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शनिवार, 5 जुलाई 2025

भागवत कथा की पात्रता [आलेख]

 330/2025


©लेखक

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 इटावा के भागवत कथा प्रकरण ने एक नए विवाद को जन्म दिया है कि भागवत कथा का पाठ कौन व्यक्ति कर सकता है? इस संदर्भ में अनेक लोगों और विद्वानों के द्वारा अपने - अपने मत दिए जा रहे हैं। इस सम्बंध में मुझे भी कुछ कहना है। भागवत भगवान श्रीकृष्ण का एक पावन महा पुराण है। जिस प्रकार तन और मन की शुद्धता के साथ किसी भी मनुष्य को भगवान का नाम स्मरण करने की पात्रता है,ठीक उसी प्रकार से बिना किसी वर्ण या जाति का विचार किए हुए भागवत कथा वाचन का अधिकार भी प्रत्येक मनुष्य का है। जाति और वर्ण से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।महर्षि वेद व्यास (जो स्वयं एक ब्राह्मण नहीं थे) के मुखारविंद से जब भागवत पुराण लिखा और कहा जा सकता है,तो जो व्यक्ति अपने आचरण, चरित्र और भाषा शैली से शुद्ध है ,उसे भी भागवत कथा वाचन का अधिकार है। 

  वर्तमान में ऐसे अनेक कथा वाचक हैं,जिन्होंने भागवत कथा को भांडों की नौटंकी बना कर रख दिया है। जो पर्दे के पीछे सुरा और सामिष आहार का सेवन करते हैं,उन्हें इसका अधिकार कदापि नहीं होना चाहिए। देखा यह जा रहा है कि भागवताचार्य स्वयं अशिष्ट शब्दावली का प्रयोग करते हैं और अन्य लोगों पर दोषारोपण करते हैं। उनके द्वारा महिलाओं से फूहड़ नृत्य कराए जा रहे हैं।वे अपने आचरण ,चरित्र और व्यवहार से शुद्ध नहीं हैं। ऐसे लोगों को भागवताचार्य होने का कोई अधिकार नहीं है। उनका समाज के द्वारा बहिष्कार होना चाहिए।

 भागवत कथा पाठन- पठन के लिए कोई जाति विशेष का निर्धारण नहीं है।मन ,वचन, कर्म और आचरण से शुद्धता ही इसका सही मानक है। प्रश्न यह उत्प्रन्न होता है कि भागवताचार्य की परीक्षा कैसे हो। व्यवहारिक रूप में इसकी ऐसी कोई समिति बनाया जाना न तो आसान है और सर्व साधारण द्वारा स्वीकार्य ही।वर्ण और जाति भेद से रहित विद्वत मंडल ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि पात्र कौन है। दूध में पानी मिलाकर बेचने से जिस तरह कोई किसी को रोक नहीं पाया ,वैसे ही भागवत पढ़ने की आजादी कैसे समाप्त की जा सकती हैं। समाज अपने ढंग से चलता है, वह किसी बनी हुई पटरी पर चलने के लिए बाध्य नहीं है।वैसे ही हर उस कथावाचक को भी अपने गले में झाँककर देख लेना अनिवार्य है कि उसमें कितनी पात्रता है। 

 आज भागवत करवाना और करना एक धंधे का रूप ले चुका है। धंधे को चरित्र से जोड़ने पर चरित्र धंधे का स्पीडब्रेकर बन जाता है। ऐसा भी कोई व्यक्ति है जो अपने को चरित्र हीन कहे !यह किसी से छिपा नहीं है कि सात दिन की अवधि पूरी होने के बाद कथावाचक नोटों की पोटली बांधकर अपनी बड़ी- सी कार में फुर्र हो लेते हैं। मिली हुई भेंटें यजमान और कथावाचक में बंदरबांट कर ली जाती हैं।भागवत का इतना सा ही मंतव्य दिखाई दे रहा है।फिर कोई वाचक क्यों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार कर कथावाचन बन्द करेगा ? क्या वह किसी वैध पात्रता की जाँच को मान्य करेगा ?इसलिए इस दिशा में आत्मसुधार की आवश्यकता है न कि कोई संसद बनाने की बात की जाए।बनाई गई संसद स्वयं में कितनी पवित्र है,इसका क्या मानक है। वहाँ भी ज्ञान से अधिक वर्णवाद और जातिवाद का अतिक्रमण होगा और अवश्य होगा। क्योंकि यह समाज ही इन व्यवस्थाओं का चहेता है।जहां वेदनीति काम नहीं आती, वहाँ लोकनीति ही सफल होती है। इस क्षेत्र में भी वेदनीति एक कोने में रखी रहेगी और लोकनीति ही काम आएगी। जो यजमान जिससे चाहेगा ,उससे भागवत कराएगा ,किसी संसद के मानक का वहाँ कोई मूल्य नही होगा। कोई नियम बनाना जितना आसान ,है उतना उसे व्यावहारिक रूप देना सहज नहीं है। 

 शुभमस्तु ! 

05.07.2025●8.45आ०मा०

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सोमवार, 5 मई 2025

माता -पिता की स्मृति एक महत्त्वपूर्ण धरोहर [आलेख]

 226/2025

 

 ©लेखक 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 मनुष्य का जीवन सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना है।ईश्वर के बाद यदि संसार में कोई प्रत्यक्ष और साकार ईश्वर हैं ,तो वह हमारे माता - पिता ही हैं।उनके बिना मनुष्य का न तो कोई अस्तिव है और न महत्त्व ही। उनके ही रक्त से हमारा निर्माण हुआ है। इसलिए हमारे जीवन में यदि सबसे महत्त्वपूर्ण है,तो वे हमारे माता -पिता ही हैं। संसार की जिस संतति ने उन्हें महत्व प्रदान नहीं किया,उसका जीवन पशुओं और कीट आदि से भी बदतर है।

 यह सत्य है कि बिना माता-पिता के हमारा जन्म नहीं हो सकता। हम अपने अस्तिव को साकार नहीं कर सकते। हमें वर्तमान रूप और स्वरूप प्रदान करने का सर्वांश श्रेय हमारे माता पिता का है। माता -पिता की दृष्टि से किसी भी संतति के कई रूप हो सकते हैं। पहले वे जिनके माता -पिता हैं,और जिन्होंने उन्हें पाल पोषकर बड़ा किया है। दूसरे वे जिनके पिता उनके जन्म से पहले ही इस संसार को छोड़कर परलोक गमन कर गए और केवल उनकी माता ने ही उन्हें पाला - पोशा। तीसरे वे जिनकी माता उनके जन्म के तुरंत बाद में स्वर्ग सिधार गईं और उनके पिता अथवा अन्य किसी संबंधी ने उन्हें बड़ा और खड़ा किया। चौथे वे हैं जिनके माता- पिता में कोई भी नहीं है और किसी अन्य के द्वारा ही उनका लालन -पालन हुआ है। सर्वाधिक सौभाग्यशाली वही संतान हैं,जिन्हें अपने माता -पिता को देखने ,उनके हाथों पलते -बढ़ते और उनकी सेवा करते हुए जीवन बिताया है। कभी न कभी तो सबको ही संसार छोड़ना पड़ता है। इसलिए कोई माता -पिता कभी न कभी संतान को छोड़कर संसार से विदा होते ही हैं।

  प्रत्येक संतान ; चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की , उसका अपने माता-पिता के प्रति एक धर्म होता है कि वह आजीवन उनकी सेवा करे। अपने मन ,वचन और कर्म से उनकी आत्मा को कभी कष्ट न दे। वह संतान सबसे बड़ी अभागी है,जिसके माता -पिता की आँखों में उसके कारण कभी एक पल को आँसू भी आए। एक माता अपनी संतान को स्वयं गीले बिस्तर में सोकर रात बिता देती है,किंतु वही बेटा जब बड़ा होकर एक बहू ले आता है ,तो उसे भूल जाता है। उसका अपमान करता है। यही नहीं उसकी बहू भी उसे अपमानित करती है। इस अपमान का सबसे बड़ा दोषी उसका पुत्र ही होता है। कोई पुत्र अपने माता -पिता को वृद्धाश्रम नहीं भेजना चाहता ,किन्तु उसकी पत्नी के दुराग्रह के कारण ही उसे उन्हें वृद्धाश्रम भेजना पड़ता है। यदि आधुनिक पत्नियों में अपने सास -ससुर के प्रति इतना दुर्भाव न होता तो वृद्धाश्रम नहीं होते। उनका एकमात्र कारण अपनी निजता और विलासिता ही है,जो पति के माता -पिता का सम्मान करना नहीं चाहती।


