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गुरुवार, 13 जुलाई 2023

सद्भाव की राह ● [ दोहा ]

 301/2023

 

[ अंकुर,मंजूषा,भंगिमा,पड़ाव,मुलाकात]

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● ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       ● सब में एक ●

रूपराशि -  रमणीयता,  पिघलाए  नवनीत।

उर में नव अंकुर उगे,तन हो गया   सतीत।।

अंकुर उगते देखकर, रविकर हैं  अभिभूत।

धीरे - धीरे   छू  रहीं,   पावन भानु   प्रसूत।।


उर- मंजूषा  में  भरे,अगणित मुक्ता-मीत।

कवि  में वे  कविता बनें, गायक में संगीत।।

मंजूषा में  बंद कर,शिशु का   किया  प्रवाह।

माँ का उर पत्थर हुआ,निकली क्या मुखआह?


लास्य- भंगिमा देखकर,बढ़ती मन-आसक्ति।

सत प्रियता जाग्रत हुई,उमड़ी पावन  भक्ति।।

क्षण-क्षण बदले भंगिमा, अद्भुत  तेरा रूप।

असमंजस  में खो  गया, चतुर चितेरा  भूप।।


आते   बहुत पड़ाव  हैं,  लेता   जीवन   मोड़।

मन को तनिक विराम दें,थके नहीं बस गोड़।।

चिंतन  करने  के  लिए,पथ में मिले    पड़ाव।

जाते  हो  जिस  राह  में, चलना  सह सद्भाव।।


मुलाकात  को  मित्रता, नहीं समझना  मित्र।

हर  सुगंध  होती नहीं, मनभावन  शुभ  इत्र।।

मुलाकात ऐसी  बुरी,जो घातक   हो  नित्य।

तमस तभी उर का मिटे,निकले जब आदित्य।


         ●  एक में सब ●

मुलाकात की भंगिमा,

                             समझें पंथ - पड़ाव।

उर-  मंजूषा    खोलकर,

                             दिखा न अंकुर- घाव।।


●शुभमस्तु !


12.07.2023◆6.00!आ०मा०


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

अंत भला तो सब भला 🪦 [ दोहा ]

 311/2022

 

[आरम्भ, प्रारब्ध,आदि,अंत,मध्य]

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ☘️ सब में एक  ☘️

देर नहीं  पल  की  करें,  करने में   आरंभ।

करना हो शुभ काम तो,पालें मत मति-दंभ।।

करता है आरंभ जो,सही समय पर  काम।

मिलें शांति,सुख,हर्ष की,भेंटें सुखद विराम।।


लिखा हुआ प्रारब्ध में, उसका है परिणाम।

वर्तमान में जो मिला,है भविष्य   के  नाम।।

सबका निज प्रारब्ध है,हर मानव के साथ।

योनि  बदलती देह की,रहता कर नत माथ।।


आदि भला तो अंत भी, देगा शुभ परिणाम।

लगन परिश्रम से किया,यदि कर्ता ने काम।।

आदि देव का ध्यान कर,करता जो आरंभ।

चरण  चूमतीं  प्राप्तियाँ,ढहते बाधक खंभ।।


क्या  चिंता है अंत  की,शुभम हो श्रीगणेश।

सुखद मिले फल आपको,रहते साथ महेश।।

अंत भला तो सब भला,सफल कर्म परिणाम

उसकी जय जयकार हो,करता जग में नाम।


जीवन का  मध्याह्न  है,तप्त भानु   की  धूप।

मध्य जिसे कहते सभी,नित्य बदलती रूप।।

जा पहुँचा जो मध्य में, बढ़ना ही  पथ ठीक।

सोच लौटने की न हो,मिले तभी फल नीक।।


      ☘️ एक में सब ☘️

कर्म  जीव- प्रारब्ध का,

                      यदि  पावन आरंभ।

आदि,मध्य शुभ अंत हो,

                     साथ  न   देगा दंभ।।


🪴 शुभमस्तु !


०३.०८.२०२२◆७.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 31 जुलाई 2022

सुप्रभात पावनी 🌅 [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🌅 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हर  हरियाली तीज को,कजरी आती याद।

