभमस्तु !


18.09.2023◆5.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

आस्तीन के साँप ● [ सजल ]

 405/2023

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● समांत :  आल।

●पदांत: अपदान्त।

●मात्राभार : 24.

मात्रा पतन :शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आस्तीन के  साँप  ही,   फैलाएँ फण-जाल।

विष फैलाते  नित्य ही,बुरा देश  का   हाल।।


अपने जिनके  बिल नहीं, फैला तंबू    एक।

घुसें   पराए   धाम   में,खम ठोकें   तत्काल।।


छोड़  सपोले  हैं दिए,  मनमानी  हो   नित्य।

जता रहे अधिकार वे,बजा-बजा कर गाल।।


रक्तपात  आतंक  से,डरे हुए जन   आज।

साँपों का प्रिय खेल है,करना बड़े   बवाल।।


मूढ़   सपेरे   हो गए,  बेबस बल   से   हीन।

सड़कों  पर लोहू  बहे,नोंच खा रहे खाल।।


बिना  किए  सब चाहिए,जिसे निवाला  भोग।

किंचित उनको तो नहीं,मन में शेष   मलाल।।


'शुभम्' पालते  साँप जो,और पिलाते   दूध।

डंसना है उनको उन्हें,शेष न सिर  के  बाल।।


●शुभमस्तु !


18.09.2023◆5.30आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 17 सितंबर 2023

आस्तीन के निवासी ● [ व्यंग्य ]

 404/2023



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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           एक बहुत पुरानी और कु-प्रसिद्ध कहावत भला किसने नहीं सुनी होगी। यदि सुनना ही चाहते हैं तो सुन भी लीजिए और पढ़कर वाचन भी कर लीजिए।कहावत कुछ यों है : 'आस्तीन में साँप पालना । 'आस्तीन का साँप होना।' कहावत की पुरातनता वर्तमान में भी उतनी ही प्रासंगिक है ,जितनी अनादि काल में रही होगी।अंततः महाराजा परीक्षत द्वारा कराए गए नागयज्ञ में संसार के सभी नाग भस्म नहीं हो पाए थे कि बचे हुए नागों के जीवनदाता बने ऋषि आस्तीक ने उनके बीज बचा ही डाले; जो आज भी मानव समाज को डंस रहे हैं।निरंतर डंसे चले जा रहे हैं। इतना बड़ा नागयज्ञ होने पर भी इतने साँप बचे रह गए। इसका श्रेय ऋषि वर आस्तीक को जाता है।

            [प्रसंगवश उनका परिचय बताना भी आवश्यक हो जाता है।आस्तीक माता मनसा और पिता जरत्कारु से उत्पन्न संतान थे। गणेश,कार्तिकेय और भगवान अय्यपा उनके मामा ,देवी अशोकसुंदरी और देवी ज्योति उनकी मौसी,राजा नहुष और अश्वनी कुमार नासत्य उनकर मौसा,शिवजी और पार्वती उनके नाना - नानी थे। 

         गर्भावस्था में आस्तीक ऋषि की माँ कैलाश पर्वत पर चली गई। अतः भगवान शंकर द्वारा उन्हें ज्ञानोपदेश दिया गया। गर्भावस्था में ही धर्म और ज्ञान का उपदेश पा लेने के कारण इनका नाम 'आस्तीक' रखा गया।उन्होंने महर्षि भार्गव से सामवेद का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत नाना भगवान शंकर से मृत्युंजय मन्त्र का अनुग्रह प्राप्त किया और माता के साथ अपने आश्रम लौट आए।राजा जनमेजय के पिता राजा परीक्षत की मृत्यु सर्पदंश से होने के कारण उन्होंने समस्त सर्पों का विनाश करने के लिए सर्पसत्र (नागयज्ञ) का आयोजन किया।यज्ञ के अंत में तक्षक की बारी आने पर पिता जरत्कारु ने उसकी प्राणरक्षा के लिए पुत्र आस्तीक को वहाँ भेजा।आस्तीक ऋषि ने अपनी सम्मोहक वाणी के प्रभाव से राजा जनमेजय को मोह लिया।उधर तक्षक घबराकर इंद्र की शरण में जाकर छिप गया।जब ब्राह्मणों के आह्वान पर भी तक्षक वहाँ नहीं आया ,तब 'इन्द्राय तक्षकाय स्वाहा' मंत्रोच्चार करने पर इंद्र ने उसे मुक्त कर दिया और वह यज्ञकुण्ड पर आकर खड़ा हो गया।राजा जनमेजय ऋषि आस्तीक से वचनबद्ध हो चुके थे। उसी वचनबद्धता के कारण उन्होंने तक्षक को भस्म होने से बचा लिया और राजा का सर्पसत्र भी रुकवा दिया।वचनबद्ध जनमेजय ने खिन्न होकर तक्षक को मन्त्र- प्रभाव से मुक्त कर दिया।तब सभी सर्पों ने आस्तीक को वचन दिया कि जो भी तुम्हारा ध्यान करेंगे या आख्यान को पढ़ेंगे ;उन्हें वे कष्ट नहीं देंगे।जिस दिन नागों को प्राणदान मिला ,उस दिन पंचमी थी,इसलिए आज भी उस दिन नागपंचमी मनाई जाती है।] 

