शनिवार, 27 जुलाई 2024

झूला झूल रही बाला [ गीत ]

 319/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अमराई में

आम्र - शाख  पर

झूला  झूल रही बाला।


सावन आया

रिमझिम बरसीं

अंबर से सर - सर बूँदें।

है आनंद लीन

 रज्जू गह 

अपने युगल नयन मूँदें।।


हरी-भरी

धरती सरसाई

अंबर  में  घन का ताला।


इधर हवा

बहती पुरवाई

उधर पके टपका टपके।

बालक और

किशोर सभी मिल

आम उठाने को लपके।।


भूल गई

घर की सुधि सारी

पिए प्रेम की वह हाला।


झूला खींच 

दे रहीं सखियाँ 

बार - बार  लंबे झोटे।

बैठ नहीं

पातीं झूले पर

जिनके  देह-अंग मोटे।।


'शुभम्' उन्हें

डर लगता भारी

झूला लगे नहीं आला।


शुभमस्तु !


23.07.2024●4.15आ०मा०

                  ●●●

आदमी और कूड़ा [ व्यंग्य ]

 323/2024

                  

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

आदमी का कूड़े के साथ चोली- दामन का संबंध है।यह तो हो ही नहीं सकता कि जहाँ आदमी पाया जाए और कूड़ा न पाया जाए! कूड़ा तो आदमी के आगे-पीछे,ऊपर-नीचे , अगल-बगल ;यहाँ तक कि उसके अंदर - बाहर भी कूड़ा भरा हुआ है। जब कूड़े से आदमी का इतना आत्मीय और निकट का संबंध है,तो  उसका कूड़ा-प्रेम स्वाभाविक ही है। उसे मिटाया नहीं जा सकता। यद्यपि वह जीवन भर कूड़ा पैदा करता है,उसे नष्ट भी करता है ;किन्तु कभी भी जीवन भर कूड़ा- मुक्त  नहीं हो पाता। यहाँ तक कि एक दिन ऐसा भी आता है कि वह अपने परिजनों के लिए स्वयं कूड़ा बन जाता है।और उस कूड़ा बने हुए आदमी को हटाने में कोई विलम्ब भी नहीं किया जाता।आदमी की देह के कूड़ा -निस्तारण को अंतिम संस्कार की संज्ञा दी जाती है।

प्रत्येक आदमी के कूड़ा-उत्पादन के अलग-अलग रूप ,प्रकार और श्रेणियाँ हो सकती हैं।जब आदमी इस धरा धाम पर आया है,तो साथ में कुछ न कुछ कूड़ा लेकर भी आया है।अत्याधुनिक आदमी कूड़े से ऊर्जा का उत्पादन भी कर रहा है।लेकिन अधिकांश लोग तो ऐसा कर नहीं सकते। अन्यथा यह कूड़ा ही उनके जीने की समस्या पैदा कर सकता है।इसलिए उसका निस्तारण भी अनिवार्य हो गया है।हमारे यहॉं कुछ ऐसे लोग भी उत्पन्न हो गए हैं ,जो भले ही देश और समाज के लिए स्वयं कूड़ा हैं,किन्तु अपना कूड़ा दूसरे के दरवाजे पर फेंक आने में कुशल हैं।इस कार्य को सुगम करने के लिए वे रात के अँधेरे और एकांत आदि का सहारा लेते हैं।बस उन्हें अवसर की तलाश है कि कब किसी की आँख से बचे कि उन्होंने अपना कूड़ा किसी पड़ौसी के  दरवाजे पर फेंका! फिर क्या है ,जब फेंकना था तो फेंक ही दिया ।अब बाद में जो भी महाभारत होना हो तो हो।जब हल्ला मचेगा ,तो वे चुप्पी साधे अपने घर के बिल में घुस जाएँगे और चुपचाप घर के कोने या किवाड़ों के पीछे खड़े होकर सुनेंगे कि कौन क्या कह रहा है। कहीं कोई उनका नाम तो नहीं ले रहा!अब यदि कोई नाम लगा भी रहा हो तो अब तो अपनी सहन शक्ति का परिचय देना उनकी मजबूरी और मजबूती हो जाती है।इससे उनकी सहन शक्ति परीक्षा भी हो लेती है और यदि सहन नहीं कर पाए तो कुंडी खोलो और निकल पड़ो जंग के मैदान में कि कूड़ा हमने नहीं फेंका। देखो इस कूड़े में भिंडी के डंठल पड़े हैं और हमारे यहाँ आज उर्द की दाल बनी है। भला यह कूड़ा हमारा कैसे हो सकता है ? जिसके घर में भिंडी बनी हो ,उसके घर की तलाशी ली जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। अंदर से चोरी  और बाहर से सीनाजोरी! इसी को कहते हैं।

मैं यह बात पहले भी कह चुका हूँ कि यह आदमी रूपी जंतु जहाँ भी गया,कूड़ा ही  उत्पादित  करता  और फैलाता गया।जो जितना अधिक कूड़ा -उत्पादन करे,वह उतना ही सभ्य ,सुसंस्कृत,धनाढ्य और आधुनिक कहलाता है। पहाड़ों पर गया तो वहाँ प्लास्टिक की बोतलें, रेडीमेड फ़ूड के रैपर,मल मूत्र फैला कर आ गया।पिकनिक मनाने गया तो वहाँ भी वही हाल।यहाँ तक कि इस आदमी ने चाँद को भी कूड़े से वंचित नहीं छोड़ा।यदि वहाँ उसने कुछ छोड़ा तो बस कूड़ा ही छोड़ा।अभी मुझे चाँद पर जाने का अवसर नहीं मिला ,इसलिए अभी यह नहीं बतला सकता कि चाँद के चंद यात्रियों ने क्या- क्या कूड़ा छोड़ा?

आदमी का शरीर ही कूड़ा उत्पादन की एक अच्छी खासी फैक्टरी है।जिससे वह हर पल हर दिन रात ,बारहों मास कूड़ा बनाता और निष्कासित करता रहता है।इसके लिए उसने हर घर में बाकायदे स्नान घर, शौचालय,मूत्रालय, कूड़ेदान आदि साधन बना रखे हैं।कोई -कोई तो इन कार्यों के लिए खेतों का सहारा लेते हैं। वैसे तो इस देश में प्रत्येक स्थान लघुशंका निवारण स्थान है ही।जहाँ  दीवार पर लिखा हो : 'गधे के पूत ,यहाँ मत मूत।' तो उस स्थान पर अनिवार्यता हो जाती है, क्योंकि  इस देश के आम आदमी  का  आम चरित्र  भी यही है कि जिस काम को करने के लिए प्रतिबंध लगाया जाए, उसे जरूर करो।  बस वह इसी सिद्धांत को गाँठ में  बाँधे हुए चल पड़ा है।

कुछ लोगों का जन्म ही कूड़ा फैलाने के लिए हुआ है।नेता अपने भाषणों, आश्वासनों,वादाख़िलाफियों ,झूठों, अत्याचारों और शोषणों का कूड़ा देश भर में फैला रहे हैं,यह किसी से छिपा हुआ नही है। व्यभिचारी व्यभिचार का कूड़ा और स्वेच्छाचारी स्वेच्छाचार का कूड़ा फैलाकर देश और समाज को दूषित कर रहे हैं। भौतिक कूड़े का निस्तारण सम्भव है,किन्तु मानसिक और क्रियात्मक कूड़े का निस्तारण कैसे हो ? यह एक चिंतनीय विषय है।बेईमानी का कूड़ा उत्पादित और फैलाने वालों का प्रतिशत इतना अधिक है कि लगता है ये आदमी और देश की ईंट ईंट में बेईमानी भरी हुई है।समाज मे हो रहे झगड़े -फसाद, कचहरियों के मुकदमे इतने अधिक कि न्यायाधीशों को कूड़ा निस्तारण में  युग बीत जाएँगे,किन्तु आदमी का यह कूड़ा कभी समाप्त नहीं हो सकेगा।आदमी में बेईमानी की  एक ऐसी अटूट शृंखला है कि वह अमरौती खाकर आई लगती है।झूठ है तभी तो सत्य जिंदा है ,वरना सत्य को कौन पूछता है? बेईमानी के कूड़े से  ही ईमान जिंदा है। 

शुभमस्तु !

27.07.2024●9.30 आ०मा०


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कचरे में रोटी [नवगीत ]

 322/2024

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ढूँढ़ रहा

कचरे में रोटी

बचपन ये नौ-दस साल ।


दाँत दूध के 

अभी  न टूटे

बे-घरबार न  अपना नीड़।

कब वसंत

आया कब निकला

उसे निरर्थक जन की भीड़।।


संवेदना

 मर चुकी जन की

सिकुड़ गई बचपन की खाल।


धन्ना सेठ

दया के सागर

खिंचवाते फोटो दो चार।

नहीं पेट में 

जाती रोटी

जननी जनक पड़े बीमार।।


अखबारों में

खबर छपाते

ऐसे हैं भारत के लाल।


तन पर लदे

चीथड़े मैले

हर दर पर मिलती दुतकार।

बदतर है हालत

ढोरों से

बचपन गया अभी से हार।।


'शुभम्' योनि

मानव की ऐसी

मिले न सूखी रोटी -दाल।


शुभमस्तु !


26.07.2024●9.30आ०मा०

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बेच रहा सच तेल [अतुकांतिका]

 321/2024

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुविधाभोगी 

जनगण सारा 

सुविधाभोगी शब्द हो गए,

व्याकरण निःशब्द  

करे क्या !