 यदि कोई संतान यह चाहती है कि वह अपने माता -पिता को कष्ट देकर सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जी सकती है;तो यह उसका सबसे बड़ा भ्रम है। अपने माता-पिता की सेवा न करना,उनकी इच्छा को ही आदेश न मानना, उन्हें अपमानित करना , उन्हें मरना- पीटना कुसंतति के उदाहरण हैं।इस कलयुग में तो ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिलते हैं कि उसके कुपुत्र ने माता-पिता, किसी एक अथवा पिता की हत्या कर दी। छोटी -छोटी बात पर कुपुत्र माता -पिता को पीटते और मार डालते हैं।भाइयों के बँटवारे को लेकर इस प्रकार की अनेक घटनाएँ सुनने और देखने को मिलती हैं। हमारे माता-पिता हमारी धरोहर हैं,जिसकी रक्षा हमें प्राण पण से करनी है। एक पिता वह वट वृक्ष है,जिसकी सघन छत्रछाया में पुत्र रूपी पौधा पल्लवित और पुष्पित होता है। एक माता वह त्याग की प्रतिमूर्ति है,जिसका कोई अन्य निदर्शन इस धरती पर नहीं है। जिस संतान ने;चाहे वह पुत्र हो या पुत्री ;अपने माता -पिता का अपमान किया,वे आजीवन रौरव नर्क ही भोगते हैं। जन्म जन्मांतर तक उन्हें कोई मुक्ति नहीं है,कोई क्षमा नहीं है। कोई भी संतान कभी भी माता -पिता से उऋण नहीं हो सकती। वही ब्रह्मा हैं, वही विष्णु है और वही महादेव हैं। हमारी माता ही लक्ष्मी,दुर्गा और सरस्वती हैं। जिस संतान ने अपने माता -पिता के प्रति कर्तव्य का पालन नहीं किया, उसका तीर्थ,वृत, उपासना,अर्चना,पूजा ,पाठ आदि सब व्यर्थ है। 

 इसलिए आइए हम सब अपने माता-पिता को अपने श्रेष्ठ कर्मों से अमर बनाएँ ;जिससे हमें जानने और देखने वाले कहें कि यह अमुक माता -पिता की संतान है;जिसने उनका नाम जग प्रसिद्ध किया है। हम संतति ही अपने माता-पिता की अमूल्य धरोहर हैं,जिन्हें अपने सत्कर्मो से उन्हें हिमालय से भी ऊँचा बनाए रखना है। यह कथन सर्वांश में सत्य है :

                                                   सर्व पितृमयी माता

                                                    सर्व देवमय: पिता 


 05.05.2025● 4.00प०मा० 


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सर्व देवमय: पिता [आलेख]



©लेखक

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मनुष्य का जीवन सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना है।ईश्वर के बाद यदि संसार में कोई प्रत्यक्ष और साकार ईश्वर हैं  ,तो वह हमारे माता - पिता ही हैं।उनके बिना मनुष्य का न तो कोई अस्तिव है और न महत्त्व ही। उनके ही रक्त से हमारा निर्माण हुआ है। इसलिए हमारे जीवन में यदि सबसे महत्त्वपूर्ण है,तो वे हमारे माता -पिता ही हैं। संसार की जिस संतति ने उन्हें महत्व प्रदान नहीं किया,उसका जीवन पशुओं और कीट आदि से भी बदतर है।


यह सत्य है कि बिना माता-पिता के हमारा जन्म नहीं हो सकता। हम अपने अस्तिव को साकार नहीं कर सकते। हमें वर्तमान रूप और स्वरूप प्रदान करने का सर्वांश श्रेय हमारे माता पिता का है। माता -पिता की दृष्टि से किसी भी संतति के कई रूप हो सकते हैं। पहले वे जिनके माता -पिता हैं,और जिन्होंने उन्हें पाल पोषकर बड़ा किया है। दूसरे वे जिनके पिता उनके जन्म से पहले ही इस संसार को छोड़कर परलोक गमन कर गए और केवल उनकी माता ने ही उन्हें पाला - पोशा। तीसरे वे जिनकी माता उनके जन्म के तुरंत बाद में स्वर्ग सिधार गईं और उनके पिता अथवा अन्य किसी संबंधी ने उन्हें बड़ा और खड़ा किया। चौथे वे हैं जिनके माता- पिता में कोई भी नहीं है और  किसी अन्य के द्वारा ही उनका लालन -पालन हुआ है। सर्वाधिक सौभाग्यशाली वही संतान हैं,जिन्हें अपने माता -पिता को देखने ,उनके हाथों पलते -बढ़ते और उनकी सेवा करते हुए जीवन बिताया है। कभी न कभी तो सबको ही संसार छोड़ना पड़ता है। इसलिए कोई माता -पिता कभी न कभी संतान को छोड़कर संसार से विदा होते ही हैं।


प्रत्येक संतान ; चाहे वह लड़का हो अथवा लड़की , उसका अपने माता-पिता के प्रति एक धर्म होता है कि वह आजीवन उनकी सेवा करे।  अपने मन ,वचन और कर्म से उनकी  आत्मा को कभी कष्ट न दे। वह संतान सबसे बड़ी अभागी है,जिसके माता -पिता की आँखों में उसके कारण  कभी एक पल को आँसू भी आए। एक माता अपनी संतान को स्वयं गीले बिस्तर में सोकर रात बिता देती है,किंतु वही बेटा जब बड़ा होकर एक बहू ले आता है ,तो उसे भूल जाता है। उसका अपमान करता है। यही नहीं उसकी बहू भी उसे अपमानित करती है। इस अपमान का सबसे बड़ा दोषी उसका पुत्र ही होता है। कोई पुत्र अपने माता -पिता को वृद्धाश्रम नहीं भेजना चाहता ,किन्तु उसकी पत्नी के दुराग्रह के कारण ही उसे उन्हें वृद्धाश्रम भेजना पड़ता है। यदि आधुनिक पत्नियों में अपने सास -ससुर के प्रति इतना दुर्भाव न होता तो वृद्धाश्रम नहीं होते। उनका एकमात्र कारण अपनी निजता और विलासिता  ही है,जो पति के माता -पिता का सम्मान करना नहीं चाहती।


यदि कोई संतान यह चाहती है कि वह अपने माता -पिता को कष्ट देकर सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जी सकती है;तो यह उसका सबसे बड़ा भ्रम है। अपने  माता-पिता की सेवा न करना,उनकी इच्छा को ही आदेश न मानना, उन्हें अपमानित करना , उन्हें मरना- पीटना कुसंतति के उदाहरण हैं।इस कलयुग में तो ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिलते हैं कि उसके कुपुत्र ने माता-पिता, किसी एक अथवा पिता की हत्या कर दी। छोटी -छोटी बात पर कुपुत्र  माता -पिता को पीटते और मार डालते हैं।भाइयों के बँटवारे को लेकर इस प्रकार की अनेक घटनाएँ सुनने और देखने को मिलती हैं। हमारे माता-पिता हमारी धरोहर हैं,जिसकी रक्षा हमें प्राण पण से करनी है। एक पिता वह वट वृक्ष है,जिसकी सघन छत्रछाया में पुत्र रूपी पौधा पल्लवित और  पुष्पित होता है। एक माता वह त्याग की प्रतिमूर्ति है,जिसका कोई

अन्य निदर्शन इस धरती पर नहीं है। जिस संतान ने;चाहे वह पुत्र हो या पुत्री ;अपने माता -पिता का अपमान किया,वे आजीवन रौरव नर्क ही भोगते हैं। जन्म जन्मांतर तक उन्हें कोई मुक्ति नहीं है,कोई क्षमा नहीं है। कोई भी संतान कभी भी माता -पिता से उऋण नहीं हो सकती। वही ब्रह्मा हैं, वही विष्णु है  और वही महादेव हैं। हमारी माता ही लक्ष्मी,दुर्गा और सरस्वती हैं। जिस संतान ने अपने माता -पिता के प्रति कर्तव्य का पालन नहीं किया, उसका तीर्थ,वृत, उपासना,अर्चना,पूजा ,पाठ आदि सब व्यर्थ है।

इसलिए आइए हम सब अपने माता-पिता को अपने श्रेष्ठ कर्मों से अमर बनाएँ ;जिससे हमें जानने और देखने वाले कहें कि यह अमुक माता -पिता की संतान है;जिसने उनका नाम जग प्रसिद्ध किया है। हम संतति ही अपने माता-पिता की अमूल्य धरोहर हैं,जिन्हें अपने सत्कर्मो से उन्हें हिमालय से भी ऊँचा बनाए रखना है। यह कथन सर्वांश में सत्य है :