कैसे  झूमें   पींग  में,  विस्मृत झूला  नाद।।

रिमझिम  बूँदें  नाचतीं,  भीगे गोल कपोल।

चोली चिपकी अंग  से,चूनर करे  किलोल।।


सावन में  तन  ही  नहीं,भीगा मन   पुरजोर।

उठी मींजती  आँख तिय,देह भिगोती भोर।।

भीगे   अपने  नीड़   में , गौरैया   के  पंख।

नदी   बहाकर  ले   गई, घोंघे, सीपी , शंख।।


गरज बरस घन-घन करें,पावस के जलवाह।

प्यासी धरती को करें,सहज समर्पित  चाह।।

वेला आई भोर की,प्रमुदित प्रकृति  अपार।

हवा बही सुखदायिनी,खुले नयन के द्वार।।


कलरव  करते खग सभी,नाच रहे  वन  मोर।

रवि किरणें हँसने लगीं,हुई सुनहरी    भोर।।

बैल जुआ,हल ले चले,हर्षित सभी किसान।

अन्न  उगाने   के  लिए,  मेरा देश    महान।।


दुहने  को ले  दोहनी,दूध गाय का    नित्य।

माता  आई  सामने,  करने दैनिक  कृत्य।।

दधि ले मंथन कर रही,बना रही   नवनीत।

माताएँ  घर -घर सभी,वर्षा, गर्मी,    शीत।।


पर्व  श्रावणी  के   लिए, बहिनें  हैं    तैयार।

राखी  घेवर  सज  रहे, पावन भगिनी प्यार।।

ताम्रचूड़  की  बाँग   से, जाग उठा  है  गाँव।

शरद  सुहानी   आ गई ,हमें न भावे   छाँव।।


कजरी अब इतिहास है,शेष न रही मल्हार।

सूखा  घेवर दे रहा, राखी  का शुभ  वार।।

अहं  क्रोध  के ज्ञान का,होता सदा  विनाश।

कवि,पंडित या सूरमा,ढह जाता गढ़ ताश।।


ऋतु रानी पावस करे, सहज सुखद आंनद।

मेघ  मल्हारें   गा  रहे,सरिता पढ़ती   छंद।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०७.२०२२◆४.००पतनम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 27 जुलाई 2022

गाछ :प्रकृति उपहार 🌳 [ दोहा ]

  

[कलगी,अंकुर,पत्ती, शाखा ,फल ]

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       🌲 सब में एक 🌲

कलगी लगती नाचने, बहता  सजल समीर।

तन-मन कवि का झूमता,होता शुभं सुधीर।

कुशल कलापी-शीश पर,कलगी करे किलोल

नर्तन में  इत -उत फिरे, नहीं उमड़ते  बोल।।


पावस  में   बूँदें  झड़ीं, रही  न धरा   उदास।

अंकुर फूटे घास के,महकी सजल  सुवास।।

देख हरित अंकुर नए,प्रमुदित हुए किसान।

उर में उगती आस का,होता 'शुभम्' विहान।


पत्ती पीपल -पेड़ की,थिर न रहे पल  एक।

प्राणवायु  देती सदा,हितकारी शुचि  टेक।।

पत्ती- पत्ती   में  पके, पादप   का  आहार।

हरी   रसोई   सोहती,  धरती महा    प्रभार।।


मूल,तना,शाखा सभी, पाँच अंग दल फूल।

सबका अपना धर्म है,'शुभम्' न जाना भूल।।

शाखा से शाखा उगे,बहु शाखी   हो  गाछ।

सदा फूल ,फल  दे वही,मीत न  देना  पाछ।।


जीवन   का फल कर्म से,भरे हजारों  बीज।

जैसा  पेड़  उगाइये, वैसा  ही फल    चीज।।

क्यों फल की इच्छा करे,पाता स्वयं सहेज।

सत्कर्मों  में रत  रहे,बँधे न यम  की  लेज।।


       🌳 एक में सब 🌳

शाखा, फल, पत्ती सभी,

                         अंकुर , कलगी मीत।

'शुभम्'    गाछ    के  अंग हैं,

                           झेलें    आतप   शीत।।


*पाछ=घाव।

*लेज= रज्जू।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०७.२०२२◆११.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

पावस सजल बहार 🌈 [ दोहा ]

 

[पावस,पपीहा,मेघ,हरियाली,घटा]

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         🪦 सब में एक 🪦

पावस पावन प्रेम की,प्रिय ऋतु का उपहार।

धरती, नारी  के   लिए, बहती प्रेमिल  धार।।

कुहू- कुहू  कोकिल  करे,सारन स्वाती  नीर।

पावस में  गुंजारते,तनिक नहीं   उर  धीर।।


स्वाति -बिंदु का त्याग कर, पिए न गंगा नीर।

पपीहा प्रण के हेतु ही,सहे हृदय   में  पीर।।

पुष्ट पपीहा भक्ति का, ख्यात जगत में नाम।

मानव खग से सीख ले,होगा यश अभिराम।।


मेघ- गर्जना  जब  सुनी, हर्षित  नाचे  मोर।

मेहो - मेहो   गा रहे,कानों  को प्रिय    शोर।।

विरहिनअति व्याकुल हुई, सुनी मेघ की रोर।

तड़ित चमकती शून्य में,हुई नहीं थी  भोर।।


रिमझिम बरसे वारिधर, हरियाली चहुँ ओर

साड़ी  धानी   धारती, धरती मौन   सुभोर।।

हरियाली-तीजें मना, रहीं भगिनि माँ नारि।

अमराई  में  झूलतीं,  पावस की   अनुहारि।।


घटा साँवली  देखकर, बगुले  बना  कतार।

नभ में  उड़ते  जा रहे,कर संवाद   विहार।।

घटा देख हलवाह के,मन में अति उल्लास।

युगल नयन हर्षित हुए,सुषमा का गृहवास।।


        🪦 एक में सब 🪦


मेघ -घटा नभ  में  उठी,

                        पावस  का   उपहार।

हरियाली    छाई    नई,

                         पपिहा करे   पुकार।।


🪴शुभमस्तु !


