सोमवार, 30 नवंबर 2020

कान्हा की पदरज [ दोहा ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🦚  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆●◆◆◆◆

कान्हा- कान्हा  मैं जपूँ,कहाँ न तेरा ठौर।

तू राधा का श्याम है,ब्रजबाला सिरमौर।।


रज-रज में कान्हा बसा,कहाँ न तेरा धाम।

तू   ही  मेरा    राम है,  तू  मेरा  घनश्याम।।


बड़भागी जग में 'शुभम',ब्रज में नरतन धार।

कान्हा की पदरज मिली,द्वापर का अवतार।।


द्वापर में तो एक थे, नरकासुर औ' कंस।

कलियुग में करने लगे,मानवता का ध्वंस।।


तृणावर्त,बक,अघअसुर,वत्सासुर के वंश।

गली -गली में नाश के, तांडव के हैं  अंश।।


कलियुग में अवतार ले,आओ मेरे   श्याम।

राक्षस दल को मारकर,दें सुख शांति ललाम।


वृत्ति आसुरी पूतना,गली - गली में   चार।

रूप मनोहर धारती, शिशुओं को दें मार।।


मीरा जपती श्याम को,पीकर विष का जाम।

लीन हुई प्रभुनाम में,हँसकर जप घनश्याम।


युग-युग में अवतार लें,बदल बदल निज देह।

आते भारत भूमि पर,मुरलीधर  हर  गेह।।


गली, नगर,हर गाँव में,होते नित अपराध।

चक्र  सुदर्शन  दें चला, योगेश्वर  निर्बाध।।


शोषक संसद में छिपे,पहन बगबगे  वेश।

रक्त मनुज का चूसते,हनें कृष्ण गह केश।।


💐 शुभमस्तु !


28.11.2020◆10.30पूर्वाह्न।

चूल्हे वाली रोटी [ बालगीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

🧑🏼‍🎓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

चूल्हे   वाली    रोटी     खाएँ।

अपना तन-मन स्वस्थ बनाएँ।


बनी  गैस   की  रोटी  खाता।

रोग धाम तन-मन बन जाता।

उदर -रोग  दिन - रात सताएँ।

चूल्हे    वाली    रोटी  खाएँ।।


ईंधन सूखा  काष्ठ  जला कर।

उपलों का उपभोग करा कर।

रोटी,   सब्जी ,दाल   पकाएँ।

चूल्हे  वाली    रोटी   खाएँ।।


दूषित   गैस   नहीं   बनती है।

यदि लकड़ी घर में जलती है।

हाँडी   में    गोरस    गरमाएँ।

चूल्हे  वाली    रोटी   खाएँ।।


द्रव गैसें   विस्फोटक  होतीं।

गंधक आदि रसायन  बोतीं।

न्यौता  दे    बीमारी    लाएँ।

चूल्हे  वाली    रोटी  खाएँ।।


वृक्ष   मित्र   हैं    सभी हमारे।

मानव के नित 'शुभम'सहारे।

पर्यावरण को शुद्ध     बनाएँ।

चूल्हे   वाली   रोटी    खाएँ।।


💐 शुभमस्तु !


29.11.2020 ◆4.15 अपराह्न।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

 आग 🔥🔥 


 [ संस्मरण ] 


 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 


 ✍️लेखक © 


 🔥 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 


 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆●●◆◆◆◆ 


             उसका जन्म एक मध्यम वर्गीय कृषक परिवार में हुआ था। उसके पिताश्री बहुत अधिक पढ़े -लिखे नहीं थे , पर जितना भी वह पढ़े लिखे थे ,उतना आज के इंटरमीडिएट उत्तीर्ण विद्यार्थी से उनका ज्ञान बहुत अधिक था। माँ एक सामान्य गृहणी ही थीं,लेकिन उस समय की स्थिति और युग के अनुसार उन्होंने विद्यालय का मुख्य द्वार भी नहीं देखा था।बावुजूद इसके वह अपने हस्ताक्षर अवश्य कर लिया करती थीं। उसके पितामह अवश्य दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद देश के स्वतंत्रता आंदोलन में एक सक्रिय सैनानी थे। जिन्हें दो - तीन बार अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन के कारण जेल यात्रा भी करनी पड़ी थी। 


         प्रारम्भ में उसे पढ़ने - लिखने के प्रति कोई रुचि नहीं थी।इसलिए सात वर्ष की अवस्था होने पर भी वह विद्यालय नहीं गया और अपने छोटे से गाँव में गिल्ली - डंडा, हरियल- डंडा, गेंद - बल्ला, कंचे आदि खेलने में मस्त रहता था। हमउम्र बच्चों के प्रेरित किए जाने पर वह विद्यालय जाने लगा , पर यह क्या ? उसके बाद उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया। वह फिर चला नहीं , बहुत ही संतुलन और धैर्य के साथ दौड़ने लगा। मानो अध्ययन के प्रति उसमें पर लग गए हों। 