              सांप नष्ट होने से बच गए ,इसलिए कहावत भी बच गई अन्यथा वह भी यज्ञकुण्ड में भस्म हो गई होती।अब प्रश्न ये है कि ये साँप ,शंकर भगवान की तरह पाले जाते हैं अथवा स्वतः पलकर आस्तीन में अपना घर बना लेते हैं?कुछ सपोले औऱ कुछ प्रौढ़ सर्प भी आस्तीनों में पलते हुए देखे गए हैं। सपोले पहले आस्तीन में घुसे -घुसे दूध पीते हैं और वे ही वयस्क होकर जिसका पीते हैं ,उसी को डंसते भी हैं।बस अवसर की तलाश भर रहती है । अन्यथा क्या साँप अपनी प्रकृति को छोड़ सकते हैं? जब साँप पल ही जाता है ,तो पालक को कुछ न कुछ लाभ भी पहुँचाता ही होगा। अन्यथा भला कोई भला मानुष क्यों अपनी ही आस्तीन में पालने लगा?ऐसा भी हो सकता है कि प्रारम्भ में आदमी जिसे केंचुआ समझे बैठा हो ,वही साँप सिद्ध हो जाए! ये तो डंसने के बाद ही पता लगता है कि वह साँप था ! जब तक वह बिल में सीधा चले, तब तक तो कोई अनुमान नहीं, किन्तु जिस पल वह धोखा देकर डंस ले और वक्राकार चलने लगे ,तब होश आए कि जिसे हम केंचुआ माने बैठे थे;वह तो साँप निकला। हाय !धोखा हो गया।

              पता नहीं कि कौन कब किसके लिए आस्तीन का साँप बन जाए? मित्र के लिए मित्र,पड़ौसी के लिए पड़ौसी, सहेली के लिए सहेली, सास के लिए बहू या बहू के लिए सास,डॉक्टर के लिए उसका कंपाउंडर,गुरु के लिए शागिर्द,अधिकारी के लिए कर्मचारी, नेता के लिए गुर्गा, व्यापारी के लिए उसी का नौकर आदि ऐसे हजारों लाखों उदाहरण हैं ,जहाँ अज्ञान के अँधेरे में आस्तीनों में ही पलते हुए साँप या सपोले अपने 'कारनामों' से टी.वी.,अखबार की नित्य की सुर्खियां बनते हैं। आज के युग में तो अपनी ही संतानें भी आस्तीन के साँपों की भूमिका बख़ूबी निभा रही हैं।वे स्व - परिश्रम से नहीं ; बाप और माँ के रक्त की बूँद-बूँद तक चूस लेना चाहती हैं।यही तो उनका सपोले से साँप बन जाना है। सपोलापन है।सबसे गंभीर मामला तो यही है।क्योंकि संतति रूपी साँप से दंशित माँ - बाप पानी भी नहीं माँग सकते । जब अपने उद्धारक का ही रक्त विषाक्त हो जाए! फिर विश्वास कहाँ और कैसे किया जाए? दूध का जला (वह भी अपने दूध का !) छाछ भी फूँक -फूँक कर ही पीता है। 

