शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

आज के देवता [ व्यंग्य ]

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 ✍ शब्दकार©
 🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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              देवताओं को सदैव से अपने अस्तिव का भय रहा है।इसलिए प्राचीन कालीन देवता तत्कालीन अस्त्र -शस्त्रों से लैस रहे हैं।भाला , त्रिशूल ,कटार,तलवार, धनुष बाण,गदा,चक्र उनके हाथों में उनके व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाते रहे हैं।ऐसा लगता है कि उनके लिए हर समय खतरा बना हुआ है।ब्रह्मा , विष्णु, महेश ;जो सृष्टि के जनक, पालक और संहारक देव हैं , वे भी हर समय अस्त्र - शस्त्र धारण किए हुए रहते हैं। लगता है उन्हें अपने से भी महान का संकट है।
           अब हमें ही ले लीजिए ।आजकल के देवता तो हम ही हैं। उस जमाने में आदमी पत्र ,पुष्प, फल चढ़ाकर और कुछ दिनों नाम जपकर ब्रम्हा , विष्णु , महेश किसी को भी आहूत कर मन वांछित वरदान प्राप्त कर लेते थे , परंतु आज के हम देवताओं और देवियों के दर्शन पत्र, पुष्प, फल चढ़ाकर कर पाना सम्भव नहीं है। उन देवताओं की तरह हम देव लोग भी कम डरपोक नहीं है। वे साँप पालते थे । हम भी साँपों के बीच में रहकर जिंदा हैं। साँपों के बिना हम नहीं रह सकते । वे ही हमारे अस्त्र -शस्त्र हैं। वे ही हमारे रक्षक हैं। भला डेढ़ पसली की देह से हम देव लोग(लुगाई भी) कितना बोझ संभालें, इसलिए पिस्टल, रायफल , बंदूक ,स्टेनगन सब कुछ उन्हीं के कंधों और पीठ पर लाद देते हैं और हम मूँछ पर ताव देते हुए (यदि मूँछ वाले हुए तो) सीना तानकर डगडग , भगभग दौड़ते हुए से चलते हैं।या यह कहें कि चलते हुए दौड़ते हैं। और कुछ इधर कुछ उधर हमारे तथाकथित अंगरक्षक, बॉडी गार्ड ,शैडो , कुछ भी कहिए , हमारे साथ -साथ भागते हैं।

             हम इतने सभीत हैं कि किसी सभा आदि में भाषण करते हुए भी हमें उन्हें अपने पीछे ऐसे खड़े रखना पड़ता है , जैसे शंकर भगवान के गले में सर्प कुंडली मारे खड़े हों। हमारे घर ,द्वार ,ऑफिस ,कार ,यात्रा आदि में कोई भी क्षण ऐसा नहीं है , जब हम अपने को आम आदमी समझ सकें। हमें हमेशा 'विशेष' के आवरण में लिपटे रहना पड़ता है। यह हमारी मजबूरी है। यदि ऐसा नहीं करें ,तो हमारी शान को बट्टा लगता है। 

             ये हथियारों का ज़खीरा साथ लेकर चलने के पीछे हमारी प्रेस्टिज भी तो है। यदि आम आदमी की तरह हम भी पान की दुकान पर पान खाने खड़े हो जाएं , गोल गप्पे वाले से सड़क पर गोल गप्पे खाने लग जाएं , या आम आदमी की तरह लैगी ,चड्ढी , बरमूडा या हाफ पैंट पहनकर बाइक पर तफरी करने लगें या टहलने लगें तब तो हो गया बस! हमें फिर कौन घास डालेगा? हमारा सारा का सारा देवत्व मिट्टी में नहीं मिल जाएगा ? इसलिए हर स्तर पर हमें 'विशेषत्व'का चोगा पहने रहना पड़ता है। हमारी हर चीज विशेष ही होती है। हमारे बीबी , बच्चे भी स्पेशल होते हैं। उनका स्तर एकदम भिन्न ।

              सबसे अलग! हमारी एक झलक पाने के लिए आम लोगों की भीड़ लगी रहती है। पर हम इतने कठोर भी नहीं हैं, हमारे यहाँ भी मंदिरों के भगवानों की।तरह बैक डोर एंट्री भी है। अपने कुछ खास नाते - रिश्तेदार उसी दरवाजे से हमारे दर्शन लाभ कर पीछे से ही रवाना हो जाते हैं। अरे! भई! विशेष के साथ वाले भी तो विशेष ही हुए न! वे आम कैसे हो सकते हैं भला ? कोई ऑब्जेक्शन करे तो करता रहे ,इससे भला हमें क्या लेना -देना? अब आप ही बताइए यदि मेरी साली जी फोन करें कि आपसे एकांत वार्ता करना चाहती हूँ, तो भला हम कैसे इनकार कर सकते हैं। हमारी सहधर्मिणी से कहकर हमारा भोजन -पानी भी बन्द हो जाएगा ! इसलिए हजार काम छोड़कर हमें मीटिंग से मुँह मोड़कर साली जी के सान्निध्य में पिछले गेट से आना ही पड़ता है। हमारी साली जी भी तो स्पेशल ही हुईं न? विशेष का नाता विशेष से ही हो सकता है।

              उस विशेषत्व से भला नीचे कैसे आ सकते हैं। इसलिए हमें सत्ता से बाहर होने पर भी अपना रुतबा(झूठा ही सही) बनाए रखने के लिए कभी -कभी अख़बारों में बयान भी देना पड़ता है ,  प्रेस कॉन्फ्रेंस भी बुलानी पड़ती है। भले ही कोई न सुने। कोई न माने। पर हमें लोग विस्मृत न कर दें , इसलिए कुछ उठा -पटक, लटक -झटक , चटक - मटक के घण्टे टंटनाने ही पड़ते हैं। फिर वही बात , हमें अपने सांपों को भी बराबर दूध पिलाते रहना पड़ता है। क्योंकि सत्ता में आने पर वही हमारे सबसे बड़े मददगार साबित होते हैं। उनसे दूरी कैसे बनाई जा सकती है। जो दूरी बनाते हैं , वे कुर्सी से भी सदा के लिए दूर हो जाते हैं ।

             हम कोई आम नहीं हैं, जो सड़क पर खड़े होकर आम चूस लें। आम को हम चूसते तो हैं ही, पर हमारा ढंग और शैली कुछ अलग ही है।आम चुस भी जाए ,औऱ उसे पता भी नहीं लगे। इसे कहते हैं आम को चूसना! यह हम आज के देवताओं और देवियों का विशेषत्व ही है। हम प्राचीन देवताओं से भी दुर्लभ और अलभ्य हैं। हमारी अपनी महिमा है, जिसे हमारे पालित साँप और जहरीले नाग अपने-अपने फणों से गायन करते हैं औऱ हम मन ही मन अपने देव -गायन स्तुति का आनंद लेते भए शेष शैया पर शयन करते हैं। मगन रहते हैं। 
 हम हैं ये आज के देव। 

 💐 शुभमस्तु !

 31.07.2020 ◆5.35 अपराह्न।

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

सभीत आज के देव [अतुकान्तिका]

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✍ शब्दकार ©
🌳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जो है 
जितना ही आम,
उसे है 
उतना ही आराम,
न भय का
कोई झाम,
शांति से बिता रहा
निज सुबहो -शाम।

बना है
जो भी 
आज विशेष,
बढ़े जीवन में
उतने क्लेश,
नहीं है कहीं 
शांति का लेश,
बदलता नित्य
वह छद्म -वेश,
चतुर्दिक भय की मार,
लदे तन पर भारी हथियार।

देवता -देवी
सभी सभीत ,
सदा चिंतित
नहीं मन ठीक,
लदे तन पर,
कितने हथियार,
सदा भयग्रस्त 
त्रस्त दुःख भार,
नहीं जीवन में 
शांति का सार।

श्री ब्रह्मा विष्णु महेश
मातु दुर्गा के 
देखो वेश,
अनेकों हाथ 
सभी   के साथ,
तन पर लादे
कितने -कितने
हथियार,
सुरक्षा का 
साधन अपार।

आज के देवी -देव
निपट खाली कमजोर,
धरा के सब छोर,
हाथ में नहीं
एक भी दंड,
पर मन में
है व्याप्त
भय भीषण
प्रबल प्रचंड,
साथ में 
अंग रक्षकों की फ़ौज,
नाक के नीचे
जिनके झबरी मूँछ,
नहीं करते नेताजी
उनकी पूछ,
मगर रहना ही है
बनकर पूँछ,
लाद तन पर हथियार,
कहलाते हैं ,
शैडो(छाया)
बॉडी गार्ड!

