बुधवार, 27 जून 2018

गुबरैला संस्कृति बनाम स्वच्छता अभियान

  केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा देश और प्रदेशों में देश को स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए अनेक योजनाएं संचालित की जा रही ही हैं। सभी योजनाएं निश्चय ही सराहनीय हैं , इसके विपरीत उनका क्रियान्वयन समुचित रूप से नहीं हो रहा है। देश में गाँव -गाँव हजारों लाखों की संख्या में शौचालय बनाये जा रहे हैं।किंतु एटा, फ़िरोज़ाबाद और मैनपुरी के कई ग्रामीण क्षेत्रों में  व्यक्तिगत रूप से सर्वे करने के बाद जो दृश्य देखने को मिला, उससे एक ओर तो ग्रामीणों की मानसिकता पर तरस भी आया तो दूसरी ओर बहुत दुःख भी हुआ।देखा गया जो शौचालय उन्ही ग्रामीणों की सहूलियत और सुविधा के लिए बनाये गए हैं, उनका इस्तेमाल उपले, घर का कूड़ा -कबाड़ भरने, भूसा रखने आदि के लिए किया जा रहा है। जिन गांवों में ये बन चुके हैं , वहाँ की महिलाएं, पुरुष, बच्चे और वृध्द सभी आज भी लोटा, बोतल, और डिब्बे लेकर खेतों की ओर ओट ढूँढते हुए देखे जाते हैं। क्या लाभ हुआ शौचालय निर्माण से ! 
  एक कीड़ा होता है, जिसे गुबरैले के नाम से जाना जाता है। यह गोबर में पैदा होता है , गोबर ही उसका घर है औऱ वहीं उसका भोजन ।उसी गोबर में उसका स्वर्ग बसता है। गोबर से बाहर निकल कर जाने की वह सोच भी नहीं सकता। बस यही हाल भारतीय ग्रामीण मानसिकता का है। वह गुबरैला -संस्कृति में 100 प्रतिशत विश्वास ही नहीं करती , बल्कि उसी संस्कृति को जीती है। फिर ऐसे लोगों के लिए शौचालय बनाने का आंकड़ा तो पूरा हो सकता है, लेकिन जब तक उनकी संकीर्ण मानसिकता को नहीं बदला जाएगा, तब तक शौचालय बनाने का कोई लाभ नहीं है। इसके लिए आवश्यकता है कि जन जागरूकता अभियान चलाया जाए, बाद में कोई भी ऐसी योजना सफलतापूर्वक लागू की जा सकती है।ऐसे ऐसे गांव भी देखे गए हैं , जहाँ वर्षों पूर्व शौचालय बनवाए भी गए थे, लेकिन आज वहाँ कोई भी शौचालय नहीं है।
   भारतीय ग्रामीण संकुचित मानसिकता को शिक्षा औऱ  जागरूकता अभियान द्वारा बदले जाने की जरूरत है, अन्यथा झूठे आँकड़ों से भाषण, टी वी समाचार, अखबार आदि खुले में शौच मुक्त अभियान सफ़ल होता रहेगा, और गाँव के लोग वैसे ही लोटा लेकर खेत में जाते रहेंगे। इस  गुबरैला -संस्कृति  में सहज बदलाव नहीं होने वाला।

 शुभमस्तु!
✍लेखक ©
*डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"*

सोमवार, 25 जून 2018

टी वी के कारनामे

बकरे को कूकर बना रहा है टी वी
सत्य को असत्य बना रहा है टी वी

मोहासक्त यूँ ही नहीं बिका हुआ है ज़मीर
कहलवाया जो रहा है   वही बता रहा है टी वी।

लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ अशक्त बड़ा,
तीन  खम्भों को दुर्बल बना रहा है टी वी।

असलियत अब टी वी पर दिख नहीं पाती,
घासलेट को ही  घृत बता  रहा है टी वी ।

टी  वी अब किसी सचाई  का दूत  नहीं है
झूठी  -झूठी  खबरें सुना रहा है टी वी।

पाँच सौ का बकरा  अब दो सौ का कुत्ता है,
गदहों  को भी गाय  बना रहा है टी वी ।

 आँकड़े कल्पित  ही दिखाए जाते हैं,
झूठी बयानबाजी  गाता जा रहा है टी वी ।

तिकड़में  ही     तिकड़में    अब भिड़ाई जाती हैं,
झूठे एक्जिट पोलों  से पुलपुला रहा है टी वी।

गंगा  नहा के गदहे भी  बना दिए गायें,
 "शुभम" नए कारनामे  बना रहा है टी वी।

💐शुभमस्तु!

✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम'


शुक्रवार, 22 जून 2018

सियासी साजिश

एक आदमी अपने कन्धे पर एक बकरे को लिए हुए बेचने के लिए हाट में जा रहा था। रास्ते में उसे एक व्यक्ति मिला और बोला- 'अरे भाई इस कुत्ते के बच्चे को कन्धे पर लिए हुए कहाँ जा रहे हो?' इतना सुनकर वह चौंका और कहने लगा - नहीं भाई ! ये कुत्ते का बच्चा नहीं , बकरा है। इसे हाट में बेचने जा रहा हूँ।' तो रास्तागीर कहने लगा -'तुम्हें गलीफ़हमी हुई है, ये बकरे का बच्चा नहीं , कुत्ता ही है। नहीं मानते हो , तो ले जाओ। वरना यदि तुम चाहो तो इस पिल्ले के सौ रुपए यहीं खड़े- खड़े मुझसे ले लो। बाकी तुम्हारी मर्ज़ी! वह व्यक्ति उसकी बात पर विश्वास न कर आगे बढ़ गया।लगभग दो मील भर वह व्यक्ति चला होगा कि फिर एक आदमी मिला और उसी प्रकार उसने भी उसे कुत्ते का पिल्ला बताकर उसकी कीमत डेढ़ सौ रुपए लगाई।वहाँ भी उसने उस कन्धे पर रखे हुए पशु को नहीं बेचा और आगे बढ़ गया। लेकिन जब दो मील आगे जब तीसरे व्यक्ति ने उसे कुत्ते का पिल्ला बताकर दो सौ रुपए में खरीदना चाहा तो उस के मन में ये बात पैदा हुई कि हो न हो ये कुत्ते का पिल्ला ही हो। अभी तो इसके दो सौ रुपये लग रहे हैं । हाट में जाकर सौ भी न लगे ,तो ? और वास्तव में ये बकरा नहीं निकला, तो कोई पचास में भी नहीं खरीदेगा। इसलिए इसको यहीं दो सौ में ही बेच देना ठीक रहेगा।औऱ उसने कुछ सोच समझ कर उसे केवल दो सौ रुपए में दे दिया। जब वह घर वापस पहुँचा तो उसकी पत्नी औऱ पड़ौसियों ने कहा कि बकरे को इतनी जल्दी बेचकर कैसे आ गए।औऱ सिर्फ दो सौ रुपये में? तो वह अपनी बुद्धि पर तरस खाते हुए प्रायश्चित करने लगा। पता चला कि वे दो दो मील दूरी पर मिलने वाले ठग थे।उसे ठग लिया गया है। ये सब उन तीनों की साजिश कद तहत उसे ठग लिया गया है। लेकिन अब क्या हो सकता था?
यही पुरानी कहानी आज हमारे देश में दुहराई जा रही है। सत्ताधारी दलों द्वारा देश के। सभी बड़े चैनल खरीदे जा चुके हैं, वे उसी बात का प्रचार -प्रसार कर रहे हैं , जिससे सत्ता धारी दल की कोई कमी या दोष सामने न आ सकें। 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए , केवल वही बातें फैलाई जा रही हैं , जिनसे उनकी बाहरी चमक - दमक तो दिखती रहे औऱ वास्तविकता दिखाई न पड़े।लेकिन ये पब्लिक है , सब जानती है। किसी किसी को इतना अधिक हाई लाइट किया जा रहा है कि उसे भगवान से भी ऊपर के दर्जे में प्रतिष्ठित किया जा रहा है और दूसरी ओर किसी को निरा बुद्धू और मूढ़ करार दिया जा रहा है। उसकी एक छोटी अभिव्यक्ति को तिल का ताड बनाकर पेश किया जा रहा है। हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम वो क़त्ल भी करते हैं तो शिकवा नहीं होता। ये सियासी साजिशें पूरी पूर्व नियोजित योजना के तहत की जा रहीं हैं अगर ये नहीं तो कोई नहीं।ये बाप, ये ही इनकी माई,यही इनके भगवान से भी ऊपर अगर कोई है , तो वह। सोशल मीडिया पर ऐसे -ऐसे भड़काऊ वीडियो, ऑडियो, संन्देश , इमेज डाले जा रहे हैं कि जहाँ आग न लगें, वहाँ भी भयंकर अग्निकांड हो जाए।
किसी के बिना न समय रुकता है और नहीं किसी के बिना कभी देश , समाज और व्यक्ति का काम रुकता है।अब तक देश में अनेक सत्ताधारी आए औऱ काल के गाल में समा गए। क्या ऐसा कभी हुआ कि देश रुक गया हो। इस देश में तो क्या इस पृथ्वी कोई ये दावा नहीं कर सका और न कर सकेगा कि वही सर्वश्रेष्ठ है!आदमी का अहंकार और कुर्सी से चिपकने की हवस के तहत एक खतरनाक सियासी साजिश का जाल फैलाया जा रहा है। आदमी तो वो जीव है कि पल भर की खबर नहीं और तैयारी युगों की करता है। यदि सत्ताधारियों में ये बात हो तो कोई आश्चर्य भी नहीं है।पकड़ी हुई सत्ता की हैंडल कौन छोड़ना चाहता है! औऱ जब सरकारी पैसे के बल पर पर मीडिया , अखबार, टीवी चेनल ,को खरीद लिया जाए तो फिर भविष्य की भी मानो उन्ही के हाथ का खिलौना हो। इतने भड़काऊ वीडियो देखने को मिल रहे हैं कि बुद्धि का सारा माल बाहर ही आ जाए! यही ब्रेन वाशिंग है। झूठे आँकड़े, लच्छेदार भाषा शैली, डायवर्जन की कला, आदि ऐसे अनेक लोक लुभावन फार्मूले हैं , कि आम आदमी बहक ही जाता है।
सावधान! सावधान!!सावधान!!! बकरी के बच्चे को कुत्ते का पिल्ला बनाए जाने की पूरी -पूरी तैयारी है। पूरे जोर -शोर और नारों की गड़गड़ाहट के साथ देश को पुनः ठगने की योजना के अंतर्गत आग में घी छोड़ा जा रहा है।अपने गले में झाँकने की कोई भी जरूरत नही समझी जा रही।सर्वज्ञ, सर्वेश्वर मान कर पेश किया जा रहा है। वह घड़ी आने वाली है जब 60 की सेवा निवर्त्ति आयु 62 या 65 घोषित की जाएगी औऱ अधिक्कारियों और कर्मचारियों को ठगते हुए उनके सामने बाजरे के दाने बिखेरे जाएंगे। तमाम सबसीडीज बढ़ेंगी, लोक लुभावन योजनाएं शुरू की जाएंगी। क्योंकि पढ़े लिखे वोट डलवाते हैं औऱ बिना पढ़े लोगों के वोट से लोकतंत्र का ऊँचा सिंहासन निर्मित होता है। इसलिए संभलना होगा, अन्यथा पिसने के लिए तैयार रहिए। किसी दल के दलदल से बाहर खड़े होकर जो बात कही गई है, उस पर चिन्तन , मनन और मंथन बहुत जरूरी है, अन्यथा आपकी जैसी मर्जी। फिर पछताए होत कहा, जब चिड़ियां चुग जाएँ खेत।