क्ति ,समाज और राष्ट्रीय स्तर पर असंख्य आस्तीन के साँपों की गणना करना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है।इन साँपों की प्रकृति ये भी है कि वे साँप की शक्ल में न होकर मानुष की शक्ल में ही अपना उल्लू सीधा करते हैं। इन्हें बहुरूपिए भी कहा जा सकता है: कहीं चिलमन में , कहीं चाक चौबंद चमन में। कभी अपनी बगल में,कभी दामन के सहन में।। आस्तीनों के साँप डंसा करते हैं, हमें ही खोखला कर रहे हैं अपने वतन में। 

            सांप की प्रकृति ही जहरीली है।इंसान को कागज़ का साँप भी डरा देता है।जिंदा साँप की तो बात ही क्या है !ये भी असत्य नहीं कि साँप कभी अपने अपना घर ,अपने बिल नहीं बनाते ।वे तो दूसरों के पूर्व निर्मित बिलों में ही रहते हैं।दूसरों का ,मुफ्त का,छीन- झपट कर लिया हुआ हराम का खाना ही वे अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।पराश्रयी जीवन ही उनका संस्कार है।इस बात को हमें और आपको कभी नहीं भूलना है कि आस्तीन वाले साँप कभी साँप - शरीर में नहीं मिलते। उनके अन्य अनेक रूप और देह हो सकते हैं।

            आस्तीनें रहेंगीं। पर उन्हें देखना ,परखना और जाँचना भी होगा कि साँप न पनपने लगें।सावधानी हजार नियामत।स्वस्थ परिवार,व्यवसाय, रोजगार,व्यापार,समाज और देश के लिए आस्तीनों के साँपों के फनों को कुचलते जाना भी अनिवार्य है।उनके लिए ऐसे जनमेजय बनें कि कोई आस्तीक अपने मोहन- मंत्र से उन्हें अपने सत्कर्म - सर्पसत्र से विरत न कर सके। क्योंकि ये अपने स्वभाव को नहीं बदलेंगे।जहर उगलना और समीपस्थ को डंसना इनका संस्कार है। न इन्द्र बनकर उनके रक्षक बनना है और न ही लुभावन - वाणी से कर्तव्य - च्युत होना है।यदि तक्षक न बचता तो नाग -वंश भी शेष नहीं होता। 

 ●शुभमस्तु !

 17.09.2023◆ 2.30 प.मा. 

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खिचड़ी -प्रिय जनता ● [ अतुकान्तिका ]

 403/2023

 

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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खिचड़ी - प्रिय

जनता भारत की

खाए चावल -दाल,

'बट' 'शट' सीखे

हैलो ! हाय! हाय!!

गिटपिट हिंगलिश 

करते नित्य कमाल।


आती नहीं

मातृभाषा भी,

अंग्रेज़ी के दास,

बनी प्रतिष्ठा 

आज  'फ़िरंगिनि'

चरती हिंदी घास।


माँ की हुई न

संतति देशी

तोड़ें ए बी सी की टाँग,

मौसी से इतना 

लगाव है,

खा बैठे जैसे भाँग।


नेता अधिकारी

संतति को

भेजें सभी विदेश,

हिंदी के बन

बड़े पक्षधर

प्रेम नहीं है लेश।


'शुभम्' चल रहे

नाटक  नौटंकी

अब भी देश गुलाम।

मिले नौकरी

 अंग्रेज़ी से

समझें हिंदी बेकाम।

देश की हालत ये है,

नारों का है देश,

यही हमारा क्लेश।


●शुभमस्तु !


14.09.2023◆9.45प.मा.