देवता से 
मिलना आसान,
चढ़ावा देकर 
पत्र ,पुष्प ,फलदान,
इसी में तुष्टि का मान,
किन्तु आज के
ये देव
नहीं मानव को उपलब्ध!
न देना दर्शन
उनकी शान,
बहुत प्यारी है
उनको अपनी जान,
बनाए शत्रु न
कहीं निशान?

हाय रे!
तू कैसा इंसान,
बना मानव हित
दुर्लभ,
करेगा क्या 
मानव पर अहसान?
किसी के हित का
अनुसंधान?
वाह रे ! 
नेता देव!
तू तो सचमुच
सभीत डरपोक
महान।

आज का देव!
दुर्लभ अति विशेष!
देव है 
इसीलिए दुर्लभ,
मानव से
 मानव का मिलना,
तू भी है
एक अदद इंसान,
यही है 
आधुनिक देव की
मिथ्या शान, 
जिसे कहते 
नेता डरपोक महान!!

💐 शुभमस्तु!

30.07.2020◆ 4.00 अप.


कलम का सिपाही [अतुकान्तिका]

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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शब्द -साधना के 
सच्चे साधक,
आराधक,
लमही वाराणसी की
धरती की
 माटी  से जन्मे,
धनपतराय कहाये,
'सेवासदन' , 'प्रेमाश्रम',
'रंगभूमि', 'निर्मला ',
:गबन', 'कर्मभूमि',
'गोदान' उपन्यास से
उपन्यास -सम्राट बन
साहित्याकाश में छाए।

धरती की माटी से
जुड़ी कहानी त्रिंशत,
हिंदी उर्दू की 
यथार्थ बयानी,
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के साधक, संपादक,
सच्चे साहित्यिक ,
नाटककार , निबन्धकार,
अनुवादक , बाल साहित्यिक,
संस्मरण- लेखक,
नवाबराय से 
मुंशी प्रेमचंद  बन आए।

मुंशी प्रेमचंद के बोल 
रहे हैं 
साहित्य जगत में
अपनी वाणी का रस घोल,
'साहित्य नहीं 
चलता पीछे
राजनीति या
देशभक्ति के,
वह रहता है
आगे -आगे
चलता देकर प्रकाश
बनता मशाल,
सिर अपना
उन्नत प्रशस्त कर।'

युग प्रवर्तक
संवेदनशील
सचेत वक्ता,
विद्वान युग -युग के
अनुसंधानक,
सच्चे नायक ,
सुत अमृतराय के
पिता 
'कलम के सिपाही'
नमन तुम्हें
शत -शत वंदन,
प्रेम के चंद 
धवल,
अमर यशः काय अमल।

💐 शुभमस्तु ! 

सावन आगि लगाय गयौ [ गीत ]

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✍ शब्दकार©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग- अंग  सुलगाइ दयौ री।।

जब से भए   सजन परदेशी।
सखियाँ बतरावें  कछु ऐसी।
कासे पिय कौ नेह लग्यौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।

चलत   झकोरे  बरसें बुँदियाँ।
कसि-कसि जावै मोरीअँगिया
छलकि-छलकि रस घाय कियौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग-अंग सुलगाय  दयौ री।।

दिवस  न  चैन  नींद नहिं रैना।
कासे  बतराऊँ   दुःख भैना।।
विष  वियोग हररोज़ नयौ री
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।

सखियाँ झूलति गिरत फुहारें।
गावति कजरी  गीत मल्हारें।।
बीजु न प्रीतम  एकु  बयौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ  री।।

प्यास  बुझी धरती की सारी।
हरी- हरी सिग खेती  -बारी।।
बालम आए न घरू छयौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग  सुलगाय दयौ री।।

चिठिया नाहिं  सँदेशौ आयौ।
कहूँ बलम  मेरौ   भरमायौ।।
अचरजु मेरे  मनहिं भयौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।

सूधी   आँखि फड़कती मेरी।
सपने    बुरे   सताएँ  अँधेरी।
'शुभम'न मानत बलम कह्यौ री।
सावन आगि लगाय गयौ री।
अंग -अंग सुलगाय दयौ री।।

💐 शुभमस्तु !

28.07.2020◆ 7.45 अप.

सोमवार, 27 जुलाई 2020

शिव-आराधना [ सवैया ]

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
शिव शंभु  सहाय करो इतनी,
भवसागर  के  अघ ताप हरौ।
प्रभु  अवढर  भोले  दानी हो,
तव चरणों में निज माथ धरौ।
गौरीपति    शंकर     महादेव,
दुःख से  दूषित  संताप  दरो।
है 'शुभम' शुष्क सुख की सरिता,
शुभ  गंगाजल  से  हे नाथ भरो।।

-2-
जपता    त्रिपुरारी   नाम सदा,
मन  -  मंदिर   में मेरे  आओ।
करुणाकर  कृपासिंधु अपनी,
करुणा का बादल बरसाओ।।
मैं दीन   दुःखी   माया बंधित,
माया  का जाल हटा जाओ।
शिव' शुभम' नयन मेरे खोलो,
मम लोभ मोह को हर जाओ।।

-3-
शिव शून्य नाथ तुम अक्षर हो,
शाश्वत हो कण-कण के वासी।
हो अजर अमर शिव नित्य सत्य,
व्यापक जग में हे अविनाशी।
रवि शशि से पहले भी तुम थे
तुम जग के कारण कर्ता भी।
प्रभु'शुभम'ज्ञान विज्ञान तुम्हीं
हर  जीव - उदर के  भर्ता  भी।।

-4-
कैलाश  धाम   में  वास  सदा,
धरती पर   दृष्टि करो  स्वामी।
तुम भस्म काम को करते  हो,
अघलिप्त मनुज है बहुकामी।
शीतल हिम  वासी तपसी हो,
ग्रीवा में   विषधर  हैं   नामी।
माँ   पार्वती   अर्धांगिनि   हैं,
दोनों सुत शिव के अनुगामी।।

-5-
तन पर लिपटाए   भस्म सदा,
बाघम्बर    गले      मुंडमाला।
ध्यानावस्थित    रहते    भोले,
आसन तव मोहक मृगछाला।
हैं  शीश   विराजित  गंगा माँ,
चंद्रमा  द्वितीया    का आला।
विनती करते  हम  बार -बार,
अज्ञान   हटा   काटें  जाला।।

 -6-
नंदी   पर   शंभु  सवारी कर,
माँ   पार्वती   के  सँग  रहते ।
करते हैं भ्रमणअखिल जग का,
जग की  चर्चा  उनसे कहते।।
देखते सभी के सुख दुःख को
हम  संतापित   सहते-सहते।
प्रभु 'शुभम'याचना करता है,
क्यों कष्ट  ऊठाएँ शिव रहते।।

 -7-
निज ज्ञान भक्ति का वर दे दो,
अर्चन   वंदन    मैं  करता  हूँ।
यह अपना शीश विनत करके
चरणों  में प्रभु   के धरता हूँ।।
शिव   शंकर   अंतर्यामी   हो ,
क्या   माँगूँ   नहीं उचरता हूँ।
सब 'शुभम' सदा ही करते हैं,
यह सच है अघ से डरता हूँ।।

💐 शुभमस्तु !

27.07.2020◆1.45 अप.

