सोमवार, 31 दिसंबर 2018

गुड़ खाएँ गुलगुले न भाएँ [ दोहे ]

गुड़ खाएँ नित प्रेम से,
पर गुलगुले  न  भाएँ।
युग को पहचानें नहीं,
भारतीय    कहलाएं।।1।

पेंट सूट धारण किया,
बाँधें         कंठलँगोट।
धोती कुर्ता त्यागकर
ढूंढ़  रहे  हैं  खोट।।2।

साड़ी ब्लाउज़ भी गया,
जींस  टॉप   ली   धार।
क्यों मानें   नववर्ष को ,
मनमानी    सरकार।।3।।

विवाह निमंत्रण -पत्र में
अंग्रेज़ी           तारीख ।
पर  विरोध  की  दे  रहे,
समय -विरोधी सीख।।4।

अंग्रेज़ी     तारीख    से,
सर्विस    हर    व्यापार।
नए  वर्ष  के  वदन  पर ,
कीचड़   की  बौछार!!5।

ट्रेन  बसें वायुयान  सब ,
आंग्ल   वर्ष    अनुरूप।
अपने  पथ चलते सभी ,
क्यों विरोध का कूप??6।

जन्म दिवस निज पुत्र का,
या         स्कूल -    प्रवेश ।
दशमी   माह  अषाढ़  की,
क्या लिखता है देश??7।

अंग्रेज़ी     -   स्कूल     में ,
पढ़ती       है       संतान ।
अंग्रेज़ी  -    नववर्ष    के ,
स्वागत  से अनजान!!8।

कृष्णपक्ष  की    अष्टमी,
पौष     मास   में     रेल।
समय -सारिणी  में नहीं ,
पैसेंजर       या      मेल।।9।

मिश्रित संस्कृति सभ्यता,
शुद्ध     न      लोकाचार।
इस्लामी        अंग्रेज़ियत,
सबका  बना    अचार।।10।

हिंदी ,    उर्दू ,    फ़ारसी,
अरबी     सबका    मेल।
भाषा - जननी  संस्कृत,
अंग्रेज़ी  का  भी  खेल।।11।

हिज़री , विक्रम , ईसवी ,
शक   संवत     व्यवहार।
विश्व  - पटल  पर एक  ही,
सन  का  है   विस्तार।।12।

फ़िल्म,अनुकरण,रूढ़ियाँ,
कला ,   काव्य ,    संगीत ।
प्रथा  पूर्वजों   की  प्रबल,
सिखा  रही  नवगीत।।13।

समय   बदलता  जा रहा,
ज्यों   सरिता    का   नीर।
चले  समय के  साथ जो,
उठे  न  उर  में   पीर।।14।

अपने -  अपने  राग  की
ढपली    कर    लें   बन्द।
वीणा  की  झनकार  के,
"शुभम"न बिसरो छन्द।।15।

शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
 डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

जीवन [ मुक्तक ]

दिन बदलते गए रातें ढलती गईं,
ज़िंदगी यों ही  राहें बदलती गई,
पीछे मुड़कर जो देखा हमने 'शुभम,
घड़ियाँ बालू -सी कर से फिसलती गई।

सुख में तो   साथी   बहुत हो गए,
कोई दिखता नहीं जब हम रो गए,
तिनके का सहारा बहुत था 'शुभम'
जो कहते थे अपना कहाँ खो गए।

सुख स्थिर नहीं तो दुःख क्यों रहे,
घड़ी की  सुइयाँ  नीचे  ऊपर  रहें,
एक वक़्त में एक ऊपर नीचे 'शुभम'
सुख दुःख का समय भी यों ही रहे।

मेरे हँसने पर  जमाना हँसने लगा,
मैं रोया तो जमाना खिसकने लगा,
दोष मढ़कर मेरे सिर मुझ पर हँसा,
निज को भी कसौटी न कसने लगा।

जीवन जीने का नियम भी सुनहरा नहीं,
कोई कह दे कि इस पर चलना सही,
सबको अपनी राहें बनानी हैं 'शुभम',
ज़िंदगी सदा रंगों को बदलती रही।

💐शुभमस्तु ! 
✍🏼रचयिता©
☘ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

हवा [ बाल कविता ]

जीवन  जीव   हवा  आधार, 
बिना  हवा   नैया   मँझधार।

साँस माँस नररक्त  समायी,
बिना वायु तन मृत -सा ही,
शेष कुछ क्षण का ही सार,
जीवन जीव ....

लता वृक्ष कलियाँ फल झूलें,
सावन में   शाखा  पर  झूले,
पवन का संयत शुद्ध  प्रसार,
जीवन जीव ....

वाहन    धावें   सदा  पवन   से,
करते ऊष्मा तीव्र तीव्र शमन वे,
भरी   पहिए  में   हवा    सुधार,
जीवन जीव....

जल थल अम्बर अनल समाया ,
नदिया सागर -जल  में    छाया,
गति   का   नाम  वायु  आभार,
जीवन जीव ....

बिना  हवा   अंकुर  न हरा हो,
हरित लवक का सिंधु भरा हो,
फल में आता 'शुभम'खुमार।
जीवन   जीव   हवा  आधार।। 

💐शुभमस्तु  !
✍🏼रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

पानी [बाल कविता]

नाम  सत्य जीवन  पानी का।
प्रकृति -प्रदत्त महादानी का।।

पानी   से     जीवन   संसार,
बिन पानी सब कुछ निस्सार,
जीव - जंतु  सर्वत्र  नीरमय  ,
नाम सत्य.....

पौधे  लता  पुष्प  फल  सारे,
रस मधु दुग्ध सलिल  उद्धारे,
रक्त माँसअस्थियां कोशिका,
नाम सत्य....

नदियाँ  सागर  ओस  तुषार,
तुहिन मेघ अम्बर  का प्यार,
पावस शरद शिशिर  हेमन्त,
नाम सत्य....

भ्रूण डिंभ रज या नर -बिन्दु,
जल से  सराबोर  हर  सिंधु,
वाणी -निसृत कविता में भी,
नाम सत्य....

आँख का पानी जो मर जाए,
मोती क्या   मानुष जी पाए?
रोटी 'शुभम'नहीं है जल बिन।
नाम सत्य  जीवन  पानी का।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता "©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

धरती माँ [बाल कविता ]

धरती माँ  धीरज  सिखलाती।
पग -पग पर चंदन बन जाती।।

लिया  गोद  में  जब   जन्माये,
नवशिशु को कोई कष्ट न आये,
स्नेह- धूलि  तन  से  लिपटाती,
धरती माँ ...

घुटरुन   अपनी  देह   चलाया,
स्थिर    होना   धरा   सिखाया,
गिरने  पर  -माँ  तुझे   उठाती,
धरती  माँ ....

दौड़े  -   कूदे     उछले    ऊपर,
गड्ढे -   कूप     खोदते     भूपर ,
पर धारिणी सब कुछ सह जाती,
धरती माँ ....

कीचड़   नाले   नाली   नदियाँ,
बीती   लाख   करोड़ों  सदियाँ,
तनिक न मैल  हृदय  में लाती,
धरती माँ....