१९.०७.२०२२◆११.००

पतनम मार्तण्डस्य।

सिर पर है छत भी नहीं ☘️ [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दो  बालक  सिकुड़े  हुए, ढँके टाट से शीश।

बैठे  भूखे अन्न से,   कृपा   करें   जगदीश।।


सिर पर है छत भी नहीं, तन पर जर्जर वेश।

उदासीन मन देखते, उलझ रहे सिर केश।।


निर्धनता अभिशाप है, दे न किसी को ईश।

मिलें उदर को रोटियाँ,झुके न नर का शीश।


मर  जाना  स्वीकार  है, पर न माँगते  भीख।

स्वाभिमान से जी सकें,यही मिली है सीख।।


बोरी या  तिरपाल  से,ढँकता निर्धन  शीश।

फैलाए  जाते  नहीं,हाथ कभी जगदीश।।


दीन- हीन बालक युगल, बैठे चिंतित मीत।

इनको भोजन चाहिए,हार न इनकी जीत।।


दे  ईश्वर   यदि  जन्म तो, दे रोटी   भरपेट।

तन ढँकने को वस्त्र भी,बनें न नर आखेट।।


नियति नहीं जिनकी सही,उन्हें न आए चैन।

रहने को  घर भी नहीं, कटे न दिन या  रैन।।


योनि मिली नर देह की,पशुवत जीवन चक्र।

राह   नहीं  सीधी कहीं,जीवन - रेखा   वक्र।।


मात- पिता  रहते दुखी,पाकर वह  संतान।

जिनके पाने से  नहीं,  मिलती शांति महान।।


कर्म - दंड  नर भोगते, निर्धन बनते  लोग।

घेरे   ही  उनको   रहें, सदा आपदा   रोग।।


 🪴शुभमस्तु!

१९.०७.२०२२◆ १.५५पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 14 जुलाई 2022

ओलम से आलम मिला 🪷 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ★

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गुरु के विशद गुरुत्व का,अतुलनीय है मोल।

शत - शत वंदन मैं करूँ, बिना तराजू तोल।।

पल में तम  को दूर  कर,देते नवल   प्रकाश।

गुरु-महिमा कैसे कहूँ, दाता जीवन -  प्राश।।


पहली गुरु जननी सदा,जनक द्वितीय प्रकाश

नभ सम रूप विराट है,जीवन का  विश्वास।।

जननी  गुरु की कुक्षि ने,भू पर दिया  उतार।

लिया अंक में  नेह से,जीव मनुज   उपहार।।


उठ-गिर भू के अंक में,चलन सीख नर जीव।

आजीवन अभार हो,गुरु भू माँ  शुभ  नीव।।

गुरु- कर   से गह लेखनी,सीखे अक्षर  चार।

शब्द वाक्य का क्रम चला,जीवन का उपहार


गुरु - पद का स्पर्श  कर,लेता दुआ   अपार।

धन्य-धन्य जीवन हुआ,आजीवन  आभार।।

ओलम से आलम मिला,बदल गया संसार।

गुरु ने अपने चाक पर,दिया 'शुभम्'उपहार।।


गुण, वय में जो हैं  बड़े,वे सब गुरु  के रूप।

भले  अकिंचन मैं 'शुभम्',भले देश का भूप।।

नन्हीं एक पिपीलिका,है गुरु का  सत  रूप।

देती प्रेरक शक्ति जो, गिरे न नर  भव-कूप।।


मात, पिता ,गुरु  का  करे,

                        यदि   मानव अपमान।

वह  निकृष्ट  नर  जीव  है,

                           बहु  पापों की  खान।।


🪴शुभमस्तु !


१४.०७.२०२२◆ ८.४० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


सावन की बहार 🌈 [ दोहा ]

 

[कजरी,तीज,चूड़ी,मेंहदी,झूला]

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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    🌳 सब में एक 🌳

सजनी सावन आ गया,गाएँ कजरी गीत।

झूला झूलें  आम्र  तरु, हर्षाये मन - मीत।।

कजरी देवी से कहे,सजन जिएँ सौ साल।

हे  माँ  तेरे  द्वार  पर,  नाचूँ  दे -  दे  ताल।।


उमा उमापति मैं करूँ,निर्जल व्रत हैं तीज।

जैसे पति तुमको मिले,पाऊँ धरणि सु-बीज।

तीज पर्व  आया  सखी, गाएँ कजरी आज।

पूजें  शिव- माता उमा,पूजा में क्या लाज!!