             उसे नया सीखने के प्रति एक ऐसी आग लगी जो आज जीवन के सात दशकों के बाद भी ठंडी नहीं पड़ी है।ईश्वर ने चाहा तो आजन्म यह आग बुझने वाली नहीं है। पता नहीं निरंतर आगे बढ़ते हुए कच्ची - पक्की एक पास करने के बाद विज्ञान से स्नातक औऱ उसके बाद अपनी ही मातृभाषा के प्रति विशेष प्रेम होने के कारण उसी में परास्नातक और पी एच.डी. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।अंततः राजकीय सेवा में प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी के पद पर भी रहा। 


              जब वह कक्षा चार का छात्र था , तो माँ सरस्वती की महती कृपा स्वरूप उसे कविताएं लिखने का शौक भी पैदा हो गया। औऱ वह शौक इस तरह उसके जीवन में आच्छादित हो गया कि फिर कभी रुका नहीं तो नहीं ही रुका। माँ शारदा की कृपा ने ही एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करने का सुअवसर प्रदान किया। देश की अनेक पत्र -पत्रिकाओं में उसके लेख , समीक्षाएं, कविताएं ,कहानियां, एकांकी आदि प्रकाशित होने प्रारम्भ हो गए। जो क्रम कभी भी नहीं टूट सका।


             इस संस्मरण के नायक ने अपने को कभी भी विशेष नहीं माना। सदैव एक सामान्य मानव के रूप में अपने कार्यों का निष्पादन किया। अपने अध्ययन- काल में अपने नैत्यिक अध्ययन के साथ -साथ उसकी अभिरुचि ज्योतिष , तंत्र ,मंत्र, वास्तुशास्त्र , विज्ञान , सामुद्रिक शास्त्र ,सम्मोहन विज्ञान ,अध्यात्म, जैसे विषयों के प्रति रही । खेलों में उसकी फिर कोई रुचि नहीं रही , जो बचपन में इतनी अधिक थी कि उसे खेलने के अतिरिक्त कुछ  भी नहीं सुहाता था ।मानो  जीवन भर के सारे खेलों का कोटा बचपन में ही पूरा कर लिया हो । उसके अध्ययन के प्रति यह आग से शायद पैतृक संस्कार है ,जो उसे अपने पिताश्री से प्राप्त हुआ है। उसके पिताश्री भी अध्ययन के प्रति इतने जिज्ञासु थे ,कि कोई कागज, पुस्तक , समाचार पत्र आदि मिल जाता ,उसे बिना पूरा पढ़े हुए उसे छोड़ते नहीं थे।


           इसलिए अपने विषयगत अध्ययन के अतिरिक्त उसने लाखों रुपये की दुर्लभ पुस्तकें औऱ ग्रंथ खरीद डाले। उसे किसी से माँगकर पढ़ने में आनंद नहीं आता था ,जितना स्वयं की पुस्तक से आता था। इसलिए यदि कहीं कोई पसंद की पुस्तक मिल जाती तो कितनी भी मँहगी होने पर भी जब तक उसे खरीद नहीं लेता था , शांति नहीं मिलती थी। परिणाम यह हुआ कि हजारों की संख्या में उसका निजी पुस्तकालय बन गया।आश्चर्य से भी आगे की बात यह भी है कि आग आज भी बराबर प्रज्ज्वलित है। जल रही है ,जल रही है औऱ अनवरत जल रही है। 


         मेरे सुधी विद्वान/विदुषी पाठक और यह जानने को उत्सुक हो सकते हैं कि वह कौन है ,जिसके विषय में यह पहेली कही जा रही है। तो इस जिज्ञासा का समाधान करना भी मुझे आवश्यक हो गया है। तो बता ही दिया जाए , अब ज़्यादा प्रतीक्षा भी किस काम की ? तो रहस्य से पर्दा उठा ही दिया जाए। वह कोई औऱ नहीं इसी संस्मरण की लेखनी का लेखक ही है ,जिसके विषय में बेनामी का आवरण पड़ा हुआ था। 


 💐 शुभमस्तु !


 20.11.2020◆7.45अपराह्न।


 🌱🌹🌱🌹🌱🌹🌱🌹🌱 

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मानवता [ मुक्तक ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️शब्दकार ©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

अगर    कहीं  मानवता  होती,

शेष   नहीं   दानवता     होती,

अबला लुटती नहीं सड़क पर,

जाग्रत 'शुभम' मनुजता होती।


देह  नहीं  है    केवल  मानव,

सद्गुण में बसता   है मानव,

लगा   मुखौटे  खून   चूसता,

मानव  वेश   धारता   दानव।


नेताओं -में हैं कितने मानव?

