गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

कटुता के इस कठिन काल में 🌾 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कटुता के इस कठिन काल में,

अपने    मृदु    व्यवहार   रहें।

परहित के कारण तन-मन से,

चाहे        अत्याचार     सहें।।


सबके   जीवन   में   आते  हैं,

ऊँच  - नीच    उजले -  काले।

एक   समान  नहीं  होते  दिन,

सुमन  कभी  चुभते    भाले।।

सुख के दिन जब नहीं रहे तो,

दुःख  मिटे    ज्यों   धार  बहें।

कटुता के इस कठिन काल में,

अपने  मृदु    व्यवहार    रहें।।


निशा दिवस का क्रम चलता है,

जाती  निशा    दिवस  आता।

कभी   अँधेरी    काली    रातें,

कभी  उजाला   छा   जाता।।

नहीं नियंत्रण कभी काल पर,

काल   कहे   हम   वही  कहें।

कटुता के इस कठिन काल में,

अपने     मृदु   व्यव्हार   रहें।।


जीवन  की  साँसें  निश्चित  हैं,

घटती  -  बढ़ती   नहीं  कभी।

इच्छाओं  का   अंत   नहीं  है,

यही ध्यान   में   रखें   सभी।।

हवन - कुंड  में   समिधा जैसे,

वैसे     अपनी     साँस    दहें।

कटुता के इस कठिन काल में,

अपने  मृदु     व्यवहार   रहें।।


धीरज सदा  उचित  ही  होता,

शांति   सुभगता     देती    है।

क्रोध  नसाता है   विवेक को,

कटुता दुख  की   खेती   है।।

शांति  प्रेम    आंनद   बढ़ाते,

क्यों न सुखद   हम  राह गहें।

कटुता के इस कठिन काल में,

अपने   मृदु    व्यवहार   रहें।।


अहंकार ने स्वार्थ   वृद्धि कर,

मानवता  का   ह्रास   किया।

पड़ा  अकेला    रोता   मानव,

नहीं सुखद पल कभी  जिया।

'शुभम'  विश्व में  शांति बढ़ाएँ,

सबसे   प्रियता    से    निबहें।

कटुता के इस कठिन काल में,

अपने   मृदु    व्यवहार   रहें।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.१२.२०२१◆६.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


बुधवार, 29 दिसंबर 2021

खुशबू छिपे न इत्र की 🍾 [ दोहा गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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खुशबू छिपे न इत्र की,महक उठा परिवेश।

नेताजी के वरद जो,फिर क्यों होता क्लेश।।


वर्जित  है अति ही सदा, मोरी  ढूँढ़े    नीर,

तोड़ कुलाबे बह चला, डूबे  नख  से  केश।


एक- एक  घर में   भरा,सोना रजत  अपार, 

अहि-रक्षित धन संपदा,बचा न सके धनेश।


रोटी, सब्जी , दाल  से,भरता सबका    पेट,

जब  तन  अपना छोड़ते,संग न  जाता लेश।


कभी-कभी अति सादगी, बनती विष आहार

परदे  में क्या  हो रहा,जाना नहीं      दिनेश।


अहंकार  की   नाव  में,  बैठे  हुए     सवार,

पहचानेगा   कौन  नर, सँग में रहें    फ़णेश।


कर-  चोरी  के  चोर  का ,हाल  हुआ बेहाल,

'शुभम'सियासत धर रही,नित्य नए बहु वेश।


🪴 शुभमस्तु  !

२९.१२.२०२१◆२.०० 

पतनम मार्तण्डस्य।

वृक्षोपहार 🌳 [ दोहा ]

 

[ तुलसी,नीम,गिलोय,पीपल,वृक्ष ]

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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       🪴 सब में एक 🪴

बिरवा तुलसी का लगा,पावन करिए धाम।

नित पूजा उसकी करें,सफल करे सब काम।

तुलसी  गुण-भंडार है,अपनाएँ  सब नित्य।

पौधा  छुएँ न रात में,छुएँ उदित  आदित्य।।

कटु हूँ गुणकारी सदा,कहलाता  मैं नीम।

इसीलिए कहते मुझे, घर का नीम हकीम।।

गुणकारी  मधुमेह में,मीठा नीम   अचूक।

रक्तचाप नियमित करे,रहता है   ये   मूक।।

काढ़ा बेल गिलोय का,ज्वर से रखता दूर।

लता अमृता भी कहें, बहुगुण से  भरपूर।।

औषधि आयुर्वेद की,होती लता  गिलोय।

चढ़ी नीम  के पेड़ पर,अमृत देती   बोय।।

ऑक्सीजन दिन-रात दे,पावन पीपल नित्य।

होता ईश निवास भी,'शुभम' सत्य साहित्य।।

फल जैसा शहतूत का,छोटी पीपल  नेक।

करे निरोगी दूध में, करती स्वस्थ    हरेक।।

वृक्ष जीव हैं मनुजवत,करें न उनकी हानि।

तरु -रक्षा नित ही रखें,मानव-मानव कानि।।

देते हैं फल वृक्ष  ये, उन्हें  न पत्थर    मार।

तरु, वन नहीं उजाड़ तू,जीवन के आधार।।


     🪴 एक में सब 🪴

तुलसी, नीम,  गिलोय सब,

                  जन  हितकारी वृक्ष।

पल -पल पीपल दल  हिले,      

                      करता पावन कक्ष।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.१२.२०२१◆८.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

शीत - शृंगार 🧶 [ दोहा ]

 

[स्वेटर,शाल,कंबल,रजाई, अँगीठी]

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✍️ शब्दकार ©

🧶 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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      ❄️ सब में एक ❄️

धूप  सेंकती शिक्षिका, छोड़ न कक्षा आज।

मिल के स्वेटर प्रिय लगें,ऐसा हुआ समाज।।

जाड़े की सौगात हैं,  स्वेटर कंबल,   शाल।

गजक तिलकुटी खाइए,गरम शीत के माल।।

शाल ओढ़ रविकर चले,कंबल  ओढ़े चाँद।

वन-पशु भी हैं जा छिपे, अपनी-अपनी माँद।

श्वेत शाल धारण किए, निकली शीतल धूप।

सलिल गुनगुना दे रहे,सरिता, सागर , कूप।।

कंबल में रुकता नहीं,पूस माह  का  शीत।

दादी  पोते  से कहे,कब  हो ठंड   व्यतीत।।

कंबल-कंबल  शीत है, बाहर  चादर  तान।

पड़ी झोंपड़ी खेत में,सोया निडर  किसान।।

रुई  रजाई  में   भरी, सुख देती    भरपूर।

शीत कहे मैं क्या करूँ, खड़ा हुआ  हूँ  दूर।।

उठा रजाई जा  रहे,  बंदर जी    ससुराल।

साली बोली कष्ट  क्यों, करते  जीजा लाल।।

लाल अँगीठी देखकर,चूल्हा   देता  सीख।

निज उर में तू धीरधर, करे नहीं मुखचीख।।

बात-बात की बात है,समय समय का खेल।

गया अँगीठी काल अब, बिजली की है रेल।


      ❄️ एक में सब ❄️

कंबल स्वेटर शाल का,मौसम आया शीत।

ओढ़  रजाई  तापती, गरम अँगीठी  गीत।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.१२.२०२१◆६.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

स्वादाचार - संहिता 🍓 [ व्यंग्य ]

  


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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🍓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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       मानव के स्वाद का संसार निराला है।उसने जाने कहाँ- कहाँ स्वाद का शोध कर डाला है। उसने संसार की हर वस्तु में स्वाद खोजा है।स्वाद को आप इतना सहज  मत समझिए कि केवल अपने खाद्य -पदार्थों में ही 'स्वाद' है। जी नहीं, हमारी सामान्य सोच से भी बहुत ऊपर उसका आस्वाद है।

     जब 'स्वाद' की बात चली है ,तो रसना के रसीले स्वाद की ही बात कर लें।प्रकृति ने अपनी ओर से षटरसों की सृष्टि कर दी। किंतु मानव तो उससे भी ऊँचे पर जा बैठा और स्वादों के अनंत आकाश में उड़ने लगा।सामान्यतः गुड़ मीठा, आँवला खट्टा, लवण नमकीन, मिर्च तिक्त, नीम कड़ुआ औऱ हरड़ को कषाय(कसैला) माना जाता है। किंतु मानव ने मीठा,खट्टा, नमकीन और तिक्त के मिश्रण से एक ऐसा नया स्वाद बना लिया कि चटनी को चाटते रहिए।अंतिम बिंदु तक चाटने पर भी तृप्ति नहीं होगी।भले दौना फट जाए! 