शुभमस्तु!
लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
22.06.2018 ● 8.45 PM






गुरुवार, 21 जून 2018

ये कैसा योग है!

रोकी  नहीं      चित्त की  वृत्ति
फिर  ये       कैसा      योग है !
नियमन  नहीं  श्वांस   का तेरा
फिर क्यों  ये    सब   योग है?

उठ - बैठक  औ' धमा- चौकड़ी
हाथ - पैर       फेंकना     उधर,
ये   तो सब  आसन हैं   तन के
योग   नहीं   तन की   कसरत।।

चित्तवृत्ति  से   जुड़ा हुआ  जो
साँसों      का     आना - जाना,
प्राणों का     आयाम   सुधारक
उसे   योग  समझा        जाना।

ऊपर    नीचे     देह     घुमाना
सिर   जमीन     ऊपर दो पाँव,
शीर्षासन   सुनते  थे    हम तो
चले   जाओ    नगर   या गांव।।

शीतकारी    भस्त्रिका    भ्रामरी
कपालभाति    के     प्राणायाम,
अनुलोम -विलोम भी देखे जाने
योग  के इनमें    बसते   प्राण।।

स्वेद   बहाना    योग     नहीं है
हाँ, आसन  हैं    तन के    सारे,
केवल तन   से जुड़े हुए    सब
किन्तु    योग  से   रहते न्यारे।।

भ्रमित  करो मत    राजनीति से
परिभाषा    बदलो  न योग   की,
इतने  मत     संकीर्ण   बनो जन
लगे चमक ज्यों चपल भोग -सी।

क्या   पतंजली      ने   बतलाया
योग    बराबर   आसन     होते?
फिर  तो नेता औऱ  संत     सब
एक   तराजू     तुलते       होते ?


नए    जमाने      के    ए    लोगो
नष्ट  न   करो   संस्कृति   अपनी,
शुभम  योग   से  जोड़ों निज को
राजनीति  की     त्यागो  नपनी।।

💐शुभमस्तु! 

✍🏼रचयिता©
 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रोज़ करें योग

     रोज़     करें    तो    योग है,
     वरना         बस     संयोग।
     क्या  होता एक   दिवस  में,
     देखा     -    देखी      लोग।।

     ना      होली       त्यौहार  ये,
     नहीं          दिवाली   -  दीप।
     रोज़     मनाना      नियम से,
     तब    तन  -   मन   उद्दीप्त।।

      भोजन      पानी  की   तरह ,
      नित्य      चाहिए         योग ।
      सांस  - सांस   गति  योगरत,
      तब   हो       देह      निरोग।।

     फोटू    भी     खिंचवा   लिए,
     छप    भी     गए    अखबार।
    वर्ष   -   वर्ष    फिर    आएगा,
     इक्कीस     जून   हर    बार।।

    बाईस   जून    को   क्यों  करें,
    फ़ोटो       नहीं        अखबार।
    आज    टी वी      पर  आयेगा,
   योग -दिवस         सौ      बार।।

 योग    नाम   है      जोड़   का ,
 करें     नियम         से    नित्य।
 देश   भी     अपना    योग    है,
 यही       बात       है      सत्य।।

जाति  -   धर्म      में      टूटकर ,
किया     अगर      तुम     योग। 
 ढकोसला       बन        जाएगा,
टूट -फूट         का           रोग।।

सिर्फ     दिखावे      के      लिए ,
करो     न                प्राणायाम  ।
प्राणों      के        आयाम      में,
बस       साँसों       पर    ध्यान।।

कपालभाति        या    भस्त्रिका,
या        अनुलोम  -       विलोम।
श्वांस  -नियम     के    योग    हैं,
हर्षित     हो          हर      रोम।।

जीवन     के        हर    क्षेत्र  में,
योग          जरूरी           तत्त्व।
'गर  मज़हब         लड़ते    रहे, 
मिटे           एकता  -       सत्व।।

छोट- बड़ाई         की      कथा ,
फिर      कैसे        हो       योग!
मन   में     जब    कीड़े     घुसे,
जल   से   अनल         विरोध।।

अपने    -    अपने      रोग    हैं,
अपने      -    अपने         योग।
मानवता   से      जो       जुड़ा,
नित्य           करेगा         योग।।

आयु      बढ़े       निरोग   तन,
मन      में         जोश   अपार।
योग   धर्म      मज़हब   बिना ,
करता        सबका      उद्धार।।

शुभम  योग    की   गहनता,
आदि काल               संस्कार।
 जुड़   जाएँ  तन -मन   सकल,
जाएँ       विनश         विकार।।

💐शुभमस्तु!

✍🏼रचयिता©*डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मंगलवार, 19 जून 2018

ये आदमी!