रक्षक -बल में कितने मानव?

मानवता   का   धर्म न जाने,

कैसे  उसको  कह दें मानव?


भरी    दुपहरी   हत्या   होती!

आँखें सभी साक्ष्य की सोतीं!

मानवता की  क्या परिभाषा,

इसीलिए    मानवता    रोती।


गिद्ध - नीड़  में  माँस  नहीं है,

मानवता  में    साँस  नहीं   है,

हा! हा!!हू !हू!!दानवता की,

वन में मलय सुवास नहीं है।


💐 शुभमस्तु !


17.11.2020.3.00अपराह्न

हुआ सवेरा [ बाल कविता ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

             हुआ     सवेरा ।

            मिटा     अँधेरा।।


            अब हम  जागें।

            निद्रा     त्यागें।।


             सुस्ती      भागे।

             दौड़ें      आगे।।


             समय   न  बीते।

            तब   हम जीते।।


             त्वरित   नहाना।

             पढ़ने     जाना।।


            भोजन     पाना।

            ग्रंथ     सजाना।।


            समय    गँवाना।

            उचित  न माना।।


            सीधे        जाएँ।

            तब   घर  आएँ।।


           गुरुजन     पाएँ।

           शीश     झुकाएँ।।


           नमन   मात   को।

          'शुभम'  तात को।।


      💐 शुभमस्तु !


17.11.2020◆12.30 अपराह्न।

धूप गुनगुनी [ बालगीत ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

☀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

धूप   गुनगुनी   के  दिन आए।

लगते  हैं   हमको   मनभाए।।


सूरज का जब निकला गोला।

घर से   निकले मुन्नी, भोला।।

बैठ  ओट  में    अति  हर्षाए।

धूप  गुनगुनी के  दिन  आए।।


ढूँढ़   रहे   मुर्गे   निज   दाना।

पिल्ले  खेल   रहे  मस्ताना।।

उछल-कूद  बछड़ों की भाए।

धूप गुनगुनी  के  दिन आए।।


अम्मा  छाछ बिलोती  गाती ।

लवनी थोड़ी   हमें खिलाती।।

दादी  को बस   धूप   सुहाए।

धूप  गुनगुनी के दिन  आए।।


बाबा  बैठे      ओढ़े     कंबल।

मिला  शीत का सुंदर संबल।।

ताजे  जल   से   पिता नहाए।

धूप   गुनगुनी  के दिन आए।।


नहीं  नहाना   हमको   भाता।

सर्दी  का मौसम जब आता।।

मूँगफली औ 'गज़क  सुहाए।

धूप  गुनगुनी  के  दिन आए।।


💐 शुभमस्तु !

17.11.2020 ◆10.30अपराह्न।

दीप से दीप जलाएँ [ बालगीत ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

चलो   दीप   से दीप  जलाएँ।

ज्योति-पर्व की नवल कलाएँ।


घर-घर , गाँव, नगर दीवाली।

रंग-बिरंगी   छवियों  वाली।।

आतिशबाजी   नहीं  चलाएँ।

चलो दीप से   दीप   जलाएँ।।


दीपक   जलते  आँगन,घर में।

छज्जे,अटा, मुँडेरी,  दर  में।।

छत पर दीपक झिलमिल गाएँ।

चलो  दीप  से दीप  जलाएँ।।


रलमल होती सरिता जल में।

लगता जलते दीपक तल में।।

देख -देख मन अति   हर्षाएँ।

चलो दीप से   दीप  जलाएँ।।


मधुर -मधुर  पकवान बनाए।

माँ ने   पूड़ी- खीर  खिलाए।।

मोदक, बर्फी,  पेड़ा    खाएँ।

चलो दीप   से   दीप जलाएँ।।


पहले    श्रीगणेश   ही  पुजते।

पूजन -थाल   रमा के सजते।।

खील- खिलौना    बाँटें लाएँ।

चलो दीप   से दीप   जलाएँ।।


पूजें  गुरुजन   मात-पिता को।

मातु शारदा ,शशि ,सविता को।।

ज्योति ज्ञान की 'शुभम' दिखाएँ।

चलो दीप से  दीप  जलाएँ।।


💐 शुभमस्तु !