       एक पदार्थ में कितने रस भरे पड़े हैं कि समझ में नहीं आता कि क्या नाम दें।लहसुन में एक अम्ल रस को छोड़कर पाँच -पाँच रस भरे हैं। किंतु उसका मुख्य रस तिक्त होने के कारण वह तिक्त ही कहलाता है।शेष अनुरस ही हैं।मुख्य रस तिक्त है।इसी प्रकार शहद खाते समय मीठा लगता है औऱ अंत में कषाय स्वाद देकर रसना को कसैला बना डालता है। पर दुनिया तो उसी को जानती है ,जो सामने आता है ,छिपे हुए का नाम नहीं होता। बेचारा छिपा हुआ! उसका कोई भी न हुआ !


    कोई किसी स्वाद को लेने में मगन है तो कोई किसी औऱ के। किसी को मदिरा अमृत तुल्य है ,तो दूध विष तुल्य।कुछ स्वाद ऐसे हैं ;जो लेने पर कुछ औऱ औऱ मध्य में कुछ औऱ और अंत में कुछ औऱ ही हो जाते हैं। जैसे आँवला प्रारंभ में खट्टा ,मध्य में कसैला औऱ अंत में मधुर स्वाद देता है।शहद क्रमशः मधुर, रूक्ष औऱ कसैला हो जाता है। इसी प्रकार अन्य पदार्थों की स्थिति है। भोज्य पदार्थों के अतिरिक्त संसार में अनेक स्वादाचारी हैं। किसी को चोरी में , किसी को लड़ने -भिड़ने में, किसी को नारी में, किसी को सियासत में स्वाद मिलता है। स्वाद की लत उसे उसका आदी बना देती है।

      कुछ स्वाद अंत तक एक समान रह सकते हैं, किंतु अधिकांश स्वाद अपने ग्राफ- पतन पर पतित ही हो जाते हैं। समस्त अनुभवी नर -नारी यह भलीभाँति जानते हैं कि विषयानंद का स्वाद एक सौ डिग्री से सीधे शून्य पर टिक जाता है और विरक्ति के भाड़ में झोंक देता है।रुचि में कोई रुचि नहीं रहती।इसलिए यहाँ विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मदिर- मत्त का स्वाद निरंतर उच्च स्तर पर जाकर उस लोक की सैर कराने लगता है ,जहाँ से वह नीचे ही नहीं उतरना चाहता, उतरी तो औऱ दे, फिर और दे , बस देता ही रह। औऱ कुछ मत कह।बस मुझे सह। उन लोगों को इसी में स्वाद आ रहा है कि वे उनको रोज मधुशाला में सह रहे हैं।

     कुछ स्वाद अजर -अमर हैं। जहाँ जाकर वह लौटना ही नहीं चाहता।कुर्सी का स्वाद ऐसा ही अविस्मरणीय स्वाद है, उसके लिए कोई आचार - संहिता नहीं है। यौवन तो यौवन बूढ़ा महायौवन को प्राप्त हो जाता है। उसे कुर्सी के स्वाद का लालच यह तक भुला देता है कि अकर्म, कुकर्म ,सुकर्म का भेद भूलकर वह परम हंस के दर्जे को हासिल कर इस लोक में ही स्वर्गवासी होने का सुख हासिल कर लेता है। और तो औऱ उसके आसपास मंडराने वाले मक्खी ,मच्छर, भुनगे, भौंरे, रंग -बिरंगी तितलियां सब उसी स्वाद में लीन हो खो से जाते हैं। 

            पैसे  के  स्वाद  पर  तो  सारी  दुनिया  ही  टिकी है। उसे क्या बताना, जताना ।यहाँ तक कि   बड़े - बड़े मठाधीश,धर्माधीश, आश्रमाधीश, अरबों- खरबों  के  स्वाद  के साथ  - साथ  कितने  स्वादों  के   शहंशाह    बने स्वादाधिपति बने पुज रहे हैं। संसार की 'स्वादाचार- संहिता' एक विशेष शोध का विषय है। इस विषय पर शोध करने के लिए एक विश्वविद्यालय ही खोल दिया जाना चाहिए।जिसमें स्वादाधिपतियों को उसका कुलाधिपति, कुलपति और रजिस्ट्रार बना कर भेज देना उत्तम होगा। शोध - निर्देशक तो गली - गली में घूमते - टहलते मिल ही जायेंगे।

 🪴शुभमस्तु ! 

 २८.१२.२०२१◆५.३० पतनम मार्तण्डस्य।

जिजीविषा 🧑‍🎓 [ महाशृंगार ]

 

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छंद विधान:---

१.सम मात्रिक छंद।

२.चार चरण।

३.कुल मात्राभार 64। 16,16,16,16 पर यति।

४.चरणान्त द्विकल औऱ ट्रिकल से।

५.चरण 1,3 व 2,4 समतुकांत।

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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फ़टे   कपड़े  बचपन  ने धार,

किया  है  विद्यालय  प्रस्थान।

गरीबी की पड़ती   नित  मार,

लगन  शिक्षा की है छविमान।१.


ओढ़कर  बोरी  का  तिरपाल,

बगल में    दाबे   पट्टी   एक।

गाँव का  प्यारा - सा  गोपाल,

करेगा  भावी  को  शुभ नेक।२.


झाँकती   देह  वसन के  बीच,

कहाँ  गणवेश  गात  पर एक!

खिलेगा कमल महकता कीच

लगी  है  उर  में   ऐसी   टेक।३.


नहीं बस  उसके वश की बात,

चल  पड़ा  पैदल  ही   स्कूल।*

लगे   नंगे    पाँवों   में    घात,

नहीं  करता  जाने   की भूल।४.


झाड़ियाँ  खड़ीं सघन चहुँ ओर,

राह   में   कंकड़ - पत्थर  खूब।

चला  है  बालक    होती  भोर,

'शुभम' मिल भी  जाती  है दूब।५.


*मात्रा पतन।


🪴 शुभमस्तु !


२८.१२.२०२१◆८.४५

आरोहणं मार्तण्डस्य।

गाँव 🌾🏕️ [ मुक्तक ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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खेत,  बाग, वन   की   हरियाली,

वृक्ष, लता   की   छटा  निराली,

सुषमा   सुघर गाँव   की प्यारी,

खेलें   बालक     दे -  दे   ताली।१.


गेहूँ,     चना,      धान   लहराते,

देख   नयन  सबके    सुख पाते,

कृषक  गाँव  की   जीवन -धारा,

हिल- मिल  गीत   हर्ष   के गाते।२.


लिपे - पुते      गोबर  -  माटी से,

आँगन   सज्जित     परिपाटी से,

होली     पर्व     दिवाली    आती,

हर्षित   गाँव   दाल - बाटी से।३.


 बरसें     घन   घनघोर   गगन से,

दिखते  हैं  सब   गाँव  मगन - से,

कृषक   सभी    जुटते    खेती में,

हो  जाते  सब   व्यस्त  लगन से।४.