चूड़ी लाल  सुहाग की,पहन कलाई   हाथ।

वंदन सधवा कर रहीं ,रहें पिया नित  साथ।।

चूड़ी  शुभ   शृंगार  है,नारी के  शुभ   हेत।

पैरों  में  पायल  बजे, कर चूड़ी  समवेत।।


घिस पत्थर पर मेहँदी,देती रँग  शुभ  लाल।

सुंदर  प्रेम  प्रतीक ये,करता सदा   कमाल।।

गर्मी तन  की खींचकर,देती अति    आराम।

कर पग की शोभा बढ़े, मेहँदी सुघर सुकाम।


सावन  में झूला  कहाँ, शेष बचा  है  नाम।

मन  का झूला झूलिए,मिलता है    आराम।।

चलें  सखी  हम बाग में,झूलें झूला    आज।

सावन  का प्रिय मास है, आएँगे  सरताज।।


    🌳 एक में सब  🌳

झूला, कजरी, तीज का,

                      आया   शुभ संयोग।

सावन के शुभ मास में,

                   चूड़ी    मेहँदी   भोग।।


🪴 शुभमस्तु !


१३.०७.२०२२◆६.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 10 जुलाई 2022

प्रकृति की जीत:मानव की हार 🌳 [ दोहा ]

 11 जुलाई ,विश्व जनसंख्या दिवस पर:


 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कोई कैसे कह सके ,करें  जन्म  दर   न्यून।

जनसंख्या -विस्फोट से,झुलसा हर्ष -प्रसून।।

चिंता बढ़ी विकास की,करते नित्य  प्रयास।

बढ़ते  बच्चे जा रहे,तनिक नहीं आभास।।


जल भोजन आपूर्ति के,संसाधन का लाभ।

सुविधा से मिलना नहीं, कैसे जीएँ  गाभ।।

असन वसन शिक्षा नहीं,नहीं विरजआवास।

जन की संख्या क्यों बढ़े,दूभर हो जब श्वास।


सब ही जीना  चाहते, बढ़ते नित्य   अभाव।

ऊपर  वाला   दे  रहा,उत्पादन का    चाव।।

ऊर्जा  ईंधन  की  सदा,अपनी सीमा   एक।

स्वयं नियंत्रित जन करें,देख मीत सविवेक।।


प्रकृति संतुलित क्यों रहे,नहीं समझता मूढ़।

बाढ़ ,वृष्टि, भूकंप  के,हैं रहस्य अति   गूढ़।।

जीवन -स्तर श्रेष्ठ हो,सब जन हों    सानंद।

पढ़ें -लिखें आगे बढ़ें,विकसे मुख -अरविंद।।


नियम  बनाए  आदमी, किंतु नहीं   पाबंद।

चार नारि  नर एक ही,घेर पड़ा   स्वच्छन्द।।

न्याय  प्रकृति का मानना, तुझे पड़ेगा मीत।

हो  मानव  की  हार  ही,वह जाएगी   जीत।।


'शुभम्'   सँभल जा तू अभी,

                           मानवता   के     हेत।

बूँद   नहीं    जल   की   मिले,

                            फाँकेगा क्या   रेत ??


🪴 शुभमस्तु !


१०.०७.२०२२◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


बुधवार, 6 जुलाई 2022

पिंगल से अज्ञान मैं 📙 [ दोहा ]


[छंद,शब्द,ग्रंथ,संवाद,व्याकरण]

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     🌱 सब में एक 🌱

पिंगल  से  अज्ञान मैं,  नहीं जानता   छंद।

माँ वीणा की ही कृपा, यद्यपि मैं  मतिमंद।।

पिंगल से बँधकर चले,काव्य सुधा सह छंद।

भाव हृदय को छू सकें,सुमधुर कविता कंद।।


शब्द-ब्रह्म से सृष्टि का,हुआ सृजन अभिराम

गीता वेद  पुराण  का,प्रसरित ज्ञान  सुनाम।।

शब्द नाद की घंटिका,बजती अनहद व्योम।

अविरल टपके बिंदु शुचि,रिसता अंतर सोम।


ग्रंथ वही जिसमें सदा,सत का हो  आगार।

मानवता शुभ राह को,गह ले बिना  विचार।।

हिंसा  की  शिक्षा जहाँ, ग्रंथ नहीं   दुर्भाग।

छूना  उसका पाप है,क्यों न झोंक  दें आग।।


आपस में संवाद का, है महत्त्व  अनमोल।

मुख से वाणी बोलिए, प्रेम - तराजू  तोल।।

घर समाज में  नेह के, जब होते   संवाद।

नहीं किसी जन से उठे,चीत्कार  का नाद।।


जब कविता लेखन करे,सीख व्याकरण ज्ञान

विद्वतजन के मध्य में,क्यों होगा अपमान??