11.11.2020◆4.30 ! अपराह्न।


नन्हीं -सी बिंदी [ गीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

नन्हीं  - सी   मैं   होती बिंदी।

नारी - मस्तक   भाषा हिंदी।।


पहले तो  मैं  लाल  गोल थी।

नारी -जीवन में अमोल थी।।

अब तो  मैं  साड़ी  की  बंदी।

नन्हीं -सी  मैं   होती   बिंदी।।


अब मैं  हूँ   त्रिशूल - सी पैनी।

मस्तक  पर ज्यों कोई  छैनी।।

हरी,लाल ,काली    छलछंदी।

नन्हीं -  सी   मैं   होती बिंदी।।


मुझे   सजाती   नारी सधवा।

नहीं लगाती  क्वारी,विधवा।।

आचारों   से   रही   न संधी।

नन्हीं - सी  मैं  होती  बिंदी।।


हिंदी में   मस्तक   पर  भाती।

नहीं चरण,कटि पर लग पाती

अरबी   ने   कर दी है   चिंदी।

नन्हीं -सी  मैं   होती   बिंदी।।


ठोड़ी,  नाक , कपोल  लगाए।

तब वह  जोकर बने  हँसाए।।

'शुभम'भाल पर चमके रिन्दी।

नन्हीं - सी  मैं   होती  बिंदी।।


💐 शुभमस्तु !


18.11.2020◆3.00अपराह्न

ग़ज़ल


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

⛲ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

जुबाँ-जुबाँ  की  साला गाली।

दीवारें    ज्यों  आला  वाली।।


खोखल करता साला घर को,

मिश्री-सी  मधुबाला  साली।


सोचे  बिना जुबाँ  पर  बसता,

जुबाँ  न   होती  ताला  वाली।


पत्नी  का   कहलाता   भाई,

जीभ नुकीली   भाला वाली।


क़ानूनन    वह   भाई   जैसा,

बहता  प्रेम - पनाला  खाली।


जीजाजी    के    घुटने  छूता,

जीजी  ने    गलमाला डाली।


'शुभम' सार से  हीन सदा ही,

फल की   ढेरी  पाला  वाली।


💐 शुभमस्तु !


15.11.2020 ◆3.15अपराह्न।

चुटकी भर सिंदूर [अतुकान्तिका]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️शब्दकार ©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

एक चुटकी भर

माँग का सिंदूर,

भर देता है

नारी-जीवन में नूर,

होता है  रंग

जिसका लाल ,

बदलते चले गए

बड़े -बड़े काल,

नहीं बदला

परंतु सिंदूर का रँग,

आज भी है जिंदा

वही सिंदूरी तरंग।


बदले हैं 

बिंदिया ने

कितने रंग,

हुई है पग-पग पर

कितनी बदरंग,

साड़ी के रंग से

करती हुई होड़,

अपने मूल रंग

अरुण को छोड़,

कभी नीली हरी पीली,

काली बैंगनी मुँहजोर,

प्रेम के अरुण रंग से

चुराती हुई नजरें 

वह  बनी चोर।


पड़ गया

प्रणय का रंग,

बदरंग,

कभी काला नीला

पीला या सब्जरंग,

हो गया नारी का

चरित्र भी ढीला,

मटीली साड़ी के संग

बिंदिया का रंग भी मटीला!


क्या पता

कभी सिन्दूर भी

हरा पीला काला 

हो जाए?

साड़ी की मैचिंग में

लाल पर ताला 

पड़ जाए!


प्रणय का रंग

उड़ने लगा है!

गृहस्थी में बना घर

ढहने लगा है,

बह जाएगा 

किधर क्या पता!

कहीं -कहीं तो

माँग का सिंदूर भी

हो गया है  लापता।


वाह री!

भारतीय हिन्दू नारी?

लग गई तुझे भी

आधुनिकता की

बड़ी बीमारी!

मैचिंग कलर का विषाणु

वैवहिकता को 

ढहाने लगा है!

सह जीवन,

विवाह विच्छेद,

पति की हत्या,

नारी के प्रेमियों की कृत्या!

मानवता का महल

बहाने लगा है।


नहीं समझी है

आज की अत्याधुनिका ने

एक चुटकी 

सिंदूर की कीमत,

चला जा रहा है

क्योंकि नारी का

सतीत्व ,

'शुभम 'सत!

गार्हस्थ की हो रही है

इसीलिए तो दुर्गति!


💐 शुभमस्तु !