                                                      "सर्व   पितृमयी   माता"

                                                       "सर्व   देवमय:     पिता"

05.05.2025● 4.00प०मा०

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गुरुवार, 27 मार्च 2025

वी आई पी दर्शन [ आलेख ]

 177/2025 

 

 ©लेखक 

डॉ.गवत स्वरूप 'शुभम्' 

 कहा जाता है कि भगवान कण- कण में होते हैं, किन्तु इन पंडे- पुजारियों और महंतों की इसी प्रकार एकाधिकार सरकार चलती रही तो भगवान केवल वी आई पियों के होकर रहेंगे। किसी आम आदमी या गरीब आदमियों से भगवान का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं रहेगा।भगवान की दृष्टि में उनका हर भक्त समान है।उसके साथ जाति,वर्ग,धनी,निर्धन, छोटा- बड़ा,वर्ण आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।किन्तु इन तथाकथित सेवादारों,पंडे और पुजारियों ने अपने आर्थिक लाभ के लिए काला धन कमाने के लिए विशिष्ट ,अति विशिष्ट, सामान्य आदि श्रेणियों का विभाजन किया हुआ है,जिसके अनुसार वे भगवान के दर्शन पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं।

 इस प्रतिबंध के अंतर्गत एक भक्त तेरह -चौदह घंटों तक कतारों में खड़ा रहता है और उधर जो भक्त उन्हें पाँच सौ,एक हजार ,पाँच हजार के नोट चुपके -चुपके गहा देते हैं उन्हें अविलंब ही पिछले 'चोर दरवाजे' से दर्शन करा दिए जाते हैं। इसमें भी दर्शन लाभ की श्रेणियाँ बनी हुई हैं ।जैसे जो भक्त पाँच सौ रुपये अदा करता है ,उसे सामा न्यतः दर्शन लाभ मिलता है ;किन्तु एक हजार रुपये में वह उन्हें पूजा के फूल और प्रसाद भी देता है।इसी प्रकार आमद बढ़ने के साथ -साथ दर्शन लाभ का पुण्य भी बढ़ा दिया जाता है।हो सकता है कि दस बीस हजार मिलने पर भगवान को वीवीआई पी के घर ही भगवान को भेज दें।अब भगवान भक्त के वश में नहीं इन पंडे- पुजारियों और महंतों के अधीन हैं। वे चाहें तो दर्शन कराएँ और न चाहें तो कोई दर्शन लाभ नहीं ले सकता। 

 नेता,मंत्री, धनाढ्य, अधिकारी, फिल्मी क्षेत्र के लोग, हीरो हीरोइन, नाचानिये, बड़े- बड़े व्यवसायी, पूँजीपति इन मंदिरों के मठाधीशों के वी आई पी और वी वी आई पी हैं। जो यदि चाहें तो भगवान को मंदिर से बुलाकर अपने रंग महलों में ही सपरिवार दर्शन कर सकते हैं। यह एक छत्र एकाधिकार स्प्ष्ट करता है,कि भगवान धन के अधीन हैं।ये तथाकथित पंडे -पुजारी अपने हिसाब से उन्हें नाच नचा रहे हैं। उधर देव दर्शन का दूसरा पहलू यह भी है कि जिनकी जेब में घर वापसी के लिए टिकट के पैसे भी नहीं हैं ,उन्हें तेरह - चौदहों घण्टे भीड़ में सड़ा दिया जाता है।देश के सभी बड़े -बड़े मंदिरों की इस दुर्व्यवस्था को दूर करना तो दूर सरकारों और प्रशासन के पास इसके लिए सोचने का भी समय नहीं है। 

 जनता की गाढ़ी कमाई का ट्रकों सोना चाँदी, पैसा प्रतिदिन इन मंदिरों में आस्था के नाम पर चढ़ाया जा रहा है कि व्यवस्था को सही करने के लिए इनके पास समय ही नहीं है। यदि अंध विश्वास और दुर्व्यवस्था के विरुद्ध लेखनी उठती है ,तो उसे विरोधी और धर्म विरुद्ध घोषित करने में देर नहीं की जाती।कुछ भी कहिए मत,बस सहते रहिए। अपना और आम जनता का शोषण देखते रहिए। धर्म की व्यवस्था पर बोलना और लिखना धर्म विरुद्ध है। मुँह पर टेप लगाए हुए सब मौन स्वीकृति देते रहिए।कौन नहीं जानता कि देश के बड़े -बड़े मंदिरों में क्या हो रहा है; किन्तु कोई कहने सुनने वाला नहीं है। प्रशासन पंगु हो चुका है। गरीब का शोषण हो रहा है। क्या यही धर्म है? क्या यही भगवान के प्रति समुचित व्यवस्था है? इस स्तर पर हमारी न्याय व्यवस्था भी मूक बनी हुई सब कुछ खुली आँखों से देख रही है। यह रुग्ण मानवीय मानसिकता सर्वथा निंदनीय और परिमार्जनीय है। दुनिया अंतरिक्ष के नए -नए रहस्यों का उद्घाटन कर रही है और विश्वगुरु कब्रें खोदने में मस्त है। मजहब और धर्म की लड़ाई लड़ने से फुर्सत मिले तब न कुछ विचार करे। अंधेर नगरी चौपट्ट राजा वाली स्थिति हो रही है। किंतु कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। मंदिरों की इस रिश्वतखोरी की दुर्व्यवस्था को देश ने सहज स्वीकार कर लिया है। 


 शुभमस्तु !


 27.03.2025●5.00आ०मा० 


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सोमवार, 20 जनवरी 2025

सृष्टि की समानुपातिकता [आलेख ]

 17/2025 


लेखक©

 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 सृष्टि का समानुपात सर्वथा सराहनीय है। एक ही सृष्टि में अनेक सृजन निरंतर हो रहे हैं।प्रकारांतर से यह कहा जा सकता है कि एक ही असीम सृष्टि में अनेक सृष्टियाँ हो रही हैं।प्रत्येक सृष्टि की एक विशेष विशिष्टता है कि वहाँ समानुपात है। यह ठीक है कि किसी भी सृजन के लिए सृजनकर्ता को अनेक प्रकार की कच्ची सामग्री की आवश्यकता होती है,जिसके बिना कोई सृजन नहीं किया जा सकता।वह कच्ची सामग्री किस अनुपात में हो कि मनवांछित वस्तु का सृजन किया जा सके। 

  उदाहरण के लिए मानव को प्रत्यक्ष रखा जा सकता है।संसार में जितने मनुष्य हैं ,उनके उतने ही प्रकार हैं। सबके सबसे भिन्न स्वभाव हैं। भिन्न रचनाएँ हैं।कोई किसी से मेल नहीं खाता।कोई चोर,डकैत,राहजन यकायक काव्य सृजन करने नहीं लगता।उसे अपने कार्य में ही प्रवीणता हासिल करने के गुर सीखने की तीव्र लालसा लगी रहती है। एक दिन वह बहुत बड़ा चोर, डकैत अथवा राहजन बन जाता है।इस प्रकार उसमें काव्यत्व तत्त्व का अनुपात शून्य ही समझा जाएगा। इसी बात को उलटकर देखा जाए तो किसी कवि में चोरत्त्व का भाव तो विद्यमान हो सकता है,किन्तु किसी का सोना-चाँदी,धन- सम्पत्ति,वाहन आदि की चोरी का न होकर काव्य की चोरी का हो सकता है। जिस प्रकार देह निर्माण में अस्थि,माँस,मज़्ज़ा,रक्त,त्वचा आदि का अपना-अपना समानुपात है।जो उसे विशेष आकार प्रदान करता है। क्षिति,जल,पावक,गगन और समीर इन पंच महाभूतों से निर्मित सृष्टि में पेड़ पौधे,पशु,पक्षी, जलचर, कीट,पतंगे आदि सभी का सृजन हुआ है,किंतु भिन्न - भिन्न अनुपात में।यह अनुपातों की सुभिन्नता ही एक जीव को दूसरे से अलग करती है।

    मानव के मन के सृजन की ही बात की जाये तो जितने जन उतने मन। सबके अपने-अपने ठनगन।अलग - अलग ढंग ,अपने रंग में मगन। एक ही छत के नीचे रहने वाले पति -पत्नी भी आजीवन एक मन नहीं हो पाते।अपने स्वार्थ के लिए कुछ पल के लिए एक तन हो लें ,तो हों। किंतु एक मन होना एक दुर्लभ कृत्य है।औरस संतान के गुण भी एक सम अनुपात में नहीं होते।जबकि उनके गुणसूत्र समान होते हों।सबके सृजनात्मक तत्वों का समानुपात मेल नहीं खाता।' मुंडे- मुंडे मतिर्भिन्ना' तभी तो कहा जाता है।