रविवार, 26 जुलाई 2020

रोटी की कहानी [ बालगीत ]

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✍ शब्दकार ©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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रोटी  की    अनमोल कहानी।
रोज नई ,   होती   न पुरानी।।

खट्टी   मीठी  नहीं    सलौनी।
होती रोटी    सदा   अलौनी।।
जैसे    स्वादहीन    है  पानी।
रोटी  की अनमोल  कहानी।।

पेड़ा   गर्म   जलेबी    फीके।
रोटी के सब गुण  हैं   नीके।।
नहीं सुहाती फ़िर गुड़धानी।
रोटी की अनमोल कहानी।।

गोल -  गोल   रोटी की काया।
स्वाद सभी को उसका भाया।
पहले रोटी  फिर  घर -छानी।
रोटी  की अनमोल  कहानी।।

रोटी की   क्या   कोई समता?
रसगुल्ला भी वहाँ न टिकता।
सभी  मिठाई   भरती  पानी।
रोटी  की अनमोल  कहानी।।

सदा   मान   रोटी का रखना।
करके श्रम सब रोटी चखना।
'शुभम'स्वेद श्रम की है ठानी।
रोटी की अनमोल कहानी।।

💐 शुभमस्तु !

26.07.2020◆2.45अप.

मोबाइल जब से घर आया [ बालगीत ]

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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मोबाइल  जब से  घर आया।
झूठ  बोलना हमें  सिखाया।।

झूठ   बोलते     मम्मी  पापा।
दिखलाते   झूठा  अपनापा।।
खाते    नीबू  आम    बताया।
मोबाइल  जब  से घर आया।।

होते     घर    बाजार  बताते ।
बाइक  से  हारन    सुनवाते।।
आगन्तुक  को  खूब छकाया।
मोबाइल जब  से घर  आया।।

एक मिनट   का  घंटा  होता।
दस मिनटों में दिनभर सोता।
जो मन आए   वही  बताया।
मोबाइल जब से घर  आया।।

मोबाइल   का   दोष  नहीं है।
उस पर कोई   रोष   नहीं है।।
झूठ आदमी   की हर  माया।
मोबाइल जब  से घर  आया।।

ठगी   झूठ   के  जाल फरेबी।
बनते मिटते नित   सुर देवी।।
आभासी दुनिया  की छाया।
मोबाइल जब से घर आया।।

💐 शुभमस्तु !

26.07.2020◆2.00अप.

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार ©
🌻 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अपनों   की  पहचान  नहीं है।
शेष कहीं  अवधान  नहीं  है।।

उम्मीदें  किससे  क्या   करना,
रिश्तों  में  अब  जान नहीं  है।

खुदगर्ज़ी    पर  नाते -  रिश्ते,
उनके  आँखें   कान नहीं  हैं!

मर-खप जाओ जिनकी ख़ातिर,
ऐसों   की   पहचान   नहीं  है।

पीते    खून    खून  के  जाए,
बचा  कहीं    इंसान  नहीं  है।

बोए  फूल   खार  बन उपजे,
कौन  यहाँ   शैतान   नहीं है।

'शुभम' कर्म  खोटे हों शायद,
अपने  घर  में  मान  नहीं  है।

💐 शुभमस्तु !

26.07.2020◆12.50 अप.

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
रंगों     में    ही  भंग   हुए हैं।
खिले  फूल  ही संग  हुए  हैं।।

औरों  की  ख़ातिर  जो जीते,
वहीं - जहाँ  में   तंग   हुए  हैं।

अमन -चैन    से  जो रहते हैं ,
उनसे   ही   तो   जंग हुए  हैं।

औलादों     के   बदले  चेहरे ,
देख  उन्हें  हम दंग    हुए  हैं।

सजा-सँवारा जिनको जीभर,
मन   उनके   बदरंग  हुए  हैं।

जिनको हमने ढंग सिखलाये,
हमसे    वे    बेढंग    हुए  हैं।

पाला -पोसा जिनको दिल से,
'शुभम'  वही अब नंग हुए हैं।

💐 शुभमस्तु  !

26.07.2020 ◆12.30 अप.

शनिवार, 25 जुलाई 2020

नागपूजा दिवस [ व्यंग्य ]

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✍ लेखक 
© 🌳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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आप सभी जानते हैं कि आज नाग पूजा का पावन पर्व 'नागपंचमी 'है।इस देश में चील ,कौवे,राक्षस,कुत्ते, नाग आदि के पर्व समय -समय पर मनाए जाते हैं।नागों की महिमा से कौन परिचित नहीं है। भारतीय संस्कृति में नागों का अपना विशेष महत्त्व है। 

 कहा जाता है कि हमारी धरती माँ को शेषनाग महाराज जी ने अपने हजार फणों पर टिका रखा है। जब -जब ये नाग देवता महाराज करवट लेते हैं ,तब -तब पृथ्वी हिलती है , जिसे भूगोल की भाषा में भूकंप,भूडोल,भू चाल आदि कहा जाता है।हमारे त्रिदेवों :ब्रह्मा , विष्णु और महेश में पहले प्रजापति को छोड़कर प्रजापालक और प्रजाघालक श्रीविष्णु जी और श्री शिवजी को नागों से अति स्नेह है। वह तो क्षीरसागर में अपनी प्रिया श्री लक्ष्मी के साथ शेष शैया पर आनन्द मग्न रहते हैं।उधर माता लक्ष्मी जी उनकी सेवारत रहते हुए उनके चरण कमल को पलोटती रहती हैं।अरे!भई आपको क्या आपत्ति है, वे उनके पतिदेव हैं,वे जो चाहें करें। शेषनाग महाराज उनकी धूप वर्षा से भी रक्षा करते हैं। यद्यपि वे हर समय सागर जल में ही शेषशायी रहते हैं। दूसरे हैं आदिदेव शिव शंकर जी , उन्होंने तो नागों की माला ही बना रखी है।हमारी संस्कृति की नाग प्रियता के ये सशक्त उदाहरण हैं , तो फिर भला हम क्यों पीछे रहें। इसलिए हम नागों से अपना प्रेम प्रदर्शित करने के लिए उन्हें ज़्यादा नहीं तो वर्ष में एक बार खुलेआम दूध पिला ही लेते हैं, और अपनी नागप्रियता की तसल्ली कर लेते हैं।

हमारी नाग प्रियता का अंत यहीं पर नहीं हो जाता। चूँकि नाग सेवा हमारी संस्कृति का प्रमुख अंग है।इसलिए हमने नागों को पालना भी शुरू कर दिया है।जब हमारे पांडु - पुत्र महावीर अर्जुन जी नाग कन्या उलूपी से विवाह कर उसे अपनी सहधर्मिणी बना सकते हैं , तो क्या आज के धनुर्धारी उनसे प्रेम भी नहीं कर सकते ? ये पालित नाग कभी -कभी जनता की दृष्टि से ओझल भी रहते हैं।जब सही समय आता है तो दुश्मन को डंसने के लिए तैयार रहते हैं। ऐसे ही विषम समय के लिए इन्हें दूध पिलाया जाता है। काजू , किसमिस , बादाम , छुहारे के भोग लगाए जाते हैं। अर्थात उन्हें हर समय संतुष्ट ,पुष्ट , स्वस्थ और मस्त रखा जाता है। नाग कहें तो नागनाथ और साँप कहें तो सांपनाथ।कुछ रुतवेदार लोगों के द्वारा इन्हें भगवान शंकर की तरह उन्हें अपनी आस्तीन में शुभ स्थान देकर सुशोभित किया जाता है।जिन्हें मुहावरे की भाषा में आस्तीन के साँप कहा जाता है।आस्तीन के साँपों की एक विशेषता यह भी देखी जाती है , कि वे प्रायः अपने पालने वाले को ही अपना पहला शिकार बनाते हैं। इसलिए इनसे सावधान रहने की आवश्यकता होती है। 

 साँपों या नागों के विषय में यह कथन भी बहुत लोकप्रिय है कि इनको चाहे जितना दूध पिलाओ , अवसर मिलने पर ये पिलाने वाले को भी डंसने से नहीं चूकते। पर क्या किया जाय ,हम अपनी पुरानी नाग संस्कृति को भी सम्मान देने से नहीं चूक सकते। आज के युग में साँप या नाग पालने से बेहतर यह समझा जा रहा है कि क्यों न स्वयँ ही नाग बना जाए ,तो सबसे बेहतर । इसलिए समाज में नागों की संख्या निरंतर बढ़ ही रही है। साँप या नाग बन जाने या पालने के अनेक लाभ हैं। 