19.11.2020◆12.30अपराह्न।


प्रवचन [ अतुकान्तिका ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️शब्दकार©

💰 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

प्रवचन हो रहा था

श्रोता सो रहा था,

शब्द कुछ यों थे:

'धन  का   मोह  छोड़ो,

काम से भी मुख मोड़ो,

दान कर दो हमें,

काम से भी 

दुःख ही मिलेगा तुम्हें,

हमारे आशीर्वाद से

स्वर्ग धाम जाओगे,

पत्नी के साथ 

हमारी सेवा में

 लग जाओ,

हमारे साथ आओ,

तन के सारे वसन रँगाओ,

बड़े -बड़े नेताओं 

अधिकारियों ,

जनता से

अपने उभय चरण पुजवाओ,

इसी मानव यौनि में

स्वर्ग में सिंहासन 

बुक कराओ।


ये जगत तो झमेला है,

हर आदमी यहाँ अकेला है,

चार दिन का मेला है,

हमने इसे खूब झेला है,

परंतु  कुछ नहीं मिला,

ये दिखावटी लक्ष्मी 

झूठी है,

यजमान!  हमारे पास

अमर बूटी है,

इसे पाओ और

सुख- सरिता में 

गोते लगाओ।'


प्रवचन समाप्त हुआ,

और श्रोता सोता रहा,

वह आँखें मलता हुआ,

स्वनिवास को

प्रस्थान कर गया,

प्रवचन कर्ता पर

उधार  अमूल्य 

अहसान कर गया।


💐 शुभमस्तु !


12.11.2020◆7.00अपराह्न।

देती बिंदी ताल [ कुण्डलिया ]

 

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

✍️ शब्दकार ©

💃 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

                      -1-

महिमा बिंदी की बड़ी,आँक, तिया का माथ।

शत-शत गुना उदोत हो,जब हो बिंदी साथ।।

जब हो बिंदी साथ, ओप में इंदु  चमकता।

बढ़ताआनन तेज,भाल पर ओज दमकता।

'शुभं'न कमतर आँक,भाल बिंदी की गरिमा

बढ़े सौ गुना रूप,बड़ी बिंदी की    महिमा।।


                      -2-

आँधी के इस दौर में,बिंदी रही न   लाल।

साड़ी के अनुरूप ही, देती बिंदी  ताल।।

देती  बिंदी  ताल, हरी, पीली या   नीली।

भूल प्रणय का रंग,चाल बिंदी की  ढीली।।

'शुभं'चरित का खेल,नारि फैशन रजु बाँधी

मनमानी में नारि,बही पश्चिम की   आँधी।।


                      -3-

बाला अनब्याही कभी,नहीं सजाए   भाल।

बिंदी त्रिकुटी पर नहीं, आए कभी अकाल।।

आए कभी अकाल,नहीं हो रूप   प्रदर्शन।

शुद्ध  रहे  आचार, इसीसे बिंदी   वर्जन।।

'शुभम'चरित का अंग,नारि ने जैसा ढाला।

वैसा  ही रँग  रूप, बनाती अपना  बाला।।


                      -4-

छोटी बिंदी का बड़ा, चरित,काज अनमोल।

माथे पर सजती सदा,मूक मंजु  अनबोल।

मूक मंजु अनबोल,नहीं कटि पाद सजाती।

बढ़े चाँदनी चाँद, नारि जब नयन लजाती।।

'शुभं'ओप का ओज,कपोल न भाती चोटी।

यौवन करे धमाल, सुशोभित बिंदी  छोटी।।


                      -5-

बिंदिया   तेरे भाल  की, मोहे मेरे    नैन।

नयन बंद अपने करूँ,मिले न पल को चैन।।

मिले  न पल को चैन,दमकती मानो  चंदा।

सम्मोहन का खेल,व्यथित मन भारी  बंदा।।

'शुभम'न!आती नींद,चैन की करती चिंदिया।

ज्यों ले चुम्बक खींच,भाल की तेरी बिंदिया।


💐 शुभमस्तु !