हिंदी से हम ● [ गीत ]

 402/2023

        

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हिंदी से हम

हम से  हिंदी

हम नहीं किसी भाषा से कम।


माता जिसकी

संस्कृत पावन

तन देवनागरी का प्यारा।

जननी ने दी

घोटी निज पय

बहती मुख से गंगा धारा।।


लिखते जैसा

बोलें वैसा

क्यों हीन भाव भरते हैं हम।


प्रति शब्द -शब्द

भारती -ज्ञान

गुंजित करती शारदे मात।

संस्कार युक्त

हिंदी अपनी

वह गूँज रही निशि- दिवस सात।।


हिंदी हिंदू

यह हिंद देश

तीनों का पावन सुर संगम।


रोना गाना

मुस्कान हँसी

सपने देखें हम हिंदी में।

सावन फागुन

पावस वसंत

रहते हिंदी की बिंदी में।।


होली रोली

चंदन वंदन

दीपों से तारे रहे सहम।


तुलसी या कवि

सूर की यही

चरित -काव्य पहचान बनी है।

पंत निराला

मीराबाई

घनानंद रसराज सनी है।।


युग बदला है

बढ़ती हिंदी

चला लेखनी रच गीत 'शुभम्'।


हमें नहीं है

बैर किसी से

किंतु नहीं अपमान सहेंगे।

हिंदी बोलें

हिंदी में लिख

हिंदी को निज मातु कहेंगे।।


जूझेंगे हम

ए बी सी से

आए आगे यदि हो दम।


●शुभमस्तु !


13.09.2023◆9.00प०मा०

मातृभाषा हिंदी ● [ दोहा ]

 401/2023

   

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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माँ की  घुट्टी में घुले,जिस भाषा  के   बोल।

हिंदी  वह  रस में सनी,भाव भरे  अनमोल।।

अमृत-धारा   से  भरे,माँ के पय   के   बिंदु।

वह   हिंदी  भाषा  अहो,नभ में   जैसे   इंदु।।


माता   को  जिसने नहीं,दी जग में पहचान ।

मौसी-भाषा दे नहीं,  सदा शिखर   सम्मान।।

वैज्ञानिक   भाषा   सदा,हिंदी ही   है   मीत।

चले कंठ से होठ तक, वर्णमाल  बन  गीत।।


हिंदी   की कर साधना,हे मानुष   की  जात।

कवि,लेखक,गायक बना,हो जग में विख्यात।

बोल तोतले मधु भरे,निज माँ की   ही   देन।

शैशव से चल आज तक,बने वाक की सेन।।


जगती  में   विख्यात   हैं,हिंदी माँ  के   गीत।

साधिकार   मुख  से कहें, हिंदी   से  है  प्रीत।।

माँ न कभी  दुतकारती,संतति से   कर    प्रेम।

आँचल  में   लेती  छिपा,  वही बनाती   हेम।।


निज माँ से मिलता तुझे,जगती में सम्मान।

और कहीं मिलना नहीं,माँ -भाषा रस- खान।।

रोटी से  अट्टी  कहे,  पय  पू -पू    नवजात।

अँगुली  गह  सिखला रही,मेरी  प्यारी  मात।।


आओ  हम  सम्मान   दें, माँ- भाषा को आज।

स्वाभाविक बँधना सदा,हिंदी के   सिर  ताज।।


●शुभमस्तु !


13.09.2023◆6.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 11 सितंबर 2023

सभ्यता खड़ी हो गई है!● [ व्यंग्य ]

 400/2023 


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● ©व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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हमारी मनुष्य जाति की प्रायः तीन अवस्थाएँ प्रचलन में हैं :1.बैठना 2.लेटना और 3.खड़े रहना। एक और चौथी अवस्था भी कभी - कभी देखी जाती है ;वह है उकड़ू बैठना ,जिसे बैठी हुई अवस्था का ही एक उपभेद कहा जा सकता है। प्राइमरी स्कूल में मुंशी जी इसका प्रयोग हमें आदमी से मुर्गा बनाने में कर लिया करते थे। यह बैठी और खड़ी हुई अवस्था का एक मिश्रित रूप है ।न पूरी तरह बैठे हुए और न पूरी तरह खड़े हुए।मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जंतु है ,जिसे अपनी सभ्यता को दिखाने का शौक है। जिसे विभिन्न रूपों में वह प्रायः दिखाया करता है।