जंगल में सीधे पेड़ पहले काटे जाते हैं।सीधे ग्रहों की पूजा अर्चना करने से बेहतर यह माना जाता है कि सीधे से कोई खतरा नहीं है। इसलिए समाज में साँप /नाग जैसे टेढ़े चलने वालों को ज्यादा पूजा जाता है।उन्हें अधिक सम्मान अधिक दिया जाता है। वे माननीय भी अधिक होते हैं। क्या आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है कि सीधे -साधों को पूजा गया हो? देश और समाज में कभी केंचुए नहीं पूजे गए।उनको सड़ाकर खाद अवश्य बना ली गई हो। पर पूजा नहीं गया। कभी 'केचुआ पर्व 'नहीं मनाए गए।विशेष पर्वों पर राम और कृष्ण के नाम पर रावणों , विभीषणों , कंसों को याद करना कभी नहीं भूले। क्योंकि वे टेढ़े थे। यदि वे लकड़ी की तरह सीधे होते तो काट डाले गए होते ,पूजे नहीं जाते। यही कारण है कि देश में 'केंचुआ पर्व ', 'गिजाई पर्व', 'वीर बहूटी पंचमी', 'गधा एकादशी', 'कबूतर दिवस', 'दादुर दशमी', 'मछली द्वादशी', आदि नहीं मनाए जाते। केवल' नाग पंचमी ' मनाई जाती है। बढ़ती हुई नाग संख्या को देखते हुए इसका महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। 
💐 शुभमस्तु!
 25.07.2020 ◆7.00अप.

कौन पूजता केंचुआ [ दोहा ]

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✍ शब्दकार©
💦 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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नगपंचमी का दिवस,आया पूजो नाग।
पर्व जिसे कहते सभी,गाँव शहर वन बाग।।

शेषनाग के शीश पर,टिका धरा का भार।
शिव शंकर के कंठ में,नाग सुशोभित हार।।

शेषासन पर सोहते,श्रीविष्णु भगवान।
पाँव पलोटति हैं रमा, सागर में शुभमान।।

नागों से नित होड़ ले,नर की बदली नीति।
डंसने को तैयार हैं, आपस मे कर प्रीति।।

बाहर से रक्षक बने,भीतर भक्षक नाग।
रह नागों के बीच में, बचे वही सौभाग।।

नित नागों को पूजिए, रहते चारों ओर।
यहाँ वहाँ वे रेंगते,धरती के हर छोर।।

भय पूजित हर काल में,कहो साँप या नाग।
भस्म करे जो आपको, कहते उसको आग।।

भय से बढ़ती प्रीति ये,भय की पूजा रोज।
भय के भरते भाव वे,भय से होते भोज।।

कौन पूजता केंचुआ,गुबरैला को खोज।
नागों के माला पड़े,देख रहे तुम रोज।।

टेढ़े ग्रह सब पूजते,टेढ़े का अति मान।
सीधे को क्या पूजना, करे नहीं नुकसान।।

नाग राग गा ले 'शुभम',नागों का संसार।
डंसता कभी न केंचुआ,नाग न करे उधार।।

💐 शुभमस्तु !

25.07.2020 ◆2.10अप.

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

आपदा -दोहन [ लेख ]

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✍ लेखक ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आदमी एक बुध्दिमान प्राणी है , बल्कि यह कहना चाहिए कि आदमी पृथ्वी के समस्त जीवों में सर्व बुद्धिमान जीव है। उसे समय का दोहन सबसे अधिक अच्छी तरह से आता है। यदि पृथ्वी पर शेर चीते से भी निर्मम औऱ हिंसक जीव की खोज की जाए तो उसमें मानव का प्रथम स्थान होगा। अपनी बुद्धिमत्ता का जितना अधिक उपयोग कर सकता है ,उससे कहीं अधिक वह उसका दुरुपयोग करने में कुशल है।

 समझ में नहीं आता कि मानव को किसने सहृदय, दयालु , परोपकारी और मानवीय होने की संज्ञा प्रदान कर दी। अपने बच्चों पर तो शेरनी भी दयालु होती है।शेर भी उन्हें स्नेह करता है, लेकिन हिरन और उनके परिवार पर उनकी दया कहाँ चली जाती है। मानव भी उसी प्रकार अपने बच्चों पर दयाभाव दिखाता है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?कुत्ते ,बिल्ली , गधे , घोड़े , गाय ,भैंस  आदि पशुओं से मानव बढ़कर ही निर्मम है।

कहा जाता है कि 'धीरज धर्म मित्र औ' नारी ।आपद काल परखिये चारी।' आज आपदा काल को सचाई के साथ परखा जा रहा है। आज विश्व आपदा महामारी कोरोना के कारण सारा संसार त्रस्त है। ऐसे समय में आदमी समय को भुना रहा है ,उसका निर्मम दोहन कर रहा है। इस काम के लिए जंगल से शेर , चीते , बघर्रे नहीं आ रहे हैं।
एक -एक मरीज को यदि कोई चूस रहा है , तो वह मानव ही है। जो अपने को प्रबुद्ध और सफेदपोश कहता है , वही हॉस्पिटल में एक -एक दिन का तीस -बत्तीस हजार वसूल कर रहा है। निजी अस्पतालों में केवल पैसा लेकर उसकी हत्या कर दी जा रही है। सरकारी में न इलाज , न साधन , न डॉक्टर , न देख रेख करने वाले। स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो उसे बस पैसा कमाने की पड़ी है। कोई मरे या अपनी किस्मत से बच जाए ,उसे कोई मतलब नहीं है। यह वह वक्त है , जब मुखौटे लगाए आदमी आदमी के लिए जहर बन गया है। कुछ सरकारी चिकित्सकों और नर्सों को छोड़ दिया जाए , वे इंसान नहीं भगवान के रूप में ही सेवाकार्य में लगे हैं, शेष लुटेरे जान और पैसा दोनों का दोहन कर मानवता के दुश्मन बने हुए हैं। 

इन नर पिशाचों को सबसे प्रिय मानव का रक्त ही है। वे आपदा काल का पूरा दोहन कर कलियुग का सच्चा रूप प्रदर्शित करने में लगे हैं।इनसे बड़ा इंसान का घातक शत्रु कौन हो सकता है?मरने वाले मर रहे हैं , देखने वाले आँखों पर पट्टी बाँधे पड़े हैं।क्या नेता! क्या मंत्री !!  सब जान रहे हैं। लगता है अपरोक्ष रूप में इनका भी इस चल रहे शोषण में साझा है।सब मिली भगत से कारनामों को अंजाम दिया जा रहा है। तू न कहे मेरी ,मैं न कहूँ तेरी।

ये आज के आदर्श भारत का एक सुंदर निदर्शन है। बड़े -बड़े मंदिर और धर्मस्थल भी क्या इसी काम के लिए बन रहे हैं? क्या सारे  नियामक और कर्ता धर्ता अंधे हो गए हैं। अब सब कुछ दूध औऱ पानी की तरह साफ हो चुका है।आज आदमी हमाम में नहीं, सड़क , हॉस्पिटल और शहर -शहर में नंगा हो चुका है , मगर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं।  कहीं कोई विरोध नहीं , आंदोलन नहीं, हड़ताल नहीं, मोमबत्ती जलाओ अभियान नहीं, थाली शंख घड़ियाल नाद नहीं।  कोई मौन या मुखर क्रांति नहीं। सब सहज स्वीकार कर लिया गया है जैसे। शोषण और चूषण का सामान्यीकरण ही हो गया है।ऊपर से नीचे तक सबने शोषण को अनिवार्य ही मान लिया है। क्या इससे भी बुरा वक्त आएगा , जब आदमी आदमी का दुश्मन बनकर उसके शव पर नाचेगा। ये शवों पर नाच करता हुआ आदमी, अब मास्क लगाकर जिंदा को लाश बनाने पर तुल गया है। शायद वह अमरौती खाकर आया है। ये सर्वनाशी व्यवस्था हेय ,घृणास्पद और निंदनीय है।

💐 शुभमस्तु !