पका न हो फल आम का,मिले न रस आनंद

पुष्ट व्याकरण ज्ञान से,आते लय गति छंद।


   🌱 एक में सब  🌱

उचित शब्द रस छंद से,

                         शोभित  हों संवाद।

विज्ञ व्याकरण से सजा,

                         ग्रंथ करे शुभ  नाद।।


🪴शुभमस्तु !


०५.०७.२०२२◆११.३०

पतनम मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 5 जुलाई 2022

अरुन्धती का मंच 🪦 [ दोहा ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दाँत  पड़ौसी  मीत   हैं, रसना के    बत्तीस।

 नित  करते  सहयोग  वे,रक्षा में  इक्कीस।।

कूट - पीस  कर खाद्य को,सदा सौंपते  दाँत।

रसना  रस  लेती  रहे,  नहीं रदन  की पाँत।।


दो  जबड़े  दो  गाल  भी,रसना के आवास।

दो अधरों का द्वार ये,रसिका को  है  रास।।

है अभेद्य मुख की गुहा,अरुन्धती का मंच।

नित स्वतंत्र बड़भागिनी, वक्ता वाचा पंच।।


स्वर्ग  नरक  की दायिनी,वाचा पढ़ती  मंत्र।

भीतर से हर कर्म का, चला रही निज तंत्र।।

कोकिल -सी रस घोलती, कभी टिट्टिभी एक

वीणा  बन  झंकारती,रसना साध    विवेक।।


किसी-किसी की मुखगुहा,में दो का सुखवास

दिखती है बस एक ही,करे जीभ   उपहास।।

लाल गाल पिचकें भले, रहती सदा  जवान।

रदन विदा भी हो चले,यौवन मत्त  ज़बान।।


हर  पल  रस में लीन है,संज्ञा रसा   सुनाम।

वाणी भाषा स्वाद में,निपुण करे बहु  काम।।

कुलटा  नेता की गिरा, गिरती आठों  याम।

कुलटा कुल की बोरनी,नेता निपट निकाम।।


सत्कवि वाचा मोहिनी,विकट विमल सत मंत्र

'शुभम्' सुहृद रस जानते, सुधरे विकृत तंत्र।।


🪴 शुभमस्तु !


०४.०७.२०२२◆१२.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 29 जून 2022

धाराधर नभ में छाए ⛈️ [ दोहा ]

 

[ वृष्टि, धाराधर,बरसात,प्यास,पुष्करिणी]

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✍️ शब्दकार©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     🚦 सब में एक 🚦

कूक -कूक कोकिल करे,अमराई  में  रोर।

वृष्टि करो घन साँवरे,  हुई सुहानी   भोर।।

सु-समय जल की वृष्टि से,अवनी को वरदान

जीव, जंतु, पादप, लता,करते हैं जल पान।।


धाराधर जलधार   ले,अंबर  में   साकार।

वन,उपवन,मैदान में, खोलें जल - आगार।।

धाराधर ले  हाथ  में, आया जब  बनबीर।

पन्ना  दाई  हो  गई, उदय - त्राण    बेपीर।।


नारी-दृग  बरसात  में,शेष बचा  है  कौन!

पिघलें पाहन मोम- से,पतित भूप के भौन।।

सावन की बरसात से,हर्षित भू, वन, बाग।

खेत,लता,पादप सभी,शमित जेठ की आग।


जितना बरसे नैन जल,उतनी बढ़ती प्यास।

सावन में बरसें जलद, विरहिन और उदास।।

प्यास तुम्हारे दरस की, नित करती  बेचैन।

तनिक न कल दिन में मिले, नींद नआए रैन।


धाराधर   नभ  छा  गए, गिरे दोंगरा   मीत।

पुष्करिणी हँसने लगी,तपन गई अब बीत।।

पुष्करिणी जलमग्न हो,सर में करती मोद।

क्यों जाए अब रेत में,प्रिय पानी  की  गोद।।


    🚦  एक में सब  🚦

धाराधर   बरसात  में,

                       करते    हैं जल  - वृष्टि।

पुष्करिणी की प्यास हर,

                      हर्षित     होती     सृष्टि।।

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धाराधर =बादल,खड्ग।

पुष्करिणी= तलैया, हथिनी।

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🪴 शुभमस्तु !