   विचित्र तथ्य की बात यह है कि इस समानुपतिकता के परिणामस्वरूप सृष्टि की विभिन्नता भी जुड़ी हुई है।इसलिए प्रत्येक जीव एक चलता- फिरता उपन्यास है। जिस प्रकार किसी उपन्यास में नायक, नायिका, खलनायक, खलनायिका,दास, दासी,सहायक पात्र और विदूषक होते हैं,उसी प्रकार प्रत्येक जीव का जीवन चक्र एक विशेष समानुपात से सृजित होकर अपने चक्र को पूरा करता है।एक साथ रहकर भी सब स्वतंत्र जीवन यापन करते हैं।सहजीवन के बावजूद एक सूक्ष्म विभेद बना रहना अनिवार्य है। यह विभेद ही एक इकाई को दूसरी से विशेषत्व प्रदान करता है।संसार में एक भी ऐसा जीव अथवा नर नारी नहीं है ,जो अपने निहित विशेषत्व से शून्य हो।उनका यह विशेषत्व ही उन्हें परस्पर आकर्षित करता है और उन्हें परस्पर पूरक बनने के लिए प्रेरक बनता है।

    समानुपातिकता जहाँ एक ओर परस्पर संयोजन करती है,वहीं वह उन्हें विभेद की ओर भी ले जाती है।प्रकृति की ओर से सृष्टि को समानुपातिकता एक चमत्कारिक वरदान है।विभिन्न गुणों, विशेषताओं,अवगुणों,भावों,विचारों आदि का निर्माण इसी से होता है।इसका अपना महत्त्व है।अपना अस्तित्व है।भले भी मानव रक्त का रंग लाल होता है,किंतु हम सबकी लालिमा भी अपने सूक्ष्म रूप में अलग ही है।रक्त का वर्गीकरण चार वर्गों में करने के बावजूद कहीं भी सदृशता नहीं है। सब अपने में 'यूनिक' हैं। इस स्तर पर इतिहास अपने को दुहराता नहीं है।हर जीव अपना विशेष जीवन लेकर अवतरित होता है और अपनी विशेषताएँ लिए हुए ही विदा हो जाता है। प्रकृति का पिता नित्य निरंतर नए साँचे बनाता है और नई और 'यूनिक' सृष्टियाँ करता है। युग पर युग बीतते चले जाते हैं ,चले जा रहे हैं,किंतु कहीं भी कोई पुनरावृत्ति नहीं है। हर विहान नव विहान है। हर साँझ नव्य संध्या है। हर फूल नया है,हर शल्य नया है।यही नहीं तो सृष्टि की नित्य नवलता ही क्या है !

      आइए सृष्टिकर्ता की इसी समानुपातिकता को समझें,उस पर विचार करें।जितनी गहराई में उतरेंगे ,हमें नए मुक्ता मणि सुलभ होंगे।उन मुक्ता मणियों को पाएँ और आनंद लाभ करें। सृष्टिकर्ता के उस आनंद को पाना ही जीवन है। वही हमारा लक्ष्य भी होना चाहिए। 

 शुभमस्तु ! 

 18.01.2025● 11.45आ०मा० 


सोना है इसलिए जागना भी है! [आलेख ]

 18/2025


 

 ©लेखक

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 मैं रोज ही सोता हूँ। मैं रोज ही जागता हूँ।सोना है,इसलिए जागना भी है। जागना है ,इसलिए सोना भी है। मेरे लिए जागने और सोने का यह क्रम अनवरत है।जब से जन्म लिया है ,तब से निरंतर सोता और जागता रहा हूँ।मेरे सोने और जागने की यह अनिवार्यता यह दर्शाती है कि मैं जीवित हूँ।एक जीवंत जीव हूँ। एक जीवित मानव हूँ। इस सोने और जागने के बीच में भी बहुत कुछ है ,जो नित्य प्रति परिवर्तित होता है।जीवन की कितनी अनिवार्य क्रियाएँ इसी देह से सम्पन्न हो रही हैं।जो यह सिद्ध करती हैं कि मैं एक जीवित मनुष्य हूँ।यह बीच वाला काम आपको और अधिक खोलकर बताना युक्तिसंगत नहीं होगा ;क्योंकि आप सब भी वही सब करते हैं,जो मुझसे कहलवाना चाहते हैं। 

  सोने और जागने के मध्य एक और महत्त्वपूर्ण कार्य यह भी है कि किसी को जगाना।केवल अपने सोने और जागने से काम चलने वाला नहीं, मुझे ऐसा भी कुछ करना है ,करना भी चाहिए, जो मेरे सोने और जागने की सार्थकता बता सके।किसी सोते हुए को जगा देना कोई छोटा काम तो नहीं।कम से कम मेरी अपनी दृष्टि में तो कदापि नहीं।वह भी क्या सोना और जागना कि खाए,पिए,अर्जन, विसर्जन किए और अलविदा हो लिए।जियें तो ऐसे जिएं कि जो शेष जीने वाले हैं वे भी कहें कि क्या था उसका जीना ! मनुष्यों के बीच में जिंदा नगीना! 'ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोए ।' 

  सोने का अपना एक अलग आनन्द है और उधर जागने का तो और भी अलग आनंद है।जिसने सोने , जागने और मध्यवर्ती कर्मों का आनन्द जान लिया ,उसी का जीना सार्थक है।वरना एक सुअर श्वान या अन्य जीवों के जीवन में अंतर ही क्या रह जाएगा?प्रत्येक विहान एक नया विहान हो,वही जागना जागरण है और जो सोना शांति की अतल गहराइयों में गोते लगवाए ,वही सोने का स्वर्ण है। 

  अभी मैंने एक बात कही कि सोने और जागने के बीच में किसी को जगाना भी मेरा और हमारा काम है।इस काम को हम कितनी सफलतापूर्वक कर पाएँ ,ये अलग बात है।सोए हुए को जगाना अच्छा नहीं माना जाता। विशेषकर किसी का सोना अभी अधूरा हो। नींद कच्ची हो।यदि कुम्भकर्ण को कच्ची नींद से ही उठा दिया जाएगा, तो क्या कहर बरपेगा इसकी कल्पना भी नहीं की सकती।इसलिए अधूरी नींद की पहचान करके ही जगाना श्रेयस्कर रहता है।तरह -तरह के लोग अलग - अलग विधि विधानों से जगाते हैं।इसके लिए उपदेश, भाषण, काव्य लेखन, कविता पाठ, सहित्य सृजन,डांट-फटकार,गुरु मंत्र,विभिन्न प्रकार की पुस्तकों से स्वाध्याय,विद्यालय में शिक्षकों द्वारा शिक्षण कार्य करना,धर्म,अध्यात्म आदि का आश्रय लिया जाता है। 

   हमें जगाने में हमारे संस्कार भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कार भी यथासमय जाग्रत होते हैं।कुछ लोग 9-10वर्ष की आयु में ही विरक्त जीवन स्वीकार कर योगी,सन्यासी, अघोरी या नागा बन जाते है। यह पूर्व जन्म के संस्कारों का जागरण ही है।इसीलिए हर व्यक्ति योगी ,सन्यासी,अघोरी या नागा नहीं बन जाता। यह भी पूर्व जन्म की अधूरी मंजिल को पाने का प्रयास है। प्रत्येक व्यक्ति इसीलिए कवि अथवा साहित्यकार नहीं बन जाता।सच्ची लगन और प्रयास अपना रंग अवश्य दिखलाते हैं, किंतु जन्मजात संस्कार की बात कुछ अलग ही होती है।जागना सोना तो रोज सबको है।यह दो अनिवार्य जैविक क्रियाएँ हैं।जिनके बिना जीवन की सूचारुता नहीं।मानव और मानवेतर प्राणियों के लिए ये दोनों अनिवार्य हैं।इसके अतिरिक्त मनुष्यों के हिस्से में कुछ और भी आया है।संभवतः मैं वैसा ही कोई मनुष्य हूँ ,इसलिए सोए हुओं को अपने ढंग से जगाने का कार्य कर लेता हूँ। 

  आप में से कुछ लोग सोचेंगे कि यह भी ऐसी कौन सी नई बात कह दी कि सोना और जागना।अपनी -अपनी सोच है,अपना-अपना मंथन है, चिंतन है।इस सोने जागने और उसके साथ में मुझे कुछ विशेष तत्त्व मिले कि सामान्य सोना और जागना मुझे विशेष लगा।जीव के जीवन के एक ही सिक्के के दो पहलू।वह भी कोई सामान्य पहलू नहीं, विशेष पहलू।जिनमें विशेष रस है।विशेष आनंद है। जहाँ आनंद है ,वहीं जीवन भी है।आप भी उस आनंद का रसास्वादन करें और अपने ऊपर प्रभावी करके उनके दोलनों में झूलें। अनन्त आकाश की बुलंद ऊंचाइयां छू लें। आप पाएँगे कि आप ने कुछ नया पाया है।वरना व्यर्थ ही सोती जागती आपकी काया है। सर्वत्र परम आनंद की छाया है। 


 शुभमस्तु ! 