राजमार्ग तज

पगडंडी पर

चलते जाते लोग,

कोई रोके - टोके किंचित

आँख तरेरें  खूब।


शुद्ध शुद्धि को

क्यों अपनाना

मनमानी अभिचार,

करना नहीं विचार,

कविता है लाचार।


बात करो मत

संविधान की

बदल गई हर चाल,

चाल-चलन की

कुछ मत पूछो

है साहित्य निढाल,

फैला मछली- जाल।


सत्य मतों पर

आधारित अब

झूठों का ही रंग,

युग बदला

साहित्य बदलता

कोरी दंगमदंग।


'शुभम्' सत्य 

खूँटी पर लटका

बहुमत का ही खेल,

हाँ में हाँ भरना

मजबूरी

झेल सको तो झेल,

बेच रहा सच तेल।


शुभमस्तु !


26.07.2024● 1.00आ०मा०

नहा नदी में नेह की [दोहा ]

 320/2024

      

[ नदी, नीर, ताल, पोखर,माटी]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक


नहा नदी में  नेह की, नर - नारी अभिषेक।

नित्य करें रचना नई, साधक सरस विवेक।।

नीर   बरसता  मेघ से , पावस  बना कृपाल।

धन्य - धन्य जन जीव हैं,भरे  नदी नद  ताल।।


प्राणों  का  आधार  है,   निर्मल सरिता    नीर।

जीव  जंतु  तरु  बाग  वन,पियें धरे उर   धीर।।

सिंचन से शुभ  नीर से,तृषा तृप्त कर  आज।

सावन आया झूमकर, सजा धरणि नव  साज।।


सावन  में  नद ताल सरि  ,देते  हैं नव  ताल।

सूखे   जेठ  अषाढ़ में,बदल गया अब  हाल।।

ताल  नदी मिल  कर रहे,आपस में  संवाद।

तू  भी  मेरे  साथ में, चल- चल  रहे न  गाद।।


पोखर ताल तड़ाग सरि,सजल मेह की धार।

सावन  भादों   झूमते, कभी  न  मानें हार।।

पोखर ताल तड़ाग  में,खिलते कमल सुभोर।

अमराई   में   नाचते ,   रिझा   मोरनी   मोर।।


माटी   का  चंदन   लगा,  चले वीर  रणधीर।

रक्षा   करने  देश   की,सुरसरि का पी  नीर।।

माटी  का   निर्माण है, मानव की यह   देह।

समझ नहीं  लेना इसे,अपना अविचल   गेह।।


                  एक में सब

नदी ताल पोखर सभी,भरे हुए शुभ  नीर।

माटी का आधार है,  महके   सुघर  उशीर।।


शुभमस्तु !


24.07.2024●3.15प०मा०

पहली गुरु जननी सदा [ दोहा गीतिका ]

 318/2024

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मात-पिता का मान रख,रहती नित अनुकूल।

संतति  वही  महान है,  उन्हें   न जाए  भूल ।।


पहली  गुरु  जननी सदा,गुरुवर जनक द्वितीय,

सिखलाया  कंधे  चढ़ा,वह  पाटल का   फूल।


अगर   कहीं  भगवान  हैं, मात -पिता साकार,

आजीवन   लेता   रहे,  जननी   पितु पद धूल।


रखे   कोख    में  मास  नौ, सोती गीली   सेज,

देवी जननी   पूज्य  नित, करे  न मूल्य   वसूल।


अँगुली   थामे   हाथ  में, सिखा रहा पद - चाल,

जन्म - जन्म   पितु  धन्य   हैं,अर्पित हुए  समूल।


आजीवन  ऋण  भार  से, मुक्त  न हो   संतान,

सुरसरि  के  वे  घाट  दो,शांत सुखद दो   कूल।


'शुभम्'  धरा  ही  स्वर्ग  है,मात-पिता के  रूप,

शब्द  न    उनसे   बोलना,  उलटे ऊलजलूल।


शुभमस्तु !

21.07.2024●11.00प०मा०

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मात -पिता का मान [सजल ]

 317/2024  

समांत       : ऊल

पदांत        :अपदांत

मात्राभार    : 24.

मात्रा पतन :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मात-पिता का मान रख,रहती नित अनुकूल।

संतति  वही  महान है,  उन्हें   न जाए  भूल ।।


पहली  गुरु  जननी सदा,गुरुवर जनक द्वितीय।

सिखलाया  कंधे  चढ़ा,वह  पाटल का   फूल।।


अगर   कहीं  भगवान  हैं, मात -पिता साकार।

आजीवन   लेता   रहे,  जननी   पितु पद धूल।।


रखे   कोख    में  मास  नौ, सोती गीली   सेज।

देवी जननी   पूज्य  नित, करे  न मूल्य   वसूल।।


अँगुली   थामे   हाथ  में, सिखा रहा पद - चाल।

जन्म - जन्म   पितु  धन्य   हैं,अर्पित हुए  समूल।।


आजीवन  ऋण  भार  से, मुक्त  न हो   संतान।

सुरसरि  के  वे  घाट  दो,शांत सुखद दो   कूल।।


'शुभम्'  धरा  ही  स्वर्ग  है,मात-पिता के  रूप।

शब्द  न    उनसे   बोलना,  उलटे ऊलजलूल।।


शुभमस्तु !

21.07.2024●11.00प०मा०

                     ●●●

एक अनौखा खेल [गीतिका ]

 316/2024

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पानी   से    शुभ   मेल   किया।

एक   अनौखा   खेल    किया।।


फिर   भी    कहते    दूध    मुझे,

नित   मिश्रण  की जेल    जिया।


नर -   नारी  तक   शुद्ध    नहीं,

इसीलिए   तो    फेल     किया।


अन्न    दाल   फल   सब्जी   ने,

पाप  मनुज  का   झेल   लिया।


संस्कार         संकरता      का,

घी   में    चर्बी     तेल     दिया।


अश्व -  लीद    है    धनिये    में,

सब कुछ जन ने   झेल  लिया।


'शुभम'  कहाँ  तक करें  बयान,

पानी    भरा     उँड़ेल     दिया।


शुभमस्तु !


21.07.2024●10.00आ०मा०

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गुरुवार, 18 जुलाई 2024

सावन के अंधे [अतुकांतिका]

 315/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सड़क पर चलते,

या बाजार में मिलते,

सामान्य से नर - नारी

इन्हें एकदम नहीं भाते,

समाज कहाँ जा रहा है?


पति तक तो ठीक है

वह पालक है इनका,

पर किसी अन्य से घृणा

कोई उचित तो नहीं,

इनका अहंकार इठला रहा है।


चकाचौंध धन की

इनकी आँखें चुँधियाती है,

इन्हें कोई गरीब नहीं दिखता

सावन के अंधे को

हरा ही हरा 

नज़र आता है,

समाज नाश की नदी में

समा रहा है।


क्या हो गया

अमीर औलादों को,

खासकर बालाओं को

गरीब से ,गरीबी से

इतनी घृणा क्यों?

विष वमन बहका रहा है।


अपनी इच्छा से

कोई गरीब नहीं होता,

क्या कोई चाहता है ऐसा?

किन्तु प्रारब्ध का सब खेल,

मनुष्य हो 

मनुष्य की तरह रहो,

आदमी की आदमी से

कोई घृणा बिलकुल न हो।


यथासंभव 'शुभम्'

सबके सहायक बनो,

हाड़ माँस के बिजूके

इतने भी न तनो!

जो पाप की गठरी तले

मत लादो मिट्टी यों मनों,

सब कुछ माटी है

माटी में ही मिल जाना है।


शुभमस्तु !


18.07.2024● 3.00प०मा०

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बुधवार, 17 जुलाई 2024

जलदाता ही जलद है! [ दोहा ]

 314/2024

         

[जलद,बादल,जलधर,पयोधर,वारिधर]

 

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


               सब में एक

जलदाता ही जलद है,जल जगती का प्राण।

सौ  में  सत्तर  भाग  है, करे जगत का   त्राण।।

जल भरने  सागर  गया,जलद बड़ा  ही  धीर।

बरसा  सर   संसार  में,  सरिता पोखर   तीर।।


दल बल  अपने  साथ  ले,आए बादल श्याम।

कृषक  गगन  में  ताकता, बरसो  मेरे   राम।।

बादल गर्जन   कर   रहे, बोल  रहे   हैं   मोर।

सर-सर-सर   बूँदें   झरें, उधर  साँवला  भोर।।


जलधर जल   धारण  करे,ढूँढ़े शुभ  औचित्य।

मानसून  बन  शून्य में, भ्रमण  करे वह   नित्य।।

सब जलधर को  चाहते,खग तरु ढोर किसान।

हरी  पहनती   शाटिका, मेदिनि मातु   महान।।


पिया पयोधर  प्यार  से,जननी का  ऋणभार।

आजीवन  उतरे    नहीं,   जीवन  का उपहार।।

प्रियल   पयोधर शून्य में,चले बिना   ही  यान।

लगा   कैमरा    देखते,  किसे   कराएँ   पान।।


नित्य  वारि  धारण  करें,सघन वारिधर  सेत।

गलबाँहीं   दे    झूमते,  अंबर     में समवेत।।

विरल वारिधर मौन हो,अस्ताचल    के पास।

इंद्रधनुष    ले   नाचते,  रक्त पीत रँग घास।।

                 एक में सब

मेघ जलद बादल सभी,जलधर के शुभ नाम।

कहें  'शुभम्' अब वारिधर,करें पयोधर  प्राम।।


*प्राम =सामूहिक नृत्य।


शुभमस्तु !