आजीवन  हम बालक माँ  के,
उऋण न  होंगे धरती   माँ से,
'शुभम' अंत में अंक  सुलाती,
धरती माँ  धीरज  सिखलाती।

💐शुभमस्तु !
✍🏼 रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बाबा नागार्जुन जी से भेंट [ संस्मरण ]

   वर्ष 1976 की बात है। उस समय मैं अपने गुरुजी परम् पूज्य डॉ. राजकिशोर सिंह जी (प्रोफेसर आगरा कालेज,  पश्चात प्राचार्य के आर कालेज , मथुरा , तदुपरांत सदस्य लोक सेवा आयोग उ.प्र.) के निर्देशन में सनुसन्धितसु था। साथ ही उच्च शिक्षा में शिक्षक बनने के लिए साक्षात्कारों में भी जा रहा था। एक साक्षात्कार में दिल्ली के एक मित्र से नया परिचय हुआ। उनकी बाबा नागार्जुन जी से अच्छी जानकारी थी। उनके आमंत्रण और उनसे मिलवाने के वादे के अनुसार मैं पहली बार ही  दिल्ली गया और उन्ही मित्र महोदय के यहाँ ठहरा।
   प्रातःकाल वे मुझे बाबा नागार्जुन जी से मिलवाने के लिए उनके आवास पर ले गए। जब बाबा को मैने पहली बार देखा तो प्रथम दृष्टि में ही उनसे प्रभावित हो गया। मैने उनके चरण स्पर्श किए और परिचय दिया।वे बहुत सौम्यता और  गौरव से मिले। उनके खिचड़ी बाल , सिर के बाल बढ़े हुए, खद्दर का कुर्ता , खद्दर का ही पाजामा, पैरों में चप्पल। बहुत ही सादगी और मिलनसारिता पूर्ण लगा उनसे मिलना। लगा ही नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूँ। मेरे स्वागत में वे बूंदी के लड्डू लेकर आए। औऱ बड़े ही स्नेह से उन्होंने एक लड्डू प्लेट से उठाकर मुझे खिलाने लगे तो मैं उनके स्नेह से अभिभूत हो गया।
   फिर उन्होंने आने का उद्देश्य पूछा। मैने बताया कि बाबा आपके समस्त उपन्यास साहित्य पर शोध कर रहा हूँ। तो  उन्होंने कहा कि मैं इसमें क्या मदद कर सकता हूँ? मैंने कहा बाबा आपके दर्शन की प्रबल इच्छा से ही आपके पास आया हूँ। ये मेरे मित्र हैं , जिनकी कृपा से आपसे मिल पा रहा हूँ। आपके उन्यास साहित्य कद संबंध में कुछ जानकारी भी कर लूँगा। उन्होंने पूछा कि टॉपिक क्या है? मैंने बताया - "नागार्जुन के उपन्यासों में आँचलिक तत्त्व " मेरे शोध का विषय है बाबा। तब वेद बोले कि पूछो। उसके बाद लगभग आधा घंटे तक उनके उपन्यास लेखन पर कई प्रकार के प्रश्नों के समाधन लिया। बाबा की सादगी, विनम्रता , विद्वत्ता और आत्मीयता ने मुझे अंदर तक अभिभूत कर दिया।
   बाबा जी ने कुछ कविताएँ भी सुनाईं , जो उन्होंने उनके पास आई हुई चिट्ठियों के लिफाफों को खोलकर  लिखी  हुई थीं। वे कागज के एक टुकड़े को भी  व्यर्थ नहीं फेंकते थे। तमाम कविताओं  को छोटे -छोटे कागज़ के टुकड़ों पर लिखा देखा तो मुझे मितव्ययता का  सबक सीखने को मिला,कि किस प्रकार एक बेकार चीज़ को भी काम में लेकर उसकी उपादेयता  बढ़ाई जा सकती है। ऐसी महान  विभूति को मैं शृद्धापूर्वक बार-बार नमन करता हूँ। बाबा एक दिव्य विभूति औऱ देश के महान साहित्यकार थे। मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक बाबा नागार्जुन का व्यक्तित्व निश्चय ही प्रातः स्मरणीय है।

💐शुभमस्तु !
✍🏼 लेखक ©
 🍃 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

तारे [बाल कविता]

 चमक रहे अम्बर  में तारे।
आँखों को लगते वे प्यारे।।

दिन  में भी   वे नित  रहते हैं,
बिन  वाणी वे कुछ  कहते हैं,
तुम तो  देख  नहीं  पाते  हो,
चमक   रहे   अम्बर  में तारे।

वे   अपनी   क्षमता  में  रहते,
नहीं  किसी  समता  में  बहते,
टिम-टिम करते निज सीमा में,
चमक  रहे  अम्बर    में  तारे।

वे  अपना   ही   करते   काम,
विघ्न  न बनते  कभी  विराम,
प्रेरणा  देते  सदा     कर्म  की,
चमक  रहे   अम्बर  में   तारे।

सूरज  शशि  से  होड़ नहीं है,
उनसे  उनका  जोड़  नहीं  है,
ईर्ष्या   द्वेष   नहीं   करते   वे ,
चमक  रहे  अम्बर   में  तारे।

सूरज   का   करते   सम्मान ,
नहीं   दिखाते  उनको  शान,
'शुभम' साथ  चन्दा को लाते,
चमक  रहे  अम्बर  में   तारे।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

समय घड़ी [ बाल -कविता]

दिन भर  चलती  रहती हूँ,
कभी  नहीं  मैं  रुकती  हूँ,
नहीं  रात को  मैं  सोती हूँ,
नहीं थकित भी मैं होती हूँ,
मैं कहलाती समय -घड़ी।

दीवारों  पर    टंगी  हुई  मैं,
हाथ - कलाई  बँधी  हुई मैं,
कम्प्यूटर  मोबाइल  में  भी,
गिरजा और देवालय में भी,
मैं  कहलाती  समय -घड़ी।

बार - बार तुम मुझे देखते,
टाँग पीठ पर  अपने बस्ते,
चलते मुझे देख विद्यालय,
घण्टे बजते  घर  देवालय,
मैं  कहलाती समय -घड़ी।

घड़ी -घड़ी  पर घण्टा लगता,
पढ़ने का तब विषय बदलता,
चपरासी टन - टन है  करता,
कान तेरा झन-झन है करता,
मैं  कहलाती  समय - घड़ी।

सूरज सदा समय से उगता,
रात में चन्दा  मामा चलता,
समय से  बँधे  हुए  वे सारे,
'शुभम'वे रहते घड़ी बिना रे,
मैं  कहलाती  समय - घड़ी।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

अकविता की शान

जो सिर के ऊपर 
निकल जाए,
जो मस्तिष्क को 
कुरेद-कुरेद खाए, 
मर्म को छू 
भी न पाए,
डाक्टर के पर्चे की तरह
केमिस्ट समझ जाए,
खुद ही समझे 
या खुदा समझ पाए।

न कोई रस हो
न हो छन्द का बन्ध,
 न तुक हो  न सही लय
उछल-उछल चले स्वछन्द।

न संगीत न झनकार
विलुप्त हो लय औऱ ताल,
उखड़ी -उखड़ी  चाल,
नीरसता का फैलाती हुई जाल।

विचारों का क्लिष्ट संगुम्फन
ज्यों फैलाता फुंफकारता फन,
आत्मश्लाघा आत्मप्रवंचन
प्रलाप सी करती कविता बेमन।

वही  श्रेष्ठता उत्कृष्टता की कसौटी
कहीं दुबली -पतली कहीं मोटी,
रचयिता उसका विद्वान महान
अकविता की अद्भुत शान।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🥨डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मैं बीज तू मेरी मही [अतुकान्तिका]

तू  धारिणी  मैं धार्य था,
तेरे लिए अनिवार्य था,
तेरे रक्त से पोषित 
उदित कलिका सदृश
नवचेतना का द्वार था,
खुल गया ज्यों मम जीवन का
हर्ष वर्षातिरेकमय रोदन
सुसज्जित द्वार था,
वेदना सहती हुई  भी 
तू प्रसन्न वदना प्रमन,
भूलकर तन -वेदना,
खिले अधरों के सुमन।

'माँ' नाम की संज्ञा से सुसज्जित
तू हो गई उस क्षण,
प्रकृति का गा रहा 
संगीत हर कण -कण,
पावस -धरा में 
ज्यों हुआ नव अंकुरण,
बाह्य पवन का पावन स्पर्श
धरित्री ताप  नभ का
सौम्यतम संस्पर्श,
पंच महाभूतों का  प्रताप
संस्पर्श का आनन्द 
ज्यों  प्रभु जाप,
पितामह पितृगृह में
खुशियाँ अपार,
एक लाल आया है आज घर
खोलता वंश द्वार,
 पौष मास की अमावस्या
निशीथ की घड़ियाँ,
दिवस शुक्रवार की क्षणिका,
अट्ठाईस दिसम्बर वर्ष
उन्नीस सौ इक्यावन,
माता पिता दादी औऱ बाबा
का घर हुआ शुभ पावन।

हे मेरी पूज्य अम्मा पूज्य पिता 
पूज्य पितामह पितामही,
आपके घर की मैं एक
नन्हीं सी कड़ी,
तुमसे उऋण हो पाना
कभी  भी संभव नहीं,
सौभाग्य मेरा यही है 
सत्यं, शिवम , सुंदरम "शुभम"
मैं बीज  माँ तू मेरी मही।

