शुक्रवार, 31 मार्च 2023

रंग ही सही! 🪂 [ अतुकान्तिका ]

 139/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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लड़ने को 

कुछ तो चाहिए,

अवश्य चाहिए,

रंग ही सही,

एक आधार तो मिला,

हथियार भी मिला!


सबने अपना -अपना

रंग स्वयं चुना, 

अथवा चुना चुनाया मिला?

इससे अंतर भी

क्या पड़ा?

लड़ने को 

मैदान तो चाहिए ही था,

वह मिल ही गया!


टमाटर को लाल,

भिंडी लौकी को हरा

बैंगन बेचारा

बैंजनी ही भला,

चुकंदर सुर्ख लाल,

मूली सफेद हरी,

कभी लाल

कभी हरी मिर्च,

सबके अपने -अपने रंग।


क्या प्रकृति के मन में

ऐसा भी कोई भाव रहा,

कि रंग लड़ने का 

हथियार भी बनेगा!

पर बना,

बन के रहा।


कोई सवर्ण ,

कोई अवर्ण,

गोरा काला,

बिना लड़े 

पचता नहीं निवाला,

लगा नहीं सकता

आदमी अपने 

मन की जुबान पर ताला।


छूत - अछूत

छोटा  - बड़ा,

वेश्या के पद पखार

छूने न दे माटी का घड़ा,

किन्तु नहीं कर पाया

रक्त का रंग

लाल से हरा,

परदे के भीतर 

कुछ भी कर मरा।


आदमी किंतु

कर्मों से नहीं डरा,

सावन के अंधे को

हर क्षण दिखा

 हरा ही हरा,

अपनी ऊँचाई के समक्ष

दूसरा उसके

 जूते  का तला!

कैसे होगा 'शुभम्'

इस हीनता- बोधबद्ध

मानव का भला?

 जो बनावटी बाहरी 

रंगों में ढला।


🪴शुभमस्तु !


30.03.2023◆9.30 प.मा.


बुधवार, 29 मार्च 2023

कस्तूरी -सी तुम 🍑 [ दोहा ]

 138/2023

 

[कस्तूरी,टेसू,दादरा,चकोरी,चौपाल]

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✍️ शब्दकार ©

🍑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     ⛲ सब में एक ⛲

उगे न कस्तूरी वहाँ, जहाँ उगे  यव  धान।

पता  न नर  सारंग को, नहीं स्रोत- संज्ञान।।

कस्तूरी-  सी तुम बसी, मेरे उर   के   बीच।

आनंदित प्रतिपल करे,दिखे न चक्षु -नगीच।।


लाल-लाल टेसू खिले,सुमन  हजारों  भव्य।

लगी वनों में आग-सी,छटा छिटकती नव्य।।

रदपुट  में   मुस्कान है,ज्यों टेसू  के  फूल।

बाले ! कैसे  त्याग  वन,राह गए  हैं   भूल।।


'शुभम्' दादरा- ताल में,भाव प्रमुख शृंगार।

गति ठुमरी से तीव्र है, गा न कहरवा यार।।

बोल  दादरा  ताल के,   शास्त्रीय   संगीत।

जो  जाने संज्ञान ले ,सहज न सबको मीत।।


बनी चकोरी घूमती,देख शरद का सोम।

मैं अवनी  की पक्षिणी,नीला ऊँचा   व्योम।।  

कंद चकोरी का बड़ा,बहु उपयोगी  मीत।

शोभित नीले फूल हैं,कर्कट भी   भयभीत।।


चौके से चौपाल तक,जिनकी परिधि ससीम

नेता  चौकी  के  रहें, क्यों चौराहा -  भीम??

पंचों ने चौपाल पर,किया नहीं  सत  न्याय।

जाति-पक्ष-अन्याय से,मरी धर्म  की  गाय।।


   ⛲ एक में सब ⛲

फूल चकोरी बैंजनी,

                          टेसू लगा  गुलाल।

कस्तूरी मृग  दादरा,

                           गाता वन - चौपाल।।


🪴शुभमस्तु !


28.03.2023◆11.30 प.मा.

फिर से बौराए आम!🌳 [ अतुकान्तिका ]

 137/2023


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✍️शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चैत्र मास की सुवास,

प्रसरित दिनकर उजास,

बँधाती प्रिय आगमन आस,

देखकर पुनि मधुमास,

फिर - फिर बौरा उठे आम।


पिक की कुहू- कुहू टेर,

लिया विरहिणी को घेर,

क्यों हुई उन्हें देर ,

डर लगे निशि - अंधेर,

तंग करे मुझे अति काम।


हाय कैसा यह दौर,

गुँथे आपस में बौर,

देख उठे उर - हिलोर,

उठे हूक - सी अँजोर,

रतियाँ कटे जपि - जपि राम।


वृद्ध, पीपल ,वट ,नीम,

कुसुमित पल्लवित असीम,

खाल शुष्क कांत अमलीन,

लाल ओंठ हसित पात हीन,

हुआ अब शीत का विराम।


भौंरे तितली अपार,

हुए मद में सवार,

भरे अंग- अंग खुमार,

नित परागण प्रसार,

दिनांत सज्जित प्रात-शाम।


🪴शुभमस्तु !


28.03.2023◆3.15प.मा.


सोमवार, 27 मार्च 2023

अकड़ 🪁 [ चौपाई ]

 136/2023


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दम्भ, अकड़,  घमंड  की समता।

जो अकड़े  नर  क्यों अब झुकता??

अकड़े     सूख    गई   जो शाखा।

ईंधन      बना      उठाकर  राखा।।


शव   बन  गया  अकड़ क्या होना?

उसको   पड़ा   प्राण    निज खोना।।

शव    की   अंतिम   क्रिया  जलाना।

भू    में    दफना     सरित  बहाना।।


मानव  -  अकड़   न  सहता कोई।

लिपि  अंकित   ललाट  सब सोई।।

सरस   विनत    मानव  जो होता।

सुखद  शांति  के   बीज न बोता??


जब  तक    रस्सी   में  बल होते।

अकड़   न   जाती  नर   वे  रोते।।

अकड़    बुद्धि   हर   लेती  सारी।

मुरझाती     नर    की   हर क्यारी।।


जहाँ   धरा    में    तीत  न थोड़ी।

जोती   जाती     और    न गोड़ी।।

ढेले      पड़े    अकड़  दिखलाते।

चलने   में  पग    में   चुभ जाते।।


अकड़   छोड़    सतीत  बन जाएँ।

तब        सादर     मानव कहलाएँ।।

'शुभम्'      कहे   मानो ,मत मानो।

नर - जीवन      विनीत   ही जानो।।


🪴शुभमस्तु !


27.03.2023◆4.00प.मा.

समर्पण 🏕️ [ दोहा ]

 135/2023

     

  

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जहाँ समर्पण भाव है,वहीं भक्ति का रूप।

तदाकार   लेता   सदा,   होता मूर्त  अनूप।।

नम्र समर्पण भाव से,प्रभु के दर जो भक्त।

पाते  हैं   उद्धार  वे,  पाद-पदम्   अनुरक्त।।


नारी  ने  सर्वांग  से, किया समर्पण    गात।

जान हितैषी कंत को,करता 'शुभम्' प्रभात।।

सहज समर्पण भाव से,पति का जीता प्रेम।

देवधाम वह घर बने,सदा कुशल सह क्षेम।।


शिष्य चाहता ज्ञान का,उज्ज्वल'शुभं'प्रभात।

करे समर्पण भाव से,गुरु को धी,मन,गात।।

'शुभम्' समर्पण भाव में,मिट जाता अज्ञान।

सेवाभावी शिष्य का,तनता विशद वितान।।


सीमा पर  प्रहरी  खड़ा,लिए समर्पण  भाव।

दारा,घर, संतति   तजे, भरे देश के   घाव।।

सेवा हित निज राष्ट्र की,भेजा हृदय निकाल।

धन्य समर्पण तात का,जननी हुई निहाल।।


जनसेवा में जो करे,सहज समर्पण  मीत।

प्रभु उसको सामर्थ्य दें,सदा मिले नित जीत।

स्वार्थ भरी यदि सोच हो,झूठा शोषक गिद्ध।

झूठ  समर्पण   बाहरी, चोर  लुटेरा   सिद्ध।।


🪴शुभमस्तु !


27.03.2023◆11.45आ.मा.