ये     आदमी   क्यों  साथ मिल    रहता     नहीं     है,
आदमी      को     आदमी सहता          नहीं        है।

अपने अहम  में  रात -दिन जी  -  मर         रहा     है,
नेह    की      सरिता     में मन    बहता      नहीं    है।

जातियों      में    बंट  गया खुद      को          मिटाने,
भेद    का      कोई     खेद उसे     रहता     नहीं     है।

उसके   दिलों    के     बीच हैं         दीवार         ऊँची,
दीवार     के   उस      पार कुछ    दिखता   नहीं    है।

उच्चता      के      गर्व   में रह         कर       अकेला,
अपने     बड़ों    से     नर ,प्रणत   रहता   नहीं      है।

हिन्दू - मुस्लिम  की   खड़ी चट्टान                  इतनी,
पार     उनको         करके वह  उठता      नहीं       है।

लड़    के    आपस        में मरा     जाता       है    इंसां,
हैवानियत     से           दूर कुछ    रहता     नहीं     है।

सत्य    की      हत्या       में है         आनंद       उसको,
वक़्त  पर  वह    सत्य    भी कहता        नहीं            है।

जाति - मज़हब   के    लिए इतना       पतित            है,
तनिक बाहर   दायरों   (से) रहता            नहीं         है।

बेपढ़े      तो              बेपढ़े पढ़कर भी     क्या        है !
उच्च शिक्षित   भी       सदा रहता          वहीं           है।

जाति       की        आवाज़ ज्यों    कूकर की ध्वनि   हो,
जाति      के     उस   गर्त में रहता          वही            है?

देश       को    फिर       से गुलामी      देने          वालो ,
इससे    ज्यादा   अब "शुभं" कहता      नहीं             है।

💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©: डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सोमवार, 18 जून 2018

नई सभ्यता

नई    सभ्यता   ने  दिए,
अपने       झण्डे    गाड़।
उलटी   नदियाँ  बह रहीं,
झड़ने      लगे     पहाड़।।

सीख   बफैलो   से  लिया,
बफर -  प्रणाली      भोज।
विवाह पार्टी     जन्म दिन ,
सब में     देखो        रोज़।।

खड़े -खड़े     खाएँ    सभी,
 खड़े -खड़े      ही       नीर।
प्रकृति  विरुद्ध  ये  सभ्यता,
मार्डन       मानव       वीर।।

जल्दी  के    सब   काम   हैं,
फुर्सत   समय      न    धीर।
अंधी      दौड़    लगा    रहे,
प्रेम   न    उर      में    पीर।।

स्वारथ    में       डूबे     हुए ,
परमारथ      क्यों        होय।
जैसी   करनी       मनुज की,
तैसौ   ही      फल      होय।।

बिना   लक्ष्य    आए    यहाँ,
बिना   लक्ष्य    ही      जायँ।
जन्म  -  मृत्यु   के   बीच में,
सदा    कायं     ही    कायं।।

सुने   न    कोई     काहु की,
अपनी  -   अपनी       तान।
अहंकार     में     मगन    है,
मानव        की       संतान।।

मानव - पशु  में    भेद  नहिं,
पशु    से        लेता    होड़।
पशु   मानव  का गुरु   हुआ,
पूर्व       सभ्यता       छोड़।।

रक्त   सभी    का लाल    है,
जाति वर्ग          के     भेद।
बड़े -  छोट   की    रार    में,
विघटित       इंसां      नेक।।

वन्य जीव   से   भय    नहीं,
मानव        ही        आहार।
बचकर       मानव        रहें,
बदले         वेष       हजार।।

तन  के     सब     सम्बंध हैं,
मन   में       घुली     खटाई।
संस्कृति   हुई  विनष्ट    सब,
"शुभम" कहाँ अब जाय!!

💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सीमोलंघित प्रदर्शन

     प्रत्येक  व्यक्ति  में महत्वाकांक्षा  का गुण  कम या अधिक मात्रा में पाया जाता है।जब इसकी मात्रा अपनी चरम सीमा को पार कर जाती है , तो उसे अति महत्वाकांक्षी कहा जाता है।यही महत्वाकांक्षा जब बहुत अधिक बढ़ जाती है ,तो उसे सीमोलंघित प्रदर्शन (ओवर शो ) कहा जाता है।मानव की यह एक प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कुछ उदाहरणों से इसे स्प्ष्ट किया जाएगा। जो हम नहीं हैं उससे अधिक औऱ अधिकतम दिखाने का प्रयास करना ही 'ओवर शो ' है।जैसे किसी के घर में लड़के वाले लड़की देखने आ रहे हैं औऱ वह घर में सोफा, क्रॉकरी आदि न होने के बावजूद पड़ौसी से माँगकर अपना काम निपटाता है तो यह 'ओवर शो' है। कुछ लोग किसी सभा सोसायटी में नेताओं और अधिकारियों से चिपकने का प्रयास करके अपने अन्य मिलने वालों को यह जताने का प्रयास करते हैं कि वे उनके बहुत करीब हैं।अर्थात अपने को भी उनकी कतार में खड़ा दिखाने का सफल या असफल प्रयास करते हैं। गले में रुद्राक्ष की माला, माथे पर बड़ा सा तिलक, चंदन आदि लगाना, बढ़ चढ़कर अपनी शेखी बघारना, किसी बड़े अधिकारी या नेता से अपने नजदीकी सम्बन्ध बताना, आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं ,जो सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, प्रशासनिक स्तर पर आए दिन देखे सुने जाते हैं।
     आखिर आदमी अपनी सीमा में क्यों नहीं रहना चाहता! अपनी औकात से बढ़कर मूँछे मरोड़ना उसके स्वभाव का एक हिस्सा ही बन गया है।अनावश्यक मूँछों पर ताव देने का आखिर क्या मतलब है। जो सम्बंधित व्यक्ति की आंतरिक औकात से परिचित होते हैं ,वे उनकी हँसी का पात्र भी बनते देखे जाते हैं।
     यद्यपि  यह मानव का मनोविज्ञान है किंतु सभी लोग ऐसा  करते हों , ऐसा भी नहीं है। आदमी को अपनी चादर के भीतर ही रहना चाहिए , परन्तु अपनी 'ओवर शो' या 'सीमोलंघित प्रदर्शन' की  छवि बनाकर शायद उसे आत्म तुष्टि मिलती है।ध्यान रखें कि सामान्य जीवन जीकर आप महान हो सकते हैं ,किन्तु असामान्य या महानता का मुखौटा लगाकर नाटक तो कर सकते हैं , परन्तु महान  नहीं बन सकते।स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस , राष्ट्रपिता महात्मा गांधी , राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने परिवारों औऱ प्राणों की आहुति देने वाले कितने अनाम औऱ सुनाम अमर शहीद -क्या इन्होंने कभी ओवर शो किया? ये महान बने अपने कर्म से , न कि दिखावटी प्रदर्शन से।  खुरदरे चेहरों को ही क्रीम, पाउडर आदि कृत्रिम साधनों से  सजाकर ओवर शो किया जाता है।  देश या विदेश  के महापुरुषों ने ऐसा कोई ढोंग नहीं किया होगा। ओवर शो की प्रवृत्ति आज के कलयुग या कहें नेतायुग में कुछ अधिक ही चरम  पर है। जब अपना ओज, तेज , शक्ति सब निचुड़ चुका है, तो आदमी बनावटी साधनों से लीपा पोती करते हुए अपना शो कर रहा है।
     अपने कर्मों और योग्यता का सहारा लीजिए , ये दिखावटी नकली और नकल करके मिली डिग्रियों से  कुछ हासिल नहीं होगा। अपने संस्कार , चरित्र , स्वाभिमान के बल पर आप क्या कुछ नहीं  कर सकते? इसलिए नक़ली को छोड़ो, और असली से नाता जोड़ो।"ओवर शो"  की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम

गुरुवार, 7 जून 2018

खीर-पूड़ी खाओ

खीर    -    पूड़ी       खाओ ,
सौ      रुपये          चढ़ाओ।।

खोए      का      प्रसाद    हो,
या मोदक  कर  में   साथ हो।

पुण्य     तभी     हो     पायेगा,
जो सौ    का    नोट   चढ़ाएगा।

देवता      कुपित     हो जायेंगे,
जो   पैसा         नहीं   चढ़ाएंगे।

पैसा  न     चढ़ाना    चाहो  'गर,
तो  एक   टिन रिफाइंफ दो भर।

चीनी    मिष्ठान्न     जरूरी    हैं,
क्या   तेरी    प्रभु   से   दूरी है!

