मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

होली आई ! होली आई!! [बालगीत]

होली आई !  होली आई !!
बाल सखा टोली हरषाई।।

रँग से भरो  श्याम पिचकारी।
फेंको बहुत  दूर  रँग -धारी।।
घर आँगन हर गली -गली में।
गाँव नगर कस्बा नगली  में।।
फ़ागुन ने   खुशियाँ बरसाईं।
होली आई !   होली  आई !!

लाल   हरे   नीले  औ' पीले।
चटख रंग  हैं बहुत सजीले।।
गाल बाल गुलाल  लिपटाए।
खिलखिल करते हैं मुस्काए।।
हर चेहरे की  छवि मनभाई।
होली आई !    होली आई !!

अम्मा बना  रही हैं गुझिया।
पापड़ रसगुल्ले औ'भुजिया
चिप्स   काटते   मेरे   भैया।
दीदी   माँगे   पाँच  रुपैया।।
भर-भर थाली सजी मिठाई।
होली आई !    होली आई !!

होली में   हम     भूनें  बाली।
नाचें बजा- बजा कर ताली।।
देखो राधा    धूल   न  डालो।
रँग गुलाल कितना बरसा लो।
कीचड़ -माटी    नहीं  सुहाई।
होली आई !     होली  आई!!

आओ गले   मिलेंगे  हम तुम।
भेदभाव   की  दूरी हो  कम।।
लें आशीष बड़ों का सिर पर।
चरणों में अपना सिर धरकर।
छोटा -बड़ा न   कोई   भाई!
होली आई !     होली आई!!

💐शुभमस्तु !
✍रचियता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

होलिकावली [छन्द:दोहा]

ये पछुआ  बहने  लगी,
पाँच  साल  के   बाद।
गरमाहट   भरने  लगी,
जन गण मन की याद।।

होली  के रंग  चटख हैं,
या     धूसर     बदरंग।
जिनको भाता पंक है,
उन्हें   न     भावे  रंग।।

राजनीति   के खेल में,
धुआँ   उड़े    या धूल।
खेल-भावना   ही  रहे,
मत अपनों को भूल।।

पिचकारी  की धार की,
कितनी   लम्बी    मार।
पाँच वर्ष की प्रगति का,
लेखा   रखो    सँभार।।

कोई     रंग   लगा   रहा,
कोई    मले       गुलाल।
कोई    कीचड़  में  सना,
आगे   कौन      हवाल।।

कोई   माया   लिप्त  है,
कोई      मीलों        दूर।
माया  के  भवजाल से,
जो    बच   पाए   शूर।।

मनभावन फ़ागुन सजा,
फूले     फूल       हज़ार।
बूढ़े   पीपल   आम  भी,
हरिआए    शत   बार।।

आम - आम  बौरा  उठा,
आ   जो    गया    वसंत।
लचकमचक लिपटी लता
समझा    अपना    कंत।।

कोयल   गाती डाल पर,
सुने  न     कोई     गीत।
नेताजी   की   कार   में ,
सुनें    फ़िल्म    संगीत।।

चन्दन  और  अबीर  के ,
बीत   गए    दिन    रात।
कीचड़ -होली में मनुज ,
करे   न   रंग-बरसात ।।

पाँच  वर्ष    के बैर सब ,
करें      होलिका- दाह।
सद्भावी   चंदन    लगा,
कहे 'शुभम' वा -वाह!!

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

पुलवामायनी:2 [छन्द:दोहा]

बकरे   की  अम्मा बता,
छिपी  कहाँ किस माँद।
जीना तुझे  न शांति से,
करतीछिप   अपराध।।

शर्म  नहीं   आती   तुझे,
करता    जो     घुसपैठ।
रस्सी   सारी  जल  गई,
फिर  भी   बाकी   ऐंठ।।

तेरे     कौन    हिमायती,
जो     हैं      तेरे   साथ ।
आ   जाएं   जो   सामने ,
कर   लें   दो - दो  हाथ।।

भारत का   हिस्सा सदा,
नहीं    अलग    कश्मीर।
सबक तुझे सिखलायेंगे,
भारत   माँ   के    वीर ।।

मात्र  नाम  का   पाक है,
काम   सभी     नापाक।
टिका   रहे   ईमान   पर,
क्या कटती है नाक??

मर्यादा     सीखी    नहीं,
करता    है     बस  जंग।
दुनिया  में कायल हुआ,
*कायर    कूर     कुरंग।।

बच्चों   जैसी    हरकतें,
फेंको   उन   पर    संग।
नई पौध   विकृत    हुई,
कर   सेना    को   तंग।।

रक्षक  को   ही   मारना,
कैसा      क्रूर      जुनून।
किन्तु सदा करते क्षमा,
चाहें    तो      दें   भून।।

हित कर्ता दुश्मन  लगें,
ट्रेनर          खुदावतार।
ब्रेनवाश कर   झोंक दें,
डाह-अनल  के ज्वार।।

खाने   को   रोटी  नहीं ,
अणुबम    बाँधे    पेट।।
चूहा    बिल्ली  से कहे,
दूँगा     तुझको    मेट।।

सात लोक ऊपर सजीं,
हूरें       लगा बज़ार।
इंतज़ार   हैं    कर  रहीं,
धरती     बने   मज़ार।।

हूरों के   उस  लोक में ,
जगहें   लाख    हज़ार।
ख़ाली कब से कर रहीं,
तेरा   नित    इंतजार।।

बुरा वक़्त जब आ गया,
बुद्धि   न   करती काम।
जगह न तेरी  अब यहाँ,
जा     ऊपर     आराम।।

पुलवामा   की  आग में ,
जले   न     वीर  महान।
कुटिल बुद्धि  तेरी  मरी,
जिसमें    था    शैतान।।

कुलवामा  की आह से,
बचे   न     तू    नापाक।
गीदड़ -भभकी से कभी ,
घटे न  केहरि - धाक।।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप  'शुभम'

पुलवामायनी:1 [छन्द:चौपाई]

आग भयंकर पुलवामा की।
हर शहीद की कुलवामा की।।

दुःखी देश का हर नर नारी।
चिंतित आक्रोशित हैं भारी।।

बंद करेंगे   हुक्का-पानी ।
याद आयगी उसको नानी।।

लगते थे जो कितने भोले।
दूध पिया बनगए सपोले।।

आस्तीन के साँप बन गए।
डंस कर फ़न को उठा तन गए।।

नया नहीं इतिहास कहानी।
सभी जानते दुनिया जानी।।

बदला बदला बदला बदला।
यही बोल हर मुख से निकला।

कब तक तेरी खैर मनेगी!
दुनिया देखे और सुनेंगी।।
नीति न नियम पंच समझौता।
मान्य न तुझको कुछ भी होता।।

आँख खोलकर तूने देखा!
बनी हुई है  सीमा-रेखा।।

बार -बार उल्लंघन करता।
नहीं ख़ुदा से अपने डरता।।

कब तक क्षमा ढीठ को करना।
अब तो यही मारना -मरना।

निज रक्षा का धर्म यही है।
दुश्मन का संहार सही है।।

घर में घुस आता है कायर।
डायनामाइट बॉम्ब के फायर।।

आरपार अब होना ही है।
शूल शूल को बोना ही है।।

सिर ऊपर निकला है पानी।
कुटिल सियारनी है गुर्रानी।।

घुटने टेक कुबुद्धि कुचाली।
देख प्रथम निज हालत माली।।

मत इतरा मत ताल ठोंकना।
कुत्ते जैसा नहीं भोंकना।।

दाँत तोड़कर फेंकेंगे हम।
निकल जाएगा पल भर में दम।।

भारत माता के अवतारी।
नहीं रखेंगे कभी उधारी।।

उड़ जाएगा धुआँ गगन में।
अणुबम छोड़े नहीं भवन में।।

छोड़ कुराह राह पर आजा।
निकल न पाए तेरा जनाज़ा।।

बिलखेंगीं तेरी कुलवामा।
भूलेंगे न कभी पुलवामा।।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

जैसे को तैसा [गीतिका]

तुम भी सही  हम भी सही,
फिर द्वंद्व है किस बात का।
सोच में   अंतर   बहुत   है,
फासला  दिन -  रात  का।।
नवनीत  गोबर  पर   सजा,
रूप  असली      है   यही।
झूठ सच की   आड़   में है,
'शुभम'  ने   साँची   कही।।