श्री रामावतार 🛕 [ चौपाई ]

 134/2023


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✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चैत्र     शुक्ल     नवमी   बुधवारा।

लिया     राम     अवनी अवतारा।।

त्रेतायुग       की       कथा पावनी।

राजा      दशरथ     दुःख -  दाहनी।।

 

पुरी     अयोध्या     धाम- कहानी।

नित    नवीन     होती  न पुरानी।।

पापी   बढ़े     दनुज   अति भारी।

आए      विष्णु      रूप अवतारी।।


लखन     शत्रुघ्न भरत सँग आए।

त्रय   जननी     के    भाग सुहाए।। 

जनक  -   सुता   भू  - जाई सीता।

बनी     राम    की   शुभ परिणीता।। 


समय-चक्र   विधि   का   था लेखा।

जाना     नहीं    किसी    ने  देखा।।

सीता - हरण    मरण    रावण का।

लिखा नियति ने था तृण-तृण  का।।


हैं    आराध्य राम       प्रिय    मेरे।

हरते     पल      में     दुःख  घनेरे।।

'शुभम्'   राम-सिय    महिमा गाता।

सत्कर्मों      की      लगन दिलाता।।


🪴 शुभमस्तु !

 

27.03.2023◆ 10.15 आ.मा.

नहीं किसी के साथ अनय हो 🚩 [ गीतिका ]

 133/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं    किसी      के   साथ   अनय   हो।

मानव,       मानव     से     निर्भय   हो।।


चोरी       कर       अपना      घर     भरते,

चोरों    के      घर     क्यों    संचय     हो?


हो     गीतों        में     ताल ,  छंद ,   स्वर,

सँग     प्रवाह   के    सुमधुर   लय      हो।


रत           हों      मानवीय      कर्मों      में,

शांतिपूर्ण           जीवन    सुखमय       हो।


मनसा           वाचा          और      कर्मणा ,

अघ    -   ओघों      का    नहीं    उदय   हो।


यदि        जीवन      हो     सदा   संयमित,

दीर्घ      स्वस्थ    मानव    की  वय      हो।


'शुभम्'      कर्म       ही    साथ     निभाते,

जन्म     -    जन्म  वह फल अक्षय     हो।


🪴शुभमस्तु !


26.03.2023◆10.45पतनम मार्तण्डस्य।

मानव से मानव निर्भय हो 🌳 [ सजल ]

 132/2023


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●समांत : अय ।

●पदांत :  हो।

●मात्राभार : 16.

●मात्रा पतन :शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं    किसी      के   साथ   अनय   हो।

मानव,       मानव     से     निर्भय   हो।।


चोरी       कर       अपना      घर     भरते,

चोरों    के      घर     क्यों    संचय     हो?


हो     गीतों        में     ताल ,  छंद ,   स्वर,

सँग     प्रवाह   के    सुमधुर   लय      हो।


रत           हों      मानवीय      कर्मों      में,

शांतिपूर्ण           जीवन    सुखमय       हो।


मनसा           वाचा          और      कर्मणा ,

अघ    -   ओघों      का    नहीं    उदय   हो।


यदि        जीवन      हो     सदा   संयमित,

दीर्घ      स्वस्थ    मानव    की  वय      हो।


'शुभम्'      कर्म       ही    साथ     निभाते,

जन्म     -    जन्म  वह फल अक्षय     हो।


🪴शुभमस्तु !


26.03.2023◆10.45पतनम मार्तण्डस्य।


प्रहरी 🚩🚩 [ कुंडलिया ]

 131/2023

 

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✍️शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

सीमा पर प्रहरी खड़ा,हिमगिरि  तुंग महान।

रक्षक भारत का बना,अमर दिव्य  पहचान।।

अमर दिव्य पहचान,रात दिन जाग  रहा  है।

मेघों   की  दीवार,तुहिन में नित्य  नहा  है।।

'शुभम्'छुआ आकाश,बढ़ा वह धीमा-धीमा।

मौन  धीर  गंभीर, देश  की सुदृढ़    सीमा।।


                        -2-

सीमा पर प्रहरी बने,खड़े वीर दिन  -  रात।

जागरूक  सन्नद्ध हैं, वर्ण न कोई     जात।।

वर्ण न कोई जात, त्याग घर,भगिनी, दारा।

संतति  के  प्रति  नेह, पिता का बेटा प्यारा।।

'शुभम्'लिखा क्या नाम,देश-रक्षा का बीमा।

खेलें  होली  खून, डटे  भारत की    सीमा।।


                         -3-

प्रहरी का दायित्व ही,विकट विषम अतिभार

प्राणों  की  बाजी लगा,सहता कष्ट   अपार।।

सहता  कष्ट  अपार, जागते ही   रहना   है।

आता जो भी द्वार,नहीं कुछ कटु कहना  है।।

'शुभम्' कार्य के  साथ,आस्था रहती   गहरी।

नहीं सभी  का काम,बने जो कर्मठ   प्रहरी।।


                         -4-

प्रहरी  हैं  परिवार   के, माता पिता  बुजुर्ग।

निर्भय  हो संतति  रहे,निर्भय हो    गृहदुर्ग।।

निर्भय  हो   गृहदुर्ग,  मिटें दुश्चिंता   सारी।

करे न साहस चोर,सभी  हों सदा  सुखारी।।

'शुभम्' गूँजती तान,गान की मधुरिम लहरी।

निभा रहे कर्त्तव्य, धाम  के पावन   प्रहरी।।


                              -5-

आओ अपने  देश  के,प्रहरी बन  हम आप।

साँपों    से   रक्षा  करें, बने हुए  जो   शाप।।

बने  हुए  जो  शाप , कुचल दें फन  वे  सारे।

डंसते जो दिन-रात ,मित्र बनकर  बजमारे।।

'शुभं'न क्षण की देर,जागकर उन्हें मिटाओ।

हिंद  देश  का  मान,  बढ़ाएँ प्यारे  आओ।।


🪴शुभमस्तु !


24.03.2023◆2.00पतनम मार्तण्डस्य।

ज्यों केले का पात 🥏 [अतुकांतिका ]

 130/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🥏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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ज्यों केले के

पात में 

पात,

पात में पात,

त्यों इस 

मानुष जात में,

चरितों के

छिपे हुए दिन- रात।


कसने पर सोना,

समीप बसने पर

मानुष 

अलोना सलोना,

फिर  भी नहीं

जान पाएँ

उसका हर कोना,

इसी बात का तो है

रोना।


न होता यदि

इतना भितरघाती इंसान

नहीं लिखे जाते

रामायण साहित्य पुराण,

बदनाम है त्रिया चरित्र

अपनी गहराई के लिए,

पुरुष क्या कम है,

उसके बहुरूपियापन में भी

बड़ा दम है,

वैसे तो कोयल कागा

की वाणी से पहचान है,

लेकिन ये आदमी

उससे भी 'महान' है!


ये कविताएँ

ये कहानियाँ

ये लघुकथाएँ

ये महाकाव्य

ये उपन्यास,

सभी हैं आदमी के

चरित्र का विन्यास।


उधेड़ते जाओ

परत दर परतें 

खुलती जाएँगी,

और अंत में

एक निराशा ही

हाथ आएगी।


ये मुखौटे !

ये वसन आभूषण!

नहीं उजलाते उसके

चरित्र का दूषण,

फितरत ही यही है

परस्पर शोषण या चूषण,

रावण हो 

मारीच हो

कंस या खर दूषण,

फैलाया ही गया

सदा से चरित्र का

प्रदूषण।


आदमी ही 

आदमी का आहार,

पुतिन हो या अन्य

आदमी हो रहा

आतंकवाद का शिकार,

सर्वत्र नरमेध

नर माँस का व्यापार,

सत्ता की अंधी भूख,

देख सुन 

काँप- काँप जाते

पीपल शिंशुपा

वटवृक्ष के रूख,

हृदय में तब

होता है बहुत दुःख,

चाहता हर आदमी

बस अपना ही सुख,

इसीलिए खुला रखता है

अपना बड़ा मुख।


दूध के जले

छाछ भी पीते हैं

फूँक- फूँक कर,

झुकने वालों को

मूर्ख समझती है दुनिया,

उसे सुहाता है 'शुभम'

अपना ही

हरमुनिया,

कोयल कागा का भेद

सहज नहीं है यहाँ।


🪴शुभमस्तु !