 मानव की सभ्यता एक ऐसा कपड़ा अथवा आवरण है ,जिसे वह कभी भी बदल सकता है। उतार कर फेंक सकता है। इसलिए उसका निर्वसन अथवा नंगा होना या होते चला जाना भी उसकी विकसनशील सभ्यता का एक रूप है। सभ्यता के इस रूप पर यदि विस्तार से विचार किया जाएगा तो उसकी देह पर सूत का एक धागा भी नहीं बचेगा और वह सभ्यता के एवरेस्ट पर ही बैठा हुआ दिखेगा। फिलहाल हम मानवीय सभ्यता के इतने 'उच्चतम स्वरूप' की समीक्षा करने नहीं जा रहे हैं।पहले उसकी उन्हीं साढ़े तीन अवस्थाओं पर विचार विमर्श ही समीचीन होगा।

 मनुष्य की सभी साढ़े तीन अवस्थाएं उसके जीवन भर काम आने वाली हैं।खाते,पीते, चलते -फिरते,सोते, काम करते हुए इन्हें स्व सुविधानुसार वह काम में लेता रहता है।सामान्यतः बैठने की अवस्था उसके जाग्रत जीवन की ऐसी प्रमुख अवस्था है ,जो अधिकांशत: काम आती है।तभी तो किसी के द्वारा कहीं जाने पर लोग उसके स्वागत में यह कहते हुए देखे सुने जाते हैं कि आइए बैठिए, पधारिए ,तशरीफ़ रखिए।इस काम के लिए प्रकृति ने प्रत्येक स्त्री -पुरुष को एक नहीं दो -दो भारी - भरकम विशेष अंग भी पहले से ही उपहार में दे दिए हैं कि शिकायत की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी कि कोई यह कहकर शिकायत कर सके कि हमारे पास तो थे ही नहीं जो बैठेते या पधार पाते या तशरीफ़ रख पाते। आप अच्छी तरह से समझ ही गए होंगे कि वह बहुमूल्य दो अदद क्या है?जिन्हें हम जैविक विज्ञान की भाषा में 'नितंब' की संज्ञा से अभिहित करते हैं। अगर प्रकृति ने ये दोनों नहीं दिए होते तो शिकायत का पूरा अवसर होता। पर अब आपको वह अवसर नहीं दिया गया है । इसलिए शांतिपूर्वक ढंग से बैठना सीख लीजिए। पर कहाँ ? आपको बैठने की फुरसत ही कहाँ है? आप तो इतनी जल्दी में हैं ज़नाब कि खाना ,पीना क्या ;मल -मूत्र विसर्जन तक का समय नहीं हैं आपके पास !सब कुछ खड़े - खड़े ही निबटा लेना चाहते हैं!बैठने तक की फुरसत नहीं।वाह रे इंसान।इंसानों और गधे -घोड़ों,सुअरों, कुत्ते,बिल्लियों में कोई भेद ही नहीं रह गया! 

 दावतों में शांति से बैठकर भोजन करने के स्थान पर 'बफैलो सिस्टम' ईजाद कर लिया।यहाँ तक कि मूत्र विसर्जन के लिए खड़े -खड़े वाला बड़ा - सा प्याला दीवाल पर लटका लिया और शेष काम के लिए कमोड ने उटका लिया। यह भी सम्भवतः असुविधाजनक होता ,अन्यथा इसे भी गाय- भैंस की तरह 'खड़ासन' में ही निबटाता !इस मामले में वह भूल बैठा की उसकी देह - संरचना की माँग 'बैठासन' की है ,'खड़ासन ' की नहीं।

 लेटकर या बैठकर आप टहल नहीं सकते। यह ठीक है। किंतु जीवन के बहुत से काम ऐसे हैं ,जिन्हें बैठकर किया जाना ही सुविधाजनक है।परंतु कल -कारखानों में जिन मशीनों पर बैठकर काम करना उचित होता ,वहाँ भी 'खड़ासन' में काम करने वाली मशीनें बना डालीं।खड़ी हुई अवस्था में मानव को अपेक्षाकृत अधिक और जल्दी थकान होती है ,इस तथ्य को नजरंदाज कर दिया गया। आज वैज्ञानिक रूप से भी यह प्रमाणित किया जा चुका है कि खड़े -खड़े काम करने की अपेक्षा बैठकर काम करने से व्यक्ति अधिक समय तक जीता है। वह दीर्घायु होता है। माना कि शिक्षण कार्य बैठ या खड़े होकर दोनों तरह से किया जाना संभव है। किंतु लिपिकीय कार्य खड़ी अवस्था में करना न उचित है और न सुविधाजनक ही है। ट्रैक्टर ,बस, कार ,ट्रेन ,हवाई जहाज आदि की ड्राइविंग बैठकर ही की जानी है ,की भी जाती है।हो न हो कि ऐसी भी खोज कर ली जाए कि ये वाहन भी खड़े खड़े चलाने वाले बना दिए जाएँ। हल - बैलों से खेत की जुताई खड़े हुए ही सम्भव है। यही उसकी आवश्यकता भी है। कुम्भकार का चाक, मोची का जूते गाँठना यदि बैठकर ही करना है तो हैंडपंप खड़े होकर ही चलाना होगा।यह कार्य की प्रकृति है। किंतु शरीर -जैविकी की वैज्ञानिकता छोड़कर खड़े होकर कार्य करना सर्वथा अनुचित ही होगा। 