चरणामृत  और     पंजीरी   लो,
माथे   पर  रोली    तिलक करो।

कर  में भी  कलावा  बंधवा लो,
पीताम्बर   तन को    पहना दो।

पुण्य   की  जड़  पाताल    हरी,
है  बात   गुप्त   पर खरी -खरी।

कर लो कर लो कुछ दान पुण्य,
यहाँ  पाप नहीं सब पुण्य धन्य।

मैं   कारक   हूँ  तुम  कारण हो,
सब शंका   गिले   निवारण हों।

विश्वास   धर्म    पर   करना है,
शक  लेकर क्यों  जी मरना है!

ये  गुप्त   काम   सब परदे के,
ऊपर  के सब सुख भरने   के।

कहना  मत हमने  क्या किया,
ये वह दीपक जो   स्वर्ग दिया।

जो  ढोंग    इसे    बतलाते हैं,
वे   खुद  ढोंगी     कहलाते हैं।

पढ़े -लिखों   से    बच  रहना ,
उनकी  बस   हाँ हाँ    कहना।

वे  क्या समझें क्या  पुण्यधर्म,
ये ही तो "शुभम"का सत्यकर्म।

💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

धर्मभीरुता बनाम धर्म का धंधा

   भारतीय मानव जहाँ अत्यंत धर्मिक है , उससे कहीं अधिक वह धर्म भीरु भी है। इसिलए उसमें धर्मांधता का प्रतिशत कई गुना बढ़ गया है। उसे धर्म से इतना अधिक डर लगता है कि वह बिना सोचे-समझे  कहीं भी सिर झुकाने को  तैयार  हो जाता है। अनेक देवी -देवताओं की पैदाइश केवल इंसानी भय से ही हुई है। दो -चार उल्टे सीधे अनगढ़ पत्थर रखकर कहीं भी उसका पूजा स्थल  बन जाता है। औऱ मानव की  इस मानसिकता का लाभ उठाते हैं ,ठग औऱ शैतानी दिमाग से चलने वाले लोग।
         ये शैतान लोग विभिन प्रकार के ढोंग बनाकर आम भीरु मानव को ठगते हैं। कथा , भागवत,  धार्मिक पाठ की आड़ में वे  न्यूनतम समय में इतना धन कमा लेते हैं कि साल भर बैठ कर ऐश करते हैं। डालडा, देशी घी, रिफाइंड ,सरसों का तेल ,मिठाई, चीनी ,कपड़े,सबसे अधिक पैसा आदि इकट्ठा कर लेते हैं और  विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। हवन और   यज्ञ के नाम पर अकूत धन इकट्ठा कर धर्म भीरु को ठगा जाता है।धर्म भीरु भी सोचता है कि यदि पैसा , प्रसाद नहीं चढ़ाया तो पता नहीं देवता हमारा क्या अहित कर दें!पचासऔर सौ में जाता भी क्या है!उसकी यही मनोवृत्ति शैतानों को तिजोरियाँ भरने और ऐसे ही कारनामे करने की  प्रेरित करती है।परिणामतः धर्म का धंधा फूलने -फलने लगता है। धर्म भीरु इंसान इसके विपरीत इसलिए नहीं  सोच सकता क्योंकिं कहीं अहित न हो जाए।' कोई क्या कहेगा '- की मानसिकता  उसका मुँह बन्द करके नहीं , मुंह सील बन्द करके रखती है।
         इस प्रकारअनेक ठग और शैतान  अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों , इष्ट मित्रों आदि से आए दिन ठगी कर रहे हैं।  वहाँ न आयकर के छापे का डर है न पुलिस के डंडे का। प्रशासन को तो पता ही नहीं लगता इस सामाजिक और धर्म की आड़ में किए जा रहे शोषण का। जिनका शोषण होता है वे खीर -पूड़ी और पंजीरी  खाकर मस्त हो जाते हैं, कहीं  कोई विरोध नहीं, केवल धर्मांधता ही धर्मांधता।इस धर्मांधता ने भारतीय सभ्यता औऱ संस्कृति का विनाश किया है और बराबर कर रही है। धर्म के नाम पर सब जायज। इस प्रकार देश का धर्मभीरु मानव चूसा जा रहा है। पर कहीं कोई  आहट नहीं, कोई  आहत नहीं। धर्म का अन्धा आदमी धर्म को बदनाम कर रहा है। ये सब धर्म नहीं है। ये धर्म की आड़ में पापार्जन है, जिसका दुष्परिणाम  उसे निकट  भविष्य में भोगना ही पड़ता है।
जब तक पाप का घट पूरी तरह भर नहीं  जाता , तब तक भला फूटेगा क्यों और कैसे?

    💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

डायवर्जन:एक कला

    हम सभी ने 64 कलाओं के बारे  में  सुना भी है, पढ़ा भी है। लेकिन एक 65 वीं कला की खोज भी हो चुकी है, जिसके विषय में अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं। ये कला  आज के युग की देन है।आज के युग का नवीन नामकरण मैं पहले ही अपने एक लेख में स्प्ष्ट रूप से  कर ही  चुका हूँ। लेख का शीर्षक है :"त्रेतायुग  से नेता  युग तक"। तो अब आप समझ ही गए होंगे कि ये "नेतायुग "है।
   हाँ, तो मैं एक नई कला की नई खोज की चर्चा कर रहा था। वह नई कला है:"डायवर्जन कला"।इस कला की खोज का श्रेय जाता है वर्तमान नेता युग के सम्माननीय नेताओं को, जिनके बुद्धिचातुर्य से इस कला का प्रसव हुआ।अभी तक ये कला अपनी शैशवावस्था में किलोलें कर रही थी। और   भारत    के हरे - भरे , विभिन्न सियासी रंगों से सजे-संवरे , कहीं     नीले  -  लाल ,    कबरे, सुनहरे अँगने में रूप में    घुटरन-  घुटरन  खेल रही थी । आज वही  डायवर्जन कला अपने पूर्ण  यौवन पर  सिर चढ़कर बोल रही है। नगर -नगर , गाँव -गाँव ,गली -गली डोल   रही   है।  इस कला को हिंदी में " ध्यान-विच्युत कला " की संज्ञा से अभिहित  किया जाता है।   
  "ध्यान-विच्युत कला " अथवा  "डायवर्जन कला" का प्रमुख उद्देश्य यह होता है कि जिस धारा में  प्रवाह चल रहा है ,उसके मुख्य मार्ग में ऐसा सुंदर और सम्मोहक व्यवधान उत्पन्न कर दिया जाए कि मार्ग में चलने वाला पथिक  अपना मार्ग  भटका हुआ भी महसूस न करे और पथच्युत   भी  हो जाए। उसका  अपना मार्ग    भुलाकर  अपने मनचाहे मार्ग पर मोड़ देना ही इस कला की सफलता का ध्येय है।
   अब  प्रश्न यह  पैदा होता  है कि इस कला का लक्ष्य क्या है? लक्ष्य है उल्लू बनाकर  शासन करना औऱ  शोषण करते  हुए भी ये अहसास न होने देना कि तुम्हें चूसा जा रहा है। चुपचाप अपना ध्यान उधर  लगाए रहो , जिधर वे  चाहते हैं। अंतिम लक्ष्य अर्जुन  कज़ चिड़िया की आँख। अर्थात  वह अक्ष , या  धुरी , जिस पर शासन के रथ के चक्के घूम रहे हैं। केवल और केवल सर्वोच्च सिंहासन की प्राप्ति। यही डायवर्जन कला ( ध्यान- विच्युत कला) का परम धर्म है।जब चोरी को 64 कलाओं में  शामिल किया जा सकता है , तो इसे तो और भी उच्च स्थान दिया जाना चाहिए। ये नेतायुग की 65वीं नवीनतम कला है।
    इस  कला की गहराइयों में जाएँ, तो बड़े-बड़े हीरे प्राप्त होंगे (मोती नहीं ), क्योंकि हीरा कोयले की  खानों  में उच्च तापमान पर कोयले के तपनोपरांत ही प्राप्त होता है, वही सिद्धांत  राजनीति की खदान के लिए भी लागू होता है।क्योंकियहाँ बड़े -बड़े जपी-तपी  निरन्तर तपश्चर्या से डायवर्जन कला के प्रयोग करते रहते हैं और वे इसमें
सफ़ल भी हो रहे हैं।
   इस प्रकार एक नई आधुनिक कला -"डायवर्जन कला(ध्यान -विच्युत कला) की खोज का पहला अध्याय समाप्त होता है।

💐शुभमस्तु!