 19.01.2025●10.30प०मा०


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शनिवार, 17 अगस्त 2024

आचारों का अचार [ आलेख ]

 357/2023

            

©लेखक

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

सत्य बात तो यह है कि आदर्श आचार संहिता जैसी कोई बात नहीं होती।यदि यह जीवन आदर्शों की पटरी पर ही चलने लगे,तो दौड़ना तो क्या रेंगना भी असम्भव हो जाए।'आदर्श' जैसा शब्द किताबों में बहुतसुशोभित होता है।सदैव से होता भी रहा है।किंतु वास्तविकता यही है कि वह किताबों में लिखा ही रह गया है। और आदर्शों की उस किताब को आज तक  किसी ने खोलकर भी नहीं देखा। उसके पन्नों की धूल तक कभी नहीं झाड़ी गई।यह ठीक वैसे ही है ,जैसे चुनावों में आचार संहिताकी किताब सबको पढ़ने समझने और करने के लिए दी जाती है,किंतु कोई भी पीठासीन अधिकारी उसे खोलकर भी नहीं देखता।यदि वह उसे पढ़ने की कोशिश भी करे तोएक वोट भी नहीं डलवा सकता।उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम में उसे यही सिखाया जाता है,कि 'जैसी बहे बयार तबहिं रुख तैसौ कीजै।' अर्थात स्वमति से काम लेते हुए ही कार्य का संपादन करें न कि किताब के पन्ने पलटते रहें।

         इससे यही स्पष्ट होता है कि व्यवहारिक ज्ञान ही काम आता है।किताब तो इसलिए लिखी जाती है कि 'रसीद लिख दी ताकि वक्त पर काम आए।' इस प्रकार 'आदर्श' और 'व्यवहार' :दो अलग-अलग बातें हैं। व्यवहार आदर्शों से कभी मेल नहीं खाते। हर समय ,स्थान (भूगोल) और परिस्थिति की व्यवहारिकता अलग -अलग होती है।लकीर के फ़क़ीर बनकर चलना न तो उचित है और न सम्भव ही।घासपात भी जलवायु के अनुकूल उगती है।गर्म देशों और प्रदेशों के पेड़ पौधे ठंडे स्थानों से भिन्न ही हुआ करते हैं।

हमारे 'आदर्श' हमें दर्श अर्थात देखने और दिखाने के हाथी दाँत हैं।जबकि 'व्यवहार' से करणीय का समाहार होता है।जरूरत पड़ने पर अपने और दूसरे के बचाव के लिए अपनी गाड़ी सड़क से फुटपाथ  पर भी उतारनी पड़ जाती है।जबकि सड़क पर चलने का आदर्श यह नहीं कहता कि सड़क छोड़ पगडंडी चलें।व्यवहार ही हमें गाड़ी को आत्म रक्षार्थ और परात्म रक्षार्थ लीक छोड़ अलीक चलने के लिए तत्काल ज्ञान देता है। हमारा समग्र मानव जीवन ही ऐसा है कि वहाँ व्यवहार ही सर्वोपरि हो जाता है।

          प्रकृति के समस्त जीवधारी पशु,पक्षी,पेड़,पौधे,लताएँ,जलचर,थलचर किसी आदर्श की किताब से जीवन नहीं जीते।उन्हें भी अपने व्यवहार ज्ञान से यथा परिस्थिति चलना पड़ता है।प्रकृति ने सबको अलग प्रकार की कार्य शैली की क्षमता प्रदान की है। बुनकर पक्षी   बया कितना सुंदर और कारीगरी से स्व नीड़ का निर्माण करता है तो कोयल को घोंसला बनाना ही नहीं पड़ता और उसके अंडे बच्चे कौवे के  घोंसले में  पलते  - बढ़ते हैं। शेर , चीता, खरगोश, हिरन, सियार,चूहा, बिल्ली,  कुत्ता, गाय,बैल,मुर्गा,गौरैया,कबूतर, मोर आदि सबकी जीवनचर्या  पृथक -पृथक है।वे न स्कूल कालेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ते या प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और न मनु स्मृति,गीता, वेद,पुराण, कुरान,बाइबिल ही उनके आदर्श हैं।वहाँ मात्र व्यवहार ही व्यवहार है। वही जीवन का सदाचार है।वही जीवनाधार है।पढ़े -लिखे और बिना पढ़े -लिखे जन किताबी जीवन नहीं जीते।आदर्शों की किताबें तो अलमारियों की शोभा मात्र हैं।

यहाँ प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि जब आदर्शों की मोटी-मोटी पोथियों की जरूरत ही नहीं तो ये लिखी ही क्यों गईं।अचार को दाल सब्जी की तरह नहीं खाया जाता। इसी प्रकार  हमारे 'आचारों का अचार' तभी काम आता है ,जब या तो घर में दाल-सब्जी समाप्त हो गई हो  अथवा हमें 'आचारों के अचार' का  स्वाद भर लेना हो। यदि रामायण पढ़कर राम बन जाते ,तो  त्रेता से कलयुग तक करोड़ों रामों का निर्माण हो जाता। यदि सीता के चरित्र से कोई नारी सीता बनती तो घर -घर की कहानी कुछ और ही होती।रावण,सूपनखा,धृतराष्ट्र, दुर्योधन,कंस आदि चरित्रों के लिए कोई रामायण महाभारत नहीं लिखे पढ़े जाते। ये चरित्र तो कुकुरमुत्ते की तरह खुद- ब -खुद  माताओं की कोख फाड़कर निकल ही आते हैं।परंतु राम,भरत,लक्ष्मण,शत्रुघ्न, सीता ,उर्मिला,कृष्ण जैसे आदर्श प्रत्यावर्तन नहीं करते।यही आदर्श और व्यवहार का अंतर है। आदर्श एक मंत्र है तो व्यवहार एक आम तंत्र है।जिसके लिए जीव मात्र क्या  मानव मात्र स्वतंत्र है।

शुभमस्तु !

17.08.2024● 1.15प०मा०

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शनिवार, 10 अगस्त 2024

शब्दोत्सव [आलेख ]

 343/2024 


 

 ©लेखक 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' '

        शब्द' की महिमा के समक्ष मैं निःशब्द हो जाता हूँ।प्रकृति स्वरूप परमात्मा ने 'शब्द' जैसी अद्भुत शक्ति का सृजन कर संसार को दिया है।कोई भी सार्थक ध्वनि एक विशेष अर्थ का बोध कराती है।उस शब्द के अर्थ की ग्राह्यता की क्षमता हर जीव की अलग - अलग होती है।कोयल की कुहू-कुहू,कौवे की काँव -काँव, मोर की मेहो-मेहो ,मुर्गे की कुकड़ -कूँ, गौरैया की चूँ -चूँ ,मेढक की टर्र-टर्र, झींगुर की झर्र-झर्र,कुत्ते की भों-भों,बंदर की खों -खों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़,सियार की हुआ -हुआ आदि अनेकशः हजारों लाखों शब्दों का अपना विशेष महत्त्व है।जिस जंतु का जो शब्द है, उसका सजातीय भी उसका अर्थ भलीभाँति जानता समझता है।

         अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य को भी शब्द की विशेष और अद्भुत शक्ति अपने सहज रूप में प्राप्त है। यह अलग बात है कि उसकी भाषा हिंदी,उर्दू,गुजराती, बंगला, तमिल,तेलुगु, कन्नड़,मलयालम, उड़िया,अंग्रेज़ी, चीनी,फ्रेंच,जापानी, रूसी आदि कुछ भी हो सकती है। शब्द एक ध्वनि विशेष है,जिसकी ग्राह्यता की अपनी सीमा है।यों तो बादलों की गर्जन, आकाशीय तड़ित की तड़कन,घण्टे की घन-घन,टन- टन कुछ संकेतक शब्द ही तो हैं।