धैर्य  को  कमज़ोर  समझे, 
भूल   यह      तेरी      बड़ी।
फ़ल न करनी का  मिलेगा?
आ    रही    है  वह   घड़ी।।
कच्ची     गोली      खेलना,
आता  नहीं हमको 'शुभम',
तू    चलाए     ईंट -  पत्थर ,
बरसायेंगे    बारूद     बम।। 

पलित  जो   छोटे   सपोले,
नाग  विषधर    बन    गए।
दूध   पीकर    मातृभू   का,
प्रसविनी   को   डंस   गए।।
मुँह   मुखौटों   में छिपाकर,
कब  तक   बचेंगे   साँप वे।
रगड़कर फ़न को शिला पर,
तोड़   दें   विष - दाँत    ये।।

आज भी  कहती  है नागिन,
एक     मौका      और   दो।
इन  शहीदों  को   भुलाकर,
आतंकियों  को  छोड़  दो।।
नाग     हैं     महबूब    तेरे,
तो  चली   जा     तू   वहाँ।
दाल तेरी अब   न   गलनी,
बिल    खुदा    तेरा  जहाँ।।

गीदड़ों   की भभकियाँ  ये,
बहुत    देखीं        शेर   ने।
बिल  में सेना को छिपाकर,
गीदड़ों       से          घेरने-
तू  चला  आता   है हम पर,
रौब       अपना       गाँठने।
ले के  टुकड़ा   पाक  पहले,
तू   चला    क्या     बाँटने??

💐शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

बोलते रहना ज़रूरी है! [व्यंग्य]

   राजकीय सेवा से निवृत्त अधिकारी या कर्मचारी को प्रतिमाह पेंशन प्राप्त करने के लिए वर्ष में एक बार नवम्बर माह में एक प्रमाणपत्र कोषागार में प्रस्तुत करना होता है, जो जीवन प्रमाण पत्र कहलाता है। इससे सिद्ध होता है कि आप आज की तारीख में जीवित हो। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इस वर्ष तो आप जीवित हैं, लेकिन क्या पिछले वर्ष भी आप जीवित थे या नहीं, इसका उनके अभिलेखों में उल्लेख नहीं मिल रहा है। क्योंकि आपका पिछले वर्ष का जीवन प्रमाणपत्र ही नहीं मिल रहा है । इसलिए क्यों न पिछली मिली पेंशन की आपसे रिकवरी करा ली जाए?
   ये तो हुई राजकीय सेवा की बात। राज से ही जुड़ी हुई एक नीति की बात भी लगे हाथों कर ही ली जाए।उसी राज की नीति से जुड़े हुए कुछ बन्दों की बात है। इनका बराबर कुछ न कुछ बोलते रहना ज़रूरी है। क्योंकि अगर ये नहीं बोलेंगे तो हो सकता है कहीं देशवासी उन्हें दिवंगत न समझ बैठें। और इस राज की नीति में तो कोई दिवंगत तो क्या रिटायर भी नहीं होना चाहता ! पेंशन तो विधायक, सांसद या मंत्री बनते ही खरी सोने की बन जाती है। काश ! ईश्वर के यहाँ कोई अपवाद होता कि जो राजनेता सो पा जाएगा अमरता। पर अभी तक ऐसा हो नहीं पाया। राजनेता न मरना चाहता है न पद निवृत्त ही होना चाहता है। बस उसे कुछ न कुछ बोलकर यह अवश्य प्रदर्शित करते रहना चाहता है कि अभी वह मर नहीं गया है। इसलिए वह अपने मुख कमल से ऐसे बयान बिना पूछे ,बिना माँगे, बिना प्रसंग के, सदुपदेशक की तरह देता ही रहता है। और कुछ नहीं तो किसी के कुर्ते को ही खींचने में अपनी राज नेताई की बांग लगा डालता है।
   अखबारों , टीवी चैनलों और डिजिटल मीडिया में सुर्खियों में रहना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। ये सिद्ध करता है कि वह अभी भी है। उसका निरन्तर सकारात्मक या नकारात्मक बोलना उसकी जिजीविषा का मजबूत प्रमाण है। वह राजनेता ही क्या जो हाई लाइट न रहे। कभी कभी तो राजनेताओं के बयानों को पढ़ देखकर हँसी आती है। कभी उनकी बुद्धि पर तरस खाने को जी कुछ -कुछ करने लगता है। पर इससे उनकी सेहत पर क्या फ़र्क पड़ता है। क्योंकि वह बहरा भी होता है। केवल अपनी सुनाना, दूसरे की न सुनना :ये राजनेताओं की विशेष प्रवृति है। यदि ऐसा न हो तो वह बेचारा किस किस की सुने, कब सुने, औऱ क्या उत्तर दे? देश की समस्याएं तो कभी भी खत्म होने वाली हैं नहीं! पर वह ये नहीं जानता कि समस्याएं हैं , इसीलिए वह है। समस्याएं नहीं तो राजनेता की ज़रूरत ही क्या? इसलिए कुछ राजनेता समस्याएं पैदा करने में ही संलग्न रहते हैं।क्योंकि समस्या नहीं ,तो नेता नहीं। इसलिए जहां जितनी समस्या वहाँ उतने अधिक नेता।जितने अधिक नेता, उतने अधिक बोल। जितने अधिक बोल उतने अधिक झोल, मोलतोल। पर नेताजी का बोलते रहना ज़रूरी है। क्या बोलेंगे या क्या बोलते हैं , आज का, कल का, परसों का, वर्षों पहले का कोई भी अख़बार उठा लो, मिल जाएगा कि क्या क्या बोलते हैं। पर इतना तो मानना ही पड़ेगा नेताजी का लगातार बोलना उनकी जिंदादिली, उनकी जिंदगी की निशानी है। यही तो उनका जीवन प्रमाण पत्र है।

शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
 डॉ. भगवत स्वरूप'शुभम'

रोटियाँ सेंकने का मौसम [व्यंग्य]