✍🏼 ©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

बुधवार, 6 जून 2018

साहित्यिक चोरी

    आप सभी चोरियों से परिचित हैं। चोरियाँ बहुत प्रकार की होती हैं।पैसों की चोरी,  घर मकानों से आभूषण और अन्य सामानों की चोरी, ककड़ी चोरी, दिल की चोरी, दुकान से चोरी, चैन की चोरी आदि आदि। लेकिन एक और बड़ी चोरी और भी होती है जिसे साहित्यिक चोरी कहते हैं। चोर के लिए भले ही इस चोरी का विशेष  महत्व न हो, लेकिन जिस आदमी के साहित्य की चोरी हो जाती है , उसके लिए इसका बड़ा महत्व है।
   ह्वाट्सएप्प  पर  बहुत से चोर व्यक्ति दूसरों के लिखे हुए लेखों, कविताओं और अन्य महत्वपूर्ण सामग्री को और कविताओं को  चुराकर अपना नाम लिखकर वाहवाही लूटना चाह रहे हैं । ये सब कुछ मैं कपोल -कल्पित नहीं लिख रहा हूँ।आज मेरे साथ भी ऐसा  ही हादसा हो गया , तो मुझे  बिना लिखे चैन नहीं आया। एक उच्च शिक्षित व्यक्ति ने मेरा ही एक लेख , जो मैंने विश्व पर्यावरण दिवस  पर 5 जून 2018 को लिखा था, उसे ज्यों का त्यों अपने नाम से उस व्यक्ति के पास सेंड कर दिया ,जो मेरा ही मित्र था। मित्र भी चिंतित हुए और उन्होंने ।मुझे पूछा कि क्या आप इस नाम से भी  लिखते हैं। और मज़े की बात तो ये रही कि महोदय ने मेरा उपनाम भी चुराया।चोरी तो पकड़ में  आनी ही थी, सो आई। पर उन महोदय की देखिए  बेशरमी कि ये नहीं देखा कि मेरे उस  लेख में मेरा ब्लॉग एड्रेस भी लिखा हुआ है।जिस पर कोई भी ये जान सकता है कि इसका मूल लेखक कौन है। उस ब्लॉग एड्रेस सहित नाम व उपनाम बदलकर पूरा लेख चुराकर अपने मित्रों आदि कोभेज दिया।  मैने जब इसके बारे में पूछा तो वे कोई उत्तर नहीं दे सके।  बाद में मैने ही बिना पुलिस आदि की मदद के अपने ही व्हाट्सएप्प लिस्ट में उस चोर को पकड़ा। और तुरंत एक चेतावनी पूर्ण संन्देश फेंक दिया। अब 'चोर'महोदय अपना नेट बंद किए बैठे हैं , जब खोलें तो संन्देश देखें। 
    आप कृपया चोर का नाम मत पूछिए , क्योंकि समझदार के लिए  इशारा बहुत होता है। आप कोई भी मित्र कभी ऐसा मत कीजिए कि किसी के मूल लेख , कविता आदि  को अपने नाम से सेंड /फारवर्ड मत कीजिए, अन्यथा कभी कानूनी पचड़े में पड़ गए तो कि चोरी और धारा 420 में दण्डनीय अपराध के भागी भी  होना पड़ सकता है।

💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप

मंगलवार, 5 जून 2018

कैसे हो पर्यावरण सुधार

अपना     कूड़ा     उसके   द्वार ,
कैसे    हो    पर्यावरण     सुधार।

ख़ुद  को कुछ  करना  न   पड़े,
अपने    द्वारे       सजे     खड़े।

पॉलीथिन   में      सब्जी    चाय ,
गर्म     समोसा   मन को    भाय।।

रबड़ी    दूध    दही   रस  कॉफी,
चाकलेट    बिस्कुट    और टॉफी।

बिना करे सब  कुछ मिल जाय,
सब  कुछ कर   देगी   सरकार।

क्यों  घर     से थैला    ले जायँ,
पोलोथिन  वहीं पर मिल  जायँ।

सब्जी     चीनी      बूरा     दाल,
पॉलीथिन     में     दे    तू डाल।

उत्पादन   पर   कोई   न    रोक,
दुकानदार   ग्राहक     को  टोक।

क्या    मजबूरी       है   सरकार,
तुम्हें  न   जीना    क्या   दरकार?

टनों     प्लास्टिक     पॉलिथिन,
भरी  ट्रकों  में    नित   अनगिन।

क्यों   उन  पर   प्रतिबंध   नहीं,
क्या   उनसे   अनुबंध     कहीं?

क्या  वे         रिश्तेदार       हैं?
जो    उनसे    इतना    प्यार  है!

ले थैली   जब  चलता   ग्राहक,
जुर्माना  कर दो    तुम   बेशक।

छापा  डाल दूकान    सील कर,
खा  जाते  उसको भी छील कर।

जेब गरम    जब   अपनी  होती,
कानून     भी   खूँटी   टंग जाती।

मन    में    जब  गन्दगी    अपार,
कैसे     करे      सुधार  सरकार ?

पॉलीथिन  का  हो  गया  गुलाम,
हल्ला   ज्यादा    हल्का   काम।

नारों  से    सुधार   नहीं   होना,
खबर  छाप   सिर  ऊँचा  होना।

फोटो  देख  प्रफुल्ल हृदय तन,
लाभ  न  होता  कहीं एक कन।

बस    सुर्खी     में    ही    बहार,
कैसे  हो       पर्यावरण    सुधार?

पौधे   लगे     सजाकर    बैनर,
फ़ोटो खिंचे  मुख स्मिति लेकर।

अगले  दिन कोई   लौट न आया,
ना कहीं     पानी   ना   गुड़वाया।

सिर्फ  आँकड़े     भेजे    शासन,
पूर्ण  हुआ  ऑर्डर    अनुपालन।

यहीं       इतिश्री       पौधरोपण,
कौन  करे फिर किस पर कोपन!

नगरपालिका     नरक    पालतीं,
नाला -कीचड़    सड़क  डालती।

चार  दिनों तक   खबर  न कोई,
जिसका   कीचड़    उसका होई।

सुअर  करें   किलोल   नगर में ,
टॉयलेट  नहीं  कोई    नगर  में।

कहाँ  जायँ    नाली    पर  बैठें!
ग्राम्य नारि -नर     मन में   ऐंठे।

लघुशंका  तो      लघुशंका    है,
उससे  विकट      दीर्घशंका   है।

उसका  तो   सोचना    व्यर्थ  है,
जब  छोटी  ही  यहाँ निरर्थ   है।

पर्यावरण  सुधार      कहाँ   है?
बिन  शासक का राज  यहाँ है।

अंधेर   नगरी   अनबूझ   राजा,
टका सेर  इंसां  बज गया बाजा।

"शुभम" ये पर्यावरण की कहानी,
तुमने भी जानी मुझको बतानी।

शुभमस्तु!
✍ ©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

ऐसी क्या मजबूरी है!