बेला,      जूही ,     गेंदा     फूले,

कर   गुंजार  भ्रमर -  दल  झूले,

तितली     उड़ती    रंग -  बिरंगी ,

गाँव  महकते   ज्यों   मद भूले।५.


दूध,  शाक -  सब्जी ,  फल  पाते,

अन्न,   सुमन   सब   गाँव दिलाते,

प्राकृतिक     जीवन     की सुषमा ,

नर - नारी ,   शिशु ,   युवा बढ़ाते।६.


है     परिवेश    गाँव   का न्यारा,

कहीं   नदी   का   सजल किनारा,

पेड़ों  पर   कलरव   खगदल का,

लुभा   'शुभम'  को  लगता प्यारा।७.


🪴 शुभमस्तु !


२८.१२.२०२१◆६.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 27 दिसंबर 2021

नव वर्षाभिनंदन 💐 [ महाशृंगार ]


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✍️ शब्दकार ©

💐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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विदा  करते      हम   सन इक्कीस,

प्रतीक्षा     बाइस    की     है  तेज।

झुके   हैं       विनत   हमारे   सीस,

रखी    हैं     घड़ियाँ   सुखद सहेज।।१।


सभी   जन-जन  का  हो कल्याण,

'शुभम'    गाता   है   स्वागत गान।

मिले    मानवता   को   नित त्राण,

करें    प्रण    पूरा    लें    जो ठान।।२।


करें       वंदन    अभिनंदन  आज,

हाथ  में     लें     सुमनों    के हार।

श्रेय  हो  तुमको   प्रति  शुभ काज,

मुदित हों भारत  के  नर - नार।।३।


समय   की     कीली     रुके   न लेश,

घूमता       उसके         सँग   संसार।

मिटें    मानव     के       सारे   क्लेश,

निरोगी  जन    बाँटें     शुभ प्यार।।४।


सुनहरी   शांत     सुखद      हो   भोर,

नहीं    हो    मन       में    कोई   चोर,

विमल   गंगा    की    'शुभम' हिलोर,

बनाए    पावन     तन    के   पोर।।५।


 🪴 शुभमस्तु !


२७.१२.२०२१◆४.१५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

महारास लीला 🦚 [ महाशृंगार ]

 

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छंद विधान:---

१.सम मात्रिक छंद।

२.चार चरण।

३.कुल मात्राभार 64। 16,16,16,16 पर यति।

४.चरणान्त द्विकल औऱ ट्रिकल से।

५.चरण 1,3 व 2,4 समतुकांत।

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सुनी  मुरली  की  मोहक  टेर,

छोड़कर  दौड़ीं  अपने   गाँव।

नहीं  की  गोपी  दल  ने   देर,

पंख से  उड़ते  जाते पाँव।१।


बीच   में    बैठे   राधे   श्याम,

खड़ीं  गोपी  गातीं  थी  गीत।

हुई   अँधियारी   प्यारी  शाम,

श्यामराधा की गोपी मीत।२।


दूर  चरतीं थीं   वन   में  गाय,

रँभाते   बछड़े   चारों    ओर।

दौड़कर आतीं    धेनु  रँभाय,

संग में करें शोर  बहु  ढोर।३।


नाचते  गोपी दल   को   देख,

खड़े भौंचक -  से   बेलें  पेड़।

गान नर्तन  में  मीन  न  मेख,

वानरी को कपि देते   छेड़।४।


शमी के  पादप   कुंज करील,

बनाते  मधुर   रम्य     एकांत।

शून्य  में  उड़तीं ऊपर  चील,

'शुभम'कमनीय कांत वन शांत।५।


🪴 शुभमस्तु !


२७.१२.२०२१◆२.००

पतनम मार्तण्डस्य।

सजल ✋

 

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समांत : आन।

पदांत: नहीं है।

मात्राभार : 16

मात्रा पतन:  नहीं।

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अँगुली  चार  समान  नहीं  हैं

ये  कोई    अपमान   नहीं  है


काम  सभी का  बँटा हुआ  है

कोई  भी   अनजान  नहीं   है


तिलक लगाता  सुघड़ अँगूठा

क्या  उसकी  पहचान नहीं है


दिखलाती   तर्जनी      दिशाएँ   

  न्यून  मध्यमा   मान  नहीं  है


अनामिका  पहनती   अँगूठी

दिखलाती अभिमान  नहीं है


कनिष्ठिका है सदा सहायक

कम इसका सम्मान  नहीं है


'शुभम'  मुष्टिका बने  एकता

तुमको क्या  ये ध्यान नहीं है


🪴 शुभमस्तु !


२७.१२.२०२१◆९.४५

आरोहणं मार्तण्डस्य।


गधों के पीछे अश्व हैं 🐴🦄 [ मनहरण घनाक्षरी ]


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🪴 शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

सबै  दिन  गए  बीत,पूरौ  गयौ साल  रीत,

पूस  मास  बढ़ो  शीत, नई साल आई  है।

प्रीति-रीति की बयार,आवै नित्य ही बहार,

निरोगी हों देह  द्वार ,देश  को बधाई   है।।

राजनीति   हो  पवित्र, बदलै  बुरौ   चरित्र,

दुर्गंध  दे  न  ये इत्र, कैसौ  रे सखाई   है।।

                        -2-

विश्व - गुरु बनों  देश,बिंदु छाप बढ़ा  केश,

रंग -  रंग  बने   वेश, क्यों पतिआवें  हम।

पंडित जी हू ज्ञानी हू, चोर ठग कृपानी हू, 

महल मंच छानी  हू, वे  नहीं  नेंक  कम।।

बारहों मास होली है,पंक लसित बोली  है,

दिखें वे रिक्त झोली  है, बोलते  बम - बम।।

कौन अभिनेता आज,औऱ कौन नेता आज,

सजे- धजे  नित्य साज, एकांती  छमछम।।

                        -3-

मतमंगतों  कौ  रेला,करें नित्य नव  खेला, 

एक गुरू  लाख चेला, बढ़ी   सठियाई  है।

करै कोऊ खूब चंदा,डारि लालच कौ फंदा, 

एक  नेक चार  गुंडा, गाँव  में   रौताई है।।

जाय  होटल में  शाम,ठर्रा संग में   विश्राम,

नेकनीयत    हराम,  कामिनी मिताई     है।

आयौ नयौ - नयौ रंग,मति होउ  सुनि  दंग,  

थोड़ी - थोड़ी ली भंग, गालनु  लुनाई    है।।

                        -4-

चूल्हा चौकी चौपाल में,चाय पान टाल  में,

खेत कुंजनु ताल में,काली  काई  छाई  है।

राम, श्याम, हर, हरी,बाजार भैंस, बेकरी,

व्यापार,बंज,  नौकरी, जीत बड़ी  पाई है।।

ये देश रंगशाला है,संमोह  एक  डाला   है,

बूढ़ों  की तप्त ज्वाला  है, गुप्त गरमाई  है।

सुनीति क्याअनीति क्या,ईमान बेईमान क्या,

सुसत्य या असत्य क्या,राजसी  लुनाई  है।।

                        -5-

नहीं चरित्र - चारुता,न  शेष  ही   उदारता,

है  बोलबाला स्वार्थ का, हुंकार  डंकार है।

न मान मातृ पितृ का,न नेह बंधु  मित्र  का,

सर्वत्र  कु   चरित्र का,  अनंत फुंकार     है।।

न धर्म कर्म शेष है, अघ -ओघ विशेष   है,

अंधी अधीर   मेष   है,भींकती भिंकार   है।।

गधों के पीछे अश्व हैं,भले गधे यों  ह्रस्व   हैं,

कुर्सीत्व मात्र लक्ष्य है,हस्ती की  चिंघार है।।


🪴 शुभमस्तु !