18.11.2020◆12.15 अपराह्न।


परदा [ कुण्डलिया ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

                      -1-

परदे की महिमा बड़ी,सब कर्मों की ओट।

परदे  में  दुल्हन  फ़बे, परदे  में  ही  वोट।।

परदे  में  ही  वोट,मंच के सब अभिनेता।

परदे  में  ही पाप, सियासत के भी नेता।।

'शुभम' करे अपराध,आदमी कहता वर दे।

फैलाकर निज हाथ,याचना के घन परदे।।


                      -2-

परदा  आँखों  पर पड़ा, खोया बुद्धि  विवेक।

मानव रहा न आदमी, बना मात्र  नर  भेक।।

बना   मात्र  नर भेक, टर्र में खोया    अपनी।

मानक मरते आज, सभी की अपनी नपनी।।

'शुभम'शुष्क तालाब, उड़ रहा गोपित गरदा।

करता   ओछे   काम,डालकर मोटा परदा।।


                      -3-

परदा पशु,खग  में नहीं, पुण्य न कोई पाप।

परदा   मानव ही करे, करे ईश  का जाप।।

करे   ईश   का   जाप ,   धन्य मानवतावादी।

हरता   जन  के प्राण,बुरे कर्मों का  आदी।।

'शुभम'  धो रहा देह,भरा है मन  में   गरदा।

नारी  के  प्रति हेय, भाव पर बाह   परदा।।


                      -4-

परदा  खग, पशु में नहीं,खुला खेलते  खेल।

मौसम की प्रतिबद्धता,करती तन मन मेल।।

करती तन मन मेल, लाज का काम न कोई।

नारी  लज्जावान, देख लज्जा में    खोई।।

'शुभम'  सभ्यता देख,गाय की बोली  वरदा।

कुदरत की जो माँग,कहाँ फ़िर कैसा परदा।।


                      -5-

परदा  घूँघट का पड़ा, जिज्ञासा  की   बाढ़।

आकर्षण का केंद्र है,मुख की आड़ प्रगाढ़।।

मुख की आड़ प्रगाढ़,फूल की कलिका जैसी

ज्यों-ज्यों खुलता रूप,न्यून जिज्ञासा वैसी।।

'शुभम' सुहागिन रात,दुर्लभा होती    वरदा।

दूल्हा  करता प्रेम,हटाकर झीना   परदा।।


*वरदा= कन्या।

*दुर्लभा=दुल्हन।



💐 शुभमस्तु !


13.11.2020◆3.15अपराह्न।


गहन लिंग का वेद [ दोहा ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

नर - नारी की देह में,किया भेद करतार।

कोई सहधर्मिणि बनी,कोई पति आचार।।


नर - नारी की देह के,सकल जगत संबंध।

पति-पत्नी भ्राता-भगिनि,चंदन वन की गंध।


जीव लिंगधारक नहीं,जब तक प्रभु के पास।

आया जब भूलोक में,मिला वही तन रास।।


नारी  अपने रूप पर,करती बहुत   गुमान।

नर को लुब्धक मोहती,छेड़ नृत्य की तान।।


मुर्गा मेढक मोर में,सुन्दरतर नर   जान।

मादा को मोहित करे,नर मृगराज महान।।


जीव जीव में मोह का,चुम्बक है लिंग-भेद।

बिना भेद मोहन नहीं,गहन देह का वेद।।


समध्रुव  आकर्षण नहीं,सदा विकर्षण तेज।

पीछे  हटते देखकर,छोड़ नेह की   सेज।।


प्रेमी के वश  प्रेयसी,हारमोन का खेल।

टेस्टोस्टेरोन  का,   एस्ट्रोजन  से मेल।।


लिंग-भेद चमकार ही,सृष्टि सृजन का मूल।

रचना  करता  देह की,नहीं अंश भर भूल।।


लिंग-भेद से सृष्टि का,सजा सृजन संसार।

नहीं जानता राज ये,जो रचता करतार।।


मानव से पशु,खग बने,पशु,खग से नर देह।

यौनि बदलती कर्म से,'शुभम'बदलता गेह।।


💐 शुभमस्तु !


16.11.2020◆12.15अपराह्न।

सत्ता जिसके हाथ में [ दोहा ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

सत्ता   जिसके  हाथ में, कहें न   बेईमान।

देशभक्त उसको कहें,गुण की भारी खान।।


गोरे  को काला करे,करे श्याम को   सेत।

नेता   सत्ताधीन  को, देश कमाऊ  खेत।।


बार-बार अवसर कहाँ,करना जो  कर आज।

सत्ताधारी  के बँधा, सिर पर स्वर्णिम  ताज।।


सत्ता की कुर्सी तले,है सब सुख का साज।

पाँव न धरती पर पड़े,परिजन करते नाज।।


ऐंठ, हेकड़ी  मदभरी, सत्तासन की   तेग।

मंद  कभी  होती  नहीं,चले वायु के  वेग।।


सत्ता  मद  की अंधता,नासे ज्ञान  - विवेक।

सज़दा काबा का करे,मत लालच अतिरेक।


जातिवाद  के रंग में, मानवता को   तोड़।

सत्ताधारी  देश   के, झूठे   से गठजोड़।।


अगड़े पिछड़े कर दिए,ऊँच -नीच का   रोग।

बन विषाणु जन तोड़ता,नेता करते    भोग।।


अंधी  जनता  भेड़  है,  गिरती अंधे     कूप।

तपन नहीं लगती उसे,स्वच्छ आज का भूप


सीने  पर  गोली  लगे,  जो   झंडावरदार।

नेता छिपा कपाट में,पहन गले   में  हार।।


सत्ता से बाहर हुआ,कहलाता मतिमंद।

सत्ता में ही ज्ञान है, कर्म  करे स्वच्छन्द।।


💐 शुभमस्तु !