२८ जून ११.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 28 जून 2022

धान -पौध धर स्कंध 🌱 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कंधे  पर  रख पौध को, जाता खेत किसान।

पानी  टपके   मूल  से,  रोपेगा वह    धान।।


डंडे  के  दो  छोर  पर, पौध लटकती  मीत।

रोपेगा जब  खेत  में,कृषक मानता  जीत।।


धान- पौधशाला  सजी,सघन पौध  से आज।

मूल सहित लाया अभी,फसल बने सुखसाज


टप -टप  टपके मूल से,पानी अविरल  बूँद।

चला जा रहा खेत की,मेंड़ कृषक चख मूँद।


हरा - हरा हर खेत है, हरी मेंड़  पर  घास।

हरी पौध काँधे रखी,नई फसल  की  आस।।


देता  सबको  अन्न वह,भारत वीर  किसान।

जाता है निज खेत पर,होते कनक- विहान।।


आओ हम स्वागत करें,शुभं कृषक का मीत।

जीता नित्य अभाव में,फिर भी उसकी जीत।


🪴 शुभमस्तु !


२८ जून २०२२◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।


छाया चाहे छाँव 🌳 [ दोहा ]

  

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✍️  शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दादुर    बोला    दादुरी,  आई पावस   रैन।

मेघ अभी बरसे नहीं,मिले न पल  भी चैन।।


अवधि गई आषाढ़ की,आधी गिरी न  बूँद।

सिर के ऊपर उड़ रहे, बादल आँखें  मूँद।।


कूक-कूक कोकिल थके,अब बैठे धर मौन।

अमराई  में शाख पर,झूल रही अब  कौन!!


पक कर पीले पड़ गए, अमराई  में   आम।

टप-टप कर गिरने लगे,नित्य भोर निशि शाम


धरती  प्यासी ऊँघती,है मावस    की  रात।

पुरवाई  चुपचाप-सी, करती  है  क्या  बात!!


पूरब  से  पच्छिम   चले, फूफा  फूले  गाल।

बादल नभ  में  टहलते, वर्षा बिन बदहाल।।


बरसा  एक न  दोंगरा, धरती प्यासी   मौन।

पड़ीं  दरारें  देह  में,  बहे न शीतल   पौन।।


छाया को भी  छाँव  की,लगी हृदय में चाह।

मौन नीम वट शिंशुपा,निकल रही है आह।।


रहा तमतमा भानु का,मुखमंडल नित गोल।

पल्लव हिले न एक भी,नहीं रहे तरु डोल।।


सरिताएँ  कृशकाय हैं, सर में पड़ी  दरार।

तेज धूप  व्याकुल करे,बादल हुए  फरार।।


पानी - पानी रट रहे,मानव पशु  खग धीर।

मुरझाए  पल्लव  लता,दिया न  पावस नीर।।


  🪴 शुभमस्तु !


२८ जून २०२२◆९.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

बुधवार, 22 जून 2022

पावस ऋतु मनभावनी 🌈 [ दोहा ]


[पावस,बरसा,फुहार,खेत,बीज]

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         🌳 सब में एक 🌳

आसमान नीला नहीं, छाए सित   घन   घोर।

रिमझिम पावस नाचती,गीत लीन पिक मोर।

पावस ऋतु झरझर करे, उधर विरह का नीर

विरहिन के दृग से झरे, टीस रही  उर  पीर।।


बाहर आ सखि देख तो,बरसा निर्मल नीर।

झुक-झुक बादल आ गए,कलरव करते कीर

प्यासी धरती देखकर,द्रवित हुए  घन  मीत।

बरसा जल आषाढ़ में,बढ़ी धरा  की  तीत।।


नन्हीं   बूँद फुहार  का, लेना   हो    आंनद।

चलो मीत  बाहर चलें,बरस रहे    घन  मंद।।

सखि फुहार बढ़ने लगी,चिपकी चोली देह।

बंद  करें अब झूलना,चलतीं हैं निज गेह।।


पावस ऋतु मनभावनी,शेष नहीं  अब  रेत।

बरस  रहे हैं मेघ  दल,भरते सरिता  खेत।।

सावन बरसा देखकर,मन में मुदित किसान।

खेत बने तालाब- से, छोड़ी  खाट  विहान।।


बोए बीज  किसान  ने, उर्वर  धरती  खेत।

हरे -हरे अंकुर खिले,सकल सघन समवेत।।

बीज-वपन की कामना, नारी - हृदय अधीर।

विकल प्रतीक्षा में बड़ी,मिटे गात की  पीर।।


      🌳 एक में सब  🌳

बरसा बादल खेत में,

                         पड़ती सघन   फुहार।

पावस  में   हलवाह   ने, 

                              बोए बीज   अपार।।


🪴शुभमस्तु !