२६.१२.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।

आयौ शुभ बाईस 👑 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

👑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बीतौ  सन इक्कीस  कौ,आयौ शुभ  बाईस।

प्रभु सबकौ मंगल करें, मिटे हृदय की टीस।।


दो सालनि तें करि रहौ, कोरोना  जन   मार।

सन बाइस  में मति करै, जगती  में  संहार।।


सबई  जन नीरोग हों,हों समृद्ध   खुशहाल।

करचोरी जो जन करें,तिनकौ नसै   बबाल।।


कर - चोरनु  की  गोद में, झूलें नेता    रोज।

दूध पिला  मोटे   करें, मालपुआ कौ भोज।।


चुसनी नेता -मुख सजी,मस्त मिलावटखोर।

रिश्वत देवी की कृपा, चोरनु की शुभ  भोर।।


जगत-गुरू  यों ही नहीं,अपनौ भारत  देश।

छिनरे,चोर,लबार  सब,बदलें अपने   वेश।।


बनी विदेशी  वस्तु पर,लिखते अपनौ  नाम।

बनों स्वदेशी छिनक में,जगत गुरू कौ काम।


माल बनों  परदेश  में,ठोंकी अपनी   सील।

गुरु  ऐसे  मिलते यहीं, लगै न देशी   कील।।


राम  श्याम  के  देश में,मिलते नटवरलाल।

अमरीका  जापान  में, ऐसौ नहीं   कमाल।।


कितनों  जिम्मेदार   है, कोरोना  -  आतंक।

बिना पढ़े उत्तीर्ण कर,दिलवावै बहु अंक।।


तालाबनु में मिलि रही,नित विकास की गंग।

मुर्दे,पशु  शव  ही भरे,भंग  देह   के  अंग।।


🪴 शुभमस्तु !


२६.१२.२०२१◆१०.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

शब्दामृत - सार 🦚 [ दोहा ]


[ सागर, दरिया,वादे ,वाद, विवाद ]

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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       🐟 सब में एक 🐟

शब्दों का सागर अतल,उर में भरा अपार।

कविता की बहती सदा,मोहक मधुरिम धार


सागर से बादल उठे, नभ में सघन अनेक।

निर्मल जल बरसा रहे,करते जग-अभिषेक


दरिया दिल दरिया सदा,देता निधि को नीर।

बहता अविरत धार से,फिर भी नहीं अधीर।।


दरिया सींचे अवनि को,तृप्त करे नित प्यास

पौधे,फसलें, कीर,पशु,लगा रहे शुभ आस।।


प्रभु  से  करता जीव ये,वादे  लाख   हजार।

पर पूरे  करता नहीं,  आता जितनी   बार।।


वादे  कर आई  नहीं, करने को  अभिसार।

प्रेमी  को धोखा दिया,अनुचित  ऐसा प्यार।।


वाद - वाद सब ही रटें,  नहीं निभाते वाद।

राजनीति  के रंग  में, ढोल कर  रहे   नाद।।


वाद उचित उसका नहीं, मिथ्यावादी  कूर।

नेता  अपने  वाद से ,  रहता कोसों    दूर।।


पड़ता नहीं विवाद में,उर में मैल  न  धूल।

सत जिसके अंतर बसे,करे न औचक भूल।।


मत  विवाद को तूल दे,पड़े न मिथ्याचार।

'शुभं' वही मानव सुखी, जीवन का उपहार।।


      🐟 एक में सब 🐟

करता  वाद - विवाद क्यों,

                      दरिया     वादे  पूर।

हर  पल  जल  देता  रहा,

               सागर       ज्यों मदचूर।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.१२.२०२१◆७.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

कितनी भी बाधाएँ आएँ ⛳ [ गीत ]

  

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✍️ शब्दकार ©

⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कितनी   भी    बाधाएँ   आएँ,

लक्ष्य - बिंदु   तक   जाना  है।

मन में   अपने   करें   प्रतिज्ञा,

मंजिल   को   ही    पाना है।।


शुभ  कर्मों  को  करने में नित,

बाधाएँ      भी      आती    हैं।

इसकी  भी  पहचान  करें हम,

छिपे   मीत   में    घाती   हैं।।

जनहितकारी   शुभ  कर्मों में,

शुभ    साधन    अपनाना  है।

कितनी   भी    बाधाएँ  आएँ,

लक्ष्य - बिंदु   तक  जाना है।।


विपदा  पड़ी  राम   पर भारी,

हरण    हुआ   माँ  सीता का।

भालू, वानर    साथ  ले लिए,

मिटा  दुःख   परिणीता  का।।

नीति-नियम को त्याग कर्म से

हमें   न    बाहर    जाना   है।

कितनी  भी   बाधाएँ    आएँ,

लक्ष्य  - बिंदु  तक  जाना है।।


तरकस  में  हों  बाण   तुम्हारे,

पर     परहंता      बनें   नहीं।

अपनी  रक्षा    में    उपयोगी,

सदा   बनाए   मनुज   यहीं।।

जीवन की बगिया  महकाएँ,

हर गीत  नेह   का  गाना  है।

कितनी  भी   बाधाएँ   आएँ,

लक्ष्य  - बिंदु  तक जाना है।।


स्वयं   आचरण    चाहें  जैसा,

उससे  भी    उत्तम     करना।

सत पथ से मत डिगना साथी,

यद्यपि   पड़े     तुम्हें    मरना।

छेद  न करना  उन   पात्रों में,

जिनमें    खाया ,   खाना  है।

कितनी भी     बाधाएँ    आएँ,

लक्ष्य -  बिंदु   तक जाना है।।


संघर्षों   को   कहते   जीवन,

उनसे  क्यों   घबराएँ     हम?

उलझी  बाधाओं को  सुलझें,

जीवन होगा सफल 'शुभम'।।

सदा सादगी    सुखकारी  है,

नहीं   बनावट     लाना    है।

कितनी भी    बाधाएँ   आएँ,

लक्ष्य - बिंदु  तक   जाना है।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.१२.२०२१◆११.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

आम आदमी 👣 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

👣 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 बहुमत आम का

भोग कुछ खास का,

आम मात्र चुसने के लिए

और खास चूसने के लिए,

कुछ जबरदस्त खास,

कुछ जबर्दस्ती खास,

आम बने रहना

कोई नहीं चाहता,

फिर भी आम ही आम

जिनके बिना खास बेकाम।


खास का आम से

कुछ मतलब ही खास,

अन्यथा कहाँ है

खास को कोई आम 

आता है कब रास,

आम के बिना 

चलती नहीं

 नेता जी की  श्वास!

वही तो है 

उनका च्यवनप्राश।


खास के

सिर की टोपी 

आम आदमी के 

चरणों में,

उसके सिर पर

बैठ जाने के लिए,

धीरे -धीरे उसे 

चूस जाने के लिए,

दिखावटी रूप में

अपनाने के लिए,

जबकि होता है

सभी कुछ 

आम के ही किए।


आकाशगामी 

हेलीकॉप्टर आम के

सिर पर उड़ता है,

उसी के धन से

उसका पेट्रोल भी

भरता है,

पर मूढ़ आम आदमी

झूठी सराहना  में

मरता है,

नए - नए देखता वह

नित सपने ,

जिसको खास

 नहीं समझता कभी अपने!


आज की नई परिभाषा

किसी 'खास' की:

न शिक्षा 

न कुछ ज्ञान,

चरित्रहीनता की शान,

गुंडागर्दी की उठान,

किसी दल के

झंडे की पहचान ,

बनाती खासियत का वितान,

आम कोई 

रहना ही नहीं चाहता,

विवशता है कि

वह आम आदमी है,

वह  नहीं जानता कि

अभी बची हुई

वहीं तो आँख,

 उर में 'शुभम' नमी है।


🪴 शुभमस्तु !

