सोमवार, 31 जुलाई 2023

धर्म की धूल नहीं है ● [ गीतिका ]

 329/2023

 

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●  ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चलें सँभलकर चाल,समय अनुकूल नहीं है।

कागा  बना   मराल, महकता फूल   नहीं  है।।


परपीड़क  हथियार,  हाथ में चमकें  नर  के,

वाणी  बनी  कुठार, हृदय  में ऊल   नहीं  है।


नहीं   देशहित   भाव, तिजोरी भरते     नेता,

घावों  का  ही  चाव,संत सम तूल   नहीं   है।


कहाँ  सुरभिमय  भोर,  विश्व में    हाहाकारी,

दानव-सा   बरजोर,  शांति आमूल  नहीं  है।


छाया    हिंसाचार  , मरी  नैतिकता       देखो,

बढ़ता  नित व्यभिचार,धर्म की धूल  नहीं है।


पाटल  वेला  नाम,  किताबों में   मिलते    हैं,

सुमन  हुए   बेकाम,  सुकोमल  शूल  नहीं है।


'शुभं'व्यथित मन नित्य,देख सुन हाल देश का,

कहाँ  गया  जन-सत्य, दैव की भूल  नहीं  है।


●शुभमस्तु !


31.07.2023◆7.45आ०मा०

कागा बना मराल ● [ सजल ]

 328/2023

     

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●समांत  : ऊल.

●पदांत : नहीं है.

●मात्राभार :11+13=24.

●मात्रा पतन:शून्य.

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●  ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चलें सँभलकर चाल,समय अनुकूल नहीं है।

कागा  बना   मराल, महकता फूल   नहीं  है।।


परपीड़क  हथियार,  हाथ में चमकें  नर  के,

वाणी  बनी  कुठार, हृदय  में ऊल   नहीं  है।


नहीं   देशहित   भाव, तिजोरी भरते     नेता,

घावों  का  ही  चाव,संत सम तूल   नहीं   है।


कहाँ  सुरभिमय  भोर,  विश्व में    हाहाकारी,

दानव-सा   बरजोर,  शांति आमूल  नहीं  है।


छाया    हिंसाचार , मरी नैतिकता   देखो,

बढ़ता  नित व्यभिचार,धर्म की धूल  नहीं है।


पाटल  वेला  नाम,  किताबों में   मिलते    हैं,

सुमन  हुए   बेकाम,  सुकोमल  शूल  नहीं है।


'शुभं'व्यथित मन नित्य,देख सुन हाल देश का,

कहाँ  गया  जन-सत्य, दैव की भूल  नहीं  है।


●शुभमस्तु !


31.07.2023◆7.45आ०मा०

शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

अनगढ़ ● [अतुकान्तिका ]

 327/2023

          

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अनगढ़ माटी का

पुतला था

तू मानव,

गढ़ -गढ़

सुघड़ बनाया 

उस कर्ता ने,

मान सदा आभार।


क्षण -क्षण

तुझे सँवारा,

कण-कण 

नया दिया है,

उस प्रभु का

उपकार मान,

जिसके बलबूते पर

जीवन है उपहार।


तेरा कुछ भी नहीं

दिया वही सब,

धरा, तेज ,आकाश,

अनल, नीर ,सद वायु 

सदा ही देते हैं आकार,

अलग हैं जिनके

रूपाकार।


अंशी का 

तू अंश तुच्छतम,

कैसी तेरी अकड़ 

भरित अहं,

स्वयं बनाता

भेद भीति भ्रम,

हो जाता पल क्षार,

अरे धरा के भार।


सुप्त मनुजता

करे 'शुभम्' क्यों,

 मूढ़ जाग जा

अब तो जड़ता त्याग

सदा की,

वरना सब बेकार।


●शुभमस्तु !


28.07.2023◆6.30आ०मा०

लगें पुस्तकें हमको प्यारी ● [ बालगीत ]

 326/2023

 

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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लगें  पुस्तकें  हमको  प्यारी।

ज्ञानदायिनी  गुरु  हैं न्यारी।।


डाँटे   बिना   ज्ञान   वे  देतीं।

नहीं शुल्क मासिक वे लेतीं।।

करवाती   हैं    सब    तैयारी।

लगें  पुस्तकें  हमको  प्यारी।।


सभी समय वे साथी  होतीं।

सदा जागतीं कभी न सोतीं।।

नहीं  पीठ पर  लदतीं  भारी।

लगें  पुस्तकें हमको   प्यारी।।


जब चाहें   तब पुस्तक पढ़ते।

नव  सोपानों  पर हम चढ़ते।।

हमें   बनातीं   सद - आचारी।

लगें  पुस्तकें  हमको  प्यारी।।


नहीं   ऐंठतीं   कान    हमारे।

लाल न करतीं गाल  दुलारे।।

पूछें   उनसे   कितनी   बारी।

लगें  पुस्तकें  हमको  प्यारी।।


'शुभम्'न कहतीं जल्दी जागो।

लाद पीठ पर   बस्ता  भागो।।

चपत न एक  गाल  पर मारी।

लगें  पुस्तकें   हमको प्यारी।।


● शुभमस्तु !


27.07.2023◆7.15आ०मा०

बुधवार, 26 जुलाई 2023

मानव तन उपहार है ● [ दोहा]

 325/2023

  

[ दर्पण,उपहार,विराम हरा-भरा,समीर]

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ● सब में एक ●

जमी धूल मुख पर घनी, दर्पण माँजें लोग।

मन के भीतर क्यों नहीं, झाँक रहे ये रोग।।

कहता है दर्पण वही,जो मुख  पर  है  दृश्य।

मुख का  रूप सँवारिए, यही तुम्हारे   वश्य।।


मानव-तन उपहार है, दुर्लभ  प्रभु  की  देन।

कर्मों  से  उद्धार   कर, सुधरेगी  तब    सेन।।

पाता  है उपहार   जो,पड़े चुकाना    मोल।

वाणी  सदा  सँवारिए,बोल नहीं   अनतोल।।


आदि सभी निज जानते,ज्ञात न पूर्ण विराम।

शुभ कर्मों को कीजिए,हों विशेष  या आम।।

यति,योजक मत भूलिए,और न चिह्न विराम।

शब्द-शब्द रचना करें,सब आते   हैं   काम।।


हरा-भरा संसार है,जिसको है सुख - शांति।

अहित कर्म करना नहीं,मिले सदा मुख-कांति।

हरा-भरा अंतर  नहीं, सूखा  सब    संसार।

मन में हरियाली  भरें,कर सुकर्म  सुविचार।।


पावस सावन भाद्र में,बहता सुखद  समीर।

मोर बाग-वन नाचते,विरहिन बहुत अधीर।।

जीवन चले समीर से,वही प्राण  का  रूप।

दस प्राणों की त्राण का, साधक है तन-भूप।।


       ● एक में सब ●

हरा-भरा   उपहार    है,

                     नर- तन जीव समीर।

कब विराम  इसका  सखे,

                       उर - दर्पण की पीर।।


● शुभमस्तु !


26.07.2023◆6.30आ०मा०

ज़ालिम जलन ● [ कुंडलिया ]

 324/2023

        

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● © शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                       -1-

जलते जिंदा देखकर, पर धन, तीय, सुधाम।

होता जिनकी प्रगति का,नित ही पूर्णविराम।।

नित  ही  पूर्णविराम, न उनको  मित्र  सुहाता।

देख आग की ज्वाल, सदृश उर में भुन जाता।।

'शुभम्' न प्रगटे ताप, हाथ गुपचुप नित मलते।

दुर्जन  की पहचान , नारि - नर   ऐसे  जलते।।


                        -2-

जलता जिसको देखकर,जिंदा मानुस  एक।

होना  वैसा  चाहता, काम  न करता   नेक।।

काम न करता नेक,रात -दिन यों ही  जलना।

जले पड़ौसी देख,सदा करता ही    छलना।।

'शुभम्' हंस की चाल,काग मुड़गेरी  चलता।

दर्पण रहा निहार,स्वयं को छलता  जलता।।


                      -3-

जलता  जन अंगार बन,होता पहले  खाक।

बढ़ती देखे और की, कटती उसकी नाक।।

कटती उसकी नाक, नहीं वैसा  बन पाता।

अवसर पाता हाथ, फाड़ता उसका  छाता। 

'शुभं'फोड़ निज आँख,शगुन शुभ काला करता

धुआँ  उठे  घनघोर,मूढ़ अंतर में  जलता।।


                        -4-

जलते-जलते जल गई, मूढ़ जनों की देह।

इस-उसकी चुगली करें,नहीं किसी से नेह।

नहीं  किसी से नेह,चाहते सुख   वे अपना।

नर-नारी  मतिहीन,देखते कोरा   सपना।।

'शुभम्'  बचाए राम,नहीं सँग में  वे  चलते।

मार टाँग  की ठेस,जी रहे जलते - जलते।।


                        -5-

जलती  नारी  नारि  का,देख सुहाना   रूप।

आभूषण या  शाटिका,भावे क्यों यश - यूप।।

भावे  क्यों  यश -यूप, नारि की नारी   आरी।

मुख  में नहीं  प्रसून, निकलती उर  से  गारी।।

'शुभम्'सहज ये भाव,सास निज वधुएँ छलती।

यही  सनातन साँच, नारि आजीवन  जलती।।


●शुभमस्तु !