24.07.2020 ◆8.30  अपराह्न।

पावन सावन मास [ घनाक्षरी ]


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✍ शब्दकार©
🌳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                          -1-
आयौ       सावन      मास,
भरौ     मन     में    हुलास,
दूरि    ताप    कौ    संत्रास,
अंग   -    अंग      भीजतौ।

मेघ     छाए     हैं  आकाश,
कन्त     मेरौ     नहीं  पास ,
करै    विरहा    कौ    नाश,
मोहि     देखि       रीझतौ।।

मोरी     सूखि    रही  जान,
गई        आन  बान   शान,
गए    -   गए  लगें     प्रान,
मन      मेरौ        खीझतौ।

नैन    देखि      रहे      राह,
शेष      बची    एक   आह,
बीति     गए     चार   माह,
शुभंग              पसीजतौ।।

                          -2-
झूले     पड़े      आम   डाल,
सखी      चूनरी       सँभाल,
नाहीं     कर    तू      सवाल,
बेगि    -  बेगि         झूलना।

राधा    सँग     झूलें   श्याम,
साथ    रति    के हैं    काम,
पींग        भरते        उद्दाम,
नहीं      नीति       भूलना।।

सखी     आईं    साथ  चार,
करें         प्रीत       मनुहार,
चाह       मेह   की    फुहार,
मोद        माँहिं      झूमना।

राधा    सखी    को  बुलाय,
लेतीं       पटली     बिठाय ,
सखी   आई      धाय -धाय,
बेगि     लगी        कूदना।।

                       -3-
आई      हरियाली     तीज,
सखी रहीं     भींज  -भींज ,
अँखुआये       हरे     बीज , 
गातीं     मस्त       कजरी।

पूजें       पंचमी    को  नाग ,
जिन्हें   मिलौ     है  सुभाग,
मन  आजु        बाग - बाग,
बोई         जाएँ     भुजरी।।

ठुमक  -     ठुमक      चाल,
देख      मनवा        बेहाल,
करे       पायलिया    ताल ,
बेगि  -   बेगि         भजरी।

अँगियाहू        भई      तंग,
मन     जागी     है    उमंग,
काम    -  रति    करें    रंग,
साँस     आवै       पजरी।।

                         -4-
छाए      मेघ         घनघोर,
कूकि     शोर    करें   मोर,
होत         महकाई     भोर,
बीजुरिया             चमके।

लेत        पवन        झकोर,
ताके    शून्य      में   चकोर,
दृश्य  चाँद       की  न कोर,
मेघ       आए        थमके।।

करें        झींगुर       झंकार,
टर्र       दादुर          पुकार ,
दिखें      फफूँदी      सिवार,
राम          गुड़िया     रमते।

नैन       भरौ      है   खुमार,
आई     वर्षा      की   बहार,
भीगे       छप्पर      किवार,
राति         हारी      तम ते।।

                          -5-
आई      ऋतुओं     की रानी,
कौन     और     तेरौ   सानी,
धारी   शाटिका      तू  धानी,
तेरी         बलिहारी        है।

अम्बु     झरै      मंजु    मेह,
शुभ्र     बरसौ       है    नेह,
खेत,      वन,  बाग ,    गेह ,
नीर          उपहारी      है।।

कहूँ      बाढ़    हू    अकाल,
कहूँ          धावतौ   धमाल,
रोजु   बदले     तू       चाल,
वर्षा         उपकारी       है।

गयौ  जेठ     गयौ      ताप,
धरा       करती    है   जाप,
पुण्य  पावस      की  छाप,
शुभं      हितकारी     है।।

💐 शुभमस्तु !

23.07.2020 ◆7.00अप.

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

सावन-फागुन [अतुकान्तिका]

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✍ शब्दकार©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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झर -झर
नभ से जल
बरसाता सावन
अति पावन
मन भावन,
शस्य श्यामला
वसुधा का कण -कण
हरिताभामय
सृष्टि चराचर
जन गण मन।

फागुन में
रंग बरसे
जन -जन हरसे
सम्पूर्ण प्रकृति सरसे,
मधु माधव ऋतु का
स्वागत अभिनन्दन
नित -नित वंदन
शत-शत नमन।

विरहिन का
मन तरसे,
 जब-जब 
सावन बरसे,
फागुन में
रंग के झरने भरते,
उद्दीपक कारण 
सुख शांति नसावन
रति -काम संचरण
अंग -अंग।

पिया नहीं 
जब गेह,
नहीं है पास
तिया के नेह,
तपन ही तपन 
अगन ही अगन
सावन या
मन भावन फागुन।

विरहिन का सावन
निज प्रीतम सँग
तन-मन,
धरावत प्यास
मलिन मुख उदास,
जगाती आस,
नव बीज बिंदु का
नवल अंकुरण।

सुखद स्फुरण
तन से मन से 
वरण,
निरावरण,
अनुसरण
मौन पायल किंकिण
अनुरणन,
सुखद संतरण
तन -मन का
कण -कण
हरित सावन में
'शुभम' धरिणी का
तृण -तृण
सावन -फागुन।

💐 शुभमस्तु !.

23.07.2020 ◆1.00अप.

अपगा [ कुण्डलिया ]

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✍ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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                          -1-
अपगा पग बिन चल रही,नापे पथ मैदान।
सागर में जाकर मिली,ईश्वर का वरदान।।
ईश्वर का वरदान,बनी निर्मल से खारी।
बनती नभ का मेघ,प्रकृति ही सदा उबारी।।
'शुभम'गा रही गीत,बनी जीवन की सुभगा।
करती है उद्धार,भले वह होती अपगा।।

                            -2-
अपगा गिरि से जन्म ले,चलती है दिन रात।
नहीं थके रुकती कभी,अपगा संध्या प्रात।।
अपगा संध्या प्रात,गा रही कलकल गायन।
प्यास बुझाती कीर,मनुज पशु शांति प्रदायन
हरिआते हैं खेत,नहीं वह होती नभगा।
'शुभम'धरा की प्रीत,बहारें लाती अपगा।।
 
                          -3-
अपगा को नदिया कहें,देती वह दिन रात।
गुनगुन गाती जा रही,करे न कोई बात।।
करे न कोई बात,कर्म ही उसकी पूजा।
लेती नहीं विराम,कौन सरि के सम दूजा।।
सरिता'शुभम'महान,रविसुता गंगा सुभगा।
करती जग कल्याण,पावनी निर्मल अपगा।।

                         -4-
अपगा से ही सीख ले,पग वाले नर जीव।
पंगु बना मजबूर सा,बना हुआ है क्लीव।
बना हुआ है क्लीव,बेहतर तुझसे चींटी।
करती श्रम दिन रात,बजाती कभी न सीटी।।
'शुभम'कर्म का दोष, बना है मानव दुभगा।
प्रेरक सरिता मीत, सीख ले कर्मठ अपगा।।

                        -5-
अपगा माता गुरु बनी,जबसे बहती धार।
बिना पैर चलती रही,कभी न मानी हार।
कभी न मानी हार, पिता पर्वत से आई।
सिंधु पिया के साथ, मिलन को नीचे धाई।।
'शुभम'कठिन है राह, पारकर बनती सुभगा।
कहते नदिया लोग,सदा सुन्दर शिव अपगा।।

💐 शुभमस्तु !

21.07.2020 ◆1.00 अप.