   हर काम का एक मौसम होता है। जैसे स्वेटर बुनने का मौसम, मूंगफलियां खाने का मौसम, रजाइयां ओढ़ने का मौसम, रजाइयां हटाने का मौसम, अपनी दाल गलाने का मौसम, ,कीचड़ उछालने का मौसम आदि आदि। इसी प्रकार से अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने का भी अपना एक सुहावना मौसम होता है। जो मौसम की नज़ाकत को भाँप लेते हैं, वे 'बुध्दिमान' लोग कहलाते हैं। इसलिए मौसम को ज़रूर भाँपते रहना चाहिए। यही सयाने लोगों का
काम होता है। और आपको यह अच्छी तरह से विदित ही है कि इस देश में सयाने लोगों की कोई कमी नहीं है।हर शहर, हर गली, हर विधान सभा और देश भर में सयाने लोगों को एल. ई. डी. लेकर ढूँढने  निकलो तो एक नहीं, अनेक मिल जाएंगे।
   अपनी रोटियाँ सेंकने वाले लोगों की मौक़े की नज़ाकत क्या है। ऐसे समय में हमें क्या और कहाँ बोलना चाहिए!ये सोचने -विचारने की तो ज़रूरत ही नहीं समझी जाती। अरे भई! उनका काम तो महज़ अपनी गरम-गरम रोटियाँ जो सेंकना है, कोई मरे या जिए, कोई बिलखे या आँसू के घूँट पिए, फटा हुआ हो या सीए हुए-इन्हें तो बस अपनी रोटियाँ सेंकनी। जो जितने ऊँचे ओहदे पर बैठा हो, वह रोटियाँ सेंकने में उतना ही अधिक उस्ताद। यहाँ उस्तादों की कमी नहीं। आप कहेंगे कि एक आध उस्ताद का नाम भी गिना दीजिए। तो भाई ! बस यही काम मत कराओ। क्योंकि यहाँ आदमी भले अंधे-बहरे हों, पर दीवारों के भी कान और मुँह होते हैं। यहाँ की दीवारें सुनती भी हैं और बाकायदे बोलती भी हैं। जब सुनेंगीं तभी तो बोलेंगीं।
   इन अपनी -अपनी रोटी सेंकनहारों को देश तो दिखाई देता ही नहीं। बस ऊँची वाली कुर्सी ही दिखाई पड़ती है। किसी तरह वह हथिया ली जाए, बस जो सामने वाले ने पांच साल में किया है, वह हम एक ही साल में निपटा लें।देश का विकास तो गौड़ बात है। ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है जो अकरणीय है, वह किया जाए। उस अकरणीय के लिए ही रोटियाँ सेंक -सेंक कर खाई जाती हैं।
   अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने की एक 'पवित्र' परम्परा ही चल रही है। जैसे होली में कीचड़ उछालने की परंपरा के अंतर्गत कोई बुरा मानें तो कैसे? क्योंकि' बुरा न मानो होली है।' पहले इस देश में वसंत यानी फाल्गुन चैत्र में ही होली खेली जाती थी। लेकिन देश के नेताओं के लिए अब तो बारहों मास वसन्त है। वर्ष भर होली खेलते हैं,वर्ष भर कीचड़-फेंक-प्रतियोगिता समारोह का आयोजन चलता रहता है। जो कोई जितनी कीचड़ दूसरों पर फेंक सकता है, वही उसमें विजयी घोषित किया जाता है। और ये भी आप अच्छी तरह जानते होंगे कि इस समय पंच वर्षीय वसंत-समारोह के आयोजन की तैयारियाँ बड़े जोर -शोर से चल रही हैं। दूसरों को कीचड़ से आपादमस्तक सानने के लिए कीचड़ आयातित भी किया जा रहा है। बस सामने वाला ऐसा हो जाए कि चेहरा पहचानने में भी न आए और देखने वाले सराहना भरे स्वर में कह उठें कि वाह! क्या कीचड़ उछाली है ! क्या होली खेली है! ये कीचड़-उछाल पंच वर्षीय समारोह बड़े -बड़े भाग्यशालियों को ही मिल पाता है। अपनी -अपनी रोटी सेंको और कीचड़ -होली का आनन्द लो। जो आनन्द गुझिया पापड़ में नहीं, वह इन कड़कदार रोटियों में मिल जाता है। जो परमानंद की प्राप्ति अबीर, चंदन और और गुलाल में संभव नहीं, वह दहकती, महकती,चहकती, लहकती, फुदकती, कुदकती कीचड़ में मिल जाता है। कीचड़ की महक सारे वातावरण को व्याप्त करती हुई सकल दिगदिगन्त में छा जाती है। इस समय पुलवामा की आग में रोटियाँ सेकने का अवसर मिला है, तो कोई क्यों पीछे रहे। जब आग ठंडी ही हो जाएगी तो ये सुनहरा अवसर बार -बार मिल सके, इसका क्या भरोसा? इसलिए :
सेंक  सको तो सेंक लो,
रोटी     गरमा      गरम।
सेंक  न पाया जो अभी,
उसके    फूटे    करम।।
उसके     फूटे     करम,
बाद  में मत पछताना।
भर   लो     अपने   पेट,
गरम   रोटी  ही खाना।।
बार - बार   आते  नहीं ,
ऐसे     अवसर     नेक।
अवसर आया चूक मत,
गरम    रोटियाँ    सेंक।।

💐शुभमस्तु !
✍लेखक ©
🏹 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

आदमी हैं हम भी! [अतुकान्तिका]

आदमी हैं हम भी!
पर आदमी समझा नहीं जाता
वही हाड़ - माँस है,
आती और जाती हुई
तुम्हारी ही तरह साँस है,
फिर भी हमारे नाम से
आती आदमी को बास है,
हमारी धमनियों में भी
बहता वही रक्त है,
फिर आदमी समाज का
हमसे क्यों विरक्त है?


हमारा भी घर है 
परिवार है,
तुम्हारी तरह 
हमारा भी संसार है,
रिश्ते और नाते हैं,
यथासंभव  हम 
उन्हें निभाते हैं,
पर तुम्हें हम तो
एकदम नहीं भाते हैं,
हमारे नाममात्र से
हमारी शक्ल -सूरत से
लोग डरजाते हैं, 
शंका से घिर जाते हैं,
कोई भी क्यों हमें
ठीक से समझ नहीं पाता,
आदमी हैं हम भी
पर आदमी समझा
 नहीं जाता।

हमारी वर्दी के नीचे भी
एक दिल धड़कता है,
और लोग कहते हैं
कि तू बहुत अकड़ता है!
हमारी भी अपनी
एक निर्धारित ड्यूटी है,
उस कठोर ड्यूटी की
अपनी ही अलग ब्यूटी है,
हमारे भी हैं कुछ
बन्धन अनुबन्धन,
जिन्हें कीचड़ कहो
या कह लो चन्दन,
कभी सीधी नज़र से
हमें देखा नहीं जाता,
देखकर हमारी वर्दी
चोर डाकू भी सहम जाता,
आदमी हैं हम भी !
पर आदमी समझा
 नहीं जाता।

हमारे काम को
किसने समझा है , जाना है,
सभी ने हमें दोयम दर्जे का
इंसान समझा है, माना है,
सड़क-दुर्घटना में
इधर -उधर बिखरे हुए 
रक्त -माँस को,
आग से जली 
पंखे से लटक रही लाश को,
किसने उठाया है 
अपने इन्हीं हाथों से ,
तुम्हें तो फ़ुर्सत नहीं 
व्यर्थ की बातों से,
है किसी में इतना साहस,
कि छू भी सके 
दूर है उतना उसको,
जीते जी करते थे
प्यार दुलार लाड़ भी जिसको,
क्या उठा सकेंगे
स्वजन के भंग अंगों को,
इन्हीं हाथों से 
हमें भी खानी है रोटी,
जिनसे उठानी पड़ती है
आदमी की हमें बोटी,
वहाँ हर आदमी का 
मर्म कहाँ चला जाता,
हमें हमारे ही
हाथों  छला जाता,
आदमी हैं हम भी!
पर आदमी समझा 
नहीं जाता।

बैठ कर चौके में चौपाल पर
हम पर चुटकियाँ कसना,
आसान है तुम्हारे लिए
हम पर हँसना,
रातों -रात खड़े-खड़े
एक पैर पर तपस्या करते,
दो घड़ी विश्राम करने
एक स्टूल को तरसते,
किसी ने पूछा है कभी
कि तुम जीते-मरते ,
तुम्हें भी याद करते 
कभी  घर के,
कब चले जाना होगा
हमें अपनी ड्यूटी पर,
छोड़ देना होगा 
खाट टूटी क्वार्टर,
चैन की नींद सुलाकर तुम्हें
अँधेरी सडकों गलियों में,
खोए हुए होंगे तुम तो
अपनी रंगरलियों में,
सुना ही होगा 
रात के सन्नाटे में 
खटकता डंडा,
कोई नहीं है इतना
बहरा अंधा,
हमारी वेदना को
क्यों कोई समझ नहीं पाता,
आदमी हैं हम भी!
पर आदमी समझा 
 नहीं जाता।

पत्नी बीमार है 
बच्चे को चोट आई है,
नहीं सुनता अधिकारी हमारी
नहीं छुट्टी मिल पाई है,
इमरजेंसी है
कभी कोई इलेक्शन है,
आ रहे हैं कभी मन्त्री जी
कभी ईद होली है फंक्शन है,
बुलावा हमारा ही 
सबसे पहले होता ,
हमारी भी मजबूरी को
कोई काश ! समझा होता ?
साले की लड़की की
शादी है,
पर नहीं जाओगे,
चले भी जाओ 
तो सुबह तक लौट आओगे?
 न विवाह न मुंडन 
न कोई दीवाली होली,
अपनी तो लगती है
चौराहे पर ही चन्दन रोली,
लोग करते हैं मज़े से
रस ले लेकर के ठिठोली,
पर जीवन के आनन्द से
खाली सदा अपनी झोली,
पुलिस वालों को कोई
भी समझ नहीं पाता,
आदमी हैं हम भी!
पर आदमी समझा
 नहीं जाता।।

शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

वे शहीद नहीं तो क्या हैं ? [अतुकांतिका]

राष्ट्र की रक्षा का जिसने
पढ़ लिया है पाठ,
कर्तव्य की धरती पर
जिसके चरण ऊँचे हाथ,
कर दिया जिसने सभी
अपने सुखों का त्याग,
लगने नहीं  दिया कभी भी
माँ के भाल पर भी दाग़,
देश -हित अहर्निश समर्पित
माँ के चरणों में
कर दिए हैं शीश अर्पित,
वे शहीद नहीं 
तो क्या हैं?

एक ही जज़्बा 
जूनून बस एक ही,
जोश से भरा हुआ
लबालब जिसका हृदय,
देश! देश!! और देश!!!
न घर न पत्नी न माँ-बाप,
दुधमुँहे नन्हों के 
स्नेह का ताप,
सीमा का प्रहरी 
आस्था गहरी,
मार दो दुश्मन को
या मर जाओ
देश के लिए 
देशवासियों के लिए
हमारे लिए 
तुम्हारे लिए,
वे शहीद नहीं
तो क्या हैं?