25.07.2023◆1.30प०मा०

पावस -प्रदाय● [ दुर्मिल सवैया ]

 323/2023

      

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छंद-विधान:

1.24 वर्ण का वर्णिक छंद।

2.आठ सगण सलगा =(II$ ×8).

3.12,12 वर्ण पर यति।प्रत्येक चरण में 24 वर्ण।

4.अंत में समतुकांत अन्त्यानुप्रास।

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

बरसे घन सावन मास धरा,

                   अब प्यास बुझी धरती न तपे।

निज आँचल खोलि जु मौन पड़ी,

                 लगती कर जोरि सु स्याम जपे।।

हरिताभ  नए  अँखुआ  उगते,

                       सर दादुर वेद पढ़ें मन से।

छत से  जलधार  पनार  चले,

                    नटती तरुणी पिय वाचन से।।


                        -2-

पिक मौन नहीं नचि मोर रहे,

                    वन -बागनु में न  पड़े झुलना।

अब पावस  धूम  मचाइ  रही,

                  तिय नेंक नहीं पिय को भुलना।।

भरि खेत गए सरि ताल सभी,

                   खग ढोर सुखी नर नारि सुखी।

तरु बेल   गईं  लिपटाय  नई,

                 पति -बाट निहारि रहीं सुमुखी।।


                        -3-

सरिता  मरजाद  तजी अपनी,

                       बढ़ती चढ़ती नित जाइ रही।

अँचरा   धुँधलाइ  गए तन के,

                  अपनी धुन में सुनती न कही।।

बस टेक यही मिलना निधि से,

                   रुकना - थकना अनजान सदा।

पग चंचल  तेज  चलें  अपगा,

                     मुड़ के न लखे सरिधार कदा।।


                        -4-

जमुना बल खाइ चढ़ी इतनी,

                   बिंदरावन -बाग रलीं  गलियाँ।

पद बाँक बिहारिक छुइ लिए,

                  पुनि लौटि चलीं करतीं रलियाँ।।

उर में इक भाव उगौ जमुना,

                    पद -पंकज आजु छुएं चलि कें।

हरषाइ  रही   लहराय  चली,

                    पद -रेणु लई धुलती मलि कें।।

 

                        -5-

भुटिया निज केशनु खोलि खड़ी,

                       सिर पै हरिताभ नई कलगी।

तन शाटिक' मंजु सुकोमल है,

                      दुलराइ रही मकई   फुनगी।।

नव कोमल दुग्ध भरी खिलती,

                      रदनावलि पीत  बुलाइ  रही।

नित खेतनु में शुचि लास्य करें,

                       मधुराधर मोदमई  सु-मही।।

          

● शुभमस्तु !


25.07.2023◆12.30

पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 25 जुलाई 2023

तैरें कागज़ -नाव ● [ गीत ]

 22/2023


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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गिरा खेत में

वर्षा का जल

तैरें कागज़ - नाव।


निकल घरों से

आए बालक

अनगिन खेलें खेल।

आँख मिचौनी

हरियल डंडा

कभी चलाते रेल।।


ऊँच - नीच का

नहीं हृदय में 

जागा मैला भाव।


कागज़ मोड़ा

नाव बनाई

जल तल पर लहराय।

जल प्रवाह के

संग बहे वह

जिधर हवा ले जाय।।


सबको अपनी

नौका खेने 

का उर में अति चाव।


हँसते -खिलते

नाव चलाते

निश्छल मन सह मेल।

किसकी आगे

नाव चलेगी

ईंधन  बिना न तेल।।


जीवन भी ये

कागज़ -नैया

भरें  न  यहाँ  कुभाव।


●शुभमस्तु !


24.07.2023◆11.00प०मा०

कठिनाई ● [ चौपाई ]

 321/2023

          

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● © शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नाव नई हो या कि पुरानी।

आती सबको नहीं चलानी।।

बड़ी -बड़ी आतीं कठिनाई।

होते   साहस   धैर्य   सहाई।।


चलते -चलते  अनुभव आते।

कभी सफल-असफल हो जाते।।

कठिनाई  से   मत  घबराना।

धी विवेक   से  बढ़ते  जाना।।


जोश रहे पर होश न खोना।

अपने पथ में शूल  न बोना।।

तभी  दूर  होती   कठिनाई।

कर्मठता  की   महिमा गाई।।


यौवन अनुभव- शून्य वृथा है।

असफलता की यही कथा है।

कठिनाई अनुभव   से  जाती।

कर्मशील के   पास न आती।।


बचपन में   दायित्व   न होते।

कठिनाई   के   बीज न बोते।।

ज्यों -ज्यों यौवन आता जाता।

कठिनाई का  ताप  सताता।।


वृद्ध जनों   की   यही महत्ता।

घर भर की समरस हो सत्ता।।

पल   में   दूर   करें   कठनाई।

उन्हें   पूँछते    करें   मिताई।।


'शुभम्' दीप   सब वृद्ध हमारे।

तम में   बनते    सदा सहारे।।

पास न   आने   दें  कठिनाई।

दिवस-निशा या जून जुलाई।।


●शुभमस्तु !


24.07.2023◆11.45आ०मा०

दुनिया में शृंगार न होता! ● [ गीत ]

 320/2023


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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दुनिया   में   शृंगार  न होता।

रंग-भेद फिर  भार न होता।।


दुलहन   नहीं    ढूँढते   गोरी।

भले न हो तन-मन की कोरी।

आजीवन पति  रोता - धोता।

दुनिया  में  शृंगार  न  होता।।


रूज़,क्रीम,बिंदिया या लाली।

नाक न होती  नथनी   वाली।

न ही कान का झुमका खोता।

दुनिया में   शृंगार  न   होता।।


मुखनिखार-गृह कद्र न होती।

काली गाल न कभी भिगोती।

दुग्ध - क्रीम  में  लगता गोता।

दुनिया   में   शृंगार  न होता।।


हुई  आज तक भैंस न गोरी।

कैसे हों फिर  पय-सी छोरी।

भैंसा  बीज   गाय  के बोता।

दुनिया में   शृंगार  न होता।।


चूड़ी, पायल, कँगना, नथनी।

मंगल-माला    पड़े   पहरनी।

क्रय कर सोना साजन रोता।

दुनिया में   शृंगार   न  होता।।


नहीं  रूठती   पति   से नारी।

होती  नहीं  पुरुष   से   भारी।

कंचन नींद   चैन   की  सोता।

दुनिया में    शृंगार  न  होता।।


'शुभम्' मखमली नर का फंदा।

नारी का तन -मन कर गंदा।

नाटक स्वयं पुरुष संजोता।

दुनिया  में शृंगार  न होता।।


● शुभमस्तु!


24.07.2023◆ 10.30 आ०मा०

मनकामेश्वर - पूजा● [ गीतिका ]

 319/2023

 


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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तड़ित तड़पती तड़-तड़,अंबर घटा-घटा।

मेघ-गर्जना   गड़-गड़, छाई छैल    छटा।।


शिवालयों   के  घण्टे ,बजते घनन -  घनन,

भक्ति - भाव  के  झंडे,परिसर प्रमन  पटा।


भर  गंगाजल  काँवड़,  लाते भक्त   सभी,

धरते  हैं  पग  बढ़-बढ़, नमः शिवाय  रटा।


युवा,   किशोर, किशोरी,भीड़ हजारों  की,

प्रौढ़,   वृद्ध, नर,  नारी, दर्शन हेतु   डटा।


मनकामेश्वर - पूजा,  करने आये     भक्त,

शिव  से  और  न  दूजा,तन से गात  सटा।


सोमवार  सावन के,मनभावन दिन   देख,

तन-मन  कर  पावन  वे,उर अन्यत्र   हटा।


'शुभम्'   सनातन    प्यारे, भोले   भंडारी,

दानी   अवढर  न्यारे,  खाते आक    गटा।


●शुभमस्तु !


24.07.2023◆6.15 आरोहणं मार्तण्डस्य।


सोमवार सावन के● [ सजल]

 318/2023

 

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●समांत : अटा 

●पदांत : अपदान्त।

● मात्राभार : 12+10=22.