16.07.2024●11.00प०मा०

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लालटेन ले जुगनू आए [ बालगीत ]

 313/2024

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लालटेन        ले       जुगनू    आए।

अम्बर   में    जब     बादल   छाए।।


रातों     में        उजियारा     लाएँ।

भूलों   को    हम     राह   दिखाएँ।।

हमें      देख      दीपक   शरमाए।

लालटेन      ले      जुगनू    आए।।


देखो  गरज     रहे      हैं     बादल।

सघन   अँधेरा   बरगद   के   तल।।

झींगुर     दल    ने      गाने    गाए।

लालटेन       ले      जुगनू    आए।।


जब तक   निकलें   सूरज   दादा।

मिटे    अँधेरा      अपना    वादा।।

सब मिल जुगनू    शीघ्र  सिधाए।

लालटेन   ले      जुगनू     आए।।


आज  न    आए     चंदा    मामा।

पहन  ओढ़   कर  पीला  जामा।।

भुटिया   के   दानों    पर     छाए।

लालटेन     ले     जुगनू     आए।।


'शुभम्'  धरा   के   हम   हैं   तारे।

मिटा  रहे   हम   सब   अँधियारे।।

पावस      में      नाचे     हरषाए।

लालटेन    ले     जुगनू      आए।।


शुभमस्तु !


16.07.2024●12.30प०मा०

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टर्र -टर्र टर मेढक बोला [बालगीत]

 312/2024312/2024

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्व'


टर्र  -  टर्र      टर     मेढक     बोला।

 अँधियारे     का      जागा    टोला।।


मेरे        बंधु      मेढको      आओ।

पोखर  में       डूबो       उतराओ।।

मीठा -  मीठा   मधु    रस    घोला।

टर्र -   टर्र    टर      मेढक   बोला।।


मेढकियों     को    बुला     रिझाएँ।

टर्र -   टर्र      का      गाना    गाएँ।।

उछला   मेढक     गोल  -   मटोला।

टर्र -  टर्र     टर      मेढक    बोला।।


देखो   रे      वर्षा    ऋतु      आई।

पछुआ   चले       कभी      पुरवाई।।

लहक       रहा  है     मेरा    चोला।

टर्र   -  टर्र    टर    मेढक    बोला।।


ताल   -   तलैया      भरते     सारे।

अब   तक    थे   गरमी   के  मारे।।

भोला  - भाला      दादुर      गोला।

टर्र - टर्र    टर     मेढक      बोला।।


'शुभम्'   शुभद   सावन   सरसाया।

काला    बादल    जल   भर लाया।।

खुशियों  से  अब   भर   लें  झोला।

टर्र  - टर्र     टर     मेढक    बोला।।


शुभमस्तु !


16.07.2024●11.45 आ०मा०

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        टर्र -टर्र टर मेढक बोला

                    [बालगीत]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्व'


टर्र  -  टर्र      टर     मेढक     बोला।

 अँधियारे     का      जागा    टोला।।


मेरे        बंधु      मेढको      आओ।

पोखर  में       डूबो       उतराओ।।

मीठा -  मीठा   मधु    रस    घोला।

टर्र -   टर्र    टर      मेढक   बोला।।


मेढकियों     को    बुला     रिझाएँ।

टर्र -   टर्र      का      गाना    गाएँ।।

उछला   मेढक     गोल  -   मटोला।

टर्र -  टर्र     टर      मेढक    बोला।।


देखो   रे      वर्षा    ऋतु      आई।

पछुआ   चले       कभी      पुरवाई।।

लहक       रहा  है     मेरा    चोला।

टर्र   -  टर्र    टर    मेढक    बोला।।


ताल   -   तलैया      भरते     सारे।

अब   तक    थे   गरमी   के  मारे।।

भोला  - भाला      दादुर      गोला।

टर्र - टर्र    टर     मेढक      बोला।।


'शुभम्'   शुभद   सावन   सरसाया।

काला    बादल    जल   भर लाया।।

खुशियों  से  अब   भर   लें  झोला।

टर्र  - टर्र     टर     मेढक    बोला।।


शुभमस्तु !


16.07.2024●11.45 आ०मा०

                      ●●●

बारिश [ कुंडलिया ]

 311/2024

                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

आया     है  आषाढ़  का, भीगा  पावस   मास।

बारिश की होने लगी,जन -जन को अब आस।।

जन - जन को अब आस,कृषक सारे नर - नारी।

ताकें    नीलाकाश,   सघन   हो  बारिश  भारी।।

'शुभम्'  देख तो मीत,श्याम घन जल भर लाया।

हर्षित    तरु, जन,ढोर,  खगों में मोदन   आया।।


                         -2-

छाए    घन  आकाश  में, बारिश  की है   आस।

ऋतुओं की  रानी  चली,भरती अवनि  सुवास।।

भरती    अवनि   सुवास,  हवा बहती   पुरवाई।

गातीं   भगिनि   मल्हार,  याद   घेवर की  आई।।

'शुभम्'   भेक   की   टर्र,  निशा में जुगनू  आए।

चमके   चपला   चौंक, घने  बादल नभ   छाए।।


                          -3-

भाता   है  किसको  नहीं,बारिश  नीर   -  नहान।

बालक नंग - धड़ंग   हो, दिखलाते निज   शान।।

दिखलाते  निज  शान,  गली छत पर  जा  कूदें।

झरें     मेघ  से   बूँद,  आँख  अपनी झट     मूँदें।।

'शुभम्'  मास आषाढ़, साल में फिर कब  आता! 

दे     आनंद     प्रगाढ़,जीव जन तरु को   भाता।।


                         -4-

बहते    नाले    नालियाँ,  सरिता पोखर   ताल।

बारिश होती झूमकर, पावस  का शुभ    काल।।

पावस का  शुभ  काल, केंचुआ  नहीं  गिजाई।

वीरबहूटी     एक,    न    देती    कहीं  दिखाई।।

'शुभम्' सत्य   यह   बात, आपसे कड़वी कहते।

मानवकृत    यह   घात,  पनारे रो  - रो   बहते।।


                          -5-

झूले    अब  पड़ते   नहीं, अमराई  की     छाँव।

नगरों   में   मज़दूरियाँ,  करते   हैं अब    गाँव।।

करते   हैं   अब  गाँव,   बाग  की  हुई  कटाई।

मनुज    खेलते   दाँव, न कोई भगिनी    भाई।।

'शुभम्'  समय  की चाल,मेघ बारिश को  भूले।

कंकरीट  के   रोड,    मृतक  सावन के    झूले।।


शुभमस्तु !


16.07.2024●9.30आ०मा०

                   ●●●

तरुवर - सेवा धर्म हमारा [ गीत ]

 310/2024

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपनी संतति 

के समान ही

तरुवर - सेवा धर्म हमारा।


धरती माँ के

अगम गर्भ से

हुआ  अंकुरित पौधा छोटा।

बूँद -बूँद 

जल की आशा में

पी जाता जी भर कर लोटा।।


मुरझाए पल्लव

करते हैं

जल याचन का एक इशारा।


होकर बड़ा

छाँव वह देगा

फूल - फलों से भरा खजाना।

सेवा अगर

नहीं की तरु की

तुम्हें   धरा  में  पड़े  समाना।।


तृप्त करे

नयनों को तरु की

हरियाली का सघन सहारा।


आओ 'शुभम्'

लगाएँ पौधे

ये  उज्ज्वल भविष्य हैं तेरा।

पाँच रूप में

सेवा करता 

कभी न करता तेरा - मेरा।।


वर्षा का कारण

हर पौधा

निर्भर मानव जीवन सारा।


शुभमस्तु !


16.07.2024●6.30 आ०मा०

ग़ज़ल

 309/2024

                   


     ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी   मैं  स्वर्ग में  होता  कभी मैं नर्क   ढोता  हूँ।

जहाँ की इस जमीं पर ही हुआ  मैं  गर्क खोता हूँ।।


कभी मुस्कान है लब पर कभी हैं अश्क आँखों में,

करनियों  के हमेशा श्वेत  काले  बीज  बोता    हूँ।


नहीं    है    आसमां  में बनी  कोई  कहीं    जन्नत,

यहीं   पर   है  सभी   कुछ लगाता गंग -  गोता  हूँ।


आदमी  के कर्म का अंजाम सबको भोगना पड़ता,

दूसरों को दोष  दे देकर  स्वयं दामन मैं   धोता  हूँ।


बताता  हूँ  मिया  मिट्ठू  पहन कर बगबगे  कपड़े,

समझता  हूँ खुदा ख़ुद को रुलाता हूँ न   रोता   हूँ।


दिलों में आग जलती है किसी की देखकर हशमत,

हुआ  मैं  ढोर से  बदतर जगा होता भी  सोता  हूँ।


'शुभम्'     हे   रब     बचाना    पाप   से   मुझको,

हक़ीक़त   है  कि  इंसां हूँ नहीं कुछ  और  होता हूँ।


शुभमस्तु !


15.07.2024● 4.15प०मा०

                      ●●●

पावस की ऋतु आई [ गीतिका ]

 308/2024

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बादल  लगे   गगन    में  छाने।

शुष्क  धरा  को नित्य रिझाने।।


पावस  की  ऋतु  आई  पावन,

कोकिल लगा आम तरु  गाने।


आया  है     आषाढ़    मनोहर,

ग्रीष्म  पड़ा  चित  चारों  खाने।


हरी -  हरी हरियाली  की   छवि,

लगी    लुनाई    भू   पर   लाने।


बालक  निकले  ग्राम - गली में,

बरसा     पानी    लगे    नहाने।


अँधियारे   में    चमके    जुगनू,

मेढक        टर्र  - टर्र      टर्राने।


वीर  बहूटी    एक   न   दिखती,

नहीं     केंचुए     जाते    जाने।


हर्षित  हैं   किसान  नर -  नारी,

लगे    खेत   पर वे   सरसाने ।


रक्षाबंधन       पर्व       श्रावणी,

बहनें  सारी    लगीं       मनाने।


वर्षा    रानी    का    स्वागत  है,

'शुभम्'  अन्न   के  बोता    दाने।


शुभमस्तु !


