शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

घट-घट वासी राम 🫐 [ दोहा ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

घट-घट जिसका वास है,उसका घट इंसान।

घट टूटा माटी बना,बिखर गए सब   धान।।


हर घट माटी से बना,प्रभु के यहाँ  न  भेद।

माटी में घट जा मिले, हो जाता जब छेद।।


घट आया  प्रभु  धाम से,बना गलीचा  टाट।

कर्त्ता को भूला हुआ,जा पहुँचा जब घाट।।


माटी में  जब  प्राण का,हुआ पूर्ण  संचार।

माटी  इतराने  लगी,सोचे बिना   विचार।।


माटी  से  गागर  बनी,करती शीतल  नीर।

छोटी  गागर  देखकर,  वह निर्मम  बेपीर।।


रेशा-रेशा  जोड़कर,रज्जु बनी नव    एक।

ताकत बढ़ती जानकर, ऐंठन भरी अनेक।।


ऊपर  बैठा  देखता,   रचना निज  घटकार।

घट  इतराता  ऐंठता,  देता चुपचुप  मार।।


भूल  गया घट घाट ही,उसकी मंजिल एक।

घटिया सबको जानता, खोकर मूढ़ विवेक।। 


घट का उद्भव भूमि पर,घटना एक महान।

पर घट भूला आप में,पहुँचा घाट मसान।।


घट - घट  वासी  एक है, कहलाता  है   राम।

आता  घट संसार में,दिखता उसको   काम।।


घट से मरघट का सफ़र,नहीं जानता जीव।

चिड़ियाँ खेती चुग गईं,क्यों रटता अब पीव!!


🪴 शुभमस्तु !


३०.०४.२०२१◆३.४५पतनम मार्तण्डस्य।

मैं लाल गगरिया पानी की 🏮 [ बालगीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🍎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

मैं  लाल  गगरिया  पानी  की।

माटी  से   बनी  कहानी भी।।


जिस कुम्भकार  ने मुझे गढ़ा।

नव स्वेद कणों का पाठ पढ़ा।

समझा क्या  कोई  मानी भी?

मैं लाल  गगरिया  पानी की।।


खोदी   भू  से  कूटी   माटी।

था खेत  सरोवर  की  घाटी।

गाढ़ा, माढ़ा  औ' छानी  भी।

मैं लाल गगरिया  पानी की।।


वह चाक चलाया तेज -तेज।

मैं गई   सहेजी   धूप   भेज।।

मैं तपी  अवा  मस्तानी - सी।

मैं लाल गगरिया  पानी की।।


मैं  बीच   आग   से आई   हूँ।

तपकर  ही  लाल   बनाई  हूँ।

प्रिय  हूँ  मैं नाना - नानी की।

मैं  लाल गगरिया  पानी की।।


जब तक  शीतल जल देती हूँ।

सम्मान  'शुभम'  का  लेती हूँ।

खोकर गुण हुई  बिरानी - सी।

मैं लाल गगरिया  पानी  की।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०४.२०२१◆२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

मैं माटी हूँ🍃 [ गीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

मैं  माटी  हूँ    मैं   मटका   हूँ।

कर्त्ता  का  नन्हा  झटका  हूँ।।


उस  प्रजापिता ने जन्म दिया।

माँ की धरती को घना किया।

अपनी माँ का मैं   छुटका  हूँ।

मैं   माटी  हूँ  मैं  मटका   हूँ।।


माटी  का   होता   रूप  नहीं।

जो भी गढ़ दें वह सभी सही।

ऊपर   से   नीचे   पटका  हूँ।

मैं  माटी हूँ   मैं   मटका  हूँ।।


मेरी   कोई     पहचान   नहीं।

था वहाँ आज अब और कहीं।

तीनों   लोकों   में  भटका  हूँ।

मैं  माटी   हूँ  मैं   मटका  हूँ।।


कर्त्ता   ही   मुझमें   भरता है।

मेरे   हित  में सब   करता  है।

वह कहता मैं  घट-घट का हूँ।

मैं  माटी   हूँ   मैं  मटका  हूँ।।


माटी  के   रूप  अनेक  बने।

मानव, पशु, पक्षी ,कीट घने।

नित पंच तत्त्व के पुट का हूँ।

मैं  माटी  हूँ  मैं  मटका  हूँ।।


मैं वृक्ष, लता, हूँ   फूल कभी।

मैं बीज और फ़ल शूल कभी।

मैं यौनि - यौनि में भटका  हूँ।

मैं माटी  हूँ    मैं  मटका  हूँ।।


मैं अंश   मात्र   तू   अंशी  है।

नर तव मधुस्वर  की वंशी है।

तू  नायक मैं  बस नट-सा हूँ।

मैं  माटी  हूँ   मैं  मटका   हूँ।।



🪴 शुभमस्तु !


३०.०४.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

बुद्धि और बुद्वत्त्व🌳 [ अतुकान्तिका ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

जहाँ बुद्धि है,

वहीं विचार है,

विचारों का जाल है,

विचारों का ताना बाना है,

जिसके रूप नाना हैं।


जहाँ विचार है,

वहीं संसार है,

विचारों से ही संसार है,

विचारों का कम होना,

संसार से दूर होना ,

समेटता हुआ बिछौना,

मानव का बनता हुआ सोना,

शनैः - शनैः अंतर दीप का 

प्रकाशित होना।


निर्विचार ही ध्यान है,

वही तो सच्चा ज्ञान है,

जहाँ बुद्धि है

वहाँ विचार ही होना है,

अपने आप अपने लिए

संसार -शूल बोना है।


जागते  सोते,

चलते -फिरते,

खाते पीते ,

रहते जीते,

कभी नहीं विचारों से रीते,

संसार है तो बुद्धि भी होगी,

अज्ञान और अज्ञानी,

बुद्धि के वाहन हैं,

ज्ञान और ज्ञानी

बुद्धत्व के धन हैं।


बुद्धत्व ही

निर्विचार की क्षमता है,

जिसकी नहीं कोई

समता है,

घनावृत आकाश ही

बुध्दि है,

घन रहित स्वच्छ आकाश

बुद्धत्व !

मानव जीवन का सत्त्व,

बुद्धि:  मिट्टी में पड़ा हुआ स्वर्ण,

बुद्धत्त्व: तपा हुआ स्वर्ण,

बुद्धि की शुद्धि ही

बुद्वत्त्व,

जिसका नहीं समझ पाता

ये मानव कभी महत्त्व,

समझता रहा मिट्टी को सोना,

नहीं चाहा जिसे कभी धोना,

ध्यान का अभाव ही संसार,

जैसे हो बुध्दि का अपस्मार,

बुद्धत्त्व से बहुत दूर,

सांसारिक अहं में चकनाचूर!

मानव की चाहत

बस धूल! धूल!! धूल!!!

सोने की विवेक के परदे पर 

पड़ी धूल,

ममता ,कामना और

अहंकार का संसार,

त्यागकर सुमन

ग्रहण करता है

'शुभम' मानव खार।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०४.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।

रसना 🍎 [ कुंडलिया ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🍑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

                        -1-

रसना रस लेती रही,था नर को  सब  ज्ञान।

मारा  इस  बेदर्द ने,बना अस्थि  का  श्वान।।

बना अस्थि का श्वान, भैंस बकरे सब खाए।

मुर्गी , मुर्गा, अंड,  सभी पर नहीं   अघाए।।

जागा नहीं  विवेक,न बंधन अपने    कसना।

'शुभम'लालची गीध, हुई मानव की रसना।।


                       -2-

रसना के सँग और भी,नौ नर तन  के द्वार।

मानव नौ का दास है,सब विधि वह लाचार।

सब विधि वह लाचार,एक क्षण रोक न कोई।

मन  की  है  सरकार,दहकती धी बटलोई।।

सबके अपने  रंग, सभी का नर  को  डसना।

'शुभम'बनाता क्षीण,नहीं कम केवल रसना।।


                        -3-

रसना   रस  में   लीन  है,ले जीवों  के  प्राण।

चटखारे ले खा रही,करता नर निज त्राण।।

करता नर निज त्राण, मौत का जश्न मनाता।

कट्टीघर  में  काट,माँस गौ माँ  का  खाता।।

बचे न बिच्छू साँप, भेड़ बकरा सब भखना।

'शुभम' धर्म की डींग,हाँकती दूषित रसना।।


                       -4-

रसना  मुख भीतर घुसी, बाहर टीका माल।

चीवर पीला देह पर,देखो मनुज - कमाल।।

देखो  मनुज- कमाल, स्वाद अंडे में  लेता।

पशु- पक्षी का माँस, खा रहा मानव-जेता।।

घट जाता जब पूर्ण,भूल जाता नर हँसना।

टाल रहा निज दोष,'शुभं' कब देखी रसना?


                        -5-

रसना  के रस के लिए,रहा न कुछ  भी शेष।

चमगादड़,  कुत्ते, गधे,बकरी, बकरा,  मेष।।

बकरी, बकरा, मेष,मछलियाँ,मेढक कछुआ।

संग सुरा का स्वाद,न जानी उनकी  बदुआ।।

आया भीत  कुकाल,मौत का ऐसा   ग्रसना।

देखा सुना  न रोग,'शुभम' ऐसी नर  रसना।।


🪴शुभमस्तु !