24.03.2023◆4.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

नव संवत्सर 🚩 [ दोहा ]

 129/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🚩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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वासंती वेला  'शुभम्',  नव संवत्सर  आज।

सुमन सजे कलियाँ खिलीं,आए हैं ऋतुराज।

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, नव संवत्सर मीत।

आया भारतवर्ष में,फिर से दिवस   पुनीत।।


नव संवत्सर की कथा,सतयुग से चल आज।

चली आ रही देश में,नवल सृष्टि का साज।।

नव संवत्सर की घड़ी,नवमी तिथि को राम।

हुए अवतरित भूमि पर,शुभ साकेत ललाम।


नव संवत्सर का प्रथम,मास चैत्र शुभ मीत।

विक्रम संवत आगमित,राजा बुध सह प्रीत।

नव संवत्सर  नाम नल,मंत्री शुक्र  अभीत।

राजा बुध शासित प्रजा, गाएगी  शुभ गीत।।


नव   संवत्सर  आज जो,दिया विक्रमादित्य।

है सटीक गणना'शुभं',क्षण-क्षण का औचित्य

नव संवत्सर  आज से, हिन्दू का   नव  वर्ष।

हैं  प्रसन्न नर नारियाँ,  करना नित   उत्कर्ष।।


'तमसो मा ज्योतिर्गमय,'यही एक आधार।

नव संवत्सर में  यही,  अपनाया   साकार।।

पूर्णसृष्टि प्रारंभ का,प्रथम दिवस शुभ आज।

सतयुग से आया चला,करते हैं हम नाज।।


माँ  दुर्गा    की  अर्चना, पूजा कर   संपन्न।

नौ दिन कर आराधना,कर लें चित्त प्रसन्न।।


🪴शुभमस्तु !


22.03.2023◆3.450प.मा.

मधुऋतु के उपहार [ दोहा ]

 128/2023


[किंशुक,कचनार,गुलमोहर, अमलतास,सेमल]

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✍️शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     🪷  सब में एक 🪷

किंशुक जैसे   लाल हैं,गोरी युगल   कपोल।

अधर लालिमा मोहिनी,आँक न सकता मोल

खिले-खिले किंशुक हँसें,वन की छटा अनूप

आया है मधुमास ये, सब ऋतुओं का भूप।।


छटा  बैंजनी  सोहती, मेड़ों पर   कचनार।

तितली फूलों  पर उड़ें, उछले नित्य अपार।।

घूँघट किसलय का हरा,ओढ़ नवल कचनार

ठुमक-ठुमक नाचें सुमन,मादक बहे बयार।।


सिर गुलमोहर का लगा,मोहर नवल वसंत।

तिया निमंत्रण दे रही,घर आ जा प्रिय कंत।।

कलगी गुलमोहर हिले,झूम  मत्त  ऋतुराज।

मदमाती  भृङ्गावली, सजा रही  नव  साज।।


पीली चादर ओढ़कर,  शुभागमन की आस।

खड़ा प्रतीक्षित बाग में,अमलतास अनुप्रास।

अमलतास से  होड़ में,गेंदा   नाचे    नित्य।

भौंरे   तितली  झूमते,  मुस्काते    आदित्य।।


शांत चिकित्सक जानिए,सेमल का तरु मीत

छाल, फूल,फल रोगहर,करते गात अभीत।।

कब्ज निवारक फूल है,सेमल का प्रिय जान

अरुण वर्ण मोहक बड़ा,करते जन गुणगान।


     🪷 एक में सब 🪷

अमलतास सेमल 'शुभम्',

                   किंशुक गुल कचनार।

कलगी गुलमोहर खिली,

                       मधुऋतु के उपहार।।


🪴शुभमस्तु !


22.03.2023◆2.00प.मा.


अहंकार [ दोहा ]

 


अहंकार जिसने किया, हुआ  उसी का नाश।

तम वह मानव बुद्धि का,हरता ज्ञान प्रकाश।


सोने की  लंका  जली,ध्वस्त हुआ  परिवार।

अहंकार दशग्रीव का,नाशक बुद्धि-विकार।।


पुतिन आज साक्षात है,अहंकार  का  रूप।

मिटा  रहा यूक्रेन को,मूढ़ बुद्धि - तम  भूप।।


रूप   वृथा नवयौवने, अहंकार  मत  पाल।

विनता बन जीना सदा,रूप हरे तव काल।।


यौवन   तेरा   धूप  है, अहंकार  है   काल।

मति तेरी  हरता वही,  फैलाए अघ - जाल।।


अहंकार धन बुद्धि तन,सबका करता नाश।

होता  मानव  में नहीं, संत बने नर   काश।।


अहंकार के कीट से,मिटे मनुज का   सार।

जीवित दिखता आदमी,पर देता वह  मार।।


बुद्धि खोखली कर रहा, अहंकार का कीट।

नहीं किसी  को मानता,देता जीवित  पीट।।


छिद्र एक जलयान में,करता है  जलमग्न।

अहंकार नर- देह  में,कर देता मति  भग्न।।


अहंकार  ने कंस का, छीना बुद्धि  विवेक।

कान्हा का दुश्मन बना,त्याग कर्म हर नेक।।


ज्ञानी ध्यानी  सूरमा, या हो संत    महान।

अहंकार  में वे  नसे, बड़े - बड़े  धनवान।।


-प्रो.(डॉ.)भगवत स्वरूप 'शुभम्'

तेरी चमकार 🪦 [ नवगीत ]

 127/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कण -कण में

विस्तारित

तेरी  चमकार।

बहती है

पाहन से

गंगा  की धार।।


कहते हैं 

दिखता है

आँखों से दृश्य।

नाशी है

प्रतिक्षण वह

किंचित नहीं वश्य।


मैं मैं में

भूला है

मानव संसार।


पिपीलिका

नन्हीं - सी

कुंजर - सी  देह।

हो जाती

पल भर में

मिल जाती खेह।।


दोलित है

पल्लव भी

तेरे अनुसार।


अम्बर में

बादल हैं

बादल में मेह।

बूँदों से

जीवन है

बरसाती नेह।।


जिजीविषा

माने कब

जीवन में हार।


मंदिर या

मस्जिद में

तू ही है एक।

गूँज रही

घण्टी में

तेरी ही टेक।।


राम श्याम

ईशा तू

तू दस अवतार।


जीवों का

दाना तू

तू  ही  तो   भूख।

सूरज में

निशिकर में

प्रभु नित्य मयूख।।


होती हैं

दो आँखें

दो-दो मिल चार।


तू मत हो

फिर भी तू

होता  है   नित्य।

तेरे बिन

 मेरा क्या

कोई  औचित्य!!


'शुभम्' बिना

तेरे प्रभु

नहीं शब्दकार।।


🪴शुभमस्तु !


22.03.2023 ◆5.30आ.मा.

घर 🏡 [ चौपाई ]

 126/2023

             

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✍️ शब्दकार ©

🏡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ईंटों  से  मकान   की   रचना।

मत घर की परिभाषा कहना।।

बहती  जहाँ   नेह  की   गंगा।

न हो हया बिन  मानव नंगा।।


सर्प  नहीं  घर  आप    बनाते।

अन्य बने  घर में  घुस  जाते।।

महल अटारी   भवन  सजाए।

संस्कार  से  नर   बन   पाए।।


घर -  घर में   चूल्हे  माटी के।

अनुगामी जन   परिपाटी के।।

सबके घर  की  एक  कहानी।

वही दाल   रोटी  सँग  पानी।।


घरवाली   कहलाती   घरनी।

नैया घर की   पार   उतरनी।।

घरनी बिन घर भूत  - बसेरा।

कहे   न   कोई   मेरा - तेरा।।


छिपता भानु लौट घर आए।

खग पालित पशु शीघ्र सिधाए।

घर में सुख  की सेज हमारी।

नींद जहाँ आती अति प्यारी।।


घर मिल  बस्ती  गाँव  बनाते।

जन-जन के मन को वे भाते।।

हाट   और   बाजार    हमारे।

घर के  ही   विस्तार  निनारे।।


आओ घर  को  सुघर बनाएँ।

नेह   एकता   उर  भर लाएँ।।

'शुभम्' भले  झोंपड़ी हमारी।

रहें नीड़  घर  में नर -  नारी।।


🪴शुभमस्तु !


20.03.2023◆1.00प.मा.