●मात्रा पतन :शून्य।

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तड़ित तड़पती तड़-तड़,अंबर घटा-घटा।

मेघ-गर्जना   गड़-गड़, छाई छैल    छटा।।


शिवालयों   के  घण्टे ,बजते घनन -  घनन,

भक्ति - भाव  के  झंडे,परिसर प्रमन  पटा।


भर  गंगाजल  काँवड़,  लाते भक्त   सभी,

धरते  हैं  पग  बढ़-बढ़, नमः शिवाय  रटा।


युवा,   किशोर, किशोरी,भीड़ हजारों  की,

प्रौढ़,   वृद्ध, नर,  नारी, दर्शन हेतु   डटा।


मनकामेश्वर - पूजा,  करने आये     भक्त,

शिव  से  और  न  दूजा,तन से गात  सटा।


सोमवार  सावन के,मनभावन दिन   देख,

तन-मन  कर  पावन  वे,उर अन्यत्र   हटा।


'शुभम्'   सनातन    प्यारे, भोले   भंडारी,

दानी   अवढर  न्यारे,  खाते आक    गटा।


●शुभमस्तु !


24.07.2023◆6.15 आरोहणं मार्तण्डस्य।

बदली -बदली-सी लगती माँ ● [ बाल गीतिका ]

 317/2023


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● © शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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बदली-बदली-सी  लगती  माँ।

रंग-बिरंगी  जब   सजती माँ।।


काली   से   गोरी   हो  जाती,

रगड़ चाम जब तुम धुलती माँ।


सुबह  और   ही  रूप तुम्हारा,

अलग रात को तुम फबती माँ।


मुख पर  क्रीम  सफ़ेदी  पोतो,

लाल अधर  में हो खिलती माँ।


मामा    जैसी   कला बदलती,

पूनम जैसी   तुम  खुलती माँ।


दादी की   नजरों  में   डाहिन,

गुपचुप पापा   से  छनती माँ।


बाबा - दादी    तुम्हें   न  भाते,

नाना -  नानी  से  मिलती माँ।


सबको संतति   अपनी प्यारी,

औरों से  हो  क्यों जलती माँ?


'शुभम्' समझना  गूढ़ पहेली,

बड़ा कठिन है हर चलती माँ।


● शुभमस्तु !


23.07.2023◆4.00प०मा०

यदि न कहीं मेक 'प होता! ● [ गीत ]

 316/2023

  

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बदला होता

दृश्य घरों का

यदि न कहीं मेक 'प होता।


दीवारों पर

जैसे कोई

चूना  पोत  रही नारी।

असली रूपसि

छिपी क्रीम तल

रदपुट रक्त बहा भारी।।


सजा पीठ पर

जीन सुसज्जित

ठुमक-ठुमक चलता खोता।


मुखड़ा अपना

जा सुधार गृह

नारी नहीं कभी जाती।

खाली होती

जेब न पति की

लाली रूज़ नहीं लाती।।


मँहगाई की

मार न पड़ती

छिपा अश्रु साजन रोता।


ठगने को ही

नर ने नारी

आभूषण  खोजे  सारे।

'लगती हो तुम

बड़ी सोहणी'

मोहक काम-बाण मारे।।


ठगी गई

वह भोली बाला

पथ में शूल पुरुष बोता।


'चंद्रमुखी तुम

गजगामिनी तुम

कमर ततैया-सी प्यारी।'

'अवगुंठन में

पाटल - कलिका

देख बुद्धि मेरी मारी।।'


'ऊभ -चूभ मन

करता मेरा

खाता मैं निशि -दिन गोता।


स्वर्ण -शृंखला 

में मैंने ही

बाँधा  है  बाले  तुमको।

वसन मखमली

 में नारी - तन

है लपेटता नर बम को।।


'शुभम्' स्वार्थ में

लिपटे दोनों

समझे गात सुखद-सोता।


●शुभमस्तु !


23.07.2023◆3.30प०मा०

शनिवार, 22 जुलाई 2023

प्रश्न? ● [अतुकान्तिका]

 315/2023

             

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 ●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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प्रश्नों का जंगल

वे मुँहबाए - से

खड़े हुए,

किसी अदृष्ट शक्ति की

प्रतीक्षा में पड़े हुए!

किंतु सब निरर्थक

सब कुछ निर्रथक।


आस्तीन के साँप

देशद्रोही

इश्क के मोही,

छद्म 'सीमाओं' में

बँधे हुए,

उबारने वाले शिकंजे

प्रश्न-शूलों में

उलझे हुए।


बाड़ ही

खेत को खाये जाए,

है कोई उपाय?

 नहीं चलेगा काम

चिल्लाने से हाय! हाय!!

और उधर तुम

गाते रहे 

गीता, गंगा, गायत्री, गाय!


नारी का मोह-जाल

आज पूरा देश ही बेहाल

 भविष्य पर उठते सवाल,

कहाँ भारत 

पाक या नैपाल,

'विनायक' और 'गणेश' भी

नहीं जान पाए कुचाल,

'वे' पात - पात

 तुम भटक रहे डाल -डाल!

देश में चल रहा 'भूचाल'!


ढाक के तीन पात,

नौ दिन चले अढ़ाई कोस,

एक ही 'छली' 'मछली'

काफ़ी है तालाब में 

बदबू फैलाने के लिए,

मछली के जाल में

कितने -कितने जा फँसे!


विडम्बना है देश की

'शूलों'  के 

बदले हुए वेश की,

तुलसी पूजा से

साड़ी सिंदूर में

 गन्धित केश की,

मचते हुए बवाल की,

प्रश्न अभी ज्यों के त्यों

बने हुए रहस्य!

ठगे - से खड़े हैं!


● शुभमस्तु !


21.07.2023◆6.00आ०मा०

बरसात ● [गीत ]

 314/2023

               

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आया सावन

झूम  - झूम कर 

खुशियों  की बरसात।


खोले आँचल 

धरा पड़ी है

तन में  सुलगी आग।

कौन दिशा से

आए  जलधर

खुल जाएँ तब भाग।।


सूरज ने नित

तपा -तपा कर

खाक किया है गात।


श्यामल बाँहें

श्यामल ही तन

लिया बाँध भुजबंध।

देखा लेश न 

न ही रात -दिन

बना हुआ  घन अंध।।


बेबश धरती

किया समर्पण

हुई साँझ से प्रात।


उगते अंकुर

हरे -हरे नव

तृप्त धरिणि का कण -कण।

मन ही मन में

मुदित मेदिनी

हुई उल्लसित क्षण-क्षण।।


गरज -गरज कर

चकाचौंध कर

खिला सुमन जलजात।


●शुभमस्तु !


19.07.2023◆12.45 पतनम मार्तण्डस्य।


सावन ● [ दोहा ]

 313/2023

               

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सावन की महिमा बड़ी,प्रकृति में  चहुँ ओर।

हरे-हरे   अंकुर  उगे,  नाच  रहे  वन   मोर।।

राखी   रक्षासूत्र   की ,लेकर भ्राता  -  धाम।

सावन में भगिनी चली,पावन भाव सकाम।।


सावन में  झूले नहीं,कजरी गीत   मल्हार।

वीरबहूटी   खो गईं, बचा न पहला  प्यार।।

सावन पावन  मास है,समझें मीत   सुजान।

खेत  जोतने जा रहे,देखो कृषक    महान।।


सावन  की  काली घटा, चपला चमके   मीत।

हिय में विरहिन काँपती,तन थर-थर ज्यों शीत

सावन को प्रिय श्रावणी,शुभ हरियाली  तीज।

नागपंचमी  नेह की,उर में तनिक    पसीज।।


सावन के  सत्कार  में, उमड़े मेघ     हजार।

चमके  चपला   साथ में, देती है   ललकार।।

सावन  आया लौटकर, आया नहीं  किसान।

बिना  जुती  धरती  पड़ी,करे बीज का दान।।


सावन    क्यों  सूखे   रहें, भीगें   कैसे   चीर।

जब तक प्रिय घर में नहीं,अँगना-हृदय अधीर।

सावन की सुषमा बढ़ी, हरियाली  चहुँ  ओर।

अम्बर में घन झूमते,दिखे न रवि  की   कोर।।


सावन सहज सुहावना, शुचिता  सद्य   सुरम्य।

सर-सर शीतल सलिल सर,शुभदा कृपा अनन्य


●शुभमस्तु !