💐शुभमस्तु ! 
✍🏼रचयिता ©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप  "शुभम"

गुरुवार, 27 दिसंबर 2018

मानव सुधर जाओ [ गीत]

जातियाँ     जाती     रहेंगीं,
भ्रांतियां    छाती    दहेंगीं,
शांति   को   ढाती  बहेंगीं,
आत्मस्तुति     ही  कहेंगीं,
जाति से  छोटा-बड़ा क्यों,
मानव     सुधर      जाओ।
               
खून का  रंग  लाल सबका ,
आदान में नहिं भेद लखता,
आत्मा   का   रंग    सबका -
एक          ही         दिखता,
नर-रक्त के प्यासे बने क्यों ,
मानव       सुधर     जाओ।

एकता    के    गीत   गाते ,
टूटते    नित    मीत  जाते,
संकीर्णता मन   में बसाते,
उच्चता   का   ढोंग  लाते,
व्यर्थ है अभिनय तुम्हारा,
मानव     सुधर    जाओ।

जाति  से  नेता बँधा  क्यों,
जाति  से वोटर सधा क्यों,
देशहित की बात यों -क्यों ,
मात्र सत्ता  से  सधा  ज्यों,
पाखंड  है सारी सियासत,
मानव     सुधर      जाओ।

बातें  बड़ी और काम छोटे,
इधर   मंदिर     उधर कोठे,
निर्धन हितैषी? धनिक मोटे,
आम  चूसा    भाव    खोटे,
खुल गई    है   पोल  सारी,
मानव     सुधर      जाओ।

मिट्ठू मियाँ जी बन गए हो ,
बैठ   ऊपर   तन   गए    हो,
कीचड़ -उछाली में  लगे हो,
यह बता   किसके सगे हो !
मात्र    सत्ता - वासना    है,
मानव     सुधर       जाओ।

दूसरों     में       दोष  सारे,
निज  गरेबाँ   झाँक   प्यारे,
दूध  की  सरिता -  किनारे ,
न्हा   रहे     नेता       हमारे,
चरण    गंगाजल    पखारे,
मानव      सुधर      जाओ।

श्रेष्ठ  हो  फिर क्यों  भिखारी,
नेकनीयती     क्यों   प्रचारी !
दिख   रहे     कुर्सी - पुजारी,
अब याद   आई   है  हमारी?
"शुभम"   सोचकर   आओ,
मानव     सुधर       जाओ ।

💐 शुभमस्तु!
✍🏼रचयिता  ©
🇮🇳 डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

पौष माघ-सी जाए उमरिया [गीत]

पौष माघ -  सी जाए उमरिया।
क्षण-क्षण छीजे मनुज गगरिया।।

बालापन  के  पुष्प  सुनहरे।
महक रहे घर आँगन दुहरे।।
मात - पिता  के प्यारे पहरे।
मन पर छाप छोड़ते गहरे।।
खेले खेल -खिलौने गुरिया।
पौष माघ -सी .....

वय किशोर की खिलती क्यारी।
उपवन की ज्यों   ये  फुलवारी।।
मानव -जीवन सुख -दुःख भारी।
नित  प्रति भोग रहे नर - नारी।।
गंगोत्री    से    बहता     दरिया।
पौष माघ -सी .....

उगीं    कोपलें    यौवन   पाया।
पुष्ट   सौष्ठवी    कंचन   काया।।
रग - रग  में   आनन्द   समाया।
उष्ण    स्फूर्तिमयी  नव छाया।।
नाचे    राधा   संग    संवरिया।
पौष माघ -सी....

अर्थोपार्जन  की  नित गुनगुन।
यौवन   गूढ़  प्रौढ़ता की  धुन।।
ता ता थैया  रुनझुन   गुनगुन।
नए -नए नित सपने  बुन बुन।।
धूप -छाँह युत बनी दुपहरिया।
पौष माघ -सी.....

गया  वसंत   फूल    मुरझाए।
तितली  भौंरे  पास   न आए।।
चम्पाकली    देख     शरमाए।
अपने    होने    लगे    पराए।।
सिर  पर छाई  श्वेत  बदरिया।
पौष माघ -सी .....

आई    जरा   पूरती     जाले।
शक्ति क्षीण  तन  ताने -बाने।।
ज्ञानी  अनुभव    तम्बू   ताने।
मिले  उपेक्षा  बात  न   माने।।
झुकती  जाए क्षीण कमरिया।
पौष माघ -सी .....

पिंजरे   में   पंक्षी    तड़पाये।
वसन बदलने   को  तरसाये।।
है चाहत पर उड़ा   न  जाये।
पुनर्जन्म  का  अवसर  पाये।।
कब मिलनी है नई नगरिया।।
पौष माघ -सी .....

💐 शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
☘  डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम" 

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

पौष- परिक्रमा [छन्द:कुण्डलिया]

पौष पुष्ट जब से हुआ, थर-थर काँपे देह।
बिन बादल बरसात है, बरसे अम्बर मेह।।
बरसे अम्बर मेह, छा रहा गहरा कोहरा।
पंक्षी तरु तल छिपे, ठिठुर तन मानव दोहरा।।
"शुभम"पहन जरसी सुखद, मफ़लर कस के खोंस।
नग्न देह पशु  क्या करे,शी-शी करता पौष।।
               
लाल लाल सूरज उगा, हुई गुनगिनी भोर।
धूप खिली पंक्षी जगे,डाली -डाली शोर।।
डाली-डाली शोर,उछलते मुर्गी चूजे।
अगियाने की आग , चमकते आलू भूजे।
"शुभम"देख रवि की तपन, शीत बदलता चाल।
चुपके से जाने लगा, देखा चेहरा लाल।।
             
साँझ ढली सोई दिशा, कोहरा तम घनघोर।
गौरेया निज नीड़ में, शांत न कलरव कोर।।
शांत न कलरव कोर, ओस कण की प्रभुताई।
ज्यों -ज्यों बढ़ती रात, नारि-नर गए रजाई।।
"शुभम"तनी चादर सघन, लखे न कोहरे माँझ।
मौन तपस्वी -से खड़े ,पीपल वट तरु साँझ।।
    
नरम बाजरे की गरम, रोटी सरसों -साग।
सौगातें सौ शीत की, जिसके भी हों भाग।।
जिसके भी हों भाग, चने का साग हरा -सा।
तिल के मोदक मधुर,पराँठा गरम भरा -सा।।
रायता बथुए का "शुभम", रोचक नहीं भरम।
शकरकन्द की खीर का,स्वाद हो गरमा-गरम।।

गंगा यमुना सरस्वती, बहती शांत सु-धार।
कैसे कहें निनादिनी,सौम्य सरल जलधार।।
सौम्य सरल जलधार, वाष्प कोहरे की चादर।
आवृत नीर अदृश्य, स्न्नान करते नर  सादर।
"शुभम" कुंभ का पर्व है, मेरा मन  तो चंगा।
फुव्वारे में बैठकर, नहा रहे नित गंगा।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼© रचयिता
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

अम्मा जाड़ा मुझे सताता [बाल गीत]

अम्मा जाड़ा   मुझे सताता,
जल्दी -जल्दी क्यों नहीं जाता।

रोज़     मुझे   नहलाती   हो,
टॉफी    दे     बहलाती    हो,
बंटू     रामू      नहीं     नहाते,
नहीं   रोज़   विद्यालय  जाते,
जाड़ा क्यों उनको न सताता!
अम्मा जाड़ा....

इतने   सारे   जरसी   कपड़े,
पढ़ने -लिखने के भी लफड़े,
खेलकूद   में बाधक    होते,
पीठ  लादकर    बस्ता   ढोते,
साल साल क्यों जाड़ा आता!
अम्मा जाड़ा.....

ठंडे   जल से  कपड़े धोतीं,
जल्दी जाग   देर में   सोतीं,
अच्छा  मुझे  नहीं लगता है,
जाड़ा बहुत  बुरा चुभता  है,
तनिक न जाड़ा मुझे लुभाता।
अम्मा जाड़ा........