सबका लोहू लाल💞 कुंडलिया ]

 125/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

मानव-मानव   में बढ़ा, वर्ण-भेद-विष  तेज।

वर्ण व्यवस्था  कर रही,विकल सनसनीखेज

विकल   सनसनीखेज,  उठीं ऊँची   दीवारें।

वर्ण   हो  गया  ज्ञान,  परस्पर पत्थर  मारें।।

'शुभं'हिंस्र नर जाति,बनी है अतिशय दानव।

मरता  उर  का  प्रेम,ढोरवत जीता   मानव।।


                         -2-

सबका लोहू लाल है,किंतु मनुज  का  काल।

मानव-मानव का बना,कैसा विकट सवाल।।

कैसा  विकट सवाल,पड़ौसी उसे  न  भाए।

वर्ण व्यवस्था-भेद, मनुज ही नर  को खाए।।

'शुभम्'क्लीव हंकार,बनाता उसको दव का।

रहता मान उछाल,समझता ईश्वर   सबका।।


                         -3-

अपने को कहता बड़ा,और अन्य को नीच।

रंग -भेद  के नाम  से, नित्य उलीचे   कीच।।

नित्य  उलीचे   कीच, उठाए अपना  झंडा।

वर्ण  व्यवस्था  सींच, गढ़ा मनमाना फंडा।।

'शुभम्' देखता  देश, उठाने के बहु    सपने।

मानव से रख बैर, जाति के दिखते  अपने।।


                         -4-

घोड़ा   घोड़े  से   नहीं, कहता मैं   हूँ  गौर।

काला  रँग  तू नीच  है, मैं सबका सिरमौर।।

मैं  सबका   सिरमौर,पूज्य मैं ठाकुर   तेरा।

वर्ण  व्यवस्था  सीख, राहु ने तुझको  घेरा।।

'शुभम्' रंग का जाल,नहीं मानव को छोड़ा।

खग,पशु,गौ माँ,भैंस,नहीं लड़ते मृग,घोड़ा।।


🪴शुभमस्तु !


20.03.2023◆10.30आ.मा.

मेरा भारत देश 🇮🇳 [ दोहा गीतिका ]

 124/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मेरा  भारत  देश  है ,जगती  में  मणि  एक।

भारतवासी धन्य हैं, रहते मिल सविवेक।।


विविध  रंग बहु वेश में,करते मनुज निवास,

मंत्र  राष्ट्र   की  एकता ,उर में भाव   अनेक।


भाषाएँ  कन्नड़,  तमिल,बँगला सह  बाईस,

 हिंदी  ही  सिरमौर है, प्रांत-प्रांत  अतिरेक।


वैदिक  भाषा  में  लिखे, अपने   चारों  वेद,

विविध  ज्ञान -भंडार  के,बने स्रोत   वे  नेक।


सब  भाषाओं की रही,जननी संस्कृत मीत,

वृहत शब्द-भंडार  का,नहीं कहीं व्यतिरेक।


गंगा,  यमुना,  सरस्वती,  नदी नर्मदा    धार,

धरती  को  पावन करें, नित्य सदा अभिषेक।


उत्तर में हिमगिरि खड़ा,प्रहरी बन दिन-रात,

विंध्य, सतपुड़ा, नीलगिरि,देव- रूप प्रत्येक।


होली , दीवाली   सभी, भारत के    त्योहार,

भारतवासी  गा   रहे,गीत लगा   नव  टेक।


'शुभम्'  वीर  रणबाँकुरे, सीमा पर   सन्नद्ध,

अरिदल  से  रक्षा  करें,नहीं मेह  के  भेक।


🪴शुभमस्तु !


20.03.2023◆9.00आ.मा.

जीव -अलि रसिया 🪂 [ गीतिका ]

 123/2023


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✍️शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीवन-सुमन  जीव-अलि रसिया।

कौन भ्रमर  जो रस न आ पिया??


योनि  - योनि  प्रति  योनि विचरता,

तृप्ति   न   पाया    बगिया- बगिया।


बचपन ,    यौवन       खेल  गँवाए,

फिर  क्या  जब  थामी कर लठिया!


देखा      नहीं     दे    दिया   जीवन,

फिर    भी   कहलाई    वह नदिया।


रस्सी     जली     नहीं    बल  निकले,

कूकर    काम- केलि  रत  न जिया?


बादल         में        थेगली    लगाई,

जनक - जननि का सिला न बखिया ।


'शुभम्'       पार      करनी वैतरणी,

चिल्लाता          आजीवन दुखिया।


🪴शुभमस्तु !


20.03.2023◆2.30आ.मा.

बादल में थेगली लगाता ⛈️ [ सजल ]

 122/2023


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●समांत : इया ।

●पदांत: अपदान्त।

●मात्रा भार : 16.

●मात्रा पतन: शून्य।

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✍️शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीवन-सुमन  जीव-अलि रसिया।

कौन भ्रमर  जो रस न आ पिया??


योनि  - योनि  प्रति  योनि विचरता,

तृप्ति   न   पाया    बगिया- बगिया।


बचपन ,    यौवन       खेल  गँवाए,

फिर  क्या  जब  थामी कर लठिया!


देखा      नहीं     दे    दिया   जीवन,

फिर    भी   कहलाई    वह नदिया।


रस्सी     जली     नहीं    बल  निकले,

कूकर    काम- केलि  रत  न जिया?


बादल         में        थेगली    लगाई,

जनक - जननि का सिला न बखिया ।


'शुभम्'       पार      करनी वैतरणी,

चिल्लाता          आजीवन दुखिया।


🪴शुभमस्तु !


20.03.2023◆2.30आ.मा.

धर्म -ध्वजा की आड़ 🪁 [ सोरठा ]

 121/2023


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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ले जाना है धर्म, प्रगति पंथ पर  देश  को।

करना है सत्कर्म, सभी नागरिक सोच लें।।

होना है अनिवार्य,प्रगति नहीं तो  पतन  ही।

बनें सभी जन आर्य, मनसा वाचा कर्मणा।।


श्रेष्ठ प्रगति का मूल,सारे जीव समाज  की।

सबके ही अनुकूल,सबसे हिल-मिलकर रहें।

भर  लेते  हैं  श्वान, अपना-अपना  पेट तो।

सच्चा  वह  इंसान, सर्व प्रगति - सन्नद्ध हो।।


नेता हैं क्यों  लीन,पशुवत लूट - खसोट  में।

करें प्रगति नर हीन, कैसे देश- समाज  की।।

लूट रहे हैं  देश, धर्म - ध्वजा की  आड़  में।

बदल मुखौटे वेश,प्रगति शून्य बक भक्त वे।।


शोषण  में  संलीन,ढोंगी व्यभिचारी सभी।

सदा प्रगति से हीन,धन नारी के  लालची।।

मूढ़  छात्र  विद्वान,  नकल परीक्षा  में करें।

मेरा देश  महान,प्रगति झोंकती  भाड़  ही।।


क्रय  कीं धन  से चार,डिग्री कर  में  सोहतीं।

उत्कोची  व्यापार, प्रगति न होगी  देश  की।।

प्रगति - प्रगति के गीत, नेताजी  चिल्ला रहे।

काम  सभी  विपरीत, कंचन से कमरे  भरे।।


नाटक नेता-वृंद का,'शुभम्' प्रगति  का खेल।

दौड़ाना   छल -  छंद  का, भ्रष्टाचारी    रेल।।


🪴शुभमस्तु !


16.03.2023◆7.00आ.मा.

बौरा गए रसाल 🌳 [ दोहा गीतिका ]

 120/2023


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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होली तो हो ली सखे,फूले किंशुक  लाल।

पाटल महके झूमकर,बौरा गए    रसाल।।


कोकिल कूके  बाग में, कुहू-कुहू   की  टेर,

चोली कसती जा रही, मन में उठे  सवाल।


बाली जौ गोधूम की, नाच रही नित   झूम,

पीपल दल के होंठ पर,उभरा लाल गुलाल।


फूल-फूल का रस चखे,तितली नीली पीत,

भँवरे गूँजें  मत्त हो, करते विकट  धमाल।


आए हैं  ऋतुराज  जी,पतझर के उपरांत,

कामदेव  धनु-बाण  ले,आया लेकर जाल।


विरहिन बाट निहारती,आए अभी न  कंत, 

नींद  न आए सेज में,काम रहा  है  साल।


महुआ   महके  बाग  में,गदराए   हैं  अंग,

बूढ़े  बरगद  ने  तजी, अपनी बूढ़ी  खाल।


ब्रज की झाड़ करील में,मधमासी की भीड़,

लगी  होड़ रस चूसने, गूँज - गूँज  दे  ताल।


चंचल  चितवन ने ठगा, यौवन को सुकुमार,

रूप न जाता आँख से, हृदय रहा  है  साल।


'शुभम्' प्रकृति के रूप का,कैसा कायाकल्प,

जड़-चेतन रसलीन हैं,नत हैं नयन विशाल।


🪴 शुभमस्तु !