19.07.2023◆7.15आ०मा०

सत्कर्मों से चारुता ● [ दोहा ]

 312/2023

  

[अम्बुद,नटखट,प्रार्थना,चारुता,अभिसार]

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         ●  सब में एक ●

सावन  में  अंबुद घिरे,मिटी धरा  की  प्यास।

हर्षित हैं नर - नारियाँ,अतिशय बढ़ती आस।।

श्यामल  अंबुद की घटा, उमड़ी  चारों ओर।

अंकुर    प्यासे   झूमते,  वन  में  नाचें   मोर।।


गलियों में  हर्षित सभी, नटखट बालक  मीत।

नहा  रहे   हैं  नग्न  हो,गा पावस    के   गीत।।

किसका  बचपन लौटता, वापस  एक न रंग।

नटखट पन  भूला सभी, चालाकी  का संग।।


सुनते हैं प्रभु प्रार्थना,भावों से  अभिषिक्त।

मन  होना ही चाहिए, करें नहीं  नर  तिक्त।।

नहीं प्रार्थना कीजिए,जो छल, कपटी ,कूर।

अहंकार  में  लिप्त हो, रहना उससे    दूर।।


आती  है शुचि चारुता, सत्कर्मों  से  जान।

जीवन  वैसा  ही  बने ,हो यदि कर्म  महान।।

पति-पत्नी की चारुता,होती   सह सद्भाव।

कपट नहीं उर में रखे,किंचित मीत दुराव।।


चली चाँदनी रात में,करने प्रिय- अभिसार।

श्वेत शटिका देह धर, पहले कर  सुविचार।।

रोक नहीं कोई सके,प्रेयसि का अभिसार ।

नित उपाय  लाखों करे,नहीं मानती  हार।।


        ●  एक में सब  ●

नटखट  अंबुद  शून्य  में,

                            करने भू - अभिसार।

स्वीकारें     तप   - प्रार्थना,

                         कर चारुता    विहार।।


● शुभमस्तु !


19.07.2023◆6.45अरोहम मार्तण्डस्य

मंगलवार, 18 जुलाई 2023

सुमति विराजे गेह ● [ गीतिका ]

 311/2023

   

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम्'

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नाम न तम का शेष, होता जहाँ  प्रभात।

गिरें  गर्त  में मेष, आ जाती जब   रात।।


बोलें  वहीं  उलूक,  मिलता नहीं   प्रकाश,

हंस  रहें  सब  मूक, बहे  ज्ञान की   वात।


सदा  पतन  का  हेत,नर-नारी ही   सदा,

वे  घर   सूखे   रेत,जहाँ चरित का  पात।


उठता नहीं समाज, शिक्षा-ज्योति-अभाव,

कभी-कभी  ही  तात,उगता है  जलजात।


नहीं  जनक  का मान,करती संतति   लेश,

जीवन   नर्क   समान ,सदा भोगती   घात।


मनुज - देह  ज्यों  ढोर,जहाँ न सेवा - भाव,

होता  वहाँ न भोर,  सचल मृत्तिका   गात।


'शुभम्' महकते  फूल,सुमति विराजे  गेह,

रहे न देह - दुकूल,  पड़े  पिता पर   लात।


●शुभमस्तु !


17.07.2023◆5.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

होता जहाँ प्रभात ● [ सजल ]

 310/2023

 

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●समांत  : आत

●पदांत : अपदान्त।

●मात्राभार :22.

●मात्रा पतन:शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम्'

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नाम न तम का शेष, होता जहाँ  प्रभात।

गिरें  गर्त  में मेष, आ जाती जब   रात।।


बोलें  वहीं  उलूक,  मिलता नहीं   प्रकाश,

हंस  रहें  सब  मूक, बहे  ज्ञान की   वात।


सदा  पतन  का  हेत,नर-नारी ही   सदा,

वे  घर   सूखे   रेत,जहाँ चरित का  पात।


उठता नहीं समाज, शिक्षा-ज्योति-अभाव,

कभी-कभी  ही  तात,उगता है  जलजात।


नहीं  जनक  का मान,करती संतति   लेश,

जीवन   नर्क   समान ,सदा भोगती   घात।


मनुज - देह  ज्यों  ढोर,जहाँ न सेवा - भाव,

होता  वहाँ न भोर,  सचल मृत्तिका   गात।


'शुभम्' महकते  फूल,सुमति विराजे  गेह,

रहे न देह - दुकूल,  पड़े  पिता पर   लात।


●शुभमस्तु !


17.07.2023◆5.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

टमाटर खेल ● [ गीतिका ]

 309/2023

 

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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टमाटर,   टमाटर ,   टमाटर खेल।

बनाकर   सजाकर   समांतर रेल।।


तिजोरी ,   तिजोरी ,  तिजोरी गैल,

धनिकों  से   करता   बराबर मेल।


मिलता  गरीबों   को   आटा दाल?

जुटाए   कैसे  जु  टका  भर तेल।


चटनी,  न  लॉजी, न  कोई सलाद,

सासु  माँ  सजाए  सु-लॉकर मेल।


आमों    से     दूर   सेवों  का  संग,

गरमी    मंडी    में   सब्जाघर फेल।


प्यादा   से    फर्जी   बन टेढ़ी चाल,

कवियों  पर  न फ़िके बनाकर ढेल।


छूते    अंबर     को   मनमाने  भाव,

कहता     हर कोई    घटाकर सेल।


बैठा   चढ़    ऊपर      टोमेटो अब,

लाली   बिन   खाली   बराबर ठेल।


चंडीगढ़ ,अल्लीगढ़, सब्जी फड़ देख,

'शुभम्'  सब्जी  की  भयातुर डिरेल।


●शुभमस्तु !


16.07.2023◆ 12.15 आ०मा०

आरती श्रीटमटा नंद ● [ चौपाई ]

 308/2023

     

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जय  -   जय       टमटानंद  हमारे।

अरुण   वसन   तुम  तन पर धारे।।

सब्जी   से   फल   तुम  बन छाए।

आम  -   खास   ने    गले  लगाए।।


हरा    मुकुट   तव  शुभ सिर सोहे।

जो    देखे      उसके     मन  मोहे।।

गोलमटोल     रूप      तुम  धारी।

हुए   वजन    में   अब तुम भारी।।


आरति       करति    तोरई   माई।

मंडी       में      तव     है  प्रभुताई।

आलू        बैंगन      तुम्हें    मनावें।

जो      अपने    घर  वापस  आवें।।


करें       सेव        तुम्हरी   सेवकाई।

हाथ         जोड़ते      लोग - लुगाई।।

टमटानंद           मना       पखवारा।

धारण     मौन   किया  अति भारा।।


पेंदी      बिना     रूप -  रँग भोला।

ऊपर     नीचे      से     तुम गोला।।

उच्चासन     तुमने     निज कीन्हा।

अब     तक  पद हमने कब चीन्हा।।


सब्जी      के   घर    तुम जन्माये।

फलघर    शोभा     तुम्हीं बढ़ाये।।

तुम्हें    देख    सब्जी   जल जाए।

क्यों  तुम  अस   उच्चासन  पाए।।


बैंगन      गोभी       घिया  करेला।

ठेले        पर        इतराता   केला।।

सेवों     के       सँग     सेवा  पाते।

आलू      देख        तुम्हें  ललचाते।।


साधु   वेश    धर    तुम  हो छाए।

मुँह   में     पानी     भर - भर आए।।

फ्रिज़    को    छोड़   तिजोरी  पाई।

अनन्नास       दे         रहे    बधाई।।


तुम्हें    किसी     ने    अगर  सताया।

अब   तक      तुमने    नहीं बताया।।

सन्यासी         का        वेश   बनाया।

हर      ग्रहणी   के    मन को भाया।।


लॉकर        में    रखती    हैं  सासें।

बहू      माँगतीं    सविनय    माँ  से।।

तब      सासू     जी  खोल तिजोरी।

देतीं       छोटा     खण्ड  न   भोरी।।


अब    सलाद   में  तुम कब आते।

तुम्हें         देख        संतरे    डराते।।

ऐसा      पद      सबको    दे धाता।

धन्य         तुम्हारी      टमटा माता।।


आरति     'शुभम्'    तुम्हारी  गाए।

जो       पूजे       उच्चासन   पाए।।

टमटा   जी       के     दर्शन    पाता।

धन्य - धन्य      नर   वह  हो जाता।।


●शुभमस्तु !


14.07.2023◆3.45 आ०मा०

रिमझिम बूँदें ● [ अतुकान्तिका ]

 307/2023

      

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रिमझिम बूँदें

गरम पकौड़ी,

चाय सुड़कते

थोड़ी - थोड़ी,

आई वर्षा रानी।


तन भीगे,

मन रीझे,

 देखी

प्रकृति हरी - भरी ,

कुहू - कुहू बोले

पिक श्यामल

मोर नाचते आँगन।


छम - छम पग में

पायल बजती,

हिलकोरे भरे

नथनिया,

आ जा प्रीतम

झूला झूलें,

पींग बढ़ा री

धनिया।


कजरी और

मल्हारें भूली,

क्या झूला अमराई!