थोड़ा और मुझे सोने दो,
ठंड और कम तो होने दो,
आज तो क्रिसमस डे की छुट्टी
विद्यालय जाने की कुट्टी।
घर में होगा धूम  धड़ाका
अम्मा जाड़ा ...

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता !
🌱डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शिशिर -राग [छन्द :माहिया]

कोहरा   छाया  है
पौष  का  महीना
काँपती  काया  है।
           
छोटे- छोटे दिन हैं
लंबी - लंबी   रातें
हम    तुम बिन  हैं।
           
ठिठुरन    बढ़   रही
टपकते   हुए   पात
शीत लहर चढ़ रही।
               
झुरमुट में पिड़कुलिया
बैठी  हैं   गम्भीर  मौन
गलगलिया      गौरेया ।
               
मौन   वृक्ष औ' लताएँ
तपस्वीवत चादर ओढ़
शीत   सबको  सताए।
         
ऋतु   नहीं   पावस   की,
तरु  तले   टपकती   बूँदें
शीत रात है अमावस की।

हनुमान किरीट की छटा
खिल उठी कली -कली
सघन  शिशिर  में  लता ।
  
जाड़ा  ही  जाड़ा  है
गरमी   जो  लेनी हो
चाय कॉफी काढ़ा है।
  
प्रणय   की  ऊष्मा है
जीवन - संगी के संग
यौवन की  सुषमा है।
        
आलू    के     खेत    में 
उठती हुई दूधिया वाष्प
फटे   झौरों   के वेग से।

ओढ़े   हुए  दुग्ध  चादर
गंगा -  धार     अविरल
शांत    गम्भीर    सुघर।

न  हिलती  हैं डालियाँ
ठिठुरे  हुए  द्रुम  लताएँ
न  झूम   रहीं  बलियाँ।

हँसता    हुआ   गेंदा  है
खिलखिलाता है गुलाब
जामुन  है  न  फरेंदा  है।

मौन    खड़े   नीम  हैं
पीपल वट शीशम भी
तपस्या  में    लीन  हैं।
   
धूप     गुनगुनाती - सी
सहलाती  बुलाती - सी
अपनापन  लाती - सी।

सौंधा  सरसों  का साग
रोटी  बाजरे   की  गरम
चने के भी  खुले  भाग।

गरम  मधुर  शकरकन्द
चटनी   संग  आलू भुने
शीत  के   सुहाने  छन्द।

💐 शुभमस्तु!
✍🏼©रचयिता
डॉ.भगवत स्वरूप " शुभम"

सोमवार, 24 दिसंबर 2018

विदुर - वाणी [दोहे ]

मायाचारी के लिए,करना मायाचार।
साधु भाव से ही करें, सज्जन से व्यवहार।।1

जरा रूप की नाशिनी,आशा हरती धीर।
नीच पुरुष-सेवा हरे, सदाचार का चीर।।2

लज्जा नाशक काम है,लक्ष्मीनाश क क्रोध।
अहंकार सर्वस्व का, नाशक कर लें शोध।।3

अविश्वस्त के घर कभी, जाय न सायंकाल।
छिप चौराहे मत खड़ा,हो जब रात्रिकाल।।4

जो करता स्न्नान नित,पाता बलअरु रूप।
कोमलता उज्ज्वल वरण, शोभा गंध अनूप।।5

गाली निकले गाल से, खींचे उर के बाल।
मधुर वचन तत्काल ही, सुखद गुलाबी गाल।।6

क्रोध हर्ष के वेग को, रोक सके जो धीर।
विपदा में खोता नहीं, धीरज वह श्रीवीर।।7

सर्वश्रेष्ठ बल बुद्धि का, भुजबल रहा कनिष्ठ।
अभिजात बल पूर्वजी,धनबल किसे न इष्ट।।8

नारी ,राजा ,सर्प पर, करना मत विश्वास।
शत्रु, भोग,आयुष्य अरु, पठित पाठ की आस।।9

बुद्धि -बाण से जो मरा, उसको मंत्र न होम।
वैद्य, दवा सब व्यर्थ हैं,मंगल-कर्म न सोम।।10

अनल छिपा है काष्ठ में, जग का तेज महान।
जलता जब तक वह नहीं, नहीं 'शुभम' नुकसान।।11

💐शुभमस्तु!
✍🏼©रचयिता :
*डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

रेल की पटरियाँ

साथ-साथ हैं पर बात नहीं होती,
रेल की दो पटरियां हैं मुलाकात नहीं होती।

आदमी के रिश्तों में वह गर्माहट नहीं रही,
पहले-से दिन हैं न पहली -रात नहीं होती।

बनाया गया समाज जीते रहने के लिए,
स्वार्थवृत्ति से कड़ी कोई लात नहीं होती।

रोबोट में भी यदि धड़क उठता दिल ,
रोबोट्स से महान कोई जात नहीं होती।

 घृणा और प्रेम तो पिल्ले भी जानते हैं,   
काम आए न किसी औऱ के ऐसी घात नहीं होती।

पेट तो भर ही लेते हैं श्वान भी "शुभम",
यों आदमी के हाथ में बुरी मात नहीं होती।

💐शुभमस्तु !

✍🏼© रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप " शुभम" 

रविवार, 23 दिसंबर 2018

ऐसा भी नहीं है [सजल]

सब जगह फूल हों ऐसा भी नहीं है,
सभी जगह शूल हों ऐसा भी नहीं है।

आदमी की देह में सभी आदमी हों,
दुनिया में देख लिया ऐसा भी नहीं है।

बाहर से दिखता है देवता मानव ये,
दानव न सोया हो ऐसा भी नहीं है।

पंचों की सर्वमान्य, खूँटा वहीं गढ़ना है,
ऐसे हों मानुष सब ऐसा भी नहीं है।

कवियों और शायरों के अहं भी कम नहीं,
आदमियत भरपूर हो ऐसा भी नहीं है।

विशाल हृदय कितने हैं गणना मात्र अँगुली पर,
अपनी तरह सोचें जो ऐसा भी नहीं है।

दुर्योधनों के साथ में हज़ारों लाखों हैं,
पांडव हों अकेले ही ऐसा भी नहीं है।

फूल हूँ एक दिन मुझे मुरझाना है,
दुर्गंध ही बिखेरूँ मैं ऐसा भी नहीं है।

मैंने उन्हें देखा या जाना भी नहीं ' 'शुभम',
न्याय की न बात करें  ऐसा भी नहीं है।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼©सजलकार
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

यहाँ कोई आदमी नहीं है! [ लघुकथा ]

   सुबह के लगभग साढ़े ग्यारह बजे होंगे। मैंने  बैंक  के काउंटर पर प्रविष्टि हेतु पासबुक दी।उधर से बाबू जी बोले- 'यहाँ कोई आदमी नहीं है, इसलिए पासबुक में एंट्री नहीं हो सकती।' मैंने विचार किया : बात एकदम सही है।   यहाँ यदि कोई आदमी होता तभी तो पास बुक प्रिंट करता । यहाँ तो सभी  वो हैं, जो चाहे कुछ भी हों ,पर आदमी तो लगते  नहीं , क्योंकि इनमें आदमियत ही नहीं है।यदि इनमें आदमियत बची होती तो ज़रूर ऐसा जवाब  नहीं मिलता जो एक गैर आदमियत वाला जंतु ही दे सकता है। ये है आज का आदमी देहधारी प्राणी, जिसकी किंतनी निरर्थक है दायित्वविहीन वाणी। उधर आए दिन इनकी हड़ताल, कैसे हो आदमी की सही पड़ताल? जो इंसान को इंसान न समझे , जिम्मेदारी को जिम्मेदारी न समझे! सरकार से आए दिन इनका रोना, बिना माँग पूरी किए काम नहीं होना। आम जनता के लिए बहाने बोना, काम का समय पर न होना। कभी सर्वर डाउन का बहाना, ग्राहक को इधर से उधर नचाना। कभी नेट का न होना।
    कभी बाबू का न होना। अरे! भाई जब कार्यालय में आदमी ही नहीं तो कैसे चले कार्य  का आलय और कैसे हो सके कार्य।वहाँ तो आदमी से इतर प्राणी ही ऑफिस पर कब्जा किये बैठें हैं। कोई आदमी ही नहीं है। धन्य मेरे देश ! देशवासियो अब नौचो अपने केश!