ये मृत्यु नहीं
वीरगति है,
पुलवामा के अमर
 शहीदों की
उनका इतिहास
समय के पटल पर 
लिखा जाएगा 
स्वर्णाक्षरों में,
नहीं की जाएगी
गणना उनकी
छ्द्मी शोषक 
रक्तचूषक मच्छरों में,
लजाया नहीं जिसने
जननी के आँचल का दूध
कर्तव्य की बलिवेदी पर
चढ़ गए वे पूत,
वे शहीद नहीं
तो क्या हैं?

मत करो सियासत 
न सेंको रोटियाँ अपनी,
वोट और सत्ता के लिए
बन्द करो तकरार सभी,
भेजकर देखो सीमा पर
किसी अपने 
जिगर के टुकड़े को
तभी जान पाओगे
कुलवामाओं के दुखड़े को,
और कह उठोगे
वे शहीद नहीं 
तो क्या हैं?

💐शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
 डॉ.भगवत स्वरूप'शुभम'

बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

भारत की हुंकार [कुण्डलिया]

सेना   की  सामर्थ्य का,
कठिन   परीक्षा  - दौर।
खौल रहा है  खून अब,
गले  न    जाए    कौर।।
गले  न    जाए     कौर,
न खोना   धैर्य  हमारा।
सोच - समझ  पग  बढ़ें,
शक्ति का हमें  सहारा।।
एक ओर   दुःख  गहन,
देश   की   नैया   खेना।
शान्ति   नहीं     विश्राम,
जूझती    भारत  सेना।।

खाते   हैं   इस  देश का,
गाते     उनके       गीत ।
हैं  कृतघ्न  वे नारि -नर,
कभी  न  सच्चे   मीत।।
कभी  न   सच्चे    मीत,
जन्म  लेते    मर  जाते।
क्रिकेट    में   हो    हार,
पाक हित खुशी मनाते।
दिल  के   बीच   दिवार,
खड़ी  कर पत्थर  ढाते।
सेना का  अपमान करें,
फिर   मुंह   की  खाते।।

भारत    की    हुंकार  से,
काँपा          पाकिस्तान।
ध्वज   ऊँचा  फहराएगा,
अपना          हिंदुस्तान।।
आपना          हिंदुस्तान,
जंग    छेड़ता   नहीं   है।
छेड़े         कोई       जंग,
उसे   छोड़ता   नहीं   है।।
अब  सुबूत क्या  माँगता,
करें हम  तुझको  गारत।
सोच -  समझ    इमरान,
नहीं कम ताकत भारत।।

लात   भूत  कब  मानते ,
समझाने      पर    बात।
छिप-छिपकर  घोंपे छुरी
करें    पीठ    पर   घात।।
करें     पीठ   पर    घात ,
सबक  सिखलाना ही है।
कामरान      तो     गया ,
लक्ष्य  इमरान  सही है।।
चैन न  हमको   आयगा,
दिन  हो      चाहे    रात।
भूल   जाएगा    हेकड़ी,
पड़े   कमर  पर  लात।।

बोली  से  अब  बात के,
रहे    न   वे   दिन -रात।
गोली  बम  बारूद    से,
होनी    है   अब   बात।।
होनी   है     अब   बात,
न रण   से   मुँह मोड़ेंगे।
खड़े    हो     गए    शेर,
दाँत गिन-गिन  तोड़ेंगे।।
नहीं   गाँठ    में    दाम,
पाक  फैलाता   झोली।
बहुत   साल     से सुनी,
झूठ  की  भाषा-बोली।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

कुलवामाएँ बिलख रही हैं [राष्ट्रभक्ति गीत]

कुलवामाएँ   बिलख  रही हैं
पुलवामा    में     जा    सोए।
सुधि ले   लेते  अपनी माँ की
आँसू      जार - जार    रोए।।

लाज रखी माँ के आँचल की
देह    देशहित   होम  किया।
अमर शहीदों  की कतार  में
नाम लिखाया  सोम किया।।
पता नहीं था इतना   हमको
नहीं  लौट    घर    आओगे।
तुम्हें  देख लेती   मैं जी भर
अब   शहीद   कहलाओगे।।
कौन घड़ी   थी    मेरे बच्चे
जब तुम जननि कोख़ बोए।
कुलवामाएँ बिलख ....

आँसू   रुकते    नहीं नयन से
तेरी       दुल्हन      रोती   है।
दिवस रात भर पड़ी अधमरी
धरा   अश्रु    से   धोती   है।।
बच्चे  लिपट-लिपट कर पूछें
पापाजी      कब      आएँगे।
तोप  टैंक   बंदूक   खिलौने
देकर     हमें     खिलायेंगे।।
गुमसुम पिता   तुम्हारे  बेटे!
चिंतामग्न    कहाँ      खोए?
कुलवामाएँ  बिलख ....

बहन    तुम्हारी   पूछ  रही  है
किसको    राखी       बाँधूँगी!
भैयादूज   करूँगी    किसकी
मनोकामना           साधूगी!! 
अब मैं   किसको तंग करूँगी
माँगूँगी        उपहारों       को।
अँगुली पकड़ चलूँगी किसकी
देखूँगी   क्या    तारों    को??
आँसू  के  झरने    बहते   हैं
मुन्नी    के    नयनों -  कोए।।
कुलवामाएँ बिलख....

गली -  मोहल्ले के सब वासी
कर - कर   याद   दुःखी होते।
हँसमुख मिलनसारिता की सुधि
करते   सजल   नयन   रोते।।
भाभी बिलख बिलख कर बोली
किससे    होली       खेलेंगे?
देवर जी  कह   गए   हमारे
गुझिया   पापड़   भी लेंगे।।
महीना भर ही शेष रहा था
सब   ही   बाट   रहे  जोए।
कुलवामाएँ बिलख ....

हमें    गर्व है    तुम  पर बेटे
जन्मभूमि  का  हित साधा।
राष्ट्र -त्राण में प्राण होम कर
दुःख कर   दिया  है आधा।।
वीरप्रसू     कहलाऊँगी   मैं
धन्य   कोख़    मेरी  तुमसे।
बिना  तुम्हारे   जीवन कैसा
जिया  नहीं    जाता  हमसे।।
दायित्वों के   वृहत  कर्म से
शुभम भारती-दृग धोए।
कुलवामाएँ बिलख ....    ।।

शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

बाल -प्रतिज्ञा [बाल गीत]

 हम भारत के बाल वीर हैं
इसकी शान   न  जाने देंगे।
खट्टे दाँत   करें  दुश्मन  के 
नज़र न इधर   उठाने देंगे।।

आनमान पर जीना सीखा
आनमान पर  मर  जायेंगे।
पीठ दिखाकर युद्धभूमि से
नहीं  लौटकर घर जाएँगे।।
दूध पिया है  जननी माँ का
उसका कर्ज़ अदा करना है।
माँ के आँचल की रक्षा का
पावन फ़र्ज़ अदा करना है।।
मातृभूमि की रक्षा के हित
झंडा नहीं   झुकाने   देंगे।
हम भारत के ....

चन्दन है  भारत   की   माटी
लगा तिलक माथे पर अपने।
सीमा पर प्रहरी सैनिक बन
जाएँगे हम  हिम् पर तपने।।
ले आशीष पिता- माता का
त्राण - यज्ञ  पूरा करना  है।
प्राणों की समिधा ले कर में
जोश हवाओं में भरना है।।
दुश्मन के काले बादल की
घटा नहीं   हम छाने  देंगे।
हम भारत के ....

बर्फ़ीली आँधियाँ   चलें  या
तूफ़ां   झंझावात   रातदिन।
जज़्बा जोश जुनूँ का सागर
लहराएगा उर में छिन-छिन।।
सुख  की  नींद   नहीं सोयेंगे 
देश-त्राण   ही   धर्म  हमारा।
झुलस न पाए माँ का आँचल
एकमात्र  ये   कर्म    हमारा।।
हम अखण्ड  भारत के बच्चे
टुकड़े   नहीं    बनाने    देंगे।
हम  भारत के....