अंग-अंग में 

तड़के चपला,

लेती जब

अँगड़ाई,

बुँदियों की छवि छाई।


'शुभम्' बीज

धरती में उगते,

अंकुर हरित हजार,

कलरव करती

गौरैया पिक

लिपट बेल

 द्रुम प्यार,

आई नवल बहार।


● शुभमस्तु !


13.07.2023◆ 7.30 प०मा०

गुरुवार, 13 जुलाई 2023

माननीय टमाटरजी की बात ● [ व्यंग्य ]

 306/2023

    

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● ©व्यंग्यकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जी महोदय! जी मान्यवर!!यह मौसम तो आम का ही है।किंतु आम के मौसम में टमाटर की चर्चा ही खास है।आम को पूछता ही कौन है ! आम के नाम पर तो नेता भी हो जाता मौन है।तैयार बैठा है बैंक भी देने उसे लोन है। लगता है अब टमाटर के पेट में ही समय का वास है।इसलिए हर खास-ओ-आम की जुबाँ पर माननीय टमाटर जी का आवास है। अपना भी कुछ ऐसा ही विचार है। क्या टी वी,क्या सोशल मीडिया सबका एक ही आधार है।और तो और यही तो कह रहा आज का अखबार है।सबका कुल मिला कर यही एक सार है , कि आम सभा से संसद तक टमाटर की भरमार है।

क्या सास बहू, क्या भैंस, बकरी या गऊ,दिल्ली,बनारस  या मऊ,किस - किस की बात कहूँ? सब जगह टमाटरी बुखार है।जो इतने ऊँची डिग्री पर जा चढ़ा है ,लगता नहीं कि कब उसकी बाढ़ का उतार है। मैंने स्वयं अपने कानों से सुना है।नहीं,मैंने कोई ये सपना नहीं बुना है कि अब टमाटर   की  प्रोन्नति होने से उसका आसन बहुत ऊँचा हो गया है। अब वह फ्रिज़ में नहीं रहता ,वह तिजोरियों की शोभा बन गया है। सासें बहू को दाल में तड़का लगाने के लिए अलमारी का लॉकर खोलती हैं,फिर उसमें से आहिस्ते से एक टमाटर बाहर लाती हैं, अलमारी में ही रखा चाकू उठाती हैं। और टमाटर को लाड़ लड़ाती हैं। तब कहीं जाकर एक मंत्र जैसा बुदबुदाती हैं और उदासी भरा मुँह बनाती हैं। तब जाकर टमाटर को शहीद कराती हैं। बचा हुआ आधा भाग पुनः तिजोरी में सजाती हैं।इतना ही नहीं, ताला लगा चुकने के बाद चाबी का गुच्छा अपने पेटीकोट में छिपाती हैं।

 जब किसी 'आम' को उसकी अपनी औकात से अधिक ऊपर चढ़ा दिया जाता है ,तो ऐसा ही नजारा देखने में आता है।जहाँ  किसी खास को एकदम नहीं सुहाता है।जो आम से खास हो गया हो,सब्जी से बढ़कर सेव ,कीवी से ऊपर पास हो गया हो।उसके रुतबे फिर देखे नहीं जाते। सभी कोई समझ भी नहीं पाते।क्योंकि वह अहं में डूब जाता है इतराते-इतराते।उसे फिर प्याज, गोभी, शलजम आदि  कदापि नहीं भाते। जिन टमाटरों पर धनिक लोग लगाने लगें छाते, उन टमाटरों की रक्षा में होने लगे जगराते। चोर डाकू भी  उन्हें चुराने अथवा डकैती डालने चले आते।

 टमाटर से सारे सब्जी क्या फल बाजारों में गरमाई है।कहने लगी हैं हरी मिर्च,भिंडी ,तोरई  कि इस मुए को धर्म बदलने में भी शर्म नहीं आई है? कभी हमारे साथ फिरता था मारा-मारा ! अब चार ही दिन इतना बढ़ गया पारा कि हमारा छोड़कर के साथ जा बैठा सेव अन्ननास के संग! लगता है कि इसको भी आदमी की तरह चढ़ गई है भंग, इसलिए बदल रहा लाल से गुलाबी रंग।

पूँछ की तरह साथ में लगा रहता था हमारे। थोड़ी सी ललामियात क्या बढ़ गई कि कर गया किनारे।अन्यथा लूटता था हमारे संग में बहारें।कभी आलू-टमाटर, कभी बैंगन -टमाटर, कभी गोभी - टमाटर, कभी आलू मटर - टमाटर,कभी दाल में टमाटर, कभी तड़के में टमाटर, कभी नाश्ते की मेज पर  बैठता था बराबर। पहले तो हम ही थीं, बाद में पीछे चिपका रहता था। अब तो धर्म परिवर्तन कर सब्जी से फल हो गया। हमें क्या अपने लिए ही काँटे बो गया। 'भई गति साँप छुछून्दर केरी' के अनुसार इधर का रहेगा न उधर का। एक दिन सेव ,संतरा ,मौसमी ,कीवी सब इसे दुत्कार देंगे।ऐ!कहाँ आ घुसा रे तू हम फलों के बीच में।हमें क्यों घसीटना चाहता है तू कीच में।तू जो भी है वहीं जा।और सब्जी वाले की जबान से अपनी आवाज गुंजा; :आलू है! गोभी है !बैगन हैं!टमाटर हैं !हरी मिर्चें हैं !धनिया हैं! तेरी हमारे साथ क्या संगत, सही बैठ नहीं पाएगी तेरी रंगत, इसलिए बदल कर वहीं जा जहाँ सजी है तेरी पंगत। चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात। यही तो होनी है आगे न सुन तात। आज तो बस यहीं तक करनी है हमें माननीय टमाटर जी की बात।

●शुभमस्तु !

13.07.2023◆4.15प०मा०

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उल्लास ● [ सोरठा ]

 305/2023

              

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं  एक  ही  वास,समय सदा  गतिशील है।

आता  नव उल्लास, घूरे के भी    दिन  फिरें।।

करिए भर उल्लास, छोटा-बड़ा   न   सोचिए।

निज मन का विश्वास,पल भर को खोना नहीं।।


अपना  कोई   काम, करता जो  उल्लास  से।

मिलता फल अभिराम,सदा सफलता ही मिले।

मरा हृदय-उल्लास,जहाँ निराशा  आ   गई।

करता जग उपहास,कदम नहीं बढ़ते कभी।।


खिलते सुख के फूल,जिस घर में उल्लास हो।

महके मलयज धूल,हिलमिल कर रहते सभी।

जिस  घर का  परिवेश,भरा हुआ उल्लास से।

रहें  न  संकट  लेश , बाधाएँ मिटतीं    सभी।।


भरता  मान सुवास,अपने गुरुजन का सदा।

भरा रहे उल्लास, असफल क्या  होना  कदा।।

घर भर में उल्लास,उत्सव शादी   ब्याह  में।

पल -पल बढ़ती आस, नहीं थकाता देह को।।


तन -मन में  उल्लास, मान- प्रतिष्ठा  से  बढ़े।

आता है सुख  रास, किसके जीवन को नहीं।।

कुत्ते   भी   निज  पेट,भर लेते उल्लास    से।

आजीवन  रह  चेट ,हर्षित मन  पाता  नहीं।।


जिसमें अपना वास,करें 'शुभम् ' उस देश को।

भर मन में उल्लास,दिन-दिन हितकर काज।।


●शुभमस्तु !


13.07.2023◆12.45प०मा०

टमाटर ● [ गीतिका ]

 304/2023

     

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आँख  दिखाने लगा  टमाटर।

हुआ आम का बाप टमाटर।।


घूरे    के  भी  दिन  आते   हैं,

लाल सेव-सा , नाम  टमाटर।


इठला - इठला कर चलता है,

सब्जी से फल  बना  टमाटर।


नहीं    दीखता   आम   रसोई,

सजा धनिक के धाम टमाटर।


बहू    चाहती   तड़का    देना,

लिया  सास ने  दाब   टमाटर।


हुआ   लाल  से   रंग  गुलाबी,

मंडी    में   सरनाम   टमाटर।


भूले   आलू,  प्याज ,  करेला,

जुबाँ-जुबाँ  पर जाम टमाटर।


कभी प्याज सिर चढ़कर बोले,

आज  चाटता   प्राण  टमाटर।


'शुभम्' तुम्हारे   दिन   बहुरेंगे,

पाएँगे  सुख - मान    टमाटर।


●शुभमस्तु !