२९.०४.२०२१◆११.४५पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

जय !जय!!श्री हनुमान 🌷 [ दोहा ,चौपाई ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌷 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

★ दोहा ★

चैत्र मास की पूर्णिमा,दिन शुभ मंगलवार।

महावीर  हनुमंत का ,हुआ रुद्र  अवतार।।


माता  हैं  माँ  अंजना,पिता केसरी  नाम।

ग्यारहवें अवतार हैं,प्रभुवर जिनके राम।।


  ★ चौपाई  ★

वज्र   समान   देह बलशाली।

महिमा  अंजनि पुत्र निराली।।

अंतिम  चरण  लगा त्रेता का।

था नक्षत्र भी शुभ चित्रा का।।


पवन- पुत्र  हनुमत कहलाते।

सुघर  पालने   वही  झुलाते।।

वानर- मुख  तन धरे लँगोटी।

स्वर्ण मुकुट ऊपर सिर चोटी।


गदा  अस्त्र निज हनुमत धारे।

लंबी  दुम से   असुर  सँहारे।।

स्वर्णाभूषण   चमक  रहे  हैं।

सुघर जनेऊ लटक  कहे हैं।।


अमर वीर  बजरंगबली तुम।

शीश झुकाते हैं प्रभु से हम।।

सीता   माँ  के  राज  दुलारे।

श्रीराम  के   भक्त   निनारे।।

          

★ दोहा★

भक्ति ज्ञान जय शक्ति के,प्रभुवर श्रीहनुमान।

शत-शत करते नमन हम, चिरंजीव भगवान।


  ★चौपाई★

भक्तों   के   रक्षक  हनुमन्ता।

सदा प्रणत युग चरण सुसंता।

करते  नित   विध्वंश   बुराई।

कविजन ने तव महिमा गाई।


लखन   प्राणरक्षक   हनुमाना।

बिना पंख  उड़ते  हम जाना।।

लाए   वे     संजीवनि   बूटी।

जुड़ी  राम की  आशा  टूटी।।


सीता  माँ    सिंदूर   लगातीं।

बढ़े  आयु पति  की हर्षातीं।।

प्रभु हनुमत ने जब ये जाना।

मन में अतिशय हर्ष समाना।।


निज तन पर  सिंदूर लगाया।

रामभक्त   हनुमत   हर्षाया।।

हनुमत जैसा भक्त  न  कोई।

धरती पर प्रभु कीरति बोई।।


 ★ दोहा★

नाथ कृपा जन पर करो,कृपासिंधु हनुमान।

महिमा अंजनिपुत्र की,जाने सकल जहान।।


     ★चौपाई★

आंजनेय  राक्षस - विध्वंशक।

माया छल के पूर्ण विभंजक।।

हे    परविद्या    के    परहारी!

शत्रु - शौर्य नित नाशनकारी।।


पल-पल राम नाम को जपते।

दुश्मन महावीर लख  कँपते।।

ग्रह -प्रभाव का  करते नासा।

तन-मन के दुख हरते हासा।।


कहाँ नहीं प्रभु वास तुम्हारा।

पारिजात आवास  निहारा।।

हे कपीश!  मंत्रों  के स्वामी!

महाकाय अघ,रोग विरामी।।


सब  यंत्रों   में   वास  कपीश्वर।

प्रभव तेज बल बुद्धि सिद्धिकर।।

सीता -  शोक  निवारक वानर।

उदित अर्क  का  तेज बदन पर।।


महातपस्वी        लंक   निहन्ता।

पंचानन     तुम    धीर  अनंता।।

सुरपूजित प्रभु दैत्यकुलान्तक।

कामरूप,    वागीश ,  महातप।।


    ★दोहा★

नव्याकृत पंडित सुचय,दृढ़व्रत हँसमुख शांत

रुद्रवीर्य अवतार को,नमन सहस्र सुकांत।।

पदसेवी   श्रीराम   के, माँ  सीता  के  नेह।

धरती पर नित 'शुभं' प्रभु,रहें कृपानिधि मेह।


*प्रभव=सबसे प्रिय।

*नव्याकृत पंडित=सभी विद्वानों में निपुण।

*सुचय=पवित्र।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०४.२०२१◆१०.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

रविवार, 25 अप्रैल 2021

ग़ज़ल 🍑


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

लोकतंत्र  को   भूल   रहे   हैं।

देश  लूट कर    फूल  रहे  हैं।।


मनमानी   करने     वाले   ही,

निशि दिन  बोते  शूल  रहे  हैं।


जिनको हुआ कभी सत्ता मद,

खाते  देश    समूल    रहे   हैं।


चूसा  जाता    सदा  आम ही,

देखे    खड़े    बबूल   रहे   हैं।


मानवता  लुटती  सड़कों पर,

सत्य  न  लोग  क़बूल  रहे हैं।


सब ही सच कहते  अपने को,

बकते  ऊल - ज़लूल   रहे  हैं।


'शुभम'उलझना मत झाड़ों से,

नीति  रहित   ही  ऊल रहे हैं।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०४.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।


मेरी शीतलाखेत यात्रा 🏔️ (भाग - 3) [ संस्मरण ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

 ✍️ लेखक ©

 🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

             हम 51 प्रोफ़ेसर्स के 'रोबर स्काउट लीडर' के प्राधिक्षण की समयावधि आधी से अधिक हो चुकी थी। तभी कुछ साथियों के द्वारा एक नई जानकारी मिली कि प्रशिक्षण -स्थल से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्याही देवी (काली माई) का एक प्रसिद्ध मंदिर है।यह मंदिर बहुत ऊँचाई पर चढ़ने के बाद है।यदि समय रहते वहाँ स्याही देवी के दर्शन कर लिए जाएँ तो उचित रहेगा। इसके लिए यदि प्रशिक्षकों से अनुमति माँगी जायेगी ,तो वह मिलने वाली नहीं है।इसलिए हम पाँच -छः साथियों ने वहाँ बिना अनुमति लिए ही अगले दिन जाने की योजना को गोपनीय रूप से तैयार किया।

              अगले ही दिन सुबह से ही बिना किसी को सूचित किए हुए ही स्याही देवी दर्शन की पैदल यात्रा के लिए निकल पड़े। पहाड़ी मार्गों पर सहायक के रूप में अपने -अपने हाथ में एक -एक लाठी ले ली औऱ चल पड़े।सभी साथियों में एक साथी पर्वतीय क्षेत्र के थे ,जिन्हें रास्ते आदि की पूरी जानकारी भी थी। सम्भव है कि वह पहले कभी स्याही देवी के दर्शन कर चुके भी हों। 

            प्रक्षिक्षण -स्थल से एकाध किलोमीटर चलने के बाद मंदिर की ओर चढ़ाई का मार्ग शुरू होता था।लाठियों को हाथ में थामे हुए हम सभी तेज -तेज कदमों से सीढ़ी नुमा रास्तों पर चढ़ने लगे। जल्दी जाने की यह वजह भी थी कि कक्षा शुरू होने तक वापस आ जाएँ ।चढ़ने में पहले तो बहुत जोश रहा ,किन्तु शीघ्र ही हमारा जोश ठंडा पड़ने लगा। हममें से एक साथी ,जो पर्वतीय क्षेत्र के थे , वह तो बिना लाठी की मदद के बिना थके आगे- आगे दौड़ते से चले जा रहे थे। हम अन्य सभी लोगों की साँस फूलने लगी। कभी कोई थोड़ा रुक जाता , फिर हाँफते हुए चढ़ने लगता। 

             अंततः लगभग एक -डेढ़ घण्टे की कड़ी मसक्कत के बाद हम सभी अपने गंतव्य स्थल स्याही -देवी मंदिर पर पहुँच चुके थे। वहाँ का मनोरम प्राकृतिक दृश्य देखते ही हमारी सारी थकावट दूर हो चुकी थी। उस बड़ी -सी पहाड़ी पर समतल स्थान पर एक मध्यम आकार का मंदिर सुशोभित हो रहा था। मंदिर के बाहर स्थित एक विशाल पीपल के वृक्ष पर हजारों पीतल के छोटे -बड़े घण्टे लटके हुए थे औऱ हजारों की संख्या में झंडे-झंडियाँ वहाँ के वातावरण को धार्मिक बना रही थीं।

             मंदिर के मुख्य द्वार के बाहर ही एक विशेष प्रकार का पक्का कुंड बना हुआ था।जिस पर कुछ रक्त भी पड़ा हुआ था, जो उस समय सूखा हुआ था औऱ लगभग काला -सा हो चुका था।पता करने पर बताया गया कि यहाँ पर कभी -कभी बकरे की बलि दी जाती है। मंदिर के बाहर का वातावरण सुरम्य हरियाली से भरा हुआ था। मंदिर के नीचे की ओर सेव के बगीचे थे ,जिन पर सेव लगे हुए थे,जो कच्चे होने के कारण हरे दिखाई दे रहे थे। वहाँ के पुजारी ने यह भी बताया कि यहाँ पर रात में कभी- कभी देवी माँ के वाहन शेर महाराज भी दर्शन देते हैं।

            इसी प्रकार की बहुत सारी जानकारी करने के बाद अब स्याही देवी माँ के दर्शन करने का सुअवसर आ गया था। मंदिर के लगभग ढाई फीट चौड़े औऱ साढ़े तीन फीट ऊँचे गेट के अंदर एक पतली- सी गुफानुमा गैलरी में लगभग 20 -25 फीट आगे बढ़ने के बाद माँ की पवित्र प्रतिमा के दर्शन किए। चरण -स्पर्श के बाद साथ में लाए हुए कैमरे से माँ के कुछ फोटो भी खींचे गए।लगभग आधा घण्टे मंदिर परिसर में रहने के बाद अपने केंद्र पर लौटने की तैयारी कर दी गई। 

           पर्वतीय चौड़ी सीढ़ीनुमा पगडंडियों पर आने में जितना श्रम करना पड़ा ,उतना श्रम लौटते समय नहीं हुआ और हम सटासट सीढियां उतरते हुए केंद्र पर डरते -डरते जा पहुँचे। मन में यही भय था कि जाते ही डाँट पड़ेगी। देखा पूर्ववत कक्षा पूर्ववत चल रही थी । अंदर प्रवेश करने की अनुमति प्राप्त की और चुपचाप जाकर यथास्थान बैठ गए। कोई डाँट नहीं पड़ी। जब हम वहाँ से चले गए होंगे ,तो अन्य साथियों ने बता दिया होगा। 


             इस प्रकार प्राशिक्षण अवधि में नियमोल्लंघन करते हुए माँ स्याही देवी के दर्शन किए। 10 जून को प्रशिक्षण पूर्ण करके अपने प्रमाण पत्र प्राप्त कर सभी साथी अपने -अपने घर के लिए यथासमय प्रस्थान कर गए।निश्चय ही हम सबके लिए यह प्रशिक्षण एक रोमांचक औसाहसिक यात्रा से कम महत्त्व का नहीं था। आज भी उस प्रशिक्षण की सुनहरी स्मृतियाँ मन के किसी कोने में सुरक्षित हैं। 


माँ स्याही देवी सबका कल्याण करें।


 🪴 शुभमस्तु ! 