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

पुलवामा की आग [दोहे]

पुलवामा  के   रक्त को,
भुला   न    पाए   देश।
लेगा  वह प्रतिशोध भी,
सुन  ले  कटु  सन्देश।।

खूँ  का  बदला  खून है,
गूँज  रहा     हर   ओर।
ज्वाला  भड़की देश में,
नहिं  बचाव  का  ठौर।।

गीदड़  निकला माँद से,
ओढ़   शेर   की  खाल।
धोखे  की  टटिया लगा,
ठोक    रहा   है   ताल।।

कब तक खैर मनायगी,
बकरे      तेरी      मात।
लड़ना  है  तो इधर आ,
छिपकर  करता  घात??

फन कुचलें उनका प्रथम,
आस्तीन     के      साँप।
पले  सपोले     डस  रहे,
मनुज    रहा   है काँप।।

ग़म  गुस्से  की  आग में,
जलने   का     अंजाम।
दुनिया   देखेगी   प्रकट,
शान्ति   नहीं  विश्राम।।

गीदड़   तेरी  मौत  का,
समय  बहुत  नज़दीक।
क़दम बढ़ाना सोचकर,
मिटे  साँप  की  लीक।।

ग़म  से  नम माहौल में,
सोचो     धरके     धीर।
दोषारोपण    आपसी,
अनुचित अति गंभीर।।

बोया  बीज   बबूल का,
नहीं     फलेंगे     आम।
काँटे   ही   चुभते   रहे,
सुबह   हो  गई   शाम।।

शांति सुह्रद सौहार्द्र का,
देना     शुभ      संदेश।
'शुभम' एक थे    एक हैं,
एक       हमारा    देश।।

शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
☘ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

सेना बुरके में छिपी क्यों? [गीतिका]

◆1◆
गीदड़ों   की  मौत का ये,
अब   बुलावा   आ गया !
ग़म का साया देशभर में,
ये  अचानक  छा   गया!!
जागते शेरों  को जिसने,
वार कर ललकार डाला।
आख़िरी ये वक़्त उसका,
मौत का बनने निवाला।।

◆2◆
मुँह  कुचलना है सपोलो,
भाग  कर  जाते    कहाँ?
दूध  पीकर जहर उगलो,
चैन     से   रहते    यहाँ।।
जन्म   लेते   खाते-पीते,
देश  भारत  की    जमीं!
मर  चुकी  है  आँख  की,
थोड़ी-बहुत बाक़ी नमीं।

◆3◆
धिक्कार पाकिस्तान तुझको,
धिक्कार  है  धिक्कार है।
बाप को आँखें दिखाता ,
जन्मना मक्कार  है।।
अब हमें बरदास्त करना,
एकदम   संभव     नहीं।
नाम   मिट  जाए धरा से,
अबनिकटवह वक़्त ही।।

◆4◆
एक  पुलवामा  के बदले,
दस  की  ताकत   है हमें।
सामने आकर दिखा दम,
कायराना         हरकतें।।
आ गए अपनी तरह हम,
बन धुँआँ    उड़   जएगा।
पहचानने  वाले न होंगे,
सिर न धड़ रह पाएगा।।

◆5◆
जोश जज्बाऔ' जुनूं का
हौसला  'गर      देखना।
ओट टट्टी की न छिप तू,
(दो)दो हाथकरके देखना
सेना बुरके में छिपी क्यों,
आतंकियों  को  भेजता।
मर रहा जो भूख से नित,
दण्ड    चूहा      पेलता।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

आखिर कब तक?

   पुलवामा हमले में शहीद हुए देश के अमर जवानों का दुःखद समाचार जानकर मन स्तब्ध रह गया। कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करें?क्या कहें ?क्या लिखें? कश्मीर को लेकर  आये दिन इस प्रकार हमले हो रहे हैं। हमारे देश के नेता और सत्ता पक्ष आख़िर क्या कर रहा है? केवल शृद्धाञ्जली देने से काम चलने वाला नहीं है। देश क्रोश में है। शहीदों के सम्मान में उनकी आत्मा की शांति के लिए देश भर में मोमबत्तियां जलाकर शृद्धाञ्जली अर्पित की  जा रही है।  विरोध में पड़ौसी देश के विरुद्ध पुतले दहन किए जा रहे हैं, लेकिन क्या इतने से ही हमारे कर्तव्य की इतिश्री होने वाली है? ये हादसे प्रश्न पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं।
   विपक्ष को ऐसे संकट की घड़ी में देश की रक्षा और अस्तित्व के लिए एक होकर सहयोग करना चाहिए। जब देखा यह जा रहा है कि वह ऐसे वक़्त में अपनी रोटियाँ सेंकने लगता है। अरे नेताओ ! कीचड़ उछालने के लिए पांच साल पड़े हैं। पक्ष और विपक्ष पांच वर्ष से औऱ करता ही क्या रहा है? बस एक दूसरे की कमियां निकलना अपनी प्रशंसा के ढोल पीटना और अतीत के विकास को विस्मृत कर देना, बस कीचड़ - उछाल के ये ही प्रमुख मुद्दे हैं। जब हम पूरे समय रात -दिन इसी  छींटाकसी में ही लगे रहेंगे, तो देश के लिए सोचने के लिए वक़्त ही कहाँ बचेगा! समय तो उतना ही है, चाहे उसे कीचड़-उछाल में बरवाद कर दो या देश की रक्षा के लिए सोचने में , उपाय करने में बरवाद कर दो।
   प्राथमिकता देश की रक्षा होनी चाहिए। यदि देश है तो हम हैं, यदि देश ही सुरक्षित नहीं तो हम कब तक रहेंगे!इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक का ये दायित्व है कि वह देश की रक्षा के लिए अपनी सोच विकसित करे और उसी के लिए हमारी सोच सदैव सकारात्मक ही रहे। जब हम देश रक्षा के बिंदु पर एक होकर रहेंगे, संगठन सुदृढ़ और सशक्त होगा तभी हम  शेष रहेंगे।
   सता पक्ष के एक सांसद का बेतुका और गैरजिम्मेदाराना बयान सुनकर उसकी नादानी औऱ बचकानी हरक़त पर बहुत विदीर्णता मन में आती है। ऐसे संवेदनशील समय में सत्ता पक्ष के नेताओं के ऐसे बयान देशद्रोह की सीमा में आने  चाहिए। इन्हें सांसद पद से पदच्युत किया जाना चाहिए। लेकिन क्या किया जाए सत्ता-पक्ष के नेता ने कहा है, इसलिए अगले दिन के अखबारों में उसको तोड़मरोड़कर पेश कर कर दिया जाएगा और उसके ऊपर दही -बूरा लीपकर बराबर कर दिया जाएगा। अगर यही बात किसी विपक्षी नेता ने कही होती, तो सत्ताधारी उसे ले उड़ते।और उसे देश द्रोही और न जाने कितनी कीचड़ सनी पदवियों से विभूषित कर चुके होते।
   जब हमारी रक्षा करने वाले ही सुरक्षित नहीं तो हम सुख की नींद कैसे सो सकते हैं। आज तरस आता है हमें ऐसे  निम्न सोच वाले नेताओं की बुद्धि पर। हमें कष्ट होता है कि ऐसे ही प्रबुद्ध मूर्ख सांसदों को  जनता क्यों चुनती है? क्यों ऐसे अशिष्ट नेताओं को राजनीति से बहिष्कृत नहीं किया जा रहा ! कटु सत्य भी समय और परिस्थिति को दृष्टि-गोचर करते हुए बोला जाता है। ये  दिवंगत आत्माओं का अपमान है। क्या श्मशान में या उसके परिजनों के समक्ष ये कहना उचित और समयानुकूल होगा कि मरने दो उन्हें तो मरना ही था?  ये विवेक नहीं है। उस समय परिजनों के हृदय पर बरछी नहीं चल जाएंगी?  यदि नेताजी का एक बेटा ऐसे हादसों में शहीद हो जाता तो क्या वे ये शब्द कहते कि जवान तो मरते गई हैं, वे मरने के लिए ही होते हैं। शर्म आनी चाहिए उस नेता को अपने इस बयान पर! चुल्लू भर पानी में डूबकर मर मर जाना चाहिए। हमें शर्म आती है कि हमारे देश और प्रदेश में ही नहीं सत्ताधारी दल के दलदल में ऐसे कीचड़ भी फ़लफूल रहे हैं!
   देश के उन अमर जवानों को मेरी हार्दिक शृद्धाञ्जली, जिन्होंने देश रक्षा हित प्राणपण से अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। परम्पि ता परमात्मा उनकी आत्मा को परम् शान्ति प्रदान करें।औऱ उनके परिजनों को इस असीम
वज्राघात को सहन कर पाने के सामर्थ्य प्रदान करे। धन्य हैं वे माताएँ जिन्होंने ऐसे सपूत पैदा किए जो देश के काम आए। धन्य हैं वे पिता जिन्होंने अपने लाडलों को देश को समर्पित किया। धन्य हैं वे बहनें जिन्होंने अपने सुहाग के सिंदूर को सार्थक कर देश की रक्षा के योगदान में जी जान लगा दी। धन्य वे छोटे -छोटे नन्हें बच्चे जिनके पिता अब प्यार से उनके सिर पर हाथ नहीं फेर सकेंगे , क्योंकि उन्होंने अपने अस्तित्व की बाजी देश रक्षा के लिए लगा दी है।