         सामान्यतः प्रत्येक मनुष्य अपनी -अपनी भाषा की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से ही करता है,जो उस जैसे अन्य मनुष्यों के लिए सहज रूप में बोधगम्य होती है।इसके साथ ही सहित्यकार अपने विशेष शब्द -शृंगार और शृंखला से उसे गद्य या पद्य का एक नया रूप देकर उसे आकर्षक और विशिष्ट बना देता है। यह उस साहित्यकार अथवा कवि विशेष का विशेष योगदान है,जो मानव मात्र के लिए उपयोगी है।उन्ही शब्दों को एक विशेष शैली सूत्र में पिरोकर वह एक ऐसी माला का निर्माण करता है,कि पाठक या श्रोता के मुख से सहज ही वाह!वाह!! निकल पड़ता है।यही उस शब्द - साहित्य का चमत्कार है। 

              यों तो रोना भी एक शब्द है। गाना भी शब्द है।किंतु रोने,गाने,हँसने, खिलखिलाने सबका शब्दकोष भी अलग ही है।जब शब्द लय, गति, प्रवाह, रस,अलंकार ,शब्दशक्ति आदि से समन्वित होकर प्रकट होता है,तब वह सहित्य का रूप ग्रहण कर जन हितकारी बन जाता है। यही उस शब्द- साहित्य की सार्थकता है।यह अलग बात है कि वह लिखित रूप में किसी कृति का रूप धारण करता है अथवा मौखिक वाङ्गमय रूप में ही अस्तित्व ग्रहण करता है।प्रचार - प्रसार और बहु जन हिताय बनाने के लिए उसे ग्रंथकार बनाना भी आवश्यक हो जाता है।शब्द के इसी चमत्कारिक रूप से ही साहित्य की विविध विधाओं :कहानी, उपन्यास,नाटक, एकांकी,व्यंग्य, निबंध, लेख,निबंध, आलेख,जीवनी, रेखाचित्र,संस्मरण, मुक्तक काव्य,(दोहा,चौपाई,सोरठा, कुंडलिया,सवैया,कवित्त आदि) तथा प्रबंध काव्य (महाकाव्य, खण्डकाव्य)का प्रादुर्भाव हुआ है।जो आज भी साहित्य साधकों की शब्द साधना का संस्कार बन कर उभरा है। 

         शब्द वह सुमन है;जिसे फेंक कर मारें तो पत्थर है और करीने से सजा दें तो पूजा का फूल बन जाता है।माला में गूँथ देने पर वही शब्द साहित्य बनकर जन -जन के गले में सुशोभित होता है।प्यार में भी शब्द है और फटकार में भी शब्द है। कहीं वह फूल है तो अन्यत्र शूल भी है।शब्द की महिमा का जितना भी गुणगान किया जाए,कम ही है।सम्पूर्ण संसार शब्दमय है।चाहे वह नदी की हिलोर हो,या सागर की रोर हो, पावस में नाचता मोर हो,या स्कूली बच्चों का शोर हो,सर्वत्र शब्द ही शब्द है।वह विरहिणी के वियोग में है तो गर्भिणी के आसन्न प्रसवयोग में भी है।कहीं वह वीणा की झंकार है,तो कहीं धनुष की भीषण टंकार है।कभी वह युगल प्रेमियों का प्यार है,तो कहीं वात्सल्य मय पिता की पुत्र को मीठी ललकार है।शब्द की समस्त सृष्टि में गुंजार है।मानव मात्र पर शब्द का अधिकार है।शब्द की सरकार है।बिना शब्द के सब बेकार है।यद्यपि कोई शब्द ईश्वरवत निराकार है। फिर भी वह इस कोमल हृदय के आर है तो पार भी है।यही शब्दोत्सव शृंगार है। 

 शुभमस्तु ! 

 10.08.2024●10.30आ०मा० 

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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को [ आलेख ]

 196/2024




©लेखक

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माना यह जाता है कि मनुष्य अपनी सोच से ही वास्तविक मानव बनता है।यह उसकी सोच का ही चमत्कार है कि फिर कोई स्वामी विवेकानन्द पैदा नहीं हुआ।दूसरे राम,कृष्ण, बुद्ध नहीं आए। सोच की लोच से ही आदमी का क्या से क्या बन गया।वह शरीर से आदमी अवश्य बना रहा ,किंतु उसकी सोच ने उसे नीचे गिरा दिया अथवा ऊपर उठा दिया।

सामान्यतः सोच दो प्रकार की होती है। छोटी सोच और बड़ी सोच।तथाकथित बड़ा आदमी  कहे  जाने वाले अथवा अपनी और दुनिया की नजर में अपने को बड़ा माने जाने वाले आदमी की  सोच यदि छोटी होती है ,तो उसे  मानव इतिहास बड़ा कदापि नहीं मानता।दुनिया तो स्वार्थ आधारित सोच से ही किसी का मूल्यांकन करती है।जिस व्यक्ति से उसका स्वार्थ सधता हो ,वह उसकी दृष्टि में 'महान' होता है।उधर दूसरी ओर जहाँ अपना उल्लू सीधा न होता हो ,उसे वह महान मानने के लिए एकदम तैयार नहीं है।इससे यह सिद्ध होता है कि इस दुनिया में मनुष्य की महत्ता का आधार उसकी सोच नहीं,आदमी का निजी स्वार्थ है। जबकि तटस्थ रूप से विचार किया जाए तो सोच ही उसकी महानता अथवा क्षुद्रता का आधार है।

आज धरती पर अनेक  ऐसे नेता हैं और कुछ ऐसे ही नेता जो इस असार संसार से अलविदा हो गए, अपनी सोच के कारण अपनी नजर में महान और महानता के मानकों की नजर में अत्यंत क्षुद्र  हुए हैं ।राजनीति में परिवारवाद अथवा जातिवाद निस्संदेह छोटी सोच के अंतर्गत आगणित किए जाते हैं।फिर ऐसे नेता को महान कैसे कहा जा सकता है ? हाँ,उसके परिवार या जाति विशेष के लिए वे किसी राम कृष्ण से कम नहीं हैं।जो नेता या व्यक्ति मानव मात्र का हितैषी नहीं है, वह महान हो ही नहीं सकता।किसी खूँटे से बंधकर तो एक भैंस बकरी भी घास चर लेती है,फिर इंसान और पशु में भेद ही क्या रह गया!

तथाकथित बड़ों की  'छोटी सोच' से वह तो कलंकित होता ही है,वह देश,समाज, इतिहास के लिए भी नगण्य होता है। छोटी सोच के अनेक रूप और आकार हो सकते हैं।धृतराष्ट्र की अंधी सोच उसके विनाश का कारण बनी।उसी सोच को उसने अपनी संतति दुर्योधन,दुःशासन आदि में भी स्थानांतरित किया।अंततः वह राष्ट्र और परिवार हन्ता ही बनकर रह गया।लाशों के अंबार पर कभी देश नहीं चलाया जा सकता।समाज सुरक्षित नहीं रह सकता।सामने वाले को मिटाकर भला कौन सुख और शांति से जिया है!वर्तमान युग में भी ऐसे नेता गण हैं,जो दूसरे का अस्तित्व ही मिटाना चाहते हैं।उनकी 'एकला चलो रे' की सोच कोई बड़ी सोच नहीं कही जा सकती।केवल 'मैं' और 'मैं' का बिगुलनाद उन्हें उनके स्व समाज से छितरा देता है।प्रत्यक्ष में भले ही कोई कुछ न बोल पाए ,किंतु मनों में खटास तो भर ही देता है। आतंक और भय के बल पर देश क्या एक परिवार को भी नहीं चलाया जा सकता। अपने को सबसे बुद्धिमान ,सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य समझने की 'छोटी सोच' उसके विनाश का कारण बनती है।पैसे से खरीदा गया आधिपत्य दीर्घजीवी नहीं हो सकता।किसी की देह को खरीदा जा सकता है,किन्तु आत्मा को नहीं।

मजे की बात यह भी है कि प्रत्येक  व्यक्ति अपनी सोच की 'छोटाई' या 'बड़ाई'अवश्य पहचानता है।वह 'छोटी सोच' का  स्वामी बनकर भी अपने को 'महान' सनझने और जतलाने की सफल अथवा असफल कोशिश करता है। सोच की वास्तविकता किसी से किसी भी तरह छिपाई नहीं जा सकती।हमाम में लोग नग्न हो सकते हैं अथवा न होते हैं,किन्तु सबकी सोच उन्हें समाज या देश में नंगा अवश्य कर देती है।व्यक्ति के कर्म और उसकी कार्यप्रणाली उसकी सोच के मूल में रहते हैं।वही उसे दुनिया के समक्ष उजाकर करते हैं।विचारों की व्यापकता ही व्यक्ति की महानता का मूल है और विचारों की क्षुद्रता ही उसे मानव देह में भी सूकर कूकर बना डालती है।कोई व्यक्ति किसी उच्च पद या स्थान पर है,इससे वह महान नहीं बन जाता। कौवा अंततः बैठेगा तो गोबर के ढेर पर ही न ?जैसे कोई बगुला हंस नहीं हो सकता, वैसे ही 'छोटी सोच'धारी कभी महान नहीं हो पाता।उनका नाम इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में अंकित नहीं करता,वरन काले अक्षरों में ही लिखता है।सोच से ही मानव से महामानव बनता है और सोच से ही महादानव। शरीर तो दोनों का एक जैसा ही होता है,किन्तु सोच आधारित कर्म उसका उत्थान पतन करते हैं। नौ सौ चूहे खाकर यदि बिल्ली हज को  जाए तो वह शेर सिंह नहीं बन जाती।आज के तथाकथित 'महानों' का स्तर भी चूहे खाए हुए  हाजियों के समान ही है।


शुभमस्तु !