 २५.०४.२०२१ ◆६.४५ पतनम मार्तण्डस्य।


 🏔️🍎🏔️🍎🏔️🍎🏔️🍎🏔️

मेरी शीतलाखेत यात्रा 🏔️ (भाग-2) [ संस्मरण ]

 


            'रोबर स्काउट लीडर' (RSL)का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं यथा समय केंद्र पर उपस्थित हो गया था। यह प्रशिक्षण केंद्र एक घने जंगल के मध्य सड़क किनारे पर ही सड़क के तल से लगभग 50 फीट की ऊँचाई पर स्थित एक सुरम्य स्थान पर बना हुआ था। जहाँ एक बहुत बड़े से हॉल में हम 51प्रशिक्षणार्थीयों को ठहराया गया था।जो सभी उत्तर प्रदेश के विभिन्न राजकीय और अनुदानित महाविद्यालयों से आए हुए प्रोफ़ेसर थे। इस हॉल में फर्श पर चीड़ के वृक्षों के बड़े -बड़े लगभग 30 -40 फीट लंबे आयताकार शहतीर बिछाए गए थे। चीड़ के शहतीर बिछाने का उद्देश्य कड़ी ठंड से बचाना ही था। वे सब परस्पर सटाकर चिकना बनाकर बिछाए गए थे। उसी फर्श पर हम सभी लोगों के बिस्तर लगाए गए। दो अनुभवी प्रशिक्षकों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाना था। 


               रात्रि विश्राम के पश्चात सुबह 5 बजे से पहले ही दिनचर्या प्रारम्भ हो गई। रेफ्रिजरेटर से भी अधिक ठंडे पानी से सुबह स्नान किया गया,जो वहाँ पर बने हुए एक सीमेंटेड टैंक में भरा हुआ था।पानी का स्पर्श ही देह को शून्य कर देने वाला था। टंकी के पास ही पूरे परिसर में चाय की पंक्तिबद्ध झाड़ियां खड़ी हुई थीं। चुस्की के कुछ वृक्ष भी खड़े हुए परिसर के सौंदर्य की अभिवृद्धि कर रहे थे।अवसर मिलने पर चुस्की के बहुत मीठे फलों का रसास्वादन मैंने किया।सुबह सात बजे तक तैयार होकर मैदान में झंडारोहण, परेड,खेल तथा प्रशिक्षण संबंधी विविध क्रिया कलापों के लिए हमें पहुँचना था। इलाहाबाद के श्री लाल साहब और रानीखेत के श्री उनियाल साहब द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा था। उनका व्यवहार बहुत सौम्य औऱ सम्मानजनक था।


          मैंने देखा कि विश्व का सर्वोच्च हिमालय पर्वत 100 किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होने के बावजूद ऐसा दिखाई दे रहा था कि सामने कुछ ही दूरी पर हो। प्रातः और सायंकाल हिमालय की शोभा बहुत मनोहारी होती थी। प्रातःकालीन सूर्य की किरणों के प्रभाव से वह सोने जैसा दिखाई दिया। शाम को रुपहला लगा। अपने साथियों की सहायता से अपने साथ ले जाए कैमरे से हिमालय के साथ अपने छायाचित्र भी कैमरे में सुरक्षित किए गए। केंद्र के सामने विस्तृत वन फैला हुआ था। जिसमें अनेक ऊँची पहाड़ियां औऱ खाइयाँ दिखती प्रतीत हो रही थीं। कुछ बादल हमसे भी नीचे यों दिख रहे थे जैसे कोई सफ़ेद खरगोश झाड़ी में बैठा हुआ हो। ये मेघ- खण्ड कुछ ऊपर थे तो कुछ नीचे ।दिन में जंगल में कोई रौनक महसूस नहीं होती थी , लेकिन रात को पहाड़ियों पर दूर -दूर बने हुए घरों में जब रौशनी होती ,तो लगता कि यहाँ भी इंसान रहते हैं।चीड़,सेव ,चुस्की, पुलम आदि के घने पेड़ उस पर्वतीय वातावरण को मोहक बना रहे थे।प्रशिक्षण स्थल के उस प्रांगण में वज्रदंती बूटी के जमीन से चिपके हुए पौधे चारों ओर फैले हुए थे। कुछ घण्टे के प्रशिक्षण के बाद नाश्ता हुआ।नाश्ते के बाद उसी बड़े हॉल में सैद्धांतिक लैक्चर की कक्षाएँ ली गईं। जिनमें प्रश्नोत्तर के द्वारा बहुत कुछ बताया गया। डायरी पर बनाये गए नित्य प्रति के नोट्स को उनसे जंचवाना भी अनिवार्य था । सब कुछ ठीक वैसे ही चल रहा था ,जैसे कालेजों में शिक्षकों द्वारा छात्रों के साथ किया जाता है।


         लैक्चर क्लास के बाद भोजन व्यवस्था होती । हम कोई भी पाँच लोग भोजन परोसने का काम करते ।सभी लोग अपनी थाली, कटोरियाँ , गिलास चम्मच लेकर टाट पट्टी पर आ विराजते ।भोजनोपरांत सब अपने -अपने बर्तन धो माँज कर अपने बिस्तर में रख लेते । स्वयं सहायता का यह कार्यक्रम बहुत ही अच्छा लगा। बारी- बारी से पाँच लोग भोजन परोसने का सेवा कार्य करके स्वयं भोजन करते ,तब अन्य भोजन कर चुके कोई भी व्यक्ति उन्हें भोजन परोस देते।दोपहर औऱ शाम को नित्य प्रति की यही भोजनचर्या थी। 


          हमारे प्रशिक्षक द्वय कभी - कभी दोपहर को भौगोलिक सर्वेक्षण कराने के लिए 6-7 शिक्षकों की टोलियां बना कर जंगल में ले जाते।तब हमें वहाँ के पेड़ ,पौधों और वनस्पतियों को औऱ करीब से देखने औऱ समझने का अवसर मिला।ऊँचे सेव वृक्षों पर जंगली सेव देखने का अवसर प्राप्त किया। अनदेखे, अनपहचाने इन पौधों की जानकारी कुछ जानकारों से ली गई। झाड़ियों में बिच्छू घास खड़ी थी ,जिसे भूल से भी छू लिया जाए तो बिच्छू के दंश जैसा कष्ट होता। यह भी ज्ञात हुआ कि उस ज़हरीली घास के पास पालक जैसी पत्ती की एक और घास भी मिलती है,जिसकी पत्ती को रगड़ देने से जहरीली घास का असर खत्म हो जाता है। सुनहरे खाद्य फंगस पौधे ,जो मशरूम की तरह होते हैं, कहीं कहीं झाड़ियों में नम स्थानों पर मिले। चीड़ के सैकड़ों फीट ऊँचे दरख्तों के बीच जाने पर पाया कि हवन सामग्री में प्रयोग किया जाने वाला छाड़ -छबीला उनके तनों पर उगकर चिपका हुआ है। यहीं नहीं समीपस्थ चट्टानों पर भी उसे देखा गया। यह छाड़ - छबीला ही वह तत्व है , जिसकी सुगंध सारे पर्वतीय वातावरण को महकाती रहती है। हल्द्वानी से बस द्वारा आगे बढ़ने पर यही महक सारे वातावरण को सुगंधातायित किये हुए थी, जिसका रहस्य अब आकर समझ में आया ।


           प्रशिक्षण अवधि के बीच एक दिन अल्मोड़ा के प्रसिद्ध देवालयों में देव -देवी दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ की प्रसिद्ध बाल -मिठाई का भी आनंद लिया । जाते -आते समय मार्ग में देखा कि सन्नाटे भरी सड़कों पर आदमी नाम की चीज नहीं है। हाँ ,जब कभी चलने वाली बसों के उन स्थानों पर जहां से वे सवारियां लेती हैं ,वहाँ कुछ लोग बस की प्रतीक्षा करते हुए अवश्य देखे गए। जंगल के बीच ये कुछ तिराहे -चौराहे थे ,जहां खड़ी होकर सवारियां बस में बैठती थीं। 


          रात्रि - भोजन के पश्चात 10 बजे तक कैम्प -फायर का आयोजन नित्य के कार्यक्रम का मुख्य अंग था। उस समय सभी लोग गीत, हास्य व्यंग्य, काव्य पाठ आदि से सबका मनोरंजन करते । औऱ पता नहीं चलता कि कब दस बज गए। लेकिन दस बजने पर भी सभी कब सोने वाले थे। उनके हँसी -मजाक , चुट्कुले का कार्यक्रम बिस्तर में रजाई के अंदर से ही चलता रहता औऱ तब तक चलता जब तक सब सो नहीं जाते। सुबह पाँच बजे से पुनः कार्यक्रम अपने नए रँग -रूप में सामने होता। सभी संतुष्ट, आनंदित औऱ प्रमुदित। इस प्रकार एक -एक कर प्रशिक्षण के दिन पूरे हो रहे थे। 


 🪴 शुभमस्तु !