सोमवार, 20 जुलाई 2020

आदर्शों का दिखावा [ गीत ]

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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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थोथे   आदर्शों  का   नित्य दिखावा   है।
झूठ  आँकड़ों  में  ही  काशी काबा  है।।
जनता  को ठग रहे देश के व्यभिचारी।
रँगे    वेषधारी   बन     बैठे  बाबा   हैं।।

भोली जनता के शोषण में लिप्त सभी।
चंगुल में जो फँसा न उबरा यहाँ कभी।।
जाल   फँसा   जो  पंछी भूखा प्यासा  है।
उसे  वहीं  पर   जाना  अपना दावा है।।
थोथे  आदर्शों   का     नित्य दिखावा  है।
झूठ  आँकड़ों  में  ही काशी काबा   है।।

नारी   के   पैरों   में    बेड़ी जकड़ी   है।
पुरा  छद्म  का  जाल  बना दी मकड़ी  है।।
गले स्वर्ण का हार आग का लावा है।
उधर  नारि  को  देख  पुरुष मुस्काया  है।।
थोथे   आदर्शों     का   नित्य दिखावा  है।
झूठ   आँकड़ों   में  ही काशी काबा है।।

बन   बैठा    भगवान   आज का   नेता  है।
देने  का  बस  नाम  सभी हर लेता  है।।
 बचा सियासत-पंक वही बड़भागा है।
मिलता न जनों को छाछ उसे नित मावा है।।
थोथे   आदर्शों   का    नित्य दिखावा   है।
झूठ   आँकड़ों   में  ही काशी काबा  है।।

धनिकों के मछली जाल वही मछुआरे हैं।
शासन  ,सत्ता   के   बने  हुए वे  प्यारे  हैं।।
सच्चों  पर झूठा  राज  असार छलावा है।
आम     आदमी   हेतु    बचा पछतावा है।।
थोथे   आदर्शों   का   नित्य दिखावा  है।
झूठ   आँकड़ों   में  ही काशी काबा  है।।

जाति , धर्म  के  खेल   निराले होते हैं।
टाँगें     फैलाकर    नेताजी  सोते  हैं।।
साँचों  के  कानों , आनन  में लावा   है।
सच्चे   के   ऊपर   झूठे   का दावा   है।।
थोथे    आदर्शों   का   नित्य दिखावा  है।
झूठ  आँकड़ों  में  ही  काशी काबा  है।।

💐 शुभमस्तु !

20.07.2020 ◆6.30 अप.

आज का पावस [ दोहा ]

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✍ शब्दकार©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सावन-महीना चल रहा, प्यासी धरती गोद।
जीव जंतु अकुला रहे,वंचित सकल प्रमोद।।

उगे  नहीं  अंकुर हरे,हरी  न उगती   घास।
कृषक शून्य में ताकता, लगी मेघ से आस।।

सावन  सूखा  जा  रहा, पशु पंछी  बेहाल।
बादल  घुमड़ाते  रहें, लगता पूर्ण   अकाल।।

कविजन कविता कर रहे,बरसाते  जलधार।
एक बूँद थल पर नहीं,नयन थके लख हार।।

झूठी  कविता क्यों  करें, झूठा मेघ  बखान।
देख प्रकृति के रूप को,चित्रण अनुसंधान।।

उमस   बढ़ी तन तप रहा,बहे पसीना  धार।
पत्ता तक हिलता नहीं,करते जन मनुहार।।

कवि-शब्दों की बाढ़ में,डूबे शहर मकान।
मोद मनाने में लगे, भरे खेत खलिहान।।

पावस तपसी बन गया,तपता दिन औ' रात।
सूख रहे पौधे हरे, 'शुभम' न संध्या  प्रात।।

पुरवाई   के  ताप   से,  बहे पसीना  धार।
प्रकृति वह्नि की धारती,पावस थकी अपार।

मौन  धरे  दादुर  पड़े, कोने में चुपचाप।
टर्र -टर्र  होती  नहीं,  झेल  रहे हैं  शाप।।

मोबाइल  के  मंच  पर, बही कल्पना धार।
झूठी रचना व्यर्थ है,सुमन नहीं वह खार।।

💐 शुभमस्तु !

20.07.2020◆10.00 पूर्वाह्न।


मेह न बरसा [ बालगीत ]

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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वर्षा  ऋतु   है मेह  न  बरसा।
जन-जन बूँद- बूँद को तरसा।

काले   बादल   हमें    डराते।
नहीं  बूँद   पानी    बरसाते।।
बरसे  पानी    बीता अरसा।
वर्षा ऋतु है   मेह न बरसा।।

बरसा   होता    खूब  नहाते।
कागज़ की हम नाव बहाते।।
लगता हमें  न कोई डर -सा।
वर्षा ऋतु है   मेह न बरसा।।

मोर   पपीहा   कोयल प्यासे।
हरे  खिल   रहे  पेड़ जवासे।।
कोई  जीव नहीं   है   हरसा।
वर्षा ऋतु है   मेह  न बरसा।।

झूठी   कविता  है सावन की।
जब तक झड़ी नहीं पावन सी।
अवा सुलगता लगे न घर सा।
वर्षा  ऋतु  है  मेह न बरसा।।

रुके   पड़े    हैं  नाले - नाली।
चली  नहीं है  अभी पनाली।।
कैसे    जाएँ   पढ़ें    मदरसा।
वर्षा ऋतु   है  मेह न बरसा।।

कैसे     आएगी    हरियाली।
सूखी धरती   डाली -डाली।।
धूल उड़ रही लगा न झर सा।
वर्षा   ऋतु  है मेह न बरसा।।

💐 शुभमस्तु!

19.07.2020 ◆5.00 अप.

शनिवार, 18 जुलाई 2020

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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दुनिया    की  मुस्कान  छली है।
मुरझाई   हर   कली  - कली  है।

सबके अलग - अलग गलियारे, 
खुदगर्ज़ी   ही  यहाँ   फली  है।

नहीं   चाहते     किसी  और को,
जान  रहे   सब  काल  बली है।

अहंकार    नित    शीश  उठाए ,
नज़र   अंत   में   धूल  मिली है।

सदा     कर्म    की   पूजा   होती,
दुष्कर्मी   की    नहीं   चली है।

सत्यमेव     ही     मूल   मंत्र    है,
लगे   झूठ    की  मधुर   डली है।

लिए     सबूरी    'शुभम'   जी रहा,
उसके    हित   यह    राह  भली  है।

💐 शुभमस्तु !

18.07.2020 ◆ 6.15अप.

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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ग़र काम  बुरा हो तो अंजाम बुरा देगा। 
सीरत को भी तुम्हारी बदनाम करा देगा।।

सूरत को आईना वो तेरी दिखाता है,
खोटा करम तो तेरी सूरत ही मिटा  देगा।

है जोश जिंदगी में  तो है जुनू का जज़्बा,
कतरा-ए -जहर पल में हस्ती  को मिटा देगा।

फूलों की सेज तेरी काँटों की न बन जाए,
है वक्त गर बुरा तो माटी में मिला देगा।

बोझा लिये ग़मों का क्योंकर  दबा-दबा सा,
 खुशियों  को  सहज  में  ही दुरदुरा देगा।

इस  दोपहरी  में  साया   भी नहीं तेरा,
फिर  चरमरा   उठेगा  जिस्म थरथरा देगा।

हम  सब तो हैं अकेले ये जानता है 'शुभम',
ये हौसला अफ़जाई अंजाम भला देगा।
 
💐 शुभमस्तु !

17.07.2020 ◆9.50 पूर्वाह्न।

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

शृंगारिका [ घनाक्षरी ]

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✍शब्दकार © 
🌹 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                         [1]
रूपराशि      की   तू   खान,
काटे  चाँद      हू   के  कान,
तेरी   ऐसी     आन -   बान,
माने     या       न    मानिए।

तेरो     तू    ही      उपमान,
बात   मेरी    कही      मान,
नारी     जाति    में   प्रमान,
साँची     कही      जानिए।।

होठ    रचे      लाल    पान,
गाल   तिल    कौ   निशान,
नैन     ललचौहीं        बान,
चुनरी              सँभालिए।

करौ    रूप   कौ    गुमान,
आछौ  नहीं    तव    मान,
'शुभम'   को       पहचान,
हठ       मती      ठानिए।।

                   -2-
टेढ़ी -      मेढ़ी   है   कमर,
शीश       झूमते      भ्रमर,
पांव       घूमते       अधर ,
मन        मोर      नाचता ।

रससिक्त     हैं       नयन,
अनुरक्त      से      बयन,
शुभ    किया      है चयन,
शाकुंतल          बाँचता।।

जंघ      कदली    समान,
नैन     चलती     कमान,
सुघड़ता     है     अजान,
ये        तेरी    महानता।