जय हिंद ! जय जवान!!
देश के शहीद अमर रहें, अमर रहें।।

💐शुभमस्तु !
✍ लेखक ©
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

ऋतुराज पधारे [बाल-कविता ]

सरसों की  फूली फ़ुलवारी।
पीली -पीली  शोभा न्यारी।।

झूम -झूम कर  सरसों नाचे,
बच्चे   खड़े  पोथियाँ  बांचें,
महक रही है क्यारी-क्यारी,
सरसों की फूली फ़ुलवारी।।

गया  शीत  ऋतुराज पधारे,
खुले   सुप्त   ऊर्जा  के द्वारे,
कोयलिया  तू कूक सुना री,
सरसों  की फूली फ़ुलवारी।।

देखो   मधुमक्खी  भी आई,
मधुरस   फूलों  से भर लाई,
पीत पराग  पंख निज भारी,
सरसों की फूली फ़ुलवारी।।

पतझर  हुआ कोपलें आईं,
ज्यों लाली होठों  पर छाई,
पीपल नीम आम मनहारी,
सरसों की फूली फ़ुलवारी।।

जौ  -  गेहूँ   की  बालें  झूमीं,
तितली ने नवकलिका चूमी,
खगकलरव मोहक शुभकारी
सरसों  की फूली फ़ुलवारी।।

बौर महकने लगे आम पर,
भौंरे  गूँजे  चले   काम पर,
पछुआ बहने  लगी बयारी,
सरसों की फूली फ़ुलवारी।।

उठो  चलो   बगिया में खेलें,
फूलों  से   भर   छाई   बेलें,
'शुभम'पीत छटाअति प्यारी,
सरसों की फूली फ़ुलवारी।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼 रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रविवार, 10 फ़रवरी 2019

वसंत ही वसंत [छन्द :दोहा]

बौराने       तो    आम थे,
बौराए       हैं        ख़ास।
फूल -   फूल      गुंजारते,
आया     है      मधुमास।।

बौराए         बूढ़े      युवा,
छाने      लगा        वसंत।
लाल  अधर    हँसने लगे,
आने       वाला     कन्त।।

बूढ़े    पीपल   में  खिलीं,
कोंपल    कोमल   लाल।
महके   बौर    रसाल  के,
बदली   है     लय-ताल।।

खिलीं पुष्प की क्यारियाँ,
तितली       झूमे     पास।
मधुमक्खी   मकरंद    पी,
मधु   में    भरे    सुवास।।
       
पीउ -पीउ  की  रट लगा ,
पिक   के   मीठे    बोल।
पिय की याद  सता रही,
विरहिन  में  विष  घोल।।

सरसों    फूली   खेत में ,
छाने      लगी     बहार।
प्रियतम  से करने लगी,
प्रिया  प्रमन    मनुहार।।

गेंदा     फूले     बाग   में,
महके    लाल   गुलाब।
आपस में फुसफुस करें,
बदल-बदल   उर भाव।।

पतझर     होता   पेड़ से,
झरते       पीले      पात।
झोंका  आया  पवन का,
स्वच्छ    धरा     स्नात।।

फाल्गुन  हिन्दू  वर्ष का,
अंतिम   मधुमय   मास।
अंत भला तो सब भला,
नहीं   मान     उपहास।।

अंत  आदि  के  युगल में,
शुभागमन       ऋतुराज।
जड़ - चेतन में प्राण नव,
भरा  हुआ    है   आज।।

कामदेव   के  घर  हुआ ,
पुत्रजन्म    यह     जान।
झूमे  उपवन -वन सभी,
है   ऋतुराज     महान।।

नवपल्लव     का पालना,
वसन        बनाते    फूल।
पवन झुलाता निज करों,
पिक    संगीत   न भूल।।

लोरी   तितली  भ्रमर की,
प्रातः        पंछी  -   राग।
कलरव सरिता का मधुर,
कहता  अब उठ  जाग।।

लाल   कोंपलें   हो रहीं,
हरी -  हरी      हरिताभ।
सघन लताएँ  विटप भी,
सद सुगंध शुभ  आभ।।

नर - नारी  के उर  उठी,
अनचीन्ही     मधु  पीर।
आकर्षण   की  भावना ,
धरो 'शुभम' उर - धीर।।

होली    का   रँग  हाथ ले,
चंदन     चारु       अबीर।
ढप ढप ढप ढफ को बजा,
गाओ       फाग - कबीर।।

वैर  - भाव  - विद्वेष  सब,
जला    होलिका  - आँच।
गले मिलें      त्यागें   गिले,
बात  सत्य   शुचि  साँच।।

ढफ  ढोलक की धमक से,
उठे       हूल       उर -चंग।
थिरकें तन -मन पाँव भी,
नृत्य   देख   जन     दंग।।

कर   झींगा  खटताल  से,
बजा       रहा      मंजीर।
भींगे   तन -मन   रंग  से,
भंग      भेद  -  जंजीर।।

नाच -गान  की लहर में,
रुके   न   हृदय -  तरंग।
मनमानी    होली  मचा,
गाते        फ़ाग    हुरंग।।

शिशिर गया बदला समा,
विदा      हुमक  -  हेमंत।
मात   शारदा   को नमन-
करता  "शुभम"   वसंत।।

💐 शुभमस्तु!
✍🏼 रचयिता©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

होली है कीचड़ -उछाल [व्यंग्य - लेख ]

   दूसरों पर कीचड़ उछालना मानव का एक अनिवार्य धर्म है। इस धर्म का निर्वाह और पालन देश में  प्रमुखता से किया जा रहा है। क्या आम क्या खास! क्या अधीनस्थ क्या बॉस! क्या सामान्य क्या हास! क्या अंधकार क्या उजास! सारे हालात सारे प्रयास - बस दूसरों पर कीचड़ उछालने के ही रहते हैं। ये अलग बात है कि हम कभी कुछ नहीं कहते हैं। बस कीचड़ के दाग -धब्बे देखते रहते हैं। सबकी सहते हैं।
   कीचड़ उछालना एक ऐसा प्रयास है कि हम ये कभी नहीं देखते कि हमारे दामन पर कितने दाग-धब्बे भरे हैं।इस कला को हमें अपने वरिष्ठों से सीखना पड़ता है। जब हमारे बड़े-बड़े आदरणी, सम्माननीय, माननीय इस क्षेत्र में शोध-परियोजनाएं चला रहे हों, तो हमारा धर्म है कि उनसे कुछ तो सद्प्रेरणा ले ही ली जाए।
   वैसे दूसरों पर कीचड़ उछालने में जिस आनन्द की अनुभूति आदरणीय "कीचड़-उच्छालक" को होती है, उसे साहित्य के किस रस में समावेशित किया जाए, ये एक विचारणीय बिंदु है। इसके लिए बहुत पहले ही हमारे साहित्यकारों ने नहीं, समाजशास्त्रियों ने जिस सुंदर रस की खोज की है, उसे 'निंदा रस' के नाम से सुशोभित किया जाता है।

अपने दामन पर लगा,
बटन   बड़े    मजबूत।
झाँके दामन और का,
निंदा   रस   अनुभूत।।

कीचड़ नित्य उछालना,
समझदार   का   काम।
हर्रा  लगे  न   फिटकरी,
करो   उन्हें     बदनाम।।

 राजनीति   से   सीखना ,
कीचड़    रोज़   उछाल।
समझ  न आवे  नीतिगत,
या  करतूत     कुचाल ।।

होड़  मची  है  पंक की,
कितना  किसके पास।
जो निर्मल सच्चा हृदय,
राजनीति    बकवास।।

बिन कीचड़ झांको नहीं,
राजनीति   की     ओर।
जो  भाए  परहित  तुम्हें,
जनता     समझे    चोर।।