15.07.2024●5.00आ०मा० 

                       ●●●

बादल लगे गगन में छाने [ सजल ]

 307/2024

     

समांत       : आने 

पदांत        : अपदांत

मातृभार     : 16.

मात्रा पतन  : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बादल  लगे   गगन    में  छाने।

शुष्क  धरा  को नित्य रिझाने।।


पावस  की  ऋतु  आई  पावन।

कोकिल लगा आम तरु  गाने।।


आया  है     आषाढ़    मनोहर।

ग्रीष्म  पड़ा  चित  चारों  खाने।।


हरी -  हरी हरियाली  की   छवि।

लगी    लुनाई    भू   पर   लाने।।


बालक  निकले  ग्राम - गली में।

बरसा     पानी    लगे    नहाने।।


अँधियारे   में    चमके    जुगनू।

मेढक        टर्र  - टर्र      टर्राने।।


वीर  बहूटी    एक   न   दिखती।

नहीं     केंचुए     जाते    जाने।।


हर्षित  हैं   किसान  नर -  नारी।

लगे    खेत   पर वे   सरसाने ।।


रक्षाबंधन       पर्व       श्रावणी।

बहनें  सारी    लगीं       मनाने।।


वर्षा    रानी    का    स्वागत  है।

'शुभम्'  अन्न   के  बोता    दाने।।


शुभमस्तु !


15.07.2024●5.00आ०मा० 

                       ●●●

अहं ब्रह्मास्मि' [अतुकांतिका]

 306/2024

              

        ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


'अहं ब्रह्मास्मि'

मैं साकार ब्रह्म हूँ

में ईश्वर हूँ

मुरदों को जिंदा करता

अपनी चरण धूल से

भक्तों को उद्धरता।


मैं चमत्कार हूँ,

भक्तों को स्वीकार्य हूँ,

मेरी वाणी वरदान है,

मेरी जय जयकार हो,

अंधों का आभार हो।


स्वतः बरसते हैं

अंधों के हाथों नोट,

भला फिर माँगना क्या?

मेरे नलों से 

निकलता है अमृत,

फिर इधर उधर

झाँकना क्या ?


आस्था रखो

अमृत चखो,

सत्संग में आते रहो,

अपने को भरमाते रहो,

ढोंगी मत कहो।


कलयुग मिटा दिया है

सतयुग मैं ही लाया,

अंधों पर चक्र चलाया,

जो भक्तों को दृश्य है,

साक्षात अवतार हूँ,

बाँटता मैं प्यार हूँ,

मैं 'शुभम्'उजियार हूँ,

'अहं ब्रह्मास्मि'।


शुभमस्तु !


11.07.2024●8.30प०मा०

                  ●●●

मेघ मल्हारों में मगन [ दोहा ]

 305/2024

    

      [मेघ,फुहार,बिजली,गाज,बाढ़ ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

मेघ मल्हारों  में  मगन,मोहित मंजुल  मोर।

पावन  पावस  सावनी, मनभावन  है भोर।।

मेघ  सलोने     साँवरे,    सरसाये शुभकार।

सरिता  सर   सानंद   हैं,पावस का उपहार।


शोभन सावन सोहता,सर-सर सृजित फुहार।

सरिता    को   यौवन  चढ़ा,बरसे मेघ  उदार।।

मुरझाए  तरु  बाग वन, सरसे परस फुहार।

मन  मयूर   नर्तन   करे,  जागृत देह खुमार।।


बिजली   दौड़ी  देह  में,  अंग - अंग   बेचैन।

जिस  पल दो से  चार हो,मिले नैन  से नैन।।

बिजली बादल  वारि   का, वर्षा में   सम्बंध।

विलग नहीं पल मात्र को, सौंधी -सौंधी गंध।।


बीता  है आषाढ़ भी, गिरी कृषक पर  गाज।

बूँद नहीं जल की गिरी,बिगड़ गया सब साज।।

गिरे न  नर के भाग्य में,कभी पतन की गाज।

कर्मों  का  संज्ञान  ले, कल परसों या आज।।


यौवन  ऐसी   बाढ़ है,   तोड़ किनारे   धार।

बीहड़  में  बहती  फिरे,नर  जीवन हो   क्षार ।।

उचित  यही  उपचार  हो,आ जाए यदि बाढ़।

सावधान  रहना  सदा,श्रावण मास अषाढ़।।

                   एक में सब

बिजली मेघ फुहार का,सघन सजल सम्बंध।

गाज बाढ़ हितकर नहीं,चलती हैं बन  अंध।।


शुभमस्तु !


10.07.2024●3.30आ०मा०

                   ●●●

घटाओं की रणभेरी [चौपाई ]

 304/2024

         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गया  ग्रीष्म पावस ऋतु आई।

चलती  पछुआ   या  पुरवाई।।

घटाटोप   बादल   नभ  छाए।

चमके बिजली जल बरसाए।।


बूँद - बूँद   कर   बरसे  पानी।

भीगे    चूनर   साड़ी    धानी।।

आई   बाढ़   धरा   पर  भारी।

डूब   रहीं   हैं     कारें   सारी।।


जिधर  दृष्टि   जाती   है  मेरी।

बजे   घटाओं   की  रणभेरी।।

गाँव विटप   वन   डूबे   सारे।

सरिता  के दिखते न किनारे।।


लगता प्रलय  भयंकर  आई।

दुखी हुए सब लोग - लुगाई।।

परेशान    हैं    कारों    वाले।

पड़े   हुए   बचने   के लाले।।


जैसे    कोई     चले    सुनामी।

पवन हुआ जल का अनुगामी।।

पवन दे    रहा  बड़े     झकोरे।

जल में उठते  प्रबल   हिलोरे।।


नगर गाँव  अब  दिखे न कोई।

सागर  में ज्यों प्रकृति  डुबोई।।

दिन में छाया   सघन   अँधेरा।

लगता श्यामल नवल  सवेरा।।


'शुभम्' मौन सब खंभ  खड़े हैं।

बिजली के जो अवनि  गड़े हैं।।

अति सबकी  वर्जित  ही होती।

वर्षा    हो   या   बरसें    मोती।।


शुभमस्तु !


09.07.2024●8.30आ०मा०

                    ●●●

पहुँचो बाबाधाम [दोहा ]

 303/2024

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अंधी   जनता  के लिए,किसका है दायित्व।

पदरज  से  पावन करे, अपना जीवन  सत्व।।

स्वयं बना भगवान जो,कहता हरि साकार।

चूहे  के   बिल   में छिपा,डाल नोट के   हार।।


चट्टे    बट्टे    एक   ही, थैली   के  सब  लोग।

सेवक या साकार हो,चले कठिन अभियोग।।

सुंदर    बाला   षोडशी,    सेवा    में तैनात।

दैहिक  सेवा  लीन हैं,निशिदिन साँझ प्रभात।।


स्नान  करे  नित  दूध से, बने उसी की  खीर।

अंधे   भक्तों  में  बँटे,  ये   कलयुग के    पीर।।

पैसा   एक   न   दान  का,   छूता  है साकार।

सम्पति लाख करोड़ की,आश्रम सजी अपार।।


अंधभक्ति  के  खेल में,शामिल लाख हजार।

फौज    बड़ी    चंदा  करे,  पहले मंगलवार।।

नारी   ने   ही  धर्म का,  झंडा  किया बुलंद।

भेड़ें  ज्यों   अंधी    गिरें, पढ़ें भक्ति के  छंद।।


अमृत नल से  गिर  रहा,भर- भर हुईं  पवित्र।

पदरज से ज्यों मोक्ष का,छिड़क रहा है इत्र।।

लूट  मची  भगवान  की, लूट सको साकार।

आ  जाओ   सत्संग  में, तिया  संग भरतार।।


चमत्कार  से सब मिले,करना फिर क्यों  काम।

दो  धक्का  पति  को लगा, पहुँचो बाबाधाम।।


शुभमस्तु !


08.07.2024●10.15आ०मा०

                     ●●●

आया है आषाढ़ महीना [ गीतिका ]

 302/2024

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वर्षाकाल       बरसते      बादल।

बूँद -बूँद   जल  झरता   निर्मल।।


कायाकल्प   हुआ   वसुधा   का ,

हरियाली   छाई    है  अविकल।


आया    है     आषाढ़     महीना,

धूप    हुई   मेघों    में   ओझल।


बहती   त्वरित  वेग   से  सरिता,

लहरें  उठतीं    करती चल -चल।


नाले -   नाली    बहा    ले   गए,

भरा  हुआ जो  काला   दलदल।


कहीं आ रही कलकल की ध्वनि,

कहीं  बह रहा  पानी   छलछल।


पावस   'शुभम्'  बनी   ऋतुरानी,

ऊपर  -   नीचे    है     वर्षाजल।


शुभमस्तु !


08.07.2024●1.45आ०मा०

                    ●●●

वर्षाकाल [ सजल ]

 301/2024

               

सामांत    :अल

पदांत       : अपदांत

मात्राभार  :16.