 २५.०४.२०२१◆११.१५ 


आरोहणम मार्तण्डस्य ।


शनिवार, 24 अप्रैल 2021

 मेरी शीतलाखेत यात्रा 

 (भाग-1)

 [ संस्मरण ]

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

 ✍️ लेखक © 

 🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

           बात सन 1991 की है।उस समय मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बीसलपुर पीलीभीत में हिंदी विभाग में रीडर के पद पर सेवारत था।महाविद्यालय की रोबर स्काउट टीम का अधिकारी होने के कारण मुझे शीतलाखेत (अल्मोड़ा) में 'रोबर स्काउट लीडर' के प्रशिक्षण के लिए वहाँ जाना था। 1991 में लोकसभा/विधान सभा के चुनाव के कारण आचार- संहिता लगी हुई थी। अतः मुझे जिलाधिकारी पीलीभीत से अनुमति प्राप्त करने के बाद ही अपनी यात्रा प्रारंभ करनी थी।पीलीभीत जिलाधिकारी के कार्यालय में जाकर यथासमय अनुमति भी ले ली गई। अब मैं उक्त पर्वतीय यात्रा के लिए तैयार था।

           'रोबर स्काउट लीडर' (RSL)के उक्त प्रशिक्षण की अवधि दस दिन की थी। जो 1 जून से 10 जून 1991 तक होनी थी।पर्वतीय यात्रा का मेरा प्रथम अनुभव होने के कारण मैंने स्थानीय अन्य मित्रों से यह जानकारी भी कर ली थी कि वहाँ पर जून के महीने में कैसा मौसम रहता है।तदनुसार मैंने अपनी यूनिफ़ॉर्म के साथ - साथ गर्म कपड़े कम्बल आदि सामग्री सहेज कर साथ में ले ली औऱ यात्रा के लिए चल पड़ा। 

          पहले बीसलपुर से पीलीभीत आगे पीलीभीत से हल्द्वानी तक की यात्रा बस द्वारा पूरी की गई। आगे की यात्रा भी बस द्वारा ही पूरी की जानी थी। हल्द्वानी पर बस स्टैंड पर उतरने के बाद सीधे शीतलाखेत जाने वाली बस में बैठना था। बस में प्रवेश किया तो बस पूरी तरह भरी हुई थी। अंततः यात्रा तो करनी ही थी, इसीलिए उस बस से नहीं उतरा और इस प्रतीक्षा में कि कहीं कोई सीट मिल जाए, खड़ा हो गया। सामान को किसी तरह एक बर्थ के ऊपर की जाली पर ठूँस दिया ।मैंने अनुभव किया कि कोई भी पर्वतीय यात्री किसी मैदानी सवारी को अपने साथ एडजस्ट करने को तैयार नहीं था। बस आगे बढ़ी ,तो यह भी देखा कि रास्ते में यदि कोई स्थानीय सवारी आती तो उसे तुरंत स्वयं खिसककर अपने साथ बिठा लेते ,लेकिन मैं चूँकि मैदानी क्षेत्र से आया था इसलिए किसी के हृदय में मेरे प्रति कोई सद्भाव नहीं था। सब ऐसे घूर कर देख रहे थे, जैसे बाबरों के गाँव में ऊँट घुस आया हो। मेरी इस प्रथम पर्वतीय यात्रा में यह अनुभव हुआ कि वहाँ पर पर्वत मैदान का भेदभाव उनकी संकीर्णता को स्वतः उभार कर बाहर करते हुए मानो कह रहा हो कि हम पर्वत के लोग तुम मैदानियों से घृणा करते हैं।इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्र में देश का ही नहीं ,विदेश का व्यक्ति भी आ जाए तो उसका सहर्ष स्वागत किया जाता है। बस कुछ औऱ आगे बढ़ी , कुछ नई सवारियां चढ़ीं ,कुछ उतर भी गईं । तो मैंने बिना किसी की कृपा को प्राप्त किए हुए एक सीट पर अपनी जमीदारी कायम कर ही ली औऱ अधिकार पूर्वक सीटासीन हो गया। 

          जैसे -जैसे बस ऊँचाई की ओर बढ़ी,मैंने पाया कि सड़क के दोनों ओर चीड़ के ऊँचे -ऊँचे दरख़्त खड़े हुए हैं। सारा वातावरण जंगल की हरियाली से सुरम्य हो रहा है औऱ एक अलौकिक सुगंध व्याप्त हो रही है।संभवतः इसीलिए इसे देवभूमि कहा जाता है। पर देवभूमि का वासी इतना संकीर्ण ! अफ़सोस!! यह भाव मेरे मन के कोने - कोने में निरंतर खटकता रहा।क्या इसी तरह हम राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहते हैं? हमारे देश की अखण्डता का सपना क्या ऐसे ही नागरिकों से पूरा होने वाला है? 

           आगे बढ़ने पर मेरे नाक और कानों में ऐसा लगा कि वे बन्द होने लगे हैं ,मानो उनमें रुई भर दी गई हो।यह ऊँचाई पर वायु का दबाव कम होने का प्रभाव था। मेरे सिर के ऊपर बने स्थान में किसी व्यक्ति की दूध की टंकी रखी हुई थी ,जो बराबर छलकती हुई मुझे दुग्ध स्नान करा रही थी। आगे चलने पर बर्फ- सी शीतल बारिश ने मुझे औऱ अधिक ठंडा कर दिया। खिड़की से बारिश की तेज ठंडी बूँदें औऱ ऊपर से दुग्ध की वर्षा मेरा स्वागत कर रही थीं।यह सिलसिला शीतलाखेत पहुँचने तक नहीं रुका, नहीं थमा। 

           पर्वतीय मार्गों पर कभी बहुत गहरी ढलान आती तो कभी ऊँची चढ़ाई। सड़क के एक ओर गगनचुंबी ऊँची पर्वत श्रृंखलाएं तो दूसरी ओर सैकड़ों फीट नीची गहरी खाइयाँ।अनेक मोड़ों पर उतरती- चढ़ती बस लगभग 15 किमी. प्रति घण्टे की गति से आगे बढ़ती रही। यदि किसी मोड़ पर कोई बस आती हुई दिखाई देती तो ऊपर वाली बस को वहीं रोककर उसे आगे चले जाने का मार्ग देना प्रत्येक बस चालक की प्राथमिकता थी। सुनसान मार्गों पर चढ़ती-उतरती अपनी मंजिल तय करती बस पहाड़ी वादियों में चलती रही। हरे -भरे जंगलों से आबाद यह पर्वतीय क्षेत्र बहुत ही रमणीय औऱ शांत अनुभव हुआ। नीचे की ओर झाँकने पर हृदय में भय की कँपकँपी देती हुई लहर-सी दौड़ जाती।

            रास्ते में 'गरम पानी' नामक स्थान पर बस रुकी ,तो फ़ालसेव जैसे बैंजनी रंग के फलों का रसास्वादन भी किया। इन्हें वहाँ की भाषा में 'काफ़ल' कहा जाता है। ये फ़ल फेरी वालों द्वारा हरे - हरे पत्तों के दोनों में रखकर बेचे जा रहे थे।भुवाली,रानीखेत ,अल्मोड़ा होती हुई बस शाम लगभग 5 बजे शीतलाखेत हिल स्टेशन के प्रशिक्षण केंद्र पर पहुँच गई थी। जब बस से नीचे उतर कर आया तो निरंतर दूध औऱ बारिश के पानी से भीगने के कारण मेरे दाँत बंद हो गए थे।आवाज नहीं निकल पा रही थी। जिस किसी तरह वहाँ पहले से ही आए हुए मित्रों की मदद से सामान केंद्र में रखवाया गया औऱ लगभग पंद्रह मिनट बाद मैं बोल पाने की स्थिति में आ सका।इस प्रकार प्रशिक्षण का पहला दिन इस पर्वतीय यात्रा को समर्पित हुआ। इस समय मैं समुद्र तल से 1900 मीटर की ऊँचाई पर शीतलाखेत हिल - स्टेशन पर खड़ा था। 

 🪴 शुभमस्तु !

  २४.०४.२०२१◆१.३० पतनम मार्तण्डस्य ।

दबी राख की आग 🤼‍♂️ [ दोहा ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🤷‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

मज़ा  पड़ौसी  ले रहे, जब हो दो   में   रार।

अपनी -अपनी बोलते, सुनें न बात विचार।।


पूर्वाग्रह  से  ग्रसित  हो,जब होती तक़रार।

करें  व्यर्थ  बकवास ही,माने एक न  हार।।


आया  बीच -बचाव को, सुने न उसकी एक।

साबित  करने में लगे,वही श्रेष्ठ   है   नेक।।


बात बढ़ी तक़रार में,इधर - उधर की बात।

दोनों  ही  करने लगे,घात,घात पर  घात।।


मुद्दा  झोंका   भाड़ में,मिली रार  को ओट।

पक्षी - प्रतिपक्षी  जुटे, बढ़ा रहे  हैं  वोट।।


दबी  राख  में आग जो,मिली हवा  भरपूर।

लपटें  दे   जलने   लगी ,रार - नशे  में  चूर।।


तुच्छ  बात पर आग का,होता बम  विस्फोट।

पानी पाहन बन  गया, ढूँढ़ परस्पर खोट।।


वेला  तालाबंद  की, दिए द्वार घर   खोल।

सबके दर  खुलने लगे,किन्तु रहे अनबोल।।


सहन नहीं करना कभी,बोलें बढ़-बढ़ बोल।

जो  कम बोला शब्द भी,घट जाएगा मोल।


हार  न  मानें  रार में,बोलें बढ़ - बढ़  चार।

दर्शक  तो  सब  मौन  हैं,करते दो तक़रार।।


शांति  - भंग कर रात में, ठानी ऐसी    रार।

नींद  पड़ौसी  की खुली, माने एक न हार।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०४.२०२१ ◆ ९.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

पनिहारिन क्या करें कूप पर! 🌳 [ गीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

घाट  - घाट  का  पानी पीता,

फिर  भी  मानव  प्यासा  है।

कैसे  प्यास  बुझे   पौधों की,

प्यासा  ऋषि    दुर्वासा   है।।


दुष्यंतों   को   याद  न आती,

प्रेयसि   भूल  गए  पथ    में।

राजकाज     की    मर्यादाएँ,

टूट  रही   हैं जन   रथ   में।।

अँधियारा   छा  रहा  राह में,

शेष न  तनिक  उजासा   है।

घाट - घाट का  पानी  पीता,

फिर भी   मानव  प्यासा है।।


झोली  फैला शहर चल दिया,

गाँव   देख     मुस्काता    है।

जादू यहाँ   नहीं   चल  पाए,

तुझे   गाँव   कब  भाता है ??