💐शुभमस्तु !
✍🏼©लेखक
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

धनात्मक सोच [अतुकान्तिका]

ज्ञान मिला -
"धनात्मक सोचो",
धनात्मक ही सोचा
सोच भी रहे हैं,
धनात्मक सोच के परिणाम
ही तो मिल रहे हैं।

क्या आम क्या खास
क्या बहू क्या सास
क्या नौकरीपेशा क्या व्यापारी
प्राइवेट या सरकारी ,
नेता, पुलिस , मंत्री,
चौकीदार, किसान , संत्री,
दूधवाला, तेलवाला, मिठाई घर,
सबकी सोच है धनात्मक इधर।

धनात्मक सोच का परिणाम
रिश्वत, चोरी , बेईमानी,
धनिये में लीद,
भर भर बोरी,
यूरिया से दूध
रसायन रंग भरी मिठाई
मिलावटी  घी तेल  
सब धनात्मक है भाई!
जब तक नहीं  ऊपरी कमाई
पुलिस न नेताजी पर 
ताज़गी लुनाई।

बीजों के ऊपर औऱ नीचे
जहर ही बोयें नित्य सीचें,
फल औऱ  हरी सब्जियाँ
जहर के छिड़काव भरी क्यारियाँ
शुद्धता हो गई काफूर
ईमानदारी भी हुई कपूर,
मानवता से मानव बहुत दूर,
दानवता का संक्रमण भरपूर।

भविष्य क्या सुनहरा होगा?
इंसान पर इंसान का पहरा होगा
आदमी अपने ही हाथों छूट गया
फिर क्यों कहते हो
 विधाता रूठ गया।
सपना टूट गया।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

तुम सभी परतंत्र हो [अतुकान्तिका]

अच्छे दिनों की
परिभाषा नहीं होती,
नारेबाजों से भी कोई
आशा नहीं होती,
हंस चुगते रहे कंकड़
कौवे खा रहे मोती,
कौवों ने कब
चाहा है हंस को,
उन्हें तो भाता रहा है
कि ध्वंस हो।

सपने दिखाना भी 
बहुत ज़रूरी है,
यही तो उनके
धर्म की मजबूरी है,
किसने कहा कि 
इन्हें पूरा होना है,
दिखाकर तोड़ देना ही
तो उनका सपना है।

चील के घोंसले में
ढूँढते हो माँस!
खोखले वादों पर
करते हो विश्वास?
आश्वासन नहीं है
उदर का राशन,
समाधान नहीं है
चर्मजिह्वी  भाषण,
नीति की बातें भी
इनकी राजनीति है,
एक ही प्याले में पीते हैं
पर कोई न मीत है।

रातों रात बदल जाते हैं
गाड़ियों के झण्डे,
जैसे इन्हें आलू गोभी
वैसे मुर्गी के अंडे,
यही तो है  इनका समाजवाद
जहाँ गड्ड मड्ड हैं सर्वस्वाद,
न कोई इनकी जाति
न कोई धर्म है,
पर जातिवाद प्रसारण ही
इनका मुख्य कर्म है!
जातितंत्र पर ही टिका है
यहाँ का लोकतंत्र,
आम को चूस लेने का 
यही है मात्र मूलमंत्र।

मत समझ लेना कि
तुम स्वतंत्र हो
हर काम के लिए!
तुम सभी परतंत्र हो
बस नेता ही स्वतंत्र हैं
भले ही सुबह से शाम तक पियें
शान से जियें।

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता 
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

कैसे गीत लेखनी गाए! [ गीत ]

जब तक उर में भाव न आए,
कैसे    गीत   लेखनी   गाये!

पनघट खाली पनिहारिन से,
रिक्त कलाई   मनिहारिन से,
पिया  न  घण्टी  रहे   बजाए,
तरसे  बिस्तर  सजे -सजाए।
 जब तक...

साँझ  ढली  तम का पहरा है,
रह-रह  घाव  हुआ  गहरा है,
किससे मन की व्यथा सुनाए
 मेरे मन  को  समझ  न पाए।
 जब तक ...

विरहानल कीआग विकट है,
प्रीतम प्यारा   नहीं निकट है,
झोंके  से  परदा  हिल  जाए,
भोला-भाला मन डर जाए।
जब तक ...

कोई  साझी  नहीं  पीर का,
नयनों के इस गुप्त नीर का,
उसके  सीने   से लग जाए,
उर- कम्पन साधे  बहलाए।
जब तक...

शी-शी  शीत सतावे तन में,
लगीआग दिखती न सु-मन में,
नागिन -सी  रतियाँ लहराएँ,
'शुभम'मिलन की कब ऋतु आए।
जब तक ...

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
 डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम"

नहीं सुनाओ बात पुरानी [ बाल कविता ]

नहीं  सुनाओ  बात   पुरानी।
'एक था राजा एक थी रानी।।
नहीं  रहे    अब  राजा-रानी।
नहीं  सुहाती  वही कहानी।।
नहीं सुनाओ....

नवयुग की अब  हवा नई है।
परिभाषाएं   बदल   गई हैं।।
कम्प्यूटर  की  भाषा  जानी।
दुनिया  मोबाइल - दीवानी।।
नहीं सुनाओ ....

प्रजातंत्र   का  युग आया  है।
स्वतंत्रता - ध्वज फहराया है।।
राजतंत्र  की   नहीं   निशानी।
केसरिया  सित चूनर   धानी।।
नहीं सुनाओ ....

बैलट का अब गया  जमाना।
ई वी एम   ने   सीना   ताना।।
गणना  में    नहीं    बेईमानी।
बेईमान      भरेंगे      पानी ।।
नहीं सुनाओ ....

मत  देना   अधिकार  हमारा।
धोखा छल का हुआ किनारा।।
कर्महीन   की   सत्ता   जानी।
मतदाता  ने  मिलकर ठानी।।
नहीं सुनाओ....

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

मय का प्याला [ ग़ज़ल ]

वही मय है वही मयकदा  है,
सरनामे का परचा जुदा -जुदा है।

पीने वाले नशे के आदी हैं,
नशे में रहना  इक अदा है।

नशा टूटा कि बदले सरनामे,
लटकनों की क़िस्मत ही मयकदा है।

रास्ते को ही समझ बैठा है मंज़िल,
मय का प्याला ही ख़ुदा है।

कान बहरे हैं खुला मुँह का ढक्कन,
कुछ भी कह दें आवाज़ -ए-ख़ुदा है।

परचों से नहीं बदला नशा मय का,
शान से जीना ही हरहाल बदा है।

ताज़िन्दगी नशे में रहना है "शुभम",
कौन शख़्स है जो नहीं मयशुदा है।


💐शुभमस्तु ! 
✍🏼© रचयिता
डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम"

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

सियासत के मोती [मुक्तक ]

 -१-
कभी कोहरा घिरता है
कभी   मेघ   छाते   हैं,
बेमौसम   होती   वर्षा
बड़े    सितम   ढाते  हैं,
देश की  परवाह किसे
मात्र चाहत  कुर्सी की,
इसीलिए   तो     लोग
सियासत में  आते हैं।
         
-२-
फैसला आया तो फासले बढ़ गए
अपने-अपने दावे हुए वे अड़ गए
मुट्ठी  बंधती नहीं  बिना पाँचों के
फूल की पंखुरी-से सपने झड़ गए।

-३-
अब तुम्हारी असलियत बाहर आ ही गई,
निर्मल आकाश में बदली छा ही गई,
छिलका जब हटा तो फाँखें दिखने लगीं,
संतरे की मिठास में अम्लता आ ही गई।

 -४-
लड़ते ही रहोगे यों कुर्सी के लिए?
पता लग गया है तुम्हारी तुरसी के लिए
देश हित की नहीं सोचते हो, अपना हित ही
समझे थे समंदर हो जीते हो सरसी के लिए?

 -५-
देशभक्ति क्या है तुम क्या जानो!
जेबभक्ति क्या है तुम ही जानो,
मुखौटे लगा के गधा घोड़ा न बना
"शुभम" वेदना क्या है तुम क्या जानो!