            आज जागरूकता का युग है और  हम    जरूरत   से  ज़्यादा जागरूक भी हो गए हैं। फिर भी ऐसी कौन सी मजबूरियाँ हैं कि हम जो चाहते हैं , वह कर नहीं पा रहे। वर्षों से हल्ला मचा हुआ है कि पॉलीथिन बन्द करो, पॉलीथिन बन्द करो, प्लास्टिक के बर्तनों में  खाद्य पदार्थ रखना और उस खाद्य पदार्थ को खाना या पेय पदार्थ को पीना अत्यंत  घातक है। ये सभी चीजें हमारे पर्यावरण को भी प्रदूषित  कर रही हैं।इससे हमारे जल, थल, वायु , आकाश सभी कुछ दुष्प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन इतना सब जानने समझने के बावजूद हम हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं और सोच लिया है कि ये कोई औऱ ही कर  जाएगा। किन्तु ये हमारी सबसे बडीं भूल है।

      जब पॉलिथीन को बंद करने की बात आती है तो  शासन और प्रशासन बेचारे दुकानदारों औऱ निरपराध ग्राहकों को कि चोर मानकर  उनके ऊपर शिकंजा कसने लगती है। जिन पूँजीपतियों औऱ कारखानेदारों के यहाँ इन वस्तुओं का उत्पादन होता है, उनसे कुछ  ही नहीं किया जाता। क्यों सरकार उनके ऊपर प्रतिबंध नहीं लगा पाती? चोरी करने के लिए स्वयं सरकार के द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है , तो पॉलीथिन का प्रयोग रुके कैसे?
 ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं है। चोर  की  अम्मा को तो पकड़ते नहीं , इधर -उधर अँधेरे में  हाथ पाँव मार रहे हैं। असली चोर तभी पकड़ में  आएगा , जब चोर  की अम्मा को पकड़ा जाएगा। लेकिन  किसी अज्ञात प्रलोभन या  किसी बड़े आर्थिक या राजनीतिक लाभ के कारण पत्ते पत्ते पर दवा छिड़कते फिरते हैं। इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है। कीड़ा मारने के लिए जड़ों में दवा डालनी होगी।

     माना कि पॉलीथिन या प्लास्टिक सामग्री विदेशों से भी आयातित होती होगी। यदि प्रतिबंध लगाना ही है तो उस पर भी प्रतिबंध लगाना हमारी वरीयता में होना चाहिए। न होगा बांस न बजेगी बाँसुरी।सब कुछ जान और समझ कर ग्राहकों औऱ आम जन को परेशान करना ये सिद्ध करता है कि शासन और प्रशासन की अपनी ही इच्छा शक्ति  की कमी है। पॉलीथिन और प्लास्टिक के विकल्प भी प्रस्तुत किए  जाएं। विकल्प हैं भी, उनका प्रचार प्रसार किया जाए, तो कोई बडीं समस्या नहीं है कि इन विषाक्त चीजों पर रोक न लग सके।किसी अज्ञात स्वार्थवश सरकारें मजबूत कदम उठाने को यदि मजबूर हैं तो समस्या सुरसा के मुँह की तरह यूँ ही मू बाए खड़ी रहेगी और जनता जनार्दन के साथ अन्याय तो होगा ही , उसका  शोषण भी प्रशासन  के द्वारा होता रहेगा।

      इसलिए हम सभी को भी जागरूक रहना है औऱ सारा दोष सरकार औऱ प्रशासन पर मढ़े बगैर अपनी भी जिम्मेदारी महसूस  करते हुए अपरिहार्य परिस्थिति में ही प्लास्टिक और पॉलीथिन का प्रयोग करना है, क्योंकि अपनी सेहत पर्यावरण को दुरुस्त करने में हमारी भी अहम भूमिका है, जिसे हमें गंभीरता पूर्वक समझना होगा।
जब हम शासन और प्रशासन सब मिलकर काम करेंगे तो कुछ असम्भव नहीं है:
 मन के हारे  हार है ,
मन के  जीते  जीत।
परब्रह्म  को पाइए,
मन ही की परतीति।

💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

उपदेशों की भरमार

व्हाट्सएप्प     पर उपदेशों की
देख   -      देख         भरमार,
बहुत        ज्ञानवर्धन   होता है
पर       मैं         हूँ    लाचार।1

कब्ज हो गया  विशद ज्ञान का
क्या      लूँ         मैं    उपचार,
अंग्रेज़ी    की    गोली    खाऊँ
या  निम्बू        का       अचार।2

कोई    कहता     होम्योपैथिक
लाभ      न     कोई       हानि,
आयुर्वेद का      चूरन   खाकर
मच       गई     खींचा -तान।3

बड़े- बड़े डॉक्टर    हकीम जी 
वैद्य          करें          परचार,
एक कहे लहसुन   मत  खाना
कहे          एक      दो -चार।4

 किसकी मानूँ  सबकी इज्ज़त
मेरे         मन         में     एक,
सोचा मैंने     सबकी   सुन लो 
करो   तो      अपनी     टेक।5

धर्म -धुरंधर       ज्ञान    बघारें 
रामायण        वेद       कुरान,
पी मदिरा   गीता       ले   बैठे
पंडित        एक        महान।6

 सियासत औऱ इतिहास के ज्ञाता
बिन     ढूँढ़ें       मिल       जायँ,
त्रेतायुग    से       नेतायुग    की 
सकल    कथा    लिखि    जायँ।7

फोटू    और       वीडियो   भेजें 
फैला           कीचड़          ढेर,
जबरन  सुना   ऑडियो     ढेरों,
मन   की       छिनती      खैर।8

 अंधभक्त   बी जे पी    का कोई
 कोई        कांग्रेसी        दलाल,
ऐसे -ऐसे        भेज       कतरनें
भेजा         करें          हलाल।9

चमचों  की    चाँदी   हर दल में
बारह         मास           बहार,
एक     छोड़    दूजे     में पावें,
परमोशन        हर        बार।10

भगवानों   के    बड़े    शौकिया
कभी   राम        कभी     साईं,
कृष्ण गणेश  शंकर   हनुमत के
लक्ष्मी         दुर्गा          माई।11

धर्म और   अध्यात्म    ज्ञान का
विकिपीडिया                 ज्ञान,
बागों  में ज्यों  फूल    खिले हों
व्हाट्सएप्प            सन्धान।12

ठंडे   गर्म       चुटकले   देखो ,
कथा        और          दृष्टांत।
सरकारी  आदेश      ट्रांसफर,
ना    खबरों      का     अंत।13

नाच -कूद   कट पेस्ट के ज्ञाता
क्या  दें         तुमको      भेज,
सोच   नहीं       पाएंगे    मित्रों
ये          हिंदी          अंग्रेज़।14

व्हाट्सएप्प की  कथा अनन्ता,
"शुभम"  भनत      बहु   बार।
बुरा लगे गर  काहू   सूजन को
छमियो     प्रिय    हर  बार।।15

💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभं"

रोज देर से आती हो

तुम  रोज़  देर से आती  हो,
हमें इंतज़ार    करवाती  हो,

तेरे  बिन   नींद  नहीं  आती,
तेरी  थपकी  से   आ जाती,
आँखें  यूँ ही ललिया   जातीं,
तन स्वेद सिक्त कर जाती हो।
तुम रोज़ ....

कभी झलक दिखाती हो अपनी,
कभी पलक  मारती   हो अपनी,
हम समझे तुम   अब आ ही गई
पर  तुरत दूर    भग   जाती हो।
तुम रोज़....

तेरे   बिन     घना    अँधेरा  है,
मच्छर दल   का   भी   डेरा है,
गाना  गाता    वो     कानों   में
तुम    यूँ यूँ यूँ      शरमाती हो।
तुम रोज़ ....

तेरे  बिन   पड़ा    अकेला हूँ,
गर्मी  मच्छर  सब     झेला हूँ,
कितना कितना इंतज़ार करूँ,
तुम बहुत    हमें  तरसाती हो।
तुम रोज़....

 वादा करके  फिर मुकर गई,
सब चेन हमारा   छितर गई,
बेवक्त  हमें    तड़पाती    हो,
लुका  छिपी दिखलाती   हो।
तुम रोज़....

हम    तेरे   भरोसे    के  गुलाम,
अभी बिना छिले रख दिए आम,
मेरी हवा   बंद  कर   देती   हो,
तुम  ही  पंखा    झल  पाती हो।
तुम रोज़....

तू   आये   तो     मैं    खाऊंगा ,
वरना   भूखा     सो    जाऊँगा,
तेरे  बिन  नींद भी क्या   आए ,
तुम भूख प्यास   ले जाती   हो।
तुम रोज़...

पानी  भी    ठंडा   नहीं   किया,
तू  क्या  जाने   मैं कैसे  जिया!
फ्रिज़  भी  तो बन्द पड़ा तब से
तुम झलक दिखा गुम जाती हो।
तुम रोज़...