२२.१२.२०२१◆१०.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

ऋतु आई हेमंत की 🗻 [ दोहा ]

  

[थरथर,मार्गशीर्ष, कंबल, ठंड,ठिठुर ]

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✍️ शब्दकार ©

🗻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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       💦 सब में एक 💦


थरथर  काँपे  देह प्रिय,लगा पूस का  मास।

कब आओगे   गेह में, मेरी सेज    उदास।।


थरथर  कंपित   शीत में,गायें   भैंसें   ढोर।

गलगल   गौरैया   कँपे, काँपें मानव    मोर।।


मार्गशीर्ष हेमंत ऋतु,शीतल अवनि समीर।

प्रोषितपतिका जोहती,बाट न उर में  धीर।।


मार्गशीर्ष ने  शीत के,खोले मार्ग   अनेक।

शीतल भू जल वायु नभ,उष्ण वह्नि है एक।।


कंबल का संबल नहीं, कंपित वन  में शेर।

मछली जलक्रीड़ा मगन, लेती शीत  न घेर।।


मधुर गुलाबी  शीत में, कंबल का   आनंद।

नर नारी को सौंपता,ज्यों अलि को मकरंद।।


गर्म  दौड़ते  रक्त में, लगती है कब    ठंड!

बालक युवा किशोर सब,करें शीत के खंड।।


ठंड सताती ही नहीं,जब हो  साजन  पास।

भर तन-मन में उष्णता, पूर्ण करे हर आस।।


ठिठुर-ठिठुर चकवी कहे,कैसा प्रभु का शाप

सभी तिया निशि पीव सँग, एकांतिक मम जाप


ठिठुर रहा जो राह में,बिना वसन जो दीन।

ढाँढ़स उसको दे रही,तिरती जल की मीन।।

     

 💦 एक में सब 💦


मार्गशीर्ष में ठंड से,

                   ठिठुर रहा तन      मीत।

थरथर ज्यों पल्लव कँपे,

                     कंबल   करे  अभीत।।


🪴 शुभमस्तु !

२२.१२.२०२१◆८.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

अपना किसान🥦 [ कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अपना   किसान    प्यारा।

भगवान   है        हमारा।।


खाद्यान्न      दूध       देता।

इस  भूमि  का   विजेता।।


आलू   के     संग    मूली ।

सरसों   है  खूब     फूली।।


जीना   अभाव   का    है।

घर   संग   बूढ़ी   माँ  है।।


थिगली   भरी   है  साड़ी।

हर    काम   में  अगाड़ी।।


अम्मा     वही      हमारी।

प्राणों से  हमको  प्यारी।।


वे    नाव     हम   सवारी।

हैं      जिंदगी     हमारी।।


गंगा   वे    हम   किनारा।

कृश  कृषक   है  हमारा।।


🪴 शुभमस्तु !


२१.१२.२०२१◆ ३.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

तुलसी -पूजा 🪴 [ बाल कविता ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🪴  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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माँ    तुलसी     की    पूजा  करती।

सुबह - शाम    घी - दीपक रखती।।


पहले   जल     से    स्वयं  नहाती।

फिर    वह   तुलसी   को नहलाती।।


बिछुआ  ,     चूड़ी      भी पहनाती।

लाल    चुनरिया    उन्हें    उढ़ाती।।


रोली   से      तुलसी     सज जाती।

फिर     माँ      बत्ती    धूप जलाती।।


फूलों    की    माला     भी    डाले।

छूकर   सिर   से   उसे     लगा ले।।


परिक्रमा     गिन- गिन  कर होती।

दिखलाती    दीपक     की ज्योती।।


पूजा     का    प्रसाद    हम   पाते ।

'शुभम'   आरती - मिल- जुल गाते।।


🪴 शुभमस्तु !


२१.१२.२०२१◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

पलायन 🛤️ [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🛤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जीवन प्रथम वरीय है, नहीं जीविका  मीत।

चलें छोड़कर जीविका,तब ही अपनी जीत।


नंगे  पैरों  चल  पड़े ,श्रमिक न देखी  बाट।

पटरी पकड़ी रेल की, जाते निज घर घाट।।


बाँधा  थैला  पीठ पर, जो जा पाए   साथ।

नहीं  भरोसे  औऱ के, चलते जाते   पाथ।।


कोरोना का भय बड़ा,मिले न कोई काम।

कब  तक यों बैठे रहें,होती यों ही   शाम।।


भय का ये आतंक है,बड़ी न इतनी मीच।

अब पछताना शेष है,फँसे कीच के  बीच।।


अपना घर  उत्तम भला, नहीं भला  परदेश।

आए क्यों घर छोड़कर,खींच रहे निज केश।


बालक पत्नी सोचते, कहाँ फँसे हम आज।

रोटी तक मिलती नहीं,कैसा धंधा -  काज।।


🪴 शुभमस्तु!


२१.१२.२०२१◆८.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

धैर्य 🪔 [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धैर्य     परीक्षा        नित   लेता  है,

मादा     खग       अंडे     सेता   है,

त्यों   ही   रख   विपदा   में  धीरज,

क्यों   न 'शुभम'   मानव  चेता है!१।


जो        मानव     धैर्य    नहीं  खोता,

विपदा    में     नहीं     तनिक  रोता,

मिलता   साफल्य     'शुभम' उसको,

सद्गति    के      बीज    वही  बोता।२।


जग -   निधि    में   उठती   हैं लहरें,

मिलतीं   जल     में    नदियाँ , नहरें,

बहतीं      जलधारें       धैर्य     धरे,

ज्यों     होतीं     गज़लों   की  बहरें।३।


स्वर्ण    आग     में    तप कर चमके,

रविकर     नभ    में      ऊपर  दमके,

धारण    किया    धैर्य    को  जिसने,

सुमन      कलीवत     उपवन महके।४।


जो    नर    परिश्रम    कर  पाता    है,

धैर्य      भानु      ही   सिखलाता    है,

नित्य     उदित    हो    वह   प्राची   से,

दिन   में   चढ़    ऊपर    जाता    है।५।


🪴 शुभमस्तु !


२१.१२.२०२१◆७.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

रस -कामना 🌳 [ दोहा - गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मूँगफली  की नाक पर,जब हो नर्म  प्रहार।

बाहर दाने झाँकते, खुल जाता  है   द्वार।।


नीबू   नारंगी    सदा,  देते   रस    भरपूर,

पड़ता मंजु दबाव जो,वैसी कामिनि  नार।


फूल - फूल  भौंरा  गया,पाने मधु    मकरंद,

जब होती रस-कामना,लगे न श्रम भी भार।


बाहर  आना  चाहता, गर्भान्तर   से   भ्रूण,

सश्रम  निज  संघर्ष  से,  पाता नई    बहार।


बिना कर्म  रस-कामना, करते हैं  नर - मूढ़,

श्रम ही जीवन मूल है,श्रम सुख का आधार।


रुकते कभी न भानु शशि, धरती है गतिवान

अनल व्याप्त हर बिंदु में,चलते व्योम बयार।


सरिता सागर में बहे,ज्यों निर्मल सद  नीर,

'शुभं'मरण गतिहीनता,श्रमजल सदा सकार।


🪴 शुभमस्तु !