 हम मनुष्य 'खड़ासन' के इतने कुशल विशेषज्ञ हैं कि अपनी बोली -भाषा को भी खड़ी कर दिया और वह खड़ीबोली बना दी गई।हमारी प्राचीन भाषाएँ : जैसे- ब्रजभाषा,अवधी,भोजपुरी, मैथिली,कन्नौजी, हरियाणवी, राजस्थानी आदि बैठा दी गईं या सुला दी गईं। सब कुछ खड़ा-खड़ा, खड़ी -खड़ी,खड़े - खड़े। दूल्हा -दुल्हन भी न भाँवरें लेने लगें कहीं घोड़ी पर चढ़े -चढ़े!

 ●शुभमस्तु!

 11.09.2023◆6.00आ०मा०

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कर्म मनुज का नित्य ● [ गीतिका ]

 399/2023

   

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सभी  पालते  श्वान, खाते यदि   वे    घास।

पीछे    है   इंसान,  मत  समझें  परिहास।।


कर्म  मनुज  का  नित्य,पथ पर  देखें  आप,

अनसुलझा औचित्य,कुक्कर जिनके पास।


होता   नित्य    नहान ,महके साबुन     देह,

बिस्तर  में   भी  श्वान ,नर  से   आती  बास।


फुटपाथों     पर    लोग,  सोते भूखे      पेट,

दूध - ब्रैड  का भोग,शुनक यहाँ  कुछ  खास।


गली - गली   में   घूम, यों तो करें     जुगाड़,

भौं - भौं  की  कर  बूम, करता रोटी  - आस।


कर्मों  का  परिणाम, भोग  रहे सब     जीव,

गिरती  योनि  धड़ाम, जीवन मात्र   प्रवास।


'शुभम्' मनुज की देह,सहज नहीं उपलब्ध,

अस्थि  माँस  का गेह,करना पड़े    प्रयास।


●शुभमस्तु !


10.09.2023◆11.45 प०मा०

सभी पालते श्वान ● [ सजल ]

 398/2023

  

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● ©शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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● समांत : आस।

●पदांत : अपदान्त।

●मात्राभार : 11+11=22

●मात्रा पतन : शून्य।

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सभी  पालते  श्वान, खाते यदि  वे    घास।

पीछे    है   इंसान,  मत  समझें  परिहास।।


कर्म  मनुज  का  नित्य,पथ पर  देखें  आप।

अनसुलझा औचित्य,कुक्कर जिनके पास।।


होता   नित्य    नहान ,महके साबुन   देह।

बिस्तर  में   भी  श्वान ,नर  से   आती  बास।।


फुटपाथों     पर    लोग,  सोते भूखे      पेट।

दूध - ब्रैड  का भोग,शुनक यहाँ  कुछ  खास।।


गली - गली   में   घूम, यों तो करें     जुगाड़।

भौं - भौं  की  कर  बूम, करता रोटी  - आस।।


कर्मों  का  परिणाम, भोग  रहे सब     जीव।

गिरती  योनि  धड़ाम, जीवन मात्र   प्रवास।।


'शुभम्' मनुज की देह,सहज नहीं उपलब्ध।

अस्थि  माँस  का गेह,करना पड़े    प्रयास।।


●शुभमस्तु !


10.09.2023◆11.45 प०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...