💐शुभमस्तु !💐
✍🏼©रचयिता
 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

नारी-श्रृंगार [शृंगारिक दोहे]

नेह - नीर जब से पिया,
पल - पल बढ़ती प्यास।
जब   नयनों  से   दूर  वे
मेरे   हिय   के   पास  ।।1।।

पायलिया   रुनझुन  करे,
शरद     शिशिर    हेमन्त।
बीते   पावस    मास  भी,
गेह       पधारो     कंत।।2।।

 मुख  से आवे  बैन  नहिं,
चलें     नैन     की    सैन।
नींद   न    आवे   रैन   में 
दिवस    न पाऊं  चैन ।।3।।

कजरा   गजरा    महकता,
पावँ      महावर      लाल ।
पायल कुछ -कुछ बोलती,
गजगामिनी की  चाल।।4।।

लाल अधर  मधुरस  भरे
नयन    विनत    रतनार।
क्यारी नवल  सुहाग की
सुमन  नवोढ़ा  नार ।।5।।

केहरि  कटि गजगामिनी,
अम्बर  भ्रमर   किलोल ।
उरज  नगद्वय  अमृतधर
उर अति गोप्य हिलोल।।6।।

बिछुआ  पायल  करधनी,
गले      सुशोभित     हार ।
नथनी  बाला  की  पृथक,
छटा  छिटकती   नार।।7।।

हाथ टेक निज चिबुक पर
प्रोषितपतिका         नार ।
बाट  जोहती    दिवस भर,
खड़ी  गेह   के   द्वार।।8।।

कान्तिधारिणी कान्ति की,
जीवित      प्रतिमा    देख ।
धन्य! धन्य !! उर ने कहा,
अद्भुत    बाला   पेख।।9।।

"शुभम" धरा पर नारि बिन,
शुष्क      सकल     संसार।
मानव - जीवन का अमृत,
 सृष्टि सुचरिता नार।।10।।

💐शुभमस्तु!💐
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

कामचोर [ लघुकथा ]

   मैं  एक बड़े नगर की एक बड़ी राष्ट्रीयकृत बैंक की शाखा में लोक भविष्य निधि के खाते में कुछ धनराशि जमा करने के लिए गया। किश्त जमा करने के बाद निर्धारित काउंटर पर मैंने संबंधित लिपिक से पासबुक में प्रविष्टि के लिए निवेदन किया तो वह कहने लगा - 'आप लोग शिकायत तो करते नहीं हैं। यहाँ प्रिंट निकालने के लिए कोई आदमी नहीं है।इसलिए प्रिंट नहीं निकल सकता।' इस पर मैंने उनसे कहा-'शिकायत तो मैं नहीं करूँगा। पचास किलोमीटर से इसी काम के लिए आया हूँ। यदि पास बुक में प्रविष्टि नहीं हो सकती तो आप स्टेटमेंट ही दे दीजिए। इस काम के लिए इतनी दूर से बार -बार तो आया नहीं जा सकता। ये तीसरा वर्ष है जब मुझे बिना पासबुक में एंट्री के लौटना पड़ेगा।'
   फिर भी उस 25 -26 साल के युवा लिपिक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। और बोला कि सर्वर डाउन है। स्टेटमेंट भी नहीं निकल पायेगा। मैं अपना -सा मुँह लेकर वापस लौटने का विचार कर ही रहा था कि मैंने सोचा कि
प्रबंधक महोदय से बात करके देखता हूँ कि क्या कहते हैं।
   मैं प्रबंधक जी के चैम्बर की ओर बढ़ा। अंदर आने की अनुमति ली।अंदर गया औऱ पहले अपना परिचय दिया, हाथ मिलाया फिर असली मुद्दे पर आया - 'सर मैं .......से आया हूँ। आपके बैंक मैं मेरे ....का एक पी पी एफ एकाउंट है। दो वर्ष से उसमें बैंक ने कोई प्रविष्टि नहीं हुई है। यदि हो सके तो स्टेटमेंट ही निकलवा दीजिए सर। मुझे आयकर रिटर्न के लिए एंट्री चाहिए थी।वह बोले-'वर्ष में एक - दो ही एंट्री होती होंगी।' मैंने कहा - 'जी हाँ।एक दो बार ही कर पाता हूँ।'
   प्रबंधक जी  ने तुरंत इंटरकॉम उठाया और सम्बंधित लिपिक से कहा, आप आ रहे हैं। इन्हें स्टेटमेंट दे दें।' मैं चैम्बर से निकला तो कुछ ही पल में उन्हीं लिपिक महोदय के पास था, जिसने अभी पाँच मिनट पहले ही सर्वर डाउन की बात कहकर मुझे इन्कार कर दिया था। मैंने जाते ही कहा - इसका स्टेटमेंट दे दीजिए औऱ पासबुक उनके हाथ में दे दी। और पंद्रह मिनट के बाद स्टेटमेंट मेरे हाथ में था। मेरे बिना कहे ही सर्वर सही काम करने लगा था और लिपिक जी का चेहरा देखने योग्य था।

💐शुभमस्तु💐
✍🏼©लेखक
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

रविवार, 9 दिसंबर 2018

सृष्टि सृजेता [गीतिका]

-1-
सूरज    निकलता  समय  से, 
एक     पल       देरी    नहीं।
चलता    अकेला    शून्य  में,
उषा     विदाई     दे     रही।।
दिन - रात   बढ़ता  अनथके ,
परिवाद  (वह)   करता  नहीं।
समय   का  जो ध्यान रखता,
हर    समय     उसका  सही।।

-2-
मैं     हूँ      धरती    धारयित्री ,
विश्व    का        आधार     हूँ।
सीख   लो  हे     धीर   मानव,
अनवरत        रसधार      हूँ।।
खोदते   तुम       कूप     गड्ढे,
मौन    मैं       सहती     सदा ।
आह  तक     भरती   नहीं  मैं,
टोकती      तुमको       कदा।।

-3-
स्वांस   में   है      वास  मेरा,
जीव       तेरा      प्राण    हूँ।
जीव'   का     आधार   हूँ  मैं ,
अस्तित्व    का  मैं   त्राण  हूँ।।
वात  से    जीवन   जगत का,
मारुति    प्रभंजन   वायु  मैं।
जीवन  - मरण  का    प्रश्न मैं,
ज़िंदगी      की      आयु   मैं।।

-4-
देह में,  निधि ,  नयन  में हूँ,
तरु,   लता   में    मैं    बसा।
मेघ,    मारुत ,   मेदिनी  में,
ममताभ   मैं   जल   रिसा।।
हर    रंग   में , हर   संग  में,
चाल    में    या    ढाल   में।
ढलता   हूँ    मैं  हर  पात्र में,
देश    में     या     काल  में।।

-5-
न    रंग   मेरा   न  रूप  ही,
मुझमें     समाए    हैं   सभी।
सूरज ,धरा, शशि, गृह सभी,
बाहर   न   मुझसे   ये कभी।।
व्यापक   बनो    मेरे   सदृश,
संकीर्णता    का   त्याग कर।
आकाश    मैं   तू  क्षुद्रता के,
रूप   का  परित्याग    कर।।

-6-
इस   सृष्टि  के  हर सृजन में,
है      मेरी     भी    भूमिका ।
आग     के  बिन    तेज  का,
अस्तित्व   मिटता   शून्यता।।
भानु   की   किरणें दिवस की,
ये   उज्ज्वला   सित भव्यता।
जठराग्नि   दावानल निधि में,
बसती 'शुभम' है दिव्यता।।

💐शुभमस्तु!💐
✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सत्ता तो मोबाइल है [दोहे]