मात्रा पतन :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वर्षाकाल       बरसते      बादल।

बूँद -बूँद   जल  झरता   निर्मल।।


कायाकल्प   हुआ    वसुधा  का ।

हरियाली   छाई    है   अविकल।।


आया    है     आषाढ़     महीना।

धूप    हुई   मेघों    में   ओझल।।


बहती   त्वरित  वेग  से    सरिता।

लहरें  उठतीं    करतीं  चल-चल।।


नाले -   नाली    बहा    ले   गए।

भरा  हुआ जो  काला   दलदल।।


कहीं आ रही कलकल की ध्वनि।

कहीं  बह रहा  पानी   छलछल।।


पावस   'शुभम्'  बनी   ऋतुरानी।

ऊपर  -   नीचे    है     वर्षाजल।।


शुभमस्तु !


08.07.2024●1.45आ०मा०

                    ●●●

बरस रहे आषाढ़ी बादल [ गीत ]

 300/2024

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तन सूखा

मन लगा नहाने

बरस रहे आषाढ़ी बादल।


साठ  बरस 

पहले अतीत में

पहुँच  चुका  है ये मेरा मन।

देह उघाड़े 

जाऊँ बाहर

बरस रही हैं बुँदियाँ सन-सन।।


भीग गया हूँ

मैं अंतर तक

गली पनारे बहते छल-छल।


आ जाओ

मेरे हमजोली

कागज की हम नाव चलाएँ।

भीगें और 

भिगोएँ सबको

रपटें   गिरें - उठें    रपटाएँ।।


डाँट रहे हैं

अम्मा दादी

पहनें कपड़े यही एक हल।


देखो उधर

गगन में चमका

इंद्रधनुष मनहर सतरंगी।

आँखों  को

वह बहुत लुभाता

कहते हैं सब साथी-संगी।।


बहते नाले

नदियाँ सड़कें

खेतों में जल बहता कलकल।।


शुभमस्तु !


06.07.2024●12.45 प०मा०

गुरुवार, 4 जुलाई 2024

चमत्कारों की वादियाँ बनाम चमत्कारवाद [व्यंग्य ]

 299/2024 


 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 चमत्कार की वादियों में चमत्कारवादियों की चाँदी है।देश के बाबाओं ने बहुत पहले से कर रखी ये मुनादी है।बड़े -बड़े लोग यहाँ चमत्कार - भक्त हैं।चमत्कारों की माया [मा= नहीं, या=जो ;अर्थात जो नहीं है वही 'माया' है।] पर वे बड़े अनुरक्त हैं।इसीलिए तो बाबाओं की मधुमयी कृपा पर आसक्त हैं।बाबाओं के चरण युगल नोटों से सिक्त हैं।

  'बाबागीरी' एक खास वृहत उद्योग धंधा है।अन्धविश्वासों के पालने में झूल रहे अंधों के लिए रेशमी फंदा है। सबसे बढ़िया बात ये कभी नहीं मंदा है।चमत्कारों का दीवाना हर तीसरा बंदा है।भले वहाँ पर गर्दन पर रंदा है।प्रबुद्ध वर्ग के लिए भले ही काम गंदा है।किसी के नल का पानी अमृत उगलता है,किसी के गाड़ी का टायर में पवित्र धूल की सबलता है।आदमी के चरित्र की ये कैसी चपलता है। 

   भगवान कृष्ण ने अपनी शैशवावस्था से ही मायावी मयासुरों को ठिकाने लगा दिया।आज वे मायावी साक्षात हरि रूप में साकार हो गए।भेड़ों के पीछे ही भेड़ चला करती है।भले ही वे भेड़ रूपी भेड़िए ही क्यों न हों? यदि पहले से ही पहचान लिए गए होते तो भेड़ें बिदक न जातीं? ठगने के लिए रूप बदलना पड़ता है।अब चाहे वह इंद्र हो या रावण,चंद्रमा हो या शकटासुर ; सबने अपने रूप परिवर्तन के रंग दिखलाए और ईश्वर अवतार राम भी मृगरूपी मारीच असुर की ठगाई में भरमाए!

  रँगे हुए बाबाओं की अंतिम गति कृष्ण जन्म भूमि में होने का चलन है।बात केवल घड़े के भरने भर की है।जब तक घड़ा भर नहीं जाता, बाबा अपने वाक-चमत्कार से जन मानस को रिझाता।अच्छे - अच्छों को आदमी की देह से उल्लू बनाता। जब तक वह कृष्ण जन्मभूमि नही पहुँच जाता ,तब तक तिनका भर नहीं पछताता।ऐश-ओ-आराम की जिंदगी बिताता।महलों को सजाता ,विलासिता में रम जाता।माया में लिपटा माया ही बनाता। 

  अब तो यह बात भी सच लगने लगी है कि ये देश साँप -सपेरों वाला है। कोई कुछ भी करे,किसी की करनी पर कोई नहीं ताला है।भेड़िए भेड़ बने भरमा रहे हैं।परदे के पीछे गुल खिला रहे हैं।नर -संहार के जंगल उगा रहे हैं। चाँद की यात्रा करने वाले देश में ये क्या हो रहा है।देश सो रहा है।अपने लिए आप ही काँटे बो रहा है।अपने आँसुओं से अपने कपोल धो रहा है।

  आम जन मानस को लकवा मार गया है।बुद्धि का दिवाला निकल गया है।कोई समझाये तो समझता नहीं।ईश्वर को छोड़कर बहुरूपिये मानुस में ही बुद्धि की शुद्धि हो रही। कोई ठग, कोई डिग्रीधारी भगवान हो गया। उसी के नाम का जयकारा, वही सर्वस्व दे गया।आदमी की कृतघ्नता की पराकाष्ठा है।भेड़ों वाला कुँआ ही उसका रास्ता है।किसी भी बुद्धिमान से उसका कोई नहीं वास्ता है।स्वयं मौत के कुएँ में कूद रहा है,तो दोष भी किसका है ?

 शुभमस्तु !

 04.07.2024●4.45 प०मा० 


 ●●●ि

रूढ़िवादिता की खाज [अतुकांतिका]

 298/2024

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


विवेक ने आँखों पर

पट्टी बाँध रखी है,

बिना किए कर्म

बाबाओं की कृपा से

सब कुछ मिल जाए,

यही अंतिम उपाय।


न पढ़ना जरूरी

न श्रम ही जरूरी

बाबाजी करें

उनकी माँगें सब पूरी,

सेवादारों की चाँदी

वे काट ही रहे हैं।


कहाँ जा रहा है

ये समाज,

रूढ़िवादिता की खाज

खुजाए जा रहे हैं,

 भेड़ ही तो हैं

कुएँ में

चले जा रहे हैं।


क्या करे प्रशासन

चप्पे-चप्पे पर

क्या पहरा बैठा दे!

भरा हो जहाँ

निकम्मापन

उसको घर बैठे

राशन दिला दे!

नंगे बदन को

कपड़े सिला दे!


ये इक्कीसवीं सदी है,

आदमी - आदमी की अक्ल

जुदी -जुदी है,

सब कुछ  बाबाओं की

 कृपा से मिले,

तो कोई भी हाथ- पैर

क्यों यों हिले?

गिरें स्वयं ही गड्ढे में

प्रशासन से शिकवे -गिले,

विरोधी नेता गण

कितने खिले?

फ़टे में अँगुली

डालने के मौके तो मिले!

शुभमस्तु !


04.07.2024●3.00प०मा०

                  ●●●

बुधवार, 3 जुलाई 2024

कर्मों का संज्ञान ले [दोहा ]

 297/2024

             

[ ओजस्वी,संज्ञान,विधान,सकारात्मक,अध्यवसाय]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

ओजस्वी मुख कांति की, आभा  एक विशेष।

उर  पर  छोड़े नेक  छवि,तज अंतर के   द्वेष।।

कपट हृदय  के त्यागिए,हो ओजस्वी   रूप।

सत्कर्मों  से  ही   बचे,  नर  का  गिरना  कूप।।


कर्मों   का   संज्ञान  ले,  ए  मानव   तू   मूढ़।

सदा   चले  सन्मार्ग  में,  समय-अश्व आरूढ़।।

जब     आए   संज्ञान  में,मानवता  का   मर्म।

तब    जो   सुधरे   राह  में,  करे  सर्व  सद्धर्म।।


विधि का अटल विधान है,होता हेर   न  फेर।

निश्चित  सबका  काल है,लगे न पल की   देर।।

हो  विधान सम्मत   वही, उचित हमारा  काम।

सतपथ   पर  चलना  सदा,मिल जाएँगे   राम।।


सोच सकारात्मक रहे,अविचल मन  की टेक।

मानव  तन  में  देव  का,  जागे   नेक विवेक।।

लोग सकारात्मक नहीं,प्रायः जग में    आज।

स्वार्थलिप्ति हितकर नहीं,बिगड़ा हुआ समाज।।


अध्यवसाय  में   रत  रहे,  पाता वह   गंतव्य।

सार्थकता - संचार  हो, हो  नर जीवन   दिव्य।।

अपने   अध्यवसाय   से, चुरा रहे जो   जान।

परजीवी   समझें   उन्हें, नर  वे जोंक   समान।।


                एक में सब

सोच सकारात्मक सदा, अध्यवसाय-विधान।

ओजस्वी नर   मन  वही,लेता शुभ     संज्ञान।।


शुभमस्तु !