16.03.2023◆6.00आ.मा.


हरित आम बौरा गए 🌳 [ दोहा ]

 119/2023


[पतझर,कलगी,अंकुर,किंशुक, विपिन]

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      ☘️ सब में एक ☘️

पतझर में  पल्लव झरे,देता पवन   बुहार।

आए हैं ऋतुराज जी, कोकिल कहे पुकार।।

पतित पात पीले पड़े,पतझर की  पहचान।

जीवन के तरु से झरें,यों पल्लव  के  प्रान।।


गंदुम- कलगी नाचती, होता स्वर्णिम  भोर।

हरित आम बौरा गए,गाती पिक  चितचोर।।

ठुमक -ठुमक चलने लगे,गलियों में तमचूर।

कलगी अरुणिम नाचती,इधर-उधर भरपूर।


पीत  पात  भू  पर झरे, अंकुर आए साथ।

लाल-लाल मुस्कान में,पीपल पूर्ण  सनाथ।।

शाख-शाख अंकुर भरी,हरियाए तरु नीम।

पीपल शीशम नाचते,हँसते अधर असीम।।


खड़ी अटारी देखती, किंशुक-वन की ओर।

बाला मदमाती हुई,  देख कनक-सा   भोर।।

अरुण सुमन किंशुक सजा,करे नेह की बात

यों ही जीवन में खिलें,सबके ही   दिन-रात।।


विपुल विपिन सौंदर्य का,कैसे करें विचार।

प्रभु ही माली रात-दिन,उपकृत नव उपहार।

विपिन  वृष्टि  के  हेतु हैं,लाते   मेघ  अपार।

सिंचन  कर  भू-अंक  में, बनते  प्राणाधार।।


      ☘️ एक में सब ☘️

किंशुक विकसे विपिन में,

                            अंकुर उगे   अनेक।

पतझर में कलगी नई,

                               वासंती अतिरेक।।


🪴 शुभमस्तु !


15.03.2023◆4.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 14 मार्च 2023

नेताजी पर शोधपत्र🚁 [ हास्य गीत ]

 118/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

💁🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नेता जी  पर   शोध   कराया।

सद्गुण  का भंडार  समाया।।


सहनशीलता   होती    प्यारी।

पदत्राण  से    उनकी   यारी।।

पनहा  फूल सदृश  ही भाया।

नेता जी  पर   शोध  कराया।।


नर  - नारी   कोई   दे   गाली।

सुनने  की  आदत है  डाली।।

घुसता इधर   उधर  से आया।

नेता जी   पर   शोध कराया।।


समझ  रहे  अपने   को हाथी।

चमचे   गुर्गे   ही  सब साथी।।

टुकड़ा डाल मनुज ललचाया।

नेता जी  पर  शोध   कराया।।


भेद  न   कोई   उनका   पाए।

जाते    पूरब   पछाँ   बताए।।

चालक चाल समझ क्या पाया!

नेता जी   पर   शोध कराया।।


मन  की बात  न  दारा  जाने।

चित्त  विरोधी   चारों   खाने।।

अवसर  देखा  पलटा  खाया।

नेताजी  पर  शोध    कराया।।


घरवाली  संतति  के  चिंतक।

नहीं कभी साले  के  निंदक।।

साली  को    ऊपर    बैठाया।

नेता जी पर   शोध   कराया।।


चिंता  उन्हें   देश   की  भारी।

अनथक निशा दिवस तैयारी।

जनगणमन को शीश नवाया।

नेता जी   पर  शोध  कराया।।


होते   नहीं    देश     में   नेता।

कौन  नाव  भारत की खेता।।

श्वेत वसन ही   उनको  भाया।

नेता जी   पर  शोध  कराया।।


शिक्षा  न्यून किंतु  बहु  ज्ञानी।

अच्छे - अच्छों को   दें पानी।।

अधिकारी को  ज्ञान  पढ़ाया।

नेता जी पर  शोध   कराया।।


सुंदरियों  के    सदा   हितैषी।

बदलें रूप   वसन   बहुवेषी।।

नित्य  मुखौटा बदल चढ़ाया।

नेता जी  पर   शोध  कराया।।


🪴शुभमस्तु !


14.03.2023◆11.30 आ.मा.

आओ खेलें नेता-नेता 💁🏻‍♂️ [ बालगीत ]

 117/2023


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✍️ शब्दकार ©

💁🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आओ    खेलें    नेता -   नेता।

बनकर कुर्सी - वीर  विजेता।।


चिकनी-  चुपड़ी  बातें करके।

नोट   कमाएँ   कमरे  भरके।।

नेता    बस   आश्वासन  देता।

आओ  खेलें   नेता  -   नेता।।


सीखें  पहले    देना   भाषण।

जनता में   आए   आकर्षण।।

ज्यों  मादा  खग   अंडे  सेता।

आओ  खेलें    नेता -   नेता।।


श्वेत    बगबगे   कपड़े    धारें।

मन  में  पैनी  छिपा   कटारें।।

बनें    देश - निर्माण - प्रणेता।

आओ     खेलें   नेता - नेता।।


आपस में जन- जन लड़वाएँ।

स्वयं न्याय को   आगे  आएँ।।

अधिकारी  को   शिक्षा   देता।

आओ  खेलें     नेता -  नेता।।


सब    थैली   के     चट्टे -बट्टे।

एक पहाड़ा    ही   सब  रट्टे।।

नहीं  नाव  जनता की  खेता।

आओ    खेलें   नेता  - नेता।।


फेंको ज्यों चिड़िया को दाना।

उन्हें जाल में डाल  फँसाना।।

भैंस  सहित खोया कर लेता।

आओ   खेलें    नेता - नेता।।


🪴शुभमस्तु !


14.03.2023◆ 4.15आ.मा.

सोमवार, 13 मार्च 2023

वचन 🪷 [ चौपाई ]

 116/2023

            

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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वचन - शक्ति     की  महिमा भारी।

कवि की  खिलती  कविता- क्यारी।।

वचन  -   सुगन्ध   जहाँ    भी जाए।

यहाँ       वहाँ       सबको महकाए।।


वचन      बाणवत      जिनके  होते।

उनके     भाग्य      सदा     ही सोते।।

हो      विनम्र     बोलें     प्रिय  वाणी।

होगी     सदा      मनुज - कल्याणी।।


नहीं      वचन     बोलें   कटु   गुरु  से।

अपने   ज्येष्ठ     मातु   पितुवर     से।।

कोकिल      वचन      सुहाए  सबको।

मोर    लुभाते    प्रति     जन  घन को।।


सत्य        वचन    आनन   से  बोले।

संग       नेह -  रस     भी  जो घोले।।

सबको          ही    आकर्षित  करता।

घड़ा       प्रेम - रस     से  वह भरता।।


वचन   तीर   है     वचन सुमन    भी।

जहर        घोलते        गर्वित   दंभी।।

प्रिय     वाणी   ने     जग   को  जीता।

भरता        वचन      नेह -  घट रीता।।


वचन          बताते     कोकिल  कागा।

कर्कश         या      सुमधुर  अनुरागा।।

दूती        शुभ      वसंत   की आती।

वचन     -  सुधा     से   जग महकाती।।


वचनों      से     हो    मनुज - परीक्षा।

नारी      भी       ले      यही सदिक्षा।।

'शुभम्'    वचन   ने    जनगण जीता।

योगेश्वर         की        कहती   गीता।


🪴 शुभमस्तु !


13.03.2023◆2.30 प.मा.

गुरु द्रोण- जन्मकथा🎯 [ चौपाई ]

 115/2023

 

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✍️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'  

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परी    घृताची    आई    गंगा।

गात सुघर शोभित अधनंगा।।

पा  एकांत  स्नान  की  जागी।

इच्छा, उर में  बन  अनुरागी।।


लगी  नहाने तट  पर  जाकर।

भरद्वाज ऋषि चौंकें मन भर।।

देख घृताची   को  मन मोहा।

क्षण में   ऊपर  से अवरोहा।।


मन्मथ ने मन को मथ डाला।

दूषित होती  वह  मृगछाला।।

ऋषि का वीर्य स्खलित होता।

जागा काम  रहा  जो  सोता।।


रखा   द्रोण   में वीर्य  सहेजा।

वृथा  नहीं कर   रेज़ा - रेज़ा।।

जन्मे फिर गुरु द्रोण उसी से।

भरद्वाज पितु  की  करनी से।।


थे गुरु द्रोण सु-प्रतिभाशाली।

निज कौशल से विद्या पा ली।।

धनुर्बाण   के   वे   गुरु ज्ञानी।

और नहीं   कोई   था  सानी।।


कौरव - पांडव  के गुरु नामी।

सभी द्रोण को कहें  नमामी।।

अर्जुन प्रियकर शिष्य तुम्हारा।

मार बाण   निकले जलधारा।।


🪴शुभमस्तु !