देखों   मैं   रूठ    ही   जाऊँगा,
पर तेरा   क्या   कर   पाऊंगा?
"शुभम" मनमानी दिखलाती हो
क्यों  ना पायल  छुनकाती   हो!
तुम रोज़...

💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

कुछ ऐसे लोग भी

कुछ  ऐसे   लोग  भी  होते हैं,
जो बिना  आग   के जलते हैं।
अपने से तो कुछ   हो न सके,
करने  वाले  भी  खलते    हैं।

दो  शब्द न  मुँह   से  फूटे हैं,
मानो    कब   से   वे  रूठे हैं,
सत्कर्म  उपेक्षित    करते  वे
मन ही मन    हाथों मलते हैं।

'आलू चना'  का   शौक  बहुत,
पर  लेश  प्रशंसा की न झलक,
अच्छे   से उनको   चिढ़ सी है,
मन में बस   सपने    पलते हैं।

अच्छा देखा  मुँह   बना  लिया,
जैसे  कुछ हमने     छीन लिया,
मुँह भुना    हुआ   आलू   जैसे,
हम कायर   उनको   कहते हैं।

पीछे - पीछे    चुगली    करना,
नित   छिद्रों में  अँगुली करना,
कितने  वे शान्त  बुद्ध के बुत,
कैसे   वे   चुपचुप    रहते हैं!!

भट्टी -सा    हृदय   धधकता है,
उनके  सम किसकी समता है!
चेहरे  पर  झलक   रहा  काला,
दिल से भी   काले    रहते   हैं।

आँखों  में "शुभम" ने  झाँका है,
भीतर   से रिक्त    लिफाफा  है,
ज्वालामुखियों   के   स्रोत वहाँ,
कभी  मूँ  से  अंगारे   दहते   हैं।

💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रविवार, 3 जून 2018

त्रेतायुग से नेतायुग तक

 हम सभी बड़े भाग्यशाली हैं , जो 'नेतायुग'  की  स्वच्छ हवा में सांस ले पा रहे हैं। त्रेता युग राम हुए , सीता मैया हुईं औऱ हुए हनुमान।उन्होंने तो मात्र एक कपड़े धोने वाले के आरोप पर सीता जैसी पवित्र माता  का परित्याग कर एक आदर्श पति औऱ एक आदर्श राजा का कर्तव्य निर्वाह किया था।राम पुरुषोत्तम होते हुए भी आरोप वार को सहन नहीं कर पाए।  इसी के द्वापर आ गया। भगवान कृष्ण ने महाभारत के महायुद्ध में जो भूमिका निभाई, उसकी प्रशंसा विश्वविख्यात है। जहां ये सिद्ध कर दिया गया ,कि संख्या बल का कोई महत्व नहीं , महत्व  तो केवल सत्य का है।इसीलिए हमारा सिद्धान्त वाक्य है :'सत्यमेव जयते'।
      द्वापर युग के बाद आया कलयुग , जहाँ कल ही प्रधान हो गया। सभी लोग आज का काम कल पर टालने का अमर वाक्य मिल गया। काम कल पर टलने लगे, इसीलिए ऑफिसों में बाबू लोगों की मस्ती हो गई। सारा काम कल पर टलने लगा। क्या तहसील , क्या कचहरी, क्या कोर्ट , क्या विधान सभा , क्या लोकसभा , क्या स्कूल -कालेज, क्या टीचर , क्या कर्मचारी -- सभी  कल कल  निनाद में मदमस्त हो गए। आज का काम कल पर जाने लगा , कर्मचारी , बाबू, वकील , जज, अधिकारी , मंत्री आदि सभी की कलकल गंगा निनाद  में मस्ती छा गई आज तो आज है न! कह दिया कल आना , कल ले जाना, कल करेंगे। आज मूड नहीं, आज एकाउंटेंट साहब नहीं आए। आज बिजली खराब है। आज चाभी घर भूल आए। आज  हमारे बॉस छुट्टी पर हैं, साइन नहीं हो सकेंगे।इसलिए कल ही आओ । और कल  कभी  न आया है , न आएगा। जब भी जाओगे आज ही खड़ा मिलेगा।
       इसी कलयुग ने एक बेटे को जन्म दिया ,जिसका नाम है नेतायुग। नेता युग की विशेषताएं अगर लिखी जाएं तो आर्यावर्त से  भारत और भारत से इंडिया तक कागज बिछाकर लिखने पर  कागज़ कम पड़ जायेगा पर नेतायुग का बखान पूरा  नहीं हो सकेगा।  जिस प्रकार महा भारत लिखने के लिए श्री गणेश भगवान को लाना पड़ा था और व्यास भगवान ने बोल बोल कर लिखवाया था , उसी प्रकार श्री रोबोट भगवान को आहूत करना पड़ेगा।और सोचने के लिए श्री श्री कम्प्यूटर जी शरण लेनी होगी , क्योंकि पूज्य नेता युग के  परम पूज्य फादर जी कलयुग जी तो कल पर डालकर, टालकर, मुँह में तम्बाकू दबाए हाथ खड़े कर कहेंगे कि अब नहीं कल करेंगे।अब उसमें नेतायुग जी  क्या कर पाएंगे , क्योंकि वे उनके  सुपुत्र हैं , पिताजी कर आदेश को मानना तो पुत्र जी का परम धर्म है। इसलिए इस नेतायुग  की  नेता नगरी में कोई काम  कल ही होगा।

       अब आप उम्मीद लगाए बैठे रहिए कि  कल आये तो  काम हो। पर कल  आये तो ? जो कभी न आया  न आएगा। इसलिए प्योर बहनों  और  भाइयों, लोगो और लुगाइयों,  आज नेता युग है, कलयुग का लायक  सपूत  है , उसे तो अपने  पूजय   पिताजी के पदचिन्हों पर चलना ही पड़ेगा।  और और आज का काम कल पर छोड़ना ही होगा। तभी तो नेतायुग के महाकवि"अधीर " लिख गए हैं :

आज  करे  सो  काल कर,
काल करे सो  अगले  कल।
बाकी जीवन बहुत बड़ा है,
नेतायुग        में       चल।

कलयुग का  बेटा  'नेतायुग,'
उसका सुपूत   है 'लेता युग',
'लेता '   की   पत्नी  से लेगा ,
पुत्र     एक   'अभिनेता युग'।

'अभिनेता युग' अभी गर्भ में,
उसे तो अभिनय   करना है।
इसी तरह  पीढ़ी दर   पीढ़ी,
नई -नई     संतति  बनना है।

" शुभम"अभी तो हम सबको
'नेतायुग'   में      रहना     है।
 चाहो  अपनी खैर -खुशी तो
हाँ जू , हाँ जू     कहना    है।।

 बोलो नेतायुग जी महाराज की जय।

💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

दिव्य ज्ञान -संधान

दिव्य   ज्ञान  बँटने  लगा,
लूटो     दिन    और  रात।
ना     गुरुकुल    स्कूल में ,
रैली      सभा       विराट।।1

नेताओं      के      ज्ञान   की,
सीमा      कही     न    जाय।
जानो  तुम     जिस ज्ञान को,
दो      उसको     बिसराय।।2

नव  व्याख्या      भाषा   नई ,
नव        परिभाषा     व्यक्त।
राजनीति     से      सीखना,
रामायण      का       सत्य।।3

लिखना  फिर   पड़ जाए ना,
महाभारत       एक      बार।
व्यासों   की  अब क्या कमी,
विधानसभा     के       द्वार।।4

सीता जी    के     जन्म   का ,
पुराचीन                इतिहास।
नेताजी      ने        बदलकर ,
डाला      नया       प्रकाश।।5

टेस्ट -ट्यूब    से    जन्म   का,
अधुनातन        विधि  -ज्ञान।
त्रेता युग       से        जोड़कर,
नेता  युग              संधान।।6

मिथिलाधिप   ने हल    चला,
घट   मिट्टी    का           एक-
फोड़,  हुई      नवजात   जो,
सीता      माता         नेक।।7

टेस्टट्यूब  विधि    और   घट-
टूटन        विधि  सम    जान।
महाभारत  के      काल     में,
संजय    -          दैवी ज्ञान।।8

सीधा    प्रसारण     आजकल ,
होता     है     बिन         तार ।
दुर्योधन     के      जनक    को,
संजय       किया      प्रसार।।9

राम    अयोध्या         लौटकर,
लाए        पुष्पक         साथ।
वैमानिक       तकनीक    वह ,
तब भी थी   निज       हाथ।।10

नव -,भारत     स्नान         की ,
गंगा    में         निज       हाथ।
"शुभम"    करो  निज  ज्ञान में,
वृद्धि     पाय      नव ज्ञान।।11

💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ. भगवत स्वरूप ",शुभम"

जीवन क्या है !