घनानंद     की    सुजान,
तेरे  संग    मेरे       प्रान,
आओ   एक  ही वितान,
तुझे           पहचानता।।

                     -3-
आया    सावन    का माह ,
उठी    उर      में    उछाह,
तेरी    मेरी    एक     चाह,
पास        मेरे       आइए। 

शून्य       बरसाए     मेह,
नहीं    भावे      अब  गेह,
स्वेद  भींग      रही    देह,
मत        दूर       जाइए।।

तेरा   मेरा       साथ  संग,
उठे   अंग       में     तरंग,
मार    डालेगा      अनंग,
नहीं               तरसाइए।

मेरा  है     ही    और कौन,
कैसे     रखा      तुम मौन,
काट  खा     रहा  है भौन,
बाँहों       में      समाइए।।

                     -4-
चलो      चलते    हैं    बाग,
देह  -लगी    गुप्त       आग,
प्रिय जाग! जाग!! जाग!!!
बुरा      मेरा        हाल   है।

बोल    बोल    मुख  खोल ,
जिया  रहा     मम    डोल,
मेरी       वेदना    न  तोल,
देह       भी    निढाल    है।।

झूला  अमुआ  की  डाल,
दोनों   झूलें      खुशहाल ,
पींग  पाँव     की उछाल ,
अधरा       प्रवाल      हैं।

दो  हैं   देह    एक   प्रान,
नीर -  क्षीर     के समान,
तुम     तीर     मैं  कमान,
अबूझा      सवाल     है।।

                        -5-
तेरे       नैन    की   कटारी,
मेरे       हिय    में    उतारी,
चैन     हुआ    छार   छारी,
वशीभूत       हो        गए।

छुआ   तेरा     जो   बदन,
लगी  देह     में      अगन,
भूले     आप    ही सदन,
रोम     कंट      बो  गए।।

एक       घृत     एक आग,
तू   है   शीश   का  सुहाग,
एक  रंग     एक      फ़ाग,
सराबोर      हो        गए।

बिना   राग      क्या विराग,
सजन     से      ही  सुहाग ,
वही  सखी    का    सुभाग,
रंग      में      डुबो     गए।।

💐 शुभमस्तु !

15.07.2020 ◆5.30 अप.


नीके थे जो बीते सावन [ गीत ]

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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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नीके   थे   जो  बीते   सावन।
अब के   रीते  नहीं सुहावन।।

झर - झर झरते  बादल काले।
विरहिन   को तरसाने  वाले।।
कितने थे  वे   सावन  पावन।
नीके  थे  जो    बीते  सावन।।

सिवई  बनतीं सौंधी घर - घर।
काँवरिया  गाते  थे हर - हर।।
लगता था  कितना मनभावन।
नीके  थे  जो  बीते   सावन।।

नागपंचमी   जब  भी  आती।
नाग बना माँ  दूध  पिलाती।।
सिवई - बूरा  चढ़ा  पुजावन।
नीके  थे  जो  बीते  सावन।।

बहनें   लेकर   राखी  आतीं।
बाँध   हाथ  में   पैसे पातीं।।
बाँट भुजरिया हरी सुहावन।
नीके  थे  जो बीते  सावन।।

रुई   सूत    की  राखी लाते।
बच्चों  बहनों   से  बँधवाते।।
सभी पड़ौसी और पड़ौसन।
नीके  थे जो  बीते   सावन।।

पाख- पाख  भर बादल छाते।
सूरत  नहीं   भानु दिखलाते।।
झरतीं बूँदें निशिदिन छनछन।
नीके  थे  जो  बीते   सावन।।

रिंगतीं    पथ   में   वीरबहूटी।
लाल गिजाई   वन    में बूटी।।
एक टाँग  पर  बगुला ध्यावन।
नीके   थे  जो   बीते  सावन।।

छतें टपकती टप टप टप-टप।
कच्ची गिरें  दिवारें  धपधप।।
टिपर -टिपर करते थे छाजन।
नीके   थे जो   बीते  सावन।।

कोयल तब  लगती मतवाली।
कानों   में   वर्षा   रसवाली।।
बाग-  बगीचे  झूमे  वन-वन।
नीके  थे  जो  बीते   सावन।।

💐 शुभमस्तु !

15.07.2020 ◆11.50 पूर्वाह्न।


असल बात कुछ और ही है! [ अतुकान्तिका ]

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✍ शब्दकार©
🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सोने की खूँटी पर
टाँग रखे हैं
शो -केस  के अंदर
सजावट के लिए
दिखावट के लिए,
जिसे कहती है
ये दुनिया 
सिद्धान्त,
औऱ वे सिद्धांतवादी,
नहीं विश्वासघाती।

हो जाता है 
जहाँ सिद्ध का 
सिद्धि का अंत 
है वही सिद्धान्त!
यहाँ तो सभी हैं
सिद्ध महासिद्ध
एक से एक प्रसिद्ध,
उठाया गया पर्दा
तो निकल पड़ा गिद्ध!
सिद्धांतों से बिद्ध!
रुद्ध अवरुद्ध,
नेता अधिकारी 
पीत चीवर धारी 
प्रबुद्ध,
सब गड्ड मड्ड!

सिद्धान्तशाला
सिद्धांत  का मसाला
सिद्धान्त गुरु,
नहीं उपलब्धता दुरूह,
हर क्षण शुरू ,
गली -गली
नगर -नगर
डगर -डगर
ज्यों कली पर भ्रमर,
मधुप्रेमी,
पद सेवी।
देव या देवी!

सिद्धान्त कुछ और
काम कुछ और
करता है कौन गौर?
सब स्वार्थ  के हितार्थ,
वादों में एक वाद
सिद्धान्तवाद।

रसीद लिख दी
ताकि समय पर दे काम,
वैसे सब
 मनमानी  का इनाम,
क्यों करे कोई 
आँय -बाँय 
चाँय -चाँय
अन्यथा वही बस
बची ठांय ठांय!
हाय !   हाय!!

देखते रहिए इन्हें
खूँटी पर टाँगे हुए
सजे हुए
मजे हुए!
ये मात्र देखने के लिए हैं,
प्रदर्शन के लिए,
आँखें कर बन्द
होठों को सिये,
वही करना है,
डर के रहना है,
जो चाहें ये 
सिद्धान्तवादी
कर कर मुनादी
भाड़ में जाए
फरियादी,
 ये बिकाऊ नहीं हैं,
इनके अंदर 
सब 'शुभम' है!
 सही- सही है,
पर बाहर  की
असल बात
कुछ और ही है!
है कुछ और ही,
और ही है कुछ।

 शुभमस्तु !

16.07.2020 ◆6.30 अप.

यदि मैं दादुर होता! [ बालगीत ]

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✍ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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यदि मैं   जल का दादुर होता।
पोखर  में   नटनागर   होता।।

जब मन होता जल में जाता।
कभी सतह पर मैं  उतराता।।
कभी   धरा  पर उछला  होता।
यदि मैं जल का दादुर  होता।

जब पावस की ऋतु  है आती
बादल   से   बूँदें    बरसाती।।
नहीं  कभी  रातों  में  सोता।
यदि मैं जल का दादुर होता।।

रात -रात  भर टर-टर करता।
पोखर भर में हलचल भरता।
दादुर - सुर - संगीत सँजोता।
यदि मैं जल का दादुर होता।।

भूजलचारी   मुझे    बनाया।
धरती - पोखर सभी सुहाया।।
कभी  नहाता   देह भिगोता।
यदि मैं जल का दादुर होता।।

हरी   घास   में  रंग बदलता।
पंक धरा  के सँग मैं ढलता।।
काँटे नहीं  'शुभम'  मैं बोता।
यदि मैं जल का दादुर होता।।

शुभमस्तु  !

13.07.2020 ◆6.00अप.

दादुर टर -टर गाते [ गीत ]

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✍ शब्दकार ©
🐸 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★
देखो   दादुर   टर -टर  गाते!
दादुरियों को  रिझा  बुलाते।।

जब  सावन  के बादल बरसे।
दादुर दल के  मन भी हरसे।।
सरवर   में    संगीत  सुनाते।
देखो  दादुर  टर - टर  गाते!!