२०.१२.२०२१◆३.३० पतनम मार्तण्डस्य।

मतमंगे आने लगे 🚣🏻‍♀️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🚣🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

मतमंगे  आने   लगे, दर-दर निकट   चुनाव।

ले मत  की पतवार को,खेनी अपनी   नाव।।

खेनी  अपनी  नाव, विधाता उनकी  जनता।

टोपी  रखते पाँव,काम  यदि उनसे   बनता।।

'शुभम' गहन मतधार,बोलते हर - हर  गंगे।

छोड़ निजी घर- द्वार, चले दर-दर मतमंगे।।

                        -2-

साधे जो  मत-नाव को,'तू' से बनता  'आप'।

सिर पर  मेरे बैठ  जा, बनकर गदहा  बाप।।

बनकर गदहा बाप,मिले जब मुझको कुरसी।

पाएगा   सुख -धाम,चढ़ेगी तन  में   तुरसी।।

'शुभम'  आज ले बोल,सिया वर राधे - राधे।

करूँ खून सौ माफ, नाव मत की जो साधे।।

                        -3-

वादे की बरसात का , मौसम मधुर चुनाव।

पूरा करना अलग है,चढ़ा आज मुख- ताव।।

चढ़ा  आज मुख- ताव, हाँकना लंबी-चौड़ी।

यही समय की माँग, खिलाते गरम मगौड़ी।।

'शुभम' न कभी अभाव,नेक हैं सभी इरादे।

मदिरा  पी कर  ओक,करूँगा पूरे    वादे।।

                        -4-

बीते  पाँचों   साल भी, नेता  गए  न  गाँव।

देखे निकट  चुनाव तो,टिके न घर में पाँव।

टिके न घर में पाँव, मंच पर चढ़ कर बोले।

शहद भरा आचार, बोल में मधुरस  घोले।।

'शुभम'   बँधाते   आस, नहीं लौटेंगे    रीते।

आएँ हम हर साल,भूल जा जो दिन बीते।।

                        -5-

नेता अभिनेता बना,बदल- बदल कर रूप।

वाणी  में मिश्री घुली,भरे शहद  से   कूप।।

भरे  शहद   से कूप, चुनावी नाव    हमारी।

पार  करो  रे  मीत,  न होवे अपनी  ख्वारी।।

'शुभम'चरण का दास,नहीं कुछ तुमसे लेता।

घुटने तक  ही हाथ, परस मत माँगे   नेता।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.१२.२०२१◆८.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

सजल 🌅

 

 

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समांत: उनो।

पदांत:'शुभम'।

मात्राभार :१४.

मात्रा पतन:नहीं।

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✍️शब्दकार ©

🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आत्म-ध्वनि को सुनो 'शुभम'

पूर्व - आचरण   गुनो  'शुभम'


भरना    रुई     लिहाफों    में

पहले    सारी  धुनो    'शुभम'


अपनाओ  मत  यों   ही   गुण

उपयोगी   भी   चुनो   'शुभम'


ताना  - बाना    सुलझा   लो

तभी  वसन को बुनो 'शुभम'


बात  सत्य  यदि  कह  डालो

मन ही मन मत घुनो 'शुभम'


🪴शुभमस्तु !


२०.१२.२०२१◆६.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

रविवार, 19 दिसंबर 2021

ग़ज़ल 🐋


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✍️ शब्दकार©

🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कह  रहे  सब  देश  ऐसा चाहिए।

भूलते  कब    देश   ऐसा चाहिए।।


कर्म करने के  लिए क्या आएगा,

कौन  वो  तब देश  ऐसा चाहिए।


'चाहिए' का अर्थ है किसके लिए, 

कैसा ये  ढब  देश   ऐसा चाहिए।


कर्म खुद करते नहीं बस 'चाहिए',

है  लगी  दव   देश  ऐसा  चाहिए।


हाथ से  करके दिखाता है 'शुभम',

है   वही   रब   देश   ऐसा चाहिए।


🪴 शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆ ५.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🪑

 

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कीचड़ -फेंक सियासत देखो।

झपटी  हुई  रियासत  देखो।।


नियम वही जो हम कहते  हैं,

समझें दत्त   विरासत   देखो।


अपना ही चलता है  सिक्का,

बचनी नहीं   हिकारत  देखो।


इस आलय के  हम  निर्माता,

उठती  सजी   इमारत  देखो।


हम   इतिहास   बनाते  अपना, 

कंचन लिखित इबारत देखो।


हमने ही  गढ़  महल   बनाए,

बदला  अपना  भारत  देखो।


'शुभम' हमें  भगवान कहेगी,

जनता पीड़ित  गारत  देखो।


🪴 शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆ ४.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🍛


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✍️ शब्दकार

 🐟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मतमंगे   दर  - दर   पर आए।

हाथ  जोड़ते  नत   शरमाए।।


पाँच  साल  के    बाद  पधारे,

बड़ी  कृपा की इस घर  धाए।


पाँवों   में   रख   दी  है  टोपी,

घुटनों तक निज सर धर पाए।


पाएँ  हम  ही   ऊँची   कुरसी,

यदि विपक्ष  हो  तो मर जाए।


हम सरताज  सभी  चालों के,

ई वी एम    हमीं   हर    लाए।


वादे,     दावे    ठोस    हमारे,

घर - घर में  अपना  डर छाए।


'शुभम'सियासत के हम राजा,

खींची   टाँग   इधर  सरकाए।


 🪴 शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆३.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🎄

  

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✍️ शब्दकार ©

🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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करना  कोई   काम   नहीं  है।

तेरे  कर में   दाम   नहीं   है।।


चाहे  जितने  चक्कर  कर ले,

मुझको सर्दी - घाम   नहीं है।


अन्य  आय अन्याय न होता,

दमड़ी बिना विराम  नहीं है।


मिलावटी, गबनी ,सब भाई,

इनका  कोई   राम  नहीं  है।


बसते प्राण रात -दिन धन में,

धन से ऊपर  चाम  नहीं  है।


बेशर्मी धो -  धो   कर पी है,

हमें  झुमा दे जाम  नहीं   है।


चोर -  चोर     मौसेरे   भाई,

'शुभम' और आराम नहीं है।


🪴 शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆३.००

पतनम मार्तण्डस्य।


कल के बारे में 🐎 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सारा   आलम    सोच   रहा   है 

अपने    कल     के      बारे   में।

सोच   रहा   है  कौन   आज  भी 

धरती   जल      के      बारे   में।।


भैंस   नहाती     समर  चलाकर  

नाले     में        बर्बाद    सलिल,

खाद     लगाई    विष   फैलाया 

क्या   भूतल      के    बारे   में!


खूब    जलाएँ      कृषक   पराली 

अब    अपराध     नहीं   है   ये,

फैला    धूम    भले    मर जाएँ 

क्या   कुछ     फल    के   बारे में!


बिना   मिलावट    नहीं  कमाई    

लीद    महकती      धनिए    में,

नहीं    प्रशासन   कुछ   बोलेगा 

ऐसे     खल     के   बारे    में।


नरक  पालिका  पाल   रही  है

नरक    नासिका     के    नीचे,

कुर्सी    वाले     क्यों    बोलेंगे,

जनता  -  छल   के    बारे    में।


कंकरीट  के   जंगल   पनपे

बंदर   को   भी    छाँव  नहीं,

फुरसत नहीं सोचने की अब

वट -  पीपल   के    बारे  में।


धूल उड़ रही पनघट-पनघट

चुल्लू  में   भी    नीर    नहीं,

कौन   विचारेगा   पानी   के

सूखे     नल   के    बारे   में।


नेताजी   ने   आग    लगाई 

जातिवाद    की   भारत  में,

कौन  बुझाने   की   सोचेगा

जलती   झल  के  बारे   में।


'शुभम' बाँटते ध्यान देश का

विकट  समस्या     हावी   है, 

मतमंगे     क्या   दे    पाएँगे

उज्ज्वल  कल के  बारे   में।


🪴शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆२.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

छान पुरानी 🦚 [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रहता   हूँ   छान  पुरानी   में।