गेहूँ,  सब्जी , घी , तेलों   को,

देता    गाँव      सुवासा    है।

घाट - घाट  का  पानी  पीता,

फिर भी   मानव  प्यासा  है।।


कोयल की  बोली  सुनने को,

जाना  है      अमराई       में।

पीली  सरसों  जहाँ महकती,

आना  उस      पुरवाई    में।।

गोबर के उपलों की समिधा,

गो  माता    से   आशा    है।

घाट  -  घाट का पानी पीता,

फिर भी मानव   प्यासा है।।


पनिहारिन क्या करें कूप पर,

सूख  गया   भू   का   पानी।

दोहन कर  सबमर्सीबल  से,

याद आ   रही   अब नानी।।

सूने -  सूने   घाट    पड़े  हैं,

चारों    ओर   निराशा   है।।

घाट - घाट  का  पानी पीता,

फिर भी  मानव   प्यासा है।।


जहरों   से   सिंचतीं हैं फसलें,

जहर   खा  रहे  खिला   रहे।

पानी में   भी  घोल जहर को,

पीते   सबको   पिला    रहे।।

सारा   देश   भाड़  में   जाए,

मन   में  यही    खुलासा  है।

घाट  - घाट का  पानी पीता,

फिर भी  मानव प्यासा  है।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०४.२०२१◆८.००

पतनम मार्तण्डस्य।

धर्मभीरु की लूट 🪘 [ दोहा ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

अपने- अपने कर्म का,बहुत बड़ा अभिमान।

फ़ल खा नर सुधरा नहीं, भरता ऊँची तान।।


भले - बुरे  के  भेद  की,है नर को  पहचान।

कौन  उसे  है  देखता,  कहीं नहीं  भगवान।।


झूठ,ग़बन, चोरी, हनन,मन में बुरे विचार।

सगे सखा नर के सभी,जीवन के आधार।।


लंबा  टीका भाल पर,तन पर चीवर पीत।

पर- नारी को  देखकर,बजता उर-संगीत।।


व्यास -पीठ पर बैठकर,पढ़ता कथा पुराण।

देखी बाला कामिनी, चले नयन के  बाण।।


महाभागवत  हो  गई,   नौटंकी  का  खेल।

हरमुनिया ढोलक बजी,चली नोट की रेल।।


नियम नहीं पालन करे,देता पर  - उपदेश।

तिलक छाप तन पर सजे,बढ़ा लिए हैं केश।


घर -  घर से  लाओ सभी,गेहूँ, चावल,दाल।

धन भी कन्यादान में,भागवतों का   हाल।।


बँधवा सिर पर रजत का,मुकुट महा विद्वान।

महिमा नित बतला रहा,करे मनुज धन दान।


सात दिवस बाँची कथा,चले लौट निज धाम।

लाद गठरियाँ  दान की,देखी छाँव न  घाम।।


धर्मभीरु  को  लूटकर,  बना और   धर्मांध।

'शुभम'कथावाचक चले, करके वर्ष -प्रबंध।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०४.२०२१◆५.००पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

भू माँ का ऋण 🌏 [अतुकान्तिका ] २२ अप्रैल विश्व पृथ्वी दिवस पर:




◆◆◆◆◆◆◆ ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌏 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

बीत गए  जब नौ मास,

लिया बाहर आकर तब श्वास,

किया जब भू  माँ पर विश्वास,

खिला जननी पितुवर का हास।


दे दिया जननि ने जन्म,

 किया  जन्मभूमि ने

महत  शुभ कर्म,

निज आँचल में 

धीरे से  उठा लिया,

आहत होने से शिशु को

 भू माँ  ने बचा लिया।


 भू माँ का खाकर अन्न,

देह पर वसन,

उदर में असन ,

विकसा नित तन मन,

बन मत नारी- नर 

इतना भी कृपण,

उसे कर नित उठ

प्रातः नमन,

करेगी भू माँ

तापों का शमन।


मानव हित

उपजाए अन्न ,दूध ,फल

करती माँ रक्षा प्रतिपल,

हजारों शाक,सब्जियां, फूल,

न उसको भूल,

धरती माँ का कण-कण

पावन धूल,

लोटकर बड़ा हुआ ,

रेंगा पिपीलिकावत,

लड़खड़ाया गिरता पड़ता

आगे बढ़ता,

मंजिल पर चढ़ता,

क्यों उसको भूला?


खोदे गड्ढे गहरे कूप,

बदलता रहा धरा के रूप,

बनाए घर आवास,

उगे पौधे हरित नव घास,

नहीं बोली चिल्लाई,

देखा उसका धीरज ?

मौन सहकर सब कुछ

नहीं दहलाई,

बन जा उस

भू माँ का सुपूत,

माँ की कृतज्ञता को

तू कैसे लेगा कूत !


सुलाती वही अंक में

 होता जब तू 

अंतिम निद्रा लीन,

पंच महाभूतों में

अणु - अणु  करती विकीर्ण,

यही वह है भू माँ,

जिसने पहली

बार 'शुभम' तव

आनन चूमा।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०४.२०२१◆ ३.४५पत नम मार्तण्डस्य।


मैं कपि वन का मुखिया होता🐒 [ बालगीत ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🐒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

मैं    कपि      वन   का   मुखिया    होता।

एक    न     कोई         दुखिया   होता।।


नर    - वानर      में       भेद   नहीं    है।

जो  उनमें       वह    सभी   यहीं    है।।

मैं   भी   दुख        में      नयन  भिगोता।

मैं   कपि     वन    का  मुखिया   होता।


शेर    नहीं      तरु    पर    चढ़   पाता।

धरती      पर      ही     दौड़ लगाता।।

उछल -    कूद  कर  द्रुम   पर सोता।

मैं   कपि      वन  का  मुखिया  होता।


शेर   न       बस्ती     में    जाता    है।

शर्माता   या    भय        खाता   है।।

बीज       एकता      के      मैं   बोता।

मैं    कपि  वन   का  मुखिया होता।।


चूहा    ,शेर    ,    हिरन     वन  हाथी।

होते     मेरे         सब      ही   साथी।।

लगता        नित्य     नदी     में   गोता।

मैं   कपि   वन  का     मुखिया   होता।।


दूर         समस्याएँ           मैं    करता।

दुख     आते    उनको      भी  हरता।।

सबके    बोझ     पीठ        पर   ढोता।

मैं    कपि     वन  का  मुखिया  होता।।


पाँच      साल     को     चुन कर   देखें।

करें     'शुभम'   मत         मीनें - मेखें।

मैं   न     कभी  अवसर   निज  खोता।

मैं   कपि    वन   का   मुखिया  होता।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०४.२०२१◆१०.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

जंगल में चुनाव करवाना 🐁 [ बालगीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

जंगल  में   चुनाव   करवाना।

सब  चूहों  ने मिलकर ठाना।।


जंगल में  बहुमत  है  अपना।

देख  रहे मूषक  जी  सपना।।

मूषक - पंचों   ने  यह  माना।

जंगल में  चुनाव   करवाना।।


बिल्ली   मौसी    हमें  डराती।

अवसर देख  हमें खा जाती।।

अब राजा चुनकर दिखलाना।

जंगल में   चुनाव  करवाना।।


सभी  यहाँ  पर  बने   शेर  हैं।

क्या हम  काँटे  लगे  बेर हैं ??

चाह   रहे  सब  रौब दिखाना।

जंगल में   चुनाव  करवाना।।


डर से  हम  घर  में  घुसते हैं।

घर   वाले  हमसे   रुषते  हैं।।

खाने  देते     एक    न  दाना।

जंगल में  चुनाव   करवाना।।


चूहामार       दवाई       लाते।

आटे में   मिलवा     मरवाते।।

कब गणेश का वाहन माना ?

जंगल में   चुनाव   करवाना।


बहुमत  अपना  हम  जीतेंगे।

नहीं बुरे   दिन  अब बीतेंगे।।

चूहे   को   प्रधान  बनवाना।

जंगल में  चुनाव  करवाना।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०४.२०२१◆९.०० आरोहणम मार्तण्डस्य।



बुधवार, 21 अप्रैल 2021

बसो मन मेरे,मेरे राम 🛕 [ गीत ]

  

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

बसो   मन    मेरे ,  मेरे   राम।

तुम्हीं हो राम तुम्हीं घनश्याम।।


तुम  ही  दाता तुम  ही  त्राता।

तुम प्रतिपालक भाग्यविधाता।।

राम   से  चलते   सारे   काम।

बसो  मन  मेरे  ,  मेरे    राम।।


नवमी चैत्र शुक्ल  तिथि आई।

कौशल्या - गृह  बजी बधाई।।

धन्य हो गया अयोध्या - धाम।

बसो  मन  मेरे ,  मेरे    राम।।


धरा के कण-कण में तव वास।

राम  से  चलती  है   हर श्वास।।

रात - दिन हर सुबहो हर शाम।

बसो    मन     मेरे ,  मेरे   राम।।


राम  ने   लंकेश्वर   को   मार।

किया  माँ  सीता का उद्धार।।

किया है प्रभु ने समर -विराम।

बसो   मन   मेरे ,  मेरे   राम।।


दया, करुणा  के सागर आप।

नाम   से  मिट जाते हैं  पाप।।

राम से  सम्भव  है  हर  काम।

बसो   मन  मेरे ,   मेरे  राम।।


अजामिल , गीध  उतारे  पार।

दिया केवट को प्रभु ने  तार।।

सकल सौंदर्य,शक्ति अभिराम।

बसों   मन   मेरे ,  मेरे   राम।।


आदि कवि ने जप उलटा नाम।

ब्रह्म-सा पाया पद अभिराम।।

'शुभम' की रहे भक्ति अविराम।

बसो   मन    मेरे ,  मेरे   राम।।


🪴 शुभमस्तु !


राम अविराम हैं! 🛕 [ मुक्तक ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

                     -1-

राम   का  नाम ही  तो  महा मंत्र   है,

नाम  जपने  को  मन में स्वतः तंत्र है,

राम  को  नित    उठ   नमन हम  करें,

राम   ही  शुभ    चलाते  तन तंत्र  हैं।


                       -2-

राम   आए    धरा   धन्य  ये  हो  गई,

राम  के  पद - परस  से पुण्यता  मई,

राम का नाम 'शुभम' नित्य जपता रहे,

राम  के  नाम   में   नित नव्यता  नई।


                        -3-

चैत्र  नवमी  को अवतरित हुए  राम हैं,

राम  से  भी   बड़ा  क्या  कोई नाम है?