03.07.2024●7.15आ०मा०

                    ●●●

उपवन [कुंडलिया]

 296/2024

                     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

   

                       -1-

उपवन में  कलियाँ  खिलीं,बगरी विमल बहार।

रिमझिम  रह-रह   दौंगरे, खोल रहे नव   द्वार।।

खोल  रहे  नव   द्वार,  भेक टर-टर-टर    बोलें।

कर    भेकी  आहूत , प्रणय   के  परदे   खोलें।।

बरसा   'शुभम्'  अषाढ़, प्रतीक्षारत है   सावन।

तन-मन  मिलन  प्रगाढ़,मनोहर उन्मद उपवन।।


                         -2-

आओ   उपवन  में चलें, कलियाँ  करें   पुकार।

अंबर से झर- झर झरे, रिमझिम विरल फुहार।।

रिमझिम    विरल  फुहार,  न कोई वीर   बहूटी।

बरसीं   नभ  से  लाल,  मखमली अवनी -बूटी।।

रेंग    रहे   जलजीव,   कहीं  हमको दिखलाओ।

'शुभम्'    टेरता    पीव,  पपीहा  देखें    आओ।।


                           -3-

मानव -  जीवन  एक  है, उपवन सघन  सजीव।

सुख - दुख    जिसके   वृक्ष  हैं,बिखरे बेतरतीव।।

बिखरे     बेतरतीव,    फूल  फल पल्लव    सारे।

आच्छादित    है    देह,  सँवरते   नहीं     सँवारे।।

'शुभम्'  विकट   संसार, नहीं   बन जाना  दानव।

करके      स्वयं  सुधार,  बने   रहना  है   मानव।।


                         -4-

अपना  स्वयं    सँवारना,  उपवन सुंदर   मीत।

छंदबद्ध   लय    ताल   हो, जीवन है नवगीत।।

जीवन    है    नवगीत,   नई  उपमाएँ   लेकर।

जगा   हृदय   में  प्रीत, तभी  जी पाए   जीभर।।

'शुभम्'  बनें   रसखान, सदा  पड़ता है   तपना।

आती    नवल   बहार, तभी हो उपवन अपना।।


                             -5-

झाड़ी   का  कर्तन   करें, जीवन उपवन  रम्य।

काट-  छाँट   करनी  पड़े, वरना  बने अदम्य।।

वरना  बने    अदम्य,   नियंत्रण  खोता    जाए।

खिलें  जहाँ   पर  फूल,  शूल  पैने उग   आएँ।।

'शुभम्'  बने  प्रतिकूल, चले जीवन की  गाड़ी।

ज्यों  दलदल   के  बीच,फँसी हो कोई    झाड़ी।।


शुभमस्तु !


02.07.2024● 6.00आ०मा०

                   ●●●

घन कजरारे [ गीत ]

 295/2024

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नभ में छाए 

घन कजरारे

उमड़- घुमड़ मनभावन।


आशाओं की

डोर थामकर

झूम उठा मन मेरा।

पूरब पश्चिम

उत्तर दक्षिण

बना हुआ घन घेरा।।


आषाढ़ी दौंगरे 

लरजते

आने  वाला  सावन।


देख घुमड़ते

मक्खन-लौंदे

मन करता हम खालें।

उछलें ऊपर

उचक पाँव पर

उड़ता मक्खन पालें।।


याद सताए

विरहनियाँ को

अपना पिया रिझावन।


कृषकों के

मन में घुमड़ाईं

आशाओं की बदली।

नभ की ओर

निहार रहे हैं

गीत गा रही कमली।।


बना रही हैं

बूँदें  झर-झर

'शुभम्' धरा को पावन।


शुभमस्तु !


02.07.2024●4.45आ०मा०

                  ●●●

सोमवार, 1 जुलाई 2024

माता मेरी शारदा [ दोहा गीतिका ]

 294/2024

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माता   मेरी   शारदा,  विमल    विशद   विश्वास।

कण -कण में उर  के बसा,कवि वाणी का दास।।


भाग्य  मनुज  का  जन्म  है, कवि होना सौभाग्य,

कवि   की  वाणी में सदा, वीणापाणि    उजास।


क्षण - क्षण   करता वंदना,  वरदायिनी   सुपाद,

सदा  समर्पित  मातु  हित,कवि का सारा श्वास।


शब्दों  के  शुभ  कोष में, जनहित बसे    अपार,

शुष्क   न   हो  ये  दूब की, हरियाये नित  घास।


एक   भरोसा  एक   बल,  शब्द  अर्थ   आधार,

अलंकार   नव   छंद की , सबल एक ही   आस।


जन्म - जन्म    मैं   माँगता, मिले सदा   आशीष,

सफल नित्य कवि धन्य  हो,ज्यों आनन पर हास।


'शुभम्'  चरण  वंदन  करे,विनत सदा  मम शीश,

शक्ति  बने   संसार  की, काव्याकृति अनुप्रास।


शुभमस्तु !


01.07.2024●2.15आरोहणम मार्तण्डस्य।

                     ●●●

विमल विशद विश्वास [सजल]

 293/2024

       

समांत      : आस

पदांत       : अपदांत

मात्राभार   : 24.

मात्रा पतन : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माता   मेरी   शारदा,  विमल    विशद   विश्वास।

कण -कण में उर  के बसा,कवि वाणी का दास।।


भाग्य  मनुज  का  जन्म  है, कवि होना सौभाग्य।

कवि   की  वाणी में सदा, वीणापाणि    उजास।।


क्षण - क्षण   करता वंदना,  वरदायिनी   सुपाद।

सदा  समर्पित  मातु  हित,कवि का सारा श्वास।।


शब्दों  के  शुभ  कोष में, जनहित बसे    अपार। 

शुष्क   न   हो  ये  दूब की, हरियाये नित  घास।।


एक   भरोसा  एक   बल,  शब्द  अर्थ   आधार।

अलंकार   नव   छंद की , सबल एक ही   आस।।


जन्म - जन्म    मैं   माँगता, मिले सदा   आशीष।

सफल नित्य कवि धन्य  हो,ज्यों आनन पर हास।।


'शुभम्'  चरण  वंदन  करे,विनत सदा  मम शीश।

शक्ति  बने   संसार  की, काव्याकृति अनुप्रास।।


शुभमस्तु !


01.07.2024●2.15आरोहणम मार्तण्डस्य।

                     ●●●

शनिवार, 29 जून 2024

मैल का मेला [ व्यंग्य ]

 292/2024 


 

 © व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 वह तो पहले से ही बहुत अधिक कुख्यात थी,किन्तु अब तो मर्यादा ही टूट रही है।उसका मैलापन दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है।इस बढ़ते हुए मैलेपन के कुछ कारण अवश्य हैं। आदमी दिन प्रति दिन नीति,धर्म,मर्यादा,चरित्र और विनम्रता से विमुख होता चला जा रहा है।तो फिर राजनीति से ही यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह दूध की धुली बनी रहे।अंततः उसमें जो आदमी है ,वह भी तो इसी धरती और समाज की देन है।धरती पर बढ़ता हुआ कचरा और आदमी में बढ़ती हुई अपवित्रता क्या कुछ नहीं कर सकती। 

 देश और समाज में निरन्तर बढ़ते हुए सपोले और उनके पालनहार नहीं चाहते कि सर्वत्र खुशहाली हो। दूसरे को त्रास देने में आनन्दानुभूति करने वालों को इसी से तुष्टि मिल रही है।परपीड़क आनंद में हैं।आमजन और मध्यवर्ग उत्पीड़ित और भयाक्रांत है।जहाँ भी देखिए ,वहीं परपीड़ा का वातावरण जन्य दूषण फैला हुआ है।चारों ओर असंतोष और विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं।मतदान और जीवन यापन मात्र औपचारिकता बनकर रह गए हैं। कहीं भी किसी की कोई रुचि नहीं है।मन के अंदर और बाहर विरोध और असंतोष की ज्वालायें धधक रही हैं। 

 सबको ऊँची कुर्सी चाहिए।निरंतर जारी कुर्सी-दौड़ में बड़े- बड़े महारथी शामिल हैं।जिनको कभी दरी का बिछौना भी सुलभ नहीं था,वे कुर्सी - दौड़ में सबको पीछे खदेड़ना चाहते हैं।साम,दाम,दंड और भेद :इनमें से कोई भी नीति या अनीति को अपनाने में वे येन केन प्रकारेण संलग्न हैं।नैतिकता को खूँटी पर टाँग दिया गया है,अपनी टाँग आगे लाने के प्रयास में दूसरे की टाँग में टंगड़ी मारकर गिरा देना ही उनका धर्म है।आज की राजनीति का यही मर्म है।चारों ओर का वातावरण गर्म है।आज का क्या नेता क्या चमचा ,सब कोई इतना बेशर्म है कि दाना डाल के मुर्गी फँसाने में वह बेहद नर्म है। 

 दानेबाजी और नारों का बाजार गर्म है।नामियों को नामे से लगाव है तो किसी को प्यारा किसी का चर्म है। जनता विकास की गंगा में नहीं, वैतरणी में गोते लगा रही है।चमचों की चासनी उन्हें निरंतर जगा रही है। मैल से मैल कभी साफ भी हुआ है ? जनता के लिए माध्यम वर्ग के लिए इधर आग तो उधर कुँआ है।जो पहले कभी न हुआ वह वर्तमान में हुआ है।लोगों के लिए देश ,देश नहीं मात्र एक जुआ है।मध्यम वर्ग की तो बस यही दुआ है कि सब कुछ ठीक - ठाक चले।मैलापन जो आया है ,वह शीघ्र ही टले।पर उसे चैन से कब रहने देते हैं ये दिलजले। रात - दिन मुश्किलें लग रही हैं उनके गले।सुख चैन की वर्षा हो न हो, वे जाते रहेंगे अनवरत दले।