13.03.2023◆12.45प.मा.

छल-बल सदा अनीति 🙊 [ दोहा ]

 114/2023


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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छल-बल सदा अनीति है, बचना इससे मीत।

शांति छिने मन में बसी,रहे न जीवन-गीत।।

सदा दानवों के लिए,छल-बल की  है  शक्ति।

नीतिपरक शुभ राह है,सत से कर अनुरक्ति।


अघ-ओघों में लीन जो,छल-बल ही आधार।

मलिन  तामसी सोच में,लेता मन   आकार।।

छल-बल  से  देवेश ने,किया भयंकर  पाप।

छली अहल्या छद्म से,ऋषि का झेला शाप।।


छल-बल  से  लंकेश  ने,सीता हरी  पुनीत।

वंश-नाश  अपना किया,हुई राम की जीत।।

छल-बल ही मारीच का,बना मरण का  हेतु।

कनक-हिरण मारा गया,छल का काला केतु।


छल-बल से गुरु द्रोण ने,एकलव्य सँग घात।

किया क्रूर अपराध ही,निम्न कर्म अनुदात।।

दानी  कर्ण महान थे,कुंडल- कवच  प्रदान।

ले छल-बल  से इंद्र ने,मघवासन  अपमान।।


असुर रूप धर देव का,ले छल-बल आधार।

अमृत पीना चाहता, दिया विष्णु  ने  मार।।

छल-बल पाकिस्तान का,झेले नित्य स्वदेश।

समझ रहा आतंक से,बदले निज परिवेश।।


नकल परीक्षा में करें,छल -बल से जो छात्र।

क्षीण करें निज योग्यता,नहीं सुफल के पात्र।


🪴शुभमस्तु!


13.03.2023◆9.45आ.मा.

हाल जानते प्रभु कण- कण का🪦 [ गीतिका ]

 113/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हाल  जानते  प्रभु  कण -कण का।

कवि  जाने   त्यों   मात्रा -गण का।।


अंतरतम   में    मनुज    झाँक  ले,

मैल   हटाए       क्यों    दर्पण का?


चिंता   निज    चरित्र    की करता,

सदुपयोग   करता    प्रति  क्षण का।


सीमा    पर   वह   नियत अवस्थित,

मान       जानता      प्राणार्पण  का।


पाहन      पिघल     बना   द्रव पानी,

मोल   समझता  गिरि  प्रसवण  का।


कब  तक    प्राण  शेष  हैं  तन   में,

सैनिक   जाने   सत  उस  रण का।


'शुभम्'   सँभलकर    चलना पथ  में,

समझ  नहीं  नर - जीवन  पण  का।


🪴 शुभमस्तु !


13.03.2023◆7.45आ.मा.

समझ नहीं नर-जीवन पण 🤷‍♂️ [ सजल ]

 112/2023


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●समांत : अण ।

●पदांत :का ।

●मात्राभार:16.

●मात्रा पतन :शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हाल  जानते  प्रभु  कण -कण का।

कवि  जाने   त्यों   मात्रा -गण का।।


अंतरतम   में    मनुज    झाँक  ले,

मैल   हटाए       क्यों    दर्पण का?


चिंता   निज    चरित्र    की करता,

सदुपयोग   करता    प्रति  क्षण का।


सीमा    पर   वह   नियत अवस्थित,

मान       जानता      प्राणार्पण  का।


पाहन      पिघल     बना   द्रव पानी,

मोल   समझता  गिरि  प्रसवण  का।


कब  तक    प्राण  शेष  हैं  तन   में,

सैनिक   जाने   सत  उस  रण का।


'शुभम्'   सँभलकर    चलना पथ  में,

समझ  नहीं  नर - जीवन  पण  का।


🪴 शुभमस्तु !


13.03.2023◆7.45आ.मा.

शुक्रवार, 10 मार्च 2023

क्रीड़ा करती कल्पना 🪴 [ कुंडलिया ]

 111/2023

        

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

होती  वैसी   कल्पना, जैसा  हो  उर - भाव।

भली-बुरी   सब  तैरतीं, भीतर अपने नाव।।

भीतर  अपने  नाव, वही   सरि पार  लगातीं।

जो लेतीं झकझोर, नाव मँझधार   डुबातीं।।

'शुभं'थाम पतवार,प्राप्त कर उज्ज्वल मोती।

रहे कल्पना शुद्ध  ,वही  नित हितकर होती।।


                         -2-

कविता में नव कल्पना,भरती है    नव  रंग।

ज्यों निधि में लहरें उठें,बनती विपुल तरंग।।

बनती विपुल तरंग,किनारे तक  छा  जातीं।

वैसे  उठें  उमंग,  सृजेता  मनुज   बनातीं।।

'शुभं'गया उस लोक,नहीं पहुँचे कर-सविता।

भरते भाव उड़ान,दिव्य रच जाती कविता।।


                         -3-

होता  है  विज्ञान  का, विपुल गूढ़तम   क्षेत्र।

क्रीड़ा  करती  कल्पना, खुलें बंद  जो  नेत्र।।

खुलें  बंद   जो  नेत्र, चौंकती दुनिया  सारी।

होते  नित  प्रति  शोध,ज्ञान से जाती  हारी।।

'शुभम्'शृंग आकाश, पयोनिधि में  ले  गोता।

मिले नवल चमकार, कल्पना से सब होता।।


                         -4-

हिंदी के  सहित्य का,सागर विशद   विराट।

गद्य-पद्य  की  हर  विधा,है प्रदीप्त  विभ्राट।।

है  प्रदीप्त  विभ्राट ,कल्पना के  रँग  इतने।

रवि -किरणें शत लाख,भाव उर में हैं उगने।।

'शुभम्' गीत  संगीत, भाल की जैसे   बिंदी।

छंद  सरस  संसार,भारती की शुचि   हिंदी।।


                         -5-

मानव  के  उर  लोक  में,उगते भाव अनेक।

आधारित नव कल्पना, जाग्रत  रहे  विवेक।।

जाग्रत   रहे   विवेक,  नहीं  है सीमा  कोई।

है  अनंत  आकाश,  कल्पना नूतन   बोई।।

'शुभम्' नेह के भाव,घृणा से भरता  है  भव।

बनता स्वर्ग समान,बनाए यदि जग मानव।।

🪴शुभमस्तु !


10.03.2023◆12.45 प.मा.


उनका अविस्मरणीय व्यवहार!🌻 [ संस्मरण ]

 110/2023

 

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✍️लेखक ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यह चर्चा वर्ष 1988 की है।उस समय मैं राजकीय महाविद्यालय जलेसर (एटा) में हिंदी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत था।देश में तीसरी नई शिक्षा नीति के अंतर्गत पुस्तकालय के लिए पुस्तकें क्रय की जानी थीं।तत्कालीन प्राचार्य डॉ. जगन्नाथ आर्य जी द्वारा यह कार्य मुझे सौंपा गया औऱ जलेसर से पचास किलो मीटर दूर आगरा शहर से इस कार्य को संपादित करने के लिए भेजा गया। मेरा गाँव भी आगरा के पास ही जलेसर मार्ग पर जलेसर से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित  है। इसलिए मैं कार्य संपादन हेतु आगरा बस द्वारा जा पहुँचा।

आगरा में भगवान टाकीज से थोड़ा आगे एक बहुत बड़ा और देश -प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान है; सहित्य भवन।वह उस समय देश के लगभग सभी राज्यों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के अनुसार पुस्तकें प्रकाशित करने औऱ उन्हें वितरित करने का कार्य करते थे;आज भी करते हैं।उस समय उस प्रकाशन संस्थान के स्वामी श्री आर.एस. बंसल जी थे।

सहित्य भवन पहुँचकर मैंने श्री बंसल जी से सम्पर्क किया।उन्होंने उस समय अपना पूरा संस्थान दिखलाया कि कहाँ- कहाँ क्या - क्या कार्य होता है।ऐसा लग रहा था कि पुस्तकों का सागर ही उमड़ रहा हो। जिधर जाएँ वहाँ पुस्तकें ही पुस्तकें।उन्होंने अपना वह कम्प्यूटर कक्ष भी दिखलाया ,जहाँ एक बड़े कक्ष में कई कम्प्यूटर सेट्स  पर कुछ लोग कार्यरत थे।