30.04.2024●9.45आ०मा०

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शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

चिंतक!चिंतन!!चिंतना!!! ● [ आलेख ]

 427/2023 

 

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● © लेखक 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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                 मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है।उसके चिंतन की चर्खी निरन्तर चलती रहती है। 'चिंतक' शब्द का निर्माण 'चिंता' से हुआ है।प्राणिजगत में इस चिंता ने ही उसे अपने प्राणत्व की सबल सामर्थ्य के आधार पर इतना अग्रगामी बना दिया है कि वह अब रोकने से भी रुकने वाला नहीं है।कितने भी गति-अवरोधक लगा लें ,उसे कोई भी आगे बढ़ने से रोक नहीं सकता।वह चिंतन ,अनुचिंतन,बहुचिन्तन, अंतःचिंतन, बहिर्चिंतन,निज चिंतन, जगचिंतन,परचिन्तन, सुचिन्तन,कुचिंतन,मधुचिंतन, कटुचिंतन,बदचिंतन,वाद चिंतन,स्वादचिंतन,आबाद चिंतन,बर्बाद चिंतन,अच्छाद चिंतन,प्रसाद चिंतन,अवसाद चिंतन,हास्य चिंतन,लास्य चिंतन, आवास चिंतन, अर्थ चिंतन, अनर्थ चिंतन, कला चिंतन, सहित्य चिंतन,दार्शनिक चिंतन, ज्ञान चिंतन,विज्ञान चिंतन,धर्म चिंतन, अधर्म चिंतन,चोर चिंतन,घोर चिंतन, अघोर चिंतन,बरजोर चिंतन,प्रेयसी चिंतन, प्रेमी चिंतन, पत्नी चिंतन, सपत्नीक चिंतन, संतति चिंतन,पितृ चिंतन,कार्य चिंतन, बाज़ार चिंतन,देश चिंतन, विदेश चिंतन,मान चिंतन,अपमान चिंतन,चारु चिंतन ,अचारु चिंतन,वर्तमान चिंतन, अतीत चिंतन,भावी चिंतन,काव्य चिंतन , गद्य चिंतन, व्यंग्य चिंतन,व्यवसाय चिंतन आदि अनेकशः चिंतन किया करता है। 

              चिंतन की पात्रता अलग - अलग पात्र पर अलग -अलग हो सकती है। कोई कोई पात्र बहु चिन्तनशील भी होता है।मानव व्यक्तित्व की बहु आयामी चिंतना कब किस रूप में होती है;कहा नहीं जा सकता। मानव का मन पानी पर चलती लहर की तरह चलायमान रहता है।कभी ऊपर कभी नीचे।कभी इधर कभी उधर। कभी ठंडा कभी गर्म।कभी कठोर कभी नर्म।कभी मष्तिशकीय कभी मर्मीय। वह नियंत्रणीय भी है और अनियंत्रणीय भी।

               सोते, जागते और स्वप्न देखते हुए भी चिन्तन -चर्खी का घूर्णन अनेकशः चमत्कार करता है चिन्तन से उसे कभी चैन नहीं ,विश्राम नहीं ,ठहराव नहीं, उलझाव नहीं। कोई गणना नहीं कि चर्खी ने कितने चक्र पूर्ण किए। जैसे छत- पंखा निरन्तर घूर्णन करते हुए कब किंतने चक्र लगा गया ,इसका कोई आगणन नहीं होता। ठीक उसी प्रकार मन का चिंतन भी अविराम और हृदय की तरह आजीवन अनथक घूमता है और मानवीय सफलता किंवा असफलता के बहु आयाम चूमता है। स्व- सफलता पर झूमता है तो असफलता पर ऊँघता है। 

            कहा गया है कि 'सब ते भले वे मूढ़ जन जिन्हें न व्यापे जगत गति।' यह चिंतना की बात इस प्रकार के मानव देह धारियों पर प्रभावी नहीं होती।उन्हें तो मानव देह में शूकर- श्वान समान ही मान्य किया जाता है। जिस प्रकार शूकर अपनी मस्ती में आकंठ निमग्न रहता हुआ पंकाशय में पड़ा - पड़ा गड़ा -गड़ा रहता है। उसी तरह ऐसे नर तन धारी जीव भी अपने स्वत्व से बेखबर लीन रहते हैं।दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है ! उन्हें क्या करना ?क्यों जानना ? क्यों किसी को मानना , अपनी मस्ती में निजत्व को ढालना ।टीवी ,अखबार ,सोसल मीडिया उसके किसी काम के नहीं।सब गलत, वह अपने में सही। उसके जैसा कहीं कोई भी नहीं।क्यों करे वह भी अपने दिमाग़ का दही। उसकी तो अपनी कीचड़ में ही गंगा यमुना बही।इसीलिए तो उसने स्व मस्ती की गैल गही।

              चिंतना के इतने बृहत सागर में डूबता - उतराता मानव अपने अंतिम क्षण तक उससे उबर नहीं पाता। यहीं पर वह खग ,पशु, जलचर ,स्वेदज,अंडज और पिंडज से भिन्न हो जाता है। उसके मन - मष्तिष्क की यह विशेषता सर्व अग्रणी जंतु की कोटि में स्थापित कर देती है।जिसे आज कोई भी नहीं छू सका है। हाँ,इसी चिंतना के बल पर वह चाँद ,सितारों, मंगल ,शुक्र आदि की ऊंचाइयों को पा सका है।उसकी चिंतना की चमत्कारिता ने मोबाइल ,कम्प्यूटर और रोबोट जैसी मशीनें बना डाली हैं। जो अपनी क्षमता में एक से एक निराली हैं। 

             आइए हम सब मानव की नवल चेतना का अवगाहन करें और उसके उच्चतम शृङ्गों का स्पर्श करें। सु -चिंतनशील अग्रणी मानव बनें।मानव की देह में दानव न रहें। प्रकृति द्वारा प्रदत्त हमारा यही सबसे महान उपहार होगा।इस नश्वर देह का उपकार होगा। 'ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत' से जीवन का उद्धार नहीं होगा। कर्म -फल कभी न कभी कृतकार्य होगा। 

 ● शुभमस्तु !

 29.09.2023◆ 7.45प०मा०


रविवार, 11 जून 2023

समयापतन और अप्रत्याशित का साधारणीकरण ● [आलेख ]

 251/2023

   

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●© लेखक 

● डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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सूरज समय का द्योतक है।वह अनवरत गतिमान है।उसका उदय,गगन पथ में आरोहण, अवरोहण औऱ अस्त उसके अनेक रूप हैं। किसी वस्तु ,व्यक्ति  के आरोहण में जो दुरूहता और काठिन्य है ,वह दुरूहता अवरोहण में नहीं है।कोई भी वस्तु या व्यक्ति जितनी देर से ऊपर चढ़ पाती है,उसके गिरने में उतना समय नहीं लगता। यही तथ्य सूरज या समय पर भी प्रभावी होता है।

हम औऱ आप सभी जन समाचार पत्रों, टी वी, सोशल मीडिया आदि पर नित्य प्रति जिन घटनाओं को नित्य प्रति देखते,पढ़ते और सुनते आ रहे हैं; उन्हें  देख ,पढ़ और सुनकर हमें कोई आश्चर्य नहीं होता।सब कुछ सामान्य -सा लगने लगा है। यह सब देखनेपढ़ने और सुनने के हम आदी हो चुके हैं। 