 सबको जनता से शिकायत है,किन्तु जनता की शिकायत सुनने वाला कोई तो नहीं। जनता की वेदना सुनने वाला कहीं कोई तो नहीं।वह तो आम है न ? जिसे चुसना है। बराबर चुसना है।ऊँची कुर्सी पर कोई भी बैठा हो,उसे रसातल में धँसना है। चैन की वंशी बजाना उसका सपना है।गोल-गोल रोटी के परित: उसे घूमना है।बनावटी हँसी हँसते हुए उसे झूमना है।काल्पनिक सफलता के इर्द - गिर्द कोमल कपोल चूमना है।मन ही मैले हैं,तो बगबगे वसन पहनने से क्या स्वच्छता आ जायेगी।दूर के ढोल बड़े सुहावने हैं।पर पता है उसमें भी पोल है!छल -छद्मों की किलोल है।

 वक्ताओं की वाणी का बोलबाला है।झूठ दौड़ रहा हेलीकॉप्टर पर और साँच का मुँह काला है।लगा गया अटूट ताला है।गली-गली, बस्ती -बस्ती में बहता हुआ जो नाला है, उसी के बाहर महक रहा 'गरम मसाला' है।आँखों मे हया नहीं, जुबाँ पर सुदृढ़ ताला है।क्या नर और क्या नारी ! सब जगह फैली मैल की बीमारी!दूर के ढोल बड़े ही सुहाने हैं। नेताओं को चमकाने अपने - अपने पैमाने हैं।'अंधभक्त' उनके अंध प्रचार में दीवाने हैं। उनकी प्रशस्ति में गा रहे तरन्नुम भरे गाने हैं। अपनी हेय करनी पर क्या कभी वे लजाने हैं? उन्हें मिल ही रहे स्वर्ण निर्मित दाने हैं।पर एक दिन दूध का दूध पानी का पानी हो ही जाता है। जो अब तक इतराता सतराता था, उसे अतीत और औकात याद आ जाता है।यहाँ वहाँ मैल का मेला है। नेताओं के पीछे भेड़ों का रेला है। गरीब के हाथों में रोज का हथठेला है। उधर नोटों की बरसात ,इधर न कौड़ी न धेला है। अँगूठा छापों का आई ए एस चेला है।इधर भी और उधर भी मैला ही मैला है।इधर पॉली थैली पर भी जुमार्ना उधर सोने भरा थैला है। 

 शुभमस्तु !

 29.06.2024●1.00प०मा० 

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सिद्धान्तप्रिय [अतुकांतिका]

 291/2024

                     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


नहीं होते

सभी सिद्धांतप्रिय,

जीते हैं

जिस किसी भी तरह

ज्यों गली का कोई श्वान।


जहाँ जो मिला

जैसा मिला

खा लिया,

द्वार -द्वार भटका

कुछ पा लिया,

यही ही उनका जीना।


मानव रहे

मानव की तरह,

जिए मानव की तरह,

कुछ सिद्धांत भी हों

जीवन जीने के लिए।


संघर्ष तो 

करना ही है,

इसके बिना

जीवन नहीं है,

बस यही तो सही है।


अपनी राह

स्वयं ही बनानी है,

यही तो 'शुभम्'

इस जीवन की 

कहानी है,

रुकना नहीं

झुकना नहीं,

चरैवेति- चरैवेति।


28.06.2024●6.15आ०मा०

अकथ कहानी नेह की [ दोहा ]

 290/2024

        

[अनमन,अमराई,अकथ,आचरण,अनुपात]

                    सब में एक

उचित नहीं अनमन कभी,सुहृद दंपती बीच।

बढ़ती  नित्य   खटास ही,रसना उगले कीच।।

अनमन  भारत  पाक की,नित्य बढ़ाए रार।

क्यों  मजहब के  नाम पर,बहे रक्त की  धार।।


अमराई    में    चू  रहे,   पीले टपका   आम।

शुभ अषाढ़ का मास ये,उमड़ रहे घन श्याम।।

पहला - पहला    दोंगरा,अमराई के    बीच।

तन-मन को पुलकित करे,बहे स्वेद की कीच।।


अकथ  कहानी  नेह  की,कही न जाए   मीत।

जो  आपा  अपना  तजे, सदा उसी की  जीत।।

ताप  बढ़ा  अति  भानु का, शब्दातीत  अपार।

अकथ उसे दुनिया  कहे, भयाक्रांत    संसार।।


जैसा   जिसका   आचरण,वैसा उसका  नाम।

जग  में  यही  प्रसिद्ध है,क्या रावण क्या राम।।

मूषक  शेर  बिलाव  का,अपना अलग  स्वभाव।

अलग आचरण  से  करें,पार जगत की  नाव।।


गुण - दोषों का अलग ही,सब में है अनुपात।

भाषा  बने  चरित्र   की, मानव  या जलजात।।

हिंसा   करुणा  प्रेम   का, सिंहों  में अनुपात।

सौ  में  सौ  हिंसा  प्रबल, ये   वन्यों की  जात।।


                   एक में सब

अकथ आचरण जीव का,सुगुण दोष अनुपात।

अमराई   में   रूठकर,  अनमन   बैठी    रात।।


शुभमस्तु !


26.06.2024●5.15आ०मा०

                    ●●●

खेती [कुंडलिया ]

 289/2024

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

खेती   का  सिरमौर  है, हलधर   वीर  किसान।

उपजाता   है  अन्न  फल, हरे शाक पय  धान।।

हरे   शाक  पय  धान, देश का पोषण  करता।

सूती  वस्त्र   कपास,  वेदना  तन  की   हरता।।

रहना 'शुभम्'   कृतज्ञ,  कृषक नर-नारी जेती।

भू  माँ   के   हैं   विज्ञ,करें फसलों की   खेती।।


                         -2-

जानें  क्या  वे  खेत को,तपसी कृषक  महान।

खेती  से  वे  शून्य   हैं, परिचित  पेड़ न धान।।

परिचित   पेड़  न धान,उच्च भवनों में   रहते।

आलू  भू  के  गर्भ,  मटर   डाली  पर  उगते।।

'शुभम्' न  देखी  बाल,  अन्न  गोधूम न  मानें।

उच्च   वर्ग   का  हाल, नहीं  खेती को  जानें।।


                         -3-

नेताजी   खेती   करें,  समझ   देश को   खेत।

फसल  उगाते  स्वर्ण  की,  जनता सारी   रेत।।

जनता   सारी   रेत,  वही  फिर  सोना   उगले।

महलों  में   शुभ  वास, महकते मोहक   गमले।।

'शुभम्'   हाल   विद्रूप,   न खाते रोटी   भाजी।

काजू   कतली    सूप,  शुष्क    मेवे   नेताजी।।


                         -4-

खेती     पालक  देश  की, नहीं  जानते    मर्म।

नेता   भारत  देश   के,  शेष   न किंचित शर्म।।

शेष न  किंचित  शर्म, कृषक का शोषण  होता।

चिथड़े   पहनें  नारि, कृषक  भर आँसू   रोता।।

'शुभम्' नहीं अनुदान,शुष्क ज्यों सरि  की रेती।

कैसे     कहें   महान,   उपेक्षित  सूखी   खेती।।


                         -5-

जैसे   वीर  जवान   पर, देश त्राण का    भार।

वैसे    धीर    किसान    दे,  अन्नदान उपहार।।

अन्नदान         उपहार,  त्राण  करती  है   खेती।

सहती  कठिन  प्रहार, सभी  जीवन धन देती।।

'शुभम्'    बनाए  शान,  जी  रहा  जैसे -  तैसे।

स्वेद  कृषक का  मान, जान का त्राता -जैसे।।


शुभमस्तु !


25.06.2024●8.30आ०मा०

बैलों का हमजोली [ गीत ]

 288/2024

          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बैलों का

हमजोली देखो

निकल पड़ा बैलों के साथ।


उपजाता है

अन्न खेत में

जन-जन का करता कल्याण।

महिमा उसकी

कौन न जाने 

कृषक करे जनता का त्राण।।


कभी बैलगाड़ी

ले जाता

झुका धरणि माता को माथ।


कर्षण करे 

खेत का हल से

कभी  धरा    में  बोता  बीज।

कौन हृदय

वाला नर- नारी

जो न देख कर जाय पसीज।।


बढ़ते उसके

कदम न रुकते

और न रुकते पल भर हाथ।


कभी धूप में

कभी छाँव में

करता   रहता श्रम अविराम।

स्वेद बहाता

दो रोटी को

निशिदिन करता  रहता काम।।


'शुभम्' कृषक

भारत का वंदित

शल्य समन्वित उसका पाथ।


शुभमस्तु !


25.06.2024● 7.45आ०मा०

सोमवार, 24 जून 2024

बदल रही दुनिया [ गीतिका ]

 287/2024

        

शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदल रही दुनिया क्षण -क्षण में ।

मानव  झोंक  दिया   है रण  में।।


मात - पिता की   करें   न   सेवा,

लगा  मान  दाँवों  पर   पण   में।


मन  अपवित्र  बुद्धि   दूषित   है,

कठिनाई     अति   संप्रेषण   में।


बारूदों    के      ढेर   लगे    हैं,

आग  सुलगती  मन  के व्रण में।


मन  पर   धूल   लदी    है   ढेरों,

झाड़   रहा   है  रज  दर्पण   में।


वाणी  से   जन    नीम   करेला,

प्रकृति  नहीं मधु  रस वर्षण में।


'शुभम्' जिधर  देखो  व्याकुलता,

लपटें  उठी    हुईं   जनगण   में।।


शुभमस्तु !