13.11.2020◆12.30अपराह्न।


शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

वह दीवाली थी दियों की

 [ संस्मरण ]

 ✍️लेखक© 

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 

                   आधी से अधिक सदी विदा हो चुकी है।आधी सदी से पहले के समय की गाँव की दीवाली कुछ औऱ ही हुआ करती थी।वह दिवाली दियों की दीवाली थी।परंतु आज लड़ी और झालरों की कृत्रिम रौशनी की दीवाली है।जो सहजता ,स्वाभाविकता और सरलता उस समय थी ,अब बीते युगों की बात हो चुकी है।

            महीने भर पहले से घर, मकानों की लिपाई -पुताई की जाती थी। दीवाली से एक दिन पहले पीली मिट्टी और गोबर से घर के सभी कक्षों और आँगन को लीपा जाता था। दीवाली के दिन पूड़ी ,पुए,खीर ,कचौड़ी बनाने के साथ -साथ घर की भैंस के ताजा औऱ शुध्द दूध का खोया बनाकर उसके लड्डू, बर्फी आदि मिष्ठान्न तैयार किए जाते थे। लौकी की खोए वाली बर्फी तो बहुत आनन्द दायक होती थी। देशी घी की पूड़ियों की महक से पूरा मोहल्ला गमक उठता था। हम बच्चे लोग नए -नए कपड़े पहनकर आतिश बाजी का आनन्द भी लूटते थे। सूर्यास्त होने के बाद शुद्ध सरसों के तेल से मिट्टी के लाल- लाल दिए जलाए जाते थे।घर ,आँगन, छत ,मुंडेरों , कुओं की मुँडेरों,मंदिरों आदि पर दिए जलाए जाते थे।कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या की रात प्रकाश से नहा -नहा उठती थी।

            आतिशबाजी, फुलझड़ी, रॉकेट, अनार की चिंगारियों से होने वाले कपड़ों में छेद माँ की डांट का कारण बनते थे। रात को लक्ष्मी -गणेश सरस्वती की पूजा ,अर्चना के बाद नए धान की सफेद दूधिया खीलों औऱ खांड के बने खिलौनों का प्रसाद वितरण किया जाता था। रात को कुछ लोग लड्डू -बताशे भी बाँटा करते थे।मेरी माँ सूप में दिए जलाकर गांव ,मोहल्ले के घरों में जलाने जाया करती थी।माटी की बड़ी सी दीवट में एक रुपये का सिक्का डालकर उसके ऊपर एक बिना भीगा हुआ दिया औंधा कर काजल पारा (बनाया) जाता था ,जिसे माँ हम बच्चों की आँखों में लगा दिया करती थी। सुबह लगभग 4 बजे माँ सूप लेकर घर के बाहर यह कहते हुए जाती थी :'निकल छुछूँन्दर निकल'अर्थात घर की दरिद्रता दूर हो , दूर हो।

                  इसके बाद गांव के एक विशेष स्थान पर गाँव की महिलाओं द्वारा की जाने वाली स्याहू माता   की सामूहिक पूजा में सम्मिलित होती थी। वहाँ वह एक सूप में दिये जलाकर औऱ सिक्का वाली दीवट लेकर पूजन में सम्मिलित होती थी। जहाँ गाँव की बहुत सारी महिलाएं, वृद्धाएँ आतीं औऱ पूजा करके गीत गाकर अपने घर लौट जातीं।जब मैं छोटा ही बालक था ,तो एक दो बार माँ के साथ स्याहू पूजन के लिए गया था। तब मैंने सुना कि वे महिलाएं, विषेशकर वृद्धाएँ कुछ अश्लील गालियाँ भी गाती हुई देखीं गईं। 


             सुबह होने पर हम बच्चे देखते कि कुछ दिये बिना जले ही रह गए। शेष का तेल समाप्त हो गया था। वे जल चुके थे। हम उन दियों को इकट्ठे कर लेते , जिनका उपयोग दाल में छोंक देने के लिए माँ के द्वारा साल भर किया जाता था। सुबह कपड़ों में छेद देखकर डर लगता था कि यदि माँ ने देख लिया, तो बहुत डांट पड़ेगी।इसलिए छिपते रहना पड़ता था, पर आखिर कब तक? आखिर पता लग ही जाता, और डांट भी खानी पड़ती। । मोमबत्तियों के अवशेष को एकत्र करके पपीते या  रैंडी के पत्ते के खोखले डंठल से उसमें पिघला हुआ मोम डालकर पुनः मोमबत्ती बनाना हमारा प्रिय शौक था।

                पर आज न वह दीवाली रही , न वे शौक-रहे ! सब कुछ रेडीमेड !वह असली दीवाली थी, वास्तव में एक सामाजिक त्यौहार ! न प्रदर्शन न बनावटीपन।न रिफाइंड न चर्बी की मिठाईयां।न विषैले चीनी भरे दूषित खाद्य पदार्थ। न बिजली की बनावटी रौशनी, न मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति का दम्भीय प्रदर्शन।धन की चकाचोंध का ढोंग तब नहीं था ,जब कि आज के युग में उसी का बोलबाला है। जुए की चर्चा क्यों न की जाए! वह तो सत्यवादी धर्मावतार युधिष्ठिर से लेकर अब तक पवित्र परम्परा के रूप में जीवित है। जहाँ अमृत-कलश है ,वहीं आसपास विष्कुम्भ भी है। 

 💐 शुभमस्तु!