२२.०६.२०२२◆०६.००

आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 19 जून 2022

स्वर्ग का द्वार :पिता 🪷🪷 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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प्रथम पता मेरे पिता, पावन मम    पहचान।

उऋण नहीं होना कभी, सागर,शृंग  समान।।

संस्कार शुभतम दिए,जनक 'शुभम्' सुत मूल

भले क्रोध  करते कभी,रहे सदा   अनुकूल।।


कभी न ऊँचे बोल में,बोला पितु के   साथ।

दृष्टि विनत मेरी रही,सदा झुका पद -माथ।।

पितृ- दत्त आदेश का,सदा किया   सम्मान।

वह अनुभव के  ग्रंथ थे,हित मेरे    वरदान।।


अश्रु पिता के नयन से,गिरे न 'शुभम्' समक्ष।

घर भर के आधार वे,गृह- वाहन  के अक्ष।।

जननी के दो चरण में,रहता स्वर्ग - निवास।

पिता द्वार उस स्वर्ग के,मत समझें  ये हास।।


दिया पिता ने प्यार जो, कौन करेगा   और।

नहीं अभावों में जिया,'शुभम्'पिता सिरमौर।

सूरज-से पितु गर्म थे, पर प्रकाश - भंडार।

उनके छिपते ही भरा, जीवन में  अँधियार।।


आज पिता की रश्मियाँ, देतीं सुखद प्रकाश।

ऊर्जा उनके नेह की,भरती'शुभम्' सु-आश।।

पितृ कर्म से कीर्ति का,ध्वज लहरा आकाश।

शक्ति,ज्ञान,सम्मान से,मिला 'शुभम्'मधुप्राश।


जीवन में सब कुछ मिला,मात पिता आशीष

जन्म-जन्म भूलूँ नहीं,'शुभम्'कृतज्ञ मनीष।।


🪴 शुभमस्तु !


१९जून २०२२◆१२.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 17 जून 2022

सुप्रभात 🌅 [ दोहा ]


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✍️  शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कर्म-वृक्ष की शाख पर,लगते फल अनमोल।

सदभावों   से  सींचिए,मिलते हैं   अनतोल।।


देख   दूसरे   वृक्ष   पर,  फल मीठे     रंगीन।

ललचाओ  मत  मानवो, होना कर्म  प्रवीन।।


परजीवी   बनकर  रहे,चूसे पर   धन   खून।

जीवन में खिलना नहीं,उसका भाग्य प्रसून।।


समय कभी  रुकता नहीं,भोर दुपहरी  शाम।

प्राची में   सूरज  उगे,करता जगत   प्रनाम।।


जगत चाल को देखके,सबक लीजिए सीख।

धोखा मत देना  कभी,सदा तुम्हारी   जीत।।


रात  गई  तम है  विदा,आई मधुरिम  भोर।

नई  आस  ले  जाग  तू, करें पखेरू  शोर।।


सघन अपेक्षा ही बड़ी,दुख का  कारण  एक।

व्यर्थ बोझ सिर ढो रहा, खो तू स्वयं विवेक।।


नाच  रहीं  गोधूम   की, बालीं ले   हिलकोर।

चिड़ियाँ चहकी  पेड़ पर,देख सुनहरी भोर।।


कुहू-कुहू कोकिल कहे,बोल मधुर नित बोल।

भाषा ललित सुहावनी,हृदय- तराजू  तोल।।


बीता  आतप  जेठ  का,छाए घन  घनघोर।

पावस ऋतु सरसा रही, सुखद सुहानी भोर।


प्यासी धरती ने दिया ,आँचल अपना खोल।

बरसो  मेघा  जोर   से, पानी दो अनमोल।।


शीतल मन की चाँदनी, देती सुखद प्रकाश।

सोच समझ कर जो चले,होता नहीं निराश।


अहंकार  के  शीश  पर,बैठा सदा  विनाश।

गिरता पल भर में धरा,महल बना जो ताश।।


पावस के घन शून्य में,घिर आए चहुँ  ओर।

शीतल बही बयार नम,खेलें बाल   किशोर।।


नवल  दोंगरे  ने किए,हर्षित खेत  किसान।

आशाएं  जगने लगीं, होता सुखद विहान।।


🪴शुभमस्तु !


१६ जून २०२२◆११.००आ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


बुधवार, 15 जून 2022

पावस की अनुहार 🌈 [ दोहा ]


[ बदरी,बिजली,मेघ,चौमास, ताल ]

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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           ☘️ सब में एक  ☘️