जीवन  एक   वसन  बुनाना  है,
साँसों   का     ताना-बाना    है।

एक   आती है   एक   जाती है,
एक चक्र  पूर्ण  कर    जाती है।

कण -कण में  आते  प्राण  नए,
रूठे   कण    पाते    त्राण  नए।

रीते  को  फिर   भर   जाना  है,
मुरझाए   को  खिल    जाना है।

जीवन   एक  वसन    बुनाना है,
साँसों    का     ताना -बाना    है।

हर   पल  जीवन  एक आशा है,
यह  जीवन   की   परिभाषा  है।

क्षण -क्षण  की नई   कहानी है,
बहती   सरिता   का    पानी है।

सागर    से   मिलने     जाना  है,
फिर  लौट    धरा पर   आना है।

जीवन   एक    वसन   बुनाना है,
साँसों   का      ताना -बाना    है।

 एक रहट  की बाल्टी   भरती है,
 ऊपर   जा     पानी    ढलती है।

रीतापन   फिर    भर    जाता है,
अनवरत  प्रवाह   कर   जाता है।

यों   ही   जीवन  को   गुनना  है,
अपना  पथ  आप   ही चुनना है।

जीवन  एक   वसन    बुनाना है,
साँसों   का      ताना -बाना    है।

हर  शब्द  नियमतः जोड़ -जोड़,
अपनी   त्रुटियों  को तोड़ -मोड़।

लिखनी  है  नवल कथा  अपनी,
सम्भव  हो   सुंदरतम   जितनी।

नायक निज   को   बन जाना है,
शत-शत   दस्तूर    निभाना   है।

जीवन  एक   वसन   पुराना है,
साँसों    का       ताना-बाना है।

जीवन     अनंत      इच्छाएँ   हैं,
घड़ियां  पल    गिने   गिनाए हैं।

निज कर्मों   के   वश     आना हैं,
क्यों    माया   में    भरमाना   है?

खाली  कर   जग   से  जाना   है,
फिर   बांध   मुठी   आ जाना  है।

जीवन  एक  वसन     बुनाना  है,
साँसों    का       ताना-बाना   है।

तू  ऐंठ    दिखाता   है  किसकी,
जिसका तू स्वामि  नहीं उसकी!

अगले  पल की   भी खबर नहीं,
ये बात  युगों  से   सभी    कही।

पल भर     में   क्या हो जाना है,
इससे   नितांत      अनजाना है।

जीवन  एक   वसन    बुनाना है,
साँसों   का        ताना -बाना है।

 सौ   साल  की गठरी   बांधी तू  ,
अपनी   हर    सीमा    लांघी तू।

निज अहंकार   का  दास  बना ,
कुछ   तो  सेवा कर आश बना।

कर    मलते    ही   रह जायेगा,
झोंका ज्यों   वायु बह  जाएगा।

 इंसां     को    नहीं    सताना है,
सत  "शुभम"राह ही    जाना है।

जीवन  एक    वसन   बुनाना है,
साँसों    का   आना   - जाना है।

💐शुभमस्तु!
✍🏼 ©डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

शुक्रवार, 1 जून 2018

एक चुगलखोर की आत्म स्वीकृति

मैं  एक चुगलखोर नारी हूँ। मोहल्ले वालों के वास्ते बड़ी बीमारी हूँ। मैं जिस किसी भी घर में घुस जाती हूँ। उस घर का नक्शा ही पलटवा देती हूँ। पड़ौसी की पड़ौसी से , बहू की सास से, किरायेदार की मकान मालिक से  नमक मिर्च लगाकर जो कान भरती हूँ, उस पर उन्हें सहज ही विश्वास हो जाता है। उसी दिन या अगले ही  दिन उसका रिजल्ट सामने आ जाता है।
  जब पड़ौसी पड़ौसी से, सास बहुएं  ,किरायेदार मकान मालिक से  लड़ते हैं , तो मुझे बड़ा मज़ा आता है। तब मैं अपने घर के दरवाजे बंद करके खिड़कियाँ खोल कर उसका आनन्द लेती हूँ ,तो उस आनन्द की तुलना किसी भी भौतिक आनन्द से नहीं की जा सकती।
       क्या करूँ मैं अपनी इस चुगलखोरी की  आदत से बड़ी मज़बूर हूँ , पर क्या करूँ आत्म तुष्टि के लिए करना पड़ता है। अगर किसी के  स्वर्ग जैसे घर को नरक बनाना हो, तो कोई मुझसे बात करे।आधे घंटे के अंदर घर का नक्शा ही तब्दील कर दूं , तो  अग्गो मेरा नाम नहीं। मेरे मां -बाप ने शायद मेरा नाम बड़ा ही सोच समझकर रखा होगा। अब जब अपना नाम ऊँचा कर रही हूं तो इसकी असलियत का आभास हो रहा है।
        वैसे मोहले में मुझे कोई पसंद नहीं करता , पर मैं हूँ कि दुबके छुपके घरों में घुस ही जाती हूँ।  मैने सुना है कि पीठ पीछे लोग मुझे दुमुही , कोई  कोई छिपकली भी कहते हैं। क्योंकि घरों के बाहर , खिड़की , दरवाजों पर  घर की बातें सुनना और कभी कभी देखना भी मेरी आदत का हिस्सा हैं।शायद पिछले जन्म में मैं दुमुही ही रही होऊं, इसलिए मीठा बोल कर में ये विश्वास दिला ही देती हूँ कि  मैं दुमुही चुगल खोर ही हूँ। शायद भगवान ने मुझे इसी काम से धरती पर भेजा है,'जो आया जेहि काज से तासों और न होय'  -की उक्ति के अनुसार मुझे यही काम करना है। पता नहीं  किस पुण्य के प्रताप मानव योनि में आना पड़ा , अन्यथा मुझे तो  दुमुही, छिपकली या गिरगिट की योनि में जन्मना चाहिए था। पर ईश्वर के यहाँ देर है अंधेर नहीं। शायद  मेरे इस जन्म के कर्मों से प्रदनन होकर मुझे अगली योनि किसी छिपकली, गिरगिट या  दुमुही साँपिन की मिल जाए।
 
💐शुभमस्तु!
✍🏼©डॉ भगवत स्वरूप"शुभम"

"पत्नी" -परिभाषा

तनी    रहे जो अपने    पति पर,
उसको    'पत्नी'     कहते     हैं।
पति   अगर   हो   घर से   बाहर,
थैले   की   तनी     ही   रहते हैं।

इसीलिए    पतिदेव       घरों से
बाहर      ही    खुश    रहते हैं।
घर में घुसकर पतिे  आता जब
पत्नी  के   तेवर     चढ़ते    हैं।

हर  सवाल      उत्तर   पति  के
पास            नहीं          होता ,
तब  पत्नी के उत्तर  निर्णायक
कुछ    सवाल    ही    रहते हैं।

घर  की    रानी  पत्नी   ही है
पर पति     राजा   नहीं कभी,
गली मोहल्ले   में   भी   पूछो
यही   बात   सब   कहते   हैं।

पत्नी  के    मैके  के  कुत्ते  को
गाली   कभी  न   दे     सकते,
यदि कुछ साले  को कह  पाए
तो चूल्हे    भी   ठंडे   रहते हैं।

साली  का  तो    नाम   न लेना
यदि  सुख   शांती    पानी    है,
गर आ    जाए  घर  में   साली
बच्चे    जासूसी     करते   हैं।

एक   म्यान  में एक  ही खंजर
सुविधा   से      रह    पाता है।
साली   के   आकर्षण  में    वे
भागे -  भागे         रहते      हैं।

घर में   'गर सुख   शांति    चाहो
पत्नी    से        मत     टकराना ,
इसीलिए   तो   "शुभम" सुबह से
घर        से     बाहर     रहते  हैं।

💐शुभमस्तु!

✍🏼©डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...