24.06.2024● 12.45आ०मा०

                    ●●●

मानव झोंक दिया है [ सजल ] समांत : अण

 286/2024

        

पदांत     : में

मात्राभार :16

मात्रा पतन: शून्य।


शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदल रही दुनिया क्षण -क्षण में ।

मानव  झोंक  दिया   है रण  में।।


मात - पिता की   करें   न   सेवा।

लगा  मान  दाँवों  पर   पण   में।।


मन  अपवित्र  बुद्धि   दूषित   है।

कठिनाई     अति   संप्रेषण   में।।


बारूदों    के      ढेर   लगे    हैं।

आग  सुलगती  मन  के व्रण में।।


मन  पर   धूल   लदी    है   ढेरों।

झाड़   रहा   है  रज  दर्पण   में।।


वाणी  से   जन    नीम   करेला।

प्रकृति  नहीं मधु  रस वर्षण में।।


'शुभम्' जिधर  देखो  व्याकुलता।

लपटें  उठी    हुईं   जनगण   में।।


शुभमस्तु !


24.06.2024● 12.45आ०मा०

                    ●●●

गुरुवार, 20 जून 2024

नई साड़ी ! [ व्यंग्य ]

 285/2024



 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 किसी कवि ने क्या खूब कहा है: 'लड़की वह अचार की मटकी,हाथ लगे कीड़े पड़ जाएं।' नारी की नाजुकता की यह पराकाष्ठा है।इससे भी आगे बढ़ें तो एक बात यह भी है कि साड़ी स्त्री की देह से छू जाने के बाद पुरानी हो जाती है ।तभी तो स्त्रियां अलमारी भरी रहने के बावजूद प्रायः यही कहती पाई जाती हैं कि उनके पास पहनने के लिए साड़ी ही नहीं है। शायद उसकी दैहिक अपवित्रता का यह बहुत बड़ा कारण है।इसलिए विवाह शादी या किसी उत्सवीय अवसर पर वे यही कहती हैं नई साड़ी हो तभी तो जाऊँ! और पुरुष का कोई वस्त्र कभी अशुद्ध नहीं होता और वह एक ही जोड़ी कुर्ता धोती या पेंट शर्ट को दसियों वर्ष खुशी - खुशी पहनता रहता है। बिना किसी शिकायत या ताने के। कितनी विडम्बना की स्थिति है? 

   हर अवसर पर नई साड़ी का मुद्दा घर परिवार और उसके पति के लिए चिंतनीय अवश्य है, किन्तु यदि राधा को नचवाना है तो नौ मन तेल का इंतजाम भी करना होगा।यदि नहीं करते तो समझ लीजिए कि क्या होगा , घर का गैस का चूल्हा भी नहीं जलेगा। और जब चूल्हा नहीं जलेगा तो दूल्हा भी आगे नहीं चलेगा।नित नवीनता का नारी चिंतन पुरुष वर्ग के लिए कितना भी महँगा पड़ जाए ,तो पड़ता रहे।कोई कुछ कहे तो कहता रहे ,पर यह तो नारी - संविधान की धारा 'त्रिया चरित्रम : नारी अपवित्रम' में कनकाक्षरों में खचित किया हुआ है;जिसे मिटाया नहीं जा सकता।

   यदि नारी के इस साड़ी प्रेम की तह में जाएं तो ज्ञात होता है कि इसकी असली जड़ तो पुरुष के मष्तिष्क में ही मिलेगी। अपनी आँखें सदा शीतल बनाए रखने के लिए उसने स्वयं ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है।विवाह के बावन वसंत व्यतीत होने के बाद भी वह पत्नी को षोडशी ही देखना चाहता है।इसीलिए कहीं भी अपनी जन्मतिथि लिखवाते समय वह तारीख महीना और सन पूरे- पूरे लिखवाता है। यह अलग बात है कि भले ही चार छ:साल कम लिखवा दे।किन्तु नारियों को यह संस्कार की घुट्टी में घिस - घिस कर पिला दिया जाता है कि कभी किसी को अपनी सही -सही उम्र मत बता देना अन्यथा तुम्हें बुढ़िया करार दिया जाएगा।स्कूल में नाम लिखवाते समय यदि पूरी जन्मतिथि लिखवाने की अनिवार्यता नहीं होती तो वहाँ भी लिखवा दिया जाता :जन्मतिथि -20 जून। अरे ! वर्ष और महीने से क्या लेना - देना ? बाबा तुलसीदास जी की चौपाई के 'अनृत' शब्द की सार्थकता की यहाँ पुष्टि हो जाती है : (साहस, अनृत, चपलता ,माया) । यदि विचार किया जाए तो वे कुछ गलत भी नहीं करतीं। जब जन्मतिथि पूछी गई है तो तारीख ही तो लिखनी चाहिए। तिथि में मास और वर्ष तो आते ही नहीं हैं।इसलिए वे उन्हें अनावश्यक रूप से लिखें ही क्यों ? इसीलिए यह भी एक नारी सूत्र बन गया कि कभी किसी स्त्री की उम्र नहीं पूछनी चाहिए। यह असभ्यता की श्रेणी में गिना जाता है। 

    स्त्री को आसमान पर चढ़ाए रखने में बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अपने स्वार्थ की पूर्ति के कामी पुरुष ने नारी को सोने की जंजीरों में जकड़ दिया।उसे फूल,गुलाब,चंपा, चमेंली,रात की रानी की उपमाएँ देकर कहाँ से कहाँ ले जाकर विराजमान कर दिया। वह उसकी झील जैसी आँखों की गहराई में आकंठ डूब ही गया : (झील-सी गहरी आंखें चाँद-सा रौशन चेहरा)। गाल गाल न रहे,गुलाब हो गए।गर्दन सुराही हो गई। क्षीण कटि मृणाल हो गई। जाँघें भी जाँघें ही कब रह सकीं, वे कदली स्तम्भ बन गईं।केश सघन मेघ में तब्दील हो गए। कुल मिलाकर स्त्री, स्त्री नहीं रही , वह फूल पत्तियों का सचल बागीचा ही बन गई। जिसमें झील भी है,फूल पत्तियां ,लताएँ ,झुरमुट चाँद - सभी कुछ तो है। यदि नहीं है ,तो बस वह स्त्री नहीं है। 

    सोचिए नारी के पुरुष द्वारा इतने नाज नखरे उठाए जाएँगे तो उसे क्या पड़ी कि वह एक साड़ी को एक बार देह से छू भर जाने के बाद उसे पुरानी न कहे ? अब लो ! और झेलो! चाहे उसके अरमानों से खेलो! अब कहा है कि एक भी साड़ी नहीं है ,तो एक और ले लो! अब ये अलग बात है कि साड़ी- सेंटर में मिलने वाली हर साड़ी पुरानी ही होगी। क्योंकि वह भी तुम्हारी ही किसी अन्य बहिन की देह से छुई गईं होगी। तुम्हारे लिए नई है, पर उतरन ही होगी। 

 शुभमस्तु ! 

 20.06.2024● 8.30 प० मा०

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तप [अतुकांतिका]

 284/2024

                        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


तप कोई हो

सहज नहीं है,

तपता तपसी

और प्रभावित

होता अग - जग

तप की ज्वाला।


सूर्य देव भी

तपते निशिदिन

स्वाभाविक है

कष्ट जगत को,

तप का फल

सब मधुर चाहते

किंतु न 

किंचित कष्ट चाहना।


कल जब

बरसेंगी अंबर से

नन्हीं -नन्हीं

जल की बूँदें,

नर -नारी

बालक युव जन सब

नौ - नौ बाँस

उछल कर कूदें।


प्रकृति का

यह कोप न समझें,

होना ही है

जो स्वाभाविक,

भावी समय

सुखद ही होगा,

यह जीवन संघर्ष 

स्वतः है।


हार गया जो

चला गया वह

जीवन छोड़

अतीत बन गया,

जो जूझा

वह जीत गया है

जटिल प्रश्न यह

किसने बूझा?


आओ 'शुभम्'

साथ तपसी के

अपने तप का

साज सजा लें,

गर्मी सर्दी या वर्षा हो

सबके ही सब

साथ मजा लें,

तप की  अपनी 

ध्वजा उठा लें।


शुभमस्तु !


20.06.2024●2.15 प०मा०

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बड़े काम का होता चमचा [बाल गीतिका]

 283/2024

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बड़े   काम    का   होता   चमचा।

नेताजी   को      ढोता    चमचा।।


भरे     भगौने    खाली    कर   दे,

मैले  को    भी    धोता    चमचा।


बिना    पूँछ     का  नेता   मुंडित,

नेता को     यदि   खोता   चमचा।


मालपुआ    या     मेवा     मिश्री,

देता  है    यदि    सोता    चमचा।


नेता     के   पैरों    पर  चल कर,

राष्ट्र   -   एकता     बोता  चमचा।


सदा    नहाए      गङ्गा  -  जमुना,

खूब   लगाता      गोता    चमचा।


'शुभम् ' सदा   है   सिर हाँडी में,

घी में   दसों     डुबोता   चमचा।


शुभमस्तु !

20.06.2024●1.30प० मा०

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मधुमक्खी का छत्ता देश [बाल गीतिका ]

 282/2024

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मधुमक्खी   का    छत्ता    देश।

देन    एकता     का     संदेश।।


सदा    संगठित    रहना   साथ,

तब बनता  सुदृढ़   निज   देश।


जाति - पाँति   मजहब का भेद,

हर्ष    न     छीने   उनका   देश।


फूलों  से    रस   भरकर  लातीं,

भरा    मधुरता    से   शुभ  देश।


करें    परागण     फूलें      खेत,

विटप शाख पर   सजता  देश।


बाँट -बाँट  कर   करतीं    काम

लड़ना  क्योंकर    अपना  देश।


'शुभम्' मनुज  सब ही लें सीख,

नेक   बनाएँ     शुभकर    देश।


शुभमस्तु !


20.06.2024●12.30 प०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...