दूर - दूर    आकाश  में, नीला निर्मल     रंग।

बदरी का टुकड़ा नहीं,नित आतप का  संग।

प्रभु बदरी जग पालते,ज्यों निज संतति मात

आठ प्रहर  चौंसठ घड़ी,दिन हो  चाहे  रात।।


याद तुम्हारी कौंधती,ज्यों बिजली घन बीच

करतीं उर में वास तुम,पंकज खिलता कीच

पावस   का   डंका बजा,है आषाढ़  सु-माह।

कौंध रही बिजली सखी,जल कर्षक की चाह


धरती  प्यासी मौन है, मेघ शून्य  नभ  नील।

व्याकुल  पंछी  नीड़ में,उड़ती ऊँची  चील।।

पावस ऋतु भी आ गई, विरहिन दुखीअपार

प्रिय सावन के मेघ-से, बरसाओ जल धार।।


विरहिन को विश्वास है,आए अब  चौमास।

पिया-आगमन हो तभी,मिटे हृदय की प्यास।

नारी यौवन मत्त है,निशिदिन प्रियतम आस।

अब यौवन चुभने लगा,आया जब चौमास।


पावस  ऋतु  रानी  बड़ी,भरे दोंगरा   ताल।

मेढक  वीर  बहूटियाँ, रेंगीं किए   बहाल।।

तली ताल की तृप्त हो,भरे हुए   सद  नीर।

जलचर  मोद  मना  रहे, गई पिपासा   पीर।।


           ☘️ एक में सब  ☘️

बदली, बिजली,मेघ से,

                         पावस की अनुहार।

ताल भरे  चौमास में,

                  षड  ऋतु का सुख सार।।


🪴 शुभमस्तु !


१५ जून २०२२◆ ५.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


बुधवार, 8 जून 2022

पर्यावरण और योग 🧘🏻‍♂️ [ दोहा ]

 

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 ✍️ शब्दकार ©

🧘🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अपना कचरा औऱ के , दरवाजे  पर  डाल।

पीछे मुड़ मत देखना,हो परिशुद्ध  मुहाल।।


रोपें   पौधा   एक    ही, फोटो खींचें   चार।

सुर्खी   में  हँसते हुए,  छपवाएँ  अखबार।।


क्षमता से ऊपर करें, जल - दोहन  हे  मीत।

कल देखा किसने यहाँ, रहना धरा  अभीत।।


पौधारोपण    के  लिए ,  दें सबको   उपदेश।

देशभक्त  बन   जाइए,पहन  बगबगे   वेश।।


नित्य मिलावट कीजिए, धनिए में  हो  लीद।

पैसा   ही  भगवान  है , दीवाली   या    ईद।।


एक  साल में  एक दिन,करें देह   से   योग।

रहे  निरोगी  देह ये, डटकर भोगें    भोग।।


रहिए  सदा   प्रसन्न  ही, जैसे शूकर    श्वान।

भाषण  भोंकें   नित्य ही, तेरा योग  प्रमान।।


कथनी - करनी में सदा, रखना  ही  है भेद।

जो कहना  करना  नहीं, भले हजारों  छेद।।


रटें  पहाड़ा  योग  का, योगी बना  न  एक।

मालपुआ  के  भोग में,लगता बुद्धि  विवेक।।


उलटासन  मुद्रा  बना, खींचें चित्र   अनेक।

बैठक   में  लटकाईए, परामर्श  यह   नेक।।


योग  और  पर्यावरण ,के ज्ञानी   का   देश।

जगत -गुरू यों ही नहीं, सीखें सीख  सुरेश।।


🪴 शुभमस्तु !


०८ जून २०२२◆९.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


बरसे स्वेद अबाध ☀️ [ दोहा ]

 

[पसीना,जेठ,अग्नि,ज्वाला,आतप]

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✍️शब्दकार ©

☀️ डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       🪸  सब में एक  🪸

बहे पसीना देह से,   आतप   जेठ  अषाढ़।

श्रम-जल के लावण्य में, उर- संतोष प्रगाढ़।।

देतीं    सुख  वे   रोटियाँ, बहे पसीना   देह।

पत्नी  बोले   प्रेम से, परिजन का  हो   नेह।।


जेठ मास  तपने लगा, प्यासी प्यास उदास।

हृदय  धरा का फट  रहा, सूख रही है घास।।

तप्त   हवाएँ   लू बनी, रूखा जेठ   कठोर।

पंछी   प्यासे   मर  रहे, मौन हुए  वन मोर।।


पाँच  तत्त्व में अग्नि का,देव  रूप  है  मीत।

भीतर  - बाहर  देह  के,गाता जीवन -गीत।।

प्रेम - अग्नि में जो तपा, कंचन बना विशुद्ध।

अपने को जो होम दे,त्यागी मनुज   प्रबुद्ध।।


सदा न ज्वाला दीखती, नयनों से अभिराम।

हवन - यज्ञ में सोहती, पावनता  का  काम।।

जठरानल ज्वाला नहीं,दृश्य नयन से मीत।

उदराशय  में  भासती,उष्ण न होती  शीत।।


पूस माघ आतप बड़ा, लगता सुखद अपार।

वही  जेठ   में  ताप  दे ,तपते देह    कपार।।

आतप देखा जेठ का,कर घूँघट - पट ओट।

बाला पथ पर जा रही,देखे बड़ा  न    छोट।।


    🪸  एक में सब  🪸

जेठ अग्नि - ज्वाला बड़ी,

                          आतप   देता   शूल।

बहे पसीना - धार भी,

                         चिपका  देह  दुकूल।।


🪴 शुभमस्तु !


०७ जून २०२२◆१०.३०पतनम मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...