13.07.2023◆12.15प०मा०

दिया ● [ गीत ]

 303/2023

             

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सीखा है बस

देना जग को

कहता जगत दिया।


कैसा होता

रंग तमस का

क्षणिक  नहीं  जाना।

खोजा दिन भर

रवि ने तम को

झूठ   कथन   माना।।


आहट पाकर

भाग गया तम

मुड़कर रुख न किया।


गुरु दिखलाते

दीप शिष्य को

तम   को   दूर   हटा।

हुआ उजाला

उर-भ्रम नासा

कुहरा -  धूम   फटा।।


अंतर में बहु

किरणें फैलीं

अमृत  ज्ञान  पिया।


मात -पिता हैं

सम्मुख अपने

दिया   उन्हें    माने।

मिलती उसको

सकल संपदा

लगे  न    इठलाने।।


'शुभम्'  सफल हो

जीवन सुत का

ईश्वर  मान  जिया।।


●शुभमस्तु !


13.07.2023◆8.30 आ०मा०

काँवड़ ● [दोहा]

 302/2023

       

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मन की काँवड़ शुद्ध कर,ढोता क्या  है   बाँस!

अंतर में शिव- वास है,मिटा वहाँ   की  फांस।।

त्रेतायुग   की   बात  है,रावण था    शिवभक्त।

काँवड़ पावन नीर ले,शिवलिंग कर अभिषिक्त।


काँवड़  जल से कंठ का,करने विष-उपचार।।

परशुराम   रावण सभी,लाए थे   शिव   द्वार।।

गंगाजल  लाते  सभी, शिव के भक्त    अनेक।

शिवलिंग के अभिषेक में, काँवड़ भरे   हरेक।।


सच्ची  श्रद्धा - भक्ति  से,लाते काँवड़    लोग।

नग्न  पाँव   बढ़ते   रहें, करें न कोई    भोग।।

काँवड़-यात्रा   में  सदा,करें नियम   उपवास।

पात्र  मृत्तिका के नहीं,छूते शिव  -  विश्वास।।


काँवड़ - यात्रा से सभी,धुल जाते    हैं     पाप।

मनोकामना  पूर्ण  हो,जान लीजिए    आप।।

काँवड़ -यात्रा हो रही, श्रावण का शुभ मास।

पहले  चौदह  दिन करें, तप से  करते आस।।


काँवड़ -यात्रा में कभी,करते नशा   न   माँस।

तामस का परित्याग हो,शुद्ध चले  तव  साँस।।

काँवड़ -  यात्रा   में   नहीं, करते    भू-स्पर्श।

काँवड़   कंधे  पर रहे,शिव का  करे   विमर्श।।


बम -बम   भोले   बोलिए, काँवड़  कंधे धार।

पावन  गंगाजल    भरे,होगा  तब     उद्धार।।


●शुभमस्तु !


12.07.2023◆3.00प०मा०

सद्भाव की राह ● [ दोहा ]

 301/2023

 

[ अंकुर,मंजूषा,भंगिमा,पड़ाव,मुलाकात]

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       ● सब में एक ●

रूपराशि -  रमणीयता,  पिघलाए  नवनीत।

उर में नव अंकुर उगे,तन हो गया   सतीत।।

अंकुर उगते देखकर, रविकर हैं  अभिभूत।

धीरे - धीरे   छू  रहीं,   पावन भानु   प्रसूत।।


उर- मंजूषा  में  भरे,अगणित मुक्ता-मीत।

कवि  में वे  कविता बनें, गायक में संगीत।।

मंजूषा में  बंद कर,शिशु का   किया  प्रवाह।

माँ का उर पत्थर हुआ,निकली क्या मुखआह?


लास्य- भंगिमा देखकर,बढ़ती मन-आसक्ति।

सत प्रियता जाग्रत हुई,उमड़ी पावन  भक्ति।।

क्षण-क्षण बदले भंगिमा, अद्भुत  तेरा रूप।

असमंजस  में खो  गया, चतुर चितेरा  भूप।।


आते   बहुत पड़ाव  हैं,  लेता   जीवन   मोड़।

मन को तनिक विराम दें,थके नहीं बस गोड़।।

चिंतन  करने  के  लिए,पथ में मिले    पड़ाव।

जाते  हो  जिस  राह  में, चलना  सह सद्भाव।।


मुलाकात  को  मित्रता, नहीं समझना  मित्र।

हर  सुगंध  होती नहीं, मनभावन  शुभ  इत्र।।

मुलाकात ऐसी  बुरी,जो घातक   हो  नित्य।

तमस तभी उर का मिटे,निकले जब आदित्य।


         ●  एक में सब ●

मुलाकात की भंगिमा,

                             समझें पंथ - पड़ाव।

उर-  मंजूषा    खोलकर,

                             दिखा न अंकुर- घाव।।


●शुभमस्तु !


12.07.2023◆6.00!आ०मा०


मंगलवार, 11 जुलाई 2023

बरसाने की राधिका ● [ दोहा गीतिका ]

 300/2023

 

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● ©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बरसाने  की   राधिका, नंदगाँव   के   श्याम।

मेरे मन में  आ बसो, करता 'शुभम्'   प्रणाम।।


उमड़ रहे घन व्योम में,गरज-गरज चहुँ ओर,

चपला चमके डर लगे,दृश्य हरित अभिराम।


पिया  गए  परदेश  को,करूँ रात - दिन  बाट,

भीग-भीग   चोली  कसे, नित्य सताए  काम।


जोत रहे हैं खेत को,कृषक सभी   दिन - रात,

बंजर ये  धरती  पड़ी,जपती पिय   को  वाम।


जोते   बिना   न  भूमि   में, बोएं  कैसे  बीज,

भूमिपुत्र     लौटे   नहीं,   भूले कहाँ   ललाम।


ज्यों-ज्यों झरते बिंदु झर, त्यों-त्यों बढ़ती आग

सजन   कहाँ भूले डगर,शून्य देह   का   धाम।


'शुभम्'  इधर  मधुमास है, फूले  तन  में  फूल,

बादल  बन  बरसो कहाँ, सीता  के  प्रभु  राम।


●शुभमस्तु !


11.07.2023◆2.15प०मा०

तोड़ रही पाषाण ● [ गीत ]

 299/2023

 

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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लिए हाथ में

लौह-हथौड़ा

तोड़ रही पाषाण।


नन्हे शिशु को

दूध पिलाती

अस्त -व्यस्त तन चीर।

है एकाग्र

ध्यान में स्थित 

भरी    कलेजे   पीर।।


कैसे भी तो

चाहे नारी

बच जाएँ दो प्राण।


आँचल में गह

अपने सुत को

मात्र काम पर गौर।

केश बिखरते 

खुले हवा में

दुर्दिन का है  दौर।।


मात्र -मात्र

उद्देश्य कर्मरत

करना ही है त्राण।


स्वेद बहाना

चोरी है क्या

दो   हाथों  से आज।

सो पाती है

अपनी कथरी

श्रमिका को है नाज।।


आती मीठी-

मीठी निंदिया

नहीं कभी म्रियमाण।


अपने श्रम की

दो रोटी में

सुख का स्वर्ग -निवास।

रखे हाथ पर

हाथ न बैठी

अपने बल   की  आस।।


लोगों का क्या

कीच उछालें

बकते रहते भाण।


●शुभमस्तु !


11.07.2023◆7.00आ०मा०

प्रभुता मद का हेत ● [ गीतिका ]

 298/2023

 


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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मिलते  भाव  पुनीत, मिलता जहाँ उजास।

होता   तमस  प्रतीत,  रहती वहाँ  न आस।।


करते   जग  को  धन्य, उमड़े अंबर   बीच,

बरस   रहे  पर्जन्य,  उगी  धरा पर     घास।।


मिले   न  मरुथल छाँव,पादप नहीं  अनेक,

सबका पृथक् स्वभाव,आता हमें  न  रास।।


चुभते  ही  हैं शूल,उलझ वसन   को  चीर,

उपवन  में  हैं फूल,प्रसरित मधुर   सुवास।।


पड़ता अटल  प्रभाव,सत्संगति का मित्र।

काँटा  देता   घाव,  क्यों  रहता   है   पास।।


प्रभुता   मद   का  हेत,मन में करें    विचार,

आँधी  की   ज्यों   रेत,रुकता नहीं  विकास।।


'शुभम्'सँभल चल चाल,काजर  की कोठरी,

करे न  लेश   मलाल, करना यही   प्रयास।।


●शुभमस्तु!


10.07.2023◆3.00आ०मा०

मिले न मरुथल छाँव ● [ सजल ]

 297/2023


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● समांत : आस

●पदांत  :अपदान्त

●मात्राभार :22.