नाम  उलटा  जपा  ब्रह्म-सा कवि हुआ,

राम   का   नाम   'शुभम' अविराम    है ।


                          -4-

अपने उर की  अयोध्या में बसा राम को,

कुछ घड़ी  तो अलग त्याग दे काम  को,

बिंदु त्रिकुटी  में प्रभु की छवि को  निरख,

राम जप  ले  'शुभम' तू  सुबह शाम  को।


                     -5-

राम  कारण जगत  के  वही कार्य हैं,

संसृति  के  लिए   राम अनिवार्य   हैं,

राम  को भूलता वह मनुज ही   नहीं,

मर्यादा    पुरुष     राम   औदार्य   हैं।


                        -6-

राम           ही           भाव्य        हैं,

राम          ही            काव्य        हैं,

शब्द, अक्षर,  छंदों   के  सागर   प्रभू,

युग श्रवण में 'शुभम'राम ही श्राव्य हैं।


                    -7-

जो  रमता   जगत    में   वही राम   है,

राम का   नाम  ही शुभ महत नाम  है,

राम  की   दृष्टि  से सृष्टि - सिंचन  सदा,

राम  सत  नाम  हैं  राम अभिराम  हैं।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०४.२०२१◆७.१५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

 तुम डाल-डाल हम मालामाल!🐒 

 [ व्यंग्य ]

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🐒 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ 

              अब धरती पर रहना अभिजात्य मानव का काम नहीं रह गया है।वह भूल गया है कि इस धरती माँ की गोद में ही उसने ये मानव यौनि धारण की है। वह ऊपर और ऊपर और उससे भी ऊपर उड़ना चाहता है। लगता है कि उसका धरती पर रहना उसकी दृष्टि में मानव का काम नहीं है। ये तो केवल और केवल कीड़े - मकोड़ों, पशु - पक्षियों के रहने की जगह भर है। उसे तो बस हवा में उड़ना और आकाश में रहना है।इसलिए उसे हवाई काम करना ही प्रिय है। 

              आज का 'प्रतियोगी युग ' उसे मानव शरीर मे ही मानव से इतर जीव बनाए दे रहा है। देखने पर तो वह मानव ही प्रतीत होता है ,किन्तु उसकी आंतरिक दृष्टि और भावना उसे कुछ अलग ही प्रकार से सोचने और बनने के लिए प्रेरित करती प्रतीत हो रही है। मानव ,हर अगले मानव का , चाहे वह उसका मित्र हो ,पड़ौसी हो , शत्रु हो ,रिश्तेदार हो ; प्रतिद्वंद्वी ही बनाने को उद्वेलित कर रही है। सात्विक प्रतिस्पर्धा से इतर वह तामसिक प्रतिद्वंद्वी ही बन गया है। उसे नीचा दिखाने के लिए कहीं भी वह कम नहीं रहना चाहता । यदि पड़ौसी का शगुन खराब करना हो ,तो भी वह अपनी नाक कटवाने के लिए सहर्ष तैयार रहता है।अपनी नाक कटती हो तो कट जाय ,पर उसका शगुन तो बिगड़े। यह 'उच्च मानसिकता' उसे कुछ भी करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है।उसे हर हाल में अपने को उससे श्रेष्ठतर सिद्ध करके जो रहना है। इस काम के लिए उसे कितने ही कुत्सित साधन अपनाने पड़ें , उसे सहज औऱ सहर्ष स्वीकार्य हैं। उसका एक ही परम लक्ष्य है अपने को उससे हर प्रकार ऊँचा सिद्ध करना। 

               उसे नहीं पता कि बुरे साधनों से पाई गई उपलब्धि बुरी ही होती है। जिसका फल घड़े को पूरी तरह भरने औऱ बीच चौराहे पर फूटने पर ही प्राप्त होता है औऱ उसे नंगी आँखों से सारा जमाना देखता है । फिर तो सब यही सोचते औऱ कहते हुए ही दिखाई देते हैं कि हम तो गुबरैला जी को बहुत बढ़िया औऱ विद्वान व्यक्ति समझते थे ,पर अब हमें अब अपनी समझदानी बदलनी ही पड़ेगी।

            दूसरा चाहे डाल- डाल पर कूदन - क्रिया करे , चाहे पात - पात पर लात खाए, मात खाए, पर हम हर हाल में माल खाएँ,माल बनाएं ,माल खूंदें, माल रौंदें, पर दूसरा डालों के जाल में ही भटकता रहे। माल-माल मेरा ,डाल - डाल तेरा। तेरा डाल पर बसेरा।हर तरह से लाभ हो मेरा। बस यही नीति औऱ नीयत , भले कोई कहे इसे बदनीयत , बस यही तो है उनकी सीरत । यहीं पर है उनका प्रयागराज तीरथ। उड़ने लगा है अब आसमान में अपना रथ। नेता-पुत्र भी टॉल -टैक्स नहीं चुकाता। उलटा - टॉल अधिकारी को धमकाता। उलटा चोर कोतवाल को डाँटता। साहित्य की किताब में एक और कहावत बाँटता।अपनी अभिजात्यता में सभी को कीट-पतंगा समझता।

             दूसरे को हरी -हरी डालों पर भटकाने के 'पवित्र उद्देश्य' से उसे दिग्भ्रमित करने से भी नहीं चूकता । वरन इसे वह अपना परम सौभाग्य समझता है कि यह सुअवसर उसे प्राप्त हुआ । यदि यह सुअवसर उसे न मिलता तो कैसे वह उसे भटकाने का श्रेय ले पाता।अपनी 'उच्च उपलब्धि' की नींव दूसरे के पतन के पटल पर जो रखी हुई है।किसी को उचित सलाह देना भी उसके लिए अपराध है।दूसरे का पतन उसकी प्रसन्नता का विशेष कारण है।जब हाथ की सभी अँगुलियां भी समान नहीं हैं ,तो आदमी आदमी में समानता की बात सोचना एक अज्ञानता पूर्ण बात होगी। सामने वाले को ऊँचा मत उठने दो , तभी तुम्हारे अधरों की स्मिति की लम्बाई चौड़ाई में अभिवृद्धि हो सकती है। यही मानव की प्रगति का सूचक है। यही कारण है कि पड़ौसी पड़ौसी का, मित्र मित्र का , सम्बन्धी सम्बन्धी का , यहाँ तक कि देश देश का प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष प्रतिद्वंद्वी बना हुआ है। कभी - कभी खुलकर शत्रु बना हुआ है। 

             आज दुनिया भले बारूद के ढेर पर खर्राटे ले रही हो। पर उस बारूद का भी बाप कोरोना उसे आँखें दिखाता हुआ मानो यही कह रहा है कि 'चुपचाप बैठा रह उस्ताद! तेरे औऱ मेरे काम करने का ढंग भले ही अलग -अलग हो ,पर उद्देश्य तो एक ही है: इस आदमी के अहंकार का भस्मीकरण, सो मैं किये दे रहा हूँ। तू आराम से बैठ।देख इसकी करनी की सजा मैं किस तरह से दे रहा हूँ कि आज सारे धरती लोक में त्राहि माम! त्राहि माम!! मची हुई है। जब तक आदमी अपने गरूर के महल से नीचे नहीं उतरेगा , मुझे ऐसा करना ही होगा। देखा न ! कैसे इसका ज्ञान, विज्ञान, धर्म , अध्यात्म, ज्योतिष, शास्त्र :- सब एक कौने में उठाकर धर दिए हैं मैंने । वह अब किसी अनहौनी की प्रत्याशा में हाथ पर हाथ रखे बैठा है कि अब कोई अवतार पुरुष आएगा, और मुझे छूमंतर कर देगा। तभी तो मैं कहता हूँ कि तुम डाल-डाल हम मालामाल।' 

  🪴 शुभमस्तु ! 

 २०.०४.२०२१◆१.५०पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌴


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

बहर:  2122  1212   22

काफ़िया: अर।

रदीफ़:  नहीं देखा।

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

आग     देखी       कहर    नहीं   देखा।

नाग     देखा      ज़हर      नहीं  देखा।।


बोल   ही   बोल    में   लुभाता     जो,

ख़्वाब  में    वह     बशर  नहीं  देखा।


एक    नेता      कभी    मसीहा  क्या ?   

झाम      बोता      इधर  नहीं  देखा?


घोष      गूँजा      उसे     सभी  मानें,

लोग     सुनते    असर    नहीं   देखा।


दोष      देना        भला    नहीं   होता,

पापियों    को    अमर      नहीं    देखा।


आ      चुके      जो     चले    गए  सारे,

आप     अपना      चँवर   नहीं   देखा।


झूठ       आता      कभी     बना   नेता ,

भीत      ऐसा      कहर     नहीं    देखा।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०४.२०२१◆४.३० पतनम मार्तण्डस्य।


यही कहती माँ धरती🌏 [ कुंडलिया ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

                       -1-

धरती के  बदहाल    का, कैसे करें    बखान।

त्राहि-त्राहि मानव करे,पीड़ित सकल जहान।

पीड़ित सकल जहान,उड़ी हर बदन   हवाई।

कोरोना  का  रोग,  नहीं  कुछ बनी   दवाई।।

'शुभम' बढ़  रहा  पाप,पाप से जनता मरती।

कैसे  मिले  निजात ,बोझ से मरती  धरती।।


                       -2-

धरती  पर  निज कर्म का, भोक्ता है इंसान।

दोष अन्य पर मढ़ रहा, चढ़ा नित्य परवान।।

चढ़ा  नित्य  परवान,बीज शूलों के     बोता।

है  फूलों  की आस,नहीं मिलने पर     रोता।।

अहंकार   में  चूर ,  बुद्धि  घूरे पर    चरती।

गढ़ा   खोदता रोज़,मौन मरती  माँ  धरती।।


                       -3-

धरती से दोहन किया, जल जीवन का प्राण।

मूढ़  बुद्धि  जाना नहीं,माँ करती   है त्राण।।

माँ  करती  है  त्राण, उसी में विष  बोता है।

अधिक उपज के लोभ,सुखी निद्रा सोता है।

'शुभम'सत्य है बात,तोंद नर की कब भरती?