कीचड़ की  सत सम्पदा ,
होती    है      अनिवार्य।
कीचड़ से मुँह धो चलो,
सभी  सफ़ल  हों कार्य।।

तुम उन   पर छींटा करो,
मन -मन  काली  कीच।
तभी सफ़ल हो पाओगे,
राजनीति   के      बीच।।

मुँह    बाँधे   होती  नहीं ,
राजनीति    की    बात।
मुँह की पिचकारी भरो,
कर लो कीचड़ - घात।।

कीचड़   के    ही बीच से, 
उगता    पंकज       फूल।
तुम्हें  फूल   के   फूल  हैं,
उनको    हैं     तिरशूल।।

कीचड़ नहिं तो फूल क्यों,
फल   न   मिले बिन फूल।
बिन फ़ल  सेवा   देश की,
वही    धूल   की     धूल।।
 
   इसलिए हमें अपने बरिष्ठ जनों से यह ज्ञान और गुर सीख लेने चाहिए कि इस विशेष सम्मान, पद,मान, धन-धान्य और समृद्धि के क्षेत्र में उतरना है, तो सिद्धान्त-सूत्र सीख ही लेने चाहिए। वैसे सपोलों को बिल में रेंगना, डसना और ग्रसना सिखाना नहीं पड़ता। फिर भी जितना अधिक ज्ञान मिल जाए भविष्य में काम आ ही जाता है।
   आपको यह पता ही है कि अब कीचड़ मार होली का महापर्व आने में बहुत अधिक दिन शेष भी नहीं हैं। आज वसंत पंचमी का दिन है। सभी साधक अपनी-अपनी साधना द्वारा अपनी -अपनी पिचकारी में अधिकाधिक किचड़ें उछालने की प्रार्थना में तल्लीन हो गए होंगे। उस महा पर्व होली में कौन कौन रंगे जाएँगे।और कौन दूसरों के चेहरों पर कालिख पोतते हुए कहेंगें 'बुरा न मानो होली है।' होली में तो सब जायज है।फ़ागुन में तो ससुर भी देवर लागे।अब चाहे रँग डालें या कीचड़, चंदन गुलाल या अबीर। अब जिसकी झोली में जो होगा, वही तो डालेगा।

जाकी रही भावना जैसी।
बुरे भाव की ऐसी -तैसी।।

होली  खेलो  पंक-उछाल।
या फिर रोली चंदन डाल।।

स्वच्छकारिता काअभियान।
सबसे बड़े हमीं  अभिमान।।

कुर्सी  मेरी    मैं गुड़ - चींटा।
कीचड़डालो बहुत सुभीता।।

महापर्व   होली  का आया।
क्या होगा मेरा मनभाया!!

बुआ जले या जले भतीजा।
अपना तो हर ओर सुभीता।।

हम तो    होली  ही  खेलेंगे ।
'शुभम' पंक भी हम झेलेंगे।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼 लेखक/रचयिता©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

समय नहीं है! [व्यंग्य]

   हमारा देश कर्मठ लोगों  का देश है। यहाँ जितने भी काम हो रहे हैं, जब इस देश के निवासियों के पास समय नहीं है। यदि इनके पास समय होता, तो पता नहीं बुलंदियों के झंडे न जाने कितने ऊँचे फहराते। जब आप किसी व्यक्ति से पूँछे कि ये काम क्यों नहीं किया या करते हो? तो उसके पास एक गढ़ा गढ़ाया उत्तर यही होता है कि समय नहीं है। जब यहाँ के आदमी के पास समय नहीं है तब तो देश की जनसंख्या 130 करोड़ के हाई वे को क्रॉस कर चुकी है। यदि समय होता तो न जाने कितने हाई वे बना चुकी होती। पहले यहाँ के रोड दो लेन थे। फिर चार लेन हुए और अब छः-छः लेन के बन रहे हैं। जब तक ये छः लेन पूरे होंगे, तब तक आठ-आठ लेन की आवश्यकता की प्रसव पीड़ा शुरू होने लगेगी। समय ही नहीं है आदमी के पास, फिर बेचारा करे तो क्या करे।समय न होने पर तो ये हाल है, फिर क्या होगा अकल्पनीय है!
   यहाँ सारे काम तब होते हैं, जब आदमी के पास समय नहीं होता। समय से काम करने के अद्भुत परिणाम होते हैं। तो असमय काम करने के परिणाम भी चौंकाने वाले नहीं होंगे तो क्या  होंगे? भई! दाद देनी ही पड़ेगी देश वासियों की महान कर्मठता की। यहाँ आदमी को जो काम आवंटित किया जाता है,वह चाहे ठीक प्रकार से हो या न हो, लेकिन उसी समय में से समय निकालकर (अब मैं ये क्यों कहूँ कि समय की चोरी करके) ऐसे ऐसे कारनामे कर देता है, कि उन कारनामों का हाल देख सुनकर दाँतों तले अँगुली दबाने को बाध्य होना ही पड़ता है! अरे!भइए ये हमारी आवश्यक मजबूरी है कि हम ऐसे कामों की सराहना करें, उन्हें प्रोत्साहित करें। उनके स्वागत में स्वागत समारोह करें, उनके गले में माला, कंधों पर शॉल, और उनके करकमलों में पुष्पगुच्छ भी सुशोभित करें।यहाँ ऐसे ही कामों की सराहना की जाती है कि अपने आवंटित काम को कोने धरकर अन्य काम, कला में पारंगत होने कद झंडे गाड़ दे।औऱ सारा देश वाह! वाह!! कर उठे। जैसे बैंक मैनेजर साहब सुंदर हास्य कविता करने लगें। मास्टर साहब नेतागिरी करने लगें। नेताजी खेती करने लगें। किसान सचिवालय में जाकर नेताजी के चरण-चुम्बन करने और कराने के गुर बताने लगे। कानून के छात्र कचहरी में जाकर भोले भाले लोगों के कच हरण कराने के लिए वकीलों के दरबार में हाजिरी लगाने लगें। कहने का तातपर्य यह है कि अपने निजी को छोड़कर अन्य किसी विद्या? कला? करतूत ? में अपने हाथ मुँह रंग लेने का नाम  विशेषज्ञता है। फिर कैसे न कहा जाए कि समय नहीं है। समय तो तब हो जब हम कोई काम करें। अपना दायित्व समझ कर करें? जब कुर्सी पर कोट टाँगकर अध्यापक महोदय अपनी परचूनी की दुकान पर चले जायँ, या अपने खेत में गाजर खोदने, ट्रेक्टर चलाने, बाजार घूमने चले जायँ तो भला वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न नहीं होंगे तो कौन होगा? ये भी तो तब है जब, उनके पास समय नहीं है। धन्य मेरे देश! धन्य मेरे देश वासियों !! आप जानते ही हैं कि वैसे तो मैं कुछ औऱ भी लिखता पर क्या बताऊँ समय नहीं है।

💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
😛डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

हम 'जनता ' हूँ [अतुकान्तिका]

 आपने रैली की 
तो आपके साथ,
उन्होंने रैली की 
तो उनके भी साथ,
अपना काम तो भइए
सबका साथ देना है,
सबका साथ 
आप सबका विकास,
क्योंकि -
'हम तो जनता हूँ'।

हम तो आपको भी जनता हूँ,
उनको भी जनता हूँ,
जनना ही तो अपन का काम है,
आपको उनको  सबको
जनते जनते ही
तो अपना नाम जनता है, 
जी हाँ,
'हम जनता हूँ।'

अपने 'जन गण मन ' में
ये जो जन है
बार -बार यही तो कहता है-
जन जन जन 
तू  तो  बस 'जन ता' है
क्योंकि तू जनता है
इसीलिए तू जनता है।

तुम्हारी रैली में गया,
उनकी रैली में गया,
सबकी रैली में गया,
लेकिन मैं तो हूँ ही 
आप के लिए
उनके लिए
सबके लिए
बस जनता। 

कोई पहचान नहीं मेरी ,
सबके के लिए अनजान,
सबके लिए नया,
सबके उपयोग ही नहीं
उपभोग की वस्तु 
'हम जनता हूँ।'

सबका साथ देकर ही
सबका विकास होगा,
आपका होगा
उनका होगा
हमारा हो या न हो,
क्योंकि मैं  मानव कहाँ?
वस्तु ही तो हूँ,
जहाँ  भी लगा दो,
लगा रहना है,
कुछ  भी नहीं कहना है,
मगर कुछ भी नहीं कहना है,
हवा के साथ बहना,
हवा के साथ रहना, 
एक निर्जीवता के 
अहसास के साथ
अंततः वही ढाक के दो पात
क्योंकि
'हम जनता हूँ'।'