●मात्रा पतन: शून्य।

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●©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मिलते  भाव  पुनीत, मिलता जहाँ उजास।

होता   तमस  प्रतीत,  रहती वहाँ  न आस।।


करते   जग  को  धन्य, उमड़े अंबर   बीच।

बरस   रहे  पर्जन्य,  उगी  धरा पर     घास।।


मिले   न  मरुथल छाँव,पादप नहीं  अनेक।

सबका पृथक् स्वभाव,आता हमें  न  रास।।


चुभते  ही  हैं शूल,उलझ वसन   को  चीर।

उपवन  में  हैं फूल,प्रसरित मधुर   सुवास।।


पड़ता अटल  प्रभाव,  सत्संगति  का मित्र।    

काँटा  देता   घाव,  क्यों  रहता   है   पास।।


प्रभुता   मद   का  हेत,मन में करें    विचार।

आँधी  की   ज्यों   रेत,रुकता नहीं  विकास।।


'शुभम्'सँभल चल चाल,काजर  की कोठरी।

करे न  लेश   मलाल, करना यही   प्रयास।।


●शुभमस्तु!


10.07.2023◆3.00आ०मा०

शनिवार, 8 जुलाई 2023

लकीर के फ़कीर ● [ व्यंग्य ]

 295/2023

 

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© व्यंग्यकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कोई कुछ भी कहे।ज्ञान - अज्ञान की किसी भी धारा में बहे।परंतु अपन तो यही कहेंगे कि हम तो जिस लकीर को एक बार पकड़ लेते हैं,उस पर मरते दम तक चलना नहीं छोड़ते।चले आ रहे उसूलों से मुख नहीं मोड़ते।बनी हुई परिपाटी को कभी नहीं तोड़ते।अब चाहे आसमान के बजाय जमीन से बरसात होने लगे।बच्चे नीचे से नहीं ऊपर से पैदा हों; उगने लगें।हम भला क्यों अपने रास्ते से बिदकने लगे। बस , एक बार जो लकीर बना दी गई ; बस वही हमारी एक नेक परमानेंट लकीर है।यही तो हमारी तकदीर है।इसी बात के तो हम अमीर हैं। 

 अब चाहे कोई हमें दकियानूस कहे! अथवा दरिया के बहाव के संग मुर्दा बहे।पर हम तो तिल भर भी न इधर से उधर को डिगे।बस एक ही पक्की लकीर के हमसफ़र ही रहे।पता है इससे हमें बहुत बड़े- बड़े फायदे ही मिले।न सोचने की जरूरत न समझने की दरकार।यूँ ही चलती रहती है अपनी सरकार।पूरी दुनिया से अलग ही विधान।सभी के लिए एक ही विहान।भले ही हो वह टीचर,फटीचर, इंजीनियर, भिखारी या किसान।एक ही संगीत एक ही तान। 

  वैसे लकीर का फकीर होने में हमें कोई घाटा नहीं है।आँखों पर पट्टी बँधी रहे और हम बराबर अपने रास्ते पर चलते रहें। चलते रहें।चलते ही रहते हैं। कोई भले ही हमें कोल्हू का बैल ही क्यों न कहे!अरे !कहे तो कहता रहे। सैकड़ों वर्षों से हम यों ही बच्चे पैदा करते रहे और आज भी उसी गति से करते चले आ रहे हैं।कुछ लोगों की दृष्टि में हम शूकर कूकरी के प्रतियोगी बने हुए स्व वंश की बढ़वार करते हैं, तो उनकी इस बात से भी हमें फ़र्क क्या पड़ने वाला है! यदि किसी को लगता है ज़्यादा बुरा , तो खा ले न दो - चार ज्यादा निवाला है।सोच - सोच कर क्यों निकला जाता तुम्हारा यूँ दिवाला है! यदि तुम्हारी जुबान में पड़ा हुआ कोई छाला है, तो खूब फोड़ो और हमारे विरोधियों से नाता जोड़ो। कर क्या लोगे भला।होनी भी तो चाहिए हमारी जैसी कला! किसी में हिम्मत है जो हमारी नुक्ताचीनी करने चला!

  हमारे अपने हाथ-पाँव। अपनी ही तरह के नए दाँव।हमारे अपनों की बड़ी घनी छाँव।कोई क्यों जी करे वृथा काँव -काँव? हमारे अपने शहर बस्तियाँ हमारे बसे हुए गाँव।है हमें अपने हाथ पैरों और अंगों का सहारा। भला कोई क्या बिगाड़ लेगा हमारा।हमारी अपनी अलग ही पहचान है।यहाँ भी और ऊपर भी हमारी अलग ही शान है।किसी ने हमें गिजाई कहा किसी ने केंचुआ।हमने इधर से सुना जैसे कुछ नहीं हुआ।चले हैं बनने बड़ी सोहणी बुआ।अपनी तो बड़ी ही ताकतवर है ऊपर वाले की दुआ।एक नहीं अनेक को चुआते हर साल, एक क्या हर बार अनेक चुआ! 


  सुना ही होगा : जिसकी लाठी उसकी भैंस।जिसमें ज्यादा ताकत और हथियारों से लैस।भरा ही रहता है उसमें हमेशा तैश।अपन तो इसी उसूल के मानने वाले हैं।पूजते नहीं माटी के बुत,जिंदा भूत उपजाते हुए ऐसे साँचों में ढाले हैं। लकीर के फकीर भले हैं।पर देश और दुनिया में कुछ करने चले हैं।कोई कहता है कि क्यों रेतते गले हैं?अपनी-अपनी प्रकृति है, अपना - अपना स्वभाव है।केचुआ केचुआ है ,नाग नाग है। पानी पानी है, आग आग है!बारहमासी अपना एक मात्र राग है।दमन में दाग नहीं, ये दामन ही दाग है।बताएँ भी क्या तुम्हें यही अपन भाग है!

  मर जाना है ,पर लकीर से टस से मस नहीं होना है।जंगल-जंगल,नगर-नगर,गाँव - गाँव सब जगह बीज वही बोना है।वही तो अपनी चाँदी है ,वही आपन सोना है।काश हम ऐसा कर लेते यह रोना नहीं रोना है।हमारा कल का भविष्य हमारा नया छौना है। लकीर के फकीर हम थे, हैं और लकीर के फकीर ही हमें रहना है।हमारे अपने बड़े बुजुर्गों ,बड़े - बड़े गुनियों का दिन - रात यही कहना है।बुद्ध हैं, न शुद्ध हैं । हम तो स्वभाव में ही क्रुद्ध हैं। बिना शक्ति न अस्तित्व है, न लड़ा जा सकता कोई युद्ध है।सीखना हो तो सीख लो,हम हर वक्त ही सन्नद्ध हैं। आख़िर तो हम लकीर के फ़कीर हैं। जी हाँ, लकीर के फ़कीर हैं।दुनिया में हमेशा जागता हुआ अपना ज़मीर है।कौन कहता है हम गरीब हैं,हम तन- मन से अमीर हैं।कबीर हैं। 

 ● शुभमस्तु ! 

 08.07.2023◆4.00प०मा० 

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शिक्षा ● [ कुंडलिया ]

 295/2023

          

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'  

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                       -1-

मानव  की  दृढ़  रीढ़ है,शिक्षा समझें   मीत।

हार नहीं  होती  कभी,मिलती है नित  जीत।।

मिलती   है नित  जीत,नहीं जो लेता   शिक्षा।

मरता   भूखे  पेट ,  माँगनी पड़ती    भिक्षा।।

'शुभम्' यही दें सीख,नहीं बनना यदि दानव।

बचपन  का  उपहार, बनें पढ़ शिक्षा  मानव।।


                        -2-

बचपन  नहीं   गँवाइये,संतति का   हे  मित्र!

खेलों  में   खोना   नहीं, शिक्षा ही    है  इत्र।।

शिक्षा  ही   है   इत्र, महकता जीवन  सारा।

मिले  सदा  धन  मान, बीतता जीवन प्यारा।।

'शुभम्'  गए दिन बीत,आयु है तेरी  पचपन।

चिड़ी चुग गई खेत,गँवाया संतति - बचपन।।


                        -3-

मानव- जीवन  के लिए,शिक्षा अमृत  - तुल्य।

रहती आजीवन सदा , प्रगति-पंथ   में बल्य।।

प्रगति - पंथ में बल्य,खेलता बाल   खिलौना।

सँभला  एक  न बार,खेल हो पूर्ण   घिनौना।।

'शुभम्'न करता बाट, समय बनता नर दानव।

घड़ी न  चले  विलोम, बनाती शिक्षा   मानव।।


                        -4-

देही  मानव   की  धरी,बना रहा  खग  , ढोर।

कूकर, शूकर, मेष-सा, काग, टिटहरी,   मोर।

काग,  टिटहरी,मोर,गधा घोड़े - सा    खाया।

शिक्षा  का क्या  काम,वृथा नर  गात घुमाया।

'शुभम्' सदा भटकाव,शेर, मृग, चीता, सेही।

चूहा, शशक, शृगाल, गँवाई मानव    -  देही।।


                        -5-

जाते विद्यालय  नहीं,  गीध ,  बाज, उल्लूक।

शिक्षा  का क्या काम है, आजीवन  रह  मूक।।

आजीवन  रह मूक,माँस जीवों  का    खाना।

जीवन  नहीं  विराम,उन्हें यह नित्य   नसाना।।

'शुभम्' बहुत नर -नारि,समय को वृथा बिताते।

धरते   मानुष - यौनि, श्वानवत  वे  मर  जाते।।


●शुभमस्तु !