विष का विष उत्पाद,दिया करती माँ धरती।।


                       -4-

धरती पर अब लौट आ,ए!जड़बुद्धि अजान।

बहुत हवा में उड़ लिया,हुआ न  कोई भान।।

हुआ न  कोई  भान, तामसी जीवन  जीता।

खाता  मूसक कीट,लगाता स्वयं     पलीता।।

'शुभम' न छोड़े साँप,गधे बिल्ली नित मरती।

चमगादड़ का सूप, पिया मरती माँ  धरती।।


                       -5-

धरती  धारण  कर  रही,मानव तेरा    भार।

सता - सता कर मारता,करता नित्य प्रहार।।

करता  नित्य प्रहार,मौन माँ धरती   सहती।

होते भीषण घाव,नहीं मुख से कुछ कहती।।

'शुभम'सुधर जाआज,छोड़ दे उसको परती।

पर मत बो विष शूल,यही कहती माँ धरती।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०४.२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।



सोमवार, 19 अप्रैल 2021

दुःखों में भगवान 🔔 [ गीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

दुःखों  में  भगवान   याद तुमको  आते   हैं।

करें नित्य प्रभुभक्ति तुम्हें हम समझाते   हैं।।


सुख में  भूला मनुज आज वह  इतराता है।

अपनी  करनी नहीं देखता बल   खाता  है।।

अहंकार में  फूल  लोग उड़ - उड़ जाते   हैं।

दुःखों  में भगवान  याद तुमको  आते   हैं।।


जिसने  भूला  राम  काम ही उसको   भाता।

रँगता अपना   वेश केश भी खूब   बढ़ाता।।

आडंबर की  भक्ति   मनुज ये दिखलाते   हैं।

दुःखों   में  भगवान याद तुमको  आते   हैं।।


लगा शीश पर तिलक किलकता इठलाता है।

मुँह से कहता राम छिपा छुरियाँ  लाता  है।।

स्वयं   बने  भगवान  भस्म को   बँटवाते  हैं।

दुःखों   में भगवान याद तुमको  आते    हैं।।


बढ़ता  पातक -भार  राम बनते  अवतारी।

कभी कृष्ण, वाराह कभी वामन तन धारी।।

बचा  भक्त  प्रह्लाद  सिंह नर बन  जाते  हैं।

दुःखों  में  भगवान याद तुमको  आते  हैं।।


रे  मानव! मतिअन्ध समझता नहीं   इशारा।

कोरोना का अस्त्र फेंककर प्रभु ने   मारा।।

जब  पड़ती  है मार मनुज तब घबराते   हैं।

दुःखों में  भगवान  याद तुमको आते   हैं ।।


जैसा बोता बीज  वही फल तरु पर आता।

पक जाता फ़ल पूर्ण वपन कर्ता ही खाता।।

भरता   पातक - पिंड  फूटता बिलखाते  हैं।

दुःखों  में  भगवान याद तुमको  आते  हैं।।


किया अगर अपराध सजा तो पानी होगी।

'शुभम' न होगी क्षमा बनेगा इंसाँ   रोगी।

प्रभु से  नहीं  अदृष्ट  कृपा  प्रभु बरसाते हैं।

दुःखों में  भगवान  याद तुमको  आते हैं।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०४.२०२१◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य।


कोई तो इसको समझाओ [ बालगीत ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

कोई  तो   इसको  समझाओ।

अपने घर को वापस जाओ।।


चीन  देश से आ जग  छाया।

तांडव भीषण नित्य मचाया।।

जाए फ़िर  से  चीन  बताओ।

कोई तो  इसको  समझाओ।।


पैर न हाथ  नहीं मुख काना।

करता बुरे काम नित नाना।।

रहो वुहान  वहीं  जा खाओ।

कोई तो  इसको समझाओ।।


रूप  बदलकर  आ जाता है।

छलिया  छ्द्म वेश  पाता है।।

कहें इसे अब  मत  इतराओ।

कोई तो  इसको समझाओ।।


अवसरवादी     हमें   डराता।

आदत से क्यों बाज न आता!

कोरोना झट चीन   सिधाओ।

कोई तो  इसको समझाओ।।


इच्छा शक्ति  बढ़ाएँ    क्षमता।

मानव को हितकारी शुभता।।

अपने को कमतर मत पाओ।

कोई तो इसको  समझाओ।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०४.२०२१◆११.१५आरोहणम मार्तण्डस्य।

रविवार, 18 अप्रैल 2021

लोकतंत्र का मखौल 🚨 [ दोहा -ग़ज़ल ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🚘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

प्रत्याशी   घर  बैठकर, मँगवाती  हैं   वोट।

पति,देवर नित जा रहे,रख पत्नी को ओट।।


जनता ने देखी नहीं, जिसकी सूरत  आज,

पति,प्रधान के खा रहे,चिलगोजा अखरोट।


ख़ुद प्रधान के नाम के,'दसखत'  करता नाथ,

मनमाने   दरबार   में, छाप  रहे     हैं   नोट।


जनपदअधिकारी करें,जब बैठक निज हाल

सीना  ताने    बैठते,  पति जी पहने   कोट।


पूछ  रहे  पतिदेव से, क्या तुम हो  परधान?

ममता जी तुमसे कहें,मत मुस्काओ होट?


परदे में परधान जी,बाहर 'पति  परधान',

चूल्हे  पर  बैठी  हुईं, बना  रही  हैं  रोट।


लोकतंत्र  का  देख लें , कैसा बना  मखौल,

नोट  कमाने  के लिए ,लगा रहे  हैं  चोट।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०४.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।


घूँघट में ' परधान ' [ दोहा - ग़ज़ल ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

पर धन पर 'पर धान' का, सजता है दरबार।

बालू  से   सड़कें   बना, होती राम   जुहार।।


मतमंगा  मत  माँगता,  छू जनता  के  पैर,

जीत नाचता पी सुरा, डलवा कर  गलहार।


दावत   मुर्गा माँस की,बोतल के   सँग नाच,

नियम  धरे हैं  ताक पर,नहीं शेष  आचार।।


कितने  पति परधान के,समझ न आए बात!

यह 'प्रधानपति 'हैं अगर,क्या हैं वे दो-चार?


धन ऊपर से जो मिले, उसका मालिक एक,

होता  बंदर  - बाँट  जब, बेचारा    लाचार।


पढ़ी  न अक्षर  एक  भी,घूँघट की    सरकार,

छपा  अँगूठा वाम कर,चलता पति - दरबार।


'शुभम'ग्राम-सरकार का,मायापति  परधान,

घूँघट  में  बैठी  सजी, डाल स्वर्ण   का  हार।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०४.२०२१◆४.१५पतनम मार्तण्डस्य।


ग़ज़ल 🌴

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

भूलों  का  पछतावा  कर  ले।

बात सीख की मन में धर ले।।


बोता  कीकर   बीज  रोज़  तू,

खारों से निज  दामन  भर ले।


करनी  का फ़ल  मिले ज़रूरी,

वैतरणी   के    पार   उतर ले।


अहंकार  सिर  पर सवार   है,

इसकी भी तो खोज खबर ले।


अपना   दोष  और  पर  टाले,

ये घर  छोड़   दूसरा   घर  ले।


पानी  में  नित   दूध  मिलाता,

अब पानी से ही पेट न भरले?


छलिया,रिश्वतखोर, चोर  नर,

घूरे पर चल  घास न   चर ले?


🪴 शुभमस्तु !


१८.०४.२०२१◆११.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌳🌳

  

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

आदमी की छाँव से बचने लगा  है आदमी।

आदमी को देखकर छिपने लगा है आदमी।।


आँख से दिखता नहीं महसूस भी होता नहीं,

क्या बला यों आग से तपने लगा है आदमी


मूँ दिखा पाने केलायक रह न पाया शख्स ये

चश्म दो अपने झुका झिपने लगा है आदमी।


हाथ धो पीछे पड़ा आतंक का डंडा लिए,

हाथनिज धोता हुआ कंपने लगा है आदमी।


झील सागर पर्वतों की लेश भी बाधा नहीं,

हहर  हाहाकार  में खपने लगा है  आदमी।


 यों कभी नज़रें झुकाए निज गरेबाँ झाँक ले,

आसन्न अपनी मौत से डरने लगा है आदमी।


'शुभं'अपनी गलतियाँ वह मानता तौहीन है,

सबक वह लेता नहीं मरने लगा है आदमी।


🪴 शुभमस्तु 


१८.०४.२०२१◆११.१५

आरोहणम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

न देश - भाव में पगे 🇮🇳 [ अनंग शेखर ]

 

विधान:१.चार चरण।

          २.दो चरण समतुकांत।

                ३.लघु गुरु की १६ आवृत्ति

 ४.१२ पर यति।

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

चलो चलें बढ़े चलें, सु -काज ही सदा फलें,

रुकें नहीं झुकें नहीं,निराश भाव क्यों जगें।

न राह ही कुराह हो,अमेल की न  चाह  हो,

कहें  सही सुनें सही,सभी कहीं  शुभं  लगे।।


पिता सदा सुपूज्य हों,सुमात भी सुसेव्य हों,

न मान भूमि पै  कहीं,यही यहाँ  शिवं सगे।

सुवेश  देह    धारते,  सुवेश मान      मारते।

विभा न प्यार  सी बही, न देश भाव में पगे।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०४.२०२१◆१२.१५पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

 लोटा - पुराण ' 🍃

 [ व्यंग्य ] 

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

 ✍️ लेखक © 

 🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

                    हम सभी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि लोटा तो लोटा ही है।यदि लोटे को परिभाषित किया जाए तो 'लोटा वही है जिसे हर दिशा में लोटने की सुविधा प्राप्त हो।' लोटा अपने रंग ,रूप ,आकार और प्रकार में अन्य भाण्डों से कुछ इतर और भिन्न ही होता है।परंतु एक समानता सभी लोटों में समान रूप से पाई जाती है,वह है उसके हर एक दिशा में लोट पाने और पुनः उसी रूप में जम जाने का गुण। 