भीगा  रहता   मैं  पानी   में।।


अपने  घर  में   संतोष   मुझे,

खोया  हूँ कलम -कहानी  में।


करती  हैं  नित उपकार  बड़े,

कृतकृत्य चरण माँ  रानी  में।


कुछ पता नहीं क्या पुण्य किया,

बस  खोया   रहता  बानी  में।


जन-जन का हो कल्याण सदा,

हों  शब्द  भाव उर - घानी  में।


गोमुखी   भाव -  गंगा की जो,

देता   हूँ   श्रेय    जुबानी    में।


गुरु,माँ,पितु का आशीष सदा,

हो निसृत 'शुभम'  मुहानी में।


🪴 शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

गरम रजाई 🍀 [ बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गरमाती   है    नरम    रजाई।

सोने  में    लगती   सुखदाई।।


शीतलता  जाड़े  की   हरती।

अब दादी क्योंऔर ठिठुरती।।


दिन  में  धूप    सेंकती  दादी।

संध्या  से  ही   ऊपर  लादी।।


माँ  के  सँग में  मैं सो जाता।

मिलती शांति तोष मैं  पाता।।


झबरी  म्याऊँ भी  घुस  जाती। 

ठंड उसे  भी   बहुत  सताती।।


ओढ़ें  अलग   रजाई   पापा।

अगियाने  पर   टॉमी  तापा।।


माँ ने   रोज   धूप   दिखलाई।

तब देती  सुख  गरम  रजाई।।


मोटा    गद्दा   लगता    ऊनी।

लगी   हुई  ज्यों  धीमी धूनी।।


रुई    रजाई      में    भरवाई।

इसीलिए       देती   गरमाई।।


'शुभम' न सिंथेटिक भरवाना।

पड़ता  है हमको समझाना।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.१२.२०२१◆९.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

गाँव में शेर 🦁 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार©

🦁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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एक   गाँव   में   आया   शेर।

हल्ला मचा  लिया  सब घेर।।


बिल्ली, कुत्ते , पिल्ले   आए।

चिल्लाकर सब  पीछे  धाए।।

नहीं   झपटने   में   की   देर।

एक गाँव   में    आया   शेर।।


गायें,   बकरी ,  भैंसें   आईं।

अपने  स्वर   में  सब  गुर्राईं।।

ले  खा   कबूतरी   की   छेर।

एक  गाँव  में    आया  शेर।।


कौवा, कैंका उड़ - उड़ आते।

काँव-काँव कें-कें कर जाते।।

बाँग  लगा   मुरगे    की  टेर।

एक   गाँव   में   आया  शेर।।


पूँछ   दबा   बुर्जी   में   बैठा।

तनिक  नहीं    गुर्राया  ऐंठा।।

बहुमत था चुप   हुआ अदेर।

एक  गाँव   में    आया  शेर।।


मैं  वन  का  भूला  आया हूँ।

देख  एकता   शरमाया   हूँ।।

'शुभम' न लौटूँगा अब   फेर।

एक   गाँव  में   आया   शेर।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.१२.२०२१◆२.४५

पतनम मार्तण्डस्य।


जाल नहीं मछली को प्यारा 🐋 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🐋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जाल नहीं  मछली को प्यारा।

लगती उसको प्रिय जलधारा।


जल के बाहर  बहुत तड़पती।

मर भी जाती  रहती सड़ती।।

जाल   प्राणलेवा    है   कारा।

जाल नहीं  मछली को प्यारा।


पानी  की   रानी   कहलाती।

तैर   दूर    गहरे    में  जाती।।

कभी फुदकती निकट किनारा

जाल नहीं  मछली को प्यारा।


कोई    जल   में   चारा  डाले।

मछुआ  उसके  प्राण निकाले।

सबका  होता   भाव   निनारा।

जाल  नहीं  मछली  को प्यारा।


बड़ी - बड़ी छोटी को  खातीं।

उदरपूर्ति   को   भोग बनातीं।

कछुआ लगता  बड़ा  दुलारा।

जाल नहीं मछली को  प्यारा।


घोंघा ,सीप    साथ  में  रहते।

पड़े  तली  में   रहते  बहते।।

'शुभम'सिंधु भू नभ से न्यारा।

जाल नहीं मछली को प्यारा।।


🪴 शुभमस्तु !

१८.१२.२०२१◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

तत्त्वों का मोल 🏞️ [ गीत ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मोल  नहीं   तत्त्वों  का  जाने।

लगते हैं  फिर जन पछताने।।


जन्मकाल  में   गोद  उठाया।

रहे अनाहत   हमें    बचाया।।

धरती का उपकार न माने।

मोल नहीं  तत्त्वों  का  जाने।।


अन्न, शाक, फल  देती धरती।

वसन प्रदान किए तन ढँकती।

गड्ढे  खोद    लगे  दुख   ढाने।

मोल नहीं   तत्त्वों  का जाने।।


पानी ही जीवन कहलाता।

हरा -भरा  पादप  हो जाता।।

लगता  बादल जल  बरसाने।

मोल नहीं  तत्त्वों का  जाने।।


जीव -जंतु  मानव  तरु सारे।

सब पानी  के   सदा  सहारे।।

गाते  सरिता,   सागर   गाने।

मोल नहीं  तत्त्वों  का जाने।।


पावक ताप नित्य देता है।

शीत  देह  का  हर  लेता  है।।

करता एक  न  कभी  बहाने।

मोल नहीं तत्त्वों  का  जाने।।


जठरानल से  भोजन पचता।

अंग-अंग में नवरस  सजता।।

देते  दीपक   ज्योति - तराने।

मोल नहीं   तत्त्वों  का जाने।।


नील गगन  का संबल अपना।

दिन में जागें निशि सो सपना।

सूरज -  चाँद   बदलते   बाने।

मोल  नहीं  तत्त्वों  का जाने।।


नभ में बादल  जल  बरसाते।

जीव-जंतु ,भू  सभी रिझाते।।

नभ को कौन नहीं पहचाने

मोल   नहीं  तत्त्वों का जाने।।


पवन देव से स्वत्व हमारा।

पाता है  जीवन  जग  सारा।।

बिना वायु क्या प्राण सुखाने?

मोल   नहीं  तत्त्वों का जाने।।


नहीं चले  वाहन  का पहिया।

करें हवा   बिन  दैया -  दैया।।

'शुभम'लगा उनको समझाने। 

मोल  नहीं तत्त्वों  का जाने।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.१२.२०२१◆१०.१५आरोहणं मार्तण्डस्य।

चाय का प्याला ☕ [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

☕ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गरम  चाय  का  हूँ  मैं प्याला।

सर्दी  दूर     भगाने     वाला।।


डंडी     थामे     मुझे   उठाते।

होंठों से  तब   मुझे   लगाते।।

लाल -हरा  रँग  गोरा- काला।

गरम  चाय का हूँ मैं  प्याला।।


सहन  चाय की गरमी करता।

कोई  चाय गरम जब भरता।।

करता  मैं  उपकार   निराला।

गरम  चाय का हूँ मैं प्याला।।


माँ कहती तुम चाय न पीना।

निकलेगा फिर तुम्हें पसीना।।

दूध  पियो  रे लाली-  लाला!