पुस्तकों के क्रय के सम्बंध में बातचीत करने के बाद जब मैं  घर जाने के लिए बाहर आने लगा तो उन्होंने पूछा कि आप कहाँ रहते हैं। मैंने उन्हें बताया कि यहीं से दस- बारह किलोमीटर की दूरी पर मेरा छोटा- सा गाँव है।आज वहीं रुकूँगा। कल कालेज जाऊँगा।मैंने उन्हें बताया कि किसी बस आदि से जाऊँगा।

इस पर वह बहुत प्रसन्न हुए और बोले:' चलिए मैं आपको घर पहुँचाकर आता हूँ।'और तुरंत उन्होंने न तो किसी चालक को आदेश किया और न किसी और को बुलवाया।स्वयं ही गाड़ी निकाली औऱ बोले :'बैठिए। आपके घर चलते हैं।'उनके इस आकस्मिक सद्व्यवहार से मैं अपने अंतर से अभिभूत हो गया और उनका इतना स्नेह पूर्ण व्यवहार देखकर कुछ भी कहते न बना।उस समय श्री बंसल जी की अवस्था लगभग सत्तर वर्ष रही होगी।

वे ड्राइवर सीट पर आसीन हो गए औऱ अपनी ही बराबर मुझे बैठा लिया।बोले:'आप मुझे रास्ता बताते चलिए ;मैं गाड़ी चलाता हूँ।' बहुत मुश्किल से अभी मात्र बीस -पच्चीस मिनट व्यतीत हुए होंगे कि हम लोग अपने गाँव अपने घर पर पहुँच चुके थे।

उस समय अपने बग़ीचे में पपीते के कुछ पेड़ों पर पीले- पीले पपीते पके हुए थे।उन्हीं को काटकर उनकी आवभगत की गई। उस समय गाँव में अतिथियों को चाय आदि  पिलाने का इतना अधिक प्रचलन भी नहीं था।इसलिए दूध ,गुड़ ,मट्ठा आदि  से ही स्वागत किया जाता था।श्री बंसल जी ने  प्रेम से पपीते  खाए ,जो मेरे पिताजी के द्वारा सेवर्पित किए गए थे।जब वे जाने लगे तो कुछ पके हुए फल उनकी गाड़ी में भी रखवा दिये।श्री बंसल जी का वह स्नेह पूर्ण व्यवहार मुझे कभी भी नहीं भूला।आज भी कभी -कभी उनके इस स्नेह का स्मरण हो आता है। बार- बार यही सोचता हूँ कि संसार में ऐसे भी निरभिमानी और  सादगी पूर्ण व्यवहार के धनी महापुरुष भी होते हैं,जो मेरे जैसे एक अकिंचन के उर- स्थल में सदा- सदा के लिए अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाकर अमर हो जाते हैं।ऐसे महापुरुषों को मैं हृदय से नमन करता हूँ।

🪴 शुभमस्तु !

10.03.2023◆7.30 आ.मा.


बुधवार, 8 मार्च 2023

रंग फाग का छा गया 🎊 [ दोहा ]

 109/2023


[होली, फाग,रंग,अबीर,गुलाल]

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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         🪂 सब में एक  🪂

डफ ढोलक बजने  लगे,संग दे   रही  चंग।

होली खेलें गोपियाँ,  बरसातीं   नव   रंग।।

होली आई   साँवरे,  हुआ  रँगीला     भोर।

होती   वर्षा   रंग   की, गली- गली में  शोर।।


फाग खेलने के लिए, निकले    नंदकिशोर।

संग सुघर ब्रज  गोपियाँ, मचा रही  हैं   रोर।।

फाग बिना होली नहीं,बरसे   रंग   गुलाल।

धू-धू कर होली जले,आ प्रिय आखत डाल।।


कर  में    पिचकारी लिए,बरसातीं   बहु रंग।

खड़ी  छतों  पर  गोपियाँ,गोप बजाते  चंग।।

रंग - बिरंगे   हो  गए, मुखड़े   पीले    लाल।

कपड़े   फाड़े   नाचते, करते गोप  धमाल।।


आपस में मिलते गले,मलते भाल  अबीर।

कोई पीटे ढोल डफ,गाते मधुर    कबीर।।

रंग लगाया   प्रेम   से ,  गाया फ़ाग   कबीर।

ले दल बल टोली चली, उड़ती धूल अबीर।।


गोरी   तेरे   गाल  हैं,  खिलते लाल गुलाल।

लाल  रंग खिलता  नहीं,चंदन जैसा  भाल।।

एड़ी लाल गुलाल- सी,पाटल दल-से गाल।

नाचे  गोरी  रंग  ले, करती  खूब  धमाल।।

 

        🪂  एक में सब 🪂

रंग फाग का छा गया, बरसे विरल अबीर।

होली सजी गुलाल से,गाते  गोप  कबीर।।


🪴 शुभमस्तु !


08.03.2023◆6.15आ.मा.


मंगलवार, 7 मार्च 2023

गोरी के गुलाल गाल 🎊 [मनहरण घनाक्षरी ]

 108/2023

     

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ .भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

लाल-लाल,लाल-लाल,गोरी के गुलाल गाल,

श्याम रंग  बाल  लाल,  होली मनभाई   है।

अधरों की ओप लाल,आँख बंद नाक लाल,

पीत भए   हाथ  लाल,  देह  पै लुनाई    है।।

खोई-खोई रही  सोच, बंद  भई चारु  चोंच,

छीनि  लई देह  लोच,  रंग  की  पुताई   है।

खेलि गयौ रंग कौन, छीनि लियौ गात लौंन,

कैसे  करि  जाऊं  भौन,सोचि कें  डराई  है।।

  

                        -2-

गालनु  पै  हाथ  धरे ,   हाथनु गुलाल   भरे,

नैन  बंद  ध्यान  करे,    गोरी हुरिहाई    है।

अंग-अंग लाल पीत,छोड़ि कें अनीत -नीत,

रंग  खेलती अभीत, ब्रज  की लुगाई    है।।

रंग  की  तरंग  नई, खेलि  रही     मोदमई,

छोड़ि  गाम  धाम गई ,पिया से  सवाई    है।

मन में उमंग एक, खेलिबे  की लगी   टेक,

हाथ  मुद्रिका  अनेक,  मार की  मलाई   है।।


                        -3-

कोरी है कमोरी एक, ब्रज की तू गोरी नेक,

रंग   में    समोई    टेक,   भई  मतवारी  है।

लाल औऱ पीत रंग,थोड़ी-थोड़ी  पिए   भंग,

मन में जागी   उमंग, काम की   सवारी है।।

बिखरे हैं मत्त बाल ,लाल  पीत   वर्ण गाल,

बिंदिया   सजाए   भाल, नारि हुरिहारी   है। 

रूप की तू धूप - छाँव,डोलि रही गाँव- ठाँव,

लाल  देह  हाथ  पाँव, काम  ने निखारी  है।। 


                        -4-

साँवरे कौ   ध्यान  करि,  देह में  तरंग   धरि,

मन  में    उमंग  भरि,   रंगनु निखारी     है।

ब्रज की  तू मत्त गोरी,रंग की सुरंग    बोरी,

चली  आई  चोरी - चोरी, कामदेव ढारी है।।

रंग कौ धमाल लाल, खेलिबे की ठोंकि ताल,

रँगे भए  गाल  भाल,  साँचे  में  उतारी   है।

तानि लियौ काम बान,नाहिं रह्यौ देह भान,

होठ लाल बिना पान, भाव की  अनारी  है।।


🪴शुभमस्तु !


07.03.2023◆9.15

आरोहणम् मार्तण्डस्य।


सोमवार, 6 मार्च 2023

रंग-बिरंगी होली🎊 [ चौपाई ]

 107/2023

  

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रंग -बिरंगी   आई   होली।

धूम मचाती ब्रज में टोली।।

लठामार  कोई   रँग खेले।

लाठी वार देह   पर झेले।।


लाल     रंग   में   टेसू   फूले।

भौंरे पुष्प -शाख   पर  झूले।।

रंग श्याम  में   कोयल   राती।

कुहू -कुहू सुमधुर स्वर गाती।।


गेंदा   पाटल    रंग    सुहाया।

नर- नारी के  मन को भाया।।

चंग ढोल   करताल    बजाते।

मस्त रंग  में  जन    मदमाते।।


काला काजल भाभी लाती।

देवर जी के नयन सजाती।।

पाँव  महावर क्यों वह भूले?