हाथ जोड़ नेता खड़ा, जन जनता के द्वार।
पैरों में टोपी रखी,दूर खड़ी कर कार।।

पाँच साल के बाद में , जनता आई याद।
चेहरे पर मुस्कान है, बदला रसना स्वाद।।

लगवाता था तेल जो,लाया मक्खन आज।
खा लो जितना खा सको, जनता का है राज।।

मक्खन खाने से अधिक, श्रेष्ठ लगाना मित्र।
जिसको मन से लग गया, चमके चेहरा चित्र।।

दारू के ठेका सभी,  दीवाली में चूर।
बूझें या कि दीपक जलें, लाभ उन्हें भरपूर।।

जो चावल हाँडी रखे, उन्हें टटोलो यार।
पके हैं या कच्चे रहे,कैसी चली बयार।।

बदले करवट ऊँट क्या, इस पर टिकी निगाह।
दाएँ या बाएँ रहे,क्या जनता की चाह।।

सत्ता तो मोबाइल है,चलते -फिरते खेल।
आज तुम्हारे हाथ में,काल किसी से मेल।।

जनता ही जनतंत्र की, होती सच्ची रीढ़।
काम न आवे बूथ पर,भाड़े की जड़ भीड़।।

जनता का लोहू पिया, चूसे हड्डी माँस।
जीवित तो छोड़ो उन्हें,शेष बची है साँस।।

नेताजी निज वेष में , गए देश को भूल।
सूट- बूट मैला हुआ ,खाता दिनभर धूल।।

💐शुभमस्तु!
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप " शूभम"

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

ईमान सच से दूर [ गज़ल]

आदमी   ईमान   सच  से
दूर   होता    जा    रहा है,
आबरू    इज्ज़त    यकीं
हर आम खोता जा रहा है।

लूट   चोरी   या ग़बन  से
खूब   दौलत   जोड़   ली
आप ख़ुद दुश्मन  बना है
खार   बोता    जा रहा है।

उठ  गया   उसका  यकीं
मेहनत  की  रोटी से यहाँ
कामचोरी,  छल ,  फ़रेबी
गर्क    होता  जा   रहा है।


अब  तो  मोहव्वत   सिर्फ़
फिल्मों में बची दम तोड़ती
आदमी   खुदगर्ज़     इतना
रोज़   होता    जा   रहा है।

सभ्यता कपड़ों से बाहर
आ   गई    इंसान    की,
आदमी  घर   बाजार  में
अब नग्न होता जा रहा है।

मुजरिमे/ -   रिश्वत    को
रिश्वत दे छुड़ाता है 'शुभम'
हाय    मेरे      मुल्क     को
क्या आज होता जा रहा है!

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

आओ खेलें नेता-नेता (गीत)

आओ   खेलें    नेता - नेता
आम चूस छिलका जो देता
तुम जनता  मैं  नेता  बनता
गुब्बारे - सा मैं  नित तनता
वोट   तुम्हारे   मुझे  चाहिए 
माला माल भी मुझे चाहिए
नहीं  किसी  को नेता  देता
आओ   खेलें  नेता - नेता।

आश्वासन  हैं  पास   हमारे
मीठे - मीठे   भाषण  प्यारे
घड़ियाली आँसू  का सागर
अभिनय  करने में नटनागर
पैरों   में   टोपी    रख   देता
आओ    खेलें    नेता- नेता।

आई ए एस भी सर कहता है
कुर्सी  छोड़  खड़ा   रहता  है
पलक पाँवड़े  सभी  बिछाते
हार गले  को नित   सहलाते
नाव  देश    की   नेता   खेता
आओ   खेलें    नेता - नेता ।

लिखा-पढ़ी का मोल नहीं है
बिना पढ़े जब   तोल सही है
डिग्रीधारी      नौकर     होते
हम  डिग्री   के  ऊपर   सोते
पढ़े-लिखों  पर  भारी  नेता
आओ   खेलें  नेता -  नेता।

नोटों की  बरसात  यहाँ  है
ऐसा  रुतवा   और कहाँ है!
अपने  आप   लक्ष्मी  आती
चरणों में   गिरती  मदमाती
काजू -  पिस्ते  खाता  नेता 
आओ   खेलें   नेता - नेता।

झूठ  यहाँ पर पाप   नहीं है
सच भी अपना बाप नहीं है
पूरब कह पश्चिम को जाना
नेता का  सिद्धान्त   पुराना
अंडे   जैसे   जनता    सेता
आओ   खेलें  नेता - नेता।

नेता को  कोई नियम नहीं है
क़ानूनों  का  जनक   वही है
जनता के हित नियम बनाता
स्वयं न चलता   उसे चलाता
करता जो विश्वास , न चेता
आओ   खेलें   नेता -  नेता।

कान का कच्चा होता नेता
गुरगों का विश्वास जो लेता
चमचा-चमची से घिरा हुआ
तेरा  न हुआ मेरा   न  हुआ
आगे जो बढ़ा   उसको रेता
आओ  खेलें   नेता - नेता।

मरने   तक  नेता   ही  रहना
कभी न सेवा -निवृत्त कहना
जब तक तन में चलती साँसा
पूर्ण  भरोसा  जीवित आशा
हार  न   माने   सदा  विजेता
आओ   खेलें  नेता  -  नेता।

चरित कौनसी चिड़िया होती
बीट-बीज जन- जन में बोती
दल बदलो जब मन में आए
जिसने  बदला कब शरमाये!
कुर्सी  की कृषि  करता  नेता
आओ   खेलें   नेता - नेता।

श्वेत  वसन  रंगी  है   दुनिया
देशभक्ति की गूँजे  ध्वनियाँ
लगा   मुखौटे   ओढ़ें   खाल
दस- दस पीढ़ी हुईं  निहाल
"शुभम" शिवम सत्यं ही सेता
आओ  खेलें नेता - नेता।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचनाकार
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

मौसम बदल रहा है [सर्पकुण्डली राज छन्द में]

●  तेवरी ●
अब   ठंड आ रही है,
मौसम बदल   रहा है।
मौसम   बदल  रहा है,
कोहरा सँभल   रहा है।
कोहरा  सँभल  रहा है,
कम्बल   रजाई  भाते।
कम्बल   रजाई  भाते ,
अँधियारा सघन रहा है।
अँधियारा  सघन रहा है,
लंबी    हैं    शीत   रातें।
लंबी    हैं   शीत    रातें,
निर्धन  सिकुड़  रहा है।
निर्धन  सिकुड़  रहा  है,
धनिकों का प्यारा जाड़ा,
धनिकों का प्यारा जाड़ा,
तेवर   बदल    रहा    है।
तेवर   बदल    रहा    है,
तिलकुट्टी ग़ज़क  आई।
तिलकुट्टी  ग़ज़क  आई,
शकरकंद  महक रहा है।
शकरकंद  महक रहा  है,
जरसी औ' कोट   निकले।
जरसी  औ' कोट  निकले ,
टोपा  भी  मचल  रहा है।
टोपा भी  मचल  रहा  है,
फैशन का उनको चस्का।
फैशन का  उनको  चस्का,
बस ब्लाउज़ महक रहा है।
बस ब्लाउज़ महक रहा है,
पहने  न    गरम   कपड़े।
पहने  न    गरम   कपड़े,
कि  जाड़ा   चल  रहा है।

💐शुभमस्तु!
✍🏼रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूपन"शुभम"

शकुनि के पासे [सवैया]

◆1◆
एक अंधे  के  हाथ   बटेर  लगी
अब  चाह  उन्हें   मुरगी - मुरगा।
पाँच साल में मौज करी नित ही
संग  चाट   रहे    गुरगी - गुरगा।
चमचा -चमची की  कहानी बड़ी
धरती   पर   भोग   रहे   स्वर्गा।
गेहूँ के संग "शुभम" पानी लगे
खाल सूखी भी लाल हुई जर्दा।।

◆2◆
पुण्य  रहा नहिं  पाप रहा   कुछ
कीजिए  जो  सब पुण्य सदा ही।
मुख से निकले   कभी वाणी तेरे
करिए मत,  हाथ में धार गदा ही।
मुँह से न   लगाना कभी  जनता 
रखना प्रसन्न  अपने   गुरगा  ही।
कान  के   कच्चे  जो   नेता  रहें
'शुभम'मालिक है उनका कर्ता ही।

◆3◆
भाल लिखा राजयोग एक नेता का
पढ़ना - लिखना बेकार  है  सारा।
छल , छन्द औ' द्वंद्व उपाधि महा-
उपयोगी रहेंगी धनि जन्म तुम्हारा
कर  में   कानून   रहे दिन -  रात
सुविधा सब मुफ़्त में अमृतधारा।
माल  औ' माला   के   ढेर   लगें 
बनने नेता "शुभम" जीवन हारा।।