हमें मिलता क्या है!
मीठे -मीठे भाषण,
विष -वास भरे आश्वासन,
राशन की लाइन का राशन,
नियम कानून से बंधा अनुशासन,
हम तो हूँ उनका खाने का 
मिट्टी का वासन,
हमेशा आम ही रहना
चुसने की नियति को सहना,
 'हम जनता हूँ।'
'हम जन ता हूँ ।।'

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

बात बात में बात [छन्द:कुण्डलिया ]

चश्मा   आँखों   पर लगा,
ईयर          ईयर  - फोन।
चपल  चाल  धीमी  नहीं,
रसना    धरे    न   मौन।।
रसना    धरे    न     मौन,
न सोचे   बुरा -भला भी।
बोले        ऐसे       बोल ,
न जाने वाक- कला ही।।
विज्ञानी    कर      खोज ,
करो  कुछ नया करिश्मा।
जीभ -  द्वार   लग  जाय ,
'शुभम' आँखों-सा चश्मा।।

बैठी       हों  दो   चार  जब ,
सुमुखि       सहेली      नार।
ज्यों चिड़ियाँ  चहचह करें,
लहराती        द्रुम  -  डार।।
लहराती          द्रुम - डार ,
समझ  में   बात   न  आवे।
बात    बात      में     बात ,
बात    में    बात    बनावे।।
'शुभम'   न   समझा  राज,
खरहा   से    कहे   खरैटी।
बिना        रुके      संवाद,
कर   रही    नारी    बैठी।।

पहिए   गाड़ी   के   युगल,
पति - पत्नी     नर- नारि।
ट्रैक्टर   के     जैसे   न  हों ,
चलते      सोच - विचारि।।
चलते       सोच - विचारि,
हवा   भी   हो   इक जैसी।
थोड़ी   भर   दी   अधिक,
करेगी         ऐसी - तैसी।।
सोच   समझ  शुभ  लेना ,
अपना   पहिया     भइये।
बे - पटरी     घर      चले ,
न   लेना     ऐसे    पहिए।।

नर -    नारी   हैं    एक -से ,
नहीं    सत्य    यह    बात।
अलग  माल  कुछ तो लगा,
अलग -  अलग  है  धात।।
अलग -  अलग   है  धात,
अधूरे       छोड़े     दोनों ।
नारि     हुई         वाचाल ,
घटित  होता      अनहोनों।
परिपूरक     दोनों      रहे,
विषमता   उनमें     भारी।
कमी        एक          की,
दूजे  में  ढूँढ़े    नर -नारी।।

नेह  बिना    दीपक   नहीं,
करता    दिव्य     प्रकाश।
बिना नेह    नर -नारि  के,
मुख  पर   निर्मल  हास।।
मुख  पर   निर्मल    हास,
नेह    भीगी    बाती   से।
दम्पति -सदन     प्रकाश,
सीप   मोती    स्वाती से।।
नहीं  चाँदनी    चाँद बिन ,
तनिक      नहीं      संदेह।
मानव-जीवन तब 'शुभम',
मिले     गंग-जल    नेह।।

💐 शुभमस्तु!
✍🏼 रचयिता ©
🌺 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

सृष्टि के कर्ता हे भगवान ! [गीत]

सृष्टि  के कर्ता  हे भगवान!
भुवन  में तेरी   ऊँची शान।।

तूने   रचे   सकल  नर -नारी,
कोई   गोरा    काला   भारी,
जितने जन  उतने  नव चेहरे,
पोषण रक्षा हित ध्वज फहरे,
सबकीअलगअलग पहचान,
सृष्टि के  कर्ता  हे भगवान!!


भिन्न स्वरों में मुखरित वाणी
बुद्धिमान  जग मानव प्राणी,
जगत चराचर  में  शुभकारी,
नर -नारी की  महिमा न्यारी,
चमत्कारवत   मानव - ज्ञान,
सृष्टि के कर्ता    हे भगवान!!

मन रहस्य  का बड़ा पिटारा ,
जितना  खोजा  अपरम्पारा,
प्रभु  तू अंशी    मानव  अंश,
कृष्ण कभी  तू बनता  कंस,
अद्भुत तेरी  हर  लय   तान,
सृष्टि के कर्ता   हे भगवान!!

एक धरा   की   मिट्टी  जाए,
रंग - बिरंगे     पुष्प    उगाए ,
अलग सुगंध अलग आकार,
वृक्ष लताएँ   विविध  प्रकार,
सबका रखते हो प्रभु ध्यान,
सृष्टि के कर्ता   हे भगवान!!

अम्बर में उड़ते खग कितने,
कलरव उनका   जैसे सपने,
निज नीड़ों में शावक पाल,
रहते हैं   पेड़ों   की    डाल,
उनको   करते   दाना  दान,
सृष्टि के कर्ता  हे भगवान!!

गौरेया   कपोत    पिक  मोर,
कलरव करते  हैं  शुक  भोर,
मुर्गा - बांग  कोकिला  गान,
सुना रही   झेंपुल निज तान,
जगत की सुषमा की हैं खान
सृष्टि के कर्ता    हे भगवान!!

गैया   मैया      कहलाती   है,
अमृता-सा पय पिलवाती है,
बकरी  भेड़  भैंस  पशु  सारे,
मानव संगी      सदा   सहारे,
बिल्ली मौसी   घर का श्वान,
सृष्टि के कर्ता   हे भगवान!!

देखो  जंगल  का भी मंगल,
चीता शेर  भालुओं का बल,
हाथी हिरन  स्यार भी रहते,
उछल-कूद बंदर कुछ कहते
तुम्हें रहता  है सबका ध्यान,
सृष्टि के कर्ता  हे भगवान!!

कहीं बोलता  वन में तीतर,
छिपा बटेर झाड़ियों भीतर,
'तु ही''तु ही' एक चिड़िया बोली
खंजन बया नहीं अनबोली,
नीलकंठ की  अपनी शान,
सृष्टि के कर्ता हे भगवान!!

मछली मेढक  या  घड़ियाल,
जलचर का सरि सिंधु धमाल
मगरमच्छ कच्छप  जलजीव,
जल ही जीवन जल संजीव,
सब पर  तेरी   कृपा   महान,
सृष्टि के कर्ता    हे भगवान!!

गंगा यमुना  उच्च हिमाचल,
मर्यादा में   सागर  का जल,
वन उपवन की शोभा प्यारी,
भरी हुई जग  की फुलवारी,
गेहूँ   गन्ना     लहरें     धान,
सृष्टि के कर्ता हे भगवान!!

आम   सेव   अंगूर    ख़जूर,
भरे स्वाद रस   फल भरपूर,
मधुर पपीता    बेल   अनार,
नीबू   कदली    मिर्च अचार,
प्रेम -रंग    में     रंगता  पान,
सृष्टि के कर्ता  हे भगवान!!

भिंडी  गाजर  गोभी  आलू,
लाल टमाटर    मटर रतालू,
पालक मैंथी शलजम मूली,
जिमीकंद जमीन   में भूली,
कटुक करेला पर गुणवान,
सृष्टि  के कर्ता हे भगवान!!

दूध छाछ घृत दधि नवनीत,
खोया मीठा   परम  पुनीत,
रोटी    पूड़ी  पुआ  पराँठा,
गराम पकौड़ी बेसन आटा,
सहस्रों व्यंजन  का संधान,
सृष्टि के कर्ता  हे भगवान!!

मीठा मधु  मधुमक्खी  देती,
मधु रस फूलों का भर देती,
जड़ी बूटियां औषध लातीं,
स्वस्थ संदेसा जग फैलातीं,
प्रकृति में  भरे हुए  वरदान,
सृष्टि के  कर्ता हे भगवान!!

सूत  कपास विविध रंगीन,
मोटी  हल्की   ऊन  महीन,
पेंट शर्ट    साड़ी  या  धोती,
बारह मास  बदन पर होती,
आवरण तन के अनुसंधान,
सृष्टि के कर्ता   हे भगवान!!

तेरी   माया   तू   ही   जाने,
भूले से  नहिं जायँ  भुलाने,
प्रतिपल नए  करें प्रभु खेल,
प्रभु से नहीं किसी का मेल,
'शुभम'लोकत्रय में गुणगान,
सृष्टि के कर्ता  हे भगवान!!

💐 शुभमस्तु!
✍🏼 रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...