भावज पाँव विनत हो छूले।।


रंग भरा गुझिया   में  उसने।

थू- थू करता खाया जिसने।।

लाल हरी  पीली   पनिहारी।

नाच रहीं आँगन  में   नारी।।


एक   हुरंगा  घर  में   आया।

कपड़े फाड़ रंग    बरसाया।।

छिपी घरों में भाभी  साली।

बहीं रंग भर -भर कर नाली।।


'शुभम्' रंग का पर्व निराला।

 भेद मिटाता   गोरा काला।।

आओ गले मिलें   सब भाई।

अमर सुदामा-कृष्ण मिताई।।


🪴शुभमस्तु !


06.03.2023◆3.00प.मा.

मर्म पाहन के बने हैं!🌾 [मुक्तक ]

 106/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कर्तव्य -  पथ  चलना न जाने,

जो   करे   वह   सत्य    माने,

धर्म -अधर्म की    वीथियों  में,

हेकड़ी  के      तीर    ताने।1।


अधिकार  की लड़ता  लड़ाई,

कर्तव्य  से   हिंसक    कसाई,

धर्म -अधर्म चिंतन वृथा फिर,

नाप निज ऊँचाई -निचाई।2। 


मर्म    पाहन    के    बने    हैं,

गर्व   में      ऊँचे     तने     हैं, 

धर्म -अधर्म -  व्याख्या बताते,

अघ-ओघ में लिथड़े सने हैं।3।


गेरुआ    तन    पर    फहरता,

देह पर ध्वज -   सा   लहरता,

पेट      भरता    भाषणों    से,

धर्म-अधर्म क्या औऱ करता?4।


जानते  सब    धर्म    क्या  है?

मानते     दुष्कर्म    क्या    है?

धर्म -अधर्म का    जाल भारी,

जानता  सत्कर्म  क्या   है?5।


🪴शुभमस्तु !


06.03.2023◆11.45 आ.मा.

दिवस-निशा में हार- जीत क्या!🪷 [ गीतिका ]

 105/2023

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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प्रभु की   ऐसी अद्भुत माया।

हार -जीत  का खेल रचाया।।


कोई    हँसता    रोता   कोई,

कहीं धूप   तरुवर की छाया।


करता   अहंकार नर  जग में,

नहीं  जानता    नश्वर  काया।


बिगड़े शगुन  देख कर काना,

माँ को सुत का  रूप सुहाया।


हार  -  जीत में जीवन  जीता,

पता न उसको कल क्या खाया?


नारी में  माँ  भगिनि  न  माने,

देख   सुंदरी -  रूप   लुभाया।


अपनी  जीत  सदा  ही   चाहे,

कर अनीति निज भ्रात हराया।


साधु  - संत   अपने  से  हारा,

माया -ठगिनी में    मन लाया।


दिवस-निशा में हार -जीत क्या,

दोनों ने  शुभ   कर्म   कराया।


रवि -शशि ने अपनी बारी पर,

दिवस-निशा का रूप सजाया।


हार -  जीत  का खेल नहीं है,

'शुभम्' गीतिका का रँग लाया।


🪴 शुभमस्तु !


06.03.2023◆11.00 आ.मा.


धूम मची होली की 🌻 [ गीतिका ]

 104/2023



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✍️शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कुंज - गली में  आ जा आली।

बाट   देखते    हैं   वनमाली।।


करते फूलों  पर  अलि  गुंजन,

झूम  उठी  है    डाली -डाली।


धूम   मची  होली  की   कैसी,

मधुर लगे  भाभी   की गाली।


डफ, ढोलक, मंजीर  बज रहे,

कोई   पीट रहा   कर   ताली।


सभी   चाहते    रंग    लगाएँ,

नखरे दिखा  रही  जो साली।


नाच रही  हैं झूम -  झूम कर,

नारि गंदुमी ,गोरी,     काली।


इधर  रंग की   पिचकारी   है,

उधर  गुलाल  भरी  है थाली।


बने  विदूषक   नाच    रहे वे,

लहँगा चुनरी ओढ़   निराली।


अनुनय की आ हम तुम नाचें,

 भाभी  ने  भी बात न टाली।


'शुभम्'विदा अब पंक गली से,

होली में  सब   खाली नाली।


🪴शुभमस्तु !


05.03.2023◆10.15 प.मा.

कुंज गली में आ जा 💞 [ सजल ]

 103/2023


 

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● समांत :आली ।

●पदांत :अपदांत ।

●मात्राभार : 16.

●मात्रा पतन :शून्य।

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✍️शब्दकार ©

💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कुंज - गली में  आ जा आली।

बाट   देखते    हैं   वनमाली।।


करते फूलों  पर  अलि  गुंजन,

झूम  उठी  है    डाली -डाली।


धूम   मची  होली  की   कैसी,

मधुर लगे  भाभी   की गाली।


डफ, ढोलक, मंजीर  बज रहे,

कोई   पीट रहा   कर   ताली।


सभी   चाहते    रंग    लगाएँ,

नखरे दिखा  रही  जो साली।


नाच रही  हैं झूम -  झूम कर,

नारि गंदुमी ,गोरी,     काली।


इधर  रंग की   पिचकारी   है,

उधर  गुलाल  भरी  है थाली।


बने  विदूषक   नाच    रहे वे,

लहँगा चुनरी ओढ़   निराली।


अनुनय की आ हम तुम नाचें,

 भाभी  ने  भी बात न टाली।


'शुभम्'विदा अब पंक गली से,

होली में  सब   खाली नाली।


🪴शुभमस्तु !


05.03.2023◆10.15 प.मा.

भारत की सिरमौर प्रभा 🇮🇳 [ मत्तगयंद सवैया ]

 102/2023

 

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छंद विधान:

1. यह 23  वर्णों का वर्णिक छंद है।

2.इसमें सात  भगण (211) +2 गुरु. होते हैं।

3.यह छंद  अपने चार  चरणों पर मतवाले (मत्त) हाथी (गयन्द) की  चाल से अग्रगामी होता है।

4.इसके चारों पद समतुकांत होते हैं।

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                        -1-

भारत की सिरमौर प्रभा नित,

                     देश विदेशनु में शुभ छाई।

काँपि रहे   अँगरेज अमेरिकि,

                      चीन मलेछउ काँपत भाई।।

नारि न छोड़ि चलें  मरजादहु,

                  पौरुष को  नहिं देउ मिटाई।।

मेष बने मति कूप गिरौ जन,

                   तौ तुम विश्व करौ प्रभुताई।।


                        -2-

भारत में रँग   खेलि रहे जन,

                  स्याम सखा ब्रज के नर-नारी।

रंग लपेटि रहौ  मुख  पै  इत,

                  कोउ चलाइ रहौ   पिचकारी।।

कीचड़   धूरि   लगाय रहे नर,

                 लाल गुलाल उड़ावत भारी।

घूँघट में ब्रज-नारि  नचें सिग,

                    काजर नैन लगावति सारी।।


                        -3-

भारत के रसिया अब जानहु,

                    छैल बड़े रँग रास रचाते।

ढोल बजाइ सजाइ लुगाइनु,

                आँगन बीच धमाल मचाते।।

रंग तरंगनु में   गिरि  जावहिं,

                   पीवत वारुनि नारि  रिझाते।

आजु  चलौ ब्रज कुंज गली तुम,

                    पीठि लठा परते न अघाते।।

               

                         -4-

भारत की नदियाँ करि सिंचन,

                 जीव लता तरु प्यास बुझातीं।

धीर धरे गिरि मौन खड़े नित,

                      धार धड़ाधड़ गंग सजातीं।।

सागर रत्न  अपार   भरे बहु,

                   जीभर स्याम घटा बरसातीं।

मेदिनि अन्न भरें भुव जीवन,

                 कोकिल गावति गीत सुनातीं।।


                        -5-

भारत की वसुधा बड़भागिनि,

                 धान्य अनेक सु -शाक उगातीं।

संत बड़े बहु ज्ञानिनु सों नित,

                    विज्ञ मनिषनु दिव्य सजातीं।।

रामहु स्यामहु जानकि माँ मम,

                         वीर बली हनुमंतहु पातीं।

बुद्ध प्रबुद्ध कबीर महाकवि,

               एक शुभं कवि- काव्य सुहातीं।।


🪴 शुभमस्तु  !

०५.०३.२०२३◆०३.०० पतनम् मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...