◆4◆
निज हित देश हित हम देशवासी
देशभक्ति  की   नई परिभाषा  है।
सत्तर अस्सी  भी पार   हो  जायें
चुनाव लड़ते जाना जब तक साँसा है।
सियासत  ही तो जिंदगी हमारी
युधिष्ठिर का दाँव शकुनि का पासा है।
'शुभम' खून लग गया दाँत से अब
खून की पिपासा  का चस्का खासा है।।

💐शुभमस्तु! 
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गौरेया के बच्चे [ बाल कविता]

मेरे  घर  की  घनी   बेल में
रहता   गौरेया   का  जोड़ा।
तिनके घास फूस ला लाकर
किया  इकट्ठा  थोड़ा-थोड़ा।।

पत्तों के  झुरमुट  के  अन्दर
बना लिया है सुघर  घोंसला।
दाना - पानी      खाते - पीते 
देखा  उनका  बड़ा  हौसला।।

रहते   बड़े     प्रेम  से   दोनों 
जेठ मास   की गरमी पड़ती।
दो   प्यारे    चितकबरे   अंडे
देकर चिड़िया उड़ती-फिरती।।

कुछ  दिन बाद कान  में आए
चूँ चूँ   चें चें  के स्वर सुमधुर।
दो से    चार  हो    गए   दोनों 
हम  बच्चे  तब  झाँके  ऊपर।।

नर -मादा   दोनों   उड़ -उड़कर
दाना   - पानी     लेकर    आते।
चोंच खोल अरुणिम दो शावक
अपनी    गर्दन  उधर    बढ़ाते।।

बसा  नया    परिवार    देखकर
बच्चे  नाच   -  कूदकर    गाते।
बस्ता उधर रखा ,खग -शावक-
के  सँग में मन -  मोद  मानते।।

मम्मी     हमें    गोद    में    लेकर
चिड़िया  के   बच्चे   दिखला दो।
कितने    प्यारे   हैं   खग -शावक
शुभम" घोंसले तक उचका दो।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

उम्र छिपाऊँ स्त्री मनोविज्ञान

   कहा जाता है कि इंसान को किसी पुरुष की आय और  स्त्री की आयु नहीं पूछनी चाहिए।यह भी एक उच्च कोटि का मनोवैज्ञानिक तथ्य है।इसके मूल में बहुत सारी बातें कही औऱ सोची जा सकती हैं। आय बताने पर हो सकता है कि यदि ज्यादा हो तो प्रश्नकर्ता की नज़र ही न लग जाए। कम हो तो बताने में भी  हिचकिचाहट महसूस हो। धन की गोपनीयता के कारण भी पुरुष उसे खुलकर बताने में सहज नहीं हो पाता , इसलिए वह इधर उधर की बातें करके घुमाने की कोशिश करने लगता है। आदि आदि।
   इसी प्रकार जब किसी  स्त्री से उसकी आयु पूछी जाती है, तो पहले तो वह बताना ही नहीं चाहती और यदि बताती भी है तो अट्ठाईस तीस से बढ़ने में उसे असहजता और अपमान भाव की अनुभति होती है। वह जीना तो अधिक चाहती है, परंतु कम बताने में उसे गौरव की अनुभूति होती है।
   स्त्री के इसी मनोविज्ञान पर  युग -युग का सौंदर्य -प्रसाधन- व्यवसाय और कम्पनियाँ जीवित हैं। उनमें बनाया जाने वाली सौंदर्य प्रसाधक सामग्री : क्रीम, पाउडर ,लिपस्टिक, महावर, बिंदी , ब्यूटी सोप , फेश वाश, बॉडी लोशन, काजल, मस्कारा, आई लाइनर ,पर्फ्यूम, स्वर्ण , प्लेटिनम, रजत , हीरे, जवाहरात जड़ित आभूषण सभी कुछ आयु को कम से कम दर्शाने के लिए ही तो हैं। नारी के इस दौर्बल्य की पोषक औऱ साधक कम्पनियाँ  उसे चूस रही हैं। कौन नहीं जानता कि संसार की एक भी क्रीम सांवली या काली स्त्री को गोरा नहीं बना सकतीं। किन्तु फिर भी वे जानबूझकर उनकी खुशबू से सम्मोहित होकर खरीदती और प्रयोग करती हैं। यदि क्रीमों के प्रयोग से स्त्री गोरी हो जाती तो अफ्रीका के नीग्रो औऱ हब्सी भी दूध जैसे बुर्राक सफ़ेद हो ही जाते। लेकिन दुर्भाग्य है कि आदमी चाँद पर तो पहुँच गया, पर चाँद की उपमा देने योग्य अपनी  प्रिया का मुख चन्द्र नहीं बना पाया। यहीं चूक गया। बस कम्पनियां मूर्ख बनाकर, टी वी वाले विज्ञापन दिखा कर नारी को रात-दिन ठग ही तो रहे हैं।
   किसी ने ये सही कहा है कि संसार की प्रत्येक स्त्री जब आईने के सामने खड़ी होती है , तो वह स्वयं को विश्व की सर्वश्रेष्ठ स्त्री की अनुभूति के साथ आल्हादित होती है।  दूसरों को कमउम्र और सुंदर दिखाई दे , बस इतना सा स्त्री - मनोविज्ञान है। 'साहस अनृत चपलता माया।' के अनुसार भी यदि विचार किया जाए ,तो अनृत अर्थात झूठ बोलना उसका स्वाभाविक और प्राकृतिक गुण है। कोई भला क्या कर लेगा ? अब यदि वह चालीस की जगह चौबीस , चौवन की जगह  चौंतीस बताए या लिखे तो आप क्या कर लेंगे। अरे भाई! यह   तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह सदा युवा ही रहे, इसलिए उसके पूरक और पोषक साधन मॉल , मेले , मार्केर्ट आदि में सर्वत्र  भरे पड़े हैं।
   पुरुष भी स्त्री को उसकी झूठी प्रशंसा करके युग -युग से ठगता आ रहा है। तुम चंद्रमुखी हो,  कमलनयनी हो, मृगनयनी हो, आदि आदि मधुर शहद लिपटे वचनों से ठगता रहा है। उसके पैरों में आभूषणों की बेड़ियाँ डालकर उसे बंदी बना लिया और घर के कोने , चूल्हा चक्की तक सीमित कर दिया। यही सब नारी मनोविज्ञान को पुरुष द्वारा भी खूब भुनाया गया, भुनाया जा रहा है औऱ भुनाया जाता रहेगा।
   उम्र कम बताने के स्तर पर बड़ी बड़ी उच्च शिक्षित नारियाँ और अपढ़ निरक्षर नारियां एक ही पायदान पर विराजमान हैं। इसलिए उनकी जन्मतिथि पूछे जाने पर वे   तारीख और महीना ही लिखती और बताती हैं।वर्ष वहाँ भी पर्दे में घूंघट की आड़ में ही रहती है। क्योंकि यदि वर्ष ही बता  दिया तो फिर अगला गणना करके पूरी वर्तमान आयु ही आगणित कर लेगा। इसलिए उसे छिपाओ। लेकिन उनकी असलियत की पोल उस वक्त खुल ही जाती है , जब वे किसी भी टेस्ट, परीक्षा, प्रतियोगिता , प्रवेश आदि के लिए फार्म भरने लगती हैं। वहाँ केवल 25 अक्तुबर, 26 जनवरी या 15 अगस्त लिखने से काम चलने वाला नहीं है। यदि वहां भी स्त्री- आरक्षण होता तो वे किसी भी मूल्य पर अपना जन्म वर्ष नहीं खोलतीं । वैसे भी नारी -प्रकृति छिपाने की है , क्योंकि प्रकृति ने भी तो उसका निर्माण करते समय इस तथ्य का बहुत ध्यान रखा है।  समझदार के लिए संकेत पर्याप्त है। कुछ अवगुंठन में रहने दें, क्योंकि उसका एक अलग सौंदर्य है। जैसे खिलने से पहले पुष्प कली में अवगुंठित रहता है। खिला तो खुला। जिज्ञासा समाप्त।  फिर क्या... कोई आकर्षण नहीं, कोई सम्मोहन नहीं , कोई  रहस्य नहीं। कोई बहस नहीं।

💐शुभमस्तु !
✍🏼©लेखक
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...