गरम  चाय का  हूँ मैं प्याला।।


दादी   मुझमें   काढ़ा   पीती।

कहता  हूँ   मैं अपनी बीती।।

दादा जी को  भी  दे   डाला।

गरम  चाय का हूँ मैं प्याला।।


अम्माजी  ने  कॉफी  डाली।

ले- ले चुस्की पिएँ निराली।।

पीते 'शुभम' ग्रीन- टी वाला।

गरम  चाय का हूँ मैं प्याला।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.१२.२०२१◆८.००आरोहणं मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

चारण - पुराण 🎯 [ व्यंग्य ]

 

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 ✍️व्यंग्यकार © 

 🚖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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             देश के इतिहास में एक समय ऐसा भी था,जो घोषित चारण - युग था। इसके विपरीत आज अघोषित चारण-युग है ।प्राचीन चारण - युग में कवि रचनाकार कवि ही नहीं , राजाओं ,राज परिवारों और राजघरानों के अतिशयोक्ति परक चाटुकार ,पत्रकार औऱ अंधानुयायी भी थे।तिल का ताड़ बनाकर प्रशंसात्मक कविता कहना ,सुनाना और उनकी प्रशस्ति का गुणगान करना उनका प्रमुख उद्देश्य था।एक की दस, दस की सौ औऱ सौ की हजार करना उनका बाएँ हाथ का खेल था। इतना ही नहीं उनके मित्र राजा द्वारा किसी की सुंदरी पत्नी /पुत्री/प्रेयसी को प्राप्त करने या राज्य का विस्तार करने के लिए किए जा रहे युद्ध के मैदान में उनका उत्साह वर्द्धन करना भी उनका ही काम था। शृंगार से वीर रस की गंगा में ये चारण कवि ही तो गोते लगवाते थे। 

             संदर्भित चारण कवियों का अपनी लेखनी या मुँह /वाणी से चाहे जितना भी घनिष्ठ सम्बंध रहा हो , किंतु मेरी सोच के अनुसार उनका सम्बंध 'चरणों ' से अधिक था। जो राजा औऱ रानी के चरणों के जितना अधिक निकट सम्बंध स्थापित कर लेता , ख्याति की श्रेणी उतनी ऊपर चढ़ जाती थी। सम्भवतः 'चरण - चुम्बन करना', मुहावरे का जन्म भी तभी से हुआ होगा।आज उसका साक्षात स्वरूप जीवंत हो रहा है।जो राज परिवार, राज सेवक औऱ राज सम्बन्धियों का जितना अधिक सानिध्य प्राप्त कर ले, वह उतनी ही अधिक माखन मिस्री, दूध मलाई, बदन पर लुनाई ,देह पर चिकनाई का लाभ प्राप्त कर फ़र्श से अर्स की ऊँचाइयां हासिल कर लेता है।

            वर्तमान कालीन युग के चारणों की सूची बहुत बड़ी है।रीतिकालीन कविवर बिहारी लाल ने भले ही सात सौ सोलह दोहा - सोरठा छंदों की सतसई लिखकर मिर्जा राजा आमेर नरेश जय सिंह से प्रत्येक छंद पर सोने की अशरफी प्राप्त की हो अथवा नहीं, परंतु आज के तथाकथित चारण - वृंद ऐसा एक भी सुनहरा अवसर हाथ से खाली नहीं जाने दे सकते।चाहे वे टीवी पत्रकार हों, अखबार या अखबारी पत्रकार हों, चापलूस कवि हों, चरण - चुम्बन के बिना ऊपर जा ही नहीं सकते।छुटभैया समाज सेवी, अंधानुकरण में आपादमस्तक डूबे हुए बैनर पोस्टर लगाने वाले, गड्ढे खोदने वाले (अब ये कैसे कहें कि वे किसके लिए गड्ढे खोदते हैं, अपने लिए तो कदापि नहीं खोदते होंगे।), प्रचारक, परचम लहरावक अथवा कोई अन्य। सबका एक ही उद्देश्य , चाहे वह सत्ता कैसी भी क्यों न हो।

             सत्य को पर्दे में छिपाना औऱ सत्ता /सत्ताधीश का बिगुल बजाना, यही उनका एकमात्र लक्ष्य है। देश की क्या ? पहले राजा ,राजनेता, राजनीति, सत्ता, जिसकी इच्छा के बिना हिलता नहीं पत्ता। वही देश है ,उसी की भक्ति देशभक्ति है। इसीमें उनकी मुक्ति है , चाहे आम आदमी की हो या न हो। जब आम आदमी की मुक्ति हो ही गई ,फिर नेताओं का होगा भी क्या ! क्या होगा चुनाव का। चुनाव ही तो चुन चुन कर पार उतारता है। यह तो उसकी इच्छा है कि किसे उतारे किसे नहीं भी उतारे! जो उसकी नित्य आरती उतारे, उसी को वह अपने सिर पर धारे।

        चारण के लिए चरणों का सोपान अनिवार्य है। वह नख को छूकर शिखा तक पहुँच यों ही नहीं बना पाता। इसी से नख-शिख शब्द शृंगार के शब्दकोश में आया प्रतीत होता है।यही तो शृंगार -चित्रण की भारतीय पद्धति है।नीचे से पहाड़ पर चढ़ती हुई पिपीलिका सर्वोच्च शिखर पर जा पहुँचती है, तो फिर महान चारण जी तो उस नन्हीं पिपीलिका से लाखों करोड़ों गुणा विशाल हैं,महान हैं,ज्ञानवान हैं ,गुणवान हैं। वे तो पहाड़ से भी ऊपर हेलीकॉप्टर यात्रा के मेहमान हैं। मेरा देश इसीलिए तो महान है।

       अभी आपने यह जाना कि चारण का विशेष औऱ घनिष्ठ सम्बंध 'चरणों ' से है। चरणों के साथ -साथ ' रण ' से भी उनका विशेष सम्बंध रहा है। रण की चाह में चापल्य ,चूना चिपकाने में जो चतुर हो, वही सफल 'चारण' की पदवी धारण कर सकता है।चपलता, चतुराई,चटुलता, चमत्कारिता, चश्मबद्दूरी ( बुरी नज़र से दूर हटाने वाला) की चाशनी चिपका पाए , वही सच्चा ' चारण'। आज 'चारण' के बिना नहीं होता शंका निवारण।जब चापलूस ' चारण ' कहेगा कि आपको लघु शंका निवारण करनी होगी ,तो कर लीजिए, आइए मैं कुछ मदद कर दूँ ! तभी उन्हें याद आएगा कि अरे! आप तो बहुत अच्छे हैं! अन्यथा .......पता नहीं क्या हो जाता ! 

         यों तो ' चारण-पुराण' की कथा अंनत है। हर चारण आज के युग का आधुनिक संत है , उसी से सियासत के खेतों में वसंत है, किन्तु चारण के आचरण, चरण औऱ संचरण पर सियासती धनवंत है।वह राजनीति के देवालय का ऐसा महंत है, कि उसके बिना न पूजा है , न पाठ और नहीं आरती।जब आरती ही नहीं ,तो प्रसाद मिलेगा भी क्यों? आरती के बाद फिर वही पुरानी बात: 'अंधा बाँटे रेवड़ी .........' 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १७.१२.२०२१◆२.१५ पतनम मार्तण्डस्य

बाल हमारे 👨‍🎤 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

👨‍🎤  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बाल       हमारे       काले -  काले।

सीधे     हैं    कुछ       के  घुँघराले।।


तेल       महकता     खुशबू  वाला।

मेरी    माँ    ने     सिर    में डाला।।

कंघी        से       काढ़े    मतवाले।

बाल        हमारे       काले - काले।।


मुनिया    के       हैं     लंबे कितने।

झूम      रहे     कंधों    पर   इतने।।

कभी    लगे    मकड़ी     के  जाले।

बाल        हमारे       काले - काले।।


गुहती    मुनिया     की     माँ चोटी।

दो - दो     कभी,    कभी   हो मोटी।।

फीता        लाल      चुटीले    वाले।

बाल      हमारे       काले   -  काले।।


कमर   ढँकी    मुनिया    की माँ की।

लगती    मोहक    सिर   की झाँकी।।

बादल      जैसे          घने    निराले।

बाल        हमारे        काले -  काले।।


बाल        हमारे        माँ    कटवाती।

नाई         से         कैंची    चलवाती।।

नहीं         फेंकना       नाली -  नाले।

बाल       हमारे          काले -  काले।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.१२.२०२१◆३.०० पतनम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...