07.07.2023◆3.15प०मा०

खाटु श्याम हैं जयी ● [पञ्चचामर या नाराच छंद]

 294/2023

 

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छंद-विधान:

1.पञ्चचामर एक वर्णिक छंद है।

2.लघु दीर्घ($I)×8=16 वर्ण होते हैं।

3.8+8 वर्ण पर यति होता है।

4.इसमें 2-2 समतुकांत,कुल चार पद होते हैं।

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●©शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                      -1-

अपार शक्ति धीर वीर,खाटु श्याम   हैं  जयी।

सुपूज्य    शीश   मोरवी, सुपूत  साधनामयी।।

कला गए अनेक सीख, कृष्ण मातु  से  सभी।

प्रचण्ड  तीर  तीन शंभु,दत्त चंडि   चाप  भी।।


                        -2-

सवार  अश्व  भीम पौत्र, ज्येष्ठ हैं  घटोत्कची।

सुनाम   बर्बरीक   बाल, शीश पूज्यता  रची।।

सुतीक्ष्ण  तीन बाण धार,दीन नाथ  श्याम  जी।

सहाय  घूँघराल  बाल,द्वार आय    स्वार्थ जी।।


                      -3-

सुनाम श्याम दत्त श्याम,षोडशी कला सभी।

अनंतजीत की कृपा,मिली न थी धरा कभी।।

दयालु कृष्ण आदिदेव, का अशीष   शीश पै।

वज्रांग मारुती सुप्राप्त,राम का   कपीश  पै।।


                      -4-

सुहृद'  नाम   दत्त श्याम, सूर्यवर्च   नाम    से।

विशेष  यक्षराज ख्यात, वीर धीर  श्याम   से।।

दुआर  जो  पुकार  लेय,हार हो   न  आपकी।

सुपूर्ण कामना सभी,न शेष एक   ताप   भी।।


                       -5-

सुधीर वीर  बर्बरीक , आधि - व्याधि रोक दें।

ब्रजेश  मूर्त रूप  श्याम,मुक्ति दान  मोख  दें।।

अधीरता  बढ़ी  सदा,अशांति का  प्रसार  है।

सुशांति दान दें प्रभो,सुभक्ति का  खुमार  है।।


●शुभमस्तु !

अंक● [ अतुकान्तिका ]

 293/2023

           

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●© शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सम्पूर्ण जीवन बँटा 

अंकों के नाम,

बताते हुए

मानव का अभिज्ञान,

रहा नहीं

अपना कुछ नाम,

जीवन सर्वस्व की

अंकों से पहचान।


जन्म का अंक,

सेवारम्भ का अंक,

विवाह का अंक,

संतति के जन्म का अंक,

आधार अंक,

पैन का अंक,

बैंक - खाता का अंक,

ए टी एम अंक,

पासवर्ड अंक,

मोबाइल अंक,

ई - मेल अंक,

निवास स्थल अंक,

और अंत में बस

अवसान अंक।


सब कुछ

अंकों में समाया,

मनुष्य क्या है

बस अंकों की छाया,

जन्माती जाया

और अंत में माटी में

मिल जाती हर काया!

कैसी विचित्र माया?


 सबके अंक

 पृथक् - पृथक् ,

कहीं कोई नहीं

एक भी समानता,

आदमी , आदमी को

अंकों से ही जानता,

फिर भी अपनी

ऐंठ में किसी को

नहीं मानता!


नौ अंकों के

अंक - पर्यंक

पर पसरा हुआ तू

कुछ और भी

कर्म कर ले,

'शुभम्' प्रति घड़ी के लिए

स्वधर्म का मर्म 

उर के अंक में

भर ले,

वरना एक दिन तो

ये अंक भी

विलीनता के शून्य में

विलीन हो जाएँगे,

न रहेंगे अंक

औऱ न नाम के

चिह्न रह पाएँगे।


●शुभमस्तु !


माधव पावत ध्यावन में● [कनक मंजरी छंद]

 292/2023


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छंद- विधान:

1.यह एक वर्णिक छंद है।

2.चार लघु(IIII)+6 भगण ($II)+गुरु($)=23 वर्ण।

3.चार समतुकांत चरण।

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● ©शब्दकार

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

पनघट पै धरि गागर आवति,

                       श्याम सखी वन कुंज-गली।

ब्रजजन बाट जु देखि रहे घर,

                      आवति लौटि न मंजु  लली??

सब तिय सों बतराय कहें अब,

                        गैलनु आवति  देखि  कहीं?

सकुचति बोल कहे सजनी रुकि,

                     कुंज -गली भुज स्याम  गही।।


                        -2-

उलझत केशनु की लट श्यामल,

                          देखत ही सकुचाइ गई।

जसुमति रीझि निहारि जटा सिर,

                           आपन हीयनु मोदमई।।

कर गहि मोरपखा गुहती नव,

                          पीत झगा पहिराइ रही।

कटि कछनी  खुसि  बंसरिया,

                     लवनी निज हाथ खवाइ दही।।


                        -3-

इत उत क्यों झुकि झाँकि रहे कछु,

                           खोइ गयौ बतलाउ  सखे।

तनि  हमको  जतलाइ  दियौ,

                   वृषभानु लली कहुँ आइ दिखे।।

कछु वस्तु लई दुबकाइ अमोलक,

                       कान्ह सखी बतलाइ दियौ।

कत यह बात कहें खुलि कें सखि,

                          अँचरा में गुम  मेर  हियौ।।


                         -4-

जसुमति सों नंदलाल कहें सुनि,

                             गेंद छिपाइ लई अँचरा।

मुँह बिदकाइ नकारति राधिक,

                             छूअत जोर करै पचरा।।

तुम अब देउ निकारि सहेजहि,

                           छीनन आवत  है हमकूँ।

अब तकरार बढ़े  न  कहूँ अति,

                          मातु बताइ रहे   तुमकूँ।।


                        -5-

जब-जब खोजत राधहिं माधव,

                            पावत आपन ध्यावन में।

वन-वन भूलत ऊलत डोलत,

                          ध्यावत पावनता मन में।।

छिन-छिन को नहिं भूल कहूँ सखि,

                          मो मन से नहिं  जाउ कहूँ।

अनुदिन रात न चैन परै अब,

                           एक घड़ी विलगाव सहूँ।।


● शुभमस्तु !


06.07.2023◆6.00प०मा०

बुधवार, 5 जुलाई 2023

चतुराई ● [ दोहा ]

 291/2023

             

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●© शब्दकार 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चतुराई   उत्तम  सदा,हितकारी भी  मीत।

संकट में  वह काम दे,गाता मधु   संगीत।।

मात- पिता को मत दिखा, चतुराई के खेल।

समझे   इच्छादेश  तू, रहे  सदा   सह  मेल।।


काम सदा  आती नहीं, अति चतुराई  मीत।

निज गुरुजन के  सामने,गा न अहं के  गीत।।

चतुराई से मत करें, धोखा जन   के   साथ।

खुल जाती है पोल जब, झुकता  तेरा माथ।।


चपल चौंध  चुँधिया रही, चंचल  तेरे   नेत्र।

चतुराई   ऐसी  बुरी, करे  पार निज    क्षेत्र।।

चतुराई  से  जीत  पा, कछुए ने   द्रुत  वेग।

शशक सो गया छाँव में,धरा रह गया तेग।।


चतुराई  उत्तम  भली,अग्रिम वही   किसान।

समय  देख  खेती करे, उसे नहीं व्यवधान।।

चतुराई  से  शिष्यगण, याद करें  जो  पाठ।

अंक  उन्हें  मिलते  सदा, सौ में नब्बे  साठ।।


चतुराई   से   जीतती,  सद गृहणी  परिवार।

ध्यान रखे सबका सदा,प्रियतम को दे प्यार।।

चतुराई  है  बुद्धि  का, अद्भुत अनुपम  खेल।

सूझबूझ   से  नेह   से, रखती है   धी   मेल।।


चतुराई  से  नाव   को,  करता केवट पार।

भँवरों  से  रक्षा  करे, क्यों डूबे मँझधार।।


●शुभमस्तु !


05.07.2023◆7.30 आ०मा०

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...