बड़ी -बड़ी  रेल दुर्घटनाएँ होती हैं।आकाश पथ में हवाई जहाजों में भीषण एयर क्रेश होते हैं।सड़कों पर नित्य बड़े छोटे वाहन भिड़ंतों में धन  -जन की हानि होती है।अग्निकांड होते हैं। भूकम्प आते हैं। सुनामियां कहर बरपाती हैं। लोग कीड़े मकोड़ों की तरह एक दूसरे का नर संहार कर रहे हैं। स्त्रियों को घरों में मारा और खण्ड- खण्ड कर काटा जा रहा है। मजहब औऱ धर्म के नाम पर मानव ही मानव का शत्रु बन गया है।धर्म,शिक्षा, धर्म, व्यापार,राजनीति के नाम पर आदमी आदमी का रक्त पिपासु बन गया है। बलात धर्मांतरण कर मानव के मानवीय अधिकारों का हनन किया जा रहा है।मानव मानव क्या, पड़ौसी पड़ौसी को, देश समीपस्थ देश को,

एक महाशक्ति दूसरी महाशक्ति को नष्ट करने पर तुली हुई है। बारूद के ढेर पर बैठी हुई इस दुनिया का क्या हश्र होने वाला है!कोई नहीं जानता। मानव अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारते हुए आत्म हंता बना बैठा है। मानवीय अहं की पराकाष्ठा ने उसे अंधा बना दिया है।

मात्र चार पाँच दशक पहले इस प्रकार की घटनाओं को देख सुनकर आदमी थर्रा जाता था। दाँतों तले अँगुली दबा लेता था।उसका दिल दहलाने लगता था। किंतु आज सब कुछ सामान्य हो चला है।यहाँ तक कि अब इस प्रकार की घटनाओं से न हम विचलित होते हैं,न आश्चर्य प्रकट करते हैं और न ही भविष्य के प्रति आशंकित ही होते हैं।अखबार की केवल सुर्खियां पढ़ कर ही पूरा अखबार बाँचा हुआ मान लिया जाता है। रोज - रोज वही। सब एक जैसी ही खबरें, नया क्या है;जिसे पढ़ा जाए! 

वर्तमान में समय का पतन (अवरोहण)जिस गति से हो रहा है, वह अप्रत्याशित औऱ अकल्पनीय है।पिछले पचास वर्षों में समय और मनुष्य के जितने रंग देखे गए हैं, संभवतः उससे पहले कभी नहीं देखे गए  होंगे। अंततः इस आदमी को हो क्या गया है।रामायण औऱ महाभारत के जीवन मूल्य झूठे पड़ गए हैं। संतान अपने माँ बाप का सम्मान नहीं करती।बल्कि उसके धन पर ऐश और 

विलासिता पूर्ण जीवन जीना चाहती है। गुरु शिष्य के सम्बंध तार  - तार हो रहे हैं। भाई - भाई का  शत्रु औऱ मात्र हिस्सेदार बनकर रह गया है।मित्र मित्र की, पत्नी पति की ,पति पत्नी की, प्रेमी प्रेयसी की हत्या कर सुर्खियों में छा रहे हैं। लगता है कि इस आदमी की जिंस से तो ढोर, कीट - पतंगे, पखेरू औऱ जलचर जीव ही बेहतर हैं।

मूलतः मनुष्य भी तो शेर, चीता, गधा ,घोड़ा, गिद्ध ,चील , मच्छर, खटमल की तरह एक जंतु ही है न ! उसकी प्रवृत्तियों से बाहर जा ही कैसे सकता है? मानवीय पतन का दौर उसके विनाश का दौर है। कुछ नहीं पता कि क्या होगा? मानवीय सोच का दूषण उसे कहाँ ले जाकर पटके ,कोई नहीं जानता।

●शुभमस्तु !

11.06.2023◆10.30आ०मा०

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

आस्था की कमी 🪷 [आलेख ]

 72/2023

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 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       मानव - जीवन में अनेक जीवन - मूल्यों की मान्यता है।इन मूल्यों के आधार पर ही हमारी संस्कृति और सभ्यता का विशाल भवन निर्मित हुआ है।ज्यों- ज्यों मानव के कदम भौतिकवाद की ओर बढ़ रहे हैं ,हमारे समस्त जीवन - मूल्यों में निरंतर ह्रास हो रहा है।प्रेम, दया, ममता, करुणा,वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति आदि के प्रत्येक रूप में उनका क्षरण हुआ है।मानवीय अधिकार ,कर्तव्य और न्याय हमारे सामाजिक जीवन के आधार हैं।उधर शांति, प्रेम, अहिंसा आदि हमारे अध्यात्म के आधार स्तम्भ हैं।

     हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा- पद्धति मानवीय मूल्यों की सशक्त आधार रही है।जहाँ अध्ययन करने के बाद विद्यार्थी एक पूर्ण मनुष्य बनकर अपने घर लौटता था। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से जीवन - मूल्यों की पोषिका औऱ संरक्षिका रही है।उसने ही जीवन मूल्यों का विकास और प्रचार- प्रसार भी किया है। 

         निरन्तर बढ़ते हुए भौतिकवाद ने हमें हमारे मूल्यों से पतित कर दिया है। हमारे परिवार जीवन- मूल्यों के संरक्षण की प्रथम पाठशाला है औऱ हमारे माता- पिता तथा वरिष्ठ ज़न ही उसके शिक्षक ,पोषक, प्रशिक्षक और संवाहक रहे हैं।किंतु परिवार और समाज में अब उस प्रेम ,लगाव, घनिष्ठता और सहयोग की भावना का निरंतर क्षरण हो रहा है। मनुष्य का मनुष्य से पारस्परिक विश्वास विखंडित हो गया है। अपने माता- पिता, गुरु ,परिजनों के प्रति आस्था क्षीण होती जा रही है। निजी स्वार्थों में संलिप्त होने के कारण किसी की सहायता करना या किसी की सहायता लेना उचित नहीं माना जाता। जिन कल- कारखानों में हजारों लोग काम करते थे , वहाँ कार्य का निष्पादन कुछ मशीनों से मात्र इन - गिने कारीगरों द्वारा पूर्ण कर लिया जाता है।पहले यदि मजदूर कोई छप्पर बनाते थे ,तो पूरे मोहल्ले के लोग उसे उठवाने के लिए सहर्ष पहुँच जाते थे ।इधर आज उनका चलन भी कम हो गया है। पैसे के बढ़ने के कारण बुलाने पर भी कोई किसी का सहयोग नहीं करता। 

           आज का धर्म- कर्म दिखावा अधिक और यथार्थ नगण्य रह गया है।आज प्रदर्शन ही धर्म है। आडम्बरों में उलझा हुआ आदमी किसी को कुछ भी नहीं गिनता। बस उसका नाम और फोटो अखबारों,टीवी और सोशल मीडिया पर चमकना चाहिए।उसे वाह वाह मिलनी चाहिए। 

              इस आस्था की कमी का दुष्परिणाम यह देखा जा रहा है कि मनुष्य मात्र मशीन बनकर रह गया है।उसे किसी के प्रति कोई विश्वास नहीं रह गया। लगाव नहीं रह गया है। मित्र ही अपने मित्रों के हत्यारे हो रहे हैं। मित्रता में स्वार्थ के कलंक उसे कलुषित कर रहा है। यह मनुष्य की मूल्यहीनता का ही परिणाम है कि बेटे औऱ बहुएँ अपने वृद्ध सास- ससुर और माता -पिता को घर में नहीं देखना चाहतीं। अपने विलासिता पूर्ण जीवन को बेधड़क जीने के लिए उनके लिए वृद्ध आश्रम में ही शरण देना उचित समझा जा रहा है।मानवता निरंतर पतित होती जा रही है। आज सड़क पर दुर्घटना होने पर कोई किसी की मदद नहीं करता ,क्योंकि वह किसी पुलिस या कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। लगता है कि शनैः - शनैः मानव मूल्य मरते जा रहे हैं। यह मनुष्य जाति के अपने मरण की आरंभिक स्थिति है। जब मूल्य ही नहीं, तो प्रकृति उसे बनाए रखकर भी क्या करेगी? मनुष्य अपना विनाश स्वयं निश्चित करते हुए अधः पतन के कूप में जा रहा है। मूल्यहीनता औऱ मानवीय अनास्था के लिए वह स्वयं उत्तरदाई है।उसकी अति बौद्धिकता से वह हृदय हीनता की ओर निरन्तर अपने कदम बढ़ाता हुआ मरणशील हो रहा है। फिर क्या हुआ जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत।रह जायेगी घर बाहर बस अमानवीयता की रेत ही रेत। 

 🪴शुभमस्तु! 

 17.02.2023◆11.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य। 

🪴🪷🪴

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...