जल के  तल  पर बूँदें  झरतीं।
ताल -  पोखरे  सारे  भरतीं।।
धमा -चौकड़ी   भेक  मचाते।
देखो  दादुर   टर - टर  गाते!!

मौन   मेंढकी  बड़ी लजाती।
पास नहीं  मेंढक  के जाती।।
मेंढक   उसे   ढूँढ़   ही लाते।
देखो  दादुर  टर - टर  गाते!!

सुबह हुई  थम जाती टर -टर।
अंडे   तैर   रहे   हैं  जल पर।।
वे  अपना   परिवार  बढ़ाते।।
देखो   दादुर   टर -टर गाते!!

कुछ  दिन  बीते मछली जैसे।
शिशु   दादुर   के  तैरें   ऐसे।।
काले - काले   सर    उतराते।
देखो   दादुर  टर - टर  गाते।।

शुभमस्तु  !

13.07.2020 ★1.15 अप.

रविवार, 12 जुलाई 2020

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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वक़्त के साथ मैं भी बदलता रहा।
दर्द  का  एक    सागर मचलता रहा।।

रौशनी  ज़हन  में तू  ही भरती रही,
मैं  अँधेरे  पथों  में  भी चलता रहा।

आग  ऐसी  लगन   की लगी रूह में,
जैसे सूरज सुबह का निकलता रहा।

टूट कर  न  शजर  से  गिरें  डालियाँ,
रुख सबा का जहाँ में  बदलता रहा।

कितनी मंज़िल मिलीं पर्वतों पर चढ़ा,
राह  पर  गिर  उठा  किन्तु चलता रहा।

खार  भी   खूब  पैरों  में   मेरे चुभे,
मैं भी बचता -बचाता उछलता रहा।

 जो पसीना  बहाया 'शुभम'ने बहुत,
राम  का  नाम ले मैं सँभलता रहा।

💐 शुभमस्तु !
12.07.2020 ◆4.00 अपराह्न।

चैन-चोर [ चौपाई ]

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✍ शब्दकार ©
📱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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चैन - चोर   हमने  भी पाला।
लेना मुश्किल हुआ निवाला।।

सोते - जगते   साथ न  छोड़े।
उठते सुबह युगल कर जोड़े।।

प्रथम  प्रणाम चोर की सरना।
झरता समाचार   का झरना।।

चित्र  भेजते    सुप्रभात   का।
उपदेशों की  बड़ी   बात का।।

चैन   चुराया  मन   का सारा।
मोबाइल  से   मानव   हारा।।

खबरें  ,चित्र ,वीडियो  नाना।
सबने अपना सद्गुरु  माना।।

झूठी -  साँची   दुर अफवाहें।
आ जातीं   सारी   अनचाहें।।

कितना  भी  हम उन्हें हटाएँ।
एक हटे  सौ-सौ   आ जाएँ।।

दिन भर उनकी करो सफ़ाई।
देव -  देवियाँ    दिए मिटाई।।

अनुमति लिए बिना हम जोड़े
कैसे    उनसे    नाता   तोड़ें।।

सब  सँदेश  उनके तुम जानो।
मानो   चाहे  भले  न  मानो।।

जब तक   चोर जागता रहता।
छेड़-छेड़ कर कुछ भी कहता

न्यूज़ पटल बन गए खबरिया।
जानो उनकी न्यूज़ जबरिया।।

जाति , धर्म   के  मंच सजे हैं।
कवियों   के भी  बड़े मजे हैं।।

सारे   दिन   सम्मेलन चलते।
सो  जाते हैं   सूरज   ढलते।।

मज़ेदार   बहसें  भी  चलतीं।
तू-तू   मैं-मैं   भारी ख़लतीं।।

मैं जब कविता उन्हें सुनाता।
पढ़कर वह गूँगा बन जाता।।

शब्द न  एक   बदन  से फूटे।
तब हम   अपना  माथा कूटे।।

भैंस  सामने   बीन   बजाई।
भैंस समझती   सानी आई।।

लेटी  भैंस   खड़ी    पगुराई।
उसे न  भाती  ये  कविताई।।

अंधे -  गूँगे   देखे     कितने।
पढ़े -  बेपढ़े   सम  हैं इतने।।

मजबूरी  जन   की जिज्ञासा।
चाहें   गूँगी   ज्ञान -पिपासा।।

बेशर्मी      इतनी    है    छाई।
बहरी   बहिना    अंधे  भाई।।

संततियाँ    चौपट   हैं  सारी।
घर -घर   में  फैली बीमारी।।

सत्यानाश  किया   शिक्षा का।
बालक  है  अपनी इच्छा का।।

पढ़ने का   मजबूत   बहाना।
मकड़जाल मोबाइल ताना।।

आज्ञापालन   स्वप्न  हो गया।
चरित जहाँ से हवा खो गया।।

अतिथि कभी घर जो आ जाए।
सन्नाटे  में   घर   को   पाए।।

हाथ   मोबाइल  लिए पड़े हैं।
सोफा कुर्सी  मगन  खड़े हैं।।

चाय  - नाश्ता  मिले न पानी।
होती नहीं  मित्र - अगवानी।।

आपस    में   सब   गूँगे  ऐसे।
साँप   सूँघकर  निकला जैसे।

चहल - पहल की हुई विदाई।
चैन-चोर   ने  नींद     चुराई।।

आता   चैन   बन्द  जब होता।
सुखद शांतिका खुलता सोता

दुनिया   मोबाइल  के   पीछे।
पागल   अपनी   दोनों मींचे।।

सब   मोबाइल    बुरा बताते।
फिर भी उस पर नेह जताते।।

चैन -   चोर    ने चैन चुराया।
हर घर सबने   गले लगाया।।

💐 शुभमस्तु !

11.07.2020 ◆7.15 अपराह्न।

शनिवार, 11 जुलाई 2020

सावनी खोया झूला [कुण्डलिया]

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✍ शब्दकार©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                        -1-
सावन में  झूले  पड़े ,  कजरी गीत  मल्हार।
गाएँ   सखियाँ  बाग में, छाई मेघ बहार।।
छाई मेघ बहार, गरजते  बरसे बादल।
झर झर  झरती बूँद , हवा मदमाती पागल।।
'शुभम'तड़कती बीजु,बनी है धरती पावन।
राखी का त्यौहार, मगन हो बरसा सावन।।

                       -2-
झूला झूलें राधिका,झोंटा दें घनश्याम।
चुहल करें प्यारी सखी,देख युगल अभिराम
देख युगल अभिराम चिकोटी काट कमरिया
उचकी राधा तेज,न जानी बात सँवरिया।।
'शुभम'पूछते बात,देख राधा को ऊला।
चींटी काटी एक, बताया राधा झूला।।

                      -3-
डाली विटप कदंब की,यमुना तीर ललाम।
राधा  झूला झूलतीं, सँग में प्यारे   श्याम।।
सँग में प्यारे  श्याम,कंध के बंध   लगाए।
सोहें  विद्युत मेघ, मोरपख शीश  सजाए।।
'शुभम'देख वह रूप,मुदित सखियाँ दें ताली।
वंशी   की  सुन टेर, मोर नाचे हर   डाली।।

                     -4-
चंचल चितवन डालके,गही कान्ह की बाँह।
पौरी  में  से  ले गई,राधा  तरु की  छाँह।।
राधा तरु की छाँह,अधर हँसि के कुछ बोली।
लेकर के घन कुंज,भरी कान्हा  की  कोली।।
'शुभम'सुहाना भोर,मोर का शोर दिगंचल।
झूलेंगे हम श्याम,चारु चलते चित चंचल।।

                       -5-
झूला माँ की  गोद का,  रहता सदा बहार।
बाँहों की दो डाल पर,गाता गीत मल्हार।।
गाता गीत मल्हार, स्वर्ग  में पुत्र  झुलाता।
जीवन भर की याद,बाँह का झूला लाता।।
'शुभम' भले  ही आज,आदमी ऐसा  भूला।
झूले  रहे  न  डाल, सावनी खोया  झूला।।

💐 शुभमस्तु!

11.07.2020 ◆4.00अप.

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...