 13.10.2020 ◆7.50अपराह्न।

बुधवार, 4 नवंबर 2020

आदमी,आदमी से जला जा रहा [ गीत ]

 

◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆●

✍️ शब्दकार©

🔱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆●◆◆◆●◆●◆●◆●◆●◆●◆◆

आदमी, आदमी  से  जला  जा   रहा।

नेह  का  भानु छिपता चला जा   रहा।।


ज्योति पर्वों की पहली-सी जलती नहीं।

हर्ष की  वह  लहर भी मच लती नहीं।।

एक  से   एक  इंसाँ   छला  जा   रहा।

आदमी ,  आदमी   से  जला जा   रहा।।


आस्तीन    में     साँप     पलने   लगे।

दोमुँहे    भी   घरों    में  निक लने  लगे।।

कारवाँ  नाग - वंशों  का चला आ  रहा।

आदमी,   आदमी  से  जला जा   रहा।।


हर     मुखौटे       लगाए    हुए  आदमी।

हर   मुखौटा     हटाना   हुआ  लाज़मी।।

कैसे   कह दें   ये   इंसाँ  भला जा   रहा।

आदमी  , आदमी   से   जला जा   रहा।।


नीर      पीता     है   छाना   जाना    हुआ।

पीता   लोहू     सदा  अन  छाना   हुआ।।

हाथ  से  हाथ   अपना   मला  जा    रहा।

आदमी, आदमी     से    जला जा   रहा।।


दूध   से  मन  किसी  का धुला तो    नहीं।

मात्र  थोथे  चने की ढपलियाँ बज  रहीं।।

पाहनों   पर  चँवर  अब  झला जा  रहा।

आदमी, आदमी    से    छला  जा  रहा।।


काम  इतना  कि  फोटो खबर छप  सके।

माला  नेता की  जनता अधर जप  सके।।

अपराधों  का  ध्वज   ही  तना जा   रहा ।

आदमी,  आदमी    से    जला  जा  रहा।।


दागदारों    से    संसद -  भवन  सोहते ।

कामिनी  को   मधुर   लोभ  से    मोहते।।

शुभ  मुहूरत 'शुभम'  अब टला  जा रहा।

आदमी ,आदमी   से  जला जा   रहा।।


💐 शुभमस्तु !


04.11.2020◆4.30 अपराह्न।

आई शरद पूर्णिमा [ गीत ]

 

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

✍️ शब्दकार ©

🌝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●

शरद -  पूर्णिमा   देखो  आई।

अम्बर -थाल खील भर लाई।।


सूरज   धाया   अस्ताचल  में।

उतर गया है किसी अतल में।

प्राची   में    छा   गई  जुन्हाई।

शरद -  पूर्णिमा  देखो  आई।।


कनक थाल-सा उगा सुधाकर

धीरे -  धीरे  उठा  गगन  पर।।

अँधिआरे   में   रौनक   छाई।

शरद - पूर्णिमा  देखो  आई।।


राकापति   राकेश    एक  हैं।

अरबों   तारे  साथ   नेक हैं।।

सोम बरसता  शशि प्रभुताई।

शरद -  पूर्णिमा देखो  आई।।


खीर सजाकर खुले गगन में।

हितकर होता मानव तन में।।

सेवन सदा  सुबह  सुखदाई।

शरद - पूर्णिमा  देखो आई।।


जन्मी  आज    लक्ष्मी माता।

पूजा कर जो इनको ध्याता।।

धन-देवी   हों  सदा   सहाई।

शरद -  पूर्णिमा  देखो आई।।


राधे  और  श्याम की लीला।

करते रास सुखांत सजीला।।

श्रीगणेश    होता   सुखदाई।

शरद -  पूर्णिमा  देखो आई।।


पार्वती -  शिव   ने जन्माया।

वही षडानन सुत कहलाया।।

यह कुमार - पूर्णिमा  कहाई।

शरद - पूर्णिमा   देखो आई।।


💐

 शुभमस्तु !


29.10.2020 ◆ 2.00अपराह्न।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...