          लोटे की विविध रूपिणी विशेषताओं का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो वह बहु आयामीय होता है।वह प्रायः गोल मटोल औऱ सदैव सुडौल ही होता है। उसका ऊपर का मुँह सदा खुला रहता है। उसमें नीचे कोई मुँह नहीं होता। क्योंकि यदि ऐसा होगा तो वह अपने भीतर जिस अपार क्षमता का धारक और वाहक होता है ,वह समाप्त ही हो जाएगी। इसलिए यह सिद्धांत सर्वमान्य औऱ सर्व स्वीकार्य है कि लोटे का मुँह सदा खुला रहता है। जब उसका मुँह सदैव खुला रहेगा तो यह भी स्वयं सिद्ध है कि उसमें कोई भी चीज कभी भी डाली जा सकती है। अर्थात वह रात -दिन,सुबह-शाम ,अँधेरे-उजाले कभी भी कुछ भी ग्रहण कर लेने की असीम क्षमता से युक्त होता है। 

    

          इस ढक्कन रहित लोटे की देह सदैव चिकनी रहती है।कब कहाँ फिसल जाए यह प्राकृतिक सुविधा उसे जन्म से ही प्राप्त है।वह अपने को इस प्रकार सजा - संवार कर रखता है कि कोई भी उस पर फिसले तो उसे कभी भी कोई आपत्ति नहीं है ,इंकार नहीं है।लोटे पर फिसलने वाला सदैव उसके मुँह के अंदर होता हुआ उसके असीम गहराई से युक्त उदर में समा जाता है। जब उदर की बात चली है ,तो यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी उचित प्रतीत होता है कि लोटे का उदर अनंत गहराइयों से युक्त एक अँधेरी गुफ़ा की तरह है ,जिसके समस्त रहस्यों का अभिज्ञान स्वयं लोटे को भी नहीं है।


           पहले ही कहा जा चुका है कि लोटा किसी भी दिशा में लुढ़क -पुढक सकता है ,इसीलिए वह 'लोटा'है। इस विशेष गुणवत्ता के लिए उसका बेपेंदी का होना ही चमत्कारिक गुण है। इसी चमत्कार के कारण वह 'लोटा ' नामधारी विशेष संज्ञा से अभिहित किया जाता है। लोटे की इसी गुण से प्रेरणा लेकर जो कुर्सियाँ चार -चार पाँव धारण करती थीं ,वे एक ही स्थान पर जमी किसी भी दिशा में घूमने लगीं।वे अपने चारों पाँवों को खो बैठीं। जीव विज्ञान का यह एक विशेष सिद्धांत है कि हम अपने जिस अंग का प्रयोग नहीं करते , शनैः शनैः विलुप्त हो जाता है। कहा गया है मानव पहले एक पशु है ,बाद में मनुष्य।उसके भी पशुवत एक पूंछ कमर के नीचे गाय, भैंस, बंदर ,गधा ,घोड़ा की तरह लटकती रहती थी।उसने आलस्यवश अथवा अप्रयोग वश काम में नहीं लिया,इसलिए कालांतर में वह विलुप्त ही हो गई। 


         आपकी जानकारी के लिए यहाँ पर यह बता देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि पहले जमाने के लोटे पेंदी वाले ही हुआ करते थे। लेकिन जब लोटे ने देखा कि इस पेंदी की कोई विशेष उपयोगिता नहीं है , इसलिए उसने उसका प्रयोग करना ही बन्द कर दिया। पहले के पेंदी वाले लोटों की अपनी एक अलग ही मान मर्यादा थी,जिसका अनुपालन करते हुए वे जब मनचाहा ,लुढ़कते पुढक़ते नहीं थे। एक जगह जमकर अपने कार्य का निष्पादन करते थे।पर अब क्या ? अब तो रातों रात वे कायाकल्प कर लेते हैं। शाम को उनमें पीला - पीला बेसन भरा था ,पर सुबह होते- होते उनमें देशी घी , मक्खन, रबड़ी और इसी प्रकार के मधुर सुस्वाद व्यंजन भरे दिखाई देते हैं।उनके इस रहस्य को थालियां ,कटोरियाँ क्या समझें ? हाँ , उनके समीपस्थ सेवक चमचे ,चमच्चियाँ अवश्य जान समझ लेते हैं। क्योंकि इस उलट -पुलट में उनका अहं योगदान भी रहता है। 


           जब 'लोटा - पुराण ' का पारायण किया ही जा रहा है ,तो यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि इन लोटों की अनेक श्रेणियाँ और प्रकार हैं। यद्यपि यह पृथक रूप से शोध का विषय है ,तथापि एल्युमिनियम ,लोहा , स्टील, पीतल ,ताँबा, चाँदी ,सोना आदि अनेक प्रकार के लोटे पाए जाते हैं।आज के युग में एल्युमिनियम और लोहे के लोटे का प्रचलन क्षीण हो गया है, इसलिए चमक -दमक वाले उच्च गुणवत्ताधारी लोटे ही प्रचलन में हैं। स्टील से कम तो शायद कोई लोटा मिलना ही दुर्लभ है। अपनी लोटा -यात्रा में ये स्टील, पीतल और ताँबे के लोटे चाँदी के लोटों में बदल जाते हैं। ये विज्ञान का नहीं ,ज्ञान का चमत्कार है।अन्यथा पीतल ,लोहा ,ताँबा को चाँदी में बदलते हुए नहीं देखा सुना गया। जब लोटा चाँदी के महिमावान स्तर को प्राप्त कर लेता है , तो उसका दर्जा सामान्य लोटे से असामान्य लोटे में आगणित किया जाता है।अब दचके-पिचके ,छेद दार लोटों का युग नहीं है।


            लोटों की निःशुल्क यात्रा पूरे देश में अनवरत चलती रहती है। लोटा जितना चलता है ,उतना ही बजता है। बजता अर्थात बोलता है, मुँह तो उसका पहले से ही खुला हुआ है ,इसलिए बिना ढक्कन ,बिना धक्का धकापेल बोलता है। जो वह बोलता है ,उसे वह ब्रह्मवाक्य मानता है। वस्तुतः लोटे की महिमा अपार है। भले ही यह संसार असार है , पर लोटे के लिए संसार ही सार है, क्योंकि संसार से ही उसका उद्धार है। इसलिए वह लोटे से थाली ,परात नहीं बनना चाहता । वह सदा जन्म जन्मांतर तक लोटे की ही योनि में जन्म धारण कर अपने जीवन को धन्य करना चाहता है। इस लोटा योनि में जो स्वर्गिक सुख है ,वह कटोरा , चमचा ,चम्मच ,थाली , परात की योनि में नहीं है।इससे वह स्व-उदर की सेवा सर्वाधिक कर पाने का सौभाग्य बटोर पाता है। 

      धन्य है ये 'लोटा- योनि' , जिससे लोटा  कभी उऋण नहीं होना चाहता। 

      इति 'लोटा - पुराणम' समाप्यते। 


 🪴 शुभमस्तु !


 १६.०४.२०२१●६.००पतनम मार्तण्डस्य।

ज़िंदगी की रेत पर 🛖 [ अतुकान्तिका ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

ज़िंदगी की तप्त रेत,

कहीं धूसर कहीं सेत,

कहीं ऊँची कहीं नीची,

कहीं उभरी कहीं तीख़ी,

न एकतार न एकसार,

ज़िंदगी का व्यापक प्रसार,

कभी चढ़ाव कभी उतार,

विविध प्रकार।


चलना ही है,

इन दो पैरों को 

जलना ही है,

छोड़ते हुए पदचिह्न,

आकार प्रकार भिन्न - भिन्न,

कभी प्रसन्न कभी मन खिन्न,

रुकना भी नहीं,

पीछे मुड़कर देखना भी नहीं,

चलते चले जाना

अनिश्चित भविष्य की ओर,

कब हो दिवस कब रात

कब साँझ कब हो भोर,

सब कुछ अनिश्चय के गर्भ,

बिना जाने कोई संदर्भ,

चलते चले जाना है,

बढ़ते चले जाना है!


क्या पता कब आएगा

हवा का एक झोंका,

मिटा देगा पदचिह्न तेरे,

अतीत बन जाएगा

एक मधुर याद,

आज से बेहतर,

सोचने के लिए  यही कि

आज से कल ही बेहतर था,

पर मैं समय को

पकड़ नहीं सकता,

उसे बाँध कर

 रख नहीं सकता,

उसे तो गुज़र ही जाना है,

हमें उसकी स्मृति में

बार-बार पछताना है,

काश ऐसा होता,

तो मेरा आज सुनहरा होता !


दूर से दिखाई दे रहे हैं

ऊँचे -ऊँचे रेत के टीले,

उनकी ओर बढ़ते हुए

आदमी आशावान हो

कुछ और सुकून से जी ले,

पर कहाँ ,

दिखाई दे गई एक मृगमरीचिका,

पहुँचे जो निकट

तो वहाँ जल ही नहीं था,

वही रेत ही रेत,

कहीं धूसर कहीं सेत,

रह गई प्यासी ज़िंदगी,

किसी ने की वन्दगी,

तो कोई करता रहा दरिंदगी,

नहीं हुआ कहीं कोई तृप्त,

बस रह गई है रेत

तप्त !तप्त!!और तप्त!!!


फिर भी 'शुभम' 

ज़िंदगी के मार्ग पर

बढ़ना निरंतर बढ़ना ही

ज़िंदगी है,

यही तो उस परमात्मा की

सच्ची वन्दगी है,

क्योंकि यह देह मन बुद्धि

उस कर्ता की 

अनमोल कृति है!

उसके प्रति हमें

नतमस्तक होना है,

उसका सदा - सदा

हमें कृतज्ञ रहना है,

कर्मरत रहना है।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०